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श्री सूत्रकृताङ्ग सूत्रम् एतदप्ययुक्तं, यतो घटादीनां मुद्गरादिव्यापारानन्तरमेव विनाशो भवन् लक्ष्यते । ननु चोक्तमेवात्र तेन मुद्गरादिना घटादेः किं क्रियते ? इत्यादि, सत्यमुक्त मिदमयुक्तं तूक्तं, तथाहि-अभाव इति प्रसज्यपर्युदासविकल्पद्वयेन योऽयं विकल्पितः, पक्षद्वयेऽपि च दोषः प्रदर्शितः सोऽदोष एव । यतः पर्युदासपक्षे कपालाख्यभावान्तरकरणे घटस्य च परिणामानित्यतया तद्रूपतापत्तेः कथं मुद्गरादेर्घटादीन् प्रत्यकिंचित करत्वम् ? प्रसज्यप्रतिषेधस्तु भावं न करोतीति क्रियाप्रतिषैधात्मकोऽत्रनाश्रीयते किं तर्हि ? प्रागभावप्रध्वंसाभावेतरेतरात्यन्ताभावानां चतुर्णांमध्ये प्रध्वंसाभाव एवेहाश्रीयते।तत्र चकारकाणांव्यापारोभवत्येव,यतोऽसौवस्तुत: प-योऽवस्थाविशेषो नाभावमात्रं, तस्य चावस्थाविशेषस्य भावरूपत्वात्पूर्वोपर्देन च प्रवृत्तत्वाद् यएव कपालादेरूत्पादः स एव घटादेविनाश इति विनाशस्य सहेतुकत्व मवस्थितम्-अपि च कादाचित्कत्वेन विनाशत्य सहेतुकत्व मवसेयमिति । पदार्थ व्यवस्थार्थश्चावश्यमभाव चातुर्विध्यमाश्रयणीयम् । तदुक्तम्- "कार्य्यद्रव्यमनादि स्यात् प्रागभावस्यनिन्हवे प्रध्वंसस्य चाभावस्य प्रच्यवेऽनन्ततां व्रजेत्" ?
"सर्वात्मकं तदेकं स्यादन्यापोहव्यतिक्रमे इत्यादि । तदेवं क्षणिकस्य विचाराक्षमत्वात्परिणामानित्यपक्ष एव ज्यायानिति । एवञ्च सत्यात्मा परिणामी ज्ञानाधारोभवान्तरयायी, भूतेभ्यः कथंचिदन्य एव शरीरेण सहान्योऽन्यानुवेधादनन्योऽपि तथा सहेतुकोऽपि, नारकतिर्यङ्मनुष्यामरभवोपादानकर्मणा तथा तथा विक्रियमाणत्वात् पर्यायरूपतयेति । तथाऽऽत्मस्वरूपाप्रच्युतेर्नित्यवाद हेतुकोऽपीति । आत्मनश्च शरीर व्यतिरिक्तस्य साधितत्वात् 'चतुर्धातुक्रमात्रं, शरीर मेवेद् मित्येतदुन्मत्त-प्रलपितमपकर्णयितव्यमित्यलं प्रसंगनेति ॥१८॥
टीकार्थ – अन्य बौद्ध ऐसा मानते हैं कि यह जगत चार धातुओं से निष्पन्न है उसके सिद्धान्त का दिग्दर्शन कराने के लिये आगमकार कहते हैं -
पृथ्वी, जल, अग्नि और वायु इन्हें धातु कहा जाता है । शाब्दिक दृष्टि से यह तात्पर्य है कि ये चारों जगत को धारण करते हैं-जगत इन चारों पर टिका है । ये उसके आधार हैं । ये जगत का पोषण करते हैं, इसलिये इन्हें धातु कहा जाता है । जब ये चारों एकाकार परिणति प्राप्त करते हैं-परस्पर मिल कर शरीर के रूप में परिणत हो जाते हैं, तब जीव शब्द द्वारा इन्हें अभिहित किया जाता है । इसीलिये कहा गया है कि यह शरीर चार धातु से निष्पन्न है । उनके व्यतिरिक्त-उनसे पृथक्, कोई आत्मा नामक पदार्थ नहीं है यह एक अन्य परम्परा के बौद्धों का कथन है कहीं 'जाणगा' पाठ प्राप्त होता है, वहाँ यह अभिप्राय है-वे बौद्ध अपने ज्ञान का अभिमान करते हुए-अहंकार की अग्नि से दग्ध बने हुए, कहते हैं-हम बड़े जानकार हैं-ज्ञानी हैं। ये बौद्धमतानुयायी अफलवादी हैं-फल को नहीं मानते क्योंकि क्रिया करने के क्षण में ही इनके अनुसार कर्ता-क्रिया करने वाले का सर्वात्मना-सम्पूर्णरूपेण नाश हो जाता है, अतएव उस कर्ता द्वारा की गई क्रिया के फल के साथ अभाव रहता है-संबंध नहीं जडता यहां यह भी मानना चाहिये कि पहले जिनवादियों की चर्चा की गई है, वे सभी फल में विश्वास नहीं करते । उनमें से कोई नित्य अविकारी आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं । कई आत्मा का अस्तित्व ही नहीं मानते । यहाँ प्रस्तुत विषय का उत्तर देने के लिये या समाधान करने के लिये पहले कही गई 'को वेयइ' इत्यादि नियुक्ति गाथा का विश्लेषण किया जाता है ।
__यदि पांच स्कन्धों के व्यतिरिक्त कोई आत्मा संज्ञक पदार्थ विद्यमान नहीं है तो बतलाएं, आत्मा का अभाव होने से सुख-अनुकूल वेदनीय, दुःख-प्रतिकूल वेदनीय का अनुभव कौन करता है । आगे नियुक्ति की व्याख्या जैसे पहले की गई है, कर लेनी चाहिये-समझ लेनी चाहिये । यदि आत्मा का अभाव है-आत्मा नहीं
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