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प्रस्तावना
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२. स्थानसमुत्कीर्तनचूलिका प्रथम चूलिकाके द्वारा प्रकृतियोंकी संख्या और स्वरूप जान लेनेके पश्चात् यह जानना आवश्यक है कि उनमेंसे किस कर्मकी कितनी प्रकृतियां एक साथ बांधी जा सकती हैं और उनका बन्ध किन किन गुणस्थानोंमें सम्भव है। इसी विषयका प्रतिपादन इस चूलिकामें किया गया है । यहां कथनकी सुविधाके लिए चौदह गुणस्थानोंको छह भागोंमें विभक्त किया गया है- मिथ्यादृष्टि, सासादन सम्यग्दृष्टि, सम्यग्मिथ्यादृष्टि, असंयतसम्यग्दृष्टि, संयतासंयत और संयत । इनमेंके प्रथम पांचके नाम तो गुणस्थानके क्रमसे ही हैं , किन्तु अन्तिम नामके द्वारा छठे गुणस्थानसे लेकर ऊपरके उन सभी गुणस्थानोंका अन्तर्भाव कर लिया गया है, जहां तक कि विवक्षित कर्मप्रकृतियोंका बन्ध सम्भव है। ज्ञानावरणकर्मकी पांचों प्रकृतियोंके बन्धनेका एक ही स्थान है, क्योंकि मिथ्यादृष्टिसे लेकर दश गुणस्थान तक के सभी जीव उन पांचों ही प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं । दर्शनावरण कर्मकी नौ प्रकृतियोंके बन्धकी अपेक्षा तीन स्थान है- १ नौ प्रकृतिरूप, २ छह प्रकृतिरूप और ३ चार प्रकृतिरूप । इनमेंसे पहले और दूसरे गुणस्थानवी जीव नौ प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करते हैं। तीसरे गुणस्थानसे लेकर आठवें गुणस्थानके प्रथम भाग तक के संयत जीव स्त्यानगृद्धि, निद्रानिद्रा और प्रचला प्रचला इन तीन को छोड़कर शेष छह प्रकृतिरूप दूसरे गुणस्थानका बन्ध करते हैं। आठवें गुणस्थानके दूसरे भागसे लेकर दश गुणस्थान तक के संयत जीव निद्रा और प्रचला इन दो निद्राओंको छोड़कर शेष चार प्रकृतिरूप स्थानका बन्ध करते हैं । वेदनीयका एक ही बन्धस्थान है क्योंकि मिथ्यादृष्टिसे लेकर संयत तक के सभी जीव साता और असाता इन दोनों वेदनीय प्रकृतियोंका बन्ध करते हैं। मोहनीय कर्मके दश बन्धस्थान हैं२२, २१, १७, १३, ९, ५, ४, ३, २ और १ प्रकृतिक । मोहनीय कर्मकी सर्व प्रकृतियां २८ हैं, पर उन सबका एक साथ बन्ध सम्भव नहीं हैं। इसका कारण यह है कि एक समयमें तीन वेदोंमेंसे एक ही वेदका बन्ध होता हैं, अतः शेष दो वेद अबन्ध-योग्य रहते हैं। हास्य-रति और अरति-शोक इन दो जोड़ोंमेंसे एक साथ एकका ही बन्ध होता है, अतः एक जोड़ा अबन्ध-योग्य रहता हैं । तथा सम्यग्मिथ्यात्व और सम्यक्त्व प्रकृति इन दो प्रकृतियोंका बन्ध होता ही नहीं है, केवल उदय या सत्त्व ही होता है। अतः ये दो भी अबन्ध-योग्य रहती हैं। इस प्रकार इन छह प्रकृतियोंको छोड़कर शेष जो बाईस प्रकृतियां रहती हैं, उनका बन्ध मिथ्यादृष्टि जीव करता है । इन बाईसमेंसे मिथ्यात्वका बन्ध दूसरे गुणस्थानमें नहीं होता है । अतः शेष इक्कीस प्रकृतियोंका बन्ध सासादन सम्यग्दृष्टि करते हैं। यहां इतनी बात ध्यानमें रखनेकी है, कि दूसरे गुणस्थानमें नपुंसकवेदका बन्ध नहीं होनेपर भी बन्धनेवाली प्रकृतियोंकी संख्या इक्कीस ही बनी रहती है। क्योंकि पहले गुणस्थानमें तीन वेदोंमेंसे कोई एक वेद एक समयमें बंधता था, यहांपर नंपुसकवेदको छोड़कर शेष दो वेदोंमेंसे कोई एक वेद बंधता है। तीसरे और चौथे गुणस्थानमें
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