________________
स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
जाते हैं - अनेक प्रकार के अनर्थ, कष्ट, दुःख प्राप्त करते हैं। यहां गाथा में 'तू' शब्द का प्रयोग हुआ है वह अवधारणा-मूलक है । वे श्रमण किस प्रकार के हैं, सूत्रकार यह दिग्दर्शन कराते हैं, जिनकी दृष्टि मिथ्या-असम्यक् या सत्श्रद्धा के प्रतिकूल है - वे मिथ्यादृष्टि कहे जाते हैं । अज्ञानवादी तथा नियतिवादी मिथ्यादृष्टि हैं ।
जो पुरुष समस्त हेय या त्याज्य धर्मों से दूर रहते हैं, उन्हें आर्य कहा जाता है । जो आर्य नहीं हैं उन्हें अनार्य कहा जाता है अर्थात् जो अज्ञान से आवृत्त ढ़के हुए होने के कारण असत् - अशुभ अनुष्ठान कार्य में लगे रहते हैं वे अनार्य हैं । जिनकी पहले चर्चा की गई है वे अन्य मतवादी इसी अनार्य कोटि में आते हैं । आगमकार यह दिग्दर्शन कराते हैं कि वे अन्यान्य मतवादों में पड़े हुए पुरुष अज्ञान से ढ़के हुए हैं, वे ऐसे हैं कि जहां शंका नहीं की जानी चाहिये, जो शंका के योग्य नहीं हैं, इस प्रकार के उत्तम धार्मिक अनुष्ठानों में, कार्यों में वे शंकाशील बने रहते हैं तथा जो शंका करने योग्य है, जाल, फंदे आदि से युक्त हैं । अज्ञानी पुरुष की दृष्टि से जो एकान्तवाद के विपरीत सिद्धान्त से युक्त हैं । ऐसे स्थानों में शंका नहीं करते निशंक होकर जाते हैं, वे अन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले मृग के समान विवेक विकल हैं, अज्ञानी हैं। वे आरंभहिंसादि करते हैं जिसका फल अनर्थजनक होता है ॥१०॥
धम्मपण्णवणा जा सा, तं तु संकंति मूढगा । आरंभाई न संकंति अवियत्ता अकोविआ ॥११॥
छाया धर्मप्रज्ञापना या सा तान्तु शङ्कन्ते मूढ़काः ।
आरंभान्न शङ्कन्ते अव्यक्ता अकोविदाः ||
-
अनुवाद वे अन्यतीर्थी - जैन दर्शन के अतिरिक्त अन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले जो ज्ञान रहित, विवेक रहित और शस्त्र ज्ञान शून्य हैं वे धर्म की जो सही व्याख्या है, जो सत्य सिद्धान्त है, उनमें शंकाशील रहते हैं और आरम्भ हिंसा आदि में वैसे सिद्धान्तों में निशंक प्रवृत्त होते हैं ।
—
टीका
शंकनीयाशंकनीयविपर्य्यासमाह - धर्मस्य क्षान्त्यादिदशलक्षणोपेतस्य या प्रज्ञापना - प्ररूपणा तान्तु इति तामेव शङ्कन्तेऽसद्धर्मप्ररूपणेयमित्येवमध्यवस्यन्ति ये पुनः पापोपादानभूताः समारम्भास्तान्नशङ्कन्ते, किमिति ? यतोऽव्यक्ताः मुग्धाः सहजसद्विवेक विकलाः तथा अकोविदा अपंडिता: सच्छास्त्रावबोधर हिता इति ॥ ११ ॥
टीकार्थ शास्त्रकार शंकनीय- शंका करने योग्य और अशंकनीय-शंका नहीं करने योग्य धर्मों की पारस्परिक विपरीतता का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं -
क्षान्ति, क्षमाशीलता, सहनशीलता आदि जो दस लक्षण युक्त दस प्रकार के धर्म की जो प्रज्ञापना- प्ररूपणा या सैद्धान्तिक व्याख्या है, वे अज्ञानी उसमें शंकाशील रहते हैं। वे ऐसा मानते हैं कि यह धर्म की नहीं- अधर्म की प्ररूपणा-या विवेचना है । वे उन आरंभजनित - हिंसापूर्ण कार्यों में शंका नहीं करते जो पाप के उपादान भूत-अशुभ बन्ध के कारणभूत हैं । प्रश्न की शैली में वे कहते हैं वे वैसा क्यों करते हैं ? उत्तर रूप में बताते हैं कि वे स्वभाव से ही अव्यक्त - विवेक रहित - मुग्ध - मूढ़ और अयोग्य है । अपण्डित है- पंडा या बुद्धिरहित है । सत्शास्त्रों का ज्ञान नहीं है ।
69