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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः । लिया जाता है । इसलिये वे सुखदुःख नियति कृत हैं ऐसा कहा जाता है । कई सुख दुःख ऐसे हैं जो नियतिकृत नहीं कहे जाते । वे किसी मनुष्य के अपने उद्यम, काल, अदृष्ट स्वभाव तथा कर्म आदि द्वारा निष्पन्न होते हैं । इस दृष्टिकोण को लेते हुए आर्हत-जैन धर्म में विश्वास करने वाले सुख दुःख आदि को किसी अपेक्षा से उद्यम साध्य भी स्वीकार करते हैं अर्थात् वे मानव के परिश्रम या प्रयत्न से होते हैं। इसका हेतु यह है कि कोई भी फल क्रिया से कुछ करने से निष्पन्न होता है-प्रकट होता है तथा क्रिया पुरुषार्थ या उद्यम पर आधारित है । इसीलिए कहा गया है कि जो दैव-भाग्य में लिखा है वही प्राप्त होगा, यह चिंतन कर किसी भी व्यक्ति को प्रयत्न करना नहीं छोड़ना चाहिये क्योंकि उद्यम या प्रयत्न करने से किसी को तिलों में भी तेल उपलब्ध नहीं हो सकता । नियतिवादी ने नियतानियतवाद पर दोषारोपण करते हुए जो कहा कि-अनेक व्यक्तियों का उद्यम या प्रयत्न यद्यपि समान होता है किन्तु फल में भेद या भिन्नता दिखाई देती है । जरा विचार करें, वास्तव में यह दोष नहीं है क्योंकि जितने लोग उद्यम करते हैं, वह उनकी क्षमता, परिस्थिति आदि के अनुसार विचित्रताभिन्नता लिये हुए होता है । जब उद्यम में भिन्नता होती है तो फिर फल अभिन्न कैसे हो सकता है ? एक समान प्रयत्न करने पर भी कुछ फल मिलता ही नहीं है यह उसके अदृष्ट-पूर्व में किये गये बाधक कर्मों का परिणाम है । वे दृष्टिगोचर नहीं होते इसलिये वह अदृष्ट कहा जाता है । जैन उसको भी सुख एवं दुः ख का कारण मानते हैं । इसी प्रकार काल भी एक दृष्टि से कर्तापन लिये हुए है जैसे वकुल, चम्पक, अशोक, फुन्नाग, नाग तथा आम्र आदि वृक्षों के एक ही समय-एक ही ऋतु में फल नहीं लगते । उनके फल आने का अपना पृथक् पृथक् समय है। काल के साथ विशेष रूप से वहां कर्मों का सहयोग घटित होता है। नियति ने अपना पक्ष प्रस्तुत करतेहुए जो यह कहा कि काल एक रूपात्मक है, अत: उससे वैचित्र्ययुक्त-विविधताओं से परिपूर्ण जगत उत्पन्न नहीं हो सकता । यह कहना हम लोगों पर दोष रूप में लागू नहीं होता क्योंकि हम केवल काल का ही कर्तृत्व स्वीकार नहीं करते अपितु कर्म का भी कर्तृत्व स्वीकार करते हैं । इसलिये कर्म की विचित्रता-विविधता के फलस्वरूप ही जगत् में विचित्रता या विविधता दृष्टिगोचर होती है इससे हमारे सिद्धान्त में कोई दोष नहीं आता । जो यह कहा गया कि ईश्वर जगत का कर्ता है, इस संबंध में हमारा यह प्रतिपादन कि आत्मा ही अपने कर्मों के अनुरूप भिन्न भिन्न प्राणियों के रूप में उत्पन्न होती है इस प्रकार एक अपेक्षा से वह सर्वव्यापक है, उसे ईश्वर भी कहा जा सकता है, वह आत्मा या ईश्वर ही सुख तथा दुः ख उत्पन्न होने का कर्ता है-वही अपने शुभ कर्मों द्वारा सुख और अंशुभ कर्मो द्वारा दुःख उत्पन्न करता है। संसार के सभी मतवादियों के सिद्धान्तों में इस संबंध में कोई विवाद नहीं है । सभी के दृष्टिकोणानुसार यह सिद्ध है । सुख एवं दुःख का कर्ता ईश्वर है इसको सदोष साबित करने के लिये, इसका खंडन करने के लिये नियतिवादी ने आत्मा मूर्त-आकारयुक्त है तथा अमूर्त-निराकार है, यह प्रश्न उठाते हुए दोष सिद्ध करने का प्रयास किया है । हम तो आत्मा को ही ईश्वर मानते हैं। उसके अतिरिक्त कोई भिन्न ईश्वर हमारे सिद्धान्तानुसार नहीं है । इसलिये यह दोष हम पर लागू नहीं होता । स्वभाव भी किसी एक अपेक्षा से कर्ता है क्योंकि आत्मा उपयोग स्वरूप है, असंख्य प्रदेशात्मक है । पुद्गल मूर्त हैं, धर्मस्तिकाय गति में सहायक है तथा अधर्मास्तिकाय स्थिति में सहायक है । ये अमूर्त हैं-ये सब स्थितियां-स्वभाव के द्वारा ही निष्पन्न होती हैं । नियतिवादी ने स्वभाव आत्मा से पृथक् है या अपृथक् इत्यादि कहकर स्वभाव के कर्तापन में जो दोषारोपण किया है-दोष दिखलाया है वह भी सिद्ध नहीं होता क्योंकि स्वभाव आत्मा से पृथक् नहीं है । यह हमने अंगीकार किया ही है कि आत्मा कर्ता है । इसलिये आत्मा का कर्त्तापन स्वभावजनित ही है । कर्म को भी जो कर्त्ता कहा
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