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श्री 'सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् है, वह मिलता ही नहीं। किसी किसी को तो सेवा आदि कार्य न करने पर भी विशिष्ट फल प्राप्त होता है। ऐसा हम जगत में देखते हैं । इससे यह साबित होता है कि पुरुषार्थ से उद्यम से कुछ भी प्राप्त नहीं होता किन्तु नियति से ही सुख आदि प्राप्त होते हैं । दूसरे श्लोक के अन्त में इस विषय में प्रतिपादित करेंगे ।
काल, सुख एवं दुःख आदि का कर्ता या विधायक हैं, यह भी संभव नहीं है क्योंकि काल में एक रूपत्व है - वह सदा एक ही रूप में रहता है । जगत में फल विचित्र - विभिन्न विभिन्न प्रकार के दिखाई देते हैं, काल की एक रूपता के कारण ऐसा नहीं हो सकता। जब कारण में भेद होता है तब तदनुरूप कार्य में भी भेद होता है। कारण में जब भेद नहीं होता तो कार्य में भेद नहीं आता । विरुद्ध धर्म का आश्रय लेना या कारण का भिन्न होना, इसी से भेद होता है-यही भेद का कारण है।
इसी प्रकार सुख एवं दुःख ईश्वर या परमात्मा द्वारा भी किये हुए नहीं है । प्रश्न उपस्थित होता है कि वह परमात्मा मूर्त्त-सशरीर शरीर सहित है अथवा अमूर्त-अशरीर या शरीर रहित है । यदि वह मूर्त्त - शरीर सहित है तब तो वह एक साधारण पुरुष जैसा है, उसी की ज्यों वह सब पदार्थों का कर्ता या निष्पादक नहीं हो सकता। यदि अमूर्त-शरीरवर्जित है तो फिर आकाश की ज्यों वह नितान्त क्रियाविहीन है। यदि वह परमात्मा हम लोगों के समान - सांसारिक लोगों की ज्यों रागयुक्त है तो वह जगत का कर्त्ता नहीं माना जा सकता । यदि वह विगतराग-रागवर्जित है तो वह सुभग, सुन्दर, सौम्य तथा दुर्भग, कुरुप भद्दा ईश्वर धन-सम्पन्न तथा दरिद्रनिर्धन रूप में इस विचित्र विविधतायुक्त जगत की सृष्टि नहीं कर सकता । इसीलिये ईश्वर सृष्टि कर्ता नहीं है ।
स्वभाव भी सुख दुःख का स्रष्टा नहीं हो सकता । एक प्रश्न उपस्थित होता है कि स्वभाव पुरुष से पृथक् है या अपृथक् है । यदि उसे पुरुष से पृथक् मानते हो तो यह साफ है कि वह पुरुष 1 के सुख तथा दुःख को उत्पन्न करने में समर्थ नहीं हो सकता क्योंकि उसका पुरुष से पार्थक्य है । यदि स्वभाव पुरुष से अपृथक् या अभिन्न हो तो वह एक प्रकार से पुरुष ही घटितहोता है, तथा वैसी स्थिति में वह सुख दुःख का स्रष्टा नहीं होता। इस संबंध में कहा भी जा चुका 1
कर्म भी सुख दुःख का स्रष्टा नहीं हो सकता क्योंकि यहां भी यह सवाल उठता है कि वह कर्म उससे भिन्न या पृथक् है अथवा अभिन्न या अपृथक् है । यदि कर्म को पुरुष से अभिन्न या अपृथक् माना जाय तब तो वह एक प्रकार से पुरुष ही है, अन्य नहीं । अतः उसमें सुख का तथा दुःख का कर्तृत्व सिद्ध नहीं होता । जैसे पहले बतलाया गया है कि उसमें कर्तृत्व मानने से दोष आता है । यदि वह कर्म पुरुष से पृथक् या भिन्न है, तो एक सवाल और खड़ा होता है कि वह सचेतन - चेतनायुक्त अथवा अचेतन-चेतनाविरहित है । यदि उसे सचेतन माने तो एक ही शरीर जीव तथा कर्म दो चेतन प्राणी हैं ऐसा मानना होगा । यदि कर्म चैतन्यरहित है तो वह पत्थर के खण्ड की ज्यों खुद भी पराधीन है - परतंत्र है सुख दुःख का स्रष्टा कैसे हो सकता है । आगे विस्तार से कहेंगे, इसलिये यहां अधिक कहना अपेक्षित नहीं है I
यहां ‘सैद्धिक' शब्द आया है । सिद्धि का तात्पर्य मोक्ष है जो सुख मोक्ष में उत्पन्न होता है उसे सैद्ध कहा जाता है । संसार का नाम असिद्धि है। संसार में असातावेदनीय कर्म के उदय होने पर जो दुःख आविर्भूत होता है उसे असैद्धिक कहा जाता है अर्थात् सांसारिक दुःख असैद्धिक हैं। अथवा इसे यों समझा जाना चाहिये कि सुख एवं दुःख ये दोनों ही सैद्धिक तथा असैद्धिक दो प्रकार के होते । पुष्प माला, चन्दन, सुन्दर रमणी
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