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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् छाया - ते नाऽपि सन्धिं ज्ञात्वा, न ते धर्मविदोजना ।
ये ते तु वादिन एवं न ते मारस्य पारगाः ॥ अनुवाद - जैनेत्तर सिद्धान्तों में आस्थावान पुरुष संधि का स्वरूप नहीं समझते । कर्मबन्ध की प्रक्रिया का उन्हें ज्ञान नहीं होता । वे धर्म का स्वरूप नहीं जानते । मनमाने रूप में क्रियाओं में प्रवृत्त होते हैं । जैसा जंचता है, धर्म के नाम पर मनचाही क्रियाएं करते हैं । वे मृत्यु के पार नहीं जा सकते क्योंकि जो जन्म लेते हैं उन्हें अनिवार्यतः मरना होता है।
टीका - तथा च न ते वादिनः संसारगर्भजन्मदुःखमारादिपारगा भवन्तीति॥२१/२२/२३/२४/२५॥
टीकार्थ - २१ से २५ तक की गाथाओं का टीकाकार ने सार बताते हुए लिखा है कि जिनकी पहले चर्चा आई है वे मिथ्या सिद्धान्तवादी-असत्य की प्ररूपणा करते हैं । इसलिये वे इस संसार सागर में भटकते हैं, गर्भ में आते हैं, जन्म लेते हैं । तरह-तरह के कष्ट पाते हैं और अन्त में मर जाते हैं । यह क्रम चलता ही रहता है।
नाणाविहाइं दुक्खाइं अणुहोति पुणो पुणो ।
संसारचक्कवालंमि, मच्चुवाहिजराकुले ॥२६॥त्ति बेमि॥ छाया - नानाविधानि दुःखान्यनुभवन्ति पुनः पुनः ।
___ संसारचक्रवाले मृत्युव्याधिजराकुले ।इति ब्रवीमि॥ . अनुवाद - वे मिथ्या दर्शनवादी विभिन्न प्रकार के दुःखों को बार बार अनुभव करते हैं । मृत्यु व्याधि, रोग और जरा-वृद्धत्व से परिपूर्ण इस संसार में चक्कर काटते रहते हैं, भटकते रहते हैं ।
टीका - यत्पुनस्ते प्राप्नुवंति तद्दर्शयितुमाह - "नानाविधानि" बहुप्रकाराणि 'दुःखानि असातोदयलक्षणान्यनुभवन्ति पुनः पुनः । तथाहि-नरकेषु करपत्रदारण कुम्भीपाकतप्तायः शाल्मलीसमालिंग नादीनि तिर्यक्षुच शीतोष्णदमनाङ्क न ताडनाऽतिभारा रोपणक्षुत्तृडादीनि । मनुष्येषु, इष्ट वियोगानिष्टसंप्रयोगशोका क्रंदनादीनि। देवेषु चाभियोग्येया॑किल्विषिकत्वच्यवनादीन्यनेकप्रकाराणि दुःखानि ये एवंभूता वादिनस्ते पौन:पुन्येन समनुभवन्ति। एतच्च श्लोकार्धं सर्वेषूत्तर श्लोकार्थेष्वेवयोज्यम्, शेषं सुगमं यावदुद्देशक समाप्तिरिति ॥२६॥ ___टीकार्थ - पूर्व वर्णित मिथ्या सिद्धान्तवादी जो दुःख अनुभव करते हैं उसका दिग्दर्शन कराते हुए आगमकार कहते हैं -
वे असातोदय-प्रतिकूलवेदनीय के रूप में अनेक प्रकार के दुःखों का अनुभव करते हैं । वे नरकों में आरे द्वारा विदीर्ण किये जाते हैं । कुम्भीपाक में पकाये जाते हैं । गर्म लोहे में लपेट दिये जाते हैं-सटा दिये जाते हैं तथा उनको घोर कंटकपूर्ण शाल्मलि वृक्ष से लिपटाया जाता है । तिर्यंच योनि में उन्हें जन्म लेना पड़ता हैं। वहां सर्दी, गर्मी, दमन, पीड़ा, अंकन, गर्म लोहों से दागा जाना, ताडना-मारपीट तथा अतिभारारोपण-अत्यधिक भार लादा जाना इत्यादि कष्ट तथा भूख प्यास के कष्ट सहन करने पड़ते हैं । मनुष्य योनि में इष्टवियोग-प्रियजनों से, प्रिय वस्तुओं से वियोग-विरह, अनिष्ट संप्रयोग-अवांछित अनभिप्सित जनों से, पदार्थों से संयोग, शोक
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