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श्री
'सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
इनमें से किसी एक के भी न होने पर न तो हिंसा ही होती है और न कर्म का बंध ही। यहां जो पांच पद या विकल्प उल्लिखित हुएहैं, उनके बत्तीस भंग बनते हैं । उनमें प्रथम भंग का व्यक्ति ही हिंसक है अवशिष्ट इकतीस भंगों में हिंसा नहीं होती । कहा गया है कि प्राणी, प्राणी के अस्तित्त्व का ज्ञान, हंता की चैतासिक भूमि, उसकी तद् विषयक क्रिया और हन्यमान के प्राणों का वियोग इन पांच विकल्पों से हिंसा की निष्पत्ति होती है । प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि क्या परिज्ञोपचित-ज्ञान या जानकारी के साथ की गई प्रवृत्ति - हिंसा से कर्म का उपचय या बंध नहीं होता ? इस पर कहा जाता है इनसे जो कर्म बंधता है, वह अव्यक्त रूप लिये हुए होता है- बहुत अस्पष्ट या बहुत साधारण होता है । इसका दिग्दर्शन कराने के लिये आगमकार गाथा के उत्तरार्द्ध में बताते हैं कि केवल मानसिक व्यापार रूप परिज्ञोपचित कर्म - जानकारी के साथ किये गये कर्म तथा केवल दैहिक क्रिया द्वारा अविज्ञोपचित - जानकारी या ज्ञान के बिना किये गये कर्म तथा ईर्यापथिक एवं स्वप्नान्तिक कर्म - इन चार प्रकार के कर्मों से प्रवृत्त होने वाला व्यक्ति किंचित स्पर्श रूप कर्म का बंध करता है । इस नाते वह तत्कर्मा-उन कर्मों का कर्ता कहा जाता है, वह उन कर्मों का विपाक या फल स्पर्श मात्र अनुभव करता है, भोगता है। क्योंकि वह अधिकता लिये हुए नहीं होता। एक उदाहरण द्वारा इसे साफ किया जाता है कि जैसे दीवार पर यदि मुट्ठी भरकर बालू फेंकी जाती है तो वह दीवार को छूकर नीचे बिखर जातीहै, उसी प्रकार उपर्युक्त चारों प्रकार के कर्म स्पर्श मात्र के बाद ध्वस्त हो जाते हैं, इस दृष्टि से स्पर्श मात्र द्वारा परिभुक्त हो जाने के कारण उन कर्मों के उपचय का अभाव कहा जाता है परन्तु उसे अत्यन्ता भाव नहीं कहा जाता । इस प्रकार यों कहा जा सकता है कि वे चार कर्म अव्यक्त है, अपरिस्फुट हैं, अस्पष्टवत है। यहां आया हुआ 'खु' पद अवधारणा मूलक है। अतएव उपर्युक्त चारों प्रकार के कर्म अव्यक्त ही हैं क्योंकि उनका विपाक-फलानुभव स्पष्ट अनुभूत नहीं होता । अतएव अविज्ञोपचितादि कर्म अव्यक्त रूपेण सावद्य हैपाप पूर्ण हैं ।
संति मे तउ आयाणा, जेहिं कीरड़ पावगं । अभिकम्माय पेसाय, मणसा अणुजाणिया ॥ २६ ॥
छाया संतीमानि त्रीण्यादानानि, यैः क्रियतेपापकम् ।
अभिक्रम्य च प्रेष्य च मनसाऽनुज्ञाय ॥
अनुवाद - वे तीन आदान- हेतु या कारण है, जिनसे मनुष्य पाप कर्म करता है-किसी जीव का वध करने हेतु स्वयं उस पर हमला करना, प्रेष्य- नौकर आदि भेजकर उसकी हत्या करवाना तथा मन से हत्या करने की अनुज्ञा देना- अनुमोदन करना ।
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टीका' - ननु च यद्यनन्तरोक्तं चतुर्विधं कर्म नोपचयं याति कथंतर्हि कर्मोपचयो भवतीत्येतदाशङ्क्याहसंति विद्यन्ते अमूनि त्रीणि आदीयते स्वीक्रियते अमीभिः कर्मेत्यादानानि, एतदेव दर्शयति यैरादानैः क्रियते विधीयते निष्पाद्यते पापकं कल्भषं, तानि चामूनि तद्यथा - अभिक्रम्येति आभिमुख्येन वध्यं प्राणिनं क्रान्त्वा - तद्घाताभिमुखं चित्तं विधाय यत्र स्वत एव प्राणिनं व्यापादयति तदेकं कर्मादानं अथाऽपरं च प्राणिधाताय प्रेष्यं समादिश्य यत्प्राणिव्यापादनं तद्वितीयं कर्मादानमिति, तथाऽपरं व्यापादयन्तं मनसाऽनुजानीत इत्येतत्तृतीयं
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