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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् विज्ञान, रस विज्ञान इत्यादि विज्ञान विज्ञानस्कन्ध कहे जाते हैं । पदार्थो के उदग्राहक-उद्बोधक या सूचक शब्द संज्ञा स्कन्ध कहे जाते हैं । पाप पुण्य आदि धर्म समुदय-समवाय संस्कार स्कन्ध कहे जाते हैं । इनसे व्यतिरिक्तपृथक् या भिन्न आत्मा नाम का पदार्थ प्रत्यक्ष रूप में अनुभव नहीं किया जाता है। उस आत्मा के साथ अव्यभिचारीनिर्दोष रूप में, नियत रूप में संबंध रखने वाला कोई लिंग भी-चिह्न भी या लक्षण भी प्राप्त नहीं होता । अतः अनुमान प्रमाण द्वारा भी आत्मा का ज्ञान नहीं हो सकता । प्रत्यक्ष और अनुमान के व्यतिरिक्त-उनके सिवाय उसे सत्य सिद्ध करने वाला अविसंवादी-अविपरीत-सत्य निरूपित करने वाला कोई तीसरा प्रमाण भी विद्यमान नहीं है । अतः वे अज्ञानी बालक की ज्यों पदार्थ के ज्ञान से रहित होकर उपर्युक्त रूप में कथन करते हैं, वे बतलाते हैं कि पांच स्कन्ध क्षणयोगी है । अत्यन्त निरुद्ध या सूक्ष्म काल को क्षण कहा जाता है । उस क्षण के साथ जो संबंध या योग होता है उसे क्षणयोगी के नाम से अभिहित करते हैं, जो पदार्थ उस क्षण के साथ जुड़ता है, संबद्ध होता है वह क्षणयोगी कहा जाता है । वह क्षण मात्र ही अवस्थित रहता है-टिकता है । बौद्ध अपने सिद्धान्त को साबित करने के लिये इस प्रकार प्रतिपादित करते हैं । वे प्रश्न' की भाषा में कहते हैंअपने कारणों से जो पदार्थ उत्पन्न होता है क्या वह नश्वर-विनाशशील स्वभाव लिये होता है या अनश्वरविनाश रहित स्वभाव युक्त होता है । यदि वह नाश रहित स्वभाव लिये उत्पन्न होता है तो पदार्थ में व्याप्त होकर निष्पन्न होने वाली अर्थक्रिया क्रमशः और एक साथ ही उत्पन्न हो सकती है अतएव व्यापक रूप उस अर्थ क्रिया का अभाव या नास्तित्व होने के कारण व्याप्य-व्याप्त होने योग्य उस पदार्थ का भी अस्तित्व नहीं रहेगा-अभाव होगा । जो अर्थ क्रिया कारी है-जो पदार्थ या वस्तु की क्रिया करने में समर्थ है वही वास्तव में सत् है-वह नित्य है । उसका स्वभाव विनश्वर नहीं होता। एक प्रश्न उपस्थित होता है । वह नित्य पदार्थ अर्थ क्रियाकारिता में प्रवृत्त होता है तो क्या वह एक साथ वैसा करता है या क्रमशः प्रवृत्त होता है । यदि ऐसा कहो कि वह क्रिया करने में क्रमशः प्रवृत्त होता है तो यह संगत नहीं है क्योंकि जिस काल में किसी एक क्रिया करने में जिसकी प्रवृत्ति होती है, जिसमें वह अपने को लगाता है वहां यह प्रश्न खड़ा होता है कि उस समय उसमें अपरक्रिया करण का-दूसरी क्रिया करने का स्वभाव विद्यमान होता है या नहीं । यदि कहो कि वैसा करने का स्वभाव विद्यमान होता है तो वह एक ही साथ अन्य क्रियाओं को भी क्यों नहीं निष्पन्न करता, क्यों वह उनको यथाक्रम या क्रमशः करता है । यदि ऐसा कहो कि उस दर्शन का क्रियमाण क्रिया के अतिरिक्त अन्य क्रिया करने का स्वभाव तो उस काल में विद्यमान रहता है, किन्तु उसकी क्रियाकारिता सहकारी कारणों के साथ जुड़ी है । इसलिये उनकी अपेक्षा से-जैसे-जैसे वे सहकारी कारण मिलते हैं, वह क्रमशः क्रियाएं करता है-एक साथ नहीं करता । ऐसा कहना भी समुचित नहीं है । यह बतलाये कि क्या वह सहकारीकारण उस वस्तु में कुछ अतिशय-विशेष बात पैदा करता है अथवा नहीं करता । यदि वह अतिशय उत्पन्न करता है तो क्या वह उसके पूर्ववर्ती स्वभाव का परित्याग कराकर उत्पन्न होता है या परित्याग कराये बिना ही उत्पन्न होता है । यदि पदार्थ के पूर्ववर्ती स्वभाव का परित्याग करा कर वह अतिशय उत्पन्न होता है तो उस पदार्थ में "अतादवस्त्य"-तदवस्था या अपनी पहली अवस्था या स्वभाव के न रहने के कारण अनित्य सिद्ध हो जाता है । वह नित्य नहीं हो सकता । यदि यों कहा जाय कि उस पदार्थ के पूर्व स्वभाव का परित्याग नहीं होता, तब सहकारीकारण द्वारा उसमें कोई अतिशय-वैशिष्ट्य का अभाव रहता है-उसमें कोई अतिशय उत्पन्न नहीं किया जा सकता । जब ऐसा है तो फिर सहकारी कारण की अपेक्षा ही क्या रह जाती है ? यदि यों कहा जाय कि सहकारी कारण यद्यपि अकिंचित्कर है-कुछ भी नहीं करता किन्तु ऐसा होने के बावजूद विशिष्ट कार्य के लिये उसकी अपेक्षा की जाती है, ऐसा कहना भी अयुक्तियुक्त है । कहा गया है -
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