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स्वसमय वक्तव्यताधिकारः है तो संविदित-स्वतः अपने द्वारा जाने हुए सुख दुःख की अनुभूति कौन कर पायेगा - यह चिन्तन का विषय है । यदि यों कहा जाय कि यह सुख दुःखात्मक अनुभूति विज्ञान स्कंध का विषय है तो ऐसा प्रतिपादित करना संगत नहीं लगता क्योंकि विज्ञान स्कन्ध भी क्षणिक है- क्षण स्थायी है। ज्ञान क्षण अति सूक्ष्म होने के कारण सुख-दुःखात्मकता की अनुभूति नहीं कर पाता। ( जो पदार्थ क्रिया करता है तथा जो पदार्थ उसका फल पाता है, उन दोनों का अत्यन्त भेद होता है। वे परस्पर अत्यन्त संगत होते हैं। ऐसा होने से कृतनाश और अकृतागम नामक दोष, जिनकी पहले चर्चा की जा चुकी है, आपके मत में आ जाते हैं । यदि यों कहते हैं कि ज्ञानसंतान - ज्ञान का ताना बाना या सिलसिला एक है अतः ज्ञान संतान जो क्रिया करता है वही उसका फल भोग करता है, इसलिये वहां कृतनाश और अकृतागम दोष नहीं आते ऐसा कहना सुसंगत नहीं हैयुक्तियुक्त नहीं है । अतः उस ज्ञान संतान से भी कुछ फल निष्पत्ति नहीं होती । यदि यों कहा जाय कि पूर्व पदार्थ पूर्व क्षण, उत्तर पदार्थ उत्तर क्षण में अपनी वासना को आधारित या स्थापित करके नष्ट हो जाता है तो जैसा कि कहा गया है-जिस ज्ञान संतान में कर्म वासना आहित या अवस्थित रहती है-उसी में फल का संधान होता है उसी में फल पैदा होता है। उदाहरणार्थ जिस कपास में रक्तता - लालिमा होती है, उसी में फल पैदा होता है । यहां भी यह विकल्प उपस्थित होता है कि वह वासना क्या क्षणों से क्षणिक पदार्थों से पृथक् है, अथवा अपृथक् है । यदि पृथक् है तो उस वासना से वासकत्व उत्पन्न नहीं हो सकता । वह वासना उस क्षणिक पदार्थ को वासित नहीं कर सकती । यदि वह व्यतिरिक्त अपृथक् है, तो क्षण की ज्यों उस क्षणिक के समान वह भी क्षण भर में नष्ट हो जाने वाली है । इसलिये यदि आत्मा का अभाव है, अस्तित्व नहीं है, तो सुखदुःख का भोग नहीं हो सकता किन्तु वास्तविकता यह है कि इस जगत में सुख का, दुःख का परिभोग अनुभूत किया जाता है, अतएव आत्मा का अस्तित्व निश्चय ही सिद्ध होता है । यदि आत्मा का अस्तित्व न हो तो गंध, रूप, रस, स्पर्श एवं शब्द इन पांच विषयों का अनुभव होने के अनन्तर मैंने पांचों ही विषयों को जाना, यह संकलनात्मक ज्ञान प्राप्त नहीं होता क्योंकि प्रत्येक इन्द्रिय का ज्ञान अपने विषय से अन्यत्र - दूसरे स्थान पर या दूसरी इन्द्रिय के विषय तक नहीं जाता। यदि यों कहा जाय कि आलय विज्ञान द्वारा संकलनात्मकपांचों विषयों का एक साथ सामुदायिक ज्ञान हो जाता है, तो ऐसा कहकर आपने नामान्तर से आत्मा को स्वीकार कर लिया । बौद्ध आगमों में भी आत्मा का प्रतिपादन करने वाला आगम-शास्त्र पाठ है। जैसे एक प्रसंग पर जब बुद्ध के पैर में कांटा चुभ गया, जब भिक्षुओं ने पूछा- ऐसा क्यों हुआ, तब वे कहते हैं कि अबसे इक्यानवें कल्प पूर्व मैंने शक्ति - तीव्र धारदार नोंक वाले शस्त्र से एक पुरुष को आहत किया, हे भिक्षुओं ! उस कर्म 'फलस्वरूप मेरे पैर में यह कांटा गड़ा है। और भी कहा है- मानव द्वारा किये हुए अत्यन्त दारुण-निष्करुण या निर्दयतापूर्ण कर्म आत्मगर्हा से आत्म निन्दा या आत्मालोचन से हल्के हो जाते हैं। उनका प्रकाशन करने से-सबके सामने खुले रूप में बताने से उनके लिये प्रायश्चित और पश्चाताप कर लेने से पुनः उन्हें न करने से उनका सर्वथा मूलोच्छेद या नाश हो जाता है ।
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जो यह कहा गया कि पदार्थ क्षणिक है यह सिद्ध करने के लिये बौद्धों ने यह कहा कि अपने कारणों से जो पदार्थ उत्पन्न होता है कि वह पदार्थ नित्य उत्पन्न होता है या अनित्य उत्पन्न होता है, ऐसा विकल्प खड़ा करना समुचित नहीं है क्योंकि जो पदार्थ नित्य होता है वह उत्पत्ति और विनाश से रहित होता है । न वह उत्पन्न होता है और न वह मिटता है। वह स्थिर - सदा एक रूप में स्थित रहता है और एक स्वभावयुक्त होता है । अतः उसमें कारणों का व्यापार हो नहीं सकता । वह कारणों से असंबद्ध होता है, इसलिये नित्यत्व
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