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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः
दुःख पूर्ण घटनाएं - आक्रन्दन- विविध दुःखों के परिणाम स्वरूप रूदन - विलाप आदि के रूप में पीड़ाएं प्राप्त करनी होती हैं । देव योनि में आभियोग्य-ऊँचे, नीचे, देवपदों के कारण नीचे पद वालों को व्यथा, ईर्ष्या, अनुत्तम क्रीडाएंविनोद और पुण्य क्षय के बाद पतन-ये अनेक प्रकार के दुःख वहां भोगने होते हैं । कहने का अभिप्राय यह है कि वे मिथ्या सिद्धान्तवादी बार-बार इन दुःखों का अनुभव करते हैं । इस गाथा के उत्तरार्द्ध को सभी गाथाओं के उत्तरार्द्ध के साथ योजित करना चाहिये । बाकी का सब समाप्ति पर्यन्त सुगम - सुबोध्य है ।
उच्चावयाणि
नायपुत्ते
छाया उच्चावचानि गच्छंतो गर्भमेष्यन्त्यनन्तशः ।
ज्ञातपुत्रो महावीर एवमाह जिनोत्तमः ॥
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गच्छंता, गब्भयेस्संति णंतसो । महावीरे, एवमाह जिणोत्तमे ॥२७॥
अनुवाद - ज्ञातपुत्र - ज्ञातवंशीय भगवान महावीर ने ऐसा प्रतिपादित किया कि पूर्व वर्णित मिथ्यादर्शनवादी उत्तम, अधम गतियों में भटकते हैं तथा पुनः पुनः गर्भ में आते हैं, जन्म लेते हैं और मरते हैं ।
टीका' - नवरम् "उच्चावचानी" ति अधमोत्तमानि नानाप्रकाराणि वासस्थानानि गच्छन्तीति, गच्छन्तो भ्रमन्तो गर्भाद् गर्भमेष्यंति यास्यन्त्यनन्तशो निर्विच्छेदमिति ब्रवीमीति सुधर्मस्वामी जम्बू स्वामिनं प्रत्याह- ब्रवीम्यहं तीर्थंकराज्ञया, न स्वमनीषिकया, स चाहं ब्रवीमि येन मया तीर्थंकरसकाशाच्छुतम् एतेन च क्षणिकवादिनिरासो
द्रष्टव्य ||२७||
इति समाख्यप्रथमाध्ययने प्रथमोद्देशकः समाप्तः ॥
टीकार्थ पूर्व प्रसंग का उपसंहार करते हुए आर्य सुधर्मा स्वामी श्री जम्बूस्वामी से कहते हैं कि जिनकी चर्चा की गई है वे अन्य सैद्धान्तिक अधम-नीची, उत्तम ऊंची, भिन्न भिन्न वास स्थानों में- योनियों में जाते हैं-भटकते हैं । एक गर्भ में आकर दूसरे गर्भ में जाते हैं । अनन्त काल तक अनवच्छिन्न रूप में यह क्रम चलता रहता है । आर्य सुधर्मा स्वामी जम्बू से कहते हैं कि जम्बू ! मैं वैसा ही बोलता हूँ जो तीर्थंकर द्वारा आज्ञप्त है उनकी आज्ञा में है । मैं अपनी मनीषा से बुद्धि से कुछ नहीं कहता। मैं वैसा ही कहता हूँ जैसा मैंने तीर्थंकर-धर्म तीर्थ की स्थापना करने वाले प्रभु महावीर से सुना है । इससे क्षणिकवाद का सिद्धान्त स्वयं निरस्त अथवा खंडित हो जाता है क्योंकि जिसने सुना, यदि क्षणिकवाद हो तो सुनने वाला उसी क्षण नष्ट हो गया । आज मैं जो बोल रहा हूँ, वह सुनने वाला कैसे हो सकता हूँ, किन्तु वस्तुस्थिति यह है कि सुनने वाला और कहने वाला मैं आज उसी रूप में विद्यमान हूँ। जो सुना, वह कह रहा हूँ । इससे क्षणिकवाद का सिद्धान्त मिथ्या सिद्ध होता है
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इस प्रकार समय नामक प्रथम अध्ययन का प्रथम उद्देशक समाप्त हुआ ।
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