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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् पर उसके गुण भी वहां नहीं हो सकते तथा घट आदि के रूप में उनके अभिधान-नाम भी नहीं हो सकते।
और घट बनाने की क्रिया में प्रवृत्त भी होते हैं जब घट न हो । घट निष्पन्न हो जाने पर वैसी प्रवृत्ति नहीं होती । इसलिये उत्पत्ति से पहले कार्य असत् हैं, ऐसा जानना चाहिये। सभी पदार्थ कथंचित-किसी अपेक्षा से नित्य और कथंचित-किसी अपेक्षा से अनित्य हैं, ऐसा समझना चाहिये। इसके अनुसार सत् असत् कार्यवाद का सिद्धान्त स्वीकार करना चाहिये । कहा गया है -
१. सभी व्यक्ति, वस्तुएं या पदार्थ प्रतिक्षण परिवर्तित होते रहते हैं किन्तु उनमें अन्यत्व या भेद प्रतीत नहीं होता । वे मूलतः, स्वरूपतः वैसे ही बने रहते हैं-इसका हेतु यह है कि पदार्थों का अपचय-हास और उपचयसंवर्द्धन या वृद्धि होता रहता है । अर्थात् वे घटते बढ़ते रहते हैं किन्तु उनकी आकृति और जाति सदैव व्यवस्थितस्थिर बनी रहती है । तथा कारण के साथ कार्य एकान्त रूप से अभिन्न नहीं है । कारण और कार्य में भेद की प्रतीति होती है पर उनमें एकान्त भेद भी नहीं है । क्योंकि कार्य में कारण अन्वित-अनुगत रहता है । अतः जिस घट का मृत्तिका के साथ भेद और अभेद मूलक संबंध है वह जात्यन्तरीय-अन्य जाति का पदार्थ है । वस्तु स्थिति यों बनती है ।।
पंच खंधे वयंतेगे वाला उ खण जोइणो । । अण्णो अणण्णो णेवाहु हेउयं च अहेउयं ॥१७॥ छाया - पंच स्कन्धान वदन्त्येके बालास्तु क्षणयोगिनः ।
अन्य मनन्यं नैवाहु हेतुकञ्चाहेतुकम् ॥ अनुवाद - कई अज्ञानी पांच स्कन्धों का प्रतिपादन करते हैं जो उनके अनुसार क्षण मात्र स्थायी है। पांच भूतों से अन्य-पृथक्, भिन्न तथा अनन्य-अपृथक्, अभिन्न आत्मा नहीं है । वह न हेतुक-कारण से उत्पन्न होती है तथा न अहेतुक-कारण के बिना ही उत्पन्न होती है, ऐसा उनका अभिमत है ।
टीका - साम्प्रतं बौद्धमतं पूर्वपक्षयन्नियुक्तिकारोपन्यस्तमफलवादाधिकारमाविर्भावयन्नाह - 'एके' केचन वादिनो बौद्धाः पंचस्कन्धान्वदन्ति' रूपवेदनाविज्ञान संज्ञासंस्काराख्या: पंचैव स्कन्धा विद्यन्ते नापरः कश्चिदात्माख्यः स्कन्धोऽस्तीत्येवं प्रतिपादयन्ति, तत्र रूपस्कन्धः पृथिवीधात्वादयो रूपादयश्च ? सुखा दुःखा अदुःखसुखा चेति वेदना वेदना स्कन्धः २ रूपविज्ञानं रसविज्ञानमित्यादिविज्ञानं विज्ञान स्कन्धः ३ संज्ञास्कन्धः संज्ञानिमित्तोद्ग्राहणात्मकः प्रत्ययः ४ संस्कारस्कन्धः पुण्यापुण्यादिधर्मसमुदाय इति ५ । न चैतेभ्यो व्यतिरिक्तः कश्चिदात्माख्यः पदार्थोऽध्यक्षणाध्यवसीयते, तदव्यभिचारिलिंगग्रहणाऽभावान् नाप्यनुमानेन, न च प्रत्यक्षानुमानव्यतिरिक्तमर्थाविसंवादि प्रमाणआन्तरमस्तीत्येवं बाला इव बालायथाऽवस्थितार्थपरिज्ञानात् बौद्धाः प्रतिपादयन्ति, तथा ते स्कन्धाः क्षणयोगिनः परमनिरुद्धः कालः क्षणः क्षणेन योग:-संबंधः क्षणयोगः स विद्यते येषां ते क्षणयोगिनः, क्षणमात्रावस्थायिन इत्यर्थः, तथा च तेऽभिदधतिस्वकारणेभ्यः पदार्थ उत्पद्यमानः किं विनश्वरस्वभाव उत्पद्यतेऽविनश्वर स्वभावो वा ? यद्यविनश्वरस्ततस्तद्वयापिन्याः क्रमयोगपद्याभ्यामर्थक्रियाया अभावात् पदार्थस्यापि व्याप्यस्याऽभावः प्रसजति, तथाहि यदेवार्थक्रियाकारि तदेव परमार्थतः सदिति, स च नित्योऽर्थ क्रियायां प्रवर्तमानः क्रमेण वा प्रवर्तेत यौगपद्येन वा ? न तावत् क्रमेण, यतो होकस्या अर्थक्रियायाः काले तस्यापरार्थ क्रियाकरणस्वभावो विद्यते
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