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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् नहीं करेंगे तो एक वस्तु समस्त वस्तुओं के रूप में परिणत होगी । इस प्रकार क्षणिकवाद या क्षणभंगवाद का चिन्तन संगत नहीं है । उस संबंध में विचार करना असंगत है, अतएव वस्तु या पदार्थ परिगमनशील है, इस अपेक्षा से वह अनित्य है । ऐसा मानना उचित है ।
यह आत्मा परिणामी-परिणमनशील है । ज्ञानाधार-ज्ञान का आधार स्वरूप है । यह भवान्तरगामी-अन्य भवों में जाने वाला-स्वकर्मवश नये जन्म प्राप्त करने वाला है । अतएव वह कथंचित-किसी अपेक्षा से भूतों से भिन्न है । वह देह के साथ अन्योन्य वेद द्वारा-परस्पर घुल मिल कर विद्यमान रहता है। इसलिये उससे अनन्य-अभिन्न भी है-पृथक् भी है । वह अपृथक् भी है । वह आत्मा नरक गति, तिर्यंचगति, मनुष्यगति और देवगति जिनसे प्राप्त होती है, उन कर्मों के द्वारा भिन्न भिन्न रूपों में परिवर्तित या परिणत होती है । अतः आत्मा अपने स्वरूप से प्रच्युत नहीं होती । उसके अपने स्वरूप का कभी नाश नहीं होता । इसलिये वह नित्य है और अहेतुक-कारणगत परिणमन से रहित है । इस प्रकार आत्मा देह से भिन्न है, यह साबित हो जाने पर भी यह मानना कि वह चार धातुओं से निर्मित है-शरीर मात्र है, यह तो उन्मत्त-पागल के प्रलपित-प्रलाप या असंगत भाषण की ज्यों है, जो एक बुद्धिमान पुरुष द्वारा अश्रव्य है-सुनने योग्य नहीं है।
अगारमावसंतावि अरण्णा वावि पव्वया ।
इमं दरिसणमावण्णा, सव्वदुक्खा विमुच्चई ॥१९॥ छाया - आगारमावसंतोऽपि आरण्या वाऽपि प्रव्रजिताः ।
__इदं दर्शनमापन्नाः सर्वदुःखात्प्रमुच्यते ।
अनुवाद - वे अन्य जैनेत्तर दर्शनों में विश्वास रखने वाले कहते हैं कि जो आगार-घर में रहते हैं, गृहस्थ हैं, जो वन में रहते हैं, वानप्रस्थ या तापस है, जो प्रव्रजित हैं-प्रव्रज्या या दीक्षा लेकर मुनि के रूप में परिणत हैं, उनमें से जो भी हमारे सिद्धान्तों को स्वीकार करते हैं, वे सब प्रकार के दुःखों से मिट जाते
टीका - साम्प्रतं पंचभूतात्माऽद्वैततज्जीव तच्छरीराकारकात्मषष्ठक्षणिकपंचस्कन्धवादिनामफलवादित्वं वक्तुकामः सूत्रकारस्तेषां स्वदर्शनफलाऽभ्युपगमं दर्शयितुमाह -
__ अगारं गृहं तद् आवसंतः तस्मिंस्तिष्ठन्तो गृहस्था इत्यर्थः आरण्या वा तापसादयः प्रव्रजिताश्च शाक्यादयः अपिः संभावने इदं ते संभावयन्ति यथा-इदम् अस्मदीपं दर्शनम् आपन्ना आश्रिताः सर्वदुःखेभ्यो विमुच्यन्ते आर्षत्वादेकवचनं सूत्रे कतुं, तथाहि-पंचभूततज्जीवतच्छरीरवादिनामयमाशयः -
___यथेदमस्मदीयं दर्शनं ये समाश्रितास्ते गृहस्था: संतः सर्वेभ्यः शिरस्तुण्डमुण्डन दण्डाजिनजटा काषायचीवरधारणकेशोल्लुञ्चननाग्न्यतपश्चरणकायक्लेशरूपेभ्यो दुःखेभ्यो मुच्यते, तथा चोचुः"तपांसि यातनाश्चित्राः संयमो भोगवञ्चनम् । अग्निहोत्रादिकं कर्म, बालक्रीडेव लक्ष्यतै" इतिसांख्यादयस्तु मोक्षवादिन एवं सम्भावयन्तियथायेऽस्मदीयं दर्शनमकर्तृत्वात्माऽद्वैत पंचस्कन्धादिप्रतिपादकमापन्नाःप्रवजितास्ते सर्वेभ्यो जन्मजरामरणगर्भपरम्पराऽनेक शारीरमानसातितीव्रतरासातोदयरूपेभ्यो दुःखेभ्यो विमुच्यते, सकलद्वन्द्वविनिर्मोक्षं मोक्षमास्कन्दन्तीत्युक्तं भवति ॥१९॥
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