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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम्
परिसमाप्तय्वसानेन दर्शयति-'ये ते त्विति ' तु शब्दश्चशब्दार्थे, य इत्यस्यानन्तरं प्रयुज्यते । ये च ते एवमनन्तरोक्तप्रकारवादिनो नास्तिकादयः, 'ओधो' भवौधः संसारस्तत्तरणशीलास्ते न भवन्तीति श्लोकार्थः ॥२०॥
टीकार्थ पूर्व वर्णित सिद्धान्तों में विश्वास करने वाले, फल को नहीं मानते । वे अफलवादी हैं, यह व्यक्त करने के लिये आगमकार कहते हैं
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पंच महाभूत आदि में विश्वास करने वाले उन सिद्धान्तों को प्रतिपादित करने वाले वादी संधि को नहीं जानते । संधि का अर्थ विवर छिद्र या छेद है । वह विवर- छिद्र द्रव्य और भाव की अपेक्षा से दो प्रकार का होता है - कुड्य-भित्ति या दीवार आदि में जो संधि होती है उसे द्रव्य संधि कहा जाता है। तथा ज्ञानावरणीय आदि कर्मों के रूप में जो संधि-छिद्र या उसका जोड़ होता है उसे भाव संधि कहा जाता है । वे पूर्व वर्णित अन्य सिद्धान्तवादी उस भाव संधि को न जानते हुए क्रिया में संलग्न है । वे कर्म बंध के स्वरूप को नहीं समझते हुए क्रियाएं करते हैं । यहाँ " णं" शब्द वाक्यालंकार में वाक्य सज्जा हेतु प्रयुक्त हुआ है । इसका तात्पर्य है कि आत्मा कर्मरहित कैसे हो सकता, कर्मों की संधि से कैसे पृथक् हो सकता है, यह जाने बिना ही दुःखों से छूटने के लिये उद्यत होते हैं- प्रयत्नशील होते हैं। वे अन्य दर्शनों में विश्वास करने वाले इस कोटि के हैं । यह संक्षिप्त रूप में पहले प्रतिपादित कर दिया गया है। आगे भी उसका यथा प्रसंग प्रतिपादन किया जायेगा ।
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इस गाथा के इस अंश का यों भी अर्थ होता है-संधि का अर्थ उत्तरोत्तर- आगे से आगे अधिक से अधिक पदार्थों का परिज्ञान प्राप्त करना है। वे अन्य दार्शनिक वैसे किये बिना ही अर्थात् पदार्थों का अधिकाधिक ज्ञान अर्जित किये बिना ही कर्म करने में उद्यत होते हैं । पुनः इसी बात को टीकाकार स्पष्ट करते हैं किपंचभूतवादी आदि इतर दर्शनों में विश्वासशील जन धर्म को भली भांति जानने में, उसकी वास्तविकता को समझने में समर्थ नहीं होते क्योंकि ये संधि को नहीं जानते उनको आत्मा के साथ कर्मों के जुड़ने की प्रक्रिया का बोध नहीं होता । क्षान्ति, क्षमाशीलता आदि धर्म के दस लक्षण हैं-धर्म इस प्रकार का है, वे इतर दार्शनिक धर्म के तत्त्व को जान नहीं पाते अतः वे धर्म के स्थान पर अन्यथा - जो धर्म नहीं है ऐसे तत्त्वों का निरूपण करते हैं- व्याख्यान करते हैं, किन्तु उन द्वारा व्याख्यात किये गये धर्म का धर्म के नाम पर बतलाई गई बातों का कोई फल नहीं होता, अतएव वे अफलवादी कहे गये हैं । उद्देशक के अंतिम आशय को लेते हुए आगमकार ‘ये ते त्विति' शब्द द्वारा उसका निरूपण करते हैं । यहाँ पर 'तुं' शब्द 'च' के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है । इसलिये 'ये' शब्द के अनन्तर उसे लगाना चाहिये । इस प्रकार इस गाथा का तात्पर्य यह है कि जिन मतों का पहले विवेचन हुआ है, उन्हें मानने वाले- उनका कथन करने वाले नास्तिक आदि इस संसार रूपी समुद्र को लांघ नहीं सकते अर्थात् संशय से जन्म मरण के आवागमन चक्र से विमुक्त नहीं हो सकते ।
ते णावि संधिं णच्चा णं, न ते धम्मविओ जणा । जेते उ वाइणो एवं न ते संसारपारगा ॥२१॥
छाया
ते नाऽपि सन्धिं ज्ञात्वा, न ते धर्मविदो जनाः । ये ते तु वादिन एवं न ते संसार पारगाः ॥
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