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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् या असंगत होने के कारण तथ्य परक नहीं है, इसलिये ज्ञान के बदले अज्ञान ही उत्तम है, ज्ञान की परिकल्पना अपेक्षित नहीं है-अनावश्यक है । सूत्रकार आगे और स्पष्ट करते हैं कि समग्र लोक में जितने प्राणी हैं वे कुछ भी सम्यक् यथार्थ या ठीक ठीक नहीं जानते ।
मिलक्खू अभिलक्खूस्स, जहा वुत्ताणुभासए ।
ण हेउं से विजाणाइ, भासिअं तऽणुभासए ॥१५॥ छाया - मलेच्छोऽम्लेच्छस्य यथोक्ताऽनुभाषकः ।
न हेतुं स विजानाति भाषितन्त्वनुभाषते ॥ अनुवाद - एक मलेच्छ जन सम्पर्क रहित, संस्कार या शिष्टाचार वर्जित पुरुष, अम्लेच्छ-आर्य या उत्तम पुरुष के कथन का अनुवाद करता है, उसके पीछे पीछे बोल जाता है किन्तु उसके कथन या भाषण का क्या निमित्त है, किस प्रयोजन से वह वैसा करता है, इसे वह नहीं जानता। .
टीका - यद्यपि तेषां गुरुपारम्पर्येण ज्ञानमायातं तदपि छिन्नमूलत्वादवितथं न भवतीति दृष्टान्तद्वारेण दर्शयितुमाह - यथा मलेच्छ आर्यभाषाऽनभिज्ञः अम्लेच्छस्य आर्य्यस्य म्लेच्छ भाषानभिज्ञस्य यद् भाषितं तद् अनुभाषते, अनुवदति केवलं, न सम्यक् तदभिप्रायं वेत्ति, यथाऽनया विनक्षयाऽनेन भाषितमिति । न च हेतुं निमित्तं निश्चयेनाऽसौम्लेच्छस्तद्भाषितस्य जानाति केवलं परमार्थ शून्यं तद्भाषितमेवानुभाषत इति ॥१५॥
टीकार्थ - यद्यपि गुरु परम्परा से उन ब्राह्मणों एवं श्रमणों का अपना ज्ञान चला आ रहा है पर वह छिन्नमूल है, उसका कोई ठोस आधार नहीं है । इसलिये वह अवितथ या सत्य नहीं हो सकता। दृष्टान्त द्वारा आगमकार इसे निरूपित करते हैं -
___ जैसे एक म्लेच्छ जो आर्य की भाषा नहीं जानता-उस भाषा को नहीं समझता, वह म्लेच्छ भाषा को नहीं जानने वाले अम्लेच्छ या आर्य के भाषण का, उसकी बोली का केवल अनुवाद करता है, उसके पीछे पीछे वैसा बोल जाता है, किन्तु आर्य पुरुष की क्या विवक्षा है-वह क्या कहना चाहता है, किस आशय या अभिप्राय से उसे कहा है, वह इसे भलीभांति समझ नहीं पाता । इसी बात को पुनः कहते हैं कि वह म्लेच्छ यह नहीं जानता कि आर्य पुरुष ने निश्चित रूप से किस कारण को लेकर इस भाषा का प्रयोग किया है वह तो अर्थ ज्ञान से रहित केवल उसकी भाषा के शब्दों का अनुसरण मात्र करता है, वैसे ही शब्द बोल जाता
एवमन्नाणिया नाणं, वयंतावि सयं सयं । निच्छयत्थं न याणंति, मिलक्खुव्व अबोहिया ॥१६॥ छाया - एवमज्ञानिकाः ज्ञानं वदन्तोऽपि स्वकं स्वकम् ।
निश्चयार्थं न जानन्ति म्लेच्छा इवाबोधिकाः ॥
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