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छक्खंडागम . अनन्तानुबन्धी चार कषायोंका भी बन्ध नहीं होता है, अतः सम्यग्मिथ्यादृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टि जीव शेष सत्तरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं। यहांपर भी यह ज्ञातव्य है कि उक्त दोनों जीव स्त्रीवेदका भी बन्ध नहीं करते हैं, किन्तु उसके नहीं बंधनेसे प्रकृतियोंकी संख्यामें कोई अन्तर नहीं पड़ता है। संयतासंयत जीव उक्त सत्तरह प्रकृतियोंमेंसे अप्रत्याख्यानावरण कषाय चतुष्कको छोड़कर शेष तेरह प्रकृतिक स्थानका बन्ध करते हैं। इन तेरह प्रकृतियोंमेंसे प्रत्याख्यानावरण चतुष्क को छोड़कर शेष नौ प्रकृतिक स्थानका बन्ध प्रमत्तसंयत, अप्रमत्तसंयत और अपूर्वकरणसंयत ये तीनों प्रकारके संयत करते हैं। पुरुषवेद और संचलनकषाय चतुष्क इन पांच प्रकृतिक स्थानका बन्ध अनिवृत्तिकरणसंयत करते हैं । पुनः पुरुषवेदको छोड़कर शेष संज्वलनचतुष्करूप चार प्रकृतिक स्थानका, उनमेंसे संचलन क्रोधको छोड़कर शेष तीन प्रकृतिक स्थानका, उनमेंसे संज्वलन मानको छोड़कर शेष दो प्रकृतिक स्थानका और उनमेंसे संज्वलन मायाको छोड़कर शेष एक प्रकृतिक स्थानका भी बन्ध नववें गुणस्थानवर्ती अनिवृत्तिकरण संयत ही करते हैं।
आयुकमकी चारों प्रकृतियोंके पृथक् पृथक् चार बन्धस्थान हैं- पहिला नरकायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टिका, दूसरा तिर्यगायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि और सासादन सम्यग्दृष्टिका, तीसरा मनुष्यायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि सासादनसम्यग्दृष्टि और असंयतसम्यग्दृष्टिका और चौथा देवायुको बांधनेवाले मिथ्यादृष्टि, सासादनसम्यग्दृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और सातवें गुणस्थान तकके संयतोंका है। तीसरे गुणस्थानवर्ती सम्यग्मिथ्यादृष्टि जीव किसी भी आयुका बन्ध नहीं करते हैं।
नामकर्मकी भेदविवक्षासे यद्यपि ९३ और अभेदविवक्षासे ४२ प्रकृतियां हैं, पर उन सबका एक जीवके एक साथ बन्ध नहीं होता। किन्तु अधिकसे अधिक ३१ प्रकृतियोंतकको कोई जीव बांध सकता है और कमसे कम एक प्रकृतितकको बांधता है। अतएव नामकर्मके बन्धस्थान आठ हैं- ३१, ३०, २९, २८, २६, २५, २३ और १ प्रकृतिक । इन सब स्थानोंकी प्रकृतियोंका और उनके बन्ध करनेवाले खामियोंका वर्णन विस्तारके भयसे यहां नहीं कर रहे हैं। पाठकगण इस चूलिकाका खाध्याय करनेपर स्वयं ही उसकी महत्ता और विशालताका अनुभव करेंगे। संक्षेपमें यहां इतनाही जानना चाहिए कि यशस्कीर्तिरूप एक प्रकृतिक स्थानका बन्ध दशम गुणस्थानवर्ती सूक्ष्मसाम्परायसंयतके होता है। शेष सात स्थानोंका बन्ध एकेन्द्रिय जीवोंसे लगाकर पंचेन्द्रिय तकके तिर्यंच, तथा देव-नारकी और नववें गुणस्थान तकके मनुष्य करते हैं ।
गोत्रकर्मके केवल दो ही बन्धस्थान है- उनमेंसे नीचगोत्रका बन्ध पहले और दूसरे गुणस्थानवाले जीव करते है । तथा उच्चगोत्रका बन्ध पहलेसे लेकर दश गुणस्थान तकके जीव करते हैं।
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