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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः और अज्ञानवादी उनमें शंका नहीं करते, निशंकतया उन्हें अपनाएं रहते हैं । यों वे परित्राण करने वाले अनेकान्तवाद में आशंका रखते हुए उससे भयभीत रहते हुए उस दिशा में आगे न बढ़ते हुए एकान्तवाद-जो तर्क और युक्ति के विरुद्ध है, जो परिणाम में अनर्थोत्पादक है, उसको अशंकनीय-शंका विवर्जित सुरक्षित मानते हुए स्वीकार करते हैं, यों वे कर्म बन्धन के स्थानों में जाते हैं । (२)
अह तं पवेज बझं, अहे बज्झस्स वा वए । मुच्चेज पयपासाओ, तं तु मंदे ण देहए ॥८॥ छाया - अथ तं प्लवेत बन्ध मधो बन्धस्य वा व्रजेत् ।
मुच्चेत्पदपाशात्तत्तु मन्दो न पश्यति ॥ अनुवाद - पूर्वोक्त दृष्टान्त का आगे स्पष्टीकरण करते हुए कहा जाता है कि वह पूर्व वर्णित मृग यदि लगे हुए बंधन के ऊपर से कूद कर चला जाय अथवा बंधन के नीचे से चतुराई से निकल जाय तो वह उस बंधन से छूट सकता है किन्तु उस अज्ञानी की दृष्टि में यह बात नहीं आती । वह ऐसा नहीं करता।
टीका - पूर्वदोषैरपरितुष्यन्नाचार्यो दोषन्तरदित्सया पुनरपि प्राक्तन दृष्टान्तमधिकृत्याऽऽह - अथ अनन्तर मसौ मृगस्तत् 'वज्झ' मिति बद्धं बन्धनाकारेण व्यवस्थितं वागुरादिकं वा बन्धनं बंधकत्वाद् बंधमित्युच्यते तदेवभूतं कूटपाशादिकं बन्धनं यद्यसावुपरि प्लवेत तदधस्तादतिक्रम्योपरि गच्छेत, तस्य बादेर्बन्धनस्याधो (वा) गच्छेत् तत एवं क्रियमाणेऽसौमृगः पदे नाशः पदपाशो वागुरादिबन्धनं तस्मान्मुच्येत यदि वा पदं कूटं पाशः प्रतीतस्ताभ्यां मुच्येत, क्वचित्पदपाशादीति पठ्यते, आदिग्रहणाद् वध ताडनमारणादिकाः क्रियाः गृह्यन्ते, एवं संतमपि तमनर्थपरिहरणोपायं मंदोजडोऽज्ञानावृत्तो न देहतीति न पश्यतीति ॥८॥
टीकार्थ - शास्त्रकार पहले दृष्टान्त द्वारा दोषों का दिग्दर्शन कराते हैं । उससे उन्हें संतोष नहीं होता। इसलिये उस दृष्टान्त में ओर दोष दिखाने हेतु वे प्रतिपादन करते हैं -
वागुरा-फंदा, जाल आदि बंधन या बंध कहे जाते हैं । इनमें स्थित-पड़ा हुआ हिरन यदि कुछ कर इन्हें लांघ जाय अथवा चमड़े से बने उस बंधन के नीचे होकर वहां से निकल जाय तो वह उससे बच सकता है । यहां जो 'पद' शब्द आया है उसका एक अभिप्राय कपट भी है । पाश, बन्धन का नाम है जो प्रसिद्ध है । वह मृग इन दोनों से मुक्त हो सकता है अर्थात् कपटपूर्वक चालाकी के साथ पकड़ने के लिये लगाये गये फंदे से-जाल से वह छूट सकता है । कहीं कहीं 'पदपाशादि' ऐसा पाठ आया है। वहां 'आदि' का अभिप्राय वध-बांधना, ताड़ना-पीटना और मारण-जान लेना है । ये क्रियाएं वहां जुड़ती है । वह विवेक विकल अज्ञान युक्त मृग अनर्थ या संकट को दूर करने का उपाय विद्यमान होने पर भी उसे नहीं देखता ।
अहिअप्पाऽहियपण्णाणे, विसमंतेणुवागते
स ब्रद्धे पयपासेणं, तथ्य धायं नियच्छइ ॥९॥ छाया - अहिताऽत्माऽहितप्रज्ञानः विषमान्तेनोपागतः । ..
स बद्धः पदपाशेन तत्र घातं नियच्छति ॥
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