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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् संजाता येषुयोग्यत्वात्तानि शंकितानि शंङ्कायोग्यानि वागुरादीनि तान्यशंङ्कातनस्तेषु शंङ्कायकुर्वाणाः तत्र तत्र पाशादिके सम्पर्य्ययन्तइत्युत्तरेण सम्बन्धः ||६||
पुनरप्येतदेवातिमोहाविष्करणायाह - परित्रायत इति परित्राणं तज्जातं येषु तानि तथा, परित्राणयुक्तान्येव शङ्कमाना अतिमूढत्वाद्विपर्य्यस्तबुद्धयः त्रातर्य्यपि भयमुत्प्रेक्षमाणाः तथा पाशितानि पाशोपेतानि - अनर्थापादकान्यशङ्किनस्तेषु शंङ्कामकुर्वाणाः संतोऽज्ञानेन भयेन च संविग्गत्ति सम्यग् व्याप्ताः वशीकृताः शङ्कनीयमशङ्कनीयं वा तथा परित्राणोपेतं पाशाद्यनर्थोपेतं वा सम्यग् विवेकना जानानास्तत्र तत्रानर्थबहुले पाशवागुरादिके बन्धने सम्पर्य्ययन्ते सम् एकीभावेन परि समन्तादयन्ते यान्ति वा गच्छन्तीत्युक्तं भवति । तदेवं दृष्टान्तं प्रसाध्य नियतिवादाद्येकान्ताज्ञानवादिनो दान्तिकत्वेनाऽऽयोज्याः यतस्तेऽप्येकान्तवादिनोऽज्ञानिका स्त्राणभूताऽनेकान्तवादवर्जिताः सर्वदोषविनिर्मुक्तं कालेश्वरादिकारणवादाऽभ्युपगमेनानाशङ्कनीयमनेकान्तवादमाशङ्कन्ते, शङ्कनीयञ्च नियत्यज्ञानवादमेकान्तं न शङ्कन्ते ते एवंभूताः परित्राणार्हेऽप्यनेकान्तवादे शङ्का कुर्वाणा युक्त्याऽघटमानकमनर्थबहुलमेकान्तवाद मशङ्कनीयत्वेन गृणन्तोऽज्ञानावृत्तास्तेषु तेषु कर्मबन्धनस्थानेषु सम्पर्य्ययन्त इति ॥७॥
टीकार्थ - शास्त्रकार अज्ञानियों के सिद्धान्त में दोष बताने हेतु दृष्टान्त का प्रतिपादन करते हैंजैसे वेगवान तीव्र गतिशील हिरण आदि जंगली पशु परित्राण से वंचित होते हैं । परित्राण का व्युत्पत्तिलभ्य अर्थ परि-चारों ओर से, त्राण-रक्षा किया जाना है। पशुओं के लिये ऐसा कोई परित्राण या रक्षण का साधन नहीं होता । परित्राण का एक रूप परितान होता है । लगाम आदि बंधन को परितान कहा जाता है । उससे तर्जित भयग्रस्त पशु डर के कारण उद्भान्त लोचन और आकुलित हृदय हो जाते हैं अर्थात् उनकी आँखों में भय व्याप्त हो जाता है । उनका हृदय बेचैन हो जाता है। उन्हें सम्यक् विवेक भले बुरे का ज्ञान नहीं रहता । वे विवेक शून्य होते हैं । यही कारण है कि वे कूटपाश- बंधन आदि से वर्जित स्थान में जहां शंका नहीं की जानी चाहिये, जो निरापद होते हैं, उसमें वे शंका करते हैं । उनको वे अनर्थोत्पादक- अहित जनक मानते हैं तथा जिन स्थानों में शंका की जानी चाहिये, जहां उन्हें पकड़ने हेतु बंधन आदि लगे रहते हैं, रखे रहते हैं, वहां वे शंका नहीं करते - निडर होकर चले जाते हैं। वे वहां बन्धनों में बंध जाते हैं। आगे की गाथा से इसे यों जोड़ लेना चाहिये ।
सूत्रकार अज्ञानी की अति मोहयुक्त अवस्था को व्यक्त करने के लिये कहते
अत्यन्त मूर्खता के कारण विवेक शून्य या विपरीत ज्ञानयुक्त व्यक्ति सुरक्षित स्थान में शंका करते हैं भय की आशंका रखते हैं। जहां अनर्थोत्पादक कष्ट कारक पाश- फंदे, जाल, बन्धन आदि होते हैं वहां वे निशंक रहते हैं। उनकी तुलना उन पशुओं से की जाती है जो शंकनीय स्थानों पर शंका नहीं करते तथा अशंकनीय और रक्षायुक्त स्थान में शंका करते हैं। वे नहीं जानते कि उनके लिये कौन सा स्थान अनर्थकारक है । वे अपने अज्ञान या विवेकशून्यता के कारण जाल में फंदे में या बंधन में जा पड़ते हैं । यह दृष्टान्त नियतिवादी तथा एकांतरूपेण अज्ञानवादियों के साथ जोड़ना चाहिये । एकान्तवादी उन्हीं अज्ञानी पशुओं की ज्यों है जिनका यहां दृष्टान्तरूप में उल्लेख हुआ है । वे अज्ञानी पुरुष अनेकान्तवाद से जो रक्षा रूप है, रहित हैं । अनेकान्तवाद ऐसा दर्शन है जो सब प्रकार के दोषों से विनिर्मुक्त है- रहित है । अपेक्षा भेद से काल, ईश्वर आदि को भी कारण मानने के कारण शंकायुक्त नहीं है उसमें किसी प्रकार की आशंका नहीं होती, नियतिवाद तथा अज्ञानवाद ऐकान्तिक दृष्टिकोण को लिये हुए हैं। इसलिये वे शंकास्पद है- शंका करने योग्य है । फिर भी वे नियतिवादी
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