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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् प्रतिवेध के अर्थ में माने तो यह तात्पर्य होगा कि विनाश का कारण मुद्गर आदि अभाव उत्पन्न करता है उसका क्या आशय होगा । वह किसी भाव को या वस्तु को उत्पन्न नहीं करता । इससे अभाव शब्द के द्वारा क्रिया का ही निषेध किया जाता है । मुद्गर आदि घट आदि किसी पदार्थ को निष्पन्न नहीं करते क्योंकि पदार्थ अपने ही करणों से उत्पन्न हुए हैं । यदि यों कहा जाय कि भावाभाव-भाव के अभाव को न होने को अभाव शब्द से अभिहित किया जाता है तो यो समझना चाहिये कि वह अभाव मुद्गर आदि द्वारा उत्पन्न किया जाता हो, ऐसा नहीं है क्योंकि अभाव अवस्तु दशा है, अरूप है । उसमें कारको का-कार्य उत्पन्न करने वालों का व्यापार-प्रयोग कैसे संभव हो सकता है । यदि अभाव के भी कारकों का उद्यम-प्रयत्न या प्रयोग हो तो ऐसा भी होना चाहिये कि वह गधे के भी सींग उत्पन्न कर सके किन्तु ऐसा कभी होता नहीं इसलिये विनाश के कारण मुद्गर आदि का कुछ भी कारकत्व नहीं है किन्तु अपने स्वभाव से ही पदार्थ अनित्य रूप में उत्पन्न होते हैं । अतएव उनके क्षणिक होने में कोई बाधा नहीं आती वस्तुतः वे क्षणिक हैं।
__ प्रस्तुत गाथा में जो 'तु' शब्द का प्रयोग हुआ है वह पहले जिनमतवादियों के सिद्धान्तों की चर्चा की है, उनसे प्रस्तुत मतवादी के सिद्धान्त का भेद ज्ञापित करने के लिये है, प्रस्तुत गाथा के उत्तरार्द्ध-आगे के आधे भाग-अगले दो चरणों में 'अण्णो अणण्णो' शब्दों के द्वारा प्रकट किया गया है । उसका आशय यह है कि सांख्यवादी जिस प्रकार पांच भूत और छठी आत्मा स्वीकार करते हैं तथा साथ ही साथ यह मानते हैं कि आत्मा भूतों से पृथक् नहीं है और चार्वाक आत्मा को पांच भूतों से अपृथक् या अभिन्न मानते हैं । बौद्ध इन दोनों की तरह ही आत्मा का अस्तित्व स्वीकार नहीं करते । सारांश यह है कि ये शरीर रूप में परिणत पांच भूतों से निष्पन्न अनादि, अनन्त, नित्य आत्मा को स्वीकार नहीं करते ।
पुढवी आउ तेऊ य, तहा वाऊ य एगओ ।
चत्तारि धाउणो रूवं, एव माहंसु आवरे ॥१८॥ छाया - पृथिव्यापस्तेजश्च तथा वायुश्चैकतः ।
चत्वारि धातोरूपाणि, एवमाहुरपरे । __ अनुवाद - बौद्धों की एक अन्य परम्परा में ऐसा माना जाता है कि पृथ्वी, जल, अग्नि और पवन ये चार धातु या धातु रूप है । जब ये चारों देह रूप में परिणत होकर एक हो जाते हैं तब वे जीव संज्ञा द्वारा अभिहित होते हैं।
टीका - तथाऽपरे बौद्धाश्चातुर्धातुकमिदं जगदाहुरित्येतद्दर्शयितुमाह-पृथिवी धातुरापश्च धातुस्तथा तेजो वायुश्चेति धारकत्वात्पोषकत्वाच्च धातुत्वमेषाम् 'एगओ' त्ति, यदैते चत्वारोऽप्येकाकारपरिणतिं विभ्रंति कायाकारतया तदा जीवव्यपदेशमश्नुवते । तथा चोचुः-"चातुर्धातुकमिदं शरीम्, न तद्व्यतिरिक्त आत्माऽस्ती" ति । 'एवमाहंसु यावरेत्ति' अपरे बौद्धविशेषा एवम् 'आहुः' अभिहितवन्त इति । क्वचिद् 'जाणगा' इति पाठः । तत्राऽप्ययमों 'जानका' ज्ञानिनो वयं किलेत्यभिमानाग्निदग्धाः सन्त एव माहुरिति सम्बन्धनीयम् । अफलवादित्वं चैतेषां क्रियाक्षण एव कर्तुः सर्वात्मना नष्टत्वात् क्रियाफलेन सम्बन्धाभावादवसेयम् । सर्वएव वा पूर्ववादिनोऽफलवादिनो द्रष्टव्याः कैश्चिदात्मनो नित्यस्याविकारिणोऽभ्युपगतत्वात् कैश्चित्त्वात्मन एवानभ्युपगमादिति । अत्रोत्तरदानार्थ प्राक्तन्येव
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