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Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir रस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय पोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्क स्कत वाहमय कोश संस्कत वाहमय कोश संस्था वाइमय कोश संस्कंतवाङ्मय कोश संकर वाइसय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृतवालय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाममय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वादमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत तस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाड्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कर स्कृत वाड्मय कोश संस्कृत बाईसव कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत उस्कृत बांदमय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृतवाड़मयकोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृतवाइमय कोश संस्कर स्कृत वाड्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोशसंस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाहमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत स्कृित वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाइमय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत वाङ्मय कोश संस्कृत
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संस्कृत वाङ्मय कोश
प्रथम खण्ड (ग्रंथकार)
संपादक डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर
डि.लिट्. अवकाश प्राप्त संस्कृत विभागाध्यक्ष, नागपुर विश्वविद्यालय
त भाषा
भारतीय
RERN
वरिषद
प्रकाशक भारतीय भाषा परिषद 36-ए, शेक्सपीयर सरणी
कलकत्ता-700017
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कृतज्ञता ज्ञापन
भारत सरकार के मानव संसाधन विकास मंत्रालय की आंशिक आर्थिक सहायता से प्रकाशित
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संपादक
डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर
प्रकाशक
भारतीय भाषा परिषद
36- ए, शेक्सपीयर सरणी
कलकत्ता - 700017
दूरभाष : 449962
प्रथम आवृत्ति 1100 प्रतियां
1988
मुखपृष्ठ जयंत गावली
मुद्रक अरविंद मार्डीकर
भाग्यश्री फोटोटाइपसेटर्स एण्ड ऑफसेट प्रिन्टर्स
262-सी, उत्कर्ष - अभिजित,
लक्ष्मीनगर, नागपुर - 440022
मुद्रण कार्य सहयोगी
प'पायुरस् प्रिंटींग एण्ड पॅकेजिंग प्राडक्टस्
(ऑल इंडिया रिपोर्टर लि. अंगीकृत)
व्यंकटेश ऑफसेट
एस्केज स्कॅनर
मॉडर्न बुक बाइंडिंग वर्क्स
प्रकाश बेलूरकर
हरिचंद मूरे
दिलीप गाठे
मूल्य 500 रुपये (दोनो खण्डों का एकत्रित मूल्य )
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प्रकाशकीय
___ "संस्कृत वाङ्मय कोश" भारतीय भाषा परिषद का सबसे महत्त्वपूर्ण और गरिमामय प्रकाशन है। परिषद ने अब तक के अपने सारे प्रकाशनों में एक समन्वयात्मक व सांस्कृतिक दृष्टि को सामने रखा। परिषद का पहला प्रकाशन 'शतदल' भारत की विभिन्न भाषाओं से संगृहीत सौ कविताओं का संकलन है जिनको हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत किया गया। इसके पश्चात् भारतीय उपन्यास कथासार और भारतीय श्रेष्ठ कहानियां इसी दृष्टि को आगे बढ़ाने वाली प्रशस्त रचनाएं सिद्ध हुई। कन्नड और तेलुगु से अनूदित “वचनोद्यान" और "विश्वम्भरा" इसी परम्परा के अंतर्गत हैं।
प्रस्तुत प्रकाशन “संस्कृत वाङ्मय कोश" सुरभारती संस्कृत में प्रतिबिंबित भारतीय साहित्य, संस्कृति, दर्शन और मौलिक चिंतन को राष्ट्र वाणी हिन्दी के माध्यम से प्रस्तुत करनेवाली विशिष्ट कृति है। संस्कृत वाङ्मय की सर्जना में भारत के सभी प्रान्तों का स्मरणीय तथा स्पृहणीय अवदान रहा है। इसलिए सच्चे अर्थों में संस्कृत सर्वभारतीय भाषा है। संस्कृत वाङ्मय जितना प्राचीन है, उतना ही विराट् है। इस विशालकाय वाङ्मय का साधारण जिज्ञासुओं के लिए एक विवरणात्मक ग्रंथ प्रकाशित करने का विचार सन् 1979 में परिषद के सामने आया। फिर योजना बनी। पर योजना को कार्यान्वित करने के लिए एक ऐसे विद्वान की आवश्यकता थी जो संस्कृत साहित्य की प्रायः सभी विधाओं के मर्मज्ञ हों, सम्पादन कार्य में कुशल हों, संकलन की प्रक्रिया में कर्मठ हों और साथ ही निष्ठावान् भी हों। जब ऐसे सुयोग्य व्यक्ति की खोज हुई तो विभिन्न सूत्रों से एक ही मनीषी का नाम परिषद के समक्ष आया और वह है - डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर।
परिषद पर वाग्देवी की जितनी कृपा है, उतना ही स्नेह उस देवी के वरद पुत्र डॉ. वर्णेकर का रहा। पिछले सात वर्षों से वे इस कार्य में निरंतर लगे रहे और ऋषितुल्य दीक्षा से उन्होंने इस कार्य को सुचारु रूप से सम्पन्न किया। उन्होंने यह सारा कार्य आत्म साधना के रूप में किया है और इसके लिए आर्थिक अर्घ्य के रूप में परिषद से कुछ भी नहीं लिया। यह परिषद का सौभाग्य है कि इतनी प्रशस्त कृति के लिए डॉ. वर्णेकर जैसे योग्य कृतिकार की निष्काम सेवा उपलब्ध हो सकी। इस गौरवपूर्ण प्रकाशन को सुरुचिपूर्ण समाज के सामने प्रस्तुत करते हुए भारतीय भाषा परिषद अपने को गौरवान्वित अनुभव करती है।
परमानन्द चूडीवाल
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वाङ्मुख
संसार का समस्त वाङ्मय परम शिव का वाचिक अभिनय है। मानव मन को उन्मुख बनाकर संग्रहणीय ज्ञान को संप्रसारित करनेवाला सारस्वत साधन ही वाक् है जो व्यक्ति को व्यक्त करने की शक्ति प्रदान करती है। वाक् कभी निरर्थक नहीं होती, सदा सार्थक और सशक्त रहती है। वाक् और अर्थ की प्राकृतिक प्रतिपत्ति का प्रापंचिक परिणाम ही वाङ्मय है। इसलिए प्रकृति जितनी पुरानी है, वाङ्मय भी उतना ही पुराना है। पर नित्य जीवन में नैसर्गिक रूप से निगदित इस वाङ्मय को निगमित, नियमित और नियंत्रित रूप में निबद्ध करने का पहला प्रयास निरुक्तकार और निघंटु-रचना के उन्नायक यास्क की 'समाम्नाय' भावना में पाया जाता है। इस प्रकार वाङ्मय कोश की सबसे प्राचीन और परिनिष्ठित परिकल्पना यास्क कृत "निघंटु" में परिलक्षित होती है।
यास्क से पूर्व भी निघंटु-रचना का प्रमाण मिलता है। शाकपूणि की रचना में शब्दों का संकलन और उनका प्रयोजन विवक्षा का विषय रहा। पर यास्क ने पहली बार निघंटु के साथ "निरुक्त" की परिकल्पना कर, शब्द को अर्थ का विस्तार दिया और अर्थ को शब्द का आश्रय दिलाया। आकार में लघु होने पर भी इस ग्रंथ का ऐतिहासिक महत्त्व है क्यों कि विश्व में उपलब्ध वाङ्मय में सबसे प्राचीन कोश होने का गौरव इसी ग्रंथ को प्राप्त है। यास्क से पूर्व "निघण्टु" शब्द का प्रयोग प्रायः बहुवचन में हुआ करता था--- जैसे “निघण्टवः” कस्मात्? “निगमा इमे भवंति-छांदोभ्यः समाहृत्य समानातास्ते निगंतव एव संतो निगमनान्निघण्टव उच्यते।" विशाल वैदिक साहित्य से निगमित पद-पदार्थ का वाङ्मय-भण्डार होने के कारण इनको निघण्टु कहा गया और यास्क के पश्चात् यह शब्द कोश के अर्थ में एकवचन में रूढ हो गया। आज भी कुछ भारतीय भाषाओं में शब्दकोश के अर्थ में "निघण्टु" शब्द का प्रयोग बहुधा प्रचलित है।
यास्क का "निरुक्त" कोश रचना की प्रक्रिया को एक नया आयाम प्रदान करता है। "निघण्टु" की शब्द-कोशीयता "निरुक्त" में ज्ञान-कोशीयता का रूप धारण करती है। शब्द का सही और पूरा ज्ञान प्राप्त करने से (केवल अर्थ ग्रहण करने से नहीं) उसके प्रयोग में अपने आप प्रवीणता प्राप्त होती है। शब्द को आधार बनाकर समस्त संग्रहणीय ज्ञान को उच्चरित करने की इसी प्रवृत्ति ने संस्कृत वाङ्मय में विश्वकोश अथवा ज्ञानकोश की रचनात्मक प्रक्रिया का बीज बोया। यास्क का “निरुक्त" संभवतः इस दिशा में पहला कदम था। आदि शंकराचार्य छांदोग्य उपनिषद् के भाष्य में नारद और सनत्कुमार के संवाद के प्रसंग में नारद द्वारा उल्लिखित अनेक विद्याओं में से एक 'देव-विद्या' की व्याख्या करते हुए उसको निरुक्त की संज्ञा देते हैं। इससे पता चलता है कि "निरुक्त" भावना के प्रति शंकर जैसे ब्रह्मवेत्ता के मन में कितना आदर था।
____ वास्तव में छांदोग्य-उपनिषद् के इस प्रकरण को पढ़ते समय ऐसा लगता है कि विश्व-कोश या ज्ञान-कोश की भावना के प्रथम प्रवर्तक नारद ही थे जो कि वेद, पुराण, कल्प, शास्त्र, विद्या आदि ज्ञान की विभिन्न शाखाओं में अपने को पारंगत मानते थे। फिर भी उनको भीतर से शांति नहीं थी क्यों कि उन्होंने सब कुछ पाया, पर आत्मा को नहीं पहचान पाया। इसी अभाव की ओर संकेत करते हुए सनत्कुमार कहते हैं : "तुम जो कुछ जानते हो, वह केवल नाम है" (यद्वै किंचिदध्यगीष्ठा नामैवैतत्)। तब नारद को पता चलता है कि "हम जिसको ज्ञान मान कर उसका समुपार्जन करते हैं और उस पर गर्व करते हैं, वह केवल नाम है।" नाम शब्द में समस्त लौकिक ज्ञान समाहित है। इसलिए संस्कृत वाङ्मय के प्राचीन कोशकारों ने नाम का आश्रय लेकर ज्ञान का प्रसार करने का स्पृहणीय कार्य किया है।
अमरसिंह का "नाम-लिंगानुशासन", जो "अमरकोश" के नाम से संसार भर में प्रसिद्ध है, इसी परंपरा की अगली कडी है और बहुत मजबूत कड़ी है। "अमर-कोश" पर लिखी गई पचास से अधिक टीकाएं इसकी लोकप्रियता, उपादेयता और प्रत्युत्पन्नता को प्रमाणित करती हैं। चौथी या पांचवी शती (ई.) में प्रणीत यह पद्यबद्ध रचना मूलतः पर्यायवाची शब्द कोश है, पर विश्व-कोश के प्रणयन की प्रेरणा बाद में इसी से मिली है। शाश्वत का "अनेकार्थ-समुच्चय", हलायुध-कोश के नाम से प्रसिद्ध “अभिधान-रत्नमाला" (दसवीं शती) यादवप्रकाश की "वैजयंती", हेमचन्द्र का "अभिधान-चिन्तामणि", महेश्वर (सन् 1111 ई.) के दो कोश "विश्वप्रकाश' और "शब्दभेद-प्रकाश", मंखक कवि का "अनेकार्थ" (बारहवीं शती) अजयपाल का "नानार्थ-संग्रह" (तेरहवीं शती), धनंजय की "नाममाला", केशव स्वामी का "शब्दकल्पद्रुम' (तेरहवीं शती), मेदिनिकर का "नानार्थ शब्द कोश"
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(मेदिनि कोश के नाम से प्रसिद्ध) (चौदहवीं शती) आदि अनेक कोश "अमर कोश" से प्रेरणा प्राप्त कर प्रणीत हुए। इनमें से अधिकांश पद्य बद्ध हैं। पर इनकी दृष्टि ज्ञान की अपेक्षा शब्द पर ही अधिक थी।
कोशकारों का ध्यान सामान्य ज्ञान की ओर आकृष्ट करनेवाला प्रथम प्रयास तर्कवाचस्पति तारानाथ भट्टाचार्य के “वाचस्पत्यम्" (1823) ने किया है। राजा राधाकांत देव का "शब्द-कल्पद्रुम" (1828-58) भी इसी दृष्टि से प्रस्तुत था, पर वाचस्पत्यम् का प्रमुख स्वर "वाक्" रहा जब कि शब्द कल्पद्रुम का विवेचन शब्द की परिधि से बहुत आगे नहीं बढ़ पाया। इतना तो स्पष्ट है कि "शब्द-कल्पद्रुम" के "शब्द" को "वाचस्पत्यम्" ने "वाक्" की विशाल परिधि में प्रसारित किया है। वास्तव में ये दोनों कोश अपनी-अपनी दृष्टि में शब्द-कोश और विश्व-कोश दोनों तत्त्वों को साथ लेकर रूपायित हुए हैं। साहित्य, व्याकरण, ज्योतिष, तंत्र, दर्शन, संगीत, काव्य-शास्त्र, इतिहास, चिकित्सा आदि अनेक विषयों का विवेचन न्यूनाधिक मात्रा में इन दोनों कोशों में समाविष्ट है। इस प्रकार शब्द कोश को वाङ्मय कोश बनाने का पहला भारतीय प्रयास इन दोनों कोशों में संपन्न हुआ है। यह प्रसत्रता की बात है कि मोनियर विलियम्स, विल्सन आदि पाश्चात्य तथा वामन शिवराम आपटे जैसे प्राच्य विद्वानों ने इस वाङ्मय शब्द-साधना को काफी आगे बढ़ाया। आपटे का "व्यावहारिक संस्कृत अंग्रेजी शब्द कोश" केवल शब्द-कोश नहीं है, बल्कि एक प्रकार से संस्कृत वाङ्मय कोश का ही प्रकारांतर है। इसमें शब्दों की व्याख्या करते समय कोशकार ने रामायण, महाभारत आदि प्रसिद्ध ग्रंथों के अतिरिक्त काव्य-साहित्य, स्मृति-ग्रंथ, शास्त्र-ग्रंथ, दर्शन-शास्त्र आदि संस्कृत वाङ्मय से संबंधित ज्ञान की विभिन्न शाखाओं का जो सोदाहरण परिचय दिया है, उससे स्पष्ट होता है कि यह केवल शब्द कोश नहीं है, बल्कि प्राच्य विद्या की पद-निधि है। जर्मन विद्वान डॉ. राथ एवं बोथलिंक द्वारा प्रणीत जर्मन कोश "वार्टर बच" (1858-75) में भी लगभग इसी प्रकार का प्रयास परिलक्षित होता है। वास्तव में वामन शिवराम आपटे को वाङ्मयनिष्ठ शब्द-कोश का प्रणयन करने की प्रेरणा "वाचस्पत्यम्" और "वार्टर बच" दोनों से मिली है जैसा कि उन्होंने अपने कोश की भूमिका में बड़ी विनम्रता के साथ स्वीकार किया है।
फिर भी संस्कृत में "वाङ्मय कोश" की आवश्यकता बनी रही। अंग्रेजी में "इनसाइक्लोपेडिया अमरीकाना (1829-33) आदि विश्व कोशों के स्वरूप के अनुरूप भारतीय भाषाओं में भी साहित्यिक तथा साहित्येतर विश्व-कोश धीरे धीरे बनने लगे हैं। इस शताब्दी के पूर्वार्ध में इस दिशा में जो कार्य हुआ, उसमें विश्वबन्धु शास्त्री का 'वैदिक शब्दार्थ पारिजात' (1929) प्रथमतः उल्लेखनीय है। इसके अतिरिक्त शास्त्री जी ने "वैदिक पदानुक्रम कोश" (सात खण्डों में) 'ब्राह्मणोद्धार कोश', 'उपनिषदुद्धार कोश' आदि की भी रचना की जो शब्द-कोश और विश्व-कोश के लक्षणों से युगपत् अभिलक्षित हैं। इस संदर्भ में चमूपति का 'वेदार्थ शब्द कोश', मधुसूदन शर्मा का 'वैदिक कोश', केवलानन्द सरस्वती का 'ऐतरेय ब्राह्मण आरण्यक कोश' और लक्ष्मण शास्त्री का 'धर्म शास्त्र कोश' विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। म.म.प. रामावतार शर्मा का "वाङ्मयार्णव" वर्तमान शताब्दी का महान कोश है जो सन् 1967 में प्रकाशित हुआ।
भारत की स्वाधीनता के पश्चात् लगभग सभी भारतीय भाषाओं में आधुनिक ज्ञान-विज्ञान से संबंधित संदर्भ-ग्रंथों का प्रणयन बड़ी प्रचुरता के साथ होने लगा और इसी प्रसंग में प्रायः प्रत्येक भारतीय भाषा में विश्व-कोशों की रचना हुई। तेलुगु भाषा समिति ने 1967 और 1975 के बीच में सोलह खंडों में 'विज्ञान सर्वस्वम्' के नाम से भाषा, साहित्य, दर्शन, इतिहास, भूगोल, भौतिकी, रसायन, विधि, अर्थशास्त्र, राजनीति आदि अनेक विषयों में विश्व-कोश का प्रकाशन किया। इसी प्रकार मलयालम में 1970 के आसपास 'विश्व विज्ञान कोशम्' का प्रकाशन हुआ। साहित्य प्रवर्तक सहकार समिति (कोट्टायम, केरल) ने यह कार्य सम्पन्न कराया। मराठी में पहले से ही कोश कला के क्षेत्र में स्पृहणीय कार्य हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात्. यह कार्य और अधिक निष्ठा के साथ सम्पन्न हुआ। पं. महादेव शास्त्री जोशी द्वारा संपादित "भारतीय संस्कृति कोश" विशेष रूप से उल्लेखनीय है। हिन्दी में नागरी प्रचारिणी सभा ने बारह खण्डों में 'हिन्दी विश्व कोश' का प्रकाशन किया। बंगीय साहित्य परिषद द्वारा 1973 के आसपास पांच खण्डों में प्रकाशित "भारत कोश" भी भारतीय साहित्य के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय है। साहित्य अकादेमी ने हाल ही में “इनसाइक्लोपेडिया आफ इंडियन लिटरेचर" के नाम से बृहत् प्रकाशन आरंभ किया है। अंग्रेजी के माध्यम से प्रकाशित साहित्य कोशों में इसका विशेष महत्त्व वहेगा। यह सारा कार्य विगत पच्चीस वर्षों में लगभग सभी भारतीय भाषाओं में समान रूप से सम्पन्न हुआ। पर विश्वकोश की इस अखिल भारतीय चिंतन धारा में संस्कृत तनिक उपेक्षित रही। संस्कृत साहित्य अथवा वाङ्मय को लेकर कोई विशेष और उल्लेखनीय प्रयास नहीं हुआ। फिर भी डा. राजवंश सहाय “हीरा" जैसे मनीषियों ने इस दिशा में उल्लेखनीय प्रयास अवश्य किया है। डा. हीरा के दो कोश "संस्कृत साहित्य कोश" और "भारतीय शास्त्र कोश" 1973 में प्रकाशित हुए। हिन्दी साहित्य
राजनीति आदि अनेक सर्वस्वम्' के नाम से
क्षेत्र में स्पृहणीय कार्य (कोट्टायम, केरल) -70 के आसपास वा
भारत कोश कोश' का प्रकाशन कि
ने हाल ही में
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सम्मेलन द्वारा दो खण्डों में प्रकाशित "हिन्दी साहित्य कोश" की भांति ये दोनों कोश संस्कृत वाङ्मय के जिज्ञासुओं के लिए अत्यन्त उपादेय सिद्ध हुए ।
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किन्तु समग्र संस्कृत वाङ्मय का विवेचन प्रस्तुत करनेवाले सर्वांगीण कोश का अब तक एक प्रकार से अभाव ही रहा। संस्कृत के प्रतिष्ठित विद्वान और समर्पित कार्यकर्ता डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर द्वारा सम्पादित इस महत्वपूर्ण ग्रंथ "संस्कृत वाङ्मय कोश" के माध्यम से इस अभाव को दूर करने का विनम्र प्रयास भारतीय भाषा परिषद कर रही है। यह परिषद का अहोभाग्य है कि इस अमोघ कार्य को सम्पन्न करने के लिए डॉ. वर्णेकर जैसे वाङ्मय तपस्वी की अनर्घ सेवाएं मिली हैं। विश्वविद्यालय की सेवा से निवृत्त होते ही परिषद के अनुरोध पर केवल वाङ्मय सेवा की भावना से प्रेरित होकर वे इस बृहद् योजना में प्रवृत्त हुए और पांच छह वर्षों में उन्होंने यह महान कार्य सम्पन्न किया। संस्कृत साहित्य और भारतीय संस्कृति के प्रकांड विद्वान, समालोचक, कवि और चिंतक होने के कारण डॉ. वर्णेकर इस दुष्कर कार्य को सुकर बना सके, अन्यथा संस्कृत वाङ्मय, संस्कृत के प्रसिद्ध कोशकार वामन शिवराम आपटे के शब्दों में, इतना विशालकाय है कि कोई भी व्यक्ति चाहे वह कितना भी मनीषी और मेधावी क्यों न हो, जीवन भर सश्रम अध्ययन करने पर भी समग्र रूप से इसमें निष्णात नहीं बन सकता । वैदिक वाङ्मय से लेकर अधुनातन सृजनात्मक रचना तक हजारों वर्षो से चली आ रही इस विराट् परंपरा को कोश की कौस्तुभ काया में समाविष्ट करना साधारण कार्य नहीं है और यही कार्य डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने किया है।
इस कोश के दो खण्ड हैं ग्रंथकार खण्ड और ग्रंथ खण्ड । प्रथम खण्ड (ग्रंथकार खण्ड) की पूर्व पीठिका के रूप में "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" के नाम से समस्त संस्कृत वाङ्मय के अंतरंग का दिग्दर्शन बारह प्रकरणों में किया गया है। प्रथम खण्ड में लगभग 2700 प्रविष्टियां हैं और द्वितीय खण्ड में 9000 से अधिक हैं । ग्रंथकार खण्ड के अंतर्गत ग्रंथों का भी संक्षिप्त परिचय देना आवश्यक होता है जब कि ग्रंथ खण्ड में उन्हीं ग्रंथों का विस्तार से विवेचन किया जाता है। इससे कहीं कहीं पुनरूक्ति का आभास हो सकता है। पर जहां तक संभव है, इससे कोश को मुक्त रखने का ही प्रयास किया गया है।
इस कोश की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें केवल संस्कृत साहित्य से संबंधित प्रविष्टियां ही नहीं, बल्कि धर्म, दर्शन, ज्योतिष, शिल्प, संगीत आदि अनेक विषयों पर संस्कृत में रचित विशाल तथा वैविध्यपूर्ण वाङ्मय का संक्षिप्त परिचय समाविष्ट है इसलिए यह केवल संस्कृत 'साहित्य' कोश न होकर सच्चे अर्थो में संस्कृत 'वाङ्मय' कोश है । इस दृष्टि से हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाओं में यह अपने ढंग का पहला प्रयास है ।
यह सारा कार्य निष्काम कर्मयोगी डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ने अर्थ-निरपेक्ष दृष्टि से सम्पन्न कर परिषद को मान-सम्मान प्रदान किया है, इसलिए वे सच्चे अर्थो में मानद और मान्य हैं ।
यह बात डॉ. वर्णेकर भी स्वीकार करते हैं और हम भी बड़ी विनम्रता के साथ निवेदित करना चाहते हैं कि इस कोश में संस्कृत वाङ्मय के संबंध में "बहुत कुछ" होने पर भी "सब कुछ" नहीं है । यह एक महान कार्य का शुभारंभ है जो कि न समग्र होने का दावा कर सकता है और न मौलिक कहा जा सकता है। यह ध्येयनिष्ठ और अध्ययन साध्य संकलन है जिसमें विवेक विनय का आश्रय लेकर विकास के पथ पर आगे बढ़ना चाहता है ।
इस महत्त्वपूर्ण प्रकाशन को यथोचित महत्त्व देकर स्तवनीय मनोदय से मुद्रण कार्य को सुरुचिपूर्ण ढंग से संपन्न कराने के लिए भाग्यश्री फोटोटाईपसेटर्स एण्ड ऑफसेट प्रिंटर्स, नागपुर के प्रति आभार प्रकट करना परिषद अपना कर्तव्य समझती है।
भारतीय भाषा परिषद 36- ए, शेक्सपीयर सरणी,
कलकत्ता-700 017
आशा है, संस्कृत के विद्वान, अध्येता, प्रेमी और आराधक इस साधना का स्वागत करेंगे और परिषद के इस प्रयास को अपने "परितोष" पूर्वक साधुवाद से सप्रत्यय बनाएंगे।
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पांडुरंग राव निदेशक
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संपादकीय उपोद्घात
प्रस्तावना :- सन् १९७९ जुलाई में नागपुर विश्वविद्यालय के संस्कृत विभागाध्यक्ष पद से अवकाश प्राप्त करने के बाद, पारिवारिक सुविधा के निमित्त, मेरा निवास बंगलोर में था। सेवानिवृत्ति के कारण मिले हुए अवकाश में अपने निजी लेखों के पुनर्मुद्रण की दृष्टि से संपादन अथवा पुनर्लेखन करना, संगीत का अपूर्ण अध्ययन पूरा करना, अथवा कुछ संकल्पित ग्रंथों का लिखना प्रारंभ करना आदि विचार मेरे मन में चल रहे थे।
इसी अवधि में एक दिन मेरे परम मित्र डॉ. प्रभाकर माचवे जी का कलकत्ता की भारतीय भाषा परिषद की ओर से एक पत्र मिला जिसमें परिषद द्वारा संकल्पित संस्कृत वाङ्मय कोश का निर्माण करने की कुछ योजना उन्होंने निवेदन की थी और इस निमित्त कुछ संस्कृतज्ञ विद्वानों की एक अनौपचारिक बैठक भी परिषद के कार्यालय में आयोजित करने का विचार निवेदित किया था। इसी संबंध में हमारे बीच कुछ पत्रव्यवहार हुआ जिसमें मैने यह भारी दायित्व स्वीकारने में अपनी असमर्थता उन्हें निवेदित की थी। फिर भी संस्कृत सेवा के मेरे अपने व्रत के अनुकूल यह प्रकल्प होने के कारण कलकत्ते में आयोजित बैठक में मैं उपस्थित रहा।
भारतीय भाषा परिषद के संबंध में मुझे कुछ भी जानकारी नहीं थी। कलकत्ते में परिषद का सुंदर और सुव्यवस्थित भवन इस बैठक के निमित्त पहली बार देखा । सर्वश्री परमानंद चूड़ीवाल, हलवासिया, डॉ. प्रतिभा अग्रवाल इत्यादि विद्याप्रेमी कार्यकर्ताओं से चर्चा के निमित्त परिचय हुआ। सभी सज्जनों ने संकल्पित "संस्कृत वाङ्मय कोश" के संपादक का संपूर्ण दायित्व मुझ पर सौंपने का निर्णय लिया। इस बैठक में आने के पूर्व मेरे अपने जो संकल्प चल रहे थे, उन्हें कुण्ठित करने वाला यह नया भारी दायित्व, जिसका मुझे कुछ भी अनुभव नहीं था, स्वीकारने में मैने अपनी ओर से कुछ अनुत्सुकता बताई। मेरी सूचना के अनुसार संपादन में सहाय्यक का काम, वाराणसी के मेरे मित्र पं. नरहर गोविन्द बैजापुरकर जो उस बैठक में आमंत्रणानुसार उपस्थित थे, पर सौंपने का तथा संस्कृत वाङ्मय कोश का कार्यालय वाराणसी में रखने का विचार मान्य हुआ। वाराणसी में इस प्रकार के कार्य के लिए आवश्यक मनुष्यबल तथा अन्य सभी प्रकार का सहाय मिलने की संभावना अधिक मात्रा में हो सकती है, यह सोचकर मैंने यह सुझाव परिषद के प्रमुख कार्यकर्ताओं को प्रस्तुत किया था। इस कार्य में यथावश्यक मार्गदर्शन तथा सहयोग देने के लिए, यथावसर वाराणसी में निवास करने का मेरा विचार भी सभा में मंजूर हुआ। मेरी दृष्टि से कोशकार्य का मेरा वैयक्तिक भार, इस योजना की स्वीकृति से कुछ हलका सा हो गया था।
हमारी यह योजना काशी में सफल नहीं हो पाई। 8-10 महीनों का अवसर बीत चुका। परिषद की ओर से दूसरी बैठक हुई जिसमें काशी का कार्यालय बंद करने का और मेरा स्थायी निवास नागपुर में होने के कारण, नागपुर में इस कार्य का “पुनश्च हरिःओम्" करने का निर्णय हमें लेना पड़ा।
दिनांक 1 अप्रैल 1982 को नागपुर में कोश का कार्यालय शुरू हुआ। इस अभावित दायित्व को निभाने के लिए “मित्रसंप्राप्ति" से प्रारंभ हुआ। वाराणसी और नागपुर में सभी दृष्टि से बहुत अंतर है। काशी की संस्कृत परंपरा अनादिसिद्ध है। नागपुर की कुल आयु मात्र दो-ढाइसौ वर्षों की है। कोश हिन्दी भाषा में करना था। नागपुर की प्रमुख भाषा मराठी है। पुराने द्वैभाषिक मध्यप्रदेश की राजधानी जब तक नागपुर में रही, तब तक हिन्दी का प्रचार और प्रभाव कुछ मात्रा में दिखाई देता था। अतः हिन्दी भाषा के विशेषज्ञ सहकारी नागपुर में मिलना सुलभ नहीं था। नागपुर की अपनी सीमित सी संस्कृत परंपरा भी है परंतु हिन्दी भाषी अथवा हिन्दी ज्ञानी संस्कृतज्ञ उनमें नहीं के बराबर हैं। स्वयं मैं हिन्दी में लेखन भाषण आदि व्यवहार कई वर्षों से करता हूँ, परंतु हिन्दी भाषा या साहित्य का विधिवत् अध्ययन मैने कभी नहीं किया। कहने का तात्पर्य, नागपुर में संस्कृत वाङ्मय कोश का संपादन और वह भी हिन्दी माध्यम में करना, मेरे लिए जमीन पर नाव चलाने जैसा दुर्घट कार्य था। नागपुर में इस कार्य में जिनका सहकार्य मुझे मिल सका वे हैं - प्र.मु.सकदेव, ना.ग.वझे, डॉ.लीना रस्तोगी, डॉ. कुसुम पटोरिया, डॉ. गु.वा.पिंपळापुरे, डॉ. भागचंद्र जैन, सत्यपाल पटाईत, पद्माकर भाटे, ना.गो.दीक्षित, श्रीमती उषा महांकाल, श्रीमती शोभा
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देशपांडे इन सभी सहायकों का मैं हृदय से आभारी हूं। लेखकों के हस्तलिखित सामग्री का टंकन करने का कार्य मेरे मित्र श्री. नत्थूप्रसाद तिवारी तथा श्री. रोटकर ने नित्य नियमितता से किया।
इस संपादन कार्य के लिए विविध प्रकार के ग्रंथों की आवश्यकता थी। सभी ग्रंथ खरीदना असंभव और अनुचित भी था। परिषद की ओर से कुछ ग्रंथ खरीदे गए। बाकी ग्रंथों का सहाय नागपुर के सुप्रसिद्ध हिन्दु धर्म संस्कृति मंडल तथा भोसला वेदशास्त्र महाविद्यालय, तथा अन्य व्यक्तियों एवं ग्रंथालयों से यथावसर मिलता रहा।
कोश का सामान्य स्वरूप
___ कोश संपादन एक ऐसा कार्य है कि जिसमें स्वयंप्रज्ञा का कोई महत्त्व नहीं होता। संपादक को अपनी जो भी प्रविष्टियां लेनी हो अथवा उन प्रविष्टियों में जो भी जानकारी संगृहीत करनी हो, वह सारी पूर्व प्रकाशित ग्रंथों के माध्यम से संचित करनी पड़ती है। इस दृष्टि से प्रस्तुत कोश के संपादन के लिए अनेक पूर्वप्रकाशित मान्यताप्राप्त विद्वानों के कोश तथा वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथों का आलोचन किया गया। उन सभी ग्रंथों का निर्देश संदर्भ ग्रंथों की सूची में किया है। पूर्व सूरियों के अनेकविध ग्रंथों से उधार माल मसाला लेकर ही कोश ग्रंथों का निर्माण होता है। तदनुसार ही इस संस्कृत वाङ्मय कोश की रचना हुई है। इसमें हमारी कोई मौलिकता नहीं। संकलन, संक्षेप, संशोधन एवं संपादन यही हमारा इसमें योगदान है।
संस्कृत वाङ्मय की शाखाएं विविध प्रकार की हैं। उनमें से अन्यान्य शाखाओं में अन्तभूर्त ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का पृथक्करण न करते हुए, एकत्रित तथा सविस्तर परिचय देनेवाले विविध कोश तथा ऐतिहासिक और साहित्यिक दृष्टिकोन से विवेचन करने वाले तथा परिचय देने वाले वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथ, पाश्चात्य संस्कृति का संपर्क आने के पश्चात्, पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों ने निर्माण किए हैं। उन ग्रंथों में उन वाङ्मय शाखाओं के अन्तर्गत ग्रंथ तथा ग्रंथकारों का सविस्तर परिचय मिलता है। प्रस्तुत कोश के परिशिष्ट में ऐसे अनेक कोशात्मक तथा इतिहासात्मक ग्रंथों के नाम मिलेंगे।
प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश की यह विशेषता है कि इसमें संस्कृत वाङ्मय की प्रायः सभी शाखाओं में योगदान करने वाले ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का एकत्र संकलन हुआ है। इस प्रकार का "सर्वंकष" संस्कृत वाङ्मय कोश करने का प्रयास अभी तक अन्यत्र कहीं नहीं हुआ। इस वाङ्मय कोश में विविध प्रकार की त्रुटियां विशेषज्ञों को अवश्य मिलेगी। हमारी अपनी असमर्थता के कारण हम स्वयं उन त्रुटियों को जानते हुए भी दूर नहीं कर सके। फिर भी उन त्रुटियों के साथ इस ग्रंथ की यही एक अपूर्वता हम कह सकते हैं कि यह संस्कृत के केवल ललित अथवा दार्शनिक शास्त्रीय या वैदिक साहित्य का कोश नहीं अपि तु उन सभी प्रकार के ग्रंथों तथा उनके विद्वान लेखकों का एकत्रित परिचय देने वाला हिन्दी भाषा में निर्मित प्रथम कोश है।
इसके पहले इस प्रकार का प्रयास न होने के अनेक कारण हो सकते हैं। उनमें पहला कारण यह है कि भारतीय भाषा परिषद जैसी दूसरी कोई संस्था इस प्रकार का कार्य करने के लिए उद्युक्त नहीं हुई। दूसरा कारण यह भी हो सकता है कि आज 20 वीं शती के अंतिम चरण में जितने विविध प्रकार के कोश, इतिहास, शोधप्रबंध इत्यादि उपकारक ग्रंथ उपलब्ध हो सकते हैं, उतने 1960 के पहले नहीं थे। अब इस दिशा से संस्कृत वाङ्मय के विविध क्षेत्रों में पर्याप्त कार्य नए विद्वान कर रहे हैं। हो सकता है कि इसी कोश के संशोधित और सुधारित आगामी संस्करण का कार्य करनेवाले भावी संपादक, यहां की सभी प्रविष्टियों के अन्तर्गत अधिक जानकारी (और वह भी दोषरहित) देकर, संस्कृत वाङ्मय कोश की इस नई दिशा में अधिक प्रगति अवश्य करेंगे। संस्कृत वाङ्मय की विविध शाखाओं एवं उपशाखाओं के अन्तर्गत अधिक से अधिक ग्रंथकारों तथा ग्रंथों का आवश्यकमात्र परिचय संक्षेपतः संकलित करने का प्रयास, इस कोश के संपादन में अवश्य हुआ है।
अति प्राचीन काल से लेकर 1985 तक के प्रदीर्घ कालखंड में हुए प्रमुख ग्रंथों और ग्रंथकारों को कोश की सीमित व्याप्ति में समाने का प्रयास करते हुए इसमें अपेक्षित सर्वंकषता नहीं आ सकी, तथापि सभी वाङ्मय शाखाओं का अन्तर्भाव इसमें हुआ है। वैसे देखा जाए तो प्रविष्टियों में दिया हुआ परिचय भी संक्षिप्ततम ही है। संस्कृत वाङ्मय में ऐसे अनेक ग्रंथ और ग्रंथकार हैं कि जिनका परिचय सैकड़ों पृष्ठों में पृथक् ग्रंथों द्वारा विद्वान लेखकों ने दिया है। आधुनिक लेखकों में भी ऐसे अनेक ग्रंथकार और ग्रंथ हैं कि जिनका परिचय सैकड़ों पृष्ठों के ग्रंथों में देने योग्य है। कई ग्रंथों और ग्रंथकारों पर बृहत्काय शोधप्रबंध अभी तक लिखे गए हैं और आगे चलकर लिखे जावेंगे। इस अवस्था में इस कोश की प्रविष्टियों में परिचय देते हुए किया हुआ गागर में सागर भरने का प्रयास देखकर "महाजनः स्मेरमुखो भविष्यति" यह तथ्य हमारी दृष्टि से ओझल नहीं हुआ है। परन्तु
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अधिक से अधिक ग्रंथों एवं ग्रंथकारों का आवश्यकतम परिचय मर्यादित पृष्ठसंख्या में देना यही उद्देश्य रख कर हमने यह संपादन किया है।
इसी संक्षेप की दृष्टि से यथासंभव लेखकों के नामनिर्देश में श्री, पूज्यपाद इत्यादि आदरार्थक उपाधिवाचक विशेषणों का प्रयोग कहीं भी नहीं किया। परंतु नामनिर्देश सर्वत्र आदरार्थी बहुवचन में ही किया है। पाश्चात्य लेखकों के अनुकरण के कारण हमारे ग्रंथकार प्राचीन ऋषि, मुनि, आचार्य तथा सन्तों का नाम निर्देश एकवचनी शब्दों में करते हैं। प्रस्तुत कोश में उस प्रथा को तोड़ने का प्रयत्न किया है।
ग्रंथकारों के माता, पिता, गुरु, समय, निवासस्थान इत्यादि का निर्देश "इनके पिता का नाम --- था और माता का नाम --- या" इस प्रकार की वाक्यों की पुनरुक्ति टालने के लिए, वाक्यों में न करने का प्रयत्न सर्वत्र हुआ है। इसमें अपवाद भी मिल सकेंगे।
यह संस्कृत वाङ्मय का ही कोश होने के कारण प्रायः प्रत्येक प्रविष्टि में संस्कृत वचनों के कई अवतरण देना संभव था। कुछ प्रविष्टियों में, संस्कृत अवतरण दिए गए हैं। परंतु प्रायः सभी अवतरणों के साथ हिन्दी अनुवाद दिया गया है। अपवाद कृपया क्षन्तव्य है।
हिन्दी भाषा की, अन्यान्य प्रकार की शैलियां है। यह संस्कृत वाङ्मय का कोश होने के कारण भाषा का स्वरूप संस्कृतनिष्ठ ही रखा गया है। साथ ही इस कोश के अनेक पाठक हिन्दी के विशेषज्ञ न होने की संभावना ध्यान में लेते हुए, सुगम एवं सुबोध शब्दप्रयोग करने का यथाशक्ति प्रयास हुआ है।
प्राचीन विख्यात संस्कृत लेखकों के जीवन चरित्र प्रायः अज्ञात ही रहे हैं। तथापि कुछ महानुभावों के संबंध में उद्बोधक एवं मार्मिक दन्तकथाएँ आज तक सर्वविदित हुई हैं। इनमें से कुछ कथाओं में ऐतिहासिक तथ्यांश तथा उस व्यक्ति के व्यक्तित्व के कुछ वैशिष्ट्य व्यक्त होने की संभावना मान कर, हमने इस कोश में उन किंवदन्तियों का संक्षेपतः अन्तर्भाव किया है। विशेष कर महाकवि कालिदास और भोज के संबंध में बल्लालकवि कृत भोजप्रबन्ध के कारण, इस प्रकार की किंवदन्तियों की संख्या काफी बड़ी है। अतः कुछ स्थानों में किंवदन्तियों की संख्या अधिक दिखाई देगी। जिन पाठकों को वहाँ अनौचित्य का आभास होगा उनसे हम क्षमा चाहते हैं।
कई ग्रंथकारों के विषय में उल्लेखनीय जानकारी नहीं प्राप्त हो सकी। ऐसे स्थानों में केवल उनके द्वारा लिखित ग्रंथों का नामनिर्देश मात्र किया है।
__जिनके समय का पूर्णतया (जन्म से मृत्यु तक) पता नहीं चला, उनका समय निर्देश प्रायः ईसवी शती में किया है। क्वचित् विक्रम संवत् तथा शालिवाहन शक का भी निर्देश मिल सकेगा।
वैदिक सूक्तों के द्रष्टा माने गए ऋषियों को ग्रंथकार ही मान कर उनका संक्षिप्त परिचय दिया गया है। ऐसी ऋषिविषयक सभी प्रविष्टियों की सामग्री पं. महादेवशास्त्री जोशी कृत भारतीय संस्कृतिकोश (10 खंड-मराठी भाषा में) से ली गई है। वेदों का निरपवाद अपौरुषेयत्व मानने वाले भावुक विद्वान उन प्रविष्टियों को सहिष्णुतापूर्वक पढ़े।
संस्कृत वाङ्मय का प्राचीन कालखंड बहुत बड़ा होने के कारण, तथा उस कालखंड के विषय में अल्पमात्र ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध होने कारण सैकड़ों ग्रंथ और ग्रंथकारों के स्थल-काल के संबंध में तीव्र मतभेद हैं। गत शताब्दी में अनेकों विदेशी और देशी विद्वानों ने उन विषयों में अखण्ड वाद-विवाद करते हुए एक-दूसरे का मत खण्डन किया है। अतः उनमें से एक भी मत शत-प्रतिशत ग्राह्य नहीं माना जा सकता। प्रस्तुत कोश में उन विवादों द्वारा जो प्रधान मतभेद व्यक्त हुए हैं उनका संक्षेप में निर्देश किया है। किसी भी मत का खण्डन या समर्थन यहां हमने नहीं किया और उन विवादों के विषय में हमारा अपना कोई भी अभिप्राय व्यक्त नहीं किया।
ग्रंथकारों की भाषा और शैली का वर्णन, “प्रासादिक, अलंकारप्रचुर, रसाई, पाण्डित्यपूर्ण' इस प्रकार के रूढ विशेषणों को टालकर किया है। सर्वत्र पुनरुक्ति और विस्तार टालना यही इसमें हमारा हेतु है। भाषा तथा शैली की विशेषता दिखानेवाले उदाहरण और उनके हिन्दी अनुवाद देने से ग्रंथ का कलेवर दस गुना बढ़ जाता। कालिदास, भवभूति, बाणभट्ट, माघ, हर्ष, भारवि, इत्यादि श्रेष्ठ ग्रंथकार तथा उनका अनुसरण करने वाले सैकड़ों उत्तरकालीन ग्रंथकारों के काव्य, नाटक, चम्पू, कथा, आख्यायिका इत्यादि प्रबंधों से उनके साहित्य गुणों का परिचय हो सकता है। तात्पर्य इस कोश में ग्रंथों का परिचय मात्र है पर्यालोचन नहीं। पर्यालोचन प्रबंधों का कार्य है कोश का नहीं।
ग्रंथकारों के जन्म और मृत्यु की तिथि के संबंध में जहाँ मिल सके वहाँ उनका उल्लेख हुआ है। परंतु जहाँ निश्चित उल्लेख संदर्भ ग्रंथों में नही मिले वहाँ केवल ई. शताब्दी में उनका समय निर्दिष्ट किया है। ग्रंथकार के जन्म मृत्यु की तिथि न मिलने पर भी ग्रंथलेखन का समय जहाँ मिल सका वहाँ उसका निर्देश हुआ है। जिन प्रविष्टियों में माता, पिता, समय, स्थल इत्यादि विषय में कुछ भी जानकारी नहीं मिल सकी ऐसे लेखकों के संबंध
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में, "इनके बारे में कुछ भी जानकारी नहीं मिलती''- इस प्रकार का वाक्य न लिखते हुए मौन स्वीकार किया है। अन्यथा उसी वाक्य की पुनरुक्ति अनेक स्थानों पर करनी पड़ती, जिससे कोश की मात्र अक्षरसंख्या बढ़ जाती। कुछ प्रविष्टियों में, निवेदन के अन्तर्गत वाक्यों से ही स्थल, काल का अनुमान सहजता से हो जाता है। ऐसी प्रविष्टियों में स्थल-काल आदि निर्देश पृथक्ता से हमने नहीं किया। ग्रंथकार के विशिष्ट निवासस्थान की जानकारी जहाँ नहीं मिली ऐसे स्थानों में उसके प्रदेश का निर्देश किया है। गुरु परंपरा को हमारी संस्कृति में विशेष महत्त्व होने के कारण प्रायः सर्वत्र गुरु का निर्देश किया है। वेदशाखा और गोत्र तथा आश्रयदाता का भी यथासंभव निर्देश करने का सर्वत्र प्रयास हुआ है।
ग्रंथकार खंड की प्रविष्टियों में ग्रंथकारों के जितने ग्रंथों का उल्लेख किया है उन सभी ग्रंथों का परिचय कोश के ग्रंथ खंड में नहीं मिलेगा। परंतु ग्रंथ खंड में जिन ग्रंथों के संक्षेपतः परिचय दिए हैं उनके लेखकों का ग्रंथकार खंड में संभवतः परिचय मिलेगा। इस नियम में भी अपवाद भरपूर हैं और इन अपवादों का कारण है हमारी सीमित शक्ति एवं जानकारी की अनुपलब्धि।
आधुनिक महाराष्ट्र में कुलनामों का प्रचार अधिक होने के कारण प्रायः सभी महाराष्ट्रीय ग्रंथकारों का निर्देश कुलनाम, व्यक्तिनाम और पितृनाम इस क्रम से किया है। (जैसे केतकर, व्यंकटेश बापूजी)। परंतु प्राचीन ग्रंथकारों की प्रविष्टियों में इस नियम के अपवाद मिलेंगे।
इस कोश में हस्तलिखित एवं उल्लिखित ग्रंथों तथा ग्रंथकारों का परचिय प्रायः नहीं दिया है। इस नियम के भी कुछ अपवाद मिलेंगे।
आधुनिक दाक्षिणात्य समाज में नामों का निर्देश, ए.बी.सी. इत्यादि अंग्रेजी वर्णों का प्रयोग कुलनाम या मूल निवासस्थान के आद्याक्षर की सूचना के हेतु उपयोग में लाया जाता है। अतः आधुनिक दाक्षिणात्य ग्रंथकारों के नामों की प्रविष्टी उन अंग्रेजी आद्याक्षरों के अनुसार की है। जैसे बी. श्रीनिवास भट्ट यह प्रविष्टि ब के अनुक्रम में मिलेगी।
इस कोश के ग्रंथकार खंड में केवल संस्कृत भाषा को ही जिन्होंने अपनी वाङ्मय सेवा का माध्यम रखा ऐसे ही ग्रंथकारों का उल्लेख अभिप्रेत है। फिर भी हिन्दी, मराठी, बंगला, तमिल, तेलुगु इत्यादि प्रादेशिक भाषाओं के जिन ख्यातनाम लेखकों ने संस्कृत में भी कुछ वाङ्मय सेवा की है, उनका भी उल्लेख यथावसर ग्रंथकार खंड में हुआ है।
19 वीं शताब्दी से जिन पाश्चात्य पंडितों ने संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में बहुत बड़ा योगदान शोधकार्य के द्वारा किया है, उनमें से कुछ विशिष्ट महानुभावों के परिचय ग्रंथकार खंड में मिलेंगे। पाश्चात्य पद्धति से प्रभावित कुछ आधुनिक भारतीय लेखकों का भी इसी प्रकार निर्देश हुआ है । ऐसी प्रविष्टियां अपवाद स्वरूप समझनी चाहिए।
कोश की प्रत्येक प्रविष्टि के साथ संदर्भ ग्रंथों का निर्देश इस लिए नहीं किया कि उस निमित्त विशिष्ट ग्रंथों का निर्देश बारंबार होता और उस पुनरुक्ति से अकारण अक्षरसंख्या में वृद्धि होती। प्रविष्टियों में अन्तर्भूत जानकारी अन्यान्य ग्रंथों से संकलित की है और उसका अनावश्यक भाग छांट कर संक्षेप में लिखी गई है। अनेक प्रविष्टियों में आधारभूत ग्रंथों के वाक्य यथावत् मिलेंगे। उनके लेखकों को हम अभिवादन करते है।
अनवधान तथा अनुपलब्धि के कारण कुछ महत्त्वपूर्ण प्रविष्टियों के अनुल्लेख के लिए तथा कुछ उपेक्षणीय प्रविष्टियों के अन्तर्भाव के लिए सुज्ञ पाठक क्षमा करेंगे। भ्रम और प्रमाद मानवी बुद्धि के स्वाभाविक दोष हैं। हम अपने को उन दोषों से मुक्त नहीं समझते। फिर भी प्रविष्टियों के अन्तर्गत जानकारी में जो भी त्रुटियां अथवा सदोषता विशेषज्ञों को दिखेगी, उसका कारण जिन ग्रंथों के आधार पर उस जानकारी का संकलन हुआ वे हमारे आधार ग्रंथ हैं।
प्रविष्टियों में प्रायः अपूर्ण सी वाक्यरचना दिखेगी। अनावश्यक शब्दविस्तार का संकोच करने के लिए यह टेलिग्राफिक (तारवत्) वाक्यपद्धति हमने अपनाई है। संस्कृत ग्रंथों के नाम मूलतः विभक्त्यन्त होते हैं। परंतु इस कोश में ग्रंथनामों का निर्देश विभक्ति प्रत्यय विरहित किया है। जैसे अभिज्ञान- शाकुंतल, किरातार्जुनीय, ब्रह्मसूत्र, इत्यादि।
संस्कृत वाङ्मय दर्शन - सामान्य रूपरेखा प्रस्तुत कोश का संपादन तथा संकलन दो विभागों में करने का संकल्प प्रारंभ से ही था, तदनुसार दोनों खण्ड एक साथ प्रकाशित हो रहे हैं- प्रथम खण्ड में ग्रंथकारों का और द्वितीय खण्ड में ग्रन्थों का परिचय वर्णानुक्रम से ग्रथित हुआ है। किन्तु इस सामग्री के साथ और भी कुछ अत्यावश्यक सामग्री का चयन दोनों खडों में किया है। प्रथम खण्ड के प्रारंभिक विभाग के अंतर्गत "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का समावेश हुआ है। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत, सैकड़ों लेखकों ने जो मौलिक विचारधन विद्यारसिकों को समर्पण किया, उसका समेकित परिचय विषयानुक्रम से देना यही इस वाङ्मयदर्शनात्मक विभाग का उद्देश्य है। संस्कृत वाङ्मय का वैशिष्ट्यपूर्ण विचारधन ही भारतीय संस्कृति
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का परम निधान है। सदियों से लेकर इसी विचारधन के कारण संस्कृत भाषा की और भारत भूमि की प्रतिष्ठा सारे संसार में सर्वमान्य हुई है। भारतीय संस्कृति का उत्स यही विचारधन होने के कारण, इस संस्कृति का आत्मस्वरूप तत्त्वतः जानने की इच्छा रखनेवाले संसार के सभी मनीषी और मेधावी सज्जन, संस्कृत भाषा तथा संस्कृत वाङ्मय के प्रति नितान्त आस्था रखते आए हैं। संस्कृत वाङ्मय के इस विचारधन का परिचय मूल संस्कृत ग्रंथों के माध्यम से करने की पात्रता रखने वालों की संख्या, संस्कृत भाषा का अध्ययन करने वालों की संख्या के हास के साथ, तीव्र गति से घटती गई। इस महती क्षति की पूर्ति करने का कार्य गत सौ वर्षों में, संस्कृत वाङ्मय के विशिष्ट अंगों एवं उपांगों का विस्तारपूर्वक या संक्षेपात्मक पर्यालोचन करनेवाले उत्तमोत्तम ग्रंथ निर्माण कर, अनेक मनीषियों ने किया है।
संसार की सभी महत्त्वपूर्ण भाषाओं में इस प्रकार के सुप्रसिद्ध ग्रंथ पर्याप्त मात्रा में अभी तक निर्माण हो चुके हैं और आगे भी होते रहेंगे। उनमें से कुछ अल्पमात्र ग्रंथों पर यह "संस्कृत वाङ्मय दर्शन'' का विभाग आधारित है। इसमें हमारे अभिनिवेश का आभास यत्र-तत्र होना अनिवार्य है, किन्तु हमारा आग्रहयुक्त निजी अभिमत या अभिप्राय प्रायः कहीं भी नहीं दिया गया। संस्कृत वाङ्मय के अन्तर्गत विविध शाखा- उपशाखाओं के ग्रंथ एवं ग्रंथकारों का संक्षेपित और समेकित परिचय एकत्रित उपलब्ध करने के लिए “संस्कृत वाङमय दर्शन" का विभाग इस कोश के प्रथम खण्ड के प्रारम्भ में जोड़ा गया है, जिसमें प्रकरणशः - (1) संस्कृत भाषा का वैशिष्ट्य, (2) मंत्र, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषद् स्वरूप समग्र वेदवाङ्मय का परिचय तथा वेदकाल, आर्यो का कपोलकल्पित आक्रमण, परंपरावादी भारतीय वैदिक विद्वानों की वेदविषयक धारणा इत्यादि अवांतर विषयों का भी दर्शन कराया है। (3) वेदांग वाङ्मय का परिचय देते हुए कल्प अर्थात् कर्मकाण्डात्मक वेदांग के साथ ही स्मृतिप्रकरणात्मक उत्तरकालीन धर्मशास्त्र का परिचय जोड़ा है। वास्तव में स्मृति-प्रकरणकारों का धर्मशास्त्र, कल्प-वेदांगान्तर्गत धर्मसूत्रों का ही उपबंहित स्वरूप है, अतः कल्प के साथ वह विषय हमने संयोजित किया है। इसी प्रकरण में व्याकरण वेदांग का परिचय देते हुए निरुक्त, प्रातिशाख्य, पाणिनीय व्याकरण, अपाणिनीय व्याकरण, वैयाकरण परिभाषा और दार्शनिक व्याकरण इत्यादि भाषाशास्त्र से संबंधित अवांतर विषय भी समेकित किए हैं। छदःशास्त्र के समकक्ष होने के कारण उत्तरकालीन गण-मात्रा छंद एवं संगीत-शास्त्र का परिचय वहीं जोड़ कर उस वेदांग की व्याप्ति हमने बढ़ाई है। उसी प्रकार ज्योतिर्विज्ञान के साथ आयुर्विज्ञान (या आयुर्वेद) और शिल्प-शास्त्र को एकत्रित करते हुए, संस्कृत के वैज्ञानिक वाङ्मय का परिचय दिया है। यह हेरफेर विषय-गठन की सुविधा के लिए ही किया है। हमारी इस संयोजना के विषय में किसी का मतभेद हो सकता है।
(4) पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण में अठारह पुराणों के साथ रामायण और महाभारत इन इतिहास ग्रंथों के अंतरंग का एवं तद्विषयक कुछ विवादों का स्वरूप कथन किया है। महाभारत की संपूर्ण कथा पर्वानुक्रम के अनुसार दी है। प्रत्येक पर्व के अंतर्गत विविध उपाख्यानों का सारांश उस पर्व के सारांश के अंत में पृथक् दिया है। महाभारत का यह सारा निवेदन अतीव संक्षेप में "महाभारतसार" ग्रंथ (3 खंड- प्रकाशक श्री. शंकरराव सरनाईक, पुसद- महाराष्ट्र) के आधार पर किया हुआ है। प्रस्तुत "महाभारतसार" आज दुष्प्राप्य है।
उत्तरकालीन संस्कृत साहित्य में विविध ऐतिहासिक आख्यायिकाओं, घटनाओं एवं चरित्रों पर आधारित अनेक काव्य, नाटक चम्पू तथा उपन्यास लिखे गये। इस प्रकार के ऐतिहासिक साहित्य का परिचय भी प्रस्तुत पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण के साथ संयोजित किया है।
___(5-8) दार्शनिक वाङ्मय के विचारों का परिचय (अ) न्याय-वैशेषिक, (आ) सांख्य-योग, (इ) तंत्र और (ई) मीमांसा- वेदान्त इन विभागों के अनुसार, प्रकरण 5 से 8 में दिया है। इसमें न्याय के अन्तर्गत बौद्ध और जैन न्याय का विहंगावलोकन किया है। योग विषय के अंतर्गत पातंजल योगसूत्रोक्त विचारों के साथ हठयोग, बौद्धयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और ज्ञानयोग का भी परिचय दिया है। 9 वें प्रकरण में वेदान्त परिचय के अन्तर्गत शंकर, रामानुज, वल्लभ, मध्व और चैतन्य जैसे महान तत्त्वदर्शी ज्ञानियों के निष्कर्षभूत द्वैत-अद्वैत इत्यादि सिद्धान्तों का विवेचन किया है। साथ ही इन सिद्धान्तों पर आधारित वैष्णव और शैव संप्रदायों का भी परिचय दिया है। इन सभी दर्शनों के विचारों का परिचय उन दर्शनों के महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के विवरण के माध्यम से देने का प्रयास किया है।
दर्शन-शास्त्रों के व्यापक विचार पारिभाषिक शब्दों में ही संपिण्डित होते हैं। एक छोटी सी दीपिका के समान वे विस्तीर्ण अर्थ को आलोकित करते हैं। पारिभाषिक शब्दों का यह अनोखा महत्त्व मानते हुए दर्शन शास्त्रों के विचारों का स्वरूप पाठकों को अवगत कराने के हेतु हमने यह पद्धति अपनायी है।।
(9) जैन-बौद्ध वाङ्मय विषयक प्रकरण में उन धर्ममतों की दार्शनिक विचारधारा एवं तत्संबंधित काव्य-कथा स्तोत्र आदि ललित संस्कृत साहित्य का भी परिचय दिया है।
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(11) नाट्य-शास्त्र एवं नाट्य-साहित्य विषयक प्रकरणों में दशरूपक इत्यादि शास्त्रीय ग्रंथों में प्रतिपादित विविध नाटकीय विषयों के साथ सम्पूर्ण संस्कृत नाट्य वाङ्मय का विषयानुसार तथा रूपक प्रकारानुसार वर्गीकरण दिया है। इसमें अर्वाचीन संस्कृत नाटकों का भी परामर्श किया गया है।
(12) अंत में ललित साहित्य के अन्तर्गत महाकाव्यादि सारे काव्य प्रकारों का परामर्श करते हुए संस्कृत सुभाषित संग्रहों और विविध प्रकार के कोशग्रथों का परिचय दिया है। 17 वीं शती के पश्चात् निर्मित संस्कृत साहित्य, पुराने पर्यालोचनात्मक वाङ्मयेतिहास के ग्रंथों में उपेक्षित रहा। स्वराज्यप्राप्ति के बाद इस कालखंड में लिखित संस्कृत साहित्य का समालोचन "अर्वाचीन संस्कृत साहित्य" "आधुनिक नाट्यवाङ्मय' इत्यादि विविध प्रबन्धों द्वारा हुआ। अर्वाचीन संस्कृत साहित्य को अब विद्वत्समाज में मान्यता प्राप्त हुई है। प्रस्तुत प्रकरण में सभी प्रकार के अर्वाचीन ग्रंथों का तथा पत्र-पत्रिकाओं एवं उपन्यासों का परामर्श किया है।
"संस्कृत वाङ्मय दर्शन" के विभाग में इस पद्धति के अनुसार समग्र संस्कृत वाङमय के अतरंग का दर्शन कराते हुए विविध सिद्धान्तों, विचार प्रवाहों एवं उललेखनीय श्रेष्ठ ग्रंथों का संक्षेपतः परिचय देना आवश्यक था। कोश के ग्रंथकार खंड और ग्रंथ खंड में संस्कृत वाङ्मय का जो भी परिचय होगा वह विशकलित रहेगा। एक व्यक्ति के प्रत्येक अवयव के पृथक्-पृथक् चित्र देखने पर उस व्यक्ति के समग्र व्यक्तित्व का आकलन नहीं होता, एक सहस्रदल कमल की बिखरी हुई पंखुड़ियों को देखने से समग्र कमल पुष्प का स्वरूप सौंदर्य समझ में नहीं आता। उसी प्रकार वर्णानुक्रम के अनुसार ग्रंथों एवं ग्रंथकारों का संक्षिप्त परिचय जानने पर समग्र वाङ्मय तथा उसके विविध प्रकारों का आकलन होना असंभव मान कर हमने यह "संस्कृत वाङ्मय दर्शन" का विभाग कोश के प्रारंभ में संयोजित किया है।
81, अभ्यंकर नगर नागपुर- 440010 श्रीरामनवमी 7 अप्रैल 1988
श्रीधर भास्कर वर्णेकर
संपादक संस्कृत वाङ्मय कोश
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संस्कृत वाङ्मय दर्शन
अनुक्रमणिका
प्रकरण- 1 (1) संस्कृत भाषा, (2) संस्कृत और एकात्मता, (3) संस्कृत की लिपि।
1-5 प्रकरण- 2 (1) वेदवाङ्मय (2) ऋग्वेद संहिता (3) वेदकाल (4) यजुर्वेद संहिता (5) सामवेद संहिता (6) आर्यों का मनगढंन आक्रमण (7) वेदविषयक परंपरागत दृष्टिकोन (8) अथर्ववेद (9) आरण्यक वाङ्मय (10) उपनिषद वाङ्मय। 6-27 प्रकरण- 3 : वेदांग वाङ्मय (1) शिक्षा (2) कल्प अर्थात वैदिक कर्मकाण्ड (3) धर्मशास्त्र (4) निरुक्त (5) प्रतिशाख्य (6) व्याकरण वाङ्मय की रूपरेखा (7) विविध व्याकरण संप्रदाय (8) पाणिनीय व्याकरण का विस्तार (9) पाणिनीयेतर व्याकरण ग्रंथ (10) धातुपाठ (11) उणादिसूत्र (12) परिभाषा (13) दार्शनिक वैयाकरण (14) छन्दःशास्त्र (15) संगीतशास्त्र (16) ज्योतिर्विज्ञान (17) आयुर्विज्ञान (18) शिल्पशास्त्र।
28-70 प्रकरण- 4 : पुराण-इतिहास (1) पुराण वाङ्मय (2) पुराणोक्त धर्म (3) पुराणोक्त आख्यान (4) रामायण और महाभारत (5) रामकथा का विश्वसंचार (6) रामायणीय साहित्य (7) रामराज्य (8) रामायण का काल (9) महाभारत (10) साहित्य में महाभारत (11) महाभारत की विचार धारा (12) महाभारत सारांश-आदिपर्व (13) सभापर्व (14) वनपर्व (15) विराटपर्व (16) उद्योगपर्व (17) भीष्मपर्व (18) द्रोणपर्व (19) कर्णपर्व (20) शल्यपर्व (21) गदापर्व (22) सौप्तिक पर्व (23) शांतिपर्व (24) अनुशासन पर्व (25) आश्वमेधिक पर्व (26) आश्रमवासिक पर्व (27) मौसलपर्व (28) महाप्रास्थानिक पर्व (29) स्वर्गारोहण पर्व (30) इतिहास विषयक अवांतर वाङ्मय ।
71-129 प्रकरण- 5 : न्याय-वैशेषिक दर्शन (1) न्याय दर्शन (2) नव्य न्याय (3) न्यायशास्त्र का ज्ञेय (4) बौद्ध न्याय (5) जैन न्याय (6) वैशेषिक दर्शन (7) वैशेषिक परिभाषा।।
130-138 प्रकरण- 6 : सांख्य-योग दर्शन : (1) सांख्य दर्शन (2) तात्त्विक चर्चा (3) योगदर्शन (4) सांख्य और योग (5) संयम (6) साधन पाद (7) विभूतिपाद (8) कैवल्यपाद (9) बौद्धयोग (10) हठयोग (11) भक्तियोग (12) कर्मयोग (13) ज्ञानयोग।
139-152 प्रकरण- 7 : तांत्रिक वाङ्मय (1) तांत्रिक वाङ्मय (2) तंत्रशास्त्र और वेद (3) उपनिषद् और शक्ति साधना (4) तंत्र
और पुराण (5) तंत्रशास्त्र और बौद्धधर्म (6) तांत्रिक संप्रदाय (7) तंत्रशास्त्र के प्रमुख ग्रंथकार (8) तांत्रिक परिभाषा। 153-162 प्रकरण- 8 : मीमांसा और वेदान्त (1) मीमांसा दर्शन (2) मीमांसा दर्शन की रूपरेखा (3) मीमांसा दर्शन के कुछ मौलिक सिद्धांत (4) वेदान्त दर्शन (5) शांकरमत (6) विशिष्टाद्वैत मत (7) द्वैतवादी माध्वमत (8) द्वैताद्वैतवादी निंबार्क मत (9) तत्त्वसमन्वय (10) शैवदर्शन एवं संप्रदाय (11) शुद्धाद्वैतवादी वल्लभमत (12) अचिन्त्य भेदाभेदवादी चैतन्यमत 163-187 प्रकरण-9 : जैन बौद्ध वाङ्मय - (1) जैन वाङ्मय (2) जैन दार्शनिक वाङ्मय (3) जैन योगदर्शन (4) जैन काव्य (5) जैन स्तोत्रकाव्य (6) बौद्ध वाङ्मय (7) धारणी सूत्र (8) दार्शनिक विचार (9) जातक तथा अवदान साहित्य। 188-206 प्रकरण- 10 : काव्यशास्त्र - (1) काव्यशास्त्र (2) अलंकार-शास्त्र या साहित्य-शास्त्र (3) वक्रोक्ति संप्रदाय (4) रीति संप्रदाय (5) काव्यदोष (6) रस सिद्धान्त ।
207-212 प्रकरण- 11 : नाट्यशास्त्र और साहित्य - (1) नाटकों का प्रारंभ (2) नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रंथ (3) नाट्यशास्त्र का अतरंग (4) वस्तुशोधन (5) नाट्यपात्र (6) नाट्य प्रवृत्तियां (7) अर्थसहायक (8) नाट्य रस (9) प्रमुख नाटककार (10) लाक्षणिक या प्रतीक नाटक (11) रामायणीय नाटक (12) कृष्णचरित्र (13) महाभारतीय नाटक (14) ऐतिहासिक नाटक (15) नाटकों का नाट्यशास्त्रीय वर्गीकरण (16) संस्कृत नाट्य का सार्वत्रिक प्रभाव (17) अर्वाचीन संस्कृत नाटक। 213-238 प्रकरण- 12 : ललित साहित्य - (1) ललित वाङ्मय (2) महाकाव्य (3) कथाकाव्य (4) चम्पू वाङ्मय (5) गीतिकाव्य (6) दूतकाव्य (7) स्तोत्रकाव्य (8) सुभाषितसंग्रह (9) कोश वाङ्मय (10) अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय (11) उपन्यास। 239-260 प्रकरण- 13 : अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय
261-267 ग्रंथकार परिचय- अकारादि अनुक्रमानुसार कुल प्रविष्टियां 2715
268-495 परिशिष्ट :
496 से आगे
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परिशिष्टों के विषय
परिशिष्ट (क) - ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि। (ख)- वैदिक वाङ्मय। (ग)- वेदांग। (घ) आयुर्वेद। (ड)- वास्तुस्थापत्यशास्त्र । (च)- पुराण-इतिहास। (छ)- स्मृतिग्रंथ, उपस्मृतिग्रंथ, नीतिशास्त्रग्रंथ। (ज)- दार्शनिक वाङ्मय (न्याय, वैशेषिक, सांख्य, योग, तंत्र, मीमांसा। (झ)- वेदान्त (अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैत (माध्व), शुद्धाद्वैत (वल्लभ), निम्बार्क, (ञ)- काश्मीर शैवदर्शन, वीरशैव। (ट)- जैन ग्रंथ (धर्मशास्त्र आगम), (ठ)- जैनदर्शन (ड) बौद्धवाङ्मय ।
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संस्कृत वाङ्मय दर्शन
प्रकरण - 1 1 संस्कृत भाषा
संस्कृत शब्द का प्रयोग अनेकविध अथों में संस्कृत साहित्य में किया गया है। उन सभी प्रयोगों में सुशोभित करना, अलंकृत करना, पवित्र करना, प्रशिक्षित करना, सतेज करना, निर्दोष करना, इत्यादि भाव व्यक्त होते हैं। जब किसी भाषा को संस्कृत विशेषण लगाया जाता है, तब यह अर्थ माना जाता है कि वह भाषा अर्थात् उस भाषा के बहुत से शब्द, निश्चित अर्थ व्यक्त करने की दृष्टि से भाषा शास्त्रीय पद्धति के अनुसार विवेचन कर, निर्दोष किए गए हैं। उन शब्दों में स्वर, व्यंजन, हस्व, दीर्घ इत्यादि किसी प्रकार की विकृतता सदोषता बाकी नहीं रही। बहुतांश शब्दों का निरुक्ति व्युत्पत्ति आदि दृष्टि से पूर्णतया संशोधन करने के कारण, संपूर्ण भाषा में जो परिपूर्णता, परिपक्वता या विशुद्धता निर्माण हुई, उसी कारण भारतीय मनीषियों ने अपनी संस्कारपूत भाषा की स्तुति, "दैवी वाक्' (संस्कृतं नाम दैवी वाक्) (काव्यादर्श- 1-33) इस अनन्य साधारण विशेषण से की। देवभाषा, अमरभाषा, गीर्वाणवाणी, अमृतवाणी, सुरभारती, इत्यादि संस्कृत भाषा के निर्देशक अनेकविध रूढ शब्दप्रयोग, इस भाषा की संस्कारपूर्तता के कारण निर्माण हुई अपूर्वता अद्भुतता,,सुंदरता इत्यादि गुणों को ही व्यंजित करते हैं।
आस्तिक दृष्टिकोण के अनुसार सभी चराचर सृष्टि की निर्मिति सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी परमात्म तत्त्व से हुई है। अर्थात् इस सृष्टि के अन्तर्गत सभी सचेतन प्राणिमात्र के कंठ से प्रस्फुटित होने वाली शब्दस्वरूप वाणी भी परमात्म तत्व की ही निमिति है। यह शब्दरूप वाणी आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्याकृत-अस्फुट थी। श्री सायणाचार्य (अर्थात् श्रीविद्यारण्य स्वामी) अपने ऋग्वेदभाष्य में कहते हैं :- "अग्निमीळे पुरोहितम् इत्यादि-वाक् पूर्वस्मिन् काले समुद्रादिध्वनिवद् एकात्मिका सती अव्याकृता = प्रकृतिः प्रत्ययः पदं वाक्यम् इत्यादि विभागकारिग्रन्थरहिता आसीत् । तदा देवैः प्रार्थितः इन्द्रः एकस्मिन् एव पात्रे वायोः स्वस्य च सोमरसग्रहणरूपेण वरेण तुष्टः ताम् अखण्डवाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययादिविभाग सर्वत्र अकरोत्"।
अर्थात् आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्यक्त वेदवाणी को इन्द्र भगवान् ने सोमरस से प्रसन्न होने के कारण, प्रकृति प्रत्यय इत्यादि विभाग भाषा में निर्माण कर उसे अर्थग्रहण के योग्य किया। वेदों में भाषा की उत्पत्ति के संबंध में चार प्रसिद्ध मन्त्र मिलते हैं :
(1) देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्ज दुहाना धेनुर्वागस्मान् उपसुष्टतेतु । ऋ. 8-100 ।। (2) चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो महँ आविवेश ।।ऋ. 4-58-3 ।। (3) इन्द्रा-वरुणा यदृषिभ्यो मनीषां वाचो मतिं श्रुतमदत्तमग्रे। यानि स्थानान्यसृजन्त धीरा । यज्ञं तन्वाना तपसाभ्यपश्यन् । ऋ. 8-59-6।। (4) चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति
|ऋ. 1-164-45।। अथर्व -6-25-27-26-1
इन वाणी विषयक मन्तों पर भाष्य लिखने वाले यास्क, पतंजलि, सायण जैसे महामनीषियों ने अपने भाष्य ग्रंथों में वैदिक भाषा की उत्पत्ति का संबंध साक्षात् देवों से ही जोडा है। सायणाचार्य ने तो संस्कृत भाषा का पर्यायवाचक शब्द “देवभाषा" इस सामासिक शब्द का विग्रह "देवसृष्टा भाषा देवभाषा' इस प्रकार कर, यह भी कहा है कि यह देवभाषा "सर्वजनमान्या" और "सर्वविदिता" है। त्रेता युग में इन्द्र चन्द्र भूतेश जैसे देवता इस भाषा के अक्षर निर्माता थे इत्यादि अर्थ के वचन प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं।
भाषाविज्ञान का मत आधुनिक भाषाविज्ञान के पंडितों ने संसार के जो विविध भाषापरिवार माने हैं उन में आर्यपरिवार (जिसे इंडोजानिक और इण्डोयूरोपियन भी कहते हैं) नामक सर्वप्रमुख भाषापरिवार माना है। इस परिवार में यूरोप, उत्तर-दक्षिण अमरीका, नैऋत्य आफ्रिका, आस्ट्रेलिया और ईरान जैसे विशाल प्रदेशों की अनेकविध भाषाओं का अन्तर्भाव होता है। उन सब में संस्कृत भाषा को अग्रस्थान दिया जाता है। संस्कृत भाषा की प्रमुखता के कारण इस भाषा परिवार का "सांस्कृतिक भाषा परिवार" यह नामकरण कुछ विद्वानों ने संमत किया था। परंतु इस परिवार के प्रदेशों में इंडिया और यूरोप ये दो प्रमुख प्रदेश हैं। इन दोनों का निर्देशक "इण्डोयूरोपीय" यही नाम सर्वत्र रूढ हुआ ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/1
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आदिम आर्यभाषा इण्डोयूरोपीय परिवार की सभी भाषाओं का तुलनात्मक अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा वैज्ञानिक इस सिद्धान्त पर पहुंचे कि इन विविध प्रदेशस्थ भाषाओं का मूल स्रोत कोई "आदिम भाषा" रही होगी। संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक और लॅटिन के सब से पुराने लेखों के शब्दों का मन्थन कर, जो सारभूत भाषास्वरूप उपलब्ध हुआ उस कल्पित भाषा को “आदिम भाषा" का बहुमान प्रदान किया गया। यह तथाकथित कल्पित आदिम आर्य भाषा, संस्कृत, अवेस्ती, ग्रीक, जर्मन, लॅटिन, केल्टी, स्लावी, बाल्टी, आर्मीनी, अल्चेनी, तोरखारी और हिट्टाइट इन सभी इण्डोयूरोपीय भाषाओं की जननी मानी गई।
इस काल्पनिक आदिम भाषा का उपयोग करनेवाली आर्यजाति की भी कल्पना की गई और आर्यजाति का मूलस्थान यूरोप की पूर्व और एशिया की पश्चिम सीमा रेखा पर कहीं तो भी होना चाहिये, इस निर्णय पर पहुंचने पर, डॉ. सुनीतिकुमार चटर्जी जैसे भारतीय भाषावैज्ञानिक, प्रो. बेंडेस्टाइन का मत प्रमाणभूत मान कर, उराल पर्वत का दक्षिणी प्रदेश ही आदिम आर्य जाति का मूल निवासस्थान मानते हैं। इस कल्पित, तथाकथित आदिम आर्यभाषा की सब से निकट भाषा संस्कृत ही मानी गई है।
इस संस्कृत भाषा में संसार का प्राचीनतम वेदवाङ्मय भरपूर मात्रा में और अविकृत स्वरूप में, आज भी उपलब्ध होता है। समग्र मानवजाति के प्राचीनतम इतिहास के वाङ्मयीन प्रमाण, भारत की इस देववाणी में आज प्राप्त होते हैं।
मानव समाज को जब तक अपने प्राचीनतम इतिहास के प्रति आस्था या जिज्ञासा रहेगी और जब तक ग्रंथालयों एवं संग्रहालयों में प्राचीनतम वाङ्मय एवं वस्तुओं का संग्रह करने की प्रेरणा मानव में रहेगी, तब तक संस्कृत भाषा में उपनिबद्ध प्राचीन वेदवाङ्मय को अग्रपूजा का स्थान देना ही होगा।
भाषाविज्ञान के निष्कर्ष वैदिक वाङमय का भाषाशास्त्रीय अध्ययन करने पर आधुनिक भाषा पंडित इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि, वैदिक संहिताओं के सूक्तों में स्थान स्थान पर बोली के भेद दिखाई देते हैं। ऋग्वेद के प्रथम और दशम मंडल के सूक्तों की भाषा, अन्य मंडलों की भाषा की तुलना में, उत्तरकालीन दिखाई देती है। ब्राह्मणग्रंथों, प्राचीन उपनिषदों और सूत्र ग्रंथों की भाषा क्रमशः विकसित हुई मालूम होती है। पाणिनि के समय तक वैदिक वाङ्मय की भाषा और तत्कालीन शिष्टों की भाषा में पर्याप्त अंतर पड गया था। पाणिनि के पूर्ववर्ती पचीस श्रेष्ठ वैयाकरणों ने इस भाषा के शब्दों का बडी सूक्ष्मेक्षिका से अध्ययन किया था। पाणिनि के समय तक उत्तर भारत में उदीच्य, प्राच्य और मध्यदेशीय, तीन विभाग संस्कृत भाषान्तर्गत शब्दों में रूपान्तर होने के कारण हो गए थे।
वैदिक संस्कृत और विदग्ध संस्कृत भाषा में प्रधानतया जो भेद निर्माण हुए उनका संक्षेपतः स्वरूप निम्नप्रकार है1 अनेक वैदिक शब्दों का लौकिक भाषा में अर्थान्तर हो गया।
कुछ प्रत्यय, धातु, सर्वनाम वैदिक और लौकिक संस्कृत में विभिन्न हो गए। वैदिक संस्कृत में क्रिया से दूर रहने वाले उपसर्ग, लौकिक भाषा में क्रिया के पूर्व रूढ हुए। उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों के कारण वैदिक संस्कृत में जो संगीतात्मकता थी, वह लौकिक भाषा में उन स्वरों का विलय होने से, लुप्त हो गई। वैदिक में कर्ता और क्रियापद के वचन में भिन्नता थी। लौकिक भाषा में वहां एकता आयी। यही बात विशेषण और विशेष्य के संबंध में हुई। वैदिक भाषा में केवल वर्णिक छंद मिलते हैं किन्तु लौकिक संस्कृत में वर्णिक और मात्रिक दोनों प्रकार के छंद मिलते हैं। अनुष्टुप् के अतिरिक्त कुछ वैदिक छंद लौकिक संस्कृत में लुप्त हो गए।
2 संस्कृत और एकात्मता संस्कृत भाषा के (ओर समस्त संसार के) सर्वश्रेष्ठ वैयाकरण भगवान् पाणिनि हुए। उन्होंने अपने शब्दानुशासन द्वारा संस्कृत भाषा को विकृति से अलिप्त रखा। लौकिक व्यवहार में, लोगों की शुद्धवर्णोच्चार करने की अक्षमता के कारण, अथवा वर्णोच्चार में मुखसुख की प्रवृत्ति के कारण, संस्कृत से अपभ्रंशात्मक प्राकृत भाषाएं भारत के विभिन्न भागों में उदित और यथाक्रम विकसित होती गईं। परंतु पाणिनीय व्याकरण के निरपवाद प्रामाण्य के कारण संस्कृत भाषा का स्वरूप निरंतर अविकृत रहा। संसार की भाषाओं के इतिहास में यह एक परम आश्चर्य है। पणिनीय व्याकरण के प्रभाव के कारण "अमरभाषा" यह संस्कृत भाषा का अपरनाम चरितार्थ हो गया।
पाणिनि के समय में शिष्ट समाज के परस्पर विचार-विनिमय की भाषा संस्कृत ही थी। उनके बाद भी कई सदियाँ तक यह काम संस्कृत भाषा करती रही। श्रीशंकराचार्य जैसे प्राचीन विद्वान अपना सैद्धान्तिक दिग्विजय संस्कृत भाषा में शास्त्रार्थ कर
2 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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ही करते थे। कुछ इतिहासज्ञों के मतानुसार मगध साम्राज्य तथा बौद्ध संप्रदाय के प्रभाव के कारण संस्कृत का प्रभाव कुछ काल तक सीमित सा हो गया था, परंतु पुष्यमित्र शुंग की राज्यक्रान्ति के बाद मौर्य साम्राज्य समाप्त होकर संस्कृत भाषा का महत्त्व फिर से यथापूर्व स्थापित हो गया। प्रायः 12 वीं सदी तक संस्कृत सभी हिंदु राज्यों की राजभाषा रही।
12 वीं सदी शताब्दी के बाद आज की हिंदी, गुजराती, बंगला, मराठी इत्यादि प्रादेशिक भाषाएं लोकप्रिय होती गईं। उनका अपना साहित्य निर्मित होने लगा। परंतु पाली, महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी इत्यादि के समान यह अर्वाचीन प्रादेशिक भाषाएं, संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों से उपजीवित और परिपोषित होती गई। पाश्चात्य साहित्य का परिचय और प्रभाव होने के पहले का सभी प्रादेशिक भाषाओं का संपूर्ण साहित्य संस्कृतोपजीवी ही रहा। संस्कृत भाषा में शास्त्रीय चिकित्सा करने की जो अद्भुत क्षमता है, उसके अभाव के कारण पाली-प्राकृत भाषा के अभिमानी धर्माचार्यों को यथावसर संस्कृत का ही प्रश्रय लेना पड़ा।
दक्षिण की तमिळ, मलयालम, कन्नड और तेलुगु ये चार भाषाएं भाषा वैज्ञानिकों के मतानुसार द्रविड परिवार की भाषाएं मानी जाती हैं। परंतु उन भाषाओं में संस्कृत के तत्सम और तद्भव शब्दों का प्रमाण उत्तर भारत की हिन्दी आदि प्रादेशिक भाषाओं के प्रायः बराबरी में है। किंबहुना कुछ मात्रा में अधिक भी है और उनका संपूर्ण साहित्य भी इस सुरभारती के स्तन्य पर ही परिपुष्ट हुआ है। यही एक कारण है कि, भारत में भाषाएं विविध हैं, परंतु उसका साहित्य एकात्म और एकरूप है। इस सनातन राष्ट्र के जीवन में इस महनीय भाषा के कारण ही सदियों से सांस्कृतिक सरूपता और एकात्मता रही है। आगे चल कर भी अगर इस राष्ट्र को अपनी भाषिक और सांस्कृतिक एकात्मता दृढ रखनी होगी, तो संस्कृत का सार्वत्रिक प्रचार करना पडेगा।
संस्कृत भाषा की अखिल भारतीयता प्राचीनता जैसे संस्कृत भाषा की अनोखी विशेषता है, वैसे ही उसकी वाङ्मय राशि की अखिल भारतीयता भी दूसरी विशेषता है। ई. 12 वीं शताब्दी से भारत के अन्यान्य प्रदेशों में विविध प्रादेशिक भाषाओं का धीरे धीरे विकास प्रारंभ हुआ। इन सभी प्रादेशिक भाषाओं का साहित्य निरपवाद संस्कृत साहित्योपजीवी रहा। संस्कृत का पौराणिक वाङ्मय, उस साहित्य का स्फूर्तिस्थान रहा। व्यास और वाल्मीकि की प्रतिभा ही मानों सभी प्रादेशिक आयामों की लेखनी से शत सहस्र प्रकारों में पल्लवित
और पुष्पित हुई। आधुनिक युग में पाश्चात्य साहित्य के संपर्क से प्रादेशिक साहित्य की वल्लरियां अन्यान्य दिशाओं और आर्यायों में उभर आयी। आज वे सारी अपने अपने प्रादेशिक राज्यों की राजभाषाएं हुई हैं। परंतु इतनी सारी प्रगति के बावजूद हिंदी, मराठी, बंगाली, गुजराती, तेलुगु, कन्नड, तमिल, मलयालम इन सारी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में, अखिल भारतीयता नहीं
आयी। कुछ अभिनन्दनीय अपवाद छोड कर, प्रायः सभी प्रादेशिक भाषाओं का सारा का सारा लेखक वर्ग सीमित प्रदेशस्थ ही रहा। याने मराठी का लेखक वर्ग महाराष्ट्र के बाहर, या कनड का लेखक वर्ग कर्नाटक के बाहर कहीं मिलता, न आगे चल कर मिलेगा। हिंदी भाषा को अखिल भारतीय भाषा के नाते शासकीय वैधानिक और विविध पक्षीय समर्थन प्राप्त होने पर भी, हिंदी का साहित्यिक वर्ग उत्तर भारतीय ही रहा है।
___भारत के सभी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यों को इतिहास ग्रंथ पढते समय उनकी सीमित प्रादेशिकता ठीक ध्यान में आती है। आज के भाषिक अभिनिवेश के युग की चाल देखते हुए यह साफ दिखाई देता है कि, हिंदी, बंगाली, मराठी, कन्नड इत्यादि भारत की विविध प्रादेशिक भाषाओं में से, किसी भी भाषा का प्रमुख लेखक वर्ग भविष्य काल में अखिल भारतीय नहीं होगा।
वाङ्मय के अन्तर्गत ललित और विविध शास्त्रीय वाङ्मय शाखा के इतिहास ग्रंथों का आलोचन करते हुए जो बात प्रमुखता से ध्यान में आती है, वह है उनके लेखकों की अखिल भारतीयता। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और कामरूप से कच्छ तक, फैले हुए समग्र भारत वर्ष के अन्तर्गत सभी प्रदेशों में जन्म पाए हुए महामनीषियों की प्रतिभा एवं पाण्डित्य का अद्भुत वैभव इस भाषा के गद्य, पद्य और सूत्ररूप ग्रंथों में अपनी दिव्य दीप्ति से चमक रहा है।
संस्कृत वाङ्मय के सभी प्राचीन और अर्वाचीन लेखकों के सभी ग्रंथ अभी तक प्रकाशित नहीं हुए। फिर भी जितने प्रकाशित हुए हैं और उनमें से जितने परिमित ग्रंथों का परामर्श, संस्कृत वाङ्मय के इतिहास ग्रंथों में आज तक किया गया है, उनकी और उनके लेखकों की संख्या इतनी आश्चर्यकारक है, कि मानो संस्कृत वाङ्मय में अखिल भारतवर्ष का प्रज्ञावैभव अतिप्राचीन काल से आज तक संचित हुआ है। इसी कारण भारत की समस्त सुबुद्ध जनता के हृदय में संस्कृत भाषा के और संस्कृत भाषीय समग्र वाङ्मय के प्रति नितांत आत्मीयता और श्रद्धा है। जिस भाषा के और तन्दतर्गत वाङ्मय के प्रति संपूर्ण राष्ट्र की जनता श्रद्धायुक्त आत्मीयता रखती है वह भाषा और वह साहित्य उस समूचे राष्ट्र का “दैवी निधान" होता है। उसका संरक्षण अध्ययन और प्रसारण करना उस राष्ट्र के निष्ठावान सज्जनों का अनिवार्य कर्तव्य होता है। संस्कृत भाषा और संस्कृत वाङ्मय के प्रति अखिल भारतीय विद्यारसिकों का यही दायित्व है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 3
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3 संस्कृत की लिपि
मोहन जो दडो और हडप्पा में जो प्राचीनतम सामप्री प्राप्त हुई उसमें कुछ लेख भी हैं। ये ऐसी लिपि में हैं जो ब्राह्मी या खरोष्ट्री (जो भारत की प्राचीनतम लिपियां मानी गई हैं) से मेल नहीं खाती। उस लिपि का वाचन करने का प्रयास कुछ विद्वानों ने किया, परंतु उनके वाचन में एकवाक्यता न होने के कारण, वह लिपि अभी तक अवाचित ही मानी जाती है।
अजमेर जिले के बडली या बी गांव में और नेपाल की तराई में पिप्रावा नामक स्थान में दो छोटे छोटे शिलालेख मिले हैं। उनके अक्षर पढे गए हैं, परंतु जिस लिपि में वे लिखे गए है वह सम्राट अशोक से पूर्वकालीन मानी गई है।
वैदिक वाङ्मय, त्रिपिटक साहित्य, जैन ग्रंथ, पाणिनि की अष्टाध्यायी इत्यादि प्राचीन प्रमाणों से प्राचीन भारत की लेखनकला का अस्तित्व प्रतीत होता है और उन प्रमाणों से भारत को लिपिज्ञान पाश्चात्य या चीनी सभ्यता के संपर्क से प्राप्त हुआ इस प्रकार के यूरोपीय विद्वानों के मत का खंडन होता है। जैनों के पन्नवणासूत्र में और समवायंग सूत्र में 18 लिपियों के नाम मिलते हैं। बौद्धों के ललितविस्तर में 64 लिपियों के नाम आए हैं, जिनमें ब्राह्मी और खरोष्ट्री का भी निर्देश है। अशोक के शहाबाजगढी और मनसेहरा वाले लेख खरोष्ठी में है। इसके पूर्व का, इस लिपि का कोई लेख नहीं मिलता। अशोक के बाद यह लिपि भारत में विदेशी राजाओं के सिक्कों और शिलालेखों में पाई गई है। भारत के पश्चिमोत्तर प्रदेश और पंजाब में खरोष्ठी के लेख मिले और शेष भाग में ब्राह्मी के लेख मिले हैं। खरोष्ठी, अरेबिक के समान, दाई से बाई और लिखी जाती है। पंजाब में तीसरी सदी तक इस लिपि का प्रचार कुछ मात्रा में था। बाद में वहां से भी वह लुप्त हुई।
भारत की प्राचीन लिपियों में ब्राह्मी अधिक सुचारु और परिपूर्ण लिपि थी। इसी कारण इसको साक्षात् ब्रह्मा द्वारा निर्मित माना गया। इस लिपि की भारतीयता के बारे में पाश्चात्य विद्वानों में दो मत हैं। विल्सन, प्रिंसेप, आफ्रेट मूलर, सेनार्ट, डीके, कुपेरी, विल्यम जोन्स, वेबर, टेलर, बूलर आदि विद्वान इसका मूल भारत के बाहर मानते हैं; परंतु एडवर्ड, टामस, डासन, कनिंघम जैसे पाश्चात्य पंडित और श्रीगौरीशंकर हीराचन्द ओझा, डा. तारापुरवाला जैसे भारतीय लिपि-शास्त्रज्ञों के मतानुसार, ब्राह्मी का उत्पत्तिस्थान भारत ही माना जाता है।
ई. पू. 5 वीं शती से 4 थी शती तक के प्राप्त लेखों में ब्राह्मी लिपि मिलती है। बाद में ब्राह्मी की पांच प्रकार की उत्तरी और छह प्रकार की अवांतर (पश्चिमी, मध्यप्रदेशी, तेलुगु-कन्नडी, ग्रन्थलिपि, कलिंग लिपि और तमिल) लिपियां मिलती हैं।
___ उत्तरी ब्राह्मी लिपियों में ई. 8 वीं सदी से प्रचारित हुई नागरी लिपि विशेष महत्वपूर्ण मानी गई हैं। गुजराती और बंगला लिपि में इसका सादृश्य दिखाई देता है। मराठी और हिंदी भाषाओं की यही लिपि है। नेपाल की यह राजलिपि है और संस्कृत के बहुसंख्य प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथ इसी लिपि में मिलते हैं। 10 वीं सदी से 12 वीं सदी तक, इस लिपि में यथोचित सुधार होता गया और 12 वीं सदी में उसका वर्तमान रूप सुस्थिर सा हो गया। टंकमुद्रण की सुविधा के लिए, वीर सावरकर, आचार्य विनोबाजी भावे, जैसे मनीषियों ने इस लिपि में कुछ विशेष सुधार सुझाए और स्वराज्यप्राप्ति के बाद भारतीय शासन ने उसका विद्यमान स्वरूप निश्चित किया, जिसमें अंकों के लिए यूरोपीय चिन्ह सार्वत्रिक समानता की दृष्टि से स्वीकृत किए हुए हैं। नागरी को देवनागरी और नन्दिनागरी भी कहते हैं।
अतिप्राचीन काल से संस्कृत भाषा विद्यालयों के अध्ययन-अध्यापन का और विद्वानों के भाषण तथा लेखन का माध्यम संपूर्ण भारत भर में रहा। अशिक्षित या अल्पशिक्षित समाज में संस्कृत भाषा का लेशमात्र परिचय होने पर भी, उसके प्रति परम श्रद्धा थी और आज भी है। संस्कृत का कोई भी वचन, बहुजन समाज में प्रमाणभूत माना जाता रहा। जातिभेद की कट्टरता तथा छुआछूत की दुष्ट रूढी के कारण निकृष्ट स्तर के समाज में इस भाषा का प्रचार कुछ प्रदेशों में नहीं हुआ। वेदाध्ययन के लिए स्त्रियों तथा निकृष्ट वर्गीयों के लिए मनाई रही किन्तु लौकिक काव्यनाटकादि साहित्य के अध्ययन के लिए तथा पुराण-श्रवण के लिए यह मनाई नहीं थी। परंतु विद्याप्रेमी वर्ग, संपूर्ण भारत भर में संस्कृत का अध्ययन, अध्यापन और लेखन निरंतर करता आया। यह सारा संस्कृतज्ञ वर्ग, अपनी प्रादेशिक भाषा की लिपि के अतिरिक्त देवनागरी लिपि से परिचित रहा। गुजराती लेखन में तो जहां जहां संस्कृत वचन आते है वहां वे देवनागरी में लिखे जाते हैं।
भारत में भाषिक एकात्मता के साथ समान-लिपि का पुरस्कार सभी एकात्मतानिष्ठ सजनों ने सतत किया। संस्कृत के क्षेत्र में यह लिपि की समानता अभी तक सुरक्षित रही है। संस्कृत का प्रचार-प्रसार जिस मात्रा में सर्वत्र बढेगा उतनी मात्रा में भारतीय नेताओं की समान राष्ट्रीय लिपि की अपेक्षा बराबर पूरी होगी।
पाश्चात्य देशों में संस्कृत लेखन या मुद्रण के लिए, वहां की लिपि में, संस्कृत वर्णो के यथोचित उच्चारण के लिए यथावश्यक सुधार कर रोमन लिपि में ही संस्कृत का मुद्रण हो रहा है। परंतु उस आंतरराष्ट्रीय लिपि (इंटरनेशनल स्क्रिप्ट) का भारत के संस्कृतज्ञ समाज में पर्याप्त प्रचार ने होने के कारण, उसके पढने में वे असमर्थ रहते हैं।
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संस्कृत की अखंड धारा
संस्कृत भाषा का विभाजन वैदिक और लौकिक इन दो प्रकारों में पाणिनि के समय से ही किया जाता था । पाणिनी अष्टाध्यायी के सूत्रों का प्रकरणशः वर्गीकरण कर, भट्टोजी दीक्षित (ई. 17 शती) ने "सिद्धान्त कौमुदी" नामक जो प्रसिद्ध व्याकरण ग्रंथ निर्माण किया, उसमें भी लौकिक शब्दों का विवरण करने के बाद वैदिक शब्दों का विवरण स्वतंत्र खंड में किया है।
समग्र संस्कृत वाङ्मय का विभाजन भी इन्हीं दो विभागों में प्रायः किया गया है। आधुनिक काल में संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले अनेक ग्रंथ भारतीय और अभारतीय भाषाओं में लिखे गए। इन संस्कृत वाङ्मयेतिहास के ग्रंथों में कुछ ग्रंथ केवल वैदिक वाङ्मयेतिहास विषयक और कई ग्रंथ लौकिक संस्कृत वाङ्मय का पर्यालोचन करने वाले हैं। इसके अतिरिक्त बौद्ध संस्कृत वाङ्मय जैन संस्कृत वाङ्मय तथा प्रादेशिक संस्कृत वाङ्मय का भी पृथक परामर्श लेने वाले इतिहास ग्रंथ प्रसिद्ध हुए हैं।
साहित्य, व्याकरण, तत्वज्ञान, इत्यादि शास्त्रीय विषयों के वाङ्मय के भी इतिहास प्रबन्ध पृथक् पृथक् लिखे गए हैं। हिंदी भाषा में इन सभी प्रकारों के इतिहास प्रबन्ध प्रकाशित हो चुके हैं। अनेक शोधछात्र संस्कृत वाङ्मय के किसी विशिष्ट अंग या अंश का सर्वंकष विवेचन करनेवाले शोधप्रबन्ध निर्माण कर रहे हैं। इन सब वाङ्मयेतिहास के लेखकों ने प्रायः 12 वीं या अधिक से अधिक 15 वीं शताब्दी तक निर्माण (और आधुनिक मुद्रणयुग में मुद्रित) हुए वाङ्मय का ही परामर्श लिया है।
संस्कृत वाङ्मय के हस्तलिखित ग्रंथों की सूचियां भी अनेक विश्वविद्यालयों एवं शोधसंस्थानों के द्वारा निर्माण हुई हैं और हो रही हैं । परंतु इन सभी के लेखकों एवं संपादकों ने 15 वीं या 16 वीं शताब्दी के बाद भी जो भरपूर संस्कृत वाङ्मय सारे भारत के सभी प्रदशों में निर्माण होता रहा और जिसका कुछ अंश प्रकाशित भी हुआ, उसका परामर्श अपने ग्रंथों में नहीं किया। संस्कृत वाङ्मय के इस उपेक्षित निधान की ओर स्वराज्य प्राप्ति के बाद कुछ संस्कृतोपासकों का ध्यान आकृष्ट हुआ उन्होंने अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का सर्वकष परामर्श करने वाले समीक्षात्मक शोध प्रबन्ध लिखे अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने जो एक बड़ा कार्य किया है वह याने यूरोपीय विद्वानों ने 12 वीं शताब्दी के बाद निर्माण हुए संस्कृत वाङ्मय की उपेक्षा करते हुए यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया था कि उस कालमर्यादा के बाद संस्कृत में वाङ्मय निर्मिति हुई नहीं इसका कारण वह "मृत" या "मृतवत्" हो गई थी। लोगों के भाषण व्यवहार में उपयोग न होना और नवीन वाङ्मय की निर्मिति न होना, ये दो प्रमुख कारण, संस्कृत को मृतभाषा घोषित करने के लिए दिए गए और सर्वसामान्य स्तर के सुशिक्षितों ने उन्हें प्रमाणभूत मान कर, संस्कृत को मृतभाषा कहना शुरू किया था। संस्कृत वक्ताओं ने अपने भाषणों द्वारा उसकी सजीवता का प्रमाण निरंतर स्थापित किया और आज भी वे कर रहें हैं। परंतु साहित्यनिर्मिति का प्रमाण उपलब्ध करना कठिन था । अर्वाचीन संस्कृत साहित्य विषयक प्रबन्धों ने वह भी प्रमाण स्थापित कर दिया।
संस्कृत भाषा की और संस्कृत वाङ्मय की, अति प्राचीन काल से अद्यावत् अखिल भारतीयता, उसके प्रति भारत के सभी भाषाभाषी सुबुद्ध जनता की श्रद्धायुक्त आत्मीयता, भारत की विद्यमान सभी प्रादेशिक भाषाओं की शब्दसमृद्धि बढाने की उसकी अद्भुत नवशब्द- निर्माण क्षमता इन तीन कारणों से किसी एक प्रदेश की राज्यभाषा न होते हुए भी संस्कृत समस्त भारत की एक सर्वश्रेष्ठ तथा अग्रपूज्य भाषा मानी जाती है। भारतीय संस्कृति का मूलग्राही एवं सर्वंकष ज्ञान संस्कृत वाङ्मय के अवगाहन से ही हो सकता है यह निर्विवाद सत्य होने के कारण, भारत के बाहर अन्यान्य राष्ट्रों के प्रमुख विश्वविद्यालयों में संस्कृत का अध्ययन बड़े आदर से होता है।
आधुनिक भाषा-वैज्ञानिकों के मतानुसार दक्षिण भारत की तमिल, मलयालम, तेलुगु, तुळू, कोडगू, तोडकोटा और कैकाडी भाषाओं को द्राविड भाषा परिवार के अन्तर्गत माना जाता है। साथ ही मध्य भारत की गोंडी, कुरुख, माल्टो, कंध, कुई, और कोलामी जैसी वन्य जातियों की भाषाएं भी द्राविड भाषा परिवार के अन्तर्गत मानी जाती हैं। काल्डवेल नामक भाषा वैज्ञानिक ने, द्राविड भाषाओं का तौलानिक अध्ययन अपने शोध प्रबन्ध द्वारा प्रस्तुत किया है, जिसमें संस्कृत और तमिल भाषा में दृश्यमान भेद विशद करने का प्रयास किया है। इस विभिन्नता के बावजूद, भारत की आर्यपरिवारान्तर्गत भाषाओं के विकास में जिस मात्रा में संस्कृत की सहायता मिली है, उसी मात्रा में द्रविड परिवार की प्रमुख दाक्षिणात्य भाषाओं के विकास में भी संस्कृत की पर्याप्त सहायता मिली है। मलयालम भाषा में तो संस्कृत के तद्भव और तत्सम शब्दों का प्रमाण प्रतिशत 80 तक माना जाता है। भारतीय भाषाओं में जो विभाजन रेखा पाश्चात्य भाषविज्ञों ने निर्माण की है उसे मानने पर भी उत्तर और दक्षिण भारत की न्यान्य भाषाओं को एकात्मक एवं एकरूप करनेवाली भाषा संस्कृत ही है । इस दृष्टि से भारत की भाषिक एकात्मता चाहने वाले सभी सज्जनों को संस्कृत की श्रीवृद्धि करना अत्यावश्यक है ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 5
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प्रकरण - 2 1 वेदवाङ्मय
संसार के सभी देशों के विद्वानों ने भारत के वेद वाङ्मय की अतिप्राचीनता और श्रेष्ठता शिरोधार्य मानी है। धर्म, शास्त्र, दर्शन, विद्या, कला आदि विविध सांस्कृतिक विषयों के मूल तत्त्व, अन्वेषकों को वैदिक वाङ्मय में ही दिखाई देते हैं। महाराष्ट्रीय ज्ञानकोष के विख्यात निर्माता डॉ. श्रीधर व्यंकटेश केतकर, ज्ञानकोष की अपनी प्रस्तावना में, वेदों का महत्त्व वर्णन करते हुए कहते हैं, "वेद सब विद्याओं का उद्गम स्थान है इस विषय में अधिक लिखने की आवश्यकता नहीं है। अपने (भारतीय) तथा अनेक यूरोपीयों के सामान्य पूर्वजों के प्राचीनतम स्थितिबोधक वाङ्मयान्तर्गत अवशेष के नाते से, वेदों को विश्व के वाङ्मयीन इतिहास में अग्रस्थान देना आवश्यक है, यह बात यूरोपीय पंडितों ने भी मान्य की है। हजारों वर्षों से कोटि कोटि भारतीय लोग वेदाक्षरों को ईश्वरी वाणी मानते आए हैं। भारतीय वाङ्मय में वेद ही प्राचीनतम होने के कारण, भारतीयों का आध्यात्मिक जीवनक्रम और उनकी संस्कृति का यथार्थ ज्ञान, वैदिक वाङ्मय का अध्ययन किये बिना प्राप्त नहीं होगा। उसी प्रकार वेदकालीन परिस्थिति ठीक समझे बिना एवं पूर्वस्थितिबोधक वाङ्मयान्तर्गत अवशेष समझे बिना, अपने पूर्वजों की जानकारी हमें नहीं होगी, यह जानकर वेदों के विषय में पूज्यबुद्धि धारण करना अपना कर्तव्य है। यूरोपीय विद्वान भी इस तथ्य को समझ गए हैं। चीन, जापान के पंडितों को भी वेदाभ्यास की आवश्यकता है, क्यों कि बौद्ध सम्प्रदाय की जन्मभूमि हिंदुस्थान ही होने के कारण, वेदों की जानकारी के अभाव में, उस सम्प्रदाय का रहस्यज्ञान याने इतिहाससहित ज्ञान, यथार्थतया प्राप्त होना असंभव होगा। नए विद्वानों को पुराना ज्ञान होना आवश्यक है। पश्चिम के इसाई विद्वानों को "पुराना करार" (ओल्ड टेस्टामेंट) समझे बिना “नया करार" (न्यू टेस्टामेंट) नहीं समझ में आ सकता। उसी प्रकार वेदकालीन धर्म और वेदोक्त तत्त्वों को ठीक समझे बिना, किस परिस्थिति में, नवीन मतों एवं धर्मों का उद्गम हुआ यह समझ में आना असंभव है।"
वेदों के प्राचीन और अर्वाचीन अभ्यासकों के मतों का सारसर्वस्व, ज्ञानकोशकार डॉ. केतकर जी के वेदविषयक प्रस्तुत प्रतिपादन में अन्तर्भूत हुआ है। अतः वेदों की महिमा के विषय में अधिक प्रतिपादन करने की आवश्यकता इस प्रकरण में नहीं है।
वेदों के विषय में हिंदू समाज में अतिप्राचीन काल से आत्यंतिक श्रद्धा धधकती रही है। बृहदारण्यक उपनिषद् में कहा है कि, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद, परमात्मा के निःश्वास हैं, (अस्य महतो भूतस्य निःश्वसितम् एतद् यद् ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदो अथर्वागिरसः)। मनुस्मृति में कहा है कि "वेद सर्व ज्ञानमय है (सर्वज्ञानमयो हि सः।) और संपूर्ण वेद, धर्म का मूल है (वेदोऽखिलो धर्ममूलम्) । वेदों की निन्दा करने वालों के प्रति “नास्तिक' शब्द से तिरस्कार व्यक्त किया जाता था- (नास्तिको वेदनिन्दकः)।
वेद का लक्षण अन्यान्य विद्वानों द्वारा विविध प्रकार से बताया गया है। वेदों के विख्यात भाष्यकार सायणाचार्य, “अपौरुषेयं वाक्यं वेदः" याने अपोरुषेय वाक्य को वेद कहते हैं, इस प्रकार "वेद" की व्याख्या करते हैं। आगे चल कर सायणाचार्य कहते हैं कि, "जिस विषय का ज्ञान प्रत्यक्ष और अनुमान द्वारा नहीं हो सकता, उस विषय ज्ञान, वेद द्वारा हो सकता है, इसी में वेद की वेदता है।
(प्रत्यक्षेणानुमित्या वा यस्तूपायो न विद्यते। एतं विदन्ति वेदेन तस्मात् वेदस्य वेदता।।)
अन्यत्र वे कहते हैं, कि “इष्ट की प्राप्ति और अनिष्ट का परिहार करने का अलौकिक उपाय जिसके द्वारा बताया जाता है, उसे वेद कहते हैं- (इष्टप्राप्ति-अनिष्टपरिहारयोः अलौकिकम् उपायम् वेदयते स वेदः ।
आधुनिक काल में आर्य समाज के संस्थापक महर्षि दयानन्द ने “विद्" - धातु के सारे अर्थ ध्यान में लेते हुए वेद का लक्षण बताया है- “विदन्ति-जानन्ति, विद्यन्ते-भवन्ति, विन्दन्ति विदन्ते सर्वाः सत्यविद्याः यैः यत्र वा स वेदः।" याने जिसके सहाय से अथवा जिसके अन्तर्गत, सभी सत्य विद्याओं का ज्ञान प्राप्त होता है उसे वेद कहते हैं।
वेदों के प्रति इतनी उत्कट भक्ति भारतीय समाज में अति प्राचीन काल से दृढतापूर्वक रही अतः उसके अविकृत रक्षण का अद्भूत कार्य इस समाज के विद्यानिष्ठ लोगों ने किया। अविकृत विशुद्ध स्वरूप में संरक्षित वेदों के समान दूसरा कोई भी प्राचीनतम ज्ञाननिधि आज संसार में नहीं है। विशेष आश्चर्य याने यह सारी महान् ज्ञानराशि वैदिकों ने कण्ठस्थ करते हुए सुरक्षित रखी। इसके लिए अष्ट “विकृति" युक्त वेदपठन की अद्भूत पद्धति उन्होंने चालू की।
"जटा माला शिखा रेखा ध्वजो दण्डो रथो घनः।" अष्टौ विकृतयः प्रोक्ताः क्रमपूर्वाः महर्षिभिः।। इस श्लोक में उन आठ विकृतियों याने पद्धतियों का यथाक्रम नामनिर्देश किया है। पठन की इस पद्धति के कारण ही
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वेदों में विकृतता निर्माण नहीं हुई। वेदों का रक्षण एवं वेदार्थ की मीमांसा के उद्देश्य से "अनुक्रमणी" नामक सूची ग्रंथों की रचना हुई। इसके द्वारा किसी भी मंत्र के ऋषि, देवता और छंद का पता मिलता है। शौनक की अनुवाकानुक्रमणी और कात्यायन की सर्वानुक्रमणी ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। माधवभट्ट ने भी दो सर्वानुक्रमणियां लिखीं। यजुर्वेद की शुक्लयजुः सर्वानुक्रमणी, अथर्ववेद की बृहत्सर्वानुक्रमणी और सामवेद की अनेक अनुक्रमणियां विद्यमान हैं।'
वेदों की उत्पत्ति के विषय में प्राचीन ग्रंथों में एकवाक्यता नहीं दिखाई देती। एक मत है कि वेद परमात्मा के मुख से निकले शब्द हैं। पुराणवाङ्मय में इसी दृष्टि से आविर्भूत, विनिःसृत उत्सृष्ट आदि शब्दों का प्रयोग किया गया है। परंपरा के अनुसार ब्रह्मा के चार मुखों से चार वेदों का निर्माण माना जाता है। ब्रह्मा को ही प्रजापति कहा गया है। उनका हुंकार प्रथम ऋषियों ने सुना इसलिये उसे "श्रुति' कहा गया। वेद शब्दरूप होने से आकाश से उत्पन्न हुए, यह भी एक मत है। शब्द, आकाश का ही गुण है। हृदयाकाश या चिदाकाश से जो दिव्य वाणी प्रकट हुई, वही वेद कहलाई। यह वाणी तपस्या में निमग्न ऋषियों के अंतःकरण में प्रकट हुई - इसी कारण वेदों की स्फूर्ति जिन ऋषियों को हुई, वे मंत्रों के द्रष्टा थे (रचयिता नहीं) यह माना जाता है।
विष्णुपुराण में वेदों का प्रवर्तन विष्णु भगवान द्वारा कहा है। अन्य पुराणों में यह भी उल्लेख है कि वेद की प्राप्ति वामदेव याने शिव से हुई । शिव के जो पांच मुख हैं, उनमें एक वामदेव है। ऋक्, यजुस्, साम का मूलस्थान भी रूद्र ही है।
कई पुराणों में, वेदों की निर्मिति ओंकार या प्रणव से मानी गई है। शिवपुराण (7, 6, 27) के अनुसार अ, उ, म् और सूक्ष्म नाद से ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद एवं अथर्ववेद निर्माण हुए। भगवद्गीता (7, 8) के अनुसार सारा वाङ्मय ही ओंकार से निर्मित है। महाभारत में भी कहा गया है कि पहले वेद एक मात्र था। वह ओंकारस्वरूप था। देवीमाहात्म्य में देवी को यह श्रेत्र दिया गया है । मत्स्यपुराण में गायत्री को वेदमाता माना गया है। कुछ पुराणों में सूर्य से वेदों की उत्पत्ति कही गई है।
प्रारंभिक अवस्था में वेद एकमात्र था। भगवान व्यास ऋषि ने यज्ञविधि के अनुसार उस का चार भागों में विभाजन किया। इसी कारण उन्हें "वेदव्यास" (याने वेदों का विभाजन अथवा विस्तार करने वाले) कहते हैं। चारों वेदों का मण्डल, अष्टक, वर्ग, सूक्त, अनुवाक्, खण्ड, काण्ड, प्रश्न, छंद इत्यादि विविध प्रकारों से वर्गीकरण किया गया। गद्य और पद्य भाग के प्रत्येक अक्षर का परिगणन हुआ। सब प्रकार के धार्मिक कर्मों में वेदमंत्रों का यथोचित विनियोग कर, वैदिक हिंदुओं ने वेदों को अपनी जीवनपद्धति में महत्वपूर्ण स्थान दिया।
संहिता और ब्राह्मण "मन्त्र-ब्राह्मणयोः वेदनामधेयम्" इस वचन के अनुसार मन्त्र और ब्राह्मण स्वरूप वाङ्मय को वेद कहते हैं। मन्त्रों के समुच्चय को "संहिता' कहते हैं। अर्थात् संहिता और ब्राह्मण ग्रन्थ मिलाकर वेदवाङ्मय होता है। "ब्राह्मण' - नामक ग्रन्थों में संहिता के मन्त्रों का सविस्तर विवरण किया गया है। यज्ञयागों का सविस्तर प्रतिपादन यही ब्राह्मण ग्रन्थों का मुख्य उद्देश्य है और उसी दृष्टि से उनमें वेदों का विवरण किया है।
ब्राह्मण ग्रंथों के तीन विभाग होते हैं- (1) ब्राह्मण, (2) आरण्यक और (3) उपनिषद्। इस प्रकार संपूर्ण वैदिक वाङ्मय में (1) मंत्र संहिता (2) ब्राह्मण, (3) आरण्यक और (4) उपनिषद् इनका मुख्यतः अन्तर्भाव होता है।
प्रतिपाद्य विषय की दृष्टि से वेदों के दो विभाग माने जाते हैं :- (1) कर्मकाण्ड और (2) ज्ञानकाण्ड। संहिता, ब्राह्मण और अंशतः आरण्यक इनमें प्रमुखतया वैदिक कर्मकाण्ड का और उपनिषदों में केवल ज्ञानकाण्ड का प्रतिपादन मिलता है।
इस चतुर्विध वैदिक वाङ्मय का मानवी जीवन के, ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास इन चार आश्रमों से संबंध जोडा जाता है। ब्रह्मचर्याश्रम में संहिताओं का पठन, गृहस्थाश्रम में, ब्राह्मण ग्रन्थानुसार यज्ञ-यागादि कर्मों का आचरण, वानप्रस्थाश्रम में अरण्यवास करते हुए, आरण्यकों के अध्ययन द्वारा यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का आकलन और संन्यास आश्रम में कर्मकाण्ड का परित्याग कर उपनिषदों का श्रवण, मनन, और निदिध्यासन करते हुए, परम पुरुषार्थ (मोक्ष) की प्राप्ति, इस प्रकार चतुर्विध वेदवाङ्मय का जीवन की चतुर्विध अवस्थाओं से वैदिकों ने संबंध जोडा था।
श्रीशंकराचार्य के अनुसार, वैदिक धर्म प्रवृत्तिपर और निवृत्तिपर माना हुआ है। (द्विविधो हि वैदिको धर्मः प्रवृत्तिलक्षणः निवृत्तिलक्षणः च) वैदिक वाङ्मय की संहिता और ब्राह्मणों का प्रवृत्तिपर धर्म से और आरण्यक (अंशतः) तथा उपनिषदों का निवृत्तिपर धर्म से संबंध माना गया है।
प्रस्थानत्रयी उपनिषद् वाङ्मय, वेदों का अन्तिम भाग होने के कारण, उसे 'वेदान्त' भी कहते हैं। बादरायण व्यास ऋषि ने उपनिषदों को व्यवस्थित रूप देने के लिए ब्रह्मसूत्र अथवा शारीरक सूत्रों की रचना की। श्रीमद्भगवद्गीता में भी (ब्रह्मसूत्रों के समान) उपनिषदों का सार-सर्वस्व समाविष्ट होने के कारण, वेदान्त वाङ्मय में उपनिषदों के साथ ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता का भी अन्तर्भाव होता है
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/7
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और उन तीनों को मिलाकर "प्रस्थानत्रयी' कहते हैं। अर्थात् वैदिक धर्म का संपूर्ण स्वरूप यथार्थतया समझने के लिए संहिता, ब्राह्मण, आरण्यक और उपनिषदों के साथ ही ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता का भी अध्ययन नितान्त आवश्यक है। संहिता, ब्राह्मण
और आरण्यक (अंशतः) प्रवृत्तिपर वैदिक धर्म की प्रस्थानत्रयी है और उपनिषद् ब्रह्मसूत्र और गीता निवृत्तिपर वैदिक धर्म की प्रस्थानत्रयी है। ऋक्संहिता, यजुःसंहिता और सामसंहिता को मिलाकर "त्रयी' कहते है।
2 ऋग्वेद संहिता प्रसिद्ध ज्योतिःशास्त्रज्ञ वराहमिहिर कहते हैं कि, "वेदो हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः' - अर्थात् वेदों की निर्मिति परमात्मा ने यज्ञों के लिए ही की है। यज्ञविधि में होता, अध्वर्यु, उद्गाता और ब्रह्मा नामक चार ऋत्विजों की आवश्यकता होती है और उन चारों का ऋग, यजुस्, साम और अथर्व वेद से यथाक्रम संबंध रहता है।
यज्ञविधिं के समय विशिष्ट देवताओं का प्रशंसापर मन्त्रों व्दारा आवाहन करनेवाले ऋत्विक् को "होता" कहते हैं। देवताओं के आवाहन के निमित्त आवश्यक मन्त्रों का संकलन जिस संहिता में हुआ है वही है ऋक्संहिता अथवा ऋग्वेद। "ऋच्यते-स्तूयते प्रतिपाद्यः अर्थः यथा सा ऋक्" - याने जिस मन्त्र द्वारा प्रतिपाद्य विषय का स्तवन किया जाता है उसे "ऋक्" कहते है। इन ऋचाओं का समूह याने ऋग्वेद - (ऋचां समूहो ऋग्वेदः।) ऋग्वेद संहिता में सभी मन्त्र पादबद्ध अथवा छन्दोबद्ध होते है।
इस ऋग्वेद का सूक्त और मण्डल रूप में विभाजन शाकल ऋषि ने किया। "सूक्त" याने जिन मन्त्रों में ऋषि की कामना संपूर्णतया व्यक्त होती है ऐसा मन्त्रात्मक स्तोत्र- (संपूर्णऋषिकामं तु सूक्तमित्यभिधीयते। - बृहद्देवता)
वैदिक सूक्त चार प्रकार के होते हैं : (1) ऋषिसूक्त - अर्थात एक ही ऋषि के मंत्रों का समूह । (2) देवतासूक्त - अर्थात् एक ही देवता की स्तुति का मन्त्रसमूह। (3) अर्थसूक्त - अर्थात् एक विशिष्ट अर्थ की समाप्ति तक के मंत्रों का समूह । और (4) छन्दःसूक्त - अर्थात् समान छन्द के मंत्रों का समूह।
ऋग्वेद का विभाजन और भी दो प्रकार से किया गया है: (1) मण्डल, अनुवाक् एवं सूक्त और (2) अष्टक, अध्याय, वर्ग। संपूर्ण ऋग्वेद संहिता में 10 मण्डल, 85 अनुवाक् और 1017 सूक्त हैं। अथवा 8 अष्टक, 64 अध्याय और 208 वर्ग विद्यमान हैं। सारे मंत्र 15 छंदों में रचित हैं जिनमें गायत्री, उष्णिक्, अनुष्टुप, पंक्ति, बृहती और जगती प्रमुख माने जाते हैं। संपूर्ण मंत्रों की संख्या है 10580 शब्दों की संख्या है 1,53,826 और अक्षरों की संख्या 4,32,000 है। ऋग्वेद का प्रारंभ अग्निसूक्त से और अंत संज्ञानसूक्त से होता है।
- ऋग्वेद के द्रष्टा ऋग्वेद में अनेक ऋषियों का निर्देश हुआ है। भारतीय परंपरा के अनुसार ऋषि मंत्रों के "द्रष्टा" हैं, रचयिता नहीं [ऋषयो मन्त्रद्रष्टारः । ऋषिर्दर्शनात् (यास्काचार्य)] ऋग्वेद के ऋषिगण अन्यान्य कुटुंबों से संबंधित हैं। केवल प्रथम और दशम मण्डल में अन्यान्य परिवार के ऋषि के मंत्र संगृहीत किए हुए हैं।
आठवे मण्डल में कण्व और अंगिरा ऋषि के मंत्र हैं। इस मण्डल में “प्रगाथ"- नामक छंद का प्राधान्य होने के कारण, इस मण्डल के ऋषियों को "प्रगाथ" कहते हैं।
नवम मण्डल में सोमविषयक मंत्रों का संग्रह है। सोम को "पवमान" याने पावन करनेवाला कहते हैं। अतः इस मण्डल को “पवमान मण्डल" कहते हैं।
दशम मण्डल में अन्यान्य कुलों के ऋषियों के मंत्रों का संग्रह है। इस मण्डल में केवल देवतास्तुति के अतिरिक्त अन्य विषयों का भी समावेश हुआ है। द्वितीय मण्डल से सप्तम मण्डल तक एक एक कुल के ही ऋषियों मे मन्त्रों का संग्रह है। जैसे :- मण्डल 2-गृत्समद्। 3-विश्वामित्र। 4-वामदेव। 5-अत्रि। 6-भारद्वाज। 7-वसिष्ठ। __ कुछ अन्वेषकों के मतानुसार ऋग्वेद का दशम मण्डल उत्तरकालीन माना जाता है। पहले और दसवे मण्डल के सूक्तों की संख्या प्रत्येकशः 191 है।
व्यासकृत चरणव्यूह नामक ग्रंथ में (जिस पर महीदास की महत्त्वपूर्ण टीका उपलब्ध है) ऋग्वेद की पाच शाखाएं बताई हैं:- (1) शाकल, (2) बाष्कल, (3) आश्वलायन, (4) शांखायनी और (5) माण्डूकेयी। इनमें से आज शाकल और बाष्कल शाखा की ही संहिता उपलब्ध है।
ऋग्वेद संहिता निर्माण होने के पश्चात् उसे शुद्ध स्वरूप में सुरक्षित रखने के लिए तथा अर्थज्ञान के लिए उसका "पदपाठ" तैयार करने का कार्य शाकल्य ऋषि ने किया। शाकल्य का समय, निरुक्तकार यास्क (ई. 3 शती) और ऋप्रातिशाख्यकार शोनक (ईसा पूर्व) से भी प्राचीन माना जाता है। इस का कारण यही है कि, यास्काचार्य ने शाकल्य के वचन उद्धत किए हैं और ऋप्रातिशाख्य की रचना शाकल्य के पदपाठ पर ही आधारित है।
ऋग्वेद के सूक्तों में मन्त्रों की संख्या 3 से 58 तक है। तथापि सामान्यतः प्रत्येक सूक्त की मंत्रसंख्या 10 से 13 तक दिखाई देती है।
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ऋग्वेदी परंपरा भगवान व्यास के ऋग्वेदी शिष्य पैल ऋषि ने अपनी संहिता के दो विभाग कर, एक बाष्कल को और दूसरी इन्द्रप्रमिति को पढाई। बाष्कल की शाखा में बाध्य, अग्निमाठर, पराशर और जातुकर्ण्य इत्यादि शिष्य-परंपरा निर्माण हुई। इन्द्रप्रमिति की शाखा में, माण्डूकेय, सत्यश्रवा, सत्यहित, सायश्रिय, देवमित्र, शाकल्य, रथीतर, शाकपूणि, बाष्कली, भारद्वाज इत्यादि शिष्य-परंपरा निर्माण हुई। इन में देवमित्र और शाकल्य ने शिष्य परंपरा का अधिक विस्तार किया।
ऋग्वेद की 21 शाखाओं में शाकल, बाष्कल, आश्वलायन, शांखायन और माण्डूकेय यह पाच शाखाएं प्रमुख मानी जाती हैं। तथापि उनमें केवल शाकल शाखा की संहिता आज उपलब्ध है और उसी का सर्वत्र अध्ययन होता है। शांखायन शाखा की संहिता उपलब्ध नहीं है (कहते हैं कि पांडुलिपि विद्यमान है।) तथापि शांखायन शाखीय ब्राह्मण, आरण्यक और कल्पसूत्र (श्रौत और गृहय) उपलब्ध हैं। उसी प्रकार शांखायनों के (शाखायन, कौषीतकी, महाकौषीतकी और शावध्य नामक) चार विभागों में से, केवल कौषीतकी शाखा के ब्राह्मण, आरण्यक, श्रौतसूत्र और कल्पग्रंथ उपलब्ध हैं।
3 वेदकाल पाश्चात्य विद्वानों ने अन्यान्य प्रमाणों के आधार पर वेद संहिताओं की रचना का काल निर्धारित करने के जो प्रयास किए वे सर्वथा अभिनन्दनीय हैं। परंतु इस विषय में आज तक विद्वानों में एकवाक्यता नहीं हो सकी और आगे चलकर वह होने की संभावना भी नहीं है। भारतीय प्राचीन परंपरा के अनुसार वेद के आविर्भाव का कालनिर्णय करना असंभव माना गया है। इतिहासज्ञों के मतानुसार वेद संसार की आद्य ज्ञानराशि मानी गयी है। उसकी निर्मिति के विषय में इसा पूर्व 1000 से 75000 वर्षों तक का काल निर्धारित करने वाले गतभेद प्रसिद्ध हैं। इस विषय में विद्वानों के मत निम्न प्रकार हैं। प्रो. मैक्समूलर ईसापूर्व 13 वीं सदी
प्रो. लुडविग्
ईसापूर्व 45 से 60 वीं सदी प्रो. मैकडोनेल ईसापूर्व 13 वीं सदी
प्रो. हाग
ईसापूर्व 45 से 60 वीं सदी प्रो. वेबर ईसापूर्व 15 से 12 वीं सदी लोकमान्य तिलक
ईसापूर्व 45 से 60 वीं सदी प्रो. व्हिटनी ईसापूर्व 20 से 15 वीं सदी
श्री शंकर बालकृष्ण पावगी। ईसापूर्व 70 वीं सदी प्रो. केजी ईसापूर्व 20 वीं सदी
श्री अविनाशचंद्र दास ईसापूर्व 250 से 750 वीं सदी प्रो. याकोबी
ईसापूर्व 45 से 60 वीं सदी वेदकाल के विषय में इन विद्वानों ने अपना मत प्रतिपादन करने के लिए जो विविध युक्तिवाद या तर्क प्रस्तुत किए, उनका सारांश इस प्रकार कहा जा सकता है :
प्रो. मैक्समूलर का कहना है कि, बौद्ध धर्म का उद्गम ब्राह्मण धर्म की प्रतिक्रिया में अर्थात् वैदिक धर्ममतों का विरोध और खंडन करने के लिए ही हुआ। अर्थात् बौद्ध धर्म के उद्गम (ईसापूर्व 500) के पहले संपूर्ण वैदिक वाङ्मय से सूत्र, ब्राह्मण और संहिता की रचना का काल प्रो. मैक्समूलर ने सामान्य तर्क के आधार पर इस प्रकार निर्धारित किया है:
सूत्रकाल - इ. पू. 600 से 200 तक। ब्राह्मणकाल - इ. पू. 800 से 600 तक । संहिताकाल - इ. पू. 1000 से 800 तक।
काव्यविकास के लिए सामान्यतः दो सौ वर्षों का समय लगता है इस कारण वैदिक साहित्य का आरंभ ईसा पूर्व 1200 से 1000 वर्षों तक ही मानना योग्य होगा ऐसा मैक्समूलर के प्रतिपादन का सार है।
प्रो. याकोबी और लोकमान्य तिलक सन 1893 में जर्मनी के बॉन शहर में प्रो. याकोबी और महाराष्ट्र के पुणे शहर में लोकमान्य तिलक, जिन दोनों का । परस्पर कोई संपर्क या संबंध नहीं था, वेदकाल के विषय में अन्वेषण कर रहे थे। दोनों की कालनिर्धारण की पद्धति अलग अलग थी; परंतु दोनों का निष्कर्ष एक समान निकल आया। उनके प्रतिपादन का संक्षेप इस प्रकार कहा जा सकता है :
ब्राह्मण काल में नक्षत्रों की गणना कृतिका से होती थी। वेदों में उन्हें एक वर्ण मिला, जिस में कहा है कि कृत्तिकाओं के उदय काल में “वासन्ती संक्रान्ति" (व्हर्नल एक्विनॉक्स) भी हो रही थी। ग्रहगति की गणना के आधार पर इन विद्वानों ने निष्कर्ष निकाला कि, ईसापूर्व सन 2500 में कृत्तिका नक्षत्र के उदयकाल पर, “वासन्ती संक्रान्ति' होना संभव है, अर्थात ब्राह्मण ग्रंधों का रचनाकाल वही होने की संभावना है।
वैदिक संहिता में उन्हें और एक ऐसा वर्णन मिला कि जिसके अनुसार मृगशिरा नक्षत्र में वासन्ती संक्रान्ति हो रही थी। अयनगति की गणना के अनुसार सृष्टिचक्र में यह अवस्था ईसापूर्व सन 4500 में हो सकती है। अर्थात् यही संहिता की रचना का काल होना संभव है।
संस्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/9
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लोकमान्य तिलक और याकोबी इन दोनों पंडितों ने ज्योतिषशास्त्र के आधार पर संहिता और ब्राह्मण ग्रंथों की रचना का समय निर्धारित किया है, फिर भी दोनों के प्रतिपादन में अंतर है। याकोबी ईसापूर्व 4500 से 2500 तक संहिताकाल मानते हैं और इस काल के उत्तरार्ध में संहिताओं की रचना मानते हैं। जब कि लोकमान्य तिलक ईसापूर्व 4500 से 2500 वर्ष पीछे जाकर, ईसापूर्व 6000 में संहिता की निर्मिति मानते हैं। पाश्चात्य और भारतीय विद्वानों की वेदकालनिर्णय के विषय में दृष्टि किस प्रकार की थी इस की कल्पना इस उदाहरण से ठीक समझ में आ सकती है।
विंटरनिट्झ का मत ज्योतिष और भूगर्भशास्त्र के आधार पर वेदों का काल ई. पू. 6000 अथवा 2500 मानना विंटरनिट्झ योग्य नहीं समझते। वे ब्राह्मण ग्रंथों के आधार पर पाणिनि ने अपने व्याकरण में निर्धारित की हुई संस्कृत भाषा और अशोक के शिलालेखों की (इ. स. 300) भाषा, इनका वैदिक भाषा से साम्य ध्यान में लेकर, ऋग्वेद का समय इसी (याकोबी और तिलक द्वारा निर्धारित) कालखंड में संभवनीय मानते हैं।
शिलालेखों का अध्ययन करनेवाले विद्वानों ने यह मत प्रतिपादन किया है कि ई. पू. 300 तक दक्षिण भारत में आर्यों का तथाकथित ब्राह्मणधर्म दृढमूल हो चुका था। बोधायन और आपस्तंब इत्यादि वैदिक शाखाओं का प्रचार भी इस इस समय तक दक्षिण में हो गया था। अर्थात् उत्तर से दक्षिण की ओर प्रगति करने वाले आर्यों का दक्षिणदिग्विजय (जिसे अनेक विद्वान सर्वथा काल्पनिक और अनैतिहासिक मानते हैं) ई. पू. 700-800 तक पूर्ण हो चुका होगा। विजय पाने पर धर्मप्रचार करने में काफी अवधि लगती है। अतः ई.पू. 300 आर्यों के दक्षिण-दिग्विजय का काल मानना उचित नहीं होगा। ई. पू. 300 आर्यों के दक्षिण में पहुंचे होंगे तो, भारत के उत्तर में और अफगानिस्तान में उनका वास्तव्य ई. पू. 1200 से 1500 की अवधि में रहा होगा। इसी समय के पूर्व सिंधु नदी के किनारे पर वेदों की रचना होना संभव है।
जे. हर्टल नामक विद्वान, ऋग्वेद की रचना भारत की वायव्य दिशा में नहीं मानते। वे झरतुष्ट (इ. पू. 500) के बाद में ईरान में वेदों की रचना मानते थे।
. प्रा. बूलर, पांच-सातसो वर्षों की अल्पावधि में आर्यों का अखिल भारतीय दिग्विजय संभवनीय नहीं मानते परंतु ओल्डेनबर्ग उसे संभाव्य मानते है।
प्रो. जी. ह्यूसिंग ने कूनीफार्म शिलालेख के कुछ नामों का ऐसा कुछ रूपांतर किया है कि जिस कारण वे नाम भारतीय नामों से मेल खाते हैं। उन नामों के आधार पर उन्होंने निष्कर्ष निकाला है कि आर्य लोग ई. पू. 1000 के आगे-पीछे आर्मिनिया से अफगानिस्थान में आए होंगे और वहीं उन्होंने वेदों की रचना की होगी, क्यों कि वेदों में वर्णित कुछ प्राकृतिक वर्णन अफगानिस्तान के प्राकृतिक दृश्यों से मेल खाते हैं।
बोधाझकोई का इष्टिकालेख 1907 में एशिया मायनर के बोधाझकोई नामक स्थान में, ह्यूगो विकलर नामक अन्वेषक को, एक इष्टिकालेख प्राप्त हुआ। लेख का संबंध हिट्टाइट और मिट्टानी के राजाओं में हुई संधि से है। यह घटना ई. पू. 14 वीं शताब्दी की मानी गई है। लेख में संधि के संरक्षक देवताओं की नामावलि में बाबिलोनी और हिट्टाइट की देवताओं के नामों के साथ मित्र, वरुण, इंद्र और नासत्यौ इन मिटानी (अथवा मितनी) देवताओं के नामों का निर्देश और कुछ भारतीय पद्धति के संख्या चित्र भी मिलते हैं। इन वैदिक देवताओं के नामों के कारण इस इष्टकालेख लेख को वैदिक अन्वेषकों की दृष्टि से असाधारण महत्त्व प्राप्त हुआ।
सुप्रसिद्ध इतिहासज्ञ एडवर्ड मेयर कहते हैं कि जिस कालखंड में भारतीय और ईरानी समाजों की भाषा और धर्मप्रणाली अविभक्त थी उस काल में मेसोपोटोमिया और सीरिया इन प्रदेशों में आर्यों का प्रवेश हो चुका था। इसी काल में आर्य लोग भारत के वायव्य प्रदेश में वास्तव्य करने लगे थे। इसी कारण ई. पूर्व. 14 वीं शती के बोधाझकोई इष्टकालेख में मित्र, वरुण, इंद्र नासत्यौ इन वैदिक देवताओं का नामोल्लेख मिलता है। एवम् आर्यों की ईरान से अफगानिस्थान द्वारा सिंधु नदी की दिशा से होनेवाली प्रगति और वेदों में उपलब्ध सप्तसिंधु प्रदेश का वर्णन इन दो बातों का समन्वय करते हुए कुछ विद्वानों ने वेदरचना का काल ई. पू. 1400 पहले का माना है।
बोधाझकोई के संदर्भ में एक स्वाभाविक शंका यह है कि मूलतः भारतवासी आर्य लोग दिग्विजय अथवा वैवाहिक संबंधों के कारण, पश्चिम की ओर आगे बढे होंगे और ई. पू. 14 वीं शताब्दी में बोधाझकोई की घटना में अपनी इष्ट देवताओं के नाम सन्धिलेख में उन्होंने प्रविष्ट किए होंगे। पाश्चात्य मतानुयायी विद्वानों को यह सयुक्तिक शंका एक चुनौती है और उसका निरसन करना उनके लिए कठिन है।
वेबर के मतानुसार ई. पू. 16 वीं शताब्दी में ईरान के आस पास रहनेवाले लोगों के समूह ने भारत की ओर प्रस्थान
भों का नामोल्लेख मिलता कारण ई. पूर्व. 14 वीं शताश हो चुका था। इसी कार धर्मप्रणाली
10 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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किया। सिंधु नदी के तट पर निवास करते समय इस समूह के विद्वानों ने वैदिक ऋचाओं की रचना की। उन ऋचाओं के संग्रह को ही ऋग्वेद कहते हैं।
मंत्र, ब्राह्मण और सूत्र इनकी निर्मिति का मैक्समूलर के माने हुए सूत्रकाल (ई. पू. 1200-1000) के बारे में व्हिटनी का मतभेद है। छंदों का काल व्हिटनी के मतानसार ई.पू. 2000 से 1500 तक माना गया है। प्रो. केणी ने व्हिटनी के मत को अपनी अनुमति दी है।
प्रो. हाग ने वेदांग ज्योतिष के आधार पर वेदकाल का निर्णय करने का प्रयत्न किया है। अपने अध्ययन से प्रो. हाग ने यह निष्कर्ष निकाला है कि, ई. पू. 12 वीं शताब्दी के पहले भारतीयों का ज्योतिष शास्त्र का ज्ञान इतना अधिक प्रगत हुआ था कि (1) वे नक्षत्र-तारकाओं के विषय में सूक्ष्म निरीक्षण कर सकते थे। (2) ब्राह्मण ग्रंथों में प्रायः सभी क्रिया कर्मों का समावेश हो चुका था। हाग के मतानुसार ब्राह्मणों की रचना का समय ई. पू. 1400 से 1200 तक और संहिताओं की रचना का काल ई. पू. 2000 से 1400 तक निर्धारित हुआ है। तथापि कुछ ऋचाओं एवं यज्ञविधि में मंत्रों का काल इस के कई शतक पहले हो सकता है। तात्पर्य वैदिक साहित्य का प्रारंभ काल ई. पू. 24 वीं शताब्दी मानने में प्रत्यवाय नहीं होना चाहिए। संभवतः यही ऋग्वेद का प्रारंभ काल था।
"चत्वारीति वा अन्यानि नक्षत्राणि अर्थतः एवं भूयिष्ठा यत् कृत्तिकास्वादधीत एता ह वै प्राचो दिशो न च्यवन्ते। सर्वाणि ह वा अन्यानि नक्षत्राणि प्राच्य दिशश्चवन्ते" इस मंत्र के आधार पर ऋग्वेद का समय निर्धारित करने का प्रयत्न ज्योतिर्विदों ने किया है। प्रस्तुत मंत्र में कहा है कि, अन्य सारे नक्षत्र पूर्व दिशा की ओर जाते हैं, परंतु कृत्तिका नक्षत्रपुंज पूर्व की ओर नहीं जाता। शतपथ ब्राह्मण के इस वर्णन के अनुसार कृत्तिका नक्षत्र की स्थिति ई. पू. 3000 के समय हो सकती है। अतः वही कृत्तिका नक्षत्र का काल हो सकता है। तैत्तिरीय संहिता, शतपथ से पूर्वकालीन होने के कारण, उसका समय शतपथ से दो सौ वर्ष पूर्व माना जा सकता है। तात्पर्यतः ऋग्वेद संहिता ई. पू. 3200 से भी पूर्वकालीन होनी चाहिए।
लोकमान्य तिलक लोकमान्य तिलक का सांस्कृतिक कार्य उनके राजनैतिक कार्य जैसा ही महान था। प्राचीन संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में उनका योगदान अनेक दृष्टि से महत्त्वपूर्ण माना जाता है। उन्होंने संपूर्ण संस्कृत वाङ्मय में यत्र तत्र उपलब्ध ज्योतिःशास्त्र विषयक निर्देशों के आधार पर वैदिक वाङ्मय की निर्मिति के चार विभाग किये हैं :
(1) मृगशीर्ष-पूर्व काल (प्री-ओरायन पीरियड)-ई. पू. 6000 से 4000 (2) मृगशीर्षकाल-(ओरायन पीरियड) ई. पू. 4000 से 2500 (3) कृत्तिकाकाल-ई. पू. 2500 से 1400 (4) सूत्रकाल-ई. पू. 1400 से 500
अपने “ओरायन" (मृगशीर्ष) नामक पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ की प्रस्तावना में लोकमान्यजी ने, वेदकाल विषयक अपना मत-प्रतिपादन स्पष्टतया किया है। वे कहते हैं कि "ऋग्वेद में निर्देशित परंपरा जिस जिस काल का संकेत करती है, वह काल ई. पू. 4000 के बाद का नहीं है। यह काल याने, जब वसंत संपात मृगशीर्ष में होता था, अर्थात् मृगशीर्ष से विषुवीय वर्ष का प्रारंभ होता था।
ऋग्वेद का यही काल जर्मन पंडित प्रो. कायाकोबीने ने भी निर्धारित किया है। उन्होंने अपना निष्कर्ष, ऋग्वेद से आधुनिक काल तक, ऋतु चक्र में जो क्रमशः परिवर्तन हुए, उसके आधार पर किया है।
डा. रामकृष्ण गोपाल भांडारकर ने वेदों में प्रयुक्त "असुर" शब्द का "असिरीयन्" शब्द से साम्य दिखाते हुए ई. पू. 2500 तक वेद-रचना का काल निश्चित किया है।
. अथर्ववेद का काल अर्थववेद का नाम-निर्देश ऋग्वेदीय शांखायन तथा आश्वालायन श्रौत सूत्रों में, कृष्ण यजुर्वेदी तैत्तिरीय ब्राह्मण में, शुक्ल यजुर्वेदी शतपथ ब्राह्मण में और पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में मिलता है। इन ब्राह्मण ग्रंथों ने वेदत्रयी से इस चतुर्थवेद का संबंध जोडा है और इसे त्रयी का "शुक्र' अर्थात रहस्य माना है। इसका प्रमुख कारण यह है कि, इस में तीनों वेदों के मंत्र संगृहीत हुए है।
__ भाषा की दृष्टि से ऋग्वेदीय मंत्रों का अंश छोड कर, अन्य मंत्रों की भाषा में, भाषाशास्त्रज्ञों की दृष्टि से अपनी कुछ निजी विशेषता मानी जाती है । तथापि केवल उसी एक प्रमाण के आधार पर इस संहिता की रचना का काल निश्चित करना कठिन है।
___ ऋग्वेद और अथर्ववेद में कुछ भौगोलिक और सांस्कृतिक चित्रण अनोखा सा मिलता है। जैसे ऋग्वेद में चित्रक (चीता) का उल्लेख नहीं है, परंतु अथर्ववेद में उस वन्य प्राणी का उल्लेख आता है। यह प्राणी बंगाल में अधिक संख्या में दिखता है अतः अथर्ववेद का संबंध उस प्रदेश से माना जा सकता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 11
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जैसा है और
किया जाता है। इस परोहित अभिचार मनाली यह भिन्नस्वरूप विचार
ना
ऋग्वेद और अथर्ववेद में चार वर्णो का नामोल्लेख है परंतु अथर्ववेद में ब्राह्मण का श्रेष्ठत्व (जो ऋग्वेद में नहीं मिलता) बताया गया है। अथर्ववेद में ब्राह्मण को "भूदेव" माना गया है और उसे पौरोहित्य का अधिकार है।
ऋग्वेद में जिन देवताओं का स्वरूप प्राकृतिक दृश्यों सा है, उनका दर्शन अथर्ववेद में आसुरी और विनाशक स्वरूप में होता है।
इस प्रकार के कुछ प्रमाणों के आधार पर अथर्ववेद का उत्तरकालीनत्व सिद्ध किया जाता है परंतु ऋग्वेद में अथर्वा का निर्देश देख कर दोनों वेदों के समकालीनत्व का भी तर्क किया जाता हैं। तथापि ऋग्वेदीय देवताओं का स्वरूप प्राकृतिक शक्ति जैसा है और ऋषियों द्वारा उनकी भक्तिपूर्ण स्तुति की जाती है। वे देवता मानवों की इच्छापूर्ति करते हैं, इसलिए उन्हें बलिभाग अर्पण कर प्रसन्न किया जाता है। इसके विरुद्ध अथर्ववेद में उन देवताओं का पैशाचिक स्वरूप और मानवों पर आपत्ति लाने की उनकी वृत्ति देख कर, आभिचारिक पुरोहित अभिचार मंत्रों के प्रयोग से उन्हें दूर हटाने का और क्वचित् प्रसन्न करने का प्रयत्न करता है। समकालीन मानी गई संहिताओं में दिखनेवाली यह भिन्नस्वरूप विचारधारा चिन्तनीय है।
___4 यजुर्वेद संहिता यज्ञविधि में दूसरे ऋत्विक् को अध्वर्यु कहते हैं। यज्ञ का सारा क्रियात्मक अनुष्ठान अध्वर्यु द्वारा ही होता है। यह अध्वर्यु जिस वेद के मंत्रों का प्रयोग करता है, वह है यजुर्वेद। अतः यजुर्वेद को ही अध्वर्युवेद कहते हैं। यजुर्वेद के मन्त्र प्रधानतया गद्यात्मक हैं। (गद्यात्मको यजुः) । अथवा जिन मन्त्रों के अक्षरों का अन्त अनिश्चित होता है उसे यजु कहते हैं- (अनियताक्षरावसानो यजुः) ।
___“यजुस्" शब्द जिस "यज्' धातु से साधित हुआ, उस धातु के देवपूजा, संगतिकरण और दान (यज् देवपूजा संगतिकरणदानेषु) ये तीन अर्थ पाणिनीय धातुपाठ में कहे हैं। तदनुसार यजुर्वेद के मन्त्रों का देवपूजा इत्यादि धार्मिक विधियों से संबंध रहता है। ऋचाओं से स्तवन और यजु से यजन करना चाहिए (ऋग्भिःस्तुवन्ति यजुर्भिः यजन्ति) ऐसा सम्प्रदाय है।
पतंजलि के व्याकरण महाभाष्य में कहा है कि, “एकशतम् अध्वर्युशाखाः। यजुरेकशतात्मकम्" याने यजुर्वेद की एक सौ एक शाखाएं थी। परंतु आज उनमें से केवल पाच शाखाएं विद्यमान हैं : (1) कठ शाखा - इसकी कपिष्ठल नामक उपशाखा थी वह आज लुप्त हो चुकी है। इस शाखा के ब्राह्मण काश्मीर में अत्यल्प संख्या में मिलते हैं। (2) कालाप शाखा - इसका दूसरा नाम है मैत्रायणी। आज इस शाखा के लोग गुजरात में कहीं कहीं मिलते हैं। मैत्रायणी संहिता के चार कांड हैं जिनमें 54 प्रपाठक हैं। प्रो. श्रोडर ने काठकी व कालाप शाखाओं का संपादन किया है। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता में सात कांड हैं जिनके 44 प्रपाठक हैं। इसी संहिता की (3) आपस्तम्ब और (4) हिरण्यकेशी नामक दो शाखाएं विद्यमान हैं। इन शाखाओं के ब्राह्मण गोदावरी के परिसर में होते हैं। प्राचीन काल में तैत्तिरीय अथवा आपस्तंब शाखा के लोग नर्मदा के दक्षिण प्रदेश में रहते थे। (5) वाजसनेयी शाखा - ऋषि याज्ञवल्क्य इस शाखा के प्रवर्तक माने गए हैं। वाजसनेयी संहिता की काण्व और माध्यन्दिन नामक दो उपशाखाएं है। काण्वशाखीय महाराष्ट्र में और माध्यन्दिन शाखीय मध्यभारत तथा ईशान्य प्रदेश में मिलते हैं। याज्ञवल्क्य की वाजसनेयी संहिता में 40 अध्याय हैं । अंतिम 40 वां अध्याय ही ईशावास्योपनिषद् नाम से प्रसिद्ध है।
इस प्रकार यजुर्वेद की जो पांच शाखाएं आज यत्र तत्र विद्यमान हैं उनमें से कठ-कपिष्ठल, कालाप, (मैत्रायणी), तैत्तिरीय और काठक इन शाखाओं का कृष्ण यजुर्वेद में अन्तर्भाव होता है। यजुर्वेद के दूसरे भाग का नाम है शुक्ल यजुर्वेद अथवा वाजसनेयी संहिता। काण्व और माध्यन्दिन, शुक्ल यजुर्वेद की उपशाखाएं हैं।
यजुर्वेद का वर्गीकरण
शुक्ल (वाजसनेयी)
कृष्ण (तैत्तिरीय)
काण्व
माध्यन्दिन
आपस्तंब
कठ
काठक
हिरण्यकेशी (कपिष्ठल)
कालकाप (मैत्रायणी)
__ यजुर्वेद की शुक्ल और कृष्ण संज्ञाओं का एक कारण यह बताया जाता है कि- शुक्ल यजुर्वेद की संहिता में केवल मंत्रों का ही संग्रह है। उनका विनियोग बतानेवाले ब्राह्मण भाग का मिश्रण इस संहिता में नहीं है। अतः इसे "शुक्ल' संज्ञा दी गई। कृष्ण यजुर्वेद में छंदोबद्ध मंत्र और उनका विनियोग बतानेवाले गद्यात्मक वाक्य, दोनों का मिश्रण पाया जाता है।
इन संज्ञाओं का दूसरा कारण, एक प्रसिद्ध कथा के द्वारा बताया जाता है। वह कथा इस प्रकार है : वेदव्यास ने संपूर्ण
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यजुर्वेद वैशंपायन को पढाया। वैशम्पायन ने याज्ञवल्क्य को वह पढ़ाया। गुरू-शिष्य के झगड़े में वैशम्पायन ने क्रुद्ध होकर याज्ञवल्क्य से अपना ज्ञान वापिस मांग लिया। अहंकारी याबल्क्य ने उसका वमन किया, जिसका चयन वैशंपायन के अन्य शिष्यों ने तित्तिरी पक्षियों के रूप में किया। इसलिये उस वेद संहिता का नाम तैत्तिरीय संहिता कहा गया।
पुरानी विद्या का वमन करने पर याज्ञवल्क्य ने नवीन वेदविद्या की प्राप्ति के लिए सूर्य भगवान की आराधना की। प्रसन्न होकर सूर्य ने वाजी (घोडा) का रूप लेकर याज्ञवल्क्य को नई संहिता प्रदान की। इसी नई संहिता का नाम है शुक्ल यजुर्वेद । यह संहिता “वाजी' द्वारा प्राप्त होने के कारण इसे "वाजसनेयी' संज्ञा दी जाती है। इस वाजसनेयी संहिता के दो संस्करण आज मिलते है। प्रो. वेबर ने दोनों संस्करणों का संकलन किया है।
वाजसनेयी संहिता में 40 अध्याय, 303 अनुवाक्, 1975 कण्डिकाएं 29625 शब्द और 88875 अक्षर संगृहीत हैं। प्रारंभ के 25 अध्यायों में महान् यज्ञों में आवश्यक मंत्रमय प्रार्थनाएं है। वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड में अन्तर्भूत विविध विषयों का चयन इस संहिता में हुआ है।
काण्व संहिता : शुक्ल यजुर्वेद की इस संहिता में 40 अध्याय, 338 अनुवाक् और 2086 मंत्र हैं। इस संहिता का पांचरात्र संहिता से विशेष संबंध है। पहले यह शाखा उत्तर भारत में थी, परंतु आज वह केवल महाराष्ट्र में ही विद्यमान है।
काठक संहिता : इस संहिता के पांच खंड हैं : (1) इठिमिका, (2) मध्यमिका, (3) ओरमिका, (4) याज्यानुवाक्या, (5) अश्वमेधाद्यनुवचन। इन पांच खंडों में 40 स्थानक, 113 अनुवचन, 843 अनुवाक् और 3091 मंत्र है।
कठकपिष्ठल संहिता : यह संहिता अपूर्ण मिलती है। इसके प्रथम अष्टक में 8 अध्याय हैं। द्वितीय और तृतीय अध्याय खंडित हैं। चतर्थ. पंचम एवं षष्ठ अध्यायों के मंत्र-तंत्र खंडित हैं। बाकी अष्टकों के अध्यायों की संख्या अनिश्चित है। काठक संहिता से यह संहिता अनेक विषयों में विभिन्न सी है।
कालाप (मैत्रायणी) संहिता : इस गद्य-पद्यात्मक संहिता में चार कांड हैं, जिनके प्रपाठकों की संख्या इस प्रकार है : कांड-1 प्रपाठक : 11, कांड- 2-प्र. 13, कांड- 3-प्र.-16, कांड 4-प्र.-14।
इस संहिता में कुल 3144 मंत्र हैं, जिनमें 1701 ऋग्वेद की ऋचाएं है। चातुर्मास्य, वाजपेय, अश्वमेध, राजसूय, सौत्रामणि इत्यादि यज्ञों के विधि और मंत्र इस संहिता में मिलते हैं।
तैत्तिरीय (आपस्तंब) संहिता : इसमें 7 कांड, 44 प्रपाठक और 631 अनुवाक् हैं। इसमें भी राजसूय, याजमान, पौरोडाश इत्यादि यज्ञों के वर्णन मिलते हैं।
कृष्ण यजुर्वेदी परंपरा __ भगवान व्यास से यजुर्वेद का ग्रहण करने पर वैशंपायन ने अपनी संहिता की 27 शाखाएं की और आलंबी, चरक आदि अपने शिष्यों को उसका प्रदान किया। आगे चल कर उन 27 शाखाओं का विस्तार 86 शाखाओं में हुआ, जिनमें से आज काठक, कपिष्ठल और मैत्रायणी ये तीन ही संहिताएं यत्र तत्र विद्यमान हैं। वैशम्पायन से झगड़ा होने पर उसके शिष्य याज्ञवल्क्य ने सूर्यदेवता से जो वाजसनेयी अथवा शुक्ल यजुर्वेद की संहिता प्राप्त की, उसकी 67 उपशाखाएं हैं, जिनमें से 15 प्रमुख मानी जाती है। महाभारत के शांतिपर्व में अध्वर्युवेद (यजुर्वेद) की 101 शाखाएं बताई हैं। वह संख्या कृष्ण यजुर्वेद की काठक, कपिष्ठल और मैत्रायणी संहिताएं तथा मैत्रायणी ब्राह्मण, मैत्रायणी सूत्र, मानवसूत्र और वराहसूत्र यह संबंधित ग्रंथ प्रथम जर्मनी में मुद्रित हुए। अब वे भारत में भी मुद्रित हो चुके हैं।
शुक्ल यजुर्वेदी परंपरा याज्ञवल्क्य द्वारा प्रवर्तित शुक्ल यजुर्वेद की 67 शाखोपशाखाओं में 15 भेद हैं। उनमें काण्व और माध्यंदिन संहिता को और कात्यायन तथा पारस्कर सूत्रों को विशेष महत्व है। काण्व शाखीय ब्राह्मण संपूर्ण भारत में मिलते है, अतः उन में द्रविड (दाक्षिणात्य) काण्व और गौड (औत्तराह) काण्व इस प्रकार भेद माने जाते हैं। आज के वैदिक ब्राह्मण समाज में जो अन्यान्य शाखाएं और उपशाखाएं मिलती हैं, उनका मूल वेदों की शाखोपशाखाओं में ही है।
5 सामवेद संहिता यज्ञ में तीसरे ऋत्विक् को उद्गाता कहते हैं। इस उद्गाता के लिए चयन किए हुए मंत्रसंग्रह का नाम ही सामवेद है।
यज्ञ के समय जिस देवता के लिए हवन किया जाता है, उसका आवाहन उचित स्वरों में मंत्रों को गाते हुए "उद्गाता' ऋत्विक् को करना होता है। इस मंत्रगान को ही "साम'' कहते हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/13
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सामगान के पांच प्रकार (1) प्रस्ताव: इस का गायन प्रस्तोता करता है।
(4) उपद्रव:
इसका गायन उद्गाता करता है। (2) उद्गीत: इस का गायन उद्गाता करता है।
(5) निधान :
इसका गायन प्रस्तोता करता है। (3) प्रतिहार :
इसका गायन प्रतिहतो करता है। सामविधान ब्राह्मण : सामवेद से संबंधित इस ग्रंथ में ऐंद्रजालिक प्रयोगों का प्रतिपादन किया है। वैदिक परंपरा के अनुसार सामध्वनि सुनाई देते ही अन्य वेदों का अध्ययन बंद किया जाता हैं। आपस्तंब स्मृतिकार कहते है कि, कुत्ता, गधा, भेड, बकरी इत्यादि प्राणियों का, बालक के रोने का अथवा किसी वाद्य का ध्वनि सुनाई देते ही वेदों का अध्ययन तत्काल बंद करना चाहिए।
चरणव्यूह तथा पातंजल महाभाष्य में सामवेद के एक सहस्र भेदों का निर्देश है (सामवेदस्य किल सहस्रभेदा भवन्ति- चरणव्यूह)। (सहस्रवर्मा सामवेदः- व्याकरण महाभाष्य) । व्याकरण महाभाष्य के पस्पशाह्निक में चारों वेदों के शाखाओं की संख्या बताई है :
“एकविंशतिधा बा चम्। एकशतम् अध्वर्युशाखाः। सहस्रवा सामवेदः। नवधा आथर्वणो वेदः। आज ये सारे शाखा भेद उपलब्ध नहीं हैं परंतु आज कौथुम राणायनीय, जैमिनीय ये तीन ही सामवेद की शाखाएं जीवित मानी जाती हैं।
सामवेद गानप्रधान होने के कारण उसमें केवल गानोचित ऋचाओं का ही संग्रह किया हुआ है। सामवेद की कुल 1549 ऋचाओं में से 75 ऋचाएं ऋग्वेद के बाहर की हैं। इसी कारण सामवेद का पृथक अस्तित्व नहीं माना जाता। ऋग्वेदीय ऋचाओं के आधार पर सामगान की रचना होती है; अतः ऋचाओं को “सामयोनि" कहते हैं।
सामवेद की विद्यमान तीन शाखाओं में से कौथुम शाखा विशेष प्रसिद्ध है। कौथुम शाखा के पूर्वार्चिक और उत्तरार्चिक नामक दो भाग हैं। आर्चिक = ऋचाओं का समूह, जिन की ऋचाओं की कुल संख्या 1810 है। इन में कुछ ऋचाओं की पुनरावृत्ति होती है। पुनरावृत्त ऋचाओं की संख्या छोडकर इस संहिता की कुल संख्या : 1549 ही रहती है।
पूर्वार्चिक : सामवेद के इस विभाग को छन्दसी अथवा छन्दसिका कहते हैं। इसमें कुल 585 ऋचाएं, छह प्रपाठका में संगृहीत की हैं। प्रपाठकों में कुल 59 "दशतय" (अर्थात् दस ऋचाओं का समूह) किए हैं। प्रारंभिक 12 दशतय
अग्निविषयक, बाद में 36 दशतय सोमविषयक और अंत में 11 दशतय सोमविषयक हैं। पूर्वार्चिक के अंत में 55 मंत्रों का एक जो पर्व है उसे “अरण्यकाण्ड" कहते है। इसके आगे उत्तरार्चिक का आरंभ होता है। पूर्वार्चिक में (1) ग्रामगेय गान
और (2) अरण्यगेय गान नामक दो गान प्रकार हैं। ग्रामगेय गान से संबंधित ऊहगान और अरण्यगेय गान से संबंधित ऊह्यगान नामक दो विकृत गानप्रकार माने गए हैं। अरण्यगान विकृत होने के कारण और ऊह्यगान रहस्यात्मक होने के कारण उनका गायन अरण्य में ही करने की परम्परा है।
- उत्तरार्चिक : सामवेदीय कौथुम शाखा के इस उत्तर भाग में 40 गेय साम हैं, जिनमें प्रत्येकशः 3-3 ऋचाएं होती हैं। कुल 9 प्रपाठकों में प्रत्येकशः दो या क्वचित् तीन भाग हैं। उत्तरार्चिक के अनेक मंत्र पूर्वार्चिक से लिए गए है। इसमें सात अनुष्ठानों का निर्देश किया है :
(1) दशरात्र, (2) संवत्सर, (3) एकाह, (4) अहीन, (5) सत्र, (6) प्रायश्चित्त और (7) क्षुद्र ।
पूर्वार्चिक में ऋचाओं का क्रम, छंद और वर्णनीय देवताओं के अनुसार है। उत्तरार्चिक में वह क्रम यज्ञानुसार किया है। पूर्वाचिक में अनेक योनि और ताल-लय हैं, उत्तरार्चिक में उसका अभाव है। कौथुम शाखा के इन दो भागों का केवल संहिता पाठ मात्र आज उपलबब्ध है। यह संहितापाठ ही ताल, लय, और वाद्यों सहित गाया जाता है। सामगायक पुरोहित सप्तस्वरों का निर्देश अंगुलि संकेत द्वारा करता है।
सामवेदी उद्गाता पुरोहित होने के लिए छात्र को आर्चिक द्वारा संगीत की दीक्षा लेनी पड़ती थी। उत्तरार्चिक के कुछ सूक्त कंठस्थ होने के बाद दृढ अभ्यास करने पर, सामवेदी उद्गाता पुरोहित तैयार होता था। भारतीय संगीत विद्या का मूलस्त्रोत सामगान में ही मिलता है। उस प्राचीनतम काल में ही इस देश का संगीत इतनी प्रगत अवस्था में था कि उसे जान कर प्राचीन भारतीय संस्कृति की विकसित अवस्था की कल्पना की जा सकती है।
राणायनीय शाखा - सामवेद की यह शाखा, कौथुम शाखा से विशेष भिन्न नहीं है। इस की मंत्रसंख्या भी कौथुम के बराबर है। भेद केवल उच्चारण में है। जैसे कौथुम शाखा में जहां "हा उ" उच्चारण होता है वहां राणायनीय शाखीय "हा वु" उच्चारण करते हैं। कौथुम "राह" कहते हैं वहां राणायनीय "राई" कहते है।
जैमिनीय शाखा - इस शाखा की कुल मंत्रसंख्या 1687 और सामगानों की संख्या 3681 है। इस शाखा की एक उपशाखा तलवकार नाम से प्रसिद्ध है। सुप्रसिद्ध केनोपनिषद् इसी शाखा से संबंधित है।
__ इस प्रकार सामवेद का संबंध, यज्ञ, इन्द्रजाल और संगीत इन तीन विषयों के साथ जुड़ा हुआ है। मंत्रों की दृष्टि से
ही करने की परम शाखा के भाग
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यह वेद स्वतंत्र नहीं है फिर भी उसकी विशेषता अनोखी है और यज्ञविधि में उसका अपना स्थान स्वतंत्र है। चरणव्यूह की टीका में महीदास कहते हैं कि, सामवेद की कुल सोलह शाखाओं में से कौथुमी, जैमिनीय और राणायनीय ये तीन शाखाएँ गुर्जर, कर्णाटक और महाराष्ट्र में विद्यमान हैं। सायणाचार्य ने केवल राणायनीय शाखा पर अपना भाष्य लिखा है।
सामवेद में पाठभेद सामवेद की कौथुम और राणायनीय शाखाओं में कुछ अल्पमात्र पाठभेद है। राणायनीय शाखा के पाठ प्रमुख माने जाते थे। परंतु सन 1842 में स्टीव्हन्सन (लंदन) और 1848 में बेनफे (लिझिग्) इन पाश्चात्य विव्दानों ने जर्मन अनुवाद तथा टिप्पणी सहित सामवेदीय शाखाओं का संस्करण प्रकाशित किया। इस कारण नवीन वैदिक विव्दान, परम्परागत पाठ को अप्रमाण मानते है। आगे चल कर वही नया राणायनीय पाठ, सायणभाष्य के साथ भारत में प्रकाशित हुआ। सन 1868 में कौथुम शाखा प्रकाशित हुई, परंतु उसमें पाठ सुव्यवस्थित न होने के कारण सामवेदीय विव्दान उसे प्रमाणभूत नहीं मानते। इस प्रकार सामवेद के प्रमाणभूत पाठ, आज विवाद और अन्वेषण के विषय हुए हैं। भारतीय परम्परा के अनुसार समग्र वेद समकालीन माने गए हैं। अतः उनकी पौर्वापर्यविषयक चर्चा को महत्त्व नहीं दिया जाता। सामवेद में ऋग्वेद के मंत्र अवश्य मिलते हैं, परंतु ऋग्वेद में भी (1-5-8) साम का निर्देश किया है। इसका अर्थ ऋग्वेद को साम का अस्तित्व अज्ञात नहीं था। साम अगर उत्तरकालीन होते तो. ऋग्वेद में साम का यह उल्लेख नहीं होता।
सामगान यज्ञविधि में उद्गाता को अपने साममंत्रों का गायन करना पड़ता है। मंत्रों के गानविधि का विवेचन करने वाले कुछ ग्रंथ भी निर्माण हुए, उनमें चार प्रमुख ग्रंथों में सामगान की पद्धति का पूर्णतया विवरण किया है। सामान्य लौकिक संगीत शास्त्र से सामगान की पद्धति अलग सी है। तथापि संगीत शास्त्रोक्त सप्त स्वरों का प्रयोग सामगान में होता है। सामगान पद्धति में गेय स्वरों के नामः- क्रुष्ठ, प्रथम, द्वितीय, चतुर्थ, मन्द्र, अतिस्वर्य इस प्रकार दिए जाते हैं। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद् में, सामगान के हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधान नामक पांच विभाग बताए हैं। उनमें से प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार का अन्तःकरण के भावों से और निधान का तानों से संबंध माना जाता है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि "नासामा यज्ञो भवति। न व वाऽहिंकृत्य साम गीयते।" अर्थात् सामगान के बिना यज्ञ नहीं होता और हिंकृति के बिना सामगान नहीं होता। इस प्रकार सामगान की महिमा अन्यत्र विविध स्थानों में वर्णन की है। सामवेद के मंत्रों में उपासना के साथ योगविधि और आध्यात्मिक उपदेश भी किया हुआ है।
____ ऋचाओं का सामगान में रुपान्तर करने के हेतु, हा, उ, हो, इ, ओ, हो, वा, ओ, इ, औ, हा, इ, इस प्रकार के पद जोड़े जाते हैं। इन पदों को "स्तोभ" कहते हैं। स्तोभ और स्वर की सहायता से ऋचा का रूपान्तर गान में होता है।
वेदों में स्वरांकन - वेद ग्रंथों में स्वरों का निर्देश करने के चार प्रकार विद्यमान हैं। ऋग्वेद में उदात्त स्वर का चिह्न नहीं होता। अनुदात्त स्वर का निर्देश अक्षर के नीचे आड़ी रेखा से होता है और स्वरित का निर्देश उपर खड़ी रेखा से किया जाता है।
कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी और काठक संहिता में उदात्त का निर्देश उपर खड़ी रेखा से होता है। शुक्ल यजुर्वेदी शतपथ ब्राह्मण में उदात्त स्वर, नीचे आड़ी रेखा से दिखाया जाता है। परंतु सामवेद में उदात्त, अनुदात्त, स्वरित स्वरों का निर्देश 1,2,3 अंकों से किया जाता है। उसी प्रकार संगीत के षड्जादि स्वरों का निर्देश 1 से 7 तक अंकों द्वारा किया जाता है। अधिकांश सामवेदी मंत्रों में पांच ही संगीत-स्वरों का उपयोग होता है।
ऋचाओं का सामगान में परिवर्तन करने के लिए, (1) विकार, (2) विश्लेषण, (3) विकर्षण, (4) अभ्यास, (5) विराम और (6) स्तोभ इन छ: उपायों का अवलंब होता है। स्वरमण्डल में इन छ: उपायों के साथ सामगान होता है। सामगान के विविध प्रकार, मधुछन्दस्, वामदेव, इत्यादि जिन ऋषियों ने निर्माण किए उन्ही के नाम से वे गानप्रकार प्रसिद्ध हैं।
हस्तवीणा जिन सामवेदियों को गेय स्वरों के उच्चारण की शक्ति नहीं थी, उन्होंने स्वरनिर्देशन के लिए “हस्तवीणा" की पद्धति शुरू की। हाथों की पहली, दूसरी इत्यादि अंगुली द्वारा षड्जू, ऋषभ, गंधार इत्यादि स्वरों का निर्देश करने की पद्धति नारदीय शिक्षा में बताई है। आज सामगायकों की संख्या अत्यल्पतम है। वे “हस्तवीणा" द्वारा स्वरों का निर्देश करते हैं।
. सामवेदी परंपरा भगवान् व्यास ने जैमिनि को सामवेद की संहिता प्रदान की। महाभारत के अनुसार यही जैमिनि युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में और जनमेजय के सर्पसत्र में उपस्थित थे। जैमिनि द्वारा सुमन्तु, सुत्वा, सुकर्मा इत्यादि शिष्यपरंपरा प्रवर्तित हुई। सुकर्मा ने सहस्र संहिताओं का विस्तार कर, शिष्य परंपरा बढ़ाई। परंतु वे सारे शिष्य विद्युत्पात अथवा भूचाल स्वरूप इन्द्र के प्रकोप के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /15
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कारण नष्ट हुए और उनके साथ सामवेद की सहस्र शाखाओं का विलय हुआ। आगे चलकर सुकर्मा के पौषिजी, हिरण्यनाभ और कौसल्य इन शिष्यों ने कुछ संहिताओं का प्रवचन किया उनमें से आसुरायणीया, वार्तात्रेया, प्रांजल ऋग्वेदविद्या प्राचीनयोग्या और राणायनीय नामक सात शाखाएं अवशिष्ट रहीं। राणायनीय शाखा के शाख्यायनीय, सात्यमुद्गल, खल्वल, महाखल्वल, लांगल, कौथुम, गौतम और जैमिनीय नामक नौ भेद हैं। आज सामवेद की शाखाओं में से कर्नाटक में कौथुमी तथा गुजरात और महाराष्ट्र में राणायनी विद्यमान है।
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आर्यों का मनगढंत आक्रमण
वेदनिर्मिति के काल और स्थल का अन्वेषण करने के उद्योग में, पाश्चात्य विद्वानों द्वारा आर्य लोग, उनका मूल वसतिस्थान, उनका किसी बाहर भूभाग से वायव्य सीमा की ओर से भारत में आक्रमण, उस आक्रमण की दक्षिण भारत की ओर प्रगति और उस प्रगति के प्रयत्न में आर्यों द्वारा भारत के मूल निवासी द्रविड, नाग इत्यादि समाजों का पराभव तथा विनाश इत्यादि निराधार कल्पनाओं को अवास्तव महत्त्व दिया गया है। संस्कृत भाषा और तदन्तर्गत विविध प्रकार के वाङ्मय का यूरोपीय विद्वानों को जब से परिचय हुआ, तब से वहां के अनेक विद्वानों को, भाषाविज्ञान, पुराणकथाशास्त्र इत्यादि विषयों का तौलनिक अध्ययन करते हुए, एक बात ध्यान में आयी कि प्राचीन भारतीय तथा यूरोपीय और अन्य कुछ राष्ट्रों की संस्कृति में अनेक बातों में अद्भूत साम्य है। इस साम्य के कारण यह तर्क प्रस्तुत किया गया कि समान संस्कृति वाले ये भिन्न भिन्न समाज मूलतः एक ही वंश के होना संभव है। उनका मूलस्थान भी एक ही होना चाहिए। उस संभाव्य मूल स्थान से वे समाज, किसी कारण संसार में यत्र तत्र प्रसृत हुए होंगे। इस कल्पित समाज को इंडो-यूरोपीय अथवा आर्य नाम दिया गया। सुप्रसिद्ध विद्वान मैक्समूलर ने आर्यों के इस काल्पनिक आक्रमण की कल्पना पर विशेष बल दिया था, परंतु सन 1888 में उनका मत परिवर्तन हुआ, तब वे कहते हैं कि, "आर्यों के मूलस्थान के विषय में उपलब्ध प्रमाण इतने पोले और निराधार हैं कि उसके आधार पर, संसार के किसी भी भूभाग को आर्यों का मूलस्थान करके सिद्ध करना संभव हो सकता है। (The evidence is so plain that it is possible to make out a more or less plausible case for almost any part of the world.")
इसी संदर्भ में वे कहते हैं कि "मैं जब जब "आर्य" संज्ञा का उपयोग करता हूं तब तब मेरे समक्ष आर्यवंश नहीं, अपि तु "आर्यन्" भाषा होती है। भाषा के नाम पर वंश की कल्पना करना सरासर भूल है।"
आधुनिक वाड्मय में "आर्य" संज्ञा का प्रयोग सर्वप्रथम सर विलियम जोन्स ने किया परंतु उन्होंने भी भाषावंश के अर्थ में वह प्रयोग किया था न कि मानववंश के अर्थ में। ऋग्वेद में प्रयुक्त आर्य और अनार्य संज्ञा वंशवाचक नहीं है, यह तथ्य डॉ. श्रीधर व्यंकटेश केतकर ने अपने महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश में सविस्तर प्रतिपादित किया है।
आर्यों का भारत पर आक्रमण सिद्ध करने वाले विद्वान, ऋग्वेद के दाशराज्ञ युद्ध का उल्लेख प्रबल वैदिक प्रमाण के नाते प्रस्तुत करते हैं। परंतु प्रत्यक्ष वैदिक वाङ्मय की दृष्टि से इस प्रमाण को कितना महत्त्व देना चाहिए यह प्रश्न बाकी रहता है । एक सहस्र सूक्तों के ऋग्वेद में इस युद्ध का निवेदन केवल तीन सूक्तों मे हुआ है, जिस में सुदास नामक राजा को, दस राजाओं द्वारा विरोध होने के कारण, भडके हुए युद्ध का निर्देश किया गया है । इस अत्यल्पमात्र वैदिक प्रमाण के अतिरिक्त, सारे संसार के प्राचीन वाङ्मय में तथाकथित आर्यों के आक्रमण की और दूरान्वित संकेत करने वाला भी कोई प्रमाण नहीं मिलता। प्रत्यक्ष ॠग्वेद में भी उन तीन सूक्तों के अतिरिक्त दूसरा कोई भी प्रमाण नहीं है। किसी भी भटकने वाले जनसमूह में, किसी भूभाग के प्रति उत्कट आत्मीयता की भावना नहीं होती, परंतु ऋग्वेद के मन्त्रों में ऋषियों की भूमिभक्ति की ओर संकेत करते हुए प्रसिद्ध विद्वान जयनाथपति आर्याक्रमणवादियों को पूछते हैं, "आपने संसार में ऐसे सुसंस्कृत लोग कहीं देखे है कि जिन्हें अपने मूल निवासस्थान का विस्मरण हो कर नए घर का आकर्षण हुआ है।" (Have you ever found cultured foreigners, forgetting their old homes and becoming enamoured of their newly made conquest.)
आर्यों के आक्रमण की भ्रान्त धारणा को जिस प्रकार वेदों में प्रमाण नहीं है, उसी प्रकार पुराणों की विशाल वाङ्मयराशि में भी कोई प्रमाण नहीं है। भारतीय पुराण वाङ्मय के प्रसिद्ध अध्येता पार्जिटर (अथवा पारगीटर) कहते हैं कि “वायव्य दिशा की ओर से भारत पर हुए आक्रमण की कल्पना स्वभावतः ही असंभव है और परम्परा की दृष्टि से भी वह अनावश्यक है। (Impossible in itself---wholly unnecessary according to tradition.)
इस आर्याक्रमण की कल्पना का स्वामी विवेकानंद ने साफ शब्दों में इन्कार और धिक्कार किया है। स्वामीजी कहते हैं, "पाश्चात्यों के इतिहास में अंग्रेज, अमेरिकन इत्यादि कुछ लोगों द्वारा स्थान स्थान पर मूल निवासी लोगों को पराजित और गुलाम करने की घटनाएं हुई। उसी के आधार पर इतिहास-संशोधकों की बुद्धि भारत के प्राचीन काल में उडान करती है। कोई तिब्बत को तो कोई मध्य एशिया को आर्यों का मूलस्थान कहता है। देशाभिमानी और घमंडी पाश्चात्य विद्वान अपने अपने भूभाग की ओर आर्यों का मूलस्थान खींचता है। कोई उत्तर ध्रुव प्रदेश का भी प्रतिपादन करते हैं । परंतु हमारे वेद-पुराण आदि ग्रंथों में 16 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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ऐसा एक भी शब्द नहीं, जो आर्यों के आक्रमण की कल्पना सिद्ध कर सके। शूद्र वर्ण मूलतः अनार्य है यह विचार, जितना तर्कदुष्ट उतना ही निर्बुद्ध है। (But there is not one word in our scripture, not one to prove that the Aryans ever came, from any where out side of India- of Ancient India, which includes Afaganistan, within it. The theory that the shoodra caste is all non-Aryan is equally illogical and equally irrational.)
__ वेदकाल के अन्वेषण में तथाकथित आर्यवंश और उस के भारत पर आक्रमण का विषय, कुछ यूरोपीय पंडितों द्वारा चर्चा का विषय बनाया गया। परंतु उनके इस विचार का खंडन अनेक श्रेष्ठ विद्वानों ने अकाट्य युक्तिवादों से किया है। तथापि आज भी भारत की सभी पाठ्य पुस्तकों में आर्यों के आक्रमण के पाठ बालकों को पढ़ाए जाते हैं यह दुर्भाग्य है। तात्पर्य वेद निर्मिति के स्थल एवं काल के विषय में आनुषंगिकतया प्रसृत हुई आर्यों के आक्रमण की कल्पना मिथ्या होने के कारण, उसके आधार पर निर्धारित वेद कालविषयक मतमतांतरों को विशेष महत्त्व देने की आवश्यकता हम नहीं मानते।
५
वेदविषयक परंपरागत दृष्टिकोण वेदों की रचना का कालनिर्णय करने का प्रयास करनेवाले आधुनिक अभारतीय तथा भारतीय विव्दानों ने अपने भिन्न भिन्न मतों का प्रतिपादन करते हुए एक ने दूसरे का खंडन किया है। इस परस्पर शिरश्छेद के कारण इस विषय में प्रतिपादित मतों में से कोई भी एक विशिष्ट मत प्रतिष्ठित नहीं हुआ है। प्रायः भारतीयों को वेदों की प्राचीनता प्रतिपादन करने वाला मत ग्राह्य लगता है और अभारतीय लोगों को उस की अर्वाचीनता प्रतिपादन करने वाला मत उपादेय लगता है। इस वेदकाल विषयक विवाद में, वेदों के प्रति नितांत श्रद्धा अन्तःकरण में धारण करने वाले परंपरावादी भारतीय विद्वानों के युक्तिवादों को ध्यान में लेना अत्यंत आवश्यक है। वैदिक धर्म का परिचय होने के लिए उन युक्तिवादों का ठीक आकलन विशेष महत्त्व रखता है।
__ प्राचीन भारतीय विद्वानों के मतानुसार वेदनिर्मिति के काल का निर्णय करना असंभव माना गया है। संसार के सभी इतिहासज्ञों का इस बात में मतैक्य है कि वेद संसार का आज उपलब्ध होने वाला सर्वप्रथम और सर्वश्रेष्ठ ज्ञानधन है। परंतु उसका काल वे निर्धारित नहीं कर सके। ईसापूर्व 1000 से 75000 वर्षों तक अन्यान्य शताब्दियों में वेदों की निर्मिति मानने में कोई स्वारस्य नहीं। इन अन्वेषकों का अध्ययन और चिन्तन अभिनन्दनीय है परंतु उनके निष्कर्ष स्वीकारयोग्य नहीं है।
प्राचीन परंपरावादी भारतीयों की इस विषय में जो धारणा है उसका सारांश इस प्रकार दिया जा सकता है
वेद नित्य है और सृष्टि के प्रारंभ से ही वेदों का आविर्भाव हुआ होगा। जिस परमात्मा ने सृष्टि की निर्मिति की, उसी परमात्मा ने उसके पहले वेद निर्माण किए होंगे। जैसे कुम्हार जब घट की निर्मिति करता है तो उसके पहले अपनी बुद्धि में उसकी निर्मिति कर, तदनुसार मिट्टी को आकार देता है। कोई भी कार्य किसी कर्ता के बिना नहीं हो सकता। यह ब्रह्माण्ड भी एक कार्य ही है, अतः तर्कानुसार उसके भी किसी कर्ता का अस्तित्व मानना ही चाहिए। प्रत्येक कर्ता अपना कार्य, अपनी बुद्धि में आलिखित करने के बाद ही उसे साकार करता है। इस निरपवाद सिद्धान्त के अनुसार ब्रह्माण्डरूपी कार्य का आलेख, उसके कर्ता की बुद्धि में प्रथम निर्माण होना चाहिये। परंपरावादियों का युक्तिवाद है कि सृष्टि के विधाता ने जिस आलेख अथवा जिस विचार की सर्वप्रथम कल्पना अपनी बुद्धि में की, वही "आम्नाय" याने वेद है। सामान्य तर्क के अनुसार ब्रह्माण्डरूपी कार्य के कर्ता को (कार्यनिर्मिति के पहले) स्फूर्ति होना आवश्यक है, इस तथ्य को मान्यता देने पर भी यह शंका उपस्थित होती है कि सृष्टि निर्माता की वह स्फूर्ति वेदस्वरूप ही थी, इस बात को मान्य करनेवाला प्रमाण नहीं है। वेदों को ही परब्रह्म परमात्मा का आद्य विचार क्यों माने।
इस शंका का उत्तर प्रत्यक्ष और अनुमान इन प्रमाणों द्वारा देना असंभव होने के कारण आप्तवाक्यरूपी प्रमाण के द्वारा देना आवश्यक होता है। वैदिकों की धारणा के अनुसार वेद ही परमश्रेष्ठ आप्तवाक्य है। इस विषय में वेदों के वचन इस प्रकार है:(1) यज्ञेन वाचः पदवीयमायन्
(3) तस्माद् यज्ञात् सर्वहुतः तामन्वविन्दन् ऋषिषु प्रविष्टाम्।
ऋचः सामानि जज्ञिरे। तामाभृत्या व्यदधुः पुरुत्रा
छन्दांसि जज्ञिरे तस्माद् तां सप्तरेभा अभिसन्नवन्ते।। (ऋ. 10/71/3)
यजुस्तस्मादजायत ।। (ऋ. 10/90/9) (2) बृहस्पते प्रथमं वाचो अग्रं
(4) तस्मादृचो पातक्षन् । यत् प्रेरयत् नामधेयं दधानाः ।
यजुस्तस्मादपाकयन्। यदेषा श्रेष्ठं यदरिप्रमासीत्
सामानि यस्य लोमानि प्रेम्णा तदेषां निहितं गुहाविः।। (ऋ. 10/71/1)
अथर्वाङ्गिरसो मुखम्।। (ऋ. 10/7/20) इन वेदवचनों में यज्ञ (यजनीय , पूजनीय ईश्वर परमात्मा) से ऋक्, यजुः, साम और अथर्व इन चारों वेदों की उत्पत्ति स्पष्ट शब्दों में कही है। अतीन्द्रिय विषयों का ज्ञान प्राप्त करने के लिए आप्तवाक्य का प्रामाण्य क्यों मानना चाहिए यह स्वतंत्र
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चर्चा का विषय है। आप्तवाक्य का प्रामाण्य मानने वाले दार्शनिक आचायों ने उस संबंध में उत्कृष्ट युक्तिवाद प्रस्तुत किए है। श्रेष्ठ दार्शनिकों द्वारा अंगीकृत "आप्तवाक्य" के आधार पर, वेदों का जनिता परमात्मा ही है यह मत वैदिकों ने मान्य किया है। उसी मान्यता के साथ आनुषंगिकतया यह भी मानना पड़ता है कि सर्वज्ञ और निर्दोष परमेश्वर ही अगर वेदों का जनक होगा, तो उसके वेद भी सर्वज्ञानमय और निर्दोष ही होने चाहिए। जगद्गुरू श्रीशंकराचार्यजी ने वेदों का सर्वज्ञानमयत्व मानते हुए यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया है कि, “महतः ऋग्वेदादेः शास्त्रस्य अनेकविद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावद्योतिनः सर्वज्ञकल्पस्य योनिः कारणं ब्रह्म । न हि ईदृशस्य शास्त्रस्य ऋग्वेदादिलक्षणस्य सर्वज्ञगुणान्वितस्य सर्वज्ञात् अन्यतः संभवः अस्ति ।" (ब्रह्मसूत्र शां. भा. 1-1-3) अर्थात् ऋग्वेदादि महान् शास्त्र अनेक विद्यास्थानों से (4 वेद, 6 शास्त्र, धर्मशास्त्र, पूर्वोत्तर मीमांसा और तर्कशास्त्र इन चौदह विद्याओं को “विद्यास्थान" कहते हैं) विकसित हुआ है और वह प्रदीपवत् सारे विषयों को प्रकाशित करता है। इस प्रकार के सर्वज्ञानसंपन्न शास्त्र का (अर्थात वेदों का) उत्पत्तिस्थान ब्रह्म ही हो सकया है, क्यों कि, सर्वज्ञ परब्रह्म परमात्मा के अतिरिक्त और किसी से ऋग्वेदादि सर्वज्ञानसंपन्न शास्त्र की उत्पत्ति नहीं हो सकती।
सर्वज्ञ ईश्वर ही वेदों का जनक होने के कारण, उसका वेदरूप कार्य भी सर्वज्ञानपूर्ण होना चाहिए; इस अनुमान से भी जगद्गुरू शंकराचार्य का युक्तिवाद अधिक वेदनिष्ठापूर्ण है। वे कार्यरूप वेदों का सर्वज्ञानमयत्व सिद्धवत् मानकर उसके कारण की सर्वज्ञानमयत्व का तर्क प्रस्तुत करते है। इस तर्क के अनुसार परब्रह्म परमात्मा सर्वज्ञानमय होने के कारण, वही वेदों का जनक या निर्माता माना जा सकता है।
श्रीशंकराचार्यजी ने वेदों का ईश्वर- कर्तकत्व सिद्ध करते हुए, वेदों के विषय में “विद्यास्थानोपबृंहितस्य प्रदीपवत् सर्वार्थावधोतिनः, सर्वज्ञकल्पस्य इत्यादि जो विशेषण प्रयुक्त किए हैं, उनमें यत्किंचित् भी अतिशयोक्ति का अंश नहीं है। इसका पहला कारण श्रीशंकराचार्य जैसे परमज्ञानी महापुरुष ने उन विशेषणों का प्रयोग किया है और दूसरा कारण यह है कि, अतिप्राचीन काल से आज तक की प्रदीर्घ कालावधि में विविध प्रकारों से जो वेदों का मंथन और चिन्तन हुआ, उससे भी उन विशेषणों की यथार्यता सिद्ध हुई है।
जगद्गुरू श्रीशंकराचार्य की वेदों की "सर्वज्ञानमयता पर इतनी प्रगाढ श्रद्धा है कि अपने ब्रह्मसूत्र भाष्य में, पांचरात्र नामक मत का खंडन करते हुए, उन्होंने यह युक्तिवाद प्रस्तुत किया है कि, "शांडिल्य को चारों वेदों में निःश्रेयस का मार्ग न दिखने के कारण" उसने इस शास्त्र (पांचरात्रदर्शन) का ज्ञान प्राप्त किया, इस प्रकार के पांचरात्र दर्शन के स्तुतिवाक्यों में से वेदों की निन्दा ध्वनित होती है, अतः वह दर्शन भी अग्राह्य मानना चाहिए। (विप्रतिषेधश्च भवति। चतुर्पु वेदेषु परं श्रेयः अलब्ध्वा शाण्डिल्यः इदं शास्त्रम् अधिगतवान् इत्यादि वेदनिन्दादर्शनात्)।
भगवान् व्यास ने भी “विप्रतिषेधाच्च" (2-2-45) इस ब्रह्मसूत्र के द्वारा यही मत सूचित किया है। इस प्रकार वेदों का ईश्वरकर्तृकत्व उपपत्ति और उपलब्धि (अनुमान और आप्तवाक्य) इन प्रमाणों के आधार पर सिद्ध मानते हुए, अर्वाचीन (पाश्चात्य तथा पौरस्त्य) पंडितों ने अथवा प्राचीन वेदविरोधी नास्तिक पण्डितों ने माना हुआ वेदों का पौरुषेयत्व याने पुरुषकर्तृकत्व वैदिकों की परम्परा में अप्रमाण माना गया है।
वेदों का नित्यत्व और अपौरुषेयत्व परंपरावादियों ने शिरोधार्य माना हुआ वेदों का नित्यत्व तथा अपौरुष्येत्व का सिद्धान्त विविध "आस्तिक" दर्शनों के आचार्यों ने अन्यान्य युक्तिवादों से प्रतिष्ठित करने का प्रयास किया है- भगवान् जेमिनिजी ने अपने पूर्व-मीमांसा दर्शन में इस विषय की चर्चा की है। “कमैके तत्र दर्शनात्" इस सूत्र से आगे 12 सूत्रों में वेदों का अनित्यत्व प्रतिपादन करनेवाले पूर्वपक्ष के तर्क सविस्तर देकर, आगे "नित्यस्तु स्याद् दर्शनस्य परार्थत्वात्" (1-1-6) इत्यादि छः सूत्रों व्दारा अनित्यवादी पक्ष के तकों का खंडन करते हुए वेदों का नित्यत्व बडी मार्मिकता से प्रतिपादन किया है।
उत्तर-मीमांसा दर्शन में भगवान् बादरायण व्यासजी ने “शास्त्रयोनित्वात्" इस सूत्र के द्वारा वेदों का उद्गम परब्रह्म से ही हुआ है इस सिद्धान्त को स्थापित कर, यह निष्कर्ष बताया है कि, परमात्मा नित्य होने के कारण उस का ज्ञान याने वेद भी, नित्य ही होना चाहिये।
___वैशेषिक दर्शन में वेदों का अपौरुषेयत्व और स्वतःप्रामाण्य “तद्वचनात् आम्नायस्य प्रामाण्यम्" इस सूत्र द्वारा प्रतिपादन किया है। इस सूत्र का विवरण करते हुए उपस्कारभाष्य में कहा है कि सूत्रस्थ “तत्" शब्द ईश्वरबोधक है, क्यों कि ईश्वर ही वेदों का जनक है यह बात सुप्रसिद्ध और सिद्ध है। (तद् इति अनुपक्रान्तमपि प्रसिद्धि-सिद्धतया ईश्वर परामशति"- (वैशैषिक सूत्र उपस्कार भाष्य)। इसी सूत्र का दूसरे प्रकार से अर्थ निकाल कर, वेदों का प्रमाण्य सिद्ध किया गया है। जैसे:- "सूत्रस्थ तत् शब्द, समीपस्थ धर्म यह अर्थ बताता है। अतः धर्म का प्रतिपादन करने के कारण, वेद को प्रामाण्य प्राप्त हुआ है। जो वाक्य प्रामाणिक या प्रमाणासिद्ध अर्थ का प्रतिपादन करता है वह (वाक्य) प्रमाणभूत ही होता है। (यद् वा तत् इति सन्निहितं धर्ममेव परामशति। तथा च धर्मस्य वचनात्-प्रतिपादनात् वेदस्य प्रामाण्यम्। तत् प्रमाणम् एव यतः इत्यर्थः (उपस्कारभाष्य)
अन्य साधारण ग्रन्थों के समान वेद भी ग्रन्थ रूप ही होने के कारण, पौरुषेय अर्थात् मनुष्यनिर्मित ही होने चाहिये, यह 18 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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सामान्य तर्क सर्वत्र रूढ है। प्रस्तुत भाष्यकार ने उस तर्क का भी खण्डन मार्मिकता से किया है। भाष्यकार कहते है- अतीन्द्रिय विषयों पर सहस्रावधि शाखाओं की इतना महान ग्रन्थराशि व्यक्त करना हम जैसे मानवों का काम नहीं है। अर्थात् वह ईश्वर का ही काम हो सकता है। (वेदस्तावत् पौरुषेयः वाक्यत्वात् इति साधितम्। न च अस्मदाद्यः तेषां सहस्रशाखाच्छिन्नानां वक्तारः सम्भाव्यन्ते अतीन्द्रियार्थत्वात्। न च अतीन्द्रियार्थदर्शिनः अस्मदादयः) ।
वैशेषिक दार्शनिकों ने वेदों का अपौरुषेयत्व प्रतिपादन करने के लिए अनेकविद्ध तर्क प्रस्तुत किए हैं। न्यायदर्शनकार गौतममुनि “मन्त्रायुर्वेदप्रमाण्यवत् च तत्प्रामाण्यम् आप्तप्रामाण्यात्", इस सूत्र के भाष्य में कहते हैं" वेदों के अर्थ के जो द्रष्टा एवं प्रवक्ता हैं, वे ही आयुर्वेदादि के प्रवक्ता हैं। अतः आयुर्वेदादि शास्त्रों को हम जैसे प्रमाणभूत मानते हैं, वैसे ही वेदों को भी प्रमाण मानना चाहिये। (ये एव आप्ता वेदार्थानां द्रष्टारः प्रवक्तारश्च ते एव आयुर्वेद-प्रभृत्तीनाम् इति आयुर्वेद-प्रामाण्यवत् वेदप्रामाण्यम् अनुमातव्यम्।)
सांख्य दर्शन के प्रवर्तक भगवान कपिल ऋषि वेदों के नित्यत्व का प्रतिपादन करते हुए कहते हैं, "शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है, इस लिए वेदरूप शब्दराशि नित्य ही होना चाहिए।" इस विधान पर आक्षेपक कहते हैं, "तास्मात् यज्ञात् सर्वहुतः ऋचः सामानि जज्ञिरे"। इस वेदवचन के अनुसार वेद यजनीय (यज्ञ) ईश्वर से उत्पन्न हुए। इस कारण वे नित्य नहीं हो सकते क्यों कि उत्पन्न होने वाला प्रत्येक पदार्थ घटपटादि के समान अनित्य ही होता है- (न नित्यत्वं वेदानां कार्यत्वश्रुतेः (सांख्यसूत्र-4-45)।
इस युक्तिवाद में वेदों के नित्यत्व का खंडन करने वाले ने भी वेदों का ईश्वरकर्तृकत्व मान्य किया है।
वेद अगर घटपटादि पदार्थों के समान उत्पन्न हुए हैं, तो उनका अपौरुषेयत्व अर्थात् ईश्वरकर्तृकत्व क्यों माना जाये। यह भी प्रश्न उपस्थित किया गया। उस का समाधान करते हुए सांख्यदर्शनकार कहते हैं कि वेद पौरुषेय हो ही नहीं सकते, क्यों कि सृष्टि के प्रारंभ में, ऐसा कोई पुरुष अस्तित्व में ही नहीं था जो वेदों की रचना कर सके- (न पौरुषेयत्वं, तत्कर्तुः) वेदों के पौरुषेयत्व का खंडन करते हुए, “सृष्टिनिर्मिति के अवसर पर परमात्मा की स्वाभाविक शक्ति से वेदों का प्रादुर्भाव होता है अतः वे "स्वतःप्रमाण" हैं- (नित्यशक्याभिव्यक्तेः स्वतः प्रामाण्यम्) इस युक्तिवाद से वेदों का अपौरुषेयत्व सांख्य दर्शन में प्रतिपादित किया हुआ है।
इस प्रकार बुद्धकाल के पूर्व काल में ही वेदों का अपौरुषेयत्व, नित्यत्व, स्वतःप्रामाण्य इत्यादि विषयों पर बड़े मार्मिक विवाद चलते आए हैं। सभी आस्तिक दर्शनकारों ने अपने सूत्रों तभा भाष्यों द्वारा, वेदविरोधी युक्तिवादों का खंडन करते हुए, अपनी विचार शक्ति का परिचय दिया है। उनके सिध्दान्तों का तथा दार्शनिकों के मार्मिक युक्तिवादों का ठीक आकलन किए बिना, प्राचीन भारतीयों का वेदविषयक दृष्टिकोण ध्यान में आना संभव नहीं है। अपने सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने में दार्शनिक विद्वानों ने जो अद्भुत बुद्धिकौशल्य व्यक्त किया है, उसकी भूरि भूरि प्रशंसा अभारतीय विद्वानों ने भी की है। इस संबंध में प्रसिद्ध यूरोपीय पंडित म्यूर कहते है- "अर्थात् इन दार्शनिकों के वाद विवाद जो पढ़ता है उसे उनके युक्तिवाद की तीक्ष्णता, तकों की निर्दोषता और प्रासंगिक उचित दृष्टान्तों की मौलिकता तथा सजीवता, इन की ठीक कल्पना आए बिना नहीं रहती।"
- वेदों का शब्दक्रम वेदों का अपौरुषेयत्व, नित्यत्व एवं स्वतःप्रामाण्य, इन सिद्धान्तों का अपने प्रखर तकों एवं युक्तवादों से प्रस्थापित करने वाले परंपरावादी वैदिक पंडितों का और एक आग्रह है कि, वेद-मंत्रों के अक्षरों का परंपरागत जो क्रम है, वह सर्वथा अपरिवर्तनीय है। उसके एक भी अक्षर, वर्ण या मात्रा में भी लेशमात्र परिवर्तन करने पर वह मंत्र "वैदिक" नहीं रहेगा। "अग्निमीळे पुरोहितम्" इस मंत्र का “ईळे अग्निं पुरोहितम्" इस प्रकार पाठान्तर करने से अर्थहानि भले ही न हो, परंतु उस मंत्र के वैदिकत्व की हानि अवश्य होती है। वैदिक वाक्यों और अवैदिक वाक्यों में यही महत्त्वपूर्ण भेद है। "पात्रम् आहर" इस लौकिक वाक्य की रचना "आहर पात्रम्"- इस प्रकार उलटी करने पर भी कोई दोष नहीं माना जाता। परंतु वैदिक वाक्य में इस प्रकार से परिवर्तन करने से उसमें मंत्रत्व नहीं रहता। इसका साम्प्रदायिक कारण यह माना गया है कि, वेद नित्य होने के कारण, उनके शब्दों का क्रम प्रत्येक कल्प में एकरूप ही रहता है। प्राचीन कल्पों के विशिष्ट क्रम की शब्दराशि, कल्पान्तरों के पश्चात् मंत्रद्रष्टा के हृदय में उसी अनुक्रम से प्रकट होती है। नए कल्पों के ऋषि नूतन वेदों का निर्माण नहीं करते। वास्तव में ऋषि वेदमंत्रों के कर्ता या निर्माता होते ही नहीं। इसी कारण वेदों का अपौरुषेयत्व सम्प्रदायानुसार माना गया है। इस प्रकार वेदों का अपौरुषेयत्व मान्य करने पर, भ्रम, प्रमाद, विप्रलिप्सा (प्रतारणा करने की इच्छा) इत्यादि पुरुषकृत दोषों की वेदों में कल्पना भी करना अयोग्य होती है। इसी सर्वकष निर्दोषता के कारण वेदवाक्यों को आप्तवचनरूप निरपवाद प्रामाण्य साम्प्रदायिकों द्वारा दिया गया है। साम्प्रदायिकों का वेदों के विषय में और भी एक सिद्धान्त है। उसे बताकर इस विषय को विराम देंगे।
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"अग्निमीळे पुरोहितम्। यज्ञस्य देवमृत्विजम्। होतारं रत्नधातरम्।" इस आद्य वेदमंत्र में भाषा के प्रमुख स्वरों और व्यंजनों का अन्तर्भाव होता है। अतः यह आद्य वेदमंत्र ही सर्व वर्गों का अर्थात् वर्णात्मक भाषाओं का मूल है।।
प्राचीन वैदिक विद्वानों की वेदविषयक धारणाएं किस प्रकार की थीं, और उनका समर्थन किस प्रकार के युक्तिवादों से किया जाता था इसकी संक्षेपतः सामान्य कल्पना प्रस्तुत विवेचन से आ सकती है। हमने यहां अर्वाचीन और प्राचीन दोनों मतों का यथाशक्ति संक्षेपतः परिचय दिया है। पाठक अपना मत निर्धारित करें।
8 अथर्ववेद यज्ञविधि में ऋग्वेदी होता, यजुर्वेदी अध्वर्यु, सामवेदी उद्गाता के अतिरिक्त ब्रह्मा नामक एक चौथा ऋत्विक् रहता है। यह ब्रह्मा चारों वेदों का विशेषज्ञ हों ऐसी अपेक्षा होती है। अतः वह अथर्ववेद का विशेषज्ञ भी होता है। ऋग, यजुस् और साम इस "वेदत्रयी" से अर्थवेद का स्थान स्वतंत्र है। तथापि वैदिकों के कर्मकाण्ड में अथर्ववेद का स्थान त्रयी के समान महत्वपूर्ण रहता है। वैदिक वाङ्मय के अनुक्रम में सर्वत्र ऋग्वेद को प्रथम स्थान दिया है। “यज्ञैरथर्वा प्रथमः पथस्तते" (ऋ.1-83-5) इस ऋग्वेद वचन से यह भी सिद्ध होता है कि ऋग्वेद के मंत्रदृष्टा को अथर्वा का ज्ञान था। अर्थात् इस वचन के आधार पर ऋग्वेद का प्राचीनत्व और अथर्व वेद अर्वाचीनत्व मानने वाले आधुनिक विद्वानों का भी खंडन होता है।
अथर्ववेद का संपूर्ण नाम है अथर्वाङ्गिरस। यज्ञविधि में ब्रह्मा नामक ऋत्विक् इस वेद के मन्त्रों का प्रयोग करता है अतः इसे "ब्रह्मवेद" भी कहते हैं।
गोपथ ब्राह्मण (1-4) में अथर्वण और अंगिरस (जिनके नामों से इस चतुर्थ वेद का नामकरण हुआ) के उपपत्ति की एक कथा आती है। तदनुसार, सृष्टि की उपपत्ति के लिए ब्रह्मदेवजी ने जब घोर तपश्चर्या की, तब उनके शरीर से दो वेद-प्रवाह बहने लगे, जिनके एक प्रवास से भृगु ऋषि निर्माण हुए, जिन्हें अथर्वण नाम प्राप्त हुआ और दूसरे प्रवाह से अंगिरा नामक ऋषि की उत्पत्ति हुई। इन दो ऋषियों द्वारा प्रवर्तित मन्त्रराशि को ही अथर्वांगिरस संज्ञा प्राप्त हुई। दूसरी उत्पत्ति के अनुसार, सृष्टि के आरंभ काल में अग्नि, वायु, आदित्य और अंगिरा इन चार ऋषियों के अन्तकरण में संपूर्ण वेदराशि का स्फुरण हुआ। इनमें से अंगिरा ऋषिका नाम अथर्वाङ्गिरस वेद के नाम में पाया जाता है। तीसरी उपपत्ति के अनुसार, अथर्वा और अंगिरस नाम के दो ऋषि थे, जिन्हें अभिचार मन्त्रों का विशेष ज्ञान था। अथर्वा ऋषि रोगनाशक मंत्रों के और अंगिरस ऋषि शत्रुनाशक मन्त्रों के ज्ञाता थे। इस प्रकार के आभिचारिक मन्त्रों का प्राधान्य, अथर्वागिरस की विशेषता मानी जाती है।
अथर्ववेद में दो प्रकार के मन्त्र हैं : (1) रोग, हिंस्रपशु, पिशाच्च, मंत्रप्रयोग करने वाले शत्रु इत्यादि के विरोध अथवा विनाश करने में उपयोगी, और (2) परिवार में, गांव में तथा इतरत्र शांति स्थापन करने में, शत्रुओं से मित्रता करने में, जीवन में दीर्घ आयुरारोग्य तथा धनसमृद्धि प्राप्त करने में, प्रवास में संरक्षण मिलने में उपयोगी। अर्थात् अथर्ववेद के कुछ मंत्र विनाशक
और कुछ विधायक स्वरूप के हैं। भारतीय आयुर्वेद का मूल अथर्ववेद में ही मिलता है। ज्वर, कुष्ट, राजयक्ष्मा, खांसी, गंजापन, दृष्टिक्षय, शक्तिक्षय, सर्पबाधा, व्रण, बुद्धिभ्रंश इस प्रकार की व्याधियों का उपचार करनेवाले मन्त्र इस वेद में होने के कारण आयुर्वेद का मौलिक तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अध्ययन करने वालों के लिए अथर्ववेद का अध्ययन उपकारक होता है। उसी प्रकार धर्मशास्त्र के (विशेषतः गृह्य सूत्रों के) पुत्रजन्म, विवाह, राज्याभिषेक, मृत्यु इत्यादि विषयों से भी अथर्ववेद के कई सूक्तों का संबंध स्पष्ट दिखाई देता है।
अथर्ववेद की संहिता के 20 काण्ड हैं, जिनमें 34 प्रपाठक, 111 अनुवाक, 739 सूक्त और 5849 मन्त्र हैं। उनमें से लगभग 1200 मन्त्र ऋग्वेद में मिलते हैं। प्रारंभिक 13 काण्डों का विषय जारण, मारण, उच्चाटन से संबंधित है। 14 वें काण्ड में विवाह, 18 वें कांड में श्राद्ध और 20 वें काण्ड में सोमयाग इन विषयों के मन्त्र हैं। इस वेद का षष्ठांश भाग गद्यात्मक है। अन्वेषक मानते हैं कि 19 और 20 वां कांड इस संहिता में बाद में जोड़ा गया, क्यों कि 20 वें कांड में मात्र ऋग्वेद की ऋचाएं हैं। अथर्ववेदान्तर्गत ऋग्वेदीय ऋचाओं में से पचास प्रतिशत ऋचाएं दशम मंडल में मिलती हैं और बाकी प्रथम तथा अष्टम मंडल में मिलती हैं। इसी प्रकार संपूर्ण वेदत्रयी के अनेक मन्त्र आथर्वण संहिता में उपलब्ध होने के कारण उसे त्रयी का सार अथवा मूल मानते हैं।
पतंजलि ने अथर्ववेद की नौ शाखाओं का निर्देश (नवधा आथर्वणो वेदः) किया है। परंतु आज उसकी पैप्पलाद तथा शौनक नामक दो ही शाखाएं सायण भाष्य सहित प्राप्त होती हैं। पैप्पलाद शाखा की पाण्डुलिपि प्रो. बूल्हर ने प्रथम खोज निकाली। उसके पश्चात् ब्लूमफिल्ड ने उसका छायांकन कर प्रकाशन किया। सन 1870 में काश्मीर-नरेश रणवीरसिंह को पैप्पलाद शाखा की एक प्रति उनके ग्रंथ संग्रहालय में मिली। वह भूर्जपत्र पर शारदा लिपि में लिखी थी। उन्होंने डॉ. राथ को उपहार रूप में वह प्रति समर्पण की। राथ की मृत्यु के पश्चात् ट्यूव्हिजन विश्वविद्यालय को वह प्राप्त हुई। उसके अधिकारियों ने सन 1901 में अमेरिका में उसका प्रकाशन किया।
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. शौनक शाखा का संस्करण, संपादन और प्रकाशन (सायणभाष्य सहित) सन 1856 में राथ और व्हिटनी इन दो पाश्चात्य पंडितों ने किया। ग्रिफिथ ने अथर्ववेद का पद्यानुवाद प्रकाशित किया, जिसकी प्रस्तावना में वेदविषयक भरपूर जानकारी उन्होंने दी है।
अथर्ववेद से संबंधित अवान्तर साहित्य में गोपथ ब्राह्मण, कौषीतकी ब्राह्मणारण्यक, वैतान श्रौतसूत्र, कौशिक्य गृह्यसूत्र, खादिर गृह्यसूत्र, पैठीनसी धर्मसूत्र और श्रीशंकराचार्य के मतानुसार प्रश्न, मुण्ड, मांडूक्य तथा नृसिंहतापिनी इन चार उपनिषदों का अन्तर्भाव होता है। प्रश्नोपनिषद पैप्पलाद शाखीय और मुण्ड-माण्डूक्य शौनक शाखीय हैं। मुक्तकोपनिषद में 13 अथर्वण उपनिषदों के नाम दिए हैं। उनके अतिरिक्त कौषीतकी गृह्यसूत्र, गोभिल गृह्यसूत्र, दैवतसंहिता, दैवत षडविंश ब्राह्मण, द्राह्यायण गृह्य सूत्रवृत्ति इत्यादि ग्रंथ संपदा आथर्वण वाङ्मय में अन्तर्भूत होती है।
अथर्ववेद की 14 शाखोपशाखाओं में पिप्पलाद और शौनक प्रमुख हैं। इनके अतिरिक्त चारणविद्या' नामक शाखा के चार भेद माने गए हैं। नरहरि व्यंकटेश शास्त्री कृत चतुर्वेदशाखानिर्णय नामक ग्रंथ में, वेदों की शाखाओं एवं उपशाखाओं के विषय में विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
वेदविस्तार मत्स्यपुराण में कहा है कि "एक आसीत् यजुर्वेदः" याने प्रावंभ में केवल एकमात्र यजुर्वेद था। वायु और विष्णु पुराण में भी यही कहा है। भगवान व्यास ने यज्ञविधि की व्यवस्थानुसार चार संहिताएं तैयार की और पैल को ऋग्वेद, वैशंपायन को यजुर्वेद, जैमिनि को सामवेद एवं सुमंतु को अथर्ववेद की संहिता पढ़ा कर उन्हें अपने अपने शिष्य प्रशिष्यों द्वारा वेद का सर्वत्र प्रचार करने का आदेश दिया।
विविध प्रकार के यज्ञों के विधि-विधानों की ठीक व्यवस्था के लिए ब्राह्मण ग्रंथों की निर्मिति का कार्य भी भगवान वेद व्यास ने ही किया। उनके द्वारा जिस शिष्यपरंपरा का विस्तार हुआ उनके कारण वेदों की अनेक शाखा-प्रशाखाओं का विस्तार हआ, जिसका विस्तारपूर्वक वर्णन अनेक पुराणों में तथा भागवत और महाभारत के शांतिपर्व (अध्याय 342) में मिलता है। तथापि इस वेदविस्तार की व्यवस्थित जानकारी के लिए चरणव्यूह नामक तीन ग्रंथ प्रसिद्ध हैं : (1) शौनक कृत- इसपर काशी-निवासी महीदास ने सन 1556 में भाष्य लिखा। (2) कात्यायन कृत- इसपर योगेश्वर उपनाम के त्र्यंबक शास्त्री नामक विद्वान ने 17 वीं शताब्दी में टीका लिखी। (3) व्यास कृत।
दशग्रंथ प्राचीन परंपरा के अनुसार वैदिक वाङ्मय के अध्येताओं में “दशग्रंथी विद्वान" को बड़ी मान्यता थी। जिस वैदिक छात्रने, (1) संहिता, (2) ब्राह्मण, (3) पदक्रम, (4) आरण्यक, (5) शिक्षा, (6) छंद, (7) ज्योतिष, (8) निघंटु, (9) निरूक्त और (10) अष्टाध्यायी, इन दस ग्रंथों का पाङ्क्त अध्ययन किया हो उसे दशग्रंथी विद्वान कहते हैं।
१ आरण्यक वाङ्मय वैदिक वाङ्मय का संबंध जिस वैदिक धर्म से है, उसके कर्मकाण्ड और ज्ञानकांड नामक दो विभाग हैं। कर्मकाण्ड के अन्तर्गत नानाविध यज्ञ-यागों का विधान किया है, जिसका सविस्तर विवेचन ब्राह्मण ग्रंथों में मिलता है। इस ब्राह्मण वाङ्मय के गद्यपद्यात्मक परिशिष्ट विभाग को 'आरण्यक' संज्ञा दी है। इस विभाग का अध्ययन अरण्य में रह कर करने की परिपाटी थी। उसी कारण इस वाङ्मय को 'आरण्यक' संज्ञा प्राप्त हुई, (अरण्य एवं पाठ्यत्वात् आरण्यकमितीर्यते) ऐसी भी एक उपपत्ति बताई जाती है।
यज्ञ-यागों की गूढता और वर्णाश्रमों के धर्माचार यही है आरण्यकों के प्रतिपाद्य विषय। कुछ उपनिषदों का भी अन्तर्भाव आरण्यकों में होता है। इस कारण आरण्यक और उपनिषदों की निश्चित सीमारेषा बताना असंभव सा है।
जिस प्रकार मंत्र और ब्राह्मण इन दोनों को मिलाकर "वेद" कहते हैं, उसी प्रकार आरण्यक और उपनिषद को "वेदान्त" कहते हैं, क्यों कि यह वाङ्मय वेद का अन्तिम भाग है। जिस प्रकार विशिष्ट ब्राह्मण ग्रंथों का विशिष्ट वैदिक सम्प्रदाय से संबंध है, उसी प्रकार, आरण्यकों एवं उपनिषदों का भी वैदिक संप्रदायों से संबंध होता है (देखिए-परिशिष्ट)
ब्राह्मण- आरण्यक और उपनिषद इनका परस्पर संबंध निम्न प्रकार से है :(1) ऋग्वेद ऐतरेय ब्राह्मण से, ऐतरेय आरण्यक और ऐतरेय उपनिषद संबंधित है। (2) ऋग्वेद शांखायन (अर्थात कौषीतकी) ब्राह्मण से, कौषीतकी आरण्यक और कौषीतकी उपनिषद संबंधित है।
(3) कृष्ण यजुर्वेद तैत्तिरीय ब्राह्मण से, तैत्तिरीय आरण्यक और तैत्तिरीय उपनिषद संबंधित है। महानारायण उपनिषद भी तैत्तिरीय आरण्यक से संबंधित है।
(4) शुक्ल यजुर्वेद के शतपथ ब्राह्मण के 14 वें मंडल का प्रारंभिक तृतीयांश भाग “आरण्यक" है और बाकी दो तृतीयांश भागों को "बृहदारण्यक उपनिषद" कहते हैं। बृहदारण्यक उपनिषद सभी उपनिषदों में बडा और अनेक दृष्टि से परिपूर्ण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 21
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है। शुक्ल यजुर्वेद के माध्यन्दिन और काण्व इन दोनों शाखाओं के आरण्यक, माध्यन्दिन आरण्यक और काण्व - बृहदारण्यक नाम से प्रसिद्ध हैं। इन दोनों बृहदारण्यकों में विशेष अंतर नहीं है।
(5) सामवेद के ताण्डय ब्राह्मण से छांदोग्य उपनिषद संबंधित है । छांदोग्य का प्रारंभिक भाग आरण्यक के समान है।
(6) सामवेद की जैमिनीय शाखा का जैमिनीय ब्राह्मणोपनिषद्ब्राह्मण ही "तलवकार आरण्यक" नाम से प्रसिद्ध है । इस ब्राह्मण में आरण्यक और उपनिषद का अन्तर्भाव हुआ है।
ऐतरेय आरण्यक संपूर्ण आरण्यक वाङ्मय में ऋग्वेद के ऐतरेयारण्यक को विशेष महत्व दिया जाता है। सन 1876 में सत्यव्रत सामाश्रमीजी, सायणभाष्य सहित इसका प्रथम मुद्रण किया। सन 1909 में कीथ ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ उसका प्रकाशन किया। इस आरण्यक पर षड्गुरु शिष्य की "मोक्षप्रदा" नामक टीका का निर्देश मिलता है, परंतु वह टीका उपलब्ध नहीं है।
इसमें कुल अठराह अध्यायों का पांच भागों में वर्गीकरण किया है और प्रत्येक अध्याय का विभाजन अनेक खंडों में किया है। प्रथम आरण्यक में गवामयन, महाव्रत, प्रातः सवन, माध्यंदिन सवन और सायंसवन का वर्णन है।
द्वितीय आरण्यक के 4, 5, 6 अध्यायों को ही "ऐतरेय उपनिषद" कहते हैं।
तृतीय आरण्यक में निर्भुज और प्रतृण्ण संहिता (संधि) के भेद और स्वर, स्पर्श, उष्प आदि वर्णों का विवेचन किया है।
चतुर्थ आरण्यक में ऋचाओं का संकलन और पंचम में महाव्रत का सवन तथा निष्कैवल्य शस्त्र (अर्थात् वैदिक स्तोत्र ) का विवेचन किया हैं।
इन पांच आरण्यकों में से पहले तीन आरण्यकों का प्रचार ऐतरेय महीदास ने चौथे का अश्वलायन ने और पांचवे का शौनकाचार्य ने किया है ऐसा माना जाता है। ऐतरेय आरण्यक के विषय प्रतिपादन से आरण्यकों में प्रतिपादित विषयों की स्थूल रूपरेखा समझ में आ सकती है। इसके अतिरिक्त अम्वेद का शांखायन (कौषीतकी), कृष्ण यजुर्वेद का तैत्तिरीय और शुक्ल यजुर्वेद का बृहदारण्यक वानप्रस्थाश्रमी वैदिकों के लिए महत्वपूर्ण है। यज्ञादि महाव्रतों का और होत्रों का विवरण यही सारे आरण्यकों का प्रमुख विषय है ।
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10 उपनिषद् वाङ्मय
वेदान्त वाङ्मय में दशोपनिषद शब्दप्रयोग सर्वत्र रूढ है ।
।
इस प्रसिद्ध श्लोक में उन दशोपनिषदों का परिगणन हुआ है
श्रीशंकराचार्यजी ने अपने अद्वैत वेदान्त विषयक भाष्यों में इन दस उपनिषदों के अतिरिक्त वेताश्वतर महानारायण, मैत्रायणी, कौषीतकी और नृसिंहतापिनी इन अवांतर पांच उपनिषदों के भी वचन उद्धृत किए हैं। अतः उनका भी दशोपनिषदों के समान ब्रह्मज्ञान में प्रामाण्य माना जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता को उपनिषद की मान्यता है। इस प्रकार प्रमाणभूत उपनिषदों की संख्या केवल दस ही नहीं है ।
"ईश-केन- कठ प्रश्नमुंड माण्डूक्य- तित्तिरिः छान्दोग्यम् ऐतरेयं च बृहदारण्यकं तथा ।।
मुक्तोपनिषद नामक ग्रंथ में 108 उपनिषदों के नाम उल्लिखित हैं और चार वेदों के अनुसार उनका वर्गीकरण भी किया है जैसे :ऋग्वेद : 10 उपनिषद । कृष्ण यजुर्वेद 32 उपनिषद, । शुक्ल यजु 19 उपनिषद । सामवेद : 16 उपनिषद और अथर्ववेद : 31 उपनिषद । वेदों की प्रत्येक शाखा का एक एक उपनिषद माना जाता है। मुक्तकोपनिषद में कहा है कि आध्यात्मिक साधक ने आत्मसमाधान के लिए ईशोपनिषद से प्रारंभ करते हुए केन, कठ, प्रश्न इस क्रमानुसार उपनिषदों का स्वाध्याय करना चाहिए। दस उपनिषदों से समाधान प्राप्त नहीं हुआ तो सत्ताईस, बत्तीस, अड़तीस अथवा अन्त में 108 उपनिषदों का अध्ययन करना चाहिये। इसका अर्थ ब्रह्मजिज्ञासा पूर्ण होने तक साधक ने उपनिषदों का श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना चाहिए।
22 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
मुक्तोपनिषद के वर्गीकरण में वैदिक और अवैदिक इस प्रकार का उपनिषदों का भेद नहीं माना है। अवैदिक माने गए उपनिषदों का अन्तर्भाव सामान्यतः अथर्ववेदीय उपनिषदों में होता है। उनका संबंध पुराण और तंत्रशास्त्र से होता है और उनमें दार्शनिकता की अपेक्षा धार्मिकता पर अधिक बल दिया गया है। डायसन नामक पाश्चात्य मनीषी ने, विषयों की दृष्टि से उत्तरकालीन "अथर्ववेदीय उपनिषदों" का वर्गीकरण निम्न प्रकार किया है:
(1) वेदान्तसिद्धान्तपरक प्रश्न, मुण्डक, माण्डूक्य, गर्भ, गारुड इत्यादि । (2) योगसिद्धान्तपरक : अमृतबिन्दु, छुरिका, नाद, बिन्दु इत्यादि । (3) संन्यासधर्मपरक आश्रम, संन्यास, सर्वसार, ब्रह्म, इत्यादि । (4) विष्णुस्तुतिपरक कैवल्य, नीलरूद्र, अथर्वशिरस् इत्यादि ।
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वैदिक उपनिषदों में से ईश, केन, कठ, मुंडक, श्वेताश्वर और महानारायण की रचना छन्दोबद्ध तथा साहित्यिक गुणों से युक्त है और इनमें आध्यात्मिक विचारों का स्थैर्य विशेष रूप में दिखाई देता है।
अथर्ववेदीय उपनिषद वाङ्मय उत्तरकालीन और बहुसंख्याक है जिसमें गर्भ, पिण्ड, आत्मबोध इत्यादि उपनिषद विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं।
उपनिषद वाङ्मय के अन्तर्गत अधिकतम 250 तक उपनिषदों का अन्तर्भाव होता है, जिनमें श्रीशंकराचार्य के उत्कृष्ट भाष्यग्रंथों के कारण ईश, केन, कठ इत्यादि दस और ग्यारहवां श्वेताश्वतर विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त अमृतबिंदू, ध्यानबिंदु, कैवल्य, गर्भ, गोपालतापनी, रामपूर्वतापनी, नृसिंहोत्तरतापनी, छुरिका, जाबाल, संन्यास, नारायणीय, महानारायण, मैत्री, योगतत्त्व, सर्व, वज्रसूची इत्यादि 32 उपनिषदों को भी विशेष महत्त्व दिया जाता है।
वैदिक वाङ्मय में जिस "विद्या" का प्रतिपादन हुआ है उसके (1) परा और (2) अपरा नामक दो विभाग किए जाते हैं। चार वेदों को "अपरा'' विद्या और जिसके द्वारा परब्रह्म का साक्षात्कार होता है उसे “परा" विद्या कहा है- (तत्र अपरा ऋग्वेदो यजुर्वेदः सामवेदः अथर्वाङ्गिरसः --- । परा च सा यया तदक्षरम् अधिगम्यते (मुण्डकोपनिषद)। इसी परा विद्या को ब्रह्मविद्या अथवा “उपनिषद्" कहते हैं।
__व्याकरण के अनुसार “उपनिषद्' शब्द उप + नि+सद् धातु को क्विप् प्रत्यय लगा कर सिद्ध होता है। उन प्रत्येक का अर्थः- उप - उपगम्य, उपलभ्य। नि-नितरां, निःशेषेण। सद् (मूल धातु षद्लु) = (1) विशरण (नाश करना), (2) गति (गमन करना), (3) अवसादन (शिथिल करना) इस प्रकार भाष्यकारों ने विशद किया है। तदनुसार उपनिषद् शब्द के घटकावयवों का अर्थ जोड़ कर, संपूर्णतया तीन अर्थ व्यक्त होते हैं:- (1) (उप) गुरु के पास जा कर, जिसका (नि) निश्चय से परिशीलन करने पर, अविद्या (अर्थात जन्म-मरण का बीज) का सद् नाश होता है, ऐसी मोक्षदायक विद्या)
(2) गुरु के पास जाकर जिसकी प्राप्ति, मुमुक्षु का निश्चित ही ब्रह्मपद तक गमन कराती है ऐसी मोक्षदायक विद्या। (३) गुरु के पास जाने पर, जिसकी प्राप्ति होने से, जन्ममरण का उपद्रव शिथिल होता है (सद्) ऐसी स्वर्गदायिनी अग्निविद्या ।
तात्पर्य "उपनिषद्" इस स्त्रीलिंगी शब्द का पारिभाषिक अर्थ, मानव का आत्यंतिक कल्याण करने वाली विद्या का प्रतिपादन करने वाले प्राचीन वैदिक वाङ्मयान्तर्गत ग्रन्थ- (उपनिषदिति विद्या उच्यते। तच्छीलिनां गर्भ-जन्म-जरादि- निशातनात् तदवसानाद् वा, ब्रह्मणो वा उपगमयितृत्वात उपनिषद्। तदर्थत्वाद् ग्रन्थोऽपि उपनिषद् (तैत्तिरीयभाष्य की प्रस्तावना)
उपनिषद् शब्द का उपासना (धारणा, ध्यान) अर्थ में भी श्रीशंकराचार्यजी ने अपने भाष्यों में यत्र तत्र प्रयोग किया है। इस का कारण उपनिषदों में ब्रह्मप्राप्ति की विविध प्रकार की उपासनाओं का प्रतिपादन किया गया है।
वैदिक धर्म का स्वरूप प्रवृत्तिपर और निवृत्तिपर है। प्रवृत्तिपर (अभ्युदायात्मक) वैदिक धर्म का मार्गदर्शन मन्त्र-ब्राह्मणात्मक संहिताओं में और निवृत्तिपर (निःश्रेयसात्मक) धर्म का मार्गदर्शन उपनिषदात्मक वैदिक वाङ्मय में मिलता है।
उपनिषदों को ही "वेदान्त" संज्ञा प्राप्त होने का एक कारण यह है कि, कर्मकाण्ड, उपासनाकाण्ड और ज्ञानकाण्ड इन वैदिक धर्म के तीन काण्डों में से अंतिम ज्ञानकाण्ड (और उसका साधनभूत उपासनाकाण्ड) का प्रतिपादन उपनिषद् वाङ्मय में किया गया है। दूसरा कारण-ईशावास्यादिक उपनिषद, वैदिक संहिताओं के अंत में ग्रंथित हुए हैं।
उपनिषदों में प्रतिपादित आध्यात्मिक सिद्धान्तों एवं साधनाओं का स्वरूप विशद करने की दृष्टि से चारों वेदों के विशिष्ट उपनिषदों का संक्षेपतः परिचय यहां प्रस्तुत किया है।
' ऋग्वेदीय उपनिषद (1) ऐतरेय - इस उपनिषद में केवल तीन ही अध्याय हैं। प्रथम अध्याय में कहा है कि इस जगत् की निर्मिति जिस परब्रह्म से हुई, उसी का उत्कृष्ट व्यक्त स्वरूप है मानव। मानव के इन्द्रियों, मन और हृदय इन तीन करणस्थानों में आत्मा का निवास होता है और तदनुसार वह जागृति, स्वप्न एवं सुषुप्ति (अर्थात गाढतम निद्रा) इन तीन अवस्थाओं का अनुभव पाता है।
द्वितीय अध्याय में, आत्मा के त्रिविध जन्मों का विचार किया है। इस संसार (अर्थात जन्म-मरण चक्र) का अंत अथवा स्वर्गस्थ अमरत्व या पूर्णावस्था ही मोक्ष है। वही मानव का परम पुरुषार्थ है। तृतीय अध्याय में आत्मस्वरूप का वर्णन करते हुए "प्रज्ञान" ही ब्रह्म है यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया है।
(2) कौषीतषी उपनिषद- ऋग्वेद के कौषीतषकी ब्राह्मण में विशिष्ट 15 अध्यायों को कौषीतकी आरण्यक मानते हैं। उस आरण्यक के तीन से छः जिन चार अध्यायों का विभाग है उसी का नाम है कौषीतकी उपनिषद। इसमें प्रधानतया मरणोत्तर आत्मा के दो मार्गों का वर्णन है। द्वितीय अध्याय में प्रज्ञा को ही आत्मा का प्रतिक कहा है। अंतिम दो अध्यायों में ब्रह्मवाद का प्रतिपादन है। कौषीतकी उपनिषद की विशेषत, ज्ञान से कर्म की श्रेष्ठता प्रतिपादन करने में मानी जाती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/23
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सामवेदीय उपनिषद (1) छान्दोग्य- छन्दोग शब्द का अर्थ है सामवेद। इसी कारण "छान्दोग्य" का अर्थ होता है- "छन्दोगम् अधिकृत्य कृतो ग्रन्थः' अर्थात् सामवेद से संबंधित ग्रंथ। इसके कुल आठ अध्यायों में पंद्रह से चौबीस तक खंड हैं। उपनिषद वाङ्मय जिस अध्यात्म विद्या या ब्रह्मविद्या का प्रतिपादन करता है उसको विशद एवं सुगम करनेवाली रोचक तथा उद्बोधक कथाएं छांदोग्य में अधिक मात्रा में मिलती हैं। छांदोग्य उपनिषद का अध्यायानुसार संक्षिप्त सारांश :
अध्याय-1 : इस अधयाय के 13 खंड हैं। आरंभ में "ओम् इति एतद् अक्षरम् उथीथम् उपासीत"- (अर्थात ओम् यह अक्षर ही उद्गीथ याने सामवेद है, इस निष्ठा से उसकी उपासना करनी चाहिए ऐसा अर्थ इस मंत्र से होता है। आगे चलकर साम के अवयवों का विवेचन करते हुए उन अवयवों की उपासना का फल बताया है। अंतिम 13 वें खंड में स्तोभाक्षरों का फल सहित विवेचन किया है। स्तोभाक्षर का अर्थ है, सामवेद की गेय ऋचाओं के अतिरिक्त, हाइ, हाऊ, हाउ, ऊ, हिं इत्यादि अर्थहीन अक्षरों का समूह। इन की उपासना से कुछ अदृष्ट फल का साधक को लाभ होता है।
अध्याय- 2 : इस अध्याय में कुल 24 खंड हैं। प्रथम खंड में, हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधन इन पांच प्रकार के सामों की उपासनाविधियां बताई है। बाद में 8 वें से 21 वें खंड तक आदित्यादि सात सामों की उपासना बता कर, आदित्य के किस अवयव को किस सामावयव का रूप प्राप्त होता है यह सिद्ध किया है। 22 वें खंड में किस देवता का किस स्वर में स्तुतिगान करना यह बताया है। 23 वें खंड में, सामावयव उद्गीथ ओंकार और शुद्ध ओंकार में भेद सिद्ध किया है। 24 वें खंड में प्रातःसवन, मध्याह्न सवन और सायंसवन, की देवताएं और उनकी उपासनाओं का फल इस विषय का प्रतिपादन किया है।
अध्याय- 3 : 19 खंडों के इस अध्याय में आदित्योपासना और उसका फल इस विषय का प्रतिपादन किया है। प्रारंभिक पाच खंडों में यज्ञफल और कर्मफल बताते हुए, तीनों सवनकर्मों के समय के सूर्य के रूप बताए हैं। आगे अध्याय समाप्ति तक आदित्य ही ब्रह्म है यह सिद्ध किया है।
अध्याय- 4 : सत्रह खण्डों के इस अध्याय में वायु और प्राण ब्रह्मा के चरण होने के कारण उनकी उपासना का महत्त्व प्रतिपादन किया है। प्रारंभिक नौ खंडों में जनश्रुति की कथा के आधार पर, विद्यादान और उसकी विधि का प्रतिपादन किया है। दृढश्रद्धा, अन्नदान और विनय अध्यात्मविद्या की प्राप्ति के तीन साधन बताए हैं। दसवें अध्याय से लेकर आगे श्रद्धा और तप ये दो ब्रह्म प्राप्ति के श्रेष्ठ साधन हैं, इस सिद्धान्त का प्रतिपादन, उपकोसल सत्यकाम जाबालि की कथा द्वारा किया है। अन्त में ब्रह्मविद्या की प्राप्ति होने पर साधक किस प्रकार ब्रह्मस्वरूप होता है यह बताकर अध्याय की समाप्ति की है।
अध्याय-5 : इसमें 25 खण्ड हैं। चौथे अध्याय में जिस “देवयान" का निवेदन किया है उसकी प्राप्ति “पंचाग्निविद्या" का ज्ञान रखने वाले को किस प्रकार होती है यह प्रमुखता से बताया है। प्राण और इन्द्रियों के संवाद द्वारा प्राण की श्रेष्ठता सिद्ध की है। तीसरे खण्ड में श्वेतकेतु की कथा के आधार पर संसार का दुःखस्वरूप प्रतिपादन किया है। 11 वें खण्ड से 24 खण्ड तक प्राचीनशाल इत्यादि पांच विद्वानों ने आत्मा और ब्रह्म का निर्णय किया है।
__ अध्याय-6 : इसमें 15 खण्ड हैं, जिन में आरुणि के पुत्र श्वेतकेतु की कथा द्वारा जीव और ब्रह्म की एकता का उद्बोध किया है। इसी श्वेतकेतु की कथा में एक मूलभूत सत्य का ज्ञान होने पर, सभी ज्ञान प्राप्त होता है यह सिद्धान्त अनेक दृष्टान्तों द्वारा बताया है। आत्मज्ञानी पुनर्जन्म से मुक्त होता है और अज्ञानी पुनर्जन्म के फेरे में घूमता है इसकी चर्चा भी अध्याय में की है।
अध्याय-7 : इस अध्याय में ब्रह्म की जिन सोलह स्वरूप में उपासना होती है, उनका निरूपण किया है।
अध्याय- 8 : इसके पूर्वार्ध में, अन्तकरण तथा बाह्य विश्व में निवास करने वाले आत्मतत्त्व को प्राप्त करने की विधि बतायी है और उत्तरार्ध में आत्मा के सत्य तथा असत्य स्वरूप का परिचय दिया है। जाग्रत, स्वप्न और सुषप्ति ये आत्मा की तीन अवस्थाएं हैं। सुषुप्ति की अवस्था में वह अपने निजी विशुद्ध स्वरूप में रहता है, यही सारे प्रतिपादन का अभिप्राय है।
केनोपनिषद - इसका संबंध सामवेद की तलवकार शाखा से होने के कारण और (सामवेदीय) तलवकार ब्राह्मण ग्रंथ में इस का अन्तर्भाव होने के कारण, इसको "तलवकार उपनिषद" भी कहते हैं। इस का प्रारंभ, "केनेषितं पतति प्रेषितं मनः" इस प्रथम वाक्य के “केन" शब्द होने से इसे केनोपनिषद कहते हैं। इस के कुल चार खण्डों में प्रतिपादित विषयों का संक्षिप्त परिचय निम्न प्रकार है:
खण्ड - 1 :- आत्मा ही सर्वनियामक किन्तु अज्ञेय और अनिर्वचनीय है। ब्रह्मतत्त्व, वाक् चक्षु, मन इत्यादि इन्द्रियों से अतीत होने के कारण उसकी उपासना असंभव है। लोग जिसकी उपासना करते हैं वह ब्रह्म नहीं है।
खण्ड - 2 :- बाह्य वस्तुओं के समान ब्रह्म इन्द्रियगोचर न होने के कारण, शब्द स्पर्श इत्यादि विषयों के रूप में उसका ज्ञान नहीं होता। इसी कारण जो उसे नहीं जानता वही वास्तव में उसे जानता है और यह समझता है कि मै ब्रह्म को जानता 24 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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उसके लिए ब्रह्म अज्ञात है। इस जन्म में ब्रह्मज्ञान हुआ तो ही जीवित की सार्थकता है । ब्रह्मज्ञान न होने में बड़ी हानि है। बुद्धिमान लोग प्राणिमात्रों में ब्रह्म का साक्षात्कार पा कर अमृतत्व (मोक्ष) की प्राप्ति करते हैं।
खण्ड 3- इसके यक्षोपाख्यान में अग्नि, वायु, इन्द्र इत्यादि देवताओं का सारा सामर्थ्य वस्तुतः उनका निजी सामर्थ्य नहीं होता, अपि तु परब्रह्म का ही होता है, यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। उस सर्वशक्तिमान ब्रह्म तत्त्व का ज्ञान गुरु के उपदेश द्वारा ही होता है, यह सिद्धान्त हैमवती उमा के उपदेश से सूचित किया है। जस प्रकार नेत्रों का निमेष और उन्मेष अथवा बिजली का चमकना तत्काल होता है अथवा अन्तःकरण को प्रतीति तत्काल होती है, उसी प्रकार गुरुपदेश से मंदबुद्धि पुरुष को भी ब्रह्मज्ञान तत्काल होता है। साथ ही ब्रह्मज्ञान के लिए सांग वेदाध्ययन, सत्य, तप, दम और अग्निहोत्रादि कर्म, इनकी भी आवश्यकता होती है। तप, दम और कर्म ब्रह्मविद्या की प्रतिष्ठा (आधारभूमि) है और वेद-वेदाङ्ग तथा सत्य उसका आयतन ( निवासस्थान) है। ब्रह्मविद्या से ही पापों का क्षय होकर मानवजीव अनन्त और महान् स्वर्ग में स्थिरपद होता है, अर्थात् वह जन्ममरण के चक्र से मुक्त होता है।
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केनोपनिषद लघुकाय ग्रंथ है तथापि भगवान् शंकराचार्य ने उस पर दो भाष्य- (प्रथम पदभाष्य और बाद में वाक्यभाष्य) लिखकर उसकी प्रतिष्ठा बढ़ाई है वाक्यभाग्य में सर्वत्र (विशेषतः तृतीय खंड के प्रारंभ में) युक्तिवादों से विरोधी मतों का खंडन और अद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन जगद्गुरु ने किया है।
कृष्ण यजुर्वेदीय उपनिषद
काठकोपनिषद कृष्ण यजुर्वेद की कठ शाखा आज लुप्त है तथापि उस शाखा का काठकोपनिषद प्रसिद्ध है। पाणिनि के कठचरकात् लुक्" इस सूत्र से चरक के समान कठ यह किसी ऋषि का नाम प्रतीत होता है। इस उपनिषद में वाजश्रवस् ऋषि के पुत्र नचिकेता को मृत्यु द्वारा प्राप्त आत्मज्ञान प्रतिपादन किया है।
कठोपनिषद के दो अध्यायों का "वल्ली" नामक उपप्रकरणों में विभाजन किया है।
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प्रथमवल्ली वाजश्रवा ऋषि ने विश्वजित् यज्ञ में सर्वस्व दान करते हुए क्षीण जीर्ण गायों का दान देना शुरू किया। तब पुत्र नचिकेता ने प्रश्न किया "पिताजी" आप मेरा दान किसे करेंगे। यही प्रश्न उस बालक ने बार बार पूछा, तब चिढ़ 'कर पिता ने कहा “मृत्यवे त्वां ददामि " मै तेरा दान मृत्यु को दूंगा । नचिकेता यमराज के भवन में पहुंच गया। तीन दिन तक उपोषित रहते हूए नचिकेता ने उनकी प्रतीक्षा की। वापस लौटने पर यमराज ने उसे तीन वर प्रदान किए। इसमें चि ने मरणोत्तर आत्मा की गति के बारे में प्रश्न पूछा। इस गूढ प्रश्न का उत्तर टालने के हेतु नचिकेता, को कई प्रलोभन बताए गए। नचिकेता' ने उन्हें नकारा। उसकी तीव्र विरक्ति और जिज्ञासा देख कर मृत्युदेव ने उसे आत्मज्ञान बताया। उपनिषदों के अनेकविध उपाख्यानों में कठोपनिषद का यह नचिकेतोपाख्यान अतीव रोचक एवं लोकप्रिय है।
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द्वितीयवल्ली मनुष्य जीवन में श्रेय और प्रेय दोनों की प्राप्ति होती है । प्रेय का त्याग कर, जो श्रेय का अर्थात् ब्रह्मज्ञान का स्वीकार करता है उसका हित होता है। जो प्रेय का पीछा करता है, वह बारंबार मृत्यु का शिकार होता है । आत्मज्ञान या ब्रह्मविद्या की प्राप्ति केवल तर्क द्वारा नहीं होती। अनुभवसम्पन्न आचार्य के उपदेश से ही उसकी प्राप्ति हो सकती है। आत्मज्ञान से मानव हर्ष और शोक से विमुक्त होकर परम आनंद का अनुभव पाता है।
ओंकार ही नित्य शाश्वत अविनाशी ब्रह्मतत्त्व का आलंबन है। “अणोरणीयान् महतो महीयान्"- आत्मस्वरूप ब्रह्म का ज्ञान, वैराग्यसम्पन्न और इन्द्रियजयी पुरुष को ही होता है। उस ज्ञान से वह शौकमुक्त होता है।
तृतीयवल्ली विद्या और अविद्या इन में स्वरूपभेद और फलभेद विशद करने के लिए रथरूपक का वर्णन
"आत्मानं रथिनं विद्धि शरीरं रथमेव तु बुद्धिं तु सारथिं विद्धि मनः प्रग्रहमेव च। इन्द्रियाणि हयानाहुः विषयांस्तेषु गोचरान् ।।
(1-3-4)
इन मन्त्रों में किया है जो अत्यंत समर्पक है। रथरूपक में बुद्धि को सारथी कहा है । संसारी आत्मा का परमपद तक प्रवास निर्विहन होने के लिए, इन्द्रियरूप अक्षों को विषयमार्ग पर सम्हालने वाला बुद्धिरूप सारथी "विज्ञानवान्" (आत्मानात्मविवेकयुक्त) और समाहित (स्थिर) होना आवश्यक है। उसमें दोष रहा तो "रथी" (आत्मा) परमपद तक न पहुंचते हुए, जन्म मरण के चक्र में फंस जाता है।
इन्द्रियेभ्यः परा ह्यर्था अर्थेभ्यश्च परं मनः । मनसस्तु परा बुद्धिः
बुध्देरात्मा महान् परः ।।
महतः परमव्यक्तम् अव्यक्तात् पुरुषः परः । पुरुषान्न परं किंचित् सा काष्ठा सा परा गतिः ।। (ऋ. 1-3-11)
,
इन मन्त्रों में इन्द्रियां और उनके विषय मन, बुद्धि, महत्तत्व, अव्यक्त (अर्थात् मूल प्रकृति) इन सब से परे जो सूक्ष्मतम पुरुष तत्त्व है, वही जीव का परम प्राप्तव्य अथवा गन्तव्य स्थान है। यह परम तत्त्व समस्त भूतमात्र में निगूढ है, फिर भी
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अविद्या (माया) के विचित्र प्रभाव के कारण उसका आकलन होना असंभव है। परंतु एकाग्र बुद्धि द्वारा सूक्ष्मदर्शी साधक उसका आकलन कर सकता है। इस लिए कठोपनिषद की इस वल्ली में लय-चिन्तन की साधना का कठिन अभ्यास बताया है। उस अभ्यास के लिए श्रेष्ठ ब्रह्मज्ञानी आचार्य को शरण जाने की आवश्यकता प्रतिपादित की है।
चतुर्थवल्ली - इन्द्रियों की स्वाभाविक प्रवृत्ति बहिर्मुखी होने के कारण, अन्तरात्मा की ओर प्रवृत्त होना दुष्कर है। परंतु जिस साधक ने बहिर्मुख इन्द्रियों के व्यापार निरुद्ध कर, आत्मसाक्षात्कार प्राप्त किया, उस के लिए कुछ भी ज्ञातव्य नहीं बाकी रहता । सर्वज्ञ परमात्म तत्त्व से एकत्व होने के कारण, वह भी सर्वज्ञ होता है और अज्ञानमूलक शोक की बाधा उसे कतई नहीं होती।
मनुष्य देह में, अंगुष्ठ-प्रमाण हृदय-कमल के अन्तर्गत निर्धूम ज्योतिःस्वरूप आत्मा का निवास होता है, यह रहस्य जो जानता है, वह अपने शरीर के संबंध में उदासीन हो जाता है। प्रत्येक शरीर में विराजमान आत्मतत्त्व परस्पर भिन्न होता है, ऐसा भेदभाव रखने वाले का अधःपात होता है। भेददर्शन से पुनर्जन्म होता है और अभेद-दर्शन द्वारा जन्म-मरण से मुक्तता प्राप्त होती है, इस सिद्धान्त का यहां प्रतिपादन हुआ है।
पंचमवल्ली - नचिकेता का मूल प्रश्न मरणोत्तर जीव की अवस्था के विषय में था। उस प्रश्न का उत्तर इस वल्ली में दिया गया है। “यथाप्रज्ञं संभवः" इस सिद्धान्त के अनुसार मरणोत्तर जीव को जन्मप्राप्ति होती है, परंतु जो साधक इन्द्रियों की बहिर्मुख प्रवृत्ति का निरोध कर, शरीरस्थ हृदयाकाश (अर्थात् बुद्धि) में चैतन्यरूप से अभिव्यक्त परमात्मतत्त्व का साक्षात्कार पाते हैं, उन्हें शाश्वत शांति का लाभ होता है, अन्य किसी को वह लाभ नहीं होता।
षष्ठवल्ली - कार्य के स्वरूप से कारण के स्वरूप का ज्ञान होता है, इस सिद्धान्त के अनुसार, जिस अव्यक्त तत्त्व से संसाररूप अश्वस्थ वृक्ष का विकास हुआ है, वह सनातन होने के हेतु उसका मूल कारण भी सनातन ही होना चाहिए। उस मूल कारण में विकास की शक्ति भी होनी चाहिए। अर्थात् इस समग्र संसाररूप कार्य की उत्पत्ति, स्थिति और विलयं, उस मूल कारण में ही होना चाहिए। घट जिस प्रकार मृत्तिका से विभिन्न नहीं हो सकता, उसी प्रकार इस ब्रह्माण्ड का कोई भी पदार्थ, उसके मूल कारण से (अर्थात् परमात्मतत्त्व से) विभिन्न नहीं हो सकता। उस सर्वशक्तिमान् परमात्मतत्त्व का जिन्हें ज्ञान होता है, वे "अमृत" होते हैं और जिन्हें यह ज्ञान नहीं होता, वे अपनी अपनी वासना के अनुसार पुनर्जन्म के फेरे में पड़ते है। अतः इसी नरदेह में परमात्मा का साक्षात्कार पाना ही मानव का परम कर्तव्य है। आत्मसाक्षात्कार की साधना इस अवसर पर मृत्युदेव ने सविस्तर बताई है। इस साधना को ही "योग" कहा है। तदनुसार आत्मज्ञान पानेवाले का शोक नष्ट होता है। यही आत्मज्ञानी का लक्षण है।
कठोपनिषद के अन्त में अमृतत्व की प्राप्ति के लिए एक गूढ यौगिक साधना बताई है। तदनुसार मनुष्य शरीर में हृदयस्थान से निकलनेवाली एक सौ एक नाडियों में से सुषुम्ना नामक नाडी द्वारा, हृदयस्थ अन्तरात्मा का शरीर से बाहर संक्रमण होने पर, अमृतत्व की प्राप्ति होती है (तयोर्ध्वमायन् अमृतत्वमेति)।
श्वेताश्वतर उपनिषद - कृष्ण यजुर्वेदान्तर्गत इस महत्त्वपूर्ण उपनिषद के प्रवक्ता श्वेताश्वतर ऋषि को, तपःप्रभाव से और देवप्रसाद से जो ब्रह्मज्ञान प्राप्त हुआ वह उन्होंने "अत्याश्रमी" (अर्थात परमहंस) ऋषियों को निवेदन किया। इस उपनिषद के छः अध्यायों के 173 मंत्रों में यह तत्त्वज्ञान बताया गया है, जिस में योग, सांख्य, द्वैत, अद्वैत, सगुण, निर्गुण इत्यादि विविध तात्त्विक विषयों का अन्तर्भाव हुआ है।
उपनिषदों का अन्तरंग वेदमंत्रों का आध्यात्मिक अर्थ अत्यंत गूढ होने के कारण उसे विशद करने के हेतु उपनिषदों का आविर्भाव हुआ। इसका अर्थ यही है कि अध्यात्मविद्या के विषय में वेदों का जो आशय वही उपनिषदों का भी आशय है। तथापि उपनिषदों के मुख्यतम सिद्धान्त के विषय में मध्ययुगीन श्रेष्ठ विद्वानों में तीव्र मतभेद प्रकट हुए। अन्यान्य आचार्यों ने उपनिषदों का रहस्यभूत सिद्धान्त विभिन्न प्रकार बताया है। जैसे:- (1) श्री शंकराचार्य - अद्वैतवाद, (2) श्री रामानुजाचार्य- विशिष्टाद्वैतवाद, (3) श्री वल्लभाचार्य - विशुद्धाद्वैतवाद, (4) श्रीनिंबार्काचार्य - द्वैताद्वैतवाद (5) श्रीमध्वाचार्य- द्वैतवाद ।
इस प्रकार आचार्यों ने परस्परविरोधी सिध्दान्त उपनिषदों से कैसे सिद्ध किए इस विषय में बड़ा ही आश्चर्य मालूम होता है और सामान्य स्थूल बुद्धि के जिज्ञासु का संदेह कायम रह जाता है। साम्प्रदायिक लोग अपने अपने आचार्य का सिद्धान्त ही उपादेय मानता है।
उपनिषदों का रहस्य प्रतिपादन करने के हेतु भगवान् बादरायण (व्यास ऋषि) ने ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता की रचना की। परंतु उन के भी तात्पर्य के विषय में आचार्यों ने अपने मतभेद कायम रखे हैं। महापंडितों के इस प्रखर मतभेद के कारण, उपनिषदों का सिद्धान्त अब बुद्धिवाद का नहीं अपितु श्रद्धा का विषय बना है।
26 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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दैतवादी, अद्वैतवादी पक्षों के युक्तिवादों का संक्षेपतः परिचय :
(1) औतवाद - उपनिषद वेदमूलक हैं। वेदों की "द्वा सुपर्णा सयुजा सखायः (ऋ. 1-164-16) जैसी ऋचाओं में जीवात्मा और परमात्मा का द्वैत स्पष्टतया प्रतिपादन किया है। अर्थात् उपनिषदों में भी उसी द्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन होना चाहिये।
औतवाद - द्वैतवाद के प्रतिकूल अद्वैतवादी कहते हैं कि, "ऐतादात्यमिदं सर्वम्, तत् सत्यम् स आत्मा, तत् त्वमसि वेतकेतो। (छांदोग्य अ. 6)
“य एवं वेद अहं ब्रह्माऽ स्मीति, स इदं सर्व भवति । तस्य ह न देवाश्च न भूत्या ईशते । आत्मा ह्येषा भवति (बृहदारण्यक)
"ओमित्यदक्षरमिदं सर्व तस्य उपव्याख्यानं भूतं भवद् भविष्यदिति सर्वम् ओंकार एव । यच्च अन्यत् त्रिकालातीतं तदपि ओंकार एव (माण्डूक्य)
इत्यादि वेदवचनों में जीवात्मा, परमात्मा और जगत् इनका अभेद अर्थात अद्वैत स्पष्ट शब्दों में प्रतिपादन किया है, अतः औतवाद ही उपनिषदों का मुख्य सिद्धान्त है।
चैतवाद - "ईशावास्यमिदं सर्वम्," "उद्वयं तमस्परि ज्योतिष्पश्यन्त उत्तरम्" इत्यादि वैदिक मंत्रों में ईश्वर, जीव और प्रकृति इन तीन तत्वों का स्पष्ट निर्देश होने के कारण "त्रैतबाद" ही वेद-वेदान्त का प्रतिपाद्य सिद्धान्त है।
ज्ञान-कर्म-वादी-उपनिषदों में (1) तमेव विदित्वा अतिमृत्युमेति (श्वेताश्व 6/15) (2) तरति शोकम् आत्मवित् (छान्दोग्य-7-1-3) (3) विद्याऽमृतमश्नुते (ईश-11)। इस अर्थ के अनेक वचन मिलते हैं जिन में ज्ञानमार्ग को ही मोक्षसाधन कहा है।
कर्ममार्गवादी कहते हैं कि- (1) “अपाम सोमम् अमृता अभूम" (2) अक्षय्यं वै चातुर्मास्ययाजिनः सुकृतं भवति"। इत्यादि अनेक वचनों में कर्ममार्ग को ही अमृतत्व (अर्थात् मोक्ष) की प्राप्ति का साधन कहा है।
ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी- (1) "अविद्यया मृत्यु तीर्खा विद्ययाऽमृतमश्नुते।” (2) तपसा किल्बिषं हन्ति विद्ययाऽमृतमश्नुते।" (3) तपो विद्या च विप्रस्य निःश्रेयसकरं परम् । इत्यादि वचनों का प्रमाण लेते हुए, ज्ञान और कर्म का समुच्चय ही मोक्षसाधन मानते हैं।
उपनिषदों में ज्ञान, कर्म, द्वैत, अद्वैत इत्यादि सिद्धान्तों के उपोबलक प्रमाण-वचनों का युक्तिपूर्वक समन्वय लगाकर, भाष्यकारों ने अपने अपने सिद्धान्तों की स्थापना की है। इस प्रकार उपनिषदों का मूलभूत सिद्धान्त यह अत्यंत विवाद्य विषय हुआ है। इन विवादों के अनेकविध मार्मिक युक्तिवाद जानने की इच्छा रखने वालों को श्री शंकराचार्यादि भाष्यकारों के ग्रंथों का पांक्त अध्ययन करता आवश्यक है।
भाष्यकारों के शास्त्रार्थ से अलिप्त रहते हुए उपनिषदों के केवल मूलमंत्रों का परिशीलन करने पर एक बात ध्यान में आती है कि सारे ही उपनिषदों में सर्वव्यापी तथा सर्वान्तर्यामी चैतन्यमय परमात्मा का साक्षात्कार करना और जीवात्मा-परमात्मा की एकता का अथवा अद्वैतता की अनुभूति के लिए धारणा और ध्यान की विविध साधनाओं का प्रतिपादन मुख्यतया किया हुआ है।
ये साधनाएं अथवा उपासनाएं ही ब्रह्मजिज्ञासुओं के लिए उपनिषदों का विहित आचारधर्म है। वेदों के संहिता-ब्राह्मणात्मक कर्मकाण्ड में प्रतिपादित आचारधर्म और आरण्यक-उपनिषदात्मक ज्ञानकाण्ड में प्रतिपादित आचारधर्म में पर्याप्त अंतर है। कर्मकाण्ड में स्वर्गप्रद ऋतु तथा यज्ञ को महत्त्व है, किंतु ज्ञानकांड में अपवर्गप्रद धारणा तथा ध्यान (अर्थात् अंतरंग योग) पर सारा महत्त्व केंद्रित है। कर्मकाण्ड का उद्दिष्ट ही स्वर्गसुख है किन्तु ज्ञानकांड का उद्दिष्ट मोक्षसुख या ब्रह्मानंद है।
परिशिष्ट- ए
- वेद और आरण्यक ऋग्वेद से संबंधित
ऐतरेय और सांख्यायन आरण्यक। यजुर्वेद कृष्ण से संबंधित
तैत्तिरीय, सांख्यायन आरण्यक । यजुर्वेद शुक्ल
बृहदारण्यक सामवेद
(आरण्यक नहीं है) परिशिष्ट- ओ
वेद और उपनिषद ऋग्वेद से संबंधित
ऐतरेय, माण्डूक्य, कौषीतकी यजुर्वेद (कृष्ण) से संबंधित
तैत्तिरीय, कठ, श्वेताश्वतर यजुर्वेद (शुक्ल) से संबंधित
बृहदारण्यक, ईश सामवेद से संबंधित
केन, छांदोग्य अर्थर्ववेद से संबंधित
प्रश्न, मुण्डक,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 27
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प्रकरण -3 वेदांग वाङ्मय
वेदों का यथोचित अर्थ जानने में वेदांगों का महत्त्व निरपवाद है। इस संदर्भ में “अंग" शब्द का अर्थ "अंग्यन्ते अभीभिः इति अंगानि" अर्थात् जिनके द्वारा किसी वस्तु के जानने में सहायता होती है उसे अंग कहते हैं। वेद जैसे दुर्बोध विषय के आकलन में वेदांगों का उपयोग होता है, अतः इस वाङ्मय शाखा का महत्त्व असाधारण है। यह वेदांग साहित्य उपनिषदों के पूर्व निर्माण हुआ था। मुण्डकोपनिषद (1/15) में अपरा विद्या के अन्तर्गत चार वेदों के साथ छः वेदांगों का उल्लेख यथाक्रम मिलता है :
(1) शिक्षा, (2) कल्प, (3) व्याकरण, (4) निरुक्त, (5) छंद और (6) ज्योतिष । इन छः वेदांगों का प्रत्येकशः स्वतंत्र महत्त्व है।
वेदों का अर्थ निर्दोष रीति से आकलन होने के लिए वेदांग नामक वाङ्मय प्राचीन पंडितों ने निर्माण किया। पाणिनीय शिक्षा में दो श्लोकों द्वारा छ: वेदांगों का आलंकारिक पद्धति से वर्णन इस प्रकार किया है :
"छन्दः पादौ तु वेदस्य, हस्तौ कल्पोऽथ पठ्यते । ज्योतिषामयनं चक्षुः निरुक्तं श्रोत्रमुच्यते ।।
शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य, मुखं व्याकरणं स्मृतम्।। तस्मात् सांगमधीत्यैव ब्रह्मलोके महीयते ।। (पाणिनीयशिक्षा 41-42) इन छः अंगों सहित किया हुआ वेदाध्ययन ही निर्दोष होता है।
1 शिक्षा शिक्षा को वेदपुरुष का "घाण" कहा है- (शिक्षा घ्राणं तु वेदस्य)। सायणाचार्य ने अपनी ऋग्वेदभाष्यभूमिका में शिक्षा का अर्थ, “स्वरवर्णाधुच्चारणप्रकारो यत्र शिक्ष्यते उपदिश्यते सा शिक्षा"- अर्थात् स्वर, वर्ण आदि का उच्चारण के प्रकार जिसमें पढाएं जाते हैं, उसे शिक्षा कहते हैं। वेद के इस अंग की ओर वैदिक काल में ही ऋषियों का ध्यान आकृष्ट हुआ था। ब्राह्मण ग्रंथों में शिक्षा से संबंधित नियमों का उल्लेख यत्र तत्र पाया जाता है। तैत्तिरीय उपनिषद की प्रथम वल्ली में शिक्षा के, वर्ण, स्वर, मात्रा, बल, साम और सन्तान इन छ: अंगों का उल्लेख मिलता है। पाणिनीय शिक्षा में वेदपाठ करने वाले के छः दोष, "गीती शीघ्री शिरःकम्पी तथा लिखितपाठकः। अनर्थज्ञोऽल्पकण्ठ षडते पाठकाधमाः।। (32) इस श्लोक में बताए हैं; और उसके छ: गुणों का निर्देश "माधुर्यमक्षरव्यक्तिः पदच्छेदस्तु सुस्वरः। धैर्य लयः समर्थश्च पेडते पाठका गुणाः ।।33 ।। इस श्लोक में किया है।
प्रत्येक वेद में कुछ वर्षों के उच्चारण, अलग प्रकार से होते हैं। जैसे मूर्धन्य "ष" का उच्चारण, शुक्ल यजुर्वेद में, विशिष्ट स्थान पर "ख" किया जाता है। इस उच्चारण-भेद का परिचय उन वेदों की अपनी निजी शिक्षा में दिया जाता है।
शिक्षासंग्रह नामक ग्रंथ में एकत्र प्रकाशित छोटी बड़ी 32 शिक्षाओं का समुच्चय है। यह शिक्षासंग्रह बनारस सीरीज से युगलकिशोर पाठक के संपादकत्व में सन 1893 में प्रकाशित हुआ है। ये शिक्षाएं चारों वेदों की भिन्न भिन्न शाखाओं से संबंध रखती हैं। शिक्षाविषयक कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथों का संक्षिप्त परिचय नीचे दिया है।
शिक्षा (वेदांग) विषयक ग्रन्थों में पाणिनीय शिक्षा (श्लोक संख्या 60) याज्ञवल्क्यशिक्षा (श्लोक संख्या 232), वासिष्ठी शिक्षा, कात्यायनी, पाराशरी, माण्डव्य, अमोघनन्दिनी, माध्यन्दिनी, वर्णरत्नप्रदीपिका, केशवी, मल्लशर्म, नारदीय, माण्डूकी, आपिशली,
चंद्रगोमी इत्यादि प्राचीन ग्रंथों की गणना होती है। इन सभी शिक्षा-ग्रंथों में पाणिनीय शिक्षा विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस शिक्षा के रचयिता स्वयं सूत्रकार पाणिनि नहीं माने जाते क्यों कि ग्रंथ के अंत में पाणिनिस्तुतिपर कुछ श्लोक आते हैं। पाणिनीय शिक्षा पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। याज्ञवल्क्य शिक्षा में वैदिक स्वरों का सोदाहरण प्रतिपादन किया है। वासिष्ठी शिक्षा में ऋग्वेद और यजुर्वेद के मंत्रों की विभिन्नता सविस्तर बताई है।
(1) याज्ञवल्क्य शिक्षा - श्लोक संख्या 232-1 इसका संबंध शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता से है। वैदिक स्वरों के उदाहरण, लोप, आगम, विकार तथा प्रकृतिभाव इन चार प्रकारों की संधियां, वों के विभेद, स्वरूप, परस्पर साम्य आदि विषयों का विवेचन इस शिक्षा में किया है।
(2) वासिष्ठी शिक्षा - इसका संबंध शुक्ल यजुर्वेद की वाजसनेयी संहिता से है। इस शिक्षा के अनुसार शुक्ल यजुर्वेद की समग्र संहिता में ऋग्वेदीय मन्त्र 1467 और याजुष मंत्र 2823 है। इस संहिता में आने वाले ऋगमंत्र तथा याजुष मंत्रों की पृथक्ता सविस्तर बताई है।
(3) कात्यायनी शिक्षा - श्लोक संख्या 121-1 इस पर जयन्तस्वामी कृत संक्षिप्त टीका है। (4) पाराशरी शिक्षा - श्लोक संख्या 160-1
28 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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(5) माण्डव्य शिक्षा शुक्ल यजुर्वेद से संबंधित वाजसनेयी संहिता में आने वाले केवल औष्ठ्य वर्णों का ही संग्रह इस शिक्षा की विशेषता है।
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(6) अमोधनन्दिनी शिक्षा श्लोक संख्या 130- । इस के संक्षिप्त संस्करण की श्लोक संख्या केवल 17 है। इस में स्वरों का तथा वर्णों का सूक्ष्म विचार किया है।
( 10 ) मल्लशर्मशिक्षा रचनाकाल ई. 1726-1
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(7) माध्यन्दिनी शिक्षा इसकी गद्यात्मक आवृत्ति बड़ी और पद्यात्मक छोटी है। इसमें केवल द्वित्व के नियमों का विचार किया है। (8) वर्णरत्नप्रदीपिका - श्लोक संख्या 227- । लेखक - भारद्वाजबंशी अमरेश । समय-अज्ञात । इसमें वर्णों, स्वरों तथा संधियों का सविस्तर विवेचन किया है।
(9) केशवी शिक्षा - लेखक- केशव दैवज्ञ । पिता - गोकुल दैवज्ञ । इस शिक्षा के दो प्रकार हैं। पहिली में माध्यन्दिन शाखा से संवाद परिभाषाओं का विवेचन तथा प्रतिज्ञासूत्र के समस्त नौ सूत्रों की विस्तृत व्याख्या उदाहरणों के साथ दी है। दूसरी 2। पद्यात्मक शिक्षा में स्वरविषयक विवेचन है।
लेखक- मल्लशर्मा । पिता - अग्निहोत्री खगपति । कान्यकुब्ज ब्राह्मण । श्लोक संख्या - 65-1
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(11) स्वरांकुश शिक्षा लेखक जयन्त स्वामी। 25 श्लोकों में स्वरों का विवेचन । (12) षोडश श्लोकी शिक्षा लेखक- अनन्तदेव । शुक्ल यजुर्वेद से (13) अवसाननिर्णय शिक्षा - लेखक- अनन्तदेव । शुक्ल यजुर्वेद से (14) स्वरभक्तिलक्षणशिक्षा लेखक - महर्षि कात्यायन ।
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संबंधित । संबंधित ।
(15) प्रातिशाख्य प्रदीपशिक्षा - लेखक- बालकृष्ण । पिता- सदाशिव । यह शिक्षा परिमाण में बहुत बड़ी है। इसमें प्राचीन ग्रंथों के मतों का निर्देश होने के कारण वैदिक शिक्षा शास्त्र को आकलन के लियी यह ग्रंथ उत्तम माना गया है।
(16) नारदीय शिक्षा सामवेद से संबंधित स्वरों के रहस्य जानने के लिए यह ग्रंथ महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस पर शोभाकर भट्ट कृत विस्तृत व्याख्या उपलब्ध है। गौतमी तथा लोमशी नामक अन्य दो शिक्षाएं सामवेद से संबंधित हैं ।
( 17 ) माण्डूकी शिक्षा - श्लोक संख्या 179- । विषय- अथर्ववेद के स्वरों एवं वर्णों का विवेचन उपरिनिर्दिष्ट सभी शिक्षा ग्रंथ मुद्रित हैं। इनके अतिरिक्त अन्य ग्रंथ आमुद्रित पड़े हैं। शिक्षा ग्रंथों के पूर्व आपिशली, पाणिनि तथा चंद्रगोमी द्वारा रचित शिक्षासूत्र निर्माण हुए थे, जिन का निर्देश वाक्यपदीय की वृषभदेव कृत टीका में, व्याकरण की वृहद्वृत्ति में एवं न्यास में मिलता है। चंद्रगोमी ने पाणिनि की अष्टध्यायी के आधार पर अपने व्याकरण की जिस प्रकार रचना की, उसी प्रकार पाणिनीय शिक्षा सूत्रों के आधार पर वर्णसूत्रों की संख्या 50) रचना की है। आपिशलिकृत शिक्षा सूत्रों के आठ प्रकरणों में स्थान, करण, प्रयत्न, स्थान- पीडन, इत्यादि विविध शिक्षा विषयों का अध्ययन कर डा. सिद्धेश्वर वर्मा ने "फोनेटिक आब्जरवेशन आफ् एन्शन्ट हिंदूज" नामक उत्कृष्ट ग्रंथ लिखा है। शिक्षाशास्त्र, इस देश की उच्चारण विषयक प्राचीन गवेषणा की व्याप्ति तथा गहनता का निदर्शन है। इस वेदांग के कारण वैदिक उच्चारण की परंपरा इतनी निर्दोष रही है कि, भारत के किसी प्रदेश का वेदाध्यायी अपनी शाखा के अन्य प्रदेशीय वेदाध्यायी के साथ, समान स्वरों में उन मंत्रों का उच्चारण कर सकता है। आजकल उच्चारण के स्वरूप को समझने के लिए उपलब्ध यंत्रोपकरण प्राचीन काल में नहीं थे। फिर भी वैदिकों के उच्चारण में, समानता रही इसका संपूर्ण श्रेय शिक्षा को ही है।
2 कल्प (वैदिक कर्मकाण्ड)
कल्पसूत्र
वैदिक धर्म का कर्मकाण्ड बड़ा जटिल है । उसका विविध प्रकार से ज्ञान कल्पसूत्रों में प्रतिपादन किया है। कल्प शब्द का अर्थ, जिस मे यज्ञ-यागादि प्रयोग कल्पित याने समर्थित किये जाते हैं उसे कल्प कहते हैं- (कल्प्यन्ते समर्थ्यन्ते यज्ञ-यागादिप्रयोगाः यत्र इति कल्पः) अथवा ( वेदविहितानां कर्मणाम् आनुपूर्व्येण कल्पनाशास्त्रम्) । इनमें से कुछ सूत्रों को श्रौत सूत्र कहते है कारण उनमें श्रुतिविहित यज्ञयागों का विधान और विवरण होता है दूसरे गृह्यसूत्रों में गृहस्थाश्रमी लोगों के लिए जन्म से मृत्यु तक के संस्कारों का प्रतिपादन होता है और तीसरे धर्मसूत्रों में सामाजिक, राजनैतिक और पारमार्थिक कर्तव्यों का उपदेश होता है। कल्प नामक वेदांग का सूत्रमय वाङ्मय इस प्रकार त्रिविध होता है। इनके अतिरिक्त चौथे प्रकार के सूत्रों का नाम है शुल्बसूत्र, जिनका संबंध यशीय शिल्पशास्त्र से है।
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'ऋग्वेदियों के (1) शांखायन तथा आश्वलायन नामक श्रौतसूत्र हैं, जिन में एक ही प्रकार के कर्मकाण्ड का प्रतिपादन मिलता है। परंतु शांखायन श्रौतसूत्र (जो आश्वालायन सूत्रों से प्राचीन माने जाते हैं) में राजाओं के लिए विहित कुछ महायज्ञ
संस्कृत वाङ्मय कोश- प्रथकार 3/29
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वरण किया है।
एतरेय आरायन सूत्रों
सविस्तर बताये हैं। शांखायन सूत्र के कुल अष्टादश अध्यायों में दशपूर्णमास यज्ञ से लेकर वाजपेय, राजसूय, अश्वमेध, पुरुषमेध और सर्वमेध इन महायज्ञों का विवरण किया है। इन शांखायन सूत्रों का विवेचन अमृतकृत भाष्य और गोविंदकृत टीका में मिलता है।
आश्वलायन सूत्रों के कर्ता थे आश्वलायन जो शौनक ऋषि के शिष्य थे। ऐसा माना जाता है कि इन गुरु शिष्यों ने ऐतरेय आरण्यक के अंतिम अध्याय लिखे। आश्वलायन श्रौतसूत्रों में ऐतरेय आरण्यक के अनुसार यज्ञयागादि का विवरण दिया है।
सामवेद के मशक (अथवा आर्षेय) श्रौतसूत्र, लाह्यायन श्रौतसूत्र और द्राह्यायण (अथवा दाक्षायण) नामक तीन श्रौतसूत्र मिलते हैं। उनमें मशक सूत्रों में पंचविंश ब्राह्मण और अनुब्राह्मण के अनुसार सोमयाग की क्रियाओं का परिगणन किया है। लाह्यायन सूत्र भी पंचविंश ब्राह्मण से संबंधित है, परंतु द्राह्यायण सूत्र का संबंध सामवेद की राणायणीय शाखा से है।
कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित : (1) आपस्तंब, (2) हिरण्यकेशी (अथवा सत्याषाढ), (4) बोधायन (यह आपस्तंब से प्राचीनतर है), (4) भारद्वाज, (5) मानव (कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी संहिता से इसका संबंध है और सुप्रसिद्ध मनुस्मृति की रचना इसी के आधार पर मानी जाती है और (6) वैखानस इन छ: श्रौतसूत्रों में केवल मानव सूत्र मैत्रायणी शाखा से संबंधित है। अन्य पांच सूत्र तैत्तिरीय शाखा से संबंधित हैं।
शुक्ल यजुर्वेद के कात्यायन श्रौतसूत्र में अध्याय संख्या 26 है और उस में शतपथ ब्राह्मण में वर्णित कर्मकाण्ड का प्रतिपादन किया है। इसके 22, 23 और 24 इन तीन अध्यायों में सामवेद का कर्मकाण्ड मिलता है। इस पंथ की निर्मिति सूत्रकाल के अंतिम चरण में मानी जाती है। इसका कर्काचार्य कृत भाष्य प्रसिद्ध है। कात्यायन श्राद्धसूत्र नामक ग्रंथ में, श्राद्धविधि का विवेचन 9 कंडिकाओं में किया है। उसपर कर्काचार्य, गदाधर और कृष्णमित्र कृत टीकाएं हैं। कात्यायन कृत शुल्बसूत्र का वाराणसी में प्रकाशन हुआ है।
अथर्ववेद का वैतानसूत्र, यजुर्वेद के कात्यायन श्रौतसूत्र से और गोपथ ब्राह्मण से संबंधित है। वैतान सूत्र में किसी भी प्रकार की मौलिकता न होने के कारण उसे अर्वाचीन मानते हैं और उसके प्रणेता ऋषि भी अनेक माने जाते हैं। अथर्ववेद से संबंधित किसी श्रौतसूत्र की आवश्यकता पूर्ण करने के हेतु इसकी रचना मानी जाती है।
चारों वेदों से संबंधित श्रौतसूत्रों का अध्ययन याज्ञिक कर्मकाण्ड की यथार्थ जानकारी के लिए आवश्यक होता है। श्रौतसूत्रों में वर्णित यज्ञविधि, यजमान के कल्याणार्थ पुरोहितों द्वारा किए जाते हैं। इन पुरोहितों की संख्या कुछ यज्ञों में 16 तक होती है। पुरोहितवर्ग के अधःपतन के साथ कर्मकाण्डात्मक वैदिक धर्म की ग्लानि होती गई।
श्रौतसूत्रों में 14 प्रकार के यज्ञकर्मों का विधान किया है, जिन में 7 हविर्यज्ञ और 7 सोमयज्ञ होते हैं। हविर्यज्ञों में दर्शपूर्णमास्य और चातुर्मास्य यज्ञों का विशेष महत्त्व है। इनमें अग्निहोत्र अधिक प्रचलित है। इन हविर्यज्ञों में दुग्धघृत आदि हविर्द्रव्यों की आहुतियां दी जाती हैं।
सोमयज्ञों में अग्निष्टोम का विधि सुकर होता है। उसमें भी सोलह पुरोहितों की आवश्यकता होती है। सोमयज्ञ के एकाह (एक+अहन्-दिन) द्वादशाह और अनेकाह नामक तीन प्रकार दिनसंख्या के अनुसार होते हैं। सोमयाग से संबंधित अग्निचयन नामक कर्म संपूर्ण वर्ष तक चालू रहता है। इस कालावधि में यज्ञ से संबंधित विविध प्रकार की सामग्रियों का चयन होता है।
2-अ गृह्यसूत्र वाङ्मय कल्प नामक वेदांग के अन्तर्गत श्रौतसूत्रों के पश्चात् गृह्यसूत्रों की रचना मानी जाती है। प्रत्येक वेद से संबंधित गृह्यसूत्रों का स्वरूप निम्न प्रकार है :
ऋग्वेदीय (1) शांखायन गृह्यसूत्र - इसके छः अध्यायों में चार अध्याय मौलिक हैं।
(2) शांबव्य गृह्यसूत्र - इसका संबंध कौषीतकी शाखा से है। शांखायन श्रौतसूत्र के पहले दो अध्यायों के विषयो का ही दर्शन इसमें होता है, तथापि इसमें पितृविषयक एक स्वतंत्र और मौलिक अध्याय मिलता है।
(3) आश्वलायन गृह्यसूत्र - ऐतरेय ब्राह्मण से संबंधित इस सूत्र ग्रंथ में आश्वलायन श्रौतसूत्रान्तर्गत विषयों का प्रतिपादन कुल चार अध्यायों में विस्तार से किया है।
सामवेदीय - (1) गोमिल गृह्यसूत्र - कर्मकाण्ड विषयक समग्र सूत्र वाङ्मय में यह अतिप्राचीन, सर्वांग परिपूर्ण और रोचक ग्रंथ माना गया है।
(2) खादिर गृह्यसूत्र - इसका संबंध मुख्यतया द्राह्यायण शाखा से है । राणायनीय शाखा में भी इसका प्रामाण्य माना जाता है।
कृष्ण यजुर्वेदीय - (1) आपस्तंब गृह्यसूत्र - आपस्तंब श्रौतसूत्रों के 26 और 27 वें अध्याय में इसका अन्तर्भाव होता है परंतु 26 वे अध्याय में केवल मंत्रपाठ ही होने के कारण, 27 वां अध्याय ही गृह्यसूत्र माना जाता है।
(2) हिरण्यकेशी गृह्यसूत्र - हिरण्यकेशी कल्पसूत्र के 29 और 30 वें अध्याय में इसका अन्तर्भाव होता है।
हा
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(3) बोधायनगृह्यसूत्र - यह ग्रंथ अप्रसिद्ध है। (4) मानव गृह्यसूत्र - मानव श्रौतसूत्र से इसका अधिकांश संबंध है। "विनायक पूजा" विषयक प्रतिपादन इसकी विशेषता है। (5) काठक गृह्यसूत्र - इसका संबंध मानव गृह्यसूत्र और विष्णुस्मृति से है। (6) भारद्वाज गृह्यसूत्र - अप्रसिद्ध है। (7) वैखानस गृह्यसूत्र - इस प्रथ का आकार बड़ा है। इसकी रचना उत्तरकालीन मानी जाती है। कृष्ण यजुर्वेद के उपरिनिर्दिष्ट सात गृह्य सूत्रों में से तीन ही प्रकाशित हुए हैं। शुक्ल यजुर्वेदीय - पारस्कर गृह्यसूत्र - इसे वाजसनेय अथवा काटेय गृह्यसूत्र भी कहते हैं। कात्यायन श्रौतसूत्र से संबंधित इस ग्रंथ का सुप्रसिद्ध याज्ञवाल्क्यस्मृति पर विशेष प्रभाव दिखाई देता है।
अथर्ववेदीय - कौशिक गृह्यसूत्र - इस सूत्र ग्रंथ में अभिचार इन्द्रजाल, तंत्रप्रयोग इत्यादि से संबंधित विषयों का अन्तर्भाव है। अन्य वेदों के गृह्यसूत्रों में अनुलिखित और भी विविध विषय इसमें प्रतिपादित किए हैं। वेदकालीन या सूत्रकालीन समाज-जीवन का संपूर्ण चित्र इस प्रतिपादन द्वारा दिखाई देता है।
इस प्रकार के वैदिक सूत्र वाङ्मय में वैदिक धर्म के कर्मकाण्ड में अन्तर्भूत पारिवारिक तथा वैयक्तिक जीवन से संबंधित धर्मविधिविषयक जानकारी सविस्तर प्राप्त होती है। व्यक्ति के जन्म से मृत्यु तक की विविध संस्कारात्मक क्रियाओं से संबंधित अन्यान्य वेदांतर्गत मंत्रों का विनियोग गृह्यसूत्रकारों ने बताया है। श्रौतसूत्रों में वर्णित यज्ञविधि के लिए गार्हपत्य, आहवनीय और दक्षिण इन तीन अग्निकुण्डों की आवश्यकता होती है किंतु गृह्यसूत्रानुसार बताए हुए देवयज्ञ में एक ही अग्निकुण्ड की आवश्यकता होती है।
संपूर्ण गृह्यसूत्र वाङ्मय में मानव की "सत्त्वशुद्धि" के लिए प्रमुख चालीस संस्कारों का विधान किया है। उनमें 22 प्रकार के विशिष्ट यज्ञों एवं जीवन के 18 संस्कारों का अन्तर्भाव होता है। इन 22 यज्ञों में से आठ (पांच महायज्ञ और तीन . पाकयज्ञ मिलाकर) यज्ञ गृह्यकर्मात्मक और बाकी चौदह यज्ञ श्रौतकर्मात्मक है। गृहस्थाश्रमी के लिए ये सारे यज्ञ आवश्यक है; परंतु उनमें से (1) ब्रह्मयज्ञ (अथवा वेदयज्ञ) - याने वेदों का नित्य पठन, (2) देवयज्ञ - याने प्रति दिन देवताओं के निमित्त आहुति-समर्पण, (3) पितृयज्ञ - अर्थात् पितरों के प्रीत्यर्थ श्रद्धापूर्वक तर्पण, (4) भूतयज्ञ - भूतपिशाचों के निमित्त बलिसमर्पण और (5) मनुष्ययज्ञ (अतिथियज्ञ) - याने अतिथि अभ्यागतों का सत्कार, ये पांच यज्ञ, वैदिक धर्म पर निष्ठा रखने वाले प्रत्येक व्यक्ति ने निरलसता से करने चाहिए, ऐसी कल्पसूत्रों की अपेक्षा है। इन पांच महायज्ञों में भी ब्रह्मयज्ञ सर्वश्रेष्ठ माना गया है जिस में प्रातःसंध्या, सायंसंध्या, गायत्रीजप और यथाशक्ति वेदपारायण सर्वथा अपरिहार्य माने गये हैं।
गृह्य संस्कार उपरिनिर्दिष्ट पंच महायज्ञों के व्यतिरिक्त गृह्यसूत्रों में जो विशिष्ट गृह्य संस्कार त्रैवर्णिकों के लिए बताए हैं, उनका संक्षेपतः परिचयः(1) पुसंवन - गर्भवती का अपत्य पुत्र ही हो इस निमित्त संस्कार। (2) जातकर्म - पुत्र जन्म के समय का संस्कार । (3) नामकरण - जन्म के 12 वें दिन अपत्य का नाम रखना। (4) क्षुधाकर्म - बालक का अन्नग्रहण। (5) गोदान - जन्मजात बालों को काटना ।
(6) उपनयन - ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य वर्ण के बालक का क्रमशः 8 वें, 12 वें और 16 वें वर्ष, द्विजत्वप्राप्ति निमित्त संस्कार। इसे मौजीबंधन भी कहते हैं।
(7) समावर्तन - अध्ययन समाप्ति की विधि (8) विवाह -
(9) महायज्ञ - उपर बताए हुए पांच यज्ञों का नित्य आचरण । (10) दर्शपूर्णमास्यादि - विशिष्ट महान यज्ञ याग, वरिभ पर सर्पो को बलि समर्पण, गृहप्रवेश, खेती से संबंधित उत्सव, सांड इत्यादि पशुओं का विसर्जन, पूज्य पुरुषों की जयंती पुण्यतिथी समारोह।
(11) अन्त्येष्टि - 2 साल से छोटे बच्चों का दफन और उनसे बड़े मृतों का दहन । (12) श्राद्ध - मृत्यु की तिथि पर प्रतिवर्ष मृतात्मा को पिंडदान। (13) पितृमेध - मृत्यु के एक वर्ष बाद मृत व्यक्ति की अस्थि पर स्मारक निर्माण करना अथवा तीर्थक्षत्र में अस्थिओं का विसर्जन करना।
वैदिक गृह्यसूत्रों में वर्णित अनेक संस्कार आज भी वैदिक भारतीयों के जीवन में देशकालानुसार प्रचलित हैं।
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3-आ धर्मसूत्र वाङ्मय चारों वेदों के श्रौतसूत्र और गृह्यसूत्र उपलब्ध होते हैं, परंतु धर्मसूत्र नही मिलते। सामवेद का गौतम धर्मसूत्र और कृष्ण यजुर्वेद के आपस्तंब, हिरण्यकेशी तथा बौधायन इन तीन धर्मसूत्रों के अतिरिक्त गौतम, वसिष्ठ, मानव, वैखानस और विष्णु इन नामों के धर्मसूत्र मिलते हैं, परंतु उनका किसी विशिष्ट वेदशाखा से संबंध नहीं हैं। ऋग्वेद, शुक्ल यजुर्वेद और अथर्ववेद के अपने धर्मसूत्र नहीं है। सामवेद का एकमात्र गौतम धर्मसूत्र उपलब्ध है और कृष्ण यजुर्वेद के तीन धर्मसूत्र प्रचलित हैं।
(1) आपस्तंब सूत्र - इसमें कृष्ण यजुर्वेदीय आपस्तंब श्रौतसूत्र ग्रंथ के 28 और 29 वें अध्यायों का संक्षेप किया है। बूल्हर के मतानुसार इस ग्रंथ की आर्ष शैली के कारण इसका समय ई.पू. 4 शतक माना है। इसमें त्रैवर्णिक ब्रह्मचारी और गृहस्थों के कर्तव्य, भक्ष्य-अभक्ष्य-विवेक, तपश्चर्या इत्यादि धर्माचार से संबंधित और विवाह, दायभाग इत्यादि अर्थ-काम संबंधित लोकाचार का सविस्तर विवेचन हुआ है।
(2) हिरण्यकेशी धर्मसूत्र - साम्प्रदायिकों के मतानुसार हिरण्यकेशी, आपस्तंब शाखा की उपशाखा मानी जाती है। आपस्तंबीय धर्मसूत्र से इस ग्रंथ का दृढ संबंध होने के कारण, उसके विषयों का पर्याप्त ज्ञान प्राप्त होने के लिए यह ग्रंथ उपयुक्त माना गया है। हिरण्यकेशी श्रौतसूत्रों के 29 अध्यायों में से 26 और 27 वें अध्यायों के विषय इन सूत्रों में संक्षेपतः बताये हैं। ई. 5 वीं शताब्दी में हिरण्यकेशी धर्मसूत्र, आपस्तंब से विभक्त हुआ ऐसा विद्वानों का अभिप्राय है।
(3) बोधायन धर्मसूत्र - कृष्ण यजुर्वेद की बोधायन शाखा आज कहीं भी अस्तित्व में नहीं है। परंतु 14 वीं शताब्दी के सुप्रसिद्ध वेदभाष्यकार सायणाचार्य बौधायन शाखीय थे। इसका अर्थ प्राचीन काल में वह शाखा दक्षिण भारत में विद्यमान थी। इस ग्रंथ का बौधायन श्रौतसूत्रों से विशेष संबंध नहीं है। इसके विषयों से यह सूचित होता है कि आपस्तंब धर्मसूत्र से, यह ग्रंथ पूर्वकालीन है। वर्णाश्रम धर्म, विशेष प्रकार के यज्ञविधि, राजकर्तव्य, न्यायदान, दण्डविधान, मिश्र जातियां, विवाह के प्रकार, स्त्रीधर्म, इत्यादि विषयों का विवेचन बोधायन धर्मसूत्र में हुआ है। धर्मसूत्र विषयक ये तीन ही ग्रंथ विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं और वे तीनों कृष्ण यजुर्वेद से संबंधित हैं। इनके व्यतिरिक्त अन्य धर्मसूत्र
(1) गौतम धर्मसूत्र - इसका संबंध किसी कल्प सूत्र से नहीं है तथापि सामवेद की राणायनीय शाखा की गोतम नामक उपशाखा से इस का संबंध लगाया जाता है। कुमारिल भट्ट ने गौतम धर्मशास्त्र का संबंध सामवेद के साथ बताया है, इसका कारण गौतम धर्मसूत्र का 26 वां अध्याय सामवेदीय ब्राह्मण में शब्दाशः मिलता है। (सामवेदी ब्राह्मण ग्रंथों की संख्या है 10-1 यह सब से प्राचीनतम धर्मसूत्र माना जाता है।
वसिष्ठ धर्मशास्त्र - तीस अध्यायों का यह ग्रंथ गद्यपद्यात्मक है। पद्यांश प्रायः त्रिष्टुप् नामक वैदिक छंद में लिखा है। आपस्तंब सूत्र के समान इस में विवाह विषयक छः विधियां बताई हैं। कुमारिल भट्ट इसे ऋग्वेद से संबंधित मानते हैं।
मानव धर्मसूत्र - इसी का पद्यमय आशय मनुस्मृति में मिलता है, और इसके अनेक अवतरण वसिष्ठ धर्मशास्त्र में मिलते हैं।
वैखानस धर्मसूत्र - ई. 3 री शताब्दी में इसकी रचना मानी जाती है। चार आश्रमों के कर्तव्यों में वैखानस (संन्यासी) आश्रम के कर्तव्य इसमें सविस्तर बताए हैं। इस ग्रंथ का स्वरूप गृह्यसूत्र और धर्मसूत्र के समन्वय सा है। वैष्णव सम्प्रदायों में इस ग्रंथ का आदर होता है।
विष्णु धर्मशास्त्र - ऋग्वेद की कौषीतकी अर्थात् सांख्यायन शाखा से इस का संबंध है।
शुल्बसूत्र - कल्पसूत्र के उपरिनिर्दिष्ट तीन प्रकारों के अतिरिक्त चौथा प्रकार शुल्बसूत्र कहा जाता है। आपस्तंब शाखा के 30 वें प्रश्न के अंतिम प्रकरण का विषय शुल्बसूत्र में समाविष्ट होता है। प्राचीन काल के भूमितिशास्त्र का विकास अथवा आधुनिक भूमिति का मूल स्वरूप इस शुल्बसूत्र द्वारा व्यक्त होता है। प्रायश्चित्त सूत्र - वैतान (श्रौत) सूत्र का अंगभूत ग्रंथ है।
परिशिष्ट (अ) चारों वेदों की सभी शाखा-उपशाखाओं का परिचय उपर दिया है। उसी का संक्षेप में परिचय होने की दृष्टि से प्रस्तुत परिशिष्ट उपयुक्त होगा :
शाकल शाखा (1) ऐतरेय ब्राह्मण (2) ऐतरेय आरण्यक (3) ऐतरेय उपनिषद
बाष्कल शाखा कौषीतकी (सांख्यायन) ब्राह्मण संख्यायन आरण्यक कौषीतकी उपनिषद (बाष्कल शाखा आज विद्यमान नहीं है)
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यजुर्वेद
शुक्ल
कृष्ण
काण्व (1) शतपथ ब्राह्मण (2) बृहदारण्यक (3) बृहदारण्यकोपनिषद
ईशावास्य उपनिषद
माध्यन्दिन (१) शतपथ ब्राह्मण *(२) बृहदारण्यक (३) बृहदारण्यकोपनिषद
ईशावास्योपनिषद
कृष्ण यजुर्वेद
तैत्तिरीय (1) तैत्तिरीय संहिता
तैत्तिरीय ब्राह्मण (2) तैत्तिरीय आरण्यक (3) तैत्तिरीय उपनिषद
मैत्रायणी (1) मैत्रायणी संहिता (2) मैत्रायणीय
उपनिषद
कठ (1) काठक संहिता (2) कठोपनिषद
कापिष्ठलकठ (1) कापिष्ठलकठ संहिता
श्वेताश्वतर (1) श्वेताश्वतर उपनिषद
सामवेद
।।। राणायनीय (इसके ग्रंथ नहीं है)
। कौथुम (1) (आठ ब्राह्मण)
(1) पंचविंश (2) षडविंश (3) सामविधान (4) आर्षेय (5) मंत्र (5) देवताध्याय (7) वंश
(8) संहितोपनिषद (2) छांदोग्य उपनिषद
।। जैमिनीय (1) जैमिनीय ब्राह्मण (2) जैमिनीयोपनिषद ब्राह्मण (3) आर्षेय केनोपनिषद
अथर्व वेद
पैप्पलाद (1) प्रश्नोपनिषद
(1) ऋग्वेद - (2) शुक्ल यजुर्वेद - (3) कृष्ण यजुर्वेद - (4) सामवेद -
शौनक (1) गोपथ ब्राह्मण
(2) मुण्डक, माण्डूक्य उपनिषद परिशिष्ट (आ) वेद और उनसे संबंधित ब्राह्मण ग्रंथ
ब्राह्मण ऐतरेय, कौषीतकी (सांख्यायन) शतपथ तैत्तिरीय, काठक पंचविंश-षडविंश, सामविधान, संहितोपनिषद, आर्षेय, मंत्र, देवताध्याय वंश, जैमिनीय, जैमिनीयोपनिषद्. गोपथ ब्राह्मण
(5) अथर्ववेद -
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परिशिष्ट - (इ) वेद और उनसे संबंधित सूत्रवाङ्मय
ऋग्वेद
धर्मसूत्र
श्रौतसूत्र (2) (1) शांखायन (2) आश्वालायन
गृह्यसूत्र (3) (1) शांखायन (2) आश्वालयान (3) शांबव्य
कृष्ण यजुर्वेद
श्रौतसूत्र (6) . (1) आपस्तंब (2) हिरण्यकेशी (3) बोधायन (4) भारद्वाज (5) मानव (6) वैखानस
गृह्यसूत्र (7) (1) आपस्तंब (2) हिरण्यकेशी (3) बोधायन (4) भारद्वाज (5) मानव (6) वैखानस (7) काठक
धर्मसूत्र (5) (1) आपस्तंब (2) हिरण्यकेशी (3) बोधायन (4) मानव (5) वैखानस
शुक्ल यजुर्वेद
श्रौतसूत्र कात्यायन
धर्मसूत्र
गृह्यसूत्र पारस्कर (अथवा वाजसनेय या काटेय)
सामवेद
धर्मसूत्र
श्रोतसूत्र मशक, लाट्यायन, द्राह्मायण
गृह्यसूत्र गोभिल खादिर
गौतम
अथर्व वेद
धर्मसूत्र
श्रौतसूत्र वैतान
गृह्यसूत्र कौशिक
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परिशिष्ट (उ) - (सूत्र-वेदसंबंध)
श्रोतसूत्र
ऋग्वेदीय (1) शांखायन (2) आश्वालायन
शुक्ल यजुर्वेदीय (1) कात्यायन
कृष्ण यजुर्वेदीय (1) आपस्तंब (2) हिरण्यकेशी (3) बौधायन (4) भारद्वाज (5) मानव (6) वैखानस
सामवेदीय (1) मशक (2) लाट्यायन (3) द्राह्यायण
अथर्ववेदीय (1) वैतान
गृह्यसूत्र
ऋग्वेद (1) शांखायन (2) आश्वालायन (3) शांबव्य
सामवेद (1) गोभिल (2) खादिर
अथर्ववेद (1) कौशिक
कृष्णजुर्वेद
शुक्ल यजुर्वेद (1) आपस्तंब (1) पारस्कर (2) हिरण्यकेशी (वाजसनेय अथवा काठक) (3) बौधायन (4) भारद्वाज (5) मानव (6) वैखानस (7) काठक
धर्मसूत्र
ऋग्वेद
शुक्ल यजु
साम
अथर्व
कृष्णयजु (1) आपस्तंब (2) हिरण्यकेशी (3) बौधायन (4) मानव (5) वैखानस
3 "धर्मशास्त्र" संस्कृत वाङमय में वेदों से लेकर अनेक ग्रथों में "धर्म" शब्द का भिन्न भिन्न स्थानों पर विविध अर्थों में प्रयोग हुआ है। मीमांसको ने “वेदप्रतिपाद्यः प्रयोजनवदर्थो धर्मः" अथवा "वेदेन प्रयोजनम् उद्दिश्य विधीयमानोऽयो धर्मः" इत्यादि वाक्यों में धर्म शब्द का विशिष्ट अर्थ बताया है, जिस के अनुसार मानव जीवन की उद्देश्य पूर्ति के लिए, वेद वचनोंद्वारा आदेशित कर्तव्य को धर्म कहा है। मनुस्मृति में
"वेदः स्मृतिः सदाचारः स्वस्य च प्रियमात्मनः ।
एतच्चतुर्विधं प्राहु। साक्षाद् धर्मस्य लक्षणम्।। (2-12) इस सुप्रसिद्ध श्लोक में वेदवचन, स्मृतिवचन, सजनों का आचार और स्वतः का प्रिय ये चार धर्म के अर्थात् कर्तव्य कर्मों के प्रबोधन, तत्त्व बताये हैं। याज्ञवल्क्य स्मृति की टीका-मिताक्षरा में" स च धर्मः षड्विधः। वर्णधर्मः आश्रमधर्मः वर्णाश्रमधर्मः, गुणधर्मः, निमित्तधर्मः साधारणधर्मश्च" - इस वाक्य में धर्म के छ: प्रकार बताये हैं। मनुस्मृति में ही
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धृतिः क्षमा दमोस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः। धीविद्या सत्यक्रोधो। दर्शकं धर्मलक्षणम्।। (6-92) इस सुप्रसिद्ध श्लोक में अखिल मानवमात्र के सामान्य धर्म के दस प्रकार के तत्त्व बताये हैं। संस्कृत वाङ्मय में "धर्मशास्त्र" शब्द से जिस विशिष्ट शास्त्र का बोध होता है, उस में मनु-याज्ञवल्क्य प्रभृति द्वारा लिखित वेदानुकूल स्मृतिग्रंथों का प्राधान्य से अन्तर्भाव होता है। इन स्मृतिग्रन्थों में प्रतिपादित आचार धर्म श्रौतसूत्रों, गृह्यसूत्रों एवं धर्मसूत्रों पर आधारित होने के कारण, वेदांग (कल्प) प्रकरण में ही हमने धर्मशास्त्र विषयक विवरण का अन्तर्भाव किया है।
मनुर्यमो वसिष्ठोऽत्रिर्दक्षो विष्णुस्तथाङ्गिराः । उशना वाक्यतिास आपस्ताम्बोऽथ गौतमः ।। कात्यायनो नारदश्च याज्ञवरुक्यः पराशरः। संवर्तश्चैव शंखश्व हारीतो लिखितस्तथा।।
एतैर्यानि प्रणीतानि धर्मशास्त्राणि वै पुरा । तान्येवातिप्रमाणानि न हन्तव्यानि हैतुभिः ।।
धर्मशास्त्रकारों की यह नामावलि वाचस्पत्य कोशकार ने दी है। इन के अतिरिक्त, वृद्धदेवल, सोम, जमदग्नि, प्रजापति, विश्वामित्र, शातातप, पैठीनसि, पितामह बौधायन, छागलेय, जाबालि, च्यवन, मरीची, कश्यप इत्यादि अनेक धर्मशास्त्रकारों के नाम भी मान्यताप्राप्त हैं। इन धर्मशास्त्रकारों के स्मृतिरूप ग्रंथों में तथा उनसे प्राचीन धर्मसूत्रों में, जो विविध विधियां बतायी गयी हैं, उन का मूल, वैदिक मंत्रों में पाया जाता है। इस दृष्टि से वेद वाङमय ही धर्मशास्त्र का मूल है। किन्तु वेद संहिताएं धर्मसंबंधी निबंध नहीं हैं। उनमें तो धर्मसंबंधी बातें प्रसंगवश आती गई हैं। वास्तव में आचार धर्म विषयक शास्त्रीय पद्धति के अनुसार सारा विवेचन, स्मृतिग्रन्थों में और उनकी मार्मिक टीकाओं में मिलता है। विद्वानों के मतानुसार व्यवस्थित धर्मशास्त्र का प्रारंभ वेदांगभूत धर्मसूत्रों से माना जाता है। गौतम, बौधायन तथा आपस्तंब के प्रारंभिक धर्मसूत्र निश्चित ही ईसापूर्व सातवीं से चौथी शती के माने जाते हैं। धर्मसूत्र वाङ्मय के संबंध में यथोचित चर्चा इस प्रकरण के प्रारंभ में वैदिक वाङ्मय के साथ ही की गई है। अतः यहां उसकी पुनरुक्ति अनावश्यक है। जिन स्मृतिग्रंथों का धर्मशास्त्र से साक्षात् संबंध माना जाता है, उनकी कुल संख्या उत्तरकालीन प्रमाणों के अनुसार एक सौ तक मानी जाती है। इन में से कुछ पूर्णतया गद्य में, कुछ गद्य- पद्य में और अधिकांश पद्य-मय हैं। कुछ तो प्राचीन धर्मसूत्रों के पद्यात्मक रूपांतर मात्र हैं और कुछ स्मृतियाँ साम्प्रदायिक हैं, यथा हारीत स्मृति वैष्णव है।
स्मृतिकारों में मनु का नाम अग्रगण्य है। और "यवै किंचन मनुरब्रवीत् तद् भेषजम्" (मनु ने जो कुछ कहा है वह औषध है) इन शब्दों में तैत्तिरीय संहिता एवं ताण्ड्य महाब्राह्मण जैसे प्राचीन ग्रंथों ने मनुप्रोक्त धर्मशास्त्र की प्रशंसा की है। वर्तमान मनुस्मृति में 12 अध्याय एवं 2694 श्लोक हैं। इस की रचना का काल, कुछ आंतर तथा बाह्य साक्षियों के आधार पर ई-पू. दूसरी शताब्दी से ईसा के उपरांत दूसरी शताब्दी के बीच में मानी जाती है। इस में जातकर्म, नामकरण, चूडाकर्म, उपनयन इत्यादि संस्कार, ब्रह्मचारी के नियम, आठ प्रकार के विवाह, गृहस्थाश्रम का धर्माचरण, सापिण्डय- विचार, श्राद्धकर्म, विधवा के कर्तव्य, वानप्रस्य और संन्यासी के कर्तव्य, राजधर्म, मंत्रि परिषद की रचना, युद्धनियम, करनियम, बारह राजाओं का मंडल, षाड्गुण्य प्रयोग, न्यायालय का व्यवहार, स्त्रीधन, संपत्ति के उत्तराधिकारी, राज्य के सात अंग, वैश्य एवं शूद्र के कर्तव्य, मिश्रित तथा अन्य जातियों के आचारनियम, प्रायश्चित, निष्काम कर्म की प्रशंसा इत्यादि मानव के धर्मजीवन से संबंधित अनेक विध विषयों का प्रतिपादन धारावाही शैली में किया है। मनुस्मृति पर मेधातिथि, गोविंदराज, कुल्लूकभट्ट, नारायण, राघवानन्द, नन्दन, एवं रामचंद्र इत्यादि विद्वानों ने मामिक टीकाएँ लिखी हैं।
जिस प्रकार धर्मशास्त्रविषयक मनुस्मृति में राजनीति की चर्चा आने के कारण, प्राचीन भारतीय राजनीति में उसका महत्त्व माना जाता है, उसी प्रकार अर्थशास्त्रान्तर्गत राजनीति का विवरण करने वाले कौटिलीय अर्थशास्त्र में प्राचीन धर्मशास्त्र से संबंधित व्यवहार का विवेचन पर्याप्त मात्रा में होने के कारण, उस ग्रन्थ का अध्ययन भी धर्मशास्त्र के आकलन के लिए महत्त्वपूर्ण माना जाता है। मनुस्मृति जैसे आदर्श धर्मशास्त्र में जिन विषयों का प्रतिपादन हुआ है, उसी प्रकार के विविध विषयों का विवेचन उत्तर कालीन अनेक स्मृति-ग्रंथों एवं धर्मनिबंधों में हुआ है। धर्मशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की नामावलि परिशिष्ट में दी है तथा प्रस्तुत कोश में यथास्थान उनका संक्षेपतः परिचय दिया गया है। इन सभी धर्मशास्त्रकारों ने अपने ग्रन्थों द्वारा जो वैचारिक योगदान समय समय पर दिया, उस से इस देश का पुत्ररूप समाज (अर्थात हिंदू समाज) धार्मिक, नैतिक, व्यावहारिक इत्यादि सभी क्षेत्रों में एकसूत्र में सदियों से आबद्ध रहा। प्राचीन धर्मशास्त्रियों ने प्रत्येक जाति के सदस्यों एवं प्रत्येक व्यक्ति को इस देश के समाज का अविच्छेद्य अंग माना है। यही एक महत्त्व का कारण है कि जिसने इस समाज को भीषण परकीय आक्रमणों में भी पर्याप्त मात्रा में सुव्यवस्थित रखा। आज भारत में जिन कुप्रथाओं का सर्वत्र प्रचार दिखाई देता है, उनका मूल कारण धर्मशास्त्र में निर्दिष्ट वर्णधर्म और जातिधर्म के तत्कालीन विधि-निषेध माने जाते हैं। आज के समाज सुधारवादी लोगों का, धर्मशास्त्र में प्रतिपादित, जातिव्यवस्था एवं वर्णव्यवस्था पर बड़ा रोष है। प्रस्तुत प्रकरण में उस विवाद में जाने की आवश्यकता
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हमें प्रतीत नहीं होती, परंतु भारतीय समाज की संस्कृति एवं सभ्यता का ऐतिहासिक पर्यालोचन करने वालों को, प्राचीन एवं मध्ययुगीन धर्मशास्त्र में प्रतिपादित विषयों का ज्ञान नितांत आवश्यक है इसमें संदेह नहीं।
वैदिक धर्मशास्त्र विषयक वाङ्मय में जिन अनेक विषयों की चर्चा हुई है उनकी विविधता देखते हुए यह ज्ञात होता है कि, भारतीय धर्मशास्त्रकारों की धर्मसंबंधी धारणा सर्वस्पर्शी थी। उन की दृष्टि में धर्म किसी संप्रदाय या पंथ का द्योतक नहीं है, अपि तु व्यक्ति तथा समाज को अपने चरम लक्ष्य तक पहुंचाने वाला तथा उनके जीवन में दुःख का परिहार करने वाला अथवा शान्ति- समाधान देने वाला आचार एवं व्यवहार है। उस के अंगोंपांगों की सूक्ष्म जानकारी प्राप्त करने की अपेक्षा रखने वाले जिज्ञासुओं को मूल ग्रंथों का ही अवगाहन करना आवश्यक है। यहां धर्मशास्त्रान्तर्गत विविध विषयों का केवल विहंगावलोकनात्मक परिचय कुछ परिभाषिक शब्दों के माध्यम से संख्यानुक्रम से दिया है, जिस से हिंदू समाज के धर्मशास्त्र का अंशतः परिचय हो सकेगा। दो प्रकार का धर्म - [1] इष्ट (अर्थात यज्ञ-याग) और [2] पूर्त (अर्थात- मंदिर जलाशय का निर्माण, वृक्षारोपण, जीर्णोद्धार, इ.। इन दोनों का निर्देश “इष्टापूर्व" शब्द से होता है।
मुक्ति के दो साधन - तत्त्वज्ञान एवं तीर्थक्षेत्र में देहत्याग। तिथियों के दो प्रकार- (1) शुद्धा- (सूर्योदय से सूर्यास्त तक रहनेवाली) (2) विद्धा (या सखंडा) इस के दो प्रकार माने जाते हैं- (अ) सूर्योदय से 6 घटिकाओं तक चलकर दूसरी तिथि में मिलनेवाली और (आ) सूर्यास्त से 6 घटिका पूर्व दूसरी तिथि में मिलने वाली ।
आशौच के दो प्रकार- जननाशौच और मरणाशौच। दो प्रकार के विवाह - अनुलोम और प्रतिलोम। दो प्रकार की वेश्याएं - (1) अवरुद्धा (अर्थात उपभोक्ता के घर में रहने वाली) (2) भुजिष्या स्वतंत्र घर में रहने वाली। पूजा के तीन प्रकार - वैदिकी, तांत्रिकी एवं मिश्रा। तांत्रिकी पूजा शूद्रों के लिए उचित मानी गई है। जप के तीन प्रकार - वाचिक, उपांशु और मानस। तीन तर्पण योग्य • (1) देवता (कुलसंख्या 31), (2) पितर और (3) ऋषि (कुलसंख्या-30) गृहमख के तीन प्रकार - अयुत होम, लक्षहोम, एवं कोटिहोम । यात्रा के योग्य त्रिस्थली - प्रयाग, काशी एवं गया। त्रिविध कर्म- संचित, प्रारब्ध एवं क्रियमाण । तीन ऋण - देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण । तीन प्रकार का धन- शुक्ल, शबल, एवं कृष्ण । कालगणना के तीन भारतीय सिद्धान्त - सूर्यसिद्धान्त, आर्यसिद्धान्त, एवं ब्राह्मसिद्धान्त । मृत पूर्वजों के निमित्त तीन कृत्य- पिण्ड पितृयज्ञ, महापितृयज्ञ और अष्टका श्राद्ध । कलिवर्ण्य तीन कर्म-नियोग विधि, ज्योतिष्टोम में अनुबन्ध्या गो की आहुति, एवं ज्येष्ठ पुत्र को पैतृक सम्पत्ति का अधिकांश प्रदान । रात्रि में वर्जित तीन कृत्य- स्नान, दान एवं श्राद्ध। (किन्तु ये तीन कृत्य ग्रहण काल में आवश्यक हैं।) विवाह के लिए वर्जित तीन मास- आषाढ, माघ एवं फाल्गुन । (कुछ ऋषियों के मत से विवाह सभी कलों में संपादित हो सकता है।) वर्ष की तीन शुभ तिथियां - चैत्र शुक्ल प्रतिपदा (वर्ष प्रतिपदा), कार्तिक शुक्ल प्रतिपदा एवं विजया दशमी। चार पुरुषार्थ - धर्म, अर्थ काम एवं मोक्ष । (2) चार वर्ण - ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र । चार आश्रम - ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास। गृहस्थाश्रमी के प्रकार- (1) शालीन, (2) वार्ताजीवी (3) यायावर (4) चक्रधर और (5) घोराचारिक। चार मेध - अश्वमेध, सर्वमेध, पुरुषमेध और पितृमेध। चार मेध (यज्ञ) करने वाला विद्वान "पंक्तिपावन" माना जाता है। यज्ञों के चार पुरोहित - अध्वर्यु, आग्निध्र, होता एवं ब्रह्मा। चार वेदव्रत - महानाम्नी व्रत, महाव्रत, उपनिषद्बत और गोदान, (इन की गणना सोलह संस्कारों में की जाती है।) चार कायिक व्रत - एकभुक्त, नक्तभोजन, उपवास और अयाचित भोजन । चार वाचिक व्रत - वेदाध्ययन, नामस्मरण, सत्यभाषण और अपैशुन्य (पीछे निन्दा न करना।)
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 37
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पापमुक्ति के चार उपाय चार प्रकार की तांत्रिक वानप्रस्थों के चार प्रकार
वैखानस, उदम्बर, वालखिल्य एवं वनवासी। आहार की दृष्टि से दो प्रकार (पक्वभोजी) और (2) अपचमानक (अपना भोजन न पकानेवाले) ऐसे दो प्रकार भी माने जाते हैं।
वानप्रस्थाश्रमी के लिए आवश्यक श्रौत यज्ञ (1) आग्रायण इष्टि, (2) संन्यासियों के चार प्रकार
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व्रत, उपवास, नियम और शरीरोत्ताप ।
दीक्षा क्रियावती, वर्णमयी, कलावती एवं वेधमयी ।
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भारत में मान्य चार युग
चार प्रकार के प्रलय
नित्य, नैमित्तिक, प्राकृतिक तथा आत्यंतिक
सभी कर्मों के लिए शुभवार
सोम, बुध, गुरु, एवं शुक्र ।
धार्मिक कृत्य करने के लिए विचारणीय चार तत्त्व - तिथि, नक्षत्र, करण एवं मुहूर्त (इनमें मुहूर्त का महत्व सर्वश्रेष्ठ है)
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विवाह के योग्य चार नक्षत्र रोहिणी, मृगशीर्ष, उत्तरा फाल्गुनी एवं स्वाति ।
तिथिवर्ज्य चार कर्म षष्ठी को तैल, अष्टम को मांस, चतुर्दशी को सुरकर्म और पूर्णिमा अमावस्या को मैथुन। चार धाम बदरीनाथ, जगन्नाथ पुरी, रामेश्वर एवं द्वारका। जीवन में इन धामों की यात्रा होना आवश्यक है ।
उत्कल (उडिसा) के चार महत्त्वपूर्ण तीर्थ - चक्रतीर्थ (भुवनेश्वर), शंखतीर्थ (जगन्नाथ पुरी), पद्मतीर्थ (कोणार्क), गदाक्षेत्र (जाजपुर ) । वेदमंत्रों के पांच विभाग विधि, अर्थवाद मन्त्र, नामधेय और प्रतिषेध । यज्ञ के पांच अग्नि (1) आहवनीय (2) गार्हपत्य (3) दक्षिणाग्नि (इन्हें प्रेता तीन पवित्र अग्नियां कहते है।) (4) औपासन एवं (5) सभ्य । पंचाग्नि आराधना करने वाले गृहस्थाश्रमी ब्राह्मण को "पंक्तिपावी" उपाधि दी जाती है।
पंच महायज्ञ
दैव, पितृ, मनुष्य, भूत एवं ब्रह्म ।
पांच मानस व्रत
अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अकल्कता ( अकुटिलता) |
देवता पंचायतन विष्णु, शिव, सूर्य, देवी और गणेश । इन पांच देवताओं की स्थापना में जो देवता केंद्र स्थान में स्थापित हो, उसके नाम से पंचायतन कहा जाता है।
चक्र हैं :
दुर्गापूजा में प्रयुक्त पांच चक्र राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र वीरचक्र एवं पशुचक्र (इन के अतिरिक्त तांत्रिक साधना में उपयुक्त अकडमचक्र, ऋणधन शोधनचक्र, राशिचक्र, नक्षत्रचक्र इ. सब तांत्रिक चक्रों में श्रीचक्र प्रमुख एवं प्रसिद्ध है ।) संन्यासी के भिक्षान्न के पांच प्रकार माधुकर, प्राक्प्रणीत, अयाचित, तात्कालिक एवं उपपन्न । पंचामृत दुग्ध, दधि घृत, मधु एवं शर्करा ।
पंचगव्य - गाय का दूध, दही, घृत मूत्र और गोबर इनका विधियुक्त मिश्रण इसीको "ब्रह्मकूर्व" कहते हैं। ब्रह्महत्या, सुरापान, चोरी, गुरुपत्नी से संभोग और महापातकी से दीर्घकाल तक संसर्ग । पापफल के पांच भागीदार - कर्ता, प्रयोजक, अनुमन्ता, अनुग्राहक, एवं निमित्त ।
पांच महापातक
वाराणसी के पांच प्रमुख तीर्थस्थान दशाश्वमेध घाट, लोलार्क (एक सूर्यतीर्थ), केशव, बिन्दुमाधव एवं मणिकर्णिका ।
जगन्नाथपुरी के पांच उपतीर्थं मार्कण्डेय सरोवर, वटकृष्ण, बलराम, महोदधि (समुद्र) एवं इन्द्रद्युम्न सर ।
मानव धर्मशास्त्र के अनुसार काल की पांच इकाईयां 2 नाडिका मुहूर्त 30 मुहूर्त पंचांग के पांच अंग
अहोरात्र ।
तिथि, वार, नक्षत्र, योग, एवं करण ।
तिथियों के पांच विभाग - नन्दा (1,6,11) भद्रा (2,7,12) विजया (3,8,13) रिक्ता (4,9,14 ) पूर्णा - (5, 10, पूर्णिमा)
चातुर्मास्य, (3) तुरायण एवं ( 4 ) दाक्षायण (अमावस्या पूर्णिमा के दिन ये यज्ञ करना चाहिए ) विद्वत्परमहंस और विविदिषु) कुटीचक, बहूदक, हंस, और परमहंस (परमहंस के दो प्रकार
कृत, त्रेता, द्वापर एवं कलि (या तिष्य)
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(1) पचनामक
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- 18 = निमेष काष्ठा । 30 काष्ठा = कला। 40 कला नाडिका ।
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दिन के पांच भाग प्रातः संगव, मध्याह्न, अपराह्न और सायाह्न (संपूर्ण दिन 15 मुहूर्तों में बांटा जाता है। दिन का प्रत्ये
भाग तीन मूहुर्तों का रहता है । (श्राद्ध के लिए आठवें से बारहवें तक के पांच पुहूर्त योग्य काल हैं ।
छः प्रकार का धर्म वर्णधर्म, आश्रमधर्म, गुणधर्म, निमित्तधर्म और साधारण धर्म ।
दिन के छः कर्म - स्नान, संध्या, जपहोम देवतापूजन एवं अतिथिसत्कार। ब्राह्मण के षट् कर्म यजन, याजन, अध्ययन, अध्यापन, दान एवं प्रतिग्रह ।
38 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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यतियों के छः कर्तव्य - भिक्षाटन, जप, ध्यान, स्नान, शौच और देर्वाचन। जल स्नान के छः प्रकार - नित्य, नैमित्तिक, काम्य, क्रियांग, मलापकर्षण एवं क्रियास्नान । गौण स्नान - मन्त्र, भौम, आग्नेय, वायव्य, दिव्य एवं मानस। ये स्नान रोगियों के लिए बताये गए हैं। नारियों एवं शूद्रों के लिए वर्जित छः कार्य - जप, तप, संन्यास, तीर्थयात्रा, मन्त्रसाधन और देवताराधन । संवत् प्रवर्तक छः महापुरुष - युधिष्ठिर, विक्रम, शालिवाहन, विजयाभिनन्दन, नागार्जुन एवं कल्कि। सात सोमयज्ञ - अग्निष्टोम, उक्थ्य, षोडशी, वाजपेय, अतिरात्र और आप्तोर्याम। सात पाकयज्ञ - अष्टका, पार्वण-स्थालीपाक, श्राद्ध, श्रावणी, आग्रहायणी, चैत्री, आश्वयुजी। सात हविर्यज्ञ - अग्न्याधान, अग्निहोत्र, दर्शपूर्णमास, आग्रायण, चातुर्मास्य, निरूढपशुबन्ध एवं सौत्रामणि। पूजनीय सप्तर्षि - कश्यप, अत्रि, भारद्वाज, विश्वामित्र, गौतम, जमदग्नि, एवं वसिष्ठ-अरुंधती । ऋषि पंचमी व्रत में इनका पूजन होता है। श्राद्ध में आवश्यक सात विषयों की शुचिता - कर्ता, द्रव्य, पत्नी, स्थल, मन, मन्त्र एवं ब्राह्मण। अस्पृश्यता न मानने के स्थान - मंदिर, देवयात्रा, विवाह यज्ञ और सभी प्रकार के उत्सव, संग्राम और बाजार । पुनर्भू - (अर्थात् पुनर्विवाहित "विधवा") के सात प्रकार - (1) विवाह के लिए प्रतिश्रुत कन्या, (2) मन से दी हुई, (3) जिसकी कलाई में वर के द्वारा कंगन बांध दिया है। (4) जिसका पिता द्वारा जल के साथ दान दिया हो, (6) जिसने वर के साथ अग्निप्रदक्षिणा की हो और (7) जिसे विवाहोपरान्त बच्चा हो चुका हो। इनमें प्रथम पांच प्रकारों में वर की मृत्यु अथवा वैवाहिक कृत्य का अभाव होने के कारण, इन कन्याओं को "पुनर्भू" (अर्थात पुनर्विवाह के योग्य) माना जाता है। सात प्रकार से पापियों से संपर्क - यौन, स्रौव, मौख, एकपात्र में भोजन, एकासन, सहाध्ययन, अध्यापन । न्यास के सात प्रकार - हंसन्यास, प्रणवन्यास, मातृकान्यास, मन्त्रन्यास, करन्यास, अंतास और पीठन्यास। सात मोक्षपुरी - अयोध्या, मथुरा, माया (हरिद्वार), काशी, कांची, अवन्तिका (उज्जयिनि), एवं द्वारका। (27 या 28) नक्षत्रों के 7 विभाग - (1) ध्रुवनक्षत्र उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, रोहिणी। (2) मृदु नक्षत्र
अनुराधा, चित्रा, रेवती, मृगशीर्ष। (3) क्षिप्र नक्षत्र - हस्त, अश्विनी, पुष्य, अभिजित्। (4) उग्र नक्षत्र - पूर्वाफाल्गुनी, पूर्वाषाढा, पूर्वाभाद्रपदा, भरणी, मघा। (5) चर नक्षत्र - पुनर्वसु श्रवण, धनिष्ठा, स्वाती, शतभिषक् । (6) क्रूर नक्षत्र - मूल, ज्येष्ठा, आर्द्रा आश्लेषा। (7) साधारण - कृत्तिका, विशाखा। प्रमुख आठ यज्ञकृत्य - (1) ऋत्विग्वरण (2) शाखाहरण, (3) बहिराहरण (4) इध्माहरण (5) सायंदोह (6) निर्वाप (7) पत्नीसनहन और (8) बर्हिरास्तरण। आठ गोत्र संस्थापक - विश्वामित्र, जमदग्नि, भारद्वाज, गौतम, अत्रि, वसिष्ठ, कश्यप और अगस्त्य । प्रत्येक गोत्र के साथ 1,2,3 या 5 ऋषि होते हैं, जो उस गोत्र के प्रवर कहलाते हैं। धर्मशास्त्र के अनुसार सगोत्र एवं सप्रवर विवाह वर्जित माना जाता है। आठ प्रकार के विवाह - ब्राह्म, प्राजापत्य, आर्ष, दैव, गान्धर्व, आसुर, राक्षस एवं पैशाच। संन्यास लेने के पूर्व करने योग्य आठ श्राद्ध - दैव, आर्ष, दिव्य, मानुष, भौतिक, पैतृक, मातृश्राद्ध और आत्मश्राद्ध । आठ दान के पात्र - माता-पिता, गुरु, मित्र, चरित्रवान व्यक्ति, उपकारी, दीन, अनाथ एवं गुणसंपन्न व्यक्ति। व्रतों के आठ प्रकार - तिथिव्रत, वारव्रत, नक्षत्रव्रत, योगव्रत, संक्रान्तिव्रत, मासव्रत, ऋतुव्रत और संवत्सरव्रत । दुष्ट अन्न के आठ प्रकार - जातिदुष्ट, क्रियादुष्ट, कालदुष्ट, संसर्गदुष्ट, सल्लेखा, रसदुष्ट, परिग्रहणदुष्ट और भवदुष्ट । भूमिशुद्धि के आठ साधन - संमार्जन, प्रोक्षण, उपलेपन, अवस्तरण, उल्लेखन, गोक्रमण, दहन, पर्जन्यवर्षण । तांत्रिक पूजा में उपयुक्त आठ मण्डल - (1) सर्वतोभद्र मंडल, (2) चतुर्लिंगतोभद्र (3) प्रासाद (4) वास्तु (5) गृहवास्तु (6) ग्रहदेवतामंडल (7) हरिहरमंडल (8) एकलिंगतोभद्र। पितरों की नौ कोटियाँ - अग्निष्वात्त, बर्हिषद, आन्यव, सोमप, रश्मिप, उपहूत, आयुन्तु, श्राद्धभुज एवं नान्दीमुख। तांत्रिक क्रिया में आवश्यक नौ मुद्राएं -अर्थात् हस्तक्रियाएं - आवाहनी, स्थापिनी, सन्निधापिनी, सन्निरोधिनी, संमुखीकरणी, सकलीकृती, अवगुण्ठनी धेनुमुद्रा, महामुद्रा । पाप के नौ प्रकार - अतिपातक, महापातक, अनुपातक, उपपातक, जातिभ्रंशकर, संकरीकरण, अपात्रीकरण, मलावह और प्रकीर्णक। नौ प्रकार के कालमान - ब्राह्म, दैव, मानुष, पित्र्य, सौर, सायन, चान्द्र, नाक्षत्र एवं बार्हस्पत्य (व्यवहार में इनमें से अंतिम पांच ही प्रयुक्त होते हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 39
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दस प्रकार अवतारों की लिस्य, कूर्म, वरना इत्यादि कृष्णाजिन, शा
दस यज्ञयात्र या यज्ञायुध - रूप्य, कपाल, अग्निहोत्रवहणी, शूर्प, कृष्णाजिन, शम्भा, उलूखल, मुसल, दृषद और उपला। इनके
अतिरिक्त सुरु जुहू उपधृत ध्रुवा, इडापात्र, पिष्टोद्वपनी इत्यादि अन्य पात्रों का भी उपयोग यज्ञकर्म में होता है। विष्णु के दश अवतार - मत्स्य, कूर्म, वराह, नरसिंह, वामन, परशुराम, राम, कृष्ण, बुद्ध और कल्कि। श्रीमद्भागवत पुराण में विष्णु के अवतारों की संख्या 24 बताई है। दस प्रकार के ब्राह्मण - (पांच गौड और पांच द्रविड) अथवा देवब्राह्मण, मुनिब्राह्मण, द्विजब्राह्मण, क्षत्रब्राह्मण, वैश्यब्राह्मण, शूद्रब्राह्मण, निषादब्राह्मण, पशुब्राह्मण, म्लेच्छब्राह्मण और चांडालब्राह्मण ।। अद्वैती संन्यासियों की. दस शाखाएं - तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, गिरि, पर्वत, सागर, सरस्वती, भारती एवं पुरी। दस महादान - सुवर्ण, अश्व, तिल, हाथी, दासी, रथ, भूमि, घर, दुलहिन एवं कपिला गाय (सोने या चांदी का दान, दाता के बराबर तोलकर ब्राह्मणों को दिया जाता है, तब उसे तुलापुरुष नामक महादान कहते है। पापमुक्ति के दस उपाय - (1) आत्मापराध स्वीकार, (2) मंत्रजप (3) तप (4) होम, (5) उपवास (6) दान (7) प्राणायाम (8) तीर्थयात्रा (9) प्रायश्चित्त और (10) कठोर व्रतपालन। अशुद्ध को शुद्ध करने वाली दस वस्तुएं - जल, मिट्टि, इंगुद, अरिष्ट (रीठा), बेल का फल, चांवल, सरसों का उवटन, क्षार, गोमूत्र और गोबर। विवाह योग्य 11 नक्षत्र -रोहिणी, मृगशीर्ष, मघा, उत्तरा-फाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपदा, हस्त, स्वाती, मूल, अनुराधा एवं रेवती। 12 देवतीर्थ - विन्ध्य की दक्षिण दिशा में 6 नदियाँ- गोदावरी, भीमरथी, तुंगभद्रा, वेणिका, तापी और पयोष्णी। विध्य की उत्तर दिशा में 6 नदियाँ- भागीरथी, नर्मदा, यमुना, सरस्वती, विशोका, वितस्ता, (चंद्र-सूर्य ग्रहण के काल में इन देवीों में स्नान श्रेयस्कर माना है। बारह ज्योतिर्लिंग- सौराष्ट्र में सोमनाथ । (आन्ध्र कुर्नूल जिले में श्रीशैल पर) मल्लिकार्जुन। मध्यप्रदेश (उज्जयिनी) में महाकाल।
ओंकारक्षेत्र में (मध्यप्रदेश में नर्मदा तट पर) परमेश्वर। हिमालय में केदार। महाराष्ट्र (पुणे के पास) भीमशंकर। वाराणसी (उत्तर प्रदेश) में विश्वेश्वर । महाराष्ट्र में (नासिक के पास) त्र्यम्बकेश्वर । चिताभूमि में (बिहार) बैद्यनाथ। दारुकावन में नागेश। सेतुबन्ध में (तामिळनाडु) रामेश्वर। महाराष्ट्र में (औरंगाबाद के पास) घृष्णेश्वर । चौदह विद्याएं - 4 वेद, 6 वेदांग, पुराण, न्याय, मीमांसा एवं धर्मशास्त्र । (इन में आयुर्वेद, धनुर्वेद, गान्धर्ववेद और अर्थशास्त्र मिलाकर 18 विद्याएँ भी मानी जाती हैं, जिनका अध्ययन ब्रह्मचर्याश्रम में आवश्यक माना जाता है। आयुर्वेदादि चार उपवेद छोड़ कर अन्य 14 धर्मज्ञान के प्रमाण माने जाते हैं। काशी में विद्यमान 14 महालिंग - ओंकार, त्रिलोचन, महादेव, कृत्तिवास, रत्नेश्वर, चन्द्रेश्वर, केदार, धर्मेश्वर, वीरेश्वर, कामेश्वर, विश्वकर्मेश्वर, माणिकर्णीश, अविमुक्त एवं विश्वेश्वर । सोमयाग के 16 पुरोहित - होता, मैत्रावरुण, अच्छावाक, ग्रावस्तुत, अध्वर्यु, प्रतिप्रस्थाता, नेष्टा, उन्नेता, ब्रह्मा, ब्राह्मणाच्छंसी, अग्निध्र, पोता, उद्गाता, प्रस्तोता, प्रतिहर्ता, और सुब्रह्मण्य । सोलह संस्कार - गर्भाधान, पुंसवन, सीमन्तोन्नयन, जातकर्म, नामकरण, अन्नप्राशन, चौल, उपनयन, चार वेदव्रत, गोदान, समावर्तन, विवाह और अंत्योष्टि । 18 प्रकार की शान्तियाँ - अभयशान्ति, सौम्य, वैष्णवी, रौद्री, ब्राह्मी, वायवी, वारुणी, प्राजापत्य, त्वाष्ट्री, कौमारी, आग्नेयी, गान्धर्वी, आंगिरसी, नैर्ऋती, याम्या, कौबेरी, पार्थिवी एवं ऐन्द्री. इन शान्तियों के अतिरिक्त विनायक शान्ति (या गणपतिपूजा), नवग्रह, उग्ररथ (षष्ट्यन्दिपूर्तिनिमित्त), भैमरथी, (70 या 75 वर्षों की आयु पूर्ण होने पर, अमृतामहाशान्ति, उदकशान्ति, वास्तुशान्ति, पुष्याभिषेकशान्ति इत्यादि शान्तियाँ धर्मशास्त्र में कही हैं। चैत्र से लेकर बारह मासों की 24 एकादशियों के क्रमशः नाम – कामदा, वरुथिनी। मोहिनी, अपरा। निर्जला, योगिनी । शयनी, कामदा। पुत्रदा, अजा। परिवर्तिनी, इन्दिरा। पापांकुशा, रमा। प्रबोधिनी उत्पत्ति। मोक्षदा, सफला। पुत्रदा, षट्तिला। जया, विजया। आमर्दकी (आमलकी), पापमोचनी। इनमें शयनी (आषाढी और प्रबोधिनी (कार्तिकी) एकादशी का उपोषणादि व्रत सर्वत्र मनाया जाता है। वैश्वदेव के देवता :- अग्नि, सोम, अग्निष्टोम, विश्वेदेव, धन्वन्तरि, कुहू, अनुमति, प्रजापति, द्यावापृथिवी, स्विष्टकृत् (अग्नि), वासुदेव, संकर्षण, अनिरुद्ध, पुरुष, सत्य, अच्युत, मित्र, वरुण, इन्द्र इंद्राग्नी वास्तोष्पति, इ. | गृहस्थाश्रमी को भोजन के पूर्व इन देवताओं को भोजन समर्पण करना चाहिये।
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देवपूजा के उपचार :- जल, आसन, आचमन, पंचामृत, अनुलेप (या गन्ध), आभूषण, दीप और कर्पूर से आरती, नैवेद्य, ताम्बूल, नमस्कार, प्रदक्षिणा इत्यादि। विवाह के धार्मिक कृत्य :- वधूवर गुणपरीक्षा, वरप्रेषण, वाग्दान, मण्डपवरण, नान्दीश्राद्ध एवं पुण्याहवाचन, वधूगृहगमन, मधुपर्क, स्नापन, परिधायन एवं सन्नहन, समंजन, प्रतिसरबन्ध, वधूवर-निष्क्रमण, परस्पर-समीक्षण, कन्यादान, अग्निस्थापन एवं होम, पाणिग्रहण, लाजाहोम, अग्निपरिणयन, अश्मारोहण, सप्तपदी, मूर्धाभिषेक, सूर्योदीक्षण, हृदयस्पर्श, प्रेक्षकानुमंत्रण, दक्षिणादान, गृहप्रवेश, धृवारुंधती-दर्शन, हरगौरीपूजन, आर्द्राक्षतारोपण, मंगलसूत्रबंधन, देवकोत्थापन एवं माण्डपोद्वासन। इन विविधकृत्यों में मधुपर्क, होम, अग्निप्रदक्षिणा, पाणिग्रहण, लाजाहोम एवं आर्द्राक्षतारोपण विधि महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। व्रतों में आवश्यक कुछ कर्तव्य :- स्नान, संध्यावंदन, होम, देवतापूजन, उपवास, ब्राह्मणभोजन कुमारिका-विवाहिता का भोजन, दरिद्रभोजन, दान, गोप्रदान ब्रह्मचर्य भूमिशयन, हविष्यान्नभक्षण, इ.। धर्मशास्त्र में निर्दिष्ट महत्त्वपूर्ण व्रत उत्सव :- नागपंचमी, व मनसा पूजा रक्षाबन्धन, कृष्णबन्धन, कृष्णजन्माष्टमी, हरतालिका, गणेशचतुर्थी, ऋषिपंचमी, अनन्तचतुर्दशी, नवरात्रि (या दुर्गोत्सव), विजया दशमी, दीपावलि, भातृद्वितीया (या यमद्वितीया) मकरसंक्रान्ति, वसंत पंचमी, महाशिवरात्रि, होलिका एवं ग्रहण, अक्षय्य तृतीया, व्यासपूजा, तथा रामनवमी इत्यादि। भूतबलि के अधिकारी :- कुत्ता, चाण्डाल, जातिच्युत, महारोगी, कौवे, कीडे मकोडे इत्यादि । भोजन के पूर्व इन को अन्न देना चाहिए। श्राद्ध के विविध प्रकार :- नित्य, नैमित्तिक, पार्वण, एकोद्दिष्ट, प्रतिसांवत्सरिक, मासिक, आमश्राद्ध (जिस में बिना पका हुआ अन्न दिया जाता है) हेमश्राद्ध। (भोजनाभाव में, प्रवास में, पुत्रजन्म में, या ग्रहण में हेमश्राद्ध किया जाता है। स्त्री तथा शूद्र हेमश्राद्ध कर सकते हैं।) धृवश्राद्ध, आभ्युदयिक, नान्दीश्राद्ध, महालयश्राद्ध, आश्विन कृष्णपक्ष में किये जाते हैं। मातामह श्राद्ध (या दौहित्र प्रतिपदाश्राद्ध), अविधवा नवमीश्राद्ध (कृष्णपक्ष की नवमी को होता है) जीवच्छाद्ध (जीवश्राद्ध) संघातश्राद्ध (किसी दुर्घटना में अनेकों की एक साथ मृत्यू होने पर किया जाता है) वृद्धिश्राद्ध, सपिण्डन, गोष्ठश्राद्ध, शुद्धिश्राद्ध कर्मांग, दैविक, यात्राश्राद्ध, पुष्टिश्राद्ध, इ. षण्णवति श्राद्ध नामक ग्रंथ (ले. गोविंद और रघुनाथ) में एक वर्ष में किये जानेवाले 96 श्राद्धों का विवरण है। श्राद्ध में निमंत्रण योग्य पंक्तिपावन ब्राह्मण के गुण :- त्रिमधु (मधु शब्द युक्ततीन वैदिक मंत्रों का पाठक) त्रिसुपर्ण का पाठक, त्रिणाचिकेत एवं चतुर्मेध (अश्वमेघ, पुरुषमेध, सर्वमेध, एवं पितृमेध) के मंत्रों का ज्ञानी, पांच अग्नियों को आहुति देने वाला, ज्येष्ठ साम का ज्ञानी, नित्य वेदाध्यायी, एवं वैदिक का पुत्र ।। दान योग्य पदार्थ :- (उत्तम)- भोजन, गाय, भूमि, सोना, अश्व, एवं हाथी इ.। (मध्यम)- विद्या, गृह, उपकरण, औषध इ.। (निकृष्ट)- जूते, हिंडोला, गाडी, छाता, बरतन, आसन, दीपक, फल, जीर्णपदार्थ इ. उपपातक (सामान्य पापकर्म) :- गोवध, ऋणादान (ऋण को न चुकाना), परिवेदन (बडो भाई से पहले विवाह करना) शुल्क लेकर वेदाध्यापन, स्त्रीहत्या, निंद्य जीविका, नास्तिकता, व्रतत्याग, माता-पिता का निष्कासन, केवल अपने लिए भोजन बनाना, स्त्रीधन पर उपजीविका, नास्तिकों के ग्रंथों का अध्ययन इत्यादि (ऐसे उपपातक पचास तक बताए गये हैं। ब्रह्मबन्धु (केवल जातिमात्र से ब्राह्मण) के प्रकार :- शूद्र एवं राजा का नौकर, जिसकी पत्नी शूद्र है, ग्रामपुरोहित, पशुहत्या से जीविका चलानेवाला, एवं पुनर्विवाहिता का पुत्र । भूमि की अशुद्धता के कारण :- प्रसूति, मरण, प्रेतदहन, विष्ठा, कुत्ते, गधे तथा सूअरों का स्पर्श, कोयला, भूसी, अस्थि एवं राख का संचय (इन कारणों से दूषित भूमि की शुद्धि संमार्जनादि उपायों से करना आवश्यक है) मंगल वृक्ष :- अश्वत्थ, उदुम्बर, प्लक्ष, आम्र, न्यग्रोध, पलाश, शमी, बिल्व, अमलक, नीम, इ. तीर्थयात्री को गंगा तटपर त्यागने योग्य कर्म :- शौच, आचमन, केशशृंगार, अघमर्षण सूक्तपाठ, देहमर्दन, क्रीडा, कौतुक, दानग्रहण, संभोग, अन्यतीर्थों की प्रशंसा, वस्त्रदान, ताडन, तीर्थजल को तैर कर पार करना। पवित्रस्थान :- सरोवर, तीर्थस्थल, ऋषिनिवास, गोशाला एवं देवमंदिर, गंगा, हिमालय, समुद्र और समुद्र मे मिलनेवाली नदियाँ, पर्वत (श्रीमद् भागवत में पुनीत पर्वतों के 27 नाम दिये हैं (भाठ 5-19-16) अग्निहोत्र शाला इ.। नर्मदा के प्रमुख उपतीर्थ :- महेश्वर (ओंकार), शुक्लतीर्थ (चाणक्य को यहां सिद्धि प्राप्त हुई थी), भृगुतीर्थ, जामदग्न्यतीर्थ (समुद्रसंगम का स्थान) अमरकण्टक पर्वत, माहिष्मती (ओंकार मांधाता), भृगुकच्छ (भडोच)। गया के उपतीर्थ :- अश्मप्रस्थ (प्रेताशिला) निरविन्द-गिरि, क्रौंचपदी, ब्रह्मकूप, प्रभास (मुण्डपृछ) उत्तरमानस, उद्यन्त पर्वत, अगस्त्य कुण्ड, फल्गुतीर्थ, महाबोधि वृक्ष, गदालोल, भरताश्रम, अक्षयवट, रामशिला ।
__संस्कृत में धर्मशास्त्र विषयक वाङ्मय चार प्रकार का है- 1) सूत्र वाङ्मय, 2) स्मृतिवाङ्मय, 3) उपस्मृति ग्रंथ और 4) निबन्ध ग्रंथ । संपूर्ण धर्मशास्त्रीय ग्रंथों की संख्या बहुत बड़ी है। प्रस्तुत कोश में बहुसंख्य ग्रंथों का निर्देश यथाक्रम हुआ है।
सस्कृत वाङमय कोश - प्रथकार खण्ड/41
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4 निरुक्त
भाषिक व्यवहार में अर्थ की अभव्यक्ति शब्दों द्वारा होती है। अर्थ मुख्य और उसे व्यक्त करनेवाले शब्द गौण माने जाते है। शब्द से अर्थ का आकलन प्रायः निरुक्ति द्वारा होता है। विशेषतः वैदिक शब्दों का अर्थ जानने में निरूक्ति ही प्राधान्य से सहायक होती है। ऋग्वेदियों के दशग्रंथ में यास्ककृत निरुक्त का अन्तर्भाव होता है। वस्तुतः यह निरुक्त निघंटु की टीका है। निघंटु याने वेदों के दुर्बोध शब्दों का कोश। महाभारत के अनुसार प्रजापति कश्यप निघंटु के कर्ता माने गए है।
निघंटु के प्रारंभिक तीन अध्यायों को नैघण्टक काण्ड कहते हैं, जिसमें एकार्थवाही शब्दों का संग्रह किया हुआ है। चौथे नेगमकाण्ड में अनेकार्थवाही और पांचवे दैवतकाण्ड में वैदिक देवताओं के नाम संकलित किए है।
निघंटु पर देवराज यज्वा की "निघंटुनिर्वचन" नामक टीका में नैघण्टुक काण्ड का विवेचन अधिक मात्रा में किया है। इस टीका के उपोद्धात में वेदों के सायणपूर्व भाष्यकारों के संबंध में पर्याप्त जानकारी मिलती है। भास्करराय ने निघण्टु के सारे वैदिक शब्द अमरकोश की तरह श्लोकों में संग्रहीत किये हैं। यास्काचार्य की “निरुक्त नामक महत्वपूर्ण टीका के पश्चात् निघण्टु और निरुस्त दोनों को मिलाकर “निरुक्त" संज्ञा रूढ हुई । वेदपुरूष के षडंग में इसी निरुक्त की श्रोत्रस्थान में गणना होती है।
निरुक्त में शब्दों के केवल अर्थ नहीं होते, अपि तु उसके अंशों की छानबीन कर, अर्थ का ग्रहण किया जाता है। गति, गमन, रति, रमण, जैसे नामों में मूल, गम्, रम् आदि धातुओं से नाम की व्युत्पत्ति की जाती है। वधू जैसे शब्द में वध् धातु दिखता है परंतु वह हिंसार्थक होने से, उस शब्द से मिलते-जुलते वह धातु से वधू शब्द की व्युत्पत्ति की जाती है। अग्नि जैसे शब्द के विविध अर्थ ध्यान में लेकर उसके स्वर-व्यंजन विभाग कर व्युत्पत्ति की जाती है। शब्द कितना भी दुर्बोध हो तो भी इन प्रकारों में से किसी एक प्रकार से उसकी व्युत्पत्ति करना निरुक्तकार आवश्यक मानते हैं। अनेकार्थक शब्द की व्युत्पत्ति भिन्न भिन्न प्रकार से की जाती है।
यास्क के निरुक्त में, नाम, आख्यात, उपसर्ग और निपात के लक्षण, भावविकारलक्षण, पदविभागपरिज्ञान, उपधाविकार, वर्णलोप, वर्णवपर्यय, संप्रसार्य तथा असंप्रसार्य धातु इत्यादि शब्द शास्त्रविषयक विविध विषयों का विवेचन होने के कारण, निरुक्त को व्याकरण का ही एक भाग माना जाता है।
संस्कृत भाषा में सारे नाम धातुज होते हैं (नाम च धातुजम्) इस सिद्धान्त का प्रतिपादन वैयाकरण शाकटायनाचार्य ने किया था। गार्य नामक आचार्य ने इस सिद्धान्त का खंडन किया था परंतु निरुक्तकार यास्क ने गार्ग्य के युक्तिवाद का खण्डन कर, "नाम च धातुजम्" इस सिद्धान्त को अपने वेदांग में प्रतिष्ठित किया। अर्वाचीन भाषाशास्त्री भी निरुक्तकार के इस सिद्धान्त को ग्राह्य मानते हैं।
यास्काचार्य का काल पाणिनिपूर्व (ई. 800 से 1000) माना जाता है। उसके पहले भी वैदिक शब्दों का अर्थनिर्धारण करने वाले जो संप्रदाय थे उनका नामनिर्देश निरुक्त में हुआ है जैसे आधिदैवत आध्यात्म, आख्यानसमय, ऐतिहासिक, नैदान, पारिवाजक, याज्ञिक। इनमें 12 नैरुक्त अर्थात् निरुक्तिवादी भी थे :- आग्रायण, औपमन्यव, औदुंबरायण, और्णवाभ, कात्थक्य, क्रौष्टुकी, गार्ग्य, मालव, तैटीकी, आायणी, शाकपूणि और स्थौलष्ठीवी।
यास्क ने अपने निरुक्त में शाकपूणि को विशेष मान्यता देते हुए उसके मतों का परामर्श किया है। यास्क के निरुक्त को ही उत्तरकालीन वेदभाष्यकारों ने प्रमाण मान कर वेदार्थ का निर्धारण किया है।
निरुक्त के 14 अध्यायों में अंतिम दो अध्याय यास्ककृत नहीं माने जाते। अतः उन्हें परिशिष्ट कहते हैं।
कौत्स ऋषि के मतानुसार वेद अर्थरहित माने गए थे। यास्क ने इस विचार का खण्डन, “नैष स्थाणोरपराधः यदेनम् अन्धो न पश्यति । पुरुषापराधः स भवति ।" (निरुक्त-1-16) याने अंधे को खंभा नही दिखता, यह खंभे का अपराध नहीं। यह तो पुरुष का अपराध है, इन तीखे शब्दों में किया है। ___ "स्थानुरयं भारहरः किलाभूत् । अधीत्य वेदान् न विजानाति योऽर्थम्।। योऽर्थज्ञ इत् सकलं भद्रमश्रुते । नाकमेति ज्ञानविधूतपाप्मा।।"
इस सुप्रसिद्ध वचन में, यास्क ने वेदों का पठन करने पर उसका अर्थ न जानने वाले की योग्यता भारवाहक स्थाणु के समान कही है। वेदों का अर्थज्ञान प्राप्त करने वाला, पापरहित होकर स्वर्गगमन करता है, इन शब्दों में अर्थज्ञान की प्रशंसा कर कौत्सवाद का खण्डन किया है।
निरुक्त पर दुर्गाचार्य, स्कन्द पहेश्वर (गुजराथवासी, 7 वीं शती) और वररुचि की टीकाएं उपलब्ध हैं। दुर्गाचार्य ने अपनी वृत्ति में प्राचीन टीकाकारों के मतों का परामर्श किया है। वररुचि के निरुक्तनिचय में यास्काचार्य के सिद्धान्तों का 100 श्लोकों में प्रतिपादन मिलता है।
42 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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5 प्रातिशाख्य
वेदांग व्याकरण, को वेदपुरुष का मुख माना है। भगवान पतंजलि ने अपने व्याकरण महाभाष्य में इसे प्रधान अंग कहा है। वेदों की रक्षा के लिए व्याकरण का अध्ययन उन्होंने अनिवार्य माना है। (रक्षार्थं वेदानाम् अध्येयं व्याकरणम्) ।
प्रातिशाख्य नामक वाङ्मय वेदों के शिक्षा, छंद और व्याकरण इन तीन अंगों से संबंधित है। प्रस्तुत ग्रंथ में व्याकरण वाङमय के साथ ही प्रातिशाख्य वाङ्मय का यथोचित परिचय दिया जा रहा है।
वेदों के जो सुप्रसिद्ध छह अंग माने गए हैं उनमें प्रातिशाख्य का निर्देश नहीं है। प्रातिशाख्य शब्द का अर्थ है, “शाखां शाखां प्रति प्रतिशाखम्"। प्रतिशाखेषु भवं प्रातिशाख्यम्"। अर्थात जिस ग्रंथ में वेद की एक एक शाखा के नियमों का वर्णन हो, वह "प्रातिशाख्य" कहाता है। उपलब्ध प्रातिशाख्यों में एक एक चरण की सभी शाखाओं के नियमों का सामान्य रूप से उल्लेख मिलता है। प्रातिशाख्य के लिए प्राचीन ग्रंथों में पार्षद और पारिषद शब्द की भी प्रयोग होता है। व्याकरण महाभाष्यकार पतंजलि ने “सर्ववेदपारिषदं हि इदं शास्त्रम्"- इन शब्दों में प्रातिशाख्य शास्त्र की प्रशंसा की है।
इस विषय में दो मत हैं। एक मत के अनुसार प्रातिशाख्य, शिक्षा, छंद और व्याकरण इन तीन वेदांगों से संबंधित है। वह उन वेदांगों के सामान्य नियमों की विशेष रूप में स्थापना करता है। दूसरे मत के अनुसार उपर्युक्त तीन वेदांगों ने जिन नियमों का विधान किया, उनसे भिन्न नियमों का विधान इस में होने के कारण, प्रातिशाख्य वेदाध्ययन में अर्थज्ञान के लिए सहाय करने वाला स्वतंत्र शास्त्र है। प्रातिशाख्यों का महत्त्व, वैदिक संहिताओं के पाठ तथा स्वरूप के विषय में विशेष होने के कारण, आचार्य शौनक ने इसे, अनिंद्य, आर्ष और पूर्ण वेदांग कहा है- (कृत्स्रं च वेदांगमनिंद्यमार्षम्- 14-69) ।
व्याकरण शास्त्र के विकास की दृष्टि से प्रातिशाख्य उस शास्त्र की प्रारंभिक अवस्था का द्योतक है। पाणिनीय व्याकरण शास्त्र में रूढ प्रायः सारे पारिभाषिक शब्द प्रातिशाख्य के ग्रंथों में प्रयुक्त हुए हैं। वैदिक संहिताओं के पाठ और उसका स्वरूप आज तक अविच्छिन्न रखने में, प्रातिशाख्यों के वैदिक भाषा विषयक सूक्ष्म नियम कारणीभूत हुए है। अतः वेदागों का परिचय देते समय, शिक्षा और व्याकरण के बीच में प्रातिशाख्य का परिचय देना अत्यावश्यक है।
ऋक्प्रातिशाख्य - रचयिता- महर्षि शौनक। इस पद्यबद्ध सूत्ररूप ग्रंथ में शिक्षा के विषयों का प्रतिपादन होने के कारण इसे शिक्षाशास्त्र भी कहते हैं। यह प्रातिशाख्य, ऐतरेय आरण्यक के संहितोपनिषद् का अक्षरशः अनुसरण करता है। तथा आरण्यक में निर्दिष्ट माण्डूकेय, माक्षव्य, आगस्त्य, शूरवीर नामक आचार्यों के संहिता विषयक मतों का प्रतिपादन करता है। इस ग्रंथ में ऋग्वेद की एकमात्र उपलब्ध शाकल शाखा की शैशिरीय नामक उपशाखा का सांगोपांग विवेचन प्रस्तुत किया है। इस के पारिभाषिक शब्द मौलिक एवं अन्वर्थक हैं। इस के चतुर्दश पटल में ग्रंथकार की भाषा-समीक्षा में सूक्ष्मेक्षिका का दर्शन, उच्चारण दोषों के सूक्ष्म विवरण में होता है।
इस प्रातिशाख्य के 18 पटलों में निम्न प्रकार से विषयों का विभाजन किया है :पटल- (1) स्वर, व्यंजन, स्वरभक्ति, रक्त, नाभि, प्रगृह्य आदि पारिभाषिक शब्दों के लक्षण ।
(2) प्रश्लिष्ट क्षैप, उद्ग्राह, भुग्न आदि नाना प्रकार की संधियों के लक्षण और उदाहरण ।
(3) में स्वरपरिचय और 4 से 9 तक विसर्ग की रेफ में परिणति, नकार के नाना विकार, नतिसंधि, अर्थात् स का ष में और न का ण में परिवर्तन, क्रमसंधि, (वर्ण का द्विर्वचन), व्यंजनसंधि, प्लुतिसंधि आदि विविध सन्धि प्रकारों का विवेचन ।
(10-11)- उदात्तादि स्वरों के परिवर्तन के नियम । (12-13)- पदविभाग, व्यंजनों के रूप तथा लक्षणों का प्राचीन ऋषियों के मतनिर्देश सहित विवेचन ।
(14)- वर्णों के उच्चारण में दोष ।
(15)- वेदपारायण की पद्धति का परिचय । (16 से 18)- गायत्री, उष्णिक्, बृहती, पंक्ति, आदि वैदिक छन्दों का विवेचन । फलतः वेदसमीक्षा के लिए शिक्षाशास्त्र में समाविष्ट विषयों के अतिरिक्त विषयों का प्रतिपादन प्रातिशाख्यों का विषय है। ऋक्प्रातिशाख्य में प्रतिपादित विषयों के परिचय से समग्र प्रातिशाख्य शास्त्र का प्रारूप समझ में आ सकता है।
ऋक्प्रातिशाख्य पर शुक्ल यजुर्वेद के भाष्यकार उवट का भाष्य प्रसिद्ध है। उवट, भोजराजा के शासन काल में (अर्थात् 11 वीं शताब्दी में) अवन्ती नगरी के निवासी थे। अतः ऋक्प्रातिशाख्य का समय 5 वीं या 6 ठी शताब्दी माना जाता है।
वाजसनेयी प्रातिशाख्य- रचयिता- कात्यायन मुनि। यह कात्यायन, पाणिनीय सूत्रों पर वार्तिक लिखने वाले से भिन्न हैं। इनका समय पाणिनि के पूर्व माना जाता है। इस प्रातिशाख्य में अध्याय संख्या आठ और कुल सूत्रसंख्या 734 है।
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-6
अध्यायों में विषयों का प्रतिपादन साधारणतः निम्न प्रकार से हुआ है। अध्याय
(सूत्र-169) वर्णोत्पत्ति, अध्ययन विधि, संज्ञा- परिभाषा और वर्णो के उच्चारण- स्थान । (सूत्र-653) स्वर के नियम। (सूत्र- 151) सन्धि के नियम। (सूत्र- 198) सन्धि, पदपाठ एवं क्रमपाठ के नियम। (सूत्र-46)- समास में दो पदों के पृथक् ग्रहण को "अवग्रह" कहते हैं। इस अध्याय में अवग्रह के नियम बताए हैं। (सूत्र-31) आख्यात, (क्रियापद) और उपसर्ग के नियम।
(सूत्र-12) परिग्रह के नियम । परिग्रह का अर्थ है मध्य में इति शब्द रख कर पद को दोहराना । - 8 (सूत्र-62) । वर्ण समाम्नाय, अर्थात् वर्णमाला, अध्ययन विधि, वर्णों के देवता, पदचतुष्टय एवं
उनके गोत्र तथा देवता इन विषयों का विवरण। कात्यायन के प्रातिशाख्य में परिभाषा, स्वर तथा संस्कार इन तीन विषयों का विस्तृत विवेचन होने के कारण उन्हें "स्वर-संस्कार-प्रतिष्ठापयिता' उपाधि दी गई है। इसमें काण्व, काश्यप, शाकटायन, शाकल्य एवं शौनक आदि दस आचार्यो के मत उद्धृत किए हैं। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में इस प्रातिशाख्य की परिभाषा एवं कुछ सूत्रों का शब्दशः अंगीकार किया है। अतः इस का रचनाकाल पाणिनि से पूर्व अर्थात् ई.पू. आठवी शती तक माना जाता है।
कात्यायनकृत वाजसनेयी प्रातिशाख्य पर उवटकृत "मातृवेद" और अनन्तभट्ट कृत "पदार्थप्रकाशक" नामक दो व्याख्याएं प्रकाशित हुई हैं। इन के अतिरिक्त (1) "प्रतिज्ञासूत्र" और (2) भाषिक सूत्र नामक दो परिशिष्ट सूत्र, व्याख्यासहित प्रकाशित हुए है।
तैत्तिरीय प्रातिशाख्य - कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता का यह सूत्रमय प्रातिशाख्य प्रश्न नामक दो खंडों में विभक्त है। प्रत्येक खंड में 12 अध्याय हैं। प्रतिपाद्य विशय अन्य प्रातिशाख्यें जैसे ही हैं केवल उदाहरण तैत्तिरीय संहिता से दिए हैं।
इस प्रातिशाख्य पर माहिषेय कृत "पदक्रमसदन" नामक प्राचीन भाष्य है। प्रातिशाख्यों का विषय होता है प्रकृतिपाठ (अर्थात् संहितापाठ, पदपाठ और क्रमपाठ)। इस दृष्टि से माहिषेय भाष्य का "पद-क्रमसदन"- नाम अन्वर्थक है। दूसरा सोमयाजी कृत "त्रिभाष्यरत्न" और तीसरा है गोपालयज्वा का "वैदिकाभरण'।
सामवेद के पुष्पसूत्र (नामान्तर-फुल्लसूत्र) और ऋक्तंत्र (अथवा ऋक्तंत्र व्याकरण) नामक सूत्रबद्ध प्रातिशाख्य उपलब्ध है। पुष्पसूत्र का संबंध गानसंहिता से है अतः इसमें उन स्थलों का विशेष निर्देश होता है, जिनमें "स्तोभ" का विधान या अपवाद होता है। हरदत्तविरचित सामवेदीय सर्वानुक्रमणी के अनुसार, सूत्रकार वररुचि को पुष्पसूत्र के रचयिता माना गया है। इस वररुचि के संबंध में कोई जानकारी नहीं है। इस ग्रंथ के दस प्रपाठकों में से, पंचम प्रपाठक से उपाध्याय अजातशत्रु की व्याख्या उपलब्ध है।
दूसरा सामवेदीय प्रातिशख्य, ऋतंत्र के रचयिता शाकटायन का है, जिनका निर्देश यास्क तथा पाणिनि ने अपने ग्रंथों में किया है। इसके पांच प्रपाठकों में कुल सूत्रसंख्या दो सौ अस्सी है। कुछ विद्वानों ने औदब्रजि को ऋक्तंत्र का रचयिता माना है। समन्वय की दृष्टि से औदवजि यह व्यक्ति का नाम और शाकटायन गोत्र का नाम माना जा सकता है। अथर्ववेदीय प्रातिशाख्य - (1) चतुराध्यायिका- यह सब से प्राचीन अथर्ववेदीय प्रातिशाख्य माना गया है। सन 1862 में व्हिटनी द्वारा इसका संपादन होकर, जर्नल ऑफ अमेरिकन ओरिएंटल सोसायटी के 7 वें खंड में यह प्रकाशित हुआ। व्हिट्नी की प्रति में शौनक का नाम निर्दिष्ट होने के कारण, उन्होंने इसे "शौनकीया चतुराध्यायिका" नाम से प्रकाशित किया। परंतु वाराणसेय संस्कृत विश्वविद्यालय तथा उज्जयिनी संग्रह में इसी ग्रंथ का नाम “कौत्सव्याकरण" मिलता है। इस कारण कौत्स को इस के रचयिता मानते हैं। चार अध्यायों में अन्य प्रातिशाख्यों के समान विषयों का प्रतिपादन इस में मिलता है।
अथर्ववेद प्रातिशाख्य- सन 1940 में डॉ. सूर्यकान्त शास्त्री द्वारा यह ग्रंथ प्रकाशित हुआ। इस ग्रंथ के लघु और बृहत् दो पाठ मिलते हैं। अन्य प्रातिशाख्यों में मिलनेवाले पारिभाषिक शब्दों का तथा शाकल्य के अतिरिक्त अन्य आचार्यों के नामों का निर्देश इस ग्रंथ में नहीं मिलता। अर्थवेद के मूल पाठ को निश्चित समझने में इन दोनों प्रातिशाख्यों से सहायता मिलती है।
6 व्याकरण वाङ्मय की रूपरेखा
"मुखं व्याकरणं स्मृतम्" इस वचन के अनुसार व्याकरण को वेदपुरुष का मुख अर्थात मुख्य अंग कहते है। भगवान पतंजलि कहते हैं कि- "प्रधानं हि षट्सु अंमेषु व्याकरणम्"- वेदों के छह अंगों में व्याकरण प्रधान अंग है।
गोपथब्राह्मण मुंडकोपनिषद्, रामायण, महाभारत जैसे प्राचीन ग्रंथों में शब्दशास्त्र के अर्थ में व्याकरण शब्द का प्रयोग
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किया है। पाणिनि के शब्दानुशासन में प्रयुक्त, धातु, प्रातिपदिक, नाम, विभक्ति, उपसर्ग, इत्यादि अनेक पारिभाषिक शब्द (संज्ञाएं) गोपथब्राह्मण, ऐतरेय ब्राह्मण जैसे वैदिक ग्रंथों में उपलब्ध होते हैं।
प्राचीन परंपरा के अनुसार व्याकरण के (और सभी शास्त्रों के) प्रथम प्रवक्ता थे ब्रह्मा। उनके बाद, बृहस्पति, इन्द्र, महेश्वर, इत्यादि प्राचीन वैयाकरण हुए। वेदों के शब्दों का आकलन अल्प प्रयत्न से हो सके इस उद्देश्य से व्याकरण की उत्पत्ति हुई। महाभाष्यकार पतंजलि व्दारा बताई गई एक जनश्रुति के अनुसार, एक बार देवों ने अपने अधिराजा इन्द्र से प्रार्थना की "वेद हमारी भाषा है। परंतु वह अव्याकृत अवस्था में होने के कारण, दुर्बोध हुई है। आप उसे व्याकृत करें। सर्व प्रथम इन्द्र ने यह कार्य किया। प्रत्येक पद का विभाजन कर, प्रकृति, प्रत्यय, विभागशः उन्होंने वेद की भाषा का "व्याकरण" किया। व्याकरण की उत्पत्तिविषयक इस जनश्रुति के अनुसार इन्द्र को ही आदि वैयाकरण माना जाता है। इन्द्र को यह ज्ञान बृहस्पति से प्राप्त हुआ था। इन्द्र द्वारा भरद्वाजादि ऋषियों ने इसका अध्ययन-अध्यापन किया।
____ अग्निपुराण के 349 से 359 तक के 11 अध्यायों में व्याकरण की उत्पत्ति की जानकारी दी है। तद्नुसार स्कन्द ने कात्यायन को यह ज्ञान सिखाया और आगे उसका ही प्रचार हुआ। स्कन्द के व्याकरण को ही "कौमार व्याकरण" कहते हैं।
वैदिक प्रातिशाख्यों में भी सन्धि, विश्लेष जैसे व्याकरण संबंधी विषयों की चर्चा होती है। वैसे अन्य एक वेदांग निरुक्त में भी वैदिक शब्दों के अर्थनिर्णय के लिए व्याकरण से संबंधित धातुओं का विचार होता है।
व्याकरण शास्त्र में दो प्राचीन संप्रदाय प्रसिद्ध हैं। एक ऐन्द्र और दूसरा माहेश्वर (अथवा शैव)। वर्तमान प्रसिद्धि के अनुसार कातन्त्र व्याकरण ऐन्द्र सम्प्रदाय का और पाणिनीय व्याकरण शैव सम्प्रदाय का माना जाता है।
व्याकरण शास्त्र के सर्वश्रेष्ठ मुनि पाणिनि ने अपने शास्त्र में दस प्राचीन आचार्यों का नामनिर्देश किया है। उनके अतिरिक्त अन्यत्र 15 आचार्यों का उल्लेख मिलता है। दस प्रातिशाख्य और सात अन्य वैदिक व्याकरण उपलब्ध हैं। इन प्रातिशाख्य आदि ग्रंथों में 59 प्राचीन व्यैयाकरण आचार्यों का उल्लेख मिलता है। यद्यपि प्रातिशाख्यों में शिक्षा और छंद वेदांगों का समावेश हुआ है, तथापि प्रातिशाख्यों को मूल वैदिक व्याकरण कहा जा सकता है। पाणिनि ने अपनी सुप्रसिद्ध अष्टाध्यायी में वैदिक
और लौकिक, दोनों प्रकार के शब्दों का विवेचन किया है। सामान्यतः विद्वत्समाज में "व्याकरणम् अष्टप्रभेदम्" - माना जाता है। इन आठ व्याकरणों के विषय में कुछ मतभेद हैं। पोरंतु बोपदेव कृत कविकल्पद्रुम के,
इन्द्रश्चन्द्रः काशकृत्स्नापिशली शाकटायनः । पाणिन्यमरजैनेन्द्राः जयन्त्यष्टादिशाब्दिकाः ।। इस सुप्रसिद्ध श्लोक में निर्दिष्ट इन्द्र, चन्द्र, काशकृत्स्र आपिशलि, शाकटायन आदि आठ आचार्यों को आदि शाब्दिक मानते हैं, और सामान्यतः इन्हीं के ग्रन्थों द्वारा प्रस्थापित आठ पृथक् संप्रदाय माने जाते हैं।
कुछ लोग पांच व्याकरण मानते हैं और उनमें सूत्रपाठ, धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ और लिङ्गानुशासन इन पांच अंगों का अन्तर्भाव करते हैं। अन्य मतानुसार वे पांच अंग हैं- पदच्छेद, समास, अनुवृत्ति, वृत्ति और उदाहरण।
आज तक जितने व्याकरणशास्त्र निर्माण हुए उनका विभाजन (1) छांदसमात्र प्रातिशाख्यादि, (2) लौकिकमात्र-कातन्त्रादि और लौकिक-वैदिक उभयविधं-आपिशल, पाणिनीय इत्यादि। इनमें लौकिक य्वाकरण के जितने ग्रंथ उपलब्ध हैं, वे सब पाणिनि के उत्तरकालीन हैं। पाणिनि ने अपने शब्दानुशासन में, आपिशल, काश्यप, गार्ग्य, गालव चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन इन दस वैयाकरणों का नामतः उल्लेख किया है, इससे इनकी इस शास्त्र में कितनी महान योग्यता थी इसका अनुमान किया जा सकता है। इन के अतिरिक्त महेश्वर, बृहस्पति, इन्द्र, वायु भरद्वाज, भागुरि, पौष्करसादि काशकृत्स्र, रौढि, चारायण, माध्यंदिनि, वैयाघ्रण, शौनकि, गौतम, शन्तनु, और व्याडि इन पंद्रह महत्त्वपूर्ण नामों का भी निर्देश अन्यत्र मिलता है। प्रातिशाख्यों के, शौनक, कात्यायन, वररुचि, आश्वलायन, शांखायन, चारायण इत्यादि नामों का उल्लेख प्रातिशाख्य वाङ्मय के परिचय में पहले आ चुका है। प्रातिशाख्य वाङ्मय में 59 वैदिक व्याकरण प्रवक्ताओं के नाम मिलते हैं। पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरण-सूत्रकार :सूत्रकार
सूत्रग्रंथ (1) कातंत्र कातंत्र
पाल्यकीर्ति चंद्रगोमी चान्द्र
(8) शिवस्वामी (3) क्षपणक
क्षपणक (9) भोजदेव
सरस्वतीकंठाभरण देवनन्दी
(10) बुद्धिसागर
बुद्धिसागर वामन विश्रान्त विद्याधर
हेमचंद्र
हैमव्याकरण अकलंक जैन शाकटायन
भद्रेश्वरसूरि
क्षपणक
काशकृत्स्र, We अनुमान किया जा सकता है। इन नामतः उल्लेख किया है, इससे इन
जैनेन्द्र
(11) (12)
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जौमर
(13) अनुभूतिस्वरूप
सारस्वत
(15) क्रमदीश्वर (14) बोपदेव मुग्धबोध (16) पद्मनाभ
सुपद्म इन वैयाकरणों का काल ई.पू. शती से ई. 14 वीं शती तक माना गया है।
पाणिनि का शब्दानुशासन न केवल व्याकरण विषय में ही अपि तु, संसार के समस्त वाङ्मय में एक अद्भुत कृति है। प्राचीन भारतीय वाङ्मयेतिहास की दृष्टि से वह अतिप्राचीन और अर्वाचीन काल को जोड़ने वाला महान सेतु है। भाष्यकार पतंजलि के मतानुसार, पाणिनीय सूत्रों में एक वर्ण भी निरर्थक नहीं हो सकता। वेदार्थज्ञान के लिए जिस स्वरज्ञान की अनिवार्य आवश्यकता होती है, उसकी पूर्तता पाणिनीय सूत्रों से होती है। पाणिनि ने केवल वैदिक स्वर विशेष के परिज्ञान के लिए 400 सूत्र रचे हैं। वेद के षडंगों में व्याकरण को वेदपुरुष का मुख (अर्थात् प्रमुख अंग) जिस कारण माना है, उसका साक्षात्कार पाणिनि के व्याकरण में यथार्थ रीति से होता है।
पाणिनि के काल के संबंध में मतभेद स्वाभाविक है। गोल्डस्ट्रकर, वेबर, कीथ आदि पाश्चात्य विद्वान ई.पू. 7 वीं से चौधी शती तक पाणिनि का आविर्भावकाल सिद्ध करते हैं। इस विषय में पाश्चात्य पंडितों द्वारा प्रस्तुत 7 प्रमाणों का खण्डन कर विख्यात वैयाकरण पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने किया है। उन्होंने वह कालमर्यादा महाभारत युद्ध से 200 वर्ष पश्चात् अर्थात् 2900 विक्रम पूर्व प्रतिपादित की है।
___ अष्टाध्यायी के वार्तिककार- संस्कृत वाङ्मय में वार्तिक नामक एक वाङ्मय प्रकार माना जा सकता है। वार्तिक का लक्षण है “उक्तानुक्तदुरुक्तचिन्ता'। पाणिनीय सूत्रों के भी उक्त, अनुक्त और दुरुक्त का, वार्तिकीय पद्धति के अनुसार, कई आचार्यो द्वारा चिन्तन हुआ। इस कार्य में कात्यायन का नाम अग्रगण्य है। भाष्यकार पतंजलि ने "प्रियतद्धिता हि दाक्षिणात्याः । यथा लोके वेदे च प्रयोक्तव्ये लौकिक-वैदिकेषु प्रयुज्जते।" इस वचन के अनुसार, अष्टाध्यायी के वार्तिककार कात्यायन को दाक्षिणात्य माना है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक, कात्यायन का काल विक्रमपूर्व 2900-3000 मानते हैं। कात्यायन के साथ, भारद्वाज, सुनाग, क्रोष्टा, वाडव, व्याघ्रभृति, और वैयाघ्रपद्य इत्यादि अन्य वार्तिककारों के नाम भी वार्तिककारों में मान्यताप्राप्त हैं।
व्याकरण वाङ्मय में पतंजलिकृत महाभाष्य अपने ढंग का एक अद्भुत ग्रंथ है। इस ग्रंथ में भगवान पतंजलि ने व्याकरण जैसे दुरूह और नीरस विषय को सरल और सरस किया है। सारे विद्वान इसकी, सरल, प्रांजल भाषा और रचना-सौष्ठव की मुक्तकंठ से प्रशंसा करते हैं। पाणिनीय व्याकरण का यह सर्वश्रेष्ठ प्रामाणिक ग्रंथ है। सूत्र, वार्तिक और महाभाष्य में जहां मतभेद उत्पन्न होता है वहां, "यथोत्तरं मुनींना प्रामाण्यम्" इस नागेश भट्ट के वचनानुसार, पंतजलि मुनि का ही मत ग्राह्य माना जाता है।
पाश्चात्य विद्वानों ने पतंजलि का काल ई. पू. दूसरी शती माना है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक पतंजलि को वि.पू. 2000 अथवा 1200 तक के मानते हैं।
पातंजल महाभाष्य पर भर्तृहरि कृत महाभाष्य-दीपिका, कैयटकृत महाभाष्यप्रदीप, पुरुषोत्तमदेवकृत प्राणपणा, वनेश्वरकृत चिन्तामणि, शेषनारायणकृत सूक्तिरत्नाकर, विष्णुमित्रकृत क्षीरोद, नीलकण्ठ वाजपेयी कृत भाष्यतत्त्वविवेक, शिवरामेन्द्र सरस्वतीकृत महाभाष्यरत्नाकर, तिरुमलयज्वाकृत अनुपदा, इत्यादि 20 व्याखाएं उपलब्ध हैं। इससे महाभाष्य की विद्वन्मान्यता व्यक्त होती है। इन टीका ग्रंथों में कैयटकृत “प्रदीप"- टीका पर भी अनेक टीकाएं लिखी गईं जिनमें नागेशभट्ट कृत "उद्योत" विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। ___पाणिनि की अष्टाध्यायी पर तीस से अधिक वृत्ति नामक ग्रंथ लिखे गए। उनमें जयादित्य और वामन की काशिका-वृत्ति विशेष प्रसिद्ध हैं। प्रस्तुत काशिकावृत्ति पर जिनेन्द्रबुद्धिकृत "न्यास" नामक व्याख्या भी विद्वन्मान्य है। इसके अतिरिक्त अनुन्यास और महान्यास नामक टीका भी काशिका पर उपलब्ध है।
ई. 16 वीं शताब्दी के बाद पाणिनीय व्याकरण की परंपरागत अध्ययन प्रणाली के स्थान पर कातन्त्र की प्रणाली के अनुसार, प्रक्रियानुसार अध्ययन की प्रणाली का प्रारंभ हुआ। इस पद्धति के अनुसार लिखे गए ग्रन्थों में धर्मकीर्ति कृत रूपावतार, रामचंद्र शेष कृत प्रक्रियाकौमुदी, भट्टोजी दीक्षित कृत सिद्धान्तकौमुदी और नारायण भट्ट (केरलवासी) कृत प्रक्रियासर्वस्व ये ग्रंथ विशेष प्रसिद्ध और प्रचलित हैं। रूपावतार, प्रक्रियाकौमुदी इत्यादि प्रक्रियाग्रंथों में अष्टाध्यायी के समस्त सूत्रों का अन्तर्भाव नहीं हुआ था। भट्टोजी दीक्षित के सिद्धान्त कौमुदी ने इस त्रुटि को समाप्त किया। उन्होंने स्वयं अपनी सिद्धान्तकौमुदी पर प्रौढ मनोरमा नामक व्याख्या लिखी।
इनके अतिरिक्त ज्ञानेन्द्र सरस्वतीकृत तत्त्वबोधिनी, नागेशभट्ट कृत बृहच्छब्देन्दुशेखर तथा लघुशब्देन्दुशेखर, रामकृष्णकृत रत्नाकर और वासुदेव वाजपेयीकृत बालमनोरमा इत्यादि टीका ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। बालमनोरमा अत्यंत सुबोध होने के कारण प्रौढ छात्रों के लिए विशेष उपादेय है।
व्याकरण के क्षेत्र में आचार्य भर्तृहरि (ई. 6 श.) कृत वाक्यपदीय ग्रन्थ का कार्य कुछ अनोखा है। इस ग्रंथ ने व्याकरण
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को दर्शन क्षेत्र में प्रविष्ट किया। भर्तृहरि शब्दाद्वैत के संस्थापक थे। उनकी दृष्टि में "स्फोट" ही एकमात्र परम तत्व है और यह जगत् उसी का विवर्त रूप है।
भट्टोजी दीक्षित की परम्परा में नागेश भट्ट (ई. 18 शती) का कार्य सर्वोच्च माना जा सकता है। इनका परिभाषेन्दुशेखर पाणिनि व्याकरण की परिभाषाओं का विवेचन करनेवाला सर्वमान्य ग्रंथ है। इनका शब्देन्दुशेखर, प्रौढमनोरमा की व्याख्या है। इन दो महत्वपूर्ण ग्रंथों के कारण "शेखरान्तं व्याकरणम्" यह सुभाषित रूढ हुआ। नागेश भट्ट (नागोजी) की लघुमंजूषा शब्द और अर्थ के सिद्धान्तों की मीमांसा करनेवाला, भर्तृहरि के वाक्पदीय की योग्यता का पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ है। इनके अतिरिक्त हरि दीक्षित (भट्टोजी के पौत्र) के लघुशब्दरत्न तथा बृहच्छद्वरत्न, वैद्यनाथ पायगुंडे के प्रभा, चिदस्थिमाला, गदा एवं छाया नामक टीकात्मक ग्रंथ, तर्कसंग्रहाकार अन्नंभट्ट के महाभाष्यप्रदीपोद्योतन, अष्टाध्यायीमिताक्षरा इत्यादि अर्वाचीन काल में निर्माण हुए व्याकरणशास्त्र विषयक ग्रंथ इस वेदाङ्गात्म शास्त्र का अखंड प्रवाह सिद्ध करते हैं। सिद्धान्त कौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित का अन्तर्भाव अर्वाचीन संस्कृत लेखकों में होता है। नव्य व्याकरण की परम्परा सिद्धान्तकौमुदी से मानी जाती है। उस युगप्रवर्तक ग्रंथ के पश्चात् निर्माण हुए सभी प्रौढ पाण्डित्यपूर्ण ग्रंथ अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय की प्रगल्भता के उत्कृष्ट प्रमाण कहे जा सकते हैं।
7 विविध व्याकरण संप्रदाय __ "व्याकरण' को मुख्य स्थान दिया गया। व्याकरण शब्द का प्रयोग गोपथब्राह्मण, मुण्डकोपनिषद्, रामायण, महाभारत इत्यादि प्राचीन ग्रंथों में हुआ है। प्राचीन परम्परा के अनुसार ब्रह्मा, बृहस्पति, इंद्र चंद्र, प्रजापति, त्वष्टा, वायु, भरद्वाज, काशकृत्स्र, कुमार, भागुरी, रौढि, माध्यन्दिनि, पौष्करसादि, व्याडि, शौनकि, गौतम, चारायण, वैयाघ्रपद्य इत्यादि व्याकरण शास्त्रज्ञों के नाम यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं। भगवान पाणिनि द्वारा इस क्षेत्र में जो कार्य हुआ, उसकी अलौकिकता के कारण व्याकरण का विभाजन (1) पाणिनि के पूर्वकालीन और (2) पाणिनि के उत्तरकालीन इन दो भागों में किया जाता है। स्वयं पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी के सूत्रों में उपरिनिर्दिष्ट नामावलि के अतिरिक्त आपिशति, काश्यप, गार्ग्य, गालव, चाक्रवर्मण, भारद्वाज, शाकटायन, शाकल्य, सेनक और स्फोटायन इन दस शाब्दिकों का उल्लेख किया है।
व्याकरण को एक वेदांग माने जाने के कारण, जिन प्रातिशाख्यों से वैदिक शब्दों का विचार प्रारंभ हुआ इसी को व्याकरण शास्त्र का मूलस्त्रोत माना जाता है। जिन पाणिनिपूर्व वैयाकरणों की नामावली उपर दी है उनके ग्रंथ तो उपलब्ध नहीं होते परंतु उनमें से अनेकों के वचन या मत यत्र तत्र मिलते है, जिनसे उनके विचारों की सूक्ष्मता का परिचय मिलता है।
"ऐन्द्र व्याकरण" ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख प्राचीन ग्रंथों में अनेकत्र मिलता है। जैन परंपरा के अनुसार ऐसी मान्यता है कि भगवान् महावीर ने इन्द्र के लिये शब्दानुशासन कहा। उसे उपाध्याय (लेखाचार्य) ने सुनकर लोक में “ऐन्द्र" नाम से प्रकट किया। जिनविजय उपाध्याय और लक्ष्मीवल्लभ मुनि जैसे कुछ जैन ग्रंथकारों ने जैनेन्द्र व्याकरण को ही “ऐन्द्र" व्याकरण बताने का प्रयत्न किया है।
वस्तुतः “ऐन्द्र" और "जैनेन्द्र" ये दोनों व्याकरण भिन्न हैं। जैनेन्द्र से अतिप्राचीन उल्लेख “ऐन्द्र व्याकरण" के संबंध में प्राप्त होते हैं। दुर्गाचार्य ने “निरुक्तवृत्ति" के प्रारंभ में ऐन्द्र व्याकरण का सूत्र निर्दिष्ट किया है। शाकटायन व्याकरण में ऐन्द्र व्याकरण का मत प्रदर्शन किया है। (चरक के व्याख्याता भट्टारक हरिश्चन्द्र ने ऐन्द्र व्याकरण का निर्देश किया है। दिगम्बर जैनाचार्य सोमदेव सूरि ने अपने "यशस्तिलकचम्पू" (आश्वास-1) में ऐन्द्र व्याकरण का उल्लेख किया है। डॉ. ए.सी. बर्नेल ने ऐन्द्र व्याकरणसे संबंधित चीनी, तिब्बतीय और भारतीय साहित्य के उल्लेखों का संग्रह कर “ऑन दी ऐन्द्र स्कूल ऑफ ग्रामेरियन्स" नामक ग्रंथ लिखा है । ऐन्द्र व्याकरण की रचना का समय ईसा पूर्व पांचवी-छठी शताब्दी माना जाता है परंतु वह व्याकरण अभी तक अप्राप्त है।
___"जैनेन्द्र व्याकरण" "सिस्टिम्स ऑफ संस्कृत ग्रामर" नामक अपने ग्रंथ में डॉ. बेलवलकर ने देवनन्दी नामक दिगम्बर जैनाचार्य को इस व्याकरण का प्रवर्तक कहा है। उन्होंने इस व्याकरण के दो उपलब्ध पाठों का उल्लेख किया है, जिनमें पाणिनीय व्याकरण का संक्षेप दिखाई देता है। बोपदेव ने जिन आठ प्राचीन शाब्दिकों (अर्थात वैयाकरणों का) निर्देश किया है उनमें जैनेन्द्र व्याकरण ही सर्वप्रथम माना गया है। इस व्याकरण में पांच अध्याय होने से इसे "पंचाध्यायी" भी कहते हैं। इसमें सिद्धान्त कौमुदी की तरह प्रकरण विभाग नहीं है। पाणिनि की तरह विधान क्रम को लक्ष्य कर इसमें सूत्रों की रचना की गई है। इसमें संज्ञाएं अल्पाक्षरी हैं और पाणिनीय व्याकरण के आधार पर ही इसकी रचना हुई है। परंतु यह केवल लौकिक व्याकरण है, जब कि पाणिनीय व्याकरण लौकिक और वैदिक दोनों प्रकार के शब्दप्रयोगों को लक्ष्य करता है। जैनेन्द्र व्याकरण में "छांदस (वैदिक) प्रयोग भी लौकिक मान कर सिद्ध किये गये हैं। जैनेन्द्र व्याकरण के दो सूत्रपाठ मिलते हैं, जिनमें प्राचीन सूत्रपाठ के 3000 सूत्र और संशोधित पाठ के 3700 सूत्र हैं। दोनों सूत्रपाठों पर भिन्न भित्र टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। इस व्याकरण पर देवनन्दी
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। पाणिनीय शब्दानश्चय के लिए भी प्रमाणभव बहीन अपि अनर्थकेन
इस
वासन न केवल वैदिक एवं
के मता
सस्कृति के विविध अंगों
का स्वोपज्ञ भाष्य होने के उल्लेख मिलते हैं, परंतु भाष्य ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जैनेन्द्र व्याकरण पर आधारित अभयनन्दीकृत महावृत्ति (12000 श्लोक परिमाण) प्रभाचंद्र (वि. 12 वीं शती) कृत शब्दाम्भोज-भास्करन्यास (16000 श्लोक परिमाण), महाचंद्रकृत "लघुजैनेन्द्र" (अभयनन्दीकृत महावृत्ति पर आधारित), गुणनन्दीकृत शब्दार्णव (जैनेन्द्र व्याकरण का परिवर्तित सूत्रपाठ), श्रुतकीर्तिकृत पंचवस्तुटीका, सोमदेवकृत शब्दार्णवचन्द्रिका, गुणनन्दीकृत शब्दार्णवप्रक्रिया, रत्नर्षिकृत (ई. 18 वीं शती) भगवद्वाग्वादिनी टीका, मेघविजयकृत (ई. 18 वीं शती) जैनेन्द्रव्याकरण वृत्ति, विजय विमलकृत अनिट्कारिकावचूरि, वंशीधरकृत जैनेन्द्रप्रक्रिया, नेमिचन्द्रकृत प्रक्रियावतार और राजकुमारकृत जैनेन्द्रलघुवृत्ति इत्यादि अनेक विवरणात्मक व्याकरणग्रंथों की रचना हुई है।
___ "शाकटायन व्याकरण" पाणिनी प्रभृति प्राचीन विद्वानों ने जिस शाकटायन का नामोल्लेख किया उनका व्याकरण आज उपलब्ध नहीं हैं परंतु आज जो शाकटायन व्याकरण उपलब्ध है, उसके निर्माता का वास्तविक नाम है पाल्यकीर्ति और उनके व्याकरण का नाम है शब्दानुशासन । इस तथाकथित शाकटायन व्याकरण में, पाणिनि की तरह विधानक्रम से सूत्ररचना की गई है। इस पर कातंत्र व्याकरण का प्रचुर प्रभाव है। ग्रंथ 4 अध्यायों तथा 16 पादों में विभक्त है। तात्पर्य यह है कि पाणिनि से पूर्वकालीन सांगोपांग कोई भी व्याकरण ग्रंथ उपलब्ध न होने के कारण और पाणिनि का ग्रंथ सर्वांग परिपूर्ण होने के कारण, वही संस्कृत व्याकरण शास्त्र का आद्य
और सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। समस्त संसार में किसी भी राष्ट्र के वाङ्मय में, इस प्रकार का और इस योग्यता का ग्रंथ अभी तक निर्माण नहीं हुआ। पाणिनीय शब्दानुशासन न केवल वैदिक एवं लौकिक शब्दों के यथार्थज्ञान के लिए अपि तु प्राचीन भारतीय संस्कृति के विविध अंगों के परिचय के लिए भी प्रमाणभूत महान आकर ग्रंथ है। व्याकरण भाष्यकार पतंजलि के मतानुसार पाणिनीय सूत्रों में एक भी वर्ण अनर्थक नहीं है ("तत्राशक्यं वर्णेन अपि अनर्थकेन भवितुम्) भारत में व्याकरण शास्त्र की प्रवृत्ति वैदिक शब्दों के अर्थनिर्धारण के निमित्त हुई। इस कार्य का प्रारंभ प्रातिशाख्यकारों द्वारा हुआ। प्रातिशाख्यों में वर्णसंधि आदि शब्दशास्त्र से संबंधित विषयों का विवेचन होने के कारण, व्यवहार में उन्हें "वैदिक व्याकरण" कहा जाता है। इस समय जो प्रातिशाख्य ग्रंथ उपलब्ध या ज्ञात हैं उनके नाम हैं : 1) ऋप्रातिशाख्य, 2) आश्वलायन प्रातिशाख्य, 3) बाष्कल प्रातिशाख्य, 4) शांखायन प्रा. 5) वाजसनेय प्रा. 6) तैत्तिरीय प्रा. 7) मैत्रायणीय प्रा. 8) चारायणीय प्रा. 9) साम प्रा. और अर्थव प्रा. इनमें से ऋप्रातिशाख्य निश्चय ही पाणिनि से प्राचीन है। प्रातिशाख्यों के अतिरिक्त, तत्सदृश जो अन्य वैदिक व्याकरण के ग्रंथ उपलब्ध हैं उनके नाम हैं : 1) ऋक्तन्त्र - शाकटायन या औदवजिद्वारा प्रणीत, 2) लघुऋक्तन्त्र 3) अथर्वचतुरध्यायी - शौनक अथवा कौत्सप्रणीत, 4) प्रतिज्ञासूत्र - कात्यायनकृत और 5) भाषिकसूत्र - कात्यायनकृत। इन वैदिक व्याकरण विषयक ग्रंथों में, अग्निवेश्य, इन्द्र, काश्यप, जातूकर्ण्य, भरद्वाज, शाकल्य, हारीत इत्यादि 50 से अधिक आचार्यों का नाम-निर्देश मिलता है, परंतु उनके ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। ये सारे नाम वैदिक व्याकरण की मात्र प्राचीनता के प्रमाण कहे जा सकते है।
व अष्टाध्यायी पाणिनीय शब्दानुशासन आठ अध्यायों में विभाजित होने के कारण "अष्टाध्यायी" नाम से सुप्रसिद्ध है। इन आठ अध्यायों का प्रत्येकशः चार पादों में विभाजन किया है। पादों की सूत्रसंख्या समान नहीं है। पाणिनीय सूत्रों के संज्ञा, परिभाषा, विधि, नियम और अतिदेश नामक पांच प्रकार होते हैं। अष्टाध्यायी के प्रथम व द्वितीय अध्याय में संज्ञा और परिभाषा के सूत्र हैं। तृतीय, चतुर्थ और पंचम अध्यायों में कृत् और तद्धित प्रत्ययों का निरूपण है। छठे अध्याय में द्वित्व, संप्रसारण, संधि, स्वर, आगम, लोप, दीर्घत्व आदि के सूत्र है। सातवें अध्याय में "अंगाधिकार" प्रकरण आया है। इस में प्रत्यय के कारण मूलशब्दों में तथा शब्द के कारण प्रत्ययों में संभाव्य परिवर्तन का विवरण किया है। और आठवें अंतिम अध्याय में द्वित्व, प्लुत, णत्व, षत्व इत्यादि का विवरण है। अष्टाध्यायी के, प्राच्य, उदीच्य और दाक्षिणात्य नामक तीन पाठ विद्वानों ने माने हैं, तथापि ढाई हजार वर्षों की प्रदीर्घ कालावधि में इस महनीय ग्रंथ का पाठ प्रायः अविकृत रहा है। अष्टाध्यायी के सूत्रों का अर्थ विशद करनेवली एक "वृत्ति" सूत्रों के साथ ही निर्माण हुई थी, अतः पतंजलि ने अष्टाध्यायी को ही "वृत्तिसूत्र नाम दिया है।"
वृत्तियां "सूचनात् सूत्रम्” इस वचन के अनुसार अल्पाक्षर सूत्रों का अभिप्राय विशद करनेवाले अनेक वृत्तिग्रंथ निर्माण हुए, जिनमें सूत्रों का पदच्छेद वाक्याध्याहार (पूर्व प्रकरणस्थ पदों की अनुवृत्ति एवं सूत्रबाह्य पद का योग) उदाहरण, प्रत्युदाहरण, पूर्वपक्ष और समाधान किया जाता है। इस प्रकार के वृत्तिग्रंथों की संख्या अल्प नहीं थी, परंतु उनमें जयादित्य और वामन (ई. 8 वीं शती) विरचित "काशिका" नामक वृत्ति अत्यंत महत्वपूर्ण है। इसमें बहुत से सूत्रों की वृत्तियां और उदाहरण, प्राचीन वृत्तियों से संग्रहित हैं। काशिकावृत्ति की सबसे प्राचीन व्याख्या जिनेन्द्रबुद्धि-विरचित काशिका-विवरणपंजिका है, जो "न्यास" नाम से व्याकरण वाङ्मय में प्रसिद्ध है। ई. 14 वीं शती में शरणदेव ने अष्टाध्यायीपर "दुर्घट" नामक वृत्ति लिखी है। संस्कृत भाषा के जो अनोखे शब्द व्याकरण से साधारणतया सिद्ध नहीं होते, उन बौद्ध ग्रंथों के शब्दों का साधुत्व सिद्ध करने का प्रयास,
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इस दुर्घटवृत्ति में किया गया है। शरणदेव बौद्ध मतानुयायी थे। इन वृत्तियों के अतिरिक्त भट्टोजी दीक्षित कृत शब्दकौस्तुभ (अपूर्ण), अणव्य दीक्षितकृत सूत्रप्रकाश, विश्वेश्वर सूरिकृत व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि तथा दानन्द सरस्वतीकृत अष्टाध्यायीभाष्य इत्यादि वृत्तिग्रंथ उल्लेखनीय हैं। पाणिनीय व्याकरण पर आचार्य व्याडि (अपर नाम दाक्षायण) ने संग्रह नामक ग्रंथ रचा था । पतंजलि कृत महाभाष्य, भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय की पुष्पराज तथा हेलाराजकृत टीका तथा जैनेन्द्रव्याकरण की महानन्दी टीका, इत्यादि ग्रंथों में इस व्याडिकृत संग्रह ग्रंथ के उद्धरण मिलते हैं, परंतु आज यह महत्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। पातंजल महाभाष्य का प्रचार होने के पूर्व, संग्रह ग्रंथ का ही अध्ययन प्रचलित था ।
8 पाणिनीय व्याकरण का विस्तार
"उक्त अनुक्त-दुरुक्त-चिन्ता वार्तिकम्' इस वचन के अनुसार, किसी महत्त्वपवपूर्ण ग्रंथ की चिकित्सा करनेवाले विद्वानों ने मूल ग्रन्थ के संबंध में जो टिप्पणात्मक पूरक वाक्य या श्लोक लिखे होते हैं उन्हें "वार्तिक" संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक इत्यादि प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। व्याकरण शास्त्र में "वृत्तेर्व्याख्यानं वार्तिकम्" अर्थात् पाणिनीय शब्दानुशासन की वृत्ति का व्याख्यान करनेवाले वचन 'वार्तिक' नाम से निर्देशित होते हैं। पातंजल महाभाष्य में भारद्वाज, क्रोष्टा, सुनाग, व्याघ्रभूति इत्यादि वार्तिककारों के साथ कात्यायन (या कात्य) का निर्देश हुआ है। किन्तु कात्यायन के वार्तिकपाठ का ही परामर्श प्राधान्य से किया गया है। पतंजलि के मतानुसार वार्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य था। कुछ विद्वान उसे पाणिनि का साक्षात् शिष्य मानते हैं । कात्यायन का वार्तिकपाठ स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं होता। वह पाणिनीय व्याकरण का ही पूरक अंग होने के कारण सूत्रों में ही ग्रथित हुआ है। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण का सर्वंकष ज्ञान नहीं हो सकता ।
पातंजल महाभाष्य
संस्कृत वाङ्मय में अनेक शास्त्रों के पांडित्यपूर्ण भाष्य ग्रंथ निर्माण हुए। पाणिनीय व्याकरण पर विवेचन करने वाले अनेक ग्रंथों का परामर्श लेते हुए पतंजलि ने अपना व्याकरण - महाभाष्य लिखा । पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि व्याकरण शास्त्र के "त्रिमुनि" (या मुनित्रय) माने जाते हैं। शब्दापशब्द का विवेक करते समय "यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" याने सूत्रकार पाणिनि से वार्तिकार कात्यायन प्रमाण, और कात्यायन से भी उतरकालीन ग्रंथकार होने के कारण, भाष्यकार पतंजलि मुनि के मत परम प्रमाण माने जाते हैं। पतंजलि को शुंगवंशीय महाराजा पुष्यमित्र का समकालिक माना जाता है। अतः ई.पू. द्वितीय शती में पतंजलि का आविर्भाव विद्वान मानते है । युधिष्ठिर मीमांसक पतंजलि को विक्रम पूर्व 1200 से पूर्वकालिक मानते हैं। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, शेषराज, चूर्णिकार इत्यादि नामों से पतंजलि का निर्देश मिलता है। संस्कृत वाङ्मय में पतंजलि के नामपर तीन ग्रंथ प्रसिद्ध है। 1) सामवेदीय निदानसूत्र, 2) योगसूत्र और 3) व्याकरण महाभाष्य ।
"योगेन चित्तस्य, पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलिनतोऽस्मि ।।"
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ग्रंथ
रूपावतार
प्रक्रियाकौमी
सिद्धान्तकौमुदी
यह श्लोक वैयाकरणों की परंपरा में प्रसिद्ध है। इसके अनुसार वैद्यक, योग तथा व्याकरण इन तीनों के अधिकारी लेखक पतंजलि मुनि, एक ही व्यक्ति माने गये हैं। सभी शास्त्रीय विषयों के समान, व्याकरण विषयक ग्रंथों की शैली प्रायः शुष्क, नीरस होती है, परंतु पातंजल महाभाष्य इस दृष्टि से अपवाद है। भाषा की सरलता, प्रांजलता, स्वाभाविकता, विषय प्रतिपादन शैली की उत्कृष्टता, वाक्यों की असामासिकता, तथा लघुता के कारण, इस भाष्य की भूरि भूरि प्रशंसा सभी विद्वान करते हैं। व्याकरण महाभाष्य पर भर्तृहरिकृत महाभाष्य-प्रदीपिका और कैयटकृत प्रदीप नामक दो टीका ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। कैयटकृत प्रदीप टीका के असाधारण महत्त्व के कारण उस पर रामानंद सरस्वती, ईश्वरानंद सरस्वती, अन्नंभट्ट, नागेशभट्ट इत्यादि 14 विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे हैं । पाणिनि का व्याकरण सूत्रात्मक तथा उसकी अपनी प्रतिपादन शैली कुछ जटिल सी होने के कारण, केवल लौकिक शब्दों की सिद्धि के विषय में जिज्ञासा रखनेवालों के लिए "प्रक्रियानुसारी" व्याकरण ग्रन्थों की आवशक्यता निर्माण हुई। यह आवश्यकता कुछ समय तक कातंत्र आदि प्रक्रियानुसारी अन्य व्याकरणों के द्वारा निभाई जाती थी। ई. 15-16 वीं शती से पाणिनीय व्याकरण का सूत्रपाठ के क्रमानुसार अध्ययन खंडित होकर, प्रक्रियापद्धति के अनुसार, सर्वत्र होने लगा। अष्टाध्यायी पर आधारित तीन महत्त्वपूर्ण प्रक्रियानुसारी ग्रंथ लिखे गये
-
ग्रंथकार धर्मकीर्ति
रामचंद्र (ई. 14 वीं शती)
भट्टोजी दीक्षित (ई- 16-17 वीं शती)
भट्टोजी दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी में व्याकरण की प्रक्रियापद्धति परिपूर्ण रूप से प्रकट हुई। इस ग्रंथ के पूर्व भाग में
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 49
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लौकिक शब्दों का अनुशासन तथा उत्तरभाग में वैदिक शब्दों का अनुशासन सुव्यवस्थित पद्धति से किया गया है । अतः यह ग्रंथ व्याकरण समाज में महाभाष्य से भी उपादेय माना गया।
"कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः । कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः ।। "
यह सुप्रसिद्ध सुभाषित इस ग्रंथ की महनीयता का एक प्रमाण कहा जा सकता है। प्रक्रियाकौमुदी तथा सिद्धान्तकौमुदी पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। भट्टोजी ने स्वयं अपनी सिद्धान्तकौमुदी पर प्रौढमनोरमा नामक टीका लिखी, जिसमें उन्होंने प्रक्रियाकौमुदी और उसकी टीकाओं का स्थान स्थान पर खंडन किया है। भट्टोजी की प्रौढमनोरमा पर उन के पौत्र हरि दीक्षित ने बृहच्छन्दर और लघुशब्दरत्न नामक दो व्याख्याएँ लिखी हैं अन्य टीकाओं में ज्ञानेन्द्र सरस्वती की तत्वबोधिनी, नागेशभट्ट कृत बृहच्छब्देन्दुशेखर एवं लघुशब्देन्दुशेखर और वासुदेव वाजपेयी की बालमनोरमा विशेष उल्लेखनीय है पंडितराज जगन्नाथ ने भट्टोजी की प्रौढमनोरमा टीका के खंडनार्थ "कुचमर्दिनी" नामक टीका लिखी है। ई-18 वीं शती में केरल निवासी नारायण भट्ट ने प्रक्रिया सर्वस्व नामक प्रक्रिया ग्रंथ लिखा है। इसके 20 प्रकरणों में सिद्धान्तकौमुदी से भिन्न क्रमानुसार विषय प्रतिपादन किया है। इन सुप्रसिद्ध प्रक्रिया ग्रंथों के अतिरिक्त लघु सिद्धान्तकौमुदी, मध्यकौमुदी जैसे छात्रोपयोगी प्रक्रिया ग्रंथ निर्माण हुए जिनके अध्ययन से पाणिनीय व्याकरण का परिचय आज भी छात्रों को सर्वत्र दिया जाता है। 9 "पाणिनीयेतर व्याकरण ग्रंथ"
संस्कृत व्याकरण शास्त्र की परंपरा में पाणिनीय व्याकरण का सार्वभौम अधिराज्य निर्विवाद है। परंतु इस के अतिरिक्त अन्य कुछ व्याकरण संप्रदाय भी पाणिनि के पश्चात् निर्माण हुए जिनमें केवल लौकिक संस्कृत भाषा के शब्दों का अनुशासन किया गया है। इस पाणिनीतर व्याकरण वाङ्मय में, कातन्त्र व्याकरण का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस के अपर
नाम हैं कलापक और कौमार । कातन्त्र शब्द का अर्थ, दुर्गासिंह आदि वैयाकरणों ने लघुतन्त्र किया है, और "कौमार" शब्द का अर्थ कुमारों (बालको) का, अर्थात् यह बालोपयोगी व्याकरण है पुराण परंपरावादियों के अनुसार, कुमार कार्तिकेय की आज्ञा से किसी शर्ववर्मा द्वारा इस व्याकरण की रचना मानी जाती है। काशकृत्स्त्र के धातुपाठ और उपलब्ध सूत्रों से कातंत्रधातुपाठ तथा सूत्रों की तुलना से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कातन्त्र एक काशकृत्स्रतंत्र का ही संक्षेप है। इस का लेखक कथासरित्सागर और दुर्गासिंह (कातन्त्रवृत्ति टीकाकार) के अनुसार कोई शर्ववर्मा था जिसने आख्यातान्त भागोंकी रचना की और बाद के कृदन्त भागों की रचना किसी कात्यायन ने की। श्रीपतिदत्त ने कातन्त्र परिशिष्ट लिख कर यह व्याकरण पूरा किया। अंत में किसी विजयानन्द ( नामान्तर विद्यानन्द) ने कातन्त्रोत्तर नाम का ग्रंथ लिखा। पाणिनीय व्याकरण के समान ही कातन्त्र व्याकरण का प्रचार सर्वत्र (विशेष कर बंगाल और मारवाड में) अधिक मात्रा में रहा। भारत के बाहर मध्य एशिया में भी इसके अस्तित्व का प्रमाण उपलब्ध हुआ है। कातन्त्र व्याकरण पर शर्ववर्मा, वररुचि और दुर्गासिंह की वृत्तियों के उल्लेख मिलते हैं। दुर्गासिंह की वृत्तिपर दुर्गासिंह (9 वीं शती), उग्रभूति (11 वीं शती) त्रिलोचनदास, वर्धमान (12 वीं शती), पृथ्वीधर, उमापति (13 वीं शती), जिनप्रभसूरि (14 वीं शती) चारित्रसिंह, जगध्दर (मालतीमाधव के टीकाकार) और पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (ई. 15 वीं शती) इत्यादि विद्वानों द्वारा टीका ग्रंथ लिखे गये हैं।
"चान्द्र व्याकरण"
काश्मीर के नृपति अभिमन्यु के आदेश पर चन्द्राचार्य ने व्याकरण महाभाष्य का प्रचार करते हुए नये व्याकरण की रचना की। इस व्याकरण के मंगलाचरण - श्लोक से ज्ञात होता है कि लेखक चन्द्राचार्य या चन्द्रगोमी बौद्ध मतानुयायी थे। चांद्र व्याकरण और धातुपाठ का प्रथम मुद्रण जर्मनी में हुआ। यह व्याकरण पाणिनीय तंत्र की अपेक्षा लघु, विस्पष्ट और कातंत्र आदि की अपेक्षा संपूर्ण है। महाभाष्य का प्रभाव इसमें विशेष दिखाई देता है। इस में पाणिनीय तंत्र का स्वरप्रक्रिया निदर्शक भाग नहीं है। अंतिम सप्तम और अष्टम अध्याय अप्राप्त हैं, जिनमें वैदिकी स्वरप्रक्रिया का प्रतिपादन होने की संभावना, युधिष्ठिर मीमांसकजी ने सिद्ध की है । चान्द्र व्याकरण पर धर्मदास द्वारा लिखी हुई वृत्ति का मुद्रण, रोमन अक्षरों में जर्मनी में हुआ है। बौद्ध भिक्षु कश्यप ने चान्द्र सूत्रों पर बालबोधिनी नामक लघुवृत्ति, ई-14 वीं शती में लिखी यह वृत्ति लघुकौमुदी के समान सुबोध है। चान्द्र व्याकरण से संबंधित धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र लिंगानुशासन, उपसर्गवृत्ति, शिक्षा और सूत्रकोष निर्माण हुए थे, जिन के उद्धरण मात्र यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं।
"सरस्वती - कण्ठाभरण"
संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में परमारवंशीय धाराधीश्वर महाराजा भोज (ई. 12 वीं शती) का नाम अत्यंत सुप्रसिद्ध है । उनकी विद्वत्ता, रसिकता एवं उदारता का परिचय देने वाली अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। भोजराजा ने सरस्वतीकण्ठाभरण नाम के दो ग्रंथ रचे थे- एक अलंकार - विषयक और दूसरा व्याकरण-विषयक, जिसका अपर नाम है शब्दानुशासन । इस शब्दानुशासन में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद तथा सूत्रों की कुल संख्या 6411 है। प्रारंभिक सात अध्यायों में लौकिक
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शब्दों का और अंतिम आठवे अध्याय में वैदिक शब्दों एवं स्वरों का प्रतिपादन है। इस शब्दानुशासन में पाणिनीय और चान्द्र व्याकरणों का अनुसरण हुआ है। इस ग्रंथ पर भोज की स्वकृत व्याख्या के प्रमाण मिलते हैं, उसके अतिरिक्त दण्डनाथ नारायणभट्ट की हृदय-हारिणी, कृष्णलीलाशुक (ई. 13 वीं शती) की “पुरुषकार" और रामसिंह की रत्नदर्पक नामक व्याख्याएं लिखी गई हैं।
"हैम शब्दानुशासन" । श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में आचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई. 13 वीं शती) का नाम उनकी ग्रंथसंपदा के कारण विख्यात है। सर्वतोमुखी पांडित्य के कारण "कालिकालसर्वज्ञ' उपाधि उन्हें प्राप्त हुई थी। गुजरात में महाराजा सिद्धराज (अपरनाम-जयसिंह) के आदेश से इन्होंने शब्दानुशासन की रचना की, जो हैम शब्दानुशासन नाम से प्रसिद्ध है। यह संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का व्याकरण है। प्रारंभिक 7 अध्यायों के 28 पादों में (सूत्रसंख्या- 3566) संस्कृत भाषा के और अंतिम आठवें अध्याय में (सूत्रसंख्या- 1119), - प्राकृत (शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची, और अपभ्रंश इत्यादि) भाषाओं के शब्दों का विवेचन किया है। प्राकृत भाषाओं को व्याकरणबद्ध करने कार्य सर्वप्रथम हेमचन्द्राचार्य ने ही किया। इस शब्दानुशासन में कातंत्र व्याकरण का अनुसरण हुआ है। इसमें यथाक्रम संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि, नाम, कारक, षत्व णत्व, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित विषयक प्रकरण हैं। अपने इस ग्रंथ पर हेमचंद्र ने बालकों के लिए लध्वी, मध्यम बुद्धिवालों के लिए मध्यमा, और कुशाग्र बुद्धिमानों के लिये बृहती इस प्रकार तीन वृत्तियाँ लिखी, जिनकी श्लोकसंख्या बहुत बडी है। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण पर 90 सहस्त्र श्लोकपरिमाण का "शब्दमहार्णवन्यास" या बृहन्न्यास नाम का विवरण लिखा था। इसके अतिरिक्त देवेन्द्र सूरिकृत हेमलघुन्यास, विनयविजयगणिकृत हैमलघुप्रक्रिया, मेघविजयकृत, हैमकौमुदी इत्यादि टीकाग्रंथ लिखे गये, जो अभी तक दुष्प्राप्य हैं।
ई. 14 वीं शती में क्रमदीश्वरने संक्षिप्तसार नामक व्याकरण लिखा। यह सम्प्रति उसके परिष्कर्ता जुमरनन्दी के नाम पर जौमर व्याकरण नाम से विदित है। ई. 14 वीं शती में सारस्वत सूत्रों की रचना हुई। उसके रचयिता नरेन्द्रचार्य और परिष्कर्ता थे अनुभूतिस्वरूपाचार्य। इस सारस्वत व्याकरण पर, क्षेमेन्द्र (काश्मोरी क्षेमेन्द्र से भिन्न), धनेश्वर, अमृतभारती, सत्यप्रबोध, माधव, चन्द्रकीर्ति जैनाचार्य, रघुनाथ, (भट्टोजी दीक्षित के शिष्य) मेघरत्न, मण्डन, वासुदेव-भट्ट आदि 18 विद्वानों ने व्याख्याएं लिखी, जो प्रायः अमुद्रित हैं। इन व्याख्याओं के अतिरिक्त तर्कतिलक भट्टाचार्य, रामाश्रय आदि वैयाकरणों ने सारस्वत व्याकरण को रूपांतर में प्रस्तुत किया है।।
___ देवगिरि (महाराष्ट्र) में ई. 15 वीं शती के सुप्रसिद्ध हेमाद्रि (या हेमाडपंत) नामक अमात्य के आश्रित बोपदेव ने मुग्धबोध नामक बालोपयोगी व्याकरण की रचना की। बोपदेव ने कविकल्पद्रुम नाम से धातुपाठ का संग्रह किया और उस पर कामधेनु नामक टीका भी लिखी है। मुग्धबोध व्याकरण पर नन्दकिशोर भट्ट, विद्यानिवास, दुर्गादास विद्यावागीश (ई. 17 वीं शती), आदि 16 वैयाकरणों ने टीकाएँ लिखी हैं।
प्रस्तुत प्रकरण के प्रारंभ में जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरणों का यथोचित परिचय दिया गया है। इन महत्त्वपूर्ण व्याकरणों के अतिरिक्त पद्मनाथ दत्त (ई. 15 वीं शती) का सुपद्मव्याकरण, शुभचन्द्र का चिन्तामणि व्याकरण, भरतसेन का द्रुतबोध, रामकिंकर का आशुबोध, रामेश्वरी का शुद्धाशुबोध, शिवप्रसाद का शीघ्रबोध, काशीश्वर का ज्ञानामृत, रूपगोस्वामी और जीवगोस्वामी का हरिनामामृत, बालराम पंचानन का प्रबोधप्रकाश, इत्यादि सामान्य श्रेणी के व्याकरण ग्रंथ और संप्रदाय निर्माण होने पर भी, पाणिनीय व्याकरण का प्रभाव आज तक अबाधित है।
10 "धातुपाठ" वैयाकरण समाज में "पंचांग व्याकरण" यह शब्दप्रयोग होता है। वे पांच अंग हैं- 1) सूत्रपाठ 2) धातुपाठ 3) गणपाठ 4) उणादिपाठ और 5) लिंगानुशासन । मुख्य सूत्रपाठ को ही शब्दानुशासन कहते हैं। अवशिष्ट चार अंग, शब्दानुशासन के "खिल" या परिशिष्ट माने जाते हैं। इन चारों खिलपाठों का सूत्रपाठ से निकट संबंध है और व्याकरण शास्त्र के सर्वकष ज्ञान के लिये उनका आकलन होना भी आवश्यक है। उत्तरकालीन वैयाकरणों ने परिभाषापाठ नामक और भी एक अंग विकसित किया है।
प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञों में निरुक्तकार एवं शाकटायन जैसे वैयाकरण संपूर्ण नाम शब्दों को आख्यातजन्य (अथवा धातुजन्य) मानते थे। “नामानि आख्यातजानि" अथवा "नाम च धातुजम्" इस सिद्धान्त की प्रायः सर्वमान्यता के कारण, सभी वैयाकरणों ने अपने अपने शब्दानुशासनों से संबंद्ध धातुपाठों की रचना की। पाणिनि से पूर्ववर्ती 26 शब्दानुशासनकारों में से काशकृत्स्र का धातुपाठ चन्नवीर कवि की कन्नड टीका के साथ युधिष्ठिर मीमांसकजी ने प्रकाशित किया है। अन्य विद्वानों के धातुपाठों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं, परंतु वे धातुपाठ उपलब्ध नहीं हैं।
संपूर्ण व्याकरण संप्रदायों में पाणिनीय व्याकरण अपने पांचों अंगों से परिपूर्ण है। आज जो पाणिनीय धातुपाठ उपलब्ध है, उसे काशिका वृत्ति के व्याख्याता जिनेन्द्रबुद्धि ने. अन्यकर्तृक कहा है (अन्यो गणकारः अन्यश्च सूत्रकारः) परंतु युधिष्ठिर
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पंथ
मीमांसकजी ने अनेक प्रमाणों से उस विधान का खंडन कर, सूत्रपाठ के समान धातुपाठ भी पाणिनिकृत सिद्ध किया है। नागेश भट्ट के मतानुसार, धातुपाठ में अर्थनिर्देश भीमसेन ने किया है। इस मत की भी अयथार्थता युधिष्ठिरजी ने अपने संस्कृत व्याकरण शास्त्र के इतिहास में सप्रमाण में सिद्ध की है। पाणिनीय सूत्र पाठ के समान धातुपाठ में भी पूर्ववर्ती आचार्यों का अंश लिया गया है। पाणिनीय धातुपाठ से संबंधित अनेक व्याख्याग्रंथ निर्माण हुए। उनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथ तथा ग्रंथकारों की सूची प्रस्तुत है :
ग्रंथकार आख्यातचंद्रिका
भट्टमल्ल कविरहस्य
हलायुध क्रियाकलाप
विजयानन्द क्रियापर्यायदीपिका
वीरपांडव क्रियाकोश (आख्यातचंद्रिका का संक्षेप)
रामचन्द्र प्रयुक्ताख्यात-मंजरी
सारंग क्रियारत्न समुच्चय (हैमधातुपाठ की व्याख्या)
दशबल (अपरनाम-वरदराज) पाणिनीय धातुपाठ पर भीमसेन, क्षीरस्वामी, मैत्रेयरक्षित, हरियोगी, देव, सायणाचार्य आदि विद्वानों ने व्याख्याएँ लिखी हैं। इनके अतिरिक्त धर्मकीर्तिकृत रूपावतार, विमलसरस्वतीकृत रूपमाला, रामचन्द्रकृत प्रक्रियाकौमुदी, भट्टोजी दीक्षितकृत सिद्धान्तकौमुदी, और नारायण भट्टकृत प्रक्रिया-सर्वस्व इन प्रक्रिया ग्रन्थों में पाणिनीय धातुपाठ की धातुओं का प्रसंगतः व्याख्यान हुआ है।
पाणिनि के उत्तरकालीन व्याकरणकारों ने भी अपने निजी धातुपाठ लिखे हैं। इनमें कातंत्र (या कालाप और कौमार) व्याकरण का जो पृथक् धातुपाठ है, उसपर दुर्ग, मैत्रेय, रमानाथ इत्यादि वैयाकरणों ने वृत्तियाँ लिखी हैं। चन्द्रगोमि-प्रोक्त चान्द्र व्याकरण का धातुपाठ, ब्रूनो लिबिश ने चान्द्र व्याकरण के साथ प्रकाशित किया है। आचार्य देवनन्दी के जैनेन्द्र व्याकरण एवं जैनेन्द्र धातुपाठ का संशोधन, गुणनन्दी ने किया, जो उनके शब्दार्णव के अन्त में छपा हुआ है। आचार्य श्रुतकीर्ति ने जैनेन्द्र व्याकरण पर पंचवस्तु नामक प्रक्रियाग्रंथ लिखा, जिसके अन्तर्गत जैनेन्द्र धातुपाठ का भी व्याख्यान है। आचार्य पाल्यकीर्ति के द्वारा शाकटायन व्याकरण के धातुपाठ पर लिखे गए व्याख्याग्रंथ अप्राप्य हैं। हेमचंद्र सूरि ने अपने हैम व्याकरण से संबंद्ध सभी अंगों का प्रवचन किया। उसके अन्तर्गत धातुपाठ का भी प्रवचन है। यह हैम धातुपाठ काशकृत्स्र-धातुपाठ सदृश है। हर्षकुलगणि (ई. 16 वीं शती) ने हैम धातुपाठ का कविकल्पद्रुम नाम से पद्यबद्य रूपांतर किया और उस पर धातुचिन्तामणि नाम की टीका भी लिखी है। इसके अतिरिक्त हैम धातुपाठ पर गुणरत्न सूरि की क्रियारत्न-समुच्चय और जयवीर गणि की अवचूरि व्याख्या उपलब्ध हैं। इनके अतिरिक्त मलयगिरि, क्रमदीश्वर, सारस्वत, बोपदेव और पद्मनाभदत्त इनके शब्दानुशासनों के अपने अपने धातुपाठ हैं और उनपर कतिपय विद्वानों के व्याख्या ग्रंथ लिखे गये हैं। बोपदेव का धातुपाठ पद्यबद्ध है और वह कविकल्पद्रुम नाम से प्रसिद्ध है।
"गणपाठ" गणपाठ नामक व्याकरणांग में विशिष्ट क्रमानुसार या गणानुसार शब्दों का संकलन होता है। सामान्य अर्थ में धातुपाठ का निर्देश भी गणपाठ शब्द से हो सकता है, परंतु व्याकरण सम्प्रदाय में 'गणपाठ' शब्द से केवल प्रतिपादिक शब्दों के समूहों का संकलन निर्देशित होता है। इसमें गणपाठात्मक शास्त्रकारों ने शास्त्र का संक्षेप करने की प्रथा शुरु की। पाणिनि के पूर्वकालीन
और उत्तरकालीन गणपाठ प्रसिद्ध हैं। पाणिनि के गणपाठ पर यज्ञेश्वर भट्ट नामक आधुनिक वैयाकरण की गणरत्नावलि नामक व्याख्या विशेष उल्लेखनीय है। इस में व्याख्याकार ने गणरत्नमहोदधि का अनुकरण करते हुये पहले गणशब्दों को श्लोकबद्ध किया और पश्चात् उनकी व्याख्या की है। चंद्रगोमी के चान्द्र व्याकरण का जो गणपाठ है उसकी वृत्ति स्वयं लेखक ने लिखी है। पाल्यकीर्ति के शाकटायन व्याकरण के गणपाठ में अनेक गणों के पुराने दीर्घ नामों के स्थान पर लघु नामों का निर्देश किया है। उसी प्रकार पाणिनि के अनेक गणों को परस्पर मिला कर लाघव करने का प्रयास किया है। महाराजा भोज ने अपने गणपाठ को सूत्रपाठ में ही अन्तर्भूत किया है, और प्राचीन आचार्यों के द्वारा आकृतिगण रूप से निर्दिष्ट गणों में समाविष्ट होने वाले अनेक शब्दों का यथासंभव संकलन किया है। भोज ने पूर्व वैयाकरणों द्वारा अपठित कतिपय नवीन गणों का भी पाठ किया है। आचार्य हेमचन्द्र का गणपाठ उसकी स्वोपज्ञ बृहद्वृत्ति में उपलब्ध होता है। इसमें हेमचन्द्र ने पाल्यकीर्ति के शब्दानुशासन
और उसकी अमोघावृत्ति का अत्यधिक अनुकरण किया है और गणपाठ के अन्यान्य गणों में, पूर्वाचार्यों द्वारा स्वीकृत प्रायः सभी पाठान्तरों का अपने गणपाठ में संग्रह किया है।
गणकारों में वर्धमान (ई. 13 वीं शती) का कार्य अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। उसने व्याकरण से संबंधित गणपाठ का श्लोकबद्ध संकलन एवं उसकी गणरत्न-महोदधि नामक सविस्तर व्याख्या लिखी है, जिसमें पूर्ववर्ती पाणिनि, चंद्रगोमी, जिनेन्द्रबुद्धि, पाल्यकीर्ति,
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हेमचंद्र प्रभृति सोलह वैयाकरणों द्वारा प्रस्तुत पाठभेदों अथवा मतों का परामर्श किया है। सर्वसंग्राहकता के कारण गणरत्न-महोदधि गणपाठ विषयक एक सर्वोत्कृष्ट ग्रंथ माना जाता है। जौमर व्याकरण के गणपाठ पर न्यायपंचानन ने गणप्रकाश नामक टीका लिखी है। इन महत्त्वपूर्ण गणपाठों के अतिरिक्त जौमर, सारस्वत, मुग्धबोध, सौपद्म, इन व्याकरणों से संबद्ध तथा अन्य भी गणपाठ व्याकरण वाङ्मय में विद्यमान हैं।
11 "उणादि सूत्र" व्याकरण के पांच अंगों में उणादि सूत्रपाठ चौथा अंग है। संस्कृत के भाषाशास्त्र में, जिन शब्दों में धात्वर्थ का अनुमान प्रतीत होता है, उन शब्दों को यौगिक मानते हैं। जिनमें धात्वर्थानुगमन प्रतीत होने पर भी, किसी विशिष्ट अर्थ की प्रतीति होती है, वे योगरूढ कहे जाते हैं और जिन शब्दों में धात्वर्थ का अनुगमन प्रतीत नहीं होता वे रूढ माने जाते हैं। यास्काचार्य और शाकटायन के मतानुसार सभी संस्कृत शब्द धातुज हैं। कोई भी शब्द रूढ नहीं। इस मत का प्रतिवाद भी कुछ वैयाकरणों ने किया। विवादास्पद शब्दों का धातुजत्व सिद्ध करने के लिये एक ऐसा मार्ग वैयाकरणों ने निकाला जिससे दोनों मतों का समन्वय हो सके। इसी प्रयत्न में उणादिपाठ का उदय हुआ। शब्दानुशासन के कृदन्त (कृत प्रत्ययान्त धातुज) शब्दों के प्रकरण के परिशिष्ट अंश को उणादि पाठ नाम दिया गया। उणादि सूत्रों द्वारा विवादास्पद शब्दों की, कृदन्त शब्दों के समान प्रकृति प्रत्ययात्मक व्युत्पत्ति दी गई और शब्दानुशासनान्तर्गत कृदन्त प्रकरण से उन्हें पृथक् कर, उनका रूढार्थ भी अभिव्यक्त किया गया। इसी कारण प्रायः सभी उणादि सूत्रों के व्याख्याकार औणदिक शब्दों को रूढ मानते हुए वर्णानुपूर्वी के परिज्ञान के लिये, उनमें प्रकृति प्रत्यय विभाग की कल्पना स्वीकार करते हैं।
संज्ञासु धातुरूपाणि प्रत्ययाश्च ततः परे। कार्याद् विद्यादनबन्धम् एतत् शास्त्रम् उणादिषु ।। अर्थात् किसी नाम शब्द में धातु का अंश देख कर उसके प्रत्यय की कल्पना करना और शब्द में गुण-वृध्दि इत्यादि देख कर उस प्रत्यय के अनुबन्ध की योजना करना; यही उणादि सूत्रों का तंत्र है। इस तंत्र के अनुसार पाणिनि से पूर्ववर्ती
आचार्यों के उणादि सूत्र उपलब्ध नहीं होते। पाणिनि ने "उणादयो बहुलम्" इस सूत्र से संकेतित उणादि प्रत्ययों के निदर्शन के लिये, किसी उणादि पाठ का प्रवचन किया होगा। पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा पंचपादी और दशपादी दोनों प्रकार के उणादि सूत्र समादृत हैं। इनमें से पंचपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता आदिशाब्दिक शाकटायन तथा पाणिनि भी माने जाते हैं। दशपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता के संबंध में भी विवाद है। प्रायः दोनों के प्रवक्ता पाणिनि को मानने के पक्ष में विद्वानों की अनुकूलता है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के विचार में पंचपादी उणादि सूत्र पाणिनिप्रोक्त हैं। पंचपादी उणादि की कुछ वृत्तियाँ उपलब्ध हैं। उनके सूत्रपाठ में अनेक प्रकार की विषमताएँ हैं। सूत्रों में न्यूनाधिकता और सूत्रगत पाठों में अंतर प्रचुर मात्रा में दिखाई देता है। अर्थात् अष्टध्यायी तथा धातुपाठ के समान पंचपादी उणादिपाठ के भी प्राच्य, औदीच्य और दाक्षिणात्य तीन पाठ होना संभव है।
दशपादी उणादि सूत्रों के प्रवक्ता ने पंचपादी पाठ के आधार पर ही अपनी रचना की है। पाणिनीय धातुपाठ में अनुपलब्ध अनेक धातुओं का निर्देश दशपादी में मिलता है। पंचपादी तथा दशपादी पर कुछ वृत्तिग्रंथ लिखे गए हैं। कातंत्र व्याकरण से संबंधित एक षट्पादी उणादिपाठ उपलब्ध होता है जिस पर कातंत्र व्याकरण के व्याख्याता दुर्गसिंह ने वृत्ति लिखी है। भोजदेव ने अपने व्याकरण से संबंधित उणादि सूत्रों का प्रवचन अपने सरस्वतीकण्ठाभरण व्याकरण के 1-2-3 पाठों में किया है। इस पर दण्डनाथ की व्याख्या मद्रास से पृथक् प्रकाशित हुई है। आचार्य हेमचंद्र ने अपने व्याकरण से संबद्ध उणादिपाठ लिखा
और उस पर स्वयं विवृति लिखी। हैम व्याकरण के उणादि सूत्रों की संख्या 1006 है और विवृत्ति का श्लोक-परिमाण 2400 है। इनके अतिरिक्त जौमर, सारस्वत और सुपद्म व्याकरण से संबंधित उणादि सूत्र भी वृत्तिसहित विद्यमान हैं।
लिंगानुशासन शब्दानुशासन में शब्दलिंग का ज्ञान आवश्यक माना जाता है। अतः लिंगानुशासन, शब्दानुशासन का एक अंग माना गया है। परंतु धातुपाठ, गणपाठ, उणादिपाठ के समान लिंगानुशासन व्याकरणशास्त्र के सूत्रों से संबद्ध नहीं है। व्याकरणों के प्रायः प्रत्येक प्रवक्ता ने स्वीय व्याकरण से संबद्ध लिंगानुशासन का प्रवचन किया है और हर्षवर्धन, वामन जैसे कुछ ऐसे भी ग्रंथकार हैं, जिन्होंने केवल लिंगानुशासन का ही प्रवचन किया। हर्षवर्धन का लिंगानुशासन जर्मन भावानुवाद सहित जर्मनी में मुद्रित हुआ है और व्याख्या तथा परिशिष्टों सहित इसका संस्करण मद्रास विश्वविद्यालय से प्रकाशित हुआ है। वामन के लिंगानुशासन में केवल 33 कारिकाएं हैं। पाल्यकीर्ति, हेमचन्द्र सूरि, पद्मनाथ आदि अन्य व्याकरणकारों के भी लिंगानुशासन विषयक संक्षिप्त ग्रंथ हैं।
12 परिभाषा संस्कृत शब्दानुशासनों से संबंधित, विविध परिभाषा संग्रह प्रसिद्ध हैं। ये परिभाषाएँ सूत्ररूप होती हैं जिनका कार्य कमरे में रखे हुए दीपक के समान होता है। जिस प्रकार प्रज्वलित दीपक सारे कक्ष को प्रकाशित करता है, उसी प्रकार परिभाषात्मक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 53
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सूत्रवचन सारे व्याकरणशास्त्र को प्रकाशित करता है। "परितो व्यापृतां भाषां परिभाषां प्रचक्षते'' इन शब्दों में परिभाषा शब्द का स्पष्टीकरण दिया जाता है। कुछ परिभाषाएं पाणिनीय आदि शास्त्रों के अन्तर्गत ही सूत्ररूप में होती हैं और अन्य कुछ परिभाषाएँ सूत्रपाठों से बाह्य होती हैं। सामान्यतः 1) ज्ञापित 2) न्यायसिद्ध और 3) वाचानक इन तीन प्रकार की परिभाषाएँ मानी गयी हैं। ज्ञापित परिभाषाएं वार्तिककार एवं भाष्यकार (पतंजलि) के वचनस्वरूप होती हैं। इनके अतिरिक्त कुछ परिभाषाओं का एक अंश सूत्रों द्वारा ज्ञापित होता है, और अवशिष्ट अंश लौकिक न्यायद्वारा अथवा पूर्वाचार्यों के वचन द्वारा पठित होता है। इस प्रकार की परिभाषा, “मिश्रित परिभाषा" कही जाती है।
परिभाषाओं के संबंध में वैयाकरणों का संकेत है कि व्याकरण सूत्रों के अनुसार शब्द की सिद्धि करते समय जहां विप्रतिपत्ति अर्थात् मतभेद निर्माण होते हैं, वहां शास्त्रीय कार्य को पूर्ति के लिए परिभाषा का आश्रय लेकर कार्यनिर्वाह किया जाता है। इसी दृष्टि से "अनियमप्रसंगे नियमकारिणी" यह परिभाषा की व्याख्या की गई है।
पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा स्वीकृत परिभाषाओं के विविध पाठ उपलब्ध होते हैं। 1) क्षीरदेवविरचित परभिाषावृत्ति में आश्रित 2) परिभाषेन्दुशेखर आदि में आश्रित और 3) पुरुषोत्तमदेवकृत परिभाषावृत्ति में उपलब्ध। इनमें संगृहीत परिभाषाओं की संख्या 93 से 140 तक मिलती है। सम्पति पाणिनीय वैयाकरणों द्वारा, नागेशभट्ट के परिभाषेन्दुशेखर में पठित 133 परिभाषाएँ प्रामाणिक मानी जाती हैं। पुणे निवासी काशीनाथ वासुदेव अभ्यंकर ने, सांप्रत उपलब्ध विविध परिभाषा पाठों तथा उनकी वृत्तियों का "परिभाषासंग्रह" किया, जिसका प्रकाशन भाण्डारकर प्राच्यविद्या संशोधन मंदिर द्वारा, सन् 1967 में हुआ है। परिभाषाओं के संबंध में ("व्याडिविरचित", "पाणिनिप्रोक्त” इत्यादि विशेषणों से) यह माना जाता है कि इनके मूल रचयिता व्याडि तथा पाणिनि रहे होंगे।
इन परभिाषा सूत्रों पर अनेक व्याख्या ग्रंथ लिखे गये, जिनमें विशेष उल्लेखनीय हैं : परिभाषावृत्ति - पुरुषोत्तम देव
परिभाषारत्न
- अप्पा सुधी - क्षीरदेव
परिभाषा-प्रदीपार्चि - उदयशंकर भट्ट. - नीलकण्ठ वाजपेयी
परिभाषेन्दुशेखर
- नागेश भट्ट परिभाषार्थसंग्रह - वैद्यनाथ शास्त्री
परिभाषा-भास्कर
- शेषद्रिनाथ सुधी परिभाषाभास्कर - हरिभास्कर अग्निहोत्री
सार्थपरिभाषापाठ - गमप्रसाद द्विवेदी प्राय इन सभी व्याख्याओं पर टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। परिभाषाओं के विवृत्ति पूरक ग्रंथों में, नागेशभट्ट कृत परिभाषेन्दुशेखर का विशेष स्थान है। इसी ग्रंथ का प्राधान्यतः सर्वत्र अध्ययन होता है और "शेखरान्तं व्याकरणम्" इस प्रसिद्ध वचन के अनुसार, पाणिनीय व्याकरण के अध्ययन- अध्यापन की परिसमाप्ति परिभाषेन्दुशेखर के अध्ययन समाप्त होने पर मानी जाती है। परिभाषेन्दुशेखर पर कुछ प्रसिद्ध टीकाएँ विद्यमान हैं:टीका
- लेखक गदा - वैद्यनाथ पायगुण्डे
त्रिपथगा - (1) राघवेन्द्राचार्य, (2) वेंकटेशपुत्र लक्ष्मीविलास - शिवराम
भैरवी - भैरव मिश्र चन्द्रिका - विश्वनाथ भट्ट
सर्वमंगल - शेष शर्मा चित्प्रभा - ब्रह्मानंद सरस्वती
शंकरी - शंकरभट्ट
नागपुर के न्यायाधीश रावबहादूर नारायण दाजीबा वाडेगावकर ने लिखी हुई परिभाषेन्दुशेखर की सविस्तर मराठी व्याख्या 1936 में प्रकाशित हुई। काशीनाथ शास्त्री अभ्यंकर के परिभाषासंग्रह में कातंत्र (कालाप), चान्द्र, जैनेन्द्र, शाकटायन, हैम, मुग्धबोध और सुपद्म इन व्याकरण संप्रदायों की परिभाषाओं का संकलन किया है। इन परिभाषाओं पर भी टीकाग्रंथ लिखे गये हैं।
शान्तनव शास्त्र पाणिनीय संप्रदाय में उणादि के समान फ्ट्सूित्र नामक एक संक्षिप्त शास्त्र है जिसके द्वारा शब्दों के प्रकृति-प्रत्यय विभाग के बिना, उन्हे अखण्ड मान कर उदात्तादि स्वरनिर्देश किया जाता है। रूढ शब्दों को पाणिनि अत्युत्पन्न मानते थे, परंतु स्वरप्रक्रिया की दृष्टि से उन्हें व्युत्पन्न ही मानते थे। इसी लिए उन्होंने शब्दों के स्वर-परिज्ञान के लिये पांच सौ सूत्रों की रचना की है। परंतु पाणिनीय शास्त्र के व्याख्याता कात्यायन और पतंजलि रूढ शब्दों को अव्युत्पन्न मानते थे। अतः उन्हें रूढ शब्दों के स्वरनिर्देश के लिए "फिट्सूत्र जैसे शास्त्र की, जिस में शब्द को अखण्ड मान कर स्वरनिर्देश किया जाता है, आवश्यकता प्रतीत हुई। इस प्रकार के शास्त्र के प्रवक्ता नाम शन्तनु था। अतः फिट्सूत्रों को "शान्तनव सूत्र" कहते हैं। इस शान्तनव शास्त्र को "फिट्सूत्र" संज्ञा प्राप्त होने का कारण, इसका प्रथम सूत्र फिट् है। "पाणिनि ने जिस अर्थ में "प्रातिपदिक" संज्ञा का प्रयोग किया, वही "फिट" संज्ञा का अर्थ है। इस संज्ञा-वाचक सूत्र के कारण यह शास्त्र "फिट्सूत्र" नाम से प्रसिद्ध हुआ। युधिष्ठिर
54 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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मीमांसक जी के प्रतिपादनानुसार फिटसूत्र, पाणिनि और आपिशलि से भी पूर्ववर्ती हैं और उसके रचयिता राजर्षि शन्तनु को मानना वे अनुचित नहीं मानते और संप्रति उपलभ्यमान चतुःपादात्मक फिटसूत्र, शन्तनुकृत किसी बृहत्तंत्र का एकदेश होने की संभावना उन्होंने प्रतिपादन की है। फिट्सूत्रों पर प्रक्रियाकौमुदी के टीकाकार विठ्ठल, भट्टोजी दीक्षित, और श्रीनिवास यज्वा ने व्याखाएं लिखी है। एक अज्ञातनाम वैयाकरण की व्याख्या जर्मनी में प्रकाशित हुई थी। भट्टोजी की फिटसूत्र व्याख्या पर जयकृष्ण और नागेशभट्ट ने टीकाएँ लिखी हैं।
13 दार्शनिक वैयाकरण संस्कृत व्याकरणशास्त्र के प्रायः अधिकतम ग्रंथों में वेदों तथा लौकिक भाषा में प्रयुक्त शब्दों के साधुत्व निर्धारण की प्रक्रिया का और तत्संबंधी नियमों का अत्यंत सूक्षमेक्षिका से चिन्तन हुआ है। साधु शब्द और असाधु शब्द विषयक इस चिन्तन के साथ ही, शब्द के नित्यत्व और अनित्यत्व के विषय में भी व्याकरण शास्त्रज्ञों ने अति प्राचीन काल से चर्चा शुरू की थी। इसी चर्चा में "स्फोट" अर्थात् नित्य शब्द का सिद्धान्त प्रस्थापित हुआ। पाणिनि ने “अवङ् स्फोटायनस्य" इस अपने सूत्र में स्फोटायन नामक प्राचीन वैयाकरण का निर्देश किया है। स्फोटायन नाम का स्पष्टीकरण पदमंजरी (काशिकावृत्ति की व्याख्या) के लेखक हरदत्त ने, “स्फोटो अयनं परायणं यस्य सः, स्फोटप्रतिपादन-परो वैयाकरणाचार्यः" इस वाक्य में दिया है। तद्नुसार, ये स्फोटसिद्धान्त के प्रथम प्रवक्ता थे। इस प्रमाण के आधार पर शब्द के नित्यत्व का सिद्धान्त वैयाकरणों में पाणिनि से पूर्वकाल में ही स्थापित हुआ था। शब्दनित्यत्व (अर्थात स्फोट-सिद्धान्त) का समर्थन करने वाले आचार्यों की परम्परा में
औदुम्बरायण, संग्रहकार व्याडि, महाभाष्यकार पतंजलि, जैसे समर्थ वैयाकरण हुए, जिनके द्वारा व्याकरणशास्त्र के दार्शनिक स्वरूप का सूत्रपात हुआ। परंतु इस दिशा में ठोस कार्य भर्तृहरि के वाक्यपदीय नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के द्वारा हुआ। वाक्यप्रदीय नाम से ही यह ज्ञात होता है कि यह ग्रंथ, वाक्य और पद का विवेचन करता है। इस ग्रंथ के प्रथम काण्ड में अखण्डवाक्य-स्वरूप स्फोट का, द्वितीय काण्ड में दार्शनिक दृष्टि से वाक्य का और तृतीय काण्ड में पद का विवरण किया है। इन तीन काण्डों के क्रमशः नाम हैं (1) आगम काण्ड, (2) वाक्यपदीय काण्ड और (3) प्रकीर्ण काण्ड।
प्राचीन भारतीय भाषाविज्ञान का यह प्रमुख ग्रंथ है। इस में शब्द और अर्थ के संबंध का निरूपण दार्शनिक ढंग से किया गया है। वैयाकरणों के दार्शनिक तत्त्वों का विशद विवेचन करने वाला यही एकमात्र उत्कृष्ट ग्रंथ है। इस ग्रंथ पर स्वयं भर्तृहरि ने व्याख्या लिखी है। यह अपूर्ण स्वरूप में उपलब्ध है और इस पर वृषभदेव ने टीका लिखी है। इस टीका के अतिरिक्त द्वितीय काण्ड पर पुण्यराज की और तृतीय काण्डपर हेलाराज की व्याख्या उपलब्ध है। कुछ अन्य व्याख्याओं के भी निर्देश मिलते हैं। व्याकरण के दार्शनिक विचारों में स्फोटवाद अत्यंत मौलिक एवं महत्त्वपूर्ण होने के कारण उस का विवेचन करने वाले कुछ तात्त्विक ग्रंथ, दार्शनिक वैयाकरणों ने लिखे जिन में उल्लेखनीय ग्रंथ हैं :
(1) स्फोटसिद्धि ले.- आचार्य मण्डनमिश्र । इसमें 36 कारिकाएँ है, जिन पर लेखक की निजी व्याख्या है। (शंकराचार्य का शिष्यत्व ग्रहण करने पर, मण्डनमिश्र सुरेश्वराचार्य नाम से प्रसिद्ध हुए) इस स्फोटसिद्धि पर ऋषिपुत्र परमेश्वर की व्याख्या, मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रसिद्ध हुई है। भरत मिश्रकृत स्फोटसिद्धि नामक अन्य एक ग्रंथ का प्रकाशन तिरुअनन्तपुर से सन् 1927 में हुआ है जिस पर स्वयं लेखक की व्याख्या है। स्फोटसिद्धि-न्याय-विचार नामक ग्रंथ, सन् 1917 में त्रिवेन्द्रम (वास्तव नाम तिरुअनन्तपुरम्) में म.म. गणपति शास्त्री द्वारा प्रकाशित हुआ। इस में 245 कारिकाएँ है। इस के लेखक का नाम अज्ञात है। इन के अतिरिक्त केशव कविकृत स्फोटप्रतिष्ठा, शेषकृष्ण कविकृत स्फोटतत्त्व, श्रीकृष्णभट्टकृत स्फोटचन्द्रिका, आपदेवकृत स्फोटनिरूपण, कुन्दभट्टकृत स्फोटवाद, प्रसिद्ध हैं।
दार्शनिक व्याकरण ग्रंथों में वैयाकरणभूषण तथा वैयाकरणभूषणसार का अध्ययन विशेष प्रचलित है। इस ग्रंथ की कारिकाओं की रचना सिद्धान्तकौमुदीकार भट्टोजी दीक्षित ने की है। उन कारिकाओं की व्याख्या का नाम है वैयाकरणभूषण, जिसके लेखक है कौण्डभट्ट । “वैयाकरण-भूषणसार" इसी ग्रंथ का संक्षेप है जिस पर, हरिवल्लभकृत दर्पण, हरिभट्टकृत दर्पण, मनुदेवकृत कान्ति, भैरवमिश्रकृत परीक्षा, रुद्रनाथकृत विवृति, और कृष्णमिश्रकृत रत्नप्रभा इत्यादि टीकाग्रंथ प्रसिद्ध हैं। इसी दार्शनिक ग्रंथ परंपरा में नागेशभट्टकृत वैयाकरण-सिद्धान्त-मंजूषा और जगदीश तर्कालंकारकृत शब्दशक्तिप्रकाशिका भी उल्लेखनीय हैं।
वैयाकरणों के दार्शनिक ग्रंथों का मुख्य विषय शब्द के नित्यानित्यत्व का विवेचन करते हुए, नित्यत्वपक्ष की स्थापना करना है। इस के अतिरिक्त पदमीमांसा, वाक्यमीमांसा, धात्वर्थ, लकारार्थ, प्रातिपदिकार्थ, सुबर्थ, समासशक्ति, शब्दशक्ति, इत्यादि विविध तात्त्विकविषयों का परामर्श इन ग्रंथों में होने के कारण ये ग्रंथ भारतीय भाषाविज्ञान की दृष्टि से तथा जागतिक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी महत्त्वपूर्ण हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 55
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14 छन्दः शास्त्र वेदमंत्रों का यथोचित उच्चारण छंदों के ज्ञान के बिना असंभव है। प्रत्येक सूक्त की देवता, ऋषि, और छंद के ज्ञान हुए बिना वेदों का अध्यापन या जप करने वाला पापी माना जाता है। सर्वांनुक्रमणीकार कात्यायन कहते हैं कि "मन्त्र का ऋषि,
छंद, देवता और विनियोग न जानते हुए, उस मंत्र से जो यजन करवाता है अथवा उसका अध्यापन करता है, वह खंभे से टकराता है, गढ्ढे में जा पड़ता है अथवा महापाप का धनी होता है।" भास्कराचार्य ने छंदस् शब्द की निरुक्ति "छंदासि छादनात्'
वेदों का आच्छादन या आवरण होने के कारण छंदस् संज्ञा हुई। छद् छादने अथवा चद् आह्लादने इन धातुओं से छंदस् शब्द की व्युत्पत्ति मानी जाती है। पाणिनीय शिक्षा में छंद को वेद पुरुष का चरण कहा है। ("छंदः पादौ तु वेदस्य") मानव जिस प्रकार चरणों के आधार पर खड़ा होता है, उसी प्रकार वेदों को छंदों का आधार है।
संहिता तथा ब्राह्मण ग्रंथों में गायत्री, उष्णिक, अनुष्टभ, बृहती, पंक्ति, त्रिष्टुभ, और जगती इन प्रमुख सात वैदिक छंदों का नामनिर्देश हुआ है। वेदांगभूत छंदःशास्त्र की दृष्टि से पिंगलकृत छंदःसूत्र नामक ग्रंथ प्रमाणभूत माना गया है।
पिंगलाचार्य अथवा पिंगलनाग कृत छन्दःसूत्रों को ही छंदःशास्त्र कहते हैं। इस शास्त्र का निर्देश "छंदोविचिती' नाम से भी होता है। तदनन्तर उत्तरकालीन छंदों का विवेचन पिंगलसूत्रों में मिलता है। अतः पिंगलाचार्य के काल के विषय में मतभेद हुए हैं।
__ वैदिक छंदों का सर्वप्रथम विवेचन सांख्यायन श्रौतसूत्रों में मिलता है। उसके बाद निदान सूत्रों के प्रारंभिक पटलों में ऋक्प्रतिशाख्य के अंतिम तीन पटलों में और छन्दोनुक्रमणी में हुआ है। शुक्लयजुर्वेद में भी छंदों का निर्देश मिलता है। पिंगलाचार्य का छन्दःसूत्र इनसे उत्तरकालीन है और उसमें भी कतिपय पूर्वकालीन छन्दःशास्त्रज्ञों का निर्देश हुआ है।
महर्षि पिंगलकृत 'छन्दःसूत्र" ग्रन्थ आठ अध्यायों का है जिन में वैदिक एवं लौकिक छंदों का स्वरूप बताया है। इस ग्रंथ में वर्णवत्तों की संख्या अपार (1 कोटि, 61 लाख, ७७ हजार, दो सौ सोलह) बताई है। इनमें से केवल पचास छंदों का संस्कृत साहित्य में उपयोग हुआ है।
वैदिक यज्ञ के प्रातःसवन में गायत्री, माध्यंदिन सवन में त्रिष्टुभ् और तृतीय सवन में जगती छंद का प्रयोग होता है। गायत्री छंद के 24 अक्षर और तीन चरण होते हैं। उष्णिक के 28, अनुष्टुभ् के 32, बृहती के 36 पंक्ति के 40, त्रिष्टुभ् के 44 और जगती 48 अक्षर होते हैं। कात्यायन की सर्वानुक्रमणी में ऋग्वेद के सभी मंत्रों की संख्या का निर्देश छंदों के अनुसार किया है। तदनुसार : गायत्री में 2467 मंत्र।
पंक्ति में 312 मंत्र। उष्णिक में 341 मंत्र।
त्रिष्टुभ् में 4253 मंत्र। अनुष्टुभ् में 855 मंत्र।
जगती में 1350 मंत्र। बृहती में 181 मंत्र। इनके अतिरिक्त तीन सौ मंत्र अतिजगती, शक्वरी, अतिशक्वरी, अष्टी, प्रत्यष्टी, इत्यादि अवांतर छन्दों में रचित हैं। एकपदा ऋचाओं की संख्या छह और नित्यद्विपदा ऋचाओं की संख्या सतरह है। इसी सूची के अनुसार ऋग्वेद में त्रिष्टुभ् छंद का प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है। बाद में गायत्री और जगती का क्रम आता है।
अनुष्टुप् छंद संस्कृत के विदग्ध वाङ्मय में उपयोजित छंदों का मूल वैदिक छंदों में ही माना जाता है। रामायण की कथा के अनुसार अनुष्टुभ् का लौकिक आविष्कार वाल्मीकि के मुख से क्रौंचवध का करुण दृश्य देखते ही हुआ। प्रायः सभी पुराणों एवं महाकाव्यों में अनुष्टुभ् छंद का ही प्रयोग अधिक मात्रा में हुआ है। छन्दःशास्त्र विषयक ग्रन्थों में अनुष्टुभ् छंद का लक्षण :
1 पंचमं लघु सर्वत्र सप्तमं द्विचतुर्थयोः। गुरु षष्ठं च पादानां शेषेष्वनियमो मतः ।। 2 श्लोके षष्ठं गुरु ज्ञेयं सर्वत्र लघु पंचमम् द्विचतुःपादयोर्हस्वं सप्तमं दीर्घमन्ययोः ।। 3 अष्टाक्षर समायुक्तं सर्वलोकमनोहरम्। तदनुष्टुभ् समाख्यातं न यत्र नियमो गणे।।
4 पंचमं लघु सर्वत्र गुरु षष्ठमुदीरितम्। समे लघु विजानीयात् विषमे गुरु सप्तमम् ।। इन श्लोकों में बताया गया है और प्रायः वह प्रमाणभूत माना जाता है। परंतु इन कारिकाओं में निर्दिष्ट लक्षणों का यथायोग्य पालन कालिदास माघ जैसे श्रेष्ठ कवियों ने भी सर्वत्र नहीं किया है। अतः महाकवियों द्वारा प्रयुक्त अनुष्टुभ् छंदों का स्वरूप ध्यान में लेते हुए एक सुधारित लक्षण बताया गया है। वह है :
अष्टाक्षरसमायुक्तं विषमेऽनियतंच यत्। षष्ठं गुरु समे पादे पंचमं सप्तमं लघु।। तदनुष्टुभिति ज्ञेयं छंदः सत्कविसम्मतम्।।
56/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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वैदिक त्रिष्टुभ् छंद से इन्द्रवज्रा, उपेन्द्रवज्रा, उपजाति जैसे एकादश अक्षरों के छंदों की, जगती छंद से, द्वादशाक्षरी वंशस्थ की और शक्वरी से वसंत तिलका की उत्पत्ति मानी गयी है।
वेदमंत्रों के छंद अक्षरसंख्या-निष्ठ हैं। मंत्रों को चरणों में विभाजित कर उन चरणों की अक्षरसंख्या का निर्देश करने की पद्धति रूढ होने के पहले, छंदोगत अक्षरसंख्या का निर्देश होता था। 23 अक्षरसंख्या तक वृत्त सविशेष होते हैं। आगे चलकर 24 से 48 अक्षरों तक अतिछंद माने गए। उनके आगे कृतियां होती हैं जिन का सप्रकार उल्लेख वाजसनेयी संहिता में हुआ है।
अनुष्टभ् के 8, त्रिष्टुभ् के 11, जगती के 12, इस प्रकार अक्षरसंख्या की वृद्धि का क्रम देखते हुए वैदिक छंदों का विकासक्रम ध्यान में आता है। उसी प्रकार त्रिपदा गायत्री, चतुष्पदी अनुष्टुभ्, त्रिष्टुभ् जगती; पंचपदी पंक्ति; षटपदी महापङ्क्ति;
इस पदवृद्धि के क्रम में भी छंदों का विकासक्रम दिखाई देता है। श्री व्हर्वान अर्नोल्ड नामक पाश्चात्य विद्वान ने अपने "वैदिक मीटर" नामक प्रबंध में दो से आठ तक चरणों के श्लोकबंधों के अन्यान्य 88 प्रकारों का निर्देश किया है। इन में एक ही छंद के चरणों में समान और असमान अक्षरसंख्या दिखाई देती है।
यति और गण प्राचीन छंदःशास्त्र ने वैदिकमंत्रों के पादों में यति अर्थात विरामस्थान नहीं माने थे, परंतु कुछ छंदों में चौथे, पांचवें, आठवें अक्षर पर विरामस्थान आता है। वैदिक छन्दशास्त्र के आधुनिक विद्वान ऐसे स्थानों का निर्देश द्विभंगी, चतुर्भगी इस प्रकार की संज्ञा से करते हैं। पिंगल कृत छन्दःसूत्र में वृत्तविषयक सूत्रों में “य-म-त-र-ज-भ-न-स" इन अक्षरसंज्ञा के आठ 'गण' बताए हैं। ये गण तीन अक्षरों के होते हैं। गणों की अक्षरसंख्या का निर्देश करने वाला “यमाताराजभानसलग" यह एक प्राचीन सत्र (जो पिंगलकृत नहीं है) प्रसिद्ध है। इस सूत्र में स पर्यंत कोई भी तीन अक्षर लेने पर, उनके प्रथमाक्षर से सूचित गण की मात्राओं का परिचय मिलता है। जैसे "यमाता" इन तीन अक्षरों में 'य' शब्द य गण का बोध लेकर, उसकी मात्रा
आदिलघु और अन्य दो गुरु है; यह बोध मिलता है। उसी प्रकार 'मातारा' 'ताराज' आदि अक्षरों से गणमात्रा का निर्देश सूचित होता है। सूत्रस्थ "ल" का अर्थ लघु और 'ग' अर्थ गुरु है। संस्कृत साहित्य के अन्तर्गत सारे वृत्तों का नियमन इस त्रयक्षरात्मक गणपद्धति से होता है। इस प्रकार की गणपद्धति में यति (विरामस्थान) का बोध होता नहीं यही एक महत्त्वपूर्ण दोष माना जाता है।
भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में आवर्तनी संस्कृत वृत्तों एवं मात्रावृत्तों का विवेचन है। मात्रावृत्तों में रचित गानानुकूल रचनाओं को 'ध्रुवा' कहते हैं। अनेक गानानुकूल रचनाओं का प्रारंभ प्राकृत एवं अपभ्रंश भाषाओं में रूढ होने के पश्चात्, संस्कृत कवियों ने उन्हें आत्मसात् किया। जयदेव के गीतगोविंद की रचना इसी प्रणाली में हुई है।
छन्दःशास्त्र विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ पिंगलाचार्य ने अपने ग्रंथ में कोष्टकी, तण्डी, यास्क, काश्यप, शैतव, रात तथा माण्डव्य आदि पूर्वाचायों का उल्लेख किया है। अभिनवगुप्ताचार्य ने अपनी 'अभिनवभारती' (भरतनाट्यशास्त्र की टीका) में कात्यायन, भट्टशंकर और जयदेव के अवतरण उद्धृत किए हैं। अग्निपुराण के (328-34) सात अध्यायों में पिंगल के अनुसार छन्दोविचिती का विवेचन मिलता है। पिंगल के पहले भरत, जनाश्रयी आदि शास्त्रकारों की पांच छंदविचितियां प्रचलित थीं, जिनमें यक्षरी गणपद्धति से छंदों का विमर्श किया था परंतु पिंगलाचार्य की छंदोविचिती सर्वमान्य होने के बाद पूर्वकालीन छंदोविचितियां लुप्त हो गई। पिंगलसूत्रों की विद्वन्मान्यता के कारण उन पर हलायुध, श्रीहर्षशर्मा वाणीनाथ (16 वीं शती), लक्ष्मीनाथ, यादवप्रकाश और दामोदर इन पंडितों ने टीकाग्रंथ लिखे।
नारायण कृत वृत्तोक्तिरत्न और चंद्रशेखर कृत वृत्तमौक्तिक, पिगलाचार्य के छन्द पर आधारित पद्यग्रंथ हैं। जनाश्रयी की छंदोविचिति (अध्यायसंख्या 6) में दिए हुए उदाहरणों को कुछ ऐतिहाहिक महत्त्व दिया जाता है। पिंगलाचार्य के ग्रंथ में 'यति' (वृत्तों में विरामस्थान) को महत्त्व न होने का दोष निर्दिष्ट किया है।
'वृत्तरत्नावली' इसी एकमात्र नाम से दुर्गादत्त, नारायण, वेंकटेश (अवधान सरस्वती के पुत्र), रामस्वामी, यशवंतसिंह, सदाशिवमुनि, कालिदास, कृष्णराज, इत्यादि अनेक विद्वानों ने रचना की है। छन्दःशास्त्र विषयक ग्रंथों की निर्मिति संस्कृत वाङ्मय क्षेत्र में अखंड होती रही। अर्वाचीन कालखंड में रामदेव (18 वीं शती) बंगाल में राधापुर के नायब दीवान यशवंतसिंह के
आश्रित कवि ने वृत्तरत्नावली लिखी। इस लक्षण ग्रंथ में उदाहरणार्थ लिखे हुए श्लोकों में रामदेव (जो चिरंजीव नाम से भी प्रसिद्ध थे) ने अपने आश्रयदाता यशवंतसिंह की स्तुति पर श्लोकरचना की है।
गोपालपुत्र गंगादास ने छंदोमंजरी नामक ६ प्रकरणों का ग्रंथ लिखा, जिसमें उदाहरणात्मक सभी श्लोक कृष्णस्तुति परक हैं। नागपुर के पंडित वसंतराव शेवडे ने अपनी वृत्तमंजरी में लिखे हुए लक्षणश्लोक लक्ष्यभूतवृत्त में ही लिखे हैं और उसी वृत्त में लिखे हा स्वोपत्त उदाहरणों में अपनी उपास्य देवता भगवती की स्तुति की है।
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छन्दःशास्त्र में पद्यात्मक रचना का विवेचन हुआ है। पद्यरचना (1) छंद (2) वृन्त और (3) जाति, इन तीन प्रकारों की होती है। सामान्यतः छंद अक्षरसंख्यापर, वृत्त अक्षसंख्या पर तथा गणक्रम पर और जाति मात्राओं की संख्या पर आधारित होती है। वेदों में प्रयुक्त छन्दों में कहीं लघु-गुरू मात्राओं का अनुसरण नहीं किया जाता। अतः समस्त वैदिक छंद अक्षरछंद ही हैं। जिन की कुल संख्या 26 है। इन छब्बीस छंदों के दो मुख्य भेद हैं (1) केवल अक्षर गणनानुसारी। (2) पादाक्षरगणनानुसारी इस में अक्षरों के पादों में नियमतः विभक्त होने की व्यवस्था होती है।
वैदिक छंद समस्त वैदिक छन्दों की संख्या 26 मानी गई है, परंतु इनमें से मा (अक्षर संख्या 24), प्रमा (अ-सं. 8) प्रतिमा (अ.सं. 30) ये पांच छंद वेद में प्रयुक्त नहीं किए जाते। इन्हें गायत्रीपूर्व पंचक कहते हैं। अवशिष्ट 21 छंदों का तीन सप्तकों में वर्गीकरण किया जाता है :- प्रथम सप्तक में- गायत्री, उष्णिक् (अ. सं. 28), अनुष्भ् (अ. सं. 32), बृहती (अ. सं. 36), पंक्ति (अ. सं. 40), त्रिष्टुभ् (अ. सं. 44), तथा जगती (अ. सं. 48), इन महत्त्वपूर्ण छंदों का अन्तर्भाव होता है।
द्वितीय सप्तक में अन्तर्भूत, अतिजगती (अ. सं. 52), शक्वरी (अ. सं. 56), अतिशक्वरी (अ. सं. 60), अष्टि (अ. सं. 64), अत्यष्टि (अ. सं. 68), धृति (अ. सं. 72), अतिधृति (अ. सं. 76), ये सात छंद यअतिच्छन्द' नाम से प्रसिद्ध हैं।
तृतीय सप्तक में- कृति (अ. सं. 80), प्रकृति (अ. सं. 84), आकृति (अ. सं. 88), विकृति (अ. सं. 92), संस्कृति (अ. सं. 96), अभिकृति (अ. सं. 100) और उत्कृति (अ. सं. 104)।
इन 3 सप्तकों को नाट्यशास्त्र में क्रमशः (1) दिव्य (देवों की स्तुति में प्रयुक्त), (2) दिव्येतर (मानवों की स्तुति में प्रयुक्त) और (3) दिव्यमानुष्य (दिव्य और मानुष उभय प्रकार के व्यक्तियों की स्तुति में प्रयुक्त) यह संज्ञाएं दी हुई हैं।
प्रथम सप्तक में अन्तर्भूत गायत्री इत्यादि छन्दों के दैव, आसुर, प्राजापत्य, आर्ष, मानुष, साम्न, आर्ष तथा ब्राह्म नामक आठ प्रकार माने गए हैं। उसी प्रकार इन के प्रत्येकशः भेद और उपभेद भी होते हैं। जैसे :1. गायत्रा - एकपदा, द्विपदा, त्रिपदा, चतुष्पदा, और पंचपदा । 2. उष्णिक् - पुर उष्णिक, ककुबुष्णिक, परोष्णिक, पिपीलिका, मध्योष्णिक् । 3. अनुष्टुभ् - विराट अनुष्टुभ् (दो प्रकार), चतुष्पाद अनुष्टुभ् । 4. बृहती - पुरस्ताबृहती, उरोबृहती, मध्याबृहती, उपरिष्टाबृहती, 5. पंक्ति - विराट्पंक्ति, सतोबृहती, पङ्क्ति, विपरीता पंक्ति, आस्तार पंक्ति, विष्टार पंक्ति और पथ्या पंक्ति, 6. त्रिष्टुभ् - अशिसारिणी, महाबृहती, और यवमध्या। 7. जगती - उपजगती, महासतोव्हती, महापंक्ति जगती, द्वितीय तथा तृतीय सप्तक के छंद, 'अतिच्छंद' नाम से प्रसिद्ध हैं। इन में से तृतीय सप्तक के कृति, प्रकृति इत्यादि छंदों का
ऋग्वेद में अभाव है। आचार्य शौनक (ऋप्रातिशाख्यकार) के कथनानुसार गायत्री से लेकर अतिधृति तक 14 छंद ऋग्वेद में उपलब्ध होते हैं।
___ छन्दों का वृत नामक दूसरा वर्ग अक्षरसंख्या तथा 'गण' इन दोनों पर अवलंबित होने के कारण "अक्षरगणवृत' अथवा गणवृत्त कहा जाता है। इन गणवृत्तों में चार चरण (अथवा पाद) होते हैं, और प्रत्येक चरण 12 अक्षरों का होता है। वृत्त में चारों चरणों के अक्षर समान होते हैं तब उसे 'समवृत्त' कहते हैं और जहां प्रथम-तृत्तीय तथा द्वितीय-चतुर्थ चरणों में अक्षर
संख्या भिन्न होती है, उसे "अर्धसमवृत" कहते हैं। जहा चारों चरणों में प्रत्येकशः संख्या अलग अलग होती है, उसे विषम वृत्त कहते हैं। विषमवृत्तों की संख्या नगण्य है।
वृत्तों का वर्गीकरण वृत्तों का वर्गीकरण अन्यान्य प्रकारों से ग्रन्थकारों ने किया है। संगीत शास्त्रज्ञों ने वृतों की गेयता का वैशिष्ट्य ध्यान में लेते हुए सामान्यतः 60 तक वृतों का जो वर्गीकरण किया है वह मार्मिक है। तदनुसार (अ) त्र्यक्षरी गणों के आवर्तनी वृत्त । (आ) चार (अथवा अधिक अक्षरों के गणों के अनावर्तनी वृत्त। (इ) त्र्यक्षरी गणों के अन्तर्वर्तनी वृत्त और (उ) अर्धसम तथा विषम वृत्त यह चार प्रकार वृत्तों में माने जाते है।
(अ) 7 यक्षरी गणों के आवर्तनी समवृत्तों में विद्युन्माला, मणिबंध, हंसी, चंपकमाला, दोधक, प्रहरण कलिका, प्रमाणिका, मरालिका (अथवा कामदा), शुद्धकामदा, ललित, इन्द्रवजा, उपेंद्रवज्रा, उपजाति, सौदामिनी, भुजंगप्रयात, सारंग, वंशस्थ, तोटक, स्रग्विणी, चामर, पंचचामर, चित्रवृत्त, विबुधप्रिया, पृथ्वी, मंदारमाला, सुमंदारमाला, (वागीश्वरी), मदिरा (उमा) हेमकला, वरदा, हंसगति और अमृतध्वनि, इन 31 वृत्तों की गणना होती है।
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(आ) चार अक्षरी गणों के आवर्तनी समवृत्तों में, वियद्गंगा, वारुणी, देवप्रिया, मंदाकिनी और सुरनिम्नगा इन पांच वृत्तों का अन्तर्भाव होता है।
(इ) त्र्यक्षरी गणों के अनावर्तनी समवृत्तों में इंद्रवंशा, शालिनी, द्रुतविलंबित, प्रियंवदा, स्वागता, रथोद्धता, यूथिका, विभावरी, भद्रिका, वियोगिनी, हरिणीप्लुता, वसंततिलका, मालिनी, वैश्वदेवी शिखरिणी, हरिणी, मंदाक्रांता, शार्दूलविक्रीडित और स्रग्धरा इन 19 वृत्तों का अन्तर्भाव होता है।
(उ) अर्धससय तथा विषय वृत्तों में, वियोगिनी, हरिणीप्लुता, माल्यभारा, पुष्पिताग्रा, और अपरवक्त इन का अन्तर्भाव होता है।
संगीतप्रेमी विद्वानों का एक ऐसा वर्ग है जो छंदोबद्ध, वृत्तबद्ध अथवा जातिबद्ध पद्य रचना का सप्तस्वरों से दृढ संबंध मानते हैं। संगीत का विवेचन करने वाले नाट्यशास्त्रकार भरत, अभिनवगुप्त इत्यादि ग्रंथकार अपने ग्रंथों में छंदों का भी विवेचन यथावसर करते हैं। अतः वेदांग भूत छंदःशास्त्र की ही एक शाखा मानकर संगीत शास्त्र विषयक वाङ्मय का परामर्श इसी अध्याय में करना हम उचित मानते हैं।
15. संगीत शास्त्र भारत की सभी विद्या, कला, शास्त्रों का मूल सर्वज्ञानमय वेदों में ही है। अतः संगीत का मूल भी वेदों में ही है, यह तथ्य अनुक्तसिद्ध है। चार वेदों में से सामवेद गानात्मक ही है। “गीतिषु सामाख्या'' अर्थात गानात्मक वेदमंत्रों को साम संज्ञा दी जाती है। गानात्मकता ही साम का लक्षण है। एवं भारतीय संगीतशास्त्र का आरंभ वैदिक काल में ही मानना उचित होगा। यजुर्वेद में “अगायन् देवाः। स देवान् गायत उपवर्तता तस्माद् गायन्तं स्त्रियः कामयन्ते। कामुका एनं स्त्रियो भवन्तिा।” (9-1)
"उदकुम्भानधि निधाय परिनृत्यन्ति। पथो निघ्नतीरिदं मधु गायन्त्यो मधु वै देवानां परममन्नाद्यम्।" (7-5) इत्यादि अनेक मन्त्रों में गायन तथा स्त्रियों के नर्तन का उल्लेख मिलता है। गायक पुरुष स्त्रियों को प्रिय होता है यह ऋषियों का मत भी इस मंत्र में व्यक्त हुआ है।
तैत्तिरीय ब्राम्हण में "अप वा एतस्मात् श्री राष्ट्र क्रामति । योऽश्वमेघेन यजते। ब्राह्मणौ वीणागाधिनौ गायतः। श्रियो वा एतद्पं यद् वीणा। श्रियमेवास्मिन् तद्धतः। यदा खलु वै पुरुषः श्रियमश्नुते वीणास्मे वाद्यते।"
इस मंत्र से पता चलता है कि आनंद के अवसर पर वीणावादन उस काल में भी होता था। आपस्तंब गृहयसूत्र में बताया है कि गर्भवती के सीमन्तोन्नयन संस्कार के समय विशिष्ट स्वरों में वीणावादन करना चाहिए।
सामगान वैदिक यज्ञ विधि में 'उद्गाता' नामक ऋत्विक् को अपने मंत्रों का गायन करना पड़ता है। अतः मंत्रों की गानविधि का विवेचन कुछ ग्रंथों में किया गया है। उन ग्रंथों में वर्णाग्रेडन, वर्णदीर्धीकरण, वर्णान्तरप्रक्षेपण, इत्यादि विषयों के संगीत शास्त्रीय लक्षण बताए हैं। सामगान की पद्धति लौकिक संगीत शास्त्र की पद्धति से विभिन्न सी है तथापि षड्ज, ऋषभ, गांधार, मध्यम पंचम, धैवत और निषाद, इन संगीत शास्त्रोक्त सात स्वरों का प्रयोग सामगान के विधि में होता है। परंतु उसमें केवल यही
भेद है कि सामगान की पद्धति में उन प्रसिद्ध स्वरों के लिए 1.- क्रुष्ट, 2.- प्रथम, 3.- तृतीय, 4.- चतुर्थ, 5.- मन्द्र और 6.- अतिस्वर्य यह संज्ञा दी जाती है। संज्ञाभेद के कारण मूलभूत स्वरों में भिन्नता नहीं है। सामवेदीय छांदोग्य उपनिषद में हिंकार, प्रस्ताव, उद्गीथ, प्रतिहार और निधान नामक सामगान के पांच प्रकार बताए हैं। उनमें से प्रस्ताव, उद्गीथ और प्रतिहार के स्वरों का स्थायीभाव तथा हृदयस्थ अन्य भावों से संबंध होता है। निधान का संबंध तानों से आता है।
शतपथ ब्राह्मण में कहा है कि "नासाम यज्ञो भवति। न वाऽहिंकृत्य साम गीयते।" अर्थात् सामगान के बिना यज्ञ होता नहीं और हिंकृति के बिना सामगान होता नहीं। ऋचाओं का सामगान में रूपान्तर करते समय हा, उ, हा ओ, इ, ओ, हो, वा, औ हा इ, ओवा इ, इस प्रकार “स्तोभ' नामक अक्षरों का उच्चारण किया जाता है। स्तोभ और क्रुष्ट आदि स्वरों की सहायता से ही गायत्र्यादि छंदोबद्ध ऋचाओं का सामगान में रूपान्तर होता है।
वेदों के उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन तीन स्वरों का अंकन अन्यान्य प्रकारों से होता है। सामवेद में इन स्वरों का निर्देश 1,2,3 इन अंकों से करते हैं। उसी प्रकार संगीत के स्वरों का निर्देश 1 से 7 आकडों से करते हैं। अधिकांश मंत्रों में प्रारंभिक पांच ही स्वरों का प्रयोग होता है।
ऋचाओं का सामगान में परिवर्तन करने के लिए विकार, विश्लेषण, विकर्षण, अभ्यास, विराम और स्तोभ नामक छह उपायों का उपयोग किया जाता है। इन उपायों के सहित, स्वरमंडलों में गाए जाने वाले मंत्रों को ही साम संज्ञा प्राप्त होती है। सामगान के विविध प्रकारों का वामदेव्य, मधुच्छान्दस, बृहद्रथन्तर, श्वेत, नौधस, यज्ञयतीय, इलांग, सेतु, पुरुषगति इत्यादि नामों से निर्देश होता है। प्रायः जिन ऋषियों ने ये प्रकार निर्माण किए, उन्हीं के नाम उनके प्रकारों को दिए है।
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सामगान कर, पामें की संख्या प्रायः अल्पमात्र रही है। वे सामगायक भी संगीत प्रवीण न होने के कारण आवश्यक स्वरों का उच्चारण करने में असमर्थ होते थे। ऐसे सामगायकों ने स्वरनिर्देश के लिए “हस्तवीणा" नामक पद्धति शुरु की। हस्तवीणा याने संगीत के सात स्वरों का करांगुली को अंगूठे से स्पर्श कर निर्देश करना।
वैदिक वाङ्मय में तत्कालीन विविध वाद्यों का नामनिर्देश हुआ है, जिन में दुंदुभि, आडंबर, भूमिदुंदुभि, वनस्पति, अघति, काण्डवीणा, वीणा, तूणव, नाडी जैसे वाद्यों के नाम उल्लेखनीय हैं। भूमिदुंदुभि वाद्य की निर्मिति, भूमि में निर्मित कुंड पर चर्माच्छादन कर होती थी। शततंत्री वीणा भी उस समय निर्माण हुई थी।
नारदीय शिक्षा नामक ग्रंथ में संगीत के सप्त स्वरों का मूल मयूर (षड्ज), गाय (ऋषभ), बकरी भेडी - (गंधार), क्रौंच (मध्यम), कोकिल (पंचम), अश्व (धैवत) और हाथी (निषाद) इन के नैसर्गिक ध्वनि में माना है।
(षड्ज मयूरो वदति, गावो रम्भन्ति चर्षभम्। अजाविके तु गंधार, क्रौंचो वदति मध्यमम्।
पुष्पसाधारणे काले कोकिलो वक्ति पंचमम्। अश्वस्तु धैवतं वक्ति, निषादं वक्ति कुंजरः ।। पाणिनीय शिक्षा में सप्त स्वरों की उत्पत्ति उदात्त, अनुदात्त और स्वरित इन वैदिक मंत्रों के स्वरों से मानी है। तदनुसार गंधार-निषाद - उदात्त; ऋषभ-धैवत = अनुदात्त और षडज् मध्यम तथा पंचम = स्वरित है।
इस प्रकार वैदिक समाज के धार्मिक जीवन से संगीत का संबंध होने से छह ऋतुओं के अनुसार, छह प्रकार के रागों का विकास हुआ। बाद में इस में रसिकता का अतिरेक होने के कारण भगवान् मनु तथा जैन बौद्ध मतानुयायी सत्पुरुषों ने समाज को संगीत से अलिप्त रहने का उपदेश दिया, जिस के फलस्वरूप संगीत का विकास एवं प्रचार कुंठित सा हो गया होगा।
प्रारंभिक संगीतज्ञ संगीत का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए उसका व्यवस्थित शास्त्र निर्माण करने का कार्य नाट्य शास्त्रकार भरताचार्य ने किया। उन्हों ने गांधर्व विद्या को सामवेद के उपवेद की प्रतिष्ठा दी।
तन्त्र शास्त्रीय यामल तंत्र के 32 ग्रंथों में से कुछ ग्रन्थों में संगीत के अंगोपांगों का विमर्श हुआ है। यामल तंत्रानुसार गांधर्व वेद की श्लोकसंख्या 36 हजार थी और उनमें,
“वीणातंत्र कलातंत्र रागतंत्रमनुत्तमम् । मिश्रतंत्र तालतंत्र गीतिका तंत्रमेव च ।। लासिकोल्लासिकातंत्र मेलतंत्र महत्तरम्।। इत्यादि अनेकविध विषयों का प्रतिपादन किया था। कलातंत्र नामक नौवें यामाल तंत्र में रस, भाव, नाट्य आदि का विचार किया है। 19 वें वीणातंत्र में स्वरोत्पत्ति, रागभेद रागों का काल, ध्वनिभेद, ताल, श्रुति, लय, चतुर्विध वीणा, मेललक्षण इत्यादि का विचार किया है। 28 वें त्रौताल नामक तंत्र में तालों का विचार किया है।
शारदातनय और संगीतमुक्तावलीकार देवेन्द्र ने अपने ग्रंथों में सदाशिव, ब्रह्मा, भरत, कश्यप, मतंग, याष्टिक, दुर्गाशक्ति, शार्दूल, कोहल, कम्बल, रम्भा, अर्जुन, नारद, तुबरु, आंजनेय, मातृगुप्त, रावण, भोजराज, सोमेश्वर, रुद्रसेन, लोल्लट, उद्भट, शंकुक, अभिनवगुप्त इत्यादि अनेक संगीतशास्त्रज्ञों की नामावली दी है।
भरतमुनि गीत, नृत्य और नाट्य इन कलाओं का सविस्तर विवेचन करने वाले संस्कृत ग्रन्थों में भरतमुनिकृत नाट्यशास्त्र नामक ग्रन्थ को अग्रक्रम दिया जाता है। शारदातनय ने वृद्धभरत और भरत इन दो नामों का उल्लेख किया है। उसी प्रकार भरत नाट्यशास्त्र की "द्वादशसाहस्त्री" और "षट्साहस्त्री" इन दो संहिताओं का भी उल्लेख मिलता है। विद्वानों का तर्क है कि द्वादशसाहस्त्री संहिता के रचियता वृद्धभरत और षट्साहस्त्री संहिता के रचियता भरत होगे। नाट्यशास्त्र की द्वादशसाहस्त्री संहिता के 63 अध्याय और षट्साहस्त्री संहिता के 36 अध्याय सम्प्रति उपलब्ध हैं। भरत नाट्यशास्त्र के चतुर्थ और पंचम अध्याय में नाटक के पूर्वरंग का विवेचन करते समय, देवताप्रीत्यर्थ प्रयोजनीय गीत और नृत्य इन ललित कलाओं का परामर्श लिया है। नृत्य की अगणित मुद्राओं में से 108 करण और उनके समन्वय से साधित 32 अंगहारों या अंग विक्षेपों का विचार भरत मुनि ने किया है। भरत मुनि ने संगीत के रागों का विवेचन नहीं किया अपि तु 63 जातियों का परिगणन किया है।
“यत् किंचिद् गीयते लोके तत् सर्वं जातिषु स्थितम्" - इस सिद्धान्त के अनुसार समस्त रागों का अन्तर्भाव “जाति" व्यवस्था में होता है। 'जाति' और अंगहार के औचित्य का निर्णय नाट्यप्रयोग के सूत्रधार ने रसानुसार करना चाहिए यह भरत का मत है।
नाट्यशास्त्र के 28 वें अध्याय में श्रुति, स्वर, इत्यादि का विवेचन करते हुए 22 श्रुतियों का विभाजन बताया गया है। तदनुसार षड्ज, मध्यम और पंचम तीन स्वरों की चार, ऋषभ और धैवत की तीन और गंधार तथा निषाद की दो श्रुतियाँ
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बताई हैं। सभी श्रुतियाँ समप्रमाण मान कर ही भरत ने 22 श्रुतियों का विभाजन सप्तस्वरों में किया है। षड्ज ग्राम का पंचम स्वर इन दोनों के ध्वनियों में मिलने वाले अंतर को एक श्रुति का माप मान कर भरत मुनि ने 22 श्रुतियों का सात स्वरों में विभाजन किया है। भरत ने माना हुआ श्रुति का प्रमाण 14 वीं शताब्दी तक याने लगभग एक हजार वर्षों तक अधिकृत माना जाता रहा। निःशंक शाङ्गदेव कृत संगीतरत्नाकर नामक 13 वीं शताब्दी का ग्रंथ, संगीत शास्त्र विषयक ग्रन्थों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस ग्रंथ में भी भरत मुनि का श्रुति-मान प्रमाणभूत माना गया है।
भरतोत्तर संगीतज्ञ ____ 15 वीं शताब्दी में लोचन पंडित ने रागतरंगिणी नामक ग्रन्थ लिखा। संगीतरत्नाकरकालीन स्वरों में तथा रागतरंगिणी कालीन स्वरों में, कालप्रभावानुसार लोकाभिरुचि में होने वाले परिवर्तन के कारण, अंतर निर्माण हो चुका था। लोचन पंडित ने वीणापर पड़दे बांध कर, तत्कालीन स्वरों की विशेषता स्थापन की परंतु स्वर और श्रुति के परंपरागत प्रमाण में निर्माण हुई विषमता की कारणमीमांसा लोचन पंडित नहीं कर सके।
17 वीं शताब्दी में दक्षिण भारत के अहोबल नामक संगीतशास्त्रकार ने यह तथ्य सिद्ध किया कि सारी श्रुतियाँ समप्रमाण नहीं होती, उनके प्रमाण में विषमता होती ही है।
भरताचार्य के समय में जातिगायन की पद्धति थी। आगे चल कर दसवी शताब्दी से जातिगायन की पद्धति का हास होते गया और संगीतरत्नाकर के काल में (13 वीं शती) रागगायन की पद्धति प्रचलित हुई।
भरत के नाट्यशास्त्र पर अभिनवगुप्ताचार्य की अभिनवभारती नामक टीका सुप्रसिद्ध है। अभिनवगुप्ताचार्य के मतानुसार नाट्य और संगीत का क्षेत्र स्वतंत्र है। अपने इस मत के प्रतिकूल मत वाले प्राचीन टीकाकारों के विचारों का उन्होंने परामर्श लिया है। उससे यह पता चलता है कि हर्ष, शाक्याचार्य राहुलक, नखकुट्टक, काश्मीराधिपति मातृगुप्त, कीर्तिधर, उद्भट शकलीगर्भ
इत्यादि विद्वानों ने अभिनवगुप्त के पहले भरत के नाट्यशास्त्र का ऊहापोह करने वाले ग्रंथ लिखे थे। उनके टीकाग्रंथों में संगीत विषयक शास्त्रीय विवेचन अवश्य हुआ होगा। शृंगारशेखरकुमार के मतानुसार 'भरत' नाम ही संगीत का प्रतीक है।
भकारो भावुनैर्युक्तो रेफो रागेण मिश्रितः। तकार ताल इत्याहुः भरतार्थविचक्षणाः ।। इस प्रसिद्ध सुभाषित द्वारा उन्होंने “भरत" शब्द की निरुक्ति कर भरत शब्द को संगीत का पर्याय कहा है।
भारत की सभी ललित कलाओं में रस को ही आत्मतत्व माना है। जिन स्वरगुच्छों से निश्चित रंजन और रसपोष हो सकता है उनका मार्मिकता से विचार कर, संगीत शास्त्र एवं कला के प्राचीन उपासकों ने राग व्यवस्था निर्माण की। कालमान
के अनुसार संगीतरसिकों की अभिरुचि में परिवर्तन अवश्य होता रहा, तथापि, प्राचीन संगीतशास्त्र के विद्वानों ने प्रतिपादन किए हुए राग आज भी रसिकों के अन्तःकरण में उतना ही आनंद और आल्हाद निर्माण करते हैं।बृहदेशीकार ने बताया हुआ राग का लक्षण,
(“योऽसौ ध्वनिविशेषस्तु स्वरवर्णविभूषितः । रंजको जनचित्तानां स रागः कथितो बुधैः ।।) निरपवाद है। “रंजयति इति रागः'' यही राग शब्द की लौकिक व्युत्पत्ति कही जाती है, और "संगीतसमयसार ग्रंथ के अनुसार वही राग का लक्षण भी है। संगीतदर्पण ग्रंथ में रागों की उत्पत्ति के संबंध में कहा है कि,
शिव-शक्त्योःसमायोगात् रागाणां संभवो भवेत्।
पंचास्यात् पंच रागाः स्युः षष्ठश्च गिरिजामुखात्।। अर्थात् शिव और शक्ति के संयोग से रागों की उत्पत्ति हुई। शिव के पूर्व मुख से भैरव, पश्चिम मुख से हिंडौल, उत्तर मुख से मेघ, दक्षिण मुख से दीपक और ऊर्ध्वमुख से श्री राग की उत्पत्ति हुई। पार्वती के मुख से कौशिक नामक छटवां राग उत्पन्न हुआ। बृहदेशी ग्रन्थ में इससे अधिक शास्त्रीय पद्धति से रागों की उत्पत्ति का प्रतिपादन किया है। तदनुसार
"सामवेदात् स्वरा जाता स्वरेभ्यो ग्रामसंभवः। ग्रामेभ्यो जातजो जाता जातिभ्यो रागसंभवः ।।
सप्त स्वरास्त्रयो ग्रामा मूर्च्छनाश्चैकविंशतिः । द्वाविंशतिश्च श्रुतय एतेभ्यो रागसंभवः ।। अर्थात् सामवेद से स्वर, स्वरों से ग्राम, ग्रामों से जातियाँ और जातियों से रागों की उत्पत्ति हुई। अथवा सात स्वर, तीन ग्राम, इक्कीस मूर्च्छना और बाईस श्रुतियाँ, इनसे रागों की उत्पत्ति होती है।
अभिनव-रागमंजरी में राग की अभिव्यक्ति करने वाला स्वरसमूह इस अर्थ में “मेल" (जिसे आजकल "ठाठ" कहते हैं) यह पारिभाषिक संज्ञा बताई है। (मेलः स्वरसमूहः- स्यात् रागव्यंजक शक्तिमान्) अचल, कोमल, और तीव्र इस प्रकार के बारह स्वरों से ग्रथित प्रक्रिया के अनुसार 62 मेल निर्माण हो सकते हैं। इन 62 मेलों के "जनक मेल" कहते हैं। जिनसे 'जन्य
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राग' उत्पन्न होते हैं। वेंकटमखी के चतुर्दण्डि-प्रकाशिका नामक ग्रंथ में दाक्षिणात्य (अथवा कर्णाटकी) संगीत में प्रचलित 62 मेलों के नाम बताए हैं।
उत्तर हिंदुस्थानी संगीत की पद्धति में कल्याण, बिलावल, समाज, भैरव, पूर्वी, मारवा, काफी, आसावरी, भैरवी और तोड़ी इन दस मेलों या ठाठों में 124 रागों की व्यवस्था होती है, ऐसा अभिनवरागमंजरीकार का मत है।
संगीतरत्नाकर में ग्रामराग, उपराग, राग, भाषा, विभाषा, अन्तर्भाषा, रागांग, भाषांग, क्रियांग और उपांग इन दस वर्गों में रागों की व्यवस्था की है।
संगीतशास्त्र में 1) शिवमत, 2) कृष्णमत, 3) हनुमन्मत और 4) भरतमत ये चार मत प्रसिद्ध हैं। इन का पृथक् समर्थन करने वाले प्रमुख ग्रंथकारों में अपने निजी मतभेद हैं। संपूर्ण रागव्यवस्था के मूलभूत छह राग माने जाते हैं। उनका मूल भेद- कारण है भारत का ऋतुमान। इस देश में संपूर्ण वर्ष का विभाजन छह ऋतुओं में होता है। प्रत्येक ऋतु में गाने
योग्य विशिष्ट राग माना गया है। अतः राग व्यवस्था का मूलाधार ऋतुभेदमूलक छह राग माने जाते हैं। राग व्यवस्था का यह सिद्धांत हिंदुस्थानी संगीतशास्त्र में आठवीं शताब्दी से रूढ हुआ। दाक्षिणात्य संगीत में समयानुसार रागव्यवस्था नहीं मानी जाती। वस्तुतः रागव्यवस्था का समर्थन करने वाले चार मतवादियों में एक वाक्यता नहीं है। जैसे शिवमत के अनुयायी रागविबोधकार सोमनाथ और कृष्णमत के अनुयायी, संगीतरत्नाकर के टीकाकार पं. कल्लीनाथ इन के मन्तव्यानुसार वसंत ऋतु में वसंत राग का गायन प्रशस्त माना गया है, परंतु भरत और हनुमंत मतों के अनुसार हिंडोल राग का गायन वसंत ऋतु में प्रशस्त माना गया है।
___ संस्कृत साहित्यान्तर्गत संगीत शास्त्र पर ग्रंथ लेखन करने वालों में विद्वान राजाओं की बहु संख्या विशेष रूप में दिखाई देती है। 12 वीं शताब्दी में मिथिला या तिरहूत के राजा नान्यदेव (अपरनाम राजनारायण) ने भरतवार्तिक नामक भरतनाट्यशास्त्र का भाष्य सतरह अध्यायों में लिखा। प्राचीन तालपद्धति (जो आज कालबाह्य हो चुकी है) का विवरण नान्यदेव ने अपनें ग्रंथ में किया है। इससे अतिरिक्त 140 रागों का विवेचन नान्यदेव ने कश्यप और मतंग इन प्राचीन ग्रंथकारों के मतानुसार किया है। 12 वीं शताब्दी में कल्याण के चालुक्यवंशीय प्रसिस्ध राजा जगदेकमल्ल अथवा प्रताप चक्रवर्ती ने संगीतचूडामणि नामक पंद्रह अध्यायों का ग्रंथ लिखा। उसी 12 वीं शताब्दी में कर्नाटक के अधिपति सोमेश्वर (अथवा भूलोकमल्ल) ने मानसोल्लास नामक ढाई हजार श्लोकों के ग्रंथ का प्रणयन किया। सोमेश्वर महाराज संगीतविद्या के महान उपासक थे। उन्हीं के कर्तृत्व के
कारण दाक्षिणात्य संगीत, "कर्णाटकी संगीत" कहा जाता है। देवगिरी के राजा हरिपाल देव को 'विचारचतुर्मुख' और 'वीणातंत्रीविशारद" यह उपाधियाँ उनके संगीत प्रावीण्य के कारण प्राप्त हुई थीं। एक बार हरिपाल देव श्रीरंगम् क्षेत्र में गए थे। वहां के गायक
और नर्तक कलाकारों ने उन्हें संगीत विषयक ग्रंथ लिखने का आग्रह किया। उस आग्रह का आदर करते हुए महाराजा ने "संगीतसुधाकर" नामक छह अध्यायों का ग्रंथ लिखा। 14 वीं शताब्दी में मेवाड के राजा हमीर ने संगीत शृंगारहार नामक ग्रंथ लिखा। इस पंथ में जैतसिंह नामक संगीत शास्त्रज्ञ राजा का नाम निर्देश लेखक ने किया है। तंजौर के अधिपति रघुनाथ नायक ने संगीतसुधा नामक ग्रंथ लिखा जिसमें 264 रागों का विवेचन करते हुए लेखक ने कहा है कि, श्री विद्यारण्यस्वामी
(कर्नाटक के हिंदुसाम्राज्य के संस्थापक और शृंगेरी शांकरपीठ के आचार्य) ने अपने संगीतसार नामक ग्रंथ में जिस पद्धति से रागविवेचन किया है उसी पद्धति से प्रस्तुत ग्रंथ में राग विवेचन किया हुआ है। विद्यारण्यस्वामी का संगीतसार ग्रंथ अप्राप्य है।
छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शहाजी संगीतशास्त्र के मर्मज्ञ थे। उन्होंने अपने आश्रित वेदनामक पण्डित से संगीतपुष्पांजलि और संगीतमकरंद नामक दो ग्रन्थों का निर्माण करवाया । वेद पंडित के पिता चतुरदामोदर का संगीतदर्पण ग्रंथ सुप्रसिद्ध है। ___17 वीं शताब्दी में गढदुर्ग अथवा जबलपूर के राजा हृदयनारायण ने हृदयकौतुक और हृदयप्रकाश नामक दो ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रंथों में हृदयनारायण ने लोचन पंडित की रागतरंगिणी का अनुसरण किया है। इसी शताब्दी के नेपाल के नृपति जगज्योतिर्मल्ल ने अनेक संगीत शास्त्रज्ञों को आश्रय दे कर उनसे संगीत विषयक ग्रंथों का लेखनकार्य करवाया। साथ ही स्वयं महाराज ने संगीतसारसंग्रह स्वरोदयदीपिका और गीत-पंचाशिका जैसे ग्रंथों की लेखन किया।
18 वीं शताब्दी में त्रिवांकुर (त्रावणकोर) के राजा बलरामवर्मा (रामवर्मा) ने बलरामभरतम् नामक 18 अध्यायों का ग्रंथ लिखा। इस ग्रंथ में भाव, राग और ताल का परस्परावलंबित्व प्रतिपादन किया है। इसी शताब्दी में तंजौर के मराठा नृपति तुकोजी भोसले ने संगीतसारामृत नामक गद्य ग्रंथ शाङ्गदव के संगीतरत्नाकर के अनुसार लिया। तुकोजी महाराज ने नाट्यवेदागम नामक नाट्यकला विषयक ग्रंथ भी लिखा है। इसी शताब्दी में उत्कलप्रदेश के पार्लकिमिडी के राजा गजपति वीरश्री नारायण देव ने कविरत्न पुरुषोत्तम देव से संगीतशास्त्र का अभ्यास करते हुए, संगीतनारायण नामक ग्रंथ लिखा। इसमें संगीतविद्या की सभी शाखाओं का विवेचन किया हुआ है। मम्मटकृत संगीतरत्नमाला नामक ग्रंथ के अवतरण इस ग्रंथ में दिखाई देते हैं।
भारतीय संस्कृति और पाश्चात्य संस्कृति की तुलना अनेक विषयों के संबंध में होती रहती है। संगीत शास्त्रविषयक ग्रंथों
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पर ग्रंथ
ज्योतिाव
वेद भगवान
में भारतीय नृपतियों द्वारा दिया हुआ भरपूर योगदान देखते हुए भारतीय संस्कृति की श्रेष्ठता का एक अंश ध्यान में आता है। पाश्चात्य नृपतियों में इस प्रकार संगीतशास्त्र पर ग्रंथ लेखन करने वालों की संख्या इतनी बड़ी मात्रा में नहीं है।
16, ज्योतिर्विज्ञान भारत में ज्योतिर्विज्ञान या ज्योतिःशास्त्र की परंपरा अत्यंत प्राचीन है। वेद भगवान् के षडंगों में ज्योतिःशास्त्र को नेत्र का स्थान दिया गया है- (ज्योतिषासायमन चक्षुः)। वेदों का निर्माण यज्ञों के लिए हुआ। यज्ञों का अनुष्ठान ऋतु, अयन, तिथि नक्षत्रादि शुभ काल के अनुसार होता है और काल का ज्ञान ज्योतिःशास्त्र के द्वारा होता है, अर्थात् ज्योतिःशास्त्र कालविधान का शास्त्र होने के कारण, सम्यक् कालज्ञान रखने वाला ज्योतिर्विद ही यज्ञ को ठीक समझ सकता है। यह आशय, ___ "वेदा हि यज्ञार्थमभिप्रवृत्ताः कालनुपूर्वा विहिताश्च यज्ञाः। तस्मादिदं कालविधानशास्त्रं यो ज्योतिष वेद स वेद यज्ञान्" ।।
इस सुप्रसिद्ध श्लोक में ग्रथित किया है। ज्योतिषशास्त्र के द्वारा सूर्यादि ग्रहों एवं संवत्सरादि काल का बोध होता है। इस शास्त्र में प्रधानतः आकाशस्थ ग्रह, नक्षत्र , धूमकेतु आदि ज्योतिःस्वरूप पदार्थो का स्वरूप, संचार, परिभ्रमण, काल ग्रहण इत्यादि घटनाओं का निरूपण एवं उनके संचारानुसार शुभाशुभ फलों का भी कथन किया जाता है। वेदांग ज्योतिष के ऋग्वेद ज्योतिष, यजुर्वेद ज्योतिष और अथर्ववेद ज्योतिष नामक तीन विभाग माने जाते हैं। ऋग्वेद ज्योतिष की श्लोकसंख्या 36 है और उसके कर्ता थे लगधाचार्य। इस पर सोमाकर ने भाष्य लिखा है। वेदमंत्रों में ज्योतिषशास्त्र के अनेक सिद्धांत बिखरे हैं। इन मंत्रस्थ सिद्धान्तों के आधार पर ही कालान्तर में ज्योतिषशास्त्र का विकास हुआ।
बारह राशियों की गणना, 360 दिनों का वर्षमान तथा अयन, मलमास, क्षयमास, सौरमास, चांद्रमास इत्यादि विषयों का ज्ञान भारतीयों को वेदकाल से ही प्राप्त हुआ था। यजुर्वेद ज्योतिष की श्लोकसंख्या 44 है। इसके कर्ता शेषाचार्य माने जाते हैं। अथर्व ज्योतिष में 14 प्रकरण एवं 162 श्लोक हैं। इसके प्रवक्ता पितामह और श्रोता थे कश्यप। वेदांग ज्योतिष में पांच वर्षों का युग माना जाता है। एक वर्ष में ग्रीष्म, शिशिर और वर्षा तीन ही ऋतुएं माने जाते थे। बाद में दो दो मासों के चार ऋतु और चार मासों की वर्षा ऋतु मिला कर पांच ऋतु माने गए। निमेश, लव, कल, त्रुटी, मुहूर्त, अहोरात्र इत्यादि कालमान वेदांग ज्योतिष में माने गये हैं। क्रांति-वत्त के. समप्रमाण 27 भागों को "नक्षत्र" संज्ञा दी गयी। चंद्रमा एक नक्षत्र में एक दिन रहता है। दिन और रात के 30 मुहुर्त या 60 नाड़ियां मानी जाती हैं।
वराहमिहिर के पंचसिद्धान्तिका नामक ग्रंथ में ज्योतिषशास्त्र के पांच सिद्धान्त बताए हैं :--- (1) पितामह सिद्धान्त, (2) वसिष्ठ सिद्धान्त, (3) रोमक सिद्धान्त, (4) पोलिश सिद्धान्त, एवं (5) सूर्य सिद्धान्त। इनमें रोमक सिद्धान्त ग्रीस देश का और पौलिश सिद्धान्त अलेक्जेंड्रियावासी पौलिश का माना जाता है। सूर्य सिद्धान्त के कर्ता सूर्य नामक आचार्य थे। इसमें मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, त्रिप्रश्राधिकार, सूर्यग्रहणाधिकार, परलेखाधिकार, ग्रहयूत्यधिकार, नक्षत्र-ग्रहयूत्यधिकार, उदयादत्ताधिकार, शृंगोन्नत्यधिकार, पानाधिकार तथा भूगोलाधिकार नामक 10 प्रकरणों में ज्योतिषशास्त्र के महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन हुआ है।
विकासकाल ई. 5 वीं शती के बाद ज्योतिष शास्त्र में होरा, बीजगणित, अंकगणित, रेखागणित एवं फलित इत्यादि शाखाओं का विकास हुआ। इस कालखंड में बृहज्जातककार वराहमिहिर, सारावलीकार कल्याणवर्मा (ई. छठी शती) षट्पंचाशिकाकार पृथुयशा, खण्डखाद्यक एवं ब्रह्मस्फुटसिद्धांत के कर्ता ब्रह्मगुप्त, लघुमानसकार मुंजाल, ग्रहगणित एवं गणितसंग्रह के कर्ता महावीर, रत्नसारपद्धति जैसे ग्रंथों के लेखक श्रीपति, गणितसार और ज्योतिर्ज्ञान के लेखक श्रीधराचार्य इत्यादि विद्वानों ने इस शास्त्र का विकास प्रभूत मात्रा में किया। ई. 10 वीं शती के पश्चात् फलज्योतिष के जातक, मुहूर्त, सामुद्रिक, तांत्रिक, रमल एवं प्रश्न प्रभृति अंगों
का विकास हुआ। रमल एवं तांत्रिक का भारतीय ज्योतिष में प्रवेश यवनों के प्रभाव के कारण हुआ। इस कालखंड में सिद्धान्तशिरोमणि एवं मुहूर्तचिन्तामणि के लेखक भास्कराचार्य (ई. 12 वीं शती), अद्भुतसागरकार बल्लालसेन (मिथिला नरेश
के पुत्र), ताजिकनीलकण्ठीकार नीलकण्ठ दैवज्ञ, मुहूर्तचिन्तामणिकार रामदैवज्ञ (नीलकण्ठ के अनुज) इत्यादि महान् ज्योतिर्विदों ने इस शास्त्र की प्रगति की। अनेक टीकाग्रंथों का प्रणयन इसी कालखंड में हुआ। ई. 16 वीं शती के बाद शतानंद, केशवार्क, कालिदास, महादेव, गंगाधर, भक्तिलाभ, हेमतिलक, लक्ष्मीदास, ज्ञानराज, अनन्तदेवज्ञ, दुर्लभराज, हरिभद्रसूरि, विष्णु दैवज्ञ, सूर्य दैवज्ञ, जगदेव, कृष्ण दैवज्ञ, रघुनाथ, गोविन्द दैवज्ञ, विश्वनाथ, विठ्ठल दीक्षित, आदि ज्योतिःशास्त्रज्ञ हुए। आधुनिक काल में पाश्चात्य गणित शास्त्र के कुछ ग्रंथों के अनुवाद संस्कृत में हुए। राजस्थान के महाराजा जयसिंह ने जयपुर, दिल्ली, उज्जयिनी, वाराणसी एवं मथुरा में वेधशालाओं का निर्माण कर इस शास्त्र के अध्ययन की विशेष सुविधा उपलब्ध की।
पंचाग ज्योतिर्विदों एवं दैवज्ञों के व्यवहार में “पंचांग" का उपयोग सर्वत्र होता है। जिस पुस्तक में तिथि, वार, नक्षत्र, योग और करण, इन काल के पांच अंगों को सविस्तार जानकारी दी जाती है उसे "पंचांग" कहते हैं। कालगणना एवं कालनिर्देश,
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पंचांग के आधार पर किया जाता है। सूर्य, चंद्र आदि ग्रहों की गति के कारण, काल के प्रस्तुत पांच अंग होते हैं। आकाशस्थ ग्रहों के समयानुसार स्थान का पता ज्योतिर्विद विद्वान पंचांग के आधार पर निर्धारित करते हैं। पंचांग का विकास यथाक्रम होता गया। प्रारंभ में (ई. 16 वीं शती) तिथि और नक्षत्र इन दो अंगों का विचार होता था। बाद में वार और करण का विचार उनके साथ होने लगा। ई. 7 वीं शती में पांचवे अंग "योग" का भी विचार होने लगा। गत दो हजार वर्षो में आर्यभट्ट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, भास्कराचार्य, गणेश दैवज्ञ जैसे महान् ज्योतिःशास्त्रज्ञ भारत में हुए । उनके अनुयायी वर्ग द्वारा अन्यान्य पंचांग स्थापित हुए । आज भिन्न-भिन्न प्रदेशों में जो पंचांग प्रचलित हैं, उनकी निर्मिति सौर, ब्राह्म या आर्य सिद्धान्त के अनुसार हुई है। अतः उनमें एकवाक्यता नहीं है। आज भारत में 30 पंचांग प्रचलित हैं। उन में वर्षारंभ, मासारंभ की एकता नहीं दिखाई देती । मासों के नामों में भी समानता नहीं है। महाराष्ट्र, गुजरात, कर्नाटक और आन्ध्र में ग्रहलाघव पर आधारित पंचांग होते हैं तामिलनाडु, केरल में आर्वपक्षीय पंचांग होते हैं। बंगाल, ओड़िसा में सौर पंचांग प्रचलित है उत्तर भारत में मकरंद ग्रंथ पर आधारित, मारवाड़ में ब्राह्मणपक्षीय और काश्मीर में खंडखाद्य ग्रंथ पर आधारित पंचांग प्रचलित हैं। इनके अतिरिक्त श्री वैष्णव स्मार्त, माध्व इत्यादि संप्रदायों के भी पंचांग स्वतंत्र होते हैं। इन भारतीय पंचांगों के अतिरिक्त पारसी, मुसलमान और ईसाई संप्रदायों के भी अपने-अपने पंचांग प्रचलित हैं।
पंचांग में सुधार करने के प्रयत्न बार-बार होते रहे। 1904 में लोकमान्य तिलक ने विविध पंचांगों में एकवाक्यता लाने का प्रयत्न किया। स्वतंत्रताप्राप्ति के बाद भारत सरकार ने मेघनाद साह की अध्यक्षता में पंचांग सुधारसमिति नियुक्त की । प्रस्तुत समिति ने 1955 में शालिवाहन शक की वर्षगणना तथा आर्तव वर्षमान स्वीकार कर नया अखिल भारतीय पंचांग प्रचलित किया है, परंतु लोकव्यवहार में उसे अभी तक कोई प्रतिष्ठा नहीं मिली ।
फल ज्योतिष से संबंधित शकुनशास्त्र, निमित्तशास्त्र, स्वशास्त्र, चूड़ामणि शास्त्र, सामुद्रिक शास्त्र, रमल शास्त्र, (या पाशक विद्या) लक्षण शास्त्र आय शास्त्र इत्यादि शास्त्रों पर लिखित संस्कृत ग्रंथ अल्पमात्रा में विद्यमान हैं। विज्ञाननिष्ठ नव शिक्षित समाज में इन शास्त्रों के प्रति श्रद्धा नहीं है। ज्योतिष शास्त्रीय परिभाषा :- एक नाडी
स्त्री या पुरुष के जन्म नक्षत्र के अनुसार, आद्य, मध्य और अन्त्य नाड़ी निर्धारित होती है। जन्म नक्षत्रानुसार जिनकी एक ही नाडी होती है, उन स्त्री-पुरुषों का विवाह निषिद्ध माना जाता है।
दक्षिणायन और उत्तरायण। दक्षिणायन का प्रारंभ कर्क संक्रांति से और उत्तरायण का आरंभ मकर संक्रमण से
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दो अयन होता है। दक्षिणायण में सूर्य का अयन (गति) दक्षिण दिशा की और तथा उत्तरायण में वह उत्तर दिशा की ओर दीखता है।
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दो पक्ष शुक्ल और कृष्ण । अमावस्या से पौणिमा तक शुक्ल और पौर्णिमा से अमावस्या तक कृष्ण पक्ष कहा जाता है।
तीन अमावस्या
(1) आषाढ़ वद्य अमावस्या (दीप पूजा) (2) श्रावण वद्य अमावस्या (पिठोरी) और (3) भाद्रपद वद्य अमावस्या ( सर्वपित्री) ज्योतिष शास्त्र में विशेष महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं। तीन गण- (1) देव गण (2) मनुष्य गण और (3) राक्षस गण। विवाह संबंध में स्त्री-पुरुष के गण का विचार किया जाता है। साढ़े तीन सुमुहूर्त (1) वर्ष प्रतिपदा (2) अक्षय्य तृतीया (3) विजया दशमी और (4) बलि प्रतिपदा यह अर्ध मुहूर्त माना जाता है। ज्योतिष शास्त्र के अनुसार किसी मंगल कार्य का शुभारंभ करने के लिए ये मुहूर्त लाभप्रद माने गये हैं ।
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चातुर्मास्य आषाढ़ शुक्ल एकादशी से कार्तिक शुक्ल एकादशी तक का काल । घात चतुष्टय (1) घात चंद्र (2) घात तिथि (3) पंचांग (1) तिथि, (2) वार, (3) नक्षत्र, (4) पंच पर्वकाल- (1) व्यतीपात, (2) वैधृति, (3) अमावस्या तथा पौर्णिमा और रविसंक्रांति ।
षड् ऋतु (1) वसंत = चैत्र बैशाख, (2) ग्रीष्म= ज्येष्ठ-आषाढ, (3) वर्षा श्रावण भाद्रपद, (4) शरद आश्विन कार्तिक । (5) हेमन्त - मार्गशीर्ष पौष । (6) शिशिर माघ-फाल्गुन
कपिला षष्ठी योग = भाद्रपद मास के कृष्णपक्ष की षष्ठी तिथि पर मंगलवार, रोहिणी नक्षत्र और व्यतीपात आने पर कपिला
षष्ठी नामक शुभ योग माना जाता है। यह योग साठ वर्षों में एक बार आता है।
छह काल विभाग (1) वर्ष (2) अयन (3) ऋतु ( 4 ) मास (5) पक्ष और (6) दिन ।
नव ग्रह चन्द्र, सूर्य, मंगल, बुध, गुरु, शनि, राहु और केतु । आधुनिक ज्योतिषी हर्षल (वरुण) नेपच्यून ( प्रजापति) और प्लूटो नामक अन्य तीन ग्रहों का भी विचार करते हैं।
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64 / संस्कृत वाङमय कोश ग्रंथकार खण्ड
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घात नक्षत्र और (4) घात वार ।
द्वादश स्थान तनुस्थान, धन स्थान, पराक्रम स्थान, मातृ, संतति, शत्रु, जाया, मृत्यु, भाग्य, पितृ, लाभ और व्यय । जन्म कुंडली देखते समय इन स्थानों का विचार होता है।
बारह राशियाँ मेष, वृषभ, मिथुन, कर्क, सिंह, कन्या, तुला, वृश्चिक, धन, मकर, कुंभ और मीन
योग और (5) करण ।
संक्रांति, (4) पौर्णिमा और (5) अमावस्या अथवा अष्टमी, चतुर्दशी,
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सोलह संवत् भारतीय काल गणना में 16 प्रकार के संवत् जाते हैं। वे विशिष्ट महापुरुषों के आविर्भाव से संबंधित हैं कल्प संवत् सृष्टि संवत्, वामन संवत् श्री राम, श्री कृष्ण, युधिष्ठिर, द्ध, गावी श्री शंकराचार्य, विक्रम, शालिवाहन कलचुरि क्लची नागार्जुन, बंगाल और हर्ष । सतरहवां शिव संवत् शिवाजी महाराज के राज्याभिषेक से संबंधित है।
ज्योतिषशास्त्र के 18 प्रवर्तक :- सूर्य पितामह, व्यास, वसिष्ठ, अत्रि, पराशर, कश्यप, नारद, गर्ग, मरीचि, मनु, अंगिरा, लोमश, पुलिश, च्यवन, पवन, भृगु और शौनक ।
ज्योतिष शास्त्र के 18 सिद्धांत : ब्रह्म सिद्धांत, सूर्य, सोम, वसिष्ठ, रोमक, पौलस्त्य, बृहस्पति, गर्ग, व्यास, पराशर, भोज, वराह, ब्रह्मगुप्त सिद्धान्तशिरोमणि, सुन्दर, तत्वविवेक, सार्वभौम और लघुआर्य सिद्धांत।
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27 नक्षत्रों के नाम : अश्विनी, भरणी, कृत्तिका, रोहिणी, मृग, आर्द्रा, पुनर्वसु, पुष्य, आश्लेषा, मघा, पूर्वा, उत्तरा, हस्त, चित्रा, स्वाती, विशाखा, अनुराधा, ज्येष्ठा, मूल, पूर्वाषाढा, उत्तराषाढा, श्रवण, धनिष्ठा, शततारका, पूर्वा भाद्रपदा, उत्तरा भाद्रप्रदा और रेवती । इनमें अश्विनी से चित्रा तक 14 देवनक्षत्र और स्वाती से रेवती तक 13 यम-नक्षत्र कहलाते हैं। मृग से हस्त तक नौ नक्षत्र पर्ज्यन्यदायक होते हैं।
साठ संवत्सरों के नाम: प्रभव, विभव, शुक्ल, प्रमोद, प्रजापति, अंगिरा, श्रीमुख, भाव, युवा, धाता, ईश्वर, बहुधान्य, प्रमाथी, विक्रम, वृष, चित्रभानु, सुभानु, तारण, पार्थिव, व्यय, सर्वजित् सर्वधारी, विरोधी, विकृति, स्वर, नंदन, विजय, जय, मन्मथ, दुर्मुख, हेमसंधी, विसंपी, विकारी, शार्वरी, पल्लव, शुभकृत् शोभिन, क्रोधी, विश्वावसु, पराभव, प्रवेग, कीलक, सौम्य, साधारण, विरोधकृत परिधावी, प्रमादी, आनंद, राक्षस, नल, पिंगल, कालयुक्त, सिद्धार्थी, रौद्री दुर्मति, इंदुभी, रुधिरोद्गारी, रक्तरक्षी, क्रोधन ओर क्षय ।
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आयुर्विज्ञान
वैदिक विज्ञान के अंतर्गत आयुर्विज्ञान भी परंपरावादियों के मतानुसार अनादि माना जाता है। ऋग्वेद तथा यजुर्वेद में ईश्वर को ही आद्य वैद्य कहा है। वैदिक गाथाओं में वैद्यक शास्त्र से संबंधित कुछ आख्यायिकाएँ प्रसिद्ध हैं जैसे- (1) अश्विनी कुमारों ने वृद्ध च्यवन भार्गव को यौवन मिला दिया। (2) दक्ष का कटा हुआ मस्तक फिर से जुड़ा दिया। (3) इन्द्र को बकरे का शिश्न लगाया गया। ( 4 ) पूषा को नये दांत दिये गये । (5) भग का अंधत्व निवारण किया गया इत्यादि । अथर्ववेद में आयुर्विज्ञान से संबंधित अनेक विषयों का वर्णन होने के कारण, अथर्ववेद को ही “आद्य आयुर्वेद" कहा जाता है। वैस ही आयुर्वेद को ऋग्वेद का उपवेद तथा अथर्ववेद का उपांग कहा जाता है अथर्ववेद में अस्थती, अपामार्ग, पृविपण इत्यादि वनस्पतियों का औषधि दृष्ट्या उपयोग बताया है, साथ ही मंत्र-तंत्रादि दैवी उपचार भी रोग निवारणार्थ पर्याप्त मात्रा में कहे गये हैं।
आयुर्वेद के शल्य, शालाक्य, कायचिकित्सा, भूतविद्या, कौमारभृत्य, ग्रह, विष ( अगदतंत्र ) और वाजीकरण नामक आठ विभाग प्रसिद्ध हैं। इसी कारण "अष्टांग आयुर्वेद" यह वाक्यप्रचार रूढ है। चरक, सुश्रुत, वाग्भट, धन्वंतरि माधव, भावमिश्र इत्यादि आचार्यो के आयुर्वेद विषय ग्रंथ सर्वत्र प्रमाणभूत माने जाते हैं। अथर्ववेदीय प्रमाणों के अनुसार राक्षसों द्वारा रोगों का प्रादुर्भाव माना जाता है। अतः रोग निवारणार्थ अथर्ववेद में औषधिमंत्रों के प्रयोग बताये गये हैं। चरक-सुश्रुतादि के शास्त्रीय ग्रंथो में भी भूत-पिशाच बाधा के कारण मानसिक रोगों की पीडा मानी गयी है। पूर्वजन्म के पाप इस जन्म में रोग निर्माण करते हैं और इस जन्म में घोर पातक करने वाला अगले जन्म में रोगग्रस्त होता है, जैसे-ब्रह्महत्या करने वाला भावी जन्म में क्षय रोगी होता है। मद्यपान करने वाले के दांत काले होते हैं, अन्न चुराने वाला अग्निमांध से पीड़ित होता है। आधुनिक आयुर्विज्ञान में जंतु के कारण कई रोगों की उत्पति मानी जाती है। प्राचीन आयुर्विज्ञान के ग्रंथों में भी यह जंतु सिद्धांत माना गया था।
भगवान बुद्ध के समकालीन जीवक नामक वैद्य बालरोग विशेषज्ञ थे। आयुर्वेद के कुमारभृत्या नामक विशिष्ट अंग के प्रवर्तक, जीवक ही माने जाते हैं।
वाग्भट के ग्रंथ में प्रतिपादित शल्यतंत्र या शल्यक्रिया आधुनिक यूरोपीय शस्त्रक्रिया पद्धति (सर्जरी) की जननी मानी जाती है। भारतीय वैद्यों तथा वैद्यक-ग्रंथों को बाहरी देशों में विशेष मान्यता थी। एक कथा के अनुसार वाग्भट की मृत्यु मिस्र देश में हुई थी।
चरक और सुश्रुत के ग्रंथ सर्वमान्य थे, अतः उन पर अनेक टीका- उपटीकाएँ लिखी गयीं। बाद में नाडी परीक्षा, रसायन जैसी नई शाखाए निर्माण हुई, किन्तु यथावसर आयुर्वेद की प्रगति कुंठित सी रही रसायनतंत्र का उपयोग आयु तथा बुद्धिसामर्थ्य की वृद्धि करने में विशेष लाभदायक माना जाता है। रसतंत्रकारों में नागार्जुन का नाम विशेष उल्लेखनीय है । नागार्जुन के नाम पर उपलब्ध रसरत्नाकर, रसेन्द्रमंगल, रसकच्छपुट, सिद्धनागार्जुन, आरोग्यमंजरी, योगसार एवं रतिशास्त्र नामक ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं।
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आयुर्विज्ञान की भारतीय परंपरा अति प्राचीन होने के कारण इस क्षेत्र में अनेक प्राचीन महर्षियों के तथा उनकी संहिताओं के नामों का उल्लेख होता है। परंपरा के अनुसार ब्रह्मा ने लक्ष श्लोकात्मक ब्रह्मसंहिता निर्माण की थी जिसमें निर्दिष्ट 16 से अधिक योग आयुर्विज्ञान विषयक ग्रंथों में आज भी मिलते हैं।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 65
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ब्रह्मा से आयुर्विज्ञान का ग्रहण दक्ष और भास्कर ने किया। दक्ष की परंपरा में सिद्धांत का तथा भास्कर की परंपरा में चिकित्सा पद्धति का प्राधान्य माना जाता था। अश्विनीकुमार की आश्विनसंहिता, चिकित्सासार तंत्र, अश्विनीकुमार संहिता इन ग्रंथों का उल्लेख अन्य ग्रंथों में मिलता है। क्षीरसमुद्र के तट पर स्थित चंद्रपर्वत पर विविध प्रकार की औषधियां अमृत प्राप्ति के लिए अश्विनीकुमारों द्वारा उगाई गयी, इस प्रकार का उल्लेख वायु पुराण में मिलता है। अश्विनीकुमार के शिष्य इन्द्र के द्वारा प्रवर्तित योगों में ऐन्द्रिय, रसायन, सर्वतोभद्र, दशमूलाद्य तैल और हारीतक्यलेह विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। इन्द्र के शिष्यों में कश्यप की वृद्धजीवकीय तंत्र नामक संहिता में, कुछ सिद्धयोग बताये हैं। अगस्त्य के कुछ योग चिकित्सासार संग्रह एवं नावनीतक ग्रंथ में उद्धृत हैं। भारद्वाज कृत भेषजकल्प और भारद्वाजी प्रकरण ग्रंथों की पांडुलिपियां मद्रास में विद्यमान हैं। भरद्वाज-शिष्य द्वितीय धन्वन्तरि के द्वारा आयुर्वेद का विभाजन आठ अंगों में किया गया ऐसी मान्यता है। इसी धन्वन्तरि को "आयर्वेद-प्रवर्तक" तथा "सर्वरोग-प्रणाशन" उपाधियां दी गई। धन्वन्तरिकृत सन्निपातकलिका, धातुकल्प, रोगनिदान, वैद्यचिन्तामणि धन्वन्तरि निघण्टु इत्यादि ग्रन्थ उल्लेखनीय हैं। पुनर्वसु आत्रेय के छह शिष्यों में अग्निवेश का तंत्र विशेष प्रसिद्ध हुआ। अग्निवेशतंत्र कायचिकित्सा प्रधान था। नाडीपरीक्षा और अग्निवेश-हस्तिशास्त्र नामक उसके ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। आत्रेय संहिता की पांडुलिपि विद्यमान है। आत्रेय के दूसरा शिष्य भेल (या भेड) की संहिता प्रकाशित हुई है।
चरक संहिता में शालाक्यतंत्र को आयुर्वेद का द्वितीय अंग माना है। नाक, कान, गला इत्यादि के रोगों की चिकित्सा में शलाका का उपयोग होने के कारण इस अंग को यह नाम प्राप्त हुआ।
शालाक्यतंत्रकारों में इन्द्रशिष्य निमि, निमि-शिष्य कराल तथा शौनक, कांकायन इत्यादि नाम प्रसिद्ध हैं। कराल ने 96 प्रकार के नेत्र-रोगों का निर्देश किया था, जिनका उल्लेख चरक-संहिता में हुआ है।
शल्यचिकित्सा आयुर्वेद का तृतीय अंग है जिसके प्रवर्तक थे दिवोदास धन्वन्तरि। इनके सात प्रमुख शिष्यों में सुश्रुत का नाम प्रसिद्ध है। सुश्रुत संहिता में शल्यमूलक आयुर्विज्ञान का प्रतिपादन हुआ है। इस संहिता के वृद्ध सुश्रुत और लघुसुश्रुत नामक दो पाठ प्रसिद्ध हैं।
कौमारभृत्या नामक अंग का जनकत्व कश्यपशिष्य जीवक या वृद्धजीवक को दिया जाता है। इनकी काश्यप संहिता (या वृद्धजीवकीय तंत्र) का प्रतिसंस्करण वात्स्य ने किया। इस विषय पर रावण कृत कुमारतंत्र, बालतंत्र, बालचिकित्सा उल्लेखनीय हैं। रावण के नाडीपरीक्षा, अर्कप्रकाश और उद्देशतंत्र नामक ग्रंथ भी उपलब्ध हैं।
आयुर्वेद में "अगदतंत्र" शब्द का प्रयोग विष-प्रशामक उपाय के अर्थ में होता है (अगदो विषप्रतिकारः। तदर्थं तन्त्रम्) काश्यप, उशना, बृहस्पति, आलंवायन, दारुवाह, नग्नजित, आस्तिक आदि ऋषि इस अगदतंत्र के विशेषज्ञ थे।
रसायनतंत्र को आयुर्वेद का अत्यंत महत्त्वपूर्ण अंग माना जाता है भृगु, अगस्त्य, वसिष्ठ, मांडव्य, व्याडि, पतंजलि, नागार्जुन इत्यादि आचार्य रसायनतंत्र के विशेषज्ञ थे।
उपरनिर्दिष्ट आठ अंगों के समान (1) स्वास्थ्यानुवृत्ति (2) रोगच्छेद और (3) औषधि नामक तीन स्कन्धों में भारतीय आयुर्विज्ञान का विभाजन किया जाता है जिसके कारण "त्रिस्कंध आयुर्वेद" यह पयोग रूढ हुआ है। चरक संहिता में कहा है कि (1) हितायु (2) अहितायु (3) सुखायु और दुःखायु इन चार प्रकारों से मानवी आयु का विचार आयुर्वेद का विषय है।
भारतीय आयुर्विज्ञान के अनुसार पंच महाभूतों के विकारों का समुदाय अर्थात् स्थूल शरीर और चेतना का अधिष्ठान सूक्ष्म शरीर, इन दो विभागों में शरीर की कल्पना की गई है। शरीरस्थ पंच महाभूतों एवं पंच तन्मात्राओं के संयोग से “पंचमहाभूतद्रव्य-गुण संग्रह" होता है और मन, बुद्धि आत्मा मिल कर “अध्यात्म द्रव्य गुण संग्रह" होता है।
___ प्राणी द्वारा भक्षित अन्न से जो सजीव कण शरीर में निर्माण होते हैं, उन्ही से कफ, वात और पित्त नामक तीन धातुओं (धारणाद् धातः) की निर्मिति होती है। त्रि-धातुओं की साम्यावस्था ही शरीर का स्वास्थ्य होता है। विषमता उत्पन्न होने पर इन्हीं धातुओं को "दोष' कहते हैं। आयुर्वेद की चिकिस्तापद्धति में त्रिधातु या त्रिदोष का विचार अत्यन्त महत्त्वपूर्ण माना गया है। इन्ही का प्रकोप होने पर शरीर में जो निरुपयोगी द्रव्य निर्माण होते हैं उन्हे “मल" कहते हैं। विस्कंधान्तर्गत स्वास्थ्यानुवृत्तिकर शास्त्र में धातुसाम्य का रक्षण और धातुवैषम्य का निवारण करने का विवेचन होता है। रोगोत्पति के तीन कारण होते हैं- (1) असात्म्य - इन्द्रियार्थ- संयोग, (2) प्रज्ञापराध और (3) परिणाम। अर्थात (1) भोग्य तथा भोज्य पदार्थ का अतिसेवन, विपरीत सेवन और अल्पसेवन या असेवन (2) स्वाभाविक मनःप्रवृति का हठात् निरोध या उद्रेक (3) ऋतुमान, विष, कृमि इत्यादि कारणों से रोगों की उत्पति शरीर में होती है।
कफ, बात पित्त इन तीन धातुओं से रस,रक्त, मांस, मेद, अस्थि, मज्जा और शुक्र इन सात स्थूल धातुओं की उत्पत्ति होती है। इनमे जंतुरूप दोष उत्पन्न होने की संभावना होती है, अतः इन्हे “दूष्य"- कहते है। सप्त धातुओं में जंतुरूप दोषों का प्रादुर्भाव ही रोग है। शरीर समधातुमय तथा निर्मल रहना ही निरोगावस्था या आरोग्य है।
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आयुर्वेद में दो प्रकार की रोग-चिकित्सा मानी है- (1) दोष-प्रत्यनीक (दोषों का मूलतः प्रशमन करना) और (2) व्याधिप्रत्यनीक (व्याधि होने पर उसका प्रशमन करना)। इन दोनों में दोषप्रत्यनीक चिकित्सा श्रेयस्कर मानी है। चिकित्सा शब्द
का अर्थ (चरक के मतानुसार) रोगी के शरीर में धातुसाम्य प्रस्थापित करने वाली क्रिया। चिकित्सा ही वैद्य का प्रधान कर्म है। चिकित्सा में दोष, दूष्य, ऋतु, काल, वयोमान, मनोवस्था, आहार इत्यादि बातों पर ध्यान रखना आवश्यक माना है।
चिकित्सा के अन्य दो प्रकार हैं:- (1) द्रव्यभूत और (2) अद्रव्यभूत । द्रव्यभूत चिकित्सा- औषध, आहार, बस्ती, शस्त्र, यंत्र इत्यादि के द्वारा होती है, और अद्रव्यभूत चिकित्सा लंघन, मर्दन, मंत्रप्रयोग आदि के द्वारा होती है। द्रव्य चिकित्सा में स्वरस, हिम, फांट, कषाय, आसव, घृत, तैल, क्षार, सत्व, भस्म, गुटिका, वटिका, सिद्धरसायन इत्यादि विविध द्रव्यकल्पों का उपयोग आयुर्वेदीय ग्रंथों में बताया है।
आयुर्वेद के कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथकार एवं ग्रंथ आयुर्वेद के क्षेत्र में चार महान आचार्य माने जाते हैं। उनके संबंध में एक श्लोक प्रसिद्ध है :निदाने माधवः श्रेष्ठः सूत्रस्थाने तु वाग्भटः । शारीरे सुश्रुतः प्रोक्तः चरकस्तु चिकित्सिते ।।
अर्थात् रोगनिदान मे माधव, सूत्रस्थान में वाग्भट, शरीरविज्ञान में सुश्रुत और रोगचिकित्सा में चरक सर्वश्रेष्ठ हैं।
सुश्रुत संहिता- सुश्रुत विश्वामित्र गोत्री तथा शालिहोत्र के पुत्र थे। दिवोदास धन्वन्तरि (जो साक्षात् भगवान धन्वन्तरि के अवतार माने जाते हैं और जिन्होंने शल्यतंत्र का इह लोक में निर्माण किया) सुश्रुत के गुरु थे। सुश्रुत की संहिता में पांच स्थान (या विभाग) हैं:- (1) सूत्र स्थान (2) निदान स्थान (3) शारीर स्थान (4) चिकित्सा स्थान और (5) कल्प स्थान । इनमें शरीर स्थान के अन्तर्गत वैद्यशिक्षा, औषधमूल विभाग, औषधि चिकित्सा, पथ्यापथ्य विचार जैसे महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन है। सुश्रुत के अनुसार शस्त्रोपचार और व्रणोपचार का आयुर्विज्ञान में विशेष महत्त्व है। अस्थिरोग, मूत्रविकार, जलोदर,
अंडवृद्धि, त्वचारोपण, मोतीबिन्दु इत्यादी के सुधार के लिए शस्त्रक्रिया के प्रयोग सुश्रुत ने बताए हैं। शस्त्रक्रिया में उपयुक्त एक सौ से अधिक शल्यशस्त्रों का वर्णन सुश्रुत संहिता में मिलता है। सुश्रुत संहिता के लघु सुश्रुत और वृद्ध सुश्रुत नामक संक्षिप्त एवं परिवर्धित संस्करण प्रसिद्ध हैं।
चरक संहिता-चीनी प्रमाणों के अनुसार चरकाचार्य कनिष्क महाराज के चिकित्सक थे। परंपरा के अनुसार चरक भगवान् शेष के अवतार माने जाते है। चरक संहिता में स्थान नामक आठ विभाग हैं। (1) सूत्र स्थान- इसमे औषधिविज्ञान, आहार, पथ्य-अपथ्य, विशिष्ट रोग, उत्तम एवं अधम वैद्य, शरीर तथा मानस चिकित्सा इत्यादि विषयों का विवेचन है। (2) निदान स्थान- इसमे प्रमुख आठ रोगों का विवेचन है। (3) विमान स्थान- इसमें रुचि और शरीरवर्धन का विवेचन है। (4) शारीर स्थान- विषय - शरीर वर्णन। (5) इन्द्रिय स्थान- विषय - रोग चिकित्सा । (6) चिकित्सा - विषय - रोग निवारक उपाययोजना । (7) कल्प स्थान। (8) सिद्धि स्थान - इनमें सामान्य उपाय योजनाएं बताई हैं। ई. छठी शताब्दी के पूर्व दृढबल पांचनद ने चरक संहिता का सुधारित संस्करण तैयार किया जिसमें उसने सुश्रुत की शल्यक्रिया का अन्तर्भाव किया है। सांप्रत यही चरक संहिता सर्वत्र प्रचलित है। इस संहिता का अरबी भाषा में अनुवाद हो चुका है।
वाग्भट - इस नाम के दो महान् आचार्य हुए। उनमें अष्टांग संग्रहकार वाग्भट को वृद्धवाग्भट कहते हैं। इनके पितामह का नाम भी वाग्भट था और वे भी श्रेष्ठ भिषगवर थे। वृद्धवाग्भट का जन्म सिंधु देश में हुआ था। इनका समय ई. 7 वीं शती का पूर्वार्द्ध माना जाता है।
दूसरे वाग्भट को धन्वन्तरि या गौतम बुद्ध का अवतार माना जाता था। वे श्रेष्ठ रसायन वैद्य थे। उनके ग्रंथों में अष्टांगहृदय सर्वमान्य है। इनका समय सामान्यतः ई. 8 वीं या 9 वीं शती माना जाता है। मिश्र के राजा को उपचार करने के हेतु वाग्भट को विदेश जाना पड़ा। उनके उपचार से राजा रोगमुक्त हुआ और भारतीय वैद्यक शास्त्र की प्रतिष्ठा उस देश में स्थापित हुई।
शानाधर संहिता - ई. 11 वीं शताब्दी में शाङ्गिधराचार्य ने इस ग्रंथ की रचना की। यह ग्रंथ तीन खंडों एवं बत्तीस अध्यायों में विभाजित है। इस ग्रंथ में रोगों के विषय में अन्य प्रमाणिक ग्रंथों की अपेक्षा अधिक विवेचन हुआ है। रसायन तथा सुवर्णादि धातुओं का भस्म करने की प्रक्रिया शाङ्गधर के ग्रंथ की विशेषता है। साथ ही नाडीपरीक्षा का विवरण इस ग्रंथ का वैशिष्ट्य माना गया है।
मदनकामरत्न - इसके कर्ता पूज्यपाद जैनाचार्य माने जाते हैं। यह ग्रंथ अपूर्णसा है। आयुर्वेदीय रोग विनाशक औषधों के साथ इसमें कामशास्त्र से संबंधित बाजीकरण, लिंगवर्धक लेप, पुरुष-वश्यकारी औषध, स्त्री-वश्यकारी भेषज, मधुर स्वरकारी गुटिका आदि के निर्माण की विधि बताई गई है। कामसिद्धि के लिए छह मंत्र भी दिये गये हैं।
वैद्यसारसंग्रह - (या योगचिन्तामणि) - लेखक - हर्षकीर्तिसूरि । समय ई. 18 वीं शती। आत्रेय, चरक, वाग्भट, सुश्रुत,
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अश्वि, हारीलक, वृन्द, कलिक, भृगु, शेष आदि आयुर्वेद के ग्रंथों का रहस्य प्राप्त कर लेखक ने इस ग्रंथ का प्रणयन किया है। इस ग्रंथ के 29 उपकरणों में आयुर्वेदीय औषधि से संबंधित प्रायः सभी विषयों की चर्चा हुई है।
वैद्यवल्लभ - ले. हस्तिरुचि। इस पद्यमय ग्रंथ के आठ प्रकरणों में निम्नलिखित विषयों का प्रतिपादन हुआ है। - (1) सर्वज्वर प्रतिकार, (2) सर्व स्त्री-रोग प्रतिकार, (3) कास-क्षय शोफ-फिरंग-रक्तपित्त इत्यादि रोग प्रतिकार, (4) धातु प्रमेह मूत्र कृच्छ्र लिंग वर्धन-वीर्य वृद्धि-बहूमुत्र इत्यादि रोग प्रतिकार, (5) गुप्त रोग प्रतिकार (6) कुष्ट विष-मदाग्नि-कमसोदर- प्रभृति रोग प्रतिकार (7) शिरःकर्णक्षिरोग प्रतिकार और पाक-गुटिकाद्यधिकार- शेष योग निरूपण ।
द्रव्यावलीनिघण्टु - ले. मुनि महेन्द्र। यह ग्रंथ आयुर्वेदीय वनस्पतियों का कोश सा है। इसी प्रकार का आयुर्वेद- महोदधि नामक कोश ग्रन्थ सुषेण नामक विद्वान ने लिखा है। आचार्य अमृतनन्दी के निघण्टुकोश में आयुर्वेदीय पारिभाषिक शब्दों की संख्या 22 हजार है।
कल्याणकारक - लेखक- आचार्य उग्रादित्य। समय- ई. 11-12 वीं शती। यह ग्रंथ 25 अधिकारों में विभक्त हैं। इस ग्रंथ में रोगचिकित्सा का प्रतिपादन रूढ पद्धतियों से विभिन्नतया किया है और औषधों के साथ मधु, मद्य और मांस को अनुपानों में वर्ण्य किया है।
ज्वरपराजय - लेखक- जयरत्नगणि। समय ई. 18 वीं शती। प्राचीन सुप्रसिद्ध ग्रंथों पर आधारित । आयुर्वेद विषयक अनुपलब्ध ग्रंथों की संख्या काफी बड़ी नहीं है। मूलतः अप्राप्य ग्रंथों के उदाहरण तथा नामोल्लेख यत्र-तत्र मिलते हैं।
18 शिल्पशास्त्र कल्प नामक वेदांग के अन्तर्गत श्रौतसूत्र, गृह्यसूत्र और धर्मसूत्रों के अनन्तर शुल्बसूत्रों की गणना होती है। इनमें आपस्तंब, बौधायन और कात्यायन के शुल्बसूत्र सुप्रसिद्ध। आपस्तंब का शुल्बसूत्र छह पटलों के अन्तर्गत 21 अध्यायों में विभक्त है। सूत्रसंख्या है 223 । आपस्तंब और बोधायन के शुल्बसूत्रों के विषय समान ही है। आपस्तंब बोधायन की अपेक्षा में सरल तथा संक्षिप्त है। इस पर करविन्दस्वामी (ई. 5 वीं शती) कपर्दिस्वामी (12 वीं शती), सुंदरराज (ई. 10 वीं शती) और गोपाल कृत टीकाएं उपलब्ध हैं।
कात्यायन शुल्बसूत्र, कातीय शुल्ब परिशिष्ट अथवा कात्यायन शुल्बपरिशिष्ट नाम से भी पहचाना जाता है। यह दो भागों में विभक्त है। प्रथम भाग में 90 सूत्र सात कंडकाओं में विभक्त हैं। द्वितीय भाग में 40 या 48 श्लोक मिलते हैं। वेदियों की रचना के लिए आवश्यक रेखागणित, वेदियों का स्थानक्रम, नापने वाली रज्जू, निपुण वेदीनिर्माता के गुण तथा कर्तव्य इत्यादि विषयों का विवरण प्रस्तुत ग्रंथ में हुआ है।
कात्यायन शुल्बसूत्र पर राम वाजपेयी (उत्तर प्रदेश में नैमिष ग्राम के निवासी), काशी निवासी महीधर (ई. 16 वीं शती), महामहोपाध्याय विद्याधर गौड (20 वीं शती), इन तीन पंडितों की व्याख्याएं उपलब्ध हैं। इन ग्रन्थों के अतिरिक्त मानव, मैत्रायणीय, वाराह, नामक शुल्बसूत्र के ग्रंथ प्रचलित हैं। मानव शुल्बसूत्र में सुपर्णचिति अथवा श्येनचिति नामक वेदी का वर्णन मिलता है जो अन्यत्र नहीं मिलता। कल्पविषयक वेदांग वाङ्मय की संक्षिप्त रूपरेखा ध्यान में आने के लिए इतना विवरण पर्याप्त है। भारतीय शिल्पशास्त्र का मूल इन शुल्ब सूत्रों में माना जाता है। शिल्प शब्द की उत्पत्ति शील-समाधौ (शीलति समादधाति इति शिल्पम्) इस धातु से हुई है। भृगु ने शिल्प की व्याख्या की है :
नानाविधानां वस्तूनां यन्त्राणां कल्पसम्पदाम्। धातूनां साधनानां च वास्तूनां शिल्प-संक्षितम्।। (नाना प्रकार की वस्तुएं, यन्त्र, युक्ति प्रयुक्ति, धातु साधन, कृत्रिम पदार्थ और मंदिर इत्यादि को शिल्प कहते हैं)। शिल्पशास्त्र के अंतर्गत 1) धातुखण्ड 2) साधनखण्ड और 3) वास्तुखण्ड नामक तीन खण्ड माने जाते हैं।
(1) धातुखण्ड में, कृषिशास्त्र, जलशास्त्र और खनिजशास्त्र इन तीन उपशास्त्रों का अन्तर्भाव होता है। इस प्रकार शिल्पशास्त्र के तीन खण्डों के 9 उपशास्त्र माने गये हैं। शिल्पशास्त्रसंबंधी उपशास्त्रों में 22 विद्याओं तथा 64 कलाओं का समावेश किया जाता है।
कृषिशास्त्र में 1) वृक्षविद्या 2) पशुविद्या और 3) मनुष्यविद्या अन्तर्भूत है।
1) वृक्षविद्या की कलाएं सीकराद्युत्कर्षण, वृक्षारोपण, यवादीक्षुविकार, वेणुतृणादिकृति 2) पशुविद्या की कलाएं गजाश्वसारथ्य, गतिशिक्षा, पल्याणक्रिया, पशुचर्मातनिर्हार, चर्ममार्दवक्रिया। 3) मनुष्यविद्या की कलाएं क्षुरकर्म, कंचुकादिसीवन, गृहभाण्डदि निर्माण वस्त्रसम्मार्जन, मनोनुकूल सेवा, नानादेशीय वर्णलेखन, शिशुसंरक्षण, शय्यास्तरण, पुष्पादिग्रथन, अन्नपाचन।।
धातुखण्ड के जलशास्त्र में संसेचनविद्या, संहरणविद्या और स्तंभनविद्या इन तीन विद्याओं का अन्तर्भाव होता है। संसेचन विद्या की जलवाय्वग्निसंयोग नामक एक कला मानी गई है। अन्य दो विद्याओं की कोई कला नहीं है। 68 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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धातुखण्ड के अन्तर्गत खनिजशास्त्र में द्रुतिविद्या, भस्मीकरणविद्या और संकरविद्या नामक विद्याएं मानी गई हैं। उसमें द्रुतिविद्या की रत्नादिसदसज्ज्ञान नामक एक कला है। भस्मीकरणविद्या की क्षारनिपासन, क्षारपरीक्षा, स्नेहनिष्कासन और इष्टिकादिभाजन नाम चार कलाएं हैं।
संकरविद्या की कलाएं औषधिसंयोग, काचपात्रादिकरण, लोहाभिसार, मकरंदादिकृति इत्यादि। पृथक्करणविद्या की 1 कला संयोग धातुज्ञान। इस प्रकार शिल्पशास्त्र का धातुखंड समाप्त होता है।
2) साधनखण्ड : शिल्पशास्त्र का दूसरा खंड साधनखंड है। इस खंड में भी 3 शास्त्र होते हैं जिनके नाम है 1) नौकाशास्त्र 2) रथशास्त्र और 3) विमानशास्त्र। नौकाशास्त्र की 3 विद्याएं 1) तरीविद्या 2) नौविद्या और 3) नौकाविद्या।
तरीविद्या में बाह्वादिभिः जलतरणम् नामक एक कला है। नौविद्या में सूत्रादि रज्जूकरण और पटबंधन नामक दो कलाएं हैं और नौकाविद्या में नौकानयन की एक कला मानी गई है।
रथशास्त्र : इस की 3 विद्याएं 1) पथविद्या 2) घंटापथविद्या और 3) सेतुविद्या। पथविद्या में समभूमिक्रिया और शिलार्चा नामक दो कलाएं हैं।
घण्टापथविद्या में विवरणकरण नामक एक कला है और सेतुविद्या में वृत्तखण्डबन्धन, जलबन्धन और वायुबंधन नामक 3 कलाएँ मानी गई हैं।
साधन खण्ड के विमानशास्त्र में शकुंतविद्या और विमानविद्या नामक दो विद्याएं हैं। उनमें शकुंतविद्या की शकुंतशिक्षा नामक एक कला और विमानविद्या की स्वलेपादिविक्रिया नामक एक कला होती है। इस प्रकार शिल्पशास्त्र के साधन खंड का विस्तार है।
3) वास्तुखण्डः इस खंड में 1) वेश्मशास्त्र 2) प्राकारशास्त्र और 3) नगररचनाशास्त्र नामक तीन शास्त्रों का अंतर्भाव होता है। वेश्मशास्त्र में 1) वासोविद्या 2) कुट्टिविद्या 3) मंदिरविद्या और 4) प्रासादविद्या नामक चार विद्याओं का अन्तर्भाव होता है।
वासोविद्या में चर्म कौषेय कार्पासादि पटबंधन नामक एक कला है। कुट्टिविद्या में 1) मृदाच्छादन और 2) तृणाच्छादन नामक दो कलाएं होती हैं।
मंदिरविद्या में चार कलाएं 1) चूर्णावलेप 2) वर्णकर्म 3) दारुकर्म और 4) मृत्कर्म। प्रासादविद्या की कलाएँ 1) चित्राद्यालेखन 2) प्रतिमाकरण 3) तलक्रिया और 4) शिखरकर्म।
प्राकारशास्त्र : यह वास्तुखंड का दूसरा शास्त्र है। इसमें 1) दुर्गविद्या 2) कूटविद्या 3) आकरविद्या और 4) युद्धविद्या नामक चार विद्याएं मानी गई हैं। उनमें केवल युद्धविद्या की 1) मल्लयुद्ध 2) शस्त्रसंधान 3) अस्त्रनिपातन 4) व्यूहरचना 5) शल्यहति और 6) वणव्याधिनिराकरण नामक छह कलाओं का अन्तर्भाव होता है।
नगररचना शास्त्र - इस शास्त्र में (1) आपण विद्या, (2) राजगृहविद्या, (3) सर्वजनावासीविद्या (4) उपवनविद्या और (5) देवालयविद्या नामक पांच विद्याएं होती हैं। उनमें केवल उपवनविद्या की वनोपवन रचना नामक एक कला मानी गई है।
उपरिनिर्दिष्ट वर्गीकरण के अनुसार भारतीय शिल्पशास्त्र एक महाविषय है और उसमें 3 खंड, 9 उपशास्त्र, 31 विद्याएं तथा 64 कलाओं का अन्तर्भाव होता है। आज इन शास्त्र-विद्या-कलाओं का अध्ययन भारत में होता है परंतु उनमें भारतीयता का कोई अंश नहीं है। पाश्चात्य संस्कृति से भारतीय शिल्पशास्त्र के अंगोपांग प्रभावित हो गए हैं। अब इनका महत्त्व केवल ऐतिहासिक स्वरूप का रह गया है।
संस्कृत भाषा में लिखे हुए शिल्पशास्त्र विषयक अनेक ग्रंथों के नाम यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं। उनमें से कुछ थोडे ही ग्रंथों का अभी तक प्रकाशन हुआ है। भारतीय शिल्पशास्त्र के अर्वाचीन उपासक स्व. रावबहादुर वझे (महाराष्ट्र) ने सन् 1928 में शिल्पशास्त्र विषयक ग्रंथों की नामावली तैयार की थी। उसका निर्देश यहां किया जाता है।
अ) सूत्र ग्रंथ :- बोधायन शुल्बसूत्र, हिरण्यकेशी श्रौतसूत्र, कात्यायन श्रौतसूत्र, गौभिल गृहयसूत्र, आश्वलायन गृह्यसूत्र, पाराशरसूत्र और वात्स्यसूत्र। आ) संहिता ग्रंथ :- अर्थवसंहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण, अगस्त्यसंहिता, हारीतसंहिता, विश्वकर्मसंहिता और पद्मसंहिता। इ) पुराण ग्रंथ :- अग्निपुराण, वायुपुराण, गरुडपुराण, देवीपुराण और ब्रह्माण्डपुराण। ई) ज्योतिषग्रंथ :- लग्नशुद्धि, नक्षत्रकल्प, भुवनदीपिका, ग्रहपीडामाला । उ) गणितग्रंथ :- प्रमाणमंजरी, मानविज्ञान, लीलावती-गोलाध्याय, मानसंग्रह, विमानादिमान और मानबोध। ऊ) चित्रविद्याग्रंथ :-कलानिधि, चित्रबाहुल्य, छायापुरुषलक्षण, वर्णसंग्रह, चित्रखंड, चित्रलक्षण, चित्रकर्मीयशिल्प । ए) द्रव्यविद्याग्रंथ :- दारुसंग्रह, काष्ठशाला, काष्ठसंग्रह और मृतसंग्रह।
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ऐ) प्रतिमाविद्या ग्रंथ :- रूपमण्डन, रूपावर्त, गंधर्वविद्या, रूपावतार, रूपविधिद्वारदीपिका, मूर्तिज्ञान, ध्यानपद्धति और प्रतिमालक्षण । ओ) उपवनविद्याग्रंथ :- आहटिक, विहारकारिका, शाधरपद्धति । औ) वास्तुविद्या :- गृहवास्तुसार, निर्दोषवास्तु, वास्तुबोध, वास्तुमंजरी, वास्तुविचार, वास्तुसमुच्चय, वास्तुपद्धति, वास्तुशास्त्र, वास्तुतंत्र, वास्तुमाहात्म्य, वास्तुकोश, वास्तुरत्नावली, वास्तुप्रकाश, वास्तुचक्र, वास्तुराज, वास्तुकरण, वास्तुपुरुष, वास्तुनिधि, वास्तुनिर्माण, वास्तुशिरोमणि, वास्तुविद्या, वास्तुतिलक, वास्तुलक्षण, वास्तुसंग्रह, वास्तुप्रदीप, वास्तुविद्यापति, सनत्कुमारवास्तु, मानसारवास्तु, रुद्रयामलवास्तु, विश्वंभरवास्तु, कुमारवास्तु, वास्तुवल्लभ, वास्तुतंत्र, प्रतिष्ठातंत्र, मनुतंत्र, नलतंत्र, त्वाष्ट्रतंत्र, सुखानन्दवास्तु, फेरुठकुरवास्तु ।
शिल्पज्ञान, शिल्पप्रकाश, शिल्पसंग्रह, शिल्पकलादीप, शिल्प-साहित्य, शिल्परत्नाकर, शिल्पावतंस, शिल्पविज्ञान, शिल्पसर्वस्वसंग्रह, शिल्पार्थसार, शिल्पशास्त्रसार, शिल्पलेखा, शिल्पसंग्रह, शिल्पदीपिका, शिल्पदीपक, शिल्पविषय।
कश्यपशिल्प, हनुमच्छिल्प, नारायणशिल्प, वशिष्ठशिल्प कल्प, सृष्टि, आन्नेय, भारतीदीप, प्राजापत्य, मार्कण्डेय, शौनक, विश्व, औशनस, ईशान, नग्नजित्, ब्राम्हीय, वाल्मीकि, वज्र, विश्वकर्मीय, प्रबोध, भारद्वाज, मय, अनिरुद्ध, कुमार, पाणिनि, बृहस्पति, वसुदेव, चित्रकर्म, ऋषिमय, सनत्कुमार, सारस्वत, भास्करीय, विश्वकर्म, शत्रुघ्नीय।
गौर्यागम, पंचरात्रागम, कुमारागम, अंशुमानभेदकागम, गुंजकल्प, धातुकल्प, नक्षत्रकल्प, द्रुमवर्णकल्प, युक्तिकल्पतरु, प्रसादकल्प, गौतममत, भोजमत, सौर, मयमत, कार्य, नारदीय, चित्रशाल, महाविश्वकर्मीय, कापिल, कालापक, आग्नियं, गोपासमं, ब्राह्मीय, बृहस्पतीयं.
इस प्रकार केवल वास्तुशास्त्र विषयक करीब 125 ग्रंथों के नाम स्व. रावबहादुर श्री. वझेजी ने उपलब्ध किए हैं। इसके अतिरिक्त यंत्रविद्या विषयक ग्रंथो की नामावली:विमानशास्त्र :- अग्नियान, विमानचन्द्रिका, व्योमयानतंत्र, यंत्रकल्प, यानबिंदु, खेटयानप्रदीपिका, व्योमयानार्कप्रकाश, वैमानिकप्रकरण। नौकाशास्त्र ग्रंथ :- अब्धियान, जलयानज्ञान, यज्ञांगग्रंथसिंधु, पंचाशत्कुण्डमण्डपनिर्णय, वास्तूटजविधि। देवालयशास्त्र ग्रंथ :- केसरीराज, राजप्रासादमंडन, प्रासादकल्प, प्रासादकीर्तन, प्रासादकेसरी, प्रासादलक्षण, प्रसाददीपिका, प्रासादालंकार, प्रासादविचार, प्रासादनिर्णय, राजगृहनिर्माण, केसरीवास्तु। यंत्रशास्त्र विषयक ग्रंथ :- यंत्रार्णव, शिल्पसंहिता (अध्याय 18), यंत्रचिंतामणि, यंत्रसर्वस्व, यत्राधिकार, सूर्यसिद्धांत और सिद्धांतशिरोमणि इ.। खनिशाग्रंथ :- रत्नपरीक्षा, लोहवर्णन, धातुकल्प, लोहप्रदीप, महावज्र, भैरवतंत्र और पाषाणविचार इ.। तंत्रविद्याग्रंथ :- तंत्रसमुच्चय, महातंत्र, तत्त्वमाला । रसविद्याग्रंथ :-रसरत्नसमुच्चय, शाङ्गधर।। प्राकारशास्त्रग्रंथ :- युद्धजयार्णव, बाणस्थापननिर्णय, समरांगण-सूत्रधार, विधातृमित्र, धनुर्वेद, जामदग्न्यधनुर्वेद, भारद्वाज, धनुर्वेद, कोदण्डमण्डन। नगररचनाशास्त्र ग्रंथ :-मयमत, युक्तिकल्पतरु । वृक्षविद्याग्रंथ :-द्रुमवर्णकल्प, वृक्षायुर्वेद, नाकुल, शालिहोत्र । पशुविद्याग्रंथ :- हस्त्यायुर्वेद, नाकुल, शालिहोत्र । संकीर्णग्रंथ :- आदिसार, मानवसूत्र, विशालाक्ष, विश्वकर्माविद्या, प्रतिष्ठासारसंग्रह, ज्ञानरत्नकोष, नामसंगीत, विश्वसार, मयदीपिका,
आदितत्त्व, आर्यादिलक्षण, विश्वकर्मप्रकाश, प्रबोधक, विश्वकर्म-सिद्धांत, महासार, मानसार, विश्वसारोद्धार, अपराजितपृच्छा, ज्ञानप्रकाशदीपावली, विस्तारक, मनुसार, मंजुश्रीसाधन, विश्वधर्म, उद्धारधोरणी, मयजय, मयसंग्रह, कामिकादीप्ति, रत्नावलीसार, पद्यतंत्रक्रिया, मनःशिल्प, मयविद्याप्रकाश, विश्वकर्मरहस्य, क्षीरार्णवविराव, सूत्रधार, सूत्रसंतान, क्षीरार्णवकारिका, हेमाद्रिप्रतिष्ठामूलस्तम्भनिर्णय, मयमाया, सकलधिकार, क्षीरार्णव, मयरत्नप्रयोगमंजरी, प्रयोगसंहिता शिल्परत्न, श्रीकलानिधि, शिवगुह-देवपद्धति ज्ञानरत्नकोष, गोविन्दकलानिधि, ज्ञानसार पराजित, ज्ञानकारिका, मातंगलीला चक्रावलीसंग्रह, भद्रमार्तण्डप्रकाश, विश्वकर्मप्रकाश, आर्यतत्त्व इत्यादि ।
भारतीय शिल्पकला विषयक इन अप्रकाशित ग्रंथों की यह प्रदीर्घ तालिका यही बतलाती है कि हमारे पूर्वज इस भौतिक विद्या में भी अग्रसर थे। इन अप्रकाशित ग्रंथों का गवेषण तथा प्रकाशन करने का कार्य केवल शासकीय सहायता से ही हो सकता है। स्वतंत्र भारत में बडे बडे शिल्पशास्त्र के महाविद्यालयों का अब निर्माण हुआ है और उनमें शोधकार्य भी हो रहा है। परंतु हमारे आधुनकि वास्तुशास्त्रज्ञ और शिल्पशास्त्रज्ञ अगर संस्कृत का अध्ययन करेंगे तो ही उनके द्वारा भारत की इस प्राचीन प्रगत विद्या का परिचय कराने का कार्य हो सकता है। इंजिनिअर लोग संस्कृत नहीं जानते और संस्कृततज्ञ लोग इंजिनिअरिंग नहीं जानते इस कारण यह अनवस्था निर्माण हुई है।
70/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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प्रकरण - 4
1 "पुराण वाङ्मय" हिंदु समाज के किसी भी धर्मकृत्य के संकल्प में "श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त"- यह शब्दप्रयोग आता है। अर्थात् इस समाज के परम्परागत धर्म का प्रतिपादन श्रुतियों (वेद), स्मृतियों (मनु-याज्ञवलक्यादि के धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ) और पुराणों में मूलतः हुआ है। श्रुति और स्मृति में प्रतिपादित आचारधर्म का विधान त्रैवर्णिकों के ही लिए है किन्तु पुराणों में प्रतिपादित धर्म सभी मानवमात्र के लिये है। "एष साधारणःपन्थाः साक्षात् कैवल्यसिद्धिदः''
अर्थात् मोक्षप्राप्ति कराने वाला यह (पुराणोक्त धर्म) सर्वसाधारण है ऐसा पद्मपुराण में कहा है। सदाचार, नीति, भक्ति इत्यादि मानवोद्धारक तत्त्वों का उपदेश पुराणों ने अपनी रोचक, बोधक तथा सरस शैली में भरपूर मात्रा में किया है। पुराण कथाओं के कुछ अतिशयोक्तिपूर्ण, तर्कविसंगत एवं असंभाव्य अंशों की ओर निर्देश करते हुए उनकी कटु आलोचना कुछ चिकित्सक वृत्ति के विद्वानों ने की है, परंतु भारतीय परंपरा का यथोचित आकलन होने के लिये वैदिक वाङ्मय के समान पुराण वाङ्मय का भी ज्ञान अनिवार्य है, इसमें मतभेद नही हो सकता।
____ "पुराण' शब्द की निरुक्तिमूलक व्याख्या, "पुरा नवं भवति" (अर्थात् जो प्राचीन होते हुए भी नवीन होता है) एवं यस्मात् पुरा ह्यनतोदं पुराणं तेन तत्स्मृतम्। (अर्थात् (पुरा + अन) प्राचीन परंपरा की जो कामना करता है) इत्यादि वाक्यों में प्राचीन मनीषियों ने बताया है।
"सर्गश्च प्रतिसर्गश्च वंशो मन्वन्तराणि च। वंशानुचरितं चेति पुराणं पंचलक्षणम् ।।
इस प्रसिद्ध श्लोक में, सर्ग (विश्व की उत्पत्ति) प्रतिसर्ग (विश्व का प्रलय) वंश, मन्वन्तर (काल में स्थित्यंतर) एवं राजर्षियों के वंशों का ऐतिहासिक वृत्तान्त, इन पांच विषयों को पुराण का लक्षण माना गया है। कुछ अपवाद छोड कर सभी पुराणों में इन पांच विषयों का सविस्तर प्रतिपादन दिखाई देता है। "इतिहास-पुराणाभ्यां वेदं समुपबृहयेत्” यह भी एक वचन सुप्रसिद्ध है। तद्नुसार वेदज्ञान के विकास का साधन इतिहास और पुराण ग्रंथ माने जाते हैं। "इतिहास-पुराण"-- यह सामासिक शब्द प्रयोग वेद--उपनिषदों में आता है। वायुपुराण तथा महाभारत, स्वरूपात पुराण होते हुए भी इतिहास कहलाए गये हैं।
“पुराण' शब्द का प्रयोग ऋग्वेद, अथर्ववेद, गोपथ और शतपथ ब्राह्मण, आपस्तंब धर्मसूत्र, इत्यादि प्राचीन वैदिक ग्रंथों में हुआ है। अश्वमेधादि वैदिक यज्ञ-यागों में सूतों द्वारा पुराणों का कथन होता था। इन प्रमाणों से पुराणों की प्राचीन परंपरा सिद्ध होती है। उपनिषदों में इतिहासपुराण को "पंचमवेद" कहा है। विष्णुपुराण में कहा है कि
"आख्ता नैश्चाप्युपाख्यानैर्गाथाभिः कल्पशुद्धिभिः। पुराणसंहितां चक्रे पुराणार्थविशारदः" । अर्थात् पुराणों के मर्मज्ञ (व्यास) ने आख्यानों, उपाख्यानों, गाथाओं और कल्पशुद्धि (आचार विधि) इन उपकरणों से युक्त पुराणसंहिता का निर्माण किया और अपने प्रमुख शिष्य रोमहर्षण को उसका अधिकार दिया। रोमहर्षण ने अपने प्रमुख छह शिष्यों को यह संहिता पढाई। इस प्रकार अठारह पुराण संहिताओं का विस्तार हुआ। इन अठारह नामों का संग्रह एक सूत्रात्मक श्लोक में किया गया है :
म-द्रय भ-द्वयं चैव ब्र-त्रयं व-चतुष्टयम्। अ-ना-प-लिंग-कू-स्कानि पुराणानि पृथक् पृथक् ।। अर्थ मद्यं = मत्स्य, मार्कण्डेय। भद्वयं-भविष्य, भागवत। बत्रयं ब्रह्म, ब्रह्म-वैवर्त, ब्रह्माण्ड, । वयचतुष्टयम् = वराह, वामन, वायु, विष्णु। अ-अग्नि । ना = नारद। प-पद्म। लिं-लिंग। ग-गरुड। कू-कर्म। स्क-स्कंद। इस प्रकार आद्याक्षरों से पृथक् पृथक्
पुराणों की नामावली का कथन हुआ है। पद्मपुराण में इन अठराह पुराणों का त्रिगुणों के अनुसार त्रिविध वर्गीकरण किया है। 1) सात्त्विक पुराण : विष्णु, नारद, भागवत, गरुड, पद्म और वराह । 2) राजस पुराण : ब्रह्म, ब्रह्माण्ड, ब्रह्मवैवर्त, मार्कण्डेय, भविष्य और वामन । 3) तामस पुराण : मत्स्य, कूर्म, लिंग, वायु, स्कन्द और अग्नि। सामान्यतः सात्त्विक पुराण विष्णु माहात्म्य परक, राजस पुराण ब्रह्माविषयक और तामस पुराण शिव विषयक है।
भागवत पुराण के अनुसार अठराह पुराणों की श्लोकसंख्या निम्नप्रकार है : 1) ब्रह्मपुराण - 10 सहस्त्र 3) विष्णु - 23 "
5) भागवत - 18" 2) पद्म - 55 सहस्त्र 4) शिव - 24 "
6) भविष्य - 14,500
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7) नारद - 25 " 11) लिंग - 11"
15) कूर्म - 17 " 8) मार्कण्डेय - 41 " 12) वराह - 24 "
16) मत्स्य - 14 " 9) अग्नि - 14,500 13) स्कंद - 81,100
17) गरुड - 19 " 10) ब्रह्मवैवर्त - 18 " 14) वामन - 10 "
18) ब्रह्माण्ड - 12 " पुराणों की श्लोकसंख्या के संबंध में विद्वानों में भतभेद है। तथापि 18 पुराणों की संख्या कुल मिलाकर 40 लक्ष 20 हजार से अधिक मानी जाती है। देवी भागवत में 18 उपपुराणों के नाम दिये हैं। प्राचीनता अथवा मौलिकता के विचार से उपपुराणों का भी महत्त्व पुराणों के समान है। उपपुराणों के नाम हैं : सनत्कुमार, नरसिंह, नन्दी, शिवधर्म, दुर्वासा, नारदीय, कपिल, मानव, उषनस् ब्रह्माण्ड, वरुण, कालिका, वसिष्ठ, लिंग, महेश्वर, साम्ब, सौर, पराशर, मारीच और भार्गव । इनके अतिरिक्त अन्य पुराणों के भी नाम मिलते है जैसे आदि, आदित्य, मुद्गल, कल्कि, देवीभागवत, बृहद्धर्म, परानन्द, पशुपति, हरिवंश तथा विष्णुधर्मोत्तर इ.
जैन वाङ्मय में जिन ग्रंथों में जैन पंथी महापुरुषों के चरित्र वर्णित हैं उन्हें पुराण कहा जाता है। 24 तीर्थकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलदेव, 9 वासुदेव, 9 प्रतिवासुदेव इन महापुरुषों को जैन परंपरा में "शलाकापुरुष' कहते हैं। इन के चरित्र जिन ग्रंथों में वर्णित हैं, उनकी संख्या है 24। इन चौवीस ग्रंथों को दिगम्बर लोग "पुराण' कहते है जब कि श्वेताम्बर समाज में उन्हीं को चरित्र कहा जाता है। जैनपुराणों के नाम हैं : आदिपुराण, अजितनाथ०, संभवनाथ०, अभिनंद०, सुमतिनाथ०, पाप्रभ०, सुपार्श्व०, चन्द्रप्रभ०, पुष्पदन्त०, शीतलनाथ०, श्रेयांस०, वासुपूज्य०, विमलानाथ अनन्तजित०, धर्मनाथ०, शान्तिनाथ०, कुन्थुनाथ०, अमरनाथ०, मल्लिनाथ०, मुनिसुव्रत०, नेमिनाथ०, पार्श्वनाथ०, और सम्मतिपुराण ।
बौद्ध वाङ्मय में पुराणसदृश ग्रंथ नहीं हैं। वैदिक पुराणों में पद्म, भागवत, नारद, सोम एवं साम्ब इन पांच पुराणों को "महापुराण'' कहते हैं। परम्परा के अनुसार प्रत्येक पुराण की जो कुछ श्लोकसंख्या बताई गई है, उतने श्लोक आज के उपलब्ध
पुराणों में नहीं मिलते। विष्णुपुराण की विष्णुचित्ती एवं वैष्णवाकृत-चंद्रिका नामक टीकाओं में 6 हजार से लेकर 24 हजार तक विष्णुपुराण की श्लोक संख्या का निर्देश है, परंतु दोनों टीकाएं केवल 6 हजार श्लोक वाले विष्णुपुराण की टीका करते हैं।
कूर्मपुराण के भी 6 हजार श्लोक मिलते हैं। ब्रह्मपुराण में 14 हजार श्लोक मिलते हैं। दूसरी ओर स्कन्दपुराण के संस्करण में 81 हजार से अधिक श्लोक पाये जाते हैं। प्रो. हाजरा के अनुसार समस्त उपपुराणों की कुल संख्या एक सौ तक है। इन में
से बहुत ही अल्प प्रकाशित हो सके हैं, और जो प्रकाशित हुए हैं, उनमें पुराणों के 'पंचलक्षण'' नहीं मिलते। सभी पुराणों में केवल विष्णुपुराण में 'पंचलक्षण'' सम्यक् रूप में मिलते हैं। अन्यत्र राजाओं के वंशों का वर्णन, वीरों के साहसिक कर्म, गाथाएं इत्यादि विषयों के साथ व्रत, श्राद्ध, तीर्थयात्रा और दान इन चार धर्मशास्त्रीय विषयों पर प्रभूत मात्रा में विवरण किया गया है। श्रीमद्भागवत पुराण के दस लक्षण बताये गये हैं :
"अत्र सर्गो विसर्गश्च स्थानं पोषणमृतयः । मन्वन्तरेशानुकथा निरोधो मुक्तिराश्रयः ।। (भागवत-2-10-1) इन दस विषयों का प्रतिपादन श्रीमद्भागवत में होने के कारण, अन्य पंचलक्षणी पुराणों से इस का महत्व विशेष माना जाता है। 12 स्कन्धों में विभाजित 18 हजार श्लोकों का भागवत पुराण आज सर्वत्र प्रचार में है। इस पुराण में प्रतिपादित भक्तिप्रधान तथा अद्वैतनिष्ठ धर्म को "भागवत धर्म'' कहते हैं। भागवत में कपिल-देवहूति संवाद. सनत्कुमार-पृथु संवाद पुरंजनोपाख्यान, अजामिलोपाख्यान, ययाति आख्यान, नारद-वसुदेव संवाद और श्रीकृष्णा-उद्धव संवाद इत्यादि स्थानों पर अत्यंत मार्मिक तत्त्वोपदेश किया गया है। संपूर्ण भागवत पुराण अत्यंत काव्यमय है, फिर भी दशम स्कन्ध में वेणुगीत, गोपीगीत, युगुलगीत, महिषीगीत एवं संपूर्ण रासपंचाध्यायी में ऐसी अप्रतिम काव्यात्मता प्रकट हुई जो अन्यत्र महाकाव्यों में भी नहीं मिलती।
संपूर्ण ग्रंथ में जितने भी भगवत्स्तोत्र मिलते है, उनमें सांख्यदर्शन की परिभाषा एवं सिद्धान्त का अनुसरण करते हुए भक्तिपूर्ण वेदान्तरहस्य प्रतिपादन हुआ है। इस पुराण में सर्वत्र पांडित्य इतनी अधिक मात्रा में बिखरा है कि उसके कारण विद्यावतां
भागवते परीक्षा" यह सुभाषित प्रसिद्ध हुआ। इसी कारण भागवत पुराण पर जितने विविध टीका ग्रंथ लिखे गये, उतने अन्य किसी पुराण पर नहीं लिखे गये। इन सब टीकाओं में श्रीधर स्वामी की भावार्थबोधिनी (या श्रीधरी) टीका सर्वोत्कृष्ट मानी जाती है।
आधुनिक विद्वान पुराणों का वर्गीकरण निम्न प्रकार करते हैं : 1) ज्ञानकोशात्मक पुराणः अग्नि, गरुड एवं नारदीय। 2) तीर्थों से संबंधित : पद्म, स्कन्द एवं भविष्य 3) साम्प्रदायिक : लिंग, वामन, मार्कण्डेय। 4) ऐतिहासिक : वायु एवं ब्रह्माण्ड ।
संभवतः वायु, ब्रह्माण्ड, मत्स्य एवं विष्णु, विद्यामान पुराणों में सबसे प्राचीन माने जाते हैं। आधुनिक काल में पाश्चात्य एवं भारतीय विद्वानों ने समग्र पुराण वाङ्मय का चिकित्सक दृष्टि से पर्यालोचन करने का अभिनंदनीय कार्य किया है। स विद्वानों में एफ, इ. पार्जिटर, डब्ल्यू. किर्फेल, एस. सी. हाजरा, व्ही. आर. रामचंद्र दीक्षितर, डॉ. ए. डी. पुसाळकर, एस. एम. प्रधान एवं भारतरत्न पां. वा. काणे इत्यादि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। पाश्चात्य विद्वानों ने अनेक पौराणिक वक्तव्यों में दोपही देखे और उन्हें अव्यावहारिक मान कर छोड़ दिया। उन्होंने सर्वत्र भारतीय विषयों में प्राचीन तिथियां निर्धारित करने में संकोचवृत्ति
PHRADHA
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प्रदर्शित की है। वे पुराणों एवं महाभारत के ज्योतिःशास्त्रीय वक्तव्यों में यथार्थता नहीं मानते और जहां यथार्थता दीखती है वहां "प्रक्षेप' (इंटरपोलेशन) मानकर, निराकृत कर देते हैं। पारजिटर ने तो यह भी कह दिया है कि पुराण ग्रंथ प्राकृत भाषीय ग्रंथों के संस्कृत रूपान्तर हैं। किर्फेल ने पार्जिटर के इस मत का विरोध किया है। पुराणों एवं उपपुराणों के अंतरंग का परीक्षण
करने वालों को उन की निर्मिति में कुछ क्रमिक विकास दिखाई देता है। इसी कारण पुराणों के काल निर्धारण के संबंध में मतभेद दिखाई देता है। परंपरावादी मत का उल्लेख उपर किया गया है। आधुनिक चिकित्सकों में भारतरत्न म.म. पांडुरंग वामन काणे का मत प्रतिपादन हमें उचित लगा। अतः वह यहां उद्धृत करते हैं:
___ "अथर्ववेद, शतपथ ब्राह्मण एवं प्राचीन उपनिषदों में उल्लिखित “पुराण' के विषय में हमें कुछ भी ज्ञात नहीं है, किन्तु इतना स्पष्ट है कि पुराण ने वेदों के समान ही पुनीतता के पद को प्राप्त कर लिया था और वैदिक काल में वह इतिहास के साथ गहरे रूप से संबंधित था। पुराण साहित्य के विकास की यह प्रथम सीढ़ी थी किन्तु हम प्राचीन कालों के पुराण के भीतर के विषयों को बिल्कुल नहीं जानते।
तैत्तिरीय आरण्यक ने "पुराणानि" का उल्लेख किया है, अतः उस के समय में कम से कम तीन पुराण तो अवश्य रहे होंगे क्यों कि यह निर्देश बहुवचन में है। आपस्तंब धर्मसूत्र ने एक पुराण से चार श्लोक उद्धृत किये हैं और एक पुराण को भविष्यत् पुराण नाम से पुकारा है जिससे प्रकट होता है कि पांचवी या चौथी ई.पू. शती तक कम से कम भविष्यत् पुराण नामक पुराण था। और अन्य पुराण रहे होंगे, या एक और पुराण रहा होगा जिसमें सर्ग एवं प्रतिसर्ग साथ कुछ स्मृति के विषय रहे होंगे। इसे हम पुराण साहित्य के विकास की दूसरी सीढी कह सकते है जिसके विषय के बारे में हमें कुछ थोडा बहुत ज्ञात है।
महाभारत ने सैकडों श्लोक उद्धृत किये हैं, जिनमें कुछ तो पौराणिक विषयों की गन्ध रखते हैं और कुछ पौराणिक परिधि में आ जो है। कुछ उदाहरण दिये जा रहे हैं : वन पर्व में विश्वामित्र की अतिमानुषी विभूति के विषय में एवं उनके इस
कथानक के विषय में (कि वे ब्राह्मण हैं) दो श्लोक उद्धृत किये हैं। अनुशासन पर्व में कुछ ऐसी गाथाएं उद्धृत की हैं जो पितरों द्वारा पुत्रों की महत्ता के विषय में गायी गयी हैं। ये गाथाएं शब्दों एवं भावों में इसी विषय में कहे गये पौराणिक वचनों
से मेल रखती हैं। याज्ञवल्क्य ने (1/3) पुराण को धर्मसाधनों में एक साधन माना है जिससे यह सिद्ध होता है कि कुछ ऐसे पुराण, जिन में स्मृति की बातें पायी जाती थी, उस स्मृति (अर्थात याज्ञवल्क्य स्मृति) से पूर्व ही अर्थात् दूसरी या तीसरी
शती में प्रणीत हो चुके थे। पुराणसाहित्य के विकास की यह तीसरी सीढी है। यह कहना कठिन है कि, वर्तमान मत्स्य पुराण मौलिक रूप से कम लिखा गया, किन्तु यह तीसरी शती के मध्य में या अन्त में संशोधित हुआ क्यों कि इसमें आन्ध्र वंश
के अधःपतन की चर्चा तो है, किन्तु गुप्तों का कोई उल्लेख नहीं है। किन्तु यह संभव है कि मत्स्य का बीज इस के कई शतियां पुराना हो। यही बात वायु एवं ब्रह्माण्ड के साथ भी है। ये दोनों लगभग ई. 320-335 के आसपास संगृहित या
संवर्धित हुए; क्यों कि इन्होंने गुप्तों की ओर संकेत तो किया है किन्तु गुप्त राजाओं के नाम नहीं लिये हैं। आज के रूप में ये दोनों (वायु एवं ब्रह्माण्ड) पुराण विकास की तीसरी सीढ़ी में ही रखे जाते हैं। महापुराणों में अधिकांश 5 वीं या छटी
शती और 9 वीं शती के बीच में प्रणीत हुए या पूर्ण किये गये। यह है पुराण साहित्य के विकास की चौथी सीढ़ी। उपपुराणों का संग्रह 7 वीं या 8 वीं शताब्दी के आरंभ से हुआ और उनकी संख्या 13 वीं शती तक या इसके आगे तक बढ़ती गयी। यह है पुराण साहित्य के विकास की अंतिम सीढी। इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराणों ने हिंदु समाज को ईसा के पूर्व की शतियों के कुछ उपरान्त से 17 वीं या 18 वीं शती तक किंबहुना आज भी प्रभावित किया हुआ है। नवीं शती के उपरान्त कोई अन्य महापुराण नहीं प्रकट हुए किन्तु अतिरिक्त विषयों का समावेश कुछ पुराणों में होता रहा, जिसका सबसे बुरा उदाहरण है भविष्य पुराण का तृतीय भाग, जिसमें आदम एवं ईव, पृथ्वीराज एव जयचन्द्र, तैमूर, अकबर, चैतन्य, भट्टोजी, नादिरशाह आदि की कहानियाँ भर दी गयी हैं। पुराण शब्द ऋग्वेद में एक दर्जन से अधिक बार आया है। वहां यह विशेषण है और इसका अर्थ है प्राचीन, पुरातन या वृद्ध । जब पुराण प्राचीन कथानकों वाले ग्रन्थ का द्योतक हो गया तो "भविष्यत् पुराण" कहना स्पष्ट रूप से आत्मविरोध (या वदतोव्याघात) का परिचायक हो गया। किन्तु इस विरोध पर ध्यान नहीं दिया गया।" (भारत रत्न म. म. डॉ. पांडुरंग वामन काणे कृत धर्मशास्त्र का इतिहास। हिन्दी अनुवाद चतुर्थ भाग पृ. 397-98)
2 "पुराणोक्त धर्म" पुराणों का वेदों से दृढ संबंध है। प्रायः सभी पुराण तथा उपपुराण वेदानुकूल हैं। इसी कारण सनातन धर्मियों के प्रत्येक धार्मिक कृत्य के प्रारंभ में श्रुतिस्मृति-पुराणोक्तफलप्राप्त्यर्थ कर्म करिष्ये" यह संकल्पवाक्य उच्चारित होता है। वायुपुराण में ऐसा बलपूर्वक कहा है कि
यो विद्याच्चतुरो वेदान् सांगोपनिषदो द्विजः । न चेत् पुराणं संविद्याद् नैव स स्याद् विचक्षणः ।। 1-200 ।। अर्थात् जो वैदिक विद्वान चारों वेदों का, उनके छः अंगों एवं उपनिषदों के साथ ज्ञान प्राप्त करता है, किन्तु वह पुराणों
आदि को कण का तृतीय हुए किन्तु मा शती तक
है और
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का ज्ञान नहीं प्राप्त करता, तो वह 'विचक्षण' अर्थात मर्मज्ञ नहीं होगा। यही भाव अन्य पुराणों में भी व्यक्त किया गया है। इस का यही तात्पर्य है कि वेदों में प्रतिपादित ज्ञानकाण्ड एवं कर्मकाण्ड का मार्मिक ज्ञान देने वाले ग्रंथ पुराण ही हैं। बौद्ध धर्म के हासकाल में "जनता का आकर्षण पुराणोक्त धर्म की ओर बढ़ गया। पुराणोक्त धर्म सभी वर्गों एवं जातियों के लिए
आचरणीय होने के कारण, वह एक दृष्टि से भारत का राष्ट्रीय धर्म सा हो गया। पुराणों ने बुद्ध को भगवान् विष्णु के दस अवतारों में राम कृष्ण इत्यादि विभूतियों के साथ पूजनीय माना। बौद्ध धर्म के अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह जैसे प्राणभूत सिद्धान्तों को अपने धर्मविचारों में अग्रक्रम देने के कारण तथा उनके साथ भगवद्भक्ति का परमानंददायक मुक्तिसाधन सभी मानवमात्र के लिये आग्रहपूर्वक प्रतिपादन करने के कारण इस देश की बौद्ध मतानुयायी बहुसंख्य जनता पुराणोक्त धर्म के प्रति आकृष्ट हो गयी। भारत के बाहर भी अनेक देशों के सांस्कृतिक जीवन पर रामायण एवं महाभारत का गहरा प्रभाव पड़ा। जावा, सुमात्रा, काम्बोडिया जैसे सुदूर पूर्ववर्ती देशों में बौद्ध धर्म के न्हास के साथ इस्लाम का प्रभाव बढ़ने पर भी, उन देशों
की नृत्य, नाट्य आदि कलाओं में आज भी रामायण-महाभारत जैसे श्रेष्ठ पुराण सदृश्य ग्रंथों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। भारत के मध्ययुगीन इतिहास में इस्लामी आक्रमकों के घोर अमानवीय अत्याचारों के कारण इस देश के वैयक्तिक पारिवारिक एवं सामाजिक जीवन में जो भी धार्मिकता जीवित रह सकी, उसका स्वरूप “पुराणोक्त" ही था। इस काल में यज्ञ-यागात्मक वेदोक्त कर्मकाण्ड का तथा तांत्रिक क्रियाओं का पुराणोक्त धर्मविचारों का प्रभाव, वैदिक कर्ममार्ग तथा बौद्धिक नीतिमार्ग पर पडा
और प्रायः सारा भारतीय समाज पुराणोक्त धर्मानुगामी बना। ब्राह्मणों के धार्मिक कृत्यों में वैदिक मंत्रों के साथ पौराणिक मंत्र भी व्यवहुत होने लगे। शूद्रों तथा स्त्रियों को रामायण, महाभारत एवं अन्य पुराणों के पढने का अधिकार पुराणोक्त धर्म के
पुरस्कर्ताओं ने दिया। साथ ही अन्य वर्णियों के समान देवपूजा करने एवं अपने व्रतों एवं उत्सवों में पौराणिक मन्त्रों का प्रयोग करने का भी अधिकार उन्हें मिला। अर्थात् इस विषय में कुछ धर्मशास्त्रियों ने अपने अन्यान्य मत बाद में व्यक्त किये हैं।
वेदों, जैमिनिसूत्रों, वेदान्तसूत्रों जैसे प्राचीन धर्मग्रन्थों ने इस बात पर कभी विचार नहीं किया कि स्त्रियां एवं शूद्र किस प्रकार उच्च आध्यात्मिक जीवन एवं अंतिम सुंदर गति प्राप्त कर सकते हैं। उन्होंने स्त्रियों और शूद्रों को वेद उपनिषदों के अध्ययन का अनधिकारी माना है। इस कारण शूद्र समाज का ध्यान भगवान् बुद्ध के धर्म की ओर आकृष्ट हुआ। पुराणों ने सर्वप्रथम प्राचीन परंपरागत संकुचित एवं कृपण दृष्टिकोण को परिवर्तित किया। "स्वे स्वे कर्मण्यभिरतः संसिद्धिं लभते नरः" अथवा यतः प्रवृत्तिर्भूतानां येन सर्वमिदं ततम्। स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य सिद्धिं विन्दति मानवः” (गीता- 18/45-46) इस प्रकार के भगवद्गीता के वचनों में पुराण-धर्म का सारसर्वस्व बताया गया है। एकादशीव्रत, श्राद्धविधि, कृष्णजन्माष्टमी जैसे सामाजिक महोत्सव, तीर्थयात्रा, तीर्थस्नान, नामजप, अतिथिसत्कार, अन्नदान, जैसे साधारण से साधारण व्यक्ति को आचरणीय धार्मिक विधि और सबसे अधिक
परमात्मा की सद्भाव पूर्ण अनन्य भक्ति इन पर अत्यधिक बल देकर पुराणों ने भारत के परंपरागत धर्म में स्पृहणीय परिवर्तन किया और उसे सर्वव्यापक स्वरूप दिया। धर्माचरण के इन विधियों का महत्त्व सैकडों आख्यानों, उपाख्यानों एवं कथाओं द्वारा
सामान्य जनता को समझाया। पुराणोक्त धर्म के भक्ति सिद्धान्त ने हिंदुसमाज के सभी दलों को प्रभावित किया। बौद्धों के महायान सम्प्रदाय ने तथा जैन संप्रदायों ने भी इस भक्ति सिद्धान्त का स्वागत किया। इस्लाम एवं ईसाई धर्म में भी भक्तिवाद
का महत्त्व बताया गया है, परंतु उस भक्ति का स्वरूप संकुचित तथा असहिष्णु सा है। पुराणोक्त भक्ति नवविधा है और उसमें उपास्य देवता के विषय में अनाग्रह है।
___ “आकाशात् पतियं तोयं यथा गच्छति सागरम्। सर्वदेवनमस्कारः केशवं प्रतिगच्छति ।। अथवा
येऽप्यन्यदेवताभक्ता यजन्ते श्रद्धयान्विताः। तेऽपि मामेव कौन्तेय यजन्यविधिपूर्वकम्।। (गीता- 9/23) इस अर्थ के अनेक औदार्यपूर्ण वचन पुराण ग्रन्थों में मिलते हैं जिनके द्वारा पुराणोक्त भक्तिमार्ग की व्यापकता व्यक्त होती है। इस उदारता या व्यापकता का मूल ऋग्वेद के
एकं सद् विप्रा बहुधा वदन्ति ।
अग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ।। अर्थात् सत् तत्त्व एक मात्र है, विद्वान् लोग उसे अग्नि, यम, मातरिश्वा (वायु) इत्यादि अनेक नामों से पुरकारते हैं इस मन्त्र में बताया जाता है।
3 "पुराणोक्त आख्यान" पुराण वाङ्मय का विस्तार एवं उसके अन्तर्गत आये हुए विषयों के प्रकार, संक्षिप्त परिचय के लिए भी एक प्रदीर्घ विषय होता है। प्रस्तृत कोश में यथास्थान संक्षेपतः पुराणों का परिचय दिया गया है। यहां हम केवल पुराणान्तर्गत आख्यानों
एवं कथाओं का यथाक्रम संकेतमात्र करते हैं। परंपरानुसार पुराणों का जो क्रम माना जाता है तदनुसार यहां संकेत दिया गया है। पुराणों की श्लोकसंख्या विवाद्य है, परंतु अध्यायों की संख्या निश्चित सी है। अतः यहां अध्याय-संख्या का निर्देश किया है।
दशीव्रत, श्राभक्ति को आचर के परंपरागत ख्यानों एवं
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1)
2)
ब्रह्मपुराण कुल अध्याय-245:
1) पार्वती उपाख्यान (अध्याय 30-50 )
2) श्रीकृष्ण चरित्र (अध्याय 180-212)
पद्मपुराण- कुल अध्याय-641:
1) समुद्रमंथन, 2) वृत्रासुरसंग्राम, 3) वामनावतार, 4) मार्कण्डेय एवं कार्तिकेय की उत्पत्ति, 5) राम - चरित्र 6) तारकासुरवध, 7 ) स्कन्द-विवाह, 8) विष्णु-चरित्र (सृष्टिखंड पंचमपर्व) 9) सोमशर्मा की कथा, 10) सकुला की कथा, 11 ) च्यवन का आख्यान (भूमिखंड), 12) शकुन्तलोपाख्यान, 13) उर्वशी
पुरुरवा - उपाख्यान, (स्वर्गखंड), 14 ) रामायण कथा, 15) शृंगी ऋषि की कथा, 16) उत्तररामचरित्र की कथा, 17) भागवत महिमाख्यान (पातालखंड), 18) रामकथा, 19 ) कृष्णकथा ।
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3) विष्णु पुराण- कुल अध्याय-126 :
1) ध्रुव - प्रह्लाद चरित्र, 2) अनेक काल्पनिक कथाएं (प्रथम अंश), 3) राजा भरत की कथा, 4) उर्वशी- पुरुरवा आख्यान, 5) ययाति कथा, 6) महाभारत की कथा, 7) रामचरित्र ( तृतीय अंश ), 8 ) श्रीकृष्ण चरित्र (पंचम अंश) 4) वायुपुराण कुल अध्याय 112 :
1) कृष्ण-राधा - चरित्र ( अ. 104) 2 ) गदाधर (विष्णु) आख्यान (अ. 105-112)
5) भागवत पुराण- कुल अध्याय-335 :
9)
12)
1) शुकदेव की कथा, 2) परीक्षित का आख्यान, 3) नारद के पूर्वजन्म की कथा, 4) महाभारत युद्ध की कथा, द्रौपदी के पुत्रों की हत्या, 5) परीक्षित जन्म कथा, 6) यादवों का संहार, 7) श्रीकृष्ण का परमधाम गमन ( स्कन्द 1 ) । 8 ) कच्छपावतार कथा, 8) नृसिंहावतार कथा, (स्कंध 2 ) । वराह अवतार की कथा, 10) हिरण्यकशिपु और हिरण्याक्ष की कथा, 11) कर्दम-देवहूति की कथा ( स्कन्ध 3 ) । सती की कथा, 13) ध्रुव की कथा, 14 ) राजा वेन की कथा, 15) राजा पृथु की कथा, 16) पुरंजनोपाख्यान ( स्कन्ध 4 ) 17 ) प्रियव्रत चरित्र, 18) आग्नीध तथा राजा नाभि का चरित्र, 19 ) ऋषभदेव की कथा, 20) भरतचरित्र, 21 ) गंगावतरण की कथा ( स्कन्ध 5 ) । 22) अजामिल की कथा, 23 ) दक्षपुत्रों के विरक्ति की कथा, 24 ) विश्वरूप कथा, 25) दधिचि ऋषि की कथा, 26 ) वृत्रासुरवध, 27 ) चित्रकेतु की कथा, 28 ) हिरण्यकशिपु की कथा, 29 ) प्रह्लाद चरित्र ( स्कन्ध 7 ) । 30 ) गजेन्द्र उपाख्यान, 31 ) समुद्रमंथन एवं मोहिनी अवतार की कथा, 32 ) राजा बलि की कथा, 33) वामन चरित, 34 ) मत्स्यावतार की कथा, 35) राजा सुद्युम्न की कथा, 36 ) च्यवन ऋषि की कथा, 37) नाभाग और अंबरीष की कथा, 38 ) मान्धाता और सौभरि ऋषि की कथा, 39) राजा त्रिशंकु और हरिश्चन्द्र की कथा, 40 ) सगर का चरित्र ) 41 ) भगीरथ का चरित्र, 42 ) राम चरित्र, 43) परशुराम का चरित्र, 44 ) ययाति का चरित्र, 45 ) दुष्यन्त शकुन्तलोपाख्यान, 46 ) भरत का चरित्र, 47 ) राजा रन्तिदेव की कथा ( स्कन्ध 9 ) । 48 ) कृष्णजन्म की कथा, 49 ) पूतनावध कथा, 50) शकट-भंजन एवं तृणावर्त की कथा, 51) यमलार्जुन कथा 52 ) वत्सासुर एवं बकासुर का वध, 53 ) अघासुर वध, 54 ) ब्रह्माजी के मोह की कथा, 55) धेनुकासुर का वध, 56 ) कालियवध की कथा 57 ) प्रलंबासुर वध, 58) दावानल में गोपरक्षण, 59 ) गोवर्धनधारण, 60) शंखचूड वध, 61) अरिष्टासुर वध, 62 ) कंसवध, 63) रुक्मिणी स्वयंवर, 64) शम्बरासुरवध, 65 ) जाम्बवती एवं सत्यभामा से विवाह, 66 श्रीकृष्ण के अन्यान्य विवाहों की कथाएं, 67 ) उषा-अनिरुद्ध कथा, 68 ) राजा नृग की कथा, 69 ) साम्बविवाह की कथा, 70 जरासंध वध, 71) शिशुपाल वध, 72) सुदामा की कथा श्रीकृष्ण का परमधाम गमन ( स्कन्ध - 11 ) । 76 ) मार्कण्डेय
)
)
( स्कन्ध-10)। 73 ) अवधूतोपाख्यान, 74) यदुवंश का नाश, 75) आख्यान ( स्कन्ध-12 ) ।
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6 ) नारदपुराण अध्याय संख्या पूर्वखंड-125 + उत्तरखंड-82 :
इस पुराण में मुख्यतया अनेक तीर्थक्षेत्रों का माहात्म्य, देवताओं के योग, धर्माचार आदि का प्रतिपादन अधिक मात्रा में है। केवल गंगावतरण कथा तथा धर्माख्यान इसमें उल्लेखनीय हैं।
7) मार्कण्डेय पुराण
अध्याय संख्या-137 :
1) इक्ष्वाकुचरित, 2) तुलसीचरित, 3) रामकथा, 4 ) नहुष कथा, 5) ययातिकथा, 6) अग्नि, सूर्य आदि वैदिक देवताओं के आख्यान, 7) हरिश्चन्द्र आख्यान, 8 ) दत्तात्रेय अवतार कथा, 9) मदालसा, 10 ) ऋतुध्वज तथा अलर्क के आख्यान (अध्याय - 44 तक)। 10) दुर्गासप्तशती ( अर्थात भगवती का चरित्र ) अध्याय 41-92 ) 11 ) नाभाग, करंधम, मरुत्त, नरिष्यंत इत्यादि महापुरुषों के चरित्र 12) श्रीकृष्ण चरित्र, 13) मार्कण्डेय चरित्र (अध्याय-93-137 ) ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 75
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8) अग्निपुराण - (अध्याय संख्या-383) :
1) मत्स्य, कर्म, वराह आदि अवतारों का वर्णन, 2) रामायण की कथा, 3) श्रीकृष्ण का चरित्र, 4) महाभारत आख्यान, 5) बुद्ध तथा कल्कि अवतार (इस पुराण में शास्त्रज्ञान अधिक विस्तार से निवेदित किया है। "आग्नेये ही पुराणेऽस्मिन् सर्व विद्या प्रतिष्ठिताः (385-25) यह स्तुतिवचन यथार्थ है। 9) भविष्य पुराण - अध्याय संख्या पूर्वार्ध 41. + उत्तरार्ध 171 :
1) नागपंचमी व्रत कथा, 2) सूर्यमाहात्म्य की कथा । इसमें अनेकानेक राजाओं का वर्णन है जो रानी व्हिक्टोरिया तक जाता है। 10) ब्रह्मवैवर्त पुराण (या शिवपुराण) : अध्याय संख्या-276 :
1) उषाहरण की कथा, 2) नारद जन्म कथा (ब्रह्मखण्ड), 3) सरस्वती, गंगा, लक्ष्मी में कलह, 4) गंगोपाख्यान, 5) गंगाविषणु विवाह कथा, 6) वेदवती की कथा, 7) तुलसी कथा, 8) सावित्री कथा, 9) समुद्रमंथन आख्यान, 10) दुर्गोपाख्यान, 11) बुद्धजन्म कथा, 12) समाधि वैश्य की कथा (प्रकतिखंड), 13) पार्वती की कथा, 14) स्कन्द एवं गणेश के जन्म की कथा (प्रस्तुत पुराण में गणेश को श्रीकृष्ण परमात्मा का अवतार कहा है), 15) गजानन की कथा, 16) कार्तवीर्य की कथा, 17) परशुराम की कथा (गणपति खंड), 18) श्रीकृष्ण की बाललीला, 19) तिलोत्तमा का आख्यान, 20) शिवपार्वती विवाह कथा, 21) कंसवध कथा, 22) रुक्मिणी स्वयंवर कथा, 23) मदनजन्म (श्रीकृष्णजन्म खंड) 11) लिंगपुराण- अध्याय संख्या :- पूर्वार्ध-108 + उत्तरार्ध 55:
1) दधीच क्षुप का आख्यान, 2) नन्दी की कथा, 3) शिव के 28 अवतार 12) वराहपुराण- अध्याय संख्या 218 :
1) गणेश जन्म की कथा, 2) नचिकेता का उपाख्यान, 3) द्वादशी माहात्म्य की कथा, (इस पुराण में विष्णु स्तोत्रों एवं पूजाविधियों का संग्रह अधिक मात्रा में है। 13) स्कन्द पुराण :
यह पुराण सनत्कुमार सूत, शंकर, वैष्णव, ब्राह्म तथा सौर नाएक 6 संहिताओं एवं माहेश्वर, वैष्णव, ब्रह्म, काशी, रेवा, तापी और प्रभास नामक सात खंडों में विभाजित है। श्लोक संख्या है 81 सहस्र। 1) दक्ष यज्ञ विध्वंसन, 2) समुद्रमंथन, 3) वृत्रासुरवध, 4) बलिबन्धन, 5) शिवगौरी विवाह, 6) कार्तिकेय जन्म, 7) तारकासुरवध, 8) शिवपार्वती की द्यूतक्रीडा, 9) कुपित शंकर का वनगमन (केदारखंड)। 10) अप्सराओं का उद्धार, 11) पार्वती जन्म कथा, 12) सोमनाथ माहात्म्य, कौरवपाण्डव युद्ध, 13) महिषासुरवध, 14) वेंकटाचल माहात्म्य, 15) सीतापहरण कथा, 16) छायारूप सीता (माहेश्वर खंडान्तर्गत कौमारिका खंड)। 17) तुलसीविवाह, 18) मदनदहन कथा, 19) कार्तिकेय जन्म कथा, 20) भू-वराह आख्यान (वैष्णवखंड)। 21) सीमन्तिनी भद्रायु का आख्यान, 22) शिवगौरी विवाह, 23) कार्तिकेय एवं श्रियाल राजा का आख्यान (ब्रह्मोत्तर खंड)। 24) पुरुरवा-उर्वशी कथा, 25) पद्मावती की कथा, 26) समूद्रमंथन कथा, 27) माधांता की कथा, 28) सत्यनारायण की कथा (रेवा खंड)। 14) वामन पुराण : अध्याय संख्या 95 :
1) शिव पार्वती चरित्र, 2) नर-नारायण उत्पत्ति, 3) वीरभद्र की उत्पत्ति, 4) मदनदहन कथा (अध्याय 5-6)। 5) देव-दानव युद्ध, 6) अंधकासुर की कथा, 7) सुकेशी कथा, 8) महिषासुर कथा (अध्याय 7-20)। 9) उमा का जन्म, 10) बल आख्यान (अध्याय 21-42)। 11) वेन चरित्र, 12) शिवपार्वती विवाह, 13) विनायक की उत्पत्ति, 14) चंड-मुंड वध कथा, 15) कार्तिकेय जन्म, 16) तारकोपाख्यान, 17) दंडोपाख्यान, 18) चित्रागंदाविवाह, 19) जंभासुरवध, 20) अंधक पराजय, 21) मरुतों की उत्पत्ति, 22) कालनेमिवध (अध्याय 43-73)। 23) धुंधुदैत्य पराजय, 24) पुरूरवा का आख्यान, 25) श्रीराम-चरित्र, 26) गजेन्द्रमोक्ष कथा (अध्याय 74-88)। 27) वामनावतार-चरित्र (अध्याय 89-95) । 15) कूर्मपुराण- अध्याय संख्या-पूर्वभाग 58 + उत्तरभाग 46 :
1) शंकर चरित्र, 2) दक्षयज्ञविध्वंस, 3) श्रीकृष्णचरित्र, 4) व्यास-जैमिनि कथा, (पूर्वभाग) 16) मत्स्य पुराण- अध्याय संख्या : 291 :
1) प्रलय काल तथा मनु-मत्स्य कथा, 2) पृथुचरित्र, 3) स्कन्दचरित्र, 4) तारकासुर वधोपाख्यान, 5) ययाति चरित्र 17) गरुड पुराण- अध्याय संख्या पूर्वखंड 221 + उत्तर खंड 35 :
1) कृष्णलीला (अ. 144)। 2) दशावतारों की कथाएं, 3) दक्ष की उत्पत्ति, 4) सती की उत्पत्ति
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कथा (अध्याय
कथाओं के अलावा उपाख्यान।
18) ब्रह्माण्ड पुराण- अध्याय संख्या-109 :
1) कृष्णलीला, 2) रामायण की कथा, 3) परशुराम की कथा (अध्याय 21-27)। 4) गंगावतरण की कथा (अ. 47-57)| 5) भंडासुरवधकथा, 6) ललितादेवी उपाख्यान ।
सभी पुराणों में इन कथाओं के अतिरिक्त अनेक संवादों में तीर्थक्षेत्रों, देवताओं, नदियों, पर्वतों आदि का माहात्म्य, देवता स्तोत्र अनेक शास्त्रा के उपदेश, सृष्टि की उत्पत्ति, प्रलय, इत्यादि विविध विषयों का प्रतिपादन उनकी अपनी विशिष्ट शैली में किया है। भारतीय संस्कृति तथा परम्परा का ज्ञान प्राप्त करने की दृष्टि से जिज्ञासु को कम से कम किसी एक पुराण का ठीक
अध्ययन करना आवश्यक है। आधुनिक विद्वानों ने पुराण का समय, रचनास्थान, श्लोकसंख्या, पौर्वापर्य, ऐतिहासिक सामग्री, भूगोलज्ञान, इत्यादि, विविध दृष्टि से पुराणों का परिशीलन किया है, परंतु उनके प्रतिपादन में कहीं भी एकवाक्यता नहीं दिखाई देती। सभी विषयों में विद्वानों के मतभेदों के कारण किसी भी विषय के संबंध में निश्चित कुछ कहना अशक्य है।
4 "रामायण और महाभारत" भारतीय संस्कृति के विकास तथा गठन में पुराण वाङ्मय का योगदान जितना महत्त्वपूर्ण है उतना ही, किंबहुना उससे भी अधिक मात्रा में रामायण और महाभारत रूपी इतिहास वाङ्मय का योगदान माना जाता है। भारत के राष्ट्रीय धर्म तथा नैतिक मूल्यों का यथोचित ज्ञान आबालवृद्ध स्त्री-पुरुषों को, पुराणों एवं रामायण महाभारत के द्वारा इतनी उत्कृष्ट रीति से हुआ है कि उसका परिणाम यहां की जीवन प्रणाली में शाश्वत सा हो गया है। श्रुति-स्मृति से भी पुराणों एवं रामायण महाभारत रूप इतिहास की कथाओं द्वारा प्रतिपादित नैतिक सिद्धान्तों का प्रभाव अखिल भारत भर में, सभी पंथोंपपंथों एवं जाति-उपजातियों में विभाजित हिन्दू समाज पर चिरकाल तक रहेगा इसमें संदेह नहीं।
रामायण महाभारत का विस्तार पुराणग्रंथों के समान भरपूर है तथा उनमें आधिदैविक अद्भुतता का अंश भी पुराणों के समान पर्याप्त मात्रा में मिलता है। तथापि इन दो महाग्रंथों की गणना पुराणों या उपपुराणों में नहीं होती। इन दोनों ग्रंथों का स्वरूप पौराणिक शैली में लिखित ऐतिहासिक महाकाव्यों जैसा है। रामायण तो "आदिकाव्य" ही माना गया है और उसके रयचिता महर्षि वाल्मीकि को “आदिकवि" कहा गया है। संसार का कोई भी महाकाव्य इस महाकाव्य के समान, उनके अपने राष्ट्र में सर्वमान्य नहीं हुआ है। वाल्मीकि रामायण की प्रस्तावना में प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव ने वाल्मीकि ऋषि को अभिवचन दिया है कि
यावत् स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावद् गमायणकथा लोकेषु प्रचरिष्यति।। -इस धरती पर पर्वत और नदियाँ जब तक रहेंगी, तब तक रामायण की कथा सर्वत्र प्रचारित होती ही रहेगी।
ब्रह्माजी का यह अभिवचन आज तक सत्य हुआ है और निःसंदेह आगे भी होता रहेगा। बारह वीं शती में तमिल भाषा में इस महाकाव्य का प्रथम अनुवाद हुआ, उसके बाद हिंदुस्थान की सभी प्रादेशिक भाषा में रामायण के अनुवाद और रामायण पर आधारित उत्तमोत्तम काव्य ग्रंथ निर्माण हुए। गोस्वामी तुलसीदासजी का, नीति, धर्म एवं तत्त्वज्ञान-प्रचुर महाकाव्य रामचरित मानस ई. 17 वीं शती के पूर्वार्ध में अवधी भाषा में निर्माण हुआ, जो समस्त हिंदीभाषी प्रदेश में वेदतुल्य पवित्र माना जाता है। उत्तर भारत के लोकनाट्य में "रामलीला" के प्रयोग अत्यंत लोकप्रिय हैं। सदियों से लाखों की संख्या में जनता "रामलीला" का आनंद लूट रही है। रामायण के महावीर हनुमान इस राष्ट्र के संकटमोचक ग्रामदेवता हैं। कल्हण की राजतरंगिणी में काश्मीर के राजा दामोदर की आख्यायिका में कहा है कि राजा को किसी शाप के कारण सर्पयोनि में जाना पड़ा। उस अवस्था में राजा ने एक ही दिन में संपूर्ण रामायण का श्रवण किया, तब उसको मुक्तता प्राप्त हुई। श्रीमद्भागवत में (स्कन्ध 11 अध्याय 5) कलियुग की उपास्य देवता के नाते श्रीरामचंद्र का निर्देश किया है। केवल श्रीराम ही नहीं तो रामायण ग्रंथ भी उपासना का विषय हुआ है। अनेक उपासक अपनी उपासना में सुंदरकांड का पारायण करते हैं और उसमें
के श्लोकों का मंत्रवत् विनियोग करते हैं। मानव जीवन के शाश्वत दिव्यादर्श चित्रित करने की प्रेरणा से महर्षि वाल्मीकि ने रामचरित्र विषयक अपने महाकाव्य की रचना की। इसकी अपूर्वता के कारण अतिप्राचीन काल से आज तक समस्त रसिक वर्ग ने इसे शिरोधार्य “आदिकाव्य' माना। इस आदिकाव्य का धीरोदात्त नायक, मानवी जीवन का ऊर्जस्वल आदर्श होने के कारण स राष्ट्र में परमपूज्य "धर्मपुरुष" माना गया। "रामो विग्रहवान् धर्मः" यह सुभाषित सर्वमान्य हुआ और वाल्मीकि रामायण इस हिंदुराष्ट्र के समस्त सुशिक्षित एवं अशिक्षित जनता का एक प्रमाणभूत धर्मग्रंथ हो गया है। महर्षि वाल्मीकि ने अपने इतिहासात्मक महाकाव्य में दैवी और आसुरी संपदा का शाश्वतिक संग्राम इतने मनोरम स्वरूप में चित्रित किया है कि उसे पढ़ कर "रामादिवत्
वर्तितव्यं न रावणादिवत्" (राम सीता लक्ष्मण आदि के समान अपना वर्तन रखना चाहिए न कि रावण कुंभकर्ण आदि असुरों क समान) यह प्रेरणा रामायण का श्रवण मनन करने वाले प्रत्येक सुबुद्ध व्यक्ति के अंतःकरण में स्वयमेव अंकुरित होती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड 177
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अपने इस राष्ट्र के ऐतिहासिक एवं अर्वाचीन सभी सात्त्विक सत्पुरुषों का स्वाभाविक व्यक्तिमत्त्व रामायणीय आदर्शवाद के कारण बना हुआ है। इस देश के रीतिरिवाजों पर रामायणीय घटनाओं का दृढ प्रभाव पड़ा हुआ है। कहते हैं कि बिहार की कुछ देहाती जातियों में आज भी ससुराल जाने के बाद लड़की फिर कभी मायके नहीं आती, ना वह मायके बुलाई जाती। इस सामाजिक रूढि का मूलकारण बताते हुए अपने बिहारीबंधु रामायण का प्रमाण देते हैं। वे कहते हैं, "सीतामाई ससुराल गई तो फिर मायके नहीं आई"।।
रामायण का प्रभाव हमारे हिंदु समाज पर के कितना गहरा हो चुका है इसके और भी अनेक प्रमाण दिये जा सकते हैं। रामायण हमारे राष्ट्रीय सामाजिक और पारिवारिक जीवन में घुल मिल गया है। रामायण का प्रत्येक सात्त्विक व्यक्तिमत्त्व, हमारे लिए अपना निजी पारिवारिक व्यक्तिमत्त्व सा हुआ है, उन्हें जो अप्रिय था वह हमें अप्रिय है। रामायण के व्यक्तित्त्व हमारे लिए केवल वाङ्मयीन या साहित्यिक व्यक्तित्त्व नहीं हैं अपि तु उन्हें हमारे भावविश्व में पवित्रतम और प्रियतम स्थान प्राप्त हुआ है। भारतीय हिंदुओं के भावविश्व में प्रभु रामचंद्र को जो परमोच्च स्थान प्राप्त हुआ है, उसी प्रकार भारत-बाह्य जिन देशों की
जनता ने अपने भावविश्व में उन्हें परमोच्च स्थान दिया है; वे देश एक दृष्टि से भारत की सांस्कृतिक चतुःसीमा में समाविष्ट हो जाते हैं। तिब्बत, खोतान, सयाम, जावा, बलिद्वीप, सिंहलदीप इत्यादि पौरस्त्य राष्ट्रों में, हिंदुस्थान के राष्ट्रीय धर्म का प्रचार न होते हुए भी प्राचीन कालसे आजतक रामकथा का महत्त्व संपूर्ण समाज में मान्य हुआ है।
5 रामकथा का विश्वसंचार ई. तीसरी सदी से चीन देश में बौद्ध साहित्य के द्वारा रामकथा का परिचय हुआ। तिब्बत में आठवीं शती में, खोतान में नौवी शती में, हिंदचीन एवं कांबोडिया में छठी शती में, जावा में पांचवीं शती में, मलाया में सत्रहवीं शती में और बर्मा
में अठराहवीं शती में, रामायण कथा का प्रथम परिचय हुआ। रांची के ईसाई विद्वान डॉ. कामिल बुल्के ने अपने शोधप्रबंध में इस संबंध में भरपूर जानकारी दी है। डॉ. बुल्के के प्रबंध में अन्यान्य पौरस्त्य देशों में प्रचलित रामायण ग्रंथों के नाम इस प्रकार दिये है :
काम्बोडिया : रेयाम केर (राम कीर्ति) यह ग्रंथ प्राचीन ख्मेर भाषा में लिखा है।
सयाम : रामकियन और रामजातक। बर्मा : रामयत् रामयागन् (लेखक यूतो)। मलाया : हिकायत सेरिराम । जावा : रामकेकेलिंग, रामायण काकाविन (लेखक योगीश्वर); तिब्बत : रामायण। इन परदेशीय रामायणों में मूल वाल्मीकीय रामकथा में यत्र तत्र परिवर्तन किया है। भारत मे भी बौद्ध और जैन परम्परा में प्रचलित रामकथा में काफी हेर फेर किया गया है। इन देशों की शिल्पकला, चित्रकला, नृत्य-नाट्यकला इत्यादि सांस्कृतिक अंगों पर रामचरित्र का भरपूर प्रभाव दिखाई देता है। सयाम का प्राचीन राजा सुमन मुनि (अथवा आटंग) ने जो नई राजधानी निर्माण की, उसको नाम दिया अयोध्या। वह राजा अपने लिए "रामाधिपति" यह उपाधि धारण करता था। जावा में नौवीं शर्ती में “परमवनम्" (ब्रह्मवन) में एक शिवमंदिर का निर्माण हुआ जिस पर सर्वत्र रामायणीय घटनाओं का शिल्पांकन और चित्रांकन किया है। 12 वीं शती में कांबोडिया के राजा सूर्यवर्मा ने अंगकोरवाट में एक अतिविशाल मंदिर का निर्माण किया। इस मंदिर में सर्वत्र रामायण (और साथ में महाभारत तथा हरिवंश) की घटनाओं को शिल्पांकित किया है। सयाम के रामनाटकों का प्रभाव 18 वीं शती से बर्मा के नाट्य प्रेमियों पर
भी पड़ने लगा। महर्षि वाल्मीकि के प्रति कृतज्ञता पूर्ण भक्तिभाव व्यक्त करने के लिए 7 वीं शताब्दी में हिंदचीन के राजा प्रकाशधर्म ने आदिकवि वाल्मीकि को भगवान् विष्णु का अवतार मान कर, उनका विशाल मंदिर निर्माण किया। भारत में वाल्मीकि के ही “अवतार" माने गये। राजशेखर अपने बालरामायण (महानाटक) की प्रस्तावना में
"बभूव वल्मीकभवः कविः पुरा, ततः प्रपेदे भुवि भर्तमेण्ठताम्।
स्थितः पुनर्यो भवभूतिरेखया स वर्तते सम्प्रति राजशेखरः ।। इस श्लोक में वाल्मीकि की जो कल्पित अवतार-परंपरा बताई, तदनुसार भर्तमेण्ठ, भवभूति और स्वयं राजशेखर वाल्मीकि के “अवतार" थे। परंतु यह अवातर-परंपरा राजशेखर तर ही सीमित नहीं है। भारत के सभी प्रादेशिक साहित्यों के इतिहास में संपूर्ण मध्ययुगीन साहित्य पर, आध्यात्मिक दृष्टि से कवियों की रामभक्ति का एवं वाङ्मयीन दृष्टि से मूल वाल्मीकि के
आदिकाव्य का, इतना गहरा संस्कार दिखाई देता है कि, उस कालखण्ड में भारत के सभी प्रदेशों में मानो "वाल्मीकि के अवतार" ही प्रकट हुए थे। तामिल भाषा में कम्ब रामायण, तेलगु में रंगनाथ रामायण और भास्कर रामायण, प्रेमानंद और प्रीतमदास का गुजराती में रामायण, कन्नड भाषा में पम्प रामायण, मलयालम में एज्युतच्चन का अध्यात्मरामायण, बांगला भाषा में कृतिवासा का रामायण, असमिया में माधवकंदली का रामायण, उडिया भाषा में सारलादास तथा बलरामदास का रामायण, व्रज भाषा में केशवदास की रामचंद्रिका, अवधी भाषा में तुलसीरामायण, आधुनिक हिंदी में मैयिलीशरण गुप्त का साकेत काव्य, पंजाबी में गुरुगोविंदसिंह का गोविंद-रामायण, मराठी में संत एकनाथ का भावार्थ रामायण, श्रीधर का रामविजय, समर्थ रामदास का युद्धकांड, मोरोपंत के 108 रामायण और नवकवि माडगूलकर का लोकप्रिय गीतरामायण इत्यादि रामायण ग्रंथ उन उन
78/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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भाषाओं में अत्यंत सर्वमान्य हुए हैं। उन प्रदेशों की जनता के अन्तःकरण पर रामचरित्र विषयक ग्रंथ के समान अन्य किसी भी ग्रंथ का प्रभाव नहीं पड़ा। ये सारे प्रादेशिक रामचरित्रकार महाकवि वाल्मीकि के "अवतार" ही मानने योग्य सत्कवि थे । यूरोपीय भाषाओं में भारतीय भाषाओं के समान वाकीकि रामायणपर आधारित काव्यग्रंथ निर्माण नहीं हुए परंतु वाल्मीकि रामायण के कुछ उल्लेखनीय अनुवाद हुए अंग्रेजी :ग्रिफिथकृत छंदोबद्ध अनुवाद, एम. एन. दत्त कृत गद्यानुवाद ( 7 खंड), रोमेशचंद्र दत्त कृत संक्षिप्त पद्यानुवाद ( रामायण, द एपिक ऑफ राम रेंडर्ड इन् टु इंग्लिश व्हर्स) ।
जैसे
इतालियन :- जी गोरेसी कृत, 4 विभाग, पैरिस में सन 1847-58 में प्रकाशित। ए. रौसेलकृत 3 विभाग पॅरिस में सन् 1903-9 में प्रकाशित । जर्मन : एफ् रुकर्ट कृत संक्षिप्त पद्यानुवाद, रामायण विषयक शोध प्रबंध- ए वेबर ( उबेर डास रामायण), एच्. . याकोबी (डास रामायण) लुडविग ( उबेर डास रामायण), ए बामगार्टनेर ( डास रामायण), जे.सी. ओमन (दि ग्रेट इंडियन एपिक्स), हॉपकिन्स (दि ग्रेट एपिक ऑफ इंडिया), विंटरनिट्स् (दि हिस्टरी ऑफ इंडियन लिटरेचर) इन विद्वानों द्वारा लिखे इन प्रबंधों में राम कथा विषयक तथा रामायण काल विषयक जो अकल्पित तर्क उपस्थित किए गये, उनके कारण गत शताब्दी में रामायण के विषय में अनेक विद्वत्तापूर्ण शोध प्रबंध भारत में लिखे गये। अभी कुछ वर्ष पूर्व ब्रह्मीभूत श्रीकरपात्री महाराजद्वारा लिखित हिंदी प्रबंध सर्वत्र सम्मनित हुआ। रामायण विषयक परंपरावादी भारतीय दृष्टिकोण का समर्थ प्रतिपादन श्रीकरपात्रीजी ने किया है। संस्कृत भाषा में वाल्मीकि रामायण के अतिरिक्त अन्य रामायण भी लिखे गए जैसे अगस्त्य - रामायण, अध्यात्मरामायण अद्भुत रामायण, आदिरामायण, आनंद-रामायण, चांद्ररामायण, भुशुडीरामायण, मंजुलरामायण, मंत्ररामायण, मैदरामायण, सुब्रहारामायण, सुवर्थसरामायण, सौपद्मरामायण (या अत्रिरामायण) तीर्थरामायण, सौहार्द -रामायण स्वायंभुवरामायण, और हेतुरामायण । इनमें रामकथा का स्वरूप अन्यान्य प्रकार का दिखाई देने के कारण कुछ विवाद अवश्य निर्माण हुए, परंतु जनता की रामभक्ति अविचल रही। आज भी कुछ श्रद्धाहीन लेखक रामायण के विषय में उलटी सीधी बाते मासिक पत्रिकाओं में लिखते हैं परंतु भारतीय जनता की रामभक्ति पर उसका विपरीत परिणाम नहीं हुआ और आगे भी नहीं होगा ।
7 रामायणीय साहित्य
रामायणसारसंग्रह
रामायणतात्पर्यनिर्णय
रामायणतात्पर्यसंग्रह
संस्कृत साहित्य में रामचरित्र पर आधारित महाकाव्य, नाटक, चम्पू स्तोत्र इत्यादि काव्य प्रकारों में अन्तभूर्त ग्रंथों का प्रमाण बहुत ही बड़ा है। संपूर्ण ग्रंथों की सूची यहां देना उचित नहीं, फिर भी संस्कृत वाङ्मय के केवल आधुनिक कालखंड में (अर्थात् 17 वीं शती के उपरांत) लिखित ग्रंथों में कुछ उल्लेखनीय ग्रंथों की सूची यहाँ देते हैं, जिस से रामकथा का आकर्षण संस्कृत साहित्यिकों को कितनी अधिक मात्रा में अखंड रहा है इसका अनुमान हो सकेगा।
रामायणीय ग्रंथ
ग्रंथकार
अप्पय दीक्षित
रामायणसारस्तव
रामायणसारसंग्रह
रामायणकाव्य
मंजुभाषिणी
रामयमकार्णव
रामचंद्रोदय
चित्रबंधरामायण
जानकीपरिणय
सीतादिव्यचरित
गद्यरामायण
रघुवीरविजय रामायणसंग्रह
-
3
:
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: रघुनाथ नायक
: ईश्वर दीक्षित
:
मधुरवाणी
राजचूडामणि दीक्षित
(इसमे संपूर्ण रामकथा श्लेष गर्भ भाषा में लिखी है)
श्रीनिवासपुत्र वेंकटेश
:
वेकटकृष्ण (चिदंबर निवासी)
:
: वेंकटमखी
: चक्रकवि
: श्रीनिवास
श्री निवासपुत्र वरदादेशिक
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रामकुतूहल रामचरित
उदारराघव
कल्याणरामायण भद्रादिरामायण
रामकथा-सुधोदय
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दशाननवध
रघुवीरचरित सीतारामविहार
रामगुणाकर
रामविलास
11
रामचंद्रकाव्यम् प्रसन्नरामायण
: गोविंदसुत रामेश्वर
: रघुनाथ
:
रामामृतम् यादवराघवीय : नरहरि रघुवीरवर्यचरित
विश्वक्सेन चण्डीसूर्य
: शेषकवि
: वीरराघव
: श्रीशैल श्रीनिवास
: वेंकटरंगा
: तिरुमल कोणाचार्य
: योगीन्द्रनाथ
: सुकुमार
: लक्ष्मण सोमयाजी
: रामदेव
: रामचंद्र
: हरिनाथ
: शम्भुकालिदास
: श्रीपादपुत्र देवरदीक्षित
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 79
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: म.म.लक्ष्मण सूरि : अन्नदाचरण ठाकुर : गंगाधर कवि : परमानंद शर्मा
रामचंद्रोदय राघवोल्लास
--"-- बालराघवीय रमणीय-राघव अभिरामकाव्य रामकौतुक रामकथामृत रामगुणाकर रामविलासकाव्य रामचरित
: सूर्यनारायणाध्वरी : कामराज : काशीनाथ
रामायणसंग्रह रामाभ्युदव संगीतराघवम् मंथरादुर्विलसितम् मारीचवघम् मेघनादवधम् रावणवधम् सीतापरिणयम् सीतास्वयंवरम् वैदेहीपरिणयम्
इत्यादि इत्यादि... "रामायणीय चम्पूकाव्य"
चम्पूराघवम् रामायणचम्पू चम्पूरामायण रघुनाथविजयचम्पू रामचर्यामृतचम्पू रामचम्यू अमोधराघवचम्पू कुशलव-चम्पू रामकथा-सुधोदयचम्पू रामाभिषेकचम्पू सीताविजयचम्पू
रामलीलोद्योत रामाभिषकम् रामकाव्य
: कविवल्लभ : अद्वैतराम भिक्षु : पूज्यपाद देवानंद : शठगोपाचार्य : ब्रह्मदत्त : रामनाथ : रामकृष्णसुत कमलाकर : गिरिधरदास : रामदेव न्यायालंकार : हरिनाथ : काशीनाथ : मोहनस्वामी : युवराज रामवर्मा : बाणेश्वरसुत रमानाथ : केशव : रामानंद तीर्थ : बालकृष्ण : वेंकटेश : शितिकण्ठ : दामोदरस्त लक्ष्मण : गोपीनाथ : पुरुषोत्तम मिश्र : रामदास : सच्चिदानंद : मधुव्रत : श्रीधर : पात्राचार्य : नूतन कालिदास : रामचंद्र (पुल्लोलवंशीय) : अरुणाचलनाथ शिष्य
कृष्णशास्त्री : श्रीनिवास रथ : श्रीपतिगोविंद : गोपालशास्त्री : आनंद नारायण : राम पाणिवाद
रामाभ्युदयम् शितिकठ-रामायण रघुवीविलास रघुपतिविजय रामचंद्रोदय
: आसुरी अनन्ताचार्य : सुन्दरवल्ली : सीतारामशास्त्री : कृष्णकवि : कृष्णय्यगार्य : बंदलामृडी रामस्वामी : विश्वेश्वरपुत्र दिवाकर : वेंकटय्या सुधी : देवराज देशिक : देवराज देशिक : रामचंद्र : विश्वनाथ : राम . : राघव , ब्रह्मपंडित : राघवभट्ट : भगवन्त : लक्ष्मणदान्त : रामानुज : वल्लीसहाय : गुण्डुस्वामी शास्त्री : रघुनाथ : नृसिंह : वेंकटकृष्ण/ इत्यादि।
रामचंद्रमहोदय रामरत्नाकार रामरसामृत रघुनंदनविलास विक्रमराघवीय पौलस्त्य-राघवीय श्रीरामविजय बालरामरसायन ललितराघव जानक्यानंदबोध सीतारामाभ्युदयम् राघवचरित राघवीयम्
रामाभ्युदयचम्पू उत्तरकाण्डचम्पू उत्तरचम्पू
अभिनवरामायणचम्पू रामायणचम्पू काकुत्स्थविजयचम्पू सीताचम्पू मारुतिविजयचम्पू
आंजनेयविजयचम्पू उत्तरचम्पूरामायण
रामकथा विषयक 30 से अधिक अवाचीन संस्कृत नाटकों की नामावली इसी पर्यालोचनके नाट्य वाङ्मय विषयक प्रकरण में दी है। अतः उसका उल्लेख यहाँ आवश्यक नहीं है।
रामायण विषयक अर्वाचीन संस्कृत साहित्य के अतिरिक्त प्राचीन या मध्ययुगीन काल में लिखित रामायणीय साहित्य का प्रमाण भी काफी बड़ा है। प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में यथास्थान उन सभी महत्त्वपूर्ण काव्यों, नाटकों आदि का संक्षेपतः परिचय दिया गया है।
80/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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7 रामराज्य भारतीय धारणा के अनुसार आदर्श राज्य का पर्याय वाचक शब्द है रामराज्य। वाल्मीकीय रामायण के प्रारंभ में महाराजा दशरथ के राज्यशासन का वर्णन आता है जहां हम यह देखते हैं कि उस अयोध्यापति के राज्य के सभी प्रदेशों में अपार
धनधान्य समृद्धि है, समाज के सभी घटक अपने अपने वर्णो तथा आश्रमों के आचार तथा तथा नीतिमर्यादाओं का अनुशासन स्वयं प्रेरणा से पालन करते है। राजा तथा उसके प्रमुख अधिकारी गण विनयसंपन्न होने के कारण यथा “राजा तथा प्रजा" .इस न्याय के अनुसार प्रजाजन भी विनीत एवं मर्यादाशील हैं।
न मे स्तेनो जनपदे न कदर्यो न मद्यपः । नानाहिताग्नि विद्वान् न स्वैरी स्वैरिणी कुतः ।। यह प्रजाजन का नैतिक और सांस्कृतिक स्तर रामायण के अनुसार आदर्श माना गया है। वनवासी रामचंद्र को वापस लौटाने के लिए स्वयं भरत उनके पास जाते हैं, तब श्रीरामचंद्रजी ने उन्हें राज्यव्यवस्था के संबंध में जो अनेकविध प्रश्न पूछे, उनमें स्वयं श्रीरामचंद्र जी की आदर्श राज्य की कल्पना हमारे लिए सुस्पष्ट होती है। लवणासुर का उपद्रव शान्त करने के लिये जब शत्रुघ्न के नेतृत्व में सेना देकर भेजा जाता है, तब श्रीरामचंद्रजी उन्हें ऐसा संदेश देते हैं जिस में सुराज्य (अर्थात् रामराज्य)
संवर्धन के लिए आदर्श सेना और आदर्श सेनापति के विषय में प्रतिपादन हुआ है। यह प्रतिपादन या मार्गदर्शन शाश्वत होने के कारण आज भी आदर्शवत् है। इसमें सैनिकों को यथोचित वेतन योग्य समय पर देने की महत्त्वपूर्ण सूचना भरत को भी दी गई है।
लोकमत का समादर यह आदर्श राज्य का एक प्रमुख लक्षण माना जाता है। वाल्मीकी के आदर्श राज्य की कल्पना में इस मूल्य का निर्देश यत्र तत्र मिलता है। महाराजा दशरथ ने अपनी वृद्धवस्था का विचार करते हुए जब अपने ज्येष्ठ पुत्र राम को यौवराज्याभिषेक करने का निर्णय अन्तःकरण में लिया तब वह प्रजाजनों की अनुमति के बिना उस पर नहीं लादा गया। प्रजा के अन्यान्य स्तरों के प्रतिनिधियों की आम सभा में इस निर्णय पर विचार विमर्श हुआ और अन्त में प्रजाजनों की निरपवाद अनुमति मिलने पर ही श्रीराम के यौवराज्याभिषेक का निर्णय घोषित हुआ। महाराजा दशरथ जैसे आदर्श शासनकर्ता के शासन में ही प्रजाजनों से अथवा मंत्रिमंडल से विचार-विनिमय करने की पद्धति थी; इतना ही नहीं तो रावण के राज्य में
भी श्रीराम से युद्ध करने के विषय पर, बिभीषण, कुम्भकर्ण, माल्यवान् प्रभृति अधिकारियों के साथ भरपूर विचार विमर्श होता है और उस में बिभीषण, कुम्भकर्ण और माल्यवान् रावण के निर्णय से अपनी असहमति कटु शब्दों में व्यक्त करते हुए दिखाई देते हैं।
रामायण के उत्तरकाण्ड में तो अत्यल्प विरोधी मत का भी अनादर आदर्श राज्य में नहीं होना चाहिए, यह महान् सिद्धान्त सीतात्याग के बारे में श्रीरामचंद्रजी ने जो कठोर निर्णय लिया, उसमें दिखाई देता है। लोकमत का इतना आत्यंतिक समादर किसी भी अन्य संस्कृति में नही हुआ था और न आगे होने की संभावना है।
आदर्श राज्य में सभी विद्याओं एव कलाओं की योग्य अभिवृद्धि के लिए राजाश्रय की अपेक्षा होती है। इस के लिए स्वयं राजा विद्यासंपन्न और कलाप्रेमी होना चाहिये। अनपढ़ और कलाहीन शासक के द्वारा यह कार्य नहीं हो सकता। वनप्रयाण के समय श्रीरामचंद्र में अपनी निजी सम्पत्ति का समर्पण विद्वानों को करने की सूचना लक्ष्मण को देते हैं, तब वेदादि विद्याओं की अन्यान्य शाखाओं का उनका सूक्ष्म ज्ञान हमें दिखाई देता है। उसी सम्पत्तिदान यज्ञ के समय, एक गरीब ब्राह्मण अपने परिवार का पोषण करने के लिये, श्री रामचंद्रजी से द्वव्ययाचना करता है, तब मजाक में उसे एक दण्ड देकर वे कहते है, यह दण्ड तू फेंक। वह जहां पड़ेगा वहां तक की सम्पत्ति तुझे मिलेगी। ब्राम्हण द्वारा फेंका गया दण्ड सरयू के तट पर जा पड़ा। प्रभु ने उस भूमर्यादा में जितना धन था उतना उसे दे दिया।
प्राचीन भारतीय संस्कृति में यज्ञ को असाधारण महत्त्व था। देवपूजा, दान और संगतिकरण (या समाज का संगठन) इन उद्देश्यों के लिए आदर्श राज्य में यज्ञविधि सम्पन्न होते थे। रामायण में महाराजा दशरथ ने पुत्रलाभ के हेतु पुत्रकामेष्टि यज्ञ का
आयोजन वसिष्ठ ऋषि के नेतृत्व में किया था। दूसरा महान् अश्वमेघ यज्ञ स्वयं प्रभु रामचंद्र ने अपना सर्वंकष आधिपत्य सिद्ध करने के लिए राक्षससंहार के बाद किया था। इन दोनों यज्ञों का वर्णन पढने पर, आदर्श राज्य में लोगों के गुणों का, विद्वत्ता का, तथा विशिष्ट योग्यता का कितना समादर होना चाहिए, इस बात का ज्ञान हमें होता है। इस यज्ञसंस्था का संरक्षण राज्यकर्ता . का अपरिहार्य दायित्व माना जाता था। लोककल्याणार्थ देवताओं की कृपा संपादन करने के लिए विश्वामित्र जैसे तपस्वी ऋषि यज्ञ करते थे और ऐसे पवित्र कार्यों में विघ्न डालना, यह अपना कर्तव्य राक्षस (या राक्षसी वृत्ति के मानव) मानते थे। उनका संहार कर यज्ञसंस्था को सुरक्षित रखना आदर्श राजा का कर्तव्य माना जाता था। विश्वामित्र के यज्ञ के विघ्नों का निवारण करने
के लिए दशरथ राजा से उनके प्राणप्रिय पुत्रों की मांग की गयी। आदर्श राजा ऋषिमुनियों के आदेश का भंग नही करते थे। विश्वामित्र जैसे एक वनवासी तपस्वी का आदेश सार्वभौम सम्राट् दशरथ ने शिरोधार्य माना और अपने प्रिय पुत्रों को ऋषि के साथ सेना सहाय के बिना भेज दिया। रामायण की इस घटना में राज्यकर्ताओं के लिए कितना बड़ा संदेश भरा हुआ है। __जिस रामचंद्र ने विश्वामित्र के यज्ञ का संरक्षण किया, वही महापुरुष युद्ध काण्ड में रावणपुत्र मेघनाद के यज्ञ का विध्वंस
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 81
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करने का आदेश देता है। इस का कारण यज्ञ एक ऐसा आधिदैविक धर्मकार्य है जिसमें कर्ता को देवताओं की कृपा से दैवी सामर्थ्य का लाभ होता है। रावण, कुम्भकर्ण, मेघनाद जैसे ब्राह्मण कुलोल्पन्न राक्षसों ने इसी दैवी सामर्थ्य की लिप्सा से कठोर तपश्चर्या और महान यज्ञ किये थे परंतु साधना से प्राप्त सामर्थ्य का विनियोग वे अपनी आसुरी संपदा के कारण, सज्जनों पर अत्याचार करने के लिए करने लगे थे। मेघनाद का वह यज्ञ फलद्रूप होता तो उस राक्षस का संहार करने का सामर्थ्य संसार भर में किसी के पास नहीं था। कर्म का अंतिम परिणाम ही किसी भी कर्म का धर्मत्व अथवा अधर्मत्व सिद्ध करता है यह संदेश प्रभु रामचंद्र जी के यज्ञरक्षण और यज्ञविध्वंस के आचरण से हमें मिलता है।
रामायण का प्रत्येक व्यक्तित्व किसी न किसी गुण या अवगुण के प्रतीक सा हमें दिखाई देता है। उनमें दैवी संपद् और आसुरी संपद् से युक्त, मानव के दो प्रकार स्पष्ट रूप से व्यक्त होते हैं। भगवद्गीता में स्पष्ट शब्दों में कहा है कि, "दैवी संपद् विमोक्षाय निबन्धायासुरी मता"। याने देवी संपदा के गुण मोक्ष के लिये और आसुरी संपदा के अवगुण संसारबंधन के लिए कारणीभूत होते हैं। महर्षि वाल्मीकि ने अपनी महनीय वाङ्मय कृतियों में दोनों संपदाओं का शाश्वत चित्रण कर विश्व को सन्देश दिया है कि "रामादिवत् वर्तितव्यं न रावणादिवत्"।
रावण के आसुरी राज्य में बिभीषण एक अपवादात्मक व्यक्तित्व रामायण में मिलता है। रावण का सहोदर-सगा भाई-होते हुए भी इस की विवेकबुद्धि तामसी नहीं थी। उग्र तपश्चर्या के बाद प्रसन्न हुए भगवान् के संमुख हाथ जोड़ कर वह प्रार्थना करते हैं कि, हे भगवान मेरा मन सदैव धर्मनिष्ठ रहे। मुझे सदैव तत्त्वज्ञान ही प्राप्त हो। भगवान ने बिभीषण की यह प्रार्थना पूर्ण की थी। उसी के कारण वह "कर्तुकर्तुम् अन्यथा कर्तुं समर्थ" भाई की राजसभा में निर्भयता से अपना विरोध उद्घोषित करता है। वैसे तो रामचंद्रजी के अपार सामर्थ्य की कल्पना होने के कारण, कुम्भकर्ण, माल्यवान् जैसे सदस्यों ने भी रावण के पापकर्म का निषेध किया था, किन्तु असत्पक्ष का त्याग कर सत्पक्ष का स्वीकार करने का धैर्य, रावणसभा के सारे सदस्यों में से बिभीषण के अतिरिक्त अन्य किसी ने व्यक्त नहीं किया था। प्रत्यक्ष सहोदर का पक्ष एक असत्पक्ष है, यह निर्णय स्वयंप्रज्ञा से ले कर, बिभीषण श्रीराम के सत्पक्ष में प्रविष्ट हुए। इसमें रावण की कपटनीति का एक प्रयोग मानने वाले, रामपक्षीय नेताओं ने, बिभीषण के पक्षप्रवेश के बारे में आशंका व्यक्त की थी, परंतु श्री रामचंद्रजी ने शुद्ध अन्तःकरण से उसे (अपने घोर शत्रु के भाई को) अपना भाई माना और बिभीषण ने भी यह धर्मबन्धुत्व का नाता निरपवाद संभाला। प्रत्यक्ष युद्ध काल में ऐसे कुछ बिकट प्रसंग उपस्थित होते थे कि उस समय अगर बिभीषण का सहाय न मिलता तो रामपक्ष की विजय असंभव थी। पक्षनिष्ठा और सत्यनिष्ठा के संघर्ष मे सदसदविवेक का उत्कृष्ट जीवनादर्श बिभीषण के चरित्र में हमें रामायण में दिखाई देता है। इस आदर्शभूत विवेकिता के कारण ही हिंदुओं के परंपरागत प्रातःस्मरण स्तोत्र में बिभीषण का नामस्मरण भारत भर में होता है। श्रीरामचंद्रजी के सहकारियों में हनुमान् एक जैसे अद्भुत सहकारी थे जिनके सहकार्य के बिना सीता की खोज, लक्ष्मण के प्राणों का रक्षण और वानरों की संगठना होना असम्भव था। स्वयं श्रीरामचंद्रजी तो साक्षात् धर्म के प्रतीक थे ही (रामो विग्रहवान्
धर्मः) परंतु उनका अदभुत अनुयायी भी उसी धर्म के अंग (याने उत्कट भक्तियोग) का प्रतीक था। प्रतिकूल परिस्थिति में नैष्ठिक व्रत का पालन करना ऋषिमुनियों को भी असंभव होता है। परंतु हनुमानजी ने यह भी योग्यता सिद्ध की थी। अपने
परमश्रद्धेय नेता के आदेश का पालन करते हुए वे समुद्रोल्लंघन करते हुए लंका में पुहंचे। उनका सारा प्रवास विघ्नमय था। उन सारे विघ्नों को उन्होंने परास्त किया। किन्तु अपरिचित सीता की खोज उस महानगरी में करने के लिये, रावण का सारा
अंतःपुर उन्हें रात के समय ढूंढना पडा। अनेक सुंदर स्त्रियों को निद्रावस्था में अस्तव्यस्त पड़ी हुई निरखना पड़ा। यह कर्म उनके ब्रह्मचर्य व्रत के सर्वथा प्रतिकूल था। दूसरा कोई अविवेकी नैष्ठिक ब्रह्मचारी उनके स्थान में होता तो निद्रित स्त्रियों के मुखकमल निरखने का प्राप्त कर्म नहीं करता और स्वामिकार्य किये बिना वापस लौटता।
हनुमान जी ने हजारों निद्रित स्त्रियों को निरखने के बाद अपना अन्तःप्रेक्षण किया और देखा कि इस धर्मविरुद्ध कर्म के बाद भी अपना अन्तःकरण यथापूर्व शुद्ध है। जिस अधर्म कृत्य से अन्तःकरण निर्विकार रहता है वह वास्तव में अधर्मकृत्य नहीं होता किन्तु जिस धर्मकृत्य के कारण अन्तःकरण में अहंकार, दर्प, लोभ जैसे राजसी या तामसी विकार निर्माण होते हैं
वह शास्त्रविहित होने पर भी वास्तव में धर्मकृत्य नहीं रहता। धर्म और अधर्म का महान् विवेक हनुमानजी के जीवन की इस विचित्र घटना से हमें मिलता है। महाभारतकार कहते हैं, “धर्मस्य तत्त्वं निहितं गुहायास्" याने धर्म का सत्य स्वरूप गुहा में निहित पदार्थ के समान अगम्य है। महर्षि वाल्मीकिजी ने वह गुहागत धर्मतत्त्व अपने रामायण में इस प्रकार के अनेक प्रसंगों का चित्रण करते हुए विश्व के संमुख रख दिया।
इसी प्रकार का धर्मनिर्णय ताटकावध के प्रसंग में बताया जाता है। विश्वामित्र के यज्ञकर्म का विध्वंस करने का पाप करने वाली ताटका एक स्त्री थी। यज्ञशाला पर उसका आक्रमण होता है तब विश्वामित्र अपने बालवीर को उसका वध करने का आदेश देते हैं। रामचंद्र की बाल्यावस्था होते हुए भी जन्मसिद्ध क्षत्रियत्व के कारण स्त्रीवध करना या न करना इस विषय
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में उनके विशुद्ध अन्तःकरण में सन्देह निर्माण हुआ। उस घोर राक्षसी आक्रमण से वे विचलित तो नहीं हुए किन्तु सन्देह के कारण धनुष पर बाण नहीं चढ़ाते थे। उनकी उस सन्देहावस्था में विश्वामित्र के उपदेश द्वारा कर्म-अकर्म का विवेक महर्षि वाल्मीकि ने समाज को सिखाया।
रावण-बिभीषण के संबंध में जिस प्रकार विवेक और अविवेक का स्वरूप दिखाई देता है, उसी प्रकार वालि-सुग्रीव के संबंध में भी दिखाई देता है। उन राक्षस बंधुओं के समान ये वानरबंधु थे। दोनों महापराक्रमी और आपस में रामलक्ष्मण के समान नितांत आत्मीयता रखते थे। बीच में मायावी राक्षस के साथ वालि का संग्राम पहाडी प्रदेश में हुआ। दीर्घकाल तक वालि संग्राम से वापस नहीं आया। उस युद्ध में वालि मर चुका होगा यह सोच कर मंत्रिमंडल ने सुग्रीव से राजसिंहासन पर आरोहण करने की प्रार्थना की। भाई की मृत्यु की कल्पना से व्यथित हुए सुग्रीव ने बडे कष्ट से सिंहासनारोहण किया और राजकाज सम्हाला। कई दिनों के बाद मायावी राक्षस को परास्त कर विजयी वालि किष्किंधा में वापस लौटा। सुग्रीव को सिंहासन पर देख कर उसका सारा विवेक तत्काल समाप्त हो गया। वस्तुस्थिति जानने की क्षमता उसमें नहीं रही। सुग्रीव का
सारा निवेदन उसे बनावट लगा। अपने दुर्जेय सामर्थ्य से उसने सुग्रीव और उसके हनुमान, जाम्बवन् आदि अनुयायी वर्ग को निर्वासित किया। ऋषि के शाप के कारण जिस प्रदेश में वालि को प्रवेश करना असम्भव था उस दुर्गम प्रदेश में एक निर्वाचित
राजा के समान सुग्रीव को वनवासी जीवन बिताना पड़ा। विवेक भ्रष्ट वालि ने भाई को निर्वासित कर पूरा बदला लेने के लिए उसकी पत्नी तारा को अपने अन्तःपुर में प्रविष्ट कर दिया।
सीता की खोज में भटकते हुए रामचंद्रजी को सुग्रीव-वालि के विरोध का पता चला। वालि का सामर्थ्य सुग्रीव से अधिक था। वह सिंहासनाधीश्वर था और जिस रावण ने सीता का अपहरण किया था, उसको भी इसने परास्त किया था। रावण के विरोध में निर्वासित सुग्रीव की अपेक्षा उसके बलवत्तर भाई की मैत्री संपादन करना और उसके सहाय से रावण को परास्त कर सीता को वापस लाना, व्यावहारिक दृष्टि से उचित होता। परंतु रामचंद्र जी के धर्म अधर्म विवेक में वालि जैसे धर्मभ्रष्ट और विवेकभ्रष्ट राजा से मैत्री करना सम्मत नहीं था। उन्होंने अपने विवेक के अनुसार सुग्रीव से ही सख्य किया और भ्रातृपत्नी का अपहरण करने वाले नीतिभ्रष्ट वालि का युक्ति से संहार किया।
वालि के वध में जिस युक्ति का प्रयोग रामचंद्रजी ने किया उसकी नैतिकता के विषय में आज के विद्वान काफी विवाद करते हैं। इस में रामचंद्रजी का जो कुछ दोष दिखाई देता है वह उनके "मनुष्यत्व" के कारण क्षम्य माना जा सकता है। युद्ध में कभी कभी कपट नीति का अवलंब करना ही पड़ता है। वह न किया तो पराभव एवं विनाश अटल होता है।
वालि की तुलना में सुग्रीव अधिक संयमी और विवेकी अवश्य थे परंतु उनका संयम और विवेक भी अतिरिक्त सामर्थ्य के आत्मविश्वास से कभी कभी छूट जाता है। लंका पर आक्रमण करने के लिए रामचंद्र तथा सुग्रीवादि नेता लंका का निरीक्षण
करते थे। उस निरीक्षण में सुग्रीव की आंखे रावण पर पडीं। उनका क्रोधावेश एकदम फूट पड़ा और वहीं से वे रावण पर कूद पडे एवं मारपीट कर वापस आये। तुरंत श्री रामचंद्रजीने उनके अविवेकपूर्ण पराक्रम की निर्भर्त्सना की। शत्रु से संघर्ष करते समय उसके गुणदोष एवं बलाबल का ययार्थ विचार करते हुए अत्यंत संयम और विवेक से संग्राम करना चाहिए। केवल मारकाट याने युद्ध नहीं। स्वयं रामचंद्रजीने जब रावण को समरांगण में अपने संमुख देखा तो वे उसके महनीय व्यक्तित्व की भूरि भूरि प्रशंसा करते हैं। स्त्रीविषयक पापवृत्ति न होती तो यह पुलस्त्य ऋषि का पौत्र साक्षात इन्द्रपद को विभूषित करने की योग्यता रखता है, ऐसा अपना अभिप्राय भी वे व्यक्त करते हैं और अंत में उसका वध करने के बाद "मरणान्तानि वैराणि"
कह कर उसके मृत शरीर को नम्रता से प्रणाम करते हैं। रामचंद्रजी के इस आदर्श आचरण का प्रभाव हिंदुस्थान के इतिहास में कई स्थानों पर दीखता है। छत्रपति शिवाजी महाराज ने अफजलखान का वध करने के बाद उसकी कबर, उसकी योग्यता के अनुसार स्वयं बनवायी। उस कलेवर का अनादर नहीं किया कारण "मरणान्तानि वैराणि" इस रामवचन का सनातन संस्कार । परंतु शिवाजी महाराज के पुत्र संभाजी की निघृण हत्या करने के बाद उस छत्रपति राजा के कलेवर का यथोचित संमान औरंगजेब द्वारा नहीं हो सका, इस का कारण "मरणान्तानि वैराणि' इस रामायणीय मर्यादा संस्कार उस म्लेच्छ बादशाह के अन्तःकरण पर नहीं था।
भारतीय स्त्रीजीवन में “पातिव्रत्य" एक महान जीवनमूल्य माना गया है। पातिव्रत्य और पतिव्रता ये ऐसे संस्कृत शब्द हैं जिनके पर्याय अन्य विदेशी भाषा में नहीं मिलते। रामायण में सीता का व्यक्तित्व इस महनीय जीवनमूल्य का प्रतीक है। स्वयंवर के बाद सीता के व्यक्तित्व में जो अनेकविध गुण प्रकट हुए उन सब का मूल है उसका उत्कटतम पातिव्रत्य "भर्तृदेवा हि नार्यः" इस भारतीय संस्कृति के आदेश का, सीता ने शत-प्रतिशत पालन किया। पतिदेव वनवास के लिए सिद्ध हुए तब सीता ने कहा “मेरे माता पिता ने मुझे बचपन से यही पढ़ाया है कि किसी भी अवस्था में पति का अनुसरण करना चाहिये। उस शिक्षा का मै आज पालन करूंगी और आपके साथ वनवास के सारे कष्ट आनंद से सहूंगी।" सीता के पातिव्रत्य का दिव्य स्वरूप उसके अपहरण के बाद विशेष रूप से प्रकट होता है। त्रिभुवनविजयी रावण उसका अनुनय करता है और वह महापतिव्रता
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उसका घोर तिरस्कार तथा अपमान करती है। अपने पातिव्रत्य के दिव्य तेज से रावण को भस्मसात् करने का सामर्थ्य रखते हुए भी, दृढ संयम से उसका विनियोग वह नहीं करती क्यों कि उससे पतिदेव के पराक्रम का अनादर सिद्ध होता। रावण से
वह साफ कहती है कि “इन्द्र के वज्राघात से और साक्षात मृत्यु के दण्डाघात से तू बच सकेगा परंतु महावीर रामचंद्र के बाणाघात से तू नहीं बच सकेगा। राम की शरण जाने में ही तेरा कल्याण है।" रावण जैसे परमवीर का इतना घोर अनादर
और तिरस्कार करने का धैर्य सीता के अतिरिक्त अन्य किसी ने नहीं दिखाया था। वह श्रेष्ठ धैर्य उसे विशुद्ध पातिव्रत्य के कारण प्राप्त हुआ था। एक पतिव्रता असहाय अवस्था में कितना आत्मबल व्यक्त करती है इसका दर्शन वाल्मीकिजी ने सीता के व्यक्तित्व में दिखाया है।
अपने उत्कट पातिव्रत्य के इस दिव्य तेज की परीक्षा सीता को स्वयं पतिदेव के समक्ष देनी पड़ी थी। रावण वध के बाद सुस्त्रात होकर सीता प्रसन्न अन्तःकरण से राम के दर्शन को आती है। मन में वह सोचती थी कि वे नितान्त स्नेह से मेरा स्वीकार करेंगे। परंतु ऐसा नहीं हुआ। राक्षस संहार से मेरा कर्तव्य पूरा हुआ है। रावण के स्पर्श से और उसकी पापदृष्टि से दूषित होने के कारण मै तेरा स्वीकार नहीं कर सकता। अपने पतिदेव के इस प्रतिषेध का उत्तर सीता ने अग्निदिव्य कर के दिया। साक्षात् अग्निदेव ने उसके निष्कलंक पातिव्रत्य का प्रमाण दिया। धर्मनिष्ठ पति द्वारा निर्वासित होने के बाद भी दूसरे वनवास में सीता की पतिभक्ति में लेशमात्र अंतर नहीं पड़ा। उस पतिविरहित दुःसह वनवास में वह पति के कल्याण की प्रार्थना देवताओं से करती रही क्यों कि वह जानती थी कि केवल कठोर राजधर्म के पालन के लिए ही पतिदेव ने मेरा परित्याग किया है। उनके अन्तःकरण में मेरा स्थान अविचल है। अंत में वह कहती है :
“यथाऽहं राघवादन्यं मनसाऽपि न चिन्तये। तथा मे पृथिवि देवि विवरं दातुमर्हसि।" । -हे पृथ्वी देवी, मै अपने मन में रामचन्द्र के अतिरिक्त अन्य किसी का भी चिन्तन नहीं करती, अतः तू मुझे अपनी गोद में समा ले।
इन उद्गारों के साथ सीता अपनी पृथ्वीमाता के गोद में अदृश्य हो जाती है। सीता की महनीयता का वर्णन करने के लिये संसार में दूसरा कोई उपमान नहीं है। इसीलिए महाकवि भवभूति कहते हैं : “सीता इत्येव अलम्।"
रामायण में लक्ष्मण, भरत और शत्रुघ्न आत्यंतिक बंधुप्रेम के प्रतीक में मिलते हैं। भरत, राम की पादुका सिंहासन पर रख कर, उपभोगशून्य वृत्ति से राज्य करते हैं। लक्ष्मण, राम की सेवा में वनवास के प्रदीर्घ काल में अनिमेष जाग्रत रहते हैं और शत्रुघ्न, राम का वियोग सहन न होने के कारण, उनके साहचर्य के लिए अपने कार्यक्षेत्र से अयोध्या में वापस लौटने की इच्छा रखते हैं। पारिवारिक एवं सामाजिक एकात्मता निर्माण होने के लिये रामायण में प्रदर्शित यह उदात्त भ्रातृस्नेह का आदर्श व्यक्ति व्यक्ति के अन्तःकरण में दृढमूल होने की नितान्त आवश्यकता है। रामराज्य की चरितार्थता धन धान्य की समृद्धि में जितनी है, उससे बढ़ कर रघुवंश के इन चार सत्पुत्रों के सात्त्विक संबंध में दिखाई देती है। भाषा, धर्म, पंथ इत्यादि भेदों के कारण परस्पर विभक्त होने वाले आधुनिक भारतीय समाज में एकता या एकात्मता निर्माण करने के लिए सारे आदर्श अविचल रहने चाहिए।
रामायण के विहंगावलोकन मात्र से व्यक्त होने वाले कुछ महनीय जीवनमूल्यों का दर्शन इस संक्षिप्त प्रकरण में दिया है। संपूर्ण वाल्मीकि रामायण उदात्त सिद्धान्तों का भाण्डागार है।
रामायण एक अखिल भारतीय मान्यता प्राप्त ग्रंथ होने के कारण अन्यान्य प्रदेशों में प्रचलित रामायणों में पाठभेद पर्याप्त मात्रा में मिलते हैं। उन प्रादेशिक पाठभेदों का दर्शन सम्प्रति उपलब्ध अन्यान्य संस्करणों में होता है। गत शताब्दी में रामायण के जो भिन्न भिन्न संस्करण प्रकाशित हुए, उनमें प्रथम संस्करण सन् 1806 में डॉ. विल्यम केरी और डॉ. जोशुआ मार्शमेन इन
दो ईसाई पादरियों ने अंग्रेजी अनुवाद के साथ रामायण के प्रथम दो खंडों का प्रकाशन किया। यह संस्करण रामायण के वायव्य पाठ पर आधारित है। सन् 1829 में जर्मन विद्वान श्लेगेल ने प्रथम दो कांडों का प्रकाशन लातिन अनुवाद के साथ किया। संपूर्ण रामायण का प्रकाशन सन 1843-1867 इस कालावधि में, गोरेशियो नामक रोमन विद्वान ने किया। यह संस्करण वंगीय पाठ पर आधारित है। सन् 1888 में मुंबई में निर्णयसागर प्रेस ने और सन् 1912-1920 इस कालावधि में मुंबई के गुजराती प्रेस ने सात खंडों में रामायण का प्रकाशन किया। इन दोनों संस्करणों में दाक्षिणात्य पाठ को प्रमाण माना है। सन् 1923-47 इस कालावधि में लाहौर में पं. भगवद्दत्त, पं. रामलुभाया और पं. विश्वबंधु द्वारा संपादित रामायण का प्रकाशन हुआ। यह संस्करण वायव्य पाठ पर आधारित है। अभी बडौदा विश्वविद्यालय द्वारा रामायण के पाठभेदों का तौलनिक अध्ययन और तदनुसार प्रामाणिक संस्करण प्रसिद्ध हुआ है। वायव्य, वंगीय और दाक्षिणात्य पाठों में रामायण के कथा प्रसंगों में भी विभिन्नता मिलती है। तीनों पाठों में समान कथा प्रसंगों का प्रमाण अल्प है।
4 रामायण का काल रामायण की रचना का काल एक विवाद्य विषय है। याकोबी, मैक्डोनेल, विंटरनिट्झ, मोनियर विलियम्स और कामिल बुल्के के मतानुसार मूल रामायण की रचना इ.पू. पांचवी शती मानी गयी है। कीथ के मतानुसार चौथी शताब्दी मूल कथा
पाठ पर आधारित है।
1843-1867 इस काला
और सन् 1912-1920 इस
माना है। सन् 19
'84 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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टीका
का काल माना गया है। डॉ. शांतिकुमार नानूराम व्यास, मूल रामायण को रचना काल पाणिनिपूर्व (याने इ.पू. 9 वीं शती) मानते हैं। इसका कारण पाणिनि के शिवादि गण में रवण और ककुत्स्थ शब्द पठित हैं जिनसे "रावण" और "काकुत्स्थ" शब्द सिद्ध होते हैं। "शूर्पणखा" शब्द की सिद्धि भी पाणिनि के सूत्रानुसार होती है। “नखमुखात् संज्ञायाम्" (4-1-58) इस सूत्र के कारण "शूर्पणखी" के अलावा "शूर्पणखा" यह संज्ञावाचक शब्द सिद्ध होता है। इस प्रकार के अंतरंग प्रमाणों से पाणिनि का रामायणज्ञान स्पष्ट होता है। अतः रामायण संहिता पाणिनि पूर्व कालीन मानना ही उचित है।
टीकाग्रंथ वाल्मीकि रामायण का महत्त्व केवल काव्य या इतिहास की ही दृष्टि से नहीं माना गया। अनेक वैष्णव संप्रदायों में वह एक धर्मग्रंथ माना गया है। अतः रामायण के विद्वान उपासकों ने इस ग्रंथ पर अपनी अपनी धारणाओं के अनुसार टीकाग्रंथ लिखे है। डा. ओफ्रेक्ट की सूची के अनुसार 30 टीकाग्रंथ लिखे गये। इनमें कुछ महत्त्वपूर्ण टीकाग्रंथ :
लेखक 1) रामानुजीय
कोण्डाड रामानुज । ई. 15 वीं शती 2) सर्वार्थसार
वेंकटकृष्णाध्वरी । ई. 15 वीं शती। 3) रामायणदीपिका
वैद्यनाथ दीक्षित। 4) बृहविवरण और लघुविवरण
ईश्वर दीक्षित । ई. 15 वीं शती। 5) रामायणतत्त्व दीपिका (तीर्थीय)
महेश्वरतीर्थ । ई. 17 वीं शती। 6) रामायणभूषण
गोविंदराज (कांचीनिवासी । ई. 18 वीं शती) 7) वाल्मीकि-हदय
अहोबल आत्रेय । ई. 17 वीं शती। 8) अमृतकतक (कतक)
माधवयोगी। ई. 18 वीं शती। ) रामायणतिलक
रामवर्मा । ई. 18 वीं शती (शृंगवेरपुर के राजा) 10) रामायणशिरोमणि
वंशीधर । ई. 19 वीं शती। 11) मनोहरा
लोकमान्य चक्रवर्ती। ई. 16 वीं शती। 12) धर्माकूतम्
त्र्यंबकमखी । ई. 17 वीं शती। 13) चतुरर्थी
आज्ञानामा/ इसमें अनेक पद्यों के चार अर्थों का
प्रदर्शन किया है। इनके अतिरिक्त रामायणतात्पर्यदीपिका, रामायण-तत्त्वदर्पण इत्यादि टीका ग्रंथों में रामायण के तात्पर्य का प्रतिपादन करने का प्रयास हुआ है।
9 "महाभारत"
हिंदुस्थान के सांस्कृतिक वाङ्मय में महाभारत का महत्त्व अतुलनीय है। आदिकाव्य (रामायण) के समान महाभारत भी एक आर्ष महाकाव्य माना जाता है, तथापि यह मुख्यतः इतिहास ग्रंथ है। महाभारत के आदिपर्व में स्वयं ग्रंथकार ने "इतिहासोत्तमादस्माद् जायन्ते कविबुद्धयः ।" (अर्थात् इस उत्कृष्ट इतिहास ग्रंथ से कवियों को प्रेरणा मिलती रहती है) इस वाक्यद्वारा महाभारत का इतिहासत्व उद्घोषित किया है। भरतवंशीय कौरव और पांडवों के महायुद्ध का वर्णन इस ग्रंथ का कथा विषय है। पारंपारिक मतानुसार यह युद्ध द्वापर युग के अंत में हुआ और उसकी समाप्ति के पश्चात् युधिष्ठिर के राज्याभिषेक से युधिष्ठिर संवत् का प्रारंभ हुआ। प्रचलित मतानुसार ई.पू. 3101 वर्ष में युधिष्ठिर संवत् प्रारंभ हुआ तथापि ई. सातवीं सदी तक के शिलालेखों में इस संवत् का उल्लेख नहीं मिलता। वराहमिहिर के मतानुसार शक संवत्सर में 2526 मिला कर जो संख्या मिलती है उस वर्ष में अर्थात् ख्रिस्तपूर्व 2604 में युधिष्ठिर का राज्यारोहण माना जाता है। लोकमान्य तिलक ई.पू. 1400 में भारतीय युद्ध मानते हैं। इस प्रकार महाभारतीय युद्धकाल के संबंध में मतभेद दिखाई देते हैं। इसका कारण महाभारतीय व्यक्तियों के नाम अन्यान्य प्राचीन ग्रंथों में मिलते हैं जैसे अथर्ववेद के कुन्तापसूक्त में परीक्षित् के राजशासन का वर्णन "जाया पतिं विपृच्छति राष्ट्र राज्ञः परीक्षितः" "जनः स भद्रमेधति राष्ट्र राज्ञः परीक्षितः' (127-7,10) इत्यादि वचनों में मिलता है। ब्राह्मण ग्रंथों में परीक्षित्पुत्र जनमेजय, दुष्यंतपुत्र भरत और विचित्रवीर्यपुत्र धृतराष्ट्र का उल्लेख आता है। शांखयन श्रौतसूत्र में
कौरवों के पराजय का निर्देश मिलता है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में भीष्म, युधिष्ठिर, विदुर इन नामों की व्युत्पत्ति के नियम दिये हैं। इन उल्लेखों से महाभारतीय व्यक्तियों की तथा कुरुक्षेत्र के महायुद्ध की ऐतिहासिकता सिद्ध होती है। कौरव-पांडवों के भीषण महायुद्ध की ऐतिहासिक कथा कृष्ण द्वैपायन व्यास ने रची और अपने पांच शिष्यों को वह पढ़ाई। इस प्रथम ग्रंथ का
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नाम “जय नामेतिहासोऽयं श्रोतव्यो विजिगीषुणा (आदिपर्व अ-63) इस वचन के अनुसार "जय" था। इस प्रकार युद्धों का
वर्णन करने की प्रथा वेदकाल में भी थी। ऋग्वेद के 7 वें मंडल में दिवोदासपुत्र सुदास ने दस राजाओं पर जिस युद्ध में विजय प्राप्त की उस “दाशराज्ञ युद्ध" का महत्त्व माना गया है। इस प्रकार की ऐतिहासिक घटनाओं एवं उनसे संबंधित राजवंशों
का वर्णन जिस वाङ्मय में होता है, उसे “इतिहास' संज्ञा थी। शतपथ ब्राह्मण एवं छांदोग्य उपनिषद् में पुराण एवं इतिहास को "वेद" या "पंचमवेद" संज्ञा दे कर उस वाङ्मय के प्रति आदर व्यक्त किया है। वेदों का अर्थ समझने की याज्ञिकों और नैरुक्तकों की पद्धति थी। ऐतिहासिकों के मतों का निर्देश. यास्काचार्य के निरुक्त में मिलता है। शतपथ ब्राह्मण में “नाराशंसी गाथा" नामक मनुष्य प्रशंसात्मक काव्यों का उल्लेख मिलता है। इन प्रमाणों से इतिहास विषयक कुछ वाङ्मय वैदिक काल में भी था यह सिद्ध होता है। उसी प्रणाली में कृष्ण द्वैपायन का "जय" नामक इतिहास मानना चाहिए। विद्यमान महाभारत का यही मूलस्रोत था। इस प्रकार के युद्धवर्णन पर आधारित वीरकाव्य सूत या बंदी जन राजसभाओं में या रणभूमि पर, वीरों को प्रोत्साहित करने के हेतु गाते थे। यह पद्धति आधुनिक काल तब समाज में प्रचलित थी। शिवाजी महाराज की राजसभा मे "पोवाडा" नामक मराठी वीरकाव्यों का गायन वीरों को प्रोत्साहित करने के निमित्त होता था। राजपूत राजाओं की सभा में भी इस प्रकार के वीरकाव्यों का गायन होता था इसके प्रमाण मिलते हैं। मूल "जय" ग्रंथ भी सूतों द्वारा राजसभाओं में गाया जाता होगा इस में संदेह नहीं। मूल जय ग्रंथ की श्लोकसंख्या परंपरा के अनुसार आठ सहस्र मानी जाती है। इसी "जय" ग्रंथ का द्वितीय संस्करण 24 सहस्र श्लोकों में हुआ, जिसका नाम "चतुर्विंशतिसाहस्री चक्रे भारतसंहिताम्। उपाख्यानैर्विना तावद् भारतं प्रोच्यते बुधैः" इस प्रसिद्ध श्लोक के अनुसार केवल "भारत" था। इस "भारत" संहिता में महाभारत में यत्र तत्र मिलने वाले "उपाख्यान" नहीं थे।
"मन्वादि भारत केचिद् आस्तिकादि तया परे। तथोपरिचरादन्ये विप्राः सम्यगधीयते ।।" इस श्लोक के अनुसार, "मनुश्लोक" (नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम्। देवी सरस्वती व्यासं ततो जयमुदीरयेत् ।। इस वंदनपरक श्लोक को "मनु" कहते हैं।) से अथवा आस्तिक आख्यान से या तो उपरिचर वसु (भगवान व्यास के मातामह) के आख्यान से माना जाता है। इसी ग्रंथ का तीसरा या अंतिम संस्करण सौति उग्रश्रवा के द्वारा माना जाता है। इसी संस्करण को “महाभारत" कहते हैं जिसके अन्तर्गत भारतोक्त इतिहास में अनेक आख्यानों उपाख्यानों; तीर्थक्षेत्र- वर्णनों, राजनीति विषयक संवादों इत्यादि विविध विषयों का अन्तर्भाव हो कर, श्लोकसंख्या एक लाख तक हुई। यह महाभारत प्राचीन पद्धति का ज्ञानकोश माना जाता है। धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष इन चतुर्विध पुरुषार्थ के संबंध में महाभारत में जितना सूक्ष्म विवेचन मिलता है उतना संसार के अन्य किसी एक ग्रंथ में नहीं मिलता।
___ "यथा समुद्रो भगवान् यथा मेरुर्महागिरिः। ख्यातावुभौ रत्ननिधी तथा भारतमच्युते।।
___ धर्मे चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ। यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ।।" इन सुप्रसिद्ध श्लोकों में महाभारत की महिमा बतायी गयी है। भारतीय हिंदुसमाज में इस ग्रंथ की योग्यता ऋग्वेद के समान मानी गयी है। ब्रह्मयज्ञ में इसका "स्वाध्याय' विहित माना गया है। गत 15-20 शताब्दियों में हिंदु समाज के हृदय पर इस ग्रंथ का अधिराज्य है। भारत के बाहरी देशों में भी इसका प्रभाव व्यक्त हुआ है। इ. दूसरी शती के ग्रीक वाङ्मय में इसके उल्लेख मिलते हैं। ई. छठी शती में कांबोडिया के मंदिरों में इसका वाचन होता था। सातवीं शती में मंगोलिया के लोग हिडिंबवध जैसे आख्यान काव्यरूप में गाते थे। दसवीं शती के पूर्व जावा द्वीप में संपूर्ण महाभारत का अनुवाद हुआ था। ई. 19 वीं शती में फ्रांझ बाँप ने सर्वप्रथम महाभारत के नलोख्यान का रूपांतर जर्मन भाषा में किया तब उस आख्यान की अपूर्वता से यूरोपीय विद्वान चकित हुए थे। सन 1846 में अंडाल्फ हाल्टझमन ने जर्मन भाषा में इस संपूर्ण ग्रंथ का यूरोप को प्रथम परिचय यथाशक्ति कराया।
संपूर्ण महाभारत का विभाजन 18 पर्यों में किया गया है। "हरिवंश" नामक ग्रंथ इसका परिशिष्ट माना जाता है जिसके हरिवंशपर्व, विष्णुपर्व और भविष्यपर्व नामक तीन भागों की संपूर्ण अध्याय संख्या 318 और श्लोक संख्या 20 हजार से अधिक है। महाभारत में श्रीकृष्ण का उत्तरचरित्र मिलता है। हरिवंश के विष्णुपर्व में उनका बाल्य एवं यौवन काल का चरित्र चित्रित किया है। परंपरागत कथा के अनुसार "जय" ग्रंथ का "महाभारत" के रूप में विकास होने का कार्य भगवान व्यास के अनंतर एक दो पीढ़ियों में माना जाता है। परंतु उस ग्रंथ का विस्तार, भाषा वैचित्र्य विविध कथाएं, वर्णन और संवादात्मक चर्चा का परिशीलन करने वाले आधुनिक विद्वान महाभारत ग्रंथ का विकास इतना शीघ्र नही मानते। उनके मतानुसार यह विकास होने के लिए कुछ शताब्दीयों का समय लगा होगा। आश्वलयान गृह्यसूत्र में "सुमन्तु-जैमिनि-वैशम्पायन-षैल-सूत्रभाष्यभारत महाभारत-धर्मोचार्याः
तृप्यन्तु" इत्यादि तपर्णसूत्र के अनुसार विद्यमान महाभारत की उत्तर मर्यादा गृह्यसूत्रों से पूर्वकालीन (अर्थात् ई.पू. छठी शती के पूर्व) मानी जाती है। महाभारत में शक, यवन पह्लव जैसे परकीय लोगों का निर्देश मिलता है। इन परकीयों के इस देश
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पर आक्रमण ई.पू. 4 थी से ई. 1-2 शती तक होते थे। अर्थात् इन आक्रमणों का निर्देश करने वाले श्लोक उस काल के बाद में लिखे गये। इस प्रकार प्राचीन महाभारत में कुछ अंश प्रक्षिप्त माना जाता है। "जय" ग्रंथ से ले कर उसका अंतिम संस्करण होते तक के कालखंड में मूलग्रंथ के स्वरूप में जिस क्रम से परिवर्तन होता गया, उसकी यथार्थ कल्पना आज करना असंभव है। सौती द्वारा हुए तृतीय संस्करण का स्वरूप क्या था यह भी जानना कठिन है। भारत वर्ष जैसे खंडप्राय विशाल देश में, इस ग्रंथ का प्रचार सूतवर्ग द्वारा मौखिक रूप में सदियों ता चलता रहा। सैकड़ो लेखकों ने उसकी पांडुलिपियां करते समय अनवधान से भरपूर प्रमाद किए। इन सब कारणों से महाभारत की प्राचीत हस्तलिखित प्रतियों में कहीं भी एकरूपता नहीं मिलती। इन विविध प्राचीन प्रतियों का तौलनिक अध्ययन करते हुए महाभारत का अधिकांश प्रामाणिक संस्करण करने का कार्य, पुणे की भांडारकर प्राच्य विद्यामंदिर द्वारा हुआ है। सामान्य अध्येताओं के लिये महाभारत के सारग्रंथ संपादन करने के
भी प्रयत्न हुए। इसी शताब्दी के प्रारंभ में श्री चिन्तामणराव वैद्य ने "संक्षिप्तभारतम्" का संपादन किया था जिस में श्लोक संख्या 8 हजार थी। सन् 1954 में पुसद (महाराष्ट्र) के सुप्रसिद्ध सामाजिक कार्यकर्ता श्री. शंकर सखाराम सरनाईक ने माहुर (मातापुर विदर्भ) के विद्वान पं. वा. गं. जोशी के प्रधान संपादकत्व में "महाभारतसारः'' तीन खंडों में प्रकाशित किया, जिसकी श्लोकसंख्या 24 हजार से अधिक है। (इन संपादन कार्य में सहभागी होने का सद्भाग्य प्रस्तुत लेखक को भी मिला था) ये दोनों सारग्रंथ आज दुर्लभ हैं।
रामायण-महाभारत में पौर्वापर्य गत शताब्दी में प्रसिद्ध जर्मन पंडित वेबर ने भारतीय परंपरागत मत के प्रतिकूल यह मत उपस्थित किया कि रामायण की अपेक्षा महाभारत की रचना पहले हुई। परंतु याकोबी, श्लेगेल, विंटरनिट्झ इत्यादि अन्य यूरोपीय विद्वान रामायण को महाभारत से पूर्वकालीन ही मानते हैं। इस विवाद में रामायण का उत्तरकालीनत्व प्रतिपादन करने वालों का कहना है कि, महाभारत में वर्णित लोकस्थिति प्रक्षोभयुक्त, संघर्षयुक्त एवं अव्यवस्थित है, परंतु रामायण में वर्णित परिस्थिति महाभारत की अपेक्षा अधिक
शांत, व्यवस्थित, सुसंस्कृत एवं आदर्शवादी है। संस्कृति का विकास महाभारत की अपेक्षा रामायण में अधिक मात्रा में प्रतीत होता है। रामायण में सुन्दर पदविन्यास तथा रचना की सुबोधता उसकी उत्तरकालीनता का द्योतक है। परंतु इस विवाद में रामायण की उत्तर कालीनता का खंडन विद्वानों ने अनेक प्रमाण दे कर किया है। रामायण में रीछ और वानरवीरों का उल्लेख, दशमुखी रावण, सागर पर सेतु का निर्माण, हनुमान् द्वारा लंकादहन जैसी अद्भुतता का प्रमाण महाभारत की अपेक्षा अधिक है। महाभारत में म्लेच्छ समाज तथा भाषा का उल्लेख आता है। रामायण में म्लेच्छों का नाम भी नहीं है। महाभारत में संपूर्ण भारतवर्ष में व्यवस्थित एवं सुशासित आर्य सभ्यता दिखाई देती है, परंतु रामायण में दक्षिण भारत में वानर एवं राक्षस समाज की सभ्यता का दर्शन होता है। आर्य सभ्यता उत्तर भारत तक सीमिति थी। महाभारत में युद्ध का वर्णन प्रगत अवस्था में दीखता है जब कि रामायण के वानरवीर वृक्षों एवं पत्थरों से, प्रतिपक्षी राक्षसवीरों से संग्राम करते हैं। इन प्रमाणों के अतिरिक्त
सबसे महत्त्वपूर्ण प्रमाण यह है कि रामायण में महाभारत कि घटनाओं तथा पात्रों का उल्लेख तक नहीं है, परंतु महाभारत में संपूर्ण रामकथा वनपर्व में (अ. 274-291) वर्णित है। महाभारत के इस उपाख्यान में वाल्मीकीय रामायण के श्लोक शब्दशः मिलते हैं। रामायण के नायक एवं खल नायक, महाभारत में उपमान हुए हैं। आदि पर्व में भीष्म और द्रोण की प्रशंसा में उन्हे श्रीराम की उपमा दी है। सभापर्व में द्यूतक्रीडा के प्रति युधिष्ठिर के मोह का वर्णन करते हुए रामायण के कांचनमृग से मोहित राम का दृष्टांत दिया गया है। इस प्रकार के और भी अन्य कुछ प्रमाणों के आधार पर वेबर द्वारा उठाए गये महाभारत की उत्तरकालीनता के पक्ष का विद्वानों ने संपूर्णतया खंडन कर परंपरागत रामायण की पूर्वकालीनता प्रस्थापित की है। अब यह विवाद समाप्त हो चुका है।
महाभारत के 18 पर्यों के नाम : 1) आदि, 2) सभा, 3) वन, 4) विराट, 5) उद्योग, 6) भीष्म, 7) द्रोण, 8) कर्ण, 9) शल्य, 10) सौप्तिक, 11) स्त्री, 12) शांति 13) अनुशासन, 14) आश्वमेधिक, 15) आश्रमवासिक, 16) मौसल, 17) महाप्रस्थानिक और 18) स्वर्गारोहण। इन के अतिरिक्त खिल पर्व नामक १९ वा पर्व हरिवंश नाम से प्रसिद्ध है। यह खिल पर्व सौतिद्वारा ग्रन्थपूर्ति निमित्त निर्माण किया गया है।
10 साहित्य में महाभारत महाभारत कवियों का उपजीव्य ग्रंथ है। स्वयं महाभारतकार ने "इतिहासोत्तमादस्माज्जायन्ते कविबुद्धयः" इस श्लोक में, अपने ग्रंथ से कवियों को स्फूर्ति मिलती है यह जो घोषणा की वह सर्वथा यथार्य है। इ.पू. दूसरी सदी से आज तक संस्कृत तथा अन्य प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यिकों ने काव्य-नाटक चम्पू इत्यादि विविध प्रकार के ग्रंथ महाभारत से प्रेरणा लेकर लिखे हैं। पंतजलि के महाभाष्य में (ई.पू.2 शती) कंसवध और बलिबन्ध नामक दो नाटकों के प्रयोग का उल्लेख आता है। समस्त
संस्कृत नाट्यवाङ्मय में यही सर्वप्रथम ज्ञात नाटक माने जाते हैं। इन दोनों नाटकों के विषय हरिवंश तथा महाभारत के आख्यान से लिए गए हैं। भास का समय ई-2 शती माना जाता है। भासनाटकचक्र के 13 नाटकों में से मध्यमव्यायोग, पंचरात्र, दूतघटोत्कच, कर्णभार, ऊरुभंग, और बालचरित ये छह नाटक महाभारत तथा हरिवंश पर आधारित हैं। कालिदास के तीन
भारतवर्ष मा का दर्शन होता है। आर्य सभा एवं पत्थरों से, प्रतिपक्षी राक्षापात्रों का उल्लेख तक नहींग के श्लोक
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड/87
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नाटकों में दो नाटकों, (शाकुन्तल और विक्रमोर्वशीय), के कथानक महाभारत से लिए हुए हैं। भट्ट नारायण (ई. 8 वीं शती) के वेणीसंहार नाटक का विषय तो भारतीय युद्ध ही है। अभिनवगुप्त के ध्वन्यालोकलोचन में पाण्डवानन्द इत्यादि महाभारत पर आधारित नाटकों का उल्लेख हुआ है। इन के अतिरिक्त राजशेखर का बालभारत (अथवा प्रचण्डपांडव), क्षेमेन्द्र का चित्रभारत, हेमचन्द्र का निर्भयभीम, कुलशेखर का सुभद्राधनंजय, रविवर्मा का प्रद्युम्नाभ्युदय, प्रह्लाददेव का पार्थपराक्रम, विजय पाल का द्रौपदी-स्वयंवर, विश्वनाथ का सौगन्धिका-हरण, रामचन्द्र का यादवाभ्युदय, रामवर्मा का रुक्मिणी-परिणय, शेषचिन्तापणि का रुक्मिणीहरण,
शेषकृष्ण का कंसवध इत्यादि अनेक नाटक महाभारत एवं हरिवंश पर आधारित हैं। महाभारत पर आधारित काव्यग्रंथों में वाकाटकनृपति सर्वसेन (ई. 4 थी शती) कृत हरिविजय, भारविकृत किरातार्जुनीय, माघकृत शिशुपालवध, श्रीहर्षकृत नैषधचरित, वामनभट्टकृत नलाभ्युदय, अमरचन्द्रसूरिकृत बालभारत, वास्तुपालकृत नारायणानन्द लोलिंबराजकृत हरिविलास, वेंकटनाथकृत यादवाभ्युदय, राजूचडामणि दीक्षित कृत रुक्मिणीकल्याण, वासुदेवकृत नलोदय, जयदेवकृत गीतगोविंद इत्यादि ग्रंथ संस्कृत साहित्य में महत्त्वपूर्ण हैं। बहुलार्थ काव्यों में कविराजकृत राघवपाण्डवीय, हरदत्तसूरिकृत राघवनैषधीय, नलयादव-पांडव-राघवीय (ले-अज्ञात) इत्यादि काव्यों में महाभारतीय कथा वर्णित हुई है। उसी प्रकार त्रिविक्रम भट्ट (ई.10 वीं शती) कृत नलचम्पू, अनन्तभट्टकृत भारतचम्पू, शेषकृष्ण कृत पारिजात-हरणचम्पू इत्यादि ग्रंथ महाभारत तथा हरिवंश पर आधारित हैं। अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों ने भी यह परंपरा यथापूर्व चालू रखी है।
महाभारत की टीकाएं 1) ज्ञानदीपिका : ले-परमहंस परिव्राजकाचार्य देवबोध या देवस्वामी। यह महाभारत की सर्व प्रथम उपलब्ध टीका आदि, सभा, भीष्म तथा उद्योग पर्व पर प्रकाशित हो चुकी है। समय ई. 12 वीं शती के पूर्व । 2) विषमश्लोकी : (या दुर्घटार्थ-प्रकाशिनी या दुर्बोदपदभंजिनी) ले-विमलबोध (ई.12 वीं शती) यह टीका अठारहों पर्वो पर उपलब्ध है। इसके कुछ अंश प्रकाशित हुए हैं। 3) भारतार्थ-प्रकाश : ले-नारायण सर्वज्ञ। ई.12 वीं शती। इन्होंने मन्वर्थवृत्ति निबंध नामक मनुस्मृति की टीका भी लिखी है। इनकी विराट तथा उद्योग पर्व की टीका प्रकाशित है। 4) भारतोपायप्रकाश : ले-चतुर्भुज मिश्र। ई.14 वीं शती। विराट पर्व की टीका प्रकाशित है।। 5) प्रक्रियामंजरी : ले-आनन्दपूर्ण (विद्यासागर) ई.15 वीं शती। आदि, सभा, भीष्म, शान्ति, तथा अनुशासन इन पांच पर्वो की टीका उपलब्ध है। ये गोवानरेश कदंबवंशी कामदेव के आश्रित थे। इन्होंने महाभारत के प्राचीन टीकाकारों में अर्जुन, जगद्धर, जर्नादन, मुनि, लक्ष्मण (टीका विषमोद्धारिणी जो सभा तथा विराट पर्व पर उपलब्ध है) विद्यानिधि भट्ट तथा सृष्टिधर इन के नामों का निर्देश किया है। 6) भारतार्थदीपिका (भारतसंग्रही दीपिका) : ले-अर्जुन मिश्र। बंगाल निवासी। ई.14 वीं शती। विराट तथा उद्योगपर्व की टीका प्रकाशित हुई हैं। इन्होंने प्राचीन टीकाकारों में देवबोध, विमलबोध, शाण्डिल्य तथा सूर्यनारायण का उल्लेख किया है। 7) निगूढार्था पद्बोधिनी : ले-नारायण। ई.14 वीं शती। 8) लक्षाभरण (लक्षालंकार) : ले-वादिराज । ई. 16 वीं शती। माध्वसंप्रदायी। विराट तथा उद्योग पर्व की टीका प्रकाशित। १) भारतभावदीप : ले-नीलकण्ठ चतुर्धर (चौधरी)। कोपरगाव (ज़िला अहमदनगर, महाराष्ट्र) के निवासी। समय ई.17 वीं
शती। काशी में लिखी गयी यह टीका संपूर्ण 18 पर्वो पर है। महाभारत की यह अंतिम एवं सर्वोकृष्ट टीका मानी जाती है। नीलकण्ठ के मन्त्ररामायण एवं मंत्रभागवत में रामायण तथा भागवत की कथा से संबंधित मंत्र ऋग्वेद से क्रमबद्ध संगृहीत हैं। इन टीकाओं के अतिरिक्त वैशम्पायन कृत शान्तिपर्व के मोक्षधर्म पर टीका उपलब्ध है।
11 महाभारत की विचारधारा शांतिपर्व एवं अनुशासनपर्व महाभारत के सैद्धान्तिक निधान माने जाते हैं। उसी प्रकार भीष्मपर्व के अन्तर्गत भगवद्गीता एक उपनिषद या तत्त्वज्ञान की प्रस्थानत्री में से एक पृथक् "प्रस्थान" माना जाता है। भारत एवं समस्त विश्व के तत्त्वचिंतकों को श्रीमद्भगवद्गीताने अभी तक प्रबोधित किया है और आगे भी वह करते रहेगी। भक्तियोग, कर्मयोग, ज्ञानयोग एवं राजयोग इन चतुर्विध योगशास्त्रों के अनुसार जीवन का मार्मिक तत्त्वदर्शन भगवद्गीता में हुआ है। सभी संप्रदायों के महनीय आचार्यों ने अपने अपने सिद्धांत की परिपुष्टि करने की दृष्टि से गीता पर टीकाएं लिखी। 12 वीं शती में महाराष्ट्र के सन्तशिरोमणि ज्ञानेश्वर की भावार्थबोधिनी या ज्ञानेश्वरी नामक मराठी छंदबोध टीका कवित्व, रसिकत्व और परतत्त्वस्पर्श की दृष्टि से सर्वोत्तम मानी जाती है। शांतिपर्व और अनुशासन पर्व में भीष्मयुधिष्ठिर संवाद में धर्म, अर्थ, नीति, अध्यात्म, व्यवहार इत्यादि विविध विषयों के विवाद्य प्रश्रों का विवेचन आने के कारण महाभारत का यह भाग प्राचीन भारतीय संस्कृति का ज्ञानकोश माना जाता है। इस समस्त ज्ञान के प्रवक्ता भीष्माचार्य, जिनके बारे में स्वयं भगवान् कृष्ण कहते हैं कि
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"स हि भूतं भविष्यच्च भवच्च भरतर्षभ। वेत्ति धर्मविदां श्रेष्ठः तमस्मि शरणं गतः ।।" वर्तमान, भूत और भविष्य काल के ज्ञानी होने के कारण भीष्म के प्रतिपादन में अनेक प्राचीन कथाओं का उल्लेख आता है। अतः इस संवाद को कुछ विद्वान "इतिहास संवाद" कहते हैं। शांतिपर्व में वर्णाश्रम धर्म का धर्मशास्त्रानुसार प्रतिपादन किया गया है। परंतु संन्यासाश्रम के विषय में शक्रतापस संवाद के अन्तर्गत विशेष चेतावनी दी है कि बाल्यावस्था में या अज्ञानी दशा में संन्यास नहीं देना चाहिए। मोक्ष केवल संन्यास से ही मिलने की संभावना होती तो,
___"पर्वताश्च द्रुमाश्चैव क्षिप्रं सिद्धिमवाप्नुयः।।" । अर्थात् पर्वत और वृक्ष संन्यासी जैसे निस्संग होने के कारण तत्काल मोक्षप्राप्ति के अधिकारी होंगे। इस प्रकार समाज विघातक अनुचित संन्यास का निषेध शांतिपर्व में किया गया है। सभी वर्गों के लिये साधारण धर्म शांतिपर्व के अन्तर्गत पाराशर जनक संवाद में बताया गया है। पाराशर ऋषि जनक को कहते है :
"आनृशंस्यमहिंसाचाप्रसादः संविभागिता। श्राद्धकर्मतिथेयं च सत्यमक्रोध एव च।।
स्वेषु दारेषु सन्तोषः शौचं नित्यानसूयता। आत्मज्ञानं तितिक्षा च धर्माः साधारणा नृप ।। (प्राणिमात्र के प्रति अनुकंपा, विवेक, धनादि का दान, श्राद्धकर्म, अतिथिसत्कार, सत्यभाषण, क्रोध, संयम, स्वपत्नी में संतोष, शुचित्व, अद्वैत, आत्मज्ञान और सहनशीलता यह सर्व मानव लिए साधारण धर्म है। महाभारत में चारों वर्गों के कर्म
धर्मशास्त्र के अनुसार ही बताए हैं। तथापि शास्त्रविहित कर्म से उपजीविका होना असम्भव होने पर त्रैवर्णिकों के लिए अन्य वर्गों के कर्म करते हुए उपजीविका निभाने के पक्ष में अनुकूल मतप्रदर्शन किया है :
क्षत्रधर्मा वैश्यधर्मा नावृत्तिः पतते द्विजः।।
शूद्रधर्मा यदा तु स्यात् तदा पतति वै द्विजः ।। इस श्लोक में शूद्रवृत्ति (अर्थात परिचर्यात्मकर्म) के अतिरिक्त अन्य वर्गों के कर्म करने से वृत्तिहीन द्विजों का पतन नहीं होता। भारत पर आक्रमण करने के उद्देश्य से आये हुए शक, यवन, पह्लव इत्यादि परकीय लोगों को महाभारत "दस्यु" कहता हैं। इन परकीयों को राष्ट्रीय समाज में अन्तर्भूत करने का प्रश्न उस समय में उठा होगा। इस विषय में शांतिपर्व के 65 वें अध्याय में विवेचन मिलता है। इन दस्युओं ने माता, पिता, गुरु, आचार्य, तपस्वी जैसे श्रेष्ठों की सेवा करना, अहिंसा, सत्य,
शांति से व्यवहार करना और अष्टकादि पाकयज्ञ करना ही धर्म है, इस प्रकार मार्गदर्शन महाभारत ने किया है। इस आदेश से परकीय समाज को राष्ट्रीय समाज के समकक्ष करने की वृत्ति व्यक्त होती है। इसी उदार वृत्ति के कारण प्राचीन काल में
भारत में प्रविष्ट हुए ग्रीक, शक, कुशाण, हूण, गुर्जर इत्यादि परकीय समाज के लोग इस देश के राष्ट्रीय समाज में समाविष्ट होकर शिव, स्कन्द, वासुदेव इत्यादि भारतीय देवताओं के उपासक बने थे। प्राचीन शिलालेखों एवं नाणकों के प्रमाण से यह तथ्य सिद्ध हुआ है :
शान्तिपर्व के अन्तर्गत राजधर्म या राजनीति विषयक चर्चा कुल 76 अध्यायों में हुई है। प्राचीन वाङ्मय में राजनीति का अन्तर्भाव “अर्थशास्त्र' में होता था। इसी कारण शान्तिपर्व में इस चर्चा के प्रास्ताविक श्लोक में "अर्थशास्त्र" शब्द का प्रयोग हुआ है।
राजसत्ता का उदय बताते हुए, मनु की कथा बताई गयी है। जिस समय राजसंस्था का सर्वथा अभाव था उस समय में "मात्स्यन्याय" चल रहा था। प्रबल अधार्मिक लोग, दुर्बल धार्मिक लोगों का विनाश कर रहे थे। ऐसी भयानक अवस्था में ब्रह्माजी ने मनु को राजा होकर प्रजारक्षण करने का आदेश दिया। जब मनु ने कहा :
“बिभेमि कर्मणः पापाद् राज्यं हि भृशदुस्तरम्। विशेषतो मनुष्येषु मिथ्यावृत्तेषु नित्यदा।। (मिथ्याचरणी मनुष्यों पर राज चलाना दुष्कर कर्म है अतः इस कारण लगने वाले पाप का मुझे डर लगता है।) मैं राजा होना नहीं चाहता। तब लोगों ने कहा दुराचार का पाप, दुराचारियों को ही लगेगा- “कर्तृन् एनो गमिष्यति"। और प्रजानन जो पुण्याचरण करेंगे उसका चतुर्थांश राजा को प्राप्त होगा। इसके अतिरिक्त प्रजा के धन का पचासवां भाग, और धान्य का दसवां भाग भी राजा को मिलेगा। इस प्रकार आदान प्रदान का सामाजिक संकेत (सोशल कॉन्ट्रॅक्ट) निश्चित हो कर मनु ने राजपद का स्वीकार किया। राजा का राज्याभिषेक होता था, तब उससे प्रतिज्ञा का उच्चारण किया जाता था। वह प्रतिज्ञा थी:
"प्रतिज्ञां चाधिरोहस्व कर्मणा मनसा गिरा। पालयिष्याम्यहं भौमं ब्रह्म इत्येव चासकृत् ।।"
यश्चाऽत्र धर्मो नित्योक्तो दण्डनीति-व्यपाश्रयः। तमशङ्क करिष्यामि स्ववशो न कदाचन । । मै प्रजा की धर्म संस्कृति का रक्षण करूंगा, राजनीतिशास्त्र के अनुसार बर्ताव करूंगा, स्वेच्छा से कभी भी व्यवहार नहीं करूंगा इस प्रकार का आशय इस प्रतिज्ञा में भरा हुआ है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 89
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प्रजा का पालन ही राजा का मुख्य कर्तव्य है, इस सिद्धान्त को स्थिर करने के लिए शांतिपर्व में (धर्मशास्त्र के अनुसार) नियम बताया गया कि "प्रत्याहर्तुमशक्यं स्याद् धनं चौरेर्हतं यदि। तत्स्वकोशात् प्रदेयं स्यादशक्तेनोपजीवतः ।। चोरों द्वारा लूटा गया प्रजानन का धन, चोरों से मिलने के प्रयत्न में अपयश आने पर राजा ने अपने निजी कोश से देना चाहिए। प्रजापालन का संपूर्ण दायित्व राजा को निभाना चाहिए, यह सिद्धान्त इस प्रकार के नियमों द्वारा दृढमूल किया गया था।
राज्य केवल संरक्षक ही नहीं अपि तु कल्याणकारी होना चाहिए यही भी तत्त्व शांतिपर्व में प्रतिपादन किया गया है। भीष्माचार्य कहते हैं :
"कृपणानाथंवृद्धानां विधवानां च योषिताम्। योगक्षेमं च वृत्तिं च नित्यमेव प्रकल्पयेत् ।।
आश्रमेषु यथाकालं चैलभाजनभोजनम्। सदैवोपहरेद् राजा सत्कृत्याभ्यर्च्य मान्य च।। जीविकाहीन अनाथ, वृद्ध तथा विधवा स्त्रियों का पालन संरक्षण करना एवं विद्या प्रदान करने वाले आश्रम, गुरुकुल, मठ, मंदिरों में रहने वाले विद्वान तपस्वी लोगों को अन्न, वस्त्र पात्र आदि सब आवश्यक साधन देना यह सारा दायित्व राजा का ही माना गया है। वार्धक्य वृत्ति (ओल्ड एज पेन्शन) की योजना इंग्लंड जैसे पाश्चात्य राष्ट्र में आधुनिक काल में मान्य हुई है। महाभारतकार ने यह योजना कलियुग के प्रारंभ में सिद्धान्त रूप से प्रतिपादन की है। राजा के अमात्य अथवा तत्सम श्रेष्ठ अधिकारी चारों वर्षों से चुने जाना चाहिये यह मत,
"चतुरो ब्राह्मणान् वैद्यान् प्रगल्भान् स्रातकान् शुचीन्। क्षत्रियांश्व तथा चाष्टौ बलिनः शस्त्रपाणिनः ।
वैश्यान् वित्तेन सम्पन्नान् एकविंशतिसंख्यया। त्रीश्च शूद्रान् विनीतांश्च शुचीन् कर्मणि पूर्वके ।। इन श्लोकों में प्रतिपादन किया है। राजा की मंत्रिपरिषद में चार ब्राह्मण, आठ क्षत्रिय, इक्कीस वैश्य और तीन शूद्र मिला कर जो 26 अधिकारी नियुक्त किये जाते थे, वे सभी विद्या, विनय, शुचित्व इत्यादि गुणों से युक्त होना आवश्यक माना गया है। इन गुणों से हीन अधिकारी शासन में और समाज में भी भ्रष्टाचार को बढावा देते हैं।
महाभारत के समय में राजसत्ता के समान गणसत्ता या गणतंत्रात्मक राज्य भी अस्तित्व में थे। गणराज्य की अभिवृद्धि तथा सुरक्षा के हेतु आवश्यक बातों का सविस्तर कथन भीष्माचार्य ने किया है जो आज की परिस्थिति में भी उपकारक है। भीष्म कहते हैं- लोभ, क्रोध तथा भेद जैसे दोषों से गणराज्यों को भय होता है। गणराज्य की परिषद् में मंत्रचर्चा सारे सदस्यों की सभा में नहीं होनी चाहिए। विशिष्ट योग्यता प्राप्त सदस्यों की सभा में ही चर्चा हो कर गण के हित के कार्य करने चाहिए। इसका कारण : जात्या च सदृशाः सर्वे कुलेन सदृशास्तथा। न चोद्योगेन बुद्धया वा रूप-द्रव्येण वा पुनः।। गण के सदस्य जाति या कुल दृष्ट्या समान होने पर भी उद्योग बुद्धिमत्ता, धनसम्पत्ति में समान नहीं होते।
___ कर के विषय में भीष्माचार्य की सूचना है कि, "ऊधश्छिंद्यान तु यो धेन्वाः क्षीरार्थी न लभेत् पयः। (गाय का स्तनपिण्ड काटने वाले को दूध नहीं मिलता) अतः प्रजा पर असह्य करभार लाद कर उसका शोषण नहीं करना चाहिए। लोभी वणिग्जन माल के मूल्य एकदम बढ़ा कर ग्राहकों का शोषण करते हैं। अतः सभी विक्रेय वस्तुओं के मूल्य राजा ने निर्धारित करने चाहिए। श्रोत्रिय (वेदाध्यायी) ब्राह्मणों से कर नहीं लेना चाहिए। अश्रोत्रिय तथा अग्निहोत्र न करने वाले ब्राह्मणों को करमुक्ति नहीं देनी चाहिए। ऐसे लोगों से सख्त काम करवा लेने चाहिए। राज्यऋण (स्टेट लोन) के विषयों में भी मौलिक सूचनाएं भीष्माचार्य ने दी हैं। अविनीत तथा प्रजापीडक दुष्ट राजा का नियमन हर प्रयत्न से आवश्यक होने पर शस्त्र प्रयोग से भी करना ब्राह्मणों का कर्तव्य माना गया है।
___"तपसा ब्रह्मचर्येण शस्त्रेण च बलेन च। अमायया मायया च नियन्तव्यं यदा भवेत्।।" इसी प्रकार दस्युओं (परकीय आक्रमणों) द्वारा आक्रमण होने पर अगर क्षत्रिय वीर असमर्थ सिद्ध हुए तो ब्राह्मणों ने शस्त्रधारण करना अधर्म नहीं माना। अर्थशास्त्र या राजधर्म के साथ मोक्षधर्म का भी मार्मिक विवेचन शांतिपर्व तथा आश्वमेधिक पर्व के संवादों में हुआ है। शांतिपर्व के सुलभा-जनक संवाद में कर्मनिष्ठा, ज्ञाननिष्ठा और इन दोनों निष्ठाओं से भिन्न तीसरी निष्ठा मोक्षार्थियों के लिए बतायी है। वर्णाश्रम के विधिनिषेधों की प्रशंसा "शाश्वत भूतिपथ" (अभ्युदय का मार्ग) इस शब्द में
की है। सनातन वैदिक धर्म में पशुयाग का विधान है, परंतु आश्वमेधिक पर्व के शक्रऋत्विक् संवाद में, यज्ञ निमित्त पशुहवन कराने वाले शक्र को ऋषि कहते हैं :
धर्मोपधानतस्त्वेष समारम्भस्तव प्रभो। नायं धर्मकृतो यज्ञो न हिंसा धर्म उच्यते ।। जिस में हिंसा हो रही है ऐसा यह यज्ञ धर्मकृत्य नहीं है। यह धर्म विघातक कर्म है। हिंसा को धर्म नहीं कहा जा सकता। इस विवाद का निर्णय करने के लिए वे वसु राजा के पास गये। उन दोनों का पक्ष सुन कर वसु राजाने निर्णय दिया :
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"उर्छ मूलं फलं शाकमुपादाय तपोधनाः। दानं विभवतो दत्त्वा नराः स्वयन्ति धार्मिकाः ।। एष धर्मो महायोगो दानं भूतदया तथा। ब्रह्मचर्य तथा सत्यमनुक्रोशो धृतिः क्षमा। सनातनस्य धर्मस्य मूलमेतत् सनातनम् ।।
इसी विचारधारा का समर्थन करने वाली नेवले की कथा आश्वमेधिक पर्व में बतायी गयी है। "उत्रवृत्ति" (धान्यबाजार में या खेत में पड़े हुए धान्य कणों पर उपजीविका करना) से जीविका चलाने वाले एक गरीब ब्राह्मण ने स्वयं भूखा रहकर,
क्षुधात अतिथि को अपना सारा सत्तुरूप अत्र समर्पण किया। उस ब्राह्मण के घर की धूलि से नेवले का आधा शरीर सुवर्णमय हो गया। बाकी आधा शरीर युधिष्ठिर के यज्ञमंडप की पवित्र धूलि से भी सुवर्णमय नहीं हुआ। इस रोचक कथा के द्वारा हिंसामय महायज्ञ से भी क्षुधात को अन्नदान देना श्रेष्ठ है यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया गया है। यज्ञदान-प्रधान प्रवृत्तिमार्ग से पृथक् मोक्षप्रद निवृत्तिमार्ग का प्रतिपादन,
___ "निवृत्तिलक्षणस्त्वन्यो धर्मो मोक्षाय तिष्ठति। सर्वभूतदया धर्मो न चैकग्रामवासिता।। आशापाशविमोक्षश्च शस्यते मोक्षकांक्षिणाम्। न कुट्यां नोदके संगो न वाससि न वासने ।।
न त्रिदण्डे न शयने नाग्नौ न शरणालये। अध्यात्मगतिचित्तो यस्तन्मनास्तत्परायणः ।
आत्मन्येवात्मनो भावं समासज्जेत वै द्विजः ।। एष मोक्षविदां धर्मो वेदोक्तः सत्पथः सताम् ।। इन ओजस्वी शब्दों में अनुशासनपर्व में किया है। यह निवृत्तिलक्षण धर्म ही संन्यासमार्ग है। संन्यास का वास्तव स्वरूप प्रतिपादन करते हुए शांतिपर्व के सुलभा-जनक संवाद में राजर्षि जनक कहते हैं :
काषायधारणं मौण्ड्यं त्रिविष्टब्धं कमण्डलुम्। लिंगान्युत्पथभूतानि न मोक्षायेति मे मतिः ।।
आकिंचन्ये न मोक्षोऽस्ति किंचन्ये नास्ति बन्धनम्। किंचन्ये चेतरे चैव जन्तुनिन मुच्यते ।। अर्थात् केवल गेरवे वस्त्र परिधान करने से, सिर मुण्डाने से या दण्डकमण्डलु धारण करने से मोक्ष नहीं मिलता। दरिद्रता मोक्ष का या बन्धन का कारण नहीं है। मोक्षप्राप्ति केवल आत्मज्ञान से ही होती है। वह अध्यात्मज्ञान गृहस्थाश्रम में भी प्राप्त होता है। यही सिद्धान्तशान्ति पर्व के तुलाधार-जाजलि संवाद में भी बताया गया है। तुलाधार जाजलि से कहता है :
"वेदाहं जाजले धर्म सरहस्यं सनातनम्। सर्वभूतहितं मैत्रं पुराणं ये जना विदुः ।। "सर्वेषां यः सुहृन्नित्यं सर्वेषां च हिते रतः । "सा वृतिः स परो धर्मस्तेन जीवामि भूतले।।"
"तुला मे सर्वभूतेषु समा तिष्ठति जाजले। नाऽहं परेषां कृत्यानि प्रशंसामि न गर्हये।।" "यो हन्याद् यश्च मां स्तौति तत्रापि श्रुणु जाजले।
समौ तावपि में स्यातां न हि मेऽस्ति प्रियाऽप्रियम्" इस प्रकार के उदात्त विचार व्यक्त करने वाला तुलाधार अपनी दुकानदारी का काम करता हुआ जाजलि ने देखा। महाभारतकार को कर्म तथा ज्ञान निष्ठाओं से भी जो निष्ठा अभिमत थी वह यही तीसरी निष्ठा है। राजर्षि जनक ने इसी तीसरी निष्ठा का अवलंब किया था। पारिवारिक जीवन में प्राप्त कर्तव्यों को निभाते हुए उनके बन्धन से अलिप्त रहना, किसी की आसक्ति न रखना, किसी का द्वेष, मत्सर, वैर न करना और सर्वभूतहित में निरत रहना, यहि इस तीसरी निष्ठा का स्वरूप है। श्रीमद्भगवद्गीता में इसी को "निष्काम कर्मयोग" कहा है। शांतिपर्व के नारायणीयोपाख्यान में भगवद्गीता में प्रतिपादित भागवत धर्म का स्वरूप समुचित पद्धति से प्रतिपादन किया है। उपरिनिर्दिष्ट अर्थशास्त्र तथा अध्यात्मशास्त्र के विषयों के अतिरिक्त दैववाद
और प्रयत्नवाद, लक्ष्मी का प्रियस्थान, व्यावहारिक आचरण, गोप्रशंसा, दानप्रशंसा, लोकोपकारक पूर्तकर्मों की प्रशंसा, इत्यादि विविध महत्त्वपूर्ण विषयों का विवेचन महाभारत में हुआ है। इन सभी विषयों के प्रतिपादन में महाभारत की वैशिष्ट्यपूर्ण विचारधारा का परिचय होता है।
पर्वानुक्रम के अनुसार महाभारत का
कथासार
1 "आदिपर्व" नैमिषारण्य में शौनकादि ऋषि यज्ञ कर रहे थे। एक दिन पुराण सुनाने वाले सौति वहां आये। ऋषिगण ने उनसे पूछा, "आप कहां से आये हैं। वे कहने लगे "हम राजा जनमेजय के यज्ञ से आये हैं। किन्तु आस्तिक ऋषि ने यह यज्ञ पूरा नहीं होने दिया। उस सत्र में वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को महाभारत की कथा सुनायी। उस कथा को श्रवण कर हम यहां आये
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हैं। तब ऋषियों ने निवेदन किया, "महाराज, हमें यह जानने की अत्यंत उत्कण्ठा है कि जनमेजय ने सर्पसत्र क्यों किया और आस्तिक ने उसे पूर्ण क्यों नहीं होने दिया, एवं वैशम्पायन ने महाभारत का कैसे वर्णन किया? कृपया श्रवणलाभ करायें।" यह सुनकर सौति कहने लगे :
जरत्कारु नाम के एक अविवाहित ऋषि तीर्थयात्रा कर रहे थे। एक बार उन्हें अपने मृत पूर्वजों का दर्शन हुआ। मृत पूर्वजों ने उनसे कहा, "जब तुम अपनी वंशवृद्धि चलाओगे तभी हमें सद्गति प्राप्त होगी।" जरत्कारु ने उत्तर दिया, यदि मेरे नाम की स्त्री मुझे मिले तो मै अवश्य विवाह करूंगा।" इतना कहकर जरत्कारु ऋषि चले गये।
कश्यप ऋषि की कद्रू और विनता नाम की दो पत्नियां थी। एक दिन सूर्यरथ के अश्वों के रंग के विषय में उन दोनों में विवाद हुआ। कद्रू का कहना था कि सूर्यरथ का अश्व सम्पूर्णतया श्वेत नहीं है, किन्तु विनता का आग्रह था कि वह केवल श्वेत ही है। इस बात पर होड़ लगी। निश्चित हुआ कि जिसका कथन असत्य हो वह दूसरी की दासी बने। कद्रू ने अपने सर्व पुत्रों (सों से) से कहा कि "तुम सब अश्व की पूंछ से लिपट जाओ ताकि पूंछ काली दीख पड़े और मुझे दासित्व प्राप्त न हो।" उनमें से कुछ सों ने यह बात अमान्य की। अतः कद्रू ने उन्हें शाप दिया कि "जनमेजय के सर्पयज्ञ में तुम्हारी मृत्यु होगी।"
दूसरे दिन दोनों अश्व देखने निकलीं। कुछ सर्पो ने जा कर उसकी पूंछ काली कर दी थी। अतः विनता कद्रू की दासी बन गयी। विनता को गरुड नामक एक पुत्र था। उसने सर्पो से पूछा, “हम आपके दास्य से मुक्त होने के लिये क्या उपाययोजना करे?" सों ने कहा, हमें अमृत की प्राप्ति कर देने पर तुम मुक्त हो सकोगे।" गरुड ने यह बात मान ली। देवदानवों के समुद्रमन्थन के समय प्राप्त अमृत, यद्यपि अत्यंत सुरक्षित स्थान पर था, परन्तु गरुड ने उसे प्राप्त किया और सो को देकर मुक्ति प्राप्त की।
जिन सों को कद्रू ने शाप दिया था उनमें से वासुकि नाम के सर्प से ब्रह्माजी ने कहा, "तुम अपनी भगिनी जरत्कारु का विवाह जरत्कारु ऋषि से कर दो। उसका पुत्र तुम्हारी रक्षा करेगा। वासुकि ने उसका कहना शिरोधार्य कर अपनी भगिनी का जरत्कारु से विवाह कर दिया। इसी का पुत्र आस्तिक कहलाया।
पाण्डवों के पोते राजा परीक्षित ने अपने राज्यकाल में एक बार ऋषि के गले में मृत सर्प पहना दिया। ऋषि के पुत्र ने यह देख कर राजा को शाप दिया, "तुम सात दिन के भीतर तक्षक सर्प के दंश से मृत्यु प्राप्त करोगे।" उसकी शापवाणी
सत्य हुई। परीक्षित की मृत्यु के उपरान्त जनमेजय ने राजपद सम्हाला। उसने तक्षक से बदला लेने के लिये सर्पसत्र आरम्भ किया। आस्तिक वहां पहुंचा। जनमेजय ने जब उसे मुंहमांगी बात देने का वचन दिया, तब उसने प्रार्थना की कि "सर्पसत्र अभी के अभी समाप्त हो।" इस प्रकार सर्यों की रक्षा हुई।
उस सर्पसत्र में व्यास ऋषि की आज्ञा से वैशम्पायन ने राजा जनमेजय को महाभारत की कथा सुनायी। वैशम्पायन ने कथा आरम्भ की
मत्स्य के उदर में दो बालक अवतीर्ण हुए। उनमें से लड़का था मत्स्यराजा। उसको उपरिचर राजा ने आश्रय दिया और लड़की मस्त्यगन्धा का धीवर को समर्पण किया। उसे पराशर ऋषि से एक पुत्र हुआ। वही हैं व्यास ऋषि। उन्होंने इस महाभारत की रचना तीन वर्षों में संपूर्ण की, जिसके लेखक स्वयं गणेशजी हुए थे।
चंद्रवंश के राजा शन्तनु के गंगा से उत्पन्न पुत्र भीष्म ने स्वयं ब्रह्मचारी रहकर मत्स्यगन्धा का विवाह शन्तनु से कराया। मत्स्यगन्धा ने दो पुत्रों को जन्म दिया। 1) चित्रांगद और 2) विचित्रवीर्य। उनमें से चित्रांगद का अविवाहित अवस्था में देहान्त हुआ और दूसरा विचित्रवीर्य विवाह होने के बाद यक्ष्मपीडित हो कर मर गया। व्यास ऋषि ने उनका वंश बढाया। विचित्रवीर्य
की पत्नियों को धृतराष्ट्र और पाण्डु ये पुत्र हुए और विदुर दासी से हुआ। धृतराष्ट्र की पत्नी गान्धारी को दुर्योधन, दुःशासन आदि एक सौ पुत्र हुए और दुःशला नामक एक कन्या हुई। धृतराष्ट्र को एक युयुत्सु नामक दासीपुत्र भी था। पाण्डुराजा की दो पत्नियां थी, कुन्ती और माद्री। कुन्ती को धर्म, भीम, अर्जुन ये तीन और माद्री को नकुल और सहदेव ये दो पुत्र पाण्डु से हुए। पाण्डु की मृत्यु के उपरान्त माद्री ने सहगमन किया। विवाह के पूर्व कुन्ती को सूर्य से कर्ण नामक एक पुत्र की प्राप्ति हुई थी। उसने कर्ण को गंगा के प्रवाह में छोड़ दिया जो एक सूत को प्राप्त हुआ।
___ पाण्डव प्रबल थे इस लिये दुर्योधन उनसे द्वेष रखता था। उसने एक समय भीम को विष देकर मारने का प्रयत्न किया। पाण्डवों को लाक्षागृहमें जलाने का षडयंत्र भी रचा था, परन्तु उन सब संकटों में भी सुरक्षित रह कर हिडिम्बासुर और बकासुर का नाश पाण्डवों ने किया। द्रौपदी स्वयंवर में अर्जुन ने शर्त जीत ली। द्रौपदी सबकी पत्नी हुई और धृतराष्ट्र ने पाण्डवों को
आधा राज्य प्रदान किया। इन्द्रप्रस्थ उनकी राजधानी थी। नारद के आदेशानुसार पांच पांडवों ने यह तय किया कि द्रौपदी के साथ जो पति (पाण्डवों मे से एक) एकान्त करे उसके अलावा कोई वहां जा कर यदि उन्हें देखे तो उसको एक वर्ष की तीर्थयात्रा करनी होगी।
एक बार रात के समय चोरों द्वारा एक ब्राह्मण की गायें चुराई गयीं। उस समय उनकी रक्षा के लिए अर्जुन को शस्त्रग्रहणार्थ धर्मराज और द्रौपदी के एकान्तका भंग करना पड़ा। गायों को मुक्त कर अर्जुन तीर्थयात्रा करने के लिये गया।
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. धौम्य ऋषि के कुल तान
में पानी देने के कारण से
भी न देते थे।
तीर्थयात्रा करते करते वह द्वारका पहुंचा। वहां कृष्ण की अनुमति लेकर उसने सुभद्राहरण किया और वह इन्द्रप्रस्थ गया। सुभद्रा का पुत्र था अभिमन्यु। द्रौपदी को पांच पाण्डवों से पांच पुत्र हुए। उनके नाम थे- 1) प्रतिविन्ध्य, 2) सुतसोम, 3) श्रुतकर्मा, 4) शतानीक और 5) श्रुतसेन।
अर्जुन के इन्द्रप्रस्थ पहुंचने पर श्रीकृष्ण भी वहां आये। कुछ दिनों के बाद उनकी सहायता लेकर अग्नि ने खाण्डववन भस्मसात् किया। तब अर्जुन ने मयासुर की रक्षा की। तक्षकपुत्र अश्वसेन छूट निकला।
महाभारत के आदिपर्व में आठ उपाख्यान मिलते हैं।
1) शिष्यपरीक्षा : धौम्य ऋषि के कुल तीन शिष्य थे। उनमें से आरुणि नामके शिष्य को ऋषि ने खेत में पानी देने की आज्ञा दी। खेत के निकट बहने वाले नाले में लेट कर खेत में पानी देने के कारण ऋषि ने अनुग्रह कर उसे वेदशास्त्रसम्पन्न बनाया। दूसरा शिष्य था उपमन्यु। उसको गोरक्षण का काम दिया। गुरुजी उसको खाने के लिये कुछ भी न देते थे। उसने
अन्नग्रहण करने के लिये अलग अलग युक्तियां खोज निकाली। वह अरण्यस्थित घरों से जो भिक्षा ग्रहण करता उसे गुरु स्वयं ले लिया करते। उसके बाद वह दो समय भिक्षा मांगने लगा। धौम्य ऋषि ने उसको वह भी मना किया। उसके बाद गाय
का दूध और बाद में दूध पीते समय बछडों के मुंह से टपकने वाला फेन पीकर भी जब न बना तो उसने आक के पत्ते खाये। उससे वह बेचारा अन्धा होकर कुएं में गिर पडा। तब ऋषि ने प्रसन्न होकर उसको सब की तरह विद्या प्रदान की। तीसरा शिष्य था वेद । ऋषि ने उसे गाडी और हल में जोता। तब भी वह एकनिष्ठ बना रहा । यह देख कर धौम्य ने उसे भी सर्वज्ञ बना दिया।
2) शकुन्तलाख्यान : विश्वामित्र से मेनका को शकुन्तला नाम की पुत्री हुई। मातापिता से परित्यक्त शकुन्तला का पालनपोषण कण्वऋषि ने किया। एक समय कण्वऋषि की अनुपस्थिति में राजा दुष्यन्त वहां आया और उसने शकुन्तला को देखा। राजा का चित्त मोहित हुआ। वह क्षत्रियकन्या है यह जान कर दुष्यन्त ने उसके साथ गान्धर्व पद्धति के अनुसार विवाह किया। शकुन्तला ने भरत नाम के पुत्र को जन्म दिया। उसके नाम से ही अपने इस देश को भरतखण्ड कहा जाता है। कण्व ने शकुन्तला को उस पुत्र के साथ राजा के पास भेज दिया।
3) कच-देवयानी-उपाख्यान : देवदैत्यों के युद्ध में देवों का नाश होने लगा। देवों के गुरु बृहस्पति थे। उनको संजीवनी विद्या का ज्ञान नहीं था। उस विद्या का ग्रहण करने के लिये देवों ने गुरुपुत्र कच को दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास भेजा। असुरों को यह बात पसंद नहीं थी। उन्होंने कच का दो बार वध किया; परन्तु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी का कच
से अत्यन्त प्रेम होने के कारण शुक्राचार्य ने उसे दो बार जीवित किया। तीसरे समय तो असुरों ने कच के मृत देह की राख मदिरा में मिला कर शुक्राचार्य को पिलायी। देवयानी के आग्रह से शुक्राचार्य ने संजीवनी मन्त्र का उच्चारण करते ही कच उनके पेट में से बोलने लगा। तब शुक्राचार्य ने उसको संजीवनी मंत्र की दीक्षा दी। उसके उपरान्त कच उसका पेट फाड़ कर बाहर आया और मंत्रसामर्थ्य से उसने शुक्राचार्य को सजीव किया। देवों की ओर जाते समय देवयानी की प्रेमयाचना कच ने मान्य न करने के कारण, देवयानी ने कुपित हो कर उसे शाप दिया कि, "तुम्हारी विद्या तुहारे ही काम न आएगी।" कच ने भी शाप दिया कि, “एक भी ब्राह्मणपुत्र तेरा वरण नहीं करेगा।" कच ने बाद में वह विद्या देवों को सिखा दी।
___4) ययाति उपाख्यान : असुरों के राजा वृषपर्वा की कन्या शर्मिष्ठा और दैत्यपुत्र शुक्राचार्य की कन्या देवयानी ने अपनी सखियों के साथ जलक्रीडा करते समय, तीर पर रखे हुए उनके वस्त्र तेज हवा ने एक कर दिये। जल्दी में शर्मिष्ठा ने देवयानी
का वस्त्र परिधान किया। इस लिये उन दोनों में झगड़ा होकर शर्मिष्ठा ने देवयानी को कुएं में ढकेल दिया और वह चली गयी। बाद में ययाति नामक एक राजा मृगया करने के लिये वहां आया था। उसने देवयानी का हाथ पकड़ कर उसे कुएं
से बाहर निकाला। देवयानी ने यह हठ किया कि यदि शर्मिष्ठा मेरी दासी बनेगी तभी मै नगर में आऊंगी। शर्मिष्ठा ने यह बात मान ली। देवयानी का विवाह ययाति के राजा के साथ होने के उपरान्त शर्मिष्ठा भी उसके साथ दासी बन कर गई। देवयानी को यदु और तुर्वसु नामक दो पुत्र और शर्मिष्ठा को द्रुह्यु, अनु और पुरु नामक तीन पुत्र हुए।
5) अणीमाण्डव्योपाख्यान : एक बार माण्डव्यऋषि के तप करते समय कुछ चोर राजा के यहां चोरी कर के ऋषि के आश्रम में जा छिपे। इस लिये चोरों के साथ ऋषि को भी राजा ने सूलीपर चढ़ा दिया। अन्य चोर तो मर गये परन्तु यह देख कर कि माण्डव ऋषि सूली पर भी जीवित है। राजाने उन्हें सूली पर से उतारा। लेकिन उस शूल का अग्र अर्थात् अणी उनके शरीर में बिंधा रहने के कारण वे अणीमाण्डव्य के नाम से प्रसिद्ध हुए। बाद में अणीमाण्डव्य यम के यहां गये और अपने इस भोग का कारण उसे पूछा। यम ने बताया, "तुमने शैशव में एक कीटक को सींक से छेदा था, इस लिये वही दुःख आज तुमको भोगना पड़ रहा है।" इतने से पाप के लिये इतना भारी दण्ड देने के कारण ऋषिने यम को शाप दिया, "शूद्र योनि में तुम्हारा जन्म होगा।" उसी शाप के कारण यमराज विदुर हुए। 6) जम्बुकनीति : किसी एक जंगल में शेर, भेड़िया, सियार, नेवला और चूहा ऐसे पांच मित्र रहते थे। उन्होंने एक
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हा भाग गया। बस है, इस लिये
शिकार खाने वाले
बार हट्टा कट्टा काला हिरन देखा। वह चपल होने के कारण उनके हाथ न लगा। जब वह सोया हुआ था तब सियार के कहने के अनुसार चूहे ने उसके खुर काटना शुरु किया। यह देख कर कि अब उससे भागा नहीं जाता शेर ने उसकी जान ले ली। वह हिरन सिर्फ मुझे ही मिल जाय ऐसी सियार की इच्छा हो गई और उसने एक षडयन्त्र रचा। उसने अन्य प्राणियों
से कहा, "आप सब लोग नहा कर आइये तब तक मै यहां बैठता हूं।" सबसे पहले पहल शेर आया। सियार उसे कहने लगा, "चूहे का कहना है कि आज मेरे पराक्रम के बल पर ही शेर को भोजन मिल रहा है। धिक् धिक् लानत है उसकी
शूरता पर।" यह बात सुनते ही शेर दूसरा जानवर मारने के लिये जंगल में गया। बाद चूहा आया। सियार उससे कहने लगा कि, "नेवला कहता है, कि हिरन को शेर ने मारा है, इस लिये यह मांस मुझे हजम नहीं होगा इस लिये मै चूहे को ही खाऊंगा।" यह सुनते ही चूहा भाग गया। बाद में भेडिया आया। सियार उसको कहने लगा, "शेर अभी कह रहा था कि मेरी शिकार खाने वाले तुम कौन हो? शेर तो यही कह कर क्रोधपूर्वक गया है कि मै अभी अपने बीवी-बच्चों को लाता हूँ।" यह सुनकर भेडिया भी भाग खड़ा हुआ। बाद में नेवला आया। सियार उससे बड़े गर्व से कहने लगा, "देखो भाई। मैने अभी तक सब का पराभव कर उन्हें मार भगाया है। यदि तुम्हें घमण्ड हो तो आओ। युद्ध हो जाने दो।" सियार की यह बात सुन कर नेवला भी भाग गया। उसके उपरान्त सियार ने अत्यन्त आनन्दपूर्वक भरपेट भोजन किया।
सार : डरपोक को डर दिखा कर, शूर के सामने नम्र होकर, दुर्बल को धमकी दे कर, जैसा बन पडे वैसा अपना स्वार्थ सिद्ध करना चाहिये।
6) धेनुहरण : कान्यकुब्ज देश में गाधिराजा का पुत्र विश्वामित्र बहुत पराक्रमी राजा था। एक समय जब वह अपनी सेना के साथ मृगया के लिये गया था, तब थक कर वसिष्ठ मुनि के आश्रम में गया। वसिष्ठ के पास नन्दिनी नाम की कामधेनु थी। उसके कृपाबल से विश्वामित्र भोजनादिका प्रबन्ध वसिष्ठने इतका उत्तम किया कि विश्वामित्रके मनमें गायकी प्राप्ति
का अभिलाष उत्पन्न हुआ। वसिष्ठसे विश्वामित्र ने कहा कि, “मै अपना समस्त राज्य आप को देने को तैयार हूं परन्तु कृपया आपकी कामधेनु मुझे दीजिये।" वसिष्ठ ने इस प्रस्ताव को अस्वीकृत किया। सारा राज्य दे कर भी वह अपनी कामधेनु मुझे नहीं देता इस बात पर उसे क्रोध आ गया और जबरदस्ती से वह कामधेनु को ले जाने लगा। तब कामधेनु के शरीर से हजारों वीर निकले और उन्होंने विश्वामित्र का पराभव किया। तब विश्वामित्र को यह ज्ञान हुआ कि "ब्रह्मतेज ही सच्ची शक्ति है। क्षत्रियबल उसके सामने कुछ भी नहीं' अतः स्वयं ब्राह्मण ही बनना होगा। बाद में महान् तपश्चर्या कर वे सचमुच ब्राह्मण बन गये।
7) सुन्दोपसुन्दाख्यान : हिरण्यकश्यपू के वंश में निकुम्भ नाम का एक असुर राजा था। जिसके दो पुत्र- सुन्द और उपसन्द के बीच अत्यन्त प्रेम-भाव और एकमत था। सुन्दोपसुन्दों ने महान तपश्चर्या कर ब्रह्मा से वर माँगा कि, “एक दुसरे के अतिरिक्त और किसी व्यक्ति के हाथों हमें मृत्यु प्राप्त न हो।" वरप्राप्ति होते ही वे उन्मत्त होकर देवऋषियों को पीडा देने लगे।
तब ब्रह्माजी ने तिलोत्तमा नामक एक अतिसुंदर अप्सरा निर्माण कर उनके पास भेज दी। उसका सौन्दर्य देख कर दोनों ही मोहांध हो गये। सुन्द कहने लगा, “यह मेरी स्त्री तुमको माँ के समान है।" और उपसुन्द कहने लगा, "यह मेरी स्त्री
तुझे बहू के समान है।" वे दोनो भाई आपस में झगडने लगे। परिणाम यह हुआ कि दोनो भाइयों ने आपस में लड़ कर एक दूसरे का घात किया।
2 "सभापर्व" __मयासुर को खाण्डवन से विमुक्त करने के कारण उसने पाण्डवों के लिए कृतज्ञतापूर्वक एक अद्भुत राजप्रासाद निर्माण किया। उस प्रासाद में बहुत ही चमत्कार थे। जहां पानी था वहां भूमि का भास हो रहा था और जहां भूमि वहां पानी का भास हो रहा था। यह प्रासाद दस हजार हाथ लम्बा चौडा था और उसका निर्माण करने के लिये मयासुर को चौदह मास लगातार परिश्रम करना पड़ा था। पाण्डवों ने बडे ठाठ बाठ से उस महान् प्रासाद में प्रवेश किया।
एक दिन नारदमुनि पाण्डवों से मिलने के लिये आये थे। उन्होंने देवसभा का वर्णन किया और पाण्डवों से कहा, "तुम्हारे पिता पाण्डुराजा मुझे स्वर्ग में मिले थे। उन्होंने यह सन्देश भेजा है कि तुम राजसूय यज्ञ करो।" यह सन्देश सुन कर धर्मराज
ने श्रीकृष्ण को बुला कर उनकी राय ली। कृष्ण ने कहा, "राजसूय यज्ञ का विचार उत्तम है परन्तु इससे पहले सब राजाओं पर विजय प्राप्त करनी होगी। इस समय जरासन्ध अत्यन्त प्रबल राजा है। उसने 86 राजाओं को गुहा में बन्दी बना रखा है
और बाकी 14 राजाओं को जीत कर वह एकदम 100 राजाओं को महादेव पर बली चढाने वाला है। यदि तुम राजसूय यज्ञ करना चाहते हो तो तुम्हें पहले जरासन्ध को मार कर उन राजाओं को मुक्त करना होगा। इस लिये भीम और अर्जुन मेरे साथ दो। हम तीनों शक्तियुक्ति से उसका नाश करके लौटेंगे। उसके बाद धर्मराज की आज्ञा लेकर वे तीनों निकले। जरासन्ध के यहां पहुंच कर भीम और जरासन्ध का तेरा दिन अहोरात्र मल्लयुद्ध हुआ। चौदहवें दिन जरासन्ध को थका हुआ सा देख श्रीकृष्ण ने भीम को सुझाया कि, “यही अवसर है।" उसके अनुसार भीम ने जरासन्ध की एक जांघ अपने पैर से दबाकर
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दूसरी जांघ हाथ से पकड उसे बीच में से चीर कर शरीर के दो भाग कर दिये। बाद में बन्दी राजाओं को विमुक्त कर, जरासन्ध के पुत्र को गद्दी पर बिठा कर और पर्याप्त द्रव्य ले कर श्रीकृष्ण भीमार्जुनों के साथ इन्द्रप्रस्थ को वापस आये। इसके बाद भीम आदि चार पाण्डवों ने चारों दिशाओं में जा कर राजाओं से धन प्राप्त किया और राजसूय यज्ञ की सिद्धता होने लगी। ब्राह्मण, क्षत्रिय आदि सभी को निमंत्रण भेजा गया। उसके अनुसार सब लोक एकत्रित हुए । हस्तिनापुर से भीष्म, द्रोण, धृतराष्ट्र, दुर्योधन, आदि महान् लोग आने पर यज्ञका कुछ न कुछ काम हर व्यक्ति पर सौपा गया और यज्ञ का आरम्भ हुआ। जब यज्ञ में अग्रपूजा का प्रश्न उठा तब धर्म ने भीष्म से पूछा, "किस व्यक्ति को यह बहुमान देना योग्य होगा ?" भीष्म ने उत्तर दिया, “भगवान श्रीकृष्ण ही इसके योग्य व्यक्ति हैं।" इसके अनुसार सहदेव ने सबसे पहले श्रीकृष्ण की पूजा की। शिशुपाल को यह बात असह्य हुई। वह पाण्डवों, भीष्म और श्रीकृष्ण को भी क्रोधाविष्ट हो कर मनचाही गालियों देने लगा । यह देख कर श्रीकृष्ण एकत्रित समूहों को उद्देश्य कर बोले कि "सुनिये, शिशुपाल की माता को दिये गये वचन अनुसार मैने आज तक इसके सौ अपराध सहन किये हैं। अब यह वध करने के सर्वथा योग्य है।" उनके स्मरण करते ही उपस्थित हुए सुदर्शन चक्र से श्रीकृष्ण ने शिशुपाल का शिरउच्छेद किया। उसी समय धर्मराज ने शिशुपाल के पुत्र को वहीं राज्याभिषेक किया। अवभृतस्नान के उपरान्त यज्ञ समाप्त होने पर सब को यथोचित सम्मानित कर बिदा किया गया। सब लोग स्वस्थान लौटे। केवल दुर्योधन और शकुनि मयप्रासाद की शोभा देखने के लिये ठहरे। मयप्रासाद का दर्शन देखते देखते कई अवसरों पर दुर्योधन की अप्रतिष्ठा हुई। वह धरती को पानी समझ कर अपनी धोती सम्हाल कर चलता और पानी को भूमि समझ कर चलता तो पानी में गिर पड़ता। यह समझ कर कि दरवाजा बन्द है वह उसे खोलने का प्रयत्न करता और दरवाजे को खुला जान कर जाने लगता तो दीवार से जा टकराता ।
ऐसे हर प्रसंग में उसकी खिल्ली उडाई गयी। भीम ने तो "अन्धे का बेटा" कह कर उसे चिढाया। तब शकुनि और दुर्योधन ने हस्तिनापुर का रास्ता सुधारा रास्ते से चलते चलते दुर्योधन को मूक देखकर शकुनि ने इस मूकता का कारण जानना चाहा । दुर्योधन तो मन ही मन कुढ रहा था । बोला "पाण्डवों का यह वैभव और मयप्रासाद देखते समय मेरा जो अपमान हुआ है वह मेरे लिए असह्य है, उस वैभव को प्राप्त कर सकने का कोई उपाय समझ में न आने से ऐसा लगता है कि मै आत्महत्या कर लूं।"
शकुनि ने कहा कि इसके लिये रामबाण युक्ति है। सुनो "धर्मराज को द्यूतकला का विशेष ज्ञान नहीं परन्तु द्यूत का निमंत्रण वह कभी भी अस्वीकृत न करना उसका व्रत है। मै स्वयं कपट द्यूत में प्रवीण हूं। हम पाण्डवों को द्यूत खेलने के लिये आमंत्रित कर उनका समस्त राज्य जीत लेंगे परन्तु यह सब धृतराष्ट्र की सम्मति से ही करना होगा।"
हस्तिनापुर में आते ही यह बात धृतराष्ट्र को सुनाई गयी। पहले पहल धृतराष्ट्र ने इसमें बहुत आनाकानी की परन्तु अन्त में उसने सम्मति दी। इसके लिये एक उत्तम प्रासाद का निर्माण होने पर धृतराष्ट्र ने पाण्डवों के पास विदुर के द्वारा यह सन्देश भेजा कि, “वे यहां आ कर इस नवीन प्रासाद का दर्शन करें और यहीं कौरवों के साथ मित्रत्व की भावना से द्यूत खेलें । यह सुनकर धर्मराज द्रौपदी और अन्य पाण्डव वहाँ उपस्थित हुए ।
यथासमय द्यूत का प्रारम्भ हुआ। जो दांव शकुनि लगाता था उसमें उसी की जीत थी । सम्पूर्ण राज्य, बन्धु और स्वयं धर्मराज बाजी हार जाने पर शकुनि बोला, "अभी द्रौपदी तो है। सम्भव है इस दांव में तुम्हारी जीत हो।" परन्तु वह दांव भी शकुनि ने ही जीता। इसके अनन्तर दुर्योधन के कहने पर दुःशासन द्रौपदी को भरी सभा में खींच लाया । विकर्ण और विदुर ने कहा कि, "द्रौपदी की यह विटम्बना इस सभा को शोभा नहीं देती। लेकिन कर्ण की सूचना के अनुसार दुःशासन ने द्रौपदी का चीरहरण करना चाहा। तब द्रौपदी ने दीनता से सर्व शक्तिमान् श्रीकृष्ण की प्रार्थना की। उस संकट के समय एक वस्त्र के नीचे दूसरा, दूसरे के नीचे तीसरा इस प्रकार सैकडो वस्त्र निकले । अन्त में दुःशासन थक कर बैठ गया । दुर्योधन ने अपनी बायी जंघा खुली करके द्रौपदी को दिखाई। दोंनो बार भीमने दुःशासन का रक्तप्राशन करने की और दुर्योधन की बायी जंघा गदा के प्रहार से कुचलने की प्रतिज्ञाएँ की। जो कुछ घटना हुई वह अनुचित हुई यह जान कर धृतराष्ट्र ने द्रौपदी को वर मांगने को कहा। उस वर के अनुसार पाण्डवों को पुनः राज्य प्राप्त हुआ अनंतर वे इन्द्रप्रस्थ को लौटे।
यह बात कर्ण, दुर्योधन इत्यादि को अमान्य थी । दुर्योधन ने धृतराष्ट्र से हठ किया कि दूसरी बार द्यूत खेलने के लिये पाण्डवों को बुलाना ही होगा। उसके अनुसार धृतराष्ट्र ने द्यूत का निमंत्रण भेज कर पाण्डवों को आधे रास्ते से वापस बुलाया । पाण्डवों को आने पर पुनः द्यूतारम्भ हुआ। इसलिये उसको "अनुद्यूत" कहा जाता है। इस अनुद्यूत में एक ही दांव और एक ही बाजी थी। जो हारेगा उसे बारह वर्ष वनवास और एक वर्ष अज्ञातवास करना होगा। अज्ञातवास में पहुंचाने जाने पर फिर बारह वर्ष वनवास करना होगा। यह भी तय हुआ कि "यदि पाण्डव हारें तो उन्हें द्रौपदी के साथ इस बाजी की भुगतान करनी पडेगी।" यह दाँव भी शकुनि ने जीता। इसलिये द्रौपदी को साथ लेकर पाण्डव वन में गये। कुन्ती विदुर के घर में रहने लगी। धृतराष्ट्र ने पाण्डवों के साथ रथ, दास, दासी आदि सामग्री भेजी थी।
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उपकथा १, जरासन्धजन्य : मगध देश में बृहद्रथ नाम का एक राजा था। उसकी दो रानियाँ काशीराजा की कन्याएँ थी। उसने पुत्रप्राप्ति के लिये अनेक यज्ञ किये थे किन्तु उसे पुत्रप्राप्ति नहीं हुई। बृहद्रथ राजा जब वृद्ध हो गया तब एक दिन उसे यह ज्ञात हुआ कि काक्षीवान् गौतम का पुत्र चण्डकौशिक नगर के समीप आया है। राजा वहां गया और उसने चण्डकौशिक की सम्मान से पूजा की। इतने में ही चण्डकौशिक की गोद पर एक आम्रफल टपका। ऋषि ने वह फल मन्त्रपूजित कर राजा को प्रदान किया और कहा कि, “इस फल से तुम्हे पुत्रप्राप्ति होगी। "वापस लौटने पर राजा ने दोनों पत्नियों को आधा आधा फल खाने के लिये दिया। कुछ काल के बाद रानियाँ गर्भवती हुई। यथाकाल प्रसूति में उनको आधा आधा पुत्र हुआ। रानीयों ने उसे चौराहे पर फेंक दिया। जरा नाम की राक्षसी ने उन दोनों भागों को जोडने पर एक संपूर्ण शरीर हुआ। जरा ने वह पुत्र राजा को दे दिया। जरा नाम की राक्षसी ने सन्धिद्वारा उत्पन्न करने के कारण उस पुत्र का नाम जरासन्ध रूढ हुआ।
उपकथा २, शिशुपाल जन्मः चेदि देश के राजा को एक पुत्र हुआ। उसकी तीन आंखें और चार हाथ थे। जन्म होते ही वह गर्दभ के समान रेंकने लगा। वह अशुभ बालक देखते ही उसके माँ बाप उसका त्याग करने का विचार करने लगे। इतने में आकाशवाणी हुई कि "इसका त्याग मत करो। यह अत्यन्त पराक्रमी होगा। शस्त्र से ही इसे मृत्यु प्राप्त होगी। जिसके हाथों इसका अन्त होगा वह इसके जन्म के पूर्व ही उत्पन्न हो चुका है।" उसकी माँ ने कहा कि, “मै यह जानने के लिये
अत्यंत उत्सुक हूँ कि, “इसकी मृत्यू किसके हाथो से होगी?" आकाशवाणी ने फिर से कहा, "जिसकी गोद में बिठाने पर इसके दोनों हाथ और तीसरी आँख आप ही आप गिरेगी, उसी के हाथों इसे मृत्यु प्राप्त होगी।" यह अद्भुत वार्ता सब ओर फैली और अनेक लोग उस बालक को देखने के लिये आने लगे। एक समय बलराम और श्रीकृष्ण अपनी फूफी के इस पुत्र को देखने के लिये आये। बालक को श्रीकृष्ण की गोद में रखते ही उसके दोनों हाथ और तीसरी आँख गल गई। यह देख कर उसकी माता ने श्रीकृष्ण की प्रार्थना की।" मेरा पुत्र कितने ही अपराध क्यों न करे, तुम उसे क्षमा ही करना। कृष्ण ने कहा कि, "मैं केवल तुम्हारी ओर देख कर इसके एक सौ अपराध क्षमा करूंगा और बाद में अधिक अपराध करने पर इसका वध करूंगा।" इसी के अनुसार धर्म के राजसूय यज्ञ में श्रीकृष्ण ने उसका वध किया।
3 वनपर्व का सारांश द्यूतक्रीडा में पराभूत पाण्डव वनवास के लिये निकले तब उनके साथ ब्राह्मणों का मेला निकला। उन सब का भरण-पोषण कैसे किया जाय इस चिन्ता में धर्मराज थे तब धौम्यऋषि ने उन्हें सूर्य भगवान की आराधना करने का आदेश दिया। धर्म की
आराधना से सूर्यभगवान प्रसन्न हुए। उन्होंने उसे एक ताम्रपात्र प्रदान किया और कहा कि “इस पात्र से जब तक द्रौपदी परोसती रहेगी तब तक तुम्हारा अन्न कम नहीं होगा।" वह पात्र ले कर धर्मराज काम्यक वन में गए। वहाँ जाते समय किर्मीर राक्षस
ने उन्हे सताया तब भीम ने उसका नाश किया। पाण्डवों के वन में रहते दुर्योधन, कर्णादि उन्हें मारने के लिये निकले। किन्तु व्यास ऋषि के कहने से वे वापस लौटे।
एक समय मैत्रेय ऋषि कौरवों के यहाँ गये। उन्होंने दुर्योधन को पाण्डवों का द्वेष न करने का उपदेश देते हुए कहा, "उससे तेरा कल्याण नहीं होगा।" दुर्योधन ने उनका कहना न मान कर वह अपना अंक पीटने लगा। तब ऋषि ने कुपित होकर उसे शाप दिया कि, "युद्ध में भीम की गदा से तेरा अंक छिन्नभिन्न हो जाएगा।"
पाण्डवों के वनवास की वार्ता सुनने पर श्रीकृष्ण आदि यादव गण, द्रुपदपुत्र धृष्टद्युम्न, शिशुपालपुत्र धृष्टकेतु आदि लोग पाण्डवों को मिलने के लिये वन में गये। वहाँ वार्तालाप में श्रीकृष्ण ने कहा कि “मै शाल्व राजा के साथ युद्ध में निमग्न
था, नहीं तो में यह द्यूत होने ही नहीं देता।, "अनन्तर श्रीकृष्ण, सुभद्रा तथा अभिमन्यु को साथ ले कर द्वारका गये। द्रौपदी के पांच पुत्रों को साथ ले कर धृष्टद्युम्न अपने देश गया। धृष्टकेतु अपनी बहन (नकुल की पत्नी) रेणुमती को साथ ले कर
गया। तत्पश्चात् पाण्डवों के द्वैतवन में जाने पर द्रौपदी और भीम का मत हुआ कि कौरवों ने कपटप्रयोग से हमारा राज्य छीन लिया है, अतः "शठे शाठ्यम्" न्याय से हम कौरवों को परास्त करें। इस पर धर्मराज ने उत्तर दिया, "अविचार से किसी भी बात का फल अच्छा नहीं होता। कौरवों का पक्ष प्रबल है। उनसे युद्ध करने की क्षमता हमें प्राप्त करनी चाहिये।"
उसी चर्चा के समय व्यास मुनि वहां पहुंचे। उन्होंने धर्मराज को एक मंत्र दिया और कहा “यह मंत्र अर्जुन को दे कर उसे दिव्य अस्त्र की प्राप्ति के लिये भेजो" बाद में पाण्डव काम्यक वन में गये। धर्मराज ने अर्जुन को वह मंत्र पढाया और दिव्य अस्त्रों की प्राप्ति करने के लिये उसे रवाना किया। पाण्डवों का निवास उस वन में था उस समय बृहदश्व मुनि वहां
आये। उनकी पूजा कर धर्मराज ने उनसे पूछा कि, "क्या मेरे समान अभागा राजा आपके देखने में या सुनने में आया है?" ऋषि ने कहा कि, "निषधदेश में वीरसेन राजा का पुत्र नल बहुत ही सुंदर था। विदर्भ देश के भीमक राजाकी कन्या दमयन्ती ने उसे स्वयंवर में वर लिया था। उन्हें इन्द्रसेन नाम का एक पुत्र और इन्द्रसेना नाम की एक पुत्री हुई। नल के भाई पुष्कर ने द्यूत क्रीडा के लिये नल को आवाहन किया। दमयन्ती का विरोध होने पर भी चूत का प्रारम्भ हुआ। दमयन्ती ने अपने
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ने उत्तर देव दानवों के युद्ध तीर्थयात्रा करने के बावकट सुबाहु राजा का होता है। हो गया। इसी तार ओर गये। वहाँ मिसाध्वी द्रौपदी
धक कर उसक
बच्चों को अपने मायके भेज दिया। द्यूत में पराभूत होने पर नल वन में गया। साथ में दमयन्ती भी गयी। एक समय दमयन्ती को निद्रित अवस्था में त्याग कर नल चला गया। दमयन्ती दुखो हो कर कुछ दिन के लिये अपने मौसी के यहां रही और बाद में विदर्भ देश की ओर चली गयी। कुछ दिन वनवास में काट कर नल राजा अयोध्या में ऋतुपर्ण राजा के यहा नौकरी करता रहा। विदर्भदेश में आने के बाद पतिपत्नी के मिलन से दोनों बडे आनन्दित हुए। ऋतुपर्ण से नल ने द्यूतविद्या प्राप्त की थी अतः पुनश्च द्यूत खेल कर उसने अपना राज्य स्वाधीन किया। नल राजा को तीन वर्ष एकाको वनवासका दुःख सहना पडा। परन्तु हे धर्मराज, तेरे साथ तेरे भाई हैं, द्रौपदी है, अलग अलग विषयों पर चर्चा करने के लिये ऋषिगण हैं। इतने
सब सहायक होने के कारण, तुझे दुःख करने का कारण नहीं। यदि तुझे भय लगता है कि वनवास के बाद दुर्योधन तुझे द्यूत खेलने के लिये बुलायेगा तो मैं तुझे द्यूतविद्या सिखाता हूं।" बृहदश्व मुनि ने धर्मको द्यूतविद्या सिखाई।।
एक दिन लोमश ऋषि धर्मराज से मिलने आये। वे कहने लगे कि "मैं इन्द्रलोक में गया था। वहाँ इन्द्र ने आप को संदेश दिया है कि, "अर्जुन ने दिव्य अस्त्र- प्राप्त की है। देवों का महत्त्वपूर्ण कार्य कर के वह तुम्हें मिलने वापस आएगा।"
अर्जुन ने कहा है कि "पाण्डवों को तीर्थयात्रा करने के लिये कहिये और उस समय उनकी रक्षा करने के लिये आप उनके साथ जाइये" हे धर्मराज, यदि तुम तीर्थयात्रा करना चाहते हो तो इतना बड़ा परिवार साथ न रखो।" ऋषि के आदेश के
अनुसार केवल मिष्टान्न खाने के इरादे से जो ब्राह्मण उनके साथ थे, उन्हें वापस लौटा कर केवल तपस्वी ब्राह्मणों को साथ ले कर पाण्डव, धौम्य और लोमश ऋषि तीर्थयात्रा के लिये निकले।
इस यात्रा में धर्म ने लोमश ऋषि से पूछा, "हमने कभी कुछ भी अधर्म नहीं किया। फिर भी हमें इतना दुख भुगतना पडता है और दुर्योधन के इतना अधर्मी होते हुए भी वह आनन्द से राज्य का उपभोग लेता है इसका कारण क्या है? लोमश ने उत्तर दिया, “अधर्म मार्ग से चलने वाले पहले पहले सुखभोग प्राप्त कर सकते हैं किन्तु अन्त में उनका जड़ से नाश होता है। देव दानवों के युद्ध में पहले पहले जीत हुई थी दानवों की, परन्तु विजयोन्माद में वे उन्मत्त हो गये और उनका विनाश हो गया। इसी तरह तेरी तीर्थयात्रा करने के बाद कौरवों का विनाश हो कर तुझे राज्य मिलेगा।" पाण्डव तीर्थयात्रा करते करते उत्तर प्रदेश की ओर गये। वहाँ हिमाचल के निकट सुबाहू राजा का राज्य था। उसके पास धर्म ने अपने दास-दासी,
आदि रखकर धर्म पैदल आगे गये। मार्ग में साध्वी द्रौपदी को चक्कर आ गया। थक कर उसका जी घबरा हुआ था। उसके होश में आने के बाद भीम ने हिडिंबा से हुये अपने पुत्र घटोत्कच का स्मरण किया। वह तुरन्त अपनी राक्षससेना ले कर वहां आ गया। पाण्डवों की आज्ञा से उसने द्रौपदी को उठाया। अन्य राक्षसों ने पाण्डवों को और ब्राह्मणों को उठाया। लोमशऋषि आकाश पथ से ही चले। इस प्रकार वे तीर्थयात्री बदरिकाश्रम पहँचे।
पाण्डवों के वहां रहते एक दिन द्रौपदी ने एक दिव्यसुगंधी कमलपुष्प देखा। उसे देख कर द्रौपदी ने हठ लिया कि, "ऐसे बहुत से फूल मुझे चाहिये।" उसकी मांग पूरी करने के लिये भीम उत्तर दिशा की ओर निकला। उसे रास्ते में एक बंदर मिला। वह बोला, "अभी मैं बहुत अशक्त हो गया हूं। इस लिये मेरी यह पूँछ जरा बाजू में रखकर तू आगे जा।" भीम ने उसकी पूंछ हटाने का प्रयास किया लेकिन वह असफल रहा। तब भीम का अहंकार समाप्त हो गया। वह बंदर हनुमान् है यह ज्ञात होने पर, भीम ने उसकी क्षमायाचना की। हनुमान् ने भीम से कहा कि, “अब तू यहां से आगे नहीं जा सकता। यह देवलोक का मार्ग है। तुझे यदि दिव्य कमलपुष्पों की इच्छा है तो इस रास्ते से जा।" हनुमान् ने दिखाये रास्ते से भीम चल रहा था। कमलरक्षा के लिये वहाँ असंख्य यक्ष थे। उनका विनाश करके बहुत से कमलपुष्प लेकर भीम वापस आ गया। बदरिकाश्रम में जटासुर नामक राक्षस धर्म, नकुल, सहदेव और द्रौपदी को उठाकर आकाशमार्ग से भाग जा रहा था। तब भीम, घटोत्कचादि राक्षस और ऋषिगण बाहर गये थे। जटासुर ने कपटरूप से ब्राह्मण का वेष धारण कर लिया था। पाण्डवों के शस्त्र और द्रौपदी की उसे इच्छा थी। इस लिये वह वहां रहता था। आकाशपथ से जाते जाते सहदेव ने अपनी मुक्तता कर लीं। और भीम को जोर जोर से पुकारा। भीम वहां आया। तब जटासुर ने सबको नीचे रख दिया और वह भीम के साथ युद्ध को सिद्ध हुआ। युद्ध में जटासुर को भीम ने मार डाला। इस घटना के बाद अर्जुन से मिलने के लिये पाण्डव वहां से गन्धमादन पर्वत की ओर निकले। मार्ग में उनको वृषपर्वा राजर्षि का आश्रम दीख पडा। वहां उन्होंने एक सप्ताह निवास किया। अरण्यवासी ब्राह्मणों को वहां छोड़ कर वे आगे निकले। इतने में पाण्डवों को गन्धमादन पर्वत के दर्शन हुए उसके निकट आष्टिषण राजर्षि का आश्रम था। वहाँ बहुत दिन वास्तव्य होने के पश्चात् एक दिन पाण्डवों ने गन्धमादन गिरि पर आरोहण किया। वहां उन्हें कुबेर के दर्शन हुए। कुबेर ने उनसे कहा कि "यहां आप अपना घर समझ कर रहिये। ये
यक्ष आपकी सेवा करेंगे।" इस तरह वहां वे एक मास रहने के पश्चात् स्वर्ग में पांच वर्ष तक रह कर जिसने शस्त्रास्त्रों का ज्ञान पूर्णरूपेण ग्रहण किया था वह अर्जुन अपने भाइयों को मिलने के लिये वहां आया।
धर्मराज के पूछने के पर अर्जुन ने अपना वृत्तकथन प्रारम्भ किया। “में आपसे बिदा ले हिमालय पर्वत पर पहुँचा। वहाँ तप करते समय एक दिन एक वराह मेरी ओर भाग आया, जिस पर मैने बाण छोडा। उसी क्षण एक किरात के बाण ने उसे घायल कर दिया। शिकार पर हम दोनों के बाण एक साथ गिरे। किरात ने कहा, "शिकार मेरा है। तेरा उसे बाण मारने का
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क्या अधिकार? इतना कह उसने मुझ पर शरवर्षा शुरू की । प्रत्युत्तर में मैने भी उस पर बाण छोड़े परन्तु मै हार गया और भूमि पर गिर गया उसी समय किरात गुप्त हो गया और श्रीशंकर पार्वती के साथ वहां प्रकट हुये। उन्होंने मुझे अभय दे कर वर मांगने की आज्ञा की। मैने दिव्य अस्त्रों की मांग की जिस पर शंकरने मुझे पाशुपतास्त्र सिखाया और वे चले गये । तत्पश्चात् इन्द्र, वरुण, यम और कुबेर वहाँ आये । इन्द्र के अतिरिक्त तीन देवों ने मुझे अस्त्र दिये । इन्द्र ने कहा, "तुम स्वर्ग में आओ। मैं तुम्हे वहाँ शस्त्र दूंगा।" अनन्तर इन्द्र का सारथि मातलि रथ ले कर वहां आया। उस रथ पर आरूढ हो कर मैं स्वर्ग गया। वहां जाते ही इन्द्र ने मुझे शस्त्र दिये और विश्वावसु गंधर्व के पुत्र चित्रसेन ने गायन, नर्तन आदि कलाओं का ज्ञान दिया।
एक दिन इन्द्र ने बहुत ही आनन्द से मुझे कहा कि "अर्जुन, अब तेरी शिक्षा पूरी हो गई है, अतः तुझे गुरुदक्षिणा देनी होगी। निवातकवच नाम के दैत्य हमारे शत्रु है और वे प्रबल हैं। उन्हें तू नष्ट कर यही हमारे लिए गुरुदक्षिणा है। मैने उन दानवों का नाश किया और वापस आते आते मातलि के कहने के अनुसार कालकेय असुरों का भी नाश किया। इन्द्र स्वर्ग में मेरा बहुमान किया और आनन्द से मुझे यहां आने की अनुज्ञा दी। उनकी आज्ञा मिलते ही मैं यहाँ तुम्हें मिलने आया । इस तरह मैंने स्वर्ग में पांच वर्षो का काल व्यतीत किया । यह वृत्तान्त सुन कर धर्मराज ने अस्त्र देखने की इच्छा प्रकट की। अर्जुन ने सारे अस्त्र दिखाये ।
ने
पाण्डव पुनश्च द्वैत वन में आने के लिये निकले। रास्ते में अगस्तिऋषि के शाप से सर्प हो पडे हुये राजा नहुष ने, भीम को पकड़ लिया। उसके प्रश्नों के उत्तर देकर धर्मराज ने भीम को विमुक्त किया । तदनन्तर पाण्डव द्वैतवन में पहुंचे एक दिन दुर्योधन उनको लज्जित करने के लिये अपने समस्त वैभव के साथ परिवार, सैन्य, स्त्रियाएं आदि ले कर वहां आ गया। उसी स्थान पर गन्धर्वों से वह पराजित हो गया और उन सब को बांध कर गन्धर्व निकले। अपने कुल का अपमान न हो इस भावना से पाण्डवों ने कौरवों को विमुक्त किया।
उसके पश्चात् पाण्डव काम्यक वन में आये। वहां उनके सत्त्वहरण के लिये दुर्योधन ने दुर्वास ऋषि को भेजा था । परन्तु श्रीकृष्ण की सहायता से पाण्डवों का सत्त्वरक्षण हुआ। एक समय द्रौपदी का हरण करने का प्रयत्न जयद्रथ ने किया परन्तु पाण्डवों ने उसे पराभूत कर छोड दिया। अपमानित होने पर जयद्रथ ने तप किया जिसके फलस्वरूप "अर्जुन के सिवाय अन्य पाण्डवों के विरुद्ध एक दिन तुझे युद्ध में विजय मिलेगी" ऐसा वर उसे शंकर से मिला ।
एक दिन धर्मराज ने मार्कण्डेय ऋषि से पूछा कि "मेरे समान अभागा मानव आपको ज्ञात है "तब ऋषि ने उसे रामचन्द्र की कथा सुनाई।" क्या द्रौपदी के समान दुसरी पतिव्रता स्त्री है?" यह धर्मराज का दूसरा प्रश्न सुन कर मार्कण्डेय ने प्रारम्भ किया। मद्रदेश के राजा अश्वपति की पुत्री सावित्री की कथा सुनायी। सावित्री का विवाह शाल्वदेश के अन्ध एवं राज्यभ्रष्ट राजा द्युमत्सेन के पुत्र सत्यवान् से हुआ था। नारदऋषि के कहने के अनुसार एक वर्ष के बाद अपने पति की मृत्यू टालने के लिये सावित्री ने तीन दिन का व्रत किया । व्रत के बाद यमराज सत्यवान् के प्राणहरण करने आये थे, परन्तु सावित्री ने चातुर्य से उनको प्रसन्न किया और अपने पति को नव जीवन दिया। इस सावित्री के समान तुम्हारी द्रौपदी पतिव्रता है। उसके कारण तुम्हारे दुःख दूर होकर तुम्हे पुनश्च राज्यप्राप्ति अवश्य होगी।
वनवास के बारह वर्ष समाप्त होने आये थे। आगे युद्ध करना पडेगा इस विचार से धर्मराज चिन्तातुर थे। कर्ण के शरीर पर जन्मसिद्ध कवच-कुण्डल थे, जिनके कारण वह अजेय था। धर्मराज की इस चिन्ता को दूर करने के लिये इन्द्र ने ब्राह्मण का वेश धारण कर, कर्ण का कवचकण्डल विरहित किया और उसे एक दिव्य शक्ति प्रदान की। पाण्डव पुनश्च द्वैत वन में आये ।
किसी ब्राह्मण की अग्नि उत्पन्न करने की "अरणी" एक हिरन ने भगाई। इस लिये पाण्डव उसका पीछा करने लगे । किन्तु वह उनके हाथ नहीं लगा । पाण्डव थक गये और वे तृष्णार्त होकर एक एक कर के पानी पीने जाने लगे। उस सरोवर पर एक यक्ष रहता था। वह कहता, "मेरे प्रश्नों का समाधान पहले करो और उसके बाद में पानी पीओ।" उसके अनुसार अकेले धर्मराज ने उसके प्रश्नों के उत्तर दे कर अपने मृत बंधुओं को जीवित किया। वह यक्ष नहीं था बल्कि प्रत्यक्ष यमधर्म था। उसने उस ब्राह्मण की अरणी वापस दी और पाण्डवों से कहा कि "तुम तेरहवें वर्ष विराट के घर में रहो। मै तुम्हें वर देता हूं कि वहाँ तुमको कोई भी नहीं पहचानेगा।"
( उपकथा 1) उर्वशीशाप : अर्जुन के इन्द्रलोक में रहते समय उसके सौन्दर्य पर मोहित हुई उर्वशी एक दिन उसके पास आयी। उसकी प्रार्थना न मानने के कारण उसने अर्जुन को शाप दिया कि "तुम नपुसंक होंगे।" वह शाप सुनकर इन्द्र ने कहा कि, "हे अर्जुन, तुम घबराओ नहीं। एक वर्ष अज्ञातवास के समय में यह बात तेरे हित की ही होने वाली है।"
( उपकथा 2) अगस्त्य उपाख्यान: अगस्त्य ऋषि को विवाह करना था। उन्होंने एक अति सुन्दर कन्या निर्माण कर सन्तति के लिये तप करने वाले विदर्भ राजा को दी। उसका नाम था लोपामुद्रा । जब वह विवाहयोग्य हुई तब ऋषि ने उसके साथ विवाह किया । लोपामुद्रा के कहने के अनुसार ऋषि द्रव्यार्जन के लिये इल्वल दैत्य के पास आये। वह दैत्य अपने भाई वातापि को भेड़ का रूप दे कर उसका पका मांस ब्राह्मणों को भक्षण के लिये देता था। भोजन के पश्चात् वह वातापि पुकारता
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था और वातापि ब्राह्मणों का पेट फाड कर निकलता था। इस तरह उसने अनेक ब्राह्मणों की हत्या की थी। यही प्रयोग अगस्त्य ऋषि पर हुआ। परन्तु अगस्त्य ने उसे हजम कर लिया था। अगस्त्य ऋषि के पुत्र का नाम इध्मवाह था।
कालकेय नाम के असुर दिन में छिपते थे और रात को आश्रमवासी ऋषिओं का नाश करते थे। इस प्रकार ऋषिओं का नाश होने के कारण यज्ञादि क्रियाएं बंद पड गयी। तब देवताओं ने अगस्त्य ऋषि की प्रार्थना की। इस प्रार्थना को मानकर अगस्त्य ऋषि के समुद्र पीने के उपरान्त देवों ने कालकेय असुरों का संहार किया।
(उपकथा 3) गंगावतरण : राजा इक्ष्वाकु के वंश में सगर नामक एक राजा था। उसे शंकर के वरदान से साठ सहस्र पुत्रों की प्राप्ति हो गई। एक समय राजा सगर ने अश्वमेघ यज्ञ के निमित्त पृथ्वी पर अश्व छोडा, जिसका रक्षण सागरपुत्र करते थे। समुद्र के पास आते ही वह अश्व अदृश्य हो गया। तब सगरपुत्रों ने पृथ्वी का मथन करके अश्व की खोज करना
आरम्भ किया। पृथ्वी के नीचे कपिल ऋषि तप कर रहे थे। उनके पास सगरपुत्रों ने अश्व देखा। उस समय सगर पत्रों ने ऋषि का अपमान किया जिसके कारण ऋषि ने सगरपुत्रों को भस्म कर दिया। यह बात नारद ऋषि से राजा सगर को ज्ञात हुई तब उसका पौत्र अंशुमान् राजगद्दी पर बैठा। अंशुमान का पुत्र दिलीप जब राजा हुआ तब ऋषि के तपोबल से जलकर खाक हुए अपने पूर्वजों की बात उसने सुनी। उनके उद्धार के के लिये स्वर्ग की गंगा को लाया जाये इस उद्देश्य से उसने
आजन्म तप किया। उसके पश्चात् उसके पुत्र भगीरथ ने गंगा को प्रसन्न किया और उसका प्रवाह धारण करने के लिये, शंकर ने जब मान्य किया तब भगीरथ ने गंगा को पाताल तक लाकर अपने पूर्वजों का उद्धार दिया।
(उपकथा 4) पतिव्रतामाहात्म्य और ब्राह्मणव्याधसंवाद : कौशिक नामक एक ब्राह्मण वेदाध्ययन करता था। उस समय उपर से एक वगुली की विष्ठा उन पर गिरी। ब्राह्मण ने कुपित हो कर उसकी ओर देखते ही वह मर कर नीचे गिरी। पश्चात् वह ब्राह्मण भिक्षा मांगने के लिये एक घर गया। उस समय पतिसेवा । में रत पतिव्रता स्त्री को भीख देने में जरा देर हो गयी। तब वह ब्राह्मण कुपित हो कर स्त्री की निर्भत्सना करने लगा। उस पर वह स्त्री बोली "महाराज, भला आपके क्रोध
से क्या होगा। मै कोई बगुली नहीं हूं। आपको धर्मतत्त्व ज्ञात नहीं है। मिथिला नगरी में जाकर धर्मव्याध से वह जान लेना।" यह सुन कर ब्राह्मण चकित हुआ और वह धर्मव्याध की ओर गया। उस समय वह व्याध मांस काट रहा था। उस ब्राह्मण
को देखते ही उसने कहा कि "उस पतिव्रता ने आपको किस लिये मेरी ओर भेजा यह मैने जान लिया है।" उसके पश्चात् धर्मव्याध ने ब्राह्मण को धर्मतत्त्व बता कर अपने माता-पिता का दर्शन कराया और कहा कि “ये मेरे देव हैं। जैसे लोग देवों
की पूजा करते हैं वैसे ही मैं इनकी पूजा करता हूं। आप अपने मां बाप का अपमान करके घर से बाहर निकले। किन्तु वे बेचारे अब अन्धे हो गये हैं। इसलिये अब आप अपने घर जा कर उनकी सेवा करें यही आपका धर्म है।" यह सुन कर ब्राह्मण ने उसके कहने के अनुसार घर जाकर अपने माता-पिता को संतुष्ट किया।
(उपकथा 5) द्रौपदी-सत्यभामा संवाद : पाण्डवों के वनवासकाल में उनसे मिलने के लिये एक समय श्रीकृष्ण के साथ सत्यभामा आयी थी। इधर उधर की बातें समाप्त हो जाने के अनन्तर सत्यभामा ने द्रौपदी को प्रश्न किया, "पाण्डवों के समान वीर पुरुष तेरी आज्ञा कैसे मानते हैं? तुम्हारे पास कोई खास या मोहिनी विद्या है क्या? यदि हो तो मुझे कह देना ताकि मै भी श्रीकृष्ण को वश करूंगी।" सत्यभामा का यह भाषण सुन कर द्रौपदी ने उत्तर दिया, "मोहिनी विद्या से पति को वश करना यह कोई पतिव्रता धर्म नहीं है। केवल मेरे पास सद्वर्तन के बिना कोई भी मंत्र-तंत्र नहीं है। मेरे बर्ताव की पद्धति मैं तुझे बताती हूं। पाण्डवों के अतिरिक्त अन्य किसी भी पुरुष का चिन्तन मै कभी नहीं करती। उन्हें निरंतर सन्तुष्ट रखती हूँ। घर में स्वच्छता, अतिथि सत्कार, कुलधर्म, कुलाचार इन सब बातों के योग्य होने पर मेरा ध्यान सदैव रहता है। घर में नौकरों
के होते हुए भी मै स्वयं कुन्ती की सेवा करती हूं। सभी परिश्रमी के खाने पीने की व्यवस्था योग्य काल में मैं ही करती हूँ। किसी पदार्थ का नाश होने नहीं देती। नित्य ही हंसमुख रह कर सब के साथ प्रेम से व्यवहार करती हूं। इन सब बातों से पाण्डव मुझे वश हुये हैं। तू भी इसी तरह आचरण कर जिसमें तू भी श्रीकृष्ण को तेरे वश, में रहेंगे।
(उपकथा 6) मुद्गलोपाख्यान : मुद्गल नामक एक तपस्वी ऋषि अपने कुटुम्ब के साथ अरण्य में रहते थे। देव, पितर और अतिथियों को संतुष्ट कर जो भाग बचेगा उसी पर अपना उदरनिर्वाह करने का उनका नियम था। उनकी सत्त्वपरीक्षा लेने के लिये दुर्वास ऋषि वहां अतिथि बन कर आये और मुद्गल ऋषि ने सिद्ध किया हुआ अन्न खा कर चले गये। फिर
अन्न पकने के बाद सब अन्न खा कर चले जाना यही काम दुर्वास ऋषि ने जारी रखा। मुद्गल ऋषि को अनशन करना पड़ा। किन्तु प्रत्येक समय उन्होंने अतिथि को श्रद्धा के साथ संतोषित करने का उपक्रम नहीं छोड़ा। अन्त में दुर्वास ऋषि उन पर प्रसन्न हुए। इतने में ही देवदूत विमान से वहां आया और मुद्गल ऋषि को कहने लगा, "आपको आपके पुण्य के कारण स्वर्गप्राप्ति हो गयी है। आप विमान में बैठ कर स्वर्ग चलिये।" मुद्गल ऋषि ने उससे स्वर्ग के गुणदोषों की पृच्छा की। उस पर देवदूत ने कहा, “स्वर्ग में सभी सुखों की समृद्धि है। किन्तु दोष यह है कि, स्वर्ग में अपने से अधिक पुण्यवान लोगों
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 99
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के अधिक भोग देख कर मन में ईर्ष्या निर्माण होती है और पुण्य की समाप्ति होते ही पृथ्वी पर आना पड़ता है।" यह सुन कर मुद्गल ऋषि ने देवदूत को जाने के लिये कहा और उन्होंने योग, वैराग्य, ज्ञान आदि साधनों से मुक्ति प्राप्त की।
4 विराटपर्व अज्ञातवास के लिये पाण्डव विचार कर रहे थे। तब धर्मराज कहने लगे, "हम राजा विराट के यहां एक वर्ष तक रहेंगे। धौम्य ऋषि हमारे अग्निहोत्र, दास दासी आदि ले कर राजा द्रुपद के यहां जायें और इन्द्रसेनादिक हमारे रथ ले कर द्वारका जायें।" तत्पश्चात् राजा के यहां रहने की पद्धति की पूर्ण जानकारी धौम्य ऋषि ने पाण्डवों को दी। द्रौपदीसहित पाण्डव अन्यान्य नाम लेकर अलग अलग काम के लिये राजा विराट के यहाँ आये। आते समय उन्होंने अपने शस्त्र विराटनगर के बाहर एक बड़े शमी वृक्ष पर रखे। धर्मराज कंक का नाम धारण कर विराट के सदस्य के नाते रहने लगे। भीम बल्लव नाम धारण करके विराट की पाकशाला का प्रमुख बन गये। द्रौपदी सैरन्ध्री नामसे राजा विराट की पटरानी सुदेष्णाकी दासी बन गयी। सहदेव तन्तिपाल नाम धारण कर कोषाध्यक्ष बना। अर्जुन ने बृहन्नला नाम धारण कर राजकन्या को संगीत सिखाने का कार्य स्वीकारा । नकुल ग्रन्थिक नाम से अश्वशाला का अध्यक्ष हो गया।
चार मास के पश्चात् विराट नगरी में देवता के उत्सव के निमित्त एक मेला भरा था जिसमें सैकड़ों मल्ल उपस्थित हुए थे। उनमें से जीमूत नामका एक महान् मल्ल था जिसके साथ युद्ध करने के लिये कोई भी तैयार नहीं था। तब विराट की आज्ञा ले भीम ने उसके साथ मल्लयुद्ध कर उसका नाश किया। उसके नाश के कारण लोग आनन्दित हुए।
दस मास होने के पश्चात् विराट के सेनापति तथा श्यालक कीचक ने एक समय द्रौपदी को देखा। उसके सौन्दर्य पर वह मोहित हुआ। सुदेष्णा की संमति से वह द्रौपदी की मिन्नत करने लगा। परन्तु द्रौपदी ने उसका तिरस्कार किया। कीचक ने सुदेष्णा की अनुमति से एक षडयंत्र रचा। सुदेष्णा ने द्रौपदी को मदिरा लाने के लिये कीचक ने यहां आग्रह करके भेज दिया। द्रौपदी घर में आते ही मदोन्मत्त कीचक ने उसका हाथ पकड लिया। तत्काल द्रौपदी ने अपना हात छुडा कर कीचक को नीचे ढकेल दिया और वह दौडती हुई राजसभा में आ धमकी। उसके पीछे कीचक भी आया और उसने द्रौपदी को नीचे गिरा कर लाथ मारी। रोते रोते द्रौपदी ने राजा की और राजसभा के लोगों की निन्दा की। विराट राजा ने कहा, “वहां तुम्हारा क्या हुआ यह मैं नही जानता। सो मै इस बात में क्या कर सकता हूँ?" विराट का यह कहना सुनकर वह रानी सुदेष्णा के पास गयी। उसका सारा कथन सुनकर सुदेष्णा ने कहा, "यदि तू कहेगी तो मै उसे सजा दूंगी।" तब द्रौपदी ने उत्तर दिया "नहीं, आप कुछ भी न करें। मेरे पति गांधर्व हैं, वे उसका बदला लेंगे। उसकी मृत्यु का समय समीप आया है।" रात के समय द्रौपदी भीम के पास गयी। विराट राजा के लिये चन्दन उगाल कर हाथों को जो घट्टे पड़ गये थे वे द्रौपदी ने भीम को दिखलाये और वह रोने लगी। उसके हाथ अपने मुंह पर रखकर भीम भी कुछ समय के लिये रोया। उसके पश्चात् द्रौपदी ने उससे कहा, "मुझे पीडा पहुंचाने वाला नीच कीचक यदि जीवित रहेगा तो मै प्राण त्याग करूंगी।" यह सुन कर भीम ने उसे कीचक के वध की एक युक्ति बतायी। द्रौपदी ने वह मान ली और वह स्वस्थान आई।
दूसरे दिन कीचक राजगृह में आकर द्रौपदी से कहने लगा “कल भरी सभा में मैने तुझे लाथ मारी किन्तु तुझे छुडाने के लिये कोई नहीं आया, इसका विचार कर। सेनापति होने के कारण मत्स्य देश का वास्तव राजा मै ही हूं। विराट केवल नामधारी राजा है। इसलिये तू मेरा कहना मान। मै तेरा दास हूं।" तत्पश्चात् द्रौपदी ने कहा, "यह बात किसी को भी ज्ञात नहीं होनी चाहिये। अपने यहां जो नृत्यशाला है वहां रात के समय संपूर्ण अंधकार रहता है। उस समय तू वहां आ जा जिससे यह बात मेरे गन्धर्व पति को भी ज्ञात न होगी।" दोनों की यह बात पक्की हो कर कीचक वहां से गया। द्रौपदी ने यह संकेत भीम को बताया। भीम रात के अंधकार में वहां कीचक के पहले ही छुप कर बैठ गया। कीचक के वहां आते ही भीम ने उसको मार डाला। द्रौपदी ने यह बात पहरेदारों से कही। अनन्तर कीचक का शव स्मशान की ओर ले जाते समय कीचक भाइयों ने उस भीड में द्रौपदी को देखा। तत्काल उन्होंने कीचक के शव के साथ द्रौपदी को बांधकर ले चले। द्रौपदी जोर जोर से चिल्लाने लगी। यह सुनकर भीम ने अपना वेष बदल कर एक वृक्ष उखाडा और उसने कीचक के सभी भाइयों को मार डाला और द्रौपदी को मुक्त किया। इस तरह भीम ने स्वयं कीचक और उसके 105 भाइयों को याने 106 कीचकों को नष्ट किया।
पाण्डवों की खोज के लिये दुर्योधन ने गुप्त दूत भेजे थे परन्तु वे पाण्डवों का पता नहीं लगा सके। किन्तु कीचक का वध गंधर्वो ने किया यह बात दूतों ने दुर्योधन को कही। यह सुनकर कोई कहने लगा, "दूसरे अच्छे दूत भेज दें।" कोई कहता था, "बहुधा पाण्डवों का विनाश हुआ होगा।" कौरवसभा में उस समय त्रिगत देश का राजा सुशर्मा उपस्थित था। उसके कहने का आशय था, "कीचक का नाश हो गया है इसलिये आज तक उसने जो हमें पीडा और दुःख दिया है उसका बदला हम लें। मै मत्स्य देश पर दक्षिण की ओर से चढाई करूंगा। तुम सब उत्तर प्रदेश से आवो।" उसका वह कहना कर्ण को पसन्द आया। उसके अनुसार राजा सुशर्मा ने दक्षिण की ओर से चढाई करके विराट के गोधन का अपहरण किया।
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यह सुनकर पाण्डवों को साथ लेकर राजा विराट ने उस पर आक्रमण किया। युद्ध में भीम ने राजा सुशर्मा को जिन्दा पकडकर लाया। विराट ने उसको जीवनदान दिया। तब वह निकल गया। उस रात पाण्डव वहीं पर रहे।
दूसरे दिन उत्तर की गौएं कौरव सेना ले जा रही थी। यह वार्ता विराट पुत्र उत्तर को ज्ञात होने से वह कहने लगा कि, “क्या करें? यदि मुझे अच्छा सारथी मिले तो मै कौरवों से युद्ध कर उनसे अपनी गौएं छुडा कर लाऊंगा।" तब द्रौपदीकी
सूचनानुसार बृहन्नलाको याने अर्जुन को सारथी बना कर उत्तर रणभूमि में आया; किन्तु कौरवों की महान सेना देखते ही वह घबरा कर वापस भागने लगा। अर्जुन ने उसे धीरज दे कर शमी वृक्ष पर रखे हुये अपने शस्त्र निकालने को कहा। उसने
अपने स्वयंका परिचय भी उत्तर को दिया। तब उत्तर को धीरज आया और वही अर्जुन का सारथी बन गया। अर्जुन रथ में बैठे कौरवों के साथ युद्ध करने के लिये तैयार हुआ।
__अर्जुन को देख कर दुर्योधन ने भीष्म से पूछा कि, “क्या पाण्डवों के तेरह वर्ष पूर्ण हुए? हमारी राय यह है कि उनके तेरह वर्ष अभी पूर्ण नहीं हुए हैं और इस अवस्था में अर्जुन के प्रकट होने के कारण पाण्डवों को पुनः बारह वर्ष वनवास करना चाहिये।" भीष्म ने कहा कि, "पाण्डव कभी भी अधर्म नहीं करेंगे। उन्होंने प्रतिज्ञा के अनुसार अपने तेरह वर्ष पूर्ण किये हैं। उनका आधा राज्य वापस देना यही इस परिस्थिति में उचित होगा।" किन्तु दुर्योधन को यह बात नहीं जंची। अन्त में अर्जुन ने कौरवों को परास्त कर गौएं मुक्त कर दी। अपने शस्त्र फिर से शमी वृक्ष के कोटर में रख कर अर्जुन और उत्तर नगर वापिस लौटे। उनके पहले ही विराट और पाण्डव वहां आये थे। पाण्डव और द्रौपदी का परिचय उत्तर के द्वारा होने पर राजा विराट ने अपनी पुत्री उत्तरा अर्जुन को देने की इच्छा व्यक्त की परन्तु अर्जुन के कहने पर अभिमन्यु से उसका विवाह विराट राजा ने बड़े ठाटमाट से किया।
5 उद्योगपर्व अभिमन्यु का विवाह होने के उपरान्त एक दिन, सभा बैठे हुए श्रीकृष्ण ने कहा, "पाण्डव अपनी प्रतिज्ञा का पालन कर तेरह साल पूरे कर चुके हैं। अब उन्हें आधा राज्य प्राप्त होना उचित होगा। परन्तु कौरव अनायास राज्य देंगे ऐसा नहीं लगता। अतः उनका मन जानने के लिए दूत भेजना चाहिये।" श्रीकृष्ण की यह बात मान्य की गई। द्रुपदराजा ने अपना पुरोहित कौरवों की ओर भेजा। श्रीकृष्ण द्वारका गये। पाण्डवों ने सब राजाओं की ओर युद्ध की सहायता करने के लिये दूत भेजे।
श्रीकृष्ण के द्वारका पहुंचने के उपरान्त दुर्योधन सहायता मांगने के लिये उनके यहां गया। श्रीकृष्ण उस समय सो रहे थे। दुर्योधन उनकी तकिया के पास जा बैठा। उसी समय उसी कार्य के लिये अर्जुन भी वहां आया और श्रीकृष्ण के पैरों
के पास बैठा। इस स्थिति में श्रीकृष्ण जी जाग उठे। उन्होंने अर्जुन की ओर प्रथम देखा। दुर्योधन ने कहा, "श्रीकृष्ण, हम दोनों तुम्हारी दृष्टि में समसमान है और मै पहले आया हूं, इसलिये तुम मुझे सहायता दो" श्रीकृष्ण ने उससे कहा, "यह सत्य
है कि तुम पहले आये हो परन्तु मैने प्रथम अर्जुन को देखा है और तुमसे वह कनिष्ठ होने के कारण उसका हठ पहले पूरा करना होगा। सो मैं निःशस्त्र होकर एक पक्ष में रहूंगा और मेरी दस कोटि सेना दूसरे पक्ष में रहेगी। इसमें से जो अर्जुन पसंद करे वह ले।" अर्जुन ने श्रीकृष्ण को ही मांग लिया। सेना का सहाय मिलने से दुर्योधन प्रसन्न हुआ।
दुर्योधन के जाने के उपरान्त श्रीकृष्ण ने अर्जुन से पूछा, “तुमने सेना को अस्वीकृत कर मेरा स्वीकार किस कारण किया?" अर्जुन ने उत्तर दिया, "जहाँ आप हैं वहीं विजयश्री है, दूसरा कारण यह कि बहुत दिनों से मेरे मन में यह विचार भी रहा है कि आप मेरे सारथी बनें। आज मेरी यह इच्छा पूर्ण होगी। इसी दृष्टि से मैने आपका स्वीकार किया।" इसप्रकार भावी युद्ध में श्रीकृष्ण ने अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया।
राजा शल्य जब पाण्डवों की ओर आ रहा था तो रास्ते में दुर्योधन उसकी अच्छी व्यवस्था रख कर उसे अपनी ओर वश किया। सारी सेना दुर्योधन के साथ भेज कर अकेला शल्य पाण्डवों से मिलने के लिये आया। तब यह जान कर कि शल्यहि कर्ण का सारथी होगा, धर्मराज ने शल्यको कर्ण का तेजोभंग करने की सूचना दी। उसे मान्य कर शल्य कौरवों की ओर चला गया।
द्रुपदराजा का पुरोहित कौरवों की ओर गया। उसने निवेदन किया कि “पाण्डवों को आधा राज्य देना योग्य है। और ऐसा न किया गया तो कौरवों का युद्ध में नाश होगा।" भीष्म ने इसकी पुष्टि की परन्तु कर्ण ने कहा, "पाण्डवों को यदि
और बारह वर्ष वनवास करने की बात पसन्द नहीं तो युद्ध के लिये उन्हें सिद्ध होना पडेगा।" यह मतभेद देख कर धृतराष्ट्र ने उस पुरोहित को आदरसत्कार सहित बिदा किया और संजय को पाण्डवों के पास भेज दिया। उसने धृतराष्ट्र का सन्देश
सुनाया। "पाण्डवों, तुम सब भाई धार्मिक हो अतः तुम्हें युद्ध समान भयंकर कृत्य कर के अपने कुल का नाश करने के बदले सर्व संग परित्याग कर द्वारकानगरी में भीख मांगकर अपना उदरनिर्वाह करना योग्य है। यह राज्यतृष्णा आपकी धार्मिकता का नाश करेगी।
धर्मराज कहने लगे "आपस में युद्ध करना मुझे भी सम्मत नहीं है परन्तु प्रतिज्ञा के अनुसार तेरह साल पूरे होने के बाद भी कौरव हमारा आधा राज्य देने के लिये तैयार नहीं है। इस लिये यदि युद्ध होगा तो उसका दोष धृतराष्ट्र को होगा
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हमें नहीं। फिर भी युद्ध के कारण होने वाला नाश टालने के लिये कौरव हमें कम से क्रम पांच गाँव प्रदान तो करें" पाण्डवोंका यह सन्देश संजय ने धृतराष्ट्र को बता कर उसकी निन्दा की। उस रात धृतराष्ट्र को नींद न आने के कारण उन्होंने विदुरको बुलवाकर उनसे विदुरनीति का श्रवण किया। दूसरे दिन भरी सभा में संजयद्वारा धर्मराज का सन्देश कथन करने के उपरान्त भीष्म, द्रोण, विदुर, आदि सज्जनों ने दुर्योधन को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु वे उसमें असफल रहे ।
""
पाण्डवों की ओर से समझौते के लिये श्रीकृष्ण हस्तिनापुर में आये । परन्तु दुर्योधन के घर पर न रहते हुए वे विदुर के घर रुके। दुसरे दिन कौरवों की राजसभा में जा कर आपस में युद्ध न हो, इसलिये श्रीकृष्ण ने पाण्डवों को आधा राज्य देने के बारों में युक्तियुक्त सुन्दर व्याख्यान दिया। श्रीकृष्ण के व्याख्यान के अनन्तर भीष्म, द्रोण, विदुर आदि ने दुर्योधन को समझाने का बहुत प्रयत्न किया परन्तु दुर्योधन ने साफ कह दिया कि, "सुई की नोंक पर रह सके इतनी धरती भी पाण्डवों को नहीं दूँगा।" उसके बाद कुन्ती का कहना सुनकर श्रीकृष्ण हस्तिनापुर से चले गये। कर्ण को पाण्डव पक्ष में लाने के लिये उन्होंने प्रयत्न किये। कौरवों के यहां का सारा वृतान्त सुना कर उन्होंने कहा कि "अब युद्ध अवश्यम्भावी है। यह सुनकर पाण्डव सेना के साथ कुरुक्षेत्र पर युद्ध के लिये सिद्ध हुए। यह देख कर कि "श्रीकृष्ण पाण्डवों की ओर गये है, दुर्योधन ने सेना को युद्ध के लिये प्रस्तुत होने की आज्ञा दे कर, कृपाचार्य, द्रोणाचार्य आदि ग्यारह सेनापतियों की नियुक्ति की । भीष्म को सेनानायकत्व स्वीकार करने की प्रार्थना की। उस समय भीष्म ने कहा, “हे दुर्योधन, कौरव और पाण्डव मेरी दृष्टि में एक ही हैं। सो मैने निश्चय किया है कि मै पाण्डवों को हित की बातें सुनाऊंगा। किन्तु युद्ध तुम्हारे लिये ही करूंगा। इस में मेरी दो शर्तें होंगी। एक तो मै पाण्डवों का वध नहीं करूंगा और दूसरी यह कि "मेरा सदा द्वेष करने वाला कर्ण यदि युद्ध में भाग ले तो मै युद्ध नहीं करूंगा।" कर्ण ने यह सुन कर प्रतिज्ञा की कि, "जब तक भीष्म जीवित हैं, तब तक मै भी युद्ध नहीं करूंगा।" भीष्म के नेतृत्व में कौरवों की सेना भी कुरुक्षेत्र पर आ गयी।
पाण्डवों की सेना में द्रुपद, विराट, धृष्टघुम्न आदि सात सेनापति थे, जिनमें धृष्टद्युम्न प्रमुख सेनापति था । धृष्ट सेनापति अर्जुन और उसके मार्गदर्शक श्रीकृष्ण थे दोनों ओर की सेनाओं को युद्ध के लिये देख कर बलराम ने धर्मराज से कहा, "इस युद्ध में तुम्हारी विजय होगी। भीम और दुर्योधन दोनों ही गदायुद्ध में मेरे प्रियः शिष्य है। कौरवों का विनाश में नहीं देख सकूंगा। इसलिये मै तीर्थयात्रा करने जा रहा हूं।" इतना कह कर वे चले गये। बाद में विदर्भ का राजा रुक्मी एक अक्षौहिणी सेना लेकर पाण्डवों की ओर आया। उसने अर्जुन से कहा, "यदि तुमको डर हो या मेरी सहायता की अपेक्षा हो तो मुझे कहना। मै अकेला ही तुम्हारे शत्रुओं का नाश करूंगा।" अर्जुन ने उत्तर दिया "मुझे न डर है और न तुम्हारी सहायता की अपेक्षा भी । तुम रहो या जाओ।" यह सुन कर रुक्मी ने दुर्योधन की ओर जाकर वैसा ही प्रस्ताव दिया। दुर्योधन से भी उसको वही उत्तर मिला। उसके बाद वह अपने देश की ओर चला गया।
उपकथा 1 प्रह्लाद की सत्यनिष्ठा : प्रल्हाद के पुत्र विरोचन और अंगिरा ऋषि के पुत्र सुधन्वा के बीच जब कि वे एक कन्या स्वयंवर में वरण करने के हेतु से आये थे, विवाद हुआ कि, "दोनों में कौन श्रेष्ठ है।" इसमें यह निश्चित हुआ की, जो श्रेष्ठ माना जाएगा वह दूसरे के जीवन का अधिकारी होगा। अतः श्रेष्ठता निश्चित करने के लिये वे प्रह्लाद की ओर गये। प्रल्हाद ने कहा, "विरोचन, तेरी माता से इसकी माता श्रेष्ठ है। मुझसे इनके पिता अंगिरा श्रेष्ठ हैं। उसी प्रकार यह सुधन्वाभी तुझसे श्रेष्ठ है, अतः प्राण अब उसके हाथ है।" यह सुन कर सुधन्वाने उत्तर दिया, "हे प्रह्लाद, धर्म को साक्षी मान कर तुमने सत्य कथन किया, पुत्र प्रेम से झूट नहीं कहा, इस लिये अब मैं तुम्हारे पुत्र तुमको वापस दे रहा हूँ" ।
उपकथा 2 बैडालव्रत : एक बिलाव नदी पर तपश्चर्या का ढोंग रचा कर बैठा था। पक्षियों के पास आने पर भी वह उन्हें नहीं मारता था। यह देख कर चूहों ने अपने बालबच्चों की रक्षा करने के लिये उससे प्रार्थना की। हां ना कहते हुए उसने यह दायित्व स्वीकृत किया और चूहों पर हाथ साफ करना आरम्भ किया। यह बात चूहों के ध्यान में आते ही अंतिम दुष्परिणाम का विचार कर शेष चूहे भाग गये।
6 भीष्मपर्व
1
जनमेजय राजा के पूछने पर वैशम्पायन ऋषि आगे बताने लगे, दोनों सेनाओं के, कुरुक्षेत्र पर इकठ्ठा होने पर युद्ध-सम्बधी नियम निश्चित किये गये दोनों सेनाओं को युद्धार्थ सिद्ध देख कर व्यास महर्षि धृतराष्ट्र से बोले, "युद्ध देखने की अगर इच्छा हो तो कहो दिव्य दृष्टि-द्वारा संजय तुम्हें युद्ध की वार्ता सुनाएगा।" धृतराष्ट्र ने युद्ध का पूरा समाचार सुनने की अपनी इच्छा व्यक्त की। संजय बताने लगा
सूर्योदय होते ही दोनों सेनाएं युद्ध हो गयी रणवाद्य बजने लगे। भीष्माचार्य ने सबके लिए उत्साहवर्धक भाषण दिया। श्रीकृष्ण की सूचना के अनुसार अर्जुन ने जयप्राप्ति के लिए भगवती की प्रार्थना की। भगवती ने इच्छानुसार वरप्रदान किया और अर्जुन ने रथ पर आरोहण किया। तदुपरान्त श्रीकृष्ण, अर्जुन तथा पाण्डव पक्ष के सभी वीर योद्धाओं ने अपने-अपने 102 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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शंख बजाये । अब युद्ध प्रारम्भ हो ही रहा था कि अर्जुन ने अपना रथ दोनों सेनाओं के बीच खडा करने के लिए श्रीकृष्ण से कहा। वहां अर्जुन ने दोनों सेनाओं में देखा की पितामह प्रपितामह, इष्ट मित्र बन्धु, पुत्र, पौत्र आदि उपस्थित हैं। उन्हें मार कर राज्य पाने की अपेक्षा भिक्षा मांग कर जीना योग्य होगा इस विचार से निरुत्साह होकर रथ में संज्ञा - शून्य सा बैठ गया। अर्जुन के उस शोक और मोह को दूर करने के लिए श्रीकृष्ण ने उसे अपनी गीता सुनायी।
अर्जुन दो प्रकारों से मोह में आ गया था। एक मोह यह था कि भीष्मादिकों के शरीर नाश के साथ-साथ उनकी आत्मा
का नाश होता है, और दूसरा मोह, क्षात्र धर्म युद्ध को, वह अधर्म समझने लगा था और भिक्षां देहि अधर्म को धर्म । अविनाशी आत्मा को, अर्जुन नाशवान् समझ रहा था और धर्म को अधर्म और अधर्म को धर्म समझ रहा था। इस लिए "आत्मा का नाश कोई नहीं कर सकता और तू क्षत्रिय होने के कारण युद्ध करना तेरा धर्म है। उसको तू कदापि त्याग नहीं सकता। अगर स्वधर्म का त्याग करेगा तो तुझे पाप लगेगा। युद्ध में तुझे पाप की आशंका होती हो तो कर्तव्यों को निभाते हुए पापों से अलिप्त रहने की योगयुक्ति इस प्रकार है, जय-पराजय, लाभ-हानी, सुख-दुःख इत्यादि द्वन्द्व समान मान कर निष्काम निर्भय बुद्धि से कर्तव्य करना चाहिए।" इस प्रकार श्रीकृष्ण भगवान् के उपदेश से प्रबुद्ध होकर अर्जुन युद्ध के लिए पुनः कटिबद्ध हुआ ।
इतने में धर्मराज शस्त्र नीचे रख कर, कवच उतार कर हाथ जोड़ कर चुपके से पैदल ही पूर्व की तरफ स्थित कौरवों की सेना की और जाने लगे। उनके पीछे उनके बन्धु, श्रीकृष्ण और अन्य राजा-महाराजा भी प्रस्तुत हुये। धर्मराज ने सीधे भीष्म, द्रोण, कृप, शल्य के पास पहुंच कर उनसे प्रार्थना की कि उन्हें संग्राम में विजयश्री प्राप्त हो। उनमें से भीष्म ने बताया कि मुझे जीत लेने का उपाय मै तुझे बताऊंगा । द्रोणाचार्य ने बताया कि में जब शस्त्र नीचे रखूँ, तभी कोई मेरा वध कर सकेगा, अन्यथा मेरा वध असंभव है। सभी ने धर्मराज को आशीवार्द दिया कि तेरी जय निश्चित है। इतना सब होने पर धर्मराज अपनी सेना की ओर जाने लगे। इसी बीच श्रीकृष्ण ने कर्ण को पा कर उससे कहा कि भीष्म के युद्ध में रहते अगर तू कौरवों की तरफ से युद्ध करना नहीं चाहता है तो पांडवों की तरफ से युद्ध कर। परंतु यह सूचना कर्ण ने नहीं मानी। धर्मराज ने दोनों सेनाओं के बीच खडे हो कर उच्च स्वर से कहा, "कौरवों का पक्ष छोड़कर हमारे पक्ष में आने की जिनकी इच्छा हो वे आ सकते हैं।" वह सुन कर धृतराष्ट्र का पुत्र युयुत्सु पांडवों की ओर आ गया।
सी
1) पहले दिन भीष्म ने दिन भर घमासान युद्ध किया। विराट राजा के पुत्र श्वेत का वध किया और पांडवों की बहुत सेना नष्ट कर दी। भीष्म पितामह का पराक्रम देख कर आज जय प्राप्त करने की संभावना नहीं है समझ कर शाम को पांडवों ने युद्ध स्थगित किया। दोनों सेनाएं अपने-अपने शिबिर को चली गयी।
-
2) दूसरे दिन पांडवों ने सेना की रचना च-व्यूह में की सूर्योदय के होते ही भीष्माचार्यजी की महाव्यूह से आबद्ध कौरव सेना पांडवों पर चढ़ आयी। भीष्माचार्य ने पांडवों की सेना का बहुत ही नाश किया। तब उनसे युद्ध करने अर्जुन प्रस्तुत हुआ । कोई किसी को जीत न सका। इसी समय भीम ने कलिंग देशके राजा श्रुतायु और निषाद राजा केतुमान का वध किया। उनकी सेना का इस प्रकार नाश किया कि भीम साक्षात् यमराज ही है ऐसा आभास कौरव सेना में निर्माण हुआ। तब भीम के साथ भीष्म युद्ध करने प्रस्तुत हुए। इतने में सात्यकि ने भीष्म के सारथी को मार डाला। उस समय घोडे उद्दाम होकर युद्ध-क्षेत्र के बाहर भीष्माचार्य के रथ को लेकर दौड पडे । दुर्योधन के पुत्र लक्ष्मण और अभिमन्यु के बीच युद्ध छिड गया। उनकी सहायता में एक ओर से दुर्योधन और दूसरी ओर अर्जुन वहाँ पहुँच गये। उस समय अर्जुन ने रथ घोडे, हाथी, पदाति आदि सभी विरोधियों का संहार शुरू कर दिया। तब कौरवों की सेना तितरबितर होने लगी। इतने में सूर्यास्त का समय हो आया। भीष्माचार्य ने युद्ध स्थगित किया और दोनों सेनाएँ अपने-अपने शिबिर में विश्राम के लिए चली गयीं।
3) तीसरे दिन भीष्माचार्यने अपनी सेना को गरुड-व्यूह में आबद्ध किया। उधर पांडवों ने अर्धचन्द्र-व्यूहकी रचना की थी । युद्ध के प्रारंभ में ही अर्जुन ने कौरवों की सेना का अत्यधिक नाश किया। सेना भागने लगी । दुर्योधन ने अपने प्रोत्साहन से वापस लौटाया । परन्तु दुर्योधन भीष्म द्रोण के पास जाकर कहने लगा, “आप अपने निजी उत्साह से युद्ध नहीं कर रहे। आपके रहते पांडवों का विजयी होना मुझे ठीक नहीं लग रहा है। अब उत्साह से युद्ध करने की कृपा करें।" यह सुन कर भीष्माचार्य क्रुद्ध हो कर बोले, "अब तक कई बार तुझको बताया कि पांडव अजेय हैं। मै बूढ़ा हो गया हूं। केवल कर्तव्य वश होकर ही युद्ध खेल ही रहा हूं।" कौरवोंकी सेना युद्ध के लिए फिर से लौटने पर अर्जुन ने महेन्द्र अस्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र के प्रयोग से कौरवों की सेना का बहुत ही संहार हुआ। संध्या के समय, पांडवों की सेना अपना जय घोष करते हुए अपने शिबिर में चली गयी।
4) चौथे दिन सबेरे दुर्योधन को देखते ही उसे मारने के लिये भीम तेजी से दौड़ पड़ा। तब दुर्योधन ने मगधदेशीय दस हजार हाथियों की सेना भीम पर भेजी। भीमसेन ने उस सारी सेना का नाश किया, तब दुर्योधन ने क्रोध से आदेश दिया की
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"सब मिल कर पहले इस भीम को नष्ट करों'। तत्काल उसके चौदह भाई भीम पर टूट पड़ें। उनमें से आठ भाइयों का भीम ने वध किया और शेष भाग गये।
इतने में भगदत्त हाथी पर सवार भीम पर चढ़ आया। तब घटोत्कच ने उसका प्रतिकार किया। घटोत्कच अपनी मायावी पद्धति से युद्ध करने लगा, तब “अब शाम होनेको है। इस समय इस दुष्ट निशाचर के साथ युद्ध खेलने से जय कदापि होने वाली नहीं है। हम थक गये हैं। पांडवों के शस्त्रास्त्रों से हम घायल भी हुए हैं। इसी लिए कल ही युद्ध करें।" इस प्रकार भीष्माचार्य ने द्रोणाचार्य तथा दुर्योधन से सलाह करके युद्ध स्थगित रखने का आदेश दिया। 5) पांचवे दिन का प्रारंभ भीष्म और भीम के युद्ध से हुआ। भीम ने भीष्माचार्य पर शक्ति चलायी। भीष्म ने तीर चला कर वह शक्ति तोड डाली। इतने में भीम ने धनुष्य-बाण उटाया, वह भी भीष्म ने तोड डाला। वह देख कर सात्यकि भीष्म पर तीर चलाने लगे। भीष्म ने उसके सारथी को मार डाला। तब घोडे-सात्यकि के रथको ले कर दूर भाग खड़े हुए। उसके बाद
भीष्म ने पांडवों की सेना के कई वीरों का नाश किया। सात्यकि पुनः तीर चलाते हुए आ पहुंचा तब दुर्योधन ने उसके प्रतिकार में दस हजार रथ भिजवाये। उन सबका नाश सात्यकि ने किया। तब बडे क्रोध से भूरिश्रवा सात्यांक पर चढ आया। सात्यकि
के दस पुत्र उससे युद्ध करने लगे। उनका वह युद्ध बहुत समय तक चलता रहा। अंत में भूरिश्रवा ने सात्यकि के दसों पुत्रों के धनुष्यों को और बाद में उनके मस्तकों को काट डाला। वह देखकर सात्यकि भूरिश्रवापर बड़े क्रोध से चढ आया। उन दोनों में भयानक युद्ध हुआ। दोनों ने एक दूसरे के घोडे मार डाले और हाथ में ढाल-तलवार लेकर युद्ध करने लगे। तब भीम ने सात्यकि को और दुर्योधन ने भूरिश्रवा को अपने रथपर बिठा लिया।
इसी समय जब भीष्म ने पांडवों की सेना का अत्यधिक संहार किया तब अर्जुन युद्ध करने सामने प्रस्तुत हुआ। तब दुर्योधन ने पचीस हजार रथियों को उसके प्रतिकार में भिजवाया। अर्जुन-द्वारा उनका संहार होते-होते सूर्यास्त के कारण नियमानुसार युद्ध स्थगित कर दोनों सेनाएं शिबिर में वापस लौटीं। 6) छठे दिन भीम ने द्रोणाचार्य पर आक्रमण किया। द्रोणाचार्य ने भीम पर नौ तीर छोडे। प्रत्युत्तर में भीम ने द्रोणाचार्य का सारथी मारा। तब घोडे का लगाम पकड कर रथ चलाना और साथ युद्ध करना दोनों काम साथ साथ करते हुए द्रोणाचार्य ने पांडवों की सेना का बहुत ही विध्वंस किया। उसी तरह भीष्म ने भी भयंकर विध्वंस किया। भीम और अर्जुन ने भी कौरवों
की सेना की वही दुर्गति की। अनन्तर भीम कौरव की सेना की सीमा तोड कर घुस पडा। उसको जिंदा पकड़ने के हेतु बहुत वीर उसे घेर कर युद्ध करने लगे। तब भीमसेन हाथ में गदा उठा कर अपने रथ से नीचे उतर पडा। उसने अपनी गदा से उस सारी सेना का नाश किया। भीम को कौरवों की सेना में घुसते देख कर उसकी सहायता के लिए धृष्टद्युम्न दौड पड़ा। उसने भीम को अपने रथ पर बिठा लिया और प्रमोहनास्त्र का प्रयोग कर के कौरव सेना को मोहित कर दिया। वह देख कर द्रोणाचार्य ने प्रज्ञास्त्र का प्रयोग कर के प्रमोहनास्त्र को असफल कर दिया। इसी तरह अभिमन्यु और विकर्ण, दुःशासन और केकय देश के पांच वीर, दुर्योधन और द्रौपदी के पांच पुत्रों में युद्ध हुआ। इस समय भीष्म उत्तर दिशा की ओर पांडव सैन्य
का और अर्जुन दक्षिण की ओर कौरव सैन्य का विध्वंस कर रहे थे। सूर्यास्त के समय दुर्योधन ने भीम पर आक्रमण किया। भीम ने उसके रथ के घोडे मारे, और तीरों से दुर्योधन को मूर्च्छित गिरा दिया। भीष्म ने पांडव सैन्य का बहुत विध्वंस किया।
भीमबाणों से लहुलुहान दुर्योधन भीष्म के पास पहुंच गया। भीष्माचार्यने उसे औषधि दे दी जिससे दुर्योधन के शरीर के सारे व्रण दुरुस्त हो गये। 7) सातवें दिन कौरवों ने मंडलव्यूह और पांडवों ने वज्रव्यूह की रचना की। युद्ध करते करते भीष्म का रथ धर्मराज के रथ
के निकट आ गया। दोनों ने एक दूसरे पर सैकडों बाण छोडे। इतने मे भीष्म ने धर्मराजा के रथ के घोडे मारे। तब उसने नकुल के रथ का सहारा लिया। उन्होंने अपनी सारी सेना को आदेश दिया कि सब मिल कर भीष्म को नष्ट करें। वह सुनकर पांडवों की सेना भीष्म के इर्द-गिर्द इकट्ठा होकर युद्ध करने लगी। भीष्म के बाणों से पांडवों की सेना के सिर ताडवृक्ष के फल के समान टप् टप् टूट नीचे गिरने लगे। द्रोणाचार्य ने भी पांडवों की सेना का भारी विध्वंस किया। 8) आठवें दिन भीष्म के बाणों से पाण्डव सैन्य का बहुत ही नाश होने लगा। तब धर्मराज ने पूरी सेना को भीष्म पर चढ़ जाने की आज्ञा दी। भीष्म की सहायता के लिए दुर्योधन अपने बंधुओं समेत पहुँच गया। तब भीम ने भीष्माचार्य के सारथी
को मार कर सुनाभ आदि धृतराष्ट्र के 3 पुत्रों का संहार किया। दुःखित हो कर दुर्योधन भीष्माचार्य के पास जा कर कहने लगा कि भीम अब हमारे सर्वनाश पर तुला हुआ है। भीष्म कहने लगे, "पहले तूने हमारी एक भी नहीं सुनी। भीम तुम से
अब किसी को जिंदा नहीं रखेगा। युद्ध के सिवा अब कोई चारा नहीं है।" आगे चल कर युद्ध में अलम्बुष राक्षस ने अर्जुन के पुत्र इरावान् का वध किया।
ऐरावत नाग की पुत्रवधू विधवा हुई। क्यों कि गरुड ने उसका पति मार डाला था। उसके पुत्रहीन होने से ऐरावत ने अर्जुन के द्वारा पुत्र उत्पन्न करवा लिया था। उसका नाम इरावान् था। अलम्बुष राक्षस के हाथों उसका वध होते देख कर
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बहुत ही कुपित हुए। olutial के समय तुम सब को
लोग मेरी स्तुति ही व
घटोत्कच ने अपना माया जाल फैला दिया। उसके मायाजाल के कारण सब कौरव सेना भाग जाने लगी। तब भीष्माचार्य पुनः पांडव सैन्य का नाश करने लगे। भीमसेन आवेश से आगे बढ़ा। उसका धृतराष्ट्र के तेरह पुत्रों ने प्रतिरोध किया। कइयों का भीम ने वध किया। बाकी सारे भाग गये। भीष्म, भगदत्त और कृपाचार्य अर्जुन के साथ युद्ध करने लगे। उस युद्ध में दोनों पक्ष के कई हाथियों, घोडों, रथों और पदातियों का संहार हुआ। सूर्यास्त होने पर भी कुछ समय तक युद्ध चालू ही रहा । तब बुद्ध स्थगित किया गया और दोनों सैन्य अपने अपने शिबिर में चले गये।
उस रात में दुर्योधन, दुःशासन, शकुनि और कर्ण इन चारों ने "पाण्डवों का नाश कैसे हो इस पर विचार करना शुरु कर दिया। कर्ण ने कहा, दुर्योधन, भीष्माचार्य का आंतरिक आकर्षण पांडवों की ओर है। वे तहे दिल से युद्ध नहीं कर रहे हैं। तू उन्हें शस्त्र नीचे रखने कह दे। मैं पाण्डवों का संहार कर देता हूँ। दुर्योधन ने जाकर भीष्माचार्य को वही कहा। सुन कर वे बहुत ही कुपित हुए। क्रोधावेश में विशेष कुछ न कह कर उन्होंने इतना ही कहा कि, "विराट नगरी में जब अर्जुन ने सबके वस्त्र हरण लिये थे, घोषयात्रा के समय तुम सब को कैदी बना के गंधर्व ले जाने लगे, उस समय कर्ण का बल पौरुष कहाँ गया था? कल मै वह पौरुष प्रकट करूंगा कि सब लोग मेरी स्तुति ही करेंगे। लेकिन मै शिखंडी को नहीं मारूंगा। वह जन्म से स्त्री था। बाद में किसी यक्ष की कृपा से उसे पुरुषत्व प्राप्त हुआ है। इसलिये उस पर मै तोर नहीं चलाऊंगा।" वह सुन कर दुर्योधन अपने स्थान आ कर सो गया।
९) नौंवे दिन भीष्माचार्य ने अपनी सेना को सर्वतोभद्र व्यूह में आबद्ध किया। इधर पांडवों ने महाव्यूह की रचना की। उस दिन भीष्म ने अपूर्व पराक्रम दिखाया। उनके सामने खडा होने की किसी की हिम्मत नहीं पड़ती। पांडवों की सेना भागने लगी।
वह देख कर कृष्ण ने अर्जुन के रथ को भीष्म के रथ के सामने ला खडा कर दिया। भीष्म और अर्जुन के बीच घोर युद्ध प्रारंभ हुआ। भीष्म के सामने अर्जुन के पौरुष को अधूरा देख कर श्रीकृष्ण ने घोडों कि लगाम छोड कर हाथ में सुदर्शन
चक्र धारण किया और वे भीष्म को मारने दौड पडे। तब कौरवों की सेना में अजीब तहलका मच गया। इतने में अर्जुन दौडता आ पहुँचा। उसने श्रीकृष्ण के चरणों में सिर नवा कर उनसे प्रार्थना की कि, “आप शस्त्र धारण न करने की प्रतिज्ञा
का भंग मत किजिये। मैं भीष्म को परास्त करता हूँ।" तब फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन रथ पर आरूढ हुए और युद्ध चालू हुआ। भीष्म के अद्भुत आवेश के कारण पांडव सैन्य भाग जाने लगा।
उस दिन पांडव सैन्य का भारी विध्वंस हो जाने के कारण शिबिर पहुंचते ही धर्मराज ने बडे ही दुःख के साथ श्रीकृष्ण से कहा, "मै यह युद्ध नहीं चाहता और राज्य भी नहीं चाहता। मै अब अरण्य में जाकर अपने देह का सार्थक करूंगा। भीष्म पितामह से लड़ कर व्यर्थ जान देने की अपेक्षा तपश्चर्या करना लाख गुना अच्छा है।" श्रीकृष्ण बोले, "तुम मुझे आज्ञा दो, मै कल ही भीष्माचार्य का वध करवाता है।" लेकिन धर्मराज ने उस बात को स्वीकार नहीं किया। उन्होंने कहा भीष्म ने मुझे पहले ही दिन बताया है कि तू फिर कभी आ। मुझे जीतने का उपाय मै तुझे बताऊँगा। तदनुसार हम अब भीष्म के पास चले जाएं। धर्मराज की बात मान कर वे सब भीष्माचार्य के पास चले गए। भीष्म ने उन सबका बडे आनंद से आगत स्वागत किया। धर्मराज ने भीष्म से उनके पराजय की युक्ति पूछी। भीष्म ने बताया, तुम शिखंडी को आगे कर के लडो। मै
उसका मुंह भी नहीं देखगा। क्यों कि वह जन्म से स्त्री है। उसके पीछे रह कर अर्जन मा पर तीर चलाएं। तब मै अपना जीवनकार्य समाप्त कर दूंगा।" 10) दसवें दिन धर्मराजा के आदेशानुसार अर्जुन ने शिखण्डी को आगे कर के भीष्माचार्य पर इतने तीर चालए कि उनका
शरीर छिन्न विच्छिन्न हो गया। भीष्म उन तीरों के सहित रथ से नीचे गिर पडे। देवों ने उन पर पुष्पवर्षा की। उनके गिरते गिरते सूर्य दक्षिण की तरफ झुक गया। यह बात उनके ध्यान में आ गयी। इसलिये उत्तरायण के प्रारंभ होने तक वे तीरों
की शय्या पर वैसे ही लेटे रहे। भीष्म के गिर पड़ते ही युद्ध को स्थगित करके दोनों दलों के वीर भीष्माचार्य के पास बद्धांजलि हो कर खडे रहे। उनका स्वागत करके भीष्म ने कहा, "मेरा मस्तक लटक रहा है। उसे आधार चाहिए।" वह सुन कर बहुतेरे
नरम नरम तकिये ले आये। वह देख कर भीष्म हंसे। उन्होंने अर्जुन की तरफ देखा। भीष्मजी का अभिप्राय ध्यान में ले कर अर्जुन ने तीन तीर इस ढंग से छोडे की उनका एक तकिया ही लग गया। उससे भीष्म के लटकते मस्तक को आधार मिल गया। भीष्मजी की सुरक्षा कर देने के बाद सभी उनका आदेश लेकर भारी दुःख के साथ अपने अपने स्थान चले गये।
दूसरे दिन सबेरे ही सब लोगों के पहुँचते ही भीष्म ने उनसे जल मांगा। कइयों ने उनके सामने खाने की चीजें और जल के कलश रखे। भीष्माचार्य ने जल देने अर्जुन से कहा। अर्जुन ने धरती में तीर चलाकर अमृत जैसा मधुर और सुगंधित जल का निर्झर खिंचवा लिया और भीष्माचार्य की प्यास बुझा कर उन्हें तृप्त किया। भीष्मजी ने अर्जुन की स्तुति की और दुर्योधन से कहा, "देख लिया तुमने अर्जुन का पराक्रम? पाण्डवों को जीतना संभव नहीं है। उनसे बैर छोड दो उन्हें उनका आधा राज दे कर, सुख से दिन बिताओ।" लेकिन यह बात दुर्योधन को नही जंची। बाद में सब लोगों के अपने अपने
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निवास स्थान चले जाने पर कर्ण भीष्म से मिलने पहुंचा। "तुम्हारी आंखों मे खटकने वाला तुम्हारा शत्रु- मैं कर्ण आ गया हूं।" उनका कहना सुनते ही भीष्माचार्य ने आंखे खोली। बड़े प्रेम से कर्ण को पास बुला कर कहा, "सूर्यसे, कुन्ती की कोख
से जन्मे तुम 'कौंतेय' याने पाण्डवों के सगे भाई हो। तुम्हें पाण्डवों से स्नेहपूर्वक रहना चाहिए। बैर को भूल जावो जिससे युद्ध तथा संहार नहीं होगा। मैने तुमको अब तक जो भी भला बुरा कहा वह केवल इसलिये कि कौरव-पाण्डवों का बैर विद्वेष न बढने पाए। तुम्हारी वीरता से मैं पूरी तरह परिचित हूं। मैं चाहता हूं कि मेरे पतन के साथ ही यह संग्राम समाप्त हो।" इस प्रकार भीष्माचार्य ने कर्ण को बहुत कुछ समझाया। उस पर कर्ण बोला, “मैं जानता हूं कि मै कुन्ती का पुत्र हूं।
लेकिन मैने दुर्योधन का नमक खाया है। मै उनका विश्वासघात नहीं कर सकता।" यह सुन कर भीष्म ने कहा, "अगर तुम्हें बैर भुला देना ठीक न लगता हो, तो तुम क्षत्रिय धर्म के उचित ही युद्ध करो। अर्जुन के हाथ तुम्हें मृत्यु तथा सद्गति भी मिलेगी। मैने लाख प्रयत्न किये कि युद्ध न हो, परन्तु उसमें मैं असफल ही रहा। भीष्माचार्य का वह निवेदन सुन कर उन्हें प्रणाम कर के उनकी आज्ञा से कर्ण दुर्योधन के पास लौट पड़ा।
7 द्रोणपर्व कथन के अनुसार कर्ण भीष्मजी से मिल कर लौट पड़ा था। दुर्योधन ने कर्ण से पूछा कि अब भीष्मजी के पश्चात् सेनापति पद किसे प्रदान करें। कर्ण ने द्रोणाचार्य जी का नाम सूचित करने पर दुर्योधन ने उनको सेनापति पद दिया। सेनापति बनने पर द्रोणाचार्य ने पांच दिन बड़ा ही घोर युद्ध किया। एक अक्षौहिणी से भी अधिक वीरों का नाश किया। लेकिन अंत में धृष्टद्युम्न ने उनका वध किया। वह वृत्त सुनते ही धृतराष्ट्र ने द्रोणाचार्य की मृत्यु पर भारी शोक प्रकट किया और युद्ध का पूरा विवरण बताने के लिए संजय को आदेश दिया। उस पर संजय ने बताया :
द्रोणाचार्य के सेनापति होने पर दुर्योधन ने कहा, "गुरुदेव, मेरी यह इच्छा है कि युद्ध में धर्मराज को तुम जीवित पकड लाओ।" कारण पूछने पर दुर्योधन ने बताया और अपने हृदय का छल कपट प्रकट कर के सुनाया। धर्मराज को हम मरवा
डालें तो भीम, अर्जुन आदि दूसरे भी हम सब का पूरा नाश किये बिना सांस नहीं लेंगे और अगर धर्मराज को जीवित ही पकड सके तो हम पुनः उनसे द्यूत खेल सकेंगे और उन्हें पूर्ववत् वनवास को भिजवा दे सकेंगे। दुर्योधन के दिल की वह
दुष्ट वासना सुन कर द्रोणाचार्य बोले, "अच्छी बात है। मै यह काम करके दिखाऊंगा किन्तु अर्जुन को किसी तरह से धर्मराज की रक्षा करने की फुर्सत न मिलने पाए। अर्जुन दूसरी तरफ कहीं फंसने पर मै धर्मराज को जीवित पकड ला सकूँगा। अर्जुन के समक्ष यह बात कदापि होने वाली नहीं है।"
द्रोणाचार्य ने अपना रथ धर्मराज के रथ तक पहुंचा दिया। यह देख कर धर्मराजा का विनाश हुआ इस तरह हाहाकार पाण्डवों की सेना में मच गया। यह सुनते ही अर्जुन वहां पहुंच गया और उसने धर्मराज का रक्षण किया।
शिबिर पहुंचने पर द्रोणाचार्य ने दुर्योधन से कहा, "देखो हम सब अर्जुन के वहां पहुंचने पर आज धर्मराज को जीवित पकडने में असफल रहे। अर्जुन को जीतना असंभव है। इसलिये अब अर्जुन को दूसरी तरफ किसी न किसी उपाय से रोक फंसा देना चाहिए। वह सुन कर त्रिगर्त देश का राजा सुशर्मा और उसके भाई अर्जुन के साथ युद्ध करने की शपथ ले कर
अपनी सेना के साथ सन्नद्ध हो गये। जीतेंगे या तो युद्ध में मर मिटेंगे इस प्रकार की घोर प्रतिज्ञा कर लेने से वे संशप्तक कहलाते थे। श्रीकृष्ण ने दुर्योधन को जो अपना सैन्य दिया था वह “नारायण गण" नाम से प्रसिद्ध था। वह भी संशप्तकों
के साथ चल पड़ा। बारहवें दिन इधर उधर युद्ध के प्रारंभ होने के पहले ही संशप्तकों ने अर्जुन को युद्ध के लिए चुनौती दी। युद्ध के लिए चुनौती प्राप्त होने पर ना न कहने की अर्जुन की प्रतिज्ञा थी। धर्मराज की सुरक्षा का काम पांचाल्य राजपुत्र
सत्यजित् को सौप कर अर्जुन संशप्तकों का युद्ध करने दक्षिण दिशा की तरफ चला गया और उधर युद्ध में काफी संशप्तकों का और नारायण गण का संहार करना उसने शुरु कर दिया। 12) अर्जुन के संशप्तकों की तरफ जाने पर बारहवें दिन का युद्ध शुरु हुआ। द्रोणाचार्य ने पांडव सैन्य का भयंकर संहार कर के अपना रथ धर्मराज के रथ के निकट पहुंचा दिया। तब सत्यजित सामने आ कर युद्ध करने लगा। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका वध किया। वह देख, सहम कर धर्मराज भाग गये। अनन्तर विराट राजा का छोटा भाई शतानीक सामने आ गया। उसका भी नाश द्रोणाचार्य ने किया। तब पाण्डव सैन्य में भगदड मच गयी। यह देख कर दुर्योधन को अपार हर्ष हुआ। परंतु इतने मे भीम द्रोणाचार्य की सेना का सामना करने चढ आया। तब राजा भगदत्त हाथी पर सवार होकर युद्ध करने प्रस्तुत हुआ। उसने अपने हाथी को भीम के रथ पर चलाया। उसके हाथी ने भीम के रथ को नष्ट कर दिया। भीम उस हाथी के पेट पर नीचे से मुष्टिप्रहार करने लगा। तब वह हाथी चक्र के समान गोलाकार घूमने लगा, और भीम को पकड में लाने का मौका ढूंढने लगा। भीम उसके पेट के नीचे से सटक गया। हाथी पाण्डव सैन्य का संहार करने लगा। कोई उसको रोक न सका। पाण्डव सैन्य रोते चिल्लाते भागने लगा। यह वार्ता सुन कर भगदत्त के वध के लिए श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को
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छाती पर झेल लिया हुआ था। वह वैष्णवास्त्र विष्ण से मांग लिया था।
उस तरफ मोड़ दिया लेकिन संशप्तकों ने युद्ध के लिए आह्वान किया इसलिये फिर से इनसे युद्ध कर के अर्जुन ने दस हजार त्रिगर्त वीरों और चार हजार नारायण गणों को नष्ट किया और भगदत्त से लड़ने प्रवृत्त हुआ। फिर से सुशर्मा पर्याप्त सैन्य के साथ युद्ध करने पहुंच गया। तब सुशर्मा के भाई का वध कर के और खुद सुशर्मा को बेहोश कर के अर्जुन भगदत्त की
तरफ आ पहुंचा। अर्जुन ने हाथी और भगदत्त को लक्ष्य कर के शरवर्षा की। प्रत्युत्तर में भगदत्त ने अर्जुन पर वैष्णवास्त्र का प्रयोग किया। उस अस्त्र को श्रीकृष्ण ने अपने हृदय पर झेल लिया। वह अस्त्र श्रीकृष्ण के कंठ में वैजयन्ती नामक कमलों
की माला बन गया। बहुत पहले धरती ने अपने पुत्र नरकासुर के लिए वह अस्त्र विष्णु से मांग लिया था। नरकासुर का वध श्रीकृष्ण के हाथों होते ही वह अस्त्र भगदत्त को प्राप्त हुआ था। वह वैष्णवास्त्र अजेय होने के कारण उससे अर्जुन को बचाने के लिए श्रीकृष्ण ने उसे अपनी छाती पर झेल लिया।
अनन्तर श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, "भगदत्त बहुत ही बूढ़ा हो गया है। माथे पर की सिकुडन आंख पर आ लटकने से उसे कुछ दिखाई नहीं देता, इसलिये उसने माथे पर पट्टी बांध रखी है। सूचना मिलते ही अर्जुन ने तीर चला कर उस पट्टी को तोड दिया। परिणाम भगदत्त को दिखाई देने में विघ्न आ पडा। तब अर्जुन ने तीर चला कर हाथी और साथ साथ
भगदत्त का संहार किया। भगदत्त का वध करने पर अर्जुन दक्षिण दिशा की ओर युद्ध करने चला गया। तब द्रोणाचार्य ने फिर पाण्डव सैन्य का संहार करना प्रारंभ किया। वह देख कर नील नाम का राजा कौरवों के साथ युद्ध करने आगे बढ़ा। उसका नाश अश्वत्थामा ने किया तब पाण्डव सैन्य फिर से भागने लगा।
इतने में संशप्तकों को पराभूत कर अर्जुन वहां पहुंचा और द्रोणाचार्य की सेना का संहार करने लगा। कौरवों की सेना को भागती देख कर कर्ण आगे बढा। अर्जुन ने उस पर अनेक तीर चला कर उसके तीन भाइयों का वध किया। भीम ने भी अपनी गदा चला कर कर्ण की सेना का बहुत संहार किया। 13) तेरहवे दिन सबेरे दुर्योधन ने द्रोणाचार्य से कहा, "आपका संकल्प यह दिखाई देता है कि हमारा नाश हो। धर्मराज को आपने कल नहीं पकडा।" द्रोणाचार्य बोले, "तेरे लिए मै भरसक प्रयास तो कर रहा हूँ, फिर भी तू इस तरह उलाहना क्यों दे रहा है? खैर आज पाण्डव पक्ष के किसी महान योद्धा को मार कर ही सांस लूंगा किन्तु अर्जुन को कहीं दूर रुकवा देना। वह सुन कर संशप्तकों ने अर्जुन को दक्षिण की ओर युद्ध में ललकारा। अर्जुन के चले जाने पर द्रोणाचार्य ने चक्रव्यूह की रचना की। वह रचना देख कर धर्मराज किंकर्तव्य विमूढ हो गये। उन्होंने अभिमन्यु से कहा, "चक्रव्यूह का भेदन करने का रहस्य तू, अर्जुन, श्रीकृष्ण और प्रद्युम्न इन चार वीरों के अतिरिक्त और कोई नहीं जानता। तब तू चक्रव्यूह का भेदन करने प्रस्थान कर। हम तेरे पीछे पीछे उसी मार्ग से आगे बढ़ेंगे।
चक्रव्यूह का भेदन कर के अभिमन्यु के भीतर प्रवेश करने पर भीम आदि पांडव अभिमन्यु के पीछे पीछे जाने लगे परन्तु जयद्रथ ने उनका मार्ग रोक लिया। पांडवों को उसने भीतर नहीं जाने दिया। वनपर्व के वर्णनानुसार भगवान शंकर का जयद्रथ को विशेष वर प्राप्त था। व्यूह के भीतर घुसते ही अभिमन्यु समूचे सैन्य का विध्वंस करने लगा। यह देख कर दुःशासन उससे लडने आया, लेकिन अभिमन्यु के तीरों से वह मूर्च्छित हो गया। अनन्तर कर्ण प्रस्तुत हुआ। अभिमन्यु ने उसके धनुष्य को तोडा। इस युद्ध में कर्ण का भाई शल्यपुत्र रुक्मरथ, दुर्योधनपुत्र लक्ष्मण आदि वीरों का अभिमन्यु ने वध किया। तब कृपाचार्य, द्रोणाचार्य, अश्वत्थामा, कर्ण, कृतवर्मा और बृहद्बल इन छह वीरों ने अभिमन्यु को घेर लिया। उनमें से बृहद्वल को अभिमन्यु ने नष्ट किया। तब द्रोणाचार्य के कहने से कर्ण ने उसका धनुष्य तोडा। कृतवर्मा ने घोडों के प्राण हर लिए। बाकी तीनों ने उस पर बाणों की बौछार की। अभिमन्यु ने हाथ में ढाल तलवार उठाई। द्रोणाचार्य ने ढाल-तलवार तोड दिया। अनन्तर उसने चक्र धारण किया। उसको भी सबने तोड दिया। बाद में अभिमन्यु ने गदा उठा कर बहुतेरे वीरों का नाश किया। तदनन्तर दुःशासन का पुत्र और अभिमन्यु दोनों में गदा युद्ध जब छिडा तब दोनों एक दूसरे के गदाघातों से मूर्च्छित हो गिरे, परंतु दुःशासन का पुत्र पहले होश में आया। अभिमन्यु खडा हो ही रहा था कि दुःशासन के पुत्र ने उसके मस्तक पर गदा प्रहार किया। उसी क्षण अभिमन्यु मृत्यु के अधीन होकर नीचे गिर पडा। अभिमन्यु का वध होने पर दोनो सेनाएं अपने अपने शिबिर चली गयी।
अभिमन्यु की मृत्यु के कारण धर्मराज बहुत ही शोक करने लगे। तब व्यास महर्षि वहां पहुंचे। उन्होंने धर्मराज की सांत्वना की। अनन्तर संशप्तकों को पराभूत करके श्रीकृष्ण और अर्जुन वापस लौटे। अर्जुन ने अभिमन्यु के लिए बहुत शोक किया। जब उसे पता चला कि जयद्रथ के कारण पाण्डव अभिमन्यु की सहायता में नहीं बढ़ सके, और इसीसे अभिमन्यु का
वध हुआ, तब अर्जुन ने, “कल सूर्यास्त से पहले जयद्रथ का वध करूंगा; न कर सकू तो खुद जल कर भस्मसात् हो जाऊंगा।" इस प्रकार भीषण प्रतिज्ञा की। यह वार्ता जयद्रथ के कानों पर पडते ही वह अपने घर जाने की तैयारियां करने लगा। लेकिन द्रोणाचार्य के आश्वासन देने पर वह रुक गया।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/107
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उस रात में श्रीकृष्ण को नींद नहीं आयी। उन्होंने दारुक से कह रखा कि, “कल सबेरे मेरे रथ को सभी शस्त्रास्त्रों सहित तैयार रख। मै अपना शंख विशेष ढंग से बजाऊंगा। उस समय रथ को सजा ले आना। अर्जुन और मुझमें तनिक भी भेद न होने के कारण उसके हाथों प्रतिज्ञा पूर्ति न होने पर मै उसको निभाऊंगा। 14) चौदहवें दिन सबेरे कौरव सैन्य को व्यूहबद्ध करके द्रोणचार्य ने जयद्रथ से कहा कि तुम यहां से छह कोसों पर व्यूह के बीच जाकर बैठो। वहां तुम्हें कोई भी नहीं मार सकेगा। जयद्रथ की रक्षा के लिए भूरिश्रवा, कर्ण, अश्वत्थामा, शल्य, वृषसेन
और कृपाचार्य की नियुक्तियां हुईं। उनकी सहायता में एक लाख घोडे, साठ हजार रथ, चौदह हजार हाथी और इक्कीस हजार शस्त्रास्त्रों से युक्त पदाति सैन्य दिया हुआ था। जयद्रथ उनके साथ अपने स्थान चला गया। शकटव्यूह चौबीस कोस लम्बा, पीछे दस कोस चौडा बना था। उसके भीतर आगे चक्रव्यूह, इन सब व्यूहों के मध्यम भाग में सुई से लंबे सूचीव्यूह के मुख पर द्रोणाचार्य और एकदम पीछे की तरफ जयद्रथ था। द्रोणाचार्यजी की सुरक्षा के लिए उनके पीछे कृतवर्मा था। दुःशासन
और विकर्ण सैन्य के आगे थे। सारी सिद्धता हो जाने पर चौदहवें दिन युद्ध आरंभ हुआ। अर्जुन ने तेजी से आगे बढ़कर अगाडी के हाथियों के सैन्य को लिए खडे दुःशासन को पराभूत किया। तब दुःशासन द्रोणाचार्य के पास भाग गया। अनन्तर
अर्जुन द्रोणाचार्य के सामने प्रस्तुत हुआ। गुरु द्रोण से प्रार्थना करके वह आगे बढ़ने लगा। द्रोणाचार्य ने कहा, "मुझे जीते बिना आगे बढना संभव नहीं।" उस पर ध्यान न देकर अर्जुन आगे चल पडा। वह देखकर, "शत्रु को जीते वगैरे तू कभी
आगे नहीं बढता है? इस प्रकार द्रोणाचार्य के टोकने पर आगे बढते घुसते अर्जुन ने जवाब में कहा, “आप मेरे लिए शत्रु नहीं है, गुरुदेव हैं। मै तुम्हारा शिष्य याने पुत्र ही हूँ।" वह कृतवर्मा के सम्मुख जा पहुंचा। अर्जुन के रथ के पहियों की रश्रा करने के लिए युधामन्यु और उत्तमौजा दो वीर थे। उनसे युद्ध करने मे लगें कृतवर्मा को देख कर अर्जुन अकेला ही आगे बढ़ने लगा। उन दोनों को कृतवर्मा ने व्यूह के भीतर नहीं घुसने दिया। अर्जुन को आगे बढ़ते देख काम्बोज देश का राजा श्रुतायुध हाथ में गदा लेकर सामने आ गया। वह गदा उसे अजेय बनाने के हेतु वरुण देव ने दी थी। देते समय वरुण देव ने बताया था कि युद्ध न करने वालों पर इसका प्रयोग करोगे तो गदा तुम्ही को नष्ट कर देगी। लेकिन भूल वश श्रुतायुघ ने गदा का उपयोग श्रीकृष्ण पर किया। श्रीकृष्ण युद्ध न करने वालों मे होने के कारण गदा ने लौटकर श्रुतायुध का विनाश किया।
उसके अनन्तर श्रुतायुध का पुत्र सुदक्षिण, श्रुतायु व अश्रुतायु उनके पुत्र नियतायु व दीर्घायु अम्बष्ठ राजा आदि अनेक वीरों का नाश करने पर अर्जुन के सामने खड़े होने की हिम्मत किसी की न हुई। दुर्योधन ने जब यह देखा की अर्जुन अविरोध जयद्रथ की ओर बढ़ रहा है, तब उसने द्रोणाचार्य से कहा, "आपको जीतना किसी को संभव नहीं है, तब अर्जुन
आगे कैसे बढ़ा? मेरा खाकर आप पाण्डवों का हित सोचते रहते हैं।" वह सुनकर द्रोचाचार्य को खेद हुआ। वे बोले, "अर्जुन तरुण है, मै बूढ़ा हो गया हूँ। उसका सारथ्य भगवान् श्रीकृष्ण कर रहे हैं। उसके घोडे बहुत ही तेज हैं। अर्जुन जिन बाणों
को छोडता है उनसे भी आगे एक कोस उसका रथ पहुंच जाता है। यहां व्यूह के अग्रभाग में पाण्डवों का सैन्य है, अर्जुन यहां नहीं है। धर्मराज को जीवित पकडने यह अच्छा मौक दिखाई दे रहा है। मै यहीं युद्ध करता हूं। तू अर्जुन की ओर
जा। "दुर्योधन ने कहा, "तुम्हारे सामने से जो निकल आगे बढा उसे मै कैसे रोक सकूँगा?" उसपर द्रोणाचार्य ने मंत्रप्रयोग करके दुर्योधन को कवच पहना दिया। कवच धारण किये दुर्योधन अर्जुन की ओर पर्याप्त सैन्य साथ में लेकर चल पडा। और द्रोणाचार्य वहीं युद्ध करते रहे।
अर्जुन को आगे बढ़ते देखकर अवन्ति देश के राजा विंद और अनुविंद युद्ध के लिये सामने डटे। उनका नाश करने पर अर्जुन ने तीरों को एक घर सा बना लिया। धरती का भेदन कर वहां एक सरोवर निर्माण किया। तब श्रीकृष्ण ने रथ के घोडों को खोला। उनके शरीर के तीरों को निकाला। उन्हें खूब लोटने दिया, पानी पिलाया, तैराया, चना आदि खिलाकर फिर से उन्हें रथ में जोड़ दिया। कौरवों की सेना अचरज से एकटक देखती ही रही। उनसे प्रतिकार में कुछ भी करते नहीं बना। अनन्तर अर्जुन आगे बढ़ने प्रस्तुत हुआ। दुर्योधन ने उसका प्रतिकार किया। उसके शरीर पर कवच था, वह देखकर अर्जुन ने
अपने तीर उसके नाखूनों और मांस ग्रंथियों के जोडो में चलाये। तब दुर्योधन को मान्तिक वेदनाएं होने लगीं। दुर्योधन की सुरक्षा तथा सहायता में जो सैन्य साथ में था, उसका अर्जुन ने विनाश कर दिया । वह देखकर श्रीकृष्ण ने अपना शंख जोर से बजाया।
__ वहां से जयद्रथ बहुत दूर नहीं था। दुर्योधन की वह हालात देखकर भूरिश्रवा, अश्वत्थामा आदि वीर जो कि जयद्रथ के रक्षणार्थ थे, अब अर्जुन से युद्ध करने लगे।
उधर धर्मराज गुरु द्रोणाचार्य के साथ युद्ध कर रहे थे। युद्ध में उनके घोड़े मारे जाने के कारण वे सहदेव के रथ पर सवार होकर युद्धक्षेत्र से हट गये थे। अनन्तर केकय देश के राजा बृहत्क्षत्र ने कौरवों की तरफ के क्षेत्रपूर्ति राजा का वध किया। चेदि देश के राजा धृष्टकेतु ने कौरवों की तरफ से चिरधन्वा का वध किया। मगध देश के राजपुत्र व्याघ्रदत्त और
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उनकी सेना का नाश सात्यकि ने किया। ऋष्यशृंग के पुत्र अलम्बुष राक्षस का, (जिसका दूसरा नाम शालकटंकट था) वध घटोत्कच ने किया। उसके बाद सात्यकि द्रोणाचार्य से युद्ध करने लगा।
इतने में पहली सूचना के अनुसार श्रीकृष्णने जो अपनी सांकेतिक शंख ध्वनि की। वह ध्वनि धर्मराज को सुनने को मिली। वह सुनकर उन्हें ऐसा लगा कि अर्जुन पर बड़ा भारी संकट मंडरा रहा है। धर्मराज ने सात्यकि को आज्ञा दी कि वे
अर्जुन की सहायता में शीघ्र चले जाएं। सात्यकि द्रोणाचार्य के आगे से अर्जुन के ही समान आगे बढ़ा। लेकिन द्रोणाचार्य ने उसका पीछा किया। तब सात्यकि ने द्रोणगुरु के सारथी को मारा। सात्यकि का प्रतिकार जलसंघ ने किया। उसका नाश करने के उपरान्त सात्यकि ने सुदर्शन का भी नाश किया। बाद दुर्योधन के सारथी को नष्ट कर उसे भी भाग जाने पर विवश किया, उसी तरह दुःशासन को भी जीत लिया।
व्यूह के भीतर प्रवेश करने पर सात्यकि से द्रोणाचार्य ने बाजी लगाकर युद्ध किया। उन्होंने केकय राजा, बृहत्क्षत्र, चेदि राजा, धृष्टकेतु और उसका पुत्र, तथा जरासंध का पुत्र इनका वध करके सैन्य का भारी विध्वंस किया।
इधर अर्जुन की चिंता से धर्मराज को भारी दुःख हुआ। अब उन्होंने भीम को उधर यह कह कर भेजा कि जाते ही अर्जुन का क्षेम कुशल प्रकट करने के लिए तू जोर से गर्जना कर जिससे मैं निश्चित हो जाऊंगा। धर्मराजा के आदेश पर भीम चल पडा। द्रोणाचार्य ने उसे रोका। गुरु द्रोण का रथ ही भीम ने उठाकर फेंका। इस प्रकार आठ बार रथ उठा फेंक
देने पर वह आगे निकल पड़ा। उससे युद्ध करने दुर्योधन के कुछ पुत्र प्रस्तुत हुए, उन सबका उसने नाश किया। कृतवर्मा को जीत कर आगे बढ़ने पर सात्यकि और अर्जुन को कौरव सेना के साथ युद्ध करते उसने देखा। देखते ही उसने भीम गर्जना की। वह सुनकर इधर धर्मराज को बड़ा ही आनंद हुआ। भीम की गर्जना सुन कर कर्ण आगे बढ़ा। घोड़ों और सारथी के मरने पर वह वृषसेन के रथ पर सवार होकर रण-क्षेत्र से भाग निकला।
अनन्तर दुर्मर्षण आदि पांच, धृतराष्ट्र पुत्र रणक्षेत्र पर युद्ध के लिए पहुंचे। इनका भी वध भीमसेन ने किया। फिर एक बार कर्ण को भगाने पर दुर्योधन के आदेश से उसके चौदह भाई युद्ध के लिए आ गये। उन सब का वध भीमसेन ने किया। उनमें विकर्ण भी था; जिसने द्यूत में हारने पर भी "द्रौपदी दासी नहीं है" यह अपना मत व्यक्त धैर्य से किया था। वह याद करके विकर्ण की मृत्यु से भीमसेन को बहुत ही दुःख हुआ। वह बोला, "सभी कौरवों का संहार करने की मेरी प्रतिज्ञा-पूर्ति में ही मैने तेरा वध किया। सचमुच क्षात्र धर्म बड़ा ही निष्ठुर है।" इस प्रकार अपने इकत्तीस भाई भीम के हाथों मारे गए देखकर दुर्योधन को विदुर का हितोपदेश याद आया।
भीमसेन और कर्ण दोनों में फिर से युद्ध शुरु हुआ। भीम ने कर्ण के हाथ से धनुष्यों को बार-बार तोड़ कर उसके दल का बहुत ही विनाश किया। तब कर्ण को बड़ा क्रोध आ गया। उसने अस्त्र से भीम के रथ और घोडोंका नाश किया और सारथी पर तीर चलाया। भीम के सारथी ने युधामन्यु के रथ का सहारा लिया और स्वयं भीम एक मृत हाथी की आड़ में जा छिपा। एक हाथी को उठाकर जब वह खड़ा हो गया, तब कर्ण ने तीर चलाकर हाथी के अंग-अंग को तोड़ डाला। पश्चात् हाथी, रथ, घोडे आदि भीम ने जो भी फेका वह सब कर्ण ने तोड डाला। तब भीम ने अपनी मुठ्ठी उठायी, पर कर्ण
के वध की प्रतिज्ञा अर्जुन की होने के कारण, भीम ने कर्ण को नहीं मारा। साथ ही कर्ण ने भी कुंती को दिये वचन को याद कर भीम को नहीं मारा। फिर भी धनुष्य के सिर से उसे चुभाया और “पेटू" आदि शब्दों के उसकी खूब निंदा की।
भीम ने प्रत्युत्तर देते हुए कहा, "युद्ध में देवेन्द्र की भी कभी पराजय होती है। तू तो मेरे सामने से कई बार भाग गया है। अब क्यों व्यर्थ बढ़कर बातें करता है?" "ये सारा दृश्य अर्जुन ने देखा और उस ने कर्ण पर तीखे तीर चलाये। तब कर्ण भीम को छोड दूर चला गया और भीम भी सात्यकि के रथ पर सवार होकर अर्जुन की और चल पडा।
सात्यकि से लडने अलम्बुश नामक राजा आ धमका। उसका नाश करके दुःशासन आदि जो प्रतिकार करने वहां पहुंचे उनको पराभूत कर सात्यकि अर्जुन के पास जा पहुंचा। इतने में भूरिश्रवा युद्ध के लिए आ पहुंचा। सात्यकि और भूरिश्रवा दोनों ने एक दूसरे के घोड़े मारे और धनुष्यों को तोडा। बाद में ढाल-तलवार लेकर उन्होंने युद्ध किया। ढाल-तलवार के टूटने
पर वे दोनों बाहु-युद्ध करने लगे। भूरिश्रवा ने सात्यकि को उठाकर भूमि पर पटका और एक हाथ में तलवार लेकर और दूसरे हाथ से उसके केश पकड उसकी छाती पर लात जमाई और उसका शीश काटने प्रस्तुत हुआ।
इतने में श्रीकृष्ण की सूचना से अर्जुन ने तीर चलाकर उसका खड्गयुक्त दाहिना हाथ तोड डाला। तब भूरिश्रवा अर्जुन से बोला, “मै दूसरे से युद्ध कर रहा था। मेरा हाथ तोडने का अति नीच कर्म तूने क्यों किया? कृष्ण की संगति का ही यह परिणाम दिखाई देता है।" उसपर अर्जुन ने कहा, "क्षत्रिय वीर अपने दल-बल को साथ में लेकर लडते रहते हैं, उनको एक दूसरे की रक्षा करनी पड़ती है, इसी लिए उसमें मेरा कोई अपराध नहीं है। लेकिन तू स्वयं अपनी भी रक्षा नहीं कर सकता, तब अपनी सेना की रक्षा तू क्या कर सकेगा।" यह सुनने पर भूमि पर दर्भ बिछाकर भूरिश्रवा प्रायोपवेशन के लिए
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बैठ गया। तब सात्यकि ने हाथ में तलवार उठाकर सब लोगों के रोकने पर भी भूरिश्रवा का सिर धड़ से अलग कर दिया। सात्यकि की निंदा करने वाले लोगों को सात्यकि ने उत्तर दिया की, "शत्रु को जो भी दुखदायी, वह सब कुछ अवश्य कर लेना चाहिए, इस प्रकार वाल्मीकि रामायण में लिखा होने के कारण, इसमें मेरा कोई भी दोष नहीं है।
सात्यकि-जैसे पराक्रमी वीर को भूरिश्रवा जमीन पर कैसे पटक सका? धृतराष्ट्र के इस प्रश्न का उत्तर संजय ने इस प्रकार दिया। यदु के वंश में वसुदेव और शिनि दो महावीर थे। देवकी की कन्या का स्वयंवर था। शिनि ने वसुदेव के लिए कन्या
को अपने रथ पर बिठा लिया। उस समय उपस्थित राजाओं से युद्ध हुआ। अन्यों को तो शिनि ने पराभूत किया, पर सोमदत्त ने आधा दिन घसमान युद्ध किया, और आखिर में बाहु-युद्ध में शिनि ने सोमदत्त को सबके सामने जमीन पर पटक दिया। एक हाथ में तलवार लेकर, दूसरे हाथ से उसके केश पकड लिए, पर उसे न मारते हुए छोड दिया। सोमदत्त उस अपमान को सहन नहीं कर सका। उसने शंकर को प्रसन्न करके वर मांग लिया कि मुझे ऐसा पुत्र दो कि जो शिनि ने जिस प्रकार मेरा अपमान किया, उसी प्रकार सब के समक्ष वह शिनि के पुत्र का अपमान कर पाए। शंकर ने वरप्रदान किया, और इसीलिए भूरिश्रवा उस दुर्घट कर्म को कर सका। - भूरिश्रवा के वध के पश्चात् अर्जुन ने कौरव-सेना का बहुत संहार किया। इतने में सूर्यास्त की बेला आ गयी। जयद्रथ की रक्षा में जो प्रधान वीर और सेना थी उनको सूर्यास्त से पहले जीतना असंभव देखकर श्रीकृष्ण ने युक्ति चलाई। उन्होंने सूर्य को आच्छादित कर अंधेरा निर्माण किया। उस समय सूर्यास्त का आभास होकर कौरव-सेना हर्षोत्फुल्ल होकर उचक-उचक कर आकाश की ओर ताकने लगी। उन सब में जयद्रथ भी एक था।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन से कहा, "वह देख जयद्रथ । तीर चला कर उसका सिर इस कदर उडा दे कि वह उसके पिता वृद्धक्षत्र, जो कुरुक्षेत्र में तपश्चर्या कर रहे हैं उनकी गोद में जा गिरे; कारण जयद्रथ का सिर जो भूमि पर गिराएगा उसी के सिर के टुकडे-टुकडे हो जाएंगे इस प्रकार उन्होंने बताया था। इससे एक ही तीर से दोनों का नाश होगा।" उस पर अर्जुन ने तीर चलाया उस तीर से जयद्रथका सिर संध्या-वंदन में संलग्न वृद्धक्षत्र की गोद में जा पडा। वृद्धक्षत्र की उसी क्षण मृत्यु हो गयी। जयद्रथ के वध के उपरान्त श्रीकृष्ण ने सूर्य का कृत्रिम आवरण दूर किया। उपरान्त, श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम, सात्यकि, युधामन्यु और उत्तमौजा सबने अपने अपने शंख उच्च स्वर से बजाए। उस स्वर को सुन कर धर्मराज समझ गये कि जयद्रथ का वध हुआ और उन्होंने भी बाजे बजा कर समूची पांडव सेना को प्रमुदित किया।
जयद्रथ का वध होने के बाद कृपाचार्य और अश्वत्थामा ने अर्जुन पर चढाई की। उनका पराभव अर्जुन द्वारा होने पर वहां कर्ण आ पहुंचा। सात्यकि के लिये स्वतंत्र रथ न होने के कारण श्रीकृष्ण ने अपनी शंखध्वनि से विशेष संकेत किया। उसी क्षण दारुक रथ लेकर पहुंचा। उस पर सवार होकर सात्यकि ने कर्ण को पराभूत किया। तब कर्ण ने दुर्योधन के रथ का सहारा लिया। इतने में सूर्यास्त हुआ, तब श्रीकृष्ण, अर्जुन, भीम, सात्यकि आदि सभी धर्मराज से मिलने गये। धर्मराज सभी से बड़े प्रेमसे मिले।।
उस रात युद्ध फिर से शुरु हुआ। पांडवों के बढ़ते प्रभाव को देख कर दुर्योधन को बहुत ही दुःख हुआ। तब कर्ण ने कहा, "मैं जाकर सभी पांडवों का नाश कर देता हूं।" उसके इस बढाई मारने पर कृपाचार्य और अश्वस्थामा ने उसकी निन्दा की। तब कर्ण और अश्वत्थामा के बीच कलह प्रारंभ हुआ। लेकिन दुर्योधन ने दोनों को समझा दिया। अनन्तर कर्ण युद्ध करने लगा। उसने पांडव सैन्य का बहुत ही विध्वंस किया। भीम, अर्जुन, सात्यकि और धृष्टद्युम्न इन्होंने भी कौरव-सेना का वैसा ही विनाश किया। उस युद्ध में सात्यकि ने सोमदत्त का वध किया। बाद में अंधेरा छा गया और हाथ को हाथ न सूझता था। तब दोनों सेनाओं मे आग जलाकर यद्ध होने लगा।
सात्यकि ने भूरिश्रवा का नाश किया। भीमसेन ने दुर्योधन को और कर्ण ने सहदेव को रण-क्षेत्र से हटाया। उस युद्ध में कर्ण का प्रताप सबको असह्य हो गया। कर्ण के पास अर्जुन के लिए ही सुरक्षित एक शक्ति संगृहीत थी। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को उसके सामने नहीं जाने देते थे। तब अर्जुन ने घटोत्कच को कर्ण से लडने भिजवा दिया। जटासुर का पुत्र अलम्बुष राक्षस उसका प्रतिकार करने आ पहुचां । उसका वध घटोत्कच के हाथों होने पर अलायुध नामक राक्षस युद्ध के हेतु आ गया। उसका भी नाश उसने किया। उपरान्त घटोत्कच और कर्ण दोनों में युद्ध प्रारंभ हुआ। घटोत्कच का असह्य पराक्रम देख कर कर्ण ने अस्त्र चलाया और उसे रथ, सारथी और घोडों का नाश किया। तब घटोत्कच आंख से ओझल हो गया और लुक-छिपकर युद्ध करने लगा। उसने अपनी राक्षसी माया फैला दी। उससे कौरव-सेना पर सभी दिशाओंसे तरह-तरह के शस्त्र आकर आघात करने लगे और सब का बहुत ही नाश होने लगा।
तब सभी ने कर्ण से कहा कि, “अर्जुन के लिए जो शक्ति तू ने खास रखी है उसका प्रयोग अब तू घटोत्कच पर कर दे। आज के इस भयानक संहार में से हम बच गये तो सब मिलकर अर्जुन के विनाश की योजना कर लेंगे। "उनक
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आग्रह से कर्ण ने खास अर्जुन के वधार्थ सुरक्षित इन्द्र की दी हुई वासवी शक्ति का घटोत्कच पर प्रयोग किया। उसी क्षण राक्षसी माया का संवरण होकर घटोत्कच का भी नाश हो गया। घटोत्कच ने मरते-मरते अपना शरीर इतना फुलाया कि उसके मृत शरीर के नीचे आकर कौरवों की एक अक्षौहिणी सेना नष्ट हुई। घटोत्कच का वध होते ही उधर युद्ध लगातार चलता रहने से सभी को थकान के मारे भारी नींद आने लगी, तब अर्जुन की सूचना के अनुसार सभी आराम करने चले गये। कुछ समय बाद चंद्रोदय हुआ। तब दस घटिका रात्रि शेष बची थी। अनन्तर दोनों सेनाएं जग पडी और उनमें फिर से युद्ध प्रारंभ हुआ।
उस समय द्रोणाचार्य ने द्रुपद राजा, विराट राजा और द्रुपद राजा के तीन पौत्र इनका वध किया। इतने में सूर्योदय हुआ। सभी वीर अपने-अपने वाहनों पर से उतर पड़े। उन्होंने सूर्याभिमुख होकर हाथ जोड कर संध्यासमय का जप-जाप किया। 15) पंद्रहवें दिन युद्ध का आरंभ हुआ। इस समय द्रोणाचार्य ने अस्त्रों का प्रयोग करके अस्त्र न जानने वाली सेना का बहुत ही नाश किया। तब श्रीकृष्ण ने बताया "युद्ध में द्रोणाचार्य को जीतना संभव नहीं है। अगर उन पर झूठमूठ कोई यह प्रकट करे कि अश्वत्थामा चल बसा, तो वे शस्त्र को त्याग देंगे। उसी समय उनका वध हो सकेगा।" इतने में मालवदेश के राजा इंद्रवर्मा का अश्वत्थामा नामक हाथी भीम के हाथों ढेर हो गया। भीम ने श्रीकृष्ण की सूचना के अनुसार द्रोणाचार्य पर जोर से चिल्लाकर कहा कि "अश्वत्थामा मर गया" इसको असंभव मान कर द्रोणाचार्य ने भीम की बात पर ध्यान ही नहीं दिया
ओर वे अपना युद्ध चलाते रह। उन्होंने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया और लाखों सैनिकों का संहार किया। वह देखकर बहुत से ऋषि-मुनि गुरुद्रोण के पास पहुंचे और बताने लगें, "आप अधर्म से युद्ध कर रहे हैं। आपकी मृत्यु की वेला समीप आ पहुंची है। अब शस्त्रों को त्यागने का समय आ गया है। फिर ऐसा नीच कर्म करने का कभी न सोचें।
ऋषियों का वह कथन, भीम का वह प्रकटन, और अपने मृत्यु के लिए ही जन्म पाए धृष्टद्युम्न को सम्मुख उपस्थित देख कर द्रोणाचार्य को बहुत ही दुःख हुआ। इन बातों में से भीम की घोषणा का तथ्यांश जानने के लिए उन्होंने उस संबंध में धर्मराज से पूछा। धर्मराज ने श्रीकृष्ण के आग्रह के कारण और, "झूट बोला जाए तो पाप लगता है, न बोला जाए तो जय-लाभ नहीं," यह धर्मसंकट जान कर द्रोणाचार्य के पूछने पर जोर से कहा “अश्वत्थामा चल बसा" और "हाथी" एकदम धीमी आवाज में कहा। उतना झूठ बताने के कारण धर्मराज का रथ जो पहले चार अंगुल धरती से अधर-अधर घूमता था, वह जमीन पर आ गया।
धर्मराजा के कहने पर कि "अश्वत्थामा चल बसा" द्रोणाचार्य को तनिक भी शंका नहीं रही। उन्होंने दुःख वश अपने शस्त्र को त्याग दिया। प्राणायाम करके समाधि लगाई और परमात्मा का ध्यान करते रहे। इतने में धृष्टद्युम्न ने झट आकर उनका सिर तलवार से अलग कर दिया।
द्रोणाचार्य के वध की वार्ता सुनकर अश्वत्थामा ने पांडवों की सेना पर "नारायणास्त्र" का प्रयोग किया। तब श्रीकृष्ण ने बताया "अपने-अपने वाहनों पर से नीचे उतर जाओ, हाथ के शस्त्रों को त्याग दो, तभी यह अस्त्र शांत हो जायेगा। इसका
और कोई उपाय नहीं है।" "आदेशानुसार सभी ने शस्त्र त्याग किया। लेकिन भीम डटा रहा। वह अस्त्र तब भीम पर जा गिरा। तब श्रीकृष्ण ने उसे रथ के नीचे ढकेल दिया। तब वह अस्त्र अपने आप शांत हुआ। उसके बाद कौरव-पांडवों की सेनाएं अपने-अपने शिबिर चली गयीं। इस तरह भारतीय युद्ध के पंद्रह दिन पूरे हुए।
8 कर्ण पर्व
द्रोणाचार्य की मृत्यु पर सभी कौरव शोक करते है। बाद में सब की सम्मति से दुर्योधन ने सेनापति के पद पर कर्ण की नियुक्ति की। प्रातःकाल कौरव-सेना की, मकर-व्यूह में रचना करके कर्ण युद्ध के लिए प्रस्तुत हुआ। इधर पांडवों ने अपनी सेना का अर्धचंद्रकार व्यूह बना लिया। 16) सोलहवे दिन भीमसेन हाथी पर सवार होकर जब युद्ध में घुस पडा तब कुलूत देश का राजा क्षेमधूर्ति युद्ध के लिए सम्मुख खडा रहा। वह भी हाथी पर ही सवार था। उन दोनों का युद्ध होते-होते आखिर भीम ने अपनी गदा से क्षेमधूर्ति और उसके हाथी का नाश किया। अर्जुन के पुत्र श्रुतकनि अभिसार देश के राजा चित्रसेन का और धर्मराज के पुत्र प्रतिविंध्य ने चित्रराजा का वध किया। तब अश्वत्थामा भीम पर दौडा। भीम का और उसका बहुत समय तक युद्ध होने के बाद वे दोनो एक दुसरे के रथो मे मूर्च्छित हो गिरे। तब उनके सारथियों ने उनके रथों को युद्धक्षेत्र से बाहर कर दिया।
कुछ देर बाद होश में आकर अश्वत्थामा दक्षिण दिशा की ओर जहां अर्जुन संशप्तकों का नाश कर रहा था, उसे युद्ध के लिए ललकारने लगा। तब श्रीकृष्ण ने रथ को उधर मोड दिया। अर्जुन और अश्वत्थामा एक दूसरे पर तीरों की वृष्टि कर रहे थे। तब अर्जुन ने निशाना लगा कर उसके घोडों के लगाम तोड डाले। उससे घोडे चौंक कर उसके रथ को कर्ण की सेना की तरफ ले गये। इधर अर्जुन फिर से संशप्तकों के संहार में लग गया। इतने में उत्तर दिशा की ओर से पांडवों की
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सेना में हल्ले-गुल्ले की आवाज श्रीकृष्ण को सुनाई दी। वहां माध देश का दंडधार, हाथी र सवार होकर सेना का विध्वंस कर रहा था। श्रीकृष्ण ने तत्काल अर्जुन के रथ को उस तरफ मोड दिया। तब दंडधार ने श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों पर तीर चलाकर बड़े जोर से गर्जना की। इतने में अर्जुन ने अपने तीरों से उसका धनुष्य, उसके दोनों हाथ और मस्तक तोड कर उसका नाश किया और हाथी को भी मार डाला। वह देख कर उसका भाई दंड अर्जुन पर चढ़ आया। उसका भी सिर अर्जुन ने काटा, और दक्षिण दिशा में जाकर संशप्तकों का नाश करने का अपना काम शुरु किया। इधर पांड्य राजा द्वारा कर्ण की सेना का नाश देख कर, अश्वत्थामा उसका प्रतिकार करने लगा। उस समय अश्वत्थामा ने बाणों की घोर वृष्टि की। उन सभी बाणों को पांड्य राजा ने वायव्यास्त्र चला कर उडा दिया। अश्वत्थामा ने उसके रथ के घोडे मारे। तब वह एक हाथी पर सवार होकर युद्ध करने लगा। तब अश्वत्थामा ने अपने बाणों से उस हाथी को तथा पांड्य राजा को भी यम-सदन पहुंचा दिया। इधर नकुल और कर्ण में युद्ध छिडा। उस युद्ध में कर्ण ने नकुल के घोडे और सारथी का नाश किया। तब नकुल भागने लगा। कर्ण ने उसके गले में धनुष्य डाल कर उसे पकड लिया, और उससे कहा, "तू हम लोगों से युद्ध करना छोड दे। तेरे लिए हम लोग भारी है।'' इतना कह कर कुन्ती को दिए वचन के अनुसार कर्ण ने उसे छोड़ दिया और वह फिर से पांडव-सेना का नाश करने लगा। यह युद्ध दोपहर में हुआ।
दूसरी तरफ धर्मराज और दुर्योधन के बीच युद्ध होता रहा, जिसमें धर्मराज के बाणों से दुर्योधन मूर्च्छित पडा। तब भीम कहने लगा, "इसे मारने की मेरी प्रतिज्ञा है, आप इसे न मारें।" इतने में कृपाचार्य को दुर्योधन की सहायता में आते देख भीम गदा लेकर उनकी सेना पर टूट पड़ा। वह युद्ध तीसरे प्रहर हुआ।
शाम को कर्ण को आगे करके कौरवों का सैन्य युद्ध में जब पहुंच गया तब अर्जुन ने बाणों की वृष्टि से आसमान को आच्छादित किया। तब कर्ण ने अस्त्र के प्रयोग से अर्जुन के बाणों को तोड कर उसी अस्त्र से पांडव-सेना का विध्वंस शुरू किया। यह देखकर अर्जुन ने अपने अस्त्र से उस अस्त्र का नाश करके कौरव सेना का विनाश किया। 17) सत्रहवे दिन सबेरे कर्ण ने दुर्योधन से कहा, "आज अर्जुन का वध किये बिना मैं वापस नहीं लौटूंगा। यद्यपि अर्जुन के धनुष्य से भी प्रभावी मेरा धनुष्य है तब भी उसका सारथ्य श्रीकृष्ण कर रहे हैं और अगर शल्य मेरा सारथ्य कर सके तो अर्जुन का नाश करने में मैं अवश्य सफल हंगा"। यह सुनकर दुर्योधन शल्य से कर्ण का सारथ्य करने की प्रार्थना करने लगा। उसपर शल्य बहुत ही क्रुद्ध हुआ और दुर्योधन से बोला, "मैं एक क्षत्रिय कुलोत्पन्न राजा हूँ और तू मुझे सूत का सारथ्य करने का आग्रह कर रहा है। यह अपमान मैं कदापि सहन करने वाला नहीं हूं। ऐसा ही अगर चलने वाला है तो मैं अपने घर लौट चला जाता हूँ।” तब दुर्योधन ने उसकी बडी प्रशंसा की और कहा, “ यह प्रथा है कि श्रेष्ठ कनिष्ठ का सारथ्य करे। शंकर ने त्रिपुरासुर का वध किया उस समय उनका सारथ्य प्रत्यक्ष ब्रह्मदेव ने किया था। तुम कृष्ण से भी बढ़ कर कुशल सारथी हो, तुम अगर कर्ण का सारथ्य करो तो कर्ण निश्चय ही विजय प्राप्त करेंगा।" शल्य ने कहा, "सबके सामने तृ मुझे कृष्ण से भी बढ़ कर मान रहा है, इससे में बहुत ही संतुष्ट हो गया है। मै कर्ण का सारथ्य अवश्य करूंगा। लेकिन कुछ भी सुना कर उसे अपमानित करता जाऊंगा। उसे वह सब सहना पडेगा। "वह शर्त दयोधन और कर्ण दोनों को मंजूर होते ही शल्य सारथ्य करने रथ पर सवार हुआ और कर्ण भी युद्ध के लिए प्रस्तुत हुआ।
जब कर्ण अर्जुन का नाश करने की डींगे मारने लगा, तब उसका युद्धोत्साह कम करने के लिए, शल्य ने कर्ण की मनमानी निंदा करना शुरू किया। इस लिए कि (उद्योग पर्व में) शल्य ने धर्मराज को आश्वासन दिया था कि मैं कर्ण का तेजोभंग करता रहंगा, तदनुसार उसने किया। शल्य की बातें सुन कर कर्ण तमतमा उठा। वह देख कर उसे और चिढ़ाने के लिए शल्य ने उसे एक कहानी सुनाई। एक धनी वैश्य समुद्र के तट पर रहता था। उसके अनेक पुत्र थे। वे प्रतिदिन तरह-तरह के पक्वान खाकर बची खुची जूठन एक कौए को देते रहते थे। उनकी जूठन खा-खाकर वह कौआ उन्मत्त हो गया। वह समझने लगा कि "कोई भी पक्षी मेरी बराबरी नहीं कर सकेगा। "एक दिन समुद्र के तट पर अनेक हंस पहुंच गए। वैश्य के पुत्रों ने कौए से कहा, "तू तो सभी पंछियों में श्रेष्ठ है। कौए को वह बात सही लगने लगी और वह हंसों के साथ उडने की बाते करने लगा। हंस बोले, "तू हमारे साथ कैसे उड़ सकेगा?" कौआ बोला, “उडने के एक सौ एक प्रकारों की जानकारी मैं रखता हूं और हर एक प्रकार से मैं सौ योजन दूर उड जा सकता है।" एक हंस बोला, “सर्व साधारण पंछियों के समान मै भी उडना जानता हूं।" अनन्तर दोनों उडने लगे। समुद्र पर दूर तक उडने पर कौआ थक गया। जहां-तहां पानी का फैलाव और उतरने कहीं कोई पेडपौधा न देखकर वह बहुत ही घबरा गया। आगे उससे नहीं उडा गया। वह समुद्र की लहरों में डूबने लगा। तब हंस ने उस पर दया की और यह उड़ने का कौनसा प्रकार है? इस प्रकार का नाम क्या है? आदि बातें कह कर हंस ने उसे अपनी पीठ पर उठा लिया और समुद्र के तट पर ला छोड़ दिया।
प्रस्तुत कथा सुनाकर शल्य कर्ण से बोला, "उस कौए के समान तू कौरवों की जूठन पर पुष्ट हुआ है और गर्व से फूलकर अर्जुन को जीत लेने की इच्छा व्यक्त कर रहा है। अरे, उत्तर गो-ग्रहण के समय जब अकेला अर्जुन हाथ आ गया था तब 112 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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समान। सियार और हर
वष और अमृत में
anा कर सकता वहाँ
तू ने उसे क्यों नहीं मारा? सच पूछा जाए तो अर्जुन सूर्य के समान है और तू जुगनू के समान। सियार और शेर, खरगोश और हाथी, चूहा और बिल्ली, कुत्ता और बाघ, झूठ और सत्य, विष और अमृत में जितना अंतर है उतना तुझमें और अर्जुन में है। तू जहाँ उसकी बराबरी तक नहीं कर सकता वहाँ उसे जीतने की बात तो दूर की है।"
शल्य का भाषण सुनकर कर्ण बहुत क्रुद्ध हुआ। उसने शल्य की, उसके देश की, उसके आचारों की भारी निन्दा की और बताया कि, तुझे मैं अभी नष्ट ही कर देता, लेकिन वचनबद्ध हूं। फिर कभी इस प्रकार की बातें करेगा तो मैं क्षमा नहीं करूंगा। उन दोनों में इस प्रकार का बखेड होते देख दुर्योधन ने दोनों को खूब समझा-बुझाया। कुछ देर बाद कर्ण फिर से युद्ध में प्रवृत्त हुआ।
सत्रहवें दिन जब कि युद्ध प्रारंभ हुआ संशप्तकों का नाश करने अर्जुन दक्षिण दिशा की ओर चला गया और इधर कर्ण पांडव-सेना का निःपात करने लगा। धर्मराज ने कुछ समय तक कर्ण से युद्ध किया, परन्तु आखिर हार कर भाग जाने लगा। कर्ण ने उसका पीछा किया लेकिन कुन्ती को दिये वचन की याद कर उसने धर्मराज से कहा, "जा तुझे मै जीवित छोड देता हूं। फिर कभी मेरे साथ युद्ध करने का साहस मत कर। उसके बाद भीम के पराक्रम से कौरव-सेना भाग जाने लगी। तब कर्ण भीम से युद्ध करने बढा। परन्तु भीमसेन के बाणों से वह मूर्च्छित गिर पड़ा। तब उसका रथ शल्य ने रणक्षेत्र से हटाया। अनन्तर दुर्योधन के भाई भीम पर चढ़ आये। लेकिन वे भीम के पराक्रम से नष्ट हो गये। फिर से कर्ण पांडव-सेना का नाश करने लगा।
इतने में संशप्तकों को मार भगाकर अर्जुन उत्तर दिशा की ओर जा पहुंचा। तब अश्वत्थामा से उसका भीषण युद्ध हुआ। उस युद्ध में अर्जुन के बाणों से अश्वत्थामा के मूर्च्छित होते ही उसका रथ सारथी ने समरांगण से हटा दिया। दुर्योधन धर्मराज के साथ युद्ध कर रहा था, कर्ण वहां पर पहंच कर धर्मराज पर तीरों की वर्षा करने लगा। नकुल और सहदेव धर्म-राज की सहायता कर ही रहे थे। कर्ण ने जब धर्मराज और नकुल के रथों के घोडे मारे, तब वे दोनों सहदेव के रथ पर सवार हुए। उस समय शल्य ने कर्ण से कहा, "कर्ण, इन्हे मार कर तुझे क्या लाभ होने वाला है। अर्जुन के वध के लिए दुर्योधन ने तुझे सेनापति पद दे दिया है, इस लिये उसीसे जो कुछ युद्ध करना हो कर और अपना कौशल्य दिखा। दूसरी बात, दुर्योधन भीमसेन से लड़ रहा है, उसे बचाने की अपेक्षा यहां क्यों अपनी शक्ति यों ही बरबाद कर रहा है?" उस पर कर्ण दुर्योधन की सहायता में दौडा। इधर धर्मराज कर्ण के मन्तिक बाणों से विद्ध होकर अपने शिबिर में लेटे रहे थे। जब धर्मराज युद्ध-क्षेत्र पर कहीं भी दिखाई नहीं दिये तब उनकी खोज में श्रीकृष्ण और अर्जुन शिबिर को पहुंचे। उन्हे देखकर धर्मराज को ऐसा लगा कि वे दोनों कर्ण को नष्ट करके शिबिर लौटे हैं और उन्होंने उन दोनों की बडी प्रशंसा की। लेकिन अर्जुन ने जब सत्य वृत्तांत बताया तब धर्मराज बहुत ही क्रोधित हुए और अर्जुन की निन्दा करके बोले, तू अपना गाण्डीव धनुष्य दूसरे किसी को देगा तो वही कर्ण का नाश करेगा।" इतना सुनते ही अर्जुन तलवार उठाकर धर्मराज को मारने प्रस्तुत हुआ। अर्जुन ने अपनी प्रतिज्ञा कर रखी थी कि जो "गाण्डीव धनुष्य दूसरे को दे दे" इस प्रकार कहेगा उसका शिरच्छेद मै करूंगा। वह बात समझने पर श्रीकृष्णने अर्जुन को खूब समझाया। हिंसा और अहिंसा का विवेक समाज धारणा की दृष्टि से कैसे करे, अर्जुन को समझा दिया। एक व्याध पूरे समाज को संत्रस्त करने वाले पशु की हिंसा करने पर भी स्वर्गलोक पहुंचा किन्तु एक तपस्वी ब्राह्मण, डाकुओं को सच्चा मार्ग दिखाने पर उस मार्ग से बढे लोगों की हिंसा उन डाकुओं से होने पर, नर्क लोक को कैसे पहुँचा, आदि तात्त्विक विचार बताने पर श्रीकृष्ण ने कहा, “श्रेष्ठों को "तू" संबोधित करने पर उनका अपमान हो जाता है जो उनके वध के समानही समझा जाता है। तू धर्मराज की निन्दा कर। उससे तेरी प्रतिज्ञा की पूर्ति हो जाएगी। श्रीकृष्ण के कहने पर अर्जुन ने धर्मराज की निन्दा की, और बोला, “अब मै बडे बन्धु को अपमानित करने के पातक से मुक्त होने के लिए आत्महत्या कर लेता हूं।" तब श्रीकृष्ण हंस कर बोले, "उसके लिए शस्त्र की आवश्यकता नहीं। तू अपने मुंह से अपनी स्तुति कर ले। बस है।" तद्नुसार अर्जुन ने आत्मस्तुति की। वह सुनने के उपरान्त अर्जुन के द्वारा की गई निन्दा के कारण कुपित धर्मराज वन को जान के लिये प्रस्तुत हुए। तब श्रीकृष्ण ने उनके पैर पड़ कर उन्हें प्रशांत किया। अर्जुन ने भी धर्मराज को प्रणाम किया, और कर्णवध की प्रतिज्ञा करके वह युद्ध के लिये चल पड़ा।
समरांगण पर आकर अर्जुन ने युद्ध करने भीम पर धर्मराज का क्षेम कुशल प्रकट कर दिया और वे दानों कौरवसेना का नाश करने लगे। उस पर दुःशासन भीम पर दौडा। उन दोनों में कुछ काल तक तुद्ध चला। अन्त में भीमसेन ने अपनी गदा दुःशासन पर इतनी तेजी से चलाई कि वह रथ से उडकर चालीस हाथ दूर जा गिरा। हाथ में खङग् लेकर भीम दौडता चला गया। जिस हाथ में भारतवर्ष की सम्राज्ञी द्रौपदी के केश खींचे थे, जिस हाथ ने पाण्डवों की सर्वोपरि प्रतिष्ठा का वस्त्र उतारने का निर्लज्ज प्रयत्न किया, उस दुःशासन के हाथ को काट कर भीम उसके गले पर पांव देकर खडा रहा और जिसमें हिम्मत हो वह इस नरपशु को अब बचाए, मै इसका रक्त प्राशन करूंगा। "इस प्रकार कौरव पक्षीय वीरों के नाम लेकर गरजकर ललकारने पर दुःशासन की छाती फोड कर उसका गरम रक्त अंजलि से पीने लगा। वह दृश्य देखकर उसे प्रत्यक्ष
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राक्षस, समझकर कौरवों की सेना भाग गई। लेकिन दुर्योधन के दस भाई भीम पर और कर्ण का पुत्र वृषसेन अर्जुन पर चढ़ आये। भीम ने उन दसों का और अर्जुन ने वृषसेन का कर्ण और दुर्योधन के समक्ष वध किया ।
वृषसेन का वध देख कर कर्ण बहुत ही क्रुद्ध होकर अर्जुन के साथ युद्ध करने लगा। उन दोनों का युद्ध देखने निमित आये हुए देवों तथा दानवों में भी दो दल हो गए। अर्जुन के प्रति सहानुभूति रखने वाले इंद्र देव थे और कार्ग का पक्ष सूर्य और दैत्यों ने लिया था। युद्ध में दोनों ने भिन्न भिन्न अस्त्रों के प्रयोग चलाए। अर्जुन पीछे नहीं हट रहा है, कर्ण ने खास अर्जुन के लिए अब तक सुरक्षित सर्पमुख बाण उस पर चलाया। उसी बाण पर खांडववन से भागा हुआ "अश्वसेन" नामक नाग आकर अर्जुन का बदला लेने के लिये बैठा था। बाण को छूटते देख, श्रीकृष्ण ने अर्जुन के रथ को नीचे दबाया। उससे वह बाण अर्जुन के मुकुट को ही छिन्न करके विफल हुआ। उसपर अर्जुन ने माथे में शुभ्र वस्त्र लगाया। जो नाग बाण पर बैठा था वही नाग कर्ण के पास आकर कहने लगा, "फिर से मुझे छोड दो। मै अर्जुन को नष्ट कर देता हूं, “पर दूसरे के बल पर युद्ध करना मैं नहीं चाहता " ऐसा कर्ण ने कहने पर नाग स्वयं ही अर्जुन की ओर तीर के समान दौड़ पड़ा। अर्जुन ने तीर चलाकर उसके टुकडे टुकडे कर दिये ।
आगे कुछ समय तक कर्ण और अर्जुन में युद्ध चलता रहा। इसी बीच कर्ण शाप के कारण अस्त्रों के मंत्र स्मृति में लाने में अपने को असमर्थ पाता गया, और उसके रथका बायां पहिया (शाप ही के कारण) पृथ्वी ने निगल लिया। तब कर्ण रथ से नीचे उतरा, और अर्जुन से कहने लगा, "मै रथ का पहिया खींच निकाल ले रहा हूं। इस समय मुझपर तीर चलाओगे तो वह बात धर्म के विरुद्ध हो जाएगी।" उसका वह भाषण सुनकर श्रीकृष्ण कर्ण से बोले, “अब तुझे धर्म की बातें याद आ रही हैं, लेकिन जिस समय भरी सभा में महासती द्रौपदी की, जो कि एकवस्त्रा, रजस्वला थी, विडम्बना की, पांडवों को जलाने के प्रयत्न किये, भीम को विषान्न खिलाया, अकेले अभिमन्यु को अनेकों ने मिलकर मारा, उस समय तेरा धर्म कहां चला गया था? अब धर्म तेरी रक्षा करनें मे असमर्थ है। अर्जुन, क्या देख रहा है। तीर चला और तोड दे कर्ण का कंठनाल" । श्रीकृष्ण का भाषण सुन कर कर्ण ने लज्जा वश सिर झुकाया । पहिया धरती से नहीं निकाला। कर्ण उसी असहाय अवस्था में युद्ध करने लगा। परंतु अब उसमें उतना सामर्थ्य नहीं था। अर्जुन ने एक ही तीर में उसका वध कर डाला। कर्ण के शरीर से निकला तेज सूर्य में जा मिला।
कर्ण का वध होने पर कौरव पक्ष के किसी वीर में युद्ध के लिए उत्साह नहीं रहा। सेना भाग गई। दुर्योधन के लाख कहने पर वे वापस लौटने तैयार नहीं हुए । तब शल्य के कहने पर युद्ध को स्थगित करके सभी अपने अपने निवासस्थान (शिबिर) को चले गये। उनके शिबिर को जाते ही बड़े आनन्द के साथ पाण्डवसेना अपने शिबिर को पहुंच गई। वे जोर से गरजने लगे। श्रीकृष्ण और अर्जुन धर्मराज से बड़े ही आनन्द से मिले और कर्ण का वर्णन सुनाने लगे। धर्मराज कर्णार्जुन का युद्ध देखने बीच में एक बार समरांगण गये थे, लेकिन घायल होने के कारण वे अधिक समय तक वहां नहीं रह सके। अब कर्णवध का वृतांत सुनकर वे फिर से वहां चले गये और कर्ण को मरा पड़ा अपनी आंखों से देखा । तब आनन्द के आवेग में उन्होंने कृष्णार्जुन को प्रेम से गले लगा लिया और कहा, "आज मै धन्य हो गया हूं। आज ही मैं समझता हूं कि मुझे जय मिली है। तेरह वर्ष कर्ण के आतंक से मुझे नींद तक नहीं आती थी।" ऐसा कहकर उन्होंने श्रीकृष्ण और अर्जुन को धन्यवाद दिए ।
9 शल्य पर्व
वैशम्पायन जनमेजय राजा को आगे सुनाने लगे उन्नीसवें दिन सवेरे संजय हस्तिनापुर पहुंचा। उसने राजा धृतराष्ट्र को दुर्योधनादि सबका विनाश हुआ, कृपाचार्य कृतवर्मा और अश्वत्थामा, (तीन कौरव पक्ष के) और पांच पाण्डव, श्रीकृष्ण और सात्यकि, (सात पाण्डव पक्ष के) कुल दस लोग भारतीय युद्ध में बचे, वृतान्त सुनाया । वह सुन कर सभी पुत्रों की और खास कर दुर्योधन की मृत्यु से दुखी होकर धृतराष्ट्र ने बहुत शोक किया और बाद में संजय से युद्ध का सविस्तर वर्णन करने को कहा।
तब संजय ने बताया, कर्ण की मृत्यु के बाद दुर्योधनादि सारी कौरव सेना भागकर शिबिर लौट आयी। तब कृपाचार्य ने दुर्योधन से कहा कि अब भी पाण्डवों का राज्य उनको लौटा दो और उनसे सन्धि करो। सेना का जो नाश हुआ है उससे अधिक अब कुछ न हो। बचे वीरों तथा सैनिकों को अपने घर जाने दो। उस पर दुर्योधन ने कहा, बात अब यहां तक पहुंच गयी है कि पाण्डव अब हमारी एक भी नहीं सुनेंगे और पाण्डवों की शरण मे जाना मुझसे होगा भी नहीं । इतने लोगों का नाश हो चुकने पर मै पाण्डवों की शरण में जाऊं तो लोग मुझे क्या कहेंगे? और विशेष बात यह है कि अब तक जिन्होंने मेरे लिए अपने सर्वस्व की बलि चढाई, उनके ऋण से मुक्त होने के लिए मुझे युद्ध ही करना अनिवार्य है। इतना कह कर दुर्योधन ने अश्वत्थामा से पूछा कि, कर्ण के बाद सेनापति पद किस सुयोग्य व्यक्ति को दिया जाय ? तब अश्वत्थाम ने शल्य का नाम सूचित किया। वह सबको पसंद आ गया। तब दुर्योधन ने शल्य को सेनापति पद का अभिषेक किया।
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धृतराष्ट्र ने प्रश्न किया- संजय! कर्ण की मृत्यु जब हुई तब दोनों तरफ कितना सैन्य शेष था? संजय ने बताया कौरवों के पक्ष में ग्यारह हजार रथ (11,000), दस हजार हाथी (10,000), दो लाख घोडे (2,00,000) और तीन करोड पदाति सैन्य (3,00,00,000) था, तो पाण्डवों के पक्ष में छह हजार रथ (6,000) छह हजार हाथी (6,000), दस हजार घोडे (10,000) और दो करोड़ पदाति सैन्य (2,00,00,000) था। 18) अठारहवें दिन सबेरे युद्ध शुरु हुआ। उस युद्ध में नकुल के हाथों कर्ण पुत्र चित्रसेन का वध हुआ। वह देख कर कर्ण के दूसरे दो पुत्र, सुषेण और सत्यसेन नकुल पर दौडे। नकुल ने उनका भी जब नाश किया। तब कौरव सेना भयभीत होकर भागने लगी। उनका धैर्य बढ़ाने के हेतु शल्य पाण्डवों से युद्ध करने लगा। उसने पाण्डवसेना की बहुत हानि की और धर्मराज पर बाणों की वर्षा की। तब भीम को बडा क्रोध आया। उसने अपनी गदा चला कर शल्य के रथ के घोडे मारे, सारथी को मार गिराया। सारथी के गिरतेही शल्य भाग गया। भीमसेन गदा घुमाकर युद्ध के लिये शल्य को ललकारने लगा तब दुर्योधनादि कौरवसेना ने भीम पर हमला चढाया। भीम की सहायता में पाण्डव सैन्य के आते ही जो युद्ध हुआ, उसमें दुर्योधन ने पाण्डवों की तरफ से युद्ध करने वाले चेकितान नामक यादव का वध किया।
शल्य ने लौट कर धर्मराज पर तीखे तीर छोडे। तब धर्मराज ने अपने पार्श्ववर्तियों से कहा कि शल्य का काम मेरे हिस्से का है। मै उसका सामना करके उसे नष्ट करूंगा। मेरा रथ सभी शस्त्रास्त्रों से तैयार रखिए। मेरे रथ के बाई ओर धृष्टद्युम्न, दाहिने सात्यकि, पीछे अर्जुन, आगे भीम के रहने पर मै शल्य को जीत सकूँगा। इस तरह की व्यवस्था करके धर्मराज
और शल्य एक दूसरे पर तीर चलाने लगे। धर्मराज ने शल्य के रथ के घोडों और ध्वज को गिराया, तब अश्वत्थामा शल्य को अपने रथ पर सहारा देकर दूर हट गया। कुछ देर बाद दूसरे रथ पर सवार होकर शल्य धर्मराज के साथ लडने फिर से आ गया। उन दोनों का युद्ध चल रहा था तब धर्मराज ने शक्ति नामक शस्त्रों से शल्यका नाश किया। उस समय दुर्योधन के रोकने पर शल्य की सेना के सात सौ रथी पाण्डव सेना पर चढ गये। भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव ने उन सबको परास्त किया। तब कौरवों की सेना भय से भाग जाने लगी। उनको धैर्य दिलाने के लिए जब दुर्योधन के प्रभावी भाषण से सेना फिर युद्ध के लिए कटिबद्ध हो गयी। उनमें से म्लेच्छों का राजा शाल्व मस्त हाथी पर सवार होकर आगे बढा। तब धृष्टद्युम्न ने उस हाथी को गदाघात से ढेर किया और सात्यकि ने एक ही तीर में शाल्व को नष्ट किया। फिरसे कौरवों की सेना में भगदड मच गई। सेना को बड़े कष्ट के साथ लौटा लेकर दुर्योधन युद्ध करने लगा। तब धृष्टद्युम्न ने उसके रथ के घोडों और सारथी को नष्ट किया। उस पर दुर्योधन एक घोड़े पर सवार होकर शकुनि की ओर भाग गया। उसके पीछे पीछे अश्वत्थामा, कृपाचार्य और कृतवर्मा भी गए।
दुर्योधन के भाग जाने पर उसके भाई भीमसेन पर टूट पडे। भीम ने उन सबका नाश तो किया ही, साथ साथ हजारों रथों तथा बहुत सारी सेना को ध्वस्त दिया। अब दुर्योधन और उसका भाई सुदर्शन दो ही घुडसवार सेना के बीच रह गये। उस सेना का नाश करने के लिए भीम, अर्जुन और सहदेव तीनों वहाँ पहुँच गये। तब सुदर्शन भीम से और त्रिगर्त देश का राजा सुशर्मा और शकुनि अर्जुन से युद्ध करने लगे। अर्जुन ने अपने बाणों से सत्यकर्मा सत्येषु और सुशर्मा का तथा उनकी सेना का नाश किया, और भीम ने सुदर्शन का वध किया। जब शकुनि और उसका पुत्र उलुक सहदेव पर दौडे। तब सहदेव ने पहले उलुक को और पश्चात् शकुनि को परलोक पहुंचा दिया। अनन्तर बचे सभी सैनिकों को दुर्योधन ने आज्ञा दी कि, “पाण्डवों का नाश करके ही मुंह दिखाओ। "उस आज्ञा के अनुसार वह सब सेना पाण्डव सेना पर दौड चढ गई। लेकिन वह सब पान्डवों की सेना द्वारा मारी गई।
धृतराष्ट्र ने पूछा, "कौरवों का पूरा सैन्य जब नष्ट हुआ तब पाण्डवों की तरफ कितनी सेना बची थी।" ....
संजय ने बताया, "दो हजार (2,000) रथ, सात सौ (700) हाथी, पांच हजार (5,000) घुड़सवार और दस हजार (10,000) पदाति, इतना सैन्य पाण्डवों के पक्ष में शेष बचा था। दुर्योधन का घोडा जब युद्ध में गिर पडा तब दुर्योधन हाथ में गदा लेकर अकेला ही चल पडा। उसी समय धृष्टद्युम्न के कहने पर मुझे मारा जा रहा था, पर व्यास महर्षि के वहां पहुंचते ही और कहने पर उसने मुझे जिन्दा छोड दिया। मै शस्त्रत्याग करके जब हस्तिनापुर जा रहा था, एक कोस की दूरी पर मुझे दुर्योधन मिला। उसने बड़े ही दुःख के साथ कहा, "धृतराष्ट्र से जाकर कह दो कि आपका पुत्र दुर्योधन हृद् में घूस पडा है।" इतना कहकर वह सरोवर में घुस पडा और मंत्र के बल पर तल में पहुंच कर चुप बैठा। उसके जाने पर कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा, तीनों उसकी तलाश करते हुए वहां पहुंच गए। मैने उन्हें दुर्योधन के जीवित होने का और हद में जा छिपें बैठने का वृत्त सुनाया। इतने में यह देखकर कि पाण्डव उसकी खोज में वहां पहुंचे उन्होने मुझे रथ पर बिठा लिया
और हम शिबिर पहुंच गए। पूरी सेना के विध्वंस की वार्ता शिबिर में सुन कर सभी स्त्रियां भीषण आक्रोश करने लगी। दुर्योधन के मंत्री उन स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर की ओर चल पडे। तब धर्मराज की आज्ञा लेकर युयुत्सु उनके साथ गया।
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10 गदापर्व शिबिर में प्रवेश करने पर अश्वत्थामादि तीनों को वहां रहना असह्य हो गया। वे उस हद की ओर जाने प्रवृत्त हुए। इधर पाण्डवों ने दुर्योधन की खूब खोज की, लेकिन कुछ भी पता न चलने पर निराश होकर अपने शिबिर को लौट आए। उनके शिबिर को लौट आने पर ये तीनों उस हद के पास पहुंच गए। वे तीनों दुर्योधन के साथ बातें कर रहे थे तब कुछ व्याध वहां पहुंच गए। दुर्योधन उस हद में छिपा है यह बात उन्होंने पांडवों को बताई। उस पर धर्मराजादि सभी जयघोष के साथ दुर्योधन को नष्ट करने के हेतु वहां पहुंचने चल पडे। वह जयघोष दूर ही से सुनाई देने पर, वे तीनों दूर जाकर एक बरगद के पेड के नीचे बैठ गए।
उन तीनों के निवृत्त होने पर पांडव वहीं पहुंच गए। श्रीकृष्ण के कहने पर धर्मराज ने दुर्योधन की बहुत ही निर्भत्सना की। तब वह क्रुद्ध होकर पानी के बाहर आ गया। धर्मराज के कवच और शिरस्त्राण देने पर हाथ में गदा लेकर दुर्योधन भीम के साथ युद्ध करने तैयार हुआ। इतने में बलराम अपनी तीर्थयात्रा समाप्त करके संयोग से वहां पहुंच गये। उनके कहने पर वे सारे लोग कुरुक्षेत्र पहुंच गये, और वहां उन दोनों (भीमसेन व दुर्योधन) के बीच गदायुद्ध हुआ। कोई भी हारता जीतता दिखाई नहीं देने लगा, तब अर्जुन के पूछने पर श्रीकृष्ण ने बताया, "भीम शक्तिमान् है सही, लेकिन गदायुद्ध के अभ्यास तथा कौशल में, दुर्योधन चढ़ा बढ़ा है। बिना युक्ति किये, भीम का विजय होना असंभव है। भीम ने दुर्योधन की जांध तोडने की प्रतिज्ञा की ही है। उसके अनुसार भीम चलता है तो ही दुर्योधन को जीतने की संभावना है।" यह सुन कर अर्जुन ने अपनी जांघ पर थपकी देकर इशारे से भीम को सूचित किया। इशारा पाकर भीम झट समझ गया और युद्ध के होते होते भीम ने अकस्मात् अपनी गदा दुर्योधन की बाई जांघपर चलाई उसी क्षण दुर्योधन जमीन पर गिर पड़ा। उसके नीचे गिरते ही "तूने हमारी भरी सभा में गौःगौः कहकर खिल्ली उडाई। अब भोग ले अपने उसी कर्म का फल" इतना कह कर भीम ने उसके माथे पर एक लाथ जमायी। उससे धर्मराज को बहुत ही दुःख हुआ और बलराम तो हल उठा कर भीम को मारने दौड़े। उस पर श्रीकृष्ण ने उनको ज्यों त्यों करके समझाबुझा दिया। तब वे गुस्से में ही द्वारका की ओर चले गए।
अनन्तर दुर्योधन श्रीकृष्ण से बोला, "तू बडा ही दुष्ट है। भीष्म, द्रोण, कर्ण, भूरिश्रवा आदि वीरों की अन्याय पूर्ण हत्या की जड़ तू ही है। मै जब भीम के साथ युद्ध कर रहा था, तब अर्जुन के द्वारा भीम को इशारों से बाई जांघ पर गदा चलाने की सूचना तूने की। इस प्रकार का अन्याय करने में तुझे शर्म आनी चाहिए थी। तेरे अन्याय के कारण ही हमारी हार हो गई।" दुर्योधन का वह भाषण सुन कर श्रीकृष्ण ने कहा, "तूने अपने पातकों के कारण ही मौत पाई, उसका दोष मुझ पर मत मढ। भीम को जहर खिलाना, पाण्डवों को लाक्षागृह में जलाने का षडयंत्र रचना, भरी सभा में रजस्वला महासती द्रौपदी की विडंबना करना, अभिमन्यु को अनेकों द्वारा मिल कर मारना आदि बहुत से अन्याय तू न करता, पाण्डवों को उनका राज्य पहले ही दे देता तो भीष्म, द्रोण आदि महावीरों का और तेरा भी नाश नहीं होता। हमारे अन्याय तेरे अन्यायों की प्रतिक्रिया ही थे। इसी लिए हमें दोषी न ठहरा अपने किये पापों के तू फल भोग रहा है।"
उसके बाद श्रीकृष्ण के साथ सभी शिबिर को लौट आये। श्रीकृष्ण ने अर्जुन को रथ से पहले नीचे उतरने के लिए कहा और आप पीछे से उतरे। तब अपना उदिष्ट समाप्त समझ कर हनुमान् भी वहां से चले गए। श्रीकृष्ण के उतरते ही अर्जुन का रथ जल कर भस्मसात् हो गया। उस अचंभे को देखकर अर्जुन ने उसका कारण पूछा। तब श्रीकृष्ण ने बताया, "मै सारथी के नाते रथ पर होने के कारण और तेरा काम पूरा न हो पाने पर तेरा रथ अब तक नहीं जला, पर अब तेरा काम पूरा हुआ है। मुझे भी अब तेरे सारथी के रूप में उस रथ पर बैठने की आवश्यकता नहीं है। युद्ध में भीष्म, द्रोणादिकों के चलाए दिव्य अस्त्रों के कारण तेरा रथ जल कर खाक हो गया है।
उसके बाद पांडव सेना कौरवों के शिबिर में घुस पड़ी। उसे वहां चांदी, सोना, हीरे, मानिक, दास-दासी आदि बहुत कुछ मिला। श्रीकृष्ण ने पांडवों और सात्यकि से कहा कि अब हम आज की रात शिबिर के बाहर बिताएं। तद्नुसार वे सब
ओघवती नदी के तट पर रातभर के विश्राम के लिए चले गये। वहां जाने पर धर्मराज के मन में इस बात की चिंता उठी कि महापतिव्रता गांधारी क्रोधवश शायद हमें शाप देकर भस्म तो नहीं करेंगी। इसलिए उन्होंने श्रीकृष्ण को गांधारी के पास
भेजा। श्रीकृष्ण ने धृतराष्ट्र और गांधारी के पास जाकर बहुत ही युक्तिपूर्वक भाषण से उन्हे समझाया तथा शांत किया और फिर से वे पांडवों की तरफ लौट आए।
कृपाचार्यादि तीनों को लोगों द्वारा जब यह समाचार मिला कि दुर्योधन गदायुद्ध में आहत हुआ है, तब वे दुर्योधन के पास पहुंच गये। ग्यारह अक्षौहिणी सेना के स्वामी दुर्योधन को वहां धूल फांकते देखा, तब उन्होंने बहुत ही शोक किया। अश्वत्थामा ने तो यहां तक कहा कि प्रत्यक्ष मेरे पिताजी की मृत्यु से भी, राजन् तेरी इस विपन्न अवस्था का मुझे भारी दुःख हो रहा है। मै प्रतिज्ञा करता हैं कि आज किसी न किसी उपाय से पांडव सेना का विध्वंस करूंगा। इसके लिए तेरी स्वीकृति
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चाहिए। यह सुन कर दुर्योधन को बड़ा आनन्द हुआ और कृपाचार्य के हाथों अश्वत्थामा को उन्होंने सेनापतित्व का अभिषेक किया। अभिषेक के अनन्तर दुर्योधन से विदा लेकर वे तीनों वहां से चल दिये और दुर्योधन रातभर वही अपने हाथों अतीव कष्ट से अंगों को नोचनेवाले गिद्धों को हटाते लहूलुहान पड़ा रहा।
11 सौप्तिक पर्व कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा तीनों दुर्योधन से बिदा होकर एक जंगल में चले गये। वहां किसी पेड के नीचे रथ छोड़ कर संध्या वंदन के बाद वहीं जमीन पर सो गये। दोनों को भारी परिश्रम के कारण नींद अच्छी आयी, पर अश्वत्थामा क्रोध तथा दुःख के मारे नहीं सो सका।।
रात के बढ़ने पर अश्वत्थामा को दिखायी दिया कि उस बरगद के पेड पर सोए कौओं को एक उल्लू आकर मार रहा है। वह दृश्य देखकर उल्लू ने मानो गुरूपदेश ही दिया समझ कर अश्वत्थामा ने अपने दोनों मित्रों को जगाया और अपना विचार बताया, कि क्यों न सोए पांडव सैन्य का विध्वंस किया जाय। उस पर वह अनुचित है, अधर्म है, उससे तेरी चारों
ओर निंदा होगी, आदि आदि कृपाचार्य ने समझा दिया पर जब अश्वत्थामा अपने उस उद्दिष्ट की पूर्ति के लिए पांडव शिबिरों को जाने रथ पर जा बैठा तब वे दोनों भी उसके साथ लिए।
पाण्डवों के शिबिरद्वार पर पहुंचने पर अश्वस्तथामा ने कहा, "तुम दोनों दरवाजे पर रह कर भीतर से बाहर भाग आने वालों को नष्ट करते रहो। मै भीतर जाकर सोते हुए लोगों का नाश करता हूं।" इतना कहकर वह पहले धृष्टद्युम्न के पास पहुंचा और लातों से उसे रौंदने लगा। धृष्टद्युम्न उठने की कोशिश करने लगा। तब अश्वत्थामा ने उसे दोनों हाथों से पकडा
और उठा कर जमीन पर पटक दिया, और जिस प्रकार बिना शस्त्र के पशु की हत्या कर देते है; उसी प्रकार उसने धृष्टद्युम्न की हत्या की। उसके बाद शिखंडी, द्रौपदी के पुत्र आदि जो भी वहां थे उन सबका नाश अश्वत्थामा ने किया। जो भाग जाने के इरादे से शिबिर के दरवाजे पर पहुंचे उनका नाश वहां कृपाचार्य और कृतवर्मा ने किया। सबका नाश करने; पर बडी ही प्रसन्नता से वे तीनों दुर्योधन के पास आए, और उन्होंने वह सारा वृत्तांत उसे सुनाया। वह सब सुनकर उस बुरी हालत में भी उसे बडा हर्ष हुआ और थोडे ही समय में उसके प्राण उड गये। संजय धृतराष्ट्र को कहता है, “धृतराष्ट्र राजा! तुम्हारी दुष्ट मंत्रणा से, अन्यायपूर्ण व्यवहार से और घोर अपराध से ही इस तरह से कौरवों और दुर्योधन की मृत्यु के अनन्तर व्यासजी की कृपादृष्टि से प्राप्त मेरी दिव्य दृष्टि लुप्त हो गयी है।
वैशंपायन जगमेजय राजा से बोले, "राजा, दूसरे दिन प्रातःकाल धृष्टद्युम्न का सारथी धर्मराज के पास आकर बताने लगा, "शिबिर की सारी सेना को कृपाचार्य, कृतवर्मा और अश्वत्थामा तीनों ने मार डाला। मै कृतवर्मा के पंजों से ज्यों त्यों करके बच गया हूं।" वह वृत्त सुनकर धर्मराजन कुछ देर शोक करते रहे। द्रौपदी के लिए नकुल को बुला भेजा और वे खुद सबके साथ शिबिर में पहुंचे। कुछ देर बाद द्रौपदी भी वहां पहुंची। पुत्रों की मृत्यु से उसे अतीव दुःख हुआ। दुःख के आवेग में द्रौपदी बोली, "मेरे पुत्रों को घात करने वाला अश्वत्थामा जब तक जीवित है तब तक मै बिना कुछ खाए पिए यहीं बैठी रहंगी। इतना कह कर वह वहीं बैठी। उस पर धर्मराज ने उससे पूछा, “अश्वत्थामा तो भाग गया है, उसको युद्ध में जीत भी लिया तो तुझ पर कैसे प्रकट होगा और तू उसका विश्वास कैसे कर सकेगी?" द्रौपदी ने बताया, "अश्वत्थामा के माथे पर जन्म से ही एक मणि है। वह मणि तुम्हारे माथे पर बिराजते देखूगी तभी मै जीवित वह सकूँगी, अन्यथा नहीं।" ।
वह सुनकर भीम रथ पर सवार होकर अश्वत्थामा का नाश करने चल पडा। नकुल उसका सारथी बना। भीम को चल पडते देख श्रीकृष्ण धर्मराज से बोले, "भीम को अकेले जाने देना उचित नहीं क्यों कि अश्वत्थामा जितना शस्त्रास्त्रवेत्ता है उतना ही दुष्ट भी है। उसकी दुष्टता की एक कहानी सुनाता हूँ, “अश्वत्थामा ने जब यह सुना कि द्रोणाचार्य ने अर्जुन को ब्रह्मास्त्र सिखाया है तब एकान्त में द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र मांगने लगा। द्रोणाचार्य ने उसकी अधमता देख कर उसे वह अस्त्र नहीं सिखाया। लेकिन वह जब बहुत ही गिड़गिड़ाया, तब उन्होंने वह अस्त्र उसे सिखा दिया, और बताया कि यह अस्त्र मानवों पर नहीं चलाना चाहिए। यही इसका नियम है। लेकिन तू अधम होने के कारण इस नियम का पालन तुझसे नहीं होगा। ब्रह्मास्त्र प्राप्ति के बाद एक बार अश्वत्थामा द्वारका पहुंचा। यादवों ने बडी आवभगत के साथ उसे रखवा लिया। एक दिन वह मेरे पास पहुंचा और मेरा सुदर्शन चक्र मांगने लगा। मैने उससे कहा, हां, कोई बात नहीं, उठा ले जा चक्र, "लेकिन वह उसे उठा न सका। तब वह बहुत ही शरमिन्दा हुआ। बाद में मैने उससे पूछा, “तूने मेरा चक्र क्यों चाहा? क्या करने जा रहा था तू? तब वह बोला "मै ब्रह्मास्त्र से अन्यों को जीत सकता था। लेकिन तुम्हें जीतने का कोई साधन मेरे पास नहीं था। तुमसे चक्र लेकर उसीसे तुम्हें जीतने का मेरा विचार था।" कुछ दिनों बाद वह द्वारका से चला गया। धर्मराज, यह है अश्वस्थामा की अधमता। इसलिए भीम का अकेले जाना इष्ट नहीं है।" इतना कह कर श्रीकृष्ण खुद रथ पर सवार हो गए। धर्मराज और अर्जन उसी रथ पर साथ चल पड़े।
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धत्थामा ने अपना का मणि पांडवा अपना अस्त्र समेट युद्ध होता है, अत्र
भीमसेन गंगा के किनारे व्यास महर्षि के आश्रम पर पहुंचा। भीम को यह समाचार मिला था कि वह दुष्ट नराधम, अश्वात्थामा वहीं है। भीम के पीछे पीछे श्रीकृष्ण का भी रथ वहां धमका। वह सब देखकर कि अब छुटकारा नहीं है, भयभीत होकर पाण्डवों के विध्वंस के लिए अश्वत्थामा ने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। तब श्रीकृष्ण के कहने पर पांडवों की तथा सबकी रक्षा के लिए अर्जुन ने भी ब्रह्मास्त्र का प्रयोग किया। दोनों अस्त्र टकराकर सर्वनाश का समय आ गया, तब व्यास महर्षि और देवर्षि नारद ने बीच बचाव करके दोनों को अपने अपने अस्त्र समेट लेने के लिए कहा। तद्नुसार अर्जुन ने तुरन्त अपने अस्त्र को समेट लिया, लेकिन अश्वत्थामा को उसे समेटना मुश्किल हो गया। तब ऋषि बोले जहां ब्रह्मास्त्रों से युद्ध होता है, उस जगह पर बारह वर्ष वर्षा नहीं होती और अकाल पड़ता है। हमारे कहने पर अर्जुन ने अपना अस्त्र समेट लिया है। तू अगर अपना अस्त्र समेट लेने में आपको असमर्थ पाता है तो तू माथे पर का मणि पांडवों को दे दे और अस्त्र को पांडवों पर प्रयुक्त न कर, तभी तू जिन्दा रह सकेगा। उस पर अश्वत्थामा ने अपना अस्त्र उत्तरा के गर्भ पर प्रयुक्त किया।
वह देख कर श्रीकृष्ण उससे बोले “उत्तरा के गर्भ को तो मै जीवित रख ही लूंगा, पर गर्भहत्या (भ्रूणहत्या) करने वाले तुझ महादुष्ट और पातकी को अपने पाप का फल इसी जन्म में भुगतना पडेगा। तीन हजार (3,000) साल तक तेरे शरीर से पूयमिश्रित खून बहता रहेगा। उस दुर्गंध को सहते जंगल में तुझ अकेले को भटकते रहना पडेगा। तुझे कोई भी पहचान नहीं सकेगा।" वह सुनकर बडे दुःख के साथ पांडवों को अपना मणि सौंप कर अश्वत्थामा जंगल चला गया।
अनन्तर पांडव मणि प्राप्त करके अपने शिबिर लौट आये। द्रौपदीकी इच्छा के अनुसार उस मणि को धर्मराज ने अपने माथे धारण किया। तब द्रौपदी, जो प्राण त्यागके निश्चय से धरना देकर बैठी थी, बड़ी प्रसन्न हुई।
12 शान्ति पर्व वैशम्पायन जनमेजय राजा को सुनाने लगे : युद्ध में मृत लोगों के नाम तर्पण करने के बाद गंगा के बाहर आकर धर्मराज वहीं एक महिना रहे। एक बार उनका क्षेमकुशल पूछने जब अनेक ऋषि वहाँ पधारे तब धर्मराजा ने अंतरंग का दुःख प्रकट किया। धर्मराज ने कहा, “मेरे हाथों जातिवध का भारी पातक तो हुआ ही है, लेकिन हमारे सगे बड़े भाई कर्ण का वध हमारे हाथों हुआ, इसी का मुझे बहुत ही दुःख है। कौरव सभा में कर्ण ने हमें कैसी भी कड़ी बातें क्यों न सुनाई, तब भी उसके चरणों की तरफ देखते ही मेरा क्रोध शांत हो जाता था। उसके पांव कुन्ती के पांवो जैसे दीखते थे। लेकिन वह ऐसा क्यों, कुछ समझ में नही आता था। उसकी मृत्यु हो जाने पर वह बात मेरी समझ में आ गई। अब उसको किसका शाप था और अंत में उसके रथ का पहिया धरती ने क्यों निगल लिया वह कृपा कर बताएं।
नारद ऋषि बोले, "क्षत्रिय, युद्ध में प्राणार्पण करके स्वर्ग लोक में पहुंच जाये, इसलिये देवों ने वह पुत्र 'कन्या' से उत्पन्न किया था। उसी से आपस का वैरभाव बढा। उस कर्ण ने द्रोणाचार्य के पास धनुर्विद्या की शिक्षा ग्रहण की। आगे अर्जुन को प्रबल जान कर एक बार कर्ण ने द्रोणाचार्य से ब्रह्मास्त्र सीखने की प्रार्थना की। द्रोणाचार्य ने बताया कि ब्राह्मणों या क्षत्रियों को ही ब्रह्मास्त्र सीखने का अधिकार है। उसपर कर्ण महेंद्र पर्वत पर परशुराम के पास चला गया। अपने को ब्राह्मण (भार्गव गोत्र का) बतलाकर उसने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सीख लिया। एक बार कर्ण ने किसी ब्राह्मण की गाय अनजाने मारी। तब उस ब्राह्मण ने कर्ण को शाप दे दिया, "जिससे तू स्पर्धा कर रहा है जिसे मारने के लिए बड़ा भारी व्यूह रचा है, उससे युद्ध करते समय तेरे रथ का चक्र धरती निगल लेगी और वह भी तुझे ऐसे ही मार डालेगा।
एक बार परशुराम कर्ण के अंक पर माथा टेककर जब सो रहे थे तब एक कीडे ने कर्ण की जांघ को नीचे से कतरा, लेकिन कर्ण ने जांघ नही हिलाई। जांघ के गरम खून का स्पर्श परशुराम के शरीर में हुआ तब वे जाग पड़े। उन्हें एक कीड़ा दिखाई दिया। पहले कृतयुग में वह दंश नाम का राक्षस था। उसने भृगुऋषि की पत्नी का अपहरण किया इसलिये उस ऋषि के शाप से वह कीड़ा बन गया। उसके चले जाने पर परशुराम कर्ण से बोले, “इतना भारी दुःख ब्राह्मण सह नहीं सकता। तू ब्राह्मण नहीं है। अब सच सच बता तू यथार्थ में कौन है? तब, इस डर से कि परशुराम शाप दे देंगे (और अपनी विद्या भी लोप ही जाएगी) कर्ण ने बताया, "मै ब्राह्मण नहीं हूँ, क्षत्रिय भी नहीं हूं, बल्कि सूत हूं। केवल ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सीखने के लिए ही आपको मैं भार्गव गोत्री हूं बताया। वह सुन कर परशुराम क्रोध के मारे आग बबूला होकर बोले, "मुझे धोखा देकर तूने ब्रह्मास्त्र का प्रयोग सीखा, परंतु अंत समय में इस अस्त्र के मंत्र याद नहीं आएंगे। हट जा यहां से। तुझ जैसे झूठे आदमी को यहां एक क्षण भी रहना नहीं चाहिये। उसके बाद कर्ण वहां से चल दिया। ब्रह्मास्त्र और साथ में दो भयानक शापों को प्राप्त कर कर्ण लौट गया।"
एक बार कलिंग देश के राजा चित्रांगद की कन्या का स्वयंवर था। उसमें देश-देश के राजा इकठ्ठा हुए थे। लेकिन दुर्योधन ने उस कन्या का अपहरण किया। उस समय जो युद्ध छिड़ा, उसमें कर्ण ने दुर्योधन के लिए पराक्रम दिखा कर सभी
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राजाओं को परास्त किया। उसका पराक्रम सुन कर जरासंघ उसका मित्र बन गया। आगे चल कर इन्द्र ने तुम्हारे हित के लिए उसके कवच-कुंडल (जो जन्मतः उसे मिले थे) मांग, लिए। इस तरह से कर्ण बड़ा बहादुर होने पर भी परिस्थिति से (शापादि से) पीड़ित था, और इसी लिए अर्जुन के हाथों उसका वध हुआ। लेकिन युद्ध में मृत्यु आने के कारण उसे सद्गति ही प्राप्त हुई है। इस लिए हे धर्मराज! उसके लिए शोक करना व्यर्थ है।
नारद ऋषि का वह भाषण सुनने पर भी धर्मराज का शोक शांत नहीं हुआ। वे फिर से वन चले जाने की और तपश्चर्या करने की बातें करने लगे। उस समय अर्जुन, भीमसेन, द्रौपदी, व्यास महर्षि और श्रीकृष्ण ने उन्हे तरह तरह समझा बुझाने का प्रयत्न किया। व्यास महर्षि बोले "वन में रह कर तप करना ब्राह्मण का काम है। क्षत्रियों का मुख्य कर्तव्य राज्य करना ही है। राजा अधर्म करने वाले को दंड देता है। अतः लोक धर्म पर चलते है, उसी से राजा को सद्गति प्राप्त होती है।
सुद्युम्न राजा के राज्य में दो ऋषि, शंख और लिखित रहते थे। एक बार लिखित ने अपने आश्रम के फल अनुमति लिए बिना खा लिये। तब शंख ने उससे कहा, "तूने चोरी की है, उस पातक का दंड भुगत कर फिर यहां चला आ।" लिखित सुद्युम्न राजा के पास चला गया। सुद्युम्न राजा ने उसके दोनों हात कटवा डालें। लिखित अपने बड़े भाई के यहां याने शंख के यहां लौट आया- और क्षमा मांगने लगा। तब शंख ने कहा, "मै तुझ पर गुस्सा नहीं हूं। किये पातकों का प्रायश्चित भोगना आवश्यक, इसलिए मैने तुझे राजा के पास जाने के लिए कहा। अब तू इस नदी में स्नान कर। तद्नुसार स्नान करते ही लिखित के हाथ पहले जैसे चंगे हो गए। उस दिन से वह नदी बाहुदा (बाहु-हाथ, दा-देनेवाली) कहलाने लगी। उस पर लिखित ने पूछा, तो फिर तुम्हीं ने मुझे दंड क्यों नही दिया? शंख ने बताया अपराधी को दंड देना राजा का कर्तव्य है, इसलिये मैने तुझे सुद्युम्न राजा के पास पहुंचाया।
व्यास ऋषि, कहते हैं, वह सुद्युम्न राजा क्षत्रियोचित धर्माचरण से परमधाम पहुंच गया। तू भी उसका अनुकरण करके धर्मानुकूल राज्य चला।
अनन्तर व्यास महर्षि पुनः बोले, "देव-दैत्य भाई-भाई होने पर दैत्य अधर्म करने वाले, इसलिए देवों ने उनका नाश तो किया ही, पर जिन शालावृक नाम के अठासी हजार (88,000) ब्राह्मणों ने उनका पक्ष लिया था उनका भी नाश किया। कौरव अधार्मिक थे। उनका नाश करने से तुझे पाप नहीं लगा है। इतना होने पर भी अगर तुझे पाप की शंका हो तो उससे सभी पापों का नाश हो जाएगा।" उसपर धर्मराज ने कहा “मुझे पूरा राजधर्म सुनने की इच्छा है।" व्यास ऋषि ने बताया उसके लिए तू भीष्म पितामह के पास जाकर उनसे प्रार्थना कर। धर्मराजने कहा, "मैने ही उनको मारा है, और अब मै उसके पास कैसे जाऊँ"? कहकर वे बहुत ही शोक करने लगे। तब श्रीकृष्ण ने कहा, "धर्मराज, धर्म की वृद्धि हो, अधर्म का नाश हो, और उससे सबका कल्याण हो एतदर्थ तू अपना वंशपरंपरागत राज्य चला। अब अधिक आग्रह मत कर।" वह सुन कर सबके साथ धर्मराज हस्तिनापुर लौट आये। हस्तिनापुर पहुंचने पर ब्राह्मण जब आशीर्वाद दे रहे थे तब चार्वाक नामका एक राक्षस धर्मराज से कहने लगा, “ये सभी ब्राह्मण कहते हैं कि तुझ जैसा निजी जाति का नाश करने वाला राजा हम नहीं चाहते हैं। धिक्कार है तुझे। अरे गुरु-हत्या करके जीवित रहने की अपेक्षा तू मर जाता तो अच्छा होता।" यह सुन कर धर्मराज सभी ब्राह्मणों से प्रार्थना करके बोले, "एक तो में पहले से ही दुःखी हूं। मेरा धिक्कार क्यों कर रहे है आप? यह दुष्ट राक्षस दुर्योधन का मित्र है। इसके कहने पर तुम ध्यान मत दो। तुम्हारा कल्याण हो।" इतना कहकर उन ब्राह्मणों ने अपने तप-तेज से उस चार्वाक राक्षस को नष्ट कर दिया।
उसके बाद राज्याभिषेक की सब सिद्धता हो जाने पर धौम्य ऋषि ने होमहवन किया और श्रीकृष्ण ने रत्नमय सुवर्ण सिंहासन पर द्रौपदी के साथ बैठ धर्मराज को अभिषेक किया। मंगलवाद्य बजने लगे। सभी प्रजाजनों ने अपने-अपने उपहार धर्मराज को अर्पित किए, श्रीकृष्ण की स्तुति की और सबके आभार माने। इस तरह से ठाट-बाट के साथ समारोह संपन्न होकर राज्याभिषेक का कार्यक्रम विधिवत् पूर्ण हो गया । सभी धन्य-धन्य कहने लगे। धर्मराज के शासन में सभी सानन्द दिन बिताने लगे।
एक दिन धर्मराज श्रीकृष्ण के पास गये। तब उन्हें, श्रीकृष्ण को ध्यानस्थ बैठे देख कर बड़ा अचरज हुआ। उन्होंने श्रीकृष्ण से प्रश्न किया कि भगवन्, सभी लोग तुम्हारा ध्यान करते हैं, पर तुम किसका ध्यान कर रहे थे। उस पर श्रीकृष्ण ने कहा, “मेरे एकनिष्ठ भक्त भीष्म शरशय्यापर मेरा ध्यान कर रहे हैं, इस लिए मेरा पूरा ध्यान उन्हीं की ओर लगा हुआ था। सचमुच भीष्म पितामह जैसा परमज्ञानी फिर कभी नहीं दिखाई देगा। इसलिये अब तू उनके पास चला जा और अपनी सारी शंकाकुशंकाओं का निरसन करा ले। उसी में तेरे मन को संतोष प्राप्त होगा।
तद्नुसार सभी पांडव, श्रीकृष्ण आदि लोग भीष्म के पास चले गए। भीष्म पितामह को प्रणाम करने पर श्रीकृष्ण ने भीष्म से कहा, "आपका शरीर मन आदि समर्थ हैं न? आप जैसा सर्वज्ञ इस युग में कोई भी नहीं है, कृपया धर्मराज के शंका-संदेहों को निरस्त कर दीजिए। उस पर भीष्म पितामह बोले, “भगवन्, तुम्हारी कृपा से ही मैं यहा जीवित हूं। अन्यथा
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मेरा शरीर वेदनाओं से पीड़ित है। मन और बुद्धि में स्थिरता नहीं, जीभ लडखडा रही है। इस अवस्था मैं क्या उपदेश दे सकता हूं। इसलिये, मुझे क्षमा हो। सभी ज्ञानी लोगों के गुरु आप ही हैं अतः आप ही धर्मराज को समुचित उपदेश दीजिए।" यह सुन कर श्रीकृष्ण संतुष्ट हो गए और उन्होंने भीष्म पितामह को वर-प्रदान किया, "तुम्हें वेदनाएं अब नहीं होगी, भूख प्यास नहीं सताएंगी मन बुद्धि में स्थिरता आ जाएगी और सब ज्ञान स्फुरित होगा।" श्रीकृष्ण के वर देने पर व्यास आदि ऋषियों ने भगवान् श्रीकृष्ण की पूजा की। उसी क्षण आकाशस्थ देवताओं ने पुष्पों की वर्षा की।
उसके अनुसार दूसरे दिन नित्य-नैमित्तिक उपासना पूरी करके सभी भीष्म के पास पहुंचे। श्रीकृष्ण ने भीष्म से पूछा, "अब पीडाएं तो नहीं हो रही हैं?" भीष्म ने बताया, "भगवन् तुम्हारी कृपा से सब आनंद है। ऐसा लग रहा है की मैं फिर तरुण बन गया हूं और उपदेश देने की सामर्थ्य भी आ गयी है। लेकिन एक बात पूछनी है। धर्मराज को आप ही स्वयं उपदेश क्यों नहीं दे रहे हैं? श्रीकृष्ण ने कहा की मैं उपदेश दूं तो लोगों पर कुछ विशेष प्रभाव नहीं पड़ेगा; लेकिन आप उपदेश दोगे तो सब लोग आपका नाम आदरपूर्वक लेते रहेंगे। आपको वरप्रदान इसी लिये किया है। आपके इस उपदेश को वेद-वाक्य के समान पवित्र मानेंगे।
तब भीष्म पितामह ने कहा, "भगवन् आपका कृपा-प्रसाद पाकर मैं अब उपदेश करता हूँ। धर्मराज प्रश्न करते रहें और मैं उसका उत्तर देता जाऊं।" श्रीकृष्ण ने कहा, " धर्मराज को आपके सम्मुख आने में लज्जा तथा ग्लानि हो रही है और उसे डर लगा रहा है कि कहीं आप शाप तो नहीं देंगे। जिनकी पूजा होनी चाहिए उन्हींका वध बाणों से उसने किया, इस लिए वह आपके सामने उपस्थित होने में सकुचा रहा है। उसपर भीष्म पितामह ने धर्मराज से कहा, "इसमें डरने या लज्जित होने का कोई कारण नहीं है। यह तो क्षत्रियों का धर्म ही है। युद्ध में कोई भी विरोध में खडा हो, साक्षात् गुरु भी क्यों न हो, क्षत्रिय को उसका वध कर ही देना चाहिए।" भीष्म के इस भाषण से धर्मराज ने धैर्य से उनके सामने जाकर उनकी वंदना की।
भीष्म ने धर्मराज से कहा, "घबराने की कोई बात नहीं है, स्वस्थ चित्त से नीचे बैठ कर जो पूछना हो सो खुले दिल से पूछो।" धर्मराज ने सबको प्रणाम करके पहले राजधर्म के बारे में पूछा। भीष्म पितामह ने राज-धर्म का कथन संक्षेप में किया और अन्य शंकाओं के बारे में पूछा।
इस तरह से कुछ दिनों तक यह कार्यक्रम जारी रहा। धर्मराज के प्रश्न और भीष्म पितामह के दिये उत्तर अनेक हैं। शान्तिपर्व और अनुशासनपर्व, दोनों पर्व इन्हीं प्रश्नोत्तरों से परिपूर्ण हैं। उनमें से शांति पर्व में राजधर्म, आपद्धर्म और मोक्षधर्म तीन प्रकरण है। उन सबका सारांश यहां देना असंभव है।
13 अनुशासनपर्व अनुशासन पर्व में धर्मराज और भीष्म के बीच जो प्रश्नोत्तर हुए वे "दान-धर्म" नाम से विख्यात है। वे प्रश्नोत्तर बहुसंख्य होने के कारण उनका सारांश भी यहां देना असंभव है। धर्मराज के सभी संशय जब निरस्त हो गये और धर्मराज को हस्तिनापुर जाने की आज्ञा देने का समय आ गया तब भीष्म पितामह ने उससे कहा, “कि अब शोक करना छोड दे। हस्तिनापुर पहुंच कर न्याय-नीति से राज्य का दायित्व संभालो। सबको सुख-समाधान दो। यज्ञ-याग कर लो, और उत्तरायण के लगते ही मेरे पास आओ।" "ठीक है, जो आज्ञा'' कहकर भीष्म पितामह को प्रणाम करके सब लोग धर्मराज के साथ हस्तिनापुर लौट
आये। पचास दिन के बाद सूर्य उत्तर की तरफ झुका। उत्तरायण देख कर सब लोगों के साथ धर्मराज भीष्म पितामह के पास गये। सभी ने भीष्मजी की वंदना की।
पिमामह ने कहा, "आप सब लोग आ गये। बहुत अच्छा हुआ। पूरे अठ्ठावन दिन में यहां पडा हूं। माघ महिने की शुक्ल पक्ष की अष्टमी तिथि आज है। अब उत्तरायण शुरू हो जाने से शरीर त्यागने में कोई बाधा नहीं है।" इतना कहकर धृतराष्ट्र और धर्मराज को उन्होंने अंतिम उपदेश किया। श्रीकृष्ण को वंदन कर शरीर त्यागने की अनुमति मांगी। सबसे "प्रस्थान" कह कर उन्होंने समाधि लगाना प्रारंभ किया। समाधि लगाकर प्राणों को ब्रह्मरंध्र में ले जाते समय शरीर का जो-जो भाग छूटता गया उस-उस भाग के बाण धीरे धीरे निकल पड़ने लगे। अंत में ब्रह्म-रंध्रका भेदन करके जीवात्मा बाहर निकल पड़ा, उस समय एक विशेष प्रकार का तेज, “आकाशमार्ग से ऊपर उठता सबको दिखाई दिया।
भीष्म के शरीर को वस्त्र-प्रावरणों, पुष्प मालाओं एवं सुंगधित द्रव्यों से सजा कर चंदन, कपूर आदि से बनाई चिता पर रख दिया। उसे अग्नि दी। सभी ने तीन उलटी परिक्रमाएं लगाई और गंगा के तटपर आकर भीष्म पितामह के नाम जल-तर्पण किया।
14 अश्वमेधिकपर्व वैशंपायन जनमेजय राजा को आगे बताते हैं :- भीष्म के नाम तर्पण करने के बाद गंगा नदी के बाहर आकर धर्मराजा फिर से शोक करने लगे। तब धृतराष्ट्र, व्यास तथा श्रीकृष्ण ने उन्हें उपदेश दिया और अश्वमेघ यज्ञ करने कहा। धर्मराज के
120 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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बहुत से यादव की कृष्ण द्वारका से हस्तिनापुर आगास्तिनापुर की तरफ लौटने लगा पाडा और गाड़ियों
कहने पर कि यज्ञ करने के लिए पर्याप्त धन नहीं है, व्यासजी ने बताया कि पहले मरुत्त राजा ने हिमालय पहाड पर यज्ञ करके जो धनराशि वहीं छोड दी है, भगवान् शंकर को प्रसन्न करके तुम उस मांग ले आवो और तुम्हारे यज्ञ के लिए वह धन पर्याप्त है। यह सुनकर धर्मराज संतुष्ट हुए।
यह देखकर कि धर्मराज को राज्य प्राप्त हुआ है और पूरा प्रदेश समृद्ध हुआ है, श्रीकृष्ण और अर्जुन को बडाही आनंद हुआ। वे दोनों, एक बार स्थान स्थान के तीर्थ क्षेत्रों को देखते हुए इंद्रप्रस्थ पहुंचे। वहां मयसभा में बड़े आनन्द के साथ काल बिताते उनमें सुख दुख की तथा युद्ध के संबंध में बहुत सी बातें हुई। अनंतर श्रीकृष्ण अर्जुन से बोले, "मुझे अब द्वारकापुरी की याद आ रही है। मेरा यहां का कार्य अब समाप्त हुआ है। यहां से मेरे बिदा लेने की बात तू धर्मराज से कर।" अर्जुन ने कहा, "वह तो ठीक है, लेकिन तुमने पहले जो ज्ञान श्रीगीता के रूप में मुझे कुरुक्षेत्र में सिखाया था, उसे मै भूल गया हूँ। द्वारका जाने से पहले वह ज्ञान मुझे फिर से सिखाओ।" श्रीकृष्ण ने कहा, "अब उस ज्ञानका उपदेश फिर कर सकने में मैं असमर्थ हूं, क्यों कि उस समय योगयुक्त होकर मैने तुझे वह ज्ञान सिखाया था।" बाद में श्रीकृष्ण धर्मराज से बिदा लेकर और अश्वमेघ यज्ञ में आने का अभिवचन देकर सुभद्रा के साथ द्वारका चले गये।
इधर पांडवों ने व्यास महर्षि की सूचना के अनुसार धन लाने के लिए हिमालय की ओर प्रस्थान किया। वहां पहुंचने पर कुबेर तथा रुद्र की पूजा अर्चा करके वहां विविध प्रकार का धन प्राप्त किया। लाखो ऊँटों, हाथियों, घोडों और गाड़ियों पर वे सम्पत्ति लाद लाद कर लाते रहे। इस तरह से धीरे धीरे पांडव हस्तिनापुर की तरफ लौटने लगे। पांडव जिस समय सम्पत्ति लाने चले गये उस समय श्रीकृष्ण द्वारका से हस्तिनापुर आ गये। उनके साथ में सुभद्रा, बलराम, प्रद्युम्न, सात्यकि, कृतवर्मा आदि बहुत से यादव थे। श्रीकृष्ण के हस्तिनापुर में रहते हुए परीक्षित का जन्म हुआ। अश्वत्थामा के ब्रह्मास्त्र का प्रभाव होने के कारण वह अर्भक प्रेतरूप ही था। श्रीकृष्ण ने अपने दिव्य सामर्थ्य से उसे फिर से जीवित किया। उस समय श्रीकृष्ण बोले, "अगर मैने कदापि असत्य भाषण न किया हो, अगर मैने युद्ध में पीठ न दिखाई हो, धर्म और ब्राह्मण अगर मुझे सदैव प्रिय रहे हों, अर्जुन के बारेमें मेरे हृदय में परायेपन की भावना न रही हो, कंस आदि का वध मैने न्यायपूर्वक किया हो, याने वे सारी बातें सत्यपर आधारित हों, तो उसी सत्य के प्रभाव से यह बालक जीवित हो उठे।" इतना कहते ही वह अर्भक जीवित हो उठा और चलन वलन करने लगा। वह देखकर कुन्ती, सुभद्रा, उत्तरा (जो कि उस बालक की मां ही थी।), द्रौपदी आदि को जो आनंद हुआ उसका वर्णन हो ही नहीं सकता। पुत्र का नाम परीक्षित रखा गया। उसके जन्म के एक महीने के बाद पांडव यज्ञ के लिए वह अपार धनराशि लेकर हस्तिनापुर लौट आये।
बाद में शुभमूहुर्त देखकर व्यास महर्षि की सूचना के अनुसार धर्मराज ने यज्ञ दीक्षा ली और अश्व को विजयार्थ छोड दिया। उसकी रक्षा करने के लिए अर्जुन पीछे पीछे जा रहा था। यज्ञ का अश्व प्राग्ज्योतिष नगर को प्राप्त हुआ। वहां भगदत्त के पुत्र वज्रदत्त के विरोध को अर्जुन ने नष्ट किया। वहां तीन दिन युद्ध हुआ। धर्मराज ने, प्रस्थान करते समय अर्जुन से कह रखा था कि जहां तक हो सके प्राणहानि न होने पाए। तद्नुसार अर्जुन समझौते से काम लेता था। जहां किसी ने विरोध किया उसी से वह युद्ध करता था, लेकिन सोच संभलकर और जीत लेने पर यज्ञ में उपस्थित रहने का आमंत्रण देता जाता था। बाद में सिंधु देश को घोडा पहुंचा। वहां जयद्रथ का पुत्र सुरथ अर्जुन के आने का समाचार पाते ही आतंक से चल बसा। उसकी सेना का भी पराभव हो गया। तब जयद्रथ की पत्नी (धृतराष्ट्र की कन्या, दुर्योधन की भगिनी), दुःशला अपने छोटे पोते को लेकर अर्जुन के पास चली आई और उसने उसे अर्जुन के चरणों में रखा। अर्जुन ने उसकी सांत्वना की।
बाद में घोड़ा मणिपुरनगर में पहुँचा। वहां ब्रभुवाहन राजा राज्य करता था। अर्जुन जब तीर्थयात्रा पर था। तब उसने वहां की चित्रांगदा और नागकन्या उलूपी से विवाह किया था। अर्जुन से चित्रांगदा को जो पुत्र हुआ वही वह था बभ्रुवाहन । अर्जुन के आगमन का समाचार सुनते ही अर्जुन के आगत स्वागत की सिद्धता करके वह अगवानी के लिए चला गया लेकिन अपने पुत्र की वह नम्रता अर्जुन को पसंद नहीं आई। अर्जुन ने उसकी निंदा की और कहा कि, "युद्ध में अपना सामर्थ्य बताओगे तभी मै तुझे सच्चा पुत्र मानूंगा।" तब भी वह युद्ध करना नहीं चाहता था, लेकिन उलूपी ने उसे युद्ध करने विवश किया। उस युद्ध में अर्जुन की मृत्यु होने पर उलूपी ने नागलोक में जाकर संजीवन मणि लेकर अर्जुन को जीवित किया। जीवित हो जाने पर अर्जुन ने उससे उसका कारण पूछा, तब उलूपी ने बताया कि भारतीय युद्ध में तुमने भीष्म पीतामह को अधर्म से मारा। तुमने शिखंडी को जब आगे किया तब भीष्म पितामह अपने रथ में पीठ फेर के बैठे रहे और तुमने शिखंडी की आड़ में खडे होकर भीष्मजी पर तीर चलाए। उससे अष्ट वसु क्षुब्ध होकर उन्होंने तुम्हें शापित किया था। मेरे पिताने जब उनकी प्रार्थना की और उन्हें मनाया तब उन्होंने बताया कि अर्जुन अगर वभ्रुवाहन के हाथों मृत्यु पाएगा तो यह शाप असर नहीं करेगा । इसलिये मुझे यह सब करना पडा । यह सुन लेने के बाद अर्जुन उन सबको यज्ञ का आमंत्रण देकर आगे बढ़ा।
उसके पश्चात् घोडा मगध देश की राजधानी "राजगृह" में पहुंचा। वहां जरासंध के पोते, सहदेव के पुत्र मेधसंधि ने
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घोडे को रोका। उसे पराभूत करके, अर्जुन दक्षिण दिशा की तरफ मुडकर आंध्र, द्रविड, महिषक, कोल्लगिरि, गोकर्ण के राजाओं
को जीत कर पश्चिम समुद्र के तट से होकर सौराष्ट्र देश, प्रभासतीर्थ होकर द्वारका पहुंचा। वहां यादवों के पुत्र घोड़े को पकड रहे थे, पर उग्रसेन और वसुदेव ने उन्हें रोका। घोडा आगे चला और पंचनद (पंजाब) देश से होकर गांधार देश को पहुंचा। वहां शकुनि का पुत्र राज्य कर रहा था। उसे जीत लेने के बाद अर्जुन हस्तिनापुर की तरफ चल पड़ा।
धर्मराज ने भीमसेन को आदेश दिया कि यज्ञ में जो भी अतिथि अभ्यागत आ जाएंगे, उन सबका अच्छा प्रबन्ध कर दिया जाय। उनके आदेशानुसार यज्ञ मंडप खूब अच्छी तरह से सजाया गया। प्रतिदिन एक लाख ब्राह्मणों का भोजन होने पर नगाड़ा बजाना तय हुआ था। नगाडा दिनभर में कई बार बजाना पड़ता था।
उस यज्ञ के अंतिम काल में वहां एक नेवला पहुंचा। उसका आधा शरीर सोने का था। वह नेवला मनुष्य जैसा जोर से बोलने लगा, “कुरुक्षेत्र में रहनेवाले ब्राह्मण के एक सेर सत्तू की बराबरी भी वह यह यज्ञ नहीं कर सकता।" सुनकर वहां के ब्राह्मणों ने उससे उसका आशय पूछा। तब वह कहने लगा, “कुरुक्षेत्र में उंछवृत्ति का एक ब्राह्मण था। उसके एक स्त्री, एक पुत्र और पुत्रवधू थी। उन चारों को पर्याप्त धान्य शायद ही मिला करता था। एक बार ऐसे ही कई दिन अभुक्त रहने पर गरमी में उसे एक सेर सत्तू मिले। वैश्वदेव होने पर अतिथि वहाँ पहुँच गया। ब्राह्मण ने चार के लिए उस सत्तू को चार भागों में विभाजित किया था। उनमें से अपने हिस्से का एक भाग अतिथि को दे दिया। तब कहीं वह अतिथि तृप्त हो गया,
और उसने अपना सच्चा रूप भी प्रकट किया। वह साक्षात् यमधर्म था। उसने उस ब्राह्मण से कहा कि तूने जो यह दान कर्म बडे आनंद से किया, उससे तेरा नाम स्वर्ग लोक तक पहुंच गया है। उसके इतना कहते ही स्वर्ग से ब्राह्मण पर पुष्पवृष्टि हुई। स्वर्ग से उसको ले जाने एक विमान आ पहुंचा। उस विमान पर सवार होकर वह ब्राह्मण सपरिवार स्वर्ग में गया।
इतना कह लेने पर नेवला कुछ और बोला, “ब्राह्मण के पहुंचने पर मै अपने बिल से बाहर आ गया। वहां जो जूठा पड़ा मिला उसमें मैं लोटा। उसी क्षण उस ब्राह्मण के पुण्य से मेरा आधा शरीर स्वर्ण का हो गया। शेष आधा शरीर भी स्वर्ण का हो इस आशा से मै इस यज्ञ में पहुंचा। लेकिन निराशा ही हुई। मेरा बाकी आधा शरीर सोने का नहीं हो पाया है। इसलिए मेरा आशय यही है कि उस ब्राह्मण के एक सेर सत्तू की भी बराबरी इस यज्ञ को नहीं है। इतना कहकर नेवला वहांसे चल दिया।
15 आश्रमवासिक पर्व धर्मराज के राज्य करते पंद्रह साल बीत चुकने पर धृतराष्ट्र अरण्य में रहने चला गया। पंद्रह वर्षों में धर्मराज ने उसका उचित सम्मान रखा। उसकी अनुमति के बिना वह कोई भी कार्य नहीं करता था। दुर्योधन के समय धृतराष्ट्र की जो व्यवस्था थी उससे भी सुंदर व्यवस्था धर्मराज ने रखी। लेकिन भीमसेन धर्मराज के अनजाने धृतराष्ट्र को तीखे ताने कसता था। इसलिये पंद्रह सालों के बाद भीष्म, दुर्योधन आदि के श्राद्ध करके, विविध प्रकार के दान देकर सभी प्रजाननों से बिदा लेकर धृतराष्ट्र ने अरण्यवास के लिए प्रस्थान किया। साथ में गांधारी, कुन्ती, विदुर और संजय भी चले। पांडवों ने कुन्ती को बहुत मनाया कि वह जंगल न चली जाए लेकिन उसने नहीं माना। धृतराष्ट्र राजा उन सबके साथ कुरुक्षेत्र पहुंचा। वहां केकय देश के राजा शतयूप का आश्रम था। उस राजा को साथ लेकर धृतराष्ट्र व्यास महर्षि के आश्रम को चले गए। व्यास महर्षि से दीक्षा पाने के उपरान्त फिर शतयूप के आश्रम पहुंच कर धृतराष्ट्र तप करने लगे।
एक साल के बाद पांडव सभी स्त्रियों को साथ में लेकर धृतराष्ट्र से मिलने गये। उनके साथ हस्तिनापुर के बहुत से प्रजानन थे। पांडवों के वहां पहुंचने पर उन्हें विदुर दिखाई नहीं दिये। उनके संबंध में पूछताछ वे कर ही रहे थे। कि किसी पिशाच के समान विदुर दूर से आते दिखाई दिये। धर्मराज उनसे मिलने जब जाने लगे तब विदुर दौडते हुए दूर जंगल चले गए और एक पेड से सटकर खडे हो गए। धर्मराज के वहां जाने के बाद विदुर ने समाधि लगाई। उसके शरीर से निकला तेज धर्मराज के शरीर में प्रविष्ट हुआ। उससे धर्मराज को अनुभव हुआ कि अपना बल बढ़ा है। अनन्तर धर्मराज पुनः आश्रम लौट आये।
एक दिन व्यास महर्षि धृतराष्ट्र के निवास में पधारे। गांधारी की प्रार्थना पर युद्ध में जो मृत हुए थे उन सबसे सबकी भेंट गंगा में स्नान करने के बाद, व्यास महर्षि की कृपा से हो गई। एक रात रहने पर वे मृतात्मा गंगा के जल में लुप्त हो गये। अनन्तर व्यास महर्षि ने स्त्रियों से पूछा, "तुममें से किसी को अपने पति के साथ परलोक (पतिलोक) जाना हो तो इस गंगा के जल में प्रवेश करो।" यह सुनकर सभी विधवा स्त्रियों ने गंगा में प्रवेश कर अपने अपने पति के साथ स्वर्ग में सानंद प्रवेश किया। एक महिना वहां रहकर पांडव हस्तिनापुर लौट आए।
धृतराष्ट्र के जंगल गए तीन साल होने के उपरान्त नारद ऋषि धर्मराज के पास आकर रहने लगे। तुम्हारे धृतराष्ट्र से मिलकर, हस्तिनापुर लौट आने पर धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र से चलकर हरिद्वार आ पहुंचा। एक दिन स्नान करके आश्रम को लौटते समय चारों तरफ दावाग्नि भड़क उठी थी। तब धृतराष्ट्र ने संजय से कहा, "तू दावाग्नि से निकल जा। हम बहुत कृश हो
प्रजाच के समान विदुर दूर खडे हो गए। धर्मराजभव हुआ कि अपना बल
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गये है, भाग नहीं सकते। हम तीनों भी इस दावाग्नि में शरीर की आहुतियां देकर सद्गति को प्राप्त करेंगे।" इतना कहकर धृतराष्ट्र, गांधारी और कुन्ती पूर्व की ओर मुंह किये ध्यानस्थ बैठे। तब संजय उनकी परिक्रमा कर वहां से चल दिया। आश्रम पहुंच सभी ऋषियों को उसने वह बात बताई और वह हिमालय में चला गया।
16 मौसल पर्व वैशंपायन जनमेजय से कहने लगे- धर्मराज के पैतीस साल राज्य करने पर छत्तीसवें वर्ष कुछ ऋषि द्वारका गए थे। यादवों के पुत्रों ने उनका मजाक उडाया। श्रीकृष्ण के पुत्र सांब को स्त्री का वेष देकर ऋषियों के पास जाकर उसने पूछा कि यह स्त्री गर्भवती है? बताइए, इसे पुत्र होगा या पुत्री? ऋषि उस छल कपट को समझ गये। उन्होंने कहा इसे एक लोहे का मूसल होगा, और उस मूसल से सभी यादवों का (श्रीकृष्ण और बलराम को छोड़कर) नाश होगा। ऋषियों के कहने के अनुसार दूसरे दिन उस सांब के पेट से मूसल पैदा हुआ। उसे देखकर सभी घबरा गये। उग्रसेन राजा ने उस मूसल को चूर्ण करके समुद्र में फिकवा देने की व्यवस्था की।
__ उसके बाद श्रीकृष्ण के कहने पर सभी यादव तीर्थयात्रा के लिए प्रभास तीर्थ पहुंचे। वहां आपस में झगड़ा और मारपीट शुरु हुई। मूसल का चूर्ण समुद्र की लहरों से किनारे पर आ गया था। उससे उत्पन्न घास को लेकर यादव एक दूसरे पर प्रहार करने लगे। वह घास वज्र के समान होने से उस लड़ाई झगडों में उससे सभी यादवों का नाश हो गया। वसुदेव, बलराम, श्रीकृष्ण और स्त्रियां, बालबच्चे आदि कुछ ही लोग जीवित रहे। श्रीकृष्ण ने दारुक के हाथों लड़ झगड़कर नष्ट हुए बलराम के मुंह से बड़ा सफेद नाग निकल कर समुद्र में चला गया। श्रीकृष्ण जब ध्यान लगा कर बैठे तब जरा नाम के किसी व्याध ने उनके पांव के तलुवे को लक्ष्य करके तीर चलाया, और हिरन समझकर पास पहुंचा। वहां चतुर्भुज मूर्ति को देखकर वह व्याध श्रीकृष्ण के चरणों पर गिर पड़ा। उसको सांत्वना देकर श्रीकृष्ण निजधाम चले गए।
दारुक ने जब सारा वृत्तांत पांडवों को बतलाया तब उसे सुनकर बड़े ही दुःख के साथ अर्जुन द्वारका चला आया। वहां वह वसुदेव से मिला। दूसरे दिन वसुदेव ने भी प्राणत्याग किया। उसका अग्निसंस्कार कर देने पर श्रीकृष्ण, बलराम, आदि यादवों के शरीर जहां पडे थे उस प्रभास तीर्थ पर अर्जुन आ पहुंचा। उसने सभी के शरीरों को अग्नि संस्कार किया। पुनः द्वारका में आकर सभी स्त्रियों, बालकों, वृद्धों को साथ में लेकर वह चल पड़ा। श्रीकृष्ण के अवतार समाप्ति के सात दिनों के बाद समुद्र ने द्वारकापुरी को आत्मसात् किया।
द्वारका के लोगों के साथमें लेकर अर्जुन पंचनद (पंजाब) देश को पहुंचा। वहां आभीर नाम के डाकुओं ने यादवों की बहुत सी स्त्रियों को ले भगाया। अर्जुन देखता ही रह गया। तूणीर में उसके पास एक भी तीर नहीं बचा। अस्त्रों के प्रयोगों को भूलता गया। तब बडे ही दुःख के साथ बचे खुचे लोगों को साथ में लेकर अर्जुन कुरुक्षेत्र पहुंचा। उसने सात्यकि के पुत्र को सरस्वती नदी के तट पर और वज्र नामक यादवपुत्र को इंद्रप्रस्थ के राज्य पर स्थापित किया, और स्वयं व्यास महर्षि के दर्शन के लिए चला गया। घटित सारी बातें उसने व्यास महर्षि पर प्रकट की और उनसे उनका कारण पूछा। व्यास ऋषि ने कहा, " विधिलिखित है। बुद्धि, तेज, ज्ञान आदि सब काल के अनुसार रहते हैं। काल के प्रतिकूल जाते ही वे विनाश को पाते हैं। इस समय तुम्हारे लिए काल प्रतिकूल है। इसी लिए तुम्हें अस्त्रप्रयोगों का स्मरण नहीं रहा। अनुकूल काल के आने पर फिर से स्मृति आ जाएगी। अब तुम्हारा कल्याण इसी में है कि तुम सद्गति को प्राप्त करो।" व्यास ऋषि का कथन सुन कर अर्जुन हस्तिनापुर पहुंचा और उसने यादवों के विनाश की पूरी वार्ता धर्मराज को सुनाई।
17 महाप्रास्थानिक पर्व वैशंपायन ने आगे कहना आरंभ किया- यादवों के विनाश की वार्ता सुनकर पांडवों ने स्वर्ग लोक पहुंचने के लिए महाप्रस्थान करने का निश्चय किया। परीक्षित् को राज्य देकर और सुभद्रा पर उसकी रक्षा का भार सौप कर कृपाचार्यजी को गुरु नियुक्त कर, सभी प्रजाननों की प्रार्थना करके, वल्कल परिधान कर लेने के बाद द्रौपदी को साथ में लेकर पांचों पांडव हस्तिनापुर के बाहर चल पड़े। उनके साथ एक कुत्ता था। जाते जाते उन्हें अग्निदेव मिले। उनके कहने पर अर्जुन ने अपना गाण्डीव धनुष्य पानी में छोड़ दिया। अनन्तर पृथ्वी की परिक्रमा करके पाण्डव उत्तर दिशा की ओर चल पड़े।
हिमालय पर्वत, वालुकामय प्रदेश पार कर उन्हें मेरु पर्वत दीख पड़ा। वहां जाते समय पहले द्रौपदी गिर पडी। उसका कारण वह अर्जुन से विशेष प्रेम करती थी। बाद में सहदेव गिर पड़ा। उसका कारण वह अपने को बडा बुद्धिमान् समझता था। पश्चात् नकुल गिर पड़ा कारण उसे अपनी सुंदरता का बडा ही गर्व था। उपरान्त अर्जुन गिर पडा उसका कारण उसने प्रतिज्ञा कर ली थी कि मै एक दिन में समूचे वीरों को मार डालूंगा" लेकिन उस प्रतिज्ञा की पूर्ति उससे नहीं हो पाई और
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उसे अपने पौरुष पर बडा ही गर्व था। उसके बाद भीमसेन गिर पड़ा। उसके गिरने का कारण वह बहुत ही पेटू था और उसे अपनी शक्ति का गर्व था सबके गिर पड़ने पर कुता और धर्मराज दोनों के आगे बढ़ने पर इंद्र रथ लेकर पहुंच गये और अकेले धर्मराज को रथ पर सवार होने कहने लगा। लेकिन धर्मराज उस स्वामिभक्त कुत्ते को छोड़ने को तैयार नहीं थे। वह देखकर कुत्ते के रूप में यमधर्म अपने यथार्थ रूप को प्रकट करते हुए बोले, "हमने तेरी परीक्षा ली।” उसके बाद धर्मराज को विमान पर बिठाकर संदेह स्वर्ग चले गए।
18 स्वर्गारोहण पर्व
वैशम्पायन ने आगे कहा- स्वर्ग लोक पहुंचकर धर्मराज ने दुर्योधन आदि कौरवों को बड़े ही ठाट बाट से बैठ पाया। लेकिन पांडवों को वहां न पाकर धर्मराज ने वहां रुकना स्वीकार नहीं किया। धर्मराज के बताने पर कि जहां मेरे कर्ण भीम आदि बंधु और द्रौपदी सगे संबंधी हो वहां मुझे भी ले चलो, एक देवदूत नरक के दर्शन कराने उन्हें ले गया। उस नरक में बहुत से प्राणी भांति भांति की यातनाओं को भुगत रहे थे। वहां से लौटने का विचार धर्मराज के मन में आते ही नरक में व्याकुल प्राणी कहने लगे, "धर्मराज, कुछ समय तक ऐसे ही खड़े रहो तुम्हारे शरीर पर से आनेवाले वायुसे हमारी यातनाएं दूर हो गईं। हमें बहुत ही सुख मिल रहा है।" उनके बोल सुनकर धर्मराज ने पूछा, "तुम कौन है? तब "मैं नकुल, मैं द्रौपदी, मैं कर्ण, मैं अर्जुन, मैं धृष्टद्युम्न" इस तरह शब्द सुनाई दिए । उनको सुनकर धर्मराज मन ही मन सोचने लगे, इन्होंने कुछ भी पातक नहीं किया तब इन्हें नरक यातना क्यों? और उस पापी दुर्योधन को स्वर्ग का सम्मान और सुख कैसे? सोचते सोचते वे कुपित भी हो गए। उन्होंने देव धर्म की निंदा की। देवदूतों को बिदा किया और खुद वहां रुकने से स्नेही संबंधियों को सुख पहुंच रहा है, इस लिए वे वहीं खडे रहे । देवदूत के सारा समाचार देवों पर प्रकट करने पर इंद्रादिक देव धर्मराज के पास आ गये, उसी क्षण नरक लुप्त हो गया । सुगंधित वायु चलने लगी। अनंतर इंद्र ने धर्मराजा से कहा, "तुम्हे स्वर्ग लोक ही प्राप्त होने वाला है, लेकिन सभी राजाओं को नरक में जाना पड़ता है। जिनका पुण्य अधिक रहता है उन्हें पहले नरक और बाद में स्वर्ग मिलता है और जिनका पाप अधिक उन्हें पहले स्वर्ग और बाद में नरक मिलता है। तुमने अश्वत्थामा के मरने का समाचार आंशिक झूठसच बताया इस लिए तुम्हें यह झूटा नरक देखना पड़ा। यह सब आभासमात्र है । यथार्थ में अर्जुन आदि स्वर्ग में स्थित हैं। इस आकाशगंगा में अब स्नान करके उन अपने सगे संबंधियों से मिलने प्रस्तुत हो जाओ । इतने में वहां साक्षात् यमधर्म पहुंच गये। वे धर्मराज से बोले, "मैने तेरी तीन बार परीक्षा ली। पहली बार द्वैत वन में यक्षप्रश्न के समय, दूसरी बार साथ में कुत्ते के समय, और यह तीसरी बार है तू तीनों बार अपने सत्व के प्रति जागरूक ही रहा । तू धन्य है । तेरे भाई नरक में कैसे जा सकते हैं? यह सब इंद्र से तुझे अपनी माया दिखाई है। अनन्तर धर्मराज ने आकाशगंगा में स्नान किया, नर देह का चोला त्याग कर दिव्य देह धारण किया और अपने बंधुओं के पास स्वर्ग पहुंच कर आनन्दपूर्वक दिन बिताने लगे। 1 समग्र चरित्र तुझको मैने सुनाया।"
वैशम्पायन कहते हैं, "हे जनमेजय राजा, इस प्रकार कौरव पांडवों का
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महाभारत की कथा सुनकर जनमेजय राजा को भारी आश्चर्य हुआ। उसने सर्पसत्र पूरा किया। सर्पों के मुक्त हो जाने पर आस्तिक ऋषि को बड़ा आनंद हुआ। राजा ने सभी ब्राह्मणों को दक्षिणा प्रदक्षिणा के साथ बिदा किया और वह तक्षशिला नगरी से हस्तिनापुर लौट आया।
इस तरह उस जनमेजय राजा के सर्मसत्र में व्यास महर्षि के आदेशानुरूप जो महाभारत वैशम्पायनजी ने सुनाया, इस इतिहास का दूसरा नाम "जय" भी है। वेदों की जिस तरह संहिता रहती है, उसी तरह महाभारत की यह लाखों श्लोकों की संहिता व्यास महर्षि ने सर्वजनहितार्थ निर्माण की। तीस लाख श्लोकों की संहिता स्वर्गलोक में, पंद्रह लाख श्लोकों की संहिता पितृलोक में चौदह लाख श्लोकों की संहिता यक्षलोक में और एक लाख श्लोकों की संहिता मनुष्यलोक में इस तरह कुल मिलाकर साठ लाख (60,00,000) श्लोकों की रचना व्यास महर्षि ने की है। देवलोक याने स्वर्ग में नारद ने देवों को, पितृलोक में देवल ऋषि ने पितरों को, यक्षलोक में शुक्राचार्य ने यक्षों को और मनुष्य लोक में वैशम्पायनजी ने मनुष्यों को पहले पहल यह रचना सुनाई।
124 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
टिप्पणी प्रस्तुत ग्रंथ के पुराण-इतिहास विषयक प्रकरण में ग्रंथों के विस्तार आदि बहिरंग का परिचय प्रधानता से दिया है। समस्त पुराण वाङ्मय कथाओं का महासागर है। उनके अंतरंग का परिचय कथाओं द्वारा देना उचित था किन्तु विभ के कारण पुराण कथाओं का परिचय हमने टाला है। इस पुराणेतिहासान्तर्गत कथा वाङ्मय का परिचय एकमात्र महाभारत की अद्भुत रम्य एवं रसोत्कट कथा के परिचय से यथोचित होने की संभावना मान कर, पर्वानुक्रम के अनुसार अतीव संक्षेप में दी है। (लेखक
संपादक)
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19 "इतिहास विषयक अवान्तर वाङ्मय'' भारत के इतिहास विषयक वाङ्मय का मूलस्रोत अन्य विषयों के समान वेदों एवं पुराणों में मिलता है। तथापि रामायण और महाभारत को ऐतिहासिक वाङ्मय के आदि ग्रंथ कहना उचित होगा। काव्यात्मक इतिहास वर्णन करने की यह आर्य परंपरा संस्कृत वाङ्मय के क्षेत्र में अविरत चल रही है। नवशिक्षित समाज में यह भ्रम फैला है कि संस्कृत वाङ्मय में इतिहास विषयक जानकारी देने वाले ग्रंथों का प्रमाण नहीं के बराबर है। परंतु तथ्य तो यह है कि प्राचीन भारत के केवल इतिहास का ही नहीं अपि तु सम्पूर्ण प्राचीन संस्कृति का आकलन संस्कृत वाङ्मय के अध्ययन से ही हो सकता है। "इतिहास-पुराणाभ्यां वेदं समुपद्व्हयेत्' इत्यादि आदेश यही सूचित करते हैं। प्राचीन मनीषी इतिहास के अध्ययन को वेदाध्ययन के समान महत्त्व देते थे। छान्दोग्य उपनिषद में इतिहास पुराण ग्रंथों को "पंचम वेद" कहा है। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में भी इतिहास के अध्ययन का महत्त्व प्रतिपादन किया है। मुसलमानी शासन के प्रदीर्घ काल में इस राष्ट्र में सर्वकष विध्वंस होता रहा; जिसमें अन्य संस्कृत ग्रंथों के साथ इतिहास विषयक महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का भी विध्वंस हुआ होगा। तथापि सम्प्रति उपलब्ध इतिहास विषयक ग्रंथों की संख्या उपेक्षणीय नहीं है। रामायण महाभारत के पश्चात् इतिहास विषयक जो महत्त्वपूर्ण काव्यात्मक ग्रंथ मिलते हैं, उनकी संक्षिप्त नामावली निम्न प्रकार है: इतिहास ग्रंथ लेखक
समय हर्षचरित बाणभट्ट
ई.7 वीं शती हम्मीर वंशकाव्य नयचंद्रसूरि
ई. 10 वीं शती राजतरंगिणी कल्हण
ई. 10 व 12 वीं शती विक्रमांकदेवचरित बिल्हण
ई. 10 व 12 वीं शती कुमारपालचरित जयसिंहसूरि
ई. 10 व 12 वीं शती नवसाहसांकचरित
पद्मगुप्त पृथीराज विजय
जयानक कीर्तिकौमुदी
सोमेश्वर रामचरित
संध्याकरनंदी बल्लालचरित
आनंद भट्ट प्रबन्धचिन्तामणि
मेरुतुंग चतुर्विंशतिप्रबन्ध
राजशेखर रघुनाथाभ्युदय
गंगाधर सालुवाभ्युदय
रघुनाथ डिंडिम कम्परायचरित
गंगादेवी । इत्यादि इस प्रकार से ऐतिहासिक महत्त्व के विविध काव्यग्रंथ भारत के अन्यान्य प्रदेशों निर्माण हुए। उन ग्रंथों का निर्देश प्रस्तुत कोश में यथास्थान हुआ है। मुसलमानी शासनकाल में फारसी को राजभाषा का महत्त्व प्राप्त होने के कारण उस भाषा में इतिहास विषयक सामग्री अधिक मात्रा में मिलना स्वाभाविक है; परंतु उस काल में भी संस्कृत वाङ्मय की स्त्रोतस्विनी खंडित नहीं हुई थी। उस काल के कुछ ग्रंथों का ऐतिहासिक महत्त्व उपेक्षणीय नहीं है। इन इतिहास विषयक काव्यों के रचयिता प्रायः राजाश्रित विद्वान होते थे। भारत में दीर्घकाल तक मुसलमानों का आधिपत्य रहा। उस काल में मुसलमान शासनकर्ताओं के विषय में कुछ स्तुतिपर संस्कृत ग्रंथ लिखे गये जिनमें तत्कालीन इतिहास का कुछ अंश व्यक्त हुआ है। मुसलमान सुलतानों एवं बादशाहों के आश्रित इतिहास लेखकों ने अपनी भाषा में तत्कालीन ऐतिहासिक वृतान्त भरपूर प्रमाण में लिख रखा है। उस वृत्तान्त के पूरक ग्रंथों में कुछ उल्लेखनिय संस्कृत ग्रंथ निम्न प्रकार हैं।
असफलविलास : ले. पंडित राज जगन्नाथ। ई. 17 वीं शती। विषय : आसफखान नामक सरदार (जो जगन्नाथ पंडित का मित्र था) का गुणवर्णन । __ जगदाभरण : ले. पंडितराज जगन्नाथ। विषय : दाराशिकोह का गुणवर्णन
सूक्तिसुन्दर : ले. सुन्दरदेव। ई. 17 वीं शती। इस सुभाषित संग्रह में अकबर, मुज़क्करशाह, निजामशाह, शाहजहां इत्यादि मुसलमान शासकों की स्तुति के श्लोक संगृहीत किए हैं।
सर्वदेशवृत्तान्तसंग्रह : ले. महेश ठक्कुर। दरभंगा निवासी। जहांगीर बादशाह का चरित। बिरुदावली : ले. अज्ञात। विषय : जहांगीर बादशाह का चरित्र ।
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राष्ट्रोढवंश : ले. रुद्रकवि। 20 सर्ग। विषय : बागुल राजवंश का वृत्तान्त ।। राजविनोद काव्य : ले. उदयराज कवि। सात सर्ग। विषय : गुजरात के सुलतान बेगडा महंमद का चरित्र ।
17 वीं शती में महाराष्ट्र में शिवाजी महाराज के समर्थ नेतृत्व में, स्वतंत्र हिंदुराज्य का क्रांतियुद्ध शुरु हुआ। महाराष्ट्र एवं भारत के इतिहास में महत्वपूर्ण राजकीय परिवर्तन का युग 17 वीं शती से प्रारंभ हुआ। इस कालखंड के इतिहास के ज्ञान के लिए जिनका अध्ययन आवश्यक है ऐसे महत्त्वपूर्ण ग्रंथ :
पर्णालपर्वतग्रहणाख्यानम्: - ले. जयराम पिण्ड्ये शम्भुराजचरित : - ले. हरिकवि (सूरत निवासी) राजारामचरित : - ले. केशव पंडित । शिवकाव्य : - ले. पुरुषोत्तम कवि
अलंकारमंजूषा : - ले. देवशंकर पुरोहित (इसमें माधवराव और रघुनाथराव पेशवा के चरित्र का वर्णन अलंकारों के उदाहरणार्थ कवि ने किया है।
तंजौर के भोसले राजवंश के इतिहास पर आधारित काव्य ग्रंथ
कोसलभोसलीयम् : ले. शेषाचलपति (आंध्रपाणिनि)। इस द्वयर्थी काव्य में कोसलाधिपति प्रभु रामचंद्र और तंजौर नरेश एकोजी (शहाजी भोसले का पुत्र) के चरित्र वर्णित हैं।
भोसलवंशावली : - ले. गंगाधर भोसलवंशावली चम्पू : - ले. नैधृव वेंकटेश (तंजौरनरेश प्रथम सरफोजी का चरित्र) शृंगारमंजरी शाहजीयम् (नाटक) : - ले. पेरिय अय्या दीक्षित कांतिमतीपरिणयः - ले. चोक्कनाथ शाहेन्द्रविलास : - ले. श्रीधर वेंकटेश शाहविलासगीतम् : - ले. ढुंढिराज शाहराजीयम : - ले. लक्ष्मण शाहराजसभा सरोवर्णिनी : - ले. लक्ष्मण धर्मविजयचम्पू : - ले. भूमिनाथ (नल्ला) दीक्षित। विषय : शहाजी राजा का चरित्र सुमतीन्द्रजय घोषणा : - ले. सुमतिचन्द्र। विषय : शहाजी राजा का स्तवन शाहजिप्रशस्ति : - ले. भास्कर कवि शरभराजविलास : - ले. जगन्नाथ (कावलवंशीय)। विषय : सरफोजी भोसले का चरित्र गुणरत्नाकर : - ले. नरसिंह कवि। विषय : सरफोजी भोसले का अलंकारनिष्ठ चरित्र शरभोजिचरित : - ले. अनन्तनारायण शरभोजिमहाराजजातक : - ले. अज्ञात
साहित्यमंजूषा : - ले. सदाजि। ई. 1825। विषय : शिवाजी महाराज का चरित्र एवं भोसले वंश का इतिवृत्त। इसी परंपरा के अंतर्गत अंग्रेजी शासन के प्रारंभकाल में, रानी व्हिक्टोरिया, एडवर्ड, पंचम जॉर्ज इन आंग्ल प्रशासकों के विषय भी कुछ काव्य लिखे गये :
आंग्रेजचन्द्रिका : - ले. विनायक भट्ट। ई. 19 वीं शती। राजांग्लमहोद्यानम् : - ले. रामस्वामी आंग्लसाम्राज्यमहाकाव्य : - ले. ए.आर. राजवर्मा। त्रिवांकुर निवासी। आंग्लाधिराज्यस्वागत : - ले. वेंकटनाथाचार्य। विशाखापटनम् के निवासी गीतभारतम् : - त्रैलोक्यमोहन गुह। सर्ग संख्या 21। विषय : आंग्लसाम्राज्य एवं महारानी व्हिक्टोरिया व्हिक्टोरियाचरित संग्रह : - ले. केरलवर्म वलियक्वैल व्हिक्टोरियामाहात्म्य : - ले. राजा सुरेन्द्रमोहन टैगोर
126 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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दिल्लीमहोत्सवकाव्य :
विजयनीकाव्य : ले. श्रीश्वर विद्यालंकार भट्टाचार्य सर्ग 12
ले. श्रीश्वर विद्यालंकार भट्टाचार्य सर्ग 6
ले. शिवराम पाण्डे । प्रयाग निवासी। इसी लेखक ने एडवर्ड शोकप्रकाशम् नामक अन्य 1910 में लिखा है।
एडवर्ड राज्याभिषेक दरवारम्
काव्य एडवर्ड के निधन निमित्त ई.
एडवर्डवंशम् दिल्लीप्रभा
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ले. वेमूर्ति श्रीनिवास शास्त्री । विषय: 1911 के दिल्ली दरबार का वर्णन ले. शतावधानी शिवराम शास्त्री
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राजराजेश्वरस्य राजसूयशक्ति रत्नावली : ले. ईश्वरचन्द्र शर्मा । कलकत्ता निवासी। ई. 1909
कम्पनी - प्रताप मण्डनम्
ले. अज्ञात
रानी व्हिक्टोरिया तथा एडवर्ड बादशाह के विषय में लिखित काव्यों की अपेक्षा पंचम जार्ज के विषय में लिखे गये काव्यों की संख्या अधिक है। इनमें उल्लेखनीय है
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जॉर्जदेवचरितम् ः ले. पद्यनाभ शास्त्री : श्रीरंगपट्टन निवासी। (2) लक्ष्मणसूरी। जॉर्ज वंशम् : - ले. के. एस. अय्यास्वामी अय्यर । जॉर्ज महाराजविजयम्ले कोचा नरसिंह चालु दिल्लीसाम्राज्यम्ले शिवराम पांडे । । जॉर्जाभिषेकदरबार : ले. शिवराम पांडे (प्रयाग निवासी)। उत्तमजॉर्जजायसी कुम्भकोण निवासी।
रत्नमालिका
ले. एस. श्रीनिवासाचार्य
जॉर्जप्रशस्ति :
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ले. भट्टनाथ स्वामी (विशाखापट्टनवासी)। (2) ले. लालमणि शर्मा (मुरादाबादवासी)
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यदुवृद्धसौहार्दम् : ले. ए. गोपालचार्य विषय आठवें एडवर्ड का स्त्रीनिमित्त राज्यत्याग । श्लोक 600। इन आंग्ल प्रशासक विषयक ग्रंथों का ऐतिहासिक महत्त्व आज विशेष नहीं है, किन्तु यथाकाल वह महत्त्व बढते जाएगा । ऐतिहासिक वाङ्मय में भूतकालीन राजा महाराजाओं तथा उनके वंशानुचरित पर आधारित साहित्य को जितना महत्त्व है उतना ही भूतकालीन साधुसंत एवं आचार्यों के चरित्र विषयक काव्यों को भी देना चाहिए। संस्कृत वाङ्मय में यह परंपरा महाकवि अश्वघोष के बुद्धचरित नामक श्रेष्ठ महाकाव्य से प्रवर्तित हुई। इस परम्परा में उल्लेखनीय काव्य :
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शंकरविजय ले. आनंदगिरि (अर्थात् स्वामी विद्यारण्य ) ।
जगदगुरु श्री शंकराचार्य के चरित्र पर आधारित ग्रंथ बृहत्शंकरविजय ले चित्सुखाचार्य : । ( या अनन्तानंदगिरि) । शंकरविजय ले. विद्याशंकरानंद । संक्षेपशंकरविजय ले. माधवाचार्य शंकराचार्यचरित : ले. गोविंदनाथ । शंकराचार्यदिग्विजय : ले. वल्लीसहाय । शंकरदिग्विजयसार ले. सदानन्द । शंकरा H ले. राजचूडामणि दीक्षित। ई. 17 वीं शती । गुरुपरम्पराप्रभाव: ले. विजयराघवाचार्य (आप तिरुपति देवस्थान के शिलालेखाधिकारी थे) । शंकरगुरु-चरित-संग्रह : ले. पंचपागेश शास्त्री। आप कुम्भकोण के शांकरमठ में अध्यापक थे। माध्वसंप्रदायी साधु पुरूषों के चरित्र पर आधारित काव्य : ले. सत्यनाथविलसितम् : ले. श्रीनिवास । सत्यनाथाभ्युदयम् ले. शेषाचार्य । सत्यनाथमाहात्म्यरत्नाकर : ले. अज्ञात । इन तीनों ग्रंथों में माध्वसंप्रदायी श्री सत्यनाथतीर्थ का चरित्र वर्णित हुआ
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है श्रीसत्यनाथतीर्थं सन् 1644 में समाधिस्थ हुए माध्य संप्रदाय के अन्य आचार्यों के चरित्र विश्वप्रियगुणविलासः ले. सेतुमाधव राघवेन्द्र विजय ले. नारायण कवि सत्यनिधिविलास ले. श्रीनिवासकवि सत्यबोधविजय ले. कृष्णकवि सेतुराज विजय : ले. अज्ञात ।
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श्रीरामानुजाचार्य के चरित्र पर आधारित ग्रंथ रामानुजचरितकुलकम् ले रामानुजदास रामानुजविजय : ले. अण्णैयाचार्य श्रीभाष्यकारचरित ले. कौशिकवेकटेश श्रीशैलकुल वैभव ले. नृसिंहरि यतीन्द्रचम्पू ले बकुलाभरण इन ग्रंथों के अतिरिक्त रामानुजदिव्यचरित, रामानुजीय और रामानुजचरित नामक ग्रंथ उपलब्ध हैं जिनके लेखक अज्ञात हैं।
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दिव्यसूरिचरित : ले. गरुडवाहन और प्रपन्नामृत ले अनन्ताचार्य। इन दो ग्रंथों में दक्षिणभारत के आलवार नामक 12 वैष्णव संतों के चरित्र वर्णन किये है।
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जैन साहित्य में सत्पुरुषविषयक चरित्रग्रंथ इन ग्रंथों की संख्या भरपूर है, और उनका ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद है। सुकृतसंकीर्तनः ले. ठक्कुर अरिसिंह । ई. 14 वीं शती विषय गुजरात के राजनीतिज्ञ अमात्य वस्तुपाल (ई. 13 वीं शती) का चरित्र । सर्ग 11। वसन्तविलास : ले. बालचंद्रसूरि । ई. 14 वीं शती । विषय अमात्य वस्तुपाल का चरित्र । सर्ग 14 वस्तुपाल का अन्य नाम वसन्तपाल था। कुमारपाल भूपालचरित : ले. जयसिंहसूरि । विषय: गुजरात वीर नरेश (ई. 13 वीं शती) कुमारपाल का चरित्र कुमारपालचरित ले चरित्रसुंदर गणि (अपरनाम चरित्रभूषण ई. 15 वीं शती)। वस्तुपालचरित ले जिनदगणि ई. 15 वीं शती हम्मीरमहाकाव्य ले. जयचन्द्रसूरि ई. 15 वीं शती विषय चौहानवंशीय नरेश हम्मीर और दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन के बीच हुआ ऐतिहासिक युद्ध । सर्ग 14 । श्लोक 1564 ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 127
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जगडूचरित : ले. सर्वानन्द। गुरु धनप्रभसूरि । ई. 15 वीं शती। 7 सर्गों के इस काव्य में प्रसिद्ध जैन श्रावक जगडूशाह का चरित्र वर्णित है।
सुप्रसिद्ध जैन विद्वान हेमचन्द्राचार्य ने प्रबन्ध नाम एक विशिष्ट साहित्य प्रकार का सूत्रपात जैन वाङ्मय क्षेत्र में किया। उसका अनुकरण करते हुए अनेक प्रबन्ध ग्रंथ लिखे गये। इन जैन प्रबन्धो में तीर्थकारादिक प्राचीन धर्मपुरुषों के अतिरिक्त राजामहाराजा, सेठ और मुनियों के संबंध में कथा कहानियों का संग्रह मिलता है, जिनमें धर्मतत्त्वोपदेश के साथ मध्यकालीन इतिहास की भरपूर सामग्री मिलती है। ऐसे प्रबन्धो में उल्लेखनीय कुछ महत्वपूर्ण ग्रंथ :
प्रबन्धावलि : ले. जिनभद्र। ई. 14 वीं शती। इसमें 40 गद्य प्रबन्ध हैं जो अधिकांशतः गुजरात, राजस्थान, मालवा और वाराणसी से संबंधित ऐतिहासिक व्यक्तियों और घटनाओं से संबंधित हैं।
प्रभावकचरित : ले. मेरुतुंगसूरि । रचना समय सं 1361 इसमें वीरसूरि, शान्तिसूरि, महेन्द्रसूरि, सूराचार्य, अभयदेवाचार्य, वीरदेवगणि, देवसूरि और हेमचन्द्र सूरि ये आठ संत गुजरात के चालुक्यों के समय अणहिलपाटन में विद्यमान थे। इन महापुरुषों के साथ भोज भीम (प्रथम) सिद्धराज और कुमारपाल जैसे राजाओं की प्रसंग कथाएं दी गयी हैं। इस कृति में गुजरात से लेकर बंगाल तक पूरे उत्तर भारत का पर्यवेक्षण किया है।
कल्पप्रदीप (या विविध तीर्थकल्प) : ले. जिनप्रभूसूरि। इसका कुछ अंश जैन महाराष्ट्री भाषा में लिखा है। 60 कल्पों के इस ग्रंथ में गुजरात, सौराष्ट्र, उत्तरप्रदेश, राजस्थान, मालवा, पंजाब, अवध, बिहार, महाराष्ट्र, विदर्भ, कर्नाटक और आंध्रप्रदेश के तीर्थों के वर्णनों के साथ भरपूर ऐतिहासिक जानकारी मिलती है। सं 1081 में महमूद गजनी के गुजरात पर आक्रमण किया था। उसका उल्लेख तथा समग्र साहित्य इस ग्रंथ में मिलता है।
प्रबन्धकोश (या चतुर्विशति प्रबन्ध) : ले. राजशेखर। गुरु तिलकसूरि। इस ग्रंथ की रचना सं 1405 में दिल्ली में हुई। इसमें 10 जैन आचार्यों, 4 कवियों, 7 राजाओं तथा 3 राजमान्य पुरुषों के चरित्रों द्वारा इतिहासोपयोगी भरपूर सामग्री उपलब्ध होती है।
पुरातन प्रबन्धसंग्रह : ले. अज्ञात । इसमें 66 से अधिक प्रबन्धों का संग्रह है। समय ई. 15 वीं शती । मुनि जिनविजयजी द्वारा प्रकाशित । प्रवचनपरीक्षा : ले. धर्मसागर उपाध्याय। इसमें चावडा, चालुक्य और बघेलों की वंशावलियां दी गई हैं।
नाभीनन्दनोद्धार प्रबन्ध : (या शत्रुजय तीर्थोद्धार प्रबन्ध) : ले. कक्कसूरि। गुरु सिद्धसूरि । ई. 15 वीं शती। इसमें तुगलक राजवंश तथा गुजरात के अंतिम महाजन समराशाह के संबंध में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है।
मुगल शासन के कुछ ऐतिहासिक तथ्यों की भरपूर जानकारी पद्मसुन्दरकृत पार्श्वनाथ काव्य, रायमल्लाभ्युदय, अकबरशाही शृंगारदर्पण में तथा कर्मवंशोत्कीर्तन काव्य, हीरसौभाग्य महाकाव्य शान्तिचंद्रकृत कृपारसकोश, सिद्धिचंद्रकृत भानुचंद्रगणिचरित, हेमविजय गणिकृत विजयप्रशस्ति महाकाव्य, श्रीवल्लभ उपाध्यायकृत विजयदेवमाहात्म्य, मेघविजय गणिकृत विजयदेवमाहात्म्य विवरण, दिग्विजय शव्य एवं देवानंद महाकाव्य इत्यादि जैन काव्यग्रंथों मे मुख्य वर्णनीय विषयों के साथ आनुषंगिक रीति से प्राप्त होती है जिससे मूल बादशाह के व्यवहार का परिचय मिलता है।
वैदिक वाङ्मय में "नाराशंसी गाथा" अर्थात् प्रसिद्ध वीरों की प्रशंसा के सूत्रों का उल्लेख प्रसिद्ध हैं। इन्हीं गाथाओं से वीर नरेश के पराक्रम की घटनाओं का वर्णन करने की परंपरा का प्रारंभ माना जाता है। इसी काव्यप्रणाली में आलंकारिक शैली में इतिहास प्रसिद्ध व्यक्तियों की प्रशस्तियां निर्माण हुई जिनसे भारतीय इतिहास के संयोजन के लिए बहुत सी सामग्री प्राप्त होती है। समुद्रगुप्त के संबंध में इलाहाबाद के स्तंभपर उत्कीर्ण, हरिषेणकृत प्रशस्ति, मन्दसौर के सूर्यमंदिर की वत्सभट्टिकृत प्रशस्ति, गिरनार शिलालेखों के रूप में प्राप्त रुद्रदामन् की प्रशस्ति एवं सिद्धसेन दिवाकरकृत गुणवचन द्वत्रिंशिका नामक चंद्रगुप्त (द्वितीय) की प्रशस्ति इत्यादि प्रशस्तिस्वरूप काव्यों का भारत के इतिहास में अत्यंत महत्त्व माना गया है। अनेक प्रशस्तियां स्थापत्य से संबद्ध हैं, जिनमें स्थापत्य निर्माता या दाता के वृतान्त के साथ तत्कालीन राजा से संबंधित वृतान्त उपलब्ध होता है। स्थापत्य प्रशस्तियों के समान ग्रन्थों के प्रारंभ में या अंतिम पुष्पिकाओं में अथवा अध्याय समाप्ति में जो ग्रंथ प्रशस्तियां उपलब्ध होती हैं उनमें महनीय ग्रंथकारों के संबंध में महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक जानकारी प्राप्त होती है। प्रशस्तिस्वरूप काव्यों में उदयप्रभ सूरिकृत सुकृतकीर्तिकल्लेल्लिनी, जयसिंहसूरिकृत वस्तुपाल-तेजपाल प्रशस्ति, नरचन्द्र, नरेन्द्रप्रभ, यशोवीर और अरिसिंह ठक्कुर द्रारा लिखित वस्तुपाल की प्रशस्तियां विशेष उल्लेखनीय हैं। इसी प्रकार मुनि जिनविजयजी द्वारा संपादित जैनपुस्तक प्रशस्तिसंग्रह, अमृतलाल मगनलाल शाह द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह (भाग 2), के, भुजबती शास्त्री द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह, परमानन्द शास्त्री कृत जैनग्रंथ प्रशस्तिसंग्रह और कस्तूरचंद्र कासलीवाल द्वारा संपादित प्रशस्तिसंग्रह ग्रंथ तथा ग्रंथकारों की प्रशस्तियां महत्त्वपूर्ण जानकारी की दृष्टि से ऐतिहासिक वाङ्मय में विशेष उल्लेखनीय हैं।
मुनि दर्शनविजय, मुनि जिनविजय पंचकल्याणविजयगणि इत्यादि विद्वानों ने जैनधर्म के संघों की गुरु-शिष्य परंपरा का
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लिखी गयीं, जिन
(ई-13 वीं शती) कृत शतामालास्तवन, शीलविजयका प्राचीन जैन आचार्यों
परिचय देने वाली "पट्टावलियों' एवं 'गुर्वावलियों' के संग्रह प्रकाशित किए हैं। इनमें संगृहीत पट्टावली तथा गुर्वावलि से श्वेतांबर तथा दिगंबर सम्प्रदाय के विद्वान आचार्यो की अखंडीत परंपरा का परिचय प्राप्त होता है। अतः इनका ऐतिहासिक महत्त्व निर्विवाद है।
ऐतिहासिक नगरों एवं तीर्थक्षेत्रों का परिचय पुराणों एवं महाकाव्यों में मिलता है। जैन वाङ्मय में इसी विषय पर तीर्थमालाएं लिखी गयीं, जिनमें तीर्थक्षेत्रों और उनकी पदयात्रा करने वाले महानुभावों का परिचय प्राप्त होता है। इस प्रकार के ऐतिहासिक वाङ्मय में धनेश्वर सूरि (ई-13 वीं शती) कृत शत्रुजय माहात्म्य, मदनकीर्ति कृत शासन-चतुस्त्रिंशिंका, जिनप्रभूसरिकृत विविधतीर्थकल्प, महेन्द्रसूरिकृत तीर्थमाला प्रकरण, एवं धर्मघोष कृत तीर्थमालास्तवन, शीलविजयकृत तीर्थमाला, और ज्ञानसागरकृत तीर्थावली इत्यादि उल्लेखनीय हैं। विजयधर्म सूरि ने प्राचीन तीर्थमाला संग्रह प्रकाशित कराया है। प्राचीन जैन आचार्यों में "विज्ञप्तिपत्र" लिखने की पद्धति थी। इनमें कुछ संस्कृत में लिखे गये हैं। इन पत्रों के रूप में विनयविजयकृत इन्दुदूत, विजयामृतसूरिकृत मयूरदूत, मेघविजय कृत समस्यालेख तथा चेतोदूत जैसे मनोहर खंडाकाव्य मिले हैं। विज्ञप्ति पत्रों में सुन्दरसूरि द्वारा अपने गुरु देवसुन्दरसूरि को लिखा हुआ त्रिदशतंरगिणी, जयसागरगणि ने अपने गुरु जिनभद्रसूरि को लिखा हुआ विज्ञप्ति-त्रिवेणी, विनयाविजय का इन्दुदूत याने उन्होंने अपने गुरु विजयप्रभसूसिर की लिखा हुआ विज्ञप्तिपत्र है। विजयाविजय तथा अन्य विज्ञप्तिपत्र विजयानंदसूरि तथा विजयदेव सूरि के प्रति भेजे थे। डॉ. हीरानन्द शास्त्री के "एन्शन्ट विज्ञप्ति पत्रा" नामक संग्रह में 24 विज्ञप्ति पत्रों का परिचय दिया है जिन में 6 संस्कृत में है।
प्राचीन काल में शिला, स्तम्भ, ताम्रपट काष्ठपट्टियां, कपड़ा आदि पर राजाओं की बिरुदावलियां, संग्रामविजय, वंशपरिचय तथा राजनीतिक शासनपत्र, उत्कीर्ण करने की पद्धति थी। प्राचीन इतिहास की जानकारी के लिए इस प्रकार के "अभिलेख साहित्य" का महत्त्व निर्विवाद माना जाता है।
इस प्रकार के अभिलेखों में कलिंग-नरेश खारवेल का हाथीगुंफा शिलालेख (ई.पू.प्रथम-द्वितीय शती) रविकीर्तिचरित, चालुक्य पुलकेशि द्वितीय का शिलालेख (ई.7 वीं शती) कक्कुक का घटियाल प्रस्तलेख (ई.10 वीं शती) हथुडी के धवल राष्ट्रकूट का बीजापुरलेख (ई. 10 वीं शती) विजयकीर्ति मुनिकृत सिंग्र कछवाहा का दुधकुण्ड लेख, (ई.11 वीं शती) जयंमगल सूरि विरचित चायिंग चाहमान का सुन्धाद्रिलेख, अमोघवर्ष का कोनर शिलालेख, मल्लि-षेण प्रशस्ति, सुदह, मदनूर, कुलचुम्बरु और लक्ष्मेश्वर आदि से प्राप्त लेख संस्कृत भाषीय गद्य तथा पद्य काव्य के अच्छे उदाहरण माने जाते हैं। इस प्रकार के सैकड़ों अभिलेखों का संपादन, प्रकाशन, परीक्षण करने का कार्य जेम्स प्रिन्सेप, जनरल कनिंगहॅम, राजेन्द्रलाल मित्र, ई. हुल्श, जे.एफ. फ्लीट, लुई राईस, गेरिनो, भगवानलाल इन्द्रजी, राखालदास बैनर्जी, काशीप्रसाद जायस्वाल, वेणीमाधव बरुआ, शशिकान्त जैन, डॉ. हीरालाल जैन, पद्मभूषण डॉ. वा. वि. मिराशी, विजय मूर्तिशास्त्री, पूरण चन्द्र नाहर, डॉ. विद्याधर जोहरापूरकर, डॉ. गुलाब चौधरी, इत्यादि विद्वानों द्वारा हुआ है। एपिग्राफिका इंडिका, इंडियन एण्टिक्वेरी, जर्नल ऑफ रॉयल एशियाटिक सोसायटी, जैन शिलालेखसंग्रह, जैसी पत्रिकाएं एवं ग्रंथों के विविध खंडों में इन अभिलेखों का प्रकाशन हो चुका है। संस्कृत भाषा के ऐतिहासिक वाङ्मय में इस प्रकार के साहित्य का, अज्ञात जानकारी को जानने की दृष्टि से, अत्यंत महत्त्व है।
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प्रकरण - 5 न्याय-वैशेषिक दर्शन
1 "न्याय दर्शन"
भारतीय आस्तिक दर्शनों में न्यायदर्शन को अग्रस्थान दिया जाता है :
गौतमस्य कणादस्य कपिलस्य पतंजलेः। व्यासस्य जैमिनेश्चापि दर्शनानि षडेव हि ।। इस सुप्रसिद्ध श्लोक में षड्दर्शनों के प्रवर्तकों की गणना में न्यायशास्त्र के सूत्रकार गौतम का निर्देश सर्वप्रथम किया है। न्यायशास्त्र का महत्त्व प्रतिपादन करते हुए न्यायसूत्र के भाष्यकार वात्स्यायन कहते हैं :
प्रदीपः सर्वविद्यानाम् उपायः सर्वकर्मणाम्। आश्रयः सर्वधर्माणां विद्योद्देशे प्रकीर्तिता।। (यह न्यायविद्या अन्य विद्याओं को प्रकाशित करने वाला प्रदीप है। सारे कर्मों की युक्तायुक्तता जानने का उपाय है और सभी धर्मों का आश्रय है)। "प्रमाणैः अर्थपरीक्षणं न्यायः" यह न्यायशास्त्र का प्रथम मूलसूत्र है जिस के आधार पर, परीक्षा करते हुए, उसकी सत्यात्यता निर्धारित करना, इस शास्त्र का प्रयोजन है। जो विचार न्याय के सिद्धान्तों के अनुसार सिद्ध नहीं होता वह अप्रामाणिक होने से सर्वथा अग्राह्य मानने की बुद्धिवादी विद्वानों की परंपरा होने से, इस शास्त्र का महत्त्व परंपरागत अध्ययन की पद्धति में विशेष माना जाता है। "प्रमाणैरर्थपरीक्षणं न्यायः" इस व्याख्या के अनुसार न्यायशास्त्र को प्रमाणशास्त्र प्रमाणविद्या, हेतुविद्या भी कहा गया है।
महर्षि गौतम इस शास्त्र के आद्य सूत्रकार हैं, तथापि इसका अस्तित्व उनसे प्राचीन काल में भी था। छांदोग्य उपनिषद में अनेक शास्त्रों की नामावलि में "वाकोवाक्यम्" नामक शास्त्र का उल्लेख मिलता है। श्री शंकराचार्यजी ने "वाकोवाक्य" का अर्थ दिया है तर्कशास्त्र अर्थात् न्यायशास्त्र। इन नामों के अतिरिक्त इस शास्त्र का और एक नाम है, “आन्वीक्षिकी"। कौटिल्य ने अपने अर्थशास्त्र में राजपुरुषों के लिए आन्वीक्षिकी, त्रयी, वार्ता और दण्डनीति इन चार विद्याओं का अध्ययन आवश्यक बताया है। इन चारों विद्याओं में आन्वीक्षिकी का विशेष महत्त्व बताते हुए अर्थशास्त्रकार कौटिल्य कहते हैं : "बलाबले चैतासां हेतुभिरन्वीक्षमाणा आन्वीक्षिकी लोकस्य उपकरोति, व्यसने अभ्युदये च बुद्धिम् अवस्थापयति, प्रज्ञावैशारद्यं च करोति'। अर्थात यह आन्वीक्षिकी विद्या, त्रयी (वेद), वार्ता (अर्थवाणिज्यादि व्यवहार शास्त्र) और दण्डनीति (राजनीति शास्त्र) इन तीन विद्याओं के बलाबल की परीक्षा करने वाली, संकट में और अभ्युदय काल में बुद्धि को स्थिर रखने वाली और बुद्धि को सतेज करने वाली होने के कारण, विशेष महत्त्व रखती है। कौटिल्य ने न्यायशास्त्र के अर्थ में ही “आन्वीक्षिकी" शब्द का प्रयोग किया है।
न्यायशास्त्र के विकास में खण्डन-मण्डन की परम्परा दिखाई देती है। मौतम के न्यायसूत्र से इस शास्त्र का प्रारंभ होता है। इस प्रथम ग्रंथ में ही बौद्ध सिद्धान्तों का खण्डन सूचित करने वाले कुछ सूत्र माने गये है। परंतु न्यायसूत्र का बौद्धमत से प्राचीनत्व कुछ विद्वान मानते हैं। उनके मतानुसार, सबसे पूर्व गौतम के अध्यात्म-प्रधान न्यायसूत्र की रचना हुई है। उसके बाद अक्षपाद ने उसका नवीन संस्करण किया और बौद्ध युग में उनसे कुछ प्रक्षेप और परिवर्धन होकर ही न्यायशास्त्र को वर्तमान स्वरुप प्राप्त हुआ है। न्यायसूत्रकार गौतम का समय ई. पू. छठी तथा चौथी शताब्दी माना जाने के कारण यह विचार रखा गया। इ.पू. दूसरी शती में वात्स्यायन ने न्यायसूत्रों का विस्तृत भाष्य लिखा। इस भाष्य में प्रतिपादित बौद्ध मत के प्रतिकूल विचारों का खण्डन बौद्धदार्शनिक दिङ्नागाचार्य ने अपने प्रमाण समुच्चय में किया। वसुबन्धु और नागार्जुन ने भी बौद्धमत विरोधी विचारों का खंडन करने का प्रयत्न किया। ई. छठी शताब्दी में उद्योतकराचार्य ने वात्स्यायन के न्यायभाष्य पर न्यायवार्तिक की रचना की। इस में दिङ्नागादि बौद्ध नैयायिकों ने आत्मतत्त्व के विरोध में जो प्रबल तर्क उपस्थित किये थे, उनका प्रखर खंडन उद्योतकराचार्य ने किया। बौद्ध और वैदिक न्यायशास्त्रियों के खण्डन-मण्डन में आत्मा और ईश्वर का अस्तित्व यह प्रमुख विवाद्य विषय था। उद्योतकर द्वारा प्रस्तुत तों का खंडन करने का प्रयास धर्मकीर्ति आदि कुछ बौद्ध पंडितों द्वारा हुआ। उनका खण्डन सुप्रसिद्ध भाष्यकार वाचस्पति मिश्र (9 वीं शती) ने अपनी न्यायवार्तिकतात्पर्यटीका में किया। 9 वीं शती में जयंत भट्ट ने न्यायसूत्र पर न्यायमंजरी नामक ग्रंथ लिखा, जिसमें चार्वाक, बौद्ध, मीमांसक और वेदान्तवादी विद्वानों के न्यायविरोधी युक्तिवादों का खण्डन किया है। इसी शताब्दी में भासर्वज्ञ ने "न्यायसार" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। दसवीं शती में उदयनाचार्य ने
130 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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कारण उदयनाचार्य कृत अपोहनाम-प्रकार द्वारा उन्होंने, कल्यागतवाद
त का प्रशिककृत
"न्यायवार्तिकतात्पर्य-टीका-परिशुद्धि" लिखकर वाचस्पति मिश्र की तात्पर्य-टीका के विरोध में बौद्ध पंडितों द्वारा, प्रस्तुत युक्तियों का खण्डन किया। 9 वीं शती में बौद्ध दार्शनिक कल्याणरक्षित ने अपनी ईश्वर-भंगकारिका में ईश्वरास्तित्व विरोधी अनेक युक्तिवाद प्रस्तुत किये थे। उन सब का खंडन उदयनाचार्य ने "कुसुमांजलि'' ग्रंथ में किया। अपने आत्मतत्वविवेक द्वारा उन्होंने, कल्याणरक्षित कृत अन्यापोहविचारकारिका, और श्रुतिपरीक्षा तथा धर्मोत्तराचार्य (ई. 9 वीं शती) कृत अपोहनाम-प्रकरण एवं क्षणभंगसिद्धि इन ग्रन्थों में प्रतिपादित नास्तिक विचारों का खंडन किया। इसी कारण उदयनाचार्य का आत्मतत्त्वविवेक ग्रंथ "बौद्धधिक्कार" इस वैशिष्ट्यपूर्ण नाम से प्रसिद्ध है। उदयनाचार्य द्वारा बौद्धमतों का पूर्णतया निर्मूलन होने के कारण, न्यायशास्त्र के विकास में सदियों से चली नैयायिक और बौद्धों की खंडन-मण्डन की परंपरा कुण्ठित हुई।
खण्डन-मण्डनात्मक ग्रन्थ लेखन की परंपरा अन्य क्षेत्रों में भी दिखाई देती है। प्राचीन काल में दक्षिण भारत में शैव-वैष्णवों का मतविरोध प्रसिद्ध है। आधुनिक काल में भी वह वाङ्मयीन क्षेत्र में जारी है। ई. 14 वीं शती में हुक्केरी (कर्नाटक) के बसव नायक ने शिवतत्त्व-रत्नाकर नामक ग्रंथ लिखा। संगांतगंगाधरकार नंजराज (मैसूर निवासी) ने शैव-तत्त्वज्ञान विषयक 18 ग्रन्थ लिखे। त्यागराज मखी (राजशास्त्रिगल) ने शिवाद्वैत विषयक न्यायेन्दुशेखर की रचना की। इन ग्रंथों में प्रतिपादित शैवमत के खंडनार्थ "रामनाडनिवासी वेंकटेश ने विष्णुतत्त्वनिर्णय (अपर नाम त्रिंशतश्लोकी) ग्रंथ लिख कर वैष्णवमत का मंडन किया। उसका खंडन करने के हेतु अप्पय्य दीक्षित (18 वीं शती) ने विमत-भंजनम् ग्रंथ लिखा, जिसमें उन्होनें त्यागराजमखी के शिवाद्वैत मत का समर्थन किया। किसी रामशास्त्री ने नवकोटी नामक ग्रंथ में शैवसिद्धान्त का मंडन किया, उसका खंडन अण्णंगराचार्य शेष ने “दशकोटी” नामक ग्रंथ द्वारा हिया। किसी महादेव पंडित ने प्रपंचामृतसार नामक ग्रंथ में रामानुज एवं माधव मत का खंडन करते हुए अद्वैत मत का प्रतिपादन किया। कंदाड अप्पकोंडाचार्य ने अद्वैतविरोधी तथा वैष्णव विशिष्टाद्वैतवादी साठ ग्रंथ लिखे। चम्पकेश्वर ने शांकर और माध्व मत के विरोधी “वादार्थमाला" नामक ग्रंथ की रचना की। वेदान्तदेशिक कृत शतदूषणी के खंडनार्थ आन्दान श्रीनिवास ने “सहस्रकिरणी' की रचना की। प्रस्थानत्रयी के सुप्रसिद्ध भाष्यकार आचार्यों के भाष्य ग्रन्थों में यह खण्डन-मण्डन की प्रणाली दिखाई देती है, जिसका अनुकरण उपरिनिर्दिष्ट शैव-वैष्णवों के ग्रंथों में हुआ है। इस प्रणाली का मूल न्यायशास्त्र के इतिहास में मिलता है। अस्तु!!
अक्षपाद गौतम (या गोतम) के न्यायसूत्र पर ई. 17 वीं शती में कुछ उल्लेखनीय टीका ग्रंथ लिखे गये :लेखक
टीकाग्रंथ रामचन्द्र
न्यायरहस्यम्। विश्वनाथ
न्यायसूत्रवृत्ति । गोविन्द शर्मा
न्यायसंक्षेप। जयराम
न्यायसिद्धान्तमाला। न्यायदर्शन में नव्यन्याय की प्रणाली का प्रारंभ होने पर लिखी जाने के कारण इन टीकाओं का विशेष महत्त्व माना जाता है।
2 "नव्यन्याय"
ई. 12 वीं शताब्दी तक सूत्र-भाष्य पद्धति से न्यायशास्त्र का अध्ययन करने की परंपरा चलती रही। परंतु 12 वीं शताब्दी के महान् नैयायिक गंगोशोपाध्याय के तत्त्वचिन्तामणि नामक चतुःखंडात्मक महनीय ग्रंथ के कारण यह गतानुगतिक पद्धति समाप्त सी हो गयी। तत्त्वचिन्तामणि में, प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द इन न्यायशास्त्रोक्त चार प्रमाणों पर प्रत्येकशः एक खंड लिखा गया है। गौतम के न्यायसूत्र से लेकर आत्मा, पुनर्जन्म, मोक्ष जैसे आध्यात्मिक विषयों की विस्तारपूर्वक चर्चा करने की जो पद्धति न्यायशास्त्र मे रुढ हुई थी, वह गंगेशोपाध्याय के ग्रंथ के कारण बंद हुई। आध्यात्मिकशास्त्र से अब न्यायशास्त्र पृथक् सा हो गया और "नव्यन्याय' का उदय हुआ। तत्त्वचिन्तामणि का प्रचार बंगाल, तमिलनाडू, महाराष्ट्र, काश्मीर जैसे दूरवर्ती प्रदेशों में भी हआ। गंगेश के पत्र वर्धमान ने तत्त्वचिन्तामणि पर प्रकाश नामक टीका लिखी। 13 वीं शती में पक्षधर मिश्र ने तत्त्वचिन्तामणि पर आलोक नामक टीका लिखी। 14 वीं शती में नवद्वीप (बंगाल) के श्रेष्ठ नैयायिक रधुनाथ शिरोमणि ने तत्त्वचिन्तामणि पर दीधिति नामक वैशिष्ट्यपूर्ण टीका लिखी, जिसमें उन्होंने अपने निजी अभिनव सिद्धान्तों की स्थापना की है। यह टीका मुख्यतः अनुमानखंड और शब्दखंड पर ही है। रधुनाथ शिरोमणि के श्रेष्ठ शिष्य मथुरानाथ तर्कवागीश ने तत्त्वचिन्तामणि के चारों खंडों पर और उसकी दीधिति टीका एवं आलोक टीका पर गूढाप्रकाशिनी-रहस्य नामक टीका लिखी। ई. 17 वीं शती में जगदीश भट्टाचार्य ने अनुमान खंड की दीधिति पर "जागदीशी" नामक सविस्तर टीका लिखी। इसके अतिरिक्त तर्कामृत और शब्दशक्तिप्रकाशिका नामक दो श्रेष्ठ ग्रंथ जगदीश भट्टाचार्य ने लिखे हैं। नैयायिकों की इस महनीय परंपरा में गदाधर भट्टाचार्य (ई. 17 वीं शती) अंतिम श्रेष्ठ पंडित माने जाते हैं। इनकी गादाधरी (दीधिति की टीका) तथा मूल गादाधरी (आत्मतत्त्वविवेक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /131
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एवं तत्त्वचिन्तामणि के कुछ अंश की टीका) उनकी वैशिष्ट्यपूर्ण क्लिष्ट शैली के कारण प्रसिद्ध है। गदाधर भट्टाचार्य ने लिखे हुए न्यायशास्त्र विषयक ग्रंथों की कुलसंख्या 52 है, जिनमें व्युत्पत्तिवाद और शक्तिवाद विशेष प्रसिद्ध हैं।
उपनिर्दिष्ट प्रौढ पांडित्यपूर्ण टीकात्मक ग्रंथों के कारण न्यायशास्त्र में जो दुर्बोधता निर्माण हुई थी, उससे मुक्त कुछ सुबोध ग्रंथ लिखे गये, जिनमें विश्वनाथ न्यायपंचायनन कृत भाषापरिच्छेद, केशव मिश्र कृत तर्कभाषा, और अन्नंभट्ट कृत तर्कसंग्रह सर्वत्र प्रचलित हैं। तर्कसंग्रह पर रुद्रराम, नीलकण्ठ, महादेव पुणतामकर आदि की टीकाएँ प्रसिद्ध हैं। केशवमिश्रकृत तर्कभाषापर 14 टीकाएँ लिखी गयी है, जिनमें नागेशकृत युक्तिमुक्तावली, विश्वकर्मकृत न्यायप्रदीप जैसी कुछ लोकप्रिय हैं।
डॉ. सतीशचन्द्र विद्याभूषण ने अपने "हिस्ट्री ऑफ इंडियन लॉजिक" नामक ग्रंथ में अर्वाचीन काल के कुछ प्रसिद्ध नैयायिकों के ग्रन्थों का परामर्श किया है, जिनमें 17-18 वीं शताब्दी के लेखकों में हरिराम तर्कसिद्धान्त, कृष्णानन्द वाचस्पति, जगन्नाथ तर्कपंचानन, राधामोहन गोस्वामी, कृष्णकान्त, हरिराम, गंगाराम जडी (जगदीश कृत तर्कामृत के टीकाकार), कृष्णभट्ट आर्डे (गादाधारी के टीकाकार) रामनारायण, रामनाथ इत्यादि विद्वानों के नाम उल्लेखनीय हैं। 19 और 20 वीं शताब्दी में भी यह परंपरा शंकर, शिवनाथ, कृष्णनाथ, श्रीराम, माधव, हरमोहन, प्रसन्नतर्करत्न, राखालदास न्यायरत्न, कैलाशचन्द्र शिरोमणि, सीतारामशास्त्री, धर्मदत्त, बच्चा झा, वामाचरण भट्टाचार्य, बालकृष्ण मिश्र, शंकर तर्करत्न, इत्यादि प्रख्यात नैयायिकों ने अखंडित रखी है। गंगेशोपाध्याय से लेकर प्राचीन न्याय की परंपरा खंडित होकर नव्यन्याय का प्रारंभ हुआ, जिसका आधारभूत ग्रंथ तत्त्वचिन्तामणि करीब 300 पृष्ठों का है परंतु उस पर लिखे गये भाष्यात्मक ग्रंथों की पृष्ठसंख्या दस लाख से अधिक मानी जाती है। ई. पू. चौथी शती से ई. 17 वीं शती तक के प्रदीर्घ कालखंड में न्यायशास्त्र पर लिखे गये प्रमुख ग्रंथों की संख्या 20 या 25 से अधिक नहीं परंतु उनमें चर्चित विचारों में जो सूक्ष्मता और गहनता है, वह सर्वथा आश्चर्यकारक है। भारतीय विचारों की व्यापकता रामायण-महाभारत और भागवत में मिलती है। उनकी सूक्ष्मता और गहनता न्यायशास्त्र के प्रमुख ग्रंथों में दीखती है। गंगेशोपाध्याय (ई. 13 वीं शती) से प्रवर्तित नव्यन्याय की परंपरा 16 वीं शती तक मिथिला में प्रभावी थी। मिथिला के पंडित वहाँ के न्याय ग्रंथों को अपने क्षेत्र के बाहर नहीं जाने देते थे। 14 वीं शती में बंगाल के सुप्रसिद्ध नैयायिक वासुदेव सार्वभौम ने जयदेव (या पक्षधर) मिश्र के पास अध्ययन करते हुए तत्त्वचिन्तामणि और न्याय-कुसुमांजलि ये दो ग्रंथ कंठस्थ किये और काशी में रह कर उनका लेखन किया। बाद में नवद्वीप में लौटकर न्यायशास्त्र के अध्ययन के लिए अपने निजी विद्यापीठ की स्थापना की। तब से न्यायशास्त्र की मैथिल शाखा खंडित होकर, नवद्वीप शाखा प्रचलित हुई। 16 वीं शती से इस शाखा के अनेक प्रसिद्ध नैयायिकों ने पांडित्यपूर्ण ग्रंथों की रचना की। यथा रधुनाथ शिरोमणि (वासुदेव सार्वभौम के शिष्य) 16-17 वीं शती।। ग्रंथ - तत्त्वचिंतामणिदीधिति, बौद्धधिक्कार, शिरोमणि, पदार्थतत्त्वनिरूपण, किरणावलि-प्रकाशदीपिका, न्यायलीलावती, प्रकाशदीधिति, अवच्छेदकत्वनिरुक्ति, खण्डनखण्डखाद्यदीधिति, आख्यातवाद नवाद (कुल 9 ग्रंथ)। .
हरिदास न्यायालंकार भट्टाचार्य : (वासुदेव सार्वभौम के शिष्य)- 16-17 वीं शती। ग्रंथ - न्यायकुसुमांजलि-कारिका-व्याख्या, तत्वचिन्तामणि प्रकाश, भाष्यालोकटिप्पणी।
जानकीनाथ शर्मा : 16-17 वीं शती। ग्रंथ - न्यायसिद्धान्तमंजरी । कणादतर्कवागीश : 17 वीं शती। ग्रन्थ - मणिव्याख्या, भाषारत्न, अपशब्दखंडन । रामकृष्ण भट्टाचार्य चक्रवर्ती : (रघुनाथ शिरोमणि के पुत्र) : 17 वीं शती । ग्रन्थ - गुणशिरोमणि-प्रकाश, न्यायदीपिका।
मथुरानाथ तर्कवागीश : (रघुनाथ के पुत्र) : 17 वीं शती। इनके द्वारा लिखित कुल 10 ग्रन्थों में आयुर्वेदभावना के अतिरिक्त अन्य सारे ग्रंथ न्यायशास्त्र विषयक हैं - तत्वचिन्तामणिरहस्य, तत्वचिन्तामणि-अलोकरहस्य, दीधितिरहस्य, सिद्धान्तरहस्त, किरणावलिप्रकाश-रहस्य, न्यायलीलावतीरहस्य, बौद्धधिक्काररहस्य और क्रियाविवेक आदि।
कृष्णदास सार्वभौम भट्टाचार्य : 17 वीं शती। ग्रंथ - तत्त्वचिन्तामणिदीधिति-प्रसारिणी, अनुमानालोकप्रसारिणी।
गुणानन्द विद्यावागीश : 17 वीं शती। ग्रंथ - अनुमान-दीधिति-विवेक, आत्मतत्त्वविवेक-दीधितिटीका, गुणविवृत्तिविवेक, न्यायकुसुमांजलि-विवेक, न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति-विवेक और शब्दालोकविवेक। कुल 6 ग्रंथ।
रामभद्रसार्वभौम : 17 वीं शती। ग्रंथ - दीधितिटीका, न्यायरहस्य, गुणरहस्य, न्यायकुसुमांजलि-कारिका-व्याख्या, पदार्थविवेक-प्रकाश, षट्चक्रकर्म-दीपिका। (कुल 6 ग्रंथ।)
जगदीश तर्कालंकार : 17 वीं शती । ग्रंथ- तत्त्वचिन्तामणि-दीधिति-प्रकाशिका (जागदीशी नाम से प्रसिद्ध), तत्त्वचिन्तामणि-मयूख, न्यायादर्श (न्यायसारावलि) शब्दशक्तिप्रकाशिका, तर्कामृत, पदार्थ-तत्वनिर्णय, न्यायलीलावती-दीधिति-व्याख्या। (कुल 7 ग्रंथ ।)
रुद्रन्यायवाचस्पति : 17 वीं शती। ग्रंथ - तत्त्वचिन्तामणि दीधिति-परीक्षा ।
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भवनानन्द सिद्धान्त वागीश : 17 वीं शती ग्रंथ तत्त्वचिन्तामणिदीधिति प्रकाशिका, प्रत्यगालोकसार मंजरी, 1 और कारक- विवेचन (व्याकरण) ।
हरिराम तर्कवागीश : 17 वीं शती ग्रंथ स्वप्रकाश-रहस्य- विचार ।
I
रामभद्र सिद्धान्तवागीश : 17 वीं शती ग्रंथ गोविन्दन्वायवागीश 17 वीं शती न्यायसंक्षेप
1
-
तत्त्वचिन्तामणि- टीका-विचार, आचार्यमतरहस्य- विचार, रत्नकोष-विचार और
सुबोधिनी (शब्दशक्तिप्रकाशिका टीका) पदार्थखंडन व्याख्या समासवाद।
गूढार्थदीपिका, नवीन निर्माण, दीधिति-टीका, न्यायकुसुमांजलि कारिका व्याख्या
रघुदेव न्यायालंकार 17 वीं शती ग्रन्थ द्रव्यसारसंग्रह, पदार्थखंडन - व्याख्या ।
गदाधर भट्टाचार्य : 17 वीं शती ग्रन्थ तत्त्वचिन्तामणि दीधिति प्रकाशिका, तत्त्वचिंतामणिव्याख्या तत्त्वचिंतामणि आलोकटीका, मुरली टीका कोपवाद रहस्य, अनुमान चिन्तामणिदीधिति टीका, मुक्तावली रत्नकोषवाद-रहस्य, आख्यात वाद, कारकवाद, नञ्वाद, प्रामाण्यवाद दीधितिटीका, शब्दप्रमाण्यवादरहस्य, बुद्धिवाद, युक्तिवाद, विधि-वाद, विषयतावाद, व्युत्पत्ति-वाद, शक्तिवाद और स्मृतिसंस्कारवाद । कुल 18 ग्रंथ) ।
विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन : 17 वीं शती ग्रन्थ अलंकारपरिष्कार, कव्वादटीका, न्यायसूत्रवृत्ति पदार्थतत्त्वानोक न्यायतत्वबोधिनी भाषापरिच्छेद और सुबर्थप्रकाश तथा पिंगलप्रकाश ।
न्यायसिद्धान्तमंजरी- - भूषा।
नृसिंह पंचानन 17 वीं शती ग्रन्थ श्रीकृष्ण न्यायालंकार :17 वीं शती ग्रन्थ राजचूडामणि मखी : 17 वीं शती । ग्रंथ धर्मराजाध्वरीण: 17 वीं शती ग्रंथ-तत्वचिन्तामणि- प्रकाशिका । गोपीनाथ मौनी : 17 वीं शती ग्रंथ 1 रामरुद्र तर्कवागीश : 17-18 वीं शती ग्रंथ सिद्धान्तमुक्तावली टीका और कारकनिर्णय टोका।
1
17-18 वीं शती । ग्रंथ
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भावदीपिका (न्यायसिद्धान्तमंजरी-टीका) । तत्त्वचिन्तामणि- दर्पण |
-
तत्त्वचिन्ताटीका
शब्दालोकरहस्य, उज्ज्वला (तर्कभाषाटीका), पदार्थविवेक 1
तत्त्वचिन्तामणि दीधिति टीका, व्याप्तिवाद व्याख्या, दिनकरीय-प्रकाशतरंगिणी,
जयराम तर्कालंकार
शक्तिवाद - टीका ।
17-18 वीं शती । ग्रंथ
जयराम न्यायपंचानन तत्त्वाचिन्तामणि- दीपिका गूढार्थविद्योतन, तत्त्वचिंतामणि- आलोकविवेक, न्यायसिद्धान्तमाला, गुणदीधितिविवृत्ति, न्यायकुसुमांजलिकारिका व्याख्या, पदार्थमणिमाला और काव्यप्रकाश-तिलक ( कुल 9 ग्रंथ) । गौरीकान्तसार्वभौम 18 वीं शती ग्रंथ भावार्थदीपिका (तर्कभाषा की टीका), संयुक्तमुक्तावलि, आनन्दलहरीवटी और विदग्धमुखामण्डनवीटिका।
।
-
रुद्रराम : 18 वीं शती । ग्रन्थ वादपरिच्छेद, व्यख्या कृष्णकान्त विद्यावागीश 18 वीं शती कृष्णभट्ट आर्डे : 18 वीं शती । ग्रन्थ महादेव उत्तमकर 18 वीं शती ग्रन्थ रघुनाथशास्त्री : 18 वीं शती ग्रंथ
-
व्यूह, चित्तरूप, अधिकरणचन्द्रिका और वैशेषिक- शास्त्रीय-पदार्थ-निरुपण । ग्रंथ न्यायरत्नावली, उपमानचिन्तामणि- टीका, शब्दशक्ति प्रकाशिका इत्यादि । गदाधरी-कर्णिका
व्याप्तिरहस्य - टीका ।
गादाधरी पंचवाद टीका ।
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3 "न्यायशास्त्र का ज्ञेय"
"ऋते ज्ञानात् न मुक्तिः" ( ज्ञान बिना मुक्ति नहीं ) यह भारतीय दार्शनिकों का सर्वमान्य परम श्रेष्ठ सिद्धान्त है । परंतु पारमार्थिक ज्ञान के ज्ञेय के विषय में तथा ज्ञातव्य वस्तु के स्वरूप में सभी दार्शनिकों में मार्मिक मतभेद हैं। न्याय दर्शन के अनुसार प्रमाण, प्रमेय, संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क, निर्णय, वाद, जल्प, वितंडा, हेत्वाभास, छल, जाति और निग्रहस्थान, इन 16 पदार्थों के यथार्थज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। शुद्धज्ञान की प्राप्ति के विविध साधनों का सूक्ष्म विचार यही न्यायशास्त्र का योगदान है और इसी कारण अन्य शास्त्रों ने न्यायशास्त्र द्वारा प्रस्तुत प्रमाणविचार एवं हेत्वाभास विचार स्वीकृत किया हैं। वैदिक न्यायशास्त्र में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान और शब्द ये चार प्रमाण माने हैं, इसका कारण प्रमाण (याने ययार्थनुभव) के भी चार प्रकार होते हैं। न्यायशास्त्र के अनुसार प्रमेय में आत्मा, शरीर, इन्द्रिय, अर्थ, बुद्धि, मनःप्रवृत्ति, दोष, प्रेत्यभाव (पुनर्जन्म ), फल दुःख और अपवर्ग ( या मोक्ष) इन 12 आध्यात्मिक विषयों का अन्तर्भाव होता है। नैयायिकों के अनुसार आत्मा का स्वरूप विभु नित्य और प्रतिशरीर भिन्न है।
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अन्य पदार्थों में संशय, प्रयोजन, दृष्टान्त, सिद्धान्त, अवयव, तर्क आदि 14 पदार्थों का महत्त्व केवल शास्त्रार्थ या वाद-विवाद की दृष्टि से ही है। किसी पदार्थ के वास्तव स्वरूप के संबंध में स्वमत-विरोधी व्यक्ति से "भवति न भवति" करते हुए दोषान्वेषण करने का मार्मिक मार्गदर्शन. इन 14 पदार्थों के विवेचन में नैयायिकों ने दिया है। अनुमान में पंचावव्ययी वाक्य के द्वारा अनुमेय विषय को सिद्धि की जाती है। इन पांच अवयवों के नाम है प्रतिज्ञा, हेतु उदाहरण, उपनय और निगमन । जैसे पर्वतशिखर पर अग्नि का अस्तित्व सिद्ध करते हए :
प्रतिज्ञा : पर्वतोऽयं वहिनमान्। हेतु-धूमवत्वात् ।
उदाहरण : यथा महानयः (रसोई घर)। इस प्रकार प्रतिज्ञा हेतु और उदाहरण (या दृष्टान्त) बताने पर पक्ष (पर्वत) पर लिंगोपसंहार और साध्योपसंहार करने वाले वाक्यों द्वारा समाधान किया जाता है। "वह्निव्याप्य-धूमवान च अयं पर्वतः" (अग्नि से नित्य साहचर्य रखने वाला धूम से यह पर्वत युक्त है)" तस्मात् अयं पर्वतः वह्निमान्। (इस कारण यह पर्वत वह्नियुक्त है (इस पर्वत पर आग लगी है।) इस प्रकार के उपसंहारात्मक वाक्यों को उपनयन और निगमन कहते हैं।
अनुमान का यह पंचावयवित्व भारतीय तर्कपद्धति का वैशिष्ट्य है। पाश्चात्यों की तर्कपद्धति में अनुमान के तीन ही अवयव होते हैं। अनुमान के संबंध में एक मार्मिक सूचना है कि, जब किसी पदार्थ के संबंध में साधक और प्रमाण उपलब्ध नहीं होने के कारण संदेह निर्माण होता है तब ही पंचावयवी वाक्यों के द्वारा साध्यसिद्धि करनी चाहिए। शशशंग या वन्ध्यापुत्र का अस्तित्व अनुमान का विषय नहीं होता। अथवा रसोइघर में जहाँ अग्नि और धूम दोनों प्रत्यक्ष दिखाई देते हैं, वहाँ अग्नि का अस्तित्व, अनुमान का विषय नहीं होता। इस संबंध में न्यायसूत्र के भाष्यकार उदयनाचार्य स्पष्ट कहते हैं कि, "न अनुपलब्धे न निर्णीत अर्थे न्यायः प्रवर्तते किन्तु संदिग्धे" अर्थात् अनुपलब्ध एवं निर्णयप्राप्त विषय में अनुमान का अवलंब नहीं होता। संदिग्ध विषय में ही अनुमान किया जाता है।
__"हेत्वाभास" पंचावयवी अनुमान में दूसरे वाक्य याने हेतुवाक्य का विशेष महत्त्व होता है। इस हेतुवाक्य में पक्षसत्त्व, सपक्ष-सत्त्व, विपक्ष-असत्त्व, असत्प्रतिपक्षत्व और अबाधित-विषयत्व इन पांच गुणों की आवश्यकता होती है। “पर्वतो वह्निमान्" यह प्रतिज्ञा सिद्ध करने के लिये बताया हुआ "वहिनमत्त्वात" यह हेतुवाक्य इन पांचो गुणों से सम्पन्न है। कभी कभी विवाद के आवेश में वितंडवादी कुतार्किको के हेतुवाक्य में हेत्वाभास होता है। हेत्वाभास का लक्षण है "हेतुवद् भासमाना ये हेतुलक्षणवर्जिताः" अर्थात् जिन में हेतु का आभास होता हैपरंतु हेतु का लक्षण नहीं होता ऐसे सदोष वाक्य । हेत्वाभास के कारण अज्ञानी जनता का बुद्धिभेद होता है, अतः उनका यथार्थ ज्ञान प्रत्येक विवेकनिष्ठ व्यक्ति को होना अत्यावश्यक है। नैयायिकों ने हेत्वाभास का सूक्ष्म विवेचन करते हुए उसके असिद्ध, विरुद्ध अनैकान्तिक, प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट नामक पांच भेद बताये हैं। इन पांच भेदों के भी अवान्तर उपभेद होते हैं। विरुद्ध, प्रकरणसम और कालात्ययापदिष्ट इन तीनों के उपभेदों के जो उदाहरण न्यायशास्त्र में दिये हैं, उन्हे देखते हुए यह दिखाई देता है, कि वादविवाद के आवेश में किस प्रकार की गड़बड़ी होती है। जैसे, पर्वतो बह्निमान्। धूमवत्वत्। इस प्रसिद्ध अनुमान वाक्य में, "यो यो धूमवान् स स वह्निमान्" (जहां जहां धुआं होता है वहां वहां आग होती है।) इस व्याप्ति को ध्यान में लेकर, उसी के आधारपर, किसी सरोवर पर बाहर कहीं से आया हुआ धुआं देखकर. "सरोवरऽयं वह्निमान्। धूमवत्त्वात् इस प्रकार का तर्क किसी ने उपस्थित किया तो उसे ग्राह्य नहीं माना जाता। इसका कारण है कि, इस उदाहरण में दिया हुआ हेतु (धूमवत्त्वात्) सद्हेतु नहीं है। वह असद् हेतु अर्थात् हेत्वाभास है। इस हेतु में उपरनिर्दिष्ट असिद्धता (अर्थात स्वरूपासिद्धता) नामक दोष विद्यमान है।
न्यायशास्त्र में हत्वाभास के स्पष्टीकरण के निमित्त उदाहरण दिये गये हैं : 1) गगनाराविन्दं सुरभि। अरविन्दत्वात्। सरोजारविन्दवत् 2) पृथिव्यादयः चत्वारः परमाणवः नित्याः । गन्धवत्वात्। 3) शब्दो नित्यो, द्रव्यत्वे सति अस्पर्शत्वात्। ४) स श्यामो। मैत्रीतनयत्वात्। 5) शब्दो नित्यः। प्रमेयत्वात् 6) शब्दो नित्यः कृतकत्वात्। 7) भूमिः नित्या। गन्धवत्वात्। 8) शब्दो अनित्यः । नित्यधर्मानपालब्धः। 9) परमाणुः अनित्यः। मूर्तत्वात्। घटवत् इत्यादि। इस प्रकार के हेत्वाभास के उदाहरणों में बताये गये हेतुवाक्यों में विद्यमान सदोषता का विवेचन अत्यंत मार्मिक एवं उद्बोधक है। अपने अपने प्रतिपक्षी के प्रतिपादन में संभाव्य सदोषता का यथार्य आकलन होने के लिए प्रत्येक बुद्धिवादी को न्यायशास्त्रोक्त इन हेत्वाभासों का सम्यक् ज्ञान होना नितान्त
आवश्यक है। कुछ शास्त्रकारों ने केवलव्यतिरेकी हेतु के लक्षण में अव्याप्ति, अतिव्याप्ति और असंभव नामक तीन दोषों का निर्देश किया है। नैयायिकों के अनुसार उनका अन्तर्भाव पंचविध हेत्वाभासों के अन्तर्गत होता है।
शास्त्रार्थ या वादविवाद में जिन दोषों के कारण वादी या प्रतिवादी का पराभव होता है उन्हें 1) छल 2) जाति और 3) निग्रहस्थान कहते हैं। वक्ता के वाक्य में जो मूलभूत अभिप्राय होता है, उस का जान बूझ कर विपर्यास कर, उसे दोषी
134/ संस्कृत वाड़मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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ठहराना "छल" (वाक्छल या शब्दच्छल) कहा गया है। जैसे: "नवकम्बलोऽयं देवदत्तः।" (देवदत्त के पास नया कंबल है) ऐसे वक्ता द्वारा कहा जाने पर, (नव शब्द के नौ और नया दो अर्थ होते हैं इस कारण, नव शब्द पर श्लेष करते हुए, "न हि अस्य कम्बलद्वयम् अपि सम्भाव्यते, कुतो नव" (इस के पास दो कम्बल भी नहीं है, तो नव (याने नौ) कंबल कहां से हो सकते हैं। इस प्रकार वक्ता के अभिप्राय का विपर्यास कुतार्किक करते हैं।
वक्ता के द्वारा दिये हुए उदाहरण से किसी अलग ही विषय का साधर्म्य या वैधर्म्य बता कर, उसके मुख्य अभिप्राय का विपर्यास जहाँ होता है, उस विवाद को "जाति' कहते हैं। जाति के प्रकारः
साधर्म्यसम, वैधर्म्यसम, उत्कर्षसम, अपकर्षसम, वर्ण्यसम, अवर्ण्यसम, विकल्पसम, साध्यसम, प्राप्तिसम, अप्राप्तिसम, दृष्टान्त प्रतिदृष्टान्तसम, अनुत्पत्तिसम, संशयसम, प्रकरणसम, अहेतुसम, अर्थापत्तिसम, अविशेषसम, उपपत्तिसम, उपलब्धिसम, अनिल्यसम, नित्यसम, और कार्यसम (कुल-24)।
"स्वव्याघातकम् उत्तरं जातिः" अर्थात प्रति-पक्षी का दोष दिखाने के लिये दिये हए उत्तर में "जाति"- नामक दोष उत्पन्न होता है। निग्रहस्थान का अर्थ है वाद में पराजय होने का स्थान। जिस के कारण वक्ता का संभ्रम या अज्ञान व्यक्त होता है उस प्रकार के दोष को- "निग्रहस्थान" कहते हैं। विवाद में 22 प्रकार के निग्रहस्थान होने की संभावना मानी गई है जिनके नाम हैं : प्रतिज्ञाहानि, प्रतिज्ञान्तर, प्रतिज्ञाविरोध प्रतिज्ञासंन्यास, हेत्वन्तर, अर्थान्तर, निरर्थक, अविज्ञातार्थ, अपार्थक, अप्राप्तकाल (याने पंचावयवी वाक्यों का क्रमत्याग) न्यून, अधिक, पुनरुक्त, अननुभाषण, अज्ञान, अप्रतिभा, विक्षेप और मतानुज्ञा।
इस प्रकार न्यायशास्त्र में प्रमाण, प्रमेय इत्यादि विषयों का प्रतिपादन हुआ है। सत्य-असत्य का निर्दोष निर्णय करने का ज्ञान इस शास्त्र के द्वारा तत्त्वजिज्ञासुओं को अतिप्राचीन काल से ही इस शास्त्र के द्वारा दिये जाने के कारण एक सुभाषितकारने इस शास्त्र की प्रशंसा में कहा है कि:
मोहं रुणद्धि विमलीकुरुते च बुद्धिं दत्ते च संस्कृतपदव्यवहारशक्तिम्।
शास्त्रान्तराभ्यसनयोग्यतया युनक्ति तर्कश्रमो न तनुते कमिहोपकारम् ।। भावार्थः तर्कशास्त्र या न्यायशास्त्र का परिश्रमपूर्वक अध्ययन करने से बुद्धि का मोह नष्ट होकर वह निर्मल होती है। संस्कार शुद्ध शब्दों का व्यवहार करने की शक्ति प्राप्त होती है। अन्य शास्त्रों के अध्ययन करने की योग्यता प्राप्त होती है। और भी अनेक प्रकार के बौद्धिक गुण प्राप्त होते हैं।
4 "बौद्ध न्याय" न्यायशास्त्र में अवैदिक विद्वानों का भी योगदान उल्लेखनीय है। बौद्धों का न्यायविचार हीनयान के वैभाषिक एवं सौत्रान्तिक संप्रदायों में तथा महायान के योगाचार और माध्यमिक संप्रदायों में विभाजित है। वैभाषिक न्याय में पदार्थ के दो भेद (विषय
और विषयी) माने हैं। विषयी के अन्तर्गत रूप, वेदना, संज्ञा, संस्कार और विज्ञान नामक पांच स्कन्ध तथा बारा आयतन (छः ज्ञानेन्द्रियाँ और उनके छः विषय मिला कर) तीन धातु (इन्द्रिय, विषय और विज्ञान), इन 20 तत्त्वों का अन्तर्भाव होता है। विषय के अन्तर्गत रूपधर्म, चित्तधर्म, चैत्तधर्म और रूप-चित्त-विप्रयुक्त धर्म इन चार हेतुप्रत्ययजन्य धर्मो का समावेश होता है। जगत् का स्वरूप त्रैधातुक संस्कृत असंस्कृत धर्मो का समष्टिरूप, प्रत्यक्षवेद्य एवं क्षणभंगुर है। अर्हत् पद की प्राप्ति तथा निर्वाण, मानव जीवन का प्राप्तव्य है।
सौत्रान्तिक न्याय में ज्ञान को प्रत्यक्ष और ज्ञेय को अतीन्द्रिय अर्थात् ज्ञानानुमेय माना है, जब कि वैभाषिक न्याय में ज्ञान और ज्ञेय दोनों को प्रत्यक्ष मानते हैं।
योगाचार न्याय में विज्ञान एकमात्र वस्तु मानी जाती है। विज्ञान के दो भेद हैं- (1) प्रवृत्ति-विज्ञान और (2) आलय-विज्ञान । ये दोनों विज्ञान स्वप्रकाश होते हुए क्षणिक हैं। जगत् को स्वतंत्र सत्ता नहीं, वह विज्ञान का विवर्त है। माध्यमिक न्याय के अनुसार ज्ञान और ज्ञेय दोनों कल्पित हैं। शून्य ही पारमार्थिक सत्य है। यह जगत् शून्य का ही विवर्त है।
इस प्रकार बौद्ध न्याय के चार भेद होते हुए भी उनमें कुछ तत्त्व समान हैं। जैसे दो प्रमाण- (1) प्रत्यक्ष और (2) अनुमान, दो प्रत्यक्ष- (1) सविकल्पक और (2) निर्विकल्पक। व्याप्ति- जिन पदार्थों में कार्यकारण संबंध या तादात्म्य संबंध होता है उन्ही में व्याप्यव्यापक भाव सर्वमान्य है। न्याय के दो अवयव- उदाहरण और उपनय। सत्ता :- स्थिर पदार्थ, की सत्ता सभी को अमान्य है। अर्थक्रियाकारित्व ही सत्ता का लक्षण माना है। हेतु :- जिसमें पक्षसत्व, सपक्षसत्व और विपक्ष-असत्व है वही सद्हेतु अन्यथा असद्हेतु होता है।
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हेत्वाभास :- विरुद्ध, असिद्ध और व्यभिचारी तीन ही माने हैं। वाद, जल्प और वितंडा इन तीन कथा-भेदों में, केवल वाद ही ग्राह्य है। जल्प और वितंडा अग्राह्य हैं।
बौद्ध न्याय का विकास संस्कृत, पाली और मागधी भाषाओं में हुआ है। आर्यदेव, नागार्जुन, मैत्रेयनाथ, असंग, वसुबंधु, दिङ्गनाग, धर्मकीर्ति, चंद्रकीर्ति, शांतरक्षित इत्यादि विद्वानों के ग्रंथों में बौद्ध न्याय का प्रतिपादन हुआ है।
5 "जैनन्याय" । जैन न्याय में श्वेतांबर और दिगंबर इन दो प्रधान संप्रदायों के भेद है परंतु दोनों ने अनेकान्तवाद के सिद्धान्त को महत्त्व दिया है। जैन न्याय का यह प्रमुख सिद्धान्त है। इस सिद्धान्त के अनुसार किसी भी पदार्थ का एकान्त दृष्टि से विचार न करते हुए सर्वसमन्वयात्मक दृष्टि से विचार करना योग्य माना जाता है। प्रत्येक पदार्थ में उत्पाद, व्यय और ध्रौव्य ये तीन अवस्थाएँ होती हैं। उसमें एक ही समय में नित्यानित्यात्मकता तथा सात भिन्न भिन्न धर्म रहते हैं, जिनको जैन न्याय की परिभाषा में "सप्तभंगी नय" कहते हैं। इस नय अनुसार पदार्थ में मिलने वाले सात धर्म :- (1) नित्य, (2) अनित्य, (3) अवक्तव्य, (4) नित्यानित्य, (5) नित्यअवक्तव्य, (6) अनित्य अवक्तव्य और (7) नित्यानित्य अवक्तव्य। इन सात धर्मों के अनुसार पदार्थ का स्वरूप जानने के सप्तभंगीनय के सात प्रकार हैं, जिसे "स्याद्वाद" कहते हैं। जैन दर्शन के सभी सिद्धान्तों में स्याद्वाद का सिद्धान्त अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। कोई भी पदार्थ स्वरूपतः सत् और पररूपतः असत् होता है। वह मृत्तिका सुवर्ण इत्यादि उपादान कारण के रूप में नित्य और घट- कटक आदि कार्य के रूप में अनित्य होती है, यह सार्वत्रिक अनुभव "स्याद्वाद" का आधार है। किसी भी पदार्थ के स्वरूप को उपपत्ति स्याद्वाद के बिना नहीं हो सकती। इसी कारण हरिभद्र सूरि अपने अनेकान्त-जयपताका में कहते हैं कि सारे पदार्थ "स्याद्वाद-मुद्रांकित" हैं।
जैन न्याय में प्रत्यक्ष और परोक्ष दो प्रमाण माने हैं। पदार्थ का स्पष्ट रूप से ग्रहण जिसके कारण होता है वह प्रत्यक्ष और अस्पष्ट रूप से ग्रहण करने वाला परोक्ष प्रमाण है। प्रत्यक्ष के दो भेद- (1) सांव्यावहारिक और (2) पारमार्थिक। पहले में मन इन्द्रियाँ आदि बाह्य उपकरणों की आवश्यकता होती है किन्तु दूसरा प्रत्यक्ष केवल आत्मशक्ति से होता है।
परोक्ष के दो भेदः (1) अनुमान (2) शब्द। कथा, छल, जाति, निग्रहस्थान, न्यायवाक्य, सद्हेतु, हेत्वाभास इन न्याय के विषयों को जैन न्याय में भी स्वीकृत किया है। सिद्धसेन दिवाकर, समंतभद्र, हरिभद्रसूरि, अकलंकदेव, माणिक्यनंदी, अभयदेवसूरि, देवसूरि, हेमचंद्र, यशोविजयगणि आदि जैन दर्शन के प्रख्यात नैयायिक हैं।
बौद्ध एवं जैन नैयायिकों ने आस्तिकों के वेदप्रामाण्य वाद का खंडन करने का भरसक प्रयास किया और वैदिक नैयायिकों ने इन नास्तिक (नास्तिको वेदनिंदकः) विद्वानों का खंडन करते हुए ईश्वर और आत्मा का अस्तित्व स्थापित करने का प्रयत्न किया। इसी खंडन-मंडन के संघर्ष के कारण प्राचीन भारत में न्यायशास्त्र का विकास हुआ।
6 वैशेषिक दर्शन वैशेषिकदर्शन का न्यायदर्शन से अत्यधिक मात्रा में साम्य होने के कारण, दोनों का निर्देश एक साथ होता है। इस दर्शन के प्रवर्तक का नाम कणाद है। कणाद का अर्थ "कण खानेवाला", होने से इस का नामनिर्देश उसी अर्थ के कणभक्ष, कणभुक् इन नामों से भी होता है। कणाद के वैशेषिक दर्शन का औलुक्य दर्शन भी अपर नाम है। इस कारण कणाद का वास्तव नाम कुछ लोगों के मतानुसार उलुकि माना जाता है। कणाद कृत वैशेषिक सूत्रों का रचनाकाल ई. द्वितीय से चतुर्थ शती के बीच माना जाता है। अतः इस दर्शन को न्यायपूर्व मानते हैं। इस दर्शनग्रंथ के दस अध्यायों में 370 सूत्र हैं। प्रत्येक अध्याय के अन्तर्गत दो आह्निक नामक विभाग हैं। वैशेषिकसूत्र पर "रावणभाष्य"नामक भाष्य का प्राचीन ग्रंथों में निर्देश मिलता है, किन्तु वह अभी अनुपलब्ध है। इस का प्रशस्तपादकृत भाष्य “पदार्थधर्मसंग्रह" नाम से सुप्रसिद्ध है। प्रशस्तपाद भाष्य को मौलिक ग्रंथ की मान्यता है, और इस पर उदयनाचार्यकृत किरणावली एवं श्रीधराचार्यकृत न्यायकंदली नामक दो टीकाएं प्रसिद्ध हैं। इसके बाद वैशेषिक दर्शन के प्रतिपादक जितने भी ग्रंथ लिखे गये, उन सभी में न्याय और वैशेषिक का मिश्रण है। इन में शिवादित्य की सप्तपदाथीं, लौगाक्षिभास्कर की तर्ककौमुदी, वल्लभन्यायाचार्य की न्यायलीलावती एवं विश्वनाथ पंचानन कृत भाषापरिच्छेद विशेष प्रचलित हैं। (वैशेषिक दर्शन विषयक ग्रन्थों और ग्रंथकारों की समग्र सूची परिशिष्ट में दी है)।
वैशेषिक परिभाषा - अभिधेयत्व और ज्ञेयत्व इन धर्मों से युक्त संसार की सभी वस्तुएं। सप्त पदार्थ - द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, समवाय और अभाव । समग्र सृष्टि के सभी पदार्थो के ये सात ही प्रकार होते हैं। नव द्रव्य - पृथ्वी, आप, तेज, वायु, आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन । इन में पृथ्वी, आप, तेज और वायु के परमाणु नित्य
पदार्थ
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होते हैं, और इनसे निर्मित पदार्थ अनित्य होते हैं । पृथ्वी में गंधादि पाचों गुण, आप (जल) में रसादि चार गुण, तेज में रूपादि तीन गुण, वायु में स्पर्श और शब्द दो गुण और आकाश में केवल शब्द गुण ही होता है, वह सर्वव्यापी और अपरिमित है। आकाश, काल और दिक् ये तीन अप्रत्यक्ष, निरवयव और सर्वव्यापी पदार्थ हैं। उपाधि के कारण इन में
दिन रात, पूर्व, पश्चिम आदि भेदों की प्रतीति होती है। आत्मा
ज्ञेय, नित्य, शरीर से पृथक्, इन्द्रियों का अधिष्ठाता, विभु और मानसप्रत्यक्ष का विषय है। आत्मा के दो भेद- जीवात्मा
और परमात्मा । जीवात्मा-प्रति शरीर में पृथक् होता है । इस का ज्ञान, सुखदुःख के अनुभव से होता है। इच्छा, द्वेष, बुद्धि,
प्रयत्न, धर्माधर्म संस्कार इत्यादि आत्मगुण हैं। परमात्मा - एक और जगत् का कर्ता है। मन
अणुपरिमाण । प्रतिशरीर भिन्न । यह जीवात्मा के सुख-दुःखादि अनुभव का तथा ऐन्द्रिय ज्ञान का साधन है। द्रव्यविचार में वैशेषिकों ने सारा भर अणुवाद पर दिया है। द्रव्यों के परमाणु होते हैं, यह सिद्धान्त सर्वप्रथम कणाद ने प्रतिपादन किया। द्रव्य के सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश को परमाणु माना गया है। परमाणु नित्य, स्वतंत्र, इन्द्रियगोचर होते हैं। उनकी "जाति" नही होती। दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक, तीन द्वयणुकों के संयोग त्र्यगुणक, चार से त्र्यणुकों के संयोग से चतुरणुक इस प्रकार अणुसंयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। पदार्थों के गुणों में, बाह्य कारणों से जो भी विकार उत्पन्न होते हैं, उनका कारण "पाक" होता है। पदार्थ के मूल गुणों का नाश हो कर, उनमें नये गुण की निर्मिति को 'पाक' कहते हैं । इस उपपत्ति के कारण वैशेषिकों को "पीलुपाकवादी" कहते हैं। पीलुपाक याने अणुओं का पाक । इस से विपरीत नैयायिकों की उपपत्ति में संपूर्ण वस्तु का पाक माना जाता है, अतः उन्हे दार्शनिक परिवार में "पिठर-पाकवादी"
कहते हैं। (2) गुण- द्रव्याश्रित किन्तु स्वयं गुणरहित पदार्थ को गुण कहते हैं। गुणसंयोग और वियोग का कोई कारण नहीं होता। सूत्रकार ने गुणों की संख्या 17 बताई है किन्तु भाष्यकारों ने अधिक 7 गुणों का अस्तित्व सिद्ध कर उनकी संख्या 24 मानी है। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, वियोग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म और अधर्म। इनमें संख्या, परिमाण इत्यादि सामान्य गुण हैं और बुद्धि, सुख, दुःख, विशिष्ट पदार्थों में होने के कारण विशेष गुण माने हैं। अन्य गुणों में रूप के श्वेत, रक्त, पीत आदि 7 प्रकार; रस के मधुर
अम्ल, लवण आदि 6 प्रकार हैं। गन्ध के सुगंध और दुर्गन्ध दो प्रकार हैं। स्पर्श के शीत, उष्ण और कवोष्ण, तीन प्रकार हैं। परिमाण के अणु, महत् हस्व दीर्घ- चार प्रकार हैं। संयोग के तीन प्रकार- एक गतिमूलक, उभयगतिमूलक और संयोगजसंयोग। गुरुत्व गुण के कारण वस्तु का पतन होता है। यह गुण केवल पृथ्वी और जल में होता है। स्नेहगुण केवल जल में होता है। शब्द के दो प्रकार- ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक हैं। बुद्धि के दो प्रकार- स्मृति और अनुभव। संस्कार के तीन प्रकार- भावना (आत्मा का गुण), वेग और स्थितिस्थापकता हैं। पवित्रसंस्कार के कारण आत्मा में धर्मगुण उत्पन्न होता है, जिससे कर्ता को सुख की अनुभूति होती है। अधर्म इसके विपरीत गुण का नाम है।
(3) कर्म - द्रव्याश्रित, गुणभिन्न और संयोगवियोग का कारण। कर्म के पांच प्रकार हैं- उत्क्षेपण (उपर फेंकना) अवक्षेपण (नीचे फेंकना) आकुंचन (सिकुडना) प्रसारण (फैलना) और गमन। आकाशादि विभु द्रव्यों में कर्म नहीं होता।
(4) सामान्य - "नित्यम एकम् अनेकानुगतम्" - जो नित्य और एक होकर, अनेक पदार्थों में जिस का अस्तित्व होता है उसे जाति या सामान्य कहते हैं। जैसे गोत्व, मनुष्यत्व इत्यादि। सामान्य के तीन भेद हैं- (1) पर (2) अपर और (3) परापर। जैसे सत्ता या अस्तित्व पर सामान्य है जो सभी पदार्थों में होता है। घटत्व अपर सामान्य है जो केवल घट में ही होता है, और द्रव्यत्व परापर सामान्य है, क्यों कि वह घट तथा अन्य द्रव्यों में होता है, किन्तु सत्ता के समान द्रव्यातिरिक्त अन्य पदार्थों में नहीं होता। विशेष : परमाणु तथा आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन जैसे नित्य और निरवयव द्रव्यों में विशेष नामक पदार्थ रहता है, जो सामान्य से विपरीत होता है। विशेष ही एक परमाणु का दूसरे परमाणु से तथा एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से भेद करता है। विशेष पदार्थ के कारण ही एक आत्मा का दूसरे से अभेद सिद्ध नहीं होता। आपाततः समान दिखने वाली शेष वस्तुओं में परस्परभिन्नता, उनमें विद्यमान विशेष के कारण ही सिद्ध होती है। इस विशेष पदार्थ की मान्यता, कणाददर्शन की अपूर्वता है। इसी कारण इस दर्शन को “वैशेषिक" दर्शन नाम मिला है। समवाय : संबन्ध के दो प्रकार होते हैं। (1) संयोग और (2) समवाय। वस्त्र और तंतु जैसे अवयवी और अवययों में, जल और शैत्य; जैसे गुणी और गुण में, वायु और गति जैसे क्रियावान् और क्रिया में, गो और गोत्व जैसे व्यक्ति और जाति में एवं विशेष और नित्य द्रव्य में जो अयुतसिद्धता-मूलक संबंध होता है, उसे “समवाय" नामक पदार्थ कहते हैं। समवाय-संबंध नित्य,और संयोग-संबंध अनित्य होता है। अभाव : यह दो प्रकार का होता है। (1) संसर्गाभाव - जैसे अग्नि में शैत्य का अभाव। (2) अन्योन्याभाव - जैसे अग्नि में जल का, घट में पट का अभाव। संसर्गाभाव के तीन प्रकार होते हैं। (1) प्रागभाव - जैसे उत्पत्ति के पूर्व मृत्तिका में
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घट का अभाव। (2) प्रध्वंसाभाव - जैसे फूटे हुए घट के टुकड़ों में घट का अभाव। (३) अत्यन्ताभाव - जैसे आकाशपुषा या वन्ध्यापुत्र का अभाव ।
अभाव पदार्थ" न मानने पर सभी पदार्थ नित्य रहेंगे। प्रागभाव न मानने पर सभी पदार्थ अनादि मानने पड़ेंगे। प्रध्वंसाभाव न मानने पर सभी पदार्थ अविनाशी मानने पडेंगे। अत्यंताभाव न मानने वंध्यापुत्र और शशशंग की सत्ता माननी पड़ेगी; और अन्योन्याभाव न मानने पर, वस्तुओं में परस्पर अभिन्नता माननी होंगी। इस प्रकार की आपत्ति के कारण अभाव का पदार्थत्व वैशेषिकों ने माना है।
वैशेषिक मतानुसार सृष्टि की उत्पत्ति परमाणु-संयोग से होती है और परमाणु संयोग ईश्वरेच्छा से होता है। सृष्टि का प्रलय भी ईश्वर की इच्छा से ही होता है।
वैशेषिक दर्शन में ज्ञान के दो प्रकार : (1) विद्या और (2) अविद्या माने हैं। विद्या के चार भेद : प्रत्यक्ष, अनुमान, स्मृति और आर्ष (प्रातिभ) तथा अविद्या के चार भेद : संशय, विपर्यय, अनध्यवसाय और स्वप्न माने हैं। बौद्धों के समान वैशोषिक प्रत्यक्ष और अनुमान दो प्रमाण मानते हैं। अतः विरोधी दार्शनिकों ने उनका निर्देश "अर्धवैनाशिक" (अर्थात् अर्धबौद्ध) संज्ञा से किया है। न्याय दर्शन में संमत, उपमान और शब्द प्रमाण का अन्तर्भाव वे अनुमान में करते हैं।
कणाद ऋषि ने की हुई, "यतोऽभ्युदयानिःश्रेयससिद्धिः स धर्मः" (अर्थात् जिस कारण अभ्युदय और निःश्रेयस (मोक्ष) की सिद्धि होती है उसे धर्म कहते हैं) यह धर्म की व्याख्या सर्वमान्य सी हुई है। धर्म के साधक कर्म दो प्रकार के होते हैं। 1) सामान्य (अहिंसा, सत्य, अस्तेय इत्यादि) और 2) विशेष (वर्णाश्रमानुसार विशिष्ट कर्म) । निष्काम कर्माचरण से तत्त्वज्ञान का उदय होता है और तत्त्वज्ञान से निःश्रेयस की प्राप्ति होती है। दुःख की आत्यन्तिक निवृत्ति तथा आत्मा के विशेष गुणों का उच्छेद ही मुक्ति का स्वरूप इस दर्शन में माना गया है।
वैशोषिकों के विचारों का खण्डन, जैन, बौद्ध तथा वेदान्तियों ने स्वमत-स्थापना के निमित्त किया है, परंतु उनकी भौतिक जगत् की उपपत्ति लौकिक दृष्टि से ग्राह्य मानी जाती है। "कणादं पाणिनीयं च सर्वशास्त्रोपकारकम्" (अर्थात् कणाद का वैशेषिक
और पाणिनि का व्याकरण शास्त्र अन्य सभी शास्त्रों के ज्ञान के लिए उपकारक है।) यह सुभाषित संस्कृतज्ञ विद्वानों में सर्वमान्य हुआ है। शब्दार्थ के यथोचित निर्णय के लिए पाणिनीय व्याकरण जितना उपकारक है, उतना ही पदार्थों का स्वरूपनिर्णय करने मे वैशेषिक दर्शन उपकारक है। ऐतिहासिक दृष्ट्या ई. 15 वीं शती तक वैशेषिक और न्याय दर्शन का स्वतंत्र रूप से विकास होता रहा। बाद में दोनों दर्शनों का संमिश्रण कर ग्रंथ लिखे गये। दोनों की तत्त्वविवेचन की पद्धति समान होने के कारण, कुछ मतभेद होते हुए भी, दोनों का संबंध (सांख्य और योग के समान) निकटतर माना जाता है।
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प्रकरण - 6 सांख्य योग दर्शन
1 "सांख्य दर्शन"
सांख्य शब्द संख्या शब्द से निष्पन्न होता है; जिसके दो अर्थ होते हैं। 1) गिनती और 2) विवेकज्ञान । महाभारत में
___ "संख्या प्रकुर्वते चैव प्रकृति च प्रचक्षते। तत्त्वानि च चतुर्विंशत् तेन सांख्यं प्रकीर्तितम्" ।। इस श्लोक में संख्यादर्शन के कारण अर्थात् सृष्टितत्त्वों की संख्यात्मक (या गणनात्मक) चर्चा होती है इस लिये सांख्य इसे माना गया है। सांख्यदर्शन में 24 प्रकार के प्रकृति के मूलतत्त्व, 5 प्रकार की अविद्या, 28 प्रकार की अशक्ति, 17 प्रकार की अतुष्टि, इत्यादि संख्यात्मक पद्धति से तत्त्वों की चर्चा हुई है।
"संख्या'' शब्द का दूसरा अर्थ है विवेकज्ञान । अचेतन प्रकृति और चेतन पुरुष तत्त्व में अभिन्नता मानना यही अविवेक है। इसी अविवेक या अज्ञान के कारण पुरुष (अर्थात जीव) जन्म-मरण के चक्र से मुक्त नहीं हो पाता। प्रकृति-पुरुष की पृथक्ता का ज्ञान ही विवेकज्ञान है। इसी से अपवर्ग या मोक्ष की प्राप्ति होती है; इस सिद्धान्त का आग्रह पूर्वक प्रतिपादन "सांख्य दर्शन नाम का कारण माना जाता है। सांख्यकारिका के रचयिता ईश्वरकृष्ण ने तथा श्रीशंकराचार्य ने इस दर्शन का निर्देश “तन्त्र" शब्द से किया है। परंतु प्रसिद्ध तंत्रशास्त्र या तंत्रविद्या से इसका कोई संबंध नहीं। यह एक स्वयंपूर्ण और ऐतिहासिक दृष्टि से अतिप्राचीन शास्त्र है। अथर्ववेद, तथा कठ, प्रश्न, श्वेताश्वतर, मैत्रायणी आदि उपनिषदों में सांख्य दर्शन की परिभाषा का दर्शन होता है। भारतीय परंपरा में,
"ज्ञानं च लोके यदिहास्ति किंचित्। सांख्यागतं तच्च मतं महात्मन्" ।। (संसार में जो कुछ तत्त्वज्ञान विद्यमान है वह "सांख्य" से आया है।"- इस महाभारत के वचनानुसार इसी दर्शन को अग्रस्थान दिया जाता है। महाभारत तथा कुछ स्मृति, ग्रन्थों में कपिलप्रभृति 26 सांख्याचार्यों के नाम मिलते हैं, उनमें सनत्, सनंदन, सनातन, सनत्कुमार, भृगु, शुक्र, काश्यप, पाराशर, गौतम, नारद, अगस्त्य, पुलस्त्य इत्यादि नाम अन्यान्य संदर्भो में भी प्रसिद्धिप्राप्त हैं। भारतीय परंपरा के अनुसार महर्षि कपिल सांख्यदर्शन के प्रवर्तक माने जाते हैं। श्रीमदभागवत में कपिल (कर्दम
देवहृती के पुत्र) को भगवान विष्णु का पंचमावतार कहा है। उपनिषद में भी "कपिलऋषि" का उल्लेख मिलता है। ___मॅक्समूलर, कोलबुक, कीथ जैसे पाश्चात्य विद्वान कपिल को ऐतिहासिक पुरुष मानने को तैयार नहीं है। उनका मतखंडन गावें नामक पाश्चात्य पंडित ने ही किया है। ऐतिहासिक चर्चा के अनुसार सांख्य पद्धति के विचार का आरंभ ई. पू. 9 वीं शती में माना जाता है। ईश्वरकृष्ण ने अपनी सांख्यकारिका के अंत में इस शास्त्र की परंपरा बतायी है :
"पुरुषार्थज्ञानमिदं गुह्यं परमर्षिणा समाख्यातम्। स्थित्युत्पत्तिप्रलयाश्चिन्त्यन्ते यत्र भूतानाम् ।। एतत् पवित्रमग्रयं मुनिरासुरयेऽनुकम्पया प्रददौ। आसुरिपि पंचशिखाय तेन च बहुधा कृतं तंत्रम्।।
__ शिष्यपरम्परयागतमीश्वरकृष्णेन चैतदायर्याभिः। संक्षिप्तमार्यमतिना सम्यग् विज्ञाय सिद्धान्तम्।।" अर्थात् - मोक्ष पुरुषार्थ विषयक यह गुह्य पवित्र ज्ञान “परमश्रेष्ठ ऋषि कपिल ने प्रथम प्रतिपादन किया। इस में भूतमात्रों की उत्पत्ति, स्थिति और प्रलय का कथन किया है। (कपिल) मुनि ने आसुरि को, और आसुरि ने पंचशिख को यह ज्ञान बड़ी कृपा से प्रदान किया। आसुरि के बाद जो शिष्यपरंपरा निर्माण हुई, उसके द्वारा ईश्वरकृष्ण को इसका ज्ञान हुआ जिसने उसे आर्याओं में संक्षिप्त रूप में ग्रंथित किया। इस प्रकार कपिल ऋषि इस दर्शन के (अथवा भारतीय दार्शनिक परंपरा के) "आदिविद्वान्' माने जाते हैं। तत्त्वसमास और सांख्यसूत्र नामक कपिल की दो रचनाएं सांख्य दर्शनविषयक शास्त्रीय ग्रंथों में प्रथम ग्रंथ माने जाते हैं। सांख्यसूत्र के छह अध्याय और सूत्रसंख्या 537 है। इसके पंचम और छठे अध्यायों में परमतखंडनपूर्वक स्वमत प्रतिपादन किया है। आसुरिकृत कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है किन्तु प्राचीन ग्रन्थो में इनके सिद्धान्तों के उल्लेख हुए हैं। पंचशिख का षष्टितन्त्र ग्रंथ प्रसिद्ध है। चीनी ग्रंथों के अनुसार यह ग्रंथ षष्टिसहस्र (साठ हजार) श्लोकात्मक माना जाता है।
ईश्वरकृष्णकृत “सांख्यकारिका” इस दर्शन का सर्वमान्य प्रामाणिक ग्रंथ है। सांख्य दर्शन की चर्चा में इसी ग्रंथ की आर्याएं
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सर्वत्र उद्धृत की जाती हैं। ई. छठी शताब्दी में इस ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद किसी परमार्थ ने किया। चीन में यह अनुवाद हिरण्यसप्तति या सुवर्णसप्तति' नाम से विदित है। जैन वाङ्मय में इसे "कणगसत्तरी" कहा है। उपलब्ध सांख्यकारिकाओं की संख्या 69 होने के कारण एक कारिका लुप्त मानी जाती है। लोकमान्य तिलक ने अपने गीतारहस्य में लुप्तकारिका के संबंध में चर्चा करते हुए गौडपादाचार्यकृत भाष्य के आधार पर 61 वीं कारिका के बाद एक कारिका की रचना की। लोकमान्य तिलककृत कारिका :
"कारणमीश्वरमेके ब्रुवते कालं परे स्वभावं वा। प्रजाः कथं निर्गुणतो, व्यक्तः कालः स्वभावश्व ।।" तत्त्वसमास, सांख्यसूत्राणि और सांख्यकारिका ये तीन ही सांख्यदर्शन के आधारभूत ग्रंथ माने जाते हैं। इन तीनों के विषय में विद्वानों में विवाद प्रचलित है जैसे, क्या कपिल ही सांख्यसूत्रों के रचयिता हैं? क्या सांख्यसूत्रों की रचना ईश्वरकृष्ण की कारिकाओं के अनन्तर हुई? सांख्यसूत्रों में प्रक्षिप्त भाग कौन सा है? इस प्रकार के विवादों के संबंध में पं. उदयवीरशास्त्री ने तौलनिक एवं तलस्पर्शी अध्ययन करते हुए सांख्यसूत्रविषयक परंपरागत मत का समर्थन किया है। शास्त्रीजी के मतानुसार उपलब्ध सांख्यसूत्रों में 68 सूत्र प्रक्षिप्त हैं, क्योंकि उन में सांख्यमत विरोधी विचार ग्रथित है।
ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका पर 1) माठरवृत्ति 2) गौडपाद भाष्य 3) युक्तिदीपिका (लेखक अज्ञात) 4) तत्त्वकौमुदी (ले. वाचस्पति मिश्र; इस टीका पर काशी के आधुनिक विद्वान हरेरामशास्त्री शुक्ल ने सुषमा नामक सविस्तर टीका लिखी है।), 5) जयमंगला (ले. शंकराचार्य ई. 14 वीं शती), 6) चन्द्रिका (ले. नारायणतीर्थ, ई. 17 वीं शती), 7) सांख्यतत्त्वस्वरूप (ले. नरसिंह स्वामी) इत्यादि उत्तमोत्तम टीका ग्रंथ लिखे गये हैं, जिन से उस ग्रंथ की विद्यन्मान्यता समझ में आती है। कुछ दार्शनिक ग्रंथों में विन्ध्यवासी (या विन्ध्यवास) के सांख्य विषयक सिद्धान्तों का उल्लेख आता है, परंतु इसकी कोई रचना उपलब्ध नहीं है। इसका मूलनाम रुदिल तथा गुरु का नाम वार्षगण्य कहा गया है।
ई. 17 वीं शती में वाराणसी में विज्ञानभिक्षु नामक दार्शनिक विद्वान हुए। भिक्षु नाम होने पर भी वे बौद्ध नहीं थे। "कालार्कभक्षित" सांख्यदर्शन के पुनरुज्जीवन के लिये इन्होंने सांख्यप्रवचनभाष्य की रचना की। इनके अतिरिक्त योगवार्तिक (व्यासभाष्य पर), विज्ञानामृतभाष्य (ब्रह्मसूत्र पर) और योगसार तथा सांख्यसार में योग और सांख्य दर्शनों के सिद्धान्तों का संक्षिप्त परिचय दिया है। विज्ञानभिक्षु सांख्यदर्शन के लेखकों में अंतिम आचार्य माने जाते हैं।
2 तात्त्विक चर्चा __ अन्य सभी दर्शनों के समान आत्यंतिक दुःखनिवृत्ति तथा सुखप्राप्ति के मार्ग का अन्वेषण, सांख्यदर्शन का भी प्रयोजन है। संसार के आधिभौतिक, आधिदैविक और आध्यात्मिक दुःखों से आत्यंतिक तथा ऐकान्तिक मुक्तता प्राप्त करने की इच्छा रखने वाले (मुमुक्षु) के लिए दृष्ट तथा आनुश्रविक (अर्थात् औषधोपचार, गीतनृत्य तथा यज्ञयाग) मार्गों की अपेक्षा, व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ (अर्थात् प्रकृति और पुरुष) इन सृष्टि के मूलभूत तत्त्वों के विज्ञान का मार्ग अधिक श्रेष्ठ होता है क्यों कि अन्य लौकिक तथा दैवी उपाय तात्कालिक तथा हिंसा, असूया आदि दोषों से युक्त होते हैं। सांख्य मतानुसार अज्ञान के कारण पुरुष (जीवात्मा) प्रकृति (या प्रकृतिजन्य देहादि पदार्थ) से अपना तादात्म्य मान कर दुःख भोगता है, अतः वह जब अपना प्रकृति से विभिन्नत्व ठीक समझता है, तभी वह दुःखमुक्त हो सकता है।
प्रत्येक भारतीय दर्शन के प्रारंभ में ज्ञानप्राप्ति की प्रक्रिया तथा ज्ञानप्राप्ति के साधन के संबंध में तात्त्विक चर्चा होती है। तदनुसार सांख्य दर्शन में इस संबंध में चर्चा प्रस्तुत करते समय दृष्ट (प्रत्यक्ष) 2) अनुमान और 3) आप्तवचन-तीन ही प्रमाण माने हैं। सांख्यकारिका के टीकाकारों ने उपमान, अर्थापत्ति, ऐतिह्य जैसे अवांतर प्रमाणों का इन तीन प्रमाणों में अन्तर्भाव प्रतिपादन किया है। सांख्यदर्शन के प्रमेय - (व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ) का यथार्थज्ञान इन तीन प्रमाणों के द्वारा ही होना संभव माना गया है।
प्रत्यक्ष प्रमाण के दो प्रकार : 1) निर्विकल्पक और 2) सविकल्पक। निर्विकल्पक प्रत्यक्ष में इंद्रयगोचर पदार्थ के रूप गुण इत्यादि का ज्ञान नहीं होता। सविकल्पक में रूप, गुण संज्ञा इत्यादि का ज्ञान होता है।
___ अनुमान के दो प्रकार : 1) वीत तथा 2) अवीत। इनमें वीत के दो प्रकार माने गये हैं। : 1) पूर्ववत् और 2) सामान्यतो दृष्ट । धूमद्वारा वह्नि का अनुमान पूर्ववत् का उदाहरण है। यह पूर्वानुभूत साध्य-साधन संबंध पर आश्रित होता है। रूप शब्द आदि विषयों के आकलन की क्रिया के कारण, उनके नेत्र, श्रोत्र आदि ग्राहक इन्द्रियों के अस्तित्व का अनुमान, सामान्यतो दृष्ट अनुमान का उदाहरण है। सांख्यों के द्वितीय अनुमान प्रकार को अर्थात, "अवीत" अनुमान को, न्याय दर्शन में शेषवत् कहा है। शब्द का गुणत्व, उसमें द्रव्य, कर्म आदि अन्य छह पदार्थों की असिद्धता के कारण जाना जाता है। यह ज्ञान "शेषवत्" अनुमान से होता है। आप्तवचन में रागद्वेषादि विरहित सत्पुरुष के वचन को तथा अपौरुषेय एवं स्वतःप्रमाण वेदवचनों को प्रमाण माना गया है।
यक्त, अव्यक्ता अर्थापत्ति, समय दुष्ट (प्रत्यक्षा
140/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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सत्कार्यवाद - भारतीय तत्त्वज्ञान में “सत्कार्यवाद" और "असतकार्यवाद" इन दो पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग प्रायः सभी दार्शनिकों द्वारा हुआ है। यह सृष्टिरूप कार्य व्यक्त स्वरूप में उत्पन्न होने के पूर्व अस्तित्व में था या नहीं? इस तात्त्विक प्रश्न की चर्चा (मृत्तिका-घट दृष्टान्त के द्वारा) करते समय, बौद्ध, नैयायिक और वैशेषिक दार्शनिकों ने असत्कार्यवाद का पुरस्कार किया है और सांख्य तथा वेदान्ती दार्शनिकों ने "सत्कार्यवाद" का।
बौद्ध मतानुसार "असत्" तत्त्व से "सत्" तत्व की उत्पत्ति मानी गयी। वेदान्तमतानुसार एकमेवाद्वितीय सत् (ब्रह्म) तत्त्व से केवल आभासमय या मायामय संसार की उत्पत्ति हुई। सांख्य मतानुसार एक ही सत् तत्त्व से अनेक सद्वस्तुओं की उत्पत्ति हुई है। सत् तत्त्व से सृष्टि की उत्पत्ति मानने वाले सांख्य और वेदान्ती दोनों "सत्कार्यवादी" माने जाते हैं, किन्तु दोनों की विचारधारा में मौलिक भेद है। वेदान्ती संसार की कारणावस्था ब्रह्मरूप मानते हैं, किन्तु सांख्यवादी इस अवस्था को त्रिगुणात्मक-प्रकृतिरूप मानते हैं। वेदान्ती "जगन्मिथ्या" मानते हैं तो सांख्यवादी जगत् को सत्य मानते हैं। वेदान्ती एकमेवाद्वितीय ब्रह्म ही जगत् का आदिकारण मानते हैं तो सांख्यशास्त्रज्ञ प्रकृति और पुरुष दो तत्त्वों को आदिकारण मानते हैं। इसी कारण सांख्य "द्वैती' भी कहे जाते हैं।
इस प्रकार सद्रूप त्रिगुणात्मक मूल प्रकृति से उत्पन्न सृष्टि के अवांतर तत्त्वों का वर्गीकरण सांख्य दर्शन में अत्यंत मार्मिकता से किया है। ईश्वरकृष्ण ने यह वर्गीकरण एक कारिका में अत्यंत संक्षेप में बताया है :
"मूलप्रकृतिरविकृतिः महदाद्याः प्रकृतिविकृतयः सप्त । षोडशकस्तु विकारो न प्रकृतिर्न विकृतिः पुरुषः ।।" अर्थात् मूल प्रकृति में सत्व, रज, तम गुणों की साम्यावस्था के कारण कोई विकृति नहीं होती। बाद में उस साम्यावस्था में क्षोभ उत्पन्न होने के कारण, 'महत्' आदि सात तत्त्वों (अर्थात् महत् याने बुद्धि), अहंकार और पांच तन्मात्राएं (शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध) की उत्पत्ति होती है। ये सात तत्त्व मूलप्रकृति के कार्य तथा अवांतर तत्त्वों के कारण भी होते हैं; अतः इन्हें "प्रकृति-विकृति” (याने कारण तथा कार्य) कहा है। इनके अतिरिक्त 5 ज्ञानेन्द्रियां, 5 कर्मेन्द्रियां, 1 उभयेन्द्रिय (मन) और 5 महाभूत सोलह तत्त्वों की उत्पत्ति होती है। इनसे और किसी भी तत्त्व की निर्मिति नहीं होती। अतः इन्हें "विकार" (अर्थात् केवल कार्यरूप) कहा है। पुरुष न तो प्रकृति है, न ही विकृति । इस प्रकार 1) प्रकृति 2) प्रकृति-विकृति 3) विकृति 4) न प्रकृति न विकृति, इन चार वर्गों में व्यक्त अव्यक्त सृष्टि का वर्गीकरण सांख्यदर्शनकारों ने किया है।
सांख्यदर्शन के अनुसार प्रकृति "त्रिगुणात्मका" मानी गई है। प्रकृतिस्वरूप तीन गुण (सत्व, रज और तम) प्रत्यक्ष नहीं हैं। संसार के पदार्थों को देख कर इनका अनुमान किया गया है। एक ही वस्तु -जैसी कोई स्त्री पति को सुख देती है, उसी को चाहने वाले मनुष्य को दुःख देती है और उदासीन मनुष्य को न सुख न दुख देती है। यही अवस्था सर्वत्र होने के कारण सुख, दुःख और मोह के कारणभूत तीन गुणों का सिद्धान्त सांख्य दर्शन द्वारा स्थापित हुआ है। ये तीन गुण परस्परविरोधी होते हैं। इनमें से अकेला गुण कोई कार्य नहीं कर सकता। ये परस्पर सहयोगी होकर पुरुष का कार्य सम्पन्न करते हैं।
__ सत् तत्त्व से सृष्टिरूप सत्कार्य की उत्पत्ति का यह संक्षिप्त परिचयमात्र हुआ। इसका प्रतिपादन करने के लिए “सत्कार्यवाद' नामक जो सिद्धान्त सांख्यदर्शन द्वारा अपनाया गया, उसका समर्थन पांच कारणों द्वारा किया गया है।
ईश्वरकृष्ण ने एक कारिका में वे कारण बताए हैं :
___ "असद्करणाद् उपादानग्रहणात् सर्वसंभवाऽभावात्। शक्तस्य शक्यकरणात् कारणभावात् च सत्कार्यम्।।"
1) असद्करणात् - उदाहरण - तिल से ही तेल निकलता है, बालू से नहीं। बाल, में तेल नहीं होता अतः उससे कितने भी प्रयत्न करने पर तेल कदापि नहीं निष्पन्न होता।
2) उपादानग्रहणात् - प्रत्येक कार्य के लिये विशिष्ट उपादान कारण का ही ग्रहण आवश्यक होता है। उदाहरणार्थ, घट निर्माण करने के लिए मिट्टी ही आवश्यक होती है, तन्तु नहीं।
3) सर्वसम्भवाऽभावात् - सभी कार्य सभी कारणों से नहीं उत्पन्न होते । बालू से तेल या तिल से घट नहीं निर्माण होता।
4) शक्तस्य शक्यकरणात् - शक्तिसम्पन्न वस्तु से शक्य वस्तु की ही उत्पत्ति होती है। जैसे दूध से दही हो सकता है किन्तु तेल, घट या पट नहीं।
5) कारणभावात् - प्रत्येक कार्य, कारण का ही अन्य स्वरूप है। घटरूप कार्य, मिट्टि स्वरूप कारण का ही अन्य रूप है। दोनों का स्वभाव एक ही होता है।
सांख्य और वेदान्त दोनों सत्कार्यवादी हैं। किन्तु सांख्य का सत्कार्यवाद परिणामवादी और वेदान्त का विवर्तवादी कहा गया है। परिणामवाद के अनुसार दूध से दही जैसा वास्तविक विकार होता है वैसा ही प्रकृति से जगत् होता है। विवर्तवाद के अनुसार अंधकार में रज्जु पर सर्प, जिस प्रकार आभासमान होता है और प्रकाश आने पर उसका लय होता है, उसी प्रकार
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 141
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सद्वस्तु (ब्रह्म) पर अविद्या के कारण जगत् केवल भासमान होता है। "अहं ब्रह्मास्मि" ज्ञान का प्रकाश आते ही वह आभास नष्ट हो जाता है।
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पुरुष : इस तत्त्व का अस्तित्व जिन पांच कारणों से माना जाता है उनका संकलन एक कारिका में ईश्वरकृष्ण ने किया है : "संपवात् त्रिगुणादिविपर्ययादधिष्ठानात्। पुरुषोऽस्ति भीतृभावात् कैवत्यार्थ प्रकृते।"
1) जिस प्रकार सुसमृद्ध भवन या सुसज्जित शय्या दूसरे किसी उपभोक्ता के लिए ही होती है (स्वयं अपने लिए नहीं), उसी प्रकार यह संघातमय जगत् भोग्य प्रकृति के अन्य किसी दूसरे के उपभोग के लिए ही है ।
2- 3 ) जिस प्रकार सुसज्ज रथ जड़ होने के कारण चल नहीं सकता, उसे चलाने के लिए अजड़-चेतन सारथि की आवश्यकता होती ही है, उसी प्रकार जड शरीरों का चालक उनसे विपरीत स्वरूप का होना चाहिए।
4) संसार में सभी पदार्थ भोग्य हैं। अतः उनका कोई तो भोक्ता भी होना चाहिए। यह भोक्ता ही पुरुष है।
5) संसार में सभी दुःखी जीव दुःखों से मुक्ति होने की इच्छा रखते हुए दीखते हैं जिस में यह मुक्त होने की प्रवृत्ति होती है, वही पुरुष है। सांख्यदर्शन में अव्यक्त तत्त्वों के अन्तर्गत मूलप्रकृति का एकत्व माना है, किन्तु उससे सर्वथा विपरीत पुरुष तत्त्व का अनेकत्व प्रतिपादन किया है।
जनन-मरण करणानां प्रतिनियमाद् अयुगपतृव्रवृत्तेश्च । पुरुषबहुत्वं सिद्धं त्रैगुण्यविपर्ययाच्चैव ।।
इस कारिका में पुरुष का बहुत्व सिद्ध करने वाले तीन कारण बतलाए गये हैं। 1) सभी पुरुषों का जन्म मरण एक साथ नहीं होता। सभी की इन्द्रियाँ समान शक्तियुक्त नहीं होती। अर्थात् एक पुरुष की दर्शनशक्ति या श्रवणशक्ति क्षीण या नष्ट होने पर सभी की नहीं होती।
2) सभी की कामों में प्रवृत्ति एक साथ नहीं होती। कुछ विद्यार्थी जब पढते है तब दूसरे खेलते दिखाई देते हैं । 3) प्रत्येक व्यक्ति के स्वभाव में भी अंतर होता है। कोई उद्योगशील होते हैं तो दूसरे आलसी होते हैं। इस प्रकार का वैचित्र्य, पुरुष तत्त्व एक ही होता, तो नहीं दिखाई देता। अतः "पुरुषबहुत्व" सिद्ध होता है।
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सांख्य मतानुयायियों में दो भेद 1) सेश्वरवादी और 2 ) निरीश्वरवादी दिखाई देते हैं। उपनिषदों, महाभारत, भागवत आदि पुराणों में प्रतिपादित सांख्य सिद्धान्त में ईश्वर का अस्तित्व माना हुआ दिखाई देता है।
1
"मायां तु प्रकृति विद्याद्मायिनं तु महेश्वरम्"
इस प्रकार के महत्त्वपूर्ण उपनिषद्वचनों में सेश्वरवादी सांख्यमत के बीज स्पष्टतया दिखाई देते हैं। महाभारत में सांख्य और वेदान्त में विशेष भेद नहीं दिखाई देता। पतंजलि के योगदर्शन को "सेश्वर सांख्य" और कपिलोक्त दर्शन को "निरीश्वर सांख्य" कहने की परिपाटी है। निरीश्वरवादी सांख्यदार्शनिकों ने ईश्वरास्तिक्य के प्रमाणों का खंडन नहीं किया। उन्हें अपनी विवेचन प्रक्रिया में पुरुष और प्रकृति इन दो तत्त्वों के आधार पर विश्वोत्पत्ति की समस्या सुलझाना संभव हुआ, तीसरे ईश्वरतत्त्व का अस्तित्व सिद्ध करने की आवश्यकता प्रतीत नहीं हुई । सांख्य निरीश्वरवादी है, किन्तु "नास्तिक" अर्थात् वेदनिंदक नहीं हैं।
सांख्यमतानुसार पुरुष स्वभावतः त्रिगुणातीत या मुक्त ही होता है, किन्तु प्रकृति के साथ वह अपना तादात्म्य, अविवेक के कारण मानता है, और प्रकृतिजन्य दुःख भोगता है। विवेक का उदय होने पर उसे "अपवर्ग" या "कैवल्य" की अवस्था प्राप्त होती है। यह विवेक, "व्यक्त, अव्यक्त और ज्ञ का तत्त्वज्ञान होने पर ही उदित होता है। विवेक का उदय होते ही प्रकृति का बंधन सदा के लिये छूट जाता है, और पुरुष यह अनुभव करने लगता है कि, "मै सभी कर्तृत्व से अतीत तथा निःसंग हूं।” यह अनुभूति ही जीवनमुक्त अवस्था है। जीवन्मुक्त पुरुष को विदेहमुक्ति प्राप्त होती है। यही मानवजीवन का आत्यंतिक उद्दिष्ट है।
ईश्वरकृष्ण ने "प्रकृति" का स्वरूप "नर्तकी" के समान वर्णन किया है। जिस प्रकार कलाकुशल नर्तकी रंगमंच पर दर्शकों के समक्ष अपनी कुशलता दिखा कर स्वयमेव नर्तन से निवृत्त होती है, उसी प्रकार प्रकृति, पुरुष को भोग तथा अपवर्ग देने का व्यापार पूर्ण होने पर, सर्वथा निवृत्त हो जाती है। जिस पुरुष को उसका स्वरूप ज्ञात होता है, उसके समाने वह लज्जावती स्त्री के समान कभी नहीं उपस्थित होती । प्रकृति की निवृत्ति ही पुरुष की कैवल्यावस्था है।
3 "योगदर्शन"
योग शब्द "युज्" तथा युजिर् ( जोडना या मिलाना) धातु से निष्पन्न हुआ है। ऋग्वेद में योग शब्द आता है परंतु वहां उसके अर्थ एकरूप नहीं माने जाते। "योगक्षेम" यह सामासिक शब्द भी ऋग्वेद में आता है जहाँ योग शब्द का अर्थ सायण ने "अप्राप्तप्रापणम्" अर्थात् जो पहले से प्राप्त न हो उसे प्राप्त करना, इस प्रकार बताया है। उपनिषदों, महाभारत भगवद्गीता, तथा पुराणों में सांख्य और योग का उल्लेख एक साथ हुआ है और उनका परस्पर संबंध भी इन ग्रन्थों में समान ही रहा है कठोनिषद में
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142 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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“यदा पंचावतिष्ठन्ते ज्ञानानि मनसा सह । बुद्धिश्च न विचेष्टति तामाहुः परमां गतिम् । तां योगमिति मन्यन्ते स्थिरामिन्द्रियधारणाम् ।। इस श्लोक में योग का स्वरूप बताया है। ज्ञानेन्द्रियां, मन एवं बुद्धि की अविचल स्थिति को ही इसमें योग कहा है।
इसी उपनिषद् में कहा है कि नचिकेता ने यमद्वारा प्रवर्तित "योगविधि" एवं विद्या को जान कर ब्रह्मज्ञान प्राप्त किया। श्वेताश्वतर उपनिषद् में "ध्यानयोग" शब्द का प्रयोग तथा आसन एवं प्राणायाम का उल्लेख आता है। छान्दोग्य उपनिषद् में "आत्मनि सर्वेन्द्रियाणि प्रतिष्ठाप्य” इस वाक्य में सभी इन्द्रियों को आत्मा में प्रतिष्ठापित करने की ओर निर्देश हुआ है। बृहदारण्यक उपनिषद् में "तस्मादेकमेव व्रतं चरेत् प्राण्याचण अपान्याच्च" इस मंत्र में प्राणायाम की ओर संकेत किया है मुण्डकोषनिषद् में "ओमिति ध्यायथ आत्मानम्" इस वचन में समाधि की व्यवस्था दी है। इस प्रकार उपनिषदों में न केवल "योग" शब्द का प्रयोग हुआ है अपि तु योग की विधियों का भी स्वरूप बताया गया है।
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पाणिनीय सूत्रों में यम, नियम (जो योग के अंग है) तथा योग, योगिन् इन शब्दों की व्युत्पत्ति मिलती है। काशिका में योग शब्द की निष्पत्ति" युज् समाधौ (दिवादि गण) और "युजिर् योगे" ( रुधादि गण ) इन दोनों धातुओं से मानी है (द्वयोरपि ग्रहणम्) ।
आपस्तंव धर्मसूत्र (ई. पू. चौथी या पांचवी शती) में योग को काम, क्रोध, लोभ आदि 15 दोषों का निर्मूलन करने वाला शान्ति प्राप्त करने का उपाय बताया है। वेदान्तसूत्रों में योग की साधनाओं की ओर संकेत हुआ है। महाभारत शांति पर्व में "हिरण्यगर्भो योगस्य वक्ता नान्यः पुरातनः” इस वचन में (जिस प्रकार सांख्य के प्रथम वक्ता कपिल थे, उसी प्रकार ) हिरण्यगर्भ ऋषि को योग शास्त्र के प्रथम प्रवक्ता कहा है । पातंजल योगसूत्र के भाष्य में कतिपय पूर्वमतों का निर्देश हुआ है. उनमें जैगीषव्य के मत को प्रमुखता दी है परंतु जैगीषव्य का कोई ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। योगदर्शन का सर्वश्रेष्ठ तथा परम प्रमाणभूत ग्रंथ है, पतंजलि का योगसूत्र । इसे योगदर्शन भी कहते हैं। योगसूत्र के बहुत से संस्करण व्यासभाष्य और तत्ववैशारदी (वाचस्पतिमिश्रकृत टीका) सहित प्रकाशित हुए हैं काशी संस्कृत सीरीज में भोजराजकृत राजमार्तण्ड, भावगणेशकृत प्रदीपिका, नागोजी भट्टकृत वृत्ति, रामानन्दयतिकृत मणिप्रभा अनन्तदेवकृत चन्द्रिका एवं सदाशिवेन्द्र सरस्वती कृत योगसुधाकर इन छह टीकाओं के साथ पातंजल योगसूत्रों का प्रकाशन हुआ है। यह सूत्रग्रंथ समाधि (51 सूत्र ) साधना (55 सूत्र ) विभूति, (55 सूत्र) एवं कैवल्य (34 सूत्र) नामक चार अध्यायों में विभाजित हैं । कुल सूत्र संख्या है 195 । परंपरा के अनुसार पतंजलि शेष भगवान के अवतार माने जाते हैं। उनकी स्तुति करने वाले दो श्लोक सर्वत्र प्रसिद्ध हैं :
1) पातंजलमहाभाष्य - चरक प्रतिसंस्कृतैः । मनोवाक्कायदोषाणां हन्त्रेऽहिपतये नमः ।।
2) योगेन चित्तस्य पदेन याचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलियनतोऽस्मि ।।
प्रथम श्लोक चरक संहिता की टीका के आरंभ में आता है और दूसरा श्लोक विज्ञानभिक्षु के योगवार्तिक में उल्लिखित है। इन श्लोकों के कारण आधुनिक विद्वानों ने पतंजलि एक या अनेक, यह विवाद खडा किया है। इस विचार में प्रो. बी. लुडविख, डॉ. हावर एवं प्रो. दासगुप्त इत्यादि विद्वान दो या तीन पतंजलि नहीं मानतें किन्तु जैकोबी, कीथ, वुडस् इत्यादि विद्वान इस मत को नहीं मानते। योगसूत्र के काल के विषय में भी मतभेद हैं। भारतरत्न पां. वा. काणे, योगसूत्र का काल ई. पू. दूसरी शती से पूर्व नहीं मानते। डॉ. राधाकृष्णन ई. 200 ई. के पश्चात् नहीं मानते। योगसूत्र के व्यासभाष्य की तिथि भी विवाद्य है, किन्तु इन दोनों की निर्मिति में कई शतियों का अन्तर माना जाता है। महाभारत के शान्तिपर्व में योग की विशेषता अन्यान्य प्रकार से बताई है; जैसे योग की विविध साधनाओं से काम, क्रोध, लोभ, भय एवं निद्रा जैसे दोषों का निराकरण किया जा सकता है। हीन वर्ण के पुरुष या नारी भी योग मार्ग के द्वारा परमलक्ष्य की प्राप्ति कर सकते है। आध्यात्मिक शक्ति प्राप्त होने पर योगी अपने को सहस्त्रों शरीरों में स्थानान्तरित कर सकता है।
आत्मनां च सहस्राणि बहूनि भरतर्षभ । योगी कुर्याद् बलं प्राप्य तैश्च सर्वेर्महीं चरेत् । । ( शान्ति 286/26) सांख्य के समान दूसरा ज्ञान नहीं और योग के समान कोई आध्यात्मिक शक्ति नहीं है। श्वेताश्वतर उपनिषद् के
"न तस्य रोगो न जरा न मृत्युः । प्राप्तस्य योगाग्निमयं शरीरम् ।।"
इस मंत्र में योग का फल बताया है कि योगसाधना से साधक का शरीर योगाग्निमय होता है और उसे रोग जरा एवं मृत्यु का उपसर्ग नहीं होता ।
भगवद्गीता, योगशास्त्र का प्रमाणभूत ग्रंथ है। गीता के छठे अध्याय में योगसिद्ध या योगारूढ पुरुष की श्रेष्ठ अवस्था का वर्णन करते हुए कहा है कि :
सर्वभूतस्थमात्मानं सर्वभूतानि चात्मनि ईक्षते योगयुक्तात्मा सर्वत्र समदर्शनः ।।
अर्थात् योगयुक्त चित्त होने पर साधक सर्वभूतमात्र में आत्मा को और आत्मा में सारे भूतमात्र को देखता है। वह सर्वत्र समदर्शी होता है।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 143
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4 "सांख्य और योग" योगदर्शन में सांख्य दर्शन के कुछ सिद्धान्तों का स्वीकार हुआ है, यथा-प्रधान का सिद्धान्त, तीन गुण एवं उनकी विशेषताएं, आत्मा का स्वरूप एवं कैवल्य (अन्तिम मुक्ति में आत्मा की स्थिति)। सांख्य और योग दोनों दर्शनों में आत्मा की अनेकता मानी है। सांख्यदर्शन में ईश्वर को स्थान नहीं है, किन्तु योग दर्शन में ईश्वर (पुरुष-विशेष) का लक्षण बताया है और उसका ध्यान करने से चित्तवृत्ति का निरोध अर्थात् समाधि-अवस्था प्राप्त करने की सूचना दी है- (ईश्वरप्रणिधानाद्वा)। परंतु योगदर्शन में ईश्वर को विश्व का स्रष्टा नहीं कहा है। प्रणव (ओंकार) ही ईश्वर का वाचक नाम है जिसका जप (चित्तवृत्तिनिरोधार्थ) करना चाहिए। सांख्य एवं योग दोनों का अंतिम प्राप्तव्य है कैवल्य। किन्तु सांख्य, सम्यक्ज्ञान के अतिरिक्त कैवल्यप्राप्ति का अन्य उपाय नहीं कहता। सांख्य का मार्ग केवल बौद्धिक या ज्ञानयोगात्मक है, किन्तु योगदर्शन में इस विषय में एक विशद अनुशासन की अर्थात् यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ अंगों की यथाक्रम व्यवस्था बतायी है। कैवल्य प्राप्ति के लिए पुरुष, प्रकृति एवं दोनों की भिन्नता को भली भांती समझ कर, चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए विविध प्रकार की साधना करने पर योग दर्शन का आग्रह है। चित्तवृत्तियों के निरोध के लिए पातंजल योगदर्शन के समाधिपाद में नौ सूत्रों द्वारा उपाय बताये हैं जैसे:1) अभ्यासवैराग्याभ्यां तन्निरोधः (1-14)। 2) ईश्वर-प्रणिधानाद् वा (1-27)। 3) तत्प्रतिषेधार्थम् एकतत्त्वाभ्यासः (1-36) 4) प्रच्छर्दन-विधारणाभ्यां वा प्राणस्य (1-38) 5) विषयवती वा प्रवृत्तिरुत्पन्ना मनसः स्थितिनिबन्धनी (1-39)। 6) विशोका वा ज्योतिष्मती (1-40)। 7) वीतरागविषयं वा चित्तम् (1-41)। 8) स्वप्ननिद्राज्ञानालंबं वा (1-42) और 9) यथाभिमतध्यानाद् वा (1-43)। साधनपाद में भी तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान, ध्यान, योगांगानुष्ठान, प्रतिपक्षभावन, इत्यादि साधनाएं तथा उसके फल बताये हैं।
5 संयम योगदर्शन के विभूतिपाद में धारणा, ध्यान और समाप्ति इन तीनों की एकत्र साधना को “संयम" कहा है। जैसे :परिणामत्रय-संयम (3-17)। प्रत्यय-संयम (3-19)। कायरूपसंयम (3-21)। कर्मसंयम (3-23)। मैत्र्यादि संयम (3-24)। 'बलसंयम (25)। सूर्यसंयम- (27)। चंद्रसंयम (28)। धृवसंयम -(29) । नाभीचक्रसंयम -(30)। कण्ठकूपसंयम- (31)। कूर्मनाडीसंयम - (32)। मूर्धज्योतिसंयम- (33)। प्रातिभज्ञानसंयम (35)। स्वार्थसंयम- (36)। श्रोत्राकाशसंयम- (42)। काथाकाशसंबंध संयम-(43)। महाविदेहासंयम (44)। स्थूलस्वरूपसूक्ष्मान्वयार्थवत्वसंयम- (45)। इन्द्रियावस्थासंयम -(48)। सत्त्व-पुरुषान्यताख्यातिसंयम -(50)। क्षणक्रमसंयम -(53)।
इन विविध प्रकार के संयमों में निपुणता आने पर साधक को जिन सिद्धियों की प्राप्ति होती है, उनका निर्देश यथास्थान किया है। इन सभी प्रकार के संयमों में निपुणता के कारण जो सिद्धियां प्राप्त होती है, उनका स्वरूप ज्ञानमय बतलाया है, याने योगी को विविध प्रकार का अतीन्द्रिय ज्ञान प्राप्त करने की शक्ति इन संयमसिद्धयों के रूप में प्राप्त होती है जैसे :(1) परिणाम त्रयसंयमात्अतीत-अनागतज्ञानम्। (2) संस्कार-साक्षात्करणात पूर्वजातिज्ञानम्। (3) भुवनज्ञानं सूर्ये संयमात्। (4) चन्द्रे (संयमात्) ताराव्यूहज्ञानम्। (5) ध्रुवे (संयमात्) तद्गतिज्ञानम्। (6) नाभिचक्रे (संयमात्) कायव्यूहज्ञानम्। (7) हृदये (संयमात्) चित्तसंविद् । (8) स्वार्थसंयमात् पुरुषज्ञानम्। (9) क्षणक्रमसंयमात् विवेकजं ज्ञानम्। (10) तज्जयात् (अर्थात् संयमजयात्) प्रज्ञालोकः इत्यादि।
द्वितीयपाद में ही "अहिंसा प्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरागः (35)। सत्यप्रतिष्ठायां क्रियाकलाश्रयत्वम्-(36)। अस्तेयप्रतिष्ठायां सर्वरत्नोपस्थानम् -(37)। ब्रह्मचर्यप्रतिष्ठायां वीर्यलाभः-(38)। अपरिग्रहस्थैर्ये जन्मकथंतासंबोधः (39)। शौचात् स्वांगजुगुप्सा परैरसंसर्गः-(40)। सत्त्वशुद्धि सौमनस्य एकाग्रता-इन्द्रियत्रय- आत्मदर्शन-योग्यत्वानि च - (41)। संतोषाद् अनुत्तम सुखलाभः (42)। कायेन्द्रियसिद्धिः अशुद्धिक्षयात् तपसः (43)। स्वाध्यायाद् इष्टदेवतासंप्रयोगः (44) और समाधिसिद्धिः ईश्वरप्रणिधानाद्(45)। इन सूत्रों द्वारा यमों और नियमों से भी विविध प्रकार की सिद्धियों का लाभ बताया है। "समाधिसिद्धिः ईश्वरप्रणिधानाद्" इस सूत्र में ईश्वरप्रणिधान से समाधिसिद्धि अर्थात् योग की अंतिम अवस्था की प्राप्ति होती है, यह उद्घोषित करते हुए पतंजलि
144/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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प्रमाण
विपर्यय
विकल्प
ने भवियोग की श्रेष्ठता की ओर निश्चित संकेत किया है। इन संयम साधनाओं के समान जन्म - औषधि - मंत्र - तन्त्र से भी सिद्धियाँ योगसाधना से आनुषंगिकता से प्राप्त होती हैं, परंतु साधक ने इन में फंसना नहीं चाहिए क्यों कि आत्यंतिक ध्येय (समाधिलाभ ) के मार्ग में सिद्धियां विघ्न स्वरूप होती हैं "ते समाधौ उपसर्गाः (3-38)। पातंजल योगदर्शन के अंतरंग की संक्षिप्त कल्पना, उसके कुछ महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के परिचय से आ सकती है। अतः यहाँ उनका संक्षेप में परिचय देते हैं। स्वयं पतंजलि ने ही अपने सूत्रों में पारिभाषिक शब्दों का जो स्पष्टीकरण दिया है, उसी के आधार पर पारिभाषिक शब्दों के सामान्य अर्थ विशद करने के लिये अनन्तपडित कृत वृत्ति की सहायता हमने ली है।
योग
चितवृत्तियों का निरोध।
वृत्ति
निद्रा
स्मृति
अभ्यास
वैराग्य
परवैराग्य
संप्रज्ञातसमाधि असंप्रज्ञात समाधि
ईश्वर
जप
चित्तविक्षेष
समापत्ति
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:
: प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । ये चित्त के परिणामभेद है।
: प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ।
: मिथ्याज्ञान तथा संशय ।
: वस्तु के अभाव में केवल शब्द मात्र के ज्ञान से उसकी कल्पना करना ।
: चित्त की भावशून्य अवस्था ।
: अनुभूत विषय का अंतःकरण में चिरस्थायी संस्कार ।
: चित्त को वृत्तिरहित अवस्था में स्थिर रखने का प्रयत्न ।
: ऐहिक एवं पारलौकिक सुखोपभोगों के प्रति निरिच्छता ।
: विशिष्ट "पुरुष", जिसे अन्य पुरुषों (जीवों) के समान "क्लेश" (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और
है ।
अभिनिवेश, इन पांच चित्तदोषों को योगशास्त्र में क्लेश कहते हैं) कर्मविपाक (जाति, आयु और भोग) और वासना, इन से संपर्क नहीं रहता, जो सर्वज्ञ, कालातीत और ब्रह्मादि देवताओं का भी उपदेशक गुरु
: ईश्वरवाचक प्रणव (ओंकार) के अर्थ की (याने ईश्वर की) चित्त में पुनः पुनः भावना करना। इससे चित्त एकाग्र होता है।
:
शारीरिक व्यथा, सुस्ती, संशय, प्रमाद, शरीर की जडता, विषयासक्ति, विपरीत ज्ञान, चित्त की अस्वस्थता, ये और अन्य दोष योग साधना में चित्तविक्षेप रूप विघ्न डालते है। एकाग्रता की साधना से ही इन विक्षेपों को हटाया जा सकता है।
: वृत्तियों का क्षय होने के कारण चित्त स्फटिक मणि के समान अत्यंत निर्मल होता है। ऐसे चित्त की ध्याता, ध्येय एवं ध्यान से सरूपता या तन्मयता । समापत्ति के चार भेद होते है : 1) सवितर्का- जिसमें शब्द एवं अर्थ का ज्ञान और विकल्पकी प्रतीति होती है। (2) निर्वितर्का- इसमें शब्दअर्थ विरहित (शून्यवत्) विशुद्ध प्रतीति होती है। 3) सविचारा (4) निर्विचारा सवित और निर्वितर्का समापति स्थूलविषक्य होती है सविचारा और निर्विचारा सूक्ष्मविषया होती हैं। सूक्ष्मविषयत्व का अर्थ है मूलप्रकृति (प्रधान) में विलय या पर्यवसान होना । सबीज समाधि उपरिनिर्दिष्ट समापत्तियों का ही नाम है सबीज समाधि । इसी को "सम्प्रज्ञात समाधि" भी कहते हैं। इस में उत्कृष्ट निपुणता प्राप्त होने से ऋतम्भरा प्रज्ञा का लाभ होता है।
*10
:
तत्त्वज्ञान के कारण । (सत्व, रज, तम) गुणों के प्रति आत्यंतिक निरिच्छता ।
: वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता सहित स्वरूपज्ञान की अवस्था ।
: वितर्कादि विरहित स्वरूपज्ञान की अवस्था । इस अवस्था में वितर्क, विचार, आदि रुद्ध होते हुए भी उनके संस्कार अवशिष्ट रहते हैं।
=
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ऋतम्भरा प्रज्ञा (ऋतं सत्यं बिभर्ति, कदाचिदपि न विपर्ययेण आच्छाद्यते सा ऋतम्भरा प्रज्ञा । ) अर्थात जिस से सत्य की ही प्रतीति होती है, विपरीत अथवा संशयग्रस्त प्रतीति कदापि नहीं होती, ऐसी श्रेष्ठ प्रज्ञा । श्रौतप्रज्ञा और अनुमानप्रज्ञा से यह ऋतम्भरा प्रज्ञा भिन्न होती है। वह सामान्यविषया होती है, यह विशेषविषया होती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के कारण जो संस्कार होता है, वह समाधिलाभ के मार्ग में बाधा डालने वाले अन्य सभी संस्कारों को नष्ट करता है।
=
निर्बीज समाधि संप्रज्ञात या सबीज समाधि का निरोध होने पर जब सारी चित्तवृत्तियां अपने मूल कारण में विलीन होती हैं तब केवल जो केवल संस्कार मात्र वृत्ति रहती हैं, उसका भी निषेध (नेति नेति) करने पर पुरुष (जीवात्मा) को जो शुद्धतम अवस्था प्राप्त होती हैं, उसी का नाम है निर्बीज या असंप्रज्ञात समाधि योग साधनाओं का अंतिम उद्दिष्ट यही अवस्था है।
1
6
"साधनपाद-परिभाषा"
क्रियायोग = तप, स्वाध्याय (ओंकार पूर्वक मंत्रजप ) और ईश्वरप्रणिधान ( सारी क्रियाओं का ईश्वर के प्रति समर्पण) इन तीनों को मिला कर क्रियायोग कहते हैं। समाधि अवस्था की प्राप्ति के लिए क्रियायोग की त्रिविधा साधना आवश्यक है।
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क्लेश = अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश इन पांच कारणों से दुःख होते हैं। इन दुःखकारणों को "क्लेश' कहते हैं जिनका निवारण ध्यानयोग की साधना से होता है। अविद्या = अनित्य में नित्यता की, अपवित्र में पवित्रता की, दुःख में सुख की और अनात्म वस्तु में आत्मा की प्रतीति । (अर्थात् सर्वत्र विपरीत बुद्धि)। यह अविद्या ही अन्य चार क्लेशों की मूल है। अस्मिता = द्रष्टा (चेतन पुरुष) और उसकी दर्शनशक्ति (या सात्त्विक बुद्धि) इन में चैतन्य और जडता के कारण भिन्नता होते हुए भी, उनकी एकात्मता मानना । (लौकिक भाषा में आज कल अस्मिता शब्द का प्रयोग अहंकार या स्वाभिमान के अर्थ में सर्वत्र होता है।) राग = पूर्वानुभृत सुखसंवेदना की स्मृति के कारण उस सुख के प्रति आसक्तता या आकर्षण । द्वेष = पूर्वानुभूत दुःखसंवेदना की स्मृति के कारण उस के प्रति तिरस्कार की भावना। अभिनिवेश = पूर्वजन्म में मृत्यु का अनुभव आने के कारण इस जन्म में शरीरवियोग (अर्थात मृत्यु) न हो ऐसी तीव्र इच्छा। ऐसी इच्छा प्रत्येक प्राणी मात्र में रहती है। दृश्य - प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, इन्द्रियां और पंच महाभूत जिसका परिणाम है, भोग और अपवर्ग (मोक्ष) जिसका प्रयोजन है, ऐसे बुद्धितत्त्व को दृश्य कहते हैं। द्रष्टा - चेतनास्वरूप पुरुषतत्त्व। अपने समीपवर्ती बुद्धितत्त्व में प्रतिबिंबित शब्द, स्पर्श आदि विषयों से जो अनुकूल या प्रतिकूल अनुभृति आती है, उसकी संवेदना पुरुष पाता है। अर्थात् दृश्य है प्रकृति और द्रष्टा है पुरुष। प्रकृति और पुरुष सांख्य शास्त्र के परिभाषिक शब्द हैं। उसी अर्थ में दृश्य और द्रष्टा तथा स्व और स्वामी शब्द योगशास्त्र में प्रयुक्त होते हैं। संयोग = स्व (दृश्य) शक्ति और स्वाभिशक्ति (द्रष्टा की शक्ति) अथवा स्व और स्वामी, एक दूसरे से विभिन्न हैं। उनके स्वरूप का ज्ञान होने का कारण है उनका संयोग (स्वरूपसंयोग)। इस संयोग का कारण है अविद्या । गुणपर्व = विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग इन चारों को गुणपर्व कहते हैं। ये चारों शब्द पारिभाषिक हैं। उनके अर्थःविशेष = पंचमहाभूत और इन्द्रियां।
अविशेष = पंच तन्मात्रा (शब्दादि) और अन्तःकरण लिंगमात्र = बुद्धि
अलिंग = अव्यक्त प्रकृति । कैवल्य = दृश्य और द्रष्टा (प्रकृति-पुरुष) की विभिन्नता का ज्ञान स्थिर होने पर उनका संयोग भी समाप्त होता है। इस संयोग के अभाव में द्रष्टा की अवस्था को कैवल्य कहते हैं। योगाङ्ग = यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ साधनाओं को प्रत्येकशः योगाङ्ग कहते हैं। इन के अभ्यास से सब प्रकार की अशुद्धियां नष्ट हो कर जो बुद्धि में विशुद्धता आती है, उससे साधक को "विविकेख्याति प्राप्त होती है। विवेकख्याति = दृश्य और द्रष्टा (प्रकृति-पुरुष) की आत्यंतिक विभिन्नता की अनुभूति । यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच सार्वभौम महाव्रतों को मिला कर "यम" कहते हैं। नियम = शौच (शारीरिक और मानसिक शुद्धता) संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान इन पांचों को मिला कर नियम कहते हैं। (यम-नियमों के पालन से योगमार्ग सुगम होता है। इनमें पूर्णता आने पर सिद्धियां भी मिलती हैं। वितर्क = हिंसा, असत्य, परधन का अपहरण, व्यभिचार, और भोगसाधनों का संग्रह । इन के कारण योगसाधना में प्रगति नहीं हो सकती।
आसन = बैठने की विशिष्ट अवस्था जब स्थिर और सुखकर होती है तब उसे आसन कहते हैं। प्राणायाम = आसन में स्थिरता आने पर श्वास और उच्छ्वास का नियंत्रण। इसमें रेचक, पूरक और कुंभक क्रिया होती है। प्राणायाम से चित्त के रज और तम क्षीण हो कर वह सत्त्वमय होता है। प्रत्याहार - ज्ञानेन्द्रियों का अपने निजी विषय से सबंध तोड़ना। ऐसा होने पर इन्द्रियाँ चित्तस्वरूप की और अभिमुख हो कर साधक के अधीन होती हैं और साधक इन्द्रियों पर विजय पाता है।
7 "विभूतिपाद" धारणा = शरीर के नाभिचक्र, नासिकाग्र, भ्रूमध्य आदि विशिष्ट स्थान पर चित्त को स्थिर करना। ध्यान = जिस स्थान पर चित्त की धारणा हुई हो, उसी का अखंडित भान रहना।
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समाधि = ध्यानावस्था में जब "स्वरूपशून्यता" (अपनी निजी प्रतीति का अभाव) आता है, तब उस आत्यंतिक एकाग्र अवस्था को समाधि (सम्यक् आधीयते मनः यत्र) कहते हैं।
संयम = एक ही विषय पर धारणा, ध्यान और समधि होना । प्रज्ञालोक = संयम में निपुणता आने पर दृश्य और द्रष्टा की विभिन्नता का बुद्धि में प्रकाश होना।
अन्तरंग और बहिरंग = आठ योगांगों के दो विभाग। यम, नियम, आसन और प्राणायाम ये चार योगांग सबीज (संप्रज्ञात या सालंबन) समाधि के "बहिरंग" हैं और धारणा, ध्यान, तथा आत्यंतिक एकाग्रता उसी समाधि की साधना में "अन्तरंग" होते हैं। परंतु वे ही निर्बीज (असंप्रज्ञात या निरालंबन) समाधि के बहिरंग होते हैं।
निरोध-परिणाम = चित्त की "व्युत्थान अवस्था" (अर्थात् क्षिप्त, मूढ और विक्षिप्त अवस्था) और “निरोध अवस्था" (आत्यंतिक सात्त्विकता का परिणाम) में जो संस्कार होते हैं, उनके कारण इन दो अवस्थाओं का एक का दूसरे से जो संबंध रहता है, उसे “निरोध-परिणाम" कहते हैं।
समाधि-परिणाम = “निरोधपरिणाम" की अवस्था में व्युत्थान-संस्कार का क्षय और निरोध संस्कार का उदय यथाक्रम होता है। इस समाधि परिणाम में चित्त के विक्षेप धर्म का सर्वथा लय हो कर, एकाग्रतारूप धर्म का उदय होता है। यह अवस्था आने पर चित्त में विक्षेपधर्म (अर्थात् सर्वार्थता या चंचलता) का उद्रेक नहीं होता । निरोध परिणाम से यह चित्त की उच्चतर अवस्था है।
एकाग्रता-परिणाम = चित्त की एकाग्रता में निपुणता आने पर शान्त (पूर्वानुभूत) और उदित (वर्तमान) वत्तिविशेष समान से हो जाते है। उनमें कोई विशेषता नहीं रहती।
परिणाम : चित्त की एकाग्रता के कारण उसके पूर्वधर्म की निवृत्ति हो कर उसमें दूसरे धर्म का उदय होना। उपरि निर्दिष्ट त्रिविध चित्त परिणामों के समान, स्थूल सूक्ष्म भूतों तथा कर्मेन्द्रियों एवं ज्ञानेन्द्रियों में धर्म, लक्षण और अवस्था स्वरूप तीन परिणाम होते हैं और उनके संयम में निपुणता आने पर योगी को भूत और भविष्य का ज्ञान होता है।
धर्मी = वस्तु के धर्म तीन प्रकार के होते हैं : 1) शान्त : (अपना कार्य समाप्त होने पर समाप्त) 2) उदित : (वर्तमान व्यापार करने वाले) और 3) शक्तिरूप में रहने वाले। इन त्रिविध धर्मों से जो युक्त होता है, उसे "धर्मी' कहते है; जैसे सुवर्ण धर्म है, उससे बनने वाले विविध अलंकार धर्मी होते हैं।
अपरान्त = शरीर का वियोग।
भोग = सत्त्व (प्रकृति का ही सुखरूप परिणाम) अचेतन है और पुरुष चेतन है। अतः दोनों में भिन्नता है। परंतु पुरुष को बुद्धिसंयोग के कारण जो सुखसंवेदना होती है वही भोग है।
बन्ध - पुरूष और चित्त का शरीर में संबंध। यह संबंध कर्म के कारण होता है। यह संबंध ही बन्ध है। जय = वशीकरण। महाविदेहा = देह की ममता या अहंता से विमुक्त चित्तवृत्ति। अर्थवत्त्व = त्रिगुणों की वह शक्ति जिससे भोग और अपवर्ग (मुक्ति) की प्राप्ति होती है। कायसम्पत् = रूप, लावण्य, बल और कठोरता इत्यादि शारीरिक गुण ।
विकरणभाव = इन्द्रियों का शरीरनिरपेक्ष व्यापार। इन्द्रियों की पंचविध अवस्थाओं पर संयम करने में निपुणता आने पर यह सिद्धि प्राप्त होती है।
विशोका सिद्धि = अन्तःकरण के सभी भावों पर प्रभुता तथा सर्वज्ञता। अन्तःकरणजय से यह सिद्धि प्राप्त होती है। मधुमती सिद्धि = प्रधान (मूलप्रकृति) को आत्मवश करना। इस सिद्धि की प्राप्ति होने पर योगी को देवता सहयोग देते है। स्थानी = देव देवता। कैवल्य = बुद्धि की क्रियानिवृत्ति और पुरुष की भोगनिवृत्ति। इसी को बुद्धि और पुरुष का "शुद्धिसाम्य" कहा है।
8 "कैवल्यपाद" । प्रकृत्यापूरण := पूर्वजन्म के गुणदोषों का उत्तर जन्म में संक्रमण । निर्माणचित्तानि = योगी ने स्वयं निर्माण किए हुए अनेक शरीरों में निर्मित अनेक चित्त । शुक्ल कर्म = शुभ फलदायक कर्म। कृष्ण कर्म = अशुभ फलदायक कर्म ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 147
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भगवद्गीता आध्यात्मिक विषयों में सभी दृष्टि से परिपूर्ण उपनिषद् है। इसके प्रत्येक अध्याय की पुष्पिका में "योगशास्त्र" शब्द आता है। अर्थात् भगवद्गीता योगशास्त्र परक है। इसमें योग शब्द का प्रयोग 80 स्थानों पर हुआ है; जिनमें अधिकतर वह कर्मयोग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। भगवद्गीता में ज्ञानयोग, भक्तियोग, कर्मयोग और राजयोग का प्रतिपादन हुआ है। इनमें मुख्य प्रतिपाद्य योग के विषय में मतभेद है। लोकमान्य तिलकजी ने अपने प्रख्यात प्रबन्ध "गीतारहस्य" में गीता में कर्मयोग का ही प्राधान्य होने का प्रतिपादन किया है। म. गांधी गीता को अनासक्ति योग परक मानते हैं। शंकराचार्य ज्ञानयोग परक कहते हैं और ज्ञानेश्वर जैसे विद्वान संत भक्तियोग पर बल देते हैं। गीता के छटे अध्याय में योगशास्त्र के क्रियात्मक अंग का उपदेश हुआ है। इनके अतिरिक्त अध्यात्मयोग, साम्ययोग, विभूतियोग इत्यादि योगों का प्रतिपादन गीता में मिलता है।
१ "बौद्ध जैन योग" बौद्ध वाङ्मय में भी एक पृथक् सा योगशास्त्र प्रतिपादन हुआ है जिसका स्वरूप पातंजल योगपद्धति से मिलता जुलता है। गुह्यसमाज नामक बौद्ध ग्रंथ में उस योग का विवरण हुआ है। बौद्ध योगाचार्य "षडंग योग' मानते है। उनमें प्राणायाम प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि के साथ अनुमति का अन्तर्भाव है। अनुमति का अर्थ है किसी भी ध्येय का अविच्छिन्न ध्यान जिससे प्रतिभा की उत्पत्ति होती है।
जैन वाङ्मय में कलिकालसर्वज्ञ हेमचंद्र सूरि का योगशास्त्र अथवा अध्यात्मोपनिषद् सुप्रसिद्ध है। इसके 12 प्रकाशों में से चतुर्थ से 12 वे प्रकाश तक योगविषयक प्रतिपादन आता है। चतुर्थ प्रकार में बारह भावनाएँ, चार प्रकार के ध्यान, और आसनों के बारे में कहा गया है। पांचवें प्रकाश में प्राणायाम के प्रकारों और कालज्ञान का निरूपण है। छठे प्रकरण में परकाय-प्रवेश पर प्रकाश डाला है। सातवें में ध्याता, ध्येय, धारणा और ध्यान के विषयों की चर्चा है। आठवें से ग्यारहवें प्रकाशों में क्रमशः पदस्थ ध्यान, रूपस्थ ध्यान, रूपातीत ध्यान और शुक्ल ध्यान का स्वरूप समझाया है। बारहवें प्रकाश में योग की सिद्धि का वर्णन आता है। इस ग्रंथ पर स्वयं ग्रंथकार ने वृत्ति लिखी है जिसका श्लोक परिमाण है बारह हजार। दूसरी प्रसिद्ध टीका है इन्द्रनन्दीकृत योगिरमा ।
योगविषयक चर्चा में मंत्रयोग, लययोग और हठहोग की भी चर्चा होती है। मंत्रों के जप से साधक की अन्तःस्थ शक्ति उबुद्ध होती है और वह अन्त में महाभाव समाधि की अवस्था में जाता है, यह मंत्रयोग का अभिप्राय है।
लययोग के अनुसार अन्नमय, प्राणमय, मनोमय इत्यादि जीव के पंचकोशों का आवरण, बिंदुध्यान की साधना के द्वारा शिथिल होकर, कुलकुण्डलिनी शक्ति के उत्थान के कारण वह सहस्रार चक्रस्थित शिवतत्त्व में विलीन होता है। इसी को महालय समाधि कहते हैं।
10 "हठयोग" हठयोग का प्रतिपादन घेरण्डसंहिता (घेरण्डाचार्यकृत) और हठयोग-प्रदीपिका (आत्मारामकृत) इन दो ग्रंथों में सविस्तर हुआ है। मत्स्येन्द्रनाथ और गोरक्षनाथ को हठयोग के प्रमुख आचार्य माना गया है। शैव सम्प्रदाय, नाथ संप्रदाय एवं बौद्ध योगाचार संप्रदाय में हठयोग की साधना पर बल दिया गया है। . गोरक्षनात कृत सिद्धिसिद्धान्त-पद्धति में हठयोग का स्वरूप बताया है :
हकारः कीर्तितः सूर्यः ठकारश्चन्द्र उच्यते। सूर्याचन्द्रमसोर्योगाद् हठयोगो निगद्यते।। अर्थात् ह = सूर्यनाडी (दाहिनी नथुनी) और ठ = चंद्रनाडी (बायी नथुनी) से बहने वाले श्वासवायु के ऐक्य को हठयोग कहते हैं। यह क्रिया अत्यंत कष्टसाध्य है।
पातंजल योग शास्त्र के समान हठयोग शास्त्र की भी विशिष्ट परिभाषा है। यहां हम घेरण्डसंहतिा के अनुसार कुछ महत्वपर्ण परिभाषिक शब्दों का विवरण देते हैं, जिससे हठयोग का स्वरूप अंशतः स्पष्ट होगा।
शोधनकर्म = धौती, बस्ति, नेति, नौली, त्राटक और कपालभाति । इन क्रियाओं को शोधनक्रिया या षक्रिया कहते हैं। धौति = (चार प्रकार) अन्तधोति, दन्तधौति, हृद्धौति और मूलशोधन । अन्तधोति = (चार प्रकार) वात्यसार, वारिसार, वह्निसार और बहिष्कृत (या प्रक्षालन) दन्तधौति = (4 प्रकार) दन्तमूल, जिह्वामूल, कर्णरन्ध्र और कपालरन्ध्र । हृद्धौति = (3 प्रकार) दण्ड, वमन और वस्त्र । बस्ति = दो प्रकार जल और शुक्ल। कपालभाति = (3 प्रकार) वातक्रम, व्युत्क्रम और शीतक्रम। नेति, नौली और त्राटक के प्रकार नहीं हैं।
नामय इत्यादि जीव के पंचकी मंत्रयोग का अभिप्राय है की अन्तःस्थ शक्ति
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इन षट् क्यिाओं से घटशुद्धि (अर्थात् शरीर की निर्मलता) होती है और वह सब प्रकार के रोगों से तथा कफ, वात, पित्त के दोषों से मुक्त होता है। जठराग्नि प्रदीप्त होता है।
___ आसनों के संबंध में कहा है कि उनसे शरीर में दृढता आती है। “आसनानि समस्तानि यावन्तो जीवजन्तवः" सृष्टि में जितने भी जीवजन्तु हैं, उनकी शरीरावस्था के अनुसार आसन हो सकते हैं। उनमें 84 आसन करने योग्य है और उनमें भी अधोलिखित 32 आसन उत्तम माने जाते हैं :
सिद्धं पद्मं तथा भद्रं मुक्तं वज्रं च स्वस्तिकम्। सिंहं च गोमुखं वीरं धनुरासनमेव च।।
मृतं गुप्तं तथा मत्स्य मत्स्येन्द्रासनमेव च। गोरक्षं पश्चिमोत्तानम् उत्कटं संकटं तथा।। मयूर कुक्कुटं कूर्म तथा चोत्तानकूर्मकम्। उत्तानमण्डुकं वृक्षं मंडुकं गरूडं वृषम्।।
शलभं मकरम् उष्ट्रं भुजंगं योगमासनम्। द्वात्रिंशदासनानि तु मत्ये सिद्धिप्रदानि च।। इनमें सिद्ध, पद्म, भद्र, मुक्त, वज्र, स्वस्तिक, सिंह, मृत, उग्र, गोरक्ष, मकर और भुजंग इन बारह आसनों के विशेष लाभ बताये हैं।
पद्म, भद्र, स्वस्तिक, सिंह और भुजंग आसन व्याधिनाशक हैं। मकर और भुजंग आसन देहाग्निवर्धक हैं। पद्म, स्वस्तिक और उग्र आसन मरुत्सिद्धिदायक हैं और सिद्ध, मुक्त, वज्र, उग्र तथा गोरक्ष आसन सिद्धिदायक हैं।
मुद्रा : (कुल प्रकार 25) महाभद्रा, नभोमुद्रा, उड्डियान बन्ध, जालंधर बन्ध, मूलबन्ध, महाबन्ध, महावेध, खेचरी, विपरीतकरणी, योनि, वज्रोलि, शक्तिचालिनी, तडागी, माण्डूकी, शाम्भवी, पार्थिवी-धारणा, आम्भसी-धारणा, आग्नेयी-धारणा, वायवी-धारणा, आकाशी-धारणा, आश्विनी, पाशिनी, काकी, मातंगिनी और भुजंगिनी। सुप्त कुण्डलिनी शक्ति को जाग्रत करने के हेतु मुद्राओं की साधना आवश्यक मानी है।
(तस्मात् सर्वप्रयत्नेन प्रबोधयितुमीश्वरीम्। ब्रह्मरन्ध्रमुखे सुप्तां मुद्राभ्यासं समाचरेत्।।) हठयोग में कुण्डलिनी शक्ति का उत्थापन अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना है। किंबहुना कुण्डलिनी का उत्थापन ही इस योग का . उद्दिष्ट है। कुण्डलिनी के उत्थान से सर्व सिद्धियों की प्राप्ति और व्याधि तथा मृत्यु का विनाश होता है।
प्रत्याहार से धीरता की प्राप्ति होती है। चंचल स्वभाव के कारण बाहर भटकने वाले मन को आत्माभिमुख करना यही प्रत्याहार है।
प्राणायाम से लाघव प्राप्त होता है। वर्षा और ग्रीष्म ऋतु में प्राणायाम नहीं करना चाहिए तथा उसका प्रारंभ नाडीशुद्धि होने पर ही करना चाहिए। नाडीशुद्धि के लिये समनु प्राणायाम आवश्यक होते हैं। समुन के तीन प्रकार होते हैं। निर्मनु, वातसार धौति का अपर नाम है। प्राणायाम में कुम्भक क्रिया का विशेष महत्त्व होता है। कुम्भक के आठ प्रकार :
सहितः सूर्यभेदश्व उज्जायी शीतली तथा। भस्त्रिका भ्रामरी मूर्छा केवली चाष्टकुम्भकाः ।। प्राणायाम की सिद्धता के तीन लक्षण होते हैं। प्रथम लक्षण शरीर पर पसीना आना। द्वितीय - मेरुकम्प और तृतीय लक्षण है भूमित्याग अर्थात् शरीर भूमि से ऊपर उठना। यह प्राणायाम की उत्तम सिद्धता का लक्षण है।
खेचरत्वं, रोगनाशः शक्तिबोधस्तथोन्मनी। आनन्दो जायते चित्ते प्राणायामी सुखी भवेत्।। यह प्राणायम की फलश्रुति है। इस शास्त्र में शरीरस्थ वायु के दस प्रकार, स्थान और क्रिया, भेद से माने जाते हैं।
हृदयस्थान में प्राण । गुद्स्थान में अपान । नाभिस्थान में समान। कंठस्थान में उदान । व्यान सर्व शरीर में व्याप्त होता है। इन पांच वायुओं के अतिरिक्त, नाग = चैतन्यदायक, कूर्म = निमेषणकारक, कृकल - क्षुधातृषाकारक, देवदत्त = जृम्भा (जंभई) कारक और धनंजय = शब्दकारक होता है।
ध्यान का फल है आत्मसाक्षात्कार। ध्यान के तीन प्रकार : 1) स्थूलध्यान : हृदयस्थान में इष्ट देवता की मूर्ति का ध्यान। 2) ज्योतिर्मयध्यान : इसके दो प्रकार होते हैं : (अ) मूलधारचक्र के स्थान में प्रदीपकलिकाकृति ब्रह्मध्यान (आ) भ्रूमध्यस्थान में ज्वालावलीयुक्त प्रणवाकार का ध्यान। 3) सूक्ष्मध्यान : शाम्भवी मुद्रा के साथ नेत्ररन्ध्र में राजमार्गस्थान पर विहार करती हुई कुण्डलिनी का ध्यान । हठयोग शास्त्रकार सूक्ष्मध्यान का सर्वोत्कृष्ट महत्त्व बताते हैं।
राजयोग के समान हठयोग का भी अंतिम अंग है समाधि। “घटात् भिन्नं मनः कृत्वा ऐक्यं कुर्यात् परात्मनि।" अर्थात् मन को शरीर से पृथक् कर परमात्मा में स्थिर रखना यह समाधि का एक अभ्यास है, तथा “सच्चिदानन्दरूपोऽहम्" यह धारणा रखना दूसरा अभ्यास है। हठयोग की षडंग साधना की परिणति समाधि की साधना में होती है। घेरण्डसंहिता के अनुसार शांभवी, खेचरी भ्रामरी और योनिमुद्रा की तथा स्थूलध्यान की साधना से समाधि सुख का लाभ साधक को होता है।
शाम्भवीमुद्रा में ध्यानयोग समाधि की साधना से दिव्य रूपदर्शन का आनंद मिलता है।
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खेचरी मुद्रा में नादयोग समाधि की साधना से दिव्य शब्द- के श्रवण का आनंद मिलता है।
योनिमुद्रा में लययोग समाधि की साधना से दिव्य स्पर्शानन्द का अनुभव आता है। इस प्रकार दिव्य शब्द स्पर्शादि के अनुभव को समाधि सुख कहा है। इनके अतिरिक्त भक्तियोगसमाधि (स्वकीये हृदये ध्यायेद् इष्टदेवस्वरूपकम्) और राजयोगसमाधि (मृ कुम्भकेन ध्रुवोरन्तरे आत्मनि मनसो लयः) मिला कर समाधि के छह प्रकार माने जाते हैं। हठयोग की संपूर्ण साधना किसी अधिकारी मार्गदर्शक गुरु के आदेशानुसार ही करना आवश्यक है, अन्यथा विपरीत परिणाम हो सकते हैं।
11 "भक्तियोग" राजयोग और हठयोग के समान भक्तियोग का प्रतिपादन योगशास्त्र के अन्तर्गत होता है। पाश्चात्य विद्वानों में कुछ विद्वानों ने भक्तितत्त्व का मूल ईसाई मत में बताते हुए भारत में उसका प्रचार ईसाई धर्म के कारण माना है। परंतु उनका यह मत दुराग्रहमूलक एवं निराधार होने के कारण भारतीय विद्वानों ने अनेक प्रमाणों से उसका खंडन किया है। ऋग्वेद के सभी सूक्त देवतास्तुति प्रधान हैं और उन सभी स्तुतियों में देवता विषयक भक्तिभाव उत्कटता से व्यक्त हुआ है। परंतु संहिता और ब्राह्मणों में "भक्ति" शब्द का अभाव है। श्वेताश्वतर उपनिषद् में
"यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्याः प्रकाशन्ते महात्मनः ।।" (भावार्थ - जिसके हृदय में ईश्वर एवं गुरु के प्रति परम भक्ति होती है, उसी महात्मा को उपनिषद् में प्रतिपादित गुह्यार्थ स्वतः प्रकाशित होते हैं।
वेदान्तर्गत भक्तितत्त्व का सविस्तर विवरण एवं सार्वत्रिक प्रचार और प्रसार करने का कार्य भगवान् व्यासने अपने पुराणों द्वारा किया। शैव पुराणों में शिवभक्ति और वैष्णव पुराणों में विष्णुभक्ति का ऐकांतिक और आत्यंतिक महत्त्व अद्भुत आख्यानो, उपाख्यानों एवं संवादों द्वारा प्रतिपादन किया है।
श्रीमद्भागवत् पुराण, रामायण एवं महाभारतान्तर्गत भगवद्गीता भक्तिमार्गी वैष्णवों के परम प्रमाण ग्रंथ हैं। श्रीमद्भागवत तो भक्तिरस का अमृतोदधि है। अहिर्बुध्यसंहिता, ईश्वरसंहिता, कपिजलसंहिता, जयाख्यसंहिता इत्यादि पांचरात्र मतानुकूल संहिताओं में भक्तियोग का अनन्य महत्व प्रतिपादन किया है। संपूर्ण पांचरात्र वाङ्मय भक्ति का ही महत्त्व प्रतिपादन करता है। श्रीमद्भागवत में
श्रवणं कीर्तनं विष्णोः स्मरणं पादसेवनम्। अर्चनं वदनं दास्यं सख्यम् आत्मनिवेदनम्।। इस प्रसिद्ध श्लोक में भक्ति की नौ विधाएँ बतायी हैं। उनमें श्रवण, कीर्तन, स्मरण, परमात्मा के प्रति दृढ अविचल श्रद्धा निर्माण करते हैं। पादसेवन, अर्चन और वन्दन, सगुण उपासना की साधना के अंग हैं और दास्य सख्य तथा आत्मनिवेदन भक्त के आंतरिक भाव से संबंधित अंग हैं। अंतिम आत्मनिवेदनात्मिकी भक्ति सर्वश्रेष्ठ मानी जाती है। अपना सारसर्वस्व परमात्मा के प्रति समर्पण करते हुए केवल उसकी कृपा को ही अपना एकमात्र आधार मानना, यही इस अंतिम भक्ति का स्वरूप है।
इस भक्तियोग का एक प्रमाणभूत शास्त्रीय ग्रंथ है "नारदभक्तिसूत्र"। इसमें 84 सूत्रों में भक्तियोग का यथोचित प्रतिपादन किया है। भक्ति का स्वरूपलक्षण, "सा तु अस्मिन् परमप्रेमस्वरूपा अमृतस्वरूपा च ।" (अर्थात भक्ति परमात्मा के प्रति परप्रेममय होती है और वह मोक्ष स्वरूप भी है, याने भक्ति ही परम पुरुषार्थ है।) इन प्रारंभिक सूत्रों में बता कर, सूत्रकार नारद अपना अभिप्राय "नारदस्तु तदर्पिताऽखिलाचारता, तद्विस्मरणे परमव्याकुलता चेति" (अर्थात् अपना सारा व्यवहार ईश्वरार्पण बुद्धि से करना और उस आराध्य देवता का विस्मरण होते ही हृदय में अत्यंत व्याकुलता निर्माण होना) इस सूत्र में व्यक्त करते हैं। नारद भक्तिसूत्र में भक्ति का विभाजन 11 प्रकार की आसक्तियों में किया है।
1) गुणमाहात्म्यासक्ति : नारद, व्यास, शुक, शौनक, शाण्डिल्य, भीष्म और अर्जुन इस आसक्ति के प्रतीक हैं। 2) रूपासक्ति : इसके उदाहरण हैं व्रज की गोपस्त्रियाँ। 3) पूजासक्ति : लक्ष्मी, पृथु, अंबरीष और भरत इसके आदर्श हैं। 4) स्मरणासक्ति : ध्रुव, प्रह्लाद, सनक उसके आदर्श हैं। 5) दास्यासक्ति : हनुमान, अक्रूर, विदुर इसके उदाहरण हैं। 6) सख्यासक्ति : अर्जुन, उद्धव, संजय और सुदामा इसके आदर्श हैं। 7) कान्तासक्ति : रुक्मिणी, सत्यभामा इत्यादि भगवान् श्रीकृष्ण की अष्टनायिकाएं इसकी आदर्श हैं। 8) वात्सल्यासक्ति : कश्यप-अदिति, दशरथ-कौसल्या, नंद-यशोदा, वसुदेव-देवकी इसके आदर्श हैं। 9) आत्मनिवेदनासक्ति : अंबरीष, बलि, विभीषण और शिबि इसके आदर्श हैं। 10) तन्मयतासक्ति : याज्ञवाक्य, शुक, सनकादि इसके आदर्श हैं।
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11) परमविरहासक्ति : वज्र के गोप गोपियाँ और उद्धव इसके आदर्श हैं।
इन 11 आसक्तियों में से किसी न किसी आसक्ति का उदाहरण पौराणिक भक्तों के समान ऐतिहासिक भक्तों के भी जीवन चरित्रों में मिलते हैं तथा उनके काव्यों में यह आसक्तियां सर्वत्र व्यंजित होती हैं। इसी भक्ति रस के कारण संतों की वाणी अमृतमधुर हुई है। नास्तिक के भी हृदय में भगवद्भक्ति अंकुरित करने की शक्ति उनके कवित्व में इसी कारण समायी है।
भक्तियोग का तात्त्विक विवेचन शाण्डिल्यसूत्रों में भी हुआ है। रूपगोस्वामी का भक्तिरसामृतसिंधु और उज्ज्वलनीलमणि, मधुसूदन-सरस्वती का भक्तिरसायन, वल्लभाचार्यकृत सुबोधिनी नामक श्रीमद्भागवत की टीका, नारायण भट्टकृत भक्तिचन्द्रिका इत्यादि ग्रंथों में, एवं रामानुज, वल्लभ, मध्व, निंबार्क, चैतन्य इत्यादि वैष्णव आचार्यों ने अपने भाष्य ग्रंथों में यथास्थान भक्तियोग का विवरण और सर्वश्रेष्ठत्व प्रतिपादन किया है। चैतन्य महाप्रभु ने भक्ति को "पंचम पुरुषार्थ' माना है तथा भक्ति का आविर्भाव परमात्मा की संवित् और ह्लादिनी शक्तिद्वारा होने के कारण, उसे भगवत्स्वरूपिणी माना है। सभी आचार्यों ने "मोक्षसाधनसामग्रयां भक्तिरेव गरीयसी" यह सिद्धान्त माना है।
भक्तिमार्गी आचार्यों में भक्ति के दो प्रमुख भेद माने हैं। 1) गौणी और 2) परा। गौणी भक्ति याने भजन, पूजन, कीर्तन आदि साधनरूप है और पराभक्ति (ज्ञानोत्तर भक्ति) साध्यरूप है। गौणी भक्ति के दो भेद 1) वैधी (शास्रोक्त विधि के अनुसार आराधना) और 2) रागानुगा (जिसमें भक्ति का रसास्वाद एवं परम निर्विषय आनंद का अनुभव आता है। साधनरूप गौणी भक्ति के पांच अंग हैं। 1) उपासक 2) उपास्य 3) पूजाद्रव्य 4) पूजाविधि और 5) मंत्रजप। भगवद्गीता में
चतुर्विधा भजन्ते मां जनाः सुकृतिनोऽर्जुन । आर्तो जिज्ञासुरर्थार्थी ज्ञानी च भरतर्षभ।। (7-16) इस श्लोक में आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी संज्ञक भक्तों के चार भेद बताते हुए भक्ति के भी चार प्रकार सूचित किये हैं। उनमें से पहले तीन प्रकार को 1) सगुण भक्ति और अंतिम प्रकार को निर्गुण भक्ति मानते हैं।
"प्रियो हि ज्ञानिनोऽत्यर्थम् अहं स च मम प्रियः" इस वचन से "वासुदेवः सर्वम्”- ज्ञानयुक्त भक्ति की सर्वश्रेष्ठता गीता में उद्घोषित की है। ज्ञानी भक्त की भक्ति अहैतुकी, निष्काम होती है। भगवत्सेवा को ही परम पुरुषार्थ मान कर ज्ञानी भक्त की भक्तियोग साधना चलती है।
श्रीमद्भागवत में भक्ति का व्यापक स्वरूप___ "काम क्रोधं भयं स्नेहम् ऐक्यं सौहदमेव च। नित्यं हरौ विदधतो यान्ति तन्मयतां हि ते ।।(10-29-15)
इस श्लोक में प्रतिपादन किया है। इस वचन के अनुसार भक्तियोग याने ईश्वर से वृत्ति की तन्मयता द्वारा संबंध जोड़ना। वह संबंध चाहे जैसा हो- काम का हो, क्रोध का हो, भय का हो, स्नेह, नातेदारी या सौहार्द का हो। चाहे जिस भाव से भगवान् में नित्य निरन्तर अपनी वृत्तियां जोड़ दी जायें तो वे भगवान से जुडती हैं। वे भगवन्मय हो जाती हैं और उस जीव को भगवान् की प्राप्ति होती है। इसी व्यापक भक्ति सिद्धान्त के कारण हिरण्याक्ष, हिरण्यकशिपु, रावण, कंस, शिशुपाल जैसे असुरों के ईश्वरद्रोह को “विरोध भक्ति" और गोपियों के शृंगारिक आसक्ति को मधुरा भक्ति माना जाता है।
12 "कर्मयोग" भगवद्गीता में प्रतिपादित योगशास्त्र के अन्तर्गत कर्मयोग का प्रतिपादन आता है। वस्तुतः "कर्मयोग" की संकल्पना भगवद्गीता की ही देन है। गीता के तीसरे अध्याय का नाम है “कर्मयोग" जिसमें कर्म की आवश्यकता का प्रतिपादन किया है। तीसरे अध्याय के तीसरे श्लोक में ज्ञानयोग और कर्मयोग नामक दो निष्ठाओं का निर्देश हुआ है। पांचवें अध्याय के द्वितीय श्लोक में, संन्यास और कर्मयोग की निःश्रेयस् प्राप्ति की दृष्टि से समानता होते हुए भी "कर्मयोगी विशिष्यते" इस वाक्य में कर्मयोग का विशेष महत्त्व भगवान घोषित करते हैं। इस कर्मयोग की परंपरा विवस्वान्, मनु, इक्ष्वाकु के द्वारा प्राचीनतम काल से दीर्घ काल तक चलती रही, परंतु वह परम्परा उत्पन्न हो कर, कर्मयोग नष्ट सा हो गया। भगवद्गीता में उसी का पुनरुस्थान किया गया है। वैदिक कर्मकाण्ड और गीतोक्त कर्मयोग में बहुत अन्तर है। कर्मकाण्ड मुख्यतः यज्ञकर्म से संबंधित है। "यज्ञो वै श्रेष्ठतमं कर्म" यह सिद्धान्त वैदिक कर्मकाण्ड में माना जाता है। कर्मयोग में चित्तशुद्धि और लोकसंग्रह के हेतु नियत कर्म का महत्त्व माना जाता है। कर्मकाण्ड के अंगभूत यज्ञरूप कर्म का फल स्वर्गप्राप्ति है तो "कर्मणैव हि संसिद्धिम् आस्थिता जनकादयः" (जनकादिक राजर्षियों को कर्मयोग के आचरण से हि संसिद्धि अर्थात मुक्ति प्राप्त हुई) इस वचन के अनुसार कर्मयोग का फल मुक्ति बताया गया है। परंतु "कर्मणा बध्यते जन्तुः" यह शास्त्रोक्त सिद्धान्त सर्वमान्य होने के कारण, नियतकर्म के आचरण से मोक्ष की प्राप्ति कैसे हो सकती है, यह प्रश्न उत्पन्न होता है । गीतोक्त कर्मयोग शास्त्र ने उसका उत्तर दिया है।
__ कर्म से जीव को बन्धन प्राप्त होने का एक कारण है, कर्तृत्व का अहंकार और दूसरा कारण है कर्मफल की आसक्ति। कर्मबन्धन के इन दो कारणों को टाल कर, अर्थात् कर्तत्व का अहंकार छोड़ कर तथा किसी नियत कर्म के फल की आशा
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न रखते हुए कर्म का आचरण करने से कर्मबंधन (जो पुनर्जन्म का कारण है) नहीं लगता। इस कौशल्य से कर्म करने से (योगः कर्मसु कौशलम्) चित्तशुद्धि होती है। उससे आत्मज्ञान का उदय हो कर कर्मयोगी को जीवनमुक्त अवस्था की संसिरि प्राप्त होती है। ऐसी आत्मज्ञान पूर्ण जीवन्मुक्त अवस्था में, भगवान् कृष्ण के समान नियत या प्राप्त कर्मों का आचरण करने से "लोकसंग्रह" होता है। आत्मज्ञान (अर्थात् आत्मानुभव) होने पर वास्तविक किसी कर्माचरण की आवश्यकता न होने पर भी, "लोकसंग्रह" के निमित्त कर्मयोग का अनुष्ठान करना नितांत आवश्यकता है।
"लोकसंग्रह" शब्द का अर्थ, श्री शंकराचार्य के अनुसार "लोकस्य उन्मार्गप्रवृत्तिनिवारणम्" और मधुसूदन सरस्वती के अनुसार "स्वधर्म स्थापनं च" अर्थात् अज्ञानी लोगों को अधार्मिक और अनैतिक कर्मों से परावृत्त करना और स्वधर्म की ओर प्रवृत्त करना, यह सर्वमान्य है। ज्ञानी पुरुष निरहंकार और निष्काम बुद्धि से या ईश्वरार्पण बुद्धि से कर्म नहीं करेंगे और सर्वथा कर्मत्याग या कर्मसंन्यास (जो तत्त्वतः असंभव है) करेंगे तो सामान्य जनता का जीवन दिशाहीन या आदर्शहीन हो कर, उसका नाश होगा। भगवद्गीतोक्त कर्मयोग के वैयक्तिक दृष्ट्या, सत्त्वशुद्धि (अथवा चित्तशुद्धि) तथा सामाजिक दृष्ट्या "लोकसंग्रह" इस प्रकार द्विविध लाभ होने से उसकी श्रेष्ठता मानी है। गीतोक्त कर्मयोग के संबंध अत्यंत मार्मिक एवं चिकित्सक विवेचन महान् देशभक्त एवं तत्त्वज्ञानी लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक महाराज ने अपने गीतारहस्य या कर्मयोगशास्त्र नामक प्रख्यात मराठी प्रबंध (पृष्ठसंख्या 864) में किया है। इस प्रबन्ध में कर्मयोग विषयक सभी विवाद्य विषयों का सप्रमाण परामर्श लिया गया है। इस ग्रंथ का पुणे के डॉ. आठलेकर ने संस्कृत में अनुवाद किया है (अप्रकाशित)। भारत की सभी प्रमुख भाषाओं तथा अंग्रेजी, जर्मन, फ्रेंच, चीनी आदि परकीय भाषाओं भी इस महान् ग्रंथ के अनुवाद हुए हैं।
13 "ज्ञानयोग"
भगवद्गीता में ज्ञानयोग शब्द का प्रयोग हुआ है परंतु जिस प्रकार कर्मयोग और भक्तियोग नामक स्वतंत्र अध्याय वहां हैं, वैसा ज्ञानयोग नामक स्वतंत्र अध्याय नहीं है। ज्ञानयोग का संबंध वेदों के ज्ञानकाण्ड से जोड़ा जा सकता है। ज्ञानकाण्डी विद्वानों का प्रमुख सिद्धान्त है,
"ज्ञानोदेव तु कैवल्यम्" एवं “तत्त्वज्ञानाधिगमात् निःश्रेयाधिगमः ।।" । अर्थात् कैवल्य या निःश्रेयस् की प्राप्ति ज्ञान से (तत्त्वज्ञान से) ही होती है। तत्त्वज्ञान शब्द का अर्थ है - वस्तु का जो यथार्थरूप हो, उसका उसी प्रकार से अनुभव करना। ज्ञानयोग (या ज्ञानमार्ग) में इस समस्त विश्व के आदि कारण के, यथार्थ ज्ञान (अर्थात् अनुभवात्मक ज्ञान) को ही निःश्रेयस् का एकमात्र साधन माना जाता है। साथ ही "मोऽहं" (वह विश्व का आदिकारण ही मै (याने इस पंचकोशात्मक शरीर में प्रस्फुरित होने वाला चैतन्य) हूं), इस अनुभूति को आवश्यकता होती है। इस प्रकार का ज्ञान अध्यात्मविषयक उपनिषदादि ग्रंथों तथा दार्शनिक ग्रंथों के श्रवण, मनन और निदिध्यासन की साधना से जिञ्जासु के हृदय में, ईश्वरकृपा से या गुरुकृपा से उत्पन्न होता है। ज्ञानयोग में “अधिकार" प्राप्त करने के लिए नित्यानित्य-वस्तु-विवेक, इहामुत्रफलभोगविराग, यमनियामदि-व्रतपालन और तीव्र मुमुक्षा इन चार गुणों की नितान्त आवश्यकता मानी गयी है। इसी कारण संन्यासी अवस्था में ज्ञानयोग की साधना श्रेयस्कर मानी गयी है। (चित्तशुद्धि परक) कर्मयोग और (भगवतकृपा परक) भक्तियोग द्वारा, ज्ञानयोग में कुशलता प्राप्त होती है। प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का भी अभ्यास (तत्त्वानुभूति परक) ज्ञानयोग में प्रगति पाने के लिए आवश्यक होता है। यह प्रगति सात भूमिकाओं या अवस्थाओं में यथाक्रम होती है।
भूमिकाएं :- 1) शुभेच्छा : आत्मकल्याण के हेतु कुछ करने की उत्कट इच्छा होना। 2) विचारणा : सद्ग्रंथों के श्रवण और चिन्तन से चित्त की चंचलता क्षीण होना। 3) तनुमानसा : संप्रज्ञात समाधि के दृढ अभ्यास से, अनाहतनाद, दिव्य प्रकाश दर्शन जैसे अनुभव का सात्त्विक आनंद मिलना। 4) सत्त्वापत्ति : लौकिक व्यवहार करते हुए भी अखण्डित आत्मानुसन्धान रहना।
5) असंसक्ति : इस भूमिका में स्थित साधक को "ब्रह्मविद्वर" कहते हैं। वह नित्य समाधिस्थ रहता है। केवल प्रारब्ध कर्मों का क्षय होने के लिये ही वह देहधारण करता है। किसी भी प्रकार की आपत्ति से वह विचलित नहीं होता।
6) पदार्थभावना : नित्य आनन्दमय अवस्था में रहना। श्रीमद्भागवत में वर्णित जडभरत की यही अवस्था थी।
7) तुर्यगा "ब्रह्मविद् ब्रह्मैव भवति" इस वचन के अनुसार "अहं ब्रह्माऽस्मि" यह अंतिम अद्वैतानुभूति की अवस्था । ज्ञानयोग का यही अंतिम उद्दिष्ट है।
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ग्रन्था को अधिक महत्त्वपूर्ण
माथी को ही "पंचम वेद"
M
लक मानी जाती है। देवीभागवत
1 "तांत्रिक वाङ्मय" संक्त भाषा का तांत्रिक वाङ्मय सर्वथा अपूर्व है। यह अत्यंत प्राचीन, वैचित्र्यपूर्ण तथा वैदिक वाङ्मय से भी अधिक विस्तृत एवं व्यापक है। अॅव्हेलॉन के मतानुसार तंत्रग्रंथों की संख्या एक लाख से अधिक थी। कुछ तांत्रिक ग्रंथ ई. पू. प्रथम शती के माने गये हैं। बहुसंख्य तंत्रग्रंथ शिव-पार्वती संवादात्मक है। शिव पार्वती के विविध स्वरूपों के कारण शैव और शाक्त तंत्रों में विविधता निर्माण हुई है। वैष्णव तंत्रों में विष्णु के विविध अवतारों द्वारा और बौद्ध तंत्रों में बुद्ध द्वारा तंत्रज्ञान का प्रतिपादन हुआ है। संस्कृत वाङ्मय में तंत्र शब्द का प्रयोग अनेक अर्थों में किया हुआ है। आपटे के संस्कृत-अंग्रेजी कोश में इस शब्द के 31 विविध अर्थ दिये हैं। उसी प्रकार वामनाचार्य झळकीकर के न्यायकोश में इसी एक शब्द के 15 पारिभाषिक अर्थ सोदाहरण दिये हैं। "तन्यते विस्तार्यते बहूनाम् उपकारः येन सकृत् प्रवर्तितेन तत् तन्त्रम्' इस प्रकार तंत्र शब्द की निरुक्ति माधवाचार्य के जैमिनीय न्यायमाला में दी है। तांत्रिक वाङ्मय में अन्तर्भूत होने वाले प्राचीन महान ग्रंथ शारदा लिपि में लिखे गये थे। उनमें वामकेश्वर तंत्र नामक ग्रंथ में 64 प्रकार के तंत्रों के नामों का निर्देश किया है। शाबरतंत्र नामक ग्रंथ में संस्कृत, हिंदी, मराठी और गुजराती इन चार भाषाओं में दैवतसिद्धि के मंत्र दिये है। इन्हीं मंत्रों को शाबरमंत्र कहते हैं। शाबरमंत्र में आदिनाथादिक बारह कापालिकों के एवं नागार्जुन, जडभरत, हरिश्चन्द्र, इत्यादि अनेक तंत्रमार्ग प्रवर्तकों के नामों का निर्देश किया है।
कुल्लूकभट के अनुसार ईश्वरप्रणीत धर्मग्रन्ध दो प्रकार के होते हैं 1) वैदिक और 2) तांत्रिक (द्विविधा हि ईश्वरप्रणीताः मंत्रग्रंथा, वैदिकाः तांत्रिकाश्च ।) जिन धर्मनिष्ठ लोगों की तंत्रमार्ग पर आत्यंतिक निष्ठा होती है, वे तंत्रग्रंथों को ही "पंचम वेद" मानते हैं। बंगाल के शाक्त लोग तो वेदों से भी तंत्रग्रन्थों को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं। भारतीय सभ्यता और संस्कृति निगमागममूलक मानी जाती है। देवीभागवत (1-5-61) में “निगम्यते ज्ञायते अनेन इति निगमः" तथा वाचस्पति मिश्र के तत्त्ववैशारदी (योगसूत्रों की टीका) में “आगच्छन्ति बुद्धिम् आरोहन्ति यस्माद् अभ्युदय-निःश्रेयसोपायाः स आगमः" (1-7) इस प्रकार निगम और आगम शब्दों की नियुक्ति दी गई है। प्राचीन काल से पारमार्थिक साधना की ये दो धारायें भारत में चली आ रही हैं। छांदोग्य (5-8) और बृहदारण्यक उपनिषद में वर्णित पंचाग्नि विद्या के प्रसंगों से यह स्पष्ट होता है कि वैदिक तथा आगमिक पूजा की पद्धति साथ साथ प्रचलित थी। परंपरा के अनुसार आगमशास्त्र के प्रवर्तक आदिनाथ शंकर अथवा आदिकर्ता नारायण माने जाते हैं। शारदातिलक के अनुसार
"आगतं शिववक्रेभ्यो गतं च गिरिजाश्रुतौ। तदागम इति प्रोक्तं शास्त्रं परमपावनम् ।। इस श्लोक में आगमशास्त्र की ईश्वरमूलकता अथवा अपौरुषेयता बतायी जाती है। तंत्रशास्त्र के श्रेष्ठ ग्रंथकार भास्करराय तथा राघवभट्ट के मतानुसार श्रुति के अनुगत होने के कारण तंत्रों का "परतःप्रामाण्य" है। किन्तु श्रीकण्ठाचार्य आगमों को श्रुति के समान "स्वतःप्रमाण' मानते हैं। कुलार्णव तंत्र में कौलागम को 'वेदात्मक शास्त्र' कहा है तो शारदातिलक के टीकाकार राघवभट्ट आगमों (अर्थात् तंत्रों को) स्मृतिशास्त्र मानते हैं और उसका अन्तर्भाव वेद के उपासनाकाण्ड में करते हैं। इस प्रकार परंपरा के अनुसार आगम तंत्रशास्त्र वेदतुल्य माना गया है। भेद केवल इतना ही है कि निगम (वेद) ब्राह्मण, क्षत्रिय और वैश्य इन तीन वर्गों के लिए ग्राह्य माना है परंतु आगम (तंत्रविद्या) चारो वर्णों के लिये ग्राह्य है।
व्यापक दृष्टि से तंत्रग्रंथों के अनुशीलन से स्पष्ट प्रतीत होता है कि तंत्र दो प्रकार के हैं 1) वेदानुकूल तथा 2) वेदबाह्य । तांत्रिक वाङ्मय में वेदत्वाह्य तंत्रों का प्रमाण भरपूर है। इनके आचार और पूजा प्रकार वैदिक तंत्रों से विपरीत हैं। वेदानुकूल तंत्रों के उपास्यभेद के कारण तीन प्रकार माने जाते है 1) वैष्णवागम (या पांचरात्र अथवा भागवत) 2) शैवागम और 3) शाक्तागम। रामानुज के मतानुसार पांचरात्र आगम विशिष्टाद्वैत का प्रतिपादक है। शैव आगम में द्वैत, अद्वैत और विशिष्टाद्वैत इन तीनों मतों की उपलब्धि होती है और शक्तिपूजक शाक्तागम सर्वथा अद्वैत का प्रतिपादन करता है। रुद्रागम और भैरवागम का अन्तर्भाव शैवागम में ही होता है। आगमों का चरम उद्देश्य मोक्ष होने पर भी, परवर्ती प्रवाह केवल मारण, मोहन, उच्चाटन, वशीकरण आदि क्षुद्र तामसी उद्देश्यों की पूर्ति के लिये प्रवाहित हुआ और साधु संतों द्वारा वर्जित माना गया। तंत्रशास्त्र के सभी विभागों में 1) ज्ञान 2) योग 3) चर्या और 4) क्रिया नामक चार पाद होते हैं। आगमान्त शैव अथवा शुद्ध शैव संप्रदाय का प्रचार दक्षिण भारत में विशेष है। ये सम्प्रदाय शैव आगमों पर आधारित हैं। शैवागमों की संख्या 28 है जिनमें पति (शिव), पशु (जीव) और पाश (मल, कर्म, माया) इन तीन पदार्थों पर तांत्रिक दर्शन का विस्तार किया है। शारीरकसूत्र के पाशषुपताधिकरण में “पत्युरसामंजस्यात्' (2-2-35) इस सूत्र में शैवागम श्रुतिविरोधी होने के कारण वैदिकों के लिये अप्रमाण कहे गये हैं। उसी प्रकार शाक्तागम (विशेषतः वामाचार) भी अप्रमाण माना गया है। किन्तु शाक्तों का दक्षिणाचार पंथ और वैष्णवागम वैदिकों के लिये प्रमाण माने गये है। शैवागम के कापालिक, कालमुख, पाशुपत और शैव नामक चार प्रकारों में से अंतिम (शैव) आगम के काश्मीर और शैव सिद्धान्त नामक दो उपभेद माने गये हैं। काश्मीरी आगमों का उत्तर भारत में
और अंशतः दक्षिण भारत में प्रचार है। शैवसिद्धान्त का प्रचार केवल दक्षिण भारत में ही है। इस संबंध मे यह इतिहास कारण बताया जाता है कि गोदावरी के तटपर भद्रकाली के पीठ में शैवों का निवास था। वहां उनके चार मठ थे। राजेन्द्र चोल जब दिग्विजय के निमित्त संचार करते हुए वहां पहुंचे तब उन्होंने इन शैवों को अपने प्रदेश में वास्तव्य करने की प्रार्थना की। तदनुसार तोडैमंडल और चोलमंडल में शैवों ने निवास किया। इसी स्थान से शैव संप्रदाय का दक्षिण भारत में प्रचार हुआ। शैवागम के ग्रंथों की रचना इसी काल में मानी जाती है।
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और शैव तथा रौद्र आगाम
योजक, चिंत्य, कारण, आजत
गैरव, मकुट,
पंचाम्नाय : परंपरानुसार आगमों (या तंत्रों) की उत्पत्ति भगवान शिव के पांच मुखों से मानी गयी है। पांच मुखों के नाम है : 1) सद्योजात 2) वामदेव 3) अघोर 4) सत्पुर और 5) ईशान। इन मुखों से निर्गत आगमों की कुल संख्या 28 है। पंचाम्नाय के अन्तर्गत 28 आगमों के नाम और शैव तथा रौद्र आगमों में अन्तर्भूत 28 आगमों के नामों में कुछ साम्य है।
अठ्ठाईस शैवागमों के दो विभाग हैं : 1) शैवागम = कामिक, योजक, चिंत्य, कारण, अजित, दीप्त, सूक्ष्म, सहस्र, अंशुमान और सुप्रभ (या सुप्रभेद) (कुल 10)। 2) रौद्रिक आगम = विजय, निश्वास, स्वायंभुव, आग्नेयक, भद्र, रौरव, मकुट, विमल, चंद्रहास, मुखबिंब, प्रोद्गीत, ललित, सिद्ध, संतान, नारसिंह, (सर्वोक्त या सर्वोत्तर) परमेश्वर, किरण और पर (या वातुल) (कुल 18)।
64 भैरवागम : श्रीकंठी संहिता में इस तंत्र के "अष्टक' नामक आठ विभाग हैं। इन अष्टकों के नाम हैं : 1) भैरवाष्टक 2) यामलाष्टक, 3) मताष्टक, 4) मंगलाष्टक, भ) चक्राष्टक, 6) बहुरूपाष्टक, 7) वागीशाष्टक और 8) शिखाष्टक। इन आठ अष्टकों में प्रत्येकशः आठ तंत्रों का अन्तर्भाव होता है। इस प्रकार भैरवागमों की संख्या 64 मानी गयी है। इनमें भैरवाष्टक, यामलाष्टक और मताष्टक के अंतिम भाग अप्राप्य होने के कारण 64 संख्या पूर्ण नहीं होती।
64 तंत्र : आगमतत्त्वविलास में निम्नलिखित 64 तंत्रों की नामावली प्रस्तुत की है :- स्वतंत्र, फेत्कारी, उत्तर, नील, वीर, कुमारी, काल, नारायणी, बाला, समयाचार, भैरव, भैरवी, त्रिपुरा, वामकेश्वर, कुक्कुटेश्वर, मातृका, सनत्कुमार, विशुद्धेश्वर, संमोहन, गौतमीय, बृहद्गौतमीय, भूत-भैरव, चामुण्डा, पिंगला, वाराही, मुण्डमाला, योगिनी, मालिनीविजय, स्वच्छंदभैरव, महा, शक्ति, चिंतामणि, उन्मत्तभैरव, त्रैलोक्यसार, विश्वसार, तंत्रामृत, महाफेत्कारी, वायवीय, तोडल, मालिनी, ललिता, त्रिशक्ति, राजराजेश्वरी, महामाहस्वरोतर, गवाक्ष, गांधर्व, त्रैलोक्यमोहन, हंसपारमेश्वर, कामधेनु, वर्णविलास, माया, मंत्रराज, कुन्तिका, विज्ञानलतिका, लिंगागम, कालोतर, ब्रह्मयामल, आदियामल, रूद्रयामल, बृहद्यामल, सिद्धयामल और कल्पसूत्र ।
भैरवागम के आठ अष्टकों में अन्तर्भूत 64 आगमों के नाम इन 64 तंत्रों से अलग हैं।
सूत्रपंचक : निश्वास-संहिता (ई. 7 वीं शती) नामक ग्रन्थ नेपाल में प्राप्त हुआ। इस में लौकिकसूत्र, मूलसूत्र, उत्तरसूत्र, नयनसूत्र और गृह्यसूत्र नामक पाच विभाग हैं। इनमें लौकिकसूत्र उपेक्षित है। उतरसूत्र में 18 प्राचीन शिवसूत्रों का उल्लेख मिलता है।
शुभागमपंचक : वसिष्ठसंहिता, सनकसंहिता, सनंदनसंहिता, शुकसंहिता और सनत्कुमारसंहिता इन पांच आर्ष संहिताओं को "शुभागम" कहते हैं। इन संहिताओं का तांत्रिकों के समयाचार में अन्तर्भाव होता है। समयाचार का ही अपरनाम है कौल मार्ग।
श्रीविद्यासंप्रदाय : तांत्रिकों के इस संप्रदाय में कादि, हादि और कहादि नामक तीन तंत्रभेद माने जाते हैं। कादि विभाग में प्रधान देवता काली है। इस मत में त्रिपुरा उपनिषद् और भावनोपनिषद् विशेष महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं। हादितमत में त्रिपुरासुंदरी प्रधान देवता है। त्रिपुरातापिनी उपनिषद् में इस मत का प्रतिपादन हुआ है। दुर्वासा मुनि हादि विद्या के उपासक माने जाते हैं।
___ कहादि-मत में तारा अथवा नीलसरस्वती प्रधान देवता है। क और ह वर्ण महामंत्र हैं, ककार से ब्रह्मरूपता और हकार से शिवरूपता की प्राप्ति इस मत में मानी जाती है। बंगाल में विरचित तांत्रिक ग्रंथों की संख्या अधिक है। श्यामारहस्य, तारारहस्य, छिन्नमस्तामंत्ररहस्य, महानिर्वाणतंत्र, कुलार्णवतंत्र, बृहत्कालीनतंत्र, चामुंडातंत्र, बगलातंत्र इत्यादि बंगाली आचार्यों के महत्त्वपूर्ण ग्रंथों में अन्य तांत्रिकों के अनैतिक वामाचार को टाल कर तंत्राचार का शुद्धीकरण करने का प्रयास हुआ है।
तांत्रिक ग्रंथों में उपनिषद, सूत्र, मूलतंत्र, सारग्रंथ, विधिविधानसंग्रह, स्वतंत्रप्रबंध, विवरण इत्यादि विविध प्रकार होते हैं। परशुराम कल्पसूत्र जैसे ग्रंथों को तांत्रिक कर्मकाण्ड में वैदिक कल्पसूत्रों जैसी मान्यता दी जाती है।
तांत्रिक उपनिषद् ग्रंथ : शैव, शाक्त और वैष्णव संप्रदायों में मान्यता प्राप्त तांत्रिक उपनिषदों की संख्या काफी बडी है। प्रस्तुत कोश में अनेक तंत्रिक उपनिषदों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया गया है। इन उपनिषदों की रचनाशैली आपाततः वैदिक उपनिषदों क समान है। परंतु भाषा की दृष्टि से वे उतरकालीन प्रतीत होते हैं। तांत्रिक साधकों की दृष्टि में इन उपनिषदों को महत्त्वपूर्ण स्थान है। तंत्रव्याकरण, शैवव्याकरण इत्यादि ग्रंथों में तांत्रिक-व्युत्पत्ति का मार्गदर्शन किया है। इस पद्धति में वर्णमाला के अक्षरों के गूढ अर्थों का विवेचन अधिक मात्रा में होता है।
यामलग्रंथ : तांत्रिक आगम ग्रंथों के बाद रुद्र, स्कन्द, विष्णु, यम, वायु, कुबेर और इन्द्र इन देवताओं के नामों से संबंधित यामल ग्रंथों की रचना हुई। जयद्रथयामल नामक 24 हजार श्लोकों का ग्रंथ ब्रह्मयामल का परिशिष्ट माना जाता है और पिंगलमत यामल, जयद्रथ यामल का परिशिष्ट है । यामल ग्रंथों के निर्माताओं ने तांत्रिक साधना में जातिभेद को स्थान नहीं दिया।
सारग्रंथ : इन ग्रंथों में तांत्रिक विधि-विधानों का सविस्तर प्रतिपादन मिलता है। इस प्रकार के तांत्रिक ग्रंथों की रचना भारत के सभी प्रदेशों में मध्ययुगीत कालखंड में हुई। तंत्रमार्ग की लोकप्रियता सारग्रंथों की बहुसंख्या से अनुमानित होती है। शंकराचार्यकृत प्रपंचसार और लक्ष्मण देशिककृत शारदातिलक इत्यादि सारग्रंथों को तांत्रिक वाङ्मय में विशेष मान्यता है। वाराहीतंत्र
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में आगमों का स्वरूपलक्षण सात प्रकार का कहा है। तदनुसार, सृष्टि, प्रलय, देवतार्चन, सर्वसाधन, पुरश्चरण, षटकर्मसाधन 1) शांति, 2) वशीकरण, 3) स्तंभन, 4) विद्वेषण, 5) उच्चाटन और 6) मारण) और 7) चतुर्विध ध्यान, इन सात विषयों का आगमों में प्रतिपादन होता है।
2 तंत्रशास्त्र और वेद । जिस प्रकार व्याकरणादि को "शास्ति इति शास्त्रम्" इस व्युत्पत्ति के अनुसार शास्त्र माना जाता है, उसी प्रकार आगमों को भी शास्त्र माना जाता है। व्याकरण साधु शब्दप्रयोग का, न्याय प्रमाणप्रमेयादि का, पूर्वमीमांसा शास्त्र कर्तव्यपदार्थों का और उत्तर मीमांसा शास्त्र आत्मस्वरूप की प्राप्ति का शासन करते हैं। उसी प्रकार आगम भी पूर्व और उत्तर मीमांसा का कार्य संपादन करने के कारण "शास्त्र" कहा जाता है। पूर्वमीमांसा और उत्तर मीमांसा का अपर नाम है पूर्वतंत्र और उतरतंत्र। इसी कारण पूर्वमीमांसा विषयक वाङ्मय में तन्त्रवार्तिक, तन्त्ररहस्य, तन्त्रसिद्धान्तरत्नावली, तंत्रसार, तंत्रशिखामणि इत्यादि तंत्र-शब्दयुक्त ग्रन्थनाम मिलते हैं। जैमिनि के द्वादशाध्यायी मीमांसाग्रन्थ में 11 वें अध्याय का नाम ही तंत्राध्याय है। अंतर केवल इतना ही है कि तंत्रशास्त्रविषयक, वाराहीतंत्र, योगिनीतंत्र, इत्यादि ग्रन्थों के नामों में तंत्र शब्द अंत में मिलता है जब कि मीमांसाशास्त्र के ग्रन्थों में वह आरंभ में आता है। इसका कारण यह हो सकता है कि जिस प्रकार आधुनिक समय में विज्ञान (साइंस) के प्राधान्य के कारण भाषाविज्ञान, आयुर्विज्ञान, नाडीविज्ञान, भौतिकविज्ञान इत्यादि विज्ञान शब्दयुक्त शास्त्रों के नाम रूढ हो रहे हैं, उसी प्रकार प्राचीन काल में तंत्र' की प्रधानता के कारण, तंत्र शब्द सहित ग्रन्थों के नाम दिये गये। मीमांसक अपने कर्मकाण्ड में याग, होम, दान, भक्षण इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं, उसी प्रकार तंत्रशास्त्रकार भी याग, होम, महायाग, अन्तर्याग, बहिर्याग, यागशाला, देवता, कर्म, प्रयोग, अधिकार इत्यादि शब्दों का प्रयोग करते हैं। इसमें कर्ता और अनुकर्ता कौन है यह कहना असंभव है। तंत्र और मीमांसा दोनों शास्त्रों की प्राचीनता इस प्रकार के शब्दसाम्य से सिद्ध होती है। वैदिक कर्मों के समान तांत्रिक कर्मों में भी अर्थज्ञान सहित मंत्रोच्चारण आवश्यक माना गया है। तांत्रिक कर्मों में वैदिक और तांत्रिक दोनों मंत्रों का उच्चारण होता है। अगस्त्य ऋषि ने तंत्रसिद्ध मंत्रों के अर्थ का विवरण इसी कारण किया है। वेदमंत्रों के प्रत्येक अक्षर में अद्भुत शक्ति होती है यह सिद्धान्त याज्ञिक मीमांसकों के समान तांत्रिकों को भी संमत है। वेदों में जिस प्रकार ज्ञान कर्म और उपासना नामक तीन कांड होते हैं, उसी प्रकार तंत्रों में भी ज्ञान, चर्या और उपासना नामक तीन विभाग होते हैं। याज्ञिक और तांत्रिक इन दोनों परम्परा में कर्म का प्रारंभ करते समय गुरुपरम्परा का अनुस्मरण आवश्यक माना गया है। उसी प्रकार चित्तवृत्ति को दृढ करने के लिए कर्मानुष्ठान करते समय अपने शरीर के भिन्न भिन्न स्थानों पर श्रीचक्र के भागों का एवं उनकी अधिष्ठात्री देवताओं का भावना से विन्यास तंत्रसाधक करते हैं। वैदिकों के यागों में भी "तस्यैवं विदुषो यज्ञस्यात्मा यजमानः श्रद्धा पत्नी, शरीरमिध्मम्" इत्यादि मंत्रों के अनुसार यज्ञीय पदार्थों की भावना की जाती है। आगम (तंत्र) और निगम (वेद) मार्गों की समानता का यह द्योतक है। "अष्टाचक्रा नवद्वारा देवनां पूरयोध्या। तस्यां हिरण्मयः कोशः स्वर्गों लोको ज्योतिषावृतः" यह एक ही मंत्र वैदिकों के चयनयाग में और तांत्रिकों की साधना में उच्चारित होता है, यद्यपि उसका आशय भिन्न माना जाता है। दक्षिण भारत में श्रौतयागों का अनुष्ठान करनेवाले प्रायः सभी वैदिक विद्वान, तांत्रिक पद्धति से श्रीचक्र की उपासना करते है। इस प्रकार वैदिक और तांत्रिक मार्गों में प्राचीन काल से अभेद सा माना हुआ दिखाई देता है।
3 उपनिषद और शक्तिसाधना वेदों में तांत्रिक शक्तिरूपों के कुछ नाम पाये जाते हैं जैसे यजुर्वेद के "श्रीश्च ते लक्ष्मीश्च" इस मंत्र में श्री एवं लक्ष्मी का नाम आता है। इनका संबंध सूर्य की शक्ति तथा सौन्दर्य से माना गया है। मुण्डकोपनिषद के “काली कराली च मनोजवा च। सुलोहिता या च" (4/1) इस मंत्र में अग्नि की विविध वर्गों की लपटों में जिह्वा के आरोपण क्रम में 'काली' नाम आता है किन्तु लौकिक और तांत्रिक व्यवहार में काली इत्यादि संज्ञाओं से मानवाकृति उपास्य देवताविशेष का निर्देश होता है। सामवेद के इन्द्रपरक मंत्रों में सूर्य की चर्चा है। तदनुसार शक्तिरूप सूर्य का परिचय मिलता है। सूर्य के प्रकाश में बैठना तथा स्वयं को सूर्यशक्ति से सम्पन्न होते हुये अनुभव करना वैदिकी शक्तिसाधना मानी जाती है। सामवेद में गोपवान् ऋषि की चर्चा है जिसने शरीरस्थ अग्निशक्ति (जो रस-धातुओं का परिपाक करती है) के योगक्षेम की प्रार्थना की है। वाग्देवी का निर्देश पंचतत्त्वों से निर्मित आकाश में किया गया है। इस वाग्देवी (अर्थात वाणी) के कारण ही एक, दूसरे के अभिमुख होता है। पितरों की आराधना करने वाले "श्राद्ध" करते हैं। श्रद्धा की शक्ति अर्थात् "श्रद्धादेवी" मानव में रहती है। इसी श्रद्धादेवी या शक्ति के कारण मनुष्य में ज्ञान का उदय होता है। 'श्रद्धावान् लभते ज्ञानम्' यह सिद्धान्त भगवद्गीता में कहा गया है। इसी प्रकार सामवेद में ज्वालादेवी, अदिति, सरस्वती, गायत्री, तथा गंगादेवी की चर्चा की गई है। अथर्ववेद में पशुधन का दायित्व, नारीशक्ति को बताया है। व्यष्टि जीवन में नारी भरण पोषण करने भार्यारूप स्त्री है। समष्टिजीवन में वही शक्ति पृथ्वी या धरा
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है, जिसका निर्देश विश्वंभरा वसुधानी इत्यादि महनीय शब्दों से किया गया है। अथर्ववेद में पृथ्वी देवता की उत्पत्ति अश्विनीकुमारों से बताते हुए उसकी स्तुति में विष्णु को उसकी विशालता पर घूमने वाला एवं इन्द्र को उसका रक्षक कहा है। अथर्ववेद में इसी पृथ्वी देवता को 'कृष्णा' कहा है। तांत्रिक ग्रंथों में यही कृष्णा 'कालिका' नाम से निर्दिष्ट है। इसी वेद में मंत्रशक्ति से मुर्दे के धुयें से होने वाली, पशु एवं मनुष्य की रोगनिवृत्ति की चर्चा मिलती है। मंत्रशक्तिशास्त्र का मूल इस प्रकार अथर्ववेद में मिलता है। वैदिक शाक्त साधनाएं विशिष्ट वस्तुओं के माध्यम से की जाती हैं। कृत्या नामक मारणशक्ति एवं अंशुमती नामक प्रजननशक्ति का उल्लेख अथर्ववेद में मिलता है। संरक्षक क्षात्रशक्ति का स्रोत जलमयो अग्निदेवता को माना है। इन तत्त्वशक्तियों के अतिरिक्त कालशक्ति, अग्निशक्ति, सूर्यशक्ति, रात्रिशक्ति इत्यादि शक्तिओं का निर्देश वेदमंत्रों में मिलता है। लोकतंत्र में होने वाली 'छायापुरुष' साधना का मूल ऋग्वेद के सरण्यू आख्यान में माना जाता है। सरण्यू सूर्य की धर्मपत्नी का नाम है जिसे छाया और अमृता भी कहा है। यम छाया का ही पुत्र है । लौकिक तंत्रसाधना में स्वप्नेश्वरी ( दुःस्वप्न को सुस्वप्न में परिवर्तित करने वाली देवता) का आराधना होती है। इस देवता का मूल ऋग्वेद की उषा देवता में माना जाता है। वेदों में निर्दिष्ट इन्द्र की स्त्रीरूप शक्ति इन्द्राणी को शरीरस्था कुण्डलिनीशक्ति माना जाता है। उपनिषदों में तांत्रिकों की शक्तिसाधना का बीज अनेकत्र मिलता है। केनोपनिषद् में हैमवती उमादेवी के स्वरूप में सर्वान्तर्यामिनी महाशक्ति का निर्देश किया है। इस शक्ति के अभाव में इन्द्र, वायु आदि देवता निस्सत्व हो जाते है । गणपत्युनिषद् में मानव देह के मूलाधार में स्थित शक्ति का निर्देश गणपति, ब्रह्मा, विष्णु, इन्द्र, अग्नि आदि देवतावाचक नामों से किया है। बृहदारण्यक में प्राणिमात्र की वाक्शक्ति को ही ब्रह्म कहा है, (वाग् वै ब्रह्म) । रुद्रहृदयोपनिषद् में व्यक्त को उमा, शरीरस्थ चैतन्य को शिव और अव्यक्त परब्रह्म को महेश्वर कहा है । योगकुण्डली उपनिषद में सरस्वती अर्थात् वाक्शक्ति के चालन से ( याने मंत्रजप से) कुण्डलिनी शक्ति के चालन की चर्चा मिलती है। बृहदारण्यक में पराशक्ति को कामकला एवं शृंगारकला कहा है। गोपालोत्तरतापिनी उपनिषद् में पराशक्ति को ही कृष्णात्मिका (अर्थात् आकर्षणमयी) रुक्मिणी कहा है। अग्नि, पृथ्वी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ चन्द्रमा एवं नक्षत्रों को बृहदारण्यक मे 'अष्टवसु' कहा है। इन वसुओं को व्यवहार के लिए एक क्रम में प्रस्तुत करने वाली शक्ति को देव्युपनिषद् में 'संगमनी शक्ति' कहा है। इसी का नाम दुर्गा शक्ति भी है। अथर्ववेद के सीतोपनिषद् में मूलप्रकृति का निर्देश सीताशक्ति शब्द से किया है। इसी को इच्छाशक्ति क्रियाशक्ति एवं साक्षात्शक्ति नाम, व्यवहार की दृष्टि से दिये गये हैं। अथर्वशिरस् उपनिषद् में साधना की दृष्टि से निर्गुण शक्ति के शुक्ल, रक्त और कृष्ण वर्ण माने गये हैं। उपनिषदों में परा शक्ति का परिचय गुणात्म एवं व्यावहारि रूप से है, जब कि पुराणों में सगुणसाकार रूप में मिलता है।
4 तंत्र और पुराण
पुराणों में दृश्य जगत् की त्रिगुणमयी कारणशक्ति (सत्त्व) महालक्ष्मी, (रजस्) सरस्वती एवं (तमस् ) महाकाली के स्वरूप में वर्णित है। प्रत्येक पुराण में देवताविशेष के अनुसार एक शक्ति की मुख्यता प्रतिपादन की है। आनुषंगिकता से अन्य शक्तियों की भी चर्चा आती है। विभिन्न देवताओं के नामों से अंकित पुराणों में देवताविशेष का महत्त्व उनकी शक्तिओं के कारण है। देवी भागवत में शिवा, कालिका, भुवनेश्वरी, कुमारी आदि स्वरूपों में सर्वगता शक्ति का निर्देश करते हुए उनकी साधना, योग और याग द्वारा बतायी है। शरीरस्थित कुण्डलिनी ही भुवनेश्वरी है, उसी को लौकिक वस्तुओं की प्राप्ति के लिये अंबिका कहा गया है। अंबिकास्वरूप भुवनेश्वरी की आराधना यज्ञ द्वारा विहित मानी है। दुर्गति से रक्षा होने के लिए दुर्गादेिवी का स्थान तथा हिमालय में पार्वती देवी का स्थान बताया गया है। पार्वती के शरीर से कौशिकी होने की चर्चा मार्कण्डेय पुराण एवं देवी भागवत में की है। पार्वती का एक स्वरूप है शताक्षी एवं शाकंभरी। इसी देवी ने प्राणियों के दुःख से खिन्न होकर नेत्रों से जल वर्षण कर शाकादि को उत्पन्न किया था। देवीभागवत के सप्तमस्कन्ध (अ. 38 ) में शक्ति के प्रभेद सविस्तर वर्णित हैं । नवम स्कन्ध ( अ. 6) में गंगा, सरस्वती, लक्ष्मी और विशेष रूप से राधा एवं गायत्री का महत्त्व वर्णन किया है। इसी स्कन्ध में स्वाहा, स्वधा, दक्षिणा, षष्ठी, मंगलचंडी, जरत्कारू मनसा एवं सुरभि नामक शक्तियों का भी वर्णन है। श्रीमद्भागवत (10 स्कंध) में विन्ध्यवासिनी देवी का वर्णन आता है, जो कंस के हाथ से छूट कर विविध स्थानों पर, दुर्गा, भद्रकाली, विजया, वैष्णवी, कुमुदा, चण्डिका, कृष्णा, माधवी, कन्यका, नारायणी, ईशानी, शारदा इत्यादि नामों से स्थित हुई है। इसी दशम स्कन्ध (अध्याय 22 ) में चीरहरण के प्रसंग में कात्यायनी पूजा के व्रत का वर्णन आता है। कात्यायनी की पूजा तांत्रिक पद्धति से बतायी गई है। रुक्मिणीविवाह के प्रकरण में भवानी की पूजा तांत्रिक पद्धति से वर्णित है। पंचमस्कन्ध (अ. 9) में तामसी साधकों द्वारा संतति प्राप्ति के लिये भद्रकाली को नरबलि अर्पण करने का उल्लेख मिलता है। वहां भद्रकली की आराधना के सारे उल्लेख तांत्रिक पद्धति के उदाहरण हैं। कालिका पुराण (अ. 59 ) में मदिरापात्र, रक्तवस्त्रा नारी, सिंहशव, लाल कमल, व्याघ्र एवं वारण (हाथी) का संगम, ऋतुभती भार्या का संगम करने पर चण्डी का ध्यान इत्यादि तांत्रिक साधना से संबंधित निर्देश मिलते हैं। बौद्ध संप्रदाय में ई. प्रथम शती से तांत्रिक साधनाओं का प्रसार हुआ। ई. 7 वीं शती से अनेक बौद्ध तंत्रों का विस्तार
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हुआ जिनमें सरहपा का बुद्ध कपालतंत्र, लुईपा का योगिनीसंचर्या तंत्र, कंबल और पद्मव्रज का वज्रतंत्र, कृष्णाचार्य का संपटतिलक तंत्र, ललितवज्र का कृष्णयमारि तंत्र, गंभीरवज्र का महामाया तंत्र और पितो का कालचक्रतंत्र उल्लेखनीय हैं। बौद्ध तांत्रिकों का तारासम्प्रदाय ई. छठी या सातवीं शती का माना जाता है।
5 तंत्रशास्त्र और बौद्धधर्म वेदनिष्ठ शिव, विष्णु देवी इत्यादि देवतोपासकों में जिस प्रकार तांत्रिक उपासना पद्धति का प्रचार हुआ उसी प्रकार बौद्धों के महायान संप्रदाय में और विशेष कर तिब्बती बौद्ध संप्रदाय में तंत्रमार्ग का विशेष प्रभाव दिखाई देता है। तत्त्वतः बौद्ध धर्म पंचशील-प्रवण और अष्टांगिक मार्गनिष्ठ है, परंतु यथावसार शैव, वैष्णवों के प्रभाव के कारण बौद्धों में भी तंत्रसाधना का प्रचार हुआ। बौद्धों के तांत्रिक वाङ्मय में क्रियातंत्र, चर्यातंत्र और योगतंत्र इन तीन प्रकार के ग्रंथ हैं ।क्रियातंत्र में धार्मिक विधि, चर्यातंत्र में आचारविधि और योगतंत्र में अन्यान्य योगविधि बताये गये हैं। उनमें क्रियातंत्र विषयक ग्रंथों में कुछ वैदिक धर्मविधियों का भी प्रधानता से पुरस्कार किया गया है। बौद्धों के आदिकर्मप्रदीप नामक क्रियातंत्र विषयक सूत्रग्रंथ में प्रायः वैदिकों के गृह्यसूत्रों में प्रतिपादित धर्मविधि बताये है। महायान सम्प्रदाय के मुमुक्षु साधक के लिये परिमार्जन, प्रक्षालन, प्रातःसायंप्रार्थना, पितृतर्पण, भिक्षादान, पूज्यपूजन इत्यादि कर्मों में उपयुक्त मंत्र, इस आदिकर्म प्रदीप में बताये हैं। क्रियातंत्रविषयक ग्रंथों में यज्ञान्तर्गत दान, कुछ गूढार्थक मंत्र और बोधिसत्वों के साथ शैवपंथीय दैवतों की प्रार्थना उल्लखित है। योगनिष्ठ बौद्ध साधकों के लिये योगतंत्रविषयक ग्रंथ निर्माण हुए। इनमें परमज्ञान की प्राप्ति के लिये संन्यास तथा ध्यान साधना के साथ मंत्र, तंत्र, मूर्छना जैसे ऐन्द्रजलिक प्रयोग भी बताये गये हैं। इन ग्रंथों का प्रतिपादन प्रायः शैवतंत्रों के अनुसार दिखाई देता है। योगिनी, डाकिनी इत्यादि देवता भी इस बौद्ध योगतंत्र में महत्त्वपूर्ण मानी गयी है।
नेपाली बौद्धों के नवविध धर्माचार में तथागतगुह्यक अथवा गुह्यक समाज नामक तंत्रग्रंथ महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इसके प्रारंभ में नाना प्रकार के ध्यान बताये गये हैं। परंतु आगे चल कर घोड़ा, हाथी, कुत्ता इत्यादि पशुओं के मांस भक्षण और चाण्डालकन्याओं से मैथुन इस प्रकार के कर्म बताये हैं। महाकालतंत्र नामक ग्रंथ बुद्धप्रणीत कहा गया है। इस ग्रंथ में शाक्यमुनि
और देवता के संवाद द्वारा गुप्तधन, वांछित स्त्री, राजाधिकार इत्यादि की प्राप्ति के तथा वशीकरण मारण इत्यादि के उपाय साधनरूप में बताये हैं। संवरोदयतंत्र बुद्ध, वज्रपाणिसंवादरूप है। इसमें शिवलिंग का और शैव देवतों का पूजन तंत्रसाधना के लिए बताया है। कालचक्रतंत्र के प्रवक्ता के रूप में आदिबुद्ध का निर्देश है। परंतु उसी ग्रंथ में मक्का क्षेत्र और मुस्लिम संप्रदाय का भी निर्देश मिलता है। नागार्जुन प्रणीत पंचक्रम नामक बौद्धतंत्र के ग्रंथ में परमोच्च योगप्राप्ति की पंचमावस्था प्राप्त करने के लिये महायानी देवताओं का पूजन, गूढमंत्रों का उच्चारण, चक्र, मंडल आदि का पूजन बताया गया है। इस प्रकार की तंत्रोपासना से योगी को सकल भेदातीत अद्वैतावस्था प्राप्त होती है ऐसा ग्रंथ का अभिप्राय है। बौद्धों के तंत्रविषयक ग्रन्थों की संस्कृत भाषा अशुद्धप्राय होने के कारण संस्कृतज्ञों को प्रसन्न नहीं करती।
प्रमुख बौद्ध तंत्रों की नामावली (कुलसंख्या 72) : प्रमोदमहायुग, परमार्थसेवा, पिंडीक्रम, संपुटोद्भव, हेवन, बुद्धकपाल, संवर (या संवरोदय), वाराही, (या वाराहीकल्प), योगांबर, डाकिनीजाल, शुक्लयमारि, वृष्णयमारि, पीतयमारि, रक्तयमारि, श्यामयमारि, क्रियासंग्रह, क्रियाकंद, क्रियासागर, क्रियाकल्पद्रुम, क्रियार्णव, अभिधानोतर, क्रियासमुच्चय, साधनमाला, साधनसमुच्चय, साधनसंग्रह, साधनरत्न, साधनपरीक्षा, साधनकल्पलता, तत्त्वज्ञान, ज्ञानसिद्धि, उद्यान, नागार्जुन, योगपीठ, पीठावतार, कालवीर (या चंडरोषण), वज्रवीर, वज्रसत्त्व, मरीचि, तारा, वज्रधातु, विमलप्रभा, मणिकर्णिका, त्रैलोक्यविजय, संपुट, मर्मकालिका, करुकुल्ला, भूतडामर, कालचक्र, योगिनी, योगिनीसंचार, योगिनीजाल, योगांबरपीठ, उड्डामर, वसुंधरासाधन, नैरात्म, डाकार्णव, क्रियासार, यमांतक, मंजुश्री, तंत्रसमुच्चय, क्रियावसंत, हयग्रीव, संकीर्ण, नामसंगीति, अमृतकर्णिकानाम संगीति, गूढोत्पादनाम संगीति, मायाजाल, ज्ञानोदय, वसंततिलक, निष्पन्नयोगांबर, और महाकाल। इन बौद्धों तंत्रों में से बहुसंख्य तंत्रों के ग्रंथों के चीनी एवं तिब्बती भाषाओं में अनुवाद हो चुके हैं।
6 तांत्रिक संप्रदाय जैनतंत्र :
जैन परंपरा के अनुसार जैन तंत्रों का प्रारंभ तीर्थंकर पार्श्वनाथ के समय से माना जाता है। विद्यानुप्रवाद नामक जैन ग्रंथ में मंत्रों तथा विद्याओं की चर्चा मिलती है। आचार्य भद्रबाहु को आद्य जैन तांत्रिक इसी लिये मानते हैं कि उन्होंने स्मरणमंत्र से पार्श्वनाथ का आवाहन किया था। ई. 3 री शताब्दी से 11 वीं शताब्दी तक मानवदेव सूरि (लघुशांतिमंत्र), वादिवेताल-शांतिसूरि (बृहत् शांतिमंत्र) सिद्धसेनदिवाकर, मानतुंगसूरि (भक्तामरस्तोत्र), हरिभद्रसूरि, शीलगुणसूरि, वीरमणि, शांतिसूरि, और सुराचार्य इन जैन तंत्राचार्यों ने मंत्रविद्या का प्रचार जैन समाज में किया।
नाथसंप्रदाय प्रधानतः तांत्रिक ही है। तंत्रराज ग्रंथ के अनुसार कौलतंत्रों के प्रवर्तक मत्स्येन्द्रादि नौ सिद्ध नाथ ही थे।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/157
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तात्रिक
साधक द्वारा उपास्य देवता से संबध
ओर प्रगति करने में देवता का साहा
। प्रत्येक
तात्रिक देवता गण :
तंत्रमार्ग में साधक द्वारा उपास्य देवता से संबंध जोडना, उसका आवाहन करना, उसकी सहायता मिलाना इत्यादि विषयों का गंभीर विचार हुआ है। साधक को सत्य, ज्ञान और आनंद की ओर प्रगति करने में देवता का साहाय्य मिलता है। देवता याने परमेश्वर अथवा परमेश्वरी की विशिष्ट शक्ति होती है। मंत्रसाधना द्वारा साधक का देवता से संबंध स्थापित होता है। प्रत्येक देवता का विशिष्ट रूप, वर्ण, ध्यान, परिवार, वाहन, तंत्रशास्त्र के मर्मज्ञ विद्वानों ने निर्धारित किया है। मंत्र-तंत्रादि साधनाओं से दिव्य दृष्टि का उन्मीलन होने पर साधक को देवतास्वरूप का साक्षात्कार होता है। मूर्तिविज्ञान, मंत्रविज्ञान जैसे शास्त्रों द्वारा तांत्रिकों ने देवताओं के नाम, रूप एवं गुण इत्यादि का प्रतिपादन अपने ग्रंथों में किया है। तांत्रिक साधनाओं में उपास्य देवताओं की आराधना अन्यान्य रूपों में होती है। अतः तंत्र मार्ग में देवताओं का वैविध्य और वैचित्र्य निर्माण हुआ। प्रत्येक तंत्रमार्ग के विविध देवताओं के नाम और स्वरूप की कल्पना निम्न लिखित सूची से आ सकती है। भारत में यत्र तत्र इन तांत्रिक देवताओं की प्रतिमाएं उपलब्ध होती हैं और अनेक क्षेत्रों में उन की तंत्रानुसार आराधना होती है। वैष्णव तांत्रिक देवता : लक्ष्मीवासुदेव, लक्ष्मीनारायण, हरिहर, नृसिंह, राम, कृष्ण, दधिवामन, हयग्रीव और गोपालकृष्ण। शारदातिलक और तंत्रसार नामक ग्रंथों में वैष्णव तांत्रिकों की देवताओं का सविस्तर वर्णन मिलता है। तांत्रिक शिवस्वरूपः शैवतंत्र में आदिनाथ महाकाल के क्षेत्रपाल, भैरव, बटुभैरव नामक स्वरूप, उपास्य माने जाते हैं। मुख्य पूजा से पहले क्षेत्रपाल की पूजा शैवतंत्र में आवश्यक मानी. है शिवस्वरूपी भैरव आठ प्रकार के होते हैं। भैरव की पूजा, काली देवता के साथ कुछ तांत्रिक करते हैं। गाणपत्य तंत्र में महागणपति, वीरगणपति, शक्ति-गणपति, विद्यागणपति, हरिद्रागणपति, उच्छिष्ट-गणपति, लक्ष्मीविनायक, हेरंब, वक्रतुंड, एकदंत, महोदर, गजानन, लंबोदर, विकट और विघ्नराज नामक गणपति के स्वरूप उपास्य माने जाते हैं। मेरुतंत्रप्रकाश में इन के विविध स्वरूप वर्णन किये हैं। सौर तांत्रिक देवताः चंद्र, मार्तण्डभैरव और अग्नि इन तीन देवताओं को सूर्य से संबंधित माना गया है। चंद्र नीलजटाधारी, मार्तण्ड अर्धांगिनी सहित, अग्नि अष्टभुज तथा त्रिनेत्र, और चतुर्भुज एवं सूर्य रक्तकमलासन पर विराजमान होता है। शाक्त तांत्रिक देवताः मुंडमाला तंत्र में दशमहाविद्या नामक देवताओं के नाम बताये हैं :
काली तारा महाविद्या षोडशी भुवनेश्वरी। भैरवी छिन्नमस्ता च विद्या धूमावती तथा ।।
बगला सिद्धविद्या च मातंगी कमलात्मिका। एता दश महाविद्याः सिद्धविद्याः प्रकीर्तिताः ।। अन्य स्थान पर विद्या-देवताओं की संख्या 27 बतायी है। नित्याषोडशिकार्णव नामक ग्रंथ में 'नित्या' नामक 16 देवताओं के नाम बताये हैं : महात्रिपुरसंदरी कामेश्वरी, भगमालिनी, क्लिन्ना, भेरुण्डा, वह्निवासिनी, महाविद्येश्वरी, दूती, त्वरिता, कुलसुंदरी, नीलपताका, विजया, सर्वमंगला, ज्वालामालिनिका और चित्रा। शाक्ततंत्र में दक्षिणाकाली, भद्रकाली, श्मशानकाली, कामकलाकाली, धनकाली, सिद्धकाली, चण्डीकाली इत्यादी काली मां के भिन्न स्वरूप माने जाते हैं। प्राणतोषिणी तंत्र में कुमारी देवता को 'सर्वविद्यास्वरूपा' कहा है। इस कारण शाक्ततंत्र में कुमारीपूजा का विशेष महत्त्व माना गया है। जैन तांत्रिक देवताः सरस्वती, अंबिका, कुबेरा, पद्मावती, सिद्धार्थका, इद्राणी, विधिप्रभा, अक्षुप्ता और चक्रेश्वरी। ये देवताएं, तीर्थंकरों की सेविकाएं मानी जाती हैं। पार्श्वनाथ की पद्मावती और महावीर की सिद्धार्थका सेविका है। दिगंबर संप्रदाय में ज्वालामालिनी और महाज्वाला नामक देवताओं का विशेष महत्त्व माना गया है।
तांत्रिक उपासकों में मान्यताप्राप्त देवी के 12 रूप हैं और उनके 12 तीर्थक्षेत्र अत्यंत पवित्र माने जाते हैं। कामाक्षी - कांचीपुर में 2) भ्रामरी
- मलयगिरि में कन्याकुमारी - तामिलनाडु में
4) अम्बा
- गुजरात में 5) महालक्ष्मी - कोल्हापुर (महाराष्ट्र)
कालिका
- उज्जयिनी में ललिता - प्रयाग में
विन्ध्यवासिनी - विन्ध्याचल में। विशालाक्षी - वाराणसी में
मंगलचंडी
- गया में 11) सुन्दरी - बंगाल में। 12) गृह्यकेश्वरी
- नेपाल में।
बारह विद्येश्वर : मनु, चंद्र, कुबेर, लोपामुद्रा, मन्मथ, अगस्त्य, अग्नि, सूर्य, इन्द्र, स्कन्द, शिव, और कोधभट्टारक (अथवा दुर्वासा)। तंत्रमार्ग में इन बारह विद्येश्वरों में ही बीज और मंत्रों का प्राधान्य माना जाता है। इन में से केवल मन्मथ (या कामराज) और लोपामुद्रा का सम्प्रदाय जीवित है।
158 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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ग्रंथकार गौडपादाचार्य
लक्ष्मणदेशिक पृथ्वीराचार्य
चरणस्वामी
7 तंत्रशास्त्र के प्रमुख ग्रंथकार
तंत्रशास्त्र का विस्तार और उसके अनेक प्रकार होने से सभी प्रकार के तंत्रों पर लिखे गये प्राचीन तथा अर्वाचीन संस्कृत ग्रंथों की संख्या भी अपार है। प्रस्तुत कोश में म. म. गोपीनाथ कविराज द्वारा संपादित तांत्रिक साहित्य की बृहत्सूची से उद्धृत अनेक ग्रंथों का यथास्थान संक्षिप्त परिचय दिया है। अनेक ग्रंथों के लेखकों के नाम उपलब्ध नहीं तथापि कुछ महनीय लेखकों का कार्य चिरस्मरणीय है। तांत्रिक संप्रदायों में मान्यता प्राप्त 30 तंत्राचार्यो की नामावली यहां उद्धृत की है :
राघवभट्ट
पुण्यानंद
अमृतानंदनाथ सुंदराचार्य
विद्यानंदनाथ
सर्वानंदनाथ
ब्रह्मानंद
पूर्णानंद
गोरक्ष
सुभगानंद प्रकाशानंद
महीधर
यशंकर
भास्करराय
प्रेमनिधि पंत
उमानंद
रामेश्वर
शंकरानंद
अप्पय्य दीक्षित
देवनाथ ठाकुर
काशीनाथ तर्कालंकार ( शिवानंद)
गीर्वाणेन्द्र
रघुनाथ तर्कवागीश
यदुनाथ चक्रवर्ती
नरसिंह ठाकुर गोविंद न्यायवागीश
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FELLE
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ग्रंथ
1) सुभगोदयस्तुति, 2) श्रीविद्यानसूत्र
प्रपंचसार, सौंदर्यलहरी इ.
भुवनेश्वरीरहस्य |
श्रीविद्यार्थदीपिका, प्रपंचसारसंग्रह इ. ।
शारदतिलक पर टीका।
कामकलाविलास सौभाग्यसुभगोदय
ललितार्चनचंद्रिका |
शिवार्चनचंद्रिका, क्रमरत्नावली इ. ।
सर्वोल्लासतंत्र ।
शाक्तानंदतरंगिणी, तारारहस्य |
श्रीतत्त्वचिंतामणि, श्यामारहस्य ।
महार्थमंजरी, परास्तोत्र, पादुकोदय इ. । षोडशनित्या ।
तंत्रसार । पंचमहोदधि ।
तारारहस्यवृत्ति, शिवार्चनमाहात्म्य ।
सौभाग्यभास्कर, सौभाग्यचन्द्रोदय इ.
दीपप्रकाश और अनेक टीकात्मक ग्रंथ ।
हृदयामृत, . नित्योत्सव निबंध |
सौभाग्योदय
सुंदरीमहोदय ।
सौभाग्यकल्पद्रुम ।
सत्यकौमुदी, मंत्रकौमुदी, तंत्रकौमुदी इ.
श्यामासपर्याविधि, तंत्रराजटीका, तंत्रसिद्धांत कौमुदी मंत्रराजसमुच्चय इ. ।
प्रपंचसारसंग्रह
आगम-तर्कविलास
पंचरत्नाकर, आगमकल्पलता ।
ताराभक्तिसुधार्णव । मंत्रार्थदीपिका |
(भारतीय संस्कृति कोशखंड 4 से उद्धृत)
उपास्य देवता और तांत्रिक वाङ्मय
तंत्रिक वाड्मय में काली, तारा, श्रीविद्या (धोडशी या त्रिपुरसुंदरी) भुवनेश्वरी, भैरवी, छिन्नमस्ता, धूमावती बगला, मातंगी, और कमला इन दस देवताओं को दश महाविद्या कहते हैं। महाकालसंहिता के अनुसार विभिन्न देवताएं विभिन्न युगों में फलप्रदान करती हैं किन्तु चारों युगों में फलप्रदान का सामर्थ्य एक मात्र दश महाविद्याओं में है। तांत्रिक वाङ्मय की रूपरेखा देवताविषयक ग्रंथों के स्वरूप से संक्षेपतः आ सकती है। देवताविषयक ग्रंथों में (1) सिद्धान्त पर और (2) प्रयोगपर ग्रंथ होते है।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 159
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काली-विषयक वाङ्मय :- 1) महाकाल संहिता, 2) कालज्ञान, 3) कालीकुलकमार्चन (विमलबोधकृत), 4) भद्रकालीचिन्तामणि, 5) व्योमकेशसंहिता, 6) कालीयामल, 7) कालीकल्प, 8) कालीसपर्याकमकल्पवल्ली, 9) श्यामारहस्य (पूर्णानंदकृत), 10) कालीविलासतंत्र, 11) कालीकुलसर्वस्व, 12) कालीतंत्र, 13) कालीपरा, 14) कालिकार्णव, 15) विश्वसारतंत्र, 16) कामेश्वरी तंत्र, 17) कुलचूडामणि, 18) कौलावली, 19) कालीकुल, 20) कुलमूलावतार, 21) श्यामासपर्या (काशीनाथ भट्टाचार्यकृत), 21) कुलमुक्तिकल्लोलिनी (आद्यानंदन या नवमीसह कृत), 22) कालीतत्त्व (राघवभट्टकृत), 23) कौलिकार्चनदीपिका, 24) कुमारीतंत्र, 25) कुलार्णव, 26) कुब्जिकातंत्र, 27) कालिकोपनिषद् इत्यादि प्रमुख ग्रंथों के अतिरिक्त कर्पूरस्तव, कालीभुजंगप्रयात, इत्यादि कालीस्तोत्र भी प्रसिद्ध हैं। तारा-विषयक ग्रंथ :- 1) तारातंत्र (या तारिणी तंत्र), 2) तारासूक्त, 3) तोडलतंत्र, 4) तारार्णव, 5) नीलतंत्र, 6) महानीलतंत्र, 7) नीलसरस्वतीतंत्र, 8) चीनाचार, 9) तंत्ररत्न, 10) ताराशाबरतंत्र, 11) एकजटीतंत्र, 12) एकजटाकल्प, 13) एकवीरातंत्र 14) तारिणीनिर्णय, 15) महाचीनाचारक्रम, 16) तारोपनिषद्, 17) ताराप्रदीप (लक्ष्मीभट्टकृत), 18) ताराभक्तिसुधार्णव (नरसिंह ठवकुर कृत), 19) तारारहस्य (शंकरकृत), 20) ताराभक्तितरगिणी (प्रकाशानंदकृत, विमलानंदकृत और काशीनाथकृत), 21) ताराकल्पलतापद्धति (नित्यानंदकृत), 22) तारिणीपारिजात (विद्वदुपाध्यायकृत), 23) महोग्रताराकल्प इत्यादि ग्रंथो के अतिरिक्त तारासहस्रनाम और ताराकपूरस्तोत्र आदि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं। श्रीविद्या-विषयक ग्रंथ :- श्रीविद्या के कादि, हादि और कहादि नामक तीन भेद प्रसिद्ध हैं। कादियों की देवी काली, हादियों की त्रिपुरसुंदरी और कहादियों की तारा (अथवा नीलसरस्वती) है। तीनों संप्रदायों के अपने अपने मान्य ग्रंथ हैं :
1) त्रिपुरोपनिषद्, 2) भावनोपनिषद्, 3) कौलौपनिषद्, 4) तंत्रराज (इस पर सुभगानंदनाथ, प्रेमनिधिपन्त, इत्यादि विद्वानों की अनेक टीकाएं हैं), 5) योगिनीहृदय, 6) परमानंदतंत्र, 7) सौभाग्यकल्पद्रुम (माधवानंदनाथकृत), 8) वामकेश्वरतंत्र, 9) ज्ञानार्णव, 10) श्रीक्रमसंहिता, 11) दक्षिणामूर्तिसंहिता, 12) स्वच्छन्दतन्त्र, 13) ललितार्चनचंद्रिका, (सच्चिदानंदनाथकृत), 14) सौभाग्यरत्नाकर (विद्यानंदनाथकृत), 15) सौभाग्यसुभगोदय (अमृतानंदनाथकृत), 16) शक्तिसंगमतंत्र, 17) त्रिपुरारहस्य, 18) श्रीक्रमोत्तम (मल्लिकार्जुनकृत), 19) सुभगार्चापारिजात, 20) सुभगार्चारत्न, 21) आशावतार, 22) संकेतपादुका, 23) चंद्रपीठ, 24) सुंदरीमहोदय (शंकरनंदकृत) 25) हृदयामृत (उमानंदकृत) 26) लक्ष्मीतंत्र 27) त्रिपुरासारसमुच्चय (लालभट्टकृत), 28) श्रीतत्त्वचिन्तामणि और शाक्तक्रम (पूर्णानंदपरमहंसकृत), 29) कामकलाविलास (पुण्यानंदकृत), 30) सौभाग्यचंद्रोदय, 31) वरिवस्यारहस्य, 32) वरिवस्याप्रकाश और 33) शांभवानंदकल्पलता (ये चारों ग्रंथ भास्करराय-विरचित हैं) 34) त्रिपुरासार, 35) संकेतपद्धति, 36) सौभाग्यसुधोदय, 37) परापूजाक्रम, 38) सुभगोदयस्तुति और 39) श्रीविद्यारत्नसूत्र [दोनों गौडपादाचार्य (श्रीशंकराचार्य के परमगुरु) विरचित] । श्रीशंकराचार्य स्वयं तांत्रिक उपासक थे इस का यह प्रमाण है कि विभिन्न तांत्रिक संप्रदाय अपनी अपनी गुरुपरंपरा में श्रीशंकराचार्य का निर्देश करते हैं। भुवनेश्वरी विषयक ग्रंथ :- 1) भुवनेश्वरीरहस्य, (पृथ्वीधराचार्य कृत), 2) भुवनेश्वरीतन्त्र, 3) भुवनेश्वरीपारिजात, इ.। भैरवीविषयक ग्रंथ:- 1) भैरवीतंन्त्र, 2) भैरवीरहस्य, 3) भैरवीसपर्याविधि, 4) भैरवीयामल । छिन्नमस्ताविषयक ग्रंथः- शक्तिसंगमतंत्र का छिन्नाखंड। धूमावतीविषयक ग्रंथः- प्राणतोषिणीतंत्र । बगलाविषयक ग्रंथ:- 1) शांखायनतंत्र (या षड्विद्यागम), 2) बगलाक्रम कल्पवल्ली, 3) संमोहनतंत्र । मातंगीविषयक ग्रंथः- (मातङ्गी के अपरनाम हैं उच्छिष्टचाण्डालिनी और महापिशाचिनी) 1) मातंगीक्रम (कुलमणिकृत), 2) मार्तगीपद्धति (रामभट्टकृत), यह ग्रंथ सिंहसिद्धान्तबिन्दु का एक अध्याय मात्र है। 3) सुमुखीपूजापद्धति (शंकरकृत)। कमलाविषयक ग्रंथ:- 1) तंत्रसार, 2) शारदातिलक, 3) शाक्तप्रमोद इ.। दशमहाविद्याओं के अतिरिक्त गणपति, गायत्री, गोपालकृष्ण, दत्तात्रेय, नरसिंह, भैरव, राधाकृष्ण, रामचंद्र, हनुमान, परशुराम, हयग्रीव इत्यादि देवताविषयक तंत्रों के विविध प्रकार के ग्रंथ तांत्रिक वाङ्मय में मिलते हैं।
१ तांत्रिक परिभाषा प्रत्येक शास्त्र में विशिष्ट अर्थों का चयन एवं प्रकाशन करने के लिए शास्त्रकार परिभाषिक शब्द निर्माण करते हैं। शास्त्र ग्रंथों में उन पारिभाषिक शब्दों का विवरण या विवेचन दिया जाता है। शास्त्राध्ययन करने वाले जिज्ञासु को पारिभाषिक शब्दों में निहित अर्थ का सम्यक् आकलन हुए बिना उस शास्त्र का सम्यक् आकलन नहीं होता और उस शास्त्र में उसकी प्रगति भी नहीं होती। तंत्रशास्त्र की पारिभाषिक शब्दावली बहुत विस्तृत है। यहां स्थालीपुलाकन्याय से कुछ ही शब्द दिये हैं। जिनका समग्र विवरण मूल ग्रंथों से ही देखना उचित होगा। तंत्रशास्त्र का ठीक आकलन होने के लिए इन शब्दों के अतिरिक्त अनेक पारिभाषिक शब्दों का परिचय मूल ग्रंथों में देखना होगा।
160/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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गुरु : सिद्धि का मूल है देवता, देवता का मूल मंत्र, मंत्र का मूल दीक्षा और दीक्षा का मूल गुरु । अर्थात गुरु ही सिद्धि का मूल है।
शिष्य : शुद्धचित्त, इन्द्रियजयी और पुरुषार्थी शिष्य ही तांत्रिक साधना का योग्य अधिकारी होता है। तंत्र साधना में गुरु-शिष्य संबंध का अपार महत्त्व माना जाता है।
मंत्र : प्रत्येक मंत्र में प्रणव, बीज, और देवता यह तीन तत्त्व होते हैं। दीक्षामंत्र अत्यंत प्रभावी होता है। सौरमंत्र पुलिंगी, सौभ्यमंत्र स्त्रीलिंगी और पौराणिक मंत्र नंपुसक लिंगी माने जाते हैं। स्त्रीमंत्रों का ही अपर नाम है "विद्या"। नित्यातंत्र में एकाक्षरी मंत्र को पिंड, द्वयक्षरी को कर्तरी, त्र्यक्षरी से नवाक्षरी तक बीज और 20 से अधिक अक्षरों वाले मंत्र को माला कहते हैं।
बीज : प्रत्येक देवता का अपना एक बीज होता है; जैसे काली का क्री, माया का ह्रीं, अग्नि का रं और योनि का ऐं। बीज के अतिरिक्त प्रत्येक देवता का मूलमंत्र होता है।
मंत्रचैतन्य : मंत्र, मंत्रार्थ और मंत्रदेवता इन तीनों का एकीकरण । देवता : परमेश्वर या परमेश्वरी की विशिष्ट शक्ति।।
भावत्रय : पशुभाव वीरभाव और दिव्यभाव अर्थात् तांत्रिक साधक की तीन अधम, मध्यम और उत्तम अवस्थाएं। आत्यंतिक संसारासक्ति को अधम पशुभाव और सत्कर्मप्रवृत्ति को उत्तम पशुभाव कहते हैं।
आचारसप्तक : वेदाचार, वैष्णवाचार, शैवाचार, दक्षिणाचार, वामाचार, सिद्धांताचार और कौलाचार। उक्त अनुक्रम से इनकी श्रेष्ठता मानी गयी है। कौलाचार सर्वश्रेष्ठ माना गया है। (कौलात् परतरं न हि) शैवाचार में पशुहिंसा, दक्षिणाचार में विजया (भंग) सेवन, वामाचार में रजःस्वला रज और कुलस्त्री का पूजन और कौलाचार में 'भूतपिशाचवत्' अनियत आचार विहित माना गया है।
दीक्षा : तंत्र साधना में अधिकारी गुरु द्वारा अनुकूल शिष्य को मंत्रदीक्षा आवश्यक मानी गयी है। समय दीक्षा और निर्वाण दीक्षा नामक दो प्रकार की दीक्षा, सामान्य विशेष भेद से होती है। निर्वाण दीक्षा के दो भेद 1) सबीज 2) निर्बीज। सबीज दीक्षा का अपरनाम है "पुत्रक दीक्षा" अथवा "आचार्य दीक्षा"। आगम ग्रंथों में कला, एकतत्त्व, त्रितत्त्व, पंचतत्त्व, नवतत्त्व, छत्तीस तत्व पद, मंत्र, वर्ण, भुवन और केवलभुबन नामक 11 प्रकार की दीक्षाएँ बताई हैं।
अभिषेक : दीक्षा प्राप्त शिष्य पर गुरुद्वारा जलसिंचन। इस अभिषेक के शक्तिपूर्ण, क्रमदीक्षा, साम्राज्य, महासाम्राज्य, योगदीक्षा, पूर्णदीक्षा, महापूर्णदीक्षा नामक आठ प्रकार माने गये हैं।
साधना : तांत्रिक साधना में उषःकाल में गुरु और देवता का ध्यान, मानसपूजा, मंत्रजप, स्नानविधि, नित्यार्चन, विजया (भंग) ग्रहण, भूतशुद्धि, न्यास, पात्रस्थापना, यंत्रराजस्थापना, श्रीपात्रस्थापना, इष्टदैवतपूजा, प्राणप्रतिष्ठा इन विधियों का पालन यथाक्रम होता है।
कुल : श्रीकुल और कालीकुल नामक साधकों के दो कुल होते हैं। श्रीकुल में सुंदरी, भैरवी, बाला, बगला, कमला, धूमावती, मातंगी और स्वप्नावती इन आठ देवताओं का अंतर्भाव होता है और कालीकुल में काला, तारा, रक्तकाली, भुवनेश्वरी, महिषमर्दिनी, त्रिपुरा, दुर्गा और प्रत्यंगिरा इन आठ देवताओं का अन्तर्भाव होता है।।
षोडशोचार पूजा : तांत्रिक साधक देवता की प्राणप्रतिष्ठा होने पर जिन उपचारों से पूजा करता है, वे हैं : आसन, स्वागत, पाद्य, अर्ध्य, आचमन, पुनराचमन, मधुपर्क, स्नान, वसन, आभरण, गंध, पुष्प, धूप, दीप, नैवेद्य और वंदन। हिंदुसमाज की उपासना में इन षोडशोपचारों का प्रयोग रूढ हुआ है।
पंच मकार : मद्य, मांस, मत्स्य, मुद्रा और मैथुन। इन्हीं को "पंचतत्त्व" भी कहते हैं। वामाचार में इन पंच मकारों का उपयोग आवश्यक माना है। दक्षिणाचार में पंच मकार का उपयोग नहीं होता। इन पांच मकारादि शब्दों के अर्थ, तंत्रशास्त्र का एक विवाद्य विषय है। इन शब्दों का लौकिक अर्थप्रहण करने वाले पशुभावी साधकों ने तंत्रमार्ग को समाज में निंदापात्र किया है।
चक्रपूजा : वीरभाव के साधक स्त्री-पुरुष सामूहिक रीत्या मंडल में बैठ कर विधिपूर्वक सुरापान करते हैं तब वह चक्रपूजा कहलाती है। राजचक्र, महाचक्र, देवचक्र, वीरचक्र, भैरवचक्र और ब्रह्मचक्र नामक छह प्रकार के चक्र होते हैं।
बिन्दु : शिवांश और शक्त्यंश की सृष्टि-निर्मिति के पूर्व साम्यावस्था। सृष्टि का आरंभ होते समय मूल बिंदु इच्छा, ज्ञान और क्रिया स्वरूप में विभक्त होता है । मूल बिंदु को परा वाक् और अग्रिम तीन बिंदुओं को पश्यंती, मध्यमा, वैखरी कहते हैं।
ब्रह्मपुर : मानव शरीर।
नाडी : शरीर में विद्यमान शक्तिस्त्रोत। मनुष्य देह में साढे तीन करोड नाडियों में 14 प्रमुख हैं जिनमें इडा, पिंगला और सुषुम्णा प्रमुख हैं। तीनों में रक्तवर्ण सुषुम्णा सर्वश्रेष्ठ है। उसके अंतर्गत चित्रा ब्रह्मनाडी मानी जाती है।
षट्चक्र : मूलाधार, स्वाधिष्ठान, मणिपुर, अनाहत, विशुद्ध और आज्ञा। सहस्रारचक्र शरीर के ऊर्ध्वतम स्थान में होता है। (योगशास्त्र में भी इन चक्रों का महत्त्व प्रतिपादन किया है।)
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 161
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ब्रह्मग्रंथी, विष्णुग्रंथी और रुद्रग्रंथी है (वेदान्त
ग्रंथी : मणिपुर, अनाहत और आज्ञा चक्रों के अपर नाम यथाक्रम शास्त्र में इन्हीं को पुत्रैषणा, वित्तैषणा और लोकैषणा कहते हैं ।)
सामरस्य : जीव और शिव की निजी शक्ति से मिलन की उच्चतम साधनावस्था । इस अवस्था में जीव शिवसमान और जीव की भक्ति, शक्तिसमान होती है। तांत्रिक साधक का यही प्राप्तव्य है ।
162 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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दीर्घ काल तक तंत्रमार्ग के विषय में जनता में अनादर की भावना रही। भक्तिमार्गी साहित्य में याज्ञिक और तांत्रिक दोनों की उपहासगर्भ निंदा हुई है। इसका कारण था तंत्र वाङ्मय की गूढार्थकता और अपने को तांत्रिक कहने वालों की मद्य, मांस मैथुन इत्यादि के प्रति आसक्ति तथा अनैतिक व्यवहार । तंत्रमार्ग की यह बदनामी हटाने का प्रयास महार्णव तंत्र में हुआ है । उस तंत्र में मद्य मांसादि पंच मकार के संबंध में सुधार सूचित किया है। मद्यपान में अतिरेक करने वाले को देवीभक्त नहीं मानना चाहिए। कलियुग में मैथुन निजी धर्मपत्नी के साथ ही करना चाहिए । मद्य के स्थान पर दूध, शक्कर और मधु का मिश्रण लेना चाहिए, इस प्रकार के सुधार महार्णवतंत्र में बताये गये हैं। तंत्रमार्ग के विषय में विपरीत धारणा समाज में प्रसृत होने के कारण तांत्रिक वाङ्मय की दीर्घकाल तक उपेक्षा होती रही। हिंदुओं के धार्मिक वाङ्मय का व्यापक एवं गंभीर अध्ययन करने वाले एच. एच. विल्सन, जॉन, जॉर्ज वुडरॉफ और उनके सहयोगी प्रमथनाथ मुखोपाध्याय, मोनियर विल्यम, एन. मैकनिकल डब्ल्यु. जे. विल्किन्स, ऑर्थर अॅव्हलॉन, आर. डब्ल्यु. फ्रेजर इत्यादि पाश्चात्य विद्वानों ने और तंत्रतत्त्व के लेखक शिवचंद्र विद्यार्णव ने तांत्रिक वाङ्मय का आलोडन किया और उसके संबंध में प्रसृत लोकभ्रम का निवारण, अपने ग्रन्थों द्वारा करने का प्रयास किया। पद्मभूषण गोपीनाथ कविराजजी ने तांत्रिक साहित्य विषयक 7 सौ पृष्ठों की बृहत्सूची प्रदीर्घ प्रस्तावना के साथ प्रकाशित कर तंत्र शास्त्र के जिज्ञासुओं पर महान उपकार किया। उस सूची में निर्दिष्ट महत्त्वपूर्ण मुद्रित ग्रन्थों का उल्लेख प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में यथास्थान हुआ है। पीतांबरापीठ (वनखण्डेश्वर, दतिया, मध्यप्रदेश) के श्री स्वामीजी महाराज ने तांत्रिक साधनाओं में सारी आयु व्यतीत कर आगम (तंत्र) और निगम (वेद) के समन्वय का महान् प्रयास किया । तंत्रमार्ग की प्रतिष्ठा प्रस्थापित करने में श्री पीताम्बरा पीठाधीश्वर स्वामीजी का योगदान विशेष उल्लेखनीय है ।
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प्रकरण - 8 मीमांसा और वेदान्त दर्शन
1 "मीमांसा दर्शन"
"मीमांसा" शब्द अतिप्राचीन है। तैत्तिरीय संहिता, काठक संहिता, अथर्ववेद, शांखायन ब्राह्मण, छान्दोग्य उपनिषद आदि प्राचीन ग्रन्थों में, "मीमांसन्ते मीमांसमान, मीमांसित तथा मीमांसा" इत्यादि शब्दों का, किसी संदेहात्मक विषय में विचार विमर्श करना, इस अर्थ में प्रयोग हुआ है। पाणिनि (3/1/5-6) ने “सन्" प्रत्यय के साथ सात धातुओं के निर्माण की बात कही है; जिनमें एक है “मीमांसते" जो मान् धातु से बना है; जिसका अर्थ काशिका में “जानने की इच्छा' कहा गया है। कात्यायन के वार्तिकों में प्रसज्यप्रतिषेध, पर्युदास, शास्त्रातिदेश जैसे मीमांसाशास्त्र के विशिष्ट पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग हुआ है। पातंजल महाभाष्य में काशकृत्सि द्वारा व्याख्यायित मीमांसा का उल्लेख आता है। पश्चात्कालीन विद्वानों ने मीमांसाशास्त्र को चतुर्दश या अष्टादश विद्यास्थानों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण कहा है ("चतुर्दशसु विद्यासु मीमांसैव गरीयसी") क्यों कि वह वैदिक वचनों के अर्थ के विषय में उत्पन्न सन्देहों, भ्रामक धारणाओं एवं अबोधकता को दूर करता है, तथा अन्य विद्यास्थानों को अपने अर्थ स्पष्ट करने के लिए इसकी आवश्यकता पड़ती है।
श्रुति में प्रतिपादित कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड में से कर्मकाण्ड का विषय है यज्ञ-यागादि विधि तथा अनुष्ठानों का (अर्थात् वैदिक आचारधर्म का) प्रतिपादन। कुमारिलभट्ट ने यही मीमांसा शास्त्र का प्रयोजन बताया है- “धर्माख्यं विषयं वक्तुं मीमांसायाः प्रयोजनम्"। इस प्रयोजन के अनुसार श्रुतिस्मृतिपुराणोक्त धर्मशास्त्र के साथ,मीमांसा का अति निकट संबंध है। धर्मशास्त्र के लेखकों ने मीमांसा शास्त्र के “नियम" एवं “परिसंख्या" सिद्धान्त का तथा होलाकाधिकरणन्याय का बहुधा प्रयोग किया है।
कर्मकाण्ड वेदों का पूर्वखंड और ज्ञानखण्ड उत्तरखंड होने के कारण, मीमांसादर्शन को “पूर्वमीमांसा" और वेदान्त दर्शन को उत्तरमीमांसा तथा “न्यायशास्त्र" भी कहा गया है। मीमांसाविषयक अनेक ग्रंथों के (न्यायकणिका, न्यायरत्नाकर, न्यायमाला इ.) "न्याय शब्द पूर्वक नाम, इसका प्रमाण हैं। मीमांसा शास्त्र के ग्रंथों में अर्धजरतीय न्याय, अर्धकुक्कुटीपाकन्याय, पंकप्रक्षालनन्याय, माषमुद्गन्याय, गो-बलीवर्दन्याय, ब्रह्मणपरिव्राजकन्याय, अधंपरंपरान्याय, आकाशमुष्ठिहननन्याय, अंगागिन्याय, नष्टाश्व-दग्धरथन्याय, छत्रिन्याय, निषादस्थपतिन्याय, कैमुतिकन्याय, पिष्टेषणन्याय, काकदन्तपरीक्षान्याय, स्थालीपुलाकन्याय, इत्यादि अनेक लौकिक एवं वैदिक न्यायों का प्रयोग हुआ है। विशेषतः कुमारिलभट्ट ने अपने तंत्रवार्तिक में इन न्यायों का प्रभूत मात्रा में उपयोग किया है। इस शास्त्र को "न्यायशास्त्र" मानने का यह भी एक महत्त्वपूर्ण कारण हो सकता है।
इस शास्त्र के कुछ ग्रंथों के नामों में "तंत्र" शब्द का भी प्रयोग हुआ है, जैसे कुमारिलभट्टकृत तंत्रवार्तिक एवं चित्रस्वामी (20 वीं शती) कृत तंत्रसिद्धान्त-रत्नावलि इत्यादि। अतः यह “तंत्रशास्त्र" शब्द से भी निर्देशित होता है। इनके अतिरिक्त, धर्ममीमांसा अनीश्वर-मीमांसा, विचारशास्त्र, अध्वरमीमांसा, वाक्यशास्त्र इत्यादि शब्दों से भी मीमांसा दर्शन निर्दिष्ट होता है परंतु पूर्वमीमांसा-दर्शन या मीमांसा-शास्त्र इन शब्दों का ही प्रयोग सर्वत्र रूढ है।
जैमिनिकृत मीमांसासूत्र इस दर्शन का प्रमुखतम ग्रंथ है। जैमिनि का समय ई.पू. 3 शती माना जाता है। उन्होंने अपने ग्रंथ में बादरायण, बादरि, ऐतिशायन, काजिनि लावुकायन, कामुकायन, आत्रेय और आलेखन नामक आठ पूर्वाचार्यों का निर्देश किया है। जैमिनि के सूत्र ग्रंथ में दो भाग माने जाते हैं। 1) द्वादशलक्षणी और 2) संकर्षण काण्ड (या देवताकाण्ड)। द्वादशलक्षणी के 12 अध्यायों में क्रमशः धर्मजिज्ञासा, कर्मभेद, शेषत्व, प्रयोज्य-प्रयोजकभाव, कर्मक्रम, अधिकार, सामान्यविशेष, अतिदेश, ऊह, बाध और तंत्र-आवाप इन बारह विषयों का विवेचन किया है। मीमांसा के अध्येता इस द्वादशलक्षणी का ही प्रधानतया अध्ययन करते हैं। संकर्षणकांड आरंभ से ही उपेक्षित रहा है तथा इसके प्रणेता के विषय में भी मतभेद है। कुछ विद्वान काशकृत्स्र को इसके प्रणेता मानते हैं। इस काण्ड में देवताओं पर विचार विमर्श हुआ है किन्तु धर्मशास्त्र पर इसका कोई प्रभाव नहीं है। कुछ विद्वान इसे “द्वादशलक्षणी" का परिशिष्ट मानते हैं।
जैमिनि के सूत्रों की संख्या 2644 तथा अधिकरणों की संख्या 909 है। इन सूत्रों पर उपवर्ष (ई. 1-2 शती) और भवदास ने वृत्तियां लिखी थीं। ई. 2 री शती में शबराचार्यने भाष्य लिखा जो “शाबरभाष्य" नाम से प्रख्यात है। शबर के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 163
से "द्वादशलक्षणी
संख्या 909 है। इन
स्य" नाम से प्रख्यात
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पूर्व मूल सूत्रग्रन्थ पर कुछ टीकात्मक ग्रंथ लिखे गये थे ऐसा शाबरभाष्य के अवलोकन से प्रतीत होता है। शाबरभाष्य पर इ. 7 वीं शती में कुमारिलभट्ट ने तीन महत्त्वपूर्ण वृत्तिग्रंथों की रचना की : 1) श्लोकवार्तिक 2) तंत्रवार्तिक तथा 3) टुपटीका । कुमारिलभट्ट के प्रसिद्ध शिष्य मण्डनमिश्र ने विधिविवेक, भावनाविवेक, विभ्रमविवेक और मीमांसानुक्रमणी नामक ग्रंथ लिखे। कुमारिलभट्ट के वैशिष्ट्यपूर्ण प्रतिपादन के कारण उनके मतप्रणाली को “भाट्टमत" कहते हैं। इस मत के अनुयायियों में तर्करत्न, न्यायरत्नमाला, न्यायरत्नाकर तथा शास्त्रदीपिका इन चार ग्रंथों के लेखक पार्थसारथिमिश्र, न्यायरत्नमालाकार माधवाचार्य और भाट्टकौस्तुभ, भाट्टदीपिका एवं भाट्टरहस्य के लेखक खंडदेव मिश्र विशेष प्रसिद्ध हैं।
___ कुमारिलभट्ट के समकालीन प्रभाकर मिश्र ने शाबरभाष्य पर दो टीकाएँ लिखी हैं : 1) बृहती एवं 2) लघ्वी। प्रभाकर की विचारपरंपरा को प्राभाकर संप्रदाय तथा गुरुमत कहते हैं। प्रभाकर के शिष्य शालीकनाथ मिश्र ने "बृहती" पर ऋजुविमला
और "लघ्वी" पर दीपशिखा नामक टीकाओं द्वारा प्राभाकर मत का समर्थन किया है। उन्होंने अपने प्रकरणपंजिका नामक स्वतंत्र ग्रंथ में मीमांसाशास्त्र का प्रयोजन, प्रमाणविचार, ज्ञान तथा आत्मा के संबंध में सविस्तर विवेचन किया है। इसी गुरुमत के
अनुयायी भवनाथ (या भवदेव) ने अपने नयविवेक (या न्यायविवेक) नामक ग्रंथ में शालीकनाथ के तीनों ग्रंथों का सारांश दिया है। प्राभाकर संप्रदाय के लेखकों में न्यायरत्नाकर (जैमिनिसूत्रों की व्याख्या) तथा अमृतबिन्दु के लेखक चन्द्र (जो गुरुमताचार्य उपाधि से विभूषित थे), प्रभाकर विजय के लेखक नन्दीश्वर (ई. 14 वीं शती केरल के निवासी), नयतनसंग्रह के लेखक भट्टविष्णु (ई. 14 वीं शती) भवनाथ मिश्रकृत न्यायविवेक पर अर्थदीपिका टीका के लेखक वरदराज (ई. 16 वीं शती) इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं। रामानुजाचार्यकृत तंत्ररहस्य ग्रंथ स्वल्पकाय होते हुए भी "प्रभाकरमत-प्रवेशिका" माना जाता है।
"मुरारेस्तृतीयः पन्थाः" यह लोकोक्ति मीमांसादर्शन के अन्तर्गत मुरारिमिश्र के तृतीय संप्रदाय का निर्देश करती है। गंगेश उपाध्याय एवं उनके पुत्र वर्धमान उपाध्याय (ई. 13 वीं शती) के ग्रंथों में (कुसुमांजलि तथा उसकी व्याख्या) मुरारि की तीसरी परंपरा का उल्लेख हुआ है। इसी संप्रदाय का वाङ्मय लुप्तप्राय होने के कारण यह परंपरा आज विशेष महत्त्व नहीं रखती। मुरारिकृत त्रिपादनीतिनय और एकादशाध्यायाधिकरण, प्रकाशित हुए हैं। प्रथम ग्रंथ में जैमिनिसूत्रों के चार पादों की एवं द्वितीय में एकादश अध्याय के कुछ अंशों की व्याख्या है। आधुनिक काल में डॉ. गंगानाथ झा (जिन्होंने शाबरभाष्य, तंत्रवार्तिक और श्लोकवार्तिक का अंग्रेजी में अनुवाद किया) कृत मीमांसानुक्रमणिका (ले. मंडनमिश्र) की मीमांसामंडन नामक व्याख्या, वामनशास्त्री किंजवडेकरकृत पश्वालंभनमीमांसा, पं. गोपीनाथ कविराज कृत मीमांसाविषयक हस्तलिखित ग्रंथों की सूची, कर्नल जी.एस. जेकब द्वारा संपादित शाबरभाष्य का सूचीपत्र तथा लौकिक न्यायांजलि (3 खंडों में), म.म. वेंकटसुब्बाशास्त्री का भट्टकल्पतरु, म.म. चिन्नस्वामी शास्त्री द्वारा लिखित मीमांसान्यायप्रकाश-टीका, तंत्रसिद्धान्त-रत्नावली और यज्ञतत्त्वप्रकाश; केवलानंद सरस्वती (महाराष्ट्र में वाई क्षेत्र के निवासी) कृत मीमांसाकोश, भीमाचार्य झलकीकरकृत न्यायकोश इत्यादि ग्रंथों ने मीमांसा दर्शनविषयक संस्कृतवाङ्मय की परंपरा अक्षुण्ण रखी है।
2 "मीमांसा दर्शन की रूपरेखा"
"अथातो धर्मजिज्ञासा-" यह मीमांसा दर्शन का प्रथम सूत्र है। अर्थात् धर्म ही इस का मुख्य प्रतिपाद्य है जिस का निर्देश कर्म, यज्ञ, होम, आदि अनेक शब्दों से होता है। जैमिनिसूत्रों के बारह अध्यायों में कुल 56 पाद (प्रत्येक अध्याय में 4 पाद। केवल अध्याय 3 और 6 में आठ आठ पाद हैं।) और लगभग एक हजार अधिकरणों में इस मुख्य विषय का प्रतिपादन हुआ है। इनके निरूपण के प्रसंग में सैंकडों "न्याय" और सिद्धान्त स्थापित हुए हैं जिनका उपयोग प्रायः सभी शास्त्रों (विशेषतः धर्म शास्त्र) ने किया है। अधिकरण में अनेक सूत्र आते हैं जिनमें एक प्रधान सूत्र और अन्य गुणसूत्र होते हैं। विषय, संशय, पूर्वपक्ष, सिद्धान्त और प्रयोजन तथा संगति नामक छह अवयव अधिकरण के अंतर्गत होते हैं।
मीमांसासूत्रों के "द्वादशलक्षणी" नामक प्रथम खंड के प्रथम अध्याय में धर्म का विवेचन हुआ है। "चोदना-लक्षणोऽर्थो धर्मः" (अर्थात्-वेदों के आज्ञार्थी वचनों द्वारा विहित इष्ट कर्म) यह इस शास्त्र के अनुसार धर्म का लक्षण है। यहां पर विधि, अर्थवाद, मन्त्र, और नामधेय इन वेदों के चारों भागों को प्रमाण माना जाता है। इसी तरह वेद के द्वारा निषिद्ध कर्म के अनुष्ठान से अधर्म होता है। यज्ञ-याग धर्म है और ब्रह्महत्या इत्यादि अधर्म है। इष्टसाधनता, वेदबोधितता और अनर्थ से असंबंद्धता जहाँ हो, वही कर्म, मीमांसकों के मतानुसार, "धर्म" कहने योग्य है। वैदिक धर्म का ज्ञान मुख्य रूप से विधि, अर्थवाद, मन्त्र, स्मृति, आचार, नामधेय, वाक्यशेष, और सामर्थ्य या शिष्टाचार इन आठ प्रमाणों से होता है।
मीमांसाशास्त्र में "भावना" एक विशिष्ट पारिभाषिक शब्द प्रचलित है जिस का अर्थ है, होने वाले कर्म की उत्पत्ति के अनुकूल, प्रयोजक में रहने वाला विशेष व्यापार। यह व्यापार,वेद अपौरुषेय होने के कारण “यजेत' इत्यादि शब्दों में ही रहता है। इस लिए इसे "शाब्दी भावना" कहते हैं। शाब्दी भावना को तीन अंशों की अपेक्षा होती है :- (1) साध्य, (2)
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साधन और ( 3 ) इतिकर्तव्यता । पुरुष में स्वर्ग की इच्छा से उत्पन्न यागविषयक जो प्रयत्न है, वही है "आर्थी भावना" । आख्यातत्त्व द्वारा इस का अभिधान किया जाता है क्यों कि "यजेत" इस आख्यात के सुनने पर “याग में यत्न करें" ऐसी प्रतीति होती है। यही प्रयत्न आख्यात का वाच्य है। "अर्थ" शब्द का अर्थ है फल फल से संबंधित होने के कारण इस द्वितीय भावना को "आर्थी भावना" कहा गया है। आर्थी भावना से संबंधित फल, यज्ञ-याग आदि कारणों से साक्षात् तत्काल नहीं प्राप्त हो सकता अतः यज्ञादि साधन और स्वर्गादि साध्य के मध्य में "अपूर्व" नामक पृथक् तत्त्व की सत्ता मीमांसकों द्वारा मानी गयी है। "अपूर्व" का यह सिद्धांत श्री शंकराचार्य ने भी मान्य किया है। वे उसे कर्म की सूक्ष्म उत्तरावस्था तथा फल की पूर्वावस्था कहते है यह "अपूर्व" चार प्रकार का है- (1) परमापूर्व (2) समुदायापूर्व, (3) उत्पत्यपूर्व और (4) अंगापूर्व । यह अपूर्व (परमापूर्व), फल के उदय होने तक यजमान की आत्मा में अवस्थित रहता है और फल उत्पन्न होने पर नष्ट हो जाता है।
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शास्त्र में याग, होम, दान, आदि कमों का विधान विविध आख्यातों (क्रियापदों) द्वारा होता है जिनके अभिप्राय में विभिन्नता होती है। इस विभिन्नता को ठीक जानने के लिए मीमांसकों ने छह प्रमाण स्वीकृत किये हैं। (1) शब्दान्तर, (2) अभ्यास, (3) संख्या, (4) संज्ञा, (5) गुण और (6) प्रकरणान्तर । ये सब प्रमाण मात्र कर्मस्वरूप का बोध कराने वाली "उत्पत्ति विधि" के सहाय्यक हैं। इसी उत्पत्ति विधि का निरूपण मीमांसा सूत्र के प्रथम और द्वितीय अध्याय में हुआ है। तृतीय अध्याय में "विनियोग विधि" का निरूपण है। विनियोग का अर्थ है अंगत्वबोधन । अंगत्व का बोधन करने के लिये श्रुति, लिंग, वाक्य, प्रकरण, स्थान, और समाख्या ये छह सहाय्यक प्रमाण होते हैं। इनमें श्रुति तीन प्रकार की है (1) विभक्तिरूप, (2) समानाभिधानरूप और (3) एकपदरूप। लिंग दो प्रकार का है। :- (1) सामान्य संबंध प्रमाणान्तर सापेक्ष और (2) निरपेक्ष । प्रकरण दो प्रकार का है :- (1) महाप्रकरण और (2) अवान्तर प्रकरण स्थान दो प्रकार का है। (1) पाठ ( इसके भी दो प्रकार हैं (1) यथासंख्य और (2) संनिधि ।) और (2) अनुष्ठान समाख्या (अर्थात् यौगिक शब्द) के दो प्रकार हैं :- (1) लौकिक और (2) वैदिक ।
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ये अंगत्व बोधक छह प्रमाण क्रमशः एक दूसरे से दुर्बल होते हैं। अर्थात् श्रुति सबसे प्रबल और समाख्या सबसे दुर्बल प्रमाण है। इसी क्रम से इन में पारस्यरिक विरोध होता है तब पर- प्रमाण से पूर्व प्रमाण का बोध ग्राह्य होता है। सामान्य रूप से ये सभी बोधक अंग दो प्रकार के हैं (1) सन्निपत्योपकारक और (2) आरादुपकारक। उनमें प्रथम की अपेक्षा द्वितीय दुर्बल होता है इसी अध्याय में "शेष" का विचार हुआ है मंत्र पुरुषार्थ के शेष होते हैं पुरुषार्थ कर्ता के और कर्ता कुछ कर्मो का शेष होता है। यज्ञ का अधिकारी वेदाध्यायी पुरुष ही होता है अन्य नहीं, यह सिद्धान्त इस अध्याय में प्रतिपादित किया है।
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I
चतुर्थ अध्याय में "प्रयोग" निरूपण करते हुए प्रयोज्य और प्रयोजक का स्पष्टीकरण किया गया है। यज्ञ के लिये जो भी कर्तव्य आज्ञापित होता है, वह "क्रत्वर्थ" और अन्य कर्तव्य "पुरुषार्थ" होता है अर्थकर्म, प्रतिपत्तिकर्म आदि कर्मों में देश, काल, कर्ता, का निरूपण करने वाले श्रुतिवाक्य, "अर्थवाद" नहीं अपि तु "नियम" होते हैं। जिन व्रतों का कोई विशिष्ट फल बताया नहीं होता, उनका फल स्वर्गप्राप्ति समझना चाहिए।
क्रमनिरूपण पंचम अध्याय का विषय है। इस क्रम का संबंध प्रयोगविधि से है। अनुष्ठान को शीघ्रता के साथ बताना प्रयोगविधि का कार्य है। यह क्रम विशिष्ट प्रकार का अनुक्रम है। इस आनन्तर्य अनुक्रम के बोध के लिये मीमांसकों ने छह सहायक कारण या प्रमाण बताये हैं :- (1) श्रुति, (2) अर्थ, ( 3 ) पाठ, (4) स्थान (5) मुख्य और (6) प्रवृत्ति । इनमें भी (श्रुति, लिंग, आदि अंगत्व बोधक प्रमाणों की तरह) "पारदौर्बल्य" (अर्थात् उत्तरोत्तर प्रमाण की दुर्बलता) यथाक्रम मानी जाती है। छठे अध्याय में "अधिकारविधि" का विवेचन हुआ है "दर्शपूर्णमासाभ्यां स्वर्गकामो यजेत" आदि वाक्य अधिकारविधि के उदाहरण हैं जिनमें स्वर्गकाम आदि का अधिकारी के रूप में उपादान किया गया है। अंगहीन ( अंध बधिर पंगु इ.) मनुष्यों का कर्मानुष्ठान में अधिकार नहीं है। मीमांसको के मतानुसार देवता शरीरधारी नहीं होते, अतः उनका भी कर्म में अधिकार नहीं है। यज्ञ कर्मों में व्रीहि इत्यादि विहित द्रव्य के अभाव में नीवार इत्यादि द्रव्यों को "प्रतिनिधि" के रूप में अपनाया जाता है। षष्ठ अध्याय तक "उपदेश" से संबंधित विषयों का निरूपण किया गया है। इन के बाद के छह अध्यायों में “अतिदेश” से संबंधित विषयों का विचार हुआ है। सप्तम और अष्टम अध्याय में अतिदेश के सामान्य और विशेष रूप का निरूपण है। अतिदेश का अर्थ है, एक स्थान में सुने हुए अंगों को, दूसरे स्थान पर पहुंचाने वाला शास्त्र । अतिदेश के मुख्यतः तीन प्रकार होते हैं :
(1) वचनातिदेश, (2) नामातिदेश और (3) चोदना - लिंगातिदेश। इनमें भी प्रथम अतिदेश अन्य दोनों की अपेक्षा प्रबल होता है। नवम अध्याय में "ऊह" का विवेचन किया है। अतिदेश के अनुसार प्रकृति -याग में विहित विधि या पदार्थ,
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 165
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सादृश्य के कारण विकृति-याग में भी ग्राह्य माने जाते हैं, तब उनको उसी कार्य के अनुसार बनाना "ऊह" का कार्य है । ऊह" के तीन प्रकार :
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(1) मंत्रोह, (2) समोह और (3) संस्कारोह । प्रकृति याग में प्रोक्षण आदि संस्कार ब्रीही पर बताये हो तो उन के स्थान पर प्रयुक्त नीवार आदि पर प्रोक्षण होते हैं। यह संस्कार ऊह का उदाहरण है। प्रकृति के अतिदेश से विकृति में जिन अंगों की प्राप्ति का संभव हो, उनकी किसी कारण विकृति में निवृत्ति होती है। इसी को दशम अध्याय में "बाध" कहा है जैसे किसी याग में व्रीही के स्थान पर सोने के तुकड़े विहित हों, तब अतिदेश से प्राप्त अवघात या कंडन का कोई प्रयोजन न होने से उसे बाध आता है। यह बाध तीन कारणों से होता है (1) अर्थलोप, (2) प्रत्याख्यान और (3) प्रतिषेध इन तीन कारणों से होने वाला बाध दो प्रकार का होता है :- (1) प्राप्त बाध और (2) अप्राप्त बाध । संबंध में भी मार्मिक चर्चा हुई है।
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इसी बाध की चर्चा में अभ्युच्चय, पर्युदास, और नमर्थ के ग्यारहवें अध्याय में तंत्र और आवाप का विचार है। अनेकों के उद्देश्य से, अंगों का एक ही बार अनुष्ठान "तंत्र" कहलाता है, और कहीं कहीं विशेषताओं के कारण अनुष्ठान की आवृत्ति भी होती है, तब उसे "आवाप" कहते हैं । अदृश्य परिणाम वाले कृत्य एक ही बार किये जाते हैं और जिनके परिणाम दृश्य होते है, ऐसे कृत्यों की परिणाम दीखते तक आवृत्ति करना आवश्यक माना गया है। प्रसंगविचार 12 वें अध्याय का विषय है। भोजन गुरु के लिए बनवाया जाने पर, उसी समय दूसरे किसी शिष्ट का आगमन हुआ, तो उसके स्वागत का पृथग् आयोजन नहीं करना पड़ता। इस प्रकार दूसरे से उपकार का लाभ हो जाने के कारण प्रयुक्त अंग का अनुष्ठान न करना "प्रसंग" कहा गया है।
3
"मीमांसा दर्शन के कुछ मौलिक सिद्धान्त"
1) वेद नित्य, स्वयंभू एवं अपौरुषेय और अगोप हैं।
2) शब्द और अर्थ का संबंध नित्य है, वह किसी व्यक्ति के द्वारा उत्पन्न नहीं है।
3) आत्माएं अनेक, नित्य एवं शरीर से भिन्न हैं । वे ज्ञान एवं मन से भी भिन्न हैं। आत्मा का निवास शरीर में होता है ।
और देवता गौण ।
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4) यज्ञ में हवि प्रधान है,
5) फल की प्राप्ति यज्ञ से ही होती है, ईश्वर या देवताओं से नहीं ।
6) सीमित बुद्धि वाले लोग वेदवचनों को भली भांति न जानने के कारण भ्रामक बाते करते हैं।
(7) अखिल विश्व की न तो वास्तविक सृष्टि होती है और न विनाश।
8) यज्ञसंपादन संबंधी कर्म एवं फल के बीच दोनों को जोड़ने वाली "अपूर्व" नामक शक्ति होती है। यज्ञ का प्रत्येक कृत्य
एक "अपूर्व" की उत्पत्ति करता है; जो संपूर्ण कृत्य के अपूर्व का छोटा रूप होता है ।
9) प्रत्येक अनुभव सप्रमाण होता है, अतः वह भ्रामक या मिथ्या नहीं कहा जा सकता।
10) महाभारत एवं पुराण मनुष्यकृत हैं, अतः उनकी स्वर्गविषयक धारणा अविचारणीय है। स्वर्गसंबंधी वैदिक निरूपण केवल अर्थवाद (प्रशंसापर वचन) है।
11) निरतिशय सुख हो स्वर्ग है और उसे सभी खोजते है।
12) अभिलषित वस्तुओं की प्राप्ति के लिए वेद में जो उपाय घोषित है, वह इह या परलोक में अवश्य फलदायक होगा। 13) निरतिशय सुख (स्वर्ग) व्यक्ति के पास तब तक नहीं आता जब तक वह जीवित रहता है। अतः स्वर्ग का उपभोग दूसरे जीवन में ही होता है।
14) आत्मज्ञान के विषय में उपनिषदों की उक्तियां केवल अर्थवाद हैं क्यों कि वे कर्ता को यही ज्ञान देती है कि वह आत्मवान् है और आत्मा कि कुछ विशेषताएं है।
15) निषिद्ध और काम्य कर्मो को सर्वथा छोड़ कर, नित्य एवं नैमित्तिक कर्म निष्काम बुद्धि से करना, यही मोक्ष (अर्थात् जन्म मरण से छुटकारा पाने का साधन है।
16) कर्मों के फल उन्हीं को प्राप्त होते हैं जो उन्हें चाहते हैं ।
166 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
(1) निर्विकल्प और (2) सविकल्पक ।
17 ) प्रत्यक्ष ज्ञान के दो भेद होते हैं :18) वेदों में दो प्रकार के वाक्य होते हैं: (1) सिद्धार्थक (जैसे- सत्यं ज्ञानमनन्तं ब्रह्म) और (2) विधायक । वेद का तात्पर्य विधायक वाक्यों में ही है। सिद्धार्थक वाक्य अन्ततो गत्वा विधि वाक्यों से संबंधित होने के कारण ही चरितार्थ होते हैं। 19) वेदमन्त्रों में जिन ऋषियों के नाम पाये जाते हैं वे उन मन्त्रों के
"द्रष्टा" होते हैं कर्ता नहीं।
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20) स्वतः प्रामाण्यवाद- (1) ज्ञान की प्रामाणिकता या यथार्थता कहीं बाहर से नहीं आती अपितु वह ज्ञान की उत्पादक सामग्री के संग में, स्वतः (अपने आप) उत्पन्न होती है। 21) ज्ञान उत्पन्न होते ही उसके प्रामाण्य का ज्ञान भी उसी समय होता है। उस की सिद्धि के लिए अन्य प्रमाण की आवश्यकता नहीं होती। 22) ज्ञान का प्रामाण्य स्वतः होता है किन्तु उसका अप्रामाण्य “परतः" होता है। 23) पदार्थों की संख्याः - प्रभाकर के मतानुसार आठ :- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, परतन्त्रता, शक्ति, सादृश्य और संख्या। कुमारिल के मतानुसार एक भाव और चार प्रकार के अभाव मिलाकर पांच पदार्थ। मुरारिमिश्र के मतानुसार :- ब्रह्म ही एकमात्र परमार्थ भूत पदार्थ है, परंतु लौकिक व्यवहार की उपपत्ति के लिए अन्य चार पदार्थ भी हैं: (1) धर्मिविशेष (नियत आश्रय) (2) धर्मविशेष (नियत आधेय), (3) आधारविशेष और (4) प्रदेशविशेष । 24) यह संसार, भोगायतन (शरीर), भोगसाधन (इन्द्रियां) और भोगविषय (शब्दादि) इन तीन वस्तुओं से युक्त तथा अनादि और अनन्त है। 25) कर्मों के फलोन्मुख होने पर, अणुसंयोग से व्यक्ति उत्पन्न होते हैं और कर्म फल की समाप्ति होने पर उनका नाश होता है। 26) कार्य की उत्पत्ति के लिए उपादन कारण के अतिरिक्त "शक्ति" की भी आवश्यकता होती है। शक्तिहीन उपादन कारण से कार्योत्पत्ति नहीं होती। 27) आत्मा-कर्ता, भोक्ता, व्यापक और प्रतिशरीर में भिन्न होता है। वह परिणामशील होने पर भी नित्य पदार्थ है। 28) आत्मा में चित् तथा अचित् दो अंश होते हैं। चिदंश से वह ज्ञान का अनुभव पाता है, और अचित् अंश से वह परिणाम को प्राप्त करता है। 29) आत्मा चैतन्यस्वरूप नहीं अपि तु चैतन्यविशिष्ट है। 30) अनुकूल परिस्थिति में आत्मा में चैतन्य का उदय होता है, स्वप्नावस्था में शरीर का विषय से संबंध न होने से आत्मा में चैतन्य नहीं रहता। 31) कुमारिल भट्ट आत्मा को ज्ञान का कर्ता तथा ज्ञान का विषय दोनों मानते हैं, परंतु प्रभाकर आत्मा को प्रत्येक ज्ञान का केवल कर्ता मानते हैं, क्यों कि एक ही वस्तु एकसाथ कर्ता तथा कर्म नहीं हो सकती। 32) चोदना लक्षणोऽर्थो धर्मः- विधि का प्रतिपादन करने वाले वेदवाक्यों के द्वारा विहित अर्थ ही धर्म का स्वरूप है। 33) भूत, भविष्य, वर्तमान, सूक्ष्म, व्यवहित और विप्रकृष्ट पदार्थो को बतलाने में जितना सामर्थ्य "चोदना" में (अर्थात् विधि प्रतिपादक वेदवाक्यों में) है उतना इन्द्रियों या अन्य प्रमाणों में नहीं है। 34) नित्य कर्मों के अनुष्ठान से दुरितक्षय (पापों का नाश) होता है। उनके न करने से "प्रत्यवाय दोष" उत्पन्न होता है। 35) देवता शब्दमय या मंत्रात्मक होते हैं। मन्त्रों के अतिरिक्त देवताओं का अस्तित्व नहीं होता। 36) प्राचीन मीमांसा ग्रंथों के आधार पर ईश्वर की सत्ता सिद्ध नहीं मानी जाती। उत्तरकालीन मीमांसकों ने ईश्वर को कर्मफल के दाता के रूप में स्वीकार किया है। 37) जब लौकिक या दृष्ट प्रयोजन मिलता है तब अलौकिक या अदृष्ट की कल्पना नहीं करनी चाहिए। 38) वेदमंत्रों के अर्थज्ञान के सहित किये हुए कर्म ही फलदायक हो सकते हैं, अन्य नहीं। 39) किसी भी ग्रंथ के तत्त्वज्ञान या तात्पयार्य का निर्णय-उपक्रम, उपसंहार, अभ्यास, अपूर्वता, फल, अर्थवाद, और उपपत्ति इन सात प्रमाणों के आधार पर करना चाहिये। ४०) किसी भी सिद्धान्त का प्रतिपादन, विषय, संशय, पूर्व पक्ष, उत्तर पक्ष और प्रयोजन (या निर्णय) इन पांच अंगों द्वारा होना चाहिए।
4 "वेदान्त दर्शन" प्राचीन भारतीय परंपरा के अनुसार वेद का विभाजन कर्मकाण्ड और ज्ञानकाण्ड नामक दो काण्डों में किया जाता है। कर्म काण्ड के अन्तर्गत यज्ञयागादि विधि तथा अनुष्ठान का विचार होता है। ज्ञानकाण्ड में ईश्वर, जीव, जगत् के संबंध में विवेचन होता है। इन दोनों काण्डों में सारा प्रतिपादन वेदवचनों के अनुसार ही होता है। इन का तर्क भी वेदानुकूल ही होता है। वेदप्रामाण्य के अनुसार तत्त्वप्रतिपादन करते समय जहां आपाततः विरोधी वेदवचन मिलते हैं, उनके विरोध का प्रशमन करने के प्रयत्नों में "मीमांसा' का उद्भव हुआ। यह मीमांसा दो प्रकार की मानी गयीः (1) कर्ममीमांसा एवं (2) ज्ञानमीमांसा । कर्ममीमांसा को पूर्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा को उत्तरमीमांसा कहने की परिपाटी है। उत्तर-मीमांसा ही वेदान्त दर्शन कहा जाता है। वैदिकज्ञान काण्ड में अन्तभूर्त न्याय-वैशेषिक-सांख्य-योग और पूर्व-उत्तर मीमांसा इन आस्तिक षड् दर्शनों में दार्शनिकों के तत्त्वचिन्तन का परमोच्च शिखर माना गया है वेदान्त दर्शन। नास्तिक (वेद का प्रामाण्य न मानने वाले चार्वाक, जैन और बौद्ध) और आस्तिक (वेदों का प्रामाण्य मानने वाले) दर्शनों के वैचारिक विकास के अनुक्रम का प्रतिपादन करते हुए कुछ प्राचीन
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 167
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विद्वानों ने प्रारंभ में नास्तिक और उसके बाद आस्तिक दर्शनों की जो सोपान परंपरा मानी है, उसके अनुसार ठीक चिन्तन करने पर जिज्ञासु वेदान्त के अद्वैत विचार तक पहुंचता है। इस दर्शन पंप स्थूल से सूक्ष्म, सूक्ष्मतर, सूक्ष्मतम इस क्रम से वैचारिक प्रगति दिखाई देती है। उदाहरण के रूप में दार्शनिकों के आत्मविषयक विचार देखिए। अत्यंत स्थूल बुद्धि का मनुष्य "आत्मा वै जायते पुत्रः" इस वचन के अनुसार पुत्र को ही आत्मा मानता है। उसके उपर चार्वाकवादी “स वा एष पुरुषो अन्नरसमयः" इस वचन के अनुसार निजी स्थूल शरीर को ही आत्मा मानता है। इसके आगे लोका पत मतवादी इन्द्रियों को, प्राणात्मवादी शरीरसंचारी प्राण को, मनवादी मन को, योगाचारवादी (या विज्ञानवादी) बुद्धि को, प्रभाकर पीमांसक ज्ञान को, कुमारिल मतानुयायी अज्ञानस्थित चैतन्य को, माध्यमिक बौद्ध शून्य को और अंत में वेदान्तवाटी नित्य-शुक शुद्ध मुक्त-स्वभावी अन्नर्यामी चैतन्य को आत्मा मानते हैं। इस एकमात्र उदाहरण से दर्शनिकों की विचारधारा स्थूलतम से सूक्ष्मतम की ओर किस प्रकार बहती थी और उसकी परिसमाप्ति वेदान्त दर्शन में किस प्रकार हुई यह कल्पना आ सकती है। इस अनुक्रम से यह भी सिद्ध होता है कि अन्यान्य दर्शनों में आपाततः भासमान अन्योन्य विरोध, अंतिम सिद्धान्त का आकलन होने की दृष्टि से आवश्यक भेद के स्वरूप का है। अंतिम सिद्धान्त के आकलन के लिए वह पूरक सा है । वेदान्त दर्शन का मूल उपनिषदो, ब्रह्मसूत्रों और भगवतद्गीता इस प्रस्थानत्रयी में निर्विवाद है। भाष्यकार श्रीशंकराचार्यजी ने इस दर्शन को व्यवस्थित रूप में स्थापित करने का कार्य अपने ग्रंथों द्वारा किया, इस तथ्य को सभी मानते हैं, तथापि शंकराचार्य से प्राचीन वेदान्तवादी विद्वानों के नाम श्रीव्यासकृत ब्रह्मसूत्रों में मिलते हैं जैसे:आत्रेयः- स्वामिनः फलश्रुतेः इति आत्रेयः (ब्र सू. 3-3-55) । आश्मरथ्यः- "अभिव्यक्तेः इति आश्मरथ्यः' (ब्र.सू. 1-2-39) कार्णाजिनिः- "चरेदिति चेत् न उपलक्षणार्थे कार्णाजिनिः" (ब्र.सू. 3-1-9)। काशकृत्स्त्रः - “अवस्थितेः इति काशकृत्स्रः"। (ब्र.सू. 1-4-22) ।
इनके अतिरिक्त औडुलोमि, जैमिनि, बादरि, काश्यप इत्यादि पूर्वाचार्यों के नामों का निर्देश ब्रह्मसूत्रों में मिलता है।
वेदान्त दर्शन में श्रीशंकर, रामानुज, मध्व, आदि आचार्यो के भाष्यग्रंथ अग्रगण्य माने जाते हैं; परंतु इन भाष्यकारों ने अपने पूर्ववर्ती कुछ आचार्यों के विचारों का परामर्श लिया है। उनमें ज्ञानकर्म-समुच्चयवादी भर्तृप्रपंच, शब्दाद्वैतवादी भर्तृहरि (वाक्पपदीयकार) बौधायन, ब्रह्मनंदी, टंक, भारुचि, द्राविडाचार्य, सुन्दरपाण्ड्य, ब्रह्मदत्त आदि नाम उल्लेखनीय है। वेदान्त दर्शन की प्रस्थानत्रयी में, व्यासकत ब्रह्मसूत्रों का विशेष महत्त्व माना जाता है। इसका कारण इस ग्रंथ में शास्त्रीय पद्धति के अनुसार अन्य मतों का परामर्श लेते हुए ब्रह्मवाद का प्रतिपादन किया गया है। इस ग्रंथ में चार अध्याय और प्रत्येक अध्याय में चार पाद हैं। अध्यायों के नाम :- 1) समन्वयाध्याय, 2) अविरोधाध्याय, 3) साधनाध्याय और 4) फलाध्याय। इसके सूत्र इतने स्वल्पाक्षर हैं कि किसी भाष्य की सहायता के बिना उनका अर्थ या अभिप्राय समझना अत्यंत कठिन है। मूल सूत्रकार का सैद्धान्तिक मन्तव्य निर्धारित करने की आकांक्षा से कुछ महनीय आचार्यों ने ब्रह्मसूत्र के भाष्य लिखे, जो वेदान्त दर्शन विषयक वाङ्मय में नितान्त महत्त्वपूर्ण माने जाते हैं:
"ब्रह्मसूत्र के भाष्यकार" नाम समय भाष्याग्रंथ
सिद्धान्त 1) शंकराचार्य - 8-9 वीं शती - शारीरकभाष्य
निर्विशेषाद्वैत 2) भास्कर - 10 वीं शती - भास्करभाष्य
भेदाभेद 3) रामानुजाचार्य - 12 वीं शती
- श्रीभाष्य
- विशिष्टाद्वैत 4) मध्वाचार्य - 13 वीं शती - पूर्णप्रज्ञभाष्य
द्वैत 5) निंबार्काचार्य - 13 वीं शती - वेदान्तपारिजात
द्वैताद्वैत। 6) श्रीकण्ठ - 13 वीं शती - शैवभाष्य
शैवविशिष्टाद्वैत 7) श्रीपति - 14 वीं शती - श्रीकरभाष्य
- वीरशैवविशिष्टाद्वैत 8) वल्लभाचार्य -'15-16 वीं शती - अणुभाष्य
- शुद्धाद्वैत। 9) विज्ञानभिक्षु -- 16 वीं शती. - विज्ञानामृत - अविभागाद्वैत। 10) बलदेव
- 18 वीं शती - गोविंदभाष्य - अचिंत्य भेदाभेद। इन श्रेष्ठ विद्वानों ने ब्रह्मसूत्रों का अर्थनिर्धारण करने के प्रयत्नों में जो विविध सिद्धान्तों का प्रतिपादन अपनी पाण्डित्यपूर्ण शैली में किया है, उसके कारण मूल सूत्रकार का मन्तव्य निर्धारित करना कठिन हो गया है। भाष्यकारों में श्रीशंकर, रामानुज, मध्व, और निंबार्क के द्वारा सम्प्रदायों की स्थापना हुई है। इन सम्प्रदायों के अनुयायी विद्वान अपने ही संप्रदायप्रवर्तक के सिद्धान्त ब्रह्मसूत्रों का मन्तव्य मानते हैं। इन भाष्यकारों ने भगवद्गीता और उपनिषदों के भाष्य लिख कर, उनमें भी अपने सिद्धान्तों पर बल दिया है। इस मतभेद में सूत्रों और अधिकरणों की संख्या के विषय में तथा शब्दों के अर्थ के विषय में भी मतभेद व्यक्त हुए हैं।
168 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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5 "शांकरमत" वेदान्त मत के प्रमुख सिद्धान्त हैं (1) जीव और ब्रह्म के अद्वैत ज्ञान से ही मोक्ष लाभ होता है। (2) यथार्थज्ञान प्राप्ति के साधन (या प्रमाण) छह हैं:- प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान, आप्तवाक्य, अर्थापत्ति और अनुपलब्धि। (3) ब्रह्मविचार का आरंभ करने से पहले जिज्ञासु को "साधन चतुष्टय" से सम्पन्न होना नितान्त आवश्यक है। साधन चतुष्टयः- (1) नित्यानित्यवस्तुविवेक, (2) ऐहिक एवं पारलौकिक विषयभोगों के प्रति प्रखर वैराग्य, (3) साधन षट्क अर्थात शम, दम, उपरति, तितिक्षा, समाधान
और श्रद्धा ये छह प्रकार की साधनाएं, और (4) मुमुक्षुत्वो इन सभी साधनों को मिला कर "साधनचतुष्टय' कहते हैं। जो इस में पूर्णत्व पाता है वही वेदान्त के पारमार्थिक ज्ञान का "अधिकारी" होता है। अधिकारी जिज्ञासु को भी वेदान्त सिद्धान्तों का ज्ञान तभी हो सकता है जब वह, "शाब्दे परे च निष्णातः” (अर्थात् वेदान्त ग्रन्थों के अध्ययन में प्रवीण एवं आध्यात्मिक अनुभव से सम्पन्न) श्रेष्ठ योग्यता के गुरु के चरणों में "दीप्तशिराः जलराशिमिव-अर्थात् आग से जला हुआ या अत्यंत तृषार्त मनुष्य जलाशय की और जिस व्याकुलता से जाता है, उस व्याकुलता से शरण जाकर श्रवण, मनन और निदिध्यासन द्वारा ज्ञान ग्रहण करता है।
अध्यारोप : जिस प्रकार अंधेरे में रज्जु पर सर्प का या प्रकाश में शुक्तिका पर चांदी का आभास होता है, उसी प्रकार सच्चिदानन्द स्वरूप ब्रह्मवस्तु पर अज्ञान के कारण जगद्पी अवस्तु का आभास होता है। वेदान्तियों के रज्जु-सर्प दृष्टान्त में
और शुक्तिका रजत-दृष्टान्त में, रज्जु एवं शुक्तिका "वस्तु" है और उन पर भासमान होने वाले सर्प एवं चांदी “अवस्तु" है। वेदान्त दर्शन में सच्चिदानन्दरूप ब्रह्म का निर्देश "वस्तु"शब्द से और अज्ञान तथा अज्ञानजन्य जगत् का “अवस्तु" शब्द से होता है। अज्ञान सत् नहीं और असत् भी नहीं। वह सत् इसलिये नहीं कि सत्य ज्ञान का उदय होने पर वह नष्ट होता है, और असत् इसलिए नहीं कि, रजु-शुक्तिका पर सर्प-रजत का आभास अज्ञान के ही कारण होता है। सत्य वस्तु पर असत्य या मिथ्या अवस्तु (जगत) के आभास का वही प्रमुख कारण है। इस प्रकार अज्ञान, सत् एवं असत् दोनों प्रकार का न होने के कारण वह “अनिर्वचनीय' (जिसका यथार्थ स्वरूप बताना असंभव है।) माना गया है। वेदान्त सिद्धान्त मुक्तावली में अज्ञान की अनर्विचनीयता का सिद्धान्त एक सुन्दर दृष्टान्त द्वारा विशद किया है :
"अज्ञानं ज्ञातुमिच्छेद् यो मानेनात्यन्तमूढधीः। स तु नूनं तमः पश्येद् दीपेनोत्तमतेजसा ।। अर्थात्- जो मूट बुद्धि पुरुष, किसी प्रमाण के आधार पर अज्ञान को जानने की इच्छा रखता है, वह तेजस्वी दीपक के सहारे अंधकार को भी देख सकेगा। इसी अनिर्वचनीय अज्ञान को श्री शंकराचार्य "माया" कहते हैं।
वेदसंहिता में माया का निर्देश एकवचनी एवं बहुवचनी दोनों प्रकार से हुआ है। अतः वेदवाक्य का निरपवाद प्रामाण्य मानने वाले वेदान्तशास्त्री, अज्ञान को वृक्ष के समान व्यष्टिरूप और वन के समान समष्टिरूप मानते हैं। प्रत्येक जीव में पृथक् प्रतीत होने वाला अज्ञान व्यष्टिरूप है, और समस्त जीवमात्र में प्रतीत होने वाला सामूहिक अज्ञान समष्टिरूप है। यह अज्ञान ज्ञानविरोधी, त्रिगुणात्मक, भावरूप, अनिर्वचनीय किन्तु स्वानुभवगम्य है। उसमें दो प्रकार की शक्ति होती है। 1) आवरण शक्ति
और 2) विक्षेप शक्ति। जिस प्रकार अल्पमात्र मेघ अतिविशाल सूर्यमण्डल को आच्छादित करता है, उसी प्रकार अज्ञान (अथवा माया) अपनी आवरणशक्ति से आत्मस्वरूप को आच्छादित करता है। वस्तुतः मेघ सूर्य को आच्छादित नहीं करता, वह द्रष्टा की दृष्टि को आच्छादित करता है। उसी प्रकार, तुच्छ अज्ञान सर्वव्यापी परमात्मा को आच्छादित नहीं करता, अपि तु अपनी आवरण शक्ति से वह मानव की बुद्धि को आच्छादित करता है। अतः मेघावरण के कारण नेत्रों को जैसा सूर्यदर्शन नहीं होता, वैसा ही माया की आवरण शक्ति के कारण बुद्धि को परब्रह्म का आकलन नहीं होता।
विक्षेपशक्ति : अज्ञान की आवरण शक्ति के कारण रज्जु आच्छादित होती है, और फिर उसी स्थान पर सर्प जिस शक्ति के कारण उद्भासित होता है, उसे विक्षेप शक्ति कहते हैं। अज्ञान की इसी शक्ति के कारण ब्रह्म पर सूक्ष्मतम शरीर से लेकर ब्रह्माण्ड तक का सारा प्रपंच उद्भासित होता है । वेदान्त का यह माया विषयक सिद्धान्त दार्शनिक क्षेत्र में विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है।
___ परब्रह्म ही संसार का आदि कारण है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है। परंतु कारण, उपादान और निमित्त स्वरूप दो प्रकार का होता है। घट का "उपादान कारण" मृतिका और कुम्भकार आदि अन्य, निमित्त कारण होता है। ब्रह्म को इस प्रपंच का उपादान कारण मानने में आपत्ति आती है। उपादान कारण के गुण उसके कार्य में प्रकट होते हैं। (कारणगुणाः कार्यगुणान् आरभन्ते) इस सर्वमान्य तत्त्व के अनुसार चेतनत्व, नित्यत्व इत्यादि ब्रह्म के निजी गुण इस प्रपंच में मिलने चाहिये, जैसे मृत्तिका के गुण घट में, या तंतु के गुण पट में मिलते हैं। परंतु प्रपंच का स्वरूप चेतन और नित्य ब्रह्म के विपरीत (अचेतन और अनित्य) दिखाई देता है। अतः ब्रह्म इस प्रपंच का उपादान कारण नहीं माना जा सकता।
तैतिरीय उपनिषद् में कहा है कि, "तत् सृष्ट्वा तदेव अनुप्राविशत्” (याने सृष्टि निर्माण करने पश्चात् ब्रह्म उसी कार्य में प्रविष्ट हुआ) इस श्रुतिवचन से ब्रह्म का अपने जगत्स्वरूप कार्य में प्रवेश कहा गया है। उपनिषद् का यह वचन प्रत्यक्ष अनुभव के विपरीत भी है। निमित्त कारण (चक्र, दण्ड, तुरी, वेमा आदि) का अपने कार्य, (घट, पट) में प्रवेश कभी किसी ने देखा
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नहीं। अतः ब्रह्म, जगत् का निमित्त कारण भी नहीं माना जा सकता। वेदान्त मत के विरोधी, इस प्रकार के युक्तिवादों से वेदान्त दर्शन के ब्रह्मकारणवाद का खंडन करते हैं। परंतु इस प्रकार विरोधी युक्तिवादों का खण्डन, वेदान्त दर्शन में एक सर्व परिचित एवं समुचित दृष्टान्त से किया गया है। वेदान्ती कहते हैं, जिस प्रकार लूता (मकडी) अपने द्वारा निर्मित तंतुजाल का उपादान कारण एवं निमित्त कारण होती है, उसी प्रकार ब्रह्म इस सृष्टि का उभयरुप (उपादान और निमित्त) कारण है। लूता की चैतन्य शक्ति उसके जाल का निमित्त कारण, और उसका शरीर, उपादान कारण होता है। ठीक उसी प्रकार अज्ञानाच्छादित ब्रह्म अपनी चैतन्यप्रधानता की दृष्टि से सृष्टि का निमित्त कारण और अज्ञान प्रधानता की दृष्टि से, उपादान कारण होता है। विभिन्नता में अभिन्नता सिद्ध करने में वेदान्त के अद्वैत वाद की विशेषता है। मूल शुद्ध चैतन्य और मायायुक्त चैतन्य (इसी को ईश्वर या प्राज्ञ कहते हैं।) इनमें आपाततः विभिन्नता होते हुए भी वेदान्तियों ने "तप्तायःपिण्ड' (आग के कारण, आग के समान लाललाल दीखने वाला लोहे का गोल) का दृष्टान्त देकर अभिन्नता प्रतिपादन की है। अग्निकुण्ड में पड़ा हुआ लोहपिड, अग्नि के समान लाल और उष्ण होते हुए भी लोहे के भारादि गुणधर्मों के कारण, वह लोहे का गोला ही माना जाता है। परंतु उसमें अग्नि के दाहकत्व आदि गुणधर्म प्रत्यक्ष दीखने के कारण, वह अग्निगोल भी माना जाता है। प्रस्तुत तप्त लोहपिंड के दृष्टान्त से विभिन्नता में अभिन्नता स्पष्ट होती है। मायारूप उपाधि के कारण ईश्वर और मूल शुद्ध चैतन्य में द्वैत (विभिन्नता) की प्रतीति होते हुए भी, मूल स्वरूप में उनमें अद्वैत (एकता) ही है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है।
वेदान्त शास्त्र के अनुसार "अधिकारी" पुरुष को, गुरुद्वारा "तत् त्वम् असि" इस "महावाक्य" का अध्यारोप और अपवाद की पद्धति के अनुसार, यथोचित उपदेश होने पर उसके मनन और निदिध्यासन के कारण यथावसर, “अहं ब्रह्म अस्मि' "मैं (वह सर्व व्यापी और सर्वान्तर्यामी) ब्रह्म हूँ" इस प्रकार की चित्तवृत्ति का उदय होता है। इस चित्तवृत्ति के कारण उसका आत्मविषयक या ब्रह्मविषयक अज्ञान नष्ट हो जाता है। परंतु अज्ञान का नाश होने पर भी, अज्ञान के कार्य का (इस जड प्रपंच का) अनुभव उसे होगा या नहीं, यह प्रश्न उपस्थित होता है। इस प्रश्न का उत्तर "कारणे नष्ट कार्यम् अपि नश्यति" इस सिद्धान्त वाक्य से दिया जाता है और उसका स्पष्टीकरण, "तन्तुदाहे पटदाहः' अर्थात् तन्तु जलने पर वस्त्र जल जाता है। तंतुरूप कारण नष्ट होने पर वस्त्ररूप कार्य का पनश्च नाश करने की आवश्यकता नहीं रहती। "तत्त्वमसि' इस महावाक्य के उपदेश से "अहं ब्रह्माऽस्मि" यह चित्तवृत्ति उदित होने पर ब्रह्मविषयक (या आत्मविषयक) अज्ञान नष्ट होते ही उस अज्ञान या माया का कार्य तत्क्षण नष्ट होता है।
अद्वैतसिद्धि : "तत्त्वमसि" महावाक्य के उपदेश से उत्पन्न "अहं ब्रह्मास्मि" स्वरूप अखंडाकार चित्तवृत्ति अज्ञान एवं तजन्य प्रपंच का लय करती है। इस वेदान्त सिद्धान्त से एक प्रश्न उपस्थित होता है कि सारे प्रपंच का लय होने पर भी अज्ञान और प्रपंच दोनों का लय करने वाली “अहं ब्रह्मास्मि" यह चित्तवृत्ति तो रहती ही होगी।
इस आशंका का उत्तर वेदान्तियों द्वारा दिया गया है। वे कहते हैं
यह चित्त वृत्ति भी अज्ञान का ही कार्य होने के कारण "तन्तुदाहे पटदाहः" इस दृष्टान्त के अनुसार, अज्ञान नष्ट होते ही विलीन हो जाती है। आगे चल कर प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि अज्ञान, प्रपंच और चित्तवृत्ति में प्रतिबिंब चैतन्याभास तो पृथक् रहता ही होगा? और वह अगर पृथक् रहता होगा तो शुद्धाद्वैत का सिद्धान्त असिद्ध रह जाता है।
इस आशंका का प्रशमन करने के लिये वेदान्तियों द्वारा सर्व परिचित दृष्टान्त दिया जाता है। "दर्पणाभावे मुखप्रतिबिम्बस्य मुखमात्रत्वम्' अर्थात् जिस प्रकार दर्पण (आईना) के अभाव में उसमें दिखाई देने वाला मुख का प्रतिबिम्ब मुख के रूप में ही अवशिष्ट रहता है किंबहुना वह प्रतिबिम्ब मुखरूप ही हो जाता है, उसी प्रकार 'अहं ब्रह्माऽस्मि" चित्तवृत्ति में उदभूत चैतन्य का प्रतिबिंब, "तन्तुदाहे पटदाहः" न्याय के अनुसार विलीन होते समय मूल स्वरूप में अवशिष्ट रहता है अथवा चैतन्य स्वरूप ही हो जाता है यह बात स्पष्ट है।
यही सिद्धान्त "दीपप्रभा आदित्यप्रभाऽवभासने असमर्था सती तया अभिभूयते" इस दूसरे दृष्टान्त से अधिक विशद किया जाता है। अर्थात् दीपप्रभा और सूर्यप्रभा दोनों स्वतंत्र होने पर भी सूर्यप्रभा का उदय होने पर, दीपप्रभा अपनी मंदता के कारण सूर्यप्रभा में विलीन हो जाती है, उसी प्रकार "अहं ब्रह्माऽस्मि' चित्तवृत्ति में प्रतिबिंबित चैतन्य की मंदप्रभा परब्रह्म की महाप्रभा में विलीन हो जाती है।
अधिकारी शिष्य को "तत्वमसि" महावाक्य का उपदेश गुरुमुख से मिलने पर उसकी चित्तवृत्ति में "अहं ब्रह्माऽस्मि" भाव जाग्रत होता है, अथवा उसकी चित्तवृत्ति "अहं ब्रह्मास्मि"- भावमय होती है। यह चित्तवृत्ति तत्क्षण अपना कार्य अर्थात् जीव के अज्ञानावरण का नाश करती है। जिस क्षण वह अज्ञान नष्ट होता है उसी क्षण अज्ञान-कार्यस्वरूप चित्तवृत्ति भी चैतन्य में विलीन होती है। यह सिद्धान्त वेदान्त शास्त्र में कतकचूर्ण (फिटकरी का चूर्ण) के दृष्टान्त से विशद किया जाता है। कतकचूर्ण मलिन जल में पड़ने पर उसकी मलिनता नष्ट करने का निजी कार्य पूर्ण होते ही जल में विलीन हो जाता है। इसी प्रकार
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"अहं ब्रहमाऽस्मि' चित्तवृत्ति जीव का चैतन्य विषयक अज्ञान नष्ट करते ही चैतन्य में विलीन हो जाती है।
वेदान्त शास्त्र की रचना वेद संहिता के अन्तिम भाग पर अर्थात् उपनिषदों पर आधारित है। संस्कृतवाङ्मय में उपनिषदों की कुलसंख्या दो सौ से अधिक है (देखिए परिशिष्ट)। वेदान्तदर्शन के प्रमाणभूत उपनिषदों में ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्ड, माण्डूक्य, तैत्तिरिय, छांदोग्य, ऐतरेय और बृहदारण्यक इन दस प्रधान उपनिषदों के अतिरिक्त श्वेताश्वतर, पूर्व-उत्तर-नृसिंहतापिनी और श्रीमद्भगवद्गीता उपनिषद तथा ब्रह्मसूत्र इतने ही ग्रंथ माने गये हैं। परंतु उपनिषदों में परस्परविरोधी वचन मिलते हैं। उनका समन्वय वेदान्तशास्त्र में किया गया है। प्रस्तृत ब्रह्मविषयक विवेचन में "यन्मनसा न मनुते" और "मनसा एवं अनुद्रष्टव्यम्" (अर्थात् जिस का मन के द्वारा मनन नहीं हो सकता और जिसका मन से ही साक्षात्कार हो सकता है) इस प्रकार के विरुद्ध वचन मिलते हैं। इन वचनों का समन्वय, वृत्तिव्याप्यत्व का अंगीकार और फलव्याप्यत्व का प्रतिषेध करते हुए वेदान्तियों ने किया है। विद्यारण्यजी ने अपनी पंचदशी (जो वेदान्त शास्त्र का परम प्रमाणभूत प्रकरण ग्रंथ है) में एक लौकिक दृष्टान्त द्वारा इन विरोधी वचनों की समस्या सुलझाई है।
"चक्षुर्दीपावपेक्षेते घटादेर्दर्शने यथा। न दीपदर्शने, किन्तु चक्षुरेकमपेक्ष्यते।।" इसका आशय है कि अंधेरे में घट देखने के लिये आँख और दीप दोनों की आवश्यकता होती है, परंतु केवल दीप को देखने के लिये आँख की ही आवश्यकता होती है। इस प्रकार चैतन्यविषयक अज्ञान का अंधकार नष्ट करके चैतन्य का साक्षात्कार पाने के लिये “अहं ब्रह्माऽस्मि" चित्त वृत्ति और उस चित्त-वृत्ति में प्रतिबिंबित चिदाभास इन दोनों की आवश्यकता होती है। इसी कारण अज्ञानरूप अंधकार नष्ट करने के अभिप्राय से “मनसा एव इदम् आप्तव्यम्" या "मनसा · व अनुद्रष्टव्यम्" इत्यादि श्रुतिवचन योग्य हैं। इसके विरोधी “यन्मनसा न मनुते" या "यतो वाचो निवर्तन्ते अप्राप्य मनसा सह" ६ गादि वचन भी योग्य हैं। प्रकाशमान दीप को देखने के लिये दूसरे दीप की आवश्यकता नहीं होती। वह स्वयं प्रकाशमान हाने के कारण उसे देखने के लिये केवल आँख पर्याप्त है। घट पटादि जड वस्तु का ज्ञान और परब्रह्म जैसे सच्चिदानन्दस्वरूप वस्तु का ज्ञान, इनमें का भेद प्रस्तुत "दीप-घट" दृष्टान्त के द्वारा विशद किया है और साथ ही विरोधी वचनों का विरोध परिहार करने की पद्धति भी बतायी है।
समाधिविचार : ज्ञेय पदार्थ में चित्त की ज्ञानावस्था में जो निश्चल अवस्था होती है वही वेदान्त मतानुसार समाधि है। चित्त की इस समाधिस्थ अवस्था के दो भेद होते हैं। 1) सविकल्प और 2) निर्विकल्प। सविकल्प समाधि में ज्ञाता, ज्ञेय
और ज्ञान इस त्रिपुटी का भेदज्ञान रहते हुए भी "अहं ब्रह्माऽस्मि" स्वरूप अखण्डाकारित चित्त वृत्ति रहती है। वास्तविक भेदज्ञान के साथ जीवब्रह्म के अद्वैत का भान रहना यह कल्पना विचित्र सी लगती है परंतु उसकी संभाव्यता "मृन्मयगवाभिमाने मृद्भाववत्" इस लौकिक दृष्टान्त से विशद की है। मिट्टी के हाथी, घोड़े, उंट आदि विभिन्न प्रतिमाओं का ज्ञान होते हुए भी इनके नामरूपादि भेद मिथ्या हैं, और मिट्टी ही सत्य है, यह ज्ञान हो सकता है। उसी प्रकार सविकल्प समाधि की अवस्था में ज्ञाता, ज्ञेय और ज्ञान इस त्रिपुटी की भिन्नता का ज्ञान होते हुए भी, ब्रह्म की सर्वव्यापकता का अनुभव होता है। "विभिन्नता में अभिन्नता" यह केवल कल्पना-विलास नहीं। वह एक अनुभूति का विषय है, यह वेदान्त का सिद्धान्त है।
निर्विकल्प समाधि की कल्पना विशद करने के लिए "जलाकाराकारितलवणस्य जलमात्रावभासः" यह दृष्टान्त दिया जाता है। नमक पानी में विलीन होने पर पानी और नमक दोनों का पृथक् ज्ञान नहीं होता। नमक पानी में ही होने पर भी केवल पानी ही दीखता है। उसी प्रकार निर्विकल्प समाधि की अवस्था चित्तवृत्ति को प्राप्त होने पर ज्ञाता, ज्ञेय आदि भेदभाव लुप्त हो जाते हैं। पानी में विलीन नमक के समान चित्तवृत्ति इस अवरस्था में ब्रह्म से एकरूप होती है। इसी “जललवण दृष्टान्त" के आधार से निर्विकल्प समाधि और तत्सदृश सुषुप्ति अवस्था में भेद दिखाया जाता है। सुषुति (गाढनिद्रा) और निर्विकल्प समाधि इन दोनों अवस्थाओं में चित्तवृत्ति का भान नहीं रहता। परंतु केवल उसी एकमात्र कारण से दोनों अवस्थाओं में तुल्यता नहीं मानी जाती। लवणयुक्त जल और लवणहीन जल दिखने मे समान होने हुए भी उनमें भेद होता है। इन दो जलों में जितनी भिन्नता होती है उतनी ही सुषुप्ति और निविकल्प समाधि में भी होती है। निविकल्प समाधि में चित्तवृत्ति भासमान नही होती, परंतु उसका अभाव नहीं होता। सुषुप्ति अवस्था में चित्तवृत्ति भासमान न होने के कारण उसका अभाव ही होता है।
"निर्विकल्प समाधि" वेदान्त के अनुसार साधकों का परम प्राप्तव्य है, परंतु उसके मार्ग में "अधिकारी" साधक को भी, लय, विक्षेप, कषाय और रसास्वाद इन चार विघ्नों से सामना करना पडता है। इन विघ्नों को परास्त करने पर ही साधक निर्विकल्प समाधि का दिव्य अनुभव पा सकता है। इस अवस्था में चित्त को, “निवातस्थ दीप" के समान अविचलता आने के कारण, साधक अखंड चैतन्य का अनुभव पाता है, ऐसा गौडपादाचार्य कहते हैं। जीवन्मुक्तावस्था : उपरिनिर्दिष्ट निर्विकल्प समाधि के सतत अभ्यास से साधक को "जीवन्मुक्त" अवस्था प्राप्त होती है।
"भिद्यते हृदयग्रन्थिः छिद्यन्ते सर्वसंशयाः। क्षीयन्ते चास्य कर्माणि तस्मिन् दृष्टे परावरे।।"
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 171
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इस मुण्डकोपनिषद् के मंत्र में जीवन्मुक्त अवस्था का वर्णन किया है। निर्विकल्प समाधि में ब्रह्म और आत्मा की एकता का साक्षात्कार होने पर अखिलबन्धरहित ब्रह्मनिष्ठ पुरुष लौकिक व्यवहार किस प्रकार करता है या उनका किस प्रकार अनुभव पाता है? सामान्य अज्ञानी पुरुष और श्रीशंकराचार्यादि जीवन्मुक्त इनके लौकिक व्यवहार में जो भेद होता है, उसका स्वरूप "यथा इन्द्रजालम् इति ज्ञानवान् तद् इन्द्रजालं पश्यन् अपि परमार्थम् इदम् इति न पश्यति" इस इन्द्रजाल दृष्टान्त से स्पष्ट किया है। ठीक समझ के साथ जादूगर का खेल देखने वाले सुशिक्षित मनुष्य के समक्ष, जादूगर ने कितनी भी चमत्कृति दिखाई तो भी यह सारी हाथचालाकी है, तथ्य नहीं यह बात जान कर वह ठीक समझता है उससे विचलित नहीं होता, उसी प्रकार जिसका अज्ञानपटल अद्वैत प्रबोध से नष्ट होता है, उस जीवन्मुक्त के लिए संसार के सारे लौकिक व्यवहार इन्द्रजालवत् मिथ्या या तुच्छ होते हैं। वेदान्त, "प्रस्थानत्रयो" (उपनिषद् ब्रह्मसूत्र और भगवद्गीता) रूप आप्तवचन की मीमांसाद्वारा निष्पन्न हुआ शास्त्र है, परंतु उसके सिद्धान्त आप्तवचनों की केवल शाब्दिक मीमांसा से ही प्रकट नहीं होते। उस शास्त्र के प्रवर्तक यह प्रतिज्ञापूर्वक कहते हैं कि वे स्वानुभृति द्वारा भी ज्ञात हो सकते हैं। रसायनादि भौतिक शास्त्रों के सिद्धान्तों का प्रामाण्य प्रयोग द्वारा भी सिद्ध होता है, उसी प्रकार वेदान्त शास्त्र के सिद्धान्तों का ज्ञान श्रवण, मनन, निदिध्यासन द्वारा अवगत होने पर यम, (अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, अपरिग्रह) नियम, (शोध, संतोष, तप, स्वाध्याय, ईश्वरप्रणिधान), धारणा, ध्यान और समाधि इन योगशास्त्रोक्त अष्टांग योगसाधना को सतत साधना से, उनका साक्षात्कार किया जाता है। ऐसे अनुभवसंपन्न वेदान्ती भारत में प्राचीन काल हुए और आज विद्यमान हैं जिन्होंने “सर्व खल्विद ब्रह्म", "तत् त्वमसि", "अहं ब्रह्माऽस्मि” इन महावाक्यों का आशय स्वानुभव द्वारा जाना हे
श्रीशंकराचार्य द्वारा प्रवर्तित अद्वैत वेदान्त की स्थूल रूपरेखा यथाशक्ति सुबोध पद्धति से यहां बतायी है। शंकराचार्यजी ने अपने प्रस्थानत्रयी के भाष्यों में आध्यात्मिक एवं तात्त्विक चर्चा में अन्तर्भूत होने वाले प्रायः सभी विषयों पर अधिकार वाणी से प्रतिपादन किया है। उनके प्रतिपादन का भारत के धार्मिक जीवन पर काफी प्रभाव पड़ा है। अद्वैत वेदान्त की गंभीर चर्चा करने वाले सैकडों संस्कृत ग्रंथ प्राचीन काल में लिखे गये और आज भी लिखे जा रहे हैं। श्री शंकराचार्यजी के ग्रन्थों के अतिरिक्त, वाचस्पति मिश्र का भामतीभाष्य, चित्सुखाचार्यकृत चित्सुखी, श्रीहर्षकविकृत खंडनखंडखाद्य, मधुसूदन सवस्वतीकृत अद्वैतसिद्धि, विद्यारण्यकृत पंचदशी इत्यादि ग्रंथों की योग्यता दार्शनिक वाङ्मय में निरुपम है। इनके अतिरिक्त सदानंदकृत वेदान्तसार, धर्मराजकृत वेदान्तपरिभाषा, शंकराचार्यकृत उपदेशसाहस्री, अपरोक्षानुभूति और स्वामी सत्यबोधाश्रमकृत वेदान्तप्रबोध आदि सुबोध एवं संक्षिप्त ग्रंथ शांकरवेदान्त का अध्ययन करने की दृष्टि से उल्लेखनीय हैं।
6 "विशिष्टाद्वैत मत" ई. 11 वीं शताब्दी में रामानुजाचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्र श्रीभाष्य के द्वारा विशिष्टाद्वैत मत का पुरस्कार किया। इस भाष्य में बोधायन, टंक, द्रमिड, गुहदेव, कपर्दी, भारुचि, इत्यादि स्वमानुकूल प्राचीन आचार्यों का उल्लेख रामानुजाचार्य ने किया है जिससे उनके विशिष्टाद्वैत मत की प्राचीन परंपरा की कल्पना आती है। वेदान्तसार, वेदान्तदीप, गद्यत्रय, गीताभाष्य इत्यादि रामानुजाचार्य के ग्रंथ, रामानुजी वैष्णव संप्रदायी विद्वानों में मान्यता प्राप्त हैं। इस परंपरा में श्रुतिप्रकाशिका, श्रुतिदीपिका, वेदार्थसंग्रह, तात्पर्यदीपिका उपनिषद्व्याख्या इत्यादि अनेक ग्रंथों के लेखक सुदर्शन सूरि (12 वीं शती), तत्त्वटीका, अधिकरणसारावली, न्यायसिद्धांजन, गीतातात्पर्यचंद्रिका, इत्यादि ग्रंथों के निर्माता वेंकटनाथ (13 वीं शती), 14 वीं शती में आत्रेय, रामानुज, 15 वीं शती में वरवरमुनि, 16 वीं शती में श्रीनिवासाचार्य, रंगरामानुजाचार्य इत्यादि आचार्यों की परंपरा अविस्मरणीय है। ___ रामानुजाचार्य ने अपने सिद्धान्त द्वारा शंकराचार्य के अद्वैत मत से विरोध व्यक्त किया। शांकरमतानुसार :
1) "ब्रह्म सत्यं जगनिमथ्या जीवो ब्रह्मैव नापरः" और 2) कर्मसंन्यासपूर्वक ज्ञान से ही मोक्षप्राप्ति, ये सिद्धान्त प्रतिपादन हुए हैं। इनके कारण वैष्णव संप्रदाय के प्रचार में जो रुकावट निर्माण हुई थी, उसे हटा कर वैष्णव मत का पुरस्कार करने
के हेतु विशिष्टाद्वैत मत की स्थापना रामानुजाचार्य ने की। इस मत के अनुसार मायावाद का खंडन करते हुए यह प्रतिपादन किया गया कि, चित्, अचित् और ईश्वर इन तीन तत्त्वों में भिन्नता होते हुए भी, चित् और अचित् दोनों ईश्वर के शरीर होने के कारण "चिदचिद्विशिष्ट ईश्वर" एक ही है। ईश्वरशरीरस्थ सूक्ष्म चित्-अचित् से, स्थूल चित् अचित् की निर्मिति होती है, इत्यादि विचार प्रस्थापित किये गये
"विशिष्टाद्वैत' शब्द का एक अभिप्राय यह है कि, चित्-अचित्-रूपी शरीर से विशिष्ट परमात्मा की एकता। दूसरा अभिप्राय है कि सूक्ष्मशरीर विशिष्ट परमात्मा कारण और स्थूल शरीर विशिष्ट परमात्मा कार्य, इन (कारण तथा कार्य) में एकत्व होने के कारण विशिष्टों का अद्वैत है। ईश्वर विषयक प्रेमभक्ति को महत्त्व देने की दृष्टि से श्रीरामानुजाचार्य ने अपना यह सिद्धान्त प्रचारित किया।
रामानुजमत के अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति स्थिति और समाप्ति करने वाला ईश्वर निर्दोष, सनातन, सर्वव्यापी, सर्वान्तर्यायी, आनंदस्वरूप, सर्वज्ञ एवं सर्वशक्तिमान् है। वह चतुर्विध पुरुषार्थ का दाता होने के कारण, आर्त, जिज्ञासु, अर्थार्थी और ज्ञानी
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भक्तजन उसके चरणों में शरण आते हैं। ईश्वर का विग्रह दिव्य अद्वितीय सौन्दर्य से युक्त होता है; और लक्ष्मी, भू तथा लीला उसकी पत्नियाँ हैं। वह पाँच स्वरूपों में प्रकट होता है :
1) परस्वरूप इस स्वरूप में ईश्वर को नारायण, परब्रह्म या परवासुदेव कहते हैं और यह वैकुण्ठ में शेषरूप पर्यंक पर धर्मादि अष्टपादयुक्त रत्नसिंहासन पर शंख चक्रादि दिव्यायुधों सहित विराजमान है। श्री भूमी और लीला उसकी सेवा करती हैं। अनंत, गरुड, विश्वक्सेन इत्यादि मुक्त पुण्यात्मा उसके सहवास का आनंद पाते हैं।
2) व्यूहस्वरूप : सृष्टि की उत्पत्ति आदि कार्य के निमित्त परस्वरूपी ईश्वर, वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध नामक चार स्वरूप धारण करता है। वासुदेव षड्गुणैश्वर्यसम्पन्न है और संकर्षण ज्ञनवलसंपन्न, प्रद्युम्र ऐश्वर्य वीर्यसम्पन्न तथा अनिरुद्ध शक्ति-तेज-सम्पन्न है। इस प्रकार प्रस्तुत चतुर्व्यूह स्वरूप में ईश्वरी दिव्य गुण विभाजित है ।
3) विभवस्वरूप : इसमें मत्स्य, कूर्म, वराह आदि ईश्वरी अवतारों की गणना होती है।
4 ) अन्तर्यामीस्वरूप : समस्त प्राणिमात्र के अंतरंग में विद्यमान इसी स्वरूप का साक्षात्कार योगी पाते हैं |
5) मूर्तिस्वरूप : नगर, ग्राम, गृह आदि स्थानों में उपासक लोग जिस धातु-पाषाण आदि की मूर्ति की प्राणप्रतिष्ठा करते हैं, उस में अप्राकृत शरीर से ईश्वर का निवास होता है।
परमात्मा (ईश्वर) और जीवात्मा (वित्) दोनों में प्रत्यकृत्य वेतनत्व, कर्तृत्व इत्यादि गुणधर्म होते हैं। जीवात्मा (चित्) स्वयंप्रकाशी, नित्य, अणुपरिमाण, अगोचर, अगम्य, निरवयव, निर्विकार, आनंदी, अज्ञानी किंतु ईश्वराधीन है। जीवात्मा असंख्य होते हैं और उनके विविध वर्ग होते हैं :- 1) बद्ध, 2) मुक्त, 3) नित्य । बद्ध जीवात्माओं में जो बुद्धिप्रधान होते हैं वे 1) बुभुक्षु (सुखोपभोगों में मग्न) और 2 मुमुक्षु दो प्रकार के होते है। कुछ बुभुक्षु, अलौकिक भोग प्राप्ति के हेतु यज्ञ, दान, तप आदि कर्म करते हैं, तो अन्य कोई बुभुक्षु ईश्वर की उपासना करते हैं।
1
मुमुक्षु जीवात्माओं में कुछ "केवली" होने की इच्छा रखते हैं तो कुछ मोक्ष की इच्छा रखते हैं। इन मोक्षार्थी जीवों में कुछ वैदिक कर्मकाण्ड, ज्ञानयोग, कर्मयोग द्वारा, अपना अधिकार बढाते हुए अंत में सर्वांगीण भक्तियोग के द्वारा ईश्वर की प्राप्ति करते हैं । प्रपत्ति या अनन्य शरणागति स्वरूप भक्ति का अधिकार मानवमात्र को होता है। भक्तियोग की साधना में पूर्णता आने के लिये निष्काम कर्मयोग और ज्ञानयोग ( जीव के प्रकृति से पृथक्त्व और ईश्वरांशत्व का ज्ञान प्राप्त करना) का सहाय आवश्यक हैं। भक्तियोग, ज्ञानयोग से श्रेष्ठ है। यमनियमादि योगसाधना सहित ईश्वर का अखंड ध्यान करना, इसी को भक्तियोग कहते हैं। भक्तियोग की साधना में सात अंग माने जाते है: 1 ) पवित्र आहारादि से शरीरशुद्धि 2 ) विमोक या ब्रह्मचर्यपालन 3 ) अभ्यास ( यथाशक्ति पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान 4 ) कल्याण (सत्य, आर्जव, दया, दान, अहिंसा इत्यादि व्रतपालन ) 5 ) विश्वनिर्माता का निरंतर चिन्तन 6 ) अनवसाद, ( दैन्यत्याग) ७) अनुध्दर्ष (सुख दुःख में समभाव ) इन सात साधनों से युक्त भक्ति योग की साधना से ईश्वर साक्षात्कार की संभावना होती है। जिस साधक से यह साधना नहीं हो सकती उसके लिये षड्विधा प्रपत्ति और आचार्याभिवान योग का विधान राजदर्शन में किया है।
पडविधा प्रपत्ति
आनुकूल्यस्य संकल्पः प्रतिकृत्वस्य सर्जनम्। रक्षिष्यतीति विश्वासः गोप्तृत्ववरण तथा आत्मनिक्षेपकार्पण्ये षविधा शरणागतिः ।। आचार्यभियान योग का अर्थ है आचार्य या गुरु को शरण जाना और उन्हीं के उपदेश के अनुसार सारे कर्म करना । इस योग में शिष्य के मोक्ष का दायित्व आचार्य अपने पर लेते हैं।
रामानुज मत के अनुसार अपरोक्ष ज्ञान के बिना मुक्ति नहीं मिलती परंतु यह ज्ञान ईश्वर की ध्रुवास्मृति या अखंड स्मृति के बिना उदित नहीं होता। वैदिक कर्मों का अनुष्ठान इसमें सहाय्यक होता है। अतः शंकराचार्य जहां केवल ज्ञान को ही उपादेय मानते हैं वहाँ रामानुजाचार्य कर्म- ज्ञानसमुच्चय को उपादेय मानते हैं । कर्म के साथ भक्ति के उदय होने में तत्त्वज्ञान को वे सहकारी कारण मानते हैं। इस प्रकार मुक्ति का प्रधान कारण भक्ति ही माना गया है। भक्ति का सर्वश्रेष्ठ स्वरूप प्रपत्ति अर्थात् अनन्यशरणागति है। इस शरणागति के लिये कर्मों का अनुष्ठान आवश्यक है या नहीं इस विषय में रामानुज मतानुयायी आचार्यों में तीव्र मतभेद हैं। टैंकलै नामक मत के लोकाचार्य प्रपत्ति के लिए कर्मानुष्ठान को आवश्यक नहीं मानते। निःसहाय "मार्जारकिशोर" (बिल्ली का बच्चा) को उसकी माता एक स्थान से दूसरे स्थान तक पंहुचाती है, उसी प्रकार भगवान् अपने प्रपन्न शरणागत भक्तों को परमोच्च अवस्था तक पहुंचा ही देते हैं। दूसरे वडकलै मत के आचार्य वेदान्तवेशिक "कपिकिशोर" (बंदरी का बच्चा) का दृष्टान्त देते हुए भक्ति साधना में कर्मानुष्ठान की आवश्यकता प्रतिपादन करते हैं ।
13 वीं शती में श्रीकण्ठाचार्य ने अपने ब्रह्मसूत्रभाष्य द्वारा "शैव विशिष्टाद्वैत" मत का प्रतिपादन किया। अप्पय दीक्षित ने शिवार्क मणिदीपिका नामक महत्त्वपूर्ण टीका लिखी है। इनका सिद्धान्त रामानुज सिद्धान्त के
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इस भाष्य पर समान ही है ।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 173
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अन्तर इतना ही है कि यहाँ ईश्वर शिवस्वरूप माने गये हैं, तथा सगुण ब्रह्म ही परमार्थभूत है और चित् अचित् उसके प्रकार हैं। शिव, महादेव, उग्र आदि संज्ञाएं इस सगुण परब्रह्म की ही हैं।
7 "द्वैतवादी माध्वमत" ई. 13 वीं शती में कर्नाटक के उडुपी क्षेत्र के पास पाजक नामक गाँव में मध्यगेह भट्ट (या नारायणाचार्य) और वेदवती (या वेदवेदी) को एक पुत्र हुआ जिसका नाम उन्होंने वासुदेव रखा था। शास्त्राध्ययन संपूर्ण होने पर वासुदेव ने उडुपी के विद्वान अच्युतप्रेक्ष, (जो अद्वैतावादी थे) से संन्यास दीक्षा ली। संन्यास आश्रम में उन्हें पूर्णप्रज्ञतीर्थ तथा आनंदतीर्थ नाम दिये गये परंतु वे सर्वत्र मध्वाचार्य नाम से ही प्रख्यात हुए। मध्वाचार्य के शिष्य परिवार में पद्मनाभतीर्थ, नरहरितीर्थ, माधवतीर्थ,
अक्षोभ्यतीर्थ और त्रिविक्रमतीर्थ नामक पांच विद्वान शिष्य थे। मध्वाचार्य के द्वारा उत्तरादिमठ नामक प्रमुख मठ उडुपी में स्थापित हुआ। इसके अतिरिक्त स्वादिमठ, सुब्रह्मण्यमठ इत्यादि अन्य मठों की स्थापना शिष्यों द्वारा हुई।
मध्वाचार्य को संप्रदाय में वायुदेवता का अवतार माना जाता है। वे द्वैतवादी या भेदवादी थे। उनके मतानुसार स्वतंत्र और अस्वतंत्र इन दो प्रमुख तत्त्वों में भगवान विष्णु स्वतंत्र एवं सकलसद्गुण सम्पन्न हैं। अन्य सभी अस्वतंत्र हैं। भेद पांच प्रकार के होते हैं। 1) जीव ईश्वर भेद 2) जड ईश्वर 3) जीव अजीव भेद 4) जीव जडभेद और 5) जड अजड भेद । परमात्मा और जीव में मोक्षावस्था में भी अभेद संभव नहीं, जो भी अभेद प्रतीत होता है वह भ्रममात्र है। सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा इस सृष्टि का निमित्त कारण है और वह चराचर वस्तुमात्र में निवासी है। दुःख का उसे स्पर्श भी नहीं होता। लक्ष्मी, श्रीवत्स और अचिंत्य शक्ति परमात्मा के वैभव हैं। मुक्त जीवात्मा को भी उसकी प्राप्ति नहीं होती। मोक्ष प्राप्ति के लिये जीव को परमात्मा की सेवा, अंकन (विष्णुचिह्नों का तप्तमुद्राओं से अंकन) नामकरण और भजन इन तीन प्रकारों से करनी चाहिए। इस प्रकार का अपना द्वैतवादी मत प्रतिपादन करने के लिए मध्वाचार्य ने विपुल ग्रंथ संपदा निर्माण की :
1) गीताभाष्य, 2) गीतातात्पर्य, 3) सूत्रभाष्य, 4) अणुभाष्य, 5) महाभारत-तात्पर्यनिर्णय, 6) भागवत-तात्पर्य, 7) नखस्तुति, 8) यमकभारत, 9) द्वादशस्तोत्र, 10) तंत्रसार, 11) सदाचारस्मृति, 12) यतिप्रणवकल्प 13) जयंतीनिर्णय 14) ऋग्भाष्य, 15) प्रणयलक्षण, 16) कथालक्षण, 17) तत्त्वसंस्थान, 18) तत्त्वविवेक, 19) मायावादखंडन, 20) उपाधिखंडन, 21) प्रपंच-मिथ्यात्वानुमानखंडन, 22) तत्त्वोद्योत, 23) विष्णुतत्त्वनिणर्य, 24) दशोपनिषद्भाष्य, 25) अनुव्याख्यान, 26) संन्यास विवरण, 27) कृष्णामृतमहार्णव, और 28) कर्मनिर्णय । इन ग्रंथों द्वारा स्वमत प्रतिपादन और शांकर अद्वैत के मायावाद का खंडन मध्वाचार्य ने किया है। इन की शिष्यपरम्परा में भी उद्भट विद्वान हुए जिन में जयतीर्थ (14 वीं शती), व्यासतीर्थ (15 वीं शती), रघूत्तमतीर्थ (16 वीं शती) वनमाली मिश्र (18 वीं शती) सत्यनाथ यति (17 वीं शती) वेणीदत्त, पूर्णानन्दचक्रवर्ती आदि विद्वानों ने माध्व मत का प्रतिपादन अपने टीकात्मक वाङ्मय से किया।
जयतीर्थ ने मध्वाचार्य के सूत्रभाष्य पर, तत्त्वप्रकाशिका और तत्त्वोद्योत, तत्त्वविवेक, तत्त्वसंख्यान, प्रमाणलक्षण तथा गीताभाष्य के उपर अन्य सुबोध टीकाएं लिखीं। इनकी प्रमाणपद्धति (जिस पर आठ टीकाएं लिखी गयीं) और वादावली द्वैतवादी वाङ्मय में महत्त्वपूर्ण मानी जाती हैं।
व्यासतीर्थ के ग्रंथ :- न्यायामृत, तर्कताण्डव, तात्पर्यचन्द्रिका (जयतीर्थ की तत्त्वप्रकाशिका की टीका) मन्दारमंजरी, भेदोज्जीवन - और मायावादखंडन-टीका। इनके न्यायामृतपर 10 विख्यात टीकाएं लिखी गयीं। प्रसिद्ध अद्वैती विद्वान मधुसूदन सरस्वती ने अपनी अद्वैतसिद्धि में व्यासतीर्थ के न्यायामृत का खंडन किया है। बाद में द्वैतवादी रामाचार्य ने अपनी तरंगिणी टीका में और विजयीन्द्रतीर्थ ने अपने कण्टकोद्धार टीका में अद्वैतसिद्धि के युक्तिवादों का खंडन किया है।
रघूत्तमतीर्थ के ग्रंथः- इन्होंने मध्वाचार्य के विष्णुतत्त्वनिर्णय पर और जयतीर्थ की तत्त्वप्रकाशिका पर भावबोध नामक व्याख्याएं लिखीं. जिसके कारण ये भावबोधाचार्य या भावबोधकार नाम से प्रसिद्ध हुए। ब्रह्मप्रकाशिका मध्वाचार्य के बृहदारण्यक-भाष्य की टीका है।
वेदेशभिक्षु, रघूत्तमतीर्थ के शिष्य थे। इन्होंने तत्त्वोद्योत-पंचिका (ऐतरेय, छान्दोग्य, केन उपनिषदों पर मध्वाचार्य के भाष्यों की टीका) तथा प्रमाणपद्धति (मध्वकृत) पर भी इनकी टीका है। वनमाली मिश्र के ग्रंथः- माध्वमुखालंकार, वेदान्तसिद्धान्तमुक्तावली (ब्रह्मससूत्रों की टीका)। सत्यनाथ यतिः- इन्होंने अप्पय्य दीक्षित के ग्रंथ के खंडन में अभिनवगदा, अभिनवतर्कताण्डव, तथा अभिनवचंद्रिका (तात्पर्यदीपिका की टीका) इत्यादि द्वैतमतवादी ग्रंथों की रचना की। इन ग्रंथों के अतिरिक्त वेणीदत्तकृत भेदजयश्री तथा वेदान्तसिद्धान्तकण्टक, पूर्णानन्द चक्रवर्तीकृत तत्त्वमुक्तावली (या मायावाद-शतदूषणी) इत्यादी द्वैतवादी ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
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माध्वमतानुसार तत्त्वविचार दश पदार्थः- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव। द्रव्य के 20 प्रकार:- परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत आकाश, प्रकृति, गुणजय,महत्तत्त्व, अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब। गुणः- वैशेषिक दर्शन के 24 गुणों के अतिरिक्त, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, और सौन्दर्य आदि । कर्म के तीन प्रकार:- विहित, निषिद्ध, और उदासीन । सामान्य के दो प्रकार:- नित्यानित्य तथा जाति-उपाधि भेद के कारण होते हैं। विशेषः- यह जगत् के समस्त पदार्थों में रहता है, अत एव अनन्त है। भेद व्यवहार के निर्वाहक पदार्थ को विशेष कहते है। परमात्मा में भी विशेष का स्वीकार होता है। विशिष्ट:- विशेषण से युक्त पदार्थ शक्ति के चार प्रकार:- (1) अचिन्त्य, (2) आधेय, (3) सहज और (4) पद। इन में अचिन्त्य शक्ति "अघटित-घटना-पटीयसी" होती है और वह भगवान् विष्णु में निवास करती है। दूसरे के द्वारा स्थापित शक्ति को आधेय शक्ति कहते है। सहजशक्ति कार्यमात्र के अनुकूल एवं सर्वपदार्थनिष्ठा होती है। पद-पदार्थ में वाचक-वाच्य संबंध को पदशक्ति कहते है। इसके दो प्रकार होते हैं (1) मुख्या और (2) परममुख्या।
परमात्मा अर्थात साक्षात् विष्णु अनन्त गुणपरिपूर्ण हैं। वे उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियमन, ज्ञान, आवरण बन्ध और मोक्ष इन आठों के कर्ता एवं जड प्रकृति से अत्यन्त विलक्षण हैं। ज्ञान, आनंद, आदि कल्याण गुण ही परमात्मा के शरीर हैं। अतः शरीर होने पर भी वे नित्य तथा सर्वस्वतंत्र हैं। इनके मत्स्य-कूर्मादि अवतार स्वयं परिपूर्ण हैं। वे परमात्मा से अभिन्न हैं। लक्ष्मी:- परमात्मा की शक्ति एवं दिव्यविग्रहवती और नानारूप धारिणी उनकी भार्या है। वह परमात्मा से गुणों में न्यून है किन्तु देश और काल की दृष्टि से उनके समान व्यापक है। जीव के तीन प्रकार:- मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी और तमोयोग्य । मुक्तियोग्य जीव के पाँच प्रकार:- देव, ऋषि, पित, चक्रवर्ती तथा उत्तम मनुष्य । तमोयोग्य जीव के चार प्रकार:- दैत्य, राक्षस, पिशाच और अधम मनुष्य ।
नित्यसंसारी जीव, सुख और दुःख का अनुभव लेता हुआ अपने कर्म के अनुसार ऊंच-नीच गति को प्राप्त करता है। वह कभी मुक्ति नहीं पाता। संसार में प्रत्येक जीव अपना व्यक्तित्व पृथक् बनाए रहता है। वह अन्य जीवों से तथा सर्वज्ञ परमात्मा से तो सुतरां भिन्न होता है। जीवों की अन्योन्य- भिन्नता मुक्तावस्था में भी रहती है। मुक्त जीवों के ज्ञानादि गुणों के समान उनके आनंद में भी भेद होता है। यह सिद्धान्त माध्वसिद्धान्त की विशेषता है। अव्याकृत आकाशः- नित्य एक तथा व्यापक होने से यह कार्यरूप तथा अनित्य भूताकाश से सर्वथा भिन्न है। इसके अभाव में समस्त जगत् एक निबिड पिंड बन जाता है। लक्ष्मी इसकी अभिमानिनी देवता है। प्रकृतिः- साक्षात् या परम्परा से उत्पन्न विश्व का उपादान कारण है। मुक्तजीवों के लीलामय विग्रह, शुद्ध सत्त्व से निर्मित होते हैं। श्री सत्त्वाभिमानिनी, भू-रजोभिमानिनी एवं दुर्गा तमोभिमानिनी देवता है। माध्वमतानुसार जो पंचभेद माने गये हैं उनके परिज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। यह परिज्ञान द्विविध उपासना से संभव है:
(1) संतत शास्त्राभ्यास और (2) ध्यान । मुक्ति के चार परिणामः- कर्मक्षय, उत्क्रान्ति, अर्चिरादिमार्ग और भोग। भोगरूपा मुक्ति के चार प्रकार:- सलोकता, समीपता, सरूपता और सायुज्यता। सायुज्यमुक्ति में जीव परमात्मा में प्रवेश कर उन्हीं के शरीर से आनंद का भोग करता है। यही सर्वश्रेष्ठ मुक्ति है।
8 "द्वैताद्वैतवादी निंबार्कमत" ब्रह्मसूत्र में उल्लिखित आचार्यों में आश्मरथ्य और औडुलोमि भेदाभेदवादी थे। शांकर मत का उदय होने से पूर्व भर्तृप्रपंच ने भेदाभेद मत का पुरस्कार किया था। उनके ग्रंथ में बादरायणा पूर्वकालीन भेदाभेदवादी आचार्यों का नामनिर्देश किया है। शंकराचार्य के बाद यादवाचार्य और भास्कराचार्य नामक आचार्यों ने भेदाभेद मत का युक्तिपूर्वक प्रतिपादन करने का प्रयास किया। उनके प्रखर युक्तिवादों का खंडन रामानुजाचार्य ने वेदार्थसंग्रह में, उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि में और वाचस्पति मिश्र ने अपने भामती प्रस्थान में किया। इन उत्तर-पक्षी ग्रंथों से भास्कराचार्य के प्रतिपादन की प्रबलता ध्यान में आ सकती है। भेदाभेदवाद
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या द्वैताद्वैतवाद) का सिद्धान्त प्रस्थानत्रयी के आधार पर प्रतिपादन करने का कार्य ई. 12 वीं शती में निंबाकाचार्य ने किया। इनका वास्तविक नाम था नियमानन्द परंतु कहा जाता है रात्रि के समय निंब वृक्ष पर अर्क (सूर्य) का साक्षात् दर्शन होने के कारण इनका नाम निंबादित्य या निंबार्क पडा। इनके प्रधान ग्रंथ हैं:
(1) वेदान्तपरिजातसौरभ ( ब्रह्मसूत्र का संक्षिप्त भाष्य ) (2) दशश्लीकी ( भेदाभेदमत प्रतिपादक दस श्लोकों का संग्रह, जिस पर हरिदास व्यास आचार्य की महत्त्वपूर्ण टीका है। (3) श्रीकृष्णस्तवराज ( पचीस श्लोकों का स्वमत प्रतिपादक काव्य । इस पर अत्यन्तसुरम, श्रुतिसिद्धान्त-मंजरी तथा अत्यन्तकल्पवल्ली नामक विस्तृत व्याख्याएं प्रकाशित हुई है। इनके अतिरिक्त निंबार्कतत्त्वप्रकाश, वेदान्ततत्त्वबोध, वेदान्त-सिद्धान्त- प्रदीप माध्वमुखमर्दन इत्यादि ग्रंथ भी उल्लेखनीय हैं 1
निंबार्काचार्य के प्रमुख शिष्य श्रीनिवासाचार्य ने अपने गुरु के वेदान्त - पारिजात - सौरभ पर वेदान्तकौस्तुभ नामक भाष्य लिखा । ई. 15 वीं शती में केशवभट्ट काश्मीरी ने (1) कौस्तुभप्रभा (वेदान्तकौस्तुभभाष्य की व्याख्या) (2) तत्त्वप्रकाशिका (गीता की व्याख्या और भागवत दशम स्कंध की वेदस्तुति की टीका) (3) क्रमदीपिका (विषय- पूजापद्धति का विवरण ) इत्यादि ग्रन्थों द्वारा द्वैताद्वैत मत का पुरस्कार किया। निंबार्क संप्रदाय में हरिव्यास देवाचार्य के शिष्योत्तम पुरुषोत्तमाचार्य का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इनके ग्रंथों में (1) वेदान्तरत्नमंजूषा ( दशश्लोकी की व्याख्या) तथा (2) श्रुत्यन्तसुरद्रुम (श्रीकृष्णस्तवराज की टीका ) नामक दो ग्रंथ पाण्डित्य पूर्णता के कारण प्रसिद्ध हैं। कृपाचार्य के शिष्य देवाचार्य ने ब्रह्मसूत्र की चतुःसूत्रादि पर सिद्धान्तजाह्नवी नामक उत्कृष्ट भाष्य लिखा है जिसमें उन्होंने पुरुषोत्तमाचार्य की वेदान्त-रत्नमंजूषा का यत्र-तत्र उल्लेख किया है। सिद्धान्त जाह्नवी पर सुन्दरभट्ट ने सिद्धान्तसेतु नामक टीका लिखी है इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अनन्तराम कृत वेदान्त तत्त्वबोध पुरुवेनमदास वैष्णव कृत - श्रुत्यन्तकल्पवल्ली (श्रीकृष्णस्तवराज की टीका), मुकुन्दमाधव (वंगनिवासी) कृत परपक्षगिरिवज्र (जिसमें अद्वैत मत के खंडन का सशक्त प्रयास हुआ है ।) इत्यादि ग्रंथ भेदाभेदवादी वाङ्मय में प्रसिद्ध हैं। निंबार्क प्रणीत द्वैताद्वैत (या भेदाभेद) वादी, तत्त्वज्ञान परंपरा के अनुसार 'हंसमत' माना जाता है। हंसस्वरूप नारायण - सनत्कुमार-नारदमुनि और निंबार्क यह इस दर्शन की गुरुपरम्परा मानी गयी है। संप्रदाय के अनुसार निंबार्क भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं।
|
इस दर्शन में प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा तीन तत्त्व माने जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा का संबंध भेदाभेदरूप या द्वैताद्वैत-रूप होता है, अर्थात् अवस्थाभेद के कारण जीवात्मा परमात्मा से भिन्न तथा अभिन्न होता है।
जीवात्मा:- अणुप्रमाण, ज्ञानस्वरूप, शरीर से संयोग और वियोग होने योग्य, प्रत्येक देह में विभिन्न ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता और अनंत होते हैं। परमात्मा या ईश्वर स्वतंत्र है 1
जीव के बद्ध और मुक्त दो प्रकार होते हैं। बद्ध जीव के बुभुक्षु और मुमुक्षु दो भेद होते हैं, उसी प्रकार मुक्त जीव के भी दो प्रकारः (1) नित्यमुक्त (जैसे विश्वक्सेन, गरुड, श्रीकृष्ण की मुरलि इत्यादि) और (2) संचित कर्मो का भोग समाप्त होने पर मुक्त । | मुक्तात्मा में कुछ
बद्ध जीवात्मा देव, मनुष्य या तिर्यक् योनि में जन्म ले कर शरीर के प्रति अहंता ममता रखता है। ईश्वर से सादृश्य प्राप्त करते हैं तो अन्य कुछ ज्ञानमय स्वरूप में ही रहते हैं ।
प्रकृतिः- चेतनाहीन, जडस्वरूप मूलतत्त्व को प्रकृति कहते हैं। इसके तीन भेद माने जाते हैं: (1) प्राकृत (2) अप्राकृत और (3) काल । प्राकृत में महत तत्त्व में पंच महाभूत और उनके समस्त विकारों का अन्तर्भाव होता है। अप्राकृत के अन्तर्गत परमात्मा का स्थान, शरीर उनके अलंकार आदि जडप्रकृति से संबंध न रखने वाले दिव्य पदार्थों की गणना होती है।
कालतत्त्व प्राकृत और अप्राकृत तत्वों से भिन्न है, जो नित्य विभु, जगन्नियंता और परमात्मा के अधीन है। ये तीनों प्रकृतिस्वरूप जडतत्व जीवात्मा के समान नित्य होते हैं।
परमात्मा :- ईश्वर, नारायण, भगवान्, कृष्ण, पुरुषोत्तम, वैश्वानर इत्यादि पुराणोक्त नामों से इस तत्त्व का निर्देश होता है। यह स्वभावतः अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष, और अभिनिवेश इन दोषों से अलिप्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, कल्याणगुण-निधान, चतुर्व्यूहयुक्त, विश्व के उत्पत्ति स्थिति-लय का एकमात्र कारण और जीवों के कर्मफलों का प्रदाता है। यह सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी है। परमात्मा स्वयं आनंदमय एवं जीवों के आनंद का कारण है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इसी परमात्मा के अंग हैं। केवल अनन्य शरणागतों को परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है। मुक्त दशा में परमात्मा से एकरूप होने पर भी जीवात्मा की भिन्नता, प्रस्तुत भेदाभेदवादी मत में मानी जाती है।
के
निम्बार्क- - मतानुसार प्रति या अनन्यशरणागति ही एकमात्र मुक्ति का साधन है। प्रपत्ति के कारण जीव भगवान् अनुग्रह का पात्र होता है। इस अनुग्रह के कारण भगवान् की रागात्मिकी या प्रेममय भक्ति का उदय होता है जिस के प्रकाश से जीव समस्त क्लेशों से मुक्त होता है ।
निम्बार्क मतानुयायी वैष्णव संप्रदाय का प्रचार वृन्दावन और बंगाल में अधिक मात्रा में हुआ है। इस संप्रदाय में श्रीकृष्ण
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ही परमात्मा माने गये हैं। श्रीकृष्ण की कृपा शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, तथा उज्ज्वल इन पांच भावों से युक्त भक्ति द्वारा होती है। श्रीराधा श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है। राधा-कृष्ण में अविनाभाव संबंध है। क्रीडा के निमित्त एक ही ब्रह्म उन दो रूपों में प्रकट हुआ है।
9 तत्त्वसमन्वय भारतीय दर्शनों में जीव, जगत्, ईश्वर, परमात्मा आदि के विषय में गहन तात्त्विक विवेचन अत्यंत मार्मिकता से हुआ है। इस विवेचन में प्राचीन अनेक सूत्रकारों, भाष्यकारों, टीकाकारों ने अपनी तलस्पर्शिनी प्रज्ञा एवं क्रान्तदर्शिनी प्रतिभा का परिचय दिया है। इस विश्व का गूढ रहस्य तत्त्वजिज्ञासुओं के लिए अपने अपने दर्शनों द्वारा उद्घाटित करने का जो प्रयास उन्होंने किया, उसमें एक विशेष बात ध्यान में आती है कि तत्त्वों की संख्या के विषय में अन्याय दर्शनों में एकमत नहीं है। इस मत-वैविध्य के कारण सामान्य जिज्ञासु के सन्देह का निरास नहीं होता और उसकी जिज्ञासा कायम रहती है या उसकी श्रद्धा विचलित सी होती है। उपनिषदों के वाक्यों में जहां परस्पर विरोध सा प्रतीत हुआ वहां उनका समन्वय दार्शनिक भाष्यकारों ने मार्मिक उपपत्ति एवं समुचित उपलब्धि के द्वारा करते हुए जिज्ञासुओं का समाधान किया है, परंतु अन्यान्य दार्शनिकों के तत्त्वकथन में जो मतभेद निर्माण हुआ, उसका समाधान हुए बिना तत्त्वजिज्ञासु की जिज्ञासा शांत नहीं हो सकती।
श्रीमद्भागवत (स्कन्ध-11 अध्याय-22) में वही जिज्ञासा उध्ववजी ने भगवान् के समक्ष व्यक्त की है और उस मार्मिक जिज्ञासा का प्रशमन समस्त दार्शनिकों के दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण ने यथोचित युक्तिवाद से किया है। प्रस्तुत प्रकरण में उक्त समस्या का उपसंहार करने हेतु श्रीमद्भागवत के उसी अध्याय का सारांश उद्धृत करना हम उचित समझते हैं। उद्धव और श्रीकृष्ण के उस संवाद में इस मतभेद का समुचित समन्वय होने के कारण जिज्ञासुओं का यथोचित समाधान होगा यह आशा है।
उद्धव जी कहते है, "है प्रभो। विश्वेश्वर ।" आपने (19 वें अध्याय में) तत्त्वों की संख्या, नौ, ग्यारह, पांच और तीन अर्थात् कुल मिला कर अट्ठाईस बतायी है। किन्तु कुछ लोग छब्बीस, कोई पच्चीस, कोई सत्रह, कोई सोलह, कोई तेरह, कोई ग्यारह, कोई नौ, कोई सात, कोई छह, कोई चार; इस प्रकार ऋषिमुनि भिन्न भिन्न संख्याएं बताते हैं। वे इतनी भिन्न संख्याएं किस अभिप्राय से बतलाते हैं?
उद्धवजी की इस मार्मिक जिज्ञासा का प्रशमन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं :
"उद्धवजी! इस विषय में वेदज्ञ ब्राह्मणों ने जो कुछ कहा है, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सब में अन्तर्भूत हैं" जैसा तुम कहते हो वह ठीक नहीं है, जो मै कहता हूं वही यथार्थ है "इस प्रकार जगत् के कारण के संबंध में विवाद होता है। इस का कारण वे अपनी अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं। वस्तुतः तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इस लिये, वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिला कर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है। ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत से दूसरे तत्त्वों का अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किस में अन्तर्भाव हो। इसी लिये वादी-प्रतिवादियों में से जिस की वाणी ने, जिस कार्य को जिस कारण में, अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते है क्यों कि उनका वह उपपादन युक्तिसंगत ही है।
उद्धवजी! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि प्रकृति के कार्य-कारण रूप चौतीस तत्त्व, पच्चीसवां पुरुष और छब्बीसवां ईश्वर मानना चाहिए। पुरुष (या जीव) अनादि काल से अविद्याग्रस्त होने के कारण अपने आप को नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता होती है इसलिये छब्बीसवें ईश्वर तत्त्व को मानना आवश्यक है।
पच्चीस तत्त्व मानने वाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अंतर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेद की कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञान की बात! वह तो सत्त्वात्मिकी प्रकृति का गुण है, आत्मा का नहीं। इस प्रसंग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल स्वरूप ईश्वर है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। इस लिये पच्चीस और छब्बीस तत्त्वों की दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है।
तत्त्वों की संख्या अठ्ठाईस मानने वाले, सत्त्व, रज, और तम-तीन गुणों को मूल प्रकृति से अलग मानते हैं। (उनकी उत्पत्ति और प्रलय को देखते हुए वैसा मानना भी चाहिये) इन तीनों के अतिरिक्त, पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, और पंचभूतये नौ तत्त्व, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन (जो उभयेन्द्रिय है) और शब्दस्पर्शादि पांच (ज्ञानेन्द्रियों के) विषय सब मिला कर अठ्ठाईस तत्त्व होते हैं। इनमें कर्मेन्द्रियों के पांच कर्म (चलना, बोलना आदि) नहीं मिलाए जाते क्यों कि वे कर्मेन्द्रिय स्वरूप ही माने जाते हैं।
जो लोक तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं वे इस प्रकार तत्त्वों की गणना करते हैं- पांच भूत, पांच तन्मात्राएं, पांच
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ज्ञानेन्द्रियां, एक मन और एक आत्मा। जो लोग तत्त्वों की संख्या सोलह बतलाते हैं, वे आत्मा में मन का समावेश कर लेते हैं। जो लोग तेरह तत्व मानते हैं, वे आकाशादि पांच भूत, श्रोत्रादि पांच ज्ञानेन्द्रियां, एक मन, एक जीवात्मा और एक परमात्मा मानते हैं। ग्यारह तत्त्व मानने वाले पांच भूत, पांच ज्ञानेन्द्रियां और एक आत्मा का अस्तित्व स्वीकार करते हैं। नौ तत्त्व मानने वाले, पांच भूत, और मन, बुद्धि, अहंकार - ये आठ प्रकृतियां और नवां पुरुष - इन्हीं को मानते हैं।
जो लोग तत्त्वों की संख्या सात स्वीकार करते हैं, उनके विचार से पांच भूत, छठा जीव, और सातवां परमात्मा- (जो साक्षी जीव और साक्ष्य जगत् दोनों का अधिष्ठान है) ये ही तत्त्व हैं। देह, इन्द्रिय और प्राण आदि की उत्पत्ति पंचभूतों से ही हुई है, इस लिये वे उन्हें अलग नहीं गिनते।
जो लोग केवल छह तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे पांच भूत और परमपुरुष परमात्मा को ही मानते हैं। वह परमात्मा अपने बनाये हुए पंचभूतों से युक्त होकर देह आदि की सृष्टि करता है और उनमें जीव रूप से प्रवेश करता है। (इस मत के अनुसार जीव का परमात्मा में और शरीर आदि का पंचभूतों में समावेश होता है।
जो लोग चार ही तत्त्व स्वीकार करते हैं, वे आत्मा से तेज, जल, और पृथ्वी की उत्पत्ति और जगत् में जितने पदार्थ हैं सब इन्हीं से उत्पन्न मानते हैं।
सृष्टि के मूल तत्त्वों के संबंध में दार्शनिकों ने जो मतभेद व्यक्त किये हैं, उसी प्रकार के मतभेद श्रीमद्भागवत के निर्माता के समय में भी थे। भागवतकार ने उद्धव-कृष्ण संवाद के द्वारा उन मतभेदों का समाधान साक्षात् श्रीकृष्ण के उद्गारों से जिस पद्धति से किया उसी पद्धति से अन्यान्य दर्शनों के तत्त्वविषयक मतभेदों का समाधान होना असंभव नहीं। "बुद्धेः फलम् अनाग्रहः” इस सुभाषित के अनुसार साम्प्रदायिकता के आग्रह या दुराग्रह का त्याग करने वाले अपना और दूसरों का समाधान कर सकते हैं। समाधान की यह पद्धति भगवान् श्रीकृष्ण ने बताई है।
10 शैवदर्शन - एवं संप्रदाय वेदों के रुद्रदेवता विषयक सूक्तों में एवं मैत्रायणी संहिता, श्वेताश्वतर उपनिषद्, अर्थर्वशिरस् उपनिषद, स्कंदपुराण, लिंगपुराण आदि शैव पुराणों में रुद्र तथा शिवस्वरूप में परमात्मा की स्तुति हुई है। वैदिक सूक्तों में जिस रुद्र का वर्णन हुआ है उस देवता के वास्तव स्वरूप के विषय में आधुनिक यूरोपीय एवं भारतीय विद्वानों ने शोधपत्रिकाओं द्वारा यत्र तत्र चर्चा की है, जिस में वैदिक रुद्र याने हिमागिरी, अग्नि, सूर्य, व्याधतारा अथवा मनस्तत्त्व इत्यादि प्रकार के मत प्रतिपादित हुए हैं। वैदिक और पौराणिक वाङ्मय में रुद्र के वर्णन में गिरिश (पर्वत पर शयन करने वाला) गिरीश (पर्वतों का ईश), नीलकंठ, वृषभवाहन, कपर्दी (अर्थात जटाजूटधारी), भव, शर्व, भूतेश, पशुपति, पिनाकी, कृत्तिवासा, कपालभृत्, शूली, वामदेव, महादेव, त्रिलोचन, त्र्यंबक, पंचमुख, चतुर्मुख, त्रिमुख, श्मशानवासी, भस्मधारी, चंद्रशेखर, नीललोहित, इत्यादि विविध-प्रकार के विशेषणों का प्रयोग हुआ है। शैव सम्प्रदायों में जिस शिवस्वरूपी परमात्मा की उपासना होती है, उसका माहात्म्य जिन पौराणिक कथाओं में वर्णन किया है उनमें इन्हीं रुद्र विषयक विशेषणों का प्रयोग सर्वत्र होने के कारण वैदिक रुद्र तथा पुराणोक्त शिव में एकता के संबंध में संदेह नहीं होता।
भगवान् शिव की उपासना मूर्तिस्वरूप की अपेक्षा लिंगस्वरूप में ही सर्वत्र होती है। शिवलिंग की वास्तवता के विषय में भी आधुनिक विद्वानों ने काफी चर्चा की है। पुराणों एवं महाभारत में "शिवलिंग" याने उमा-महेश्वर के जननेन्द्रिय (योनि
और शिश्न) होने के प्रमाण कथाओं एवं वचनों में मिलते है। पैरिस की धर्मपरिषद में गुस्ताव ओपर्ट नामक जर्मन पंडित ने शैवों का शिवलिंग पुरुष के जननेद्रिय का और वैष्णवों का शालिग्राम स्त्री के जननेन्द्रिय का प्रतीक, अपने निबध में प्रतिपादन में कहा था। उसी परिषद में स्वामी विवेकानंदजी ने अनेक प्रमाण दे कर शिवलिंग यज्ञीय यूपस्तंभ का प्रतीक सिद्ध किया था। शिवलिंग को बौद्ध "स्तूप" की प्रतिमा माननेवाले भी युक्तिवाद रखे जाते हैं।
___भारत के सभी प्रदेशों में शैवसंप्रदाय तथा शिव की उपासना अति प्राचीन काल से विद्यमान है। इन शैव संप्रदायों के पाशुपत और आगमिक नामक दो वर्ग होते हैं। पाशुपत वर्ग में नकुलीश, कापालिक, कालमुख, नाथ, एवं रसेश्वर इत्यादि प्राचीन पंथों का अंतर्भाव होता है, और आगमिक वर्ग में काश्मीर, कर्नाटक और तामीलनाडु के शैव संप्रदायों का अन्तर्भाव होता है।
(अ) पाशुपत दर्शन। वायु पुराण के पूर्वभाग में "पशुपति" अर्थात् जीव और जगत् स्वरूप “पशु" के अधिपति के मत का उल्लेख 11 से 15 वें अध्यायों में मिलता है। इस मत के संस्थापक लकुली नामक योगी थे। अतः इस दर्शन को लकुलीश या नकुलीश दर्शन कहते हैं। गुणरत्न ने नैयायिकों को शैव और वैशेषिकों को "पाशुपत" कहा है। न्यायवार्तिक के रचयिता उद्योतकर ने "पाशुपताचार्य" की उपाधि से अपना परिचय दिया है। माधवाचार्य के सर्वदर्शन संग्रह में, राजशेखरसूरि के षड्दर्शन-समुच्चय में भी सर्वज्ञ की गणि-कारिका में इस मत का परिचय दिया गया है। महेश्वरचित पाशुपतसूत्र (कौण्डिन्यकृत पंचार्थी भाष्य
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सहित) इस दर्शन का मूलग्रंथ माना जाता है। 15 वीं शताब्दी में अद्वैतानन्द ने अपने ब्रह्मविद्याभरण नामक ग्रंथ में पाशुपतमत का स्वतंत्र प्रतिपादन किया है।
पाशुपत मतानुसार पदार्थ पांच प्रकार के होते हैं. (1) कार्य, (2) कारण (3) योग, (4) विधि और (5) दुःखान्त :- (1) विद्या, (2) कला और (3) पशु जीव और जड दोनों का अन्तर्भाव कार्य में होता है क्यों कि दोनों परतंत्र होने से परमेश्वर के अधीन है।
कार्य तीन प्रकार का होता है
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विद्या- दो प्रकार की होती है। (1) बोध (चित्त) और अबोध (अर्थात जीवत्व की प्राप्ति कराने वाले धर्माधर्म) । कला के दो प्रकार — (1) कार्यरूपा (पंचभूत और उनके गुण) । (2) कारणरूपा (दस इन्द्रियां, मन, बुद्धि और अहंकार) पशु (अर्थात् जीव ) के दो प्रकार (1) सांजन (शरीरेन्द्रिय से संबद्ध) और निरंजन (शरीरेन्द्रिय विरहित ) ।
(2) कारण जगत् की उत्पत्ति, स्थिति, संहार करने वाले महेश्वर यह ज्ञानशक्ति, प्रभुशक्ति और अनुग्रहशक्ति के आश्रय होते हैं। (3) योग चित्त के द्वारा आत्मा तथा ईश्वर का संयोग । इसके दो प्रकार और (2) क्रियोपरम (भक्ति)
(1) क्रियात्मक (जप, ध्यान आदि)
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(4) विधि - इस के दो प्रकार (1) व्रत और (2) द्वार। व्रत के पांच प्रकार- भस्मस्नान, जप, प्रदक्षिणा आदि । द्वार के क्राथन, स्पन्दन, मन्थन आदि प्रकार होते हैं। इन विधियों से महेश्वर की आराधना होती है।
(5) दुःखान्त (अर्थात् मोक्ष) के दो प्रकार- (1) अनात्मक ( जिसमें दुःखों की आत्यंतिक निवृत्ति होती है । ( 2 ) सात्मक जिसमें दुक्शक्ति और क्रियाशक्ति की सिद्धियां प्राप्त होती है।
पाशुपत वर्ग के कापालिक और कालमुख संप्रदायों में शवभस्मस्नान, कपालपात्रभोजन, सुराकुंभ स्थापन जैसे विधि अदृश्य सिद्धिप्रद माने गये हैं। रसेश्वर दर्शन में पारद (पारा) को शिवजी का वीर्य एवं रसेश्वर माना है। गन्धक को पार्वती का रज माना है। इन दोनों के मिलने से जो भस्म सिद्ध होता है उससे मनुष्य का शरीर योगाभ्यास के पात्र होता है जिससे आत्मदर्शन होता है। इन संप्रदायों का समाज में विशेष प्रचार नहीं है। कापालिक परंपरा में आदिनाथ, अनाथ, काल, अतिकालक, कराल, विकराल, महाकाल, काल भैरवनाथ, बाहुक, भूतनाथ, वीरनाथ और श्रीकंठ नामक बारह श्रेष्ठ कापालिक माने जाते हैं। तंत्रशास्त्र की निर्मिति इन्हीं के द्वारा मानी जाती है।
शैवों के नाथ संप्रदाय परंपरा के अनुसार "आदिनाथ” अर्थात् साक्षात् शिवजी आदिगुरु माने जाते हैं। शिवजी ने पार्वती जी को जो गूढ आध्यात्म का उपदेश दिया, उसका ग्रहण मत्स्येन्द्रनाथ ने किया। ऐतिहासिक दृष्टि से मत्स्येंद्रनाथ ही इस संप्रदाघ के प्रवर्तक माने जाते हैं। इनकी परम्परा में गोरक्ष, जालंदर, कानीफ, चर्पट, भरत और रेवण नामक नौ "नाथ" हुए। सांप्रदायिक धारणा के अनुसार श्रीमद्भागवत के 11 वें स्कन्ध में उल्लेखित कवि, हरि, अन्तरिक्ष, प्रबुद्ध, पिप्पलायन, अविर्होत्र द्रुमिल, चमस, और करभाजन, इन नौ सिद्धों के अवतार नवनाथ माने जाते हैं। सभी नाथों की कथाएं अदभुतता से परिपूर्ण हैं। इनके संप्रदाय में हठयोगप्रदीपिका, गोरखबोध, जैसे ग्रंथ प्रमाण हैं और मंत्रतंत्रों एवं सिद्धियों के प्रगति विशेष आग्रह है । नाथ पंथ में जातिभेद नहीं माना जाता।
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आगमिक वर्गीय शैव संप्रदायों में तमिलनाडु के नायन्मार नामक सत्पुरुषों द्वारा प्रवर्तित संप्रदाय का अन्तर्भाव होता है । नायनमारों की कुल संख्या 63 है जिनमें अप्पर, सुन्दर, माणिक्क, वासगर (या वाचकर), ज्ञानसंबंधर विशेष प्रख्यात हैं। "तेवारम्" नामक प्राचीन तामिलभाषीय काव्यसंग्रह में इन चार नावमारों के शिवभक्तिपूर्ण काव्यों का संकलन किया है। "तेवारम्" के प्रति सांप्रदायिकों में नितांत प्रामाण्य एवं श्रद्धा है। दक्षिण भारत के अनेक शिवमंदिरों में एवं उनके गोपुरों पर नायन्मार संतों की मूर्तियां होती हैं, जिन की लोग पूजा करते हैं। ई. 12 वीं शताब्दी में मेयकण्डदेव नामक शैवाचार्य ने तामिलनाडु के इस शैवमत को दार्शनिक प्रतिष्ठा, अपने शिवज्ञानबोध नामक ग्रंथद्वारा प्राप्त करा दी। इस संप्रदाय के सभी प्रमाणभूत ग्रंथ तामिलभाषी है शैवसिद्धान्तों पर आधारित यह एक भक्तिनिष्ठ तंत्रमार्ग है।
(आ) वीरशैव मत
सान्प्रदायिक परंपरा के अनुसार कलियुग में वीरशैव मत की स्थापना, रेवणसिद्ध मल्लसिद्ध, एकोराम, पंडिताराध्य और विश्वाराध्य इन पांच आचार्यो द्वारा हुई। इन पांच आचार्यो में रेवणसिद्धाचार्य 14 सौ वर्ष जीवित थे और उन्होंने श्रीशंकराचार्य जी को "चन्द्रमौलीश्वर" नामक शिवलिंग नित्य उपासना के हेतु दिया था। इन आचार्यो द्वारा स्थापित शैव मठ भारत में अन्यान्य स्थानों में विद्यमान है, जहां मठ, मठपति, स्थावर, गणगाचार्य और देशिक नाम के पांच उपाचार्य कार्यभार सम्हालते हैं। केदारनाथ, श्रीशैल उज्जयिनी, वाराणसी और बलेही इन पांच क्षेत्रों में वीरशेव संप्रदाय के प्रमुख पीठ विद्यमान हैं।
वीरशैव संप्रदाय में 63 "पुरातन" (प्राचीन साधुपुरुष) और 770 "नूतन पुरातन" ( सुधारवादी सत्पुरुष) पूज्य माने जाते
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 179
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हैं। इस संप्रदाय का स्वरूप एकेश्वरवादी है जिसमें ब्रह्मा, विष्णु रुद्र (त्रैमूर्ति) के अतिरिक्त महाशिव को परमेश्वर माना जाता है। वीरशैव दर्शन के अनुसार सृष्टि का स्वरूप द्विविध है- (1) प्राकृत (ब्रह्मनिर्मित) और (2) अप्राकृत (शिवनिर्मिति) । भगवान् शिवद्वारा जिन का निर्माण हुआ वे नन्दी, भंगी, रेणुक, दारुक आदि मायातीत होने के कारण अप्राकृत हैं। ज्ञानशक्ति
और क्रियाशक्ति से युक्त चैतन्य ही शिवतत्त्व है जो चिदचिद्विशिष्ट अद्वैतस्वरूप है। वीरशैव संप्रदाय के इस प्रकार के तत्त्वज्ञान को "सगुणब्रह्मवाद"- कहा जा सकता है। पदार्थत्रय- पशु, पाश और पति-तीन पदार्थ हैं। नित्यमुक्त, आधिकारिक,बद्ध और केवल जड इस प्रकार के पशु (जीवमात्र) के उच्चनीच अवस्था के अनुसार भेद होते हैं। त्रिविध दीक्षा- साधक को दीक्षा देने का अधिकारी उसका गुरु होता है। वीरशैव संप्रदाय में 21 प्रकार की दीक्षाएं सम्मत हैं जिनमें वेधदीक्षा, मंत्रदीक्षा और क्रियादीक्षा प्रमुख मानी जाती हैं। चतुर्विध शैव- उपासना की उत्कटता के अनुसार शैवों के चार प्रकार माने जाते हैं:- (1) सामान्य शैव- जो स्वयंभू, आर्ष, दैव और मानुष शिवलिंगो का यदृच्छया दर्शन होने पर पूजन करता है। (2) मिश्र शैव- शिवपंचायतन (शिव, अंबिका, शालिग्राम, गणपति और सूर्य) की नित्य पूजा करने वाला। (3) शुद्ध शैव- मंत्र, तंत्र, मुद्रा, न्यास, आवाहन, विसर्जन को ठीक जानते हुए, दीक्षा ग्रहण कर, परहितार्थ प्रतिष्ठित शिवलिंगों की पूजा करने वाला। (4) वीर शैव - दीर्घव्रत और उपवास न करते हुए केवल शिवलिंग की आराधना द्वारा मुक्ति प्राप्त करने वाला। वीर शैव के तीन प्रकार:- (1) सामान्य- जो जंगम गुरु और शिवलिंग के अतिरिक्त अन्य देवता की पूजा नहीं करता। (2) विशेषअष्टावर्ण (गुरु, लिंग, जंगम, विभूति, रूद्राक्ष, चरणतीर्थ, प्रसाद और मंत्र) से सम्पन्न, और कर्मयज्ञादि पंचयज्ञ करने वाला। (3) निराभारी वीरशैव - वर्ण-आश्रम का त्याग और सर्वत्र संचार करते हुए उपदेश देने वाला योगी। विशेष वीरशैव के पंचयज्ञ- (1) कर्मयज्ञ (नित्यशिवार्चन), (2) तपोयज्ञ (शरीरशोषण), (3) जपयज्ञ (शिवपंचाक्षर, प्रणव और रुद्रसूक्त का जप), (4) ध्यानयज्ञ और (5) ज्ञानयज्ञ - (शैवागम का श्रवण-मनन)। ।
वीरशैव सम्प्रदाय में शिवलिंग का नितान्त महत्त्व माना गया है। अतः इस सम्प्रदाय को लिंगायत संप्रदाय कहते हैं। लिंगायत लोग गुरुद्वारा प्राप्त शिवलिंग शरीरपर धारण करते हैं और लिंगपूजन बिना वे जल-अन्नादि ग्रहण नहीं करते।
ई-11 वीं शताब्दी मे बसवेश्वर द्वारा कर्नाटक में वीरशैव संप्रदाय का विशेष प्रचार हुआ। बसवेश्वर इस संप्रदाय के महान सुधारक एवं प्रचारक थे। इन का कार्यक्षेत्र कर्नाटक में ही होने के कारण कन्नड भाषा में संप्रदायनिष्ठ वाङ्मय प्रभूत मात्रा में निर्माण हुआ। स्वयं बसवेश्वर, हरीश्वर (या हरिहर), राघवांक, केरेयपद्मरस, पालकुरिके सोम, भीमकवि, जैसे लेखकों का साहित्य संप्रदाय में मान्यताप्राप्त है। इस के अतिरिक्त संस्कृत में शैवागम नामक 28 ग्रंथ, शिवगीता, श्रुतिसारभाष्य, सोमनाथभाष्य, रेणुकभाष्य, शिवाद्वैतमंजरी, सिद्धान्तशिखामणि, वीरशैवचिन्तामणि, वीरमाहेश्वराचारसंग्रह, वीरशैवाचारकौस्तुभ, इत्यादि ग्रंथों का विशेष महत्त्व है। भगवान व्यास ने ब्रह्मसूत्र में शिवलिंग का ही महत्त्व वर्णन किया है। यह विचार नीलकण्ठभाष्य तथा एकरेणुकभाष्य में प्रतिपादन किया है। इस संप्रदाय के अनुसार चारों वेदों की उत्पत्ति शंकरजी के निःश्वसितों से होने के कारण वेद तथा उपनिषद, शैवपुराण वाङ्मय और वेदानुकूल स्मृतिग्रंथ प्रमाण माने जाते हैं।
(इ) काश्मीरी शैवमत शैवमत की एक परंपरा काश्मीर में प्रचलित हुई जिसके प्रवर्तकों में दुर्वासा, त्र्यंबकादित्य, संगमादित्य, सोमानन्द इत्यादि नाम उल्लिखित हैं। इस शैव दर्शन का उदयकाल तृतीय शती माना जाता है। सोमानन्द का समय ई. 9 वीं शती माना जाता है। इन के समसामयिक वसुगुप्त, तथा कल्लट का कार्य भी प्रस्तुत दर्शन की परंपरा में महत्त्व रखता है। सोमानंद के शिष्य उत्पलदेव (ई. 9 वीं शती), उनके शिष्य लक्ष्मणगुप्त और उनके शिष्य अभिनवगुप्ताचार्य (ई. 10-11 वीं शती) एक अलौकिक विद्वान् थे। ई. 11 वीं शती में अभिनवगुप्ताचार्य के शिष्य क्षेमराज ने इस मत की स्थापना में सहयोग दिया।
काश्मीरी शैवमत का निर्देश प्रज्ञभिज्ञादर्शन, स्पन्दशास्त्र, षडर्धशास्त्र, षङर्थक्रमविज्ञान, त्रिकदर्शन इत्यादि नामों से होता है।
प्रज्ञभिज्ञादर्शन- अज्ञान की निवृत्ति के अनन्तर, जीव को गुरुवचन से ज्यों ही यह ज्ञान होता है कि मैं शिव हूँ". त्यों ही उसे तुरंत आत्मस्वरूप (शिवत्व) का साक्षात्कार हो जाता है। "प्रत्यभिज्ञा" इस पारिभाषिक शब्द का आशय "सोऽयं देवदत्तः" याने कुछ समय पूर्व जिस देवदत्त को देखा था, वही यह देवदत्त है, इस उदाहरण द्वारा स्पष्ट किया जाता है। इसी प्रकार की प्रत्यभिज्ञा जीव के अंतःकरण में शिव के प्रति श्रवणादि साधन एवं गुरु का उपदेश के कारण उत्पन्न होती है। प्रत्यभिज्ञा सिद्धान्त के प्रतिष्ठापक ग्रन्थों में सोमानन्द के शिष्य उत्पलदेवकृत ईश्वर-प्रत्यभिज्ञाकारिका (जिसे सूत्र कहते हैं), अभिनव-गुप्ताचार्यकृत 180/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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लम्बी और बृहती नामक दो व्याख्याएं (जो विमर्शिनी नाम से विदित है विशेष प्रसिद्ध है अभिनवगुप्तकृत व्याख्याएं स्वप उत्पलदेव कृत वृत्ति तथा विवृत्ति टीकाओं पर लिखी गयी हैं। उनमें वृत्ति अधूरी प्राप्त है और विवृत्ति अप्राप्त है। अतः "सूत्र " और विमर्शिनी व्याख्याएं ही इस सिद्धान्त के आधारभूत ग्रन्थ है। अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज (ई-11 वीं शती) कृत शिवसूत्र विमर्शिनी, प्रत्यभिज्ञाहृदय एवं स्पन्दसन्देह और भास्करकण्ठ (ई. 18 वीं शती) कृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञाटीका ( या भास्करी), भी प्रत्यभिज्ञादर्शन के आकलन के लिये उपादेय हैं।
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स्पन्दशास्त्र सोमानन्द के कनिष्ठ समसामायिक वसुगुप्त द्वारा काश्मीरी स्पन्द सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना मानी जाती है स्पन्दकारिका नामक 71 कारिकाओं की रचना वसुगुप्त द्वारा ही मानी जाती है। शिवसूत्र के प्रणयन का श्रेय भी वसुगुप्त को ही दिया जाता है। संप्रदायानुसार माना जाता है की भगवान् श्रीकण्ठ ने स्वप्न में वसुगुप्त को आदेश दिया था कि महादेव गिरि के एक विशाल शिलाखंड पर उट्टंकित शिवसूत्रों का उद्धार और प्रचार करो। इन सूत्रों की संख्या 77 है। वसुगुप्त की स्पन्दकारिका पर राजानक रामकण्ठ ने विवृत्ति नामक टीका लिखी है। शिवसूत्र पर क्षेमराज ने विभर्शिनी टीका लिखी है स्पन्दकारिका शिवसूत्रों का संग्रह उपस्थित करती है इस तथ्य का प्रतिपादन क्षेमराज ने शिवसूत्र -विमार्शिनी में किया है। स्पन्दशास्त्र के अनुसार, परमेश्वर की खातंत्र्यशक्ति ही किंचित् चलनात्मक होने के कारण "स्पन्द" कही जाती है। स्पन्दकारिका पर भट्टकल्लट (ई. 9 वी शती) की स्पन्दसर्वस्व वृत्ति, उत्पलवैष्णव (10 ओं शती) कृत स्पन्दप्रदीपिका, क्षेमराज (11 वीं शती) कृत स्पन्दसन्देह और स्पन्दनिर्णयवृत्ति उल्लेखनीय टीकाएं हैं।
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त्रिकदर्शन- काश्मीरी शैव दर्शन को प्रस्तुत संज्ञा प्राप्त होने का कारण है: सिद्धातंत्र नामकतंत्र तथा मालिनीतंत्र इन तीन तंत्रों का आधार इस मत में पर, अपर और परापर रूप तीन "त्रिक" माने जाते हैं। (1) शिव, शक्ति तथा उनका संघट्ट " पर त्रिक", (2) शिव, शक्ति तथा नर "अपर त्रिक" और (3) परा, अपरा, परापरा ये तीन अधिष्ठात्री देवियां "परापर त्रिक" नाम से प्रख्यात हैं। इन तीनों त्रिकों के आधार पर प्रतिष्ठित होना "त्रिकदर्शन" संज्ञा का कारण है ।
षडर्धशास्त्र - काश्मीरी शैव दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त के अनुसार लिपि के प्रथम छह स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊउसी उन्मेषक्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिस क्रम से "अनुत्तर, आनंद, इच्छा, ईशना, उन्मेष तथा ऊर्मि" इन शक्तियों का परम शिव तत्त्व से उल्लासन होता है। इन में से आनंदशक्ति, ईशानशक्ति तथा ऊर्मिशक्ति क्रमशः अनुत्तर, इच्छा तथा उन्मेष पर आधारित होती हैं और उन्ही की किंचित् विकासोन्मुख अवस्थाएं हैं। अनुत्तर, इच्छा तथा उन्मेष क्रमशः चित्, इच्छा और ज्ञान कहलाती है। षडर्धशासन इसी तत्त्व की और संकेत करता है।
काश्मीरीय साधकों में शैवों के समान कौलमार्ग साधकों का संप्रदाय प्रचलित है अभिनवगुप्ताचार्य कौलमान थे। कौल ज्ञाननिर्णय में पंचमकार और पंच पवित्र की चर्चा आती है। पंच मकार में मद्य, मांस, मंदिरा-मत्स्य और मैथुन इन पांचों की गणना होती है और पंच पवित्र में विषय, धारामूत, शुक्र, रक्त और मज्जा इन का अन्तर्भाव होता है। कौलमार्ग में गुप्तता पर विशेष आग्रह होने के कारण, इन लौकिक शब्दों के गूढ अर्थ अलग प्रकार के होते हैं जैसे मैथुन का अर्थ शिव और शक्ति का समरसीकरण होता है। कौलमार्गीयों में भक्ष्याभक्ष्य का कोई विधि निषेध तथा जातिभेद नहीं होता। कुण्डलिनीशक्ति का उद्बोधन इस मार्ग का उद्दिष्ट माना गया है। प्रत्येक जीव, कुण्डलिनी और प्राणशक्ति के साथ माता के उदर में प्रविष्ट होता है। जन्म होने पर भी सामान्यतः जीव जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में जीवन व्यतीत करता है। इन अवस्थाओं में कुण्डलिनी निश्चेष्ट रहती है। उसका उद्बोधन कौल साधना से किया जाता है। इस साधना में पशु वीर एवं दिव्य नामक साधकों की अवस्थाएं मानी जाती हैं। सामान्य संसारासक्त साधक पशु अवस्था में होता है। वह जब अधिक उत्साह से साधनमार्ग में प्रवृत्त होता है, तब वह "वीर" कहलाता है। वह जब आत्मानंद की उच्चतम अवस्था में जाता है उसे "दिव्य" साधक कहते है कोलज्ञाननिर्णय में कौलसद्भाव, पदोत्रिक, महत्कौल, सिद्धामृतकौल, मत्स्योदर कौल इत्यादि शाखाओं का निर्देश किया है। संप्रदाय के अनुसार यह मार्ग यज्ञयागादि मार्ग से अधिक श्रेयस्कर माना जाता है। कौल साधकों के नित्य आचार में त्रिकालिक पूजा, नित्यजप, तर्पण, होम, ब्राह्मणभोजन इस पांच विधियों पर विशेष आग्रह होता है। कौलमार्गी, स्त्रियों के प्रति अत्यंत आदर रखते है ।
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कौल शब्द "कुल" शब्दसे निष्पन्न होता है। कुल शब्द के अन्यान्य अर्थ माने जाते हैं- (1) मूलाधारचक्र (2) जीव, प्रकृति, दिक्, काल, पृथ्वी, आप, तेज, वायु आकाश इन नौ तत्त्वों की "कुल" संज्ञा है । (3) श्रीचक्र के अन्तर्गत त्रिकोण (इसी को योनि भी कहते हैं) सौभाग्यभास्कर ग्रंथ में कौलमार्ग शब्द का स्पष्टीकरण "कुल शक्ति, अकुल शिव कुल से अकुल का अर्थात् शक्ति से शिव का संबंध ही कौल है। कौलमत के अनुसार शिवशक्ति में कोई भेद नहीं है। उन का संबंध अग्नि- धूम या वृक्ष छाया के समान नित्य होता है।
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इतिहास के अनुसार 12 वीं शताब्दी में बल्लालसेन ने बंगाल में कौलपंथ का प्रचार किया। 13 वीं शती में मुसलमानी आक्रमकों के अत्याचारों से कौल पंथ की हानि हुई । उन के ग्रंथों का विध्वंस हुआ। 15 वीं शताब्दी में देवीवरबंधु नामक
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 181
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सत्पुरुष ने कामरूप में कामाख्या देवी की आराधना की और पंथ में कुछ व्यवस्था निर्माण की। कामाख्या आज भी कौलमार्गियों का मुख्य स्थान है।
कौलाचार का विरोधी मार्ग समयाचार कहलाता है। श्रीशंकराचार्य समयाचार मार्गी थे। इस मार्ग में श्रीविद्या की उपासना तथा अंतरंग योग साधना को विशेष महत्त्व होता है । श्रीशंकराचार्य का सौंदर्यलहरी स्तोत्र, कवित्व तथा तांत्रिकत्व की दृष्टि से एक अपूर्व ग्रंथ होने के कारण इस मार्ग में उस स्तोत्र का विशेष महत्त्व माना जाता है। सौंदर्यलहरी पर 35 टीकाएं उपलब्ध हैं जिनमें नरसिंह, कैवल्याश्रम, अच्युतानन्द, कामेश्वरसूरि, लक्ष्मीधर की टीकाएं विशिष्ट महत्त्व रखती हैं ।
11 शुद्धाद्वैतवादी
वल्लभमत
सन् 1479 में वैशाख वद्य एकादशी को लक्ष्मणभट्ट और एल्लमा गारू के पुत्र वल्लभ का जन्म हुआ। किशोरावस्था में ही यह बालक सर्वशास्त्रपारंगत हुआ। उसी अवस्था में उसे “बालसरस्वती" "वाक्पति" इत्यादि महनीय उपाधियाँ विद्वत्सभा द्वारा प्राप्त हुई। विजयनगर की राजसभा में वल्लभाचार्य ने शांकरमत का खंडन किया। बाद में वे मथुरा में निवासार्थ रहे थे, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वप्न साक्षात्कावर में अपनी उपासना का प्रचार करने का आदेश उन्हें दिया। उसी निमित्त उन्होनें जो सम्प्रदाय प्रवर्तित किया वह "पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय" नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । वल्लभाचार्य ने कुल सोलह ग्रंथों की रचना की जिनमें (1) ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, ( 2 ) तत्त्वदीप-निबंध ( श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों का प्रतिपादक ग्रंथ), (3) सुबोधिनी (श्रीमद्भागवत के 1, 2, 3 और 10 स्कन्धों पर टीका), (4) भागवतसूक्ष्मटीका, (5) पूर्वमीमांसाभाष्य और सिद्धान्त - मुक्तावली । इन ग्रन्थों द्वारा वल्लभाचार्य का प्रगाढ पांडित्य व्यक्त हुआ है। वल्लभाचार्य के सुपुत्र विठ्ठलनाथ ने इसी विचार धारा का प्रचार अपने निबंधप्रकाश, विद्वन्मण्डन, शृगांररसमंडन इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अपने पिताजी के ग्रंथों पर टीकाएं लिख कर किया । कृष्णचंद्र ने अणुभाष्य पर भावप्रकाशिका नामक उत्कृष्ट व्याख्या लिखी। उनके उपनिषद्दीपिका, सुबोधिनी-प्रकाश, आवरण, प्रस्थान- रत्नाकर, सुवर्णसूक्त, अमृततरंगिणी (गीता की टीका षोडशग्रंथनिवृत्ति आदि पांडित्यपूर्ण ग्रंथ पुष्टिमार्गी (अर्थात् शुद्धाद्वैती) सम्प्रदाय में मान्यताप्राप्त हैं। कृष्णचंद्र के शिष्य पुरुषोत्तम ने अणुभाष्य पर भाष्यप्रकाशिका नामक टीका लिखी है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त गिरिधराचार्यकृत शुद्धाद्वैतमार्तण्ड, हरिहराचार्यकृत ब्रह्मवाद और भक्तिरसास्वाद, प्रजनाथकृत मरीचिका, वालकृष्णभट्ट (या लालूभट्ट) कृत प्रमेयरत्नालंकार, विज्ञानभिक्षुकृत विज्ञानामृत, इत्यादि ग्रंथ शुद्धाद्वैती वेदान्त की परंपरा में सर्वमान्य हैं। वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गी वैष्णव सम्प्रदाय मे वेदान्त के शुद्धाद्वैत सिद्धान्त को मान्यता है ।
शुद्धाद्वैत तत्त्वविचार
वल्लभाचार्य के दार्शनिक विचार में ब्रह्म, माया से अलिप्त अतः नितान्त शुद्ध है। इसी कारण इस मत को "शुद्ध अद्वैत" कहा गया है। ब्रह्म सर्वधर्मविशिष्ट होने से उसमें विरुद्ध धर्मों की स्थिति भी नित्य एवं स्वाभाविक है। यह संसार ब्रह्म की लीलाओं का विलासमात्र है, मायाकल्पित नहीं। ब्रह्म के तीन प्रकारः ( 1 ) परब्रह्म (2) अक्षरब्रह्म और (3) जगत् । कार्यकारण में अभेद होने से कार्यरूप जगत् और कारणरूप ब्रह्म में भेद नहीं है। जिस प्रकार लपेटा हुआ कपडा फैलाने पर वही रहता हैं, उसी प्रकार आविर्भाव दशा में जगत् तथा तिरोभावरूप में ब्रह्म एक ही है। जगत् की सृष्टि एवं संहार, परब्रह्म की लीलामात्र है। इसमें कर्ता का कोई प्रयास तथा उद्देश्य नहीं है । जगत् की उत्पत्ति और उपसंहार के समान अनुग्रह या "पुष्टि" भी परमात्मा की नित्यलीला का एक विलास है। शरणागत भक्तों को साधननिरपेक्ष मुक्तिप्रदान करने के लिए ही भगवान् यथाकाल अवतार ग्रहण करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म हैं जिन्होंने अपने अविर्भाव काल में अजामिल, अघासुर, व्रजवधू, बकी, कंस, शिशुपाल आदि अनेकों को मुक्ति दी जो साधननिरपेक्ष थी।
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सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् एवं आनंदघन ब्रह्म स्वेच्छा से अपने गुणों को तिरोहित कर, अग्नि से स्फुलिंग के समान जीवरूप प्रहण करता है। यह जीव ज्ञाता, ज्ञानस्वरूप अणुरूप तथा नित्य है । जीव तथा जगत् परबा के परिणाम स्वरूप हैं, परंतु परिणाम होने से ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता ।
182 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
जिस प्रकार कटक - कुण्डलादि अलंकार सुवर्ण से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार चिदंश जीव, ब्रह्म से अभिन्न है । जीव के प्रमुख तीन प्रकार हैं (1) शुद्ध (2) मुक्त और (3) संसारी। संसारी जीव के दो प्रकार :- दैव और आसुर देव जीव के दो प्रकार :- मर्यादामागीय और पुष्टिमार्गीय मुक्तजीवों में कतिपत जीवमुक्त और कतिपय मुक्त होते है। मुक्त अवस्था में आनन्द अंश को प्रकटित कर जीव सच्चिदानंद ब्रह्मस्वरूप होता है।
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जगत् के विषय में वल्लभाचार्य "अविकृत परिणाम बाद" का स्वीकार करते हैं अहा से जगत् का परिणाम होता है, परंत दूध से दही का परिणाम होने पर, जिस प्रकार दूध में विकार उत्पन्न होता है, उस प्रकार ब्रह्म में कोई विकार नहीं होता ! सोने से अनेक अलंकार बनने पर भूल सुवर्ण में कोई विकार नहीं होता ।
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वल्लभमतानुसार अविद्या के पांच पर्व होते हैं :- स्वरूपाज्ञान, देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अन्तःकरणाध्यास । इसी अविद्या के द्वारा कल्पित ममतारूप पदार्थ को वल्लभाचार्य "संसार" कहते हैं, जो ईश्वरेच्छा के विलास से सदंशतः प्रादुर्भूत जगद्प पदार्थ से सर्वथा भिन्न है। संसार का कारण अविद्या है जिसका विलय विद्या (या तत्त्वज्ञान) के कारण होता है। अविद्या का लय होने पर संसार का भी नाश होता है परंतु जगत् परब्रह्म का ही आधिभौतिकस्वरूप होने के कारण, उस का विनाश नहीं होता। वह ब्रह्म तथा जीव के समान ही नित्य पदार्थ है।
वल्लभमत के अनुसार परमात्मा के तीन प्रकार होने के कारण, उस की प्राप्ति के भी उपाय (या मार्ग) तीन माने जाते हैं :- (1) कर्ममार्ग (आधिभौतिक स्वरूप की प्राप्ति के लिए) (2) ज्ञानमार्ग (आध्यात्मिक - अक्षरब्रह्म की प्राप्ति के लिये) और (३) पुष्टिमार्ग या भक्तिमार्ग, आधिदैविक - परब्रह्म की उपलब्धि के लिये)
"पुष्टि" का अर्थ है भगवान् का अनुग्रह। यह अर्थ “पोषणं तदनुग्रह" इस भागवतवचन से लिया गया है। इस पुष्टि के विविध प्रकार माने गये हैं :- (1) महापुष्टि-ऐसा अनुग्रह जिस के कारण संकट निवारण होकर ईश्वरप्राप्ति होती है। (2) असाधारणपुष्टि- (या विशिष्ट पुष्टि) जिस अनुग्रह के कारण ईश्वरभक्ति उदित होकर ईश्वरप्राप्ति होती है। (3) पुष्टिपुष्टि- असाधारण पुष्टि से उत्पन्न भक्ति की अवस्था। इस के चार प्रकार:- (1) प्रवाहपुष्टिभक्ति (2) मर्यादापुष्टि भक्ति, (3) पुष्टिपुष्टि भक्ति और (4) शुद्धष्टिभक्ति। इन चारों पुष्टिभक्तियों में (1) प्रेम (2) आसक्ति और (3) व्यसन अवस्थाओं की अनुभूति होती है। व्यसन अवस्था पुष्टिभक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जिस से मोक्षपदवी की प्राप्ति होती है जिस के अन्तरंग में व्यसन-अवस्था दृढतम होती है, वह भक्त चतुर्विद्या मुक्ति का तिरस्कार करते हुए अखंड भगवत्सेवा में रममाण होता है। उसे श्रीकृष्णस्वरूप परब्रह्म से दिव्य क्रीडा करने का परमानंद प्राप्त होता है। शुद्धपुष्टिभक्ति तथा अन्य भक्ति भी परमात्मा के अनुग्रह से ही मनुष्य के अन्तःकरण में उदित होती है।
वल्लभमत का पुष्टि सिद्धान्त श्रीमद्भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों पर आधारित है। इस सम्प्रदाय में उपनिषद, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र के साथ श्रीमद्भागवत की गणना होती है जिसे वल्लभाचार्य अत्यंत श्रद्धा से “समाधिभाषा व्यासस्य-" कहते हैं।
12 अचिन्त्य-भेदाभेद वादी-चैन्यमत ई. 15-16 वीं शती में चैतन्य महाप्रभु का अविर्भाव वंगदेश में हुआ। आपके द्वारा कृष्णभक्तिनिष्ठ वैष्णव सम्प्रदाय का उदय उस प्रदेश में हुआ। श्री रूपगोस्वामी, सनातन गोस्वामी, श्री. जीवगोस्वामी, विश्वनाथ चक्रवर्ती, कृष्णदास कविराज, बलदेव विद्याभूषण (या गोविन्ददास), इत्यादि महानीय विद्वान भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु का विचार, अनेक भाष्य एवं प्रकरण ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठापित किया। इस सम्प्रदाय की काव्यादि साहित्यिक रचनाएं भी सिद्धान्तनिष्ठ हैं। चैतन्यमतानुयायी वाङ्मय में :- श्री रूपगोस्वामीकृत दानकेलिकौमुदी, ललितमाधव, तथा विदग्धमाधव इन कृष्ण-भक्तिपरक नाटकों के अतिरिक्त, लघुमाधवामृत, उज्ज्वलनीलमणि, भक्तिरसामृतसिन्धु इन ग्रन्थों में भक्तिरस का साहित्यशास्त्रीय प्रतिपादन किया गया है। श्री रूपगोस्वामी के ज्येष्ठ भ्राता सनातन गोस्वामी ने बृहद्भागवतामृत, वैष्णवतोषिणी (श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध की टीका), तथा भक्तिविलास में चैतन्यमय के सिद्धान्त तथा आचार का वर्णन किया है। सनातन गोस्वामी ने दुर्गसंगमनी (श्री रूपगोस्वामीकृत भक्तिरसामृतसिन्धु की व्याख्या), क्रमसन्दर्भ (भागवत की व्याख्या), भागवतसन्दर्भ (या षट्संदर्भ), ग्रंथ लिखे। भागवतसंदर्भ पर सर्वसंवादिनी नामक टीका है। "अचिन्त्यभेदाभेदवाद" का यह श्रेष्ठ सिद्धान्तग्रंथ माना जाता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती (17 वीं शती) ने श्रीमद्भागवत पर सारार्थदर्शिनी नामक टीका के अतिरिक्त, श्रीरूपगोस्वामी के उज्ज्वलनीलमणि पर आनंदचन्द्रिका टीका, तथा कविकर्णपूर के अलंकारकौस्तुभ पर टीका लिखी है।
बलदेव विद्याभूषण ने भगवान् के स्वप्न साक्षात्कार में प्राप्त आदेश के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर चैतन्य मतानुसारी भाष्य लिखा। बलदेवजी का दीक्षानाम गोविन्दादास होने के कारण, तथा उनके आराध्य देव श्रीगोविन्दजी के आदेश के अनुसार इस भाष्य की रचना होने के कारण, यह ग्रंथ "गोविन्दभाष्य" कहलाता है। चैतन्यमत को वेदान्तसम्प्रदायों की महनीय श्रेणी में प्रतिष्ठापित करने का श्रेय इसी गोविन्दभाष्य को दिया जाता है। इतिहास दृष्ट्या यह मत माध्वमत से संबद्ध है परंतु सिद्धान्त दृष्ट्या उसके द्वैतवाद से भिन्न है।
चैतन्य मतानुसार भगवान् श्रीकृष्ण ही अनन्तशक्ति सम्पन्न परमतत्त्व हैं। शक्ति और शक्तिमान् में भेद और अभेद दोनों सिद्ध नहीं होते। इनका संबंध तर्कद्वारा अचिन्त्य है। इस प्रकार के प्रतिपादन के कारण इस मत को अचिन्त्य भेदाभेदवादी मत कहा जाता है। परमात्मा की शक्ति अनन्त एवं अचिन्त्य होने के कारण, उस परमतत्त्व में एकत्व और पृथक्त्व, अंशित्व और अंशत्व, दोनों का सहास्तित्व होना अयुक्त नहीं मानना चाहिए। परमात्मा श्रीकृष्ण एकत्र तथा सर्वत्र सर्वरूप है। उसकी अचिन्त्य शक्ति के कारण वह विभु और व्यापक है। श्री, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, ज्ञान, और वैराग्य इन दिव्य षड्गुणों की पूर्णरूप एकता श्रीकृष्ण स्वरूप में हुई है।
कारण, तथा उन
कारण, यह ग्रंथ "
करने का श्रेय
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चैतन्य संप्रदाय के दार्शनिक मतानुसार ईश्वर स्वतंत्र, विभु, चैतन्यधन, सर्वकर्ता, सर्वज्ञ, मुक्तिदाता एवं विज्ञानस्वरूप है। वही इस सृष्टि का उपादान और निमित्त कारण है। अपनी अचिन्त्य शक्ति के कारण ईश्वर जगद्प से परिणत होकर भी स्वरूपतः अविकृत रहता है। जीवतत्त्व :- चिन्मय, अणुप्रमाण, अनादि है परंतु वह मायामोहित और ईश्वरपराङ्मुख है। ईश्वर की कृपा से ही वह बंधमुक्त हो कर, पृथगप से ब्रहमानंद का अनुभव पाता है। प्रकृति :- नित्य और परमात्मा की वशवर्तिनी शक्ति है। काल :- एक परिवर्तनशील जड द्रव्य है जो सृष्टिप्रलय का निमित्त कारण है। कर्म :- ईश्वर की शक्ति का ही एक रूप है जो अनादि किन्तु नश्वर और जड है।
इस मत के अनुसार श्रीकृष्णस्वरूप परमात्मा ही उपास्य है जिसके अन्यान्य रूप बताये गये हैं :1) स्वयंरूप :- अन्य किसी आश्रयादि की अपेक्षा न रखने वाला रूप। यह रूप अनादि एवं कारणों का कारण है। 2) तदेकात्मरूप :- स्वयंरूप से अभिन्न किन्तु आकृति, अंग, संनिवेश, चरित्र आदि में भिन्नवत् प्रतीत होता है। भगवान् जब अपने स्वयंरूप से अल्पमात्र शक्ति को प्रकाशित करते हैं, तब वह स्वांश रूप कहलाता है। मत्स्यादि लीलावतार स्वांशरूपी हैं। जिन महापुरुषों में ज्ञान, शक्ति आदि दिव्य कलाओं से परमात्मा आविष्ट सा प्रतीत होता है, वे परमात्मा के "आवेशरूप" कहलाते हैं, जैसे शेष, नारद, सनकादि। परमात्मा अचिन्त्य-शक्ति-सम्पन्न है। उन शक्तियों में अतरंग शक्ति, तटस्थ शक्ति और बहिरंग शक्ति प्रमुख हैं। 1) अंतरंग शक्ति को ही चिच्छक्ति, या स्वरूपशक्ति कहते हैं। यह भगवद्रूपिणी होती है, और अपने सत् अंश में “सन्धिनी', चित् अंश में "संवित्", और आनंद अंश में "ह्लादिनी-' होती है। सन्धिनी शक्ति से परमात्मा समस्त देश, काल और द्रव्यादि में व्याप्त होते हैं। संवित् शक्ति से वे ज्ञान प्रदान करते है, और ह्लादिनी शक्ति से स्वानन्द प्रदान करते हैं। 2) तटस्थ शक्ति :- जीवों के अविर्भाव का कारण है। इसी को जीव शक्ति कहते हैं । यह शक्ति परिच्छिन्न स्वभाव एवं अणुत्वविशिष्ट होती है। 3) बहिरंगशक्ति (योगमायाशक्ति) :- इसी के कारण जगत् का आविर्भाव होता है, और जीवों में अविद्या रहती है। अविद्या के प्रभाव से वह परमात्मा को भूल जाता है। परमात्मा और जीव का संबंध अग्नि-स्फुलिंग संबंध के समान है। इस संबंध को जानना ही मुक्ति है। यह जगत् परमात्मा की बहिरंग शक्ति का विलास होने के कारण सत्य है। वह आविर्भाव, तिरोभाव, जन्म और नाश इन विकल्पों से युक्त होते हुए भी अक्षय तथा नित्य है। सृष्टि-प्रलय होने पर यह जगत् कारणस्वरूप परमात्मा में विद्यमान होता है, केवल उसकी अभिव्यक्ति नहीं होती, जैसी रात में कोटरस्थित पक्षियों की नहीं होती।
चैतन्य मतानुसार भक्ति का नितान्त महत्त्व माना गया है। भक्ति "पंचम पुरुषार्थ है जो अन्य चार पुरुषार्थों से श्रेष्ठ है। वह परमात्मा की संविद् और ह्लादिनी शक्ति से युक्त होने के कारण साक्षात् भगवद्रूपिणी है।
ऐश्वर्य और माधुर्य दो परमात्मा के रूप हैं। इनमें ऐश्वर्यरूप की प्रतीति ज्ञान से होती है और नराकृति माधुर्यरूप की प्राप्ति, शांत, दास्य, सख्य, वात्सल्य एवं माधुर्य इन पंचविध भक्तियों के द्वारा की जाती है। माधुर्य भक्ति सर्वश्रेष्ठ है। इस के तीन प्रकार माने जाते हैं :- (1) साधारणी, (2) संमजसा और (3) समर्था। कुब्जा की भक्ति साधारणी, रुक्मिणी, जांबवती आदि भार्याओं की संमजसा और व्रजगोपिकाओं की सर्वोत्कृष्ट भक्ति थी समर्था । सर्वोत्कृष्ट भक्त केवल समर्था (माधुर्य) भक्ति की ही अपेक्षा रखता है। दार्शनिकों की मुक्ति वह नहीं चाहता।
चैतन्य संप्रदाय के प्रवर्तक चैतन्य महाप्रभु ने स्वमतप्रतिपादन के लिए प्रस्थानत्रयी अथवा श्रीमद्भागवत पर भाष्यादि ग्रंथ नहीं लिखे। वे अपनी समर्था भक्ति में इतने मग्न, एवं भावोन्मत्त थे कि, उत्कृष्ट पांडित्य होते हुए भी, इस प्रकार की अभिनिवेशयुक्त ग्रंथरचना करना उनके लिए असंभव था। यह कार्य उनके अनुयायी वर्गद्वारा हुआ। बलदेव विद्याभूषण कृत ब्रह्मसूत्र का "गोविन्दभाष्य" चैतन्यमत का सर्वश्रेष्ठ प्रमाणग्रंथ माना गया है। बंगाली, ओडिया, असामिया और हिंदी की भक्ति प्रधान कविता चैतन्यमतानुसार भक्ति रस से विशेष प्रभावित है।
प्रस्थानत्रयी तथा श्रीमद्भागवत पर आधारित शंकर, रामानुज, मध्य, वल्लभ और चैतन्य आदि प्रमुख आचार्यों ने वेदान्त दर्शन में विविध प्रकार का तात्त्विक मतप्रतिपादन किया, उसमें जो विभिन्नता प्रकट हुई, उसका संक्षेपतः स्वरूप इस प्रकार है:(अ) प्रमाण
(आ) प्रमेय1) माध्वमत- प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति ।
1) मध्व- परमात्मनिर्मित जगत् 2) रामानुज- प्रत्यक्ष, अनुमान और श्रुति ।
2) रामानुज- परमात्मशरीर-भूत (दृश्य और अदृश्य) जगत्। 3) वल्लभ- प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रुति और श्रीमद्भागवत ।
3) वल्लभ- परमात्मतत्त्व का परिणामभूत जगत्। 4) शंकर- प्रत्यक्ष, अनुमान, श्रुति और अनुभव ।
4) शंकर- मायामय जगत्
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(इ) प्रमाता1) मध्व- अणुरूप श्रीहरि का सेवक 2) रामानुज- चेतनावान् अणुरूप 3) वल्लभ- ज्ञान एवं भक्ति का आश्रयभूत श्रीकृष्णसेवक । 4) शंकर- अन्तःकरणयुक्त चैतन्य। (ई) अज्ञान1) मध्व- परमात्मा की निमिति पर स्वत्व की भावना । 2) रामानुज- विषयों के प्रति ममत्वबुद्धि । 3) वल्लभ- अपने आपको स्वतंत्र एवं सुखदुःख का भोक्ता मानना । 4) शंकर- अपने आपको देहादिस्वरूप मानना। (उ) ज्ञान1) मध्व- मै श्रीहरि का सेवक हूँ यह प्रतीति । 2) रामानुज- ईश्वर नित्य एवं असंख्य मंगलगुणयुक्त है यह प्रतीति । 3) वल्लभ- मै श्रीकृष्ण का सेवक हूँ यह प्रतीति । 4) शंकर- "अहं ब्रह्माऽस्मि-" यह प्रतीति । (ऊ) दुःख1) मध्व- नानाविध योनियों में जन्म पाना । 2) रामानुज- नानाविध मानसिक पीड़ाएं। 3) वल्लभ- नानाविध योनियों में जन्म पाना । 4) शंकर- असत्य को ही सत्य मान कर भोगों का अनुभव। (ऋ) मोक्ष1) मध्व- मरणोत्तर उत्तम लोक की प्राप्ति और दिव्यसुखों की अनुभूति । 2) रामानुज- परमात्मा की कृपा से पुनरपि दुःखानुभव न होना। 3) वल्लभ- गोलोक की प्राप्ति और भक्ति सुख में भेद की विस्मृति । 4) शंकर- जीव-ब्रह्म का अद्वैत।
वेदान्त दर्शन के इन महनीय आचार्यों के द्वारा विशिष्ट आचारपद्धति तथा विचारप्रणाली को स्थिरपद करने के लिए स्वतंत्र संप्रदायों के समान इन वेदानुकूल भक्तिप्रधान संप्रदायों का महत्त्व है। आज का समस्त हिंदु समाज इन सभी संप्रदायों की आचारपद्धति तथा विचारप्रणाली से प्रभावित है। ऐतिहासिकों के मध्ययुग में इसी वैष्णवी विचारधारा का सर्वत्र प्रचार करने वाले स्वनामधन्य संतो की महती परंपरा निर्माण हुई। उनके ग्रंथ प्रादेशिक भाषीय साहित्य के रत्नालंकार हैं। वैष्णव संतों में दक्षिणभारत (तामिलनाडु) के आलवार संतों का महान योगदान है। आलवार शब्द का अर्थ है परमात्मा की भक्ति में निमग्न सत्पुरुष । आलवारों में पोडगई, भूतचार, पेई, तिरुमलिसे, नम्म, मधुरकवि, कुलशेखर, आंडाल, पेरी तोंडरडिप्पोडी, तिरुप्पाण और तिरुमई नामक 12 आलवार संत तामिलनाडु में आविभूर्त हुए। प्रादेशिक परंपरा के अनुसार उनका समय ईसा पूर्व 20 से 28 वीं शती तक माना जाता है। आधुनिक इतिहासज्ञ ई. 4 थी से 8 वीं शती में उनका कार्यकाल मानते है। इनमें आंडाल महिला थी और कुछ आलवार तो शूद्रवर्णीय भी थे, परंतु सारा समाज उन्हे पूजनीय मानता रहा है। "प्रबन्धम्" नामक तामिल ग्रंथ में इन सभी आलवारों के सुविचारपरिप्लुत एवं भावविभोर काव्यों का संग्रह हुआ है। तामिलनाडु के वैष्णव संप्रदाय में प्रबन्धम् ग्रंथ को भगवद्गीता के समान प्रमाणभूत माना जाता है। आलवारों की वैष्णव विचारप्रणाली में जातिभेद, वर्णभेद इत्यादि माने नहीं जाते। रामानुजी वैष्णव संप्रदाय के "प्रपत्तिवाद" (ईश्वर के प्रति संपूर्ण शरणागति) का मूल आलवार संतों की विचारधारा में मिलता है। स्वंय रामानुजाचार्य सभी आलवारों को गुरु मान कर उन्हीं का विष्णुभक्ति प्रचार का कार्य आगे चलाते रहे। दक्षिण के श्रीरंगम् आदि प्रमुख देवालयों में आलवारों की मूर्तियों की पूजा होती है। इन आलवार संतों में नम्मआलवार की विशेष ख्याति है। वे बाल्यावस्था में अंध हो गए थे। परमात्मा की कृपा से दृष्टि लाभ होने पर उन्होंने विष्णुभक्तिपर काव्यों की रचना आरंभ की। उनके शिष्य मधुर कवि ने वे सारी भक्ति रचनाएं ताडपत्र पर लिखकर संरक्षित की। नम्मालवार के देहांत के बाद पांड्य् राजा की पंडितसभा में वह काव्यसंग्रह मधुकरकवि ने प्रकाशित किया। "तिरुवोयमोली" नाम से यह एक सहस्र कविताओं का संग्रह प्रख्यात है। इस संग्रह में वेदों का रहस्य समाया हुआ माना जाता है और उसे "द्राविड वेद" कहते हैं।
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HHHHHHET
विष्णुस्वामी, निंबार्क, मध्वाचार्य और रामानुजाचार्य के द्वारा संस्थापित सम्प्रदायों के अनुक्रम, रुद्रसंप्रदाय, सनकादि संप्रदाय, ब्रह्मसंप्रदाय और श्रीसम्प्रदाय कहते हैं। महाराष्ट्र में संत ज्ञानेश्वर, एकनाथ, तुकाराम और रामदास के द्वारा चार प्रकार के वैष्णव संप्रदाय प्रचलित हुए। श्रीज्ञानेश्वर का प्रकाश संप्रदाय, एकनाथ का आनंद सम्प्रदाय, तुकाराम का चैतन्य संप्रदाय और रामदास का स्वरूप संप्रदाय कहा जाता है। इन चार वैष्णव संप्रदायों को "वारकरी" चतुष्टय कहते हैं। 11 वीं शती में चक्रधर स्वामी द्वारा "महानुभाव" नामक वैष्णव संप्रदाय महाराष्ट्र के विदर्भ प्रदेश में प्रवृत्त हुआ। इस संप्रदाय मे हंस, दत्तात्रेय, श्रीकृष्ण, प्रशान्त और पंथ संस्थापक श्रीचक्रधर की उपासना 'पंचकृष्ण' नाम से होती है। इस द्वैतवादी संप्रदाय का प्रमाणभूत वाङ्मय 12 वीं शताब्दी की मराठी भाषा में उपलब्ध है। 15 वीं शती में नागेन्द्रमुनि जैसे कार्यकर्ताओं ने महानुभावी वैष्णव मत का प्रचार पंजाब, काश्मीर, अफगानिस्तान जैसे दूरवर्ती प्रदेशों में किया। वहां भी सांप्रदाय के लोग मराठी को ही अपनी धर्मभाषा मानते हैं। वारकरी संप्रदाय का प्रारंभ 12 वीं शताब्दी में संत ज्ञानेश्वर से माना जाता है। ज्ञानेश्वर के ज्येष्ठ भ्राता निवृत्तिनाथ ही उनके गुरुदेव थे। निवृत्तिनाथ को नाथ संप्रदाय के सिद्ध योगी गहनीनाथ द्वारा अनुग्रह प्राप्त हुआ था। निवृत्तिनाथ की ही प्रेरणा से ज्ञानेश्वर ने अपनी 16 वर्ष की आयु में श्रीमद्भागवद्गीता पर भाष्य निर्माण किया जो "ज्ञानेश्वरी" नामक मराठी साहित्य का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। वारकरी संप्रदाय में ज्ञानेश्वरी, एकनाथी भागवत (श्रीमद्भागवत के 11 वें स्कन्ध की पद्यात्मक सविस्तर टीका) और संत तुकाराम का "गाथा' नामक भक्तिकाव्यसंग्रह, परम प्रमाण माने जाते हैं। समर्थ रामदास का सम्प्रदाय रामोपासक है। उनके दासबोध ग्रंथ में ज्ञान, वैराग्य, उपासना और सामर्थ्य (या प्रवृत्ति मार्ग) का प्रतिपादन किया है। समर्थ रामदास ने अपने कार्यकाल में 11 हनुमानजी के मंदिर तथा 11 सौ मठों की स्थापना करते हुए, समाज में ऐसी सतर्क संघशक्ति का निर्माण करने का प्रयास किया जो छत्रपति शिवाजी महाराज के स्वराज्य संस्थापना के महान क्रांतिकार्य में सहायक हुआ। समर्थ रामदास से शिवाजी महाराज ने अनुग्रह प्राप्त किया था। संत नामदेव, ज्ञानेश्वर के समकालीन थे। ज्ञानेश्वर ने 22 वर्ष की आयु में समाधि लेने के बाद, नामदेव महाराज ने वारकरी पंथ की विचार प्रणाली का प्रचार कीर्तनों द्वारा सर्वत्र किया। इस प्रकार का वैष्णवी भक्ति मार्ग का प्रचार करने वाले महाराष्ट्र के वारकरी संतो में जनाबाई, बहिणाबाई, नरहरि सोनार, सावता माली, गोरा कुंभार (कुम्हार), चोखा महार, रोहीदास चांभार (चम्हार), भानुदास, एकनाथ, तुकाराम, निलोबाराय, हैबतराव इत्यादि अनेक सत्पुरुषों के नाम महाराष्ट्र में प्रसिद्ध हैं। आधुनिक काल (20 वीं शती) में विदर्भ के महान् दार्शनिक संत प्रज्ञाचक्षु श्रीगुलाबराव महाराज ने इसी वारकरी संप्रदाय पर आधारित "मधुराद्वैत" संप्रदाय की स्थापना की। श्री गुलाबराव महाराज का आध्यात्मिक साहित्य संस्कृत मराठी और हिंदी भाषा में है। उनके ग्रंथों की कुल संख्या 125 से अधिक है। श्री तुकडोजी महाराज (जो "राष्ट्रसंत" उपाधि से अपने वैशिष्ट्यपूर्ण कार्य के कारण सर्वत्र प्रसिद्ध हुए) ने अपने गुरुदेव सेवा में मंडल द्वारा इसी संतपरंपरा का संदेश अपने ओजस्वी एवं प्रासादिक हिंदी-मराठी भजनों द्वारा सर्वत्र देते हुए ग्रामोद्धार एवं स्वावलंबन का विचार महाराष्ट्र की सामान्य जनता में प्रचारित किया। उनका ग्रामगीता नामक 41 अध्यायों का पद्य ग्रंथ महाराष्ट्र में अल्पावधि में अत्यंत लोकप्रिय हुआ है। देशकालोचित समाज सुधारक विचारों के कारण यह ग्रामगीता संत साहित्य में अपूर्व है। इस, ग्रामगीता के हिंदी और श्री. भा. वर्णेकर कृत संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।
वैष्णव संप्रदायों मे 14 वीं शताब्दी के संत रामानंद का योगदान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। रामानंद ने प्रारंभ में रामानुजीय विशिष्टाद्वैत संप्रदाय की दीक्षा राघवानंद से ग्रहण की थी। बाद में उन्होंने अपना स्वतंत्र संप्रदाय स्थापन किया। इस अभिनव संप्रदाय में कबीरदास, सेना नाई, धन्ना जाट, रैदास चम्हार, जैसे अन्यान्य जातिपाति के 12 प्रमुख शिष्य रामानंद के अनुयायी थे। वैष्णव संप्रदायों में जातीय श्रेष्ठ-कनिष्ठता का विकृत भाव पनपा था। श्रीरामानंद ने भगवद्भक्ति करने वाले सभी मानव समान है, वे सहभोजन भी कर सकते है, इत्यादि समानता का विचार दृढमूल किया। भगवद्भक्ति एवं सद्धर्म के प्रचार के लिए लौकिक जनवाणी को महत्त्व देने का कार्य भी रामानंदजी ने शुरू किया। राधाकृष्ण की उपासना के समान, सीताराम की युगुलोपासना भी रामानंद ने प्रसारित की। रामानंद के प्रभाव से उत्तर भारत में संत सूरदास, तुलसीदास, मीराबाई, इत्यादि विभूतियों के द्वारा कृष्णभक्ति तथा रामभक्ति का सर्वत्र प्रचार हुआ जिसका प्रभाव आज भी विद्यमान है।
श्रीमद्भागवत के समान वाल्मीकीरामायण का भी योगदान भक्तिमार्गी विचारधारा के सार्वत्रिक प्रचार में सर्वमान्य है। उत्तर भारत में संत तुलसीदासजी के रामचरित मानस के प्रभाव से अन्य पादेशिक भाषाओं भी रामचरित्र विषयक हृद्य ग्रंथ श्रेष्ठ कवियों द्वारा लिखे गये जिनमें तामिल भाषीय कंबरामायण, तेलगुभाषीय रंगनाथ रामायण और भास्कर रामायण, कन्नड भाषीय पम्परामायण, बंगलाभाषीय कृत्तिवासा कृत रामायण, मलयालम् भाषीय एज्युतच्चनकृत अध्यात्मरामायण असमिया में माधवकन्दली कृत रामायण, उडिया भाषीय सरलादास कृत विलंकारामायण और बलरामदासकृत रामायण, मराठी में एकनाथ कृत भावार्थ रामायण, जैसे श्रेष्ठ ग्रंथों के कारण रामोपासनापरक वैष्णव संप्रदाय का प्रचुर मात्रा में प्रचार हुआ। इन रामायणों के रचयिता वैष्णव संतों में पूज्य माने जाते हैं।
186 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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गुजरात में वैष्णव विचार धारा का प्रचार रामानुज तथा वल्लभाचार्य के संप्रदाय के द्वारा शुरु हुआ। मीराबाई के कृष्णभक्तिमय गीतों की संख्या 250 से अधिक नहीं है। तथापि उन गीतों ने राजस्थान और गुजरात में कृष्णभक्ति का प्रचार अत्यधिक मात्रा में किया। 15 वीं शती में संत नरसी मेहता का उदय गुजरात में हुआ। नरसी मेहता की कविता में कृष्णभक्ति का परमोच्च स्वरूप तथा उच्च कोटि के तात्त्विक विचार व्यक्त हुए, जिनका प्रभाव गुजरात में विशेष पडा और उनके पश्चात् मालन, वस्तों, प्रेमानंद, सामलभट, दयाराम आदि भक्तिमार्गी कवियों द्वारा वैष्णव मत का भरपूर पोषण हुआ। इन सभी वैष्णव कवियों के कवित्व का प्रभाव गुजराती साहित्य में दिखाई देता है। इसी प्रकार कर्नाटक में मध्वसंप्रदाय की वैष्णवी विचारधारा का प्रसार महान् संत कवि एवं कर्नाटकी संगीत के पितामह "भक्त पुरंदरदास" (ई. 15-16 वीं शती) के भक्तिकाव्यों द्वारा हुआ। पुरंदरदास का काव्यसंग्रह, उन के गुरु व्यासरायतीर्थ ने “पुरंदरोपनिषद्" नाम से सम्मानित किया है।
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड / 187
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प्रकरण - 9 जैन-बौद्ध वाङ्मय
1 जैन वाङ्मय __ भारत के प्राचीन धर्ममतों में जैन (अर्थात् जिनद्वारा प्रस्थापित) धर्ममत, महत्त्वपूर्ण माना जाता है। बॅरिस्टर जैनी, रावजी नेमिचंद शाह जैसे आधुनिक जैन विद्वानों ने वेद तथा श्रीमतद्भागवत में उल्लेखित ऋषभ एवं जैन तीर्थंकर ऋषभदेव का एकत्व प्रतिपादन कर, जैन धर्ममत को वेद के समकालीन माना है। अन्य मतानुसार महावीर पूर्व (तेईसवें) तीर्थंकर पार्श्वदेव को जैन धर्ममत का प्रतिष्ठापक माना गया है। अंतिम (24 वें) तीर्थंकर भगवान महावीर का उदय निश्चित ही भगवान बुद्ध से पहले हुआ था। प्राचीन जैन धर्म को व्यवस्थित स्वरूप देने का श्रेय उन्हीं को दिया जाता है। वास्तव में वे जैन धर्म के संस्थापक नहीं थे। महावीर पूर्वकालीन जैन धर्म का स्वरूप निश्चित क्या था, यह अन्वेषण का विषय है। कुछ ऐतिहासिक प्रमाणों के
आधार पर इस धर्म का प्रचार प्राचीन काल में संपूर्ण भारत में और भारतबाह्य देशों में भी हुआ था, यह तथ्य सिद्ध हुआ है। भगवान महावीर के पश्चात् उनके शिष्य सुधर्मा ने महावीर का कार्य व्यवस्थित सम्हाला। विद्यमान जैन धर्म के प्रतिष्ठापकों या संरक्षकों में सुधर्मा का नाम उल्लेखनीय है।
प्राचीन काल में इस धर्ममत का विशेष प्रसार मगध (अर्थात् बिहार) प्रदेश में था। ई.पू. 310 में (चंद्रगुप्त मौर्य के काल में) मगध देश में घोर अकाल पड़ने के कारण, अनेक जैन धर्मी लोगों ने भद्रबाहु के नेतृत्व में देशत्याग किया। जो लोग मगध में ही रहे उनके नेता थे स्थूलभद्र, जिन्होंने स्व-साम्प्रदायिकों का एक सम्मेलन आयोजित कर, अपने लुप्तप्राय धर्मग्रंथों का सुव्यवस्थित संकलन तथा संस्करण करने का महान प्रयास किया। अकाल के समाप्त होने पर वापस लौटे हुए भद्रबाहु तथा उनके अनुयायी विद्वानों ने स्थूलभद्र के उस महान् शोधकार्य को मान्यता नहीं दी। परिणाम यह हुआ की धर्ममत में दो संप्रदाय निर्माण हुए- (1) भद्रबाहु का दिगंबर और (2) स्थूलभद्र का श्वेताम्बर। ये दोनों संप्रदाय आज भी भारत भर सर्वत्र विद्यमान हैं। आगे चल कर श्वेतांबर संप्रदाय में स्थानकवासी (या ढुंढिया) नामक उपपंथ स्थापित हुआ। इस उपपंथ ने दीक्षाप्राप्त यति जनों के अतिरिक्त अन्य सभी जैन स्त्री-पुरुषों को धर्मग्रन्थों का स्वाध्याय करने का स्वातंत्र्य प्रदान किया। इन तीन पंथों के अतिरिक्त, पीतांबरी, मंदिरपंथी, साधुपंथी, सारावोगी, रूपनामी समातनधर्मी इत्यादि विविध उपपंथ जैन समाज में विद्यमान हैं।
ई. दसवीं शती मे जैन समाज में हुए उद्योतन नामक महान् भट्टारक के शिष्यों द्वारा 84 "गच्छ” (अर्थात् गुरुपरंपराएं) जैन समाज में प्रचलित हुईं। गुच्छ के प्रमुख आचार्य को "सूरि" और शिष्य को "गणि" कहते है। तपागच्छ, चंद्रगच्छ, नागेन्द्रगच्छ, खरतरगच्छ, चैत्रगच्छ, वृद्धगच्छ, राजगच्छ, सरस्वतीगच्छ, धर्मघोषगच्छ, विमलगच्छ, हर्षपुरीय, इत्यादि गच्छनाम प्रसिद्ध हैं। सभी जैन संप्रदाय, जिन 24 तीर्थंकरों को पूज्य मानते हैं, उनकी नामावलि :- ऋषभ, अजित, संभव, अभिनंदन, सुमति, पद्मप्रम, सुपार्श्व, चंद्रप्रभ, पुष्पदन्त, शीतल, श्रेयान्, वासुपूज्य, विमल, अनंत, धर्म, शांति, कुंथु, अर, मल्लि, मुनिसुव्रत, नमि, नेमि, पार्श्व और वर्धमान (महावीर) इस क्रम से प्रसिद्ध है। इन नामों का निर्देश "देव" या "नाथ" शब्दसहित होता है। इन में "मल्लि" यह नाम स्त्रीवाचक या पुरूषवाचक है, इस विषय में मतभेद है। जैन परंपरा के अनुसार "तीर्थंकर" अनेक माने गये हैं, किन्तु उनके उपदेश में अनेकता नहीं मानी गई। तत्तत् काल में जो भी अंतिम तीर्थंकर हो गए उन्हीं का उपदेश
और शासन, जैन समाज में आचार तथा विचार के लिये मान्य रहा है। इस दृष्टि से भगवान् महावीर अंतिम तीर्थंकर होने से, उन्हीं का उपदेश आज अंतिम उपदेश है, और वही सर्वत्र प्रमाणभूत माना जाता है।
सर्वप्रथम भगवान महावीर ने जो उपदेश दिया उसका सकलन द्वादश अंगों में हुआ। उन का यह उपदेश भगवान पार्श्वनाथ के उपदेश के सामन ही था। उस उपदेश के आशय को शब्दबद्ध करने का कार्य गणधर के द्वारा हुआ। इन द्वादशांगों के नाम हैं:- 1) आचारंग, 2) सूत्रकृतांग, 3) स्थानांग, 4) समवायांग, 5) व्याख्याप्रज्ञप्ति, 6) ज्ञाताधर्मकथा, 7) उपासकदशा, 8) अंतकृतदशा, 9) अनुत्तरौपपातिकदशा, 10) प्रश्नव्याकरण, 11) विपाकसूत्र और 12) दृष्टिवाद। इस अंतिम अंग दृष्टिवाद के प्रामाण्य के विषय में श्वेतांबर-दिगंबरों में मतभेद है। इन अंगो के प्रथम संकलन का कार्य स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र (पटना) में किया। अतः इस संकलन को “पाटलिपुत्र-वाचना" कहते हैं। भगवान् महावीर के पश्चात् 609 वें वर्ष में आर्य स्कंदिल की अध्यक्षता में संकलन का द्वितीय कार्य मथुरा में हुआ। इसे "माथुरी-वाचना" कहते है। तीसरा संकलन कार्य ई. पांचवी शती
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में काठियावाड के वलभी नगरी में हुआ, जिसके प्रमुख थे आचार्य देवर्धिगणि। इसे “वलभो-वाचना" कहते हैं। जैनागमों के संकलन का कार्य इस अंतिम "वलभीवाचना" में संपूर्ण हुआ। श्वेताम्बरसंप्रदाय में वलभीवाचना के आगम को ही प्रमाण माना जाता है। दिगंबर संप्रदायी, कालप्रभाव के कारण मूल आगमों को लुप्त या नष्ट मानते हैं। श्वेतांबर उन्हें नष्ट नहीं मानते।
द्वादशांगों के अतिरिक्त अन्य जैनागमों को "अंगबाह्य" कहते हैं। ऐसे अंगबाह्य आगम पांच वर्गों में विभक्त है:- 1) उपांग, 2) मूलसूत्र, 3) छेदसूत्र, 4) चूलिकासूत्र, और 5) प्रकीर्णक।
अंगबाह्य आगम अंग-आगमों की रचना भगवान महावीर के गणधरों (अर्थात प्रधान शिष्यों) ने की है, जब कि उपयुक्त अंगबाह्य आगमों का निर्माण भिन्न भिन्न समय में अन्य स्थविरों द्वारा हुआ है। दिगम्बर (या अचेलक) परंपरा में, आगमों को 1) अंगप्रविष्ट (अर्थात् आचारांगादि बारह अंग) और 2) अंगबाह्य, नामक दो प्रकारों में विभाजित किया जाता है। उनके अंगबाह्य आगमों में, निम्नोक्त चौदह ग्रंथों का समावेश होता है:- सामायिक, चतुर्विंशातिस्तव, वन्दना, प्रतिक्रमण, वैनयिक, कृतिकर्म, दशवैकालिक, उत्तराध्ययन, कल्पव्यवहार, कल्पाकल्पिक, महाकल्पिक, पुण्डरीक, महापुण्डरीक और निशीथिका।
अचेलकों को की मान्यता है कि अंगप्रविष्ट और अंगबाह्य नामों से निर्दिष्ट दोनों प्रकार के आगम विच्छिन्न हो गये हैं। सचेलक (श्वेतांबर) केवल बारहवें अंग (दृष्टिवाद) का ही विच्छेद मानते हैं। श्वेतांबरीय अंगबाह्य आगमों के प्रथम वर्ग "उपांग" में निम्न लिखित बारह ग्रंथ समाविष्ट हैं:- औपपातिक, राजप्रश्नीय जीवाजीवाभिगम, प्रज्ञापना, सूर्यप्रज्ञप्ति, जम्बूद्वीपप्रज्ञप्ति चन्द्रप्रज्ञप्ति, निरयावलिक, (या कल्पिका), कल्पावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूलिका और वृष्णिदशा। इनमें प्रज्ञापना के संबंध मे जो जानकारी प्राप्त है, तदनुसार उस उपांग की रचना श्यामार्य (अपरनाम-कालकाचार्य) द्वारा ईसापूर्व द्वितीय-तृतीय शताब्दी के बीच मानी जाती है।
मूलसूत्र अंगबाह्य दूसरा आगम है मूलसूत्र। इन में, 1) उत्तराध्ययन (ई.पू. 2-3 शती), 2) आवश्यक, 3) दशवैकालिक (ई.पू.चौथी शती में, आचार्य शयमभवकृत) और 4) पिण्डनियुक्ति (अथवा ओघनियुक्ति- जिस की रचना आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) ने ई.पू. छठी शती में की) इन चार ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है।
छेदसूत्र अंगबाह्य तीसरा आगम है "छेदसूत्र" जिसमें, 1) दशाश्रुतस्कंन्द, 2) बृहकल्प और व्यवहार, इन तीनों की रचना आर्य भद्रबाहु द्वारा ई.पू.चतुर्थ शती में हुई 4) निशीथ - (यह वस्तुतः "आचारांग" की पंचम चूलिका ही है) इसके प्रणेता आर्यभद्रबाहु अथवा विशाखगणि महत्तर हैं। 5) महानिशीथ- इसका संकलन आचार्य हरिभद्र द्वारा हुआ है और 6) जीतकल्प जिसके लेखक हैं आचार्य जिनभद्र, समय ई. 8 वीं शती, इन ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है। पंचकल्पनामक छेदसूत्र अनुपलब्ध है। कुछ विद्वान जीतकल्प और पंचकल्प में अभेद मानते हैं। चूलिकासूत्र में 1) नंदीसूत्र (देवर्धिगणि अथवा देववाचक कृत) और 2) अनुयोगद्वार सूत्र (आर्य रक्षित कृत) का अन्तर्भाव होता है।
प्रकीर्णक प्रकीर्णकों में निम्नलिखित ग्रंथ विशेषरूप से मान्य हैं :- चतुःशरण, आतुरप्रत्याख्यान, भक्तपरीक्षा, तन्दुलवैचारिक, संस्तारक, गच्छाचार, गणिविद्या, देवेन्द्रस्तव और मरणसमाधि। इनमें से चतुःशरण तथा भक्तपरीक्षा के रचयिता हैं वीरभद्रगणि (ई. 12 वीं शती)। अन्य प्रकीर्णकों के रचयिता के नाम आदि के विषय में जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। इस प्रकार संपूर्ण जैनागमों की संख्या 11 अंग, 12 उपांग, 6 छेदसूत्र, 4 मूलसूत्र, 10 प्रकीर्णक और 2 चूलिकासूत्र मिलाकर- 45 होती है। इन आगमों में जैन धर्म विषयक उपदेश, विधि, निषेध, तत्त्वज्ञान इत्यादि का सर्वंकष ज्ञान प्रतिपादित किया है। इन 45 आगमों सहित उन पर लिखे गये नियुक्ति, भाष्य, चूर्णी और टीका ग्रंथों को मिलाकर समग्र आगम ग्रंथों को "पंचांगी आगम" कहा जाता है।
इन धर्मग्रंथों की भाषा "आर्ष" अथवा "अर्धमागधी" नामक प्राकृत है। भगवान् महावीर का उपदेश इसी भाषा में माना जाता है। इन ग्रंथों के गद्य और पद्य भागों की भाषा में अंतर दिखाई देता है। अत्यंत प्राचीन अर्धमागधी का स्वरूप आचारांग सूत्र (आयारंगसुत्त) सूत्रकृतांग (सूयगदांग) और उत्तराध्ययन सूत्र, (उत्तरझ्झयणसुत्त) इन तीन आगम ग्रंथों में दिखाई देता है। धर्मग्रंथों के अतिरिक्त अन्य जैन वाङ्मय की भाषा भी अर्धमागधी अथवा "जैन महाराष्ट्री" ही है; किन्तु उस का स्वरूप धर्मग्रंथों की भाषा से सर्वथा भिन्न है। जिनदास गणिकृत चूर्णी नामक लघु टीका ग्रंथों की भाषा संस्कृत-प्राकृत मिश्रित है। अभयदेव, मलयगिरि, और शीलांक जैसे विद्वानों ने आगमों पर टीकाएँ लिखने के लिए संस्कृत भाषा का अवलंब किया है।
जैन दर्शन का प्रारंभ ई. प्रथम शती से माना जाता है। कर्नाटक के सुप्रसिद्ध जैनाचार्य कुंदकुद (जैन प्रस्थात्रयी या नाटकत्रयी के निर्माता) के शिष्योत्तम उमास्वामी ने जैनमत के तात्त्विक विचारों का व्यवस्थित प्रतिपादन अपने "तत्त्वार्थसूत्री' नामक
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प्रसिद्ध संस्कृत ग्रंथ में ग्रथित किया। बाद में समंतभद्र, सिद्धसेन, (इन दोनों ने जैन दर्शन के "स्याद्वाद" की स्थापना की), अकलंकदेव, सिद्धसेन दिवाकर, विद्यानंद, वादिराजसूरि, हरिभद्रसूरि, हेमचंद्र, मल्लिषेण, गुणरत्न, यशोविजय, ज्ञानचंद्र इत्यादि स्वनामधन्य जैनाचार्यों ने, संस्कृत भाषा में अपने दर्शन के अंगोपांगों का प्रतिपादन किया। इसके अतिरिक्त महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पू, स्तोत्र, व्याकरण, ज्योतिष, साहित्यशास्त्र, योगविद्या इत्यादि विषयों पर प्रतिभाशाली जैन विद्वानों ने पर्याप्तमात्रा में संस्कृत ग्रन्थों की रचना की है। जैनाचार्यों का न्याय, व्याकरण ज्योतिष, विषयक संस्कृत वाङ्मय सर्वत्र प्रमाणभूत माना जाता है। वाङ्मय निर्मिति में संस्कृतभाषा का उपयोग, प्रथम दिगंबर और बाद में श्वेताम्बर जैनाचार्यों ने किया, जिससे उस काल में संस्कृत भाषा के सार्वत्रिक महत्त्व का प्रमाण उपलब्ध होता है।
आज सर्वत्र सुशिक्षित समाज में अंग्रेजी भाषा का जो महत्त्व है, वही उस युग में संस्कृत भाषा को था यह तथ्य जैन तथा बौद्ध आचार्यों की संस्कृत वाङ्मयनिर्मिति से सिद्ध होता है। आधुनिक काल में सर्वत्र हिंदी भाषा में जैन वाङ्मय का प्रसार हो रहा है। हिंदी आज दिगंबर संप्रदाय की "धर्मभाषा" सी हुई है
व्याख्याग्रंथ प्राचीन भारतीय वाङ्मय में प्रमाणभूत तथा महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों के गूढार्थ का उद्घाटन करने के लिए उन पर विवरणात्मक लेखन करने की परंपरा थी। दुर्बोध ग्रंथों का रहस्य समझने में इस प्रकार के ग्रंथों की आवश्यकता जिज्ञासु को प्रतीत होती है। जैन धर्म विषयक आगमों" का विवरण करने वाले अनेक व्याख्या, ग्रंथ, यथावसर निर्माण हुए। ये आगमिक व्याख्याग्रंथ पांच प्रकारों में विभक्त किये जाते हैं : 1) नियुक्तियाँ, 2) भाष्य, 3) चूर्णियाँ, 4) संस्कृत टीकाएं और लोक भाषा में विरचित टीकाएं।
नियुक्ति : नियुक्तियाँ और भाष्य जैनागमों की पद्यबद्ध टीकाएं होती हैं। इन दोनों प्रकार के विवरणात्मक ग्रंथों की भाषा प्राकृत है। नियुक्तियों में मूल ग्रंथ के प्रत्येक पद का व्याख्यान न किया जाकर विशेष रूप से महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों का ही व्याख्यान किया गया है। उपलब्ध नियुक्तियों में आचार्य भद्रबाहु (द्वितीय) कृत दस नियुक्तियाँ प्रसिद्ध हैं। नियुक्तियों में "निक्षेपपद्धति' से शब्दार्थ का व्याख्यान होता है। किसी भी वाक्य में एक शब्द के अनेक अर्थ होते हैं। शब्दों के संभावित विविध अर्थों का निरूपण करने के बाद, उनमें से अप्रस्तुत अनेक अर्थों का निषेध करके, प्रस्तुत एकमात्र अर्थ की स्थापना करना, इस शैली को 'निक्षेपपद्धति' कहते हैं। इस प्रकार से निर्धारित अर्थ का मूल वाक्य के शब्दों के साथ संबंध स्थापित करना, यही 'नियुक्ति' का प्रयोजन होता है।
भाष्य : नियुक्तियों की भाँति "भाष्य" भी पद्यबद्ध प्राकृत भाषा में लिखे गये हैं। कुछ भाष्य केवल मूलसूत्रों पर और कुछ भाष्य सूत्रों की नियुक्तियों पर भी लिखे गये हैं। भाष्यकारों में जिनभद्रगणि और संघदास गणि ये दो आचार्य विशेष प्रसिद्ध हैं, जिन्होंने व्याख्येय आगम ग्रंथों के शब्दों में छिपे हुए विविध अर्थ अभिव्यक्त करने का कार्य किया। इन प्राचीन भाष्य ग्रंथों में तत्कालीन भारत की सामाजिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक, एवं धार्मिक स्थिति पर प्रकाश डालने वाली भरपूर सामग्री का दर्शन होता है। जैनों के आगमिक वाङ्मय में इस विशाल भाष्य वाङ्मय का महत्त्वपूर्ण स्थान है।
चूर्णि : जैन आगमों की, संस्कृत मिश्रित प्राकृत व्याख्या "चूर्णि" कहलाती है। इस प्रकार की कुछ चूर्णियाँ आगमेतर वाङ्मय पर भी लिखी गई हैं। चूर्णिकारों में जिनदासगणि, सिद्धसेनसूरि (प्रसिद्ध सिद्धसेन दिवाकर से भिन्न), प्रलंबसूरि और अगस्त्यसिंह इत्यादि नाम उल्लेखनीय हैं।
नियुक्तियों, भाष्यों और चूर्णियों की रचना के बाद जैन आचार्यों ने संस्कृत में टीकाओं का लेखन प्रारंभ किया। प्रत्येक आगम पर कम से कम एक संस्कृत टीका लिखी ही गई। संस्कृत टीकाकारों में हरिभद्र सूरि, शीलांकसूरि, वादिवेताल, शान्तिसूरि, अभयदेव सूरि, मलयगिरि, मलधारी हेमचंद्र, आदि विद्वानों के नाम संस्मरणीय हैं। इन टीकाकारों ने प्राचीन भाष्य आदि के विषयों का विस्तृत विवेचन किया तथा नये नये हेतुओं द्वारा उन्हें पुष्ट किया। अपनी टीकाओं के लिए आचार्यों ने, टीका, वृत्ति, विवृत्ति, विवरण, विवेचन, व्याख्या, वार्तिक, दीपिका, अवचूरि, अवचूर्णि, पंजिका, टिप्पन, टिप्पनक, पर्याय, स्तबक, पीठिका अक्षरार्थ इत्यादि विविध नामों का प्रयोग किया है। जिनरत्नकोश जैसे ग्रंथ में 75 से अधिक विद्वानों की नामावलि मिलती है, जिन्होंने आगमों पर संस्कृत टीकाएं लिखी हैं।
जैनवाङ्मयान्तर्गत संस्कृत टीका ग्रंथों की संख्या काफी बड़ी है। उनमें से कुछ विशेष उल्लेखनीय टीकाकारों एवं टीकाओं की सूची :टीकाकार
टीकाग्रंथ 1) हरिभद्र
1) नन्दीवृत्ति, 2) अनुयोगद्वार टीका, 3) दशवैकालिकवृत्ति (नामान्तर शिष्यबोधिनी या बृहवृत्ति) 4) प्रज्ञापनाप्रदेश व्याख्या, 5) आवश्यकवृत्ति इत्यादि । कहा जाता है कि आचार्य हरिभद्र ने अपने गुरु के आदेशानुसार 1444 ग्रंथों की रचना की थी। जैन साहित्य का बृहद्
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2) कोट्याचार्य
3) गन्धहस्ति (सिद्धसेन)
4) शीलांक (तत्वादित्य)
5) शांतिसूर (वादिबेताल) 6) द्रोणसूरि
7) अभक्देव
8) मलयगिरि
9) मलधारी हेमचंद्र 10) नेमिचंद्र 11) श्रीचंद्रसूरि
12) क्षेमकीर्ति
13) माणिक्यशेखर
14) अजितदेवरि 15) विजयाविमलगणि
16) वानरर्षि
17 ) विजयविमल
18) भावविजयगणि
19 ) समयसुंदरसूरि
20) ज्ञानविमलसूरि
21) लक्ष्मीवल्लभगणि
22) दानशेखरसूरि
23) विनयविजय उपाध्याय 24) समयसुन्दरगणि 25) शान्तिसागरगणि
26) पृथ्वीचंद्र
27) विजयराजेद्रसूरि
इतिहास (भाग-3 ले. डॉ. मोहनलाल मेहता) में पृ. 362 पर हरिभद्र के 73 टीकाग्रन्थों की सूची दी है। विशेषावश्यकभाष्य विवरण।
1) शस्त्रपरिज्ञाविवरण 2 ) तत्त्वार्थभाष्यवृत्ति
1) आचारंग विवरण 2 ) सूत्रकृतांगविवरण | उत्तराध्ययनटीका ।
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ओघनियुक्तिवृत्ति ।
1) स्थानांगवति, 2) समवायांगवृत्ति, 3) व्याख्याप्रज्ञाप्तिवृत्ति, 4) ज्ञानाधर्म कथा विवरण, 5) उपासक दशांगवृत्ति, 6) अन्तकृद्दशावृत्ति 7 ) प्रश्नव्याकरणवृत्ति और 8) विपाकवृत्ति । इनके उपलब्ध ग्रंथों की संख्या 20 एवं अनुपलब्धों की 6 मानी जाती है जिनमें 1) नदीवृत्ति, 2) प्रज्ञापनावृत्ति, 3) सूर्यप्रज्ञाप्ति विवरण 4) ज्योतिष्करणकवृत्ति 5) जीवाभिगमविवरण, 6) राजप्रश्रीयविवरण, 7) पिण्डनियुक्तिवृत्ति 8 ) बृहत्कल्पपीठिकावृत्ति, इत्यादि टीकाग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
1) आवश्यकवृत्ति प्रदेशव्याख्या, 2) विशेषावश्यकभाष्य बृहद्वृत्ति ।
आचारांगदीपिका ।
गच्छाचारवृत्ति ।
गच्छाचारटीका ।
तन्दुलवैचारिकवृत्ति ।
उत्तराध्ययनवृत्ति ।
1) निशीथचूर्णिदुर्ग पदव्याख्या, 2) निरयावलकावृत्ति, 3) जीतकल्पचूर्णि विषमपदव्याख्या । बृहत्कल्पवृत्ति (मलयगिरिकृत अपूर्ण वृत्ति को इसमें पूर्ण किया है) ।
आवश्यक निर्मुक्ति दीपिका
उत्तराध्ययन व्याख्या ।
दशवैकालिक दीपिका ।
व्याकरण सुवोधिकावृत्ति ।
उत्तराध्ययन दीपिका |
भगवती विशेषपदव्याख्या । कल्पसूत्रबोधिका ।
कल्पसूत्रकल्पकता । कल्पसूत्र कल्पकौमुदी कल्पसूत्र टिप्पणक । कल्पसूत्रार्थबोधिनी ।
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आगम ग्रंथोंपर लिखी हुई संस्कृत टीकाओं की संख्या यहाँ निर्दिष्ट टीकाओं से बहुत अधिक है। सारी टीकाओं का निर्देश प्रस्तुत संक्षिप्त प्रकरण में देना असंभव है। इन संस्कृत टीकाओं के अतिरिक्त हिन्दी भाषा में हस्तिमल, उपाध्याय आत्माराम, उपाध्याय अमरमुनि आदि विद्वानों ने तथा गुजराती में मुनिधर्मसिंह, पार्थचंद्रगणि आदि विद्वानों ने व्याख्या ग्रंथ लिखे हैं।
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2 जैन दर्शनिक वाङ्मय
जैन धर्म का दार्शनिक वाङ्मय विपुल है। इस दर्शन का एक महत्त्वपूर्ण विषय है कर्मवाद, जिस के पाच सिद्धान्त माने जाते हैं। 1) प्रत्येक कर्म का कोई फल अवश्य होता ही है ।
2) कर्म करने वाले प्राणी को उसका फल भोगना ही पड़ता है। इस जन्म में भोग न हुआ तो उसके लिए पुर्नजन्म लेना पड़ता है।
3) कर्मफल के इस भोगबन्धन से मुक्त होना जीव के ही अधीन है। मुक्तिदाता अन्य कोई नहीं होता ।
4) संसार में व्यक्ति व्यक्ति के सुख-दुःख में जो वैषम्य दिखाई देता है, उसका मूल कारण कर्म ही है। पुण्य कर्म का फल सुख और पाप का फल दुःख होता है।
5) कर्मबन्ध तथा कर्मभोग का अधिष्ठाता प्राणी स्वयं है। इसके अतिरिक्त जितने भी हेतु दीखते हैं, वे सब सहकारी अथवा निमित्तभूत है।
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जैन सिद्धान्तानुसार यह विश्व षड् द्रव्यों से निर्मित है, जो अनादि अनन्त और स्वयमेव विद्यमान हैं। उनमें से एक द्रव्य अजीव है। "जीव" के विपरीत यह द्रव्य अस्थिर और अनन्त परिवर्तनशील है। प्राणी के शरीर में "जीव" तत्त्व के साथ "अजीव" तत्त्व घनिष्ठ संबंध से रहता है। उसके अनुसार सर्व प्रकार की क्रिया होने के कारण, प्राणी प्रतिक्षण "अजीव" तत्त्व के सूक्ष्म परमाणुओं को आकर्षित करता रहता है। कर्म स्वयमेव क्रियाशील है, उसे कार्य करने के लिए किसी अन्य शक्ति की आवश्यकता नहीं होती। भारतीय दार्शनिकों में चार्वाकों के अतिरिक्त सभी दार्शनिकों ने "कर्मवाद" को अपनाया है। इस सिद्धान्त का प्रभाव संपूर्ण भारतीय साहित्य, कला, धर्ममत इत्यादि पर स्पष्ट दिखाई देता है।
जैन दार्शनिकों द्वारा प्रतिपादित कर्मवाद में कर्म की आठ मूलप्रकृतियाँ मानी गई हैं :
1) ज्ञानावरण, 2) दर्शनावरण, 3) वेदनीय, 4) मोहनीय, 5) आयु, 6) नाम गोत्र और 7) अन्तराय। इन मूल कर्मप्रकृतियों के अवान्तर भेद कुल मिलाकर 158 माने गये हैं। कर्म और पुनर्जन्म का अविच्छेद्य संबंध है। पुनर्जन्म न मानने पर विचार में तर्कदृष्ट्या 1) कृतप्रणाश (अर्थात् कृत कर्म का अहेतुक विनाश) और 2) अकृताभ्यागम (अर्थात् अकृत कर्म का भोग) दोष उत्पन्न होते हैं। इन दोषों से मुक्त होने के लिए सभी कर्मवादियों ने पुनर्जन्म के सिद्धान्त को मान्यता दी है। जैन धर्म के श्वेताम्बर और दिगंबर संप्रदायों में इस कर्मवाद का प्रतिपादन विविध ग्रन्थों में हुआ है। दिगम्बर संप्रदाय में जिस "कर्मप्राभृत" एवं "कषायप्राभृत" को आगमरूप मान्यता प्राप्त है, उनमें कर्मविषय के प्रतिपादन को विशेष प्राधान्य है। “कर्मप्राभृत" अथवा "महाकर्मप्रकृति-प्राभृत" इस संज्ञा का कारण, यही माना जाता है। इसमें छः खण्ड होने के कारण इसे “षट्खण्डागम" अथवा "षखण्ड सिद्धान्त" कहते हैं। दिगम्बरों के इस "आगम" का उद्गमस्थान पूर्वोक्त "दृष्टिवाद" नामक जैनागम का बारहवां "अंग" (जो अब लुप्त है) माना गया है। इसके रचियता थे धरसेन आचार्य के शिष्य पुष्पदन्त और भूतबलि।
कर्मप्रामृत (षट्खंडागम) पर कुन्दकुन्दाचार्य (अपरनाम पद्मनन्दिमुनि) श्यामकुण्ड, तुम्बुलूर बप्पदेव जैसे महान् आचार्यों की प्राकृत टीकाओं के अतिरिक्त, समन्तभद्र कृत संस्कृत टीका (48 हजार श्लोक) एवं वीरसेन (ई. 8 वीं शती) और जयसेन (जितसेन) कृत धवला तथा "जयधवला" नामक प्राकृत-संस्कृत मिश्रित टीकाएं प्रसिद्ध हैं। कर्मवाद पर दिगम्बरीय साहित्य में अमितगतिकृत तथा श्रीपालसुत डड्ढकृत "पंचसंग्रह" नामक संस्कृत ग्रंथ उल्लेखनीय है। इनके अतिरिक्त नेमिचंद्रकृत गोम्मटसार (ई. 11 वीं शती) पर अभयचंद्र की नेमिचंद्रकृत लब्धिसार पर केशववर्णी की संस्कृत टीकाएँ उल्लेखनीय हैं। शिवशर्मसूरिकृत कर्मप्रकृति (475 गाथाएं) कर्मसिद्धान्त विषयक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। इस पर मलयगिरिकृत वृत्ति (8 हजार श्लोक) और यशोविजयकृत टीका (13 हजार श्लोक तथा चंद्रर्षिमहत्तर कृत पंचसंग्रह पर स्वयं लेखक की (9 हजार श्लोक) और मलयगिरि की (18 हजार श्लोक) टीका इत्यादि भी उल्लेखनीय हैं।
जैनागमों और उनकी व्याख्याओं के अतिरिक्त उनके सारांशरूप आगमिक प्रकरणों की रचना प्राकृत पद्यों में हुई। प्राचीन काल के विशाल आगम वाङ्मय में प्रतिपादित अनेक गहन विषयों को सुबोध एवं संक्षिप्त करने का प्रयत्न कुन्दकुन्दाचार्य, शान्तिसूरि, अभयदेवसूरि, रत्नशेखरसूरि, हरिभद्रसूरि, श्रीचंद्रसूरि, नेमिचंद्रसूरि, अमृतचंद्रसूरि, मुनिचंद्रसूरि, जिनेश्वरसूरि, देवसूरि आदि अनेक विद्वानों ने अपने प्राकृत ग्रन्थों द्वारा किया है। इन प्राकृत प्रकरणग्रन्थों में से बहुसंख्य ग्रन्थों पर संस्कृत टीकाएं जैन विद्वानों द्वारा लिखी गई हैं।
प्रकरण ग्रंथों का दूसरा प्रकार आचारधर्मविषयक है। इस प्रकार के प्रकरणों में उपदेशमाला, उपदेशप्रकरण, उपदेशरसायन, उपदेशचिंतामणि, उपदेशकन्दली, हितोपदेशमाला, शीलोपदेशमाला, उपदेशरत्नाकर, उपदेशसप्ततिका, धर्मकरण्डक, आत्मानुशासन इत्यादि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
3 जैन-योगदर्शन जैन धर्म के सभी परमपूज्य तीर्थकर योगसिद्ध महापुरुष थे, अतः जैन साधकों में योगमार्ग के प्रति विशेष आस्था सदैव रही और अनेक जैन विद्वानों ने योगविषयक ग्रंथों की रचना भी की है। यशोविजयगणि ने पातंजल योगदर्शन के 27 सूत्रों पर व्याख्या लिखी, जिस में सांख्यदर्शन और जैन दर्शन में भेद तथा साम्य का सम्यक् परिचय देने का प्रयास किया है। योग विषयक महत्त्वपूर्ण जैन ग्रंथः
1) योगबिन्दु : ले. हरिभद्र सूरि। श्लोक-527। इस ग्रंथ पर सद्योगचिन्तामणि नामक महत्त्वपूर्ण वृत्ति (श्लोक-3720) हरिभद्रसूरि की रचना मानी जाती है। इसके अतिरिक्त हरिभद्रसूरि ने जोगसयग (योगशतक) और जोगविहाण वीसिया (योग विधान विशिका) नामक अपने दो प्राकृत ग्रंथों पर, संस्कृत में विस्तृत वृत्ति लिखी है। यशोविजयगणि ने भी जोगविहाणवीसिया पर संस्कृत में विवरण लिखा है।
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2 ) योगदृष्टिसमुच्चय:- ले. हरिभद्र । श्लोक - २२६ । इस पर स्वयं ग्रंथकार कृत 1175 श्लोक परिमाण (59 वृत्ति और साधुराजगणि कृत 450 श्लोक परिमाण (अप्रकाशित) टीका है। भानुविजयमणि की योगदृष्टिसमुच्चय पीठिका प्रकाशित है। 3) ब्रह्मसिद्धिसमुच्चयः ले. हरिभद्रसूरि श्लोकसंख्या 423 से अधिक ।
(4) परमात्मप्रकाशः ले पद्मनन्दी । श्लोक - 13001
5) योगसार:- मूल प्राकृत नाम है जोगसार । ले. योगीन्दु। इस पर इन्द्रनन्दी तथा एक अज्ञात लेखक की टीकाएं संस्कृत में हैं।
6) योगशास्त्र (अथवा अध्यात्मोपनिषद्): ले. हेमचन्द्र सूरि ( उपाधि - कलिकालसर्वज्ञ) । 12 प्रकाशों में पूर्ण । श्लोक संख्या-1019। इस पर इन्द्रनन्दी कृत (ई. 13 वीं शती) योगिरमा, अमरप्रभसूसिरकृत वृत्ति, और इन्द्रसौभाग्यगणि कृत वार्तिक हैं ।
7) योगप्रदीप ( नामान्तर- योगार्णव, ज्ञानार्णवः - ले. शुभचंद्र । समय- ई. 13 वीं शती । सर्गसंख्या - 12 । श्लोक - 2077 इस पर श्रुतसागरकृत तत्त्वत्रयप्रकाशिनी तथा अन्य दो टीकाएं हैं।
8) योगप्रदीप:- ले. अज्ञात । श्लोक 143
१) ध्यानविचार:- गद्यात्मक रचना ले अज्ञात इसमें ध्यान के प्रमुख 24 प्रकार और अनेक अनेकविध उप प्रकारों का निरूपण किया है। 10 ) ध्यानदीपिका :- ले. सकलचंद्र | ई. 16 वीं शती ।
११) ध्यानमाला :- ले. नेमिदास।
12) ध्यानसार:- ले. यशकीर्ति ।
13) ध्यानस्तव: ले. भास्कर नन्दी ।
14) ध्यानस्वरूप :- ले. भावविजय। ई. १८ वीं शती ।
15) द्वादशानुप्रेक्षा: 1) सोमदेव, 2) कल्याणकीर्ति 3) अज्ञातकर्तृ ।
16) साम्यशतक :- ले विजयदेवसूरि श्लोक -107।
17) योगतरंगिणी :- ले. अज्ञात । इसपर जिनदत्त सूरि को टीका है।
18) योगदीपिका :- ले. आशाधर ।
19) योगभेद द्वात्रिंशिका ले. परमानन्द ।
20) योगमार्ग ले सोमदेव
21 ) योगरत्नाकर:- ले. जयकीर्ति ।
22) योगविवरण: ले. यादव सूरि
23) योगसंग्रहसार : ले. जिनचंद्र
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24) योगसंग्रहसार - प्रक्रिया:- अथवा अध्यात्मपद्धति । ले. नन्दीगुरु ।
25 ) योगसार:- ले. गुरुदास
26) योगांग:- ले. शान्तरस। श्लोक- 45001
27 ) योगाभृत: ले. वीरसेन देव
28) अध्यात्मकल्पद्रुमः ले. "सहसावधानी मुनिसुंदर सूरि 16 अधिकारों में विभक्त इस पर धनविजयगणिकृत अधिरोहिणी, रत्नसूरिकृत अध्यात्मकल्पलता एवं उपाध्याय विद्यासागर कृत टीकाएं मिलती हैं।
29 ) अध्यात्मरास- ले. रंगविलास ।
(30) अध्यात्मसार:- ले. यशोविजयगणि। सात प्रबन्धों में विभाजित । श्लोक - 13001
31) अध्यात्मोपनिषद ले. यशोविजयगणि चार विभागों में विभाजित श्लोक 203 32) अध्यात्मविन्दु ले उपाध्याय हर्षवर्धन
33) अध्यात्मकमलमार्तण्डः - ले. राजमल्ल । श्लोक -200।
13
34) अध्यात्मतरंगिणीः- ले. सोमदेव । प्रस्तृत ग्रंथावलि में प्रायः संस्कृत भाषीय ग्रंथों का प्रधानता से निर्देश किया गया है। इनके अतिरिक्त प्राकृत भाषा में भी योग विषयक अनेक ग्रंथ जैन विचारधारा के अनुसार लिखे गये हैं।
आध्यात्मिक साधकों के जीवन में योगसाधना के समान ही नित्य और नैमितिक आचार, व्रत इत्यादि बातों का महत्त्व
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होता है। जैन धर्म में इस प्रकार के नैष्ठिक एवं शुचिशील जीवन को अत्यंत महत्व होने के कारण, इस विषय का विवरण
करने वाले अनेक ग्रंथ निर्माण हुए जिन में प्राकृत ग्रंथों की संख्या अधिक है। उनमें से कुछ ग्रंथों पर संस्कृत टीकाएँ लिखी • गई। संस्कृत ग्रंथों में उमास्वाती कृत प्रशमरति (श्लोक-313), श्रावकप्रज्ञप्ति; समन्तभद्रकृत रत्नकरण्डक श्रावकाचार (श्लोक-150);
अमितगतिकृत उपासकाचार; माघनन्दी कृत श्रावकाचार; जिनेश्वरकृत श्रावकधर्म विधि; रत्नशेखर सूरि कृत आचारप्रदीप (श्लोक-4065), इत्यादि ग्रंथ उल्लेखनीय हैं।
___ तंत्रमार्ग के प्रभाव से भारत का एक भी धर्म संप्रदाय अछूता नहीं रह सका। तांत्रिक वाङ्मय विषयक प्रकरण में इस संबंध में विस्तारपूर्वक जानकारी दी है। जैन वाङ्मय में सकलचन्द्रगणि कृत प्रतिष्ठाकल्प; वसुनन्दकृत प्रतिष्ठासारसंग्रह (700 श्लोक); आशाधर कृत जिनयज्ञकल्प; जिनप्रभसूरि कृत सूरिमन्त्रबृहत्कल्पविवरण; सिंहतिलक सूरिकृत वर्धमानविद्याकल्प और मंत्रराजरहस्य; मल्लिषेणकृत विद्यानुशासन, सुकुमारसेनकृत विद्यानुवाद; मल्लिषेणकृत भैरवपद्मावतीकल्प; वालिनीकल्प, सरस्वती-मंत्रकल्प, कामचांडालिनीकल्प; चन्द्रकृत अद्भुतकदम्वावती कल्प; जिनप्रभसूरिकृत विविधतीर्थकल्प इत्यादि मंत्र तंत्र विषयक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। इनमें से कुछ ग्रंथों में संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का प्रयोग हुआ है तथा उन पर लिखी हुई टीकाएं मुख्यतः संस्कृत भाषा में हैं।
4 "जैन-काव्य" जैन वाङ्मय का वर्गीकरण आगमिक, अन्वागमिक और आगमेतर नामक तीन भागों में किया जाता है। आगमिक वाङ्मय में आचारांत्र आदि 45 आगमों तथा उनपर लिखे नियुक्ति, चूर्णि, भाष्य और टीकाओं का अन्तर्भाव होता है। अन्वागमिक वाङ्मय में कसायपाहुड, षट्रखण्डागम तथा कुन्दकुन्दाचार्य आदि विद्वानों के महनीय ग्रंथ, तथा अन्य दार्शनिक ग्रंथों का अन्तर्भाव होता है। आगमेतर वाङ्मय में "धर्मकथानुयोग" के अन्तर्गत पूज्य अर्हन्त तथा कुलकर, चक्रवर्ती, बलदेव, वासुदेव आदि महापुरुषों की जीवनियों से संबंधित काव्यात्मक साहित्य का अन्तर्भाव होता है। यह आगमेतर साहित्य आगमिक साहित्य से सर्वथा स्वतंत्र नहीं है। उसने प्राचीन आगमों से ही बीजसूत्रों को लिया है और बाहरी उपादानों तथा नवीन शैलियों द्वारा उन्हें पल्लवित कर, एक स्वतंत्र रूप धारण किया है।
ई. चौथी पांचवी शताब्दी से जैन काव्यों की रचना का प्रारंभ माना जाता है। इन काव्यों मे पौराणिक, ऐतिहासिक और शास्त्रीय महाकाव्यों, खण्डकाव्यों, गद्यकाव्यों, नाटक, चम्पू, कथा आदि विविध ललित काव्यप्रकारों का अन्तर्भाव होता है। प्राचीन जैन वाङ्मय प्रधानतथा प्राकृत तथा संस्कृत भाषा में लिखा गया है। प्रस्तुत प्रकरण में केवल संस्कृत वाङ्मय का संक्षिप्त परिचय देते हुए यथावसर श्रेष्ठ प्राकृत ग्रंथों का भी निर्देश किया है।
"धर्मकथानुयोग" के अन्तर्गत काव्यात्मक रचनाकारों का प्रधान उद्देश्य यही था, की उन द्वारा जैन धर्म के आचार और विचार आदि को रमणीय एवं रोचक शैली में प्रस्तुत कर, सामान्य जनता में धार्मिक चेतना एवं भक्तिभावना उद्दीपित हो। इस धार्मिक भावना को प्रकट करने में उन्होंने जैनधर्म के जटिल सिद्धान्तों और मुनिधर्म संबंधी नियामों को उतना अधिक महत्त्व नहीं दिया, जितना कि ज्ञातदर्शन-चरित्र के सामान्य विवेचन के साथ, अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य, दान, शील, तप, स्वाध्याय आदि आचरणीय धर्मों को प्रतिपादित किया है। सामान्य गृहस्थाश्रमी जैन बांधवों के लिए व्रत, पर्व, तीर्थादि-माहात्म्य, तथा विशिष्ट पुरुषों का चरित्रवर्णन करते हुए कथात्मक ग्रंथरचना की ओर भी उन्होंने विशेष ध्यान दिया। ये सभी काव्यग्रन्थ मुख्यतः धार्मिक या धर्मपरक हैं। इन में से कई काव्यों में ब्राह्मण, बौद्ध, चार्वाक आदि दर्शनों के सिद्धान्तों का खण्डन और जैन दर्शन मण्डन है। ये काव्य रस की दृष्टि से अधिकांश शान्तरस प्रधान है। इन में शृगार, वीर, रौद्र, आदि अन्य रस गौण होते हैं। अनेक जैन पौराणिक महाकाव्यों की कथावस्तु जैन परंपरा में प्रसिद्ध शलाका-पुरुषों के जीवन चरितों को लेकर निबद्ध की गई है। इन शलाकापुरुषों की संख्या जिनसेन और हेमचंद्र ने 63 दी है। समवायांगम में 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, १ नारायण और १ बलदेव को ही "उत्तम पुरुष" मान कर कुलसंख्या 54 दी है। पर उनमें 9 प्रतिनारायणों को जोड़ कर 63 संख्या बनती है। भद्रेश्वर ने अपनी कथावलि में 9 नारदों की संख्या जोडकर शलाकापुरुषों की संख्या 72 दी है। शलाकापुरुष शब्द का अर्थ, शलाका अर्थात सम्यक्त्व से युक्त महापुरुष। हेमचद्राचार्य का त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित एक महान संस्कृत आकर ग्रंथ है। उसमें अनेक पौराणिक महाकाव्यों के बीज हैं। उल्लेखनीय पौराणिक काव्यों की सूचि :महापुराण- (आदि पुराण और उत्तरपुराण सहित पर्वसंख्या-76) आदिपुराण के लेखक-जिनसेन और गुणभद्र। उत्तर पुराण के लेखक गुणभद्र और लोकसेन । पुराणसारसंग्रह :- ले. दामनन्दी । इस में आदिनाथ, चंद्रप्रभ, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ और महावीर इन तीर्थंकरों के चरित्र संकलित हैं। त्रिषष्टिशलाकापुराण (अपरनाम-महापुराण):- ले. आशाधर। अध्याय-24। श्लोक-4801
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आदिपुराण (अपरनाम-ऋषभनाथचरित) और उत्तरपुराण- ले. भट्टारक सकलकीर्ति । कर्णामृतपुराण:- ले. केशवसेन और प्रभाचंद्र। पार्श्वनाथ काव्य और रायमल्लाभ्युदय :- ले. उपाध्याय पद्मसुंदर ( ये अकबर के दरबार में सभासद थे ) चतुर्विंशति-जिनेन्द्र संक्षिप्त-चरितानिः- ले. अमरचंद्रसूरि (अध्याय -24। श्लोक-1802। महापुरुषचरित : ले. मेरुतुंग। इसमें ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व और वर्धमान इन पाँच तीर्थकारों के चरित्र हैं। लधुत्रिषष्टि शलाकापुरुषचरित : ले. मेघविजय उपाध्याय । हेमचन्द्राचार्य कृत ग्रंथ का यह संक्षेप है। पर्व 10 । श्लोक 5000। लघुमहापुराण (अपरनाम - लघुत्रिषष्टिलक्षण-महापुराण : ले. चंद्रमुनि । त्रिषष्टि-शलाकापुरुषचरित्र : ले. विमलसूरि। 2) ले. वज्रसेन ।
इन पुराणात्मक संस्कृत ग्रन्थों के अतिरिक्त संस्कृत में तीर्थंकरों के जीवनचरित संबंधी स्वतंत्र महाकाव्य भी लिखे गये हैं। उनमें निम्ननिर्दिष्ट काव्य उल्लेखनीय हैं। परमानन्द महाकाव्य (अपरनाम जिनेन्द्रचरित) : ले. अमरचन्द्रसुरि। इसकी रचना वीसलदेव (ई. 13 वीं शती) के मंत्री पद्म के अनुरोध पर की गई, अतः इसका नाम “पद्यानन्द" रखा गया। इसमें ऋषभ, भरत और बाहुबलि के चरित्र वर्णित हैं। आदिनाथ चरित : ले. विनयचन्द्र । अन्य एक विनयचन्द्र द्वारा लिखित मल्लिनाथचरित, मुनिसुव्रतनाथचरित तथा पार्श्वचरित उपलब्ध हैं। आदिनाथ पुराण (अपरनाम ऋषभनाथ चरित्र) : ले. सकलकीर्ति । अजितनाथपुराण : ले. अरुणमणि । यह मौलिक रचना न होकर आदिपुराण, हरिवंशपुराण आदि ग्रन्थों में उद्धृत अंशों का संकलन है। संभवनाथचरित्र : ले. मेरूतुंगसूरि। (मेरुतुंग नामके तीन सूरि माने जाते हैं।) पद्यप्रभचरित्र : ले. सिद्धसेन सूरि।। चन्द्रप्रभचरित : ले. वीरनन्दी (ई. 11 वीं शती) 2) ले. असंग कवि। 3) ले. देवेन्द्र। श्लोक 5325)। 4) ले, सर्वानन्द सूरि। सर्ग 13। श्लोक 7141) ई. 14 वीं शती। 5) ले. भट्टारक शुभचन्द्र, सर्ग 12) 6) ले. पंडिताचार्य। 7) ले. शिवाभिराम। 8) ले. दामोदर। श्रेयांसनाथचरित : ले. मानतुंगसूरि। सर्ग 13। 2) ले. भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति । वासुपूज्यचरित : ले. वर्धमानसूरि। ई. 14 वीं शती। सर्ग 4। श्लोक 5494 । विमलनाथचरित (गद्यकाव्य) : ले. ज्ञानसागर। ई. 17 वीं शती। विमलपुराण : ले. कृष्णदास। सर्ग 101 श्लोक 23641 अनन्तनाथपुराण : ले. वासवसेन । धर्मनाथचरित : ले. नेमिचन्द्र। धर्मशर्माभ्युदय : ले. हरिचन्द्र। शान्तिनाथपुराण : ले. असंग कवि। सर्ग 161 श्लोक 25001 लघुशान्तिपुराण : ले. असंग कवि। सर्ग 121 शान्तिनाथचरित : ले. माणिक्यचन्द्र सूरि । सर्ग 8 श्लोक, 5574। इन्होंने गम्मटकृत काव्यप्रकाश पर संकेत नामक टीका लिखी है। शान्तिनाथ महाकाव्य : ले. मुनिभद्रसूरि । शान्तिनाथचरित : ले. अजितप्रभसूरि। सर्ग 6। श्लोक 48551 3) ले. भावचन्द्रसूरि। 4) मुनिभद्रसूरि सर्ग 191 5) ले. ज्ञानसागर। 6) ले. उदयसागर। 7) वत्सराज 8) ले. हर्षभूषणगणि। 9) ले. कनकप्रभ। 10) रत्नशेखरसूरि। 11) ले. शान्तिकीर्ति, 12) ले. गुणसेन। 13) ले. ब्रह्मदेव। 14) ले. ब्रह्मजय सागर और 15) ले. श्रीभूषण । शान्तिनाथराज्याभिषेक : ले. धर्मचन्द्रगणि। शान्तिनाथविवाह : ले. आनन्दप्रमोद । शान्तिनाथचरित : ले. मेघविजय गणि। इसमें लेखक ने, श्रीहर्षकृत नैषधीयचरित के पादों की पूर्ति करते हुए शान्तिनाथ का चरित्र प्रस्तुत किया है। मल्लिनाथचरित : ले. विनयचन्द्रसूरि। सर्ग 8 श्लोक 4355। इस काव्य में श्वेताम्बर जैन मान्यता के अनुसार मल्लिनाथ को सी माना है। 2) ले. भट्टारक सकलकीर्ति (सर्ग 7, श्लोक 874) 3) शुभवर्धनगणि, 4) विजयसूरि । 5) भट्टारक प्रभाचंद्र।
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मुनिसुव्रतचरित : ले. मुनिरत्न सूरि। सर्ग 23। श्लोक 6806) 2) ले. पद्मप्रभसूरि। श्लोक 55551 3) ले. विनयचंद्रसूरि । सर्ग 8, श्लोक 455214) ले. अर्हद्दास। 5) ले. कृष्णदास (सर्ग 23) 6) ले. केशवसेन । 7) ले. भट्टारक सुरेन्द्रकीर्ति । 8) ले. हरिषेण । नेमिनाथचरितः- ले. सुराचार्य। यह काव्य द्विसन्धानात्मक है; जिसका एक अर्थ प्रथम तीर्थंकर ऋषभ परक और दूसरा 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ परक होता है। नेमिनिर्वाणकाव्यः- ले. वाग्भट (12 वीं शती) सर्ग-15। नेमिचरित्रमहाकाव्यः- ले. रामन। ई. 14 वीं शती। नेमिनाथचरित्रः- ले. दामोदर। ई. 14 वीं शती। 2) ले. उदयप्रभ । नेमिचरितकाव्य:- ले. विक्रम। इसमें मेघदूत के पादों की समस्यापूर्ति कवि ने की है। नेमिनाथ-महाकाव्यः- ले. कीर्तिराज उपाध्याय। सर्ग-12। श्लोक-703 । नेमिनाथचरित (गद्यकाव्य):- ले. गुणविजय गणि। ग्रंथ 13 विभागों में विभाजित है। नेमिनिर्वाणकाव्य:- ले. ब्रह्मनेमिदत्त । ई. 17 वीं शती। सर्ग-161 पार्वाभ्युदयः- ले. जिनसेन (प्रथम)। ई.9 वीं शती । मेघदूत की पंक्तियों की समस्यापूर्ति करते हुए पार्श्वनाथ का चरित्र इसमें वर्णित है। पार्श्वनाथ-चरित (अपरनाम-पार्श्वनाथ जिनेश्वर चरित):- ले. वादिराज सूरि । ई. 11 वीं शती। सर्ग-121 2) ले. माणिक्यचंद्रसूरि । सर्ग-10। श्लोक-67701 3) ले. विनयचंद्रसूरि। ई. 14वीं शती। श्लोक-49851 4) ले. सर्वानन्दसूरि। श्लोक-8000। 5) ले. भावदेव सूरि । ई. 16 वीं शती। सर्ग-8। श्लोक-6074। 6) ले. सकलकीर्ति । ई. 15 वीं शती। सर्ग-23। 7) ले. पद्मसुंदर । ई. 15 वीं शती । सर्ग-718) ले. हेमविजय । 9) ले. वादिचंद्र । ई. 17 वीं शती। 10) ले. वीरगणि (गद्यग्रंथ)। महावीर चरितः- (अपरनाम-वर्धमानचरित या सन्पतिचरित):- ले. असंग कवि। ई. 11 वीं शती। वर्धमानचरितः- (अपरनाम महावीरपुराण या वर्धमानपुराण)- ले. सकलकीर्ति। अममस्वामिचरित:- ले. मुनिरत्नसूरि । ई. 13 वीं शती। सर्ग-201 श्लोक-10 हजार। इसमें भावी तीर्थंकर अममस्वामी का चरित्र वर्णन किया है। जैन धर्म में जिन 24 तीर्थंकरों को मान्यता प्राप्त है, उनके जीवनचरित्र इस प्रकार विविध पौराणिक काव्यों में लिखे गये। इन महापुरुषों के चरित्रों पर आधारित महाकाव्य, भारवि, माघ बाण, भट्टि आदि के महाकाव्यों के अनुकरणपर रचे गये हैं, जिनका अन्तर्भाव रीतिबद्ध श्रेणी में या शास्त्रकाव्य तथा बह्वर्थक महाकाव्यों में होता है। इनमें कवियों ने अन्य महाकवियों के समान अल्प कथावस्तु का चित्रण करते हुए अपना पाण्डित्य एवं प्रतिभावैभव प्रकट करने की चेष्टा की है। इनमें से कुछ महत्त्वपूर्ण काव्यों का उल्लेख पौराणिक महाकाव्यों की उपरिलिखित नामावलि में हुआ है। विशेषतः उल्लेखनीय हैं कुछ अनेकार्थक या "संधान-काव्य" जिनकी रचना (संस्कृतभाषीय शब्दों की अनेकार्थकता के कारण) संस्कृत में ही हो सकती है। इस प्रकार के जटिल काव्यों की रचना ई. 5 वीं 6ठी सदी से होने लगी। जैन संधानकाव्यों में सबसे प्राचीन और उत्तम माना हुआ "द्विसंधान" काव्य धनंजय ने (ई. 8 वीं शती) में लिखा, जिसका नाम है राघव-पाण्डवीय। इसमें रामायण और महाभारत की कथा 18 सर्गों में एक साथ बड़ी कुशलता से ग्रंथित की है। इस विचित्र परंपरा में श्रुतकीर्ति त्रैविद्य का राघवपाण्डवीय, माधव भट्ट का राघवपाण्डवीय, सन्ध्याकरनन्दी का रामचरित, हरिदत्त सूरि का राघवनैषधीय चिदम्बरकविकृत राघवपाण्डवयादवीय आदि संधानकाव्यों का अन्तभाव होता है।
जैन वाङ्मय की दृष्टि से इस प्रकार के काव्यों में अत्यंत महत्त्वपूर्ण काव्य है मेघविजयगणिकृत "सप्तसंधानकाव्य", जिस के प्रत्येक श्लेषमय पद्य से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व और महावीर इन पांच तीर्थंकरों एवं राम तथा कृष्ण इन सात महापुरुषों के चरित्र व्यक्त होते हैं। इस काव्य में 9 सर्ग हैं। सोमप्रभाचार्य ने "शतार्थिक" काव्य के रूप में एक ही पद्य की रचना की
और उसपर अपनी टीका लिखकर 106 -अर्थ निकाले है जिनमें 24 तीर्थंकरों के साथ ब्रह्म, विष्णु, महेश तथा कुछ ऐतिहासिक नृपतियों के भी चरित्र व्यक्त होते हैं। 10 वीं शताब्दी से त्रिविक्रमभट्ट कृत नलचम्पू के प्रभाव से संस्कृत में गद्य-पद्यात्मक काव्य रचना होने लगी, जिसे साहित्यशास्त्रियों ने "चम्पू" नाम दिया। जैन संस्कृत वाङ्मय की परम्परा में सोमदेव सूरिकृत यशस्तिलकचम्पू (जिसमें जैन पुराणों में वर्णित यशोधर नृपति की कथा, आठ आश्वासों में वर्णित है, हरिचन्द्रकृत जीवन्धर-चम्पू और अर्हद्दासकृत पुरुदेवचम्पू ये तीन ग्रंथ विशेष महत्त्वपूर्ण हैं।
दूतकाव्य विश्व साहित्य में संस्कृत साहित्य के दूतकाव्य अपूर्व माने जाते हैं। कालिदास ने अपने मेघदूत द्वारा इस काव्य प्रकार को प्रवर्तित किया। पाश्चात्य साहित्य पर भी इस का प्रभाव पड़ा। प्राचीन जैन कवियों ने इस पद्धति के अनुसार कुछ दूतकाव्यों
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की रचना की, जिनमें जिनसेन (ई.8 वीं शती) का पार्श्वाभ्युदय, विक्रम का नेमिदूत (ई. 13 वीं शती), मेरुतुंग का जैनमेघदूत (ई. 14-15 वीं शती), चरित्रसुंदरगणि का शीलदूत (ई. 15 वीं शती), वादिचंद्र का पवनदूत (ई. 17 वीं शती), विनयविजयगणिका इन्दुदूत (ई. 18 वीं शती), मेघविजय का मेघदूत समस्यालेख (ई. 18 वीं शती) विमलकीर्तिगण का चन्द्रदत और अज्ञातकर्तृक चेतोदूत इत्यादि दूतकाव्य उल्लेखनीय हैं। इन दूतकाव्यों में विप्रलंभ के अलावा शान्तरस को प्रधान स्थान दिया गया है। साहित्यिक सरसता से अपने धर्म सिद्धान्तों एवं धर्मनियमों को इन दूतकाव्यों द्वारा प्रचारित करने का प्रयास हुआ है।
"
जयदेवकृत राग-ताल निबद्ध गीतगोविंदम् के प्रभाव से अभिनव चारुकीर्ति पंडितचार्य (श्रवणबेलगोल (कर्णाटक) मठ के भट्टारक ई.14-15 वीं शती) ने गीतवीतराग प्रबन्ध की रचना की, जिसमें 25 प्रबंधों में तीर्थंकर ऋषभदेव के पूर्वजन्मों की कथा वर्णन करते हुए स्तुति की है। संस्कृत वाङ्मय में प्रभुरामचंद्र की कथा पर आधारित विविध प्रकार के साहित्य की संख्या बहुत बड़ी है। उपरिनिर्दिष्ट तीर्थंकर विषयक साहित्य के साथ ही जैन साहित्यिकों ने रामकथा पर आधारित पौराणिक काव्यों की रचना की। ई-7 वीं शती में रचित विमलसूरि का "पऊमचरिय” नामक प्राकृत काव्य रामकथा विषयक जैन काव्यों का उपजीव्य ग्रंथ है। जैनपुराण साहित्य में यह सब से प्राचीन ग्रंथ माना जाता है। इसमें वर्णित रामकथा का स्वरूप वाल्मीकीय रामकथा से अनेक प्रकारों से भिन्न है। वाल्मीकीय और जैनीय रामायण के सारे प्रमुख पात्र नामतः एक ही हैं, परंतु उनके व्यक्तित्व का चित्रण सर्वथा निराला है। यहाँ के उपाख्यान भी स्वतंत्र हैं। विमलसूरि ने रामकथा का निरुपण जैन धर्म के अनुकूल करते हुये, जैन धर्म का यथोचित प्रतिपादन किया है। संस्कृत में रचित रामचरित्रों में रविषेण कृत पद्मचरित या पद्मपुराण, देवविनय कृत गद्यात्मक जैनरामायण तथा जिनदास (ई. 16 वीं शती) सोमसेन, धर्मकीर्ति, चन्द्रकीर्ति भट्टारक, चन्द्रसागर, श्रीचन्द्र इन लेखकों के पद्मपुराण (या रामपुराण) नामक ग्रंथ एवं शुभवर्धनगणि कृत पद्ममहाकाव्य, पद्मनाभकृत रामचरित्र, प्रभाचंद्र (या श्रीचंद्र) कृत पद्मपुराणपंजिका, इत्यादि ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। सोताचरित्रपरक ग्रन्थों मे शान्तिसूरि ब्रह्मनेमिदत्त और अमरदास के काव्य उल्लेखनीय हैं।
महाभारत की कथा पर आधारित जिनसेन (ई. 8 वीं शती) कृत हरिवंशपुराण काव्यगुणों से परिपूर्ण एक विश्वकोशात्मक कथाग्रंथ है। इसमें 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र केन्द्रबिन्दु है, जिसका विस्तार, वसुदेव, कृष्ण, बलराम, प्रद्युम्न, सांब, जरासंघ, कौरव, पाण्डव इत्यादि पुरुषों का, जैन मान्यतानुसार चरित्रवर्णन करते हुए, किया गया है। इस ग्रंथ का स्वरूप "जैन महाभारत" संज्ञा के योग्य है ग्रन्थ की प्रत्येक पुष्पिका में "अरिष्टनेमिपुराणसंग्रह" नाम से इस पुराण का निर्देश हुआ है।
I
पाण्डवचरित नामक 18 सर्गों के महाकाव्य में देवप्रभसूरि (ई. 14 वीं शती) ने जैन परंपरा के अनुसार, षष्ठांगोपनिषद तथा हेमचन्द्राचार्य कृत त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित पर आधारित पाण्डवचरित्र का वर्णन किया है साथ में तीर्थंकर नेमिनाथ का चारित्र भी निवेदित हुआ है। इसी प्रकार भट्टारक सकलकीर्ति के हरिवंश पुराण में कौरव पाण्डव और श्रीकृष्ण के चरित्रों के साथ 22 वें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र वर्णन किया गया है। इस काव्य में कुल सर्गसंख्या है 40 परंतु उनमें से प्रथम 14 सर्गों की रचना सकलकीर्ति की है, और शेष सर्गों की रचना, उन के शिष्य ब्रह्मजिनदास ने की है। सकलकीर्ति द्वारा रचित 28 संस्कृत ग्रंथों में से कुछ महत्त्वपूर्ण ग्रंथों का निर्देश प्रस्तुत प्रकरण में यथास्थान हुआ है। भट्टारक शुभचन्द्र का पाण्डवचरित "जैनमहाभारत" नाम से विदित है इसमें 25 पर्व है और प्रत्येक पर्व का प्रारंम्भ तीर्थकर की स्तुति से होता है प्रथम पर्व में ऋषभादि 24 तीर्थंकरों की स्तुति है।
पाण्डव चरित्र विषयक अन्य ग्रंथ:
पाण्डवपुराण (सर्ग-18) ले. भट्टारक वादिचन्द्र ।
पाण्डवपुराण ले. श्रीभूषण ई. 18 वीं शती।
पाण्डवचरित्र (सर्ग - 18 ) :- ले. देवविजयगणि। ई. 18 वीं शती ।
पाण्डवचरित्र (हरिवंशपुराण): ले. शुभवर्धनगण ।
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-
पाण्डवपुराण: ले. रामचंद्र !
हरिवंशपुराण:- ले. श्रीभूषण ई. 18 वीं शती । 2) ले श्रुतकीर्ति, 3) ले. जयसागर 4 ) ले. जयानन्द । ५) ले मंगरा । इस प्रकार रामायण और महाभारत की लोकप्रियता के कारण जैन साहित्यकों ने उन सरस कथाओं पर आधारित काव्यों की रचना पर्याप्त मात्रा में की है, परंतु उन कथाओं में जैन परंपरा तथा जैन विचारधारा का अंश मिला कर पृथगात्मता निर्माण करने का प्रयास किया है। !
5) जैन anantव्ण
संस्कृत साहित्य में स्तोत्रात्मक काव्यों की वेदों से प्रारंभ होता है। इन्द्र, वरुण,
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इत्यादि देवताओं के स्तोत्र सुप्रसिद्ध हैं। समस्त पुराण वाङ्मय में शताबधि स्तोत्र सर्वत्र विखरे हुए हैं। उनके अतिरिक्त मातृचेट का अर्घ्यशतक, शैववाङ्मय में पुष्पदन्त का शिवमहिम्नःस्तोत्र, बाणभट्ट का चण्डीशतक मुरारि का सूर्यशतक, और शंकरादि आचार्यों के भावपूर्ण स्तोत्र संस्कृत साहित्य में अविस्मरणीय हैं। जैन धर्म में ज्ञान, दर्शन और चरित्र पर विशेष आग्रह है। उपास्य तीर्थंकर एवं पंच परमेष्ठियों (अर्थात् अरहन्त, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय एवं साधु) के स्तोत्र गान से, जीव को इस "त्रिरत्न" का बोध होता है यह सिद्धान्त माना गया है। अतः संस्कृतभाषा में जैन मतानुकूल भक्तिपूर्ण स्तोत्र बहुमुखी धारा में प्रवाहित हुए। इन में कुछ तार्किक शैली में, कुछ आलंकारिक शैली में, कुछ समस्यापूर्ति के रूप में रचित है। जैन समाज में सबसे प्रिय दो स्तोत्र माने गये है :- 1) मानतुंगाचार्य (ई. 7 वीं शती) कृत भक्तामरस्तोत्र और 2) कुमुदचंद्रकृत कल्याणमंदिरस्तोत्र । प्रथम स्तोत्र में प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव की 44 (या 48) पद्यों में एवं द्वितीय में पार्श्वनाथ की 44 पद्यों में स्तुति की गई है। हेमचन्द्राचार्य कृत वीतरागस्तोत्र और महादेवस्तोत्र में,
___ "भवबीजांकुरजनना रागाद्याः क्षयमुपगता यस्य । ब्रह्मा वा विष्णुर्वा हरो जिनो वा नमस्तस्मै।।" "तं वन्दे साधुवंद्यं सकलगुणनिधिं ध्वस्तदोषद्विषन्तं । बुद्धं वा वर्धमानं शतदलनिलयं केशवं वा शिवं वा।।" इत्यादि वचनों द्वारा सर्वमतों की एकात्मता की उदार भावना उत्कृष्ट रीति से अभिव्यक्त हुई है।
जैन स्तोत्र वाङ्मय में 24 तीर्थंकरों के गुणवर्णनपर स्तोत्र प्रमुख हैं। इन में सबसे अधिक संख्या है पार्श्वनाथ से संबंधित स्तोत्रों की । इस के बाद ऋषभदेव और महावीर पर लिखे स्तोत्रों की संख्या आती है। शेष तीर्थंकरों से संबधित स्तोत्र और भी कम हैं।
"कुछ उल्लेखनीय जैन स्तोत्रकार और स्तोत्र" 1) समन्तभद्र- अ) स्वयंभूस्तोत्र आ) देवागमस्तोत्र। इ) युक्त्यनुशासन, ई) जिनशतकालंकार । 2) आचार्य सिद्धसेन- द्वात्रिंशिका स्तोत्र । - 3) आचार्य हेमचंद्र- 1) अयोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका। 2) अन्ययोगद्वात्रिंशिका। 4) प्रज्ञाचक्षु श्रीपाल- सर्वनियतिस्तुति । 5) रामचन्द्रसूरि- द्वात्रिशिंकास्तोत्र । 6) जयतिलकसूरि- चतुर्हारावलिचित्रस्तव । 7) विवेकसागर- वीतरागस्तव (श्लिष्टस्तोत्र)। इसके 30 अर्थ श्लेषद्वारा निकाले जाते हैं। 8) नयचंद्रसूरि- स्तंभपार्श्वस्तव। 18 अर्थो का (श्लिष्टस्तोत्र)। . 9) समयसुन्दर- ऋषभभक्तामरस्तोत्र । 10) लक्ष्मीविमल- शान्तिभक्तामर ।। 11) रत्नसिंहसूरि- नेमिभक्तामर । । 12) धर्मवर्धनगणि- वीरभक्तामर । 13) धर्मसिंहसूरि- सरस्वतीभक्तामर ।।
इनके अतिरिक्त जिनभक्तामर, आत्मभक्तामर, श्रीवल्लभभक्तामर, एवं कालीभक्तामर इत्यादि भक्तामर- शब्दान्त स्तोत्रों में मानतुंग कृत सुप्रसिद्ध भक्तामरस्तोत्र की पादपूर्ति करते हुए स्तुतिपद्यों की रचना की गई है। इसी प्रकार कुमुदचंद्रकृत कल्याणमंदिर स्तोत्र की समस्यापूर्ति में भावप्रभसूरिकृत जैनधर्मवरस्तोत्र, तथा अज्ञातकर्तृक पार्श्वनाथस्तोत्र, वीरस्तुति, विजयानदसूरी ईश्वरस्तवन, इत्यादि स्तोत्र उल्लेखनीय हैं। 14) देवनन्दी पूज्यपाद (ई. 6 शती) :- सिद्धभक्ति और सिद्धप्रियस्तोत्र । 15) पात्रकेशरी- (ई. 6 शती) - जिनेन्द्रगुणसंस्तुति । 16) मानतुंगाचार्य (ई. 7 वीं शती) भक्तामरस्तोत्र (या आदिनाथ स्तोत्र) 17) बप्पभट्टि- (ई. 8 वीं शती) - सरस्वतीस्तोत्र, शान्तिस्तोत्र, चतुविंशतिजिनस्तुति, वीरस्तव। 18) धनंजय (ई. 8 वीं शती) जिनसहस्रनाम। 19) जिनसेन (ई. 9 वीं शती) जिनसहस्रनाम। 20) विद्यानन्द - श्रीपुरपार्श्वनाथ। 21) कुमुदचन्द्र (सिद्धसेन ई. 11 वीं शती) कल्याणमन्दिर । 22) शोभनमुनि- (ई. 11 वीं शती) चतुर्विशतिजिनस्तुति । 23) वादिराजसूरि - ज्ञानलोचनस्तोत्र, एकीभावस्तोत्र ।
.11 वीं
23) वाशिमान (ई.
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24) भूपालकवि (ई. 11 वीं शती) जिनचतुर्विंशतिका। 25) आचार्यहेमचन्द्र (ई. 12 वीं शती) (क) वीतरागस्तोत्र (ख) महादेवस्तोत्र (ग) महावीरस्तोत्र । 26) जिनवल्लभसूरि (ई. 12 वीं शती) भवादिवारण, 2) अजितशान्तिस्तव इत्यादि। 27) आशाधर (ई. 13 वीं शती) सिद्धगुणस्तोत्र।। 28) जिनप्रभूसरि (ई. 13 वीं शती) सिद्धान्तागमस्तव, अजितशान्तिस्तवन इत्यादि। 29) महामात्यवस्तुपाल (ई. 13 वीं शती) अंबिकास्तवन । 30) पद्यनन्दिभट्टारक - रावणपार्श्वनाथस्तोत्र, शान्तिजिनस्तोत्र, वीतरागस्तोत्र । 31) मुनिसुन्दर - स्तोत्ररत्नकोश। 32) भानुचन्द्रगणि - सूर्यसहस्रनामस्तोत्र । _ इस नामावली से जैन स्तोत्रों के बहिरंग स्वरूप की कल्पना आ सकती है। जैनस्तोत्रसमुच्चय, जैनस्तोत्रसन्दोह, इत्यादि संग्रहात्मक ग्रन्थो में अनेक जैनस्तोत्र प्रकाशित हुए हैं।
कृष्णमिश्र के प्रबोध चन्द्रोदय नाटक से रूपकात्मक या प्रतीकात्मक नाटकों की प्रणाली जैसे संस्कृत नाट्यक्षेत्र में निर्माण हुई उसी पद्धति के अनुसार जैनविद्वान पद्मसुन्दर (अकबर के समकालीन) ने ज्ञानचन्द्रोदय, तथा वादिचन्द्र ने ज्ञानसूर्योदय, मेघविजयगणि ने युक्तिप्रबोध, जैसे नाटक लिखकर, उन के द्वारा जैनमत का प्रतिपादन किया है। साहित्य के विविध प्रकारों द्वारा जैन विचारधारा का प्रतिपादन करने के प्रयत्नों में दृश्यकाव्य या नाटक का भी उपयोग प्रतिभाशाली जैन साहित्यिकों ने किया है। यशश्चन्द्र के मुद्रित कुमुदचन्द्र नाटक में पांच अंकों में जैन न्याय ग्रंथों में बहुचर्चित स्त्रीमुक्ति का विषय छेड़ा गया है। धर्मशर्माभ्युदय, शर्मामृत जैसे छायानाटकों तथा मोहराजपराजय का भी इस प्रकार के जैन नाटकों में निर्देश करना उचित होगा।
6 बौद्ध वाङ्मय बौद्ध धर्म विषयक वाङ्मय को ही बौद्ध वाङ्मय कहा जा सकता है। जैसे वैदिक धर्म विषयक वाङमय के विभिन्न प्रकार वैदिक संस्कृत भाषा में निर्माण हुए, उसी प्रकार बौद्ध धर्म से संबंधित विविध प्रकार का वाङ्मय निर्माण हुआ और उसे "बौद्ध वाङमय" संज्ञा आलोचकों ने दी। प्रारंभ में यह वाङ्मय पाली भाषा में विकसित हुआ। बौद्धों के “त्रिपिटक" पाली भाषा में ही निर्माण हुए और श्रीलंका, ब्रह्मदेश इत्यादि भारत के बाहर वाले देशों में भी उन्हें मान्यता प्राप्त हुई। बौद्ध मत के हीनयान और महायान नामक दो प्रमुख संप्रदाय निर्माण हुए। महायान संप्रदाय में संस्कृत भाषा का उपयोग होने लगा। ईसा की दूसरी और तीसरी सदी में संस्कृत भाषा का महत्त्व सर्वत्र अधिक मात्रा में बढ़ने लगा। संस्कृत भाषा के वर्धिष्णु प्रभाव के कारण महायानी बौद्ध विद्वानों ने भी संस्कृत में ग्रंथरचना का आरंभ किया। उनके बहुत से ग्रंथ "संकरात्मक संस्कृत भाषा" में निर्माण हुए। बौद्ध संप्रदाय के ग्रंथों में ई. 2 री शती का महावस्तु नामक हीनयान संप्रदाय का प्रसिद्ध विनयग्रंथ है, जिस में बोधिसत्व की दशभूमि का तथा भगवान बुद्ध के चरित्र का प्रतिपादन, संस्कारात्मक मिश्र संस्कृत में हुआ है। शुद्ध संस्कृत भाषा में बौद्ध धर्मविषयक साहित्य निर्मित करने वालों में अश्वघोष प्रभृति महायान कवियों एवं दार्शनिकों का योगदान महत्त्वपूर्ण है।
इसके अतिरिक्त बौद्ध 'संकर संस्कृत' (नामान्तर गाथा संस्कृत, बौद्ध संस्कृत या मिश्र संस्कृत) भाषा में बौद्ध वाङ्मय निर्माण हुआ। मध्य भारतीय आर्य भाषाओं के उपर, संस्कृत के आरोपण तथा संस्कृत की विशेषताओं के समावेश से इस बौद्ध संकर-संस्कृत भाषा का प्रादुर्भाव हुआ। इसके मूल में प्राकृत प्रयोग का परित्याग तथा संस्कृत स्वीकार का प्रयास दिखाई देता है। एजर्टन जैसे भाषा वैज्ञानिक इस भाषा का पृथक् अस्तित्व मानते हैं, तो लुई रेनो आदि विद्वान इसे संस्कृत ही मानते हैं। ब्राह्मण एवं श्रमण संस्कृति का समन्वय इस भाषा के मिश्र स्वरूप में प्रकट होता है। इस मिश्र संस्कृत भाषा में उपलब्ध कतिपय रचनाओं का प्रारंभ काल ईसा की प्रथम शती से भी पूर्व माना जाता है। मिश्र संस्कृत की कृतियाँ प्रायः गद्यपद्यमयी हैं जिन में गद्य भाग बहुधा संस्कृत में एवं पद्य भाग (गाथा) तत्कालीन मध्यभारतीय भाषाओं में रचित है। गद्यसंस्कृत में बौद्ध संप्रदाय के परम्परागत पारिभाषिक शब्द विद्यमान हैं। शुद्ध संस्कृत में इन शब्दों का परिभाषिक अर्थ में प्रयोग नहीं हुआ। इन मिश्र संस्कृत में रचित ग्रंथों में महावस्तु, ललितविस्तार, सद्धर्मपुण्डरीक, जातकमाला, अवदानशतक, दिव्यावदान आदि ग्रंथ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
कालिदासादि संस्कृत कवियों की परम्परा में शृंगारिकता को प्रधानता दी गई है। बौद्ध संस्कृत काव्यों में शान्त रस को अग्रस्थान दिया गया है। अश्वघोष के दोनों महाकाव्यों में संभोग एवं विप्रलंभ शृंगार का दर्शन होता है परंतु वह शृंगार, काव्य में शांतरस के प्रवाह में प्रवाहित होता है। शांतरस और करुणा, त्याग, दया जैसे उदात भावों का प्राधान्य बौद्ध काव्यों की अनोखी विशेषता है। महायान संप्रदाय का ललितविस्तर नामक ग्रंथ (जिसमें भगवान् बुद्ध की लीलाओ का वर्णन किया है।)
संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/199
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प्रारंभिक बौद्ध संस्कृत वाङ्मय में महत्त्वपूर्ण माना जाता है। अश्वघोषकृत बुद्धचरित, सौन्दरनंद महाकाव्य और सारीपुत्त प्रकरण नामक नाट्यग्रंथ का बौद्ध धर्म के प्रचार कार्य में विशेष योगदान है। सौन्दरनंद में बुद्ध का भाई नंद बौद्धधर्मी होने की कथा वर्णित है और सारीपुत्त प्रकरण में सारीपुत्त ओर मोद्गलायन के बौद्धधर्म स्वीकार की घटना चित्रित है बुद्धचरित और सौदरनंद महाकाव्य के कारण प्राचीन संस्कृत महाकवियों में अश्वघोष को अग्रपूजा का मान दिया जाता है। परंतु इन तीन काव्य ग्रंथों के अतिरिक्त 1) महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र, 2) सूत्रालंकार और 3 ) वज्रसूची (नामान्तर वज्रच्छेदिका या कसूचिकोपनिषद) जैसे दार्शनिक मैथ, गण्डीस्तोत्रगाथा नामक गीतिकाव्य, सारिपुत्रप्रकरण नामक नाट्यग्रंथ और राष्ट्रपाल, उर्वशीवियोग तथा रूपकावेश (दो भाग) इन ग्रंथों का कर्ता, अश्वघोष को ही माना गया है। महायान श्रद्धोत्पादशास्त्र मूल संस्कृत में संप्रति अनुपलब्ध है किन्तु परमार्थकृत चीनी रूपान्तर के रूप में सुरक्षित है। इस रूपान्तर पर आधृत, इसके दो अंग्रेजी अनुवाद हो चुके हैं। सूत्रालंकार या सूत्रालंकारशास्त्र गद्यपद्यात्मक कथाकाव्य है। यह भी कुमारजीवकृत चीनी अनुवाद (ई. 5 वीं शती) के रूप में सुरक्षित है। इसमें रामायण एवं महाभारत के उल्लेख यत्र तत्र मिलते हैं।
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वज्रसूची (या वज्रसूचिकोपनिषद्) :- इस ग्रंथ में वैदिक धर्म की वर्णव्यवस्था एवं जातिभेद का प्रखर खंडन किया है कुछ विद्वान धर्मकीर्ति को इसके रचियता मानते हैं किन्तु लोकमान्य तिलक, राहुल सांकृत्यायन जैसे विद्वान् अश्वघोष को ही इसके रचितया मानते हैं। गण्डीस्तोमगाथा में सम्धरा छंदोबद्ध 29 श्लोकों में बुद्ध एवं संघ की स्तुति की है। (गण्डी याने एक प्रकार का सुडौल काष्ठखंड, जिसके द्वारा पीट कर शब्द उत्पन्न किया जाता है) ।
ई. प्रथम शती में काश्मीर की राजधानी में बौद्धों की संगीति का चतुर्थ अधिवेशन हुआ। इसके अध्यक्ष थे वस्तुमित्र और उपाध्यक्ष थे महाकवि अश्वघोष । संगीति द्वारा त्रिपिटकों पर महाविभाषा नामक व्याख्या लिखी गई और बौद्धदर्शन के प्रतिपादनार्थ संस्कृत भाषा का स्वीकार हुआ। ई. 11 वीं शती में दीपंकर श्रीज्ञान नामक बौद्ध आचार्य तिब्बत में निमंत्रित हुए । उन्होंने तिब्बती भाषा में सैकड़ों संस्कृत ग्रंथों के अनुवाद करवाये। "कंजूर" नामक स्थान में बुद्धवचनात्मक ग्रंथों का और "तंजूर" में दर्शन, काव्य, वैद्यक, ज्योतिष, तंत्र इत्यादि विषयों के ग्रंथों का संग्रह, बुस्तोन नामक तिब्बती विद्वान ने किया है। इन तिब्बती अनुवादों के कारण संस्कृत के अनेक नष्ट ग्रंथों का पता चलाता है।
महायानी ग्रंथों में अष्टसाहिस्रिका प्रज्ञापारमिता, सद्धर्मपुण्डरीक, ललितविस्तर लंकावतारसूत्र, सुवर्णप्रभास, गंडव्यूह, तथागतगुह्यक, समाधिराज और दशभूमीश्वर इन नौ ग्रंथों का महत्व विशेष माना गया है। नेपाली बौद्धों में इनको "नवधर्म" कहते हैं।
सद्धर्मपुण्डरीक की रचना ई. प्रथम शताब्दी में मानी जाती है। इस ग्रंथ में 27 अध्याय हैं और उनमें भगवान् तथागत एवं बोधिसत्व अवलोकितेश्वर की महिमा का वर्णन है।
प्रज्ञापारमिता ग्रंथ में शून्यता एवं प्रज्ञा इन महाबानों के मुख्य सिद्धान्तों का विवेचन मिलता है। नेपाली परंपरानुसार इस ग्रंथ की श्लोक संख्या सवालाख थी । विद्यमान ग्रंथ में आठ हजार श्लोक होने के कारण, उसे " अष्टसाहस्रिका प्रज्ञापारमिता" नाम दिया गया है।
लंकावतारसूत्र में भगवान् बुद्ध ने लंकाधीश रावण को जो उपदेश दिया उसमें "विज्ञान" ही एकमात्र सत्य है विज्ञान के अतिरिक्त वस्तुओं की कोई सत्ता नहीं, यह सिद्धान्त प्रतिपादन किया है। बौद्धों के सूत्रग्रंथों में समाधिराज सूत्र में योगाचार का और सुवर्णप्रभासूत्र में भगवान् बुद्ध के धर्मकार्य का प्रतिपादन किया है वैभाषिक संप्रदाय के ग्रंथों में अभिधर्मज्ञान, प्रस्थानशास्त्र, अभिधर्मकोश, वसुबंधुकृत समयप्रदीपिका उल्लेखनीय हैं।
योगाचार संप्रदाय में मध्यान्तविभाग (मैत्रेय कृत) तथा आर्य असंगकृत महायानसूत्रालंकार, महायानसंपरिग्रह दिङ्नागकृत प्रमाणसमुच्चय, न्यायप्रवेश, धर्मकीर्तिकृत प्रमाणवार्तिक और न्यायविंदु नागार्जुनकृत माध्यमिक शास्त्र, शांतरक्षितकृत तत्त्वसंग्रह महत्त्वपूर्ण दार्शनिक ग्रंथ हैं। इनके अतिरिक्त दशभूमिविभाषाशास्त्र नामक ग्रंथ महायान दर्शन का विश्वकोष माना जाता है। स्तोत्र एवं सूत्र
प्रारंभिक बौद्धकाव्य प्रधानतया ज्ञाननिष्ठ किन्तु भावहीन था । यथावसार महायान संप्रदाय ने भगवान् बुद्ध को आराध्य देवता के रूप में स्वीकार किया। "बुद्ध सरणं गच्छामि " इस शरणागति वचन का अनुपालन बुद्ध की अर्चना से होने लगा। सामान्यतः ई. पू. द्वितीय शती में (जब कृष्णोपासक संप्रदाय का विकास हो रहा था) बुद्धभक्ति तथा बुद्धोपासना का भी विकास होने लगा। कालान्तर में बौद्ध धर्म, शैव तथा तांत्रिक संप्रदायों से अधिक प्रभावित हुआ। एवं भागवत शैव और तांत्रिक संप्रदायों तथा भगवद्गीतोक्त भक्तियोग के प्रभाव के कारण महायान बौद्ध संप्रदाय में भक्तियोग या भक्तिमार्ग का प्रसार होता गया। इस भक्ति के केंद्रबिंदु भगवान् बुद्ध एक ऐतिहासिक विभूति थे बौद्धधर्म मूलतः ज्ञानवादी तथा कर्मप्रधान होते हुए भी, उतरकालीन बुद्धानुयायियों ने "बुद्धं शरणं गच्छामि' इस वचन के अनुसार उस महनीय ऐतिहासिक विभूति की अनन्य भाव से शरणागति स्वीकार की, जिसके कारण बौद्धवाङ्मय में भक्तिभावपूर्ण स्तोत्र काव्य का विकास हुआ। बौद्ध उपासकों के भक्तिपूर्ण स्तोत्रकाव्यों 200 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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से मूलतः निरीश्वरवादी बौद्धधर्म की ईश्वरवादी धर्म में परिणति दिखाई देती है। बौद्धों के बुद्धेश्वरवाद या बुद्धभक्तिमार्ग का प्रचार भारत की अपेक्षा चीन, तिब्बत, जापान आदि देशों में अधिक हुआ। महावस्तु, ललितविस्तर, अश्वघोष का बुद्धचरित महाकाव्य तथा मातृचेट आदि महनीय लेखकों के साहित्य में अभिव्यक्त बुद्धभक्ति का विस्तार बौद्ध स्तोत्रकाव्यों में पर्याप्त मात्रा में दिखाई देता है। वें स्तोत्रकार तथा उनके स्तोत्रकाव्य अवश्य उल्लेखनीय हैं जैसे :स्तोत्रकार
स्तोत्रकाव्य नागार्जुन (शून्यवाद के प्रधान प्रतिष्ठापक) 1) चतुःस्तव 2) निरौपम्यस्तव, 3) अचिन्त्यस्तव । हर्षवर्धन (ई.7 वीं शती)
1) सुप्रभातस्तोत्र (श्लोक 24) 2) अष्टमहाश्रीचैत्यस्तोत्र । वज्रदत्त (ई.9 वीं शती)
लोकेश्वरशतक (फ्रेंच में अनुवादित) अमृतानंद
नेपालीय देवताकल्याण पंचविंशतिका । सर्वज्ञ मिश्र (काश्मीरवासी) (ई. 8 वीं शती) आर्यतारा-स्रग्धरास्तोत्र । (तारा अवलोकितेश्वर की स्त्री-रुप प्रतिमूर्ति हैं।) श्लोकसंख्या .
73, तारादेवी से संबंधित स्तोत्रों की कुल संख्या 96 बताई जाती है उनमें से 62
स्तोत्रों के तिब्बती अनुवाद हो चुके हैं। चन्द्रगोमी
तारासाधकशतक रामचन्द्र कविभारती (13 वीं शती)
भक्तिशतक नागार्जुन :- शून्यवादी स्तोत्रकारों में नागार्जुन का व्यक्तित्व अत्यंत प्रभावी था। उन्होंने बौद्ध संस्कृत साहित्य में भरपूर योगदान दिया है किन्तु इन की रचनाएँ भारत के बाहर चीन, मंगोलिया, तिब्बत आदि देशों में अनुवादरूप में अधिक प्रसिद्ध हैं। नागार्जुन का चरित्र एवं व्यक्तित्व एक विवाद्य विषय हुआ है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों के नाम हैं : माध्यमिककारिका, दशभूमिविभाषाशास्त्र, महाप्रज्ञापारमितासूत्रकारिका, उपायकौशल्य, प्रमाणविध्वंसन, विग्रहव्यावर्तिनी, चतुःस्तव, युक्तिषष्टिका, शून्यतासप्तति, प्रतीत्यमुत्पादहृदय, महायानविंशक और सुत्तलेख। इन 12 रचनाओं में 'चतुःस्तव' ही एक मात्र स्तोत्र काव्य है, अन्य सभी माध्यमिकों के शून्यवाद से संबंधित महत्वपूर्ण दार्शनिक रचनाएं हैं। माध्यमिककारिका (श्लोकसंख्या 400) पर नागार्जुन ने स्वयं "अकुतोभया" नामक टीका लिखी थी, जिसका तिब्बती अनुवाद सुरक्षित है। आर्यदेव : आप नागार्जुन के प्रधान शिष्य एवं उत्तराधिकारी थे। किंवदन्ती के अनुसार अपना एक नेत्र किसी वृक्षदेवता को समर्पण करने के कारण इन्हें 'काणदेव' कहते हैं तथा भगवान् शिव को एक नेत्र समर्पण करने कारण इन्हें 'नीलनेत्र' कहते थे। कुमारजीव (ई. 5 वीं शती) (जो संस्कृत ग्रंथों के चीनी अनुवादक के नाते वाङ्मयीन क्षेत्र में प्रसिद्ध हैं) ने इन के जीवनचरित का चीनी अनुवाद किया है। आर्यदेव की इन रचनाओं में चतुःशतक, माध्यमिक हस्तवालप्रकरण, स्खलितप्रमथन, युक्तिहेतुसिद्धि और ज्ञानसारसमुच्चय ये चार शास्त्रीय रचनाएं शून्यवादविषयक हैं और चर्यामेलापनप्रदीप, चितावरणविशोधन, चतुःपीठतंत्ररज, चतुःपीठसाधन, ज्ञानडाकिनीसाधन और एकद्रुमपंजिका ये छः रचनाएं तंत्रशास्त्र से संबद्ध हैं। भावविवेक :- इनकी 4 कृतियाँ प्रसिद्ध हैं : 1). माध्यमिककारिका व्याख्या, 2) मध्यमहृदयकारिका, 3) मध्यमार्थसंग्रह और 4) हस्तरत्न इनके चीनी और तिब्बती भाषाओं में सुनवादमात्र में विद्यमान हैं। चन्द्रकीर्ति :- (ई. छठवीं शती) रचनाएँ : 1) माध्यमिकावतार, 2) प्रसन्नपदा (नागार्जुन की माध्यमिककारिका की व्याख्या) 3) चतुःशतकटीका (आर्यदेवकृत चतुःशतक की टीका)। शान्तिदेव :- रचनाएं : 1) शिक्षासमुच्चय (कारिकासंख्या 27)। इस पर लेखक ने व्याख्या भी लिखी है। 2) सूत्रसमुच्चय
और 3) बोधिचर्यावतार जिस के 9 परिच्छेद हैं और जिस पर 11 टीकाएं लिखी गई। इन टीकाओं के केवल तिब्बती अनुवाद उपलब्ध हैं। बोधिचर्यावतार में शातिदेव की आत्यंतिक भावुकता का परिचय मिलता है। शान्तरक्षित :- ई. 8 वीं शती। तिब्बत में 'सम्मेविहार" नामक सर्व प्रथम बौद्धविहार की स्थापना करने का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है। इनकी एकमात्र रचना, तत्त्वसंग्रह है, जिस पर उनके शिष्य कमलशील ने टीका लिखी है। .. अश्वघोष के परवर्ती बौद्ध साहित्यिकों में आर्यदेव, नागार्जुन और कुमारलात प्रमुख माने जाते हैं। कुमारलात का समय ई. द्वितीय शती तथा निवासस्थान तक्षशिला माना जाता है। ये सौत्रान्तिक संप्रदायी थे। इनके कल्पनामंडतिका-दृष्टान्त-पङ्क्ति (नामान्तर कल्पनामंडतिका या कल्पनालंकृतिका) नामक ग्रन्थ में कविकल्पना से मंडित दृष्टान्तों एवं कथाओं का संग्रह मिलता है। इस ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद हो चुका है। डॉ. लूडर्स ने प्रस्तुत ग्रंथ का अनुवाद किया। प्राचीन काल में चीनी भाषामें इसका अनुवाद हो चुका है। डॉ. लूडर्सने प्रस्तुत ग्रंथ को प्रकाश में लाया।
कनिष्क के समय में मातृचेट नामक बौद्ध कवि ने 70 श्लोकों का एक बुद्ध स्तोत्र लिखा। कहते हैं कि मातृचेट ने
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अपना शरीर क्षुधात व्याघ्री को समर्पण करने पर प्रवाहित निजी रक्त से इस स्तोत्र को लिखा। मातृचेट को महाराजा कनिष्क ने अपनी सभा में निमंत्रित करने पर उन्होंने वार्धक्य के कारण अपनी असमर्थता एक काव्यात्मक पत्रद्वारा निवेदित की। 185 श्लोकों का यह संस्कृत पत्रकाव्य मूल रुप में अप्राप्य है किन्तु इसका तिबती अनुवाद सुरक्षित है। तिब्बत के तंजूर नामक ग्रंथालय में मातृचेट के नाम से, वर्णनार्हवर्णन, सम्यक्बुद्धलक्षणस्तोत्र, त्रिरत्नमंगलस्तोत्र, एकोत्तरीस्तोत्र, सुगतपंचत्रिरत्नस्तोत्र, त्रिरत्नस्तोत्र, मिश्रकस्तोत्र, चतुर्विपर्ययकथा, कलियुगपरिकथा, आर्यतारादेवीस्तोत्र, सर्वार्थसाधनास्तोत्ररत्न एवं मतिचित्रनीति नामक ग्रंथों का उल्लेख मिलता है। इनके अतिरिक्त चतुःशतक और अर्घ्यशतक (श्लोकसंख्या 153) इन दो उत्कृष्ट स्तोत्रों के कारण बौद्ध जगत् में मातृचेट एक श्रेष्ठ स्तोत्रकार माने जाते हैं। अर्घ्यशतक के तिब्बती अनुवाद का पुनश्च संस्कृत रूपांतर किया गया, जिसका नाम है “शतपंचाशिका स्तोत्र"। गत शत वर्षों में एम्. ए. स्टील; ए. ग्रेन वेंडल; ए.वान. ले. काग; सिल्वाँ लेवी, राहुल सांकृत्यायन जैसे श्रेष्ठ गवेषकों ने मातृचेट की रचनाओं को प्रकाश में लाया। इनकी मूल संस्कृत रचनाएं अप्राप्य है, किन्तु तिब्बती चीनी आदि बाह्य भाषाओं में उनके अनुवाद सुरक्षित हैं। आर्यशूर :- यह एक ऐसे प्रतिभासम्पन्न बौद्ध पंडित थे जिन्होंने बोधिसत्त्व (अर्थात् भावी बुद्ध) की काव्यमय जन्मकथाओं को अपनी जातकमाला (या बोधिसत्त्वावदानमाला) में ग्रथित किया। इस ग्रंथ में 34 जातकों का संग्रह है। इनमें से कतिपय जातक पालि जातकों पर आधृत हैं। आर्यशूर की भाषाशैली अश्वघोष के समान परिष्कृत होने के कारण अश्वघोष और आर्यशूर को अभिन्न मानते हैं। इस ग्रंथ के तिब्बती और चीनी भाषा में अनुवाद हो चुके हैं। चीनी अनुवाद का समय ई. 90 से 12 वीं शती के बीच का माना जाता है।
बुद्धघोषरचित पद्यचूडामणि नामक दस सर्गों का बुद्धचरित्रात्मक ग्रंथ सन् 1921 में कुप्पुस्वामी शास्त्री द्वारा प्रकाशित हुआ है। वैभाषिक आर्यचन्द्रकृत 'मैत्रेयव्याकरण' नामक ग्रंथ के तिब्बती, चीन आदि भाषाओं में अनुवाद सुरक्षित हैं। इसके चीनी अनुवाद से जर्मन तथा तोखारियन भाषा में अनुवाद हुए हैं। प्रस्तुत ग्रंथ में भावी बुद्ध मैत्रेय के जन्म, स्वरूप और स्वर्गीय जीवन का वर्णन किया है। मद्धर्मपुण्डरीक (नामान्तर वैपुल्यसूत्रराज) :- ई. प्रथम शताब्दी में रचित महायान संप्रदाय का एक महनीय सूत्र ग्रंथ है। बौद्ध साहित्य में सूत्त शब्द का अर्थ सुत अथवा सूक्त है। "अल्पाक्षरमसंदिग्धं सारवद् विश्वतोमुखम्" इस सुप्रसिद्ध कारिका में 'सूत्र' शब्द का जो पारिभाषिक अर्थ है, वह बौद्ध साहित्य में नहीं माना जाता। यह ग्रंथ परिवर्त नामक 27 विभागों में विभाजित है। एशिया तथा यूरोप की प्रायः सभी श्रेष्ठ भाषाओं में इसका अनुवाद हो चुका है। डॉ. राममोहन दास के हिन्दी अनुवाद तथा विशद भूमिका सहित राष्ट्रभाषा परिषद् (बिहार) द्वारा इसका प्रकाशन हुआ है। इसमें बुद्धभक्ति, उनकी मूर्ति तथा स्तूप की पूजा आदि की अपेक्षा योगिक क्रियाओं पर कम बल दिया जाता है। समीक्षकों की मान्यता है कि यह ग्रंथ भागवत संप्रदाय, वेदान्त दर्शन एवं भगवद्गीता से पूर्ण प्रभावित है। इसमें बुद्ध का वही रूप परिलक्षित होता है, जो भागवत संप्रदाय में श्रीकृष्ण का। शान्त, अद्भुत एवं भक्ति रस का इसमें पूर्ण परिपाक हुआ है। प्रज्ञापारमितासूत्र :- इस ग्रंथ में महायान संप्रदाय का दार्शनिक सिद्धान्त पक्ष प्रकाशित हुआ है। इसके शतसाहस्रिका, पंचविशतिसाहस्रिका, अष्टादशसाहस्रिका एवं दशसाहस्रिका, सार्धद्विसाहस्रिका तथा सप्तशतिका नामक विविध संस्करण उपलब्ध होते हैं। इनमें अष्टसाहस्रिका (27 परिवों में विभक्त) सर्वाधिक प्राचीन मानी जाती है और अन्य संस्करण इसी के विकसित एवं संक्षिप्त रूप माने जाते हैं। प्रज्ञापारमिता का वाच्य अर्थ है (प्रज्ञा = ज्ञान और पारमिता = पूर्णता अर्थात् शून्यता विषयक परिपूर्णज्ञान) । इन सूत्रों (अर्थात् सूक्तों) में षट् पारमिताओं (दान, शील, धैर्य, वीर्य, ध्यान एवं प्रज्ञा) की विवेचना हुई है। दशभूमीश्वरसूत्र :- बौद्ध परिभाषा में विविध "अवतंसकसूत्र" उपलब्ध होते हैं जिनमें गण्डव्यूह (महायान) सूत्र तथा दशभूमीश्वर (या दशभूमिक) सूत्र का अन्तर्भाव होता है। इसका वर्ण्य विषय है उन दश भूमियों की विवेचना, जिनके द्वारा सम्यक् संबोधि प्राप्त की जाती है। इसी के समान बोधिसत्व भूमियों का प्रतिपादन करनेवाला एक अन्य ग्रन्थ है जिसका नाम है "दशभूमिक्लेशच्छेदिकासूत्र"। इसका चीनी अनुवाद ई. प्रथम शती में हुआ।
अवतंसक सूत्र के समान 'रत्नकूट' नामक सूत्र समुच्चयात्मक ग्रंथ महायान संप्रदाय में निर्माण हुए। इस सूत्रसमुच्चय में बृहत्सुखावतीव्यूह, अक्षोभ्यव्यूह, मंजुश्रीबुद्ध-क्षेत्र- गुणव्यूह, काश्यपपरिवर्त, अक्षयमतिपरिपृच्छा, उग्रपरिपृच्छा, राष्ट्रपालपरिपृच्छा आदि अनेक सूत्र उपलब्ध होते हैं। कारण्डकव्यूह सूत्र में पौराणिक पद्धति के अनुसार बुद्ध अवलोकितेश्वर की भक्ति का प्रतिपादन तथा मंत्र तंत्र का दर्शन मिलता है। “ॐ मणिपर्दो हुम्" इस प्रख्यात षडक्षरी बौद्ध मंत्र का प्रथम उल्लेख इसी ग्रंथ में मिलता है।
लंकावतारसूत्र (या सद्धर्मलंकावतार सूत्र) में दश परिवारों में राक्षसराज रावण एवं तथागत के संवाद में शून्यवाद के प्रतिकूल विज्ञानवाद का प्रतिपादन किया है। इसमें मांसाहार के निषेध की चर्चा सर्वप्रथम हुई है। इस ग्रंथ में इस बात पर
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विशेष बल दिया है कि, समस्त गोचर पदार्थ अयथार्थ, प्रतिभासात्मक या विकल्पात्मक हैं। चित् मात्र ही सत्य है, जो निराभास एवं निर्विकल्प है।
सुवर्णप्रभासूत्र एक पंद्रह परिवर्तों का महायान ग्रंथ है। इसके धार्मिक एवं दार्शनिक सिद्धान्तपरक दो भाग हैं। जापान में इस ग्रंथ की महती ख्याती है। जापान के अधिपति शोकोतु ने इसकी प्रतिष्ठापना के निमित्त भव्य बौद्ध मंदिर निर्माण करवाया। राष्ट्रपालपरिपृच्छा (या राष्ट्रपालसूत्र) में आचारभ्रष्ट बौद्ध भिक्षुओं के शिथिल एवं दांभिक चरित्र का सविस्तर प्रकाशन हुआ है। रत्नकूट के अन्तर्गत उग्रपरिपृच्छा, उदयनवत्सराज-परिपृच्छा, उपालिपरिपृच्छा, चन्द्रोत्तरादारिका-परिपृच्छा, विमलश्रद्धा-दारिका-परिपृच्छा, सुमतिदारिका-परिपृच्छा, अक्षयमतिपरिपृच्छा आदि अनेक परिपृच्छासूत्र उल्लेखनिय हैं।
7 धारणीसूत्र 'धारणी' शब्द का उल्लेख प्रथमतः ललितविस्तर तथा सद्धर्मपुण्डरीक में हुआ है। यह शब्द रक्षायंत्र (ताबीज अथवा मंत्रसूत्र) के अर्थ में यत्र तत्र व्यवहृत हुआ है। नेपाल में 'पंचरक्षा' नामक पंच धारिणियों का संग्रह अधिक प्रचलित है। वहां न्यायालयों में पंचरक्षा की सौगन्ध खाने की प्रथा है। इन पंच धारिणियों में सम्मोहन एवं वशीकरण की अतुलनीय शक्ति मानी जाती हैं। इनके नाम है : 1) महाप्रतिसरा 2) महासहस्रप्रमर्दिनी, 3) महामयूरी, 4) महाशितवती और 5) महामंत्रानुसारिणी। धारणीसूत्रों के अन्तर्गत गणपतिधारणी, नीलकंठधारणी, महाप्रत्यंगिराधारणी जैसे ग्रंथ भारत तथा भारतबाह्य देशों में प्रसिद्ध हैं। भगवान् बुद्ध ने जिस पंचशील-प्रधान और आर्यसत्यवादी अष्टांगिक मार्गी धर्ममत का प्रतिपादन किया, उसमें आगे चलकर विविध संप्रदाय निर्माण हुए। इन संप्रदायों को 'निकाय' कहते हैं। सम्राट अशोक के समय तक भारत के विभिन्न भागों में 18 निकाय प्रवर्तित हुए थे। इन निकायों के ग्रंथों में विचार और आचार में भेद दिखाई देते हैं। प्रमुख निकायों की नामावलि इस प्रकार है :
1) स्थिविरवादी (नामान्तर थेरवादी या वैभाषिक) - बुद्धनिर्वाण के 300 वर्षों बाद कात्यायनीपुत्र ने ज्ञानप्रस्थानशास्त्र नामक ग्रंथ में इस अतिप्राचीन निकाय के सिद्धान्तों का प्रतिपादन किया। वसुबंधु कृत अभिधर्मकोश में भी इस मत की विचार प्रणाली का प्रतिपादन मिलता है। 2) महीशासक 3) सर्वास्तिवादी : महाराजा कनिष्क इसके आश्रयदाता थे। पंजाब तथा उत्तर में इसका प्रचार हुआ। इस निकाय ने धर्मग्रंथों की निर्मिति के लिए पाली भाषा को त्याग कर संस्कृत को अपनाया। 4) हैमावत। 5) वात्सीपुत्रीय : इस निकाय का प्रचार मध्यभारत के अवंती प्रदेश में हुआ था। महाराजा हर्ष की भगिनी राज्यश्री ने इस संप्रदाय को प्रश्रय दिया था। 6) धर्मगुप्तिक : चीन तथा मध्य एशिया में इसका विशेष प्रचार हुआ 7) काश्यपीय 8) सौत्रांतिक : (नामान्तर-संक्रांतिवादी) १) महासांघिक : इस संप्रदाय का प्रमाण ग्रंथ है महावस्तु । पाटलीपुत्र (पटना) और वैशाली में इस संप्रदाय के केन्द्र थे। 10) बहुश्रुतीय : महासांघिक पंथ की उपशाखा । 11) चैत्यक : महासांघिक पंथ की इस उपशाखा के संस्थापक थे महादेव । यह पंथ बुद्ध और बोधिसत्व को देवस्वरूप मानता है। 12) माध्यमिक : (नामान्तर शून्यवादी) - इस संप्रदाय के मतप्रतिपादन के हेतु नागार्जुन ने अनेक ग्रंथ लिखे। 13) योगाचार : (विज्ञानवादी) - इस संप्रदाय के प्रवर्तक थे मैत्रेय। इसका प्रमाण ग्रंथ है लंकावतारसूत्र । बोधिप्राप्ति के लिए योगसाधना का विशेष महत्त्व योगाचार में माना गया है। इसी संप्रदाय में मंत्रयान, वज्रयान और सहजयान इत्यादि तांत्रिक उपसंप्रदाय निर्माण हुए। मैत्रेय कृत मध्यान्तविभाग, अभिसमयालंकार, सूत्रालंकार, महायान उत्तरतंत्र, एवं धर्मधर्मताविभंग इस संप्रदाय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथ हैं। दिङ्नाग, धर्मकीर्ति और धर्मपाल इस पंथ के प्रमुख पंडित थे।
इन संप्रदायों के अतिरिक्त नेपाल में चार बौद्ध संप्रदाय प्रचलित हैं : 1) स्वाभाविक 2) ऐश्वरिक 3) कार्मिक और 4) यात्रिक। ईसा की प्रथम शती से बौद्ध समाज में शैव मत के प्रभाव के कारण तांत्रिक साधना का प्रचार होने लगा। सुखावतीव्यूह, अमितायुषसूत्र, मंजुश्रीकल्प तथागतगुह्यकतंत्र आदि ग्रंथों में बौद्धों की तांत्रिक साधना का परिचय मिलता है। बौद्धों के विज्ञानवाद के अनुसार विज्ञान (अर्थात् चित् मन, बुद्धि) के कारण, सांसारिक पदार्थों की असत्यता की प्रतीति होती है; अतः उस 'विज्ञान' को सत्य मानना चाहिए इस मत के प्रतिष्ठापक थे मैत्रेय (या मैत्रेयनाथ) जिन्होंने अनेक ग्रंथों का निर्माण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 203
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किया था किन्तु उनमें से 1) महायानसूत्रालंकार 2) धर्मधर्मताविभंग, 3) महायानउतरतंत्र, 4) मध्यान्तविभंग और 5) अभिसमयालंकारिका ये पांच ग्रंथ तिब्बती और चीनी अनुवाद के रूप में विद्यमान हैं। योगाचारसंप्रदाय के श्रेष्ठ आचार्य आर्यअसंग (ई. 4 थी शती) ने 1) महायानसंपरिग्रह, 2) महायानसूत्रालंकार, 3) प्रकरणआर्यवाचा, 4) योगाचारभूमिशास्त्र (अथवा सप्तदशभूमिशास्त्र) नामक पांडित्यपूर्ण ग्रंथ निर्माण कर, योगाचार मत की प्रतिष्ठापना की थी। सप्तदशभूमिशास्त्र का लघु अंश बोधिसत्त्वभूमि नाम से संस्कृत में उपलब्ध है। शेष ग्रंथ चीनी तिब्बती अनुवादों के रूप में सुरक्षित है।
ई. चौथी शती के महापंडित वसुबंधु (आर्यअसंग के अनुज) सर्वास्तिवाद के प्रतिष्ठापक थे। इनके अभिधर्मकोष के कारण तिब्बत, चीन, जपान आदि देशों में बौद्ध धर्म प्रतिष्ठित हुआ। वसुबंधु ने 1) सद्धर्मपुण्डरीक-टीका 2) महापरिनिर्वाण-टीका, 3) वज्रच्छेदिकाप्रज्ञापारमिता-टीका और 4) विज्ञप्तिमात्रतासिद्धि नामक चार ग्रंथ महायान संप्रदाय के लिए लिखे और हीनयान संप्रदाय के लिए 1) परमार्थसप्तति, 2) तर्कशास्त्र, 3) वादविधि और 4) अभिधर्मकोश (कारिकासंख्या 6 सौ) नामक चार ग्रंथ लिखे। इनमें अभिधर्मकोष सारे बौद्ध संप्रदायों में मान्यता प्राप्त ग्रंथ है। इस पर स्थिरमति का तत्त्वार्थभाष्य, दिङ्नाग की मर्मप्रदीपवृत्ति, यशोमित्र की स्फुटार्थी, पुण्यवर्मन् की लक्षणानुसारिणी, शान्तस्थविरदेव की औपयिकी तथा गुणमति एवं वसुमित्र आदि की टीकाएं उल्लेखनीय हैं। स्वयं वसुबंधु ने भी अभिधर्मकोशभाष्य नामक टीका ग्रंथ की रचना की थी, जिसका संपादन प्रो. प्रल्हाद प्रधान द्वारा जायसवाल रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पटना से हुआ है। वसुबन्धु के ग्रंथ भी चीनी, तिब्बती और जापानी अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं।
वसुबन्धु के समकालीन संघभद्र उनके प्रतिस्पर्धी थे। इन्होंने अपने अभिधर्मन्यायानुसार (प्रकरणसंख्या-आठ) तथा अभिधर्मसमयदीपिका में वसुबन्धु के मतों का खण्डन कर वैभाषिकमत का पुनरुद्धार करने का प्रयास किया है। वसुबन्धु के शिष्योतम स्थिरमति ने काश्यप परिवर्तटीका, सुत्रालंकारवृत्तिभाष्य, त्रिंशिकाभाष्य, पंचस्कन्धप्रकरणभाष्य, अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति, मूलमाध्यमिककारिकावृति, मध्यान्तविभागसूत्रभाष्यटीका, इन सात टीकात्मक ग्रंथों द्वारा अपने गुरु के सिद्धान्तों को विशद करने का प्रयास किया है।
वसुबन्धु के दूसरे शिष्योत्तम दिङ्नागाचार्य का नाम बौद्ध वाङ्मय में प्रसिद्ध है। शान्तरक्षित, धर्मकीर्ति, कमलशील, और शंकरस्वामी सदृश विद्वान् इनकी शिष्यपरंपरा में थे। इनके ग्रंथों की कुल संख्या लगभग एक सौ मानी जाती है जिनमें 1) प्रमाणसमुच्चय 2) प्रमाणसमुच्चयवृत्ति 3) न्यायप्रवेश, 4) हेतुचक्रडमरु, 5) प्रमाणशास्त्रन्यायप्रवेश, 6) आलंबनपरीक्षा, 7) आलंबनपरीक्षावृत्ति, 8) त्रिकालपरीक्षा और 9) मर्मप्रदीपवृत्ति नामक दार्शनिक ग्रंथ सुप्रसिद्ध हैं। इन ग्रंथों के द्वारा बौद्धन्याय को व्यवस्थित स्वरूप प्रदान किया गया। दिङ्नागाचार्य के ग्रंथ चीनी और तिब्बती अनुवादों के रूप में सुरक्षित हैं। दिङ्नाग के शिष्य शंकरस्वामी के हेतुविद्यान्यायप्रवेश, और 'न्यायप्रवेशतर्कशास्त्र' नामक दो ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। धर्मपाल, नालंदा महाविहार के कुलपति थे। शून्यवाद के व्याख्याता धर्मकीर्ति शीलभद्र (हवेनसांग के गुरु) इनके शिष्य थे।
इनके द्वारा लिखित 1) आलंबनप्रत्यवधानशास्त्र 2) विज्ञप्तिमात्रतासिद्धिव्याख्या और 3) शतशास्त्रव्याख्या ये तीन ग्रंथ टीकास्वरूप हैं। धर्मकीर्ति ने बौद्धन्यायविषयक प्रमाणवार्तिक, प्रमाणविनिश्चय, न्यायबिंदु, सम्बन्धपरीक्षा, हेतुबिन्दु, वादन्याय और सन्तानान्तरसिद्धि नामक सात ग्रंथों की रचना की जिनमें प्रमाणवार्तिक (श्लोकसंख्या 15 सौ) सर्वोत्कृष्ट माना जाता है। इस ग्रंथ पर अनेक टीकाएँ संस्कृत तथा तिब्बती भाषा में लिखी गई हैं जिनमें से मनोरथनन्दीकृत टीका प्रकाश में आ सकी है। चान्द्रव्याकरण के प्रणेता चन्द्रगोमी (ई. 5-6 शती) ने स्तुतिकाव्य तथा नाटकों की भी रचना की है। राजतरंगिणी में इन्हें व्याकरण महाभाष्य का पुनरुद्धारक माना गया है। चान्द्रव्याकरण के अतिरिक्त इन्होंने 1) शिष्यलेखधर्मकाव्य, 2) आर्यसाधनशतक 3) आर्यातारन्तरबलिविधि और लोकानन्द नामक नाटक की रचना की है।
उपरिनिर्दिष्ट दार्शनिक आचार्यों एवं कवियों के अतिरिक्त धर्मजात (भावनान्यथात्ववादप्रवर्तक) भदन्तघोष (लक्षणान्यथात्ववादप्रवर्तक), वसुमित्र (अवस्थान्यथात्ववाद के प्रवर्तक) सौत्रान्तिक बुद्धदेव (अन्यथात्ववाद के प्रवर्तक) श्रीलाभ (सौत्रान्तिकविभाषा प्रवर्तक), यशोमित्र (स्फुटार्था व्याख्याकार) आदि आचार्यों के नाम बौद्धवाङ्मय की समीक्षा में उल्लेखनीय हैं।
बौद्धों के काव्य ग्रंथों में बुद्ध, बोधिसत्त्व (भावी बुद्ध) तथा उनके अन्य विविध रूपों की कथाओं का ही निर्देश होता है। बुद्धोक्त धर्म, कर्म एवं दर्शन का संगम इन काव्यों में सर्वत्र दिखाई देता है। इसी कारण शास्त्र और काव्य का सुंदर साहचर्य इनमें परिलक्षित होता है। बौद्ध दर्शन के मूलाधार विषयों (चित्त, चेतसिक निर्वाण, शील, समाधि एवं प्रज्ञा) अथवा उसके मूलभूत सिद्धान्तों (चार आर्यसत्यों प्रतीत्यसमुत्पाद, अनात्मवाद, एवं अनित्यवाद आदि) की सहज समीक्षा, व्यक्तित्व निर्माण परक बौद्धकाच्यों में बहुधा हुई है। दार्शनिक जगत् में बौद्ध काव्यकारों का योगदान निश्चय ही स्तुत्य है। इन समस्त बौद्ध कृतियों में जातिवाद, शास्त्रवाद, दैववाद, अतिवाद आदि का प्रबल विरोध लक्षित होता है। भगवान बुद्ध ने परम्परागत समाज जीवन को नवीन ढांचे में ढालने का प्रयास किया था और यही इन बौद्ध संस्कृत कृतियों में प्रतिफलित भी हुआ है।
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8 दार्शनिक विचार
बौद्धमत के जिन दार्शनिक विचारों की अभिव्यक्ति सद्धर्मपुण्डरीक, प्रज्ञापारमितासूत्र, गन्डव्यूहसूत्र, दशभूमिकसूत्र, रत्नकूट, समाधिराजसूत्र सुखावतीव्यूह, सुवर्णप्रभासूत्र तथा लंकावतारसूत्र इन महायानी संस्कृत ग्रंथों में हुई है, उन का संक्षेपतः स्वरूप निम्नप्रकार कहा जा सकता है:
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(1) प्रतीत्यसमुत्पादः प्रतीत्य' अर्थात् किसी वस्तु की प्राप्ति होने पर 'समुत्पाद' याने अन्य वस्तु की उत्पति इसे "कारणवाद" भी कहा जाता है। इस सिद्धान्त के अनुसार बाह्य और मानस संसार की जितनी भी घटनाएं होती हैं, उनका कुछ ना कुछ कारण अवश्य होता है। अतः वस्तुएं अनित्य हैं। उनकी उत्पत्ति अन्य पदार्थो से होती है। उनका पूर्ण विनाश नहीं होता और उनका कुछ कार्य या परिणाम अवश्य रह जाता है। प्रतीत्यसमुत्पाद का सिद्धान्त मध्यममार्गी है। इसमें न तो पूर्ण नित्यवाद और न पूर्ण विनाशवाद का अंगीकार है । प्रतीत्य समुत्पाद के द्वारा कर्मवाद की प्रतिष्ठा होती है, जिस के अनुसार मनुष्य का वर्तमान जीवन, पूर्व जीवन के कर्मों का ही परिणाम है और वर्तमान जीवन का भावी जीवन के साथ संबंध लगा हुआ है। कर्मवाद यह बतलाता है कि वर्तमान जीवन में जो भी कर्म हम करेंगे उन का फल भावी जीवन में हमें प्राप्त होगा।
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क्षणिकवाद :- संसार की सभी वस्तुएं किसी कारण से उत्पन्न होती हैं अतः कारण के नष्ट होने पर उस वस्तु का भी नाश होता है। क्षणिक वाद इस से भी आगे जा कर कहता है कि किसी भी वस्तु का अस्तित्व कुछ काल तक भी नहीं रहता । वह केवल एक क्षण के लिए ही रहता है।
अनात्मवाद :- एक शरीर के नष्ट हो जाने पर अन्य शरीर में प्रविष्ट होने वाला 'आत्मा' नामक चिरस्थायी अदृष्ट पदार्थ का अस्तित्व बौद्ध दर्शन को मान्य नहीं है।
ईश्वर :- यह संसार दुःखमय है, अतः इस प्रकार के अपूर्ण संसार का निर्माता सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् ईश्वर नहीं हो सकता। जिस प्रकार बीज से अंकुर और अंकुर से वृक्ष परिणत होता है, उसी प्रकार संसार का निर्माण स्वतः होता है। उस के लिए किसी 'ईश्वर' नामक सर्वशक्तिमान् तत्व के अस्तित्व को मानने की आवश्यकता नहीं है सर्वशक्तिमान् ईश्वर का अस्तित्व मानने पर मनुष्य की स्वतंत्रता समाप्त होती है। वह आत्मोद्धार के लिए उदासीन हो जाएगा
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बौद्ध दर्शन के वैभाषिक, माध्यमिक, सौत्रान्तिक एवं योगाचार नामक चार संप्रदाय सर्वमान्य हैं। 1) वैभाषिक सिद्धान्त के अनुसार संसार के बाह्य एवं आभ्यन्तर सभी पदार्थो को सत्य माना गया है तथा उनका ज्ञान प्रत्यक्ष के द्वारा होता है । अतः इसे "सर्वास्तिवाद" कहते हैं। इस संप्रदाय का सर्वमान्य ग्रंथ हैं कात्यायनीपुत्र कृत “अभिधर्मज्ञान - प्रस्थानशास्त्र और वसुबंधुकृत अभिधर्मकोश ।
(2) माध्यमिक:- इस मत के अनुसार सारा संसार शून्य है । इस के बाह्य एवं आन्तर सभी विषय असत् हैं। इस मत का प्रतिपादन नागार्जन ने अपने "माध्यमिकशास्त्र" नाम ग्रंथ में किया है।
(3) सौत्रान्तिक :- इस मत के अनुसार बाह्य एवं आभ्यन्तर दोनों ही पदार्थ सत्य हैं। परंतु बाह्य पदार्थ को प्रत्यक्षरूप में सत्य न मान कर अनुमान के द्वारा माना जाता है। इसी कारण इसे "बाह्यानुमेयवाद" कहते हैं। इस मत के चार प्रसिद्ध आचार्य हैं, कुमारलाल, श्रीलाल, वसुमित्र तथा यशोमित्र ।
( 4 ) योगाचार :- इस मत के अनुसार बाह्य पदार्थ असत्य हैं। बाह्य दृश्य वस्तु तो चित् की प्रतीति मात्र है। विज्ञान या चित् ही एकमात्र सत्य मानने के कारण इसे 'विज्ञानवाद' कहते हैं। इस संप्रदाय के प्रवर्तक हैं मैत्रेय जिन्होंने मध्यान्तविभाग, अभिसमयालंकार, सूत्रालंकार, महायान उत्तरतंत्र, एवं धर्मधर्मताविभाग नामक ग्रन्थों द्वारा इस मत को प्रतिष्ठित किया। दिङ्नाग, धर्मकीर्ति एवं धर्मपाल इसी मत के प्रतिष्ठापक आचार्य थे।
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आर्य सत्य :- भगवान् बुद्ध ने चार सत्यों का प्रतिपादन किया है। :- 1) सर्वं दुःखम् । 2) दुःखसमुदय, 3) दुःखनिरोध और 4) दुःखनिरोधगामिनी प्रतिपद् । अर्थात् (1) जीवन जरा मरणपूर्ण अर्थात् दुःखपूर्ण है (2) उस दुःख का कारण होता है शरीर-धारण । (3) दुःख से वास्तविक मुक्त होना संभव है और (4) उस दुःखमुक्ति के कुछ उपाय हैं जिन्हें 'अष्टांगिक मार्ग' कहते हैं। अष्टांगिक मार्ग के अवलंबन से दुःखनिरोध या निर्वाण की प्राप्ति अवश्य होने की संभावना के कारण, यही श्रेष्ठ आचारधर्म बौद्धमत के अनुसार माना गया है।
अष्टांगिक मार्ग :- 1) सम्यक् दृष्टि के यथार्थस्वरूप पर ध्यान देना । 2) सम्यक्संकल्प वस्तु दृढनिश्चय पर अटल रहना। 3 ) सभ्यक्वाक् यथार्थ भाषण । 4) सम्यक् कर्मान्त अहिंसा, अस्तेय तथा इन्द्रिय संयम 5 ) सम्यक् आजीव न्यायपूर्ण उपजीविका चलाना । 6 ) सम्यक् व्यायाम सत्कर्म के लिए प्रयत्नशील रहना। 7 ) सम्यक् स्मृति लोभ आदि चित्त विकारों को दूर करना। 8 ) सम्यक् समाधि चित्त को राग द्वेषादि विकारों से मुक्त एवं एकाग्र करना। इस प्रकार सामान्यतः
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 205
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दार्शनिक विचार प्रवाह तथा आचारधर्म से युक्त बौद्ध धर्म में अवान्तर मतभेदों के कारण दो प्रधान संप्रदाय यथावसर उत्पन्न हुए :
1) हीनयान और 2) महायान । हीनयान में बौद्धधर्म का प्राचीन रूप सुरक्षित रखने पर आग्रह है। महायान उदारमतवादी संप्रदाय है। इसी मत का प्रचार चीन, जापान, कोरिया आदि देशों में हुआ। बोद्धों का संस्कृत वाङ्मय महायानी पंडितों द्वारा ही निर्माण हुआ है। उनके काव्यों में उपरि निर्दिष्ट चार आर्यसत्यों एवं अष्टांगिक मार्ग का सर्वत्र यथास्थान प्रतिपादन हुआ है। अष्टशील :- प्रत्येक मास की अष्टमी, चतुर्दशी, पौर्णिमा और अमावस्या इन तिथियों को उपोषण और अष्टशीलों का पालन, आचार धर्म में आवश्यक माना गया है। पंचशील :- अहिंसा, अस्तेय, अव्यभिचार, असत्यत्याग, और मद्यत्याग इन गुणों को पंचशील कहते हैं। बौद्ध धर्म का इस पर विशेष आग्रह है। त्रिशरण :- बुद्ध, धर्म और संघ को शरण जाना। 'बुद्ध सरणं गच्छामि- इत्यादि 'त्रिशरण' के मंत्रों का त्रिवार उच्चारण किया जाता है।
१ जातक तथा अवदान साहित्य बौद्ध धर्म में नीतितत्त्व पर अधिक बल होने कारण, नैतिक आचार का परिचय समाज को देने के लिये कथा माध्यम का उपयोग किया गया। कथाओं से मनोरंजन के साथ नीति का बोध सरलता से दिया जाता है। इस कथा-माध्यम का उपयोग वेदों, ब्राह्मणों, उपनिषदों और विशेषतः पुराणों में प्रचुर मात्रा में हुआ है। बौद्ध वाङ्मय में इस प्रकार की नीतिपरक कथाओं को जातक और अवदान संज्ञा दी गई है। अवदान साहित्य में जातकों का भी अन्तर्भाव होता है। जातक का सर्वमान्य अर्थ है, बोधिसत्व की जन्मकथा। भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों से संबंधित घटनाओं द्वारा नीतितत्त्व का बोध देने का प्रयत्न जातक कथाओं में सर्वत्र दिखाई देता है। इस प्रकार की कथाएं पालि-साहित्य में प्रचुर मात्रा में विद्यमान हैं। इन्हीं पालि जातकों तथा श्रुतिपरंपरागत जातको का संकलन कर, आर्यशूर ने जातकमाला (या बोधिसत्त्वावदानमाला) नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की। कुमारलात कृत 'कल्पनामण्डितिका' का भी स्वरूप इसी प्रकार का है। भगवान बुद्ध के पूर्वजन्मों से संबंधित नीति कथाओं की संख्या पांच सौ तक होती है। पुनर्जन्म और कर्मफल सिद्धान्त के अनुसार, शाक्यमुनि के रूप में जन्म लेने पूर्व, भगवान बुद्ध के राजा, सौदागर सज्जन, वानर, हाथी, इत्यादि अनेक योनियों में उत्पन्न हुए और उन जन्मों में उन्होंने क्षमा, वीर्य, दया, धैर्य, दान, सत्य, अहिंसा शांति आदि सद्गुणों का पालन किया ऐसा इन जातक कथाओं में बताया गया है। नीतिशिक्षात्मक कथाओं का दूसरा प्रकार है, अवदान कथा। जातक कथाएँ बुद्ध के विगत जीवन से संबंधित होती हैं, जब कि अवदान कथाओं में प्रधान पात्र स्वयं बुद्ध ही होते हैं। तीसरा प्रकार है 'व्याकरण', जिसमें भविष्य की कथा वर्तमान कर्मों की व्याख्या करती है। 'बौद्धसंस्कृत' में विरचित जातकों तथा अवदानों द्वारा बौद्ध धर्म का प्रचार सामान्य जनता में भरपूर मात्रा में हुआ। अवदान साहित्य अंशतः सर्वास्तिवादी तथा अंशतः महायानी है। इस साहित्य में उल्लेखनीय ग्रंथों में 1) यंदीश्वर या नंदीश्वर कृत अवदानशतक (ई-1-2 शती) 2) कर्मशतक 3) दसगुलम्, 4) दिव्यावदान, 5) कल्पद्रुमावदानमाला, 6) रत्नावदानमाला, 7) अशोकावदानमाला, 8) द्वाविंशत्यवदान, 9) भद्रकल्पावदान, 10) व्रतावदानमाला, 11) विचित्रकर्णिकावदान और 12) अवदानकल्पलताइस की रचना, औचित्यविचारचर्चा के लेखक सुप्रसिद्ध संस्कृत साहित्यिक क्षेमेन्द्र ने 11 वीं शती में की। क्षेमेन्द्र एक वैष्णव कवि थे। जातक एवं अवदान साहित्य अत्यंत प्राचीन होने के कारण तथा उनमें तत्कालीन समाजजीवन के अंग-प्रत्यंगों का वास्तव चित्रण होने के कारण, प्राचीन भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के जिज्ञासुओं के लिए यह एक अद्भुत भंडार है। प्राचीन शासनव्यवस्था, वाणिज्य, व्यापार, आचारविचार, रीति-रिवाज, सामाजिक आर्थिक व्यवस्था, विदेशों से संबंध इत्यादि विविध विषयों का ज्ञान नीतितत्त्वों के साथ इस साहित्य में प्राप्त होता है। एशिया और यूरोप के साहित्य को भी इन नीतिकथाओं ने प्रभावित किया है। बौद्ध संस्कृत वाङ्मय का परिशीलन करते हुए यह बात विशेष कर ध्यान में आती हैं कि यह सारा वाङमय बौद्धों के मूलभूत पालि वाङमय से अनुप्राणित और विदग्ध संस्कृत वाङ्मय से प्रभावित है। इस वाङ्मय के अनेक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ मूल संस्कृत रूप में आज अप्राप्य हैं किन्तु चीनी, तिब्बती, जापानी इत्यादि भाषा में अनुवादरूप में सुरक्षित हैं और इस का व्यापक तथा गंभीर अध्ययन विदेश के विद्वानों ने अधिक मात्रा किया है।
चितवादी तथा अंशतक 3) दसगुलमा व्रतावदानमा
अवदानशतक (ई-1-
2
वदान, 9) भद्रकल्पावदान
साहित्यिक क्षेमेन्द्र न
ली समाजजीवन के
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प्रकरण - 10 "काव्य शास्त्र" 1 "काव्य दर्शन"
संस्कृत भाषा के आद्य ग्रंथ ऋग्वेद में पर्याप्त मात्रा में काव्यात्मकता प्रतीत होती है। अनेक सूक्तों में रमणीय उपमा दृष्टान्त भी मिलते हैं। कुछ सूक्तों में वीररस तथा कहीं कहीं नाट्य गुण भी मिलते हैं। वेदों के षडंगों में से व्याकरण और निरुक्त में शब्दों एवं उनके अर्थों का विचार मार्मिकता से हुआ है। निरुक्तकार ने ऋग्वेद की उपमाओं का विश्लेषणात्मक विचार किया है। पाणिनि की अष्टाध्यायी में शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्रों का निर्देश हुआ है। (4-3-110/111) इसका अर्थ पाणिनि के पूर्वकालीन शास्त्रीय वाङ्मय में नाट्यशास्त्र की रचना का श्रीगणेश हो चुका था किन्तु अलंकार शास्त्र या साहित्य शास्त्र का निर्देश अष्टाध्यायी में नहीं मिलता। व्याकरण भाष्यकार पतंजलि ने "आख्यायिका" नामक साहित्यप्रकार का उल्लेख किया है और वासवदत्ता, सुमनोत्तरा तथा भैमरथी नामक तीन आख्यायिकाओं का निर्देश भी किया है। रामायण, महाभारत, श्रीमद्भागवत जैसे काव्यात्मक इतिहास पुराणग्रंथों का प्रचार समाज में अतिप्राचीन काल में हुआ था, किन्तु इन सारे काव्यात्मक ग्रन्थों की रमणीयता की दृष्टि से आलोचना साहित्यिक दृष्टि से करने वाला प्राचीन ग्रंथ भरत कृत नाट्यशास्त्र के अतिरिक्त दूसरा नहीं मिलता। नाट्यशास्त्र के विवेचन में कुछ प्राचीन ग्रंथों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं, किन्तु वे ग्रंथ अप्राप्य हैं।
आधुनिक विद्वानों ने नाट्यशास्त्र की रचना ई. दूसरी या तीसरी शती मानी है। अर्थात् इसके पूर्व कुछ सदियों से संस्कृत के काव्यशास्त्र की निर्मिति हो चुकी थी। नाट्यशास्त्र के 6, 7, 17, 20 और 32 क्रमांक के अध्यायों में काव्यशास्त्रीय विषयों का विवेचन मिलता है, जो नाट्यशास्त्र का अंगभूत हैं। नाट्यशास्त्र में रसों का विवेचन सविस्तर हुआ है। विभाव, अनुभाव, व्याभिचारि भाव, स्थायी भाव, इत्यादि रसशास्त्रीय पारिभाषिक संज्ञाओं का प्रथम उल्लेख नाट्यशास्त्र में ही मिलता है। नाट्यशास्त्रान्तर्गत रसविवेचन ही भारतीय रस सिद्धान्त का मूल स्रोत है।
काव्यप्रयोजन मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश में
"काव्यं यशसेऽर्थकृते व्यवहारविदे शिवेतरक्षतये। सद्यः परिनिर्वृतये कान्तासम्मिततयोपदेशयुजे ।।" - इस सुप्रसिद्ध कारिका में काव्यनिर्मिति की प्रेरणा देनेवाले 6 प्रयोजन या हेतु बताए हैं : 1) कीर्तिलाभ, 2) धनलाभ, 3) व्यवहारज्ञान, 4) अशुभ निवारण, 5) कान्ता के समान उपदेश और 6) तत्काल परम आनंद। काव्यनिर्मिति के यह छः प्रयोजन सर्वमान्य हैं। इनमें अंतिम प्रयोजन (सद्यःपरनिर्वृति) काव्य के समान, संगीतादि अन्य सभी ललित कलाओं का परम श्रेष्ठ प्रयोजन माना गया है। इन प्रयोजनों के साथ ही नैसर्मिक प्रतिभा, बहुश्रुतता और अन्यान्य शास्त्रविद्या, कला, आचारपद्धति आदि का ज्ञान भी सभी साहित्यशास्त्रकारों ने काव्यनिर्मिति के लिए आवश्यक माना है। विशेषतः जन्मसिद्ध प्रतिभा (जिसका लाभ पूर्वजन्य के संस्कार तथा देवता या सिद्ध पुरुष की कृपा से मनुष्य को होता है।) उत्तम काव्य की निर्मिति के लिए अत्यंत आवश्यक होती है। जन्मसिद्ध प्रतिभा शक्ति के अभाव में केवल शास्त्राभ्यास आदि परिश्रमों से निर्मित काव्य की गणना मध्यम या अधम काव्य की श्रेणी में की जाती है।
साहित्य शास्त्र में शब्द और उसकी अभिधा, लक्षणा और व्यंजना नामक तीन शक्तियाँ तथा उनके कारण ज्ञात होने वाले वाच्यार्थ, लक्ष्यार्थ और व्यंग्यार्थ की गंभीरता से चर्चा हुई है। शब्द की अभिधा शक्ति के कारण, उसके मुख्य अर्थ (वाच्यार्थ) का बोध होता है। वाच्यार्थ के तीन प्रकार होते हैं : 1) रूढ अर्थ : जो लौकिक संकेत के कारण शब्द में रहता है। 2) यौगिक अर्थ : शब्द के प्रकृति प्रत्यय आदि अवयवों का पृथक बोध होने से व्युत्पत्तिद्वारा इस अर्थ का बोध होता है जैसे दिनकर, सुधांशु, आदि यौगिक शब्दों से सूर्य, चंद्र आदि अर्थों का बोध होता है। 3) योगरूढ अर्थ : वारिज, जलज आदि शब्दों का यौगिक अर्थ है पानी में उत्पन्न होनेवाला शंख, शुक्ति, मत्स्य, शैवल आदि
मध्य आवश्यक होती है। जन्मसिदा या सिद्ध पुरुष की कृपा से आवश्यक माना है। विशेषतः अवधा, कला, आचारपद्धति
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 207
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कोई भी पदार्थ। परंतु उनका योगरूढ अर्थ होता है, कमल। इस प्रकार के त्रिविध वाच्यार्थों के कारण उनके वाचक शब्द के भी रूढ, यौगिक तथा योगारूढ नामक तीन प्रकार माने जाते है। लक्षणा : साहित्य शास्त्र में, “कर्मणि कुशलः" और "गंगायां घोषः" इत्यादि उदाहरण, लक्षणाशक्ति का स्वरूप स्पष्ट करने के लिए सर्वत्र दिये गये है। कर्मणि कुशलः उदाहरण में "कुशल" शब्द का वाच्यार्थ है कुश (दर्भ) को काटने में चतुर। इस वाच्यार्थ को प्रस्तुत वाक्य का उचित अर्थ समझने में बाधा आती है। अतः यह शब्द केवल चतुर अर्थ में लिया जाता है। इस प्रकार वाच्यार्थ से अन्य अर्थ का बोध, शब्द की लक्षणाशक्ति के कारण होता है। उसी प्रकार, "गंगायां घोषः" उदाहरण में गंगा शब्द का लाक्षणिक अर्थ गंगातीर होता है गंगाप्रवाह नहीं। "कर्मणि कुशलः" यह रुढि लक्षणा का और "गंगायां घोषः" यह प्रयोजन लक्षणा का उदाहरण है। मीमांसा शास्त्र में, जहल्लक्षणा, अजहल्लक्षणा और जहदजहल्लक्षणा नामक लक्षणा के तीन प्रकार कहे गये है। काव्य में तथा वक्तृत्व में लाक्षणिक शब्दों के प्रयोग से मनोरम वैचित्र्य उत्पन्न होता है। व्यंजना : साहित्यशास्त्र में “गतोऽस्तमर्कः" यह वाक्य व्यंग्यार्थ के उदाहरणार्थ दिया गया है। "सूर्य का अस्त हुआ" इस वाच्यार्थ के द्वारा, ब्राह्मण, किसान, अभिसारिका, चोर, बाल-बालिकाएँ आदि अनेक प्रकार के, श्रोता-वक्ताओं को उनकी वृत्ति या अवस्था के अनुसार प्रस्तुत वाक्य से भिन्न भिन्न प्रकार के अर्थों की प्रतीति होती है। ये भिन्न भिन्न अर्थ अभिधामूलक वाच्यार्थ से सर्वथा भिन्न होते हैं। ऐसे अर्थ को शब्द का व्यंग्यार्थ कहते हैं। इस व्यंग्यार्थ की प्रतीति शब्द की जिस शक्ति के कारण होती है उसे "व्यंजना" कहा है। प्रकरणगत तात्पर्यार्थ की प्रतीति तात्पर्य नामक चौथी वृत्ति से मानी गयी है।
2 "अलंकारशास्त्र या साहित्यशास्त्र" ___ अलंकार शब्द का मुख्य अर्थ है भूषण या आभरण (अलंकारस्तु आभरणम्" अमरकोश)। कवि संप्रदाय में “काव्यशोभाकरो धर्मः" या "शब्दार्थभूषणम् अनुप्रासोपमादिः” इस अर्थ में अलंकारशब्द का प्रयोग रूढ हुआ है।
__ वामन ने अपने काव्यालंकारसूत्र में अलंकार शब्द के दो अर्थ बताए हैं। 1) सौन्दर्यम् अलंकारः और 2) अलंक्रियते अनेन। अर्थात् काव्य में सौन्दर्य-रमणीयता, जिसके कारण उत्पन्न होते हैं अथवा काव्यगत शब्द और अर्थ में वैचित्र्य जिसके कारण उत्पन्न होता है अथवा काव्यगत शब्द और अर्थ जिसके कारण सुशोभित होते हैं, उसे अलंकार कहना चाहिये। रुद्रदामन् के शिलालेख के अनुसार द्वितीय शताब्दी ई.स. में साहित्यिक गद्य और पद्य को अलंकृत करना आवश्यक माना जाता था।। वात्स्यायन के कामशास्त्र में 64 कलाओं में "क्रियाकल्प" नामक कला का निर्देश हुआ है, जो अलंकार शास्त्र के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है।
"अलंकार" भरत मुनि के नाट्यशास्त्र में नाट्य में प्रयुक्त 36 लक्षणों का निर्देश हुआ है। इनमें से कुछ लक्षणों को दण्डी आदि प्राचीन आलंकारिकों ने अलंकार के रूप में स्वीकृत किया है। "भूषण" (अथवा विभूषण) नामक प्रथम लक्षण में काव्य के अलंकारों और गुणों का समावेश हुआ है। भारत नाट्यशास्त्र में उपमा, रूपक, दीपक और यमक ये चार नाटक के अलंकार माने गये हैं। अलंकारशास्त्र के विशषज्ञों को “आलंकारिक" कहा करते थे। प्राचीन काल में अलंकारशास्त्र के अन्तर्गत केवल काव्यगत शब्दालंकारों और अर्थालंकारों का ही नहीं, अपि तु उनके साथ काव्य के गुण, रीति, रस और दोषों का भी विवेचन होता था। प्रस्तुत शास्त्र के इतिहास में यह दिखाई देता है कि ई. 9 वीं शती से अलंकार शास्त्र का निर्देश, “साहित्य शास्त्र" के नाम से होने लगा। शब्द और अर्थ का परस्पर अनुरूप सौन्दर्यशालित्व यही 'साहित्य' शब्द का पारिभाषिक अर्थ माना जाता है।
साहित्य शास्त्र में काव्य का प्रयोजन, लक्षण, शब्द एवं अर्थ की (अभिधा, लक्षणा, और व्यंजना नामक) शक्तियाँ, उन शक्तियों के कारण निर्मित वाच्य, लक्ष्य, व्यंग और तात्पर्य अर्थ, इन अर्थों के विविध प्रकार, शब्दगुण, रीति, काव्यात्मा रस और उसके शृंगार वीर, करुण आदि नौ प्रकार, स्थायी भाव, व्याभिचारि भाव, आलंबन विभाव, उद्दीपन विभाव, रसाभास, काव्यगत शब्ददोष, अर्थदोष, रसदोष, अलंकारदोष, नित्यदोष, अनित्यदोष, अनुप्रास यमक आदि शब्दालंकार एवं उपमा, उत्प्रेक्षा रूपक आदि अर्थालंकार और उनके विविध प्रकार, इन विषयों का अन्तर्भाव होता है। मम्मटाचार्य के सुप्रसिद्ध काव्यप्रकाश में 10 उल्लास और 212 सूत्रप्राय कारिकाओं में इन सभी विषयों का समावेश किया है। हेमचन्द्रसूरि कृत काव्यानुशासन में 8 अध्यायों और 208 सूत्रों में इन विषयों का प्रतिपादन हुआ है। हेमचंद्र और विश्वनाथ (साहित्यदर्पणकार) ने नाट्यशास्त्र का भी अन्तर्भाव साहित्य शास्त्र के अन्तर्गत किया है। संस्कृत साहित्यशास्त्र में ध्वनिसिद्धान्त या रससिद्धान्त की प्रतिष्ठापना होने के पूर्व अलंकार को ही काव्य के रमणीयत्व का प्रमुख कारण माना जाता था। भामह, उद्भट, रुद्रट और दंडी अलंकार संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इस संप्रदाय के अनुसार वक्रोक्ति अलंकार ही काव्य का प्राण है।
"सैषा सर्वत्र वक्रोक्तिः अनयाऽर्थो विभाव्यते । यत्रोऽस्यां कविना कार्यः कोऽलंकारोऽनया विना।।" (भामहकृत काव्यालंकार 2-85) अर्थात् कविता में वक्रोक्ति ही सब कुछ है। वक्रोक्ति के कारण ही काव्यगत अर्थ विशेष रूप से प्रकाशित होता है।
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कवि ने वक्रोक्ति के लिए ही प्रयत्न करना चाहिए क्यों कि वक्रोक्ति के बिना कोई भी अलंकार प्रकट नहीं होता। सभी आलंकारिकों ने अर्थालंकारों को विशेष महत्त्व दिया है। अलंकारो की संख्या में यथाक्रम वृद्धि होती गयी। भरत के नाट्यशास्त्र में अनुप्रास उपमा, रूपक और दीपक इन चार ही अलंकारों का नाट्यालंकारों के नाते निर्देश है। बाद में अलंकारों की संख्या बढ़ती गयी। दण्डी ने अपने काव्यादर्श में 35 अर्थालंकारों की चर्चा की। रुद्रट ने 68 अलंकारों का विवेचन करते हुए अलंकारों के वर्गीकरण के आधारभूत औपम्य, वास्तव, अतिशय तथा श्लेष आदि निमित्त प्रतिपादन किये हैं। विद्याधर ने अपने एकावली ग्रंथ में औपम्य, तर्क, विरोध इत्यादि विभाजक तत्त्वों की चर्चा की है। बाद में भिन्न भिन्न अलंकारों के विविध प्रकारों का विवेचन यथोचित उदाहरणों सहित आलंकारिकों ने किया है।
अलंकारों की संख्या एवं उनके लक्षणों में शास्त्रकारों का मतभेद सर्वत्र दिखाई देता है। जैसे मम्मट ने काव्यप्रकाश में 61 अलंकार बताए हैं किन्तु हेमचंद्र ने 29 अर्थालंकार बताए हैं। संसृष्टि अलंकार का अन्तर्भाव संकर में किया है। दीपक के लक्षण में तुल्योगिता का समावेश किया है। परिवृत्ति के लक्षण में, मम्मटोक्त पर्याय और परिवृत्ति दोनों का अन्तर्भाव किया है। रस, भाव, इत्यादि से संबंद्ध रसवत्, प्रेयस्, उर्जस्वी, समाहित जैसे अलंकारों का वर्णन हेमचंद्र ने नहीं किया। अनन्वय
और उपमेयोपमा को उपमा में ही अन्तर्भूत किया है, तथा प्रतिवस्तूपमा, दृष्टान्त, निदर्शना जैसे अलंकारों को निदर्शना में अन्तर्भूत किया है। मम्मट के स्वभावोक्ति और अप्रस्तुतप्रशंसा को हेमचंद्र ने क्रमशः जाति और अन्योक्ति नाम दिये हैं। उपमा, रूपक, उत्प्रेक्षा, अतिशयोक्ति, अनन्वय, भ्रांतिमान्, स्मरण, तद्गुण, निदर्शना इत्यादि अलंकारों में भेद होते हुए भी उनका आधार उपमेय
और उपमान का साम्य या साधर्म्य है। उसी प्रकार विरोध के आधार पर विरोधाभास, विषम, प्रतीप, प्रत्यनीक अतद्गुण, विभावना इत्यादि अलंकारों की रचना हुई है। अलंकार संप्रदाय में समासोक्ति, अप्रस्तुतप्रशंसा, आक्षेप जैसे अन्यार्थसूचक अलंकारों में प्रतीयमान या व्यंग्य अर्थ के विविध प्रकारों का अन्तर्भाव किया है जिसका प्रतिवाद ध्वन्यालोककार आनंदवर्धनाचार्य ने किया है। अलंकार संप्रदाय के प्रमुख आचार्य भामह ने काव्यान्तर्गत रसों का अन्तर्भाव रसवत्, प्रेय, ऊर्जस्वी जैसे अलंकारों में किया है।
3 "वक्रोक्ति संप्रदाय" अलंकारवादी साहित्यिकों में वक्रोक्ति अर्थात्, चातुर्य पूर्ण रीति से कथन (वैदग्ध्यभंगी-भणितिः) को ही काव्य की आत्मा मानने वाला एक संप्रदाय कुंतक द्वारा प्रचलित हुआ। अपने वक्रोक्तिजीवित नामक ग्रंथ द्वारा कुंतक ने इस सिद्धान्त की स्थापना की। भामह ने अतिशयोक्ति को काव्य की आत्मा कहते हुए (अतिशयोक्तिरेव प्राणत्वेन अवतिष्ठते) उसे “वक्रोक्ति" संज्ञा दी है। दण्डी ने : 1) स्वभावोक्तिमूलक और 2) वक्रोक्तिमूलक दो प्रकार का वाङ्मय माना है। उन्होंने वक्रोक्ति में श्लेष द्वारा सौन्दर्य की निष्पत्ति मानी है। उन्होंने वक्रोक्ति सिद्धान्त को व्यवस्थित स्वरूप देते हुए उसे काव्य का जीवित कहा है। वक्रोक्ति के सिद्धान्त के अनुसार पाच प्रकार माने जाते हैं 1) वर्णवक्रता, 2) पदवक्रता, 3) वाक्यवक्रता, 4) अर्थवक्रता और 5) प्रबंधवक्रता। इनके अतिरिक्त उपचारवक्रता भी मानी गयी है जिसमें ध्वनि के अनेक भेदों का अन्तर्भाव किया गया है। किंबहुना ध्वनि के सभी प्रकारों का समावेश कुन्तक ने वक्रोक्ति में ही किया है। कुन्तक के बाद वक्रोक्तिजीवित का सिद्धान्त नहीं पनपा। उत्तरकालीन प्रायः सभी आलंकारिकों ने वक्रोक्ति को एक अलंकार मात्र माना है।
संस्कृत साहित्यशास्त्रकारों ने अपने लक्षणग्रंथ लिखते समय संस्कृत और प्राकृत काव्यों में भेद नहीं माना। इसी कारण अनेक साहित्य शास्त्रीय ग्रंथों में उदाहरण के रूप में संस्कृत पद्यों के समान प्राकृत (महाराष्ट्रीय) पद्यों के भी अनेक उदाहरण दिये हैं। वाग्भटालंकार के लेखक वाग्भट तथा रसगंगाधरकार पंडितराज जगन्नाथ जैसे कुछ मनीषियों ने सभी स्वरचित पद्यों के ही उदाहरण दिये हैं। कुछ ग्रंथकारों ने यत्र तत्र स्वरचित श्लोकों के उदाहरण प्रस्तुत किये हैं। साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों के टीकाकारों की संख्या बहुत बड़ी है। इन टीकाकारों ने मूल उदाहरणों का विश्लेषण करते हुए अन्य श्लोकों के भी उदाहरण यत्र तत्र जोड दिए हैं।
4 रीति संप्रदाय काव्य का सौन्दर्य बढ़ाने वाले तत्त्वों में अलंकारों से पृथक् तत्त्व का प्रतिपादन, सर्वप्रथम वामन ने अपने काव्यालंकार-सूत्र में किया। "काव्यशोभायाः कर्तारो धर्माः गुणाः। तदतिशयहेतवः तु अलंकाराः" इन सूत्रों द्वारा वामन ने गुण और अलंकारों का भेद स्पष्ट किया है। काव्य में जिन के द्वारा शोभा आती है उन्हें "गुण" कहना चाहिए और काव्यशोभा की अभिवृद्धि जिनके कारण होती है, उन्हें अलंकार कहना चाहिए। गुण, मनुष्य के शौर्य धैर्यादि के समान होते हैं और अलंकार कटक-कुण्डल-हार आदि के समान होते है। मनुष्य के शौर्य-धैर्यादि और कटककुण्डलादि में जितना भेद है, उतना ही काव्य के गुण और अलंकारों में भी है।
वामन के मतानुसार काव्यगुण 10 होते हैं : श्लेष, प्रसाद, समता, माधुर्य, सुकुमारता, अर्थव्युक्ति, उदारत्व, ओज, कांति और समाधि। इन दस गुणों के शब्दगुण और अर्थगुण नामक दो प्रकार के माने गये हैं। मम्मटाचार्य ने इन दस गुणों का प्रसाद, माधुर्य और ओज इन तीन गुणों में अन्तर्भाव किया है। वे दस काव्यगुण नहीं मानते।
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इन दस गुणों पर आधारित वैदर्भी, गौडी और पांचाली नामक तीन रीतियों का सिद्धान्त वामन ने प्रतिपादित किया। अल्प समासयुक्त सर्वगुणमयी “वैदर्भी," दीर्घसमासयुक्त ओजोगुणप्रचुर गौडी तथा मध्यमसमासयुक्त माधुर्य-सौकुमार्यगुणयुक्त पांचाली रीति वामन ने प्रतिपादन की है। यह रीति ही उनके मतानुसार काव्य की आत्मा होती है। कालिदास के काव्य में वैदर्भी, भवभूति के नाटकों में गौडी और बाणभट्ट की कादम्बरी में पांचाली रीति स्पष्ट रूप से प्रतीत होती है। इन तीन रीतियों के अतिरिक्त रुद्रट ने लाटी और भोज ने आवंती एवं मागधी नामक रीतियों का प्रतिपादन किया। मम्मट ने रीतिवाद का खंडन करते हुए, उपनागरिका, पुरुषा और ग्राम्या नामक तीन प्रवृत्तियों का प्रतिपादन किया है। उपरिनिदिष्ट छ: रीतियों के नाम विदर्भ, गौड, पंचाल, लाट, अवंती और मगध इन प्रदेशों के नामों से जुड़े होने के कारण, उन प्रदेशों से उनके नाम की रीति का संबंध जोडा जाता है। परंतु उसमें कोई तथ्य नहीं है। रीतियों के नाम प्रादेशिक हैं, किन्तु वे साहित्यशास्त्र के पारिभाषिक अर्थ में ग्रहण करने चाहिए।
5 "काव्यदोष" "वाक्यं रसात्मकं काव्यम्" यह महत्त्वपूर्ण सिद्धान्त स्थापित होते ही, "रसापकर्षक" या रसहानिकारक कारणों का विवेचन आवश्यक हो गया। इन रसापकर्षक कारणों को ही साहित्य शास्त्रज्ञों ने “काव्यदोष' कहा है। "रसापकर्षका दोषाः" यह दोषों का लक्षण भी सर्वमान्य हुआ है। दोषविवेचन में शब्ददोष, अर्थदोष, अलंकारदोष, नित्यदोष, अनित्यदोष, इत्यादि प्रकारों से दोषों का वर्गीकरण किया गया और उन के उदाहरण संस्कृत साहित्य के कालिदासादि श्रेष्ठ महाकवियों के काव्यों से उद्धृत किये गये हैं। काव्यप्रकाश, साहित्यदर्पण जैसे ग्रंथों में किया हुआ काव्यदोषों का विवेचन अत्यंत मार्मिक एवं सर्वंकष है। साहित्यशास्त्रज्ञों की अपेक्षा है कि, काव्य में लेशमात्र दोष नहीं रहना चाहिए। जिस प्रकार एकमात्र कुष्ठव्रण से सारा सुंदर शरीर दुभंग हो जाता है, उसी प्रकार लेशमात्र दोष से सुन्दर काव्य भी निंदास्पद हो जाता है। काव्यरचना में रुचि रखने वाले प्रत्येक प्रतिभासंपन्न साहित्यिक को संस्कृत साहित्यशास्त्र के विविध सिद्धान्तों का और विशेषतः काव्यदोषों का सम्यक् आकलन करना अत्यंत आवश्यक है। (साहित्य शास्त्र विषयक ग्रंथों की जानकारी के लिए साहित्य विषयक परिशिष्ट देखिए।)
6 रससिद्धान्त साहित्यशास्त्र में रससिद्धान्त का विवेचन सर्वप्रथम भरत के नाट्यशास्त्र में हुआ है। "विभाव-अनुभाव-व्याभिचारि-संयोगाद् रसनिष्पत्तिः” इस नाट्यशास्त्रोक्त सूत्र के आधार पर साहित्य शास्त्रीय ग्रंथों में रससिद्धान्त की चर्चा हुई है। विभाव, अनुभाव
और व्याभिचारि (या संचारी) भावों के संयोग से, (जैसे किसी मिष्टान्न या मधुर पेय में अन्यान्य सुस्वादु पदार्थों के संयोग से, स्वतंत्ररस (या स्वाद) निष्पन्न होता है।) काव्य-नाटकादि साहित्य के द्वारा सहृदय पाठक के अन्तःकरण में, रसनिष्पत्ति होती है। रससूत्र में प्रयुक्त “निष्पत्ति" शब्द का अर्थ निर्धारित करने में मतभेद निर्माण हुए। इस रस सिद्धान्त का विवेचन करते हुए कुछ महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग साहित्यशास्त्र में हुआ है। जैसे : 1) स्थायी भाव : मनुष्य के अन्तःकरण में निसर्गतः रति, हास, शोक, क्रोध, उत्साह, भय, जुगुप्सा और विस्मय नामक आठ भाव स्वयंभू होते हैं। इनके अतिरिक्त निर्वेद , वात्सल्य, भक्ति इत्यादि अन्य स्थायी भाव भी माने गये हैं। इन स्थायी भावों की अभिव्यक्ति या उद्दीपित अवस्था को रस कहते हैं। विभाव :- वासनारूपतया स्थितान् रत्यादीन् स्थायिनः विभावयन्ति, रसास्वादाकुरयोग्यतां नयन्ति, इति विभावाः। अर्थात् जिन के कारण अन्तःकरण में वासना या प्राक्तन संस्कार के रूप से अवस्थित रति हास, शोक, क्रोध आदि स्थायी भाव आस्वाद के योग्य अंकुरित होते हैं, वे विभाव कहलाते हैं। विभाव के दो प्रकार माने जाते हैं (1) आलंबन और (2) उद्दीपन। काव्य एवं नाटक के नायक-नायिका आलंबन विभाव और उनके संबंध के अवसर पर वर्णित नदीतीर, कुंजवन आदि स्थल, शरद्, वसंत आदि समय, गुरुजनों का असान्निध्य, जैसी परिस्थिति को उद्दीपन विभाव कहा जाता है। शाकुन्तल नाटक में दुष्यन्त-शकुन्तला आलंबन विभाव हैं और कण्वाश्रम, मालिनी तीर, कुसुमावचय आदि उद्दीपन विभाव हैं, जिनके कारण सहृदय दर्शक या पाठक के अन्तःकरण में रति स्थायी भाव का उद्दीपन होता है। अनुभाव- "अनुभावयन्ति रत्यादीन् -इति अनुभावाः" अर्थात् हृदयस्थ स्थायी भाव का अनुभव देने वाले, स्वेद, स्तम्भ, रोमांच, अश्रुपात इत्यादि शरीरगत लक्षणों को अनुभव कहते हैं। व्यभिचारीभाव : "विशेषेण अभितः काव्ये स्थायि-नं चारयन्ति इति व्यभिचारिणः-" अर्थात् स्थायी भाव का परिपोष करते हुए, उसे काव्य में सर्वत्र संचारित करने वाले अस्थिर एवं अनिश्चित भावों को व्यभिचारी या संचारी भाव कहते हैं। शास्त्रकारों ने 33 प्रकार के व्यभिचारी भाव निर्धारित किये हैं:- वैराग्य, ग्लानि, शंका, मत्सर, मद, श्रम, आलस्य, दैन्य, चिंता, मूर्छा, स्मृति, धैर्य, लज्जा, चापल्य, हर्ष, आवेग, जडता, गर्व, खेद, उत्सुकता, निद्रा, अपस्मार, स्वप्न, जागृति, क्रोध, अवहित्था, उग्रता, मति, व्याधि, उन्माद, मरण, त्रास और वितर्क।
स भाव कहते हैं। शास्र
शका, मत्सर, मद,
गर्व, खेद, उ
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उपरिनिर्दिष्ट ( रति-हास आदि) स्थायी भावों का उद्दीपन, काव्यगत विभाव, अनुभाव, व्याभिचारि भावों के संयोग से होकर शृंगार (विप्रलंभ एवं शृंगार) हास्य, करुण, रौद्र, वीर, भयानक, बीभत्स, अद्भुत, शांत, वात्सल्य और भक्ति नामक रसों की निष्पत्ति सहृदय काव्यास्वादक के हृदय में होती है। अभिनवगुप्ताचार्य ने अपने ध्वन्यालोकलोचन नामक टीका ग्रंथ में रसनिष्पत्ति के संबंध में, भट्ट लोल्लट, भट्टनायक और भट्ट शंकुक, इन आचार्यों के मतों का परिचय देते हुए अपने मत का प्रतिपादन किया है । मम्मटाचार्य ने अपने काव्यप्रकाश में इस चर्चा का संक्षेप देते हुए, अभिनवगुप्ताचार्य के अभिव्यक्तिवाद का समर्थन किया है।
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भट्ट लोल्लट के मतानुसार विभाव, अनुभाव और व्याभिचारि भावों का पात्रगत स्थायी भाव से संयोग होकर (राम-सीता आदि पात्रगत) स्थायी भाव उबुद्ध और परिपुष्ट होते हैं। यह परिपुष्ट स्थायी भाव ही रस कहलाता है। रस वस्तुतः राम-सीता दुष्यन्त शकुन्तला आदि अनुकार्य पात्रों में होता है, किन्तु नटों के कौशल्यपूर्ण अनुसंधान के कारण उसकी प्रतीति नट में ही होती है।
शंकुक के मतानुसार विभाव- अनुभाव आदि लिंगों या साधनों द्वारा नटगत स्थायी भाव का दर्शक को अनुमान होता है । नट को, अनुकार्य रामादि से अभिन्न मानते हुए उस अनुमित स्थायी भाव का आस्वाद सहृदय द्वारा लिया जाता है। "चित्र - तुरग न्याय" (अर्थात् मिट्टी या लकड़ी के घोडे को बालक सच्चा घोडा मानता है) से कौशल्यपूर्ण अभिनय के कारण, नट में रामादि पात्रगत स्थायी का आभास होता है। यही मिथ्या ज्ञान रूप आभास, रस कहलाया जाता है। इस मत के अनुसार रस पात्रों में नहीं, अपितु नहीं में होता है।
अभिनवगुप्त के मतानुसार, विभावादि का अनुभव पाते हुए, विभावनीय और अनुभावनीय चित्तवृत्ति में उद्बोधित वासनारूप स्थायी की चर्वणा ही रस है। इस मत के अनुसार रस का आधार, पात्र या नट दोनों नहीं अपि तु नाट्य काव्यादि के सहृदय आस्वादकों का अन्तःकरण होता है।
भट्टनायक के मतानुसार रस की “निष्पत्ति", याने उसकी उत्पत्ति, अनुमिति या प्रतीति नहीं, अपि तु "भोज्य-भोजक संबध" के कारण, रसिक द्वारा होने वाली भुक्ति है। भरत के रससूत्र में प्रयुक्त "निष्पत्ति" शब्द का अर्थ न्याय, सांख्य, वेदान्त जैसे पारमार्थिक दर्शनों के अनुसार निर्धारित करने के प्रयत्न से, साहित्यशास्त्रियों में इस प्रकार मतभेद उत्पन्न हुए। विद्वत्समाज में सामान्यतः अभिनव-गुप्ताचार्य का मत ग्राह्य माना जाता है। भट्नायक ने रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया में विभावादि सामग्री के “साधारणीकरण” की अवस्था प्रतिपादन की है। तदनुसार साहित्यिक कलाकृति का आस्वाद लेते समय, विभावादि का विशिष्ट व्यक्ति, देश, काल आदि से संबंध छूट कर वे सार्वदेशिक और सार्वकालिक स्वरूप ग्रहण करते हैं, जिसके कारण काव्यनाट्यादि कलाकृति और उसके आस्वादक में भौज्य-भोजक भाव संबंध निर्माण होता है, और उन्हें रस की निर्विघ्न प्रतीति होती है। भट्नायक की यह साधारणीकरण की प्रक्रिया अभिनव गुप्ताचार्य ने भी ग्राह्य मानी है।
काव्यनाट्यादि द्वारा यथोचित मात्रा में रसनिष्पत्ति होने के लिये, कवि तथा कलाकारों को अत्यंत सतर्क रहना पड़ता है। इस सतकर्ता में कुछ त्रुटि रहने पर रसनिष्पत्ति में विघ्न निर्माण होते हैं। किसी कलाकृति में कवि द्वारा औचित्य का पालन नहीं हुआ, या दर्शकों द्वारा कलाकृति का योग्य आकलन नहीं हुआ तो रसनिष्पत्ति नहीं होती । "अनौचित्य" रसभंग का प्रमुख कारण माना जाता है (अनौचित्यादृते नान्यत् रसभंगस्य कारणम्) यह औचित्यवादियों का मत सर्वमान्य है। नाट्यप्रयोग में रसविन तथा अन्य विघ्नों का निवारण करने हेतु भरत ने “पूर्वरंग" का विधान किया है। काव्य - नाटकों का आस्वादक अपने निजी सुख दुःख के कारण व्यस्तचित्त होगा, तो उसे ठीक रसास्वाद मिलना संभव नहीं होता । रसिक दर्शकों को निजी सुख दुःखों से मुक्त करने के हेतु नाट्यप्रयोग में गीत एवं नृत्य का विधान भरत ने किया है।
भरताचार्य ने नाट्य की दृष्टि से शृंगार, वीर, करुण, अद्भुत, हास्य, भयानक, बीभत्स और रौद्र आठ ही रस माने हैं। उद्भट ने नौवा शांत रस माना है। इनके अतिरिक्त भक्ति का रसत्व मधुसूदन सरस्वती, रूपगोस्वामी जैसे वैष्णव विद्वानों ने एक ही रस वास्तव मानते हुए, अन्य रसों को गौणत्व दिया है, जैसे भोज ने अहंकार ही एक मात्र रस कहा है। अन्य रसों को उन्होंने भाव माना है। भवभूति "एको रसः करुण एव" कहते हैं, अन्य रसों को जलाशय के आवर्त, तरंग, बुबुदों के समान विवर्त मात्र मानते है। अग्निपुराणने शृंगार को मधुसूदन सरस्वती ने भक्ति को, नारायण ने अद्भुत को ही प्रमुख रस माना है।
"शृंगाराद् हि भवेत् हासो रौद्राच्च करुणो रसः । वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिः बीभत्साच्च भयानकः । ।
इस कारिका में शृंगार, रौद्र, वीर और बीभत्स को 'जनक' और हास्य, करुण, अदभुत तथा भयानक को उनके 'जन्य' रस माना है। आधुनिक काव्यों में भक्ति ने देशभक्ति का स्वरूप ग्रहण किया है और कुछ विद्वान देशभक्ति रस को देवभक्ति से पृथगात्म मानते है । साहित्य शास्त्रकारों ने सभी रसों को सुखकारक या आनंददायक माना है। किन्तु शोक स्थायी भाव के उद्दीपन से प्रतीत होनेवाला करुण रस इस विषय में विवाद का विषय हुआ है। जिन्होंने करुण को दुःखरूप माना है, उनका खंडन करते हुए कहा गया है, , कि :"करुणादावपि रसे जायते यत् परं सुखम् सचेतसामनुभवः प्रमाणं रात्र केवलम्।।"
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 211
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अर्थात् करुण जैसे शोक स्थायी भाव पर अधिष्ठित रस की प्रतीति से परम सुख होता है, इस का एकमात्र प्रमाण है सहृदयों का अनुभव। अगर करुण रस की प्रतीति से सुख के अलावा दुःख ही होता, तो उसकी ओर सहृदयों की प्रवृत्ति नहीं होती। संसार में दुःखदायक विषयों की ओर कोई भी प्रवृत्त नहीं होता।
नाट्यदर्पणकार रामचंद्र गुणचंद्र ने रसों के दो प्रकार माने हैं। 1) सुखात्मक और 2) दुःखात्मक। शृंगार, हास्य, वीर, अदभुत और शांत रस सुखात्मक हैं और करुण, भयानक, बीभत्स तथा रौद्र रस दुःखदायक माने हैं। काव्य-नाटकों में केवल दुःखात्मक रस नहीं होते; श्रेष्ठ साहित्यिक सुखात्मक और दुःखात्मक दोनों रसों का सम्मिश्रण अपनी कलाकृति में करते हैं। सुखात्मक रसों की पृष्ठभूमि पर, दुःखात्मक रस भी आनंददायी होते हैं। इसी कारण दुःखदायक करुण रस सुखप्रद होता है।
ब्रह्मानंदसहोदर श्रुति के "रसो वै सः" इस वचन में सच्चिदानंद स्वरूप परमात्मा को रस रूप कहा है। यद्यपि विषयानंद, ब्रह्मानन्द और रसानंद इन तीन प्रकारों से आनंद का त्रिविध निर्देश होता है तथापि उनमें विषयानंद लौकिक होता है। शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध जैसे प्राकृतिक विषयों की अनुकूल संवेदना से विषयानंद की अनुभूति मनुष्यमात्र को होती है। इस अनुभूति के लिये "सहृदयता" की आवश्यकता नहीं होती। रसानंद की प्रतीति काव्य-नाट्यादि कलाकृतियों के तन्मयतापूर्वक आस्वाद से सहृदय को ही होती है और ब्रह्मानंद की अनुभूति ध्यानयोग में सिद्धता प्राप्त होने पर निर्विकल्प समाधि की अवस्था में योगी को ही होती है। रसानंद का अधिकारी “सहृदय" होता है, तो ब्रह्मानंद का योगी होता है। ब्रह्मानंद का महारस कुछ और ही है। उसकी तुलना में काव्य-नाट्यादि, के आस्वाद से प्रतीत होनेवाला रसानंद गौण होने के कारण उसे "ब्रह्मास्वाद का सहोदर" या "ब्रह्मानंदसचिव" कहा है। ब्रह्मानंद या महारस की अनुभूति के लिये, अन्तःकरणस्थ समस्त वासनाओं का उच्छेद होना आवश्यक होता है, किन्तु शृंगारादि नवरसों की प्रतीति के लिए, वासनागत राजसिकता और तामसिकता का क्षय किन्तु सात्विकता का परिपोष आवश्यक होता है। संपूर्ण वासनाहीन अवस्था से सात्त्विक वासनायुक्त अवस्था गौण होने के कारण भी, रसानंद को ब्रह्मानंद का सचिव या सहोदर (भ्राता) कहना उचित ही है।
भरत मुनि ने अपने नाट्यशास्त्र में, नाटकोचित आठ रसों का प्रतिपादन किया है, किन्तु वे इन विविध रसों का मूलाधार एक "महारस' मानते हैं। शृंगारादि विविध रस इस महारस के अंश मात्र हैं। महारस का एक अवर्णनीय स्थायी भाव होता है। रजोगुण और तमोगुण से निर्मुक्त चित्त की शुद्ध सत्त्वात्मक अवस्था ही यह स्थायी भाव है। चित्त के इस शांत और आनन्दमयी अवस्था का निर्देश, अलंकारकौस्तुभकार कर्णपूर ने "आस्वादांकुर' शब्द से किया है, यह आस्वादांकुर विभावादि रूप उपाधियों के संयोग से, शृंगारादि रसों की अवस्था में पल्लवित और पुष्पित होता है। संसार में एकता में अनेकता की प्रतीति उपाधियों के कारण ही होती है। वस्तुतः एकमेवाद्वितीय आनंद में शृंगारवीरादि अनेकविध आनंदों की प्रतीति विभावादि उपाधियों के कारण ही होती है।
(आगामी नाट्य वाङ्मय विषयक प्रकरण में नाट्यशास्त्र की चर्चा में नाट्यदृष्ट्या रस का विवेचन किया है।)
272/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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प्रकरण - 11 "नाट्यवाङ्मय" 1 नाटकों का प्रारंभ
संस्कृत साहित्यशास्त्रकारों ने काव्य के दो प्रकार माने हैं। 1) श्राव्य और 2) दृश्य। नाट्यवाङ्मय का अन्तर्भाव दृश्य अथवा दृश्य श्राव्यकाव्य में होता है। भारतीय परंपरा के अनुसार नाट्यों का उदगम् अन्य सभी विद्याओं के समान, वेदों से माना जाता है। ऋग्वेद में कुछ नाट्यानुकूल मनोरम संवाद मिलते हैं, जैसे 1) सरमापणि, 2) यम-यमी, 3) विश्वामित्र-नदी, 4) अग्नि-देव और 5) पुरुरवा ऊर्वशी। इन संवादों का गायन या पठन अभिनय सहित होने पर नाट्यदर्शन का अनुभव हो सकता है। दशम मंडल के 119 वें सूक्त में सोमयाग से प्रमत्त इन्द्रदेव का भाषण "स्वगत' या आकाशभाषित" सा प्रतीत होता है। आठवे मंडल के 33 वें सूक्त में, प्लायोगी नामक स्त्रीवेषधारी पुरुष को इन्द्र द्वारा दिए हुए आदेशों में नाटकीयता का प्रत्यय आता है।
यजुर्वेद के रुद्राध्याय में और अथर्ववेद के खिलसूक्त (नवम कांड 134 वां सूक्त) में कुमारी और ब्रह्मचारी के संवाद में नाट्यात्मकता पर्याप्त मात्रा में दिखाई देती है।
वैदिकों की यज्ञविधि में नाटकों का मूल देखने वाले विद्वान, सोमयाग का सोमक्रय और महाव्रत यज्ञ में चलने वाले नट-नटी के नृत्य गीत तथा वाद्यों की ओर संकेत करते हैं। उपनिषदों के कुछ संवादों पर आधारित छोटे छोटे संस्कृत नाट्यप्रवेश कर्नाटक के एक विद्वान डॉ. पांडुरंगी ने हाल ही में प्रकाशित किए हैं।
वेदोत्तरकालीन वाल्मीकि रामायण (1-18-18) में और महाभारत (वन पर्व 15-14, शांतिपर्व 69, 51, 60) में पौराणिक एवं ऐतिहासिक उपाख्यान के अर्थ में "नाटक" शब्द का प्रयोग हुआ है। उन आख्यान-उपाख्यानों का साभिनय गायन, नाटक का आभास कर सकता है। हरिवंश के विष्णुपर्व में एक उल्लेख आता है, जिस में प्रद्युम्न, सांब और गद इन तीन यदुपुत्रों द्वारा प्रयुक्त रंभा नलकूबर की कथा के नाट्यप्रयोग का उल्लेख आता है। हरिवंश में दूसरा उल्लेख मिलता है कि वज्रणाभ दैत्य का दमन करने के लिए श्रीकृष्ण ने अपने पुत्रों को नियुक्त किया था। अपने प्रयाण के समय उन्होंने एक रामायणीय घटना पर आधारित नाट्यप्रयोग किया था।
नाटकों के अस्तित्व का प्राचीन निर्देश पाणिनि (ई. पू. 6 शती) की अष्टाध्यायी में "पाराशर्यशिलालिभ्यां भिक्षुनटसूत्रयोः" और “कर्मन्दकृशाश्वादिनि" इन सूत्रों में मिलता है। तद्नुसार शिलालि और कृशाश्व के नटसूत्र नामक ग्रन्थों के अस्तित्व का अनुमान किया जाता है। इन नटसूत्रों में भरतनाट्यशास्त्र के समान नाटकों से संबंधित नियम रहे होंगे। ऐसे नियम लक्ष्यभूत नाट्यवाङ्मय के अभाव में होना असंभव है। लक्ष्य ग्रंथों के अभाव में लक्षण ग्रंथ कभी भी नहीं हो सकते। काशिकावृत्ति के अनुसार, नाट्यग्रंथों की प्राचीन काल में आम्नाय जैसी प्रतिष्ठा थी। भरतनाट्यशास्त्र, नटों को शैलातिक कहता है; तो पाणिनि उन्हें शैलालिन् कहते हैं।
पतंजलि के महाभाष्य में “ये तावद् एते शोभनिका नाम एते प्रत्यक्षं कसं घातयन्ति, प्रत्यक्षं बलिं बन्धयन्ति" इस प्रकार के वाक्य आते हैं जिनसे तत्कालीन नाट्यप्रयोग का अनुमान हो सकता है। कौटिलीय अर्थशास्त्र (ई. पू. 4 थी शती) में गुप्तचरों में नट-नर्तकों का उल्लेख किया है। नाट्यशाला और कलाकारों का प्रशिक्षण भी वहां निर्दिष्ट है।
प्राचीन बौद्ध और जैन वाङ्मय में भी नाटकों के धार्मिक महत्त्व का परिचय मिलता है। बौद्ध सूत्रों में भिक्षुओं के लिए, विसुकदस्सन, नच्च, पेक्खा आदि अज्ञात स्वरूप वाले दृश्य देखने का निषेध किया गया है। परंतु कालान्तर में यह भाव बदल गया होगा, क्यों कि आज उपलब्ध प्राचीनतम नाटक (सारिपुत्त प्रकरण) अश्वघोष कृत बौद्ध वाङ्मय के अन्तर्गत है। ललितविस्तर में भगवान बुद्ध को नाट्यकला का भी ज्ञाता बताया गया है। बुद्ध के समकालीन बिंबिसारने एक नाटक का अभिनय कराया था, ऐसा उल्लेख मिलता है। अवदानशतक के अनुसार नाट्यकला बहुत प्राचीन है। सद्धर्मपुण्डरीक पर बौद्ध नाटकों का ही प्रभाव लक्षित होता है।
जैनों ने भी नाट्य, सदृश्य विहारों के निषेध के साथ साथ गीत, वाद्य और नृत्य के अभिनय को मान्यता दी है। अपने धर्म के प्रचार के लिए जैनियों ने भी नाटकों का आश्रय लिया है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /213
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इन विविध प्रमाणों से अतिप्राचीन काल से भारत में नाट्यवाङ्मय तथा नाट्यकला का विकास और विस्तार हुआ था, यह तथ्य सिद्ध होता है। इस विषय के अंगों एवं उपांगों की शास्त्रीय चर्चा भी संसार के इस प्राचीनतम राष्ट्र में अतिप्राचीन काल से शुरु हुई दिखाई देती है।
भरत का नाट्यशास्त्र भरताचार्य कृत नाट्यशास्त्र यह ग्रंथ भारतीय नाट्यशास्त्रीय वाङ्मय में अग्रगण्य और परम प्रमाणभूत याने "पंचम वेद" माना गया है। भरत के आविर्भाव का काल निश्चित नहीं हैं। यूरोपीय विद्वानों में हेमन के मतानुसार भरत इसा पूर्वकालीन हैं। रेनॉड के मतानुसार ईसा की प्रथम शती, पिशल के मतानुसार ईसा की छठी या सातवीं शती, श्री प्रभाकर भांडारकर के मतानुसार ई. 4 थी शती और हरप्रसाद शास्त्री के मतानुसार ईसापूर्व दूसरी शती में नाट्यशास्त्रकार भरत का आविर्भाव माना गया है। इस प्राचीन नाट्यशास्त्रकार ने अपने पूर्ववर्ती, शिलाली, कृशाश्व, धूर्तिल, शाण्डिल्य, स्वाति, नारद, पुष्कर आदि शास्त्रकारों का नामोल्लेख किया है। इनके अतिरिक्त अभिनवभारती (भरतनाट्यशास्त्र की टीका) में सदाशिव, पद्म और कोहल का उल्लेख आता है। धनिक के दशरूपक में द्रुहिण और व्यास के नाम मिलते हैं और शारदातनयकृत भावप्रकार में आंजनेय का निर्देश हुआ है। ये सारे नाम पुराणों, सूत्रग्रंथों और वैदिक संहिताओं में यत्र तत्र मिलते हैं।
___ भरत के नाट्यशास्त्र में संगीत, नृत्य, शिल्प, छन्दःशास्त्र, विविध भाषा प्रयोग, रंगभूमि की रचना, नट, श्रोतागण, इत्यादि नाट्यकलाविषयक विविध विषयों का विवेचन हुआ है। मातृगुप्त, भट्टनायक, शंकुक (9 वीं शती) और अभिनवगुप्त (ई. 10 वीं शती) इन विद्वानों ने नाट्यशास्त्र पर टीकाएं लिखी हैं। अग्निपुराण (अ. 337-341) में नाट्यविषयक जो भी जानकारी दी गई है, उसका आधार भरतनाट्यशास्त्र ही माना जाता है।
नाट्य की कथारूप उपपत्ति भरतमुनि ने नाट्य के उदगम की उपपत्ति कथारूप में बताई है। तदनुसार त्रेतायुग में कामक्रोधादि विकारों से त्रस्त इन्द्रादि देवता ब्रह्माजी के पास जाकर स्त्री-शूद्रादि अज्ञ लोगों का मनोरंजन करने वाले दृश्य और श्राव्य क्रीडासाधन की याचना करने लगे। ब्रह्माजी ने उनकी बात मानकर, चतुवर्ग और इतिहास से सम्मिलित "पंचम वेद" अर्थात् नाट्यवेद निर्माण किया है।
"जग्राह पाठ्यमृग्वेदात् सामभ्यो गीतमेव च। यजुर्वेदादभिनयान् रसानाथवर्णादपि ।।" इस वचन के अनुसार, ऋग्वेद से पाठ्य, सामवेद से गीत, यजुर्वेद से नृत्यादि अभिनय और अथर्ववेद से रस लेकर ब्रह्माजी ने उन देवताओं की अपेक्षा पूरी की। ब्रह्मा के आदेश से विश्वकर्मा ने रंगशाला बनाई। अपने सौ पुत्रों की सहायता से, शिवजी से ताण्डव, पार्वती से लास्य और विष्णु भगवान् से नाट्यवृत्तियाँ प्राप्त कर, इन्द्रध्वज महोत्सव के अवसर पर, भरतमुनि ने प्रथम नाट्यप्रयोग किया जिसमें देवताओं की विजय और असुरों की पराजय दिखाई गई थी। अपने नाट्यशास्त्र के प्रथम अध्याय में नाट्यप्रयोग की यह अद्भूत उपपत्ति भरत मुनि ने दी है। इसी अध्याय में नाट्य की व्याख्या बताई है।
___ "योऽयं स्वभावो लोकस्य सुखदुःखसमन्वितः। सोऽङ्गाद्यभिनयोपेतः नाट्यमित्यभिधीयते ।। (नाट्यशास्त्र 1-119)
अर्थात् इस संसार में व्यक्त हुआ, मानवों का सुखदुःखात्मक स्वभाव, जब अंगादि अभिनयों द्वारा प्रदर्शित होता है, तब उसे नाट्य कहते हैं।
पाश्चात्य विचार पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय नाटक की उत्पत्ति के विषय में विविध प्रकार की उपपत्तियाँ देने का प्रयास किया है। श्री वेबर और विंडिश का मत है कि भारत में नाटकों का प्रादुर्भाव यूनानी नाटक से हुआ है। भारत में रहे हुए यूनानी शासकों ने अपनी राजसभाओं में यूनानी नाटकों का अभिनय कराया होगा। उनके प्रभाव से भारतीय साहित्यिकों ने संस्कृत भाषा में नाटक रचना की होगी। ई. पू. प्रथम शताब्दी में यूनानी शासक भारतीय जीवन में सम्मिलित होने लगे थे। बादशाह सिकन्दर नाटकों में विशेष रुचि रखता था। उसके विजित देशों में सर्वत्र यूनानी नाटकों का अभिनय हुआ होगा। उस प्राचीन काल में उज्जयिनी और अलेक्जेंड्रिया में व्यापार होता था। संस्कृत नाटक में "यवनिका" (या जवनिका) शब्द का प्रयोग मिलता है। यह शब्द यूनानी प्रभाव का द्योतक है, क्यों कि यह यवन (अर्थात यूनानी) शब्द से व्युत्पन्न हुआ है।
भारतीय और यूनानी नाटक में वस्तुसाम्य पाया जाता है। दोनों में राजा का एक युवती से प्रेम, उसमें अनेक विघ्न और अंत में सुखदायक मिलन, अभिज्ञान, प्रयोग, डाकुओं द्वारा नायिका का अपहरण, समुद्र में जहाज टूटने से नायिका का विपत्तिग्रस्त होना आदि बातें दोनों देशों के नाटकों में पाई जाती हैं।
214/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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श्री पिशेल ने "सूत्रधार" जैसे शब्दों के आधार पर संस्कृत नाटक की उत्पत्ति का स्रोत, कठपुतली के नाच को माना है।
डॉ. कीथ, मेक्समूलर, हटेंल, ओल्डेनबर्ग जैसे विद्वान, ऋग्वेद के संवाद सूक्तों में संस्कृत नाटकों का मूल देखते हैं। उनके मतानुसार इन संवादात्मक सूक्तों की संख्या अनिश्चित होते हुए भी पर्याप्त है। याज्ञिक परंपरा में इन संवादों का कोई उपयोग ज्ञात नहीं है। ओल्डेनबर्ग का मत है कि इन सूक्तों के मंत्र किन्हीं गद्यमय आख्यानों के अंग है, जिनमें उत्कट भावों को पद्यों में ग्रथित किया गया था। इस मत का प्रतिपादन करने के लिए ऐतरेय ब्राह्मण के शुनःशेप आख्यान और शतपथ ब्राह्मण के पुरुरवा-ऊर्वशी आख्यान के उदाहरण दिये जाते हैं। प्रो. कीथ और हिलेब्रांड जैसे विद्वानों ने संस्कृत नाटक की उत्पत्ति की कल्पना वैदिक यज्ञों की कुछ विधियों में मानी है। इसके उदाहरण में, सोमयाग में सोमक्रय और महाव्रत में श्वेतवर्ण वैश्य और कृष्ण वर्ण शूद्र का झगड़ा (जिसमें वैश्य विजयी होकर श्वेतवर्ण गोल चर्मखंड को प्राप्त करता है) निर्दिष्ट किया जाता है।
पातंजल महाभाष्य में उल्लिखित कंसवध और बलिबन्ध को धार्मिक नाटक मानकर डा. कीथ संस्कृत नाटकों की उत्पत्ति और विकास, धार्मिक कृत्यों और भावनाओं में निहित मानते हैं। उनके विचार में कंसवध में, वनस्पतियों की श्रीवृद्धि की कामना के निमित्त क्रियाकलापों का ही परिष्कृत रूपकात्मक वर्णन है।
नाटकों में विदूषक की सत्ता भी, नाटकों की धार्मिक क्रियाओं से उत्पत्ति की द्योतक मानी गई है। “विदूषक' पद का अर्थ है दूषण, गालियाँ देनेवाला व्यक्ति। संस्कृत नाटकों में, विदूषक का रानी की दासियों से कई बार गरमागरम उत्तर प्रत्युत्तर होता है जिसमें उसे मार भी खानी पड़ती है। इस घटना का मूल डा. कीथ, महाव्रत के ब्राह्मण-गणिका संवाद तथा सोमयाग के सोमक्रय में पीटे जानेवाले शूद्र से जोड़ते हैं। विदूषक ब्राह्मण होता है, अतः उसका मूल महाव्रत के ब्राह्मण-गणिका संवाद के गालीप्रदान में हो सकता है।
नाटक के प्रारंभ में, इन्द्रध्वज का नमस्कार प्रमुख कृत्य है। भरतनाट्यशास्त्र में उल्लखित, मृत्युलोक में प्रदर्शित सर्वप्रथम नाटक का प्रयोग भी "इन्द्रध्वजमह" (मह = उत्सव) के अवसर पर किया गया था। इन्द्रध्वजप्रणाम का यह प्रमुख कृत्य भी नाटक की धार्मिक उत्पत्ति का एक प्रबल प्रमाण माना जाता है। पं. हरप्रसाद शास्त्री, नाटक की उत्पत्ति इन्द्रध्वज प्रमाणाम की विधि में ही मानते हैं।
कृष्णजन्माष्टमी के अवसर पर, कृष्ण के जन्म और कंस के वध का अभिनय कृष्ण की रासलीला और कृष्ण यात्राएं, भारतीय नाटक पर कृष्णोपासना का प्रभाव सूचित करती हैं। नाटकों में शौरसेनी गद्य की प्रधानता भी श्रीकृष्ण की लीलाभूमि (शूरसेन प्रदेश) का प्रभाव सूचित करती है। श्री. बेलवलकर जैसे कुछ विद्वान् नाटक का उद्गम वैदिक कर्मकाण्ड के साथ किये जाने वाले विनोदों में मानते है।
प्रो. हिलेबांड और कोनो का मत है कि नाटक की उत्पत्ति धार्मिक क्रियाकलापों से मानना अयोग्य है। इन को नाटक के विकास में सहायक माना जा सकता है। नाटक का मूल लौकिक ही है। लोगों में अनुकरण की प्रवृत्ति स्वाभाविक होती है। उस अनुकरण की कला में निपुण कुशीलव, सूत, भंड जैसे कलाकारों ने रामायण, महाभारत आदि वीरकाव्यों की सहायता से नाटकों का विकास किया है। ये अनुकरण कुशल लोग गाने, बजाने, नाचने में तथा इन्द्रजाल, मूक अभिनय और तत्सदृश कलाओं में भी निपुण थे। प्रो. ल्यूडर्स के विचार में संस्कृत नाटक के विकास में "छाया नाटक" एक महत्त्वपूर्ण तत्त्व रहा है। महाभाष्य में वर्णित "शोभनिक" (अथवा शोभिक) मूक अभिनेताओं या छायामूर्तियों की चेष्टाओं के व्याख्याता थे। प्रो. ल्यूडर्स यह भी जानते हैं कि वीरकाव्यों की कथाओं को छायाचित्रों द्वारा हृदयंगम कराया जाता था। प्राचीन नटों की कला से मिलकर छायाचित्रों का प्रदर्शन नाटक के रूप में परिणत हो गया।
प्रो. लेवी का विचार है कि भारतीय नाटक पहले प्राकृत भाषा में अस्तित्व में आए। संस्कृत चिरकाल तक धार्मिक भाषा मानी जाती रही। उसका साहित्य में प्रयोग बहुत बाद में हुआ। तब ही नाटकों में क्रमशः संस्कृत का प्रयोग आरंभ हुआ। उनके विचार में नाटकों में प्राकृत भाषाप्रयोग का यथार्थता से कोई संबंध नहीं क्यों कि भारतीयों में यथार्थकता के सृजन की प्रवृत्ति का अभाव रहा है। अपने इस मत की पुष्टि में उन्होंने नाट्यशास्त्र के कुछ पारिभाषिक शब्दों को उद्धृत किया है, जिनका रुप विचित्र सा है और जिनमें मूर्धन्य वर्गों की बहुलता, उनके प्राकृत मूल को सूचित करती है।
पाश्चात्य विद्वानों ने इस प्रकार, संस्कृत नाट्य के उदगम तथा विकास के विषय में जो विविध उपपत्तियाँ स्थापित करने का प्रयास किया है, प्रायः सभी के युक्तिवादों एवं प्रमाणों का खंडन हो चुका है। तथापि इस विषय में हुई बहुमुखी चर्चा निश्चित ही महत्त्वपूर्ण है।
2 नाट्यशास्त्रीय प्रमुख ग्रंथ पाणिनि की अष्टाध्यायी में उल्लिखित नटसूत्र अभी तक प्राप्त नहीं हुए। अतः भरत का “नाट्यशास्त्र" नामक आकर ग्रंथ ही इस विषय का आद्य और सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना गया है। 36 अध्यायों के इस ग्रंथ का स्वरूप एक सांस्कृतिक ज्ञानकोश
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 215
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के समान है। अतः इसमें तत्कालीन नाट्यकला एवं संगीत आदि आनुषंगिक कला विषयक भरपूर जानकारी प्राप्त होती है। विषयों की विविधता के कारण प. बलदेव उपाध्याय, डा. गो. के. भट जैसे विद्वान नाट्यशास्त्र को एककर्तृक नहीं मानते। भरत मुनि ने दी हुई नाट्यमंडप अथवा प्रेक्षागृह विषयक जानकारी, उस प्राचीन काल की शिल्पकला की परिचायक है। पाश्चात्य विद्वानों के मतानुसार नाट्यगृहों की कल्पना भारतीयों ने ग्रीक सभ्यता से ली होगी, क्यों कि प्राचीन भारत में नाट्यप्रयोग प्रायः राजसभा में अथवा मंदिरों में होते थे। भरत नाट्यशास्त्र में उपलब्ध नाट्यगृह विषयक विवेचन से पाश्चात्य विद्वानों के मत का अनायास ही खंडन होता है।
नाट्यशास्त्र में विकृष्ट (लंब चतुष्कोणी) चतुरस्र (चतुष्कोणी) और त्र्यस्त्र (त्रिकोणी ) नाट्यगृह का वर्णन दिया है। इनके भी प्रत्येकशः जेष्ठ, मध्यम और कनिष्ठ प्रकार बताए हैं। नाट्यगृह के चार स्तंभों को ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य, शूद्र संज्ञाएं थीं। प्रेक्षागृह में रंगपीठ, रंगशीर्ष और मत्तवारणी नामक विभाग कलाकारों के उपयोग के लिए रखे जाते थे पर्दा रहता था। रंगभूमि पर दो पर्दे लगा कर, उनसे तीन विभाग करने की प्रथा थी। संगीत चूडामणि, मानसार इत्यादि ग्रंथों में भी नाट्यगृहों का वर्णन मिलता है परंतु उनका प्रमाण नाट्यशास्त्र के प्रमाण से भिन्न था।
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दशरूपक : भरत नाट्यशास्त्र के बाद लिखे हुए नाट्यविषयक ग्रंथों में दशरूपक एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। रूपक अर्थात् दृश्यकाव्य को ही प्रतिपाद्य विषय मानकर, भरतकृत नाट्यशास्त्र के आधारपर इस ग्रंथ की रचना विष्णुपुत्र धनंजय ने की है। धनंजय, मालव देश के परमारवंशीय राजा मुंज के समकालीन (ई. 10 वीं शती) थे। दशरूपक पर विष्णुपुत्र धनिक ने "अवलोक" नामक टीका लिखी है। अर्थात् धनंजय और धनिक सहोदर थे।
प्रतापरुद्वीय : दशरूपक के आधार पर विद्यानाथ ने प्रतापरुद्रीय अथवा प्रतापरुद्रयशोभूषण नामक ग्रंथ लिखा है। इस संपूर्ण ग्रंथ का विषय है साहित्यशास्त्र, परंतु उसके पांचवे भाग में, ग्रंथकार ने एक पंचांकी नाटक उदाहरण के लिए प्रस्तुत किया है, जिसमें अपने आश्रयदाता, वरंगळ के काकतीय वंश के राजा प्रतापरुद्र (ई. 13-14 वी शती) की भूरि भूरि प्रशंसा की है। साहित्यदर्पण: मम्मटाचार्य के काव्यप्रकाश के समान कविराज विश्वनाथ का यह ग्रंथ साहित्यशास्त्र के विविध अंगोपांगों का विवेचन करता है। परंतु काव्यप्रकाश के समान इसमें नाट्य विषयक चर्चा की उपेक्षा नहीं हुई हैं। साहित्यदर्पण के तीसरे और छठें परिच्छेद में, नाट्यशास्त्र की सोदाहरण चर्चा विश्वनाथ ने की है। यह सारा प्रतिपादन, नाट्यशास्त्र और मुख्यतः दशरूपक पर आधारित है। विश्वनाथ के पितामह का नाम था नारायण और पिता चंद्रशेखर “सांधिविग्रहिक महापात्र', उपाधि से विभूषित थे जगन्मोहन शर्मा के मतानुसार विश्वनाथ ने पूर्व बंगाल में (आधुनिक बांगला देश में) सन् 1500 में ब्रह्मपुत्रा के किनारे रहते हुए साहित्यदर्पण की रचना की। बरो नामक पाश्चात्य विद्वान ने विश्वनाथ का समय 12 वीं शती माना है। म.म. भारतरत्न पांडुरंग वामन काणे ने विश्वनाथ का आविर्भाव काल 14 वीं शती सिद्ध किया है। काव्यप्रकाशदर्पण नामक काव्यप्रकाश की टीका, विश्वनाथ ने लिखी है, जिसमें अनेक संस्कृत शब्दों के अर्थ उडिया भाषा में बताये गए हैं। विश्वनाथ के उत्कलदेशी होने का यह प्रबल प्रमाण हो सकता है।
1
इनके अतिरिक्त सागरनंदी (11 वीं शती) कृत नाटकलक्षण - रत्नकोश, हेमचंद्र का काव्यानुशासन, रामचंद्र गुणचंद्र ( हेमचंद्र के शिष्य) का नादर्पण (जिस में धनंजय के मतों का खंडन किया है।) रुय्यक (रुचक) कृत नाटकमीमांसा, भोजकृत सरस्वतीकण्ठाभरण तथा शृंगारप्रकाश और शारदातनयकृत भावप्रकाश ग्रंथ नाट्यशास्त्रीय वाङ्मय में उल्लेखनीय हैं। श्री रूपगोस्वामी (16 वीं शती), कामराज दीक्षित (17 वीं शती) नरसिंह सूरि (18 वीं शती) और कुरविराम ने भी नाट्यविषयक चर्चा अपने अपने ग्रंथों में की है।
नाट्य शास्त्र विषयक विविध ग्रंथों में 1 ) प्रतिपाद्य विषय एक ही होने के कारण और 2) उनका मूलस्रोत प्रायः एक ही होने के कारण, विषय के विवेचन में समानता है। कहीं कहीं किंचित् मतभेद मिलता है। जैसे रूपक के दस प्रकार भरत, धनंजय, विद्यानाथ, विश्वनाथ शिंगभूपाल और शारदातनय मानते हैं परंतु नाटिका और सड़क को मिला कर भोज और हेमचंद्र बारह प्रकार मानते हैं । किन्तु नाटिका और त्रोटक के सहित सागरनंदी बारह भेद मानते हैं तो नाटिका और प्रकरणिका के साथ बारह प्रकार, रामचंद्र - गुणचंद्र ने माने हैं। इस प्रकार के नाममात्र मतभेद के अतिरिक्त संस्कृत नाट्यशास्त्र में सर्वत्र समानता ही मिलती है।
216 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
अंतरंग
3 नाट्यशास्त्र का नाट्य के अर्थ में "रूपक" शब्द का प्रयोग प्राचीन काल से होता आया है। संस्कृत नाट्यवाङ्मय में रूपक और उपरूपक नामक दो प्रमुख भेद मिलते हैं। रूपक नाट्यात्मक और उपरूपक नृत्यात्मक होते हैं। रूपक रसप्रधान, चतुर्विध अभिनयात्मक और वाक्यार्थाभिनयनिष्ठ होता है, तो उसके विपरीत नृत्य, भावाश्रय और पदार्थभिनयात्मक होता है। जो ताललयाश्रय तथा अभिनयशून्य अंगविक्षेपात्मक होता है, उसे "नृत" कहा गया है।
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रूपक के दस प्रकार : नाटक, प्रकरण, भाण, व्यायोग, समवकार, डिम, ईहामृग उत्सृष्टिकांक, वीथी और प्रहसन इन दस रूपकों में सर्वांगपरिपूर्णता के कारण "नाटक" नामक रूपकप्रकार प्रमुख माना गया है। शास्त्रकारों ने परमानंदरूप रसास्वाद, दशविध रूपकों का प्रयोजन या फल माना है। वस्तु (कथा), नायक और रस इन तीन कारणों से रूपक में दस भेद निर्माण होते हैं, तदनुसार दसों रूपकों का स्वरूपभेद संक्षेपतः बताया जा सकता है जैसे :
1) नाटक : कथा, प्रख्यात । नायक : दिव्य, अदिव्य, दिव्यादिव्य एवं। धीरोदात्त गुणसंपन्न । नायिका : नायक के अनुरूप दिव्य अथवा अदिव्य। प्रधान रस : शृंगार अथवा वीर। अंकसंख्या : 5 से 10 तक। दस से अधिक अंक वाले नाटक को विश्वनाथ ने “महानाटक" संज्ञा दी है।
2) प्रकरण : कथा : कल्पित। नायक : अमात्य, ब्राह्मण, अथवा वणिक् (व्यापारी) धीरप्रशान्त गुणयुक्त। (रामचंद्र-गुणचंद्र के मतानुसार धीरोदत्त) "नायिका : कुलस्त्री अथवा वेश्या। विदूषक और विट आवश्यक। अंकसंख्या : 101
3) भाण : एक धूर्त पात्र चाहिए। उक्तिप्रयुक्ति । भारती वृत्ति । अंक : 1 । प्रधानरस : वीर, शृंगार, हास्य । वृत्ति : कैशिकी। 4) प्रहसन : 1) शुद्ध, उत्तम पात्रयुक्त। 2) संकीर्ण : अधम पात्रयुक्त 3) विकृत : अंकसंख्या : 2। 5) डिम : प्रख्यात वस्तु । शृंगार और हास्य रस वर्ण्य । नायक संख्या 16 1 अंक संस्या 4 । वृत्ति सात्वती और आरभटी । अंगीरस : रौद्र
6) व्यायोग : नायक : दिव्य प्रख्यात राजर्षि । अंक : 1। युद्धदर्शन। रस : रौद्र और वीर। नायक संख्या : शारदातनय के मतानुसार 3 से 10 तक।
7) समवकार : देवदैत्य कथा। अंक 3। प्रत्येक अंक में 4 नायक। कुल-नायकसंख्या : 12। प्रतिनायक : असुर । भरत के मतानुसार समवकार में त्रि-विद्रव, त्रि-कष्ट और त्रि-शृंगार चाहिए।
8) उत्सृष्टिकांक : वस्तु प्रख्यात । अप्रख्यात दिव्य पुरुषों का अभाव। युद्ध का अभाव। वृत्ति भारती अंक 1। १) वीथी: अंक 1। पात्र : एक या दो। प्रधानरस : शृंगार। अन्य सभी रस चाहिए। 10ईहामृग : वस्तु प्रख्यात । पात्र : दिव्य उद्धत। स्त्रीनिमित्तक युद्ध । अंक 4। रस : शृंगार ।
अंकों की संख्या के अनुसार दस रूपकों के छः भेद होते हैं जैसे :एक अंक = भाण, व्यायोग, वीथी और उत्सृष्टिकांक।
चार अंक = डिम, ईहामृग। दो अंक = प्रहसन।
पाँच से सात अंक = नाटक । तीन अंक = समवकार।
आठ से दस अंक = प्रकरण । नायक संख्या की दृष्टि से अनेक नायक वाले रूपक तीन होते हैं। डिम : 16 नायक। समवकार : 4 नायक। व्यायोग : 3 से 10 तक।
उपरूपक उपरूपक के 14 प्रकार धनंजय मानते हैं तो विश्वनाथ के अनुसार उसके 18 प्रकार होते हैं। 1) नाटिका : यह नाटक का उपरूपक माना जाता है। अंक 4। रस : शृंगार। नायक : धीरललित। नायिका : दो होती हैं। 1) ज्येष्ठा और 2) कनिष्ठा। नायक : प्रख्यात राजा। वृत्ति : कैशिकी। इसमें नृत्यगीत की आवश्यकता होती है।
2) त्रोटक : विश्वनाथ के मतानुसार इसमें 5, 7 या १ अंक होते हैं। प्रत्येक अंक में विदूषक का प्रवेश आवश्यक है। देवता और मानवों की मिश्रकथा होती है। कालिदास का विक्रमोर्वशीय त्रोटक का उदाहरण है।। 3) गोष्ठी : इसमें पुरुष पात्र 10 और स्त्री पात्र 6 होते हैं। वृत्ति : कैशिकी। 4) सट्टक : नाटिका के समान। वृत्ति : कौशिकी एवं भारती। प्राकृतभाषाप्रधान : इसमें सात्त्विक रस का महत्त्व होता है। 5) नाट्यरासक : नायक : उदात्त । नायिका : वासकसजा। अंक 1। रस : हास्य, शृंगार। संगीतप्रचुर। 10 प्रकार के लास्यांग प्रयुक्त होते हैं।। 6) प्रस्थानक : इसमें नायक - नायिका दास-दासी होते हैं। वृत्ति : कैशिकी। संगीतप्रचुर। 7) उल्लाध : शारदातनय के मतानुसार इसमें 4 नायिका और नायक होते हैं। अंक : 1। कैशिकी, सात्वती, आरभटी और भारती ये चारों वृत्तियाँ आवश्यक। रस : शृंगार, हास। संगीतप्रचुर ।
8) प्रेक्षणक : विश्वनाथ के मतानुसार इसमें नायक नहीं होता। सागरनंदी के मतानुसार विविध भाषाएं होती हैं। उन में शौरसेनी प्रमुख। अंक 1, चारों वृत्तियाँ आवश्यक। १) रासक : प्रख्यात नायक और नायिका । पात्रसंख्या- पांच । नायक मूढ होता है। अंक 1 । वृत्तियाँ कैशिकी और भारती।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 217
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10) संलापक : नायक पाखंडी। संग्राम छल, भ्रम के दृश्य आवश्यक। अंक 3 या 4। रस-शृंगार और करुण। वृत्तियां कैशिकी और भारती। 11) श्रीगदित : कथावस्तु और नायक प्रख्यात चाहिए। भाषा संस्कृत। अर्थात् भारती वृत्ति। अंक 1। 12) शिल्पक : नायक ब्राह्मण । उपनायक हीन । अंक ४ । वृत्तियाँ 41 आठो रसों का उद्रेक । श्मशानादि के वर्णन आवश्यक। 13) विलासिका : नायक अधम प्रकृति। अंक 1। शृंगारप्रचुर। दस लास्यांग आवश्यक। 14) दुर्मल्लिका : इसमें 4 अंकों में क्रमशः विट, विदूषक, पीठमर्द और अंत में नायक इस प्रकार क्रीडा दिखाई जाती है। कथावस्तु उत्पाद्य (अर्थात् काल्पनिक) जिसमें नायक नीच प्रकृति का होता है। वृत्ति कैशिकी। 15) प्रकरणिका : यह प्रकरण नामक प्रमुख रूपक का उपरूपक माना जाता है। कथावस्तु उत्पाद्य। नायक नायिका - वणिक् वर्ग के होते हैं। अन्य स्वरूप नाटिका से समान होते हैं। 16) हल्लीश : अंक 1 (शारदातनय के मतानुसार अंकसंख्या 2) धीर ललित अवस्था वाले पाँच छः दक्षिण पुरुष और स्त्रीपात्र आठ चाहिए। नायक उदात्त प्रकृति वाला। 17) भाणिका : यह भाण का उपरूपक माना गया है। अंक 1 । नायिका उदात्त, नायक नीच प्रकृति । वृत्तियाँ भारती और कैशिकी।
__ भरत ने इन दस रूपकों एवं सत्रह उपरूपकों का प्रयोजन, हितोपदेश और क्रीडा-सुख कहा है। (हितोपदेशजननं वृतिक्रीडासुखादिकृत्) नाट्यशास्त्र 1-193) अभिनवगुप्त के मतानुसार इस रूपक वाङ्मय का कार्य गुडमिश्रित कटु औषधि के समान होता है, जिससे श्रान्त लोगों का चित्तविक्षेप या मनोरंजन होता है। (गुडच्छन्न-कटुकोषधकल्पं चित्तविक्षेपमात्रफलम्।)
रसों के अनुसार रूपकों का वर्गीकरण (1) शृंगार प्रधान - नाटक, प्रकरण, (वीररस गौण) वीथी और ईहामृग। वीररसप्रधान-समवकार, व्यायोग और डिम (रौद्रसहित)। हास्यरसप्रधान - प्रहसन। करुणप्रधान- उत्सृष्टिकांक।
नाटक में जब शृंगाररस प्रधान होता है, तब वीर गौण, और जब वीररस प्रधान होता है, तब शृंगार गौण होता है।
ईसा पूर्व काल में प्राचीन भारत में छायानाटक नामक नाट्यप्रकार प्रचलित था। महाभारत और थेरीगाथा में छायानाटक के उल्लेख मिलते हैं। महाभारत में रूपोपजीवनम् शब्द आता है, जिसके स्पष्टीकरण में टीकाकार नीलकण्ठ ने "छायानाटक" का वर्णन दिया है। तदनुसार दीपक और पदों के बीच में स्थापित काष्ठ-मूर्तियों के अवयवों को सूत्र से चलित कर पर्दे पर छाया के रूप में पौराणिक घटनाओं के दृश्य दिखाए जाते थे। एक मत ऐसा है कि, भारत से ही यह नाट्य कला जावा, बाली, सुमात्रा, आदि पूर्व एशिया के प्रदेशों में प्रसृत हुई। यह कला आज भी उन देशों में जीवित है, जब कि भारत में उसका लोप हो चुका है। सुभट कवि कृत दूतांगद नामक छायानाटक का प्रयोग सन् 1243 में चालुक्य राजा त्रिभुवनपाल के निमंत्रणानुसार, कुमारपालदेव के सम्मानार्थ अनहिलवाड पट्टण (गुजरात) में हुआ था ऐसा उल्लेख मिलता है।
4 वस्तुशोधन बहुसंख्य संस्कृत रूपकों की वस्तु या कथा प्रायः रामायण महाभारत और गुणाढ्य की बृहत्कथा से ली गई है। दशरूपककार ने मूल कथा को रूपकोचित करने के लिए "वस्तुशोधन" के कुछ नियम बताए हैं। तदनुसार मूल कथा में नायक का व्यक्तित्व और रसयोजना इनकी और ध्यान देते हुए, मूल कथा में जो अनुचित या रस के विरुद्ध भाग होगा, उसका त्याग करना चाहिये, अथवा किसी अन्य रीति से उसकी योजना करनी चाहिए। जो मूल कथांश नीरस और अनुचित होगा उसे अर्थोपक्षेपकों के द्वारा सूचित करना चाहिये। परंतु जो कथांश मधुर, उदात्त और रसभावयुक्त हो, उसे रंगमंच पर अवश्य दिखाया जाना चाहिये।
यत् तत्रानुचितं किंचिद् नायकस्य रसस्य वा। विरुद्धं तत् परित्याज्यम् अन्यथा वा प्रकल्पयेत्।। (द.रू. 3-24) नीरसोऽनुचितस्तत्र संसूच्यो वस्तुविस्तरः । दृश्यस्तु मधुरोदात्त-रसभाव-निरंतरः ।। (द.रू. 1-57)
अर्थोपक्षेपक नीरस और नाट्यप्रयोग की दृष्टि से अनुचित कथाभाग को जिन पांच प्रकारों से सूचित किया जाता है, उन्हें "अर्थोपक्षेपक" कहते हैं। उसके पांच प्रकारों के नाम हैं - (1) विष्कम्भ (या विष्कम्भक), (2) चूलिका, (3) अंकास्य (या अंकमुख) (4) अंकावतार और (5) प्रवेशक। प्रायः सभी नाटकों में इन में से कुछ प्रकार दिखाई देते हैं।
___ अनौचित्य टालने की दृष्टि से एक महत्त्वपूर्ण सूचना दी गई है कि नायक अगर दिव्य प्रकृति राजा हो तो उसका प्रेम-प्रसंग साधारण स्त्री (अर्थात् गणिका) के साथ चित्रित नहीं करना चाहिये। उसी प्रकार शंगार रस के वर्णन में नायिका "अन्योढा" (याने दूसरे से विवाहित स्त्री) नहीं होनी चाहिये। सभी रूपकों की (विशेषतः नाटक और प्रकरण की) कथा के दो विभाग करने चाहिये जिस में नीरस अंश सूच्य होगा और बाकी सरस अंश दृश्य पंचसंधियों में विभाजित होना चाहिए।
218 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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नाट्यशास्त्र के अनुसार रूपक की कथावस्तु का विभाजन पांच संधियों में करना इष्ट माना है। इन पांच संधियों के क्रमशः नाम हैं:- (1) मुख (2) प्रतिमुख (3) गर्भ (4) अवमर्श और (5) निर्वहण ! इन पांच सन्धियों की निर्मिति, पाच अथप्रकृतियों और पांच कार्यावस्थाओं के यथाक्रम समन्वय से होती है।
पांच अर्थप्रकृतियां :- (1) बीज (2) बिन्दु (3) पताका, (4) प्रकरी और (5) कार्य पांच कार्यावस्थाएं :- (1) आरंभ (2) यत्न (3) प्रप्त्याशा (4) नियताप्ति और (5) फलागम । पांच सन्धियों के कुल मिलाकर 64 अंग होते हैं जिनका नाटक रचना में छ: प्रकारों से प्रयोजन होता है।
इष्टस्यार्थस्य रचना, गौप्यगुप्तिः प्रकाशनम्। रागः प्रयोगस्याश्चर्य वृत्तान्तस्यानुपक्षयः।। (द.रु. 1-55)। इस कारिका में वे छः प्रयोजन बताये गये हैं। शाकुन्तल, उत्तररामचरित, वेणीसंहार इत्यादि श्रेष्ठ नाटकों को टीकाकारों ने, उन नाटकों के कथाविकास की चर्चा में इन सन्धियों के 64 अंगों का यथास्थान निर्देश किया है। नाटक, प्रकरण के अतिरिक्त गौण रूपकप्रकारों में पांचों सन्धिस्थान नहीं होते।
अंक रूपकों का सर्वश्रेष्ठ घटकावयव होता है अंक। इसमें नायक का चरित्र प्रत्यक्ष रूप से दिखाया जाता है और बिन्दु नामक अर्थप्रकृति व्यापक स्वरूप में पायी जाती है। वह नाना प्रकार के नाटकीय प्रयोजन के संपादन का तथा रस का आश्रय होता है।
(प्रत्यक्षनेतृचरितो बिन्दुव्याप्तिपुरस्कृतः । अंको नानाप्रकारार्थ-संविधानरसाश्रयः ।। (द.रू. 3-30) अंक का मुख्य उद्देश्य होता है दृश्य वस्तु का चित्रण। अंक में वस्तु की योजना ऐसी हो कि जिसमें, केवल एक दिन की ही घटना हो और वह भी “एकार्थ" याने एक ही प्रयोजन से संबद्ध हो। उसमें नायक तीन या चार पात्रों के साथ रहे और नायक सहित सारे पात्रों के निर्गमन के साथ अंक की समाप्ति हो।
एकाहचरितैकार्थम् इत्थमासन्ननायकम्। पात्रैस्त्रिचतुरैः कुर्यात् तेषामन्तेऽस्य निर्गमः ।। (द.रू. 3-36) वस्तुशोधन की दृष्टि से किसी भी अंक में दीर्घ प्रवास, वध, युद्ध, राज्यक्रान्ति, नगरी को घेरा डालना, भोजन, स्नान, संभोग, उबटन लगाना, वस्त्रधारण करना इत्यादि प्रकार के दृश्य किसी भी अंक में मंच पर नहीं बताना चाहिये। विष्कम्भक, चूलिका इत्यादि अर्थोपक्षेपकों में उनकी सूचना की जा सकती है। रूपक के विविध प्रकारों में, अंकों की संख्या शास्त्रकारों ने निर्धारित की है, जिसका निर्देश प्रस्तुत अध्याय में रूपक प्रकारों के विभाजन के समय प्रारंभ में किया गया है।
पूर्वरंग नाटक का प्रारंभ "पूर्वरंग" के विधान से होता है। पूर्वरंग का अर्थ है नाट्यशाला में प्रयोग के प्रारंभ में करने योग्य मंगलाचरण, देवतास्तवन आदि धार्मिक विधि। इस पूर्वरंग का विधान सूत्रधार द्वारा किया जाता है। रंगदेवता की पूजा करनेवाले को ही सूत्रधार कहते हैं। (रंगदैवत्पूजाकृत सूत्रधार इतीरितः।) सूत्रधार के लौट जाने पर, उसी तरह के वैष्णव वेश में आकर जो दूसरा नट कथावस्तु के काव्यार्थ की स्थापना करता है उसे “स्थापक" (काव्यार्थस्थापनात् स्थापकः) कहते हैं। यह स्थापक, प्रयोग की कथावस्तु के अनुरूप दिव्य, अदिव्य (मर्त्य) अथवा दिव्यादिव्य रूप में मंच पर आकर, काव्यार्थ की स्थापना करते समय, रूपक की कथावस्तु, उसके बीज (अर्थप्रकृति) मुख या प्रमुख पात्र की सूचना देता है। (सूचयेद् वस्तु बीजं वा मुखं पात्रमथापि वा (द.रू. 3-3)। इस प्रकार वस्तुबीजादि की स्थापना और मधुर श्लोकगायन से रंगप्रसादन करना यही स्थापक के प्रवेश का प्रयोजन माना गया है।
नाट्य प्रयोग के प्रारंभ में संभाव्य विनों का परिहार, देवताओं की कृपा का संपादन और काव्यार्थसूचक के निमित्त, आशीर्वचनयुक्त "नान्दी" गाई जाती है। अनेक नाटकों में सूत्रधार ही नान्दीगायन या मंगलाचरण करता है। तो कई नाटकों में नान्दीगायन पर्दे में होने के बाद सूत्रधार प्रवेश करता है।
इस के बाद सामाजिकों का ध्यान, प्रयोग की और आकृष्ट करने के लिए "प्ररोचना" (उन्मुखीकरणं तत्र प्रशंसातः प्ररोचना) अर्थात् नाटक की प्रशंसा, नट द्वारा की जाती है। प्रस्तावना (या जिसे आमुख भी कहते है) के कथोद्घात्, प्रवृत्तक और प्रयोगातिशय नामक तीन अंग होते हैं। सूत्रधार इस प्रस्तावना में नटी, विदूषक या पारिपार्श्वक के साथ वार्तालाप करते हुए विचित्र उक्ति द्वारा प्रस्तुत वस्तु की और संकेत करता है। इस आमुख का स्वरूप, वीथी अथवा प्रहसन नामक रूपक के समान होता है। विधी में एक दो पात्रों द्वारा शृंगारिक भाषण होता है और प्रहसन में एक विट आकाशभाषित द्वारा हास्यरसयुक्त भाषण करता है। इसी कारण प्ररोचना, वीथी, प्रहसन और आमुख ये चार प्रकार के "काव्यार्थसूचक" माने जाते हैं।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 210
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5 नाट्यपात्र
नाट्यशास्त्र में विविध पात्रों के प्रकार तथा उनके गुणावगुण का विवेचन किया गया है। उन में मुख्य पुरुष पात्र को नायक और स्त्री पात्र को नायिका कहते हैं । दशरूपक में नायक की विनम्रता, मधुरता, त्याग, प्रिय भाषण इत्यादि 22 गुणों का उदाहरणों सहित परिचय दिया है। ये सारे गुण इतने स्पृहणीय और प्रशंसनीय हैं कि उन से सम्पन्न पुरुष अथवा स्त्री मानव का आदर्श माने जा सकते है।
कथाचित्रण तथा रसोद्रेक की दृष्टि से नायक के चार प्रकार माने जाते हैं। शास्त्रोक्त सामान्य 22 गुणों के अतिरिक्त, जब नायक सात्त्विक (अर्थात् क्रोध, शोक आदि विकारों से अभिभूत न होने वाला), अत्यंत गंभीर, क्षमाशील, आत्मश्लाघा न करने वाला अचंचल मन वाला, अहंकार व स्वाभिमान को व्यक्त न करनेवाला, और दृढव्रत अर्थात् ध्येयनिष्ठ हो, तब उसे “धीरोदात्त" नायक कहते हैं। श्रीरामचंद्र " धीरोदात्त" नायक के परमश्रेष्ठ आदर्श है। रामायण की कथाओं पर आधारित सभी उत्कृष्ट नाटकों में संस्कृत नाट्यशास्त्र का यह परम आदर्श व्यक्तित्व प्रतिभासंपन्न नाटककारों ने चित्रित किया है।
इसके विपरीत जब नायक दर्प (घमण्ड ) और ईर्ष्या (मत्सर) से भरा हुआ, माया और कपट से युक्त, अहंकारी, चंचल, क्रोधी और आत्मश्लाघी होता है तब उसे " धीरोध्दत" कहते है। रावण धीरोद्धत नायक का उदाहरण है ।
जो सर्वथा निश्चिन्त, गीत-नृत्यादि ललित कलाओं में आसक्त, कोमल स्वभावी और सुखासीन रहता है, उसे "धीरललित' नायक कहते हैं। ऐसे नायक का सारा लौकिक व्यवहार, उसके मन्त्री आदि सहायक करते हैं। वत्सराज उदयन इसका उदाहरण है ।
नायक के सामान्य गुणों से युक्त ब्राह्मण, वैश्य, या मन्त्रिपुत्र को “धीरशान्त" नायक कहा है। मालतीमाधव प्रकरण का माधव और मृच्छकटिक प्रकरण का चारुदत्त धीरशान्त कोटी के नायक हैं।
वीर-शृंगार प्रधान नाटकों में धीरोदात्त; रौद्र-वीर भयानक की प्रधानता में धीरोद्धत; और शृंगार- हास्य की प्रधानता होने पर धीरललित नायक का रूपकों में प्राधान्य होता है। शृंगार प्रधान प्रकरणों में धीरशान्त नायक का महत्त्व होता है ।
मध्यपात्र
रूपकों में भूत और भावी वृत्तान्त का कथन अथवा शेष घटनाओं की सूचना देने के लिए अंकों के अतिरिक्त विष्कम्भक और प्रवेशक अंकों के बीच बीच में प्रयुक्त होते हैं। उन में कथा से संबंधित पात्रों के अतिरिक्त स्त्री-पुरुष पात्र होते हैं, जिन्हें "मध्यपात्र" कहते हैं। विष्कम्भक के मध्यपात्र सामान्य श्रेणी के और प्रवेशक के नीच श्रेणी के होते हैं। नायक के परिच्छद (अर्थात् परिवार) में पीठमर्द (अथवा "पताकानायक") विट, विदूषक और प्रतिनायक रहते हैं प्रतिनायक मुख्य नायक का द्रोह करता है। उसी को खलनायक कहते हैं। यह खलनायक धीरोद्धत, पापी और व्यसनी होता है। इनके अतिरिक्त नायक के राजा होने पर उसके मंत्री, न्यायाधीश, सेनापति, पुरोहित, प्रतिहारी, वैतालिक (स्तुतिपाठक) इत्यादि पुरुष पात्र आवश्यकता के अनुसार रूपकों में रहते हैं। प्रणयप्रधान नाटकों में नायक के "नर्मसचिव" अथवा मित्र का दायित्व विदूषक निभाता है।
" वामनो दन्तुरः कुब्जो द्विजन्मा विकृताननः । खलतिः पिंगलाक्षश्च संविधेयो विदूषकः । (ना.शा. 24-106) विदूषक के समान नायक के प्रियाराधन में सहाय करनेवाला "विट", कर्मकुशल, वादपटु, मधुरभाषी और व्यवस्थित वेशधारी होता है। इनके अतिरिक्त विदूषक के समान विनोदकारी परंतु दुष्ट प्रवृत्ति वाला "शकार" मृच्छकटिक में आता है विद्वानों का अनुमान है कि शकार एक शक जातीय व्यक्ति होता था । श-कारयुक्त भाषा बोलनेवाले शक लोग, अपनी बहनों को राजाओं के अन्तःपुर में प्रविष्ट कर, अधिकारपद प्राप्त करते होंगे। ऐसे लोगों के कारण प्रणयप्रधान प्रकरणों में "शकार” का पात्र आया होगा। राजा के अन्तःपुर में रहने वाले वर्षवर (हिजडा), कंचुकी, वामन (बौना), किरात, कुब्ज इस ढंग के नीच पात्र नाटकों में आवश्यक माने हैं।
नाटकों में वर्णित रामादि पात्र, धीरोदात्त, धीरललित आदि अवस्था के प्रतिपादक होते हैं। कवि अपने पात्रों का वर्णन ठीक उसी तरह नहीं करते जैसा पुराणेतिहास में होता है । कवि तो लौकिक आधार पर ही उनका चित्रण करते हैं। अपनी कल्पना के अनुसार अपने पात्रों में धीरोदात्तादि अवस्थाओं को चित्रित करते हैं। ये पात्र अपनी अभिनयात्मक अवस्थानुकृति द्वारा सामाजिकों में रति, हास, शोक, इत्यादि स्थायी भावों को विभावित करते हैं। याने सामाजिकों के रत्यादि स्थायी भाव की प्रतीति में कारणीभूत होते हैं। इसी लिए रसशास्त्र की परिभाषा में उन्हें "आलंबन विभाव" कहते हैं। पात्रों के कारण विभावित हुए रत्यादि स्थायी भाव ही रसिक सामाजिकों द्वारा आस्वादित होते हैं।
जिस प्रकार मिट्टी से बने हुए हाथी घोडे आदि खिलौनों से खेलते हुए, बच्चे उन्हें सच्चे प्राणी समझ कर उनसे आनंद प्राप्त करते हैं, उसी तरह काव्य के सहृदय श्रोता या नाटक के प्रेक्षकगण भी राम सीता आदि पात्रों में उत्साह, रति आदि भाव देख कर स्वयं उसका अनुभव करते हैं ।
220 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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नायकव्यापार नायकव्यापार का अर्थ है नायक का वह स्वभाव, जो उसे किसी विशेष कार्य में प्रवृत्त करता है। इसे ही शास्त्रीय परिभाषा में कहते हैं “वृत्ति"। ये वृत्तियां, (1) कैशिकी (2) सात्वती, (3) आरभटी और (4) भारती नामक चार प्रकार की होती हैं। नायक जब गीत, नृत्य, विलास आदि शृंगारमय चेष्टाओं में रममाण होता है, तब उसके कोमल व्यापार को कैशिकी वृत्ति कहते हैं। इसका फल है काम पुरुषार्थ। कैशिकी वृत्ति के चार अंग हैं - (1) नर्म (2) नर्मस्फिंज, (3) नर्मस्फोट तथा (4) नर्मगर्भ। इन सभी नर्म प्रकारों में नायक की नायिका के साथ जो शृंगारलीला होती है उनका अन्तर्भाव होता है। इस शृंगारमय व्यापार में हास्य का समावेश रहता है। नाटक में हास्ययुक्त शृंगार रस की अभिव्यक्ति करना यही कैशिकी वृत्ति का प्रयोजन होता है। धीरललित नायक के चरित्रचित्रण में इसी वृत्ति का प्राधान्य रहता है।
जहां नायक का व्यापार, शोकरहित और सत्त्व शौर्य, दया, कोमलता जैसे उदात्त भावों से परिपूर्ण होता है, वहां उसे "सात्वती वृत्ति" कहते हैं। इस गंभीर वृत्ति में (1) संलापक, (2) उत्थापक, (3) सांघात्य और (4) परिवर्तक नामक चार अंग होते हैं। धीरोदात्त प्रकृति के नायक का, प्रतिनायक के साथ जब संघर्ष होता है, तब सात्त्वती वृत्ति के अंगों का प्रयोग नाटक में होता है।
जहां माया (अर्थात् अवास्तव वस्तु को मन्त्रबल से प्रकाशित करना), इन्द्रजाल (वही कार्य तान्त्रिक प्रयोगों से करना) संग्राम, क्रोध, उद्धांत आदि चेष्टाएं पायी जाती हैं, वहां "आरभटी" नामक वृत्ति होती है। इसके भी (1) संक्षिप्तिका (2) संफेट (3) वस्तूत्थापन और (४) अवपात नामक चार अंग माने हैं। धीरोद्धत प्रकृति के नायक के चरित्रचित्रण में आरभटी वृत्ति दिखाई देती है।
इन तीनों वृत्तियों को "अर्थवृत्तियां" माना गया है, क्यों कि इनमें अर्थरूप रस का संनिवेश होता है। चौथी भारती नामक वृत्ति "शब्दवृत्ति" होने के कारण संभाषणात्मक रहती है। इस वृत्ति का नाटक के “पूर्वरंग" में पुरुष पात्रों द्वारा प्रयोग होता है। नाटक के प्रारंभ में प्ररोचना, आमुख, वीथी और प्रहसन ये चार प्रसंग भारती वृत्ति के अंग माने जाते हैं।
वृत्ति का संबंध नायक के रसपरक व्यापार से होता है, अतः शास्त्रकारों ने नियम बताया है कि :
"शृंगारे कैशिकी, वीरे सात्त्वत्यारभटी पुनः। रसे रौद्रे च बीभत्से, वृत्तिः सर्वत्र भारती ।। (द.रू. 2-62)
अर्थात् शृंगारप्रधान रूपक में कैशिकी, वीरप्रधान में सात्वती, रौद्र एवं बीभत्स प्रधान दृश्यों में आरभटी वृत्ति का चित्रण होना चाहिये। भारती, शब्दप्रधान वृत्ति होने के कारण उसका प्रयोग सभी रसों में आवश्यक माना गया है। शृंगार, रौद्र वीर,
और बीभत्स ये चार अनुकार्यगत रस होते हैं। अभिनय कुशल नट अपनी भूमिका से तन्मय होकर उनका आविर्भाव करते हैं, तब सामाजिकों के अंतःकरण में उन प्रधान रसों के "सहकारी" हास्य, करुण, अद्भुत और भयानक इन चार रसों का यथाक्रम उद्रेक होता है। इसी लिए कहा है कि :
शृंगाराद् हि भवेद् हासः, रौद्राच्च करुणो रसः। वीराच्चैवाद्भुतोत्पत्तिः, बीभत्साच्च भयानकः ।
नाट्यप्रवृत्तियां नायक की वृत्तियों के समान नाटकीय पात्रों की "प्रवृत्तिया" होती हैं। ये प्रवृत्तियां दो प्रकार की होती हैं- (1) भाषाप्रवृत्ति और (2) आमन्त्रण प्रवृत्ति । प्रवृत्तियों का सामान्य लक्षण है -
"देश-भाषाक्रियावेशलक्षणा स्युः प्रवृत्तयः। (द.रू. 2-63) अर्थात् देश तथा काल के अनुसार पात्रों की भिन्न भिन्न भाषा, भिन्न भिन्न वेष और भिन्न भिन्न क्रियाओं को "प्रवृत्ति' कहते हैं। इनका ज्ञान नाटककार ने लौकिक जीवन से प्राप्त करना चाहिये और उनका यथोचित उपयोग अपनी नाटकरचना में करना चाहिये।
प्राचीन नाटकों में कुलीन सुसंस्कृत पुरुषों की और तपस्वियों की भाषा संस्कृत ही होती है। स्त्रीपात्रों में महारानी, मंत्रिपुत्री तथा वेश्याओं के भाषणों में भी संस्कृत पाठ्य का उपयोग प्रशस्त माना गया है। स्त्रीपात्रों का पाठ्य, प्रायः शौरसेनी प्राकृत होता था। प्राचीन प्राकृत भाषाओं के 21 प्रकार थे जिनमें महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधी, पैशाची, आवंतिका, प्राच्या, दाक्षिणात्या, बाल्हिका इत्यादि प्रमुख भाषाएं थी। पाली भाषा का उपयोग नाटकों में नहीं किया गया। सभी प्राकृत भाषाओं में महाराष्ट्री प्रमुख मानी गयी है। वररुचि ने अपने प्राकृत प्रकाश में, तथा अन्य भी वैयाकरणों ने, महाराष्ट्री एक प्रधान प्राकृत होने के कारण उसी का व्याकरण लिखा है, और अन्य प्राकृत भाषाओं के कुछ विशेष मात्र बताए हैं। ।
भरत के नाट्यशास्त्र में अन्तःपुर के पात्रों के लिए मागधी; चेट, राजपुत्र और वणिग् जनों के लिए अर्धमागधी; विदूषक के लिए प्राच्या; सैनिक और नागरिक पात्रों के लिए दाक्षिणात्या; शबर, शक आदि पात्रों के लिए वाल्हिका, शकार के लिए
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 221
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शकारी; गोपालों के लिए आभीरी तथा अन्य गौण पात्रों के लिए आवंतिका, पैशाची, शाबरी इत्यादि प्राकृत भाषाओं का विधान किया है। दशरूपक में प्राकृत भाषाओं के संबंध में एक मार्मिक नियम बताया है कि -
__ "यद्देशं नीचपात्रं यत्, तद्देशं तस्य भाषितम्।।" कार्यतश्चोत्तमादीनां कार्यों भाषाव्यतिक्रमः ।।" (द.रू. 2-66) ।।
__ अर्थात् जो पात्र जिस देश का रहनेवाला हो, उसी देष की बोली के अनुसार उसकी पाठ्य भाषा नाटक में योजित की जाय। वैसे कभी उत्तम या नीच पात्रों की भाषा में किसी कारण से अदल बदल भी हो सकना है, याने उत्तम पात्र प्राकृत का और नीच पात्र संस्कृत का यथावसर प्रयोग करें। आमन्त्रणप्रवृत्ति :- आमन्त्रण प्रवृत्ति के नियमानुसार उत्तम पात्रों द्वारा विद्वान, देवर्षि, तथा तपस्वी पात्र, "भगवन्" शब्द से संबोधित किए जाने चाहिये। विप्र, अमात्य, गुरुजनों या बड़े भाई को वे “आर्य" शब्द से संबोधित करें। नटी और सूत्रधार आपस में एक दूसरे को "आर्य" और "आर्ये' इन शब्दों से संबोधित करें। सारथी अपने रथी को आयुष्मान् कहे तथा पूज्य लोग, शिष्य या छोटे भाई आदि को "आयुष्मान्", वत्स, या “तात" कहें। शिष्य, पुत्र छोटे भाई आदि पूज्यों को "तात" या "सुगृहीतनामा" कह सकते हैं। पारिपाश्वर्क सूत्रधार को "भाव" कहे, तथा सूत्रधार पारिपार्श्वक को "मार्ष" अथवा "मारिष" कहे। उत्तम सेवक राजा को देव या स्वामी कहें और अधम भृत्य उसे “भट्टा" (भर्तः) कहे। ज्येष्ठ, मध्यम या अधम पात्र स्त्रियों को ठीक उसी तरह संबोधित करें, जैसे उनके पति को करते हैं सखियां एक दूसरी को "हला" कहें। नोकरानी "हजे" कहे । वेश्या को अज्जुका, कुट्टिनी तथा पूज्य वृद्धा स्त्री को “अम्ब" कहें। विदूषक, रानी व सेविका दोनों को "भवति" शब्द से संबोधित करें।
नाट्यशास्त्रोक्त इन भाषा-प्रवृत्ति और आमन्त्रण-प्रवृत्ति के नियमों का अनुपालन सभी नाटककारों ने निरपवाद किया है। संस्कृत के आधुनिक नाटककार (जिनकी संख्या काफी बड़ी है) प्रायः भाषाप्रवृत्ति के नियमों का पालन नहीं करते। वे केवल संस्कृत भाषा का ही सभी पात्रों के भाषणों में उपयोग करते हैं। वास्तविक वर्तमान संस्कृत नाटकों में वर्तमानकालीन प्राकृत भाषाओं का प्रयोग करना नाट्यशास्त्र की दृष्टि से उचित होगा।
अर्थसहाय नाटक का नायक राजा हो तो उसका सहायक मंत्री अवश्य होना चाहिये। उसके अतिरिक्त ऋत्विज, पुरोहित, तपस्वी, ब्रह्मज्ञानी आदि "धर्मसहायक"; मित्र, राजकुमार, आटविक, सामन्त और सैनिक इत्यादि "दण्डसहायक" होते हैं। नायक की कार्यसिद्धि में सहायक होने वाले, वर्षवर (नपुसंक व्यक्ति), किरात, गूंगे, बौने इत्यादि पात्र अन्तःपुर में होते हैं और म्लेच्छ, आभीर, शकार जैसे पात्र अन्यत्र सहायक होते हैं।
7 नायिका संस्कृत नाटकों में नायक "उत्तम प्रकृति" का ही होता है और तद्नुसार नायिका भी "उत्तम प्रकृति" की ही होना आवश्यक माना गया है। इस नायिका के स्वीया, अन्या और साधारणी (अर्थात गणिका) संज्ञक तीन प्रकार होते हैं।
___ स्वीया नायिका शीलसम्पन्न, लज्जावती, पतिव्रता, अकुटिल और पति के व्यवहारों में सहायता देने में बडी निपुण होती हैं। इन सामान्य गुणों से युक्त स्वीया नायिका के वयोभेद के अनुसार मुग्धा, मध्या तथा प्रगल्भा ये तीन भेद होते है। जिस नाटक में धीरललित नायक प्रमुख होता है, उसमें इन तीन प्रकार की, या प्रगल्ला और मुग्धा इन दो प्रकार की, नायिकाओं के प्रेमसंबंध में शृंगाररस का विकास किया जाता है। उपर्युक्त तीन प्रकार की नायिकाओं में मुग्धा के भेद नहीं होते। परंतु मध्या और प्रगल्भा के ज्येष्ठा तथा कनिष्ठा इस प्रकार दो भेद होते हैं। सब मिला कर प्रायः नायिका के 12 भेद नाट्यशास्त्रकार मानते हैं।
नायिका का दूसरा भेद है "परकीया"। वह कन्यका (अविवाहित) और विवाहित इस तरह दो प्रकार की हो सकती है परंतु शृंगारप्रधान रूपकों में आलंबन विभाग के रूप में अन्योढा अर्थात विवाहित परस्त्री को कहीं भी स्थान नहीं देना चाहिये- "नान्योढाङ्गिरसे क्वचित्" (द.रू. 2-20)। इस प्रकार को ऐमसंबंध भारतीय संस्कृति में सर्वथा अनैतिक माना गया है। नैतिकता का उल्लंघन जहां होता है, वहां सहृदय सामाजिकों को आनंद तो होता ही नहीं, प्रत्युत उद्वेग होता है। नाटक में नीतिबाह्य शृगांर रंगमंच पर दिखाया जा सकता है, परंतु वह शिष्ट और सहृदय सामाजिकों के अन्तःकरण में रति स्थायीभाव का उद्रेक नहीं कर सकता।
साधारणी स्त्री गणिका होती है, जो कलाचतुर, प्रगल्भा तथा धूर्त होती है। वेश्या कभी मुग्ध नहीं हो सकती। यह वेश्या प्रहसन में अनुरागिणी नहीं होती। अन्य रूपकों में उसे नायक के प्रति अनुरक्त रूप में ही चित्रित किया जाता है। जिन रूपकों में, नायक दिव्य प्रकृति अथवा धीरोदात्त नृपति होता है, वहां गणिका का समावेश नहीं किया जाता।।
मुग्धा, मध्या, प्रगल्भा आदि अवस्थाओं के अतिरिक्त नायक के संबंध में नायिका की मानसिक अवस्थाएं आठ प्रकार की बताई गई हैं। वे हैं :- (1) स्वाधीनपतिका, (2) वासकसज्जा, (3) विरहोत्कंठिता, (4) खंडिता, (5) कलहान्तरिता,
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(6) विप्रलब्धा, (7) प्रोषितप्रिया और (8) अभिसारिका। इनमें खंडिता, कलहान्तरिता और विप्रलब्धा ये तीन अवस्थाएं नायक के बहुपत्नीकत्व या व्याभिचारित्व के कारण नायिका में उत्पन्न होती हैं।
नायिका के परिवार में दासी, सखी, रजकी, धाय की बेटी, पडोसिन, संन्यासिनी, शिल्पिनी. इत्यादि प्रकार की स्त्रियां होती हैं। प्रायः नायक के परिवार में जिन गुणों से युक्त पुरुषपात्र होते हैं, उनी गुणों के ये गौण स्त्रीपात्र होते हैं।
नायिका के विविध प्रकारों के विवेचन के साथ दशरूपककार ने उत्तम स्त्रियों में व्यक्त होने वाले 20 स्वाभाविक (सत्त्वज) अलंकार बताएं हैं। इनमें भाव, हाव और हेला ये तीन "शरीरज" होते हैं। शोभा, कान्ति, दीप्ति माधुर्य, प्रगल्भता, औदार्य
और धैर्य ये सात “अयत्नज" अर्थात् जिन्हें प्रकट करने के लिए स्त्रियों को कोई विशेष प्रयत्न करने की आवश्यकता नहीं होती। इनके अतिरक्ति लीला, विलास, विभ्रम आदि दस 'स्वभावज' होते हैं। इन अलंकारों को नाट्यप्रयोग में कौशल्यपूर्ण अभिनय द्वारा व्यक्त किया जाता है। शृंगार रस के उद्दीपन में इन नाटकीय अलंकारों की स्त्री पात्रों के लिए आवश्यकता होती है।
8 नाट्यरस रस सिद्धान्त की चर्चा साहित्यशास्त्र विषयक प्रमुख ग्रंथों में की गई है। नाट्यशास्त्र में भी नाट्यप्रयोग की दृष्टि से रस चर्च मिलती है। दृश्य काव्य अथवा रूपक के दस भेद, वस्तु और नायक की विभिन्नता के कारण होते हैं वैसे ही वे रसों की विभिन्नता के कारण भी होते हैं जैसे नाटक, प्रकरण, वीथी और ईहामृग में शृंगार की प्रधानता होती है। समवकार, व्यायोग और डिम में हास्य की और उत्कृष्टिकांक में करुण की प्रधानता होती है। "अभिनय" याने अन्तःकरणस्थ राग-द्वेषादि भावों की वाणी, शारीरिक चेष्टा, मुखमुद्रा और वेषभूषा इत्यादि के द्वारा व्यक्त करना और सामाजिकों को उनके द्वारा रसानुभूति कराना यही अभिनय का कार्य है। “अभिनयति-हृद्गतान् भावान् प्रकाशयति" इति अभिनयः “यही “अभिनय' शब्द की लौकिक व्युत्पत्ति बताई जाती है। नाट्यशास्त्रानुसार अभिनय के चार प्रकार होते हैं :
(1) आंगिक अभिनय - शरीर, मुख, हाथ, वक्षःस्थल, भृकुटी, इत्यादि अंगों की चेष्टाओं द्वारा किसी भाव या अर्थ को व्यक्त करना ही "आंगिक' अभिनय कहा गया है। इस में मुखज चेष्टाओं का अभिनय छः प्रकार का, मस्तक की हलचल नौ प्रकार की, दृष्टि का अभिनय आठ प्रकार का, भ्रुकुटी के विन्यास छः प्रकार के, गर्दन हिलाने के चार प्रकार और हस्तक्षेप के बारह प्रकार भरताचार्य ने बताए हैं। इन के अतिरिक्त अन्य अंगों के भी विविध अभिनयों का भरत के नाट्यशास्त्र में वर्णन किया है।
(2) वाचिक अभिनय- वाक्यों का उच्चारण करते समय, आरोह-अवरोह, तार, मंद्र, मध्यम इत्यादि उच्चारण की विचित्रता से भावों को अभिव्यक्त करना, वाचिक अभिनय का स्वरूप होता है। वाचिक अभिनय के 63 प्रकार भरताचार्य ने बताए हैं। वाचिक अभिनय द्वारा सहृदय अंधे श्रोता को भी पात्र की मानसिक अवस्था का ज्ञान हो सकता है।
(3) आहार्य अभिनय- याने भूमिका के अनुरूप, पात्रों की वेशभूषा। वस्तुतः यह नेपथ्य का अंग है परंतु शास्त्रकारों इस की गणना अभिनय में की है।
(4) सात्त्विक अभिनय- सामाजिकों को रति, हास, क्रोध इत्यादि स्थायी भावों की अनुभूति कराने वाली तिक्षेप, कटाक्ष आदि शारीरिक चेष्टाओं को अनुभाव कहते हैं। "अनु पश्चात् भवन्ति इति अनुभावाः" इस व्युत्पत्ति के अनुसार, स्थायी भाव के उबुद्ध होने के बाद उत्पन्न होने वाले भावों को अनुभाव कहते हैं। विभावों को स्थायी भावों के उद्दीपन का कारण, अनुभावों को कार्य और व्यभिचारी भावों को सहकारी कारण रसशास्त्र में माना गया है। पात्रों के द्वारा व्यक्त होने वाले, अनुकार्य राम-दुष्यन्तादि के, रति-शोक इत्यादि स्थायी भावों की सूचना कराने वाले (भावसंसूनात्मक) भावों को धनंजय ने 'अनुभाव' कहा है। इन अनुभावों में स्तम्भ, प्रलय (अचेतनता), रोमांच, स्वेद, वैवर्ण्य (मुख का रंग फीका पड़ जाना) कम्प, अश्रु और वैस्वर्य (आवाज में परिवर्तन) इन आठ भावों को “सात्त्विक" (याने सत्व अर्थात मानसिक स्थिति से उत्पन्न होने वाले) भाव कहते हैं। इन अष्ट सात्त्विक भावों का प्रदर्शन सात्विक अभिनय के द्वारा होता है।
रूपकों में नटवर्ग का यही प्रधान उद्देश्य है कि उनके उपयुक्त चतुर्विध अभिनयों द्वारा, सामाजिकों में रसोद्रेक करना। रस की निष्पत्ति के विषय में, "विभावानुभाव-व्यभिचारिसंयोगाद् रसनिष्पत्तिः” (विभव, अनुभाव तथा व्याभिचारी भावों के संयोग से रसनिष्पत्ति होती है) यह भरत मुनि का सूत्र, रससिद्धान्त की चर्चा करनेवाले सभी साहित्याचार्यों ने परमप्रमाण माना है। शाकुन्तल नाटक के उदाहरण से इस सूत्र के पारिभाषिक शब्दों का स्पष्टीकरण इस प्रकार दिया जा सकता है। जैसे :- दुष्यन्त और शकुन्तला रति स्थायी भाव के "आलंबन विभाव" हैं। कण्व ऋषि के आश्रम का एकान्त, तथा मालिनी नदी का तीर आदि दृश्य दोनों के अन्तःकरण में अंकुरित रति को उद्दीपित करते हैं अतः उन्हे "उद्दीपन विभाव" कहते हैं।
रति स्थायी भाव के उद्दीपन के कारण उन पात्रों के शरीर में जो रोमांचादि चिन्ह उत्पन्न होते हैं और उनकी जो चेष्टाएं, होती है उन्हें "अनुभाव" कहते है, क्यों कि ये चिन्ह और चेष्टाएं, रतिभावानुभूति के पश्चात् उत्पन्न होती है या उस भाव का अनुभव सामाजिकों को कराती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 223
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रस
शृंगार- हास्य वीर अद्भुत
दुष्यन्त शकुन्तला में रति स्थायी भाव का उद्रेक होने पर उन दोनों के मन में चिन्ता, निराशा, हर्ष, इत्यादि प्रकार के अस्थायी भाव, समुद्र में तरंगों के समान, उत्पन्न होते हैं तथा अल्पकाल में विलीन होते हैं। इन्हें संचारी या "व्याभिचारी भाव" कहते हैं। स्थायी भाव समुद्र जैसा है तो संचारी भाव तरंगो के समान होते हैं। शास्त्रकारों ने नौ स्थायी भाव (साहित्यदर्पणकार विश्वनाथ ने वात्सल्य और उज्ज्वल नीलमणिकार रूप गोस्वामी ने भक्ति नामक दसवां स्थायी भाव माना है। आठ सात्त्विक भाव और तैंतीस व्यभिचारी या संचारी भावों का परिगणन किया है। परंतु नाट्यशास्त्रकार, रति, उत्साह, जुगुप्सा, क्रोध, हास, विस्मय, भय और शोक इन आठ ही स्थायी भावों की परिणति क्रमशः शृंगार, वीर, बीभत्स, रौद्र, हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण इन आठ रसों में (विभाव, अनुभाव और व्यभिचारी भावों के संयोग के कारण) मानते है। इन आठ रसों में शृंगार, वीर, बीभत्स और रौद्र ये चार प्रमुख रस होते है और इनसे क्रमशः हास्य, अद्भुत, भयानक और करुण नामक चार गौण रस उत्पन्न होते हैं। इन शृंगारादि चार प्रमुख और हास्यादि चार गौण रसों के युग्मों से क्रमशः अन्तकरण की, विकास, विस्तार, क्षोभ और विक्षेप की स्थिति होती है। इस की तालिका निम्न प्रकार होगी :
चित्तवृत्ति
विकास
विस्तर
बीभत्स भयानक रौद्र-करुण
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क्षोभ
विक्षेप
रस और तज्जन्य चित्तवृत्ति या मानसिक अवस्था का यह विवेचन अत्यंत मार्मिक है। इसी विवेचन के आधार पर साहित्य और मानवी जीवन का दृढ संबंध माना जा सकता है।
इस रस विवेचन में शान्तरस के बारे में नाट्यशास्त्रकारों ने यह अभिप्राय व्यक्त किया है कि, लौकिक जीवन में शम, स्थायी भाव (जिसका स्वरूप है संसार के प्रति घृणा और शाश्वत परम तत्त्व के प्रति उन्मुखता ) का अस्तित्व माना जा सकता है। परंतु नाट्यप्रयोग में उस स्थायी भाव का परिपोष होना असंभव होने के कारण, नाट्य में शान्त नामक नौवे रस का अस्तित्व नहीं माना जा सकता। नाटक में आठ ही रस होते हैं। "अष्टौ नाट्ये रसाः स्मृताः " ।
रूपकों में शान्त रस का निषेध करने वालों के द्वारा तीन कारण बताए जाते हैं- (1) "नास्त्येव शान्तो रसः आचार्येण अप्रतिपादनात् ।" अर्थात् भरताचार्य ने शांतरस का पृथक् प्रतिपादन न करने के कारण शांतरस नहीं है।
(2) “वास्तव्यः शान्ताभावः रागद्वेषयोः उच्छेत्तुम् अशक्यादत्वात् ।”
अर्थात राग और द्वेष इन प्रबल भावों का समूल उच्छेद होना असंभव होने के कारण, वास्तव में शान्तरस हो ही नहीं सकता।
(3) "समस्त व्यापार प्रविलयरूपस्य रामस्य अभिनययोगात्, नाटकादी अभिनवात्मनि निषिध्यते" अर्थात् सारे व्यापारों का विलय यही शम का स्वरूप होने से, उसका अभिनय करना असंभव है। अभिनय तो नाटक की आत्मा है; अतः उसमें "शम" का निषेध ही करना चाहिये ।
रसानिष्पत्ति का अर्थ
“विभावानुभावव्यभिचारिसंयोगाद् रस- निष्पत्तिः " इस भरत के नाट्यसूत्र के विषय में आचार्यों ने अत्यंत मार्मिक चिकित्सा की है। भट्ट लोल्लट के मतानुसार उत्पाद्य उत्पादक भाव से विभावादि के संयोग से "रसोत्पत्ति" होती है।
शंकुक के मतानुसार अनुमाप्य अनुमापक भाव से "रसानुमिति" होती है।
भट्टनायक के मतानुसार भोज्यभोजक भाव से "रसभुक्ति" होती है।
इस प्रकार रस की (1) उत्पत्ति, (2) अनुमिति, (3) भुक्ति और (4) अभिव्यक्ति ये चार अर्थ, मूल “निष्पत्ति' शब्द से निकाले गए हैं। इन के अतिरिक्त दशरूपककार धनंजय ने भाव-भावक संबंध का प्रतिपादन करते हुए, "भावनावाद" का सिद्धान्त स्थापित करने का प्रयत्न किया है। नाट्यशास्त्र की दृष्टि से यह एक रसविषयक पृथक् उपपत्ति देने का प्रयत्न है ।
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9 कुछ प्रमुख नाटककार
संस्कृत नाटक के उद्गम एवं विकास का परामर्श लेने वाले प्रायः सभी विद्वानों ने वैदिक वाङ्मय से लेकर अन्यान्य ग्रंथों में प्राचीन नाटकों के अस्तित्व के प्रमाण दिए हैं, परंतु उस प्राचीन काल के नाटककारों और उनके नाटकों का नामनिर्देश करना असंभव है । उसी प्रकार भरत से पूर्वकालीन कुछ नाट्यशास्त्रकारों के नाम तो मिलते हैं, परंतु उनके ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुए । अतः संस्कृत नाट्यवाङ्मय के विविध प्रकारों का विचार करते समय, उपलब्ध नाट्यवाङ्मय की ही चर्चा की जाती है। आद्य नाटक- विंटरनिटझ् और स्टेनकनो इन पाश्चात्य विद्वानों ने अश्वघोष को संस्कृत का प्रथम नाटककार माना है। लासेन ने अनेक युक्तिवादों से शूरसेन प्रदेश को भारतीय नाट्य की जन्मभूमि मानी है इस प्रदेश में ईसा की दूसरी शताब्दी के प्रारंभ
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224 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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में शकों का आधिपत्य था। मथुरा के शक नृपति कनिष्क (ई. 2 शती का मध्यकाल) की सभा में अश्वघोष थे। अश्वघोष ने बुद्धिचरित महाकाव्य और शारिपुत्र-प्रकरण (अथवा शारद्वतीपुत्र-प्रकरण) नामक नाटक की रचना की है। तुरफान में उपलब्ध हस्तलेखों में तीन बौद्ध नाटक मिले। उनमें से एक का अंतिम भाग सुरक्षित है। उसके अनुसार नाटक का उपर्युक्त नाम मिला। उसमें नौ अंक हैं और सुवर्णाक्षी के पुत्र अश्वघोष उसके रचयिता हैं। प्रस्तुत शारद्वतीपुत्र प्रकारण में शारिपुत्र और मौद्गलायन के बौद्धधर्म में दीक्षित होने की घटनाओं का वर्णन है। यह प्रकरण नाट्यशास्त्र के नियमों के अनुसार लिखा है और उसमें नौ अंक हैं। शारिपुत्र धीरोदात्त नायक हैं। नायिका के विषय में और मूल कथावस्तु के विषय में कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है।
शारिपुत्र-प्रकरण के हस्तलेख में अन्य दो नाटकों के अंश भी मिलते हैं। यद्यपि इनके कर्तृत्व के ज्ञान के लिए कोई प्रमाण नहीं मिलता, तथापि साहचर्य और शारिपुत्र-प्रकरण की सदृशता के कारण, इन्हें अश्वघोष की कृतियाँ मानना उचित समझा जाता है। इनमें से एक नाटक लाक्षणिक है, जिसमें बुद्धि, कीर्ति और धृति, पात्रों के रूप में मंच पर आती हैं। आगे चलकर बुद्ध भी रंगमंच पर आते हैं। इस लाक्षणिक नाटक के कारण प्रबोधचंद्रोदयकार कृष्णमिश्र की एतद्विषयक मौलिकता समाप्त होती है। संस्कृत का यही आद्य लाक्षणिक नाटक है।
दूसरे नाटक में मगधवती नामक गणिका, कौमुधगन्ध नामक विदूषक, सोमदत्त नामक नायक, एक दुष्ट, राजकुमार धनंजय, चेटी, शारिपुत्र और मोद्गलायन इस प्रकार के पात्रों की रोचक कथा मिलती है। इस नाटक का उत्तरकालीन नाटकों से सादृश्य है। इस नाटक का लक्ष्य भी धार्मिक ही रहा होगा परंतु वह खंडित अवस्था में प्राप्त होने के कारण उसके प्रमाण नहीं मिलते।
अवदानशतक (जिसका अनुवाद ई. तीसरी शताब्दी में चीनी भाषा में हो चुका था) के अनुसार कुछ दाक्षिणात्य नटों ने शांभावती नगरी से राजा की सभा में एक बौद्ध नाटक का प्रयोग किया था। उसी प्रकार बिंबिसार की सभा में एक दाक्षिणात्य नट ने, ज्ञानप्राप्ति के पूर्वकाल का बुद्धचरित्र नाट्यरूप में प्रदर्शित किया था। इस प्रकार संस्कृत के प्राचीनतम उपलब्ध नाटक बौद्ध धर्म से संबंधित थे; यह विशेष बात मानने योग्य है।
भास : कालिदास ने अपने मालविकाग्निमित्र नाटक की प्रस्तावना में भास का उल्लेख (सौमिल्लक और कविपुत्र के साथ) सर्वप्रथम एक श्रेष्ठ और मान्यताप्राप्त नाटककार के रूप में किया है। भास का समय पं. गणपतिशास्त्री ने बुद्ध पूर्व माना है, कीथ 300 ई. के समीप मानते हैं और कुछ विद्वान ईसा पूर्व पहली शताब्दी का पूर्वार्ध मानते हैं। भासकृत प्रतिज्ञायौगन्धरायण नाटक में (1-18) अश्वघोष के बुद्धचरित का उल्लेख मिलने के कारण, उसका समय अश्वघोष के निश्चित ही बाद का है।
कृष्णचरित नामक ग्रंथ के अनुसार भास ने 20 नाटक लिखे थे, परंतु अभी तक उनमें से 13 ही ज्ञात हुए हैं। इन नाटकों को तीन श्रेणियों में बांटा जा सकता है।
(अ) महाभारत पर आश्रित रूपक :- 1) ऊरूभंग 2) मध्यमव्यायोग 3) पंचरात्र, 4) बालचरित 5) दूतवाक्य 6) दूतघटोत्कच और कर्णभार
(आ) रामायण पर आश्रित :- 8) अभिषेक और 9) प्रतिमा ' (इ) कथासाहित्य पर आश्रित (अथवा कविकल्पित) :- 10) अविमारक 11) प्रतिज्ञायौगन्धरायण 12) स्वप्रवासवदत्त
और 13) चारुदत्त। - भास का प्रभाव उत्तरकालीन अनेक कवियों की कृतियों में स्पष्ट दीखता है। शूद्रक के मृच्छकटिक और भास के चारुदत्त (चार अंकी) में वस्तु, भाषा, वर्णन और अनुक्रम तक समानता पायी जाती है। भवभूति के उत्तरराम चरित के दूसरे अंक में, आत्रेयी के कथन पर स्वप्न-नाटक के ब्रह्मचारी वर्णन की गहरी छाप है। उत्तररामचरित के विद्याधर का वर्णन अभिषेक नाटक के वर्णन से मेल खाता है। भट्टनारायण के वेणीसंहार के पात्रों की विविधता और उदण्डता, पंचरात्र के पात्रों के समान ही है। प्रतिमा और स्वप्न नाटकों के कई उत्तम रोचक और आकर्षक तत्त्व, कालिदास के शाकुन्तल में पाए जाते हैं। प्रतिमा के वल्कलधारण की शोभा का वर्णन और जलसिंचन, शाकुन्तल नाटक में पाए जाते हैं। जैसे दुर्वासा का शाप और मारीच के आश्रम में मिलन का चण्डभार्गव का शाप और नारद के आश्रम में मिलन, इन प्रसंगों में साम्य है। स्वप्न वासवदत्त नाटक में वीणा की प्राप्ति का प्रभाव, शकुन्तला की अंगूठी की प्राप्ति के प्रसंग में दिखाई देता है।
शूद्रक : प्रख्यात मृच्छकटिक प्रकरण के रचियता शूद्रक थे, जिनका परिचय उसी प्रकरण की प्रस्तावना में संक्षेपतः दिया है। परन्तु उस परिचय में उनके अग्निप्रवेश का उलल्ख होने से संदेह होता है कि कोई नाटककार अपने मरण का उल्लेख कैसे लिख सकता है। इसी कारण अनेक पाश्चात्य विद्वान मृच्छकटिक के कर्तृत्व में संदेह प्रकट करते हैं। डा. पिशेल के मतानुसार मृच्छकटिक के रचियता दण्डी हैं। "त्रयो दण्डिप्रबन्धाश्चत्रिषु लोकेषु विश्रुताः" इसी सुभाषित में दण्डी के तीन प्रबन्धों का उल्लेख किया है। उनमें दशकुमारचरित और काव्यादर्श तो सर्वविदित हैं। तीसरा प्रबन्ध मृच्छकटिक ही हो सकता है। डा.
संस्कृत वाङ्मय कोश -ग्रंथकार खण्ड/225
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सिल्वाँ लेवी के मतानुसार, किसी अज्ञात कवि ने मृच्छकटिक की रचना कर, उसे शूद्रक के नाम से प्रसिद्ध कर दिया है। डा. कीथ शूद्रक को काल्पनिक पुरुष मानते हैं। उनके मतानुसार वास्तविक मृच्छकटिक का लेखक कोई दूसरा ही पुरुष होना चाहिये। भासरचित "दरिद्रचारुदत्त" के आधार पर किसी अज्ञात कवि ने कुछ परिवर्तन और नवीन कल्पनाओं का समावेश कर, प्रस्तुत नाटक खड़ा किया है।
शूद्रक के नाम पर यह एकमात्र प्रकरण उपलब्ध है और यह संपूर्ण नाट्यवाङ्मय में अपने ढंग की अकेली और अनोखी कलाकृति है। इसमें चोरी, जुआरी एवं चापलूसी है, राजा नीच जाति की रखेली को प्रश्रय देता है। शकार जैसे दुर्जन से डरने वाले उच्च पदस्थ अधिकारी, है, न्याय केवल राजा की इच्छा पर आश्रित रहता है, निर्धन ब्राह्मण सार्थवाह पर नितान्त प्रेम करनेवाली तरुण गणिका है।
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मृच्छकटिक में रंगमंच का शास्त्रीय तंत्र ठीक सम्हाला है परंतु रुढि एवं परंपरा को विशेष महत्त्व नहीं दिया है। कथावस्तु का वैचित्र्य, पात्रों की विविधता, घटनाओं का गतिमान संक्रमण, सामाजिक और राजनीतिक क्रांति और उच्च कोटि का हास्य विनोद इन कारणों से मृच्छकटिक को विश्व के नाटकों में महत्त्वपूर्ण स्थान प्राप्त हुआ है।
कालिदास कालिदासकृत मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय और शाकुंतल ये तीन नाटक उपलब्ध हैं। इन तीन नाटकों के अनुक्रम के विषय में, विद्वानों में एकवाक्यता नहीं है। प्रायः बहुसंख्य विद्वान उपरिनिर्दिष्ट रचनाक्रम मानने के पक्ष में है । परंतु केपलर ने मालविकाग्निमित्र को कालिदास की अंतिम रचना माना है। इस नाटक को कालिदास की रचना न मानने वाले भी विद्वान है परंतु उनके तर्कों का खण्डन वेवर, ह्यूम, केपलर और लेव्ही जैसे विद्वानों ने किया है। विक्रमोर्वशीय की कथा प्राचीन ग्रंथों में अन्याय रूप में मिलती है। कालिदास ने अपनी कथा मत्स्यपुराण से ली होगी, यह तर्क किया जाता है। इसी कारण इसे " त्रोटक" नामक उपरूपक कहा गया है। वास्तव में इसका स्वरूप "नाटक" सा ही है।
शाकुन्तल : संपूर्ण संस्कृत नाट्यवाङ्मय में इस नाटक को विद्वान रसिकों ने अग्रपूजा का मान दिया है। इसका अनुवाद मात्र पढ़ कर जर्मनी का महाकवि गटे हर्ष विभोर होकर नाचने लगा था । शकुन्तला की मूलकथा महाभारत और पद्मपुराण में मिलती है। मूल नीरस कथा में महाकवि कालिदास ने अपनी प्रतिभा से अपूर्व सरसता निर्माण कर, उसे सारे संसार में लोकप्रिय कर डाला। कवि ने शकुन्तला का व्यक्तित्व तीन रूपों में चित्रित किया है। प्रारंभ में वह तपोवन की निसर्गरम्य पवित्र वातावरण में मुग्धा मुनिकन्या के रूप में कामवश होती हुई दीखती है। दूसरी अवस्था में पतिद्वारा तिरस्कृत होते ही उसे नीच और अनार्य जैसे दूषणों से सभा में फटकारती है और तीसरी अवस्था में स्वर्गीय आश्रम में अपने पुत्र के साथ राजा पर क्षमापूर्ण प्रेम करती हुई, उनके साथ इह लोक की ओर प्रयाण करती हुई दिखाई देती है। कोमल भावनाओं का आविष्कार और प्रकृतिसौंदर्य का हृदयंगम चित्रण कालिदास के नाटकों में स्थान स्थान पर प्रतीत होता है।
विशाखदत्त: मुद्राराक्षस के रचियता विशाखदत्त का निर्देश विशाखदेव, भास्करदत्त और पृथु ( विल्सन के मतानुसार, चाहमान राजा पृथ्वीराज) इन नामों से होता है इस नाटक का सात अंकी संविधानक, ई. पूर्व 4 थी शताब्दी में चंद्रगुप्त और चाणक्य ने नंद वंश का नाश कर जो राज्यक्रांति की, उस ऐतिहासिक घटना पर आधारित है। इस नाटक में वर्णित विविध आख्यायिकाएं सर्वत्र प्रसिद्ध थीं कुछ प्राचीन विद्वानों के मतानुसार विशाखदत्त ने अपनी कथावस्तु बृहत्कथा से ली और उसमें प्रसिद्ध आख्यायिकाओं का कौशल्य से उपयोग करने का प्रयत्न किया कुटिल राजनीति का व्यवस्थित चित्रण करनेवाला मुद्राराक्षस जैसा दूसरा नाटक संस्कृत साहित्य में नहीं है। विशुद्ध राजनीतिक नाटक होने के कारण इसमें माधुर्य एवं लालित्य का सर्वथा अभाव है। चन्दनदास की पत्नी एकमात्र स्त्रीपात्र है । किन्तु कथा के विकास में उसका कुछ भी महत्त्व नहीं है । संस्कृत में यह एकमात्र नाटककार है जिसने रसपरिपाक की अपेक्षा घटना वैचित्र्य पर ही बल दया है। मुद्राराक्षस वीररसप्रधान होने पर भी उसमें युद्ध के दृश्य नहीं हैं। यहां शस्त्रों का द्वन्द्व न होकर कुटिल बुद्धि का अद्भुत संघर्ष आदि से अंत तक चित्रित किया हुआ है। इस नाटक में चंद्रगुप्त और चाणक्य इन दोनों के नायकत्व के संबंध में विद्वानों ने मतभेद व्यक्त किये हैं। संस्कृत नाटकों की परिपाटी के अनुसार भरतवाक्य का पाठ नायक द्वारा ही किया जाता है परंतु मुद्राराक्षस में भर राक्षस द्वारा कहा गया है।
226 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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हर्ष जिसके आविर्भाव काल के विषय में विवाद नहीं है ऐसा हर्ष (अथवा हर्षवर्धन शिलादित्य) यह एकमात्र प्राचीन नाटककार है। हर्ष के नाम पर रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद ये तीन नाटक प्रसिद्ध है, परंतु इनके कर्तृत्व का श्रेय उसे देने में विद्वानों ने मतभेद व्यक्त किया है। काव्यप्रकाश के उपोद्घात में (1, 2) मम्मट ने "श्रीहर्षादेर्धावकादीनामिव धनम् " यह वाक्य डाला है। इसके कारण हर्ष के लेखकत्व के संबंध में विवाद पर "बाण" शब्द का प्रयोग हुआ है। इस कारण हाल और बूल्हर ने है। काव्हेल का मत है कि, रत्नावली नाटिका की रचना बाण ने और नागानंद की रचना धावक ने की । पिशेल का मत है
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खड़े हुए। साथ ही कुछ स्थलों में "धावक के स्थान तीनों नाटकों का कर्तृत्व हर्षचरितकार बाणभट्ट को दिया
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कि तीनों रूपकों की रचना एक ही लेखक ने की है और वह लेखक हर्ष का समकालीन कोई उत्तम साहित्यिक होगा, या तो धावक ही होगा। रत्नावली में सिंहल राजकन्या रत्नावली और वत्सराज उदयन के प्रेमविवाह की अद्भुतरम्य कथा चार अंकों में चित्रित की है। तीनों रूपकों में यह श्रीहर्ष की प्रथम कृति मानी जाती है। अद्भुतरम्य कथावस्तु का संपूर्ण विकास इस प्रख्यात नाटिका में हुआ है।
प्रियदर्शिका नाटिका में भी उदयन के प्रेमविवाह की कथा चित्रित की है। इसमें नायिका प्रियदर्शिका (जो आरण्यिका नाम से उदयन के अन्तःपुर में अज्ञात अवस्था में रहती है।) अंग राजा (वासवदत्ता महारानी का चाचा) की कन्या होती है।
नागानन्द यह पाँच अंकों का बौद्ध नाटक है। अश्वघोष के बौद्ध नाटक अपूर्ण अवस्था में मिलते हैं। नागानन्द में भूतदया के सिद्धान्त का पालन, बौद्ध मतानुयायी नायक जीमूतवाहन ने किया है। नायिका मलयवती, अपने प्रियकर की सजीवता के लिए गौरी की आराधना करती है। इस प्रकार इस नाटक में बौद्ध और शैव जीवनपद्धति का समन्वय मिलता है। इस नाटक का संविधान बृहत्कथा या विद्याधरजातक से लिया हुआ है। वेतालपंचविंशति में भी यह कथा मिलती है। ___ भट्टनारायण : महाभारत में वस्त्रहरण के समय द्रौपदी की वेणी खींची गई थी। उस अपमान का पूरा बदला लेकर, दयोधन का वध कर, भीमसेन ने उसके रक्त से रंगे हए हाथों से वेणी का "संहार" अर्थात् बंधन किया। इस प्रक्षोभक घटना पर आधारित वेणीसंहार नाटक की रचना भट्टनारायण ने की और उसके द्वारा संस्कृत नाट्यवाङ्मय में अपना नाम अजरामर किया। महाभारत के वीरों के एक दूसरे के प्रति रागद्वेषादि भाव किस प्रकार के थे, इसका उत्कृष्ट परिचय वेणीसंहार के सात अंकों में दिया है।
भट्टनारायण मूलतः कान्यकुब्ज (कनौज) के निवासी थे। सातवीं शताब्दी में बंगाल के पालवंशीय राजा आदिशूर अथवा आदीश्वर ने इन्हें कान्यकुब्ज से बंगाल में लाया था। वेणीसंहार के बांगला भाषीय अनुवादक शौरींद्रमोहन टैगोर ने, अपने भट्टनारायण के वंशज होने का अभिमान से उल्लेख किया है।
प्रस्तुत नाटक में दुर्योधन का प्राधान्य देखकर, उसे नायक मानने वाले विद्वान अंत में उसका वध देख कर, वेणीसंहार को संस्कृत का शोकान्त नाटक मानते हैं। परंतु भारतीय नाट्यशास्त्र के अनुसार “नाधिकारिवधं क्वापि" (दशरूपक 3-36)
अधिकृतनायकवधं प्रवेशकादिनाऽपि न सूचयेत्' (धनिकटीका) इस प्रकार का निश्चित नियम होने के कारण, नाटककार ने जिसका • वध सूचित किया है ऐसा दुर्योधन वेणीसंहार का नायक नहीं माना जा सकता।
संपूर्ण नाटक में भीमसेन का व्यक्तित्व सामाजिकों को अधिक आकृष्ट करता है। अपने रक्तरंजित हाथों से द्रौपदी की वेणी गूंथने का प्रमुख कार्य भीमसेन ने ही पूर्ण किया है। अतः उसे वेणीसंहार का नायक कुछ विद्वानों ने माना है। परम्परा की दृष्टि से धीरोदात्त प्रकृति के युधिष्ठिर को इस नाटक का नायक माना जाता है। संस्कृत नाटक में "भरतवाक्य" का गायन या कथन करने वाला व्यक्ति नायक ही होता है और इस नाटक में यह कार्य युधिष्ठिर द्वारा संपादित किया है। विश्वनाथ ने अपने साहित्यदर्पण में, युधिष्ठिर को ही वेणीसंहार का नायक माना है। परंतु भट्टनारायण ने युधिष्ठिर के व्यक्तित्व का नायकोचित चित्रण नहीं किया। प्रथम और पंचम अंक में युधिष्ठिर का उल्लेख नेपथ्य से होता है। केवल अंतिम अंक में ही वे सामने आते हैं। इस तरह वेणीसंहार एक शास्त्रशुद्ध नाट्यकृति होते हुए भी, उसका नायक एक विवाद का विषय हुआ है।
भवभूति : संस्कृत नाटकों के रसिक अभ्यासक भवभूति को कालिदास के समान श्रेष्ठ नाटककार मानते हैं। कुछ रसिकों के मतानुसार भवभूति का उत्तररामचरित, कालिदास के शाकुन्तल से भी अधिक सरस एवं भावोत्कट है। भवभूति का वास्तव नाम श्रीकंठ था। इन्होंने अपने महावीरचरित, मालतीमाधव और उत्तररामचरित ये तीनों नाटक, कालप्रियनाथ के यात्रोत्सव निमित्त उक्त क्रमानुसार लिखे थे।
मालतीमाधव एक प्रकरण होते हुए भी उसमें नाट्यशास्त्र की दृष्टि से आवश्यक माना गया "विदूषक" भवभूति ने चित्रित नहीं किया। महावीरचरित में सीतास्वयंवर से लेकर रावणवध के पश्चात् अयोध्या प्रत्यागमन तक की रामकथा प्रत्यक्ष अप्रत्यक्ष रीति से चित्रित की है। ऐसा माग जाता है कि इस नाटक के पंचम अंक के 46 वें श्लोक तक की रचना भवभूति ने की और उसका शेष भाग किसी सुब्रह्मण्य नामक कवि ने लिखा।
महावीरचरित की कथा से संबंध रखते हुए उत्तररामचरित की रचना भवभूति ने की है। इस प्रकार दोनों नाटकों के प्रत्येकशः सात सात अंकों में संपूर्ण रामचरित्र भवभूति ने नाट्यप्रयोगोचित किया है। उत्तरकालीन रामनाटकों के अनेक लेखकों पर भवभूति के इन दो नाटकों का काफी प्रभाव पड़ा है।
मालतीमाधव की कथा भवभूति ने अपनी प्रतिभा से उत्पन्न की है। इसमें वास्तवता और अद्भुतता का संगम कवि ने किया है। अघोरघंट की शिष्या कपालकुण्डला द्वारा, मालती का बलिदान के लिए अपहरण होने की वार्ता सुनने पर माधव की शोकाकुल अवस्था का चित्रण भवभूति ने, विक्रमोर्वशीय में कालिदास द्वारा चित्रित पुरुरवा की अवस्था के समान किया है।
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पर भवभूतिकात सात अंकों में से संबंध रखते
संस्कत वाङमय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 227
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कान्यकुब्ज के राजा यशोवर्मा, भवभूति के आश्रयदाता थे। इनके द्वारा लिखित रामकथाविषयक रामाभ्युदय नामक नाटक का, आनंदवर्धन ने ध्वन्यालोक में धनिक ने दशरूपक (1, 42) में और विश्वनाथ ने साहित्यदर्पण ( 6, 142 ) में उल्लेख किया है। परंतु वह अभी तक अप्राप्य रहा है ।
अनंतहर्ष : भासकृत स्वप्नवासवदत्त नाटक के कथाभाग में, कुछ अधिक अंश जोड़ कर अनहंगर्ष ने “ तापसवत्सराज" नामक नाटक लिखा है । वासवदत्ता के निधन की वार्ता सुनकर वत्सराज उदयन विरक्त होता है। उधर पद्मावती वत्सराज का चित्र देख कर प्रेमविव्हल और अंत में विरक्त हो जाती है। वासवदत्ता भी पतिवियोग से हताश होकर अग्निप्रेवश करने प्रयाग जाती है। वहीं पर उदयन भी उसी हेतु जाता है। अचानक दोनों की भेट होकर नाटक सुखान्त होता है। अनंगहर्ष ने अपने नाटक में हर्ष की रत्नावली नाटिका का अनुसरण किया है।
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मायुराज : दशरूपक की अवलोक टीका (2, 54) में मायुराजकृत "उदात्तराघव' नाटक का उल्लेख मिलता है। दक्षिण भारत में यह नाटक भासकृत माना जाता था। मायुराज "करचूली" या कलचूरी वंशीय थे। अपने उदात्तराघव में रामचन्द्र की धीरोदात्तता को बाधा देनेवाला वालिवध का प्रसंग, मायुराज ने बड़ी कुशलता से टाला है। कांचनमृग को मारने के लिये प्रथम लक्ष्मण जाते हैं और उनकी सुरक्षा के लिए राम जाते हैं, ऐसा दृश्य दिखाया है। नाट्यशास्त्र की दृष्टि से ऐसे औचित्यपूर्ण परिवर्तन प्रशंसनीय माने गये हैं।
मुरारि : अपने अनर्घराघव नामक सात अंकी नाटक में मुरारि ने अपना परिचय दिया है। वे महाकवि एवं "बालवाल्मीकि " इन उपाधियों से अपना उल्लेख करते हैं। अनर्थराघवकार ने भवभूति का और प्रसन्नरापवकार जयदेव ने मुरारिका अनुसरण किया है। अनर्घराघव में विश्वामित्र के यज्ञ से लेकर अयोध्या प्रत्यागमन तक का रामचरित्र चित्रित हुआ है। नाटककार "गुरूकुलक्लिष्ट" होने के कारण, उनकी रचना में भी क्लिष्टता का दर्शन होता है ।
राजशेखर: कर्पूरमंजरी, बालरामायण, विद्धशालंभजिका और बालभारत ( अथवा प्रचंडपांडव ) इन चार रूपकों के अतिरिक्त काव्यमीमांसा नामक साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ और अनेक सुभाषित राजशेखर ने लिखे हैं।
बालरामायण (1, 12) में अपने छः ग्रन्थों का राजशेखर ने निर्देश किया है। अपना कर्पूरमंजरी नामक प्राकृत सट्टक, पत्नी अवंतिसुंदरी (चाहमान वंशीय) की सूचना के अनुसार राजशेखर ने लिखा इसमें अपना निर्देश बालकवि कविराज और निर्भयराज का अध्यापक इन विशेषणों से दिया है। बालरामायण का प्रयोग अपने छात्र “निर्भय'" अर्थात् प्रतिहार महेन्द्रपाल की प्रार्थना से किया था। विद्धशालभंजिका के प्रथम अंक में, नायक विद्याधरमल्ल, नायिका मृगांकावली की मूर्ति को माला अर्पण करता है। इस कारण नाटक का अपरनाम मृगांकावली हुआ है। इसकी रचना त्रिपुरी के कलचूरीवंशीय राजा केयूरवर्ष के आदेशानुसार राजशेखर ने की है। इस उल्लेख के कारण, राजशेखर महेंद्रपाल के पश्चात त्रिपुरी निवास के लिए गए होंगे यह अनुमान किया जाता है विद्धदशालभञ्जिका और कर्पूरमंजरी की कथाएं कविनिर्मित है। बालभारत के केवल दो अंक उपलब्ध हैं, जिनमें द्रौपदीस्वयंवर और हृतप्रसंग का चित्रण किया गया है राजशेखर का भुवनकोष नामक भूगोलवर्णनात्मक ग्रंथ अनुपलब्ध है बालरामायण में 741 पक्ष है जिनमें 200 गद्य शार्दूलविक्रीडित और 86 पद्य सम्धरा जैसे प्रदीर्घ वृत्तों में लिखे हैं। अंतिम अंक में 105 पद्यों में रामचन्द्र के लंका से अयोध्या तक के विमानप्रवास का वर्णन है। इस प्रकार के कारणों से बालरामायण महानाटक की अपेक्षा लघुकाव्य सा हुआ है।
1
क्षेमीश्वर: अपने आश्रयदाता महीपालदेव के आदेशानुसार क्षेमीश्वरने चण्डकौशिक नामक पाँच अंकों का नाटक लिखा । मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत हरिश्चन्द्र की कथा पर यह नाटक आधारित है। चण्डकौशिक की तंजौर में उपलब्ध पाण्डुलिपि में कवि का नाम "क्षेमेंद्र" लिखा है अतः बृहत्कथाकार क्षेमेन्द्र और चण्डकौशिककार इनकी एकता होने के विषय में बनेल और पिशेल ने चर्चा की है। क्षेमीश्वर का दूसरा नाटक नैषधानंद, नलकथा पर आधारित है।
I
जयदेव प्रसन्नराघव नामक नाटक में सीता स्वयंवर से अयोध्याप्रत्यागमन तक का कथाभाग इन्होंने चित्रित किया है। अर्थात् भवभूति, मुरारि आदि पूर्ववर्ती रामनाटकों की कृतियों का अनुकरण, प्रसन्नराघवकार ने किया है जयदेव का चंद्रालोक नामक साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ, अप्पय्य दीक्षित ने अपने कुवलयानंद में समाविष्ट किया है।
संस्कृत नाट्यवाङ्मय में विशेष रूप से योगदान करने वाले उपरिनिर्दिष्ट प्रमुख लेखकों के अतिरिक्त, हनुमान् कविकृत हनुमन्नाटक ( कुछ विद्वान मधुसूदन मिश्र को इस नाटक के लेखक अथवा संशोधनकार मानते हैं ) 14 अंकों का "महानाटक", सुभटकवि कृत दूतांगद नामक छायानाटक इत्यादि नाटक उल्लेखनीय हैं।
228 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
छायानाटक के प्रयोग प्राचीन काल में प्रचलित थे। दूतांगद के अतिरिक्त भूभट्टकृत अंगद, रामदेवकृत सुभद्रापरिणय, रामाभ्युदय और पाण्डवाभ्युदय ये तीन नाटक, शंकरलाल कृत सावित्रीचारित, कृष्णनाथ स्वार्वभौम भट्टाचार्य कृत आनंदलतिका, वैद्यनाथ वाचस्पतिकृत चित्रयज्ञ (दक्षयज्ञविषयक) इत्यादि सायनाटक उल्लेखनीय हैं।
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10 लाक्षणिक या प्रतीक नाटक 12 वीं शती के एक संन्यासी कृष्णमिश्र दण्डी ने "प्रबोधचन्द्रोदय" नामक छः अंकों का शांतरसप्रधान तत्त्वोद्बोधक नाटक निर्माण कर, संस्कृत नाट्यवाङ्मय में एक नयी प्रणाली का प्रवर्तन किया। अद्वैतवाद के प्रतिपादन के उद्देश्य से इस नाटक में श्रद्धा, भक्ति, विद्या, ज्ञान, मोह, विवेक, दम्भ, बुद्धि इत्यादि अमूर्त भावों को पात्रों के रूप में मंच पर लाया गया है। कृष्णमिश्र का यह अनोखा नाट्यप्रकार आगे चल कर लोकप्रिय हुआ सा दीखता है।
इस प्रकार के लाक्षणिक नाटकों में परमानंद दास कवि कर्णपूर (16 वीं शती) का चैतन्यचंद्रोदय, भूदेव शुक्ल (16 वीं शती) कृत धर्मविजय, कृष्णदत्त मैथिल (17 वीं शती) कृत पुरंजनचरित्र, शुक्लेश्वरनाथकृत प्रबोधोदय, श्रीनिवास अतिरात्र याजी का भावनापुरुषोत्तम, आनंदरायमखीकृत (वस्तुतः वेदकविकृत) विद्यापरिणयन और जीवनंदन; कवितार्किकसिंह कृत संकल्पसूर्योदय, गोकुलनाथ शर्मा का अमृतोदय, नृसिंह कवि का अनुमितिपरिणय, रंगीलाल (19 वीं शती) का आनंदचंद्रोदय, नृसिंहदैवज्ञ का चितसूर्यालोकः नल्ला दीक्षित का चित्तवृत्तिकल्याण और जीवनमुक्तिकल्याण, ब्राह्मसूर्यकृत ज्योतिःप्रभाकल्याण, रविदासकृत मिथ्याज्ञानविडम्बन, यशःपालकृत मोहपराजय, कृष्णकविकृत मुक्ताचरित, गोविंदपुत्र सुंदरदेव कृत मुक्तिपरिणय, घट्टशेषार्यकृत प्रसन्नसपिण्डीकरणनिरासः, जातवेदसकृत पूर्णपुरुषार्थचन्द्रोदय, जयंतभट्टकृत सन्मतनाटक, वैकुण्ठपुरीकृत शांतिचरित (बौद्धधर्मविषयक) नाटक, वैद्यनाथकृत सत्संगविजय, अनंतरामकृत स्वानुभूतिनाटक, पूर्णगुरुपुत्र रामानुजकविकृत विवेकविजय, वरदाचार्य (नामान्तर अम्मलाचार्य) कृत वेदान्तविलास (अथवा यतिराजविजय ही नहीं अपि तु जागतिक नाट्य वाङ्मय का यह रामानुजमतप्रतिपादक नाटक है), पद्मराज पंडितकृत महिसूरू-शांतीश्वर-प्रतिष्ठा (जैनधर्मीय नाटक); वादिचंद्रसूरिकृत ज्ञानसूर्योदय; यशश्चंद्रकृत कुसुमचंद्र, कृष्णानंद सरस्वतीकृत अन्तर्व्याकरणनाट्य (इसके श्लोक क्लिष्ट हैं जिनमें व्याकरण शास्त्र परक और नीतिपरक अर्थ मिलते हैं।) इत्यादि।
लाक्षणिक नाटक संस्कृत नाट्यवाङ्मय का, एक वैशिष्ट्यपूर्ण अनोखा अंग कहा जा सकता है।
11 रामायणीय नाटक वाल्मीकि का रामायण भारत की सभी भाषाओं के असंख्य साहित्यिकों के लिए उपजीव्य ग्रंथ रहा है। संस्कृत नाटककारों में, रामायणीय नाटकों को लिखने की परंपरा भास से प्रारंभ होती है और भवभूति के उत्कृष्ट नाटकों के प्रभाव से बढ़ती हुई दिखाई देती है। कुछ श्रेष्ठ नाटककारों का जो परिचय उपर दिया गया है, उनमें कुछ रामचरित्र विषयक नाटकों का उल्लेख किया है। उनके अतिरिक्त उल्लेखनीय नाटकों का संक्षेपतः निर्देश मात्र इस प्रकरण में देना संभव है। नाटककार नाटक
विशेष भट्टसुकुमार (अथवा भूषण) रघुवीरचरित
पांच अंकी नृत्यगोपाल कविरत्न रामावदान,
पांच अंकी दर्पशातन
परशुरामविषयक कथांश पर आधारित सुंदर मिश्र अभिरामवाटक
सात अंकी महादेव (सूर्यपुत्र) अद्भुतदर्पण
दशांकी, अंगदाशिष्टाई से अयोध्या (नामान्तर मायारूपक अथवा माया प्रत्यागमन तक का लंका में हुआ कथा भाग, नाटिका)
इस नाटक में राम-लक्ष्मण मायावी दर्पण में देखते हैं। रामनाटक में कहीं भी न मिलने वाला विदूषक इस नाटक में हास्य रस की झलक
दिखाता है। महादेवशास्त्री उन्मत्तराघव
सात अंकी रामभद्र दीक्षित (कुंभकोण निवासी) जानकीपरिणय
सात अंकी, सीता स्वयंवर से अयोध्या
प्रत्यागमन तक की कथा। मधुसूदन (दरभंगा निवासी) जानकीपरिणय
चार अंकी भट्टनारायण
जानकीपरिणय (वेणी संहार के लेखक से भिन्न व्यक्ति) सीताराम
जानकीपरिणय हस्तिमल्लसेन (जैन धर्मी)
मैथिलीपरिणय और अंजनापवनंजय सुब्रह्मण्य (कृष्णसूरिपुत्र) सीताविवाह
पांच अंकी
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 229
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भगवंतराय
गंगाधरसूनु
रामचंद्र (हेमचंद्र का शिष्य)
यज्ञनारायण
बालकृष्ण
वेंकटेश्वर (धर्मराजपुत्र)
मणिक (नेपाली कवि, 14 वीं शती) राजचूडामणि दीक्षित (रत्नखेट)
शक्तिभद्र
वीरराघव
श्रीनिवास (वरदगुरुपुत्र) तातार्य (वैष्णवगुरु) रामवारियर
श्रीनारायणशास्त्री (कुंभकोण निवासी) अतिरात्रयज्वा (अप्पय दीक्षित के
पौत्र, 17 वीं शती)
वेंकटकृष्ण दीक्षित (17 वीं शती) छबिलाल
श्रीधर भास्कर वर्णेकर
नाटककार
रामानन्दराय (16 वीं शती)
मधुसूदन सरस्वती
कवीश्वर
आनंदधर
रामचंद्र
अनंतदेव (आपदेव के पुत्र)
कृष्णरा
रामकृष्ण (गुजरात निवासी)
नारायणतीर्थ
वैद्यनाथ
गोविंद कविभूषण
शंकरदेव
रूपगोस्वामी
(चैतन्य देव के प्रथम शिष्य)
शेषचिंतामणि
230 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
राघवाभ्युदय
राघवाभ्युदय
राघवाभ्युदय और रघुविलास रघुनाथविलास
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मुदितराघव
राघवानंद (अथवा राघवाभ्युदय ) अभिनवराघवानंद
राघवानंद
आश्चर्यचूडामणि
रामराज्याभिषेक
सीतादिव्यचरित
सीतानंद
सीताराघव
मैथिलीय
कुशकुमुद्वतीय
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कुशलवविजय कुशलवोदय
श्रीरामसंगीतिका
तंजौर के शहाजी राजा के आदेश से लिखा
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नृत्यनाट्य । 1983 में कालिदास पुरस्कार प्राप्त ।
इस प्रकार रामचरित्र विषयक कुछ संस्कृत नाटक उल्लेखनीय हैं। इन नाटकों में कथानक की समानता के कारण कुछ वर्णनों भाषणों और भाषा शैली के अतिरिक्त वैविध्य या वैचित्र्य मिलना असंभव है नाटकों की यह नामावली संस्कृत साहित्यिकों की रामभक्ति का एक प्रमाण है। नाटकों के नामकरण में भी प्रायः समानता है। रामचरित्र विषयक इतने विविध नाटक निर्माण होने के बाद भी भास और भवभूति का यश अवाधित रहा है।
कृष्णकुतूहल
माधवानल
12
श्रीकृष्णचरित्र
रामचरित्र के समान कृष्णचरित्र भी अनेक साहित्यिकों का प्रिय विषय रहा है। कृष्णचरित्र विषयक कुछ नाटकों का निर्देश यहाँ दिया है।
विशेष
नाटक जगन्नाथ वल्लभ
उडीसा के नृपति प्रताप रुद्र की आज्ञा
से लिखित)
X
X
माधवानल
यादवाभ्युदय कृष्णभक्तिचंद्रिका
जांबवतीकल्याण
गोपालकेलिचंद्रिका
कृष्णलीलातरंगिणी
X
सात अंकी
कृष्णलीला
समृद्धमाधव
विदग्धमाधव
विदग्धमाधव
(2) ललितमाधव ( दशांकी)
रुक्मिणीहरण
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पांच अंकी
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सप्तांकी
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सप्तकी
सप्तांकी
सप्तांकी
सप्तांकी
"
(इस लेखक ने अनेक नाटकों की रचना की है) पंचांकी
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छाया नाटक
इसमें गीतगोविंद के पद्य उद्धृत हैं
गीतगोविंद का रूपांतर
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सप्तांकी
(इसी नाम के अन्य नाटक भी मिलते हैं। जिनके रचियता के नामों का पता नहीं चलता)
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राजचूडामणि दीक्षित
रुक्मिणीकल्याण सरस्वतीनिवास
रुक्मिणी कवितार्किक सिंह
रुक्मिणीपरिणय रामवर्मा रुक्मिणीपरिणय
पंचांकी । राजशेखर के कर्पूरमंजरी सट्टक का अनुकरण सुंदरराज (केरलीय) वरदराजपुत्र वैदर्भीवासुदेव
पंचांकी शंकर बालकृष्ण दीक्षित प्रद्युम्नविजय
सप्तांकी वल्लीसहाय रोचनानंद
प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध और रोचना के विवाह की
कथा पर आधारित कुमारतातय्या पारिजात
सत्यभामाविषयक गोपालदास
पारिजात उमापति
पारिजातहरण शेषकृष्ण
1) सत्यभामापरिणय 2) सत्यभामाविलास 3) मुरारिविजय और
4) कंसवध दामोदर
कंसवध सामराज दीक्षित (17 वीं शती) श्रीदामचरित
(बुंदेल राजपुत्र आनंदराय के
आदेशानुसार लिखित) श्रीनिवासाचार्य सुदर्शनविजय
पौंड्रक के विनाश की कथा श्रीधर भास्कर वर्णेकर श्रीकृष्णसंगीतिका
नृत्यनाट्य श्रीरामायण पर आधारित बहुसंख्य नाटकों में प्रायः सीतास्वयंवर से अयोध्या प्रत्यागमन तक रामचरित्र चित्रित किया गया है परंतु कृष्णचरित्र विषयक नाटकों में बाललीला, कंसवध, राधाप्रणय, रुक्मिणीस्वयंवर, सत्यभामास्वयंवर इस प्रकार के स्फुट विषयों पर लिखे हुए नाटक मिलते हैं। समग्र कृष्ण चरित्र पर आधारित नाटक नहीं मिलते।
___ 13 महाभारतीय नाटक रामायण के समान महाभारत के आख्यान पर आधारित नाटकों की संख्या भी काफी बड़ी है। उनमें से कुछ उल्लेखनीय नाटक : नाटककार नाटक
विशेष क्षेमेंद्र (काश्मीरी) चित्रभारत
लेखक ने अपने औचित्यविचारचर्चा और
कविकंठाभरण ग्रंथ में उल्लेख किया है हस्तिमल्लसेन (जैन आचार्य) 1) अर्जुनराजनाटक
2) भारतराजनाटक
3) मेघेश्वर महेश्वर सभानाटक
सभापर्व पर आधारित जयरणमल्ल (नेपाली राजा) सभापर्वनाटक (अथवा पांडवविजय) शीतलचंद्र विद्याभूषण
घोषयात्रा सुकुमार पिल्ले लक्ष्मणा-स्वयंवर
(दुर्योधन की कन्या और कृष्ण के पुत्र सांब का
विवाह) लक्ष्मण माणिक्य (16 वीं शती) विख्यातविजय
छः अंकी कर्णवध विषयक युवराज प्रल्हाद (13 वीं शती) पार्थपराक्रम कृष्णसूरि
द्रौपदीपरिणय नल्लकवि (मखींद्र पुत्र)
सुभद्रापरिणय सुधींद्रयति
सुभद्रापरिणय गुरुराम
सुभद्राधनंजय
दशांकी
xxx xx
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 231
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Page #248
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विजयींद्रयति
सुभद्राधनंजय कुलशेखरवर्मा (केरल नृपति) सुभद्राधनंजय और तपतिसंवरण सुमतिजितामित्रदेव (भट्टग्राम नृपति) अश्वमेघ
(युधिष्ठिर के अश्वमेघ की कथा पर आधारित) इस प्रकार महाभारत आधारित नाटकों में अन्य विषयों की अपेक्षा सुभद्राविवाह का आख्यान अधिक प्रिय दिखाई देता है। भट्टनारायण के वेणीसंहार जैसी लोकप्रियता और विद्वन्मान्यता, महाभारत कथा पर आधारित अन्य किसी भी नाटक को नहीं मिल सकी।
__ अन्य पुराणों की कथाओं पर आधारित नाटकों में शिव-पार्वती विवाह की कथा पर आधारित नाटकों की संख्या अधिक दिखाई देती है। इस विषय पर लिखे हुए कुछ उल्लेखनीय नाटक :
मंगल
शिवकथा विषयक नाटक नाटककार नाटक
विशेष शंकर मिश्र (वैशेषिक सूत्र के गौरी दिगंबर टीकाकार) रामचंद्र सुमुनुवंशमणि (17 वीं शती) गीतदिगंबर
चार अंकी। यह नाटक खाटमंडू के राजा प्रतापमल्ल के तुलापुरुषदान निमित्त
लिखा गया।) जगज्ज्योतिर्मल्ल
हरगौरीविवाह (नेपाल नरेश- 17 वीं शती) बाण (वामनभट्ट बाण, 15 वीं शती) पार्वतीपरिणय
कालिदास के कुमारसंभव का अनुसरण वेंकटराघवाचार्य
मन्मथविजय जगन्नाथ (तंजौर निवासी)
रतिमन्मथ वेंकटाचार्य प्रद्युम्रानंदीय
अष्टांकी रुद्रशर्मा त्रिपाठी
चण्डीविलास अथवा चण्डीचरित जीवानंद ज्योतिर्विद्
नौ अंकी, विषय शिवपत्नी कथा। वैद्यनाथ व्यास गणेशपरिणय
सप्तांकी घनश्याम चोंडाजीपंत (आर्यक) कुमारविजय
पंचांकी वीरराघव वल्लीपरिणय
स्कंदकथा पर आधारित भास्करयज्वा वल्लीपरिणय
स्कंदकथा पर आधारित अन्य पौराणिक कथाओं पर आधारित नाटकों में विशेष उल्लेखनीय नाटक : नाटककार नाटक
विशेष वीरराघव (श्रीशैलसूरिपुत्र) इंदिरापरिणय
लक्ष्मीस्वयंवर विषयक चतुष्कवीन्द्रदास श्रीनिवास
लक्ष्मीस्वयंवर विरूपाक्ष
नारायणीविलास श्रीनिवासाचार्य
उषापरिणय चयनीचन्द्रशेखररायगुरु मथुरानिरुद्ध
अष्टांकी केशवनाथ गोदापरिणय
वरदराज-गोदा-विवाह विषयक रामानुजाचार्य (शरणांबपुत्र)
वासलक्ष्मीकल्याण वीरराघवशरणांब
(1) कनकवल्लीपरिणय
(2) वर्धिकन्यापरिणय नारायण (लक्ष्मीधरपुत्र) कमलाकंठीरव
कामाक्षी-वल्लभ यात्रा के निमित्त लिखित कुछ साहित्यिकों ने चन्द्रमा की कथा पर आधारित नाटक लिखे हैं: नाटककार नाटक
विशेष नारायण कवि
चन्द्रकला
xxx पह
232 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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नृसिंहकवि (शिवरामसुधीमणि का पुत्र) चन्द्रकलापरिणय
गंगाधर
रामचंद्र (तंजौर वासी)
श्रीनिवासकवि (वरददेशिक पुत्र) परितियूर रामस्वामी कृष्णशास्त्री
गुरुराम श्रीनिवास
मणिक (नेपाली कवि)
कृष्णदास (केरलीय)
हरिहर
रामभट्ट
गोकुलनाथ
जगज्ज्योतिर्मल्ल (भटगाव के राजा 17 वीं शती)
रामचंद्र (17 वीं शती, नेपालवासी)
रनखेट दीक्षित
परवस्तु वेंकट रंगनाथाचार्य
नीलकंठ दीक्षित (अप्पय्य दीक्षित का
भतीजा)
X
पंचांकी
चार अंकी
X
इसकी नायिका मदनावती एक शापित देवांगना
थी, उसका भैरव देवता से विवाह इसका विषय है।
कलावती - कामरूप
इसमें काशीनरेश कामरूप का कलावती से विवाह विषय है ।
भर्तृहरिनिर्वेद
विषय- राजा भर्तृहरि और
भानुमती की अद्भुत कथा ।
वसुमती और चित्रसेन के विवाह की कथा पर आधारित नाटक अप्पय्य दीक्षित, जगन्नाथ और एक अज्ञात कवि ने लिखे हैं ।
विशेष
जीवविबुद्ध रामचंद्र
नारायण
रुद्रदेव
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चन्द्रविलास
कलानंद और ऐन्दवानन्द अंबुजवल्लीकल्याण कौमुदीसोम
स्वेश्वरप्रसादन
नाटककार
रामचंद्र (12 वीं शती)
क्षेमीश्वर
सिद्धिवरसिंह (17 वीं शती में
नेपाल के नृपति)
हरिश्चन्द्र की सुप्रसिद्ध कथा पर आधारित ये उपरिनिर्दिष्ट तीन नाटक उल्लेखनीय हैं। कुवलयाश्व और मदालसा के आख्यान पर आधारित निम्नलिखित नाटक उल्लेखनीय हैं :
नाटककार
विशेष
लक्ष्मणमाणिक्य (भुलुया का राजपुत्र) कृष्णादत मैथिल
( पुरंजनचारित और सान्द्रकुतूहल नाटकों के रचयिता)
(1) सौम्यसोम
(2) हस्तिगिरिमाहात्म्य भैरवानन्द
नाटक
सत्यहरिश्चंद्र हरिन्द्रयशश्चन्द्रिका हरिद्रय
नाटक
कुवलयाश्व कुंबलयाश्वीय
मदालसा मदालसापरिणय
कुवलयाश्व
ललितकुवलाश्च
भैमीपरिणय
मंजुलनैषध, नलभूमिपालरूपक
नलचरित्र
पंचांकी
X
अष्टशंकी
पंचांकी
नलचरित्र विषयक नाटक
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x
X
X
सात अंकी
X
X
X
नलानंद
सप्तांकी
नलविलास
x
कलिविधूनम और शूरमयूर
दशांकी
ययाति और शर्मिष्ठा की पौराणिक कथा ने भी अनेक नाटकों को जन्म दिया है
:
ययातिचरित्र
सप्तांकी
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 233
Page #250
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वल्लीसहाय
ययाति देवयानीचरित
भट्ट श्रीनारायणशास्त्री
ययातितरुणानंद
शर्मिष्ठाविजय
चार अंकी
(कुंभकोणंनिवासी)
इसी लेखक के कालिविधूनन ( दशांकी), शूरमयूर ( सप्तांकी) और जैत्रजैवातृक ( सप्तांकी) ये तीन नाटक प्रसिद्ध हैं।
शठकोपयति (16 वीं शती में
अहोबिल मठ के आचार्य)
वेंकटेश्वर
अभी तक जिन विविध प्रकार के पौराणिक नाटकों का परिचय दिया है उनमें से बहुतांश नाटकों का विषय स्वयंवर या विवाह ही है। रस की, और उसमें भी शृंगार रस की प्रधानता, नाटकों में श्लाघनीय मानी जाने के कारण, नायक नायिका संबंध में संभाव्य रति स्थायी भाव के विभाव अनुभाव और व्यभिचारभाव का संयोग करने में प्रायः सभी संस्कृत नाटककारों में अपनी प्रतिभा का विनियोग किया है। इसी एकमात्र उद्दिष्ट से रामायण, महाभारत तथा अन्य पुराणों तथा बृहत्कथा में उपलब्ध विवाह एवं स्वयंवर विषयक आख्यान और उपाख्यान नाटककारों ने खोज खोज कर निकाले और उनके आधार पर अपनी प्रतिभा को पल्लवित किया है। इनके अतिरिक्त भी अनेक कल्पित विवाह विषयक कथाएं, शृंगार रस की निष्पत्ति के लिए नाट्यरूप में चित्रित की गई हैं
:
नाटककार
अप्पानाथ
(तंजौरवासी 18 वीं शती)
अप्पाशास्त्री
श्रीनिवासदास
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नाटक
कांतिमतीपरिणय
लवलीपरिणय
मरकतवल्लीपरिणय
कल्याणीपरिणय
सौगन्धिका परिणय सेवंतिकापरिणय
वासंतिकापरिणय
नीलापरिणय
-
X
-
234 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
विशेष पंचांकी
14 ऐतिहासिक नाटक
प्राचीन लेखकों को आज के समान इतिहास विषयक सामग्री उपलब्ध नहीं थी। अंग्रेजी राज की स्थापना के पश्चात् जितने इतिहास विषयक प्रबंध और चरित्र निर्माण हुए, उसके शतांश भी प्राचीन साहित्यिकों को उपलब्ध नहीं थे। भारत के विविध प्रदेशों में हुई महत्त्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाओं का भी ज्ञान अच्छे अच्छे विद्वानों को नहीं था 19 वीं शताब्दी तक भारत में ऐतिहासिक ज्ञान की दृष्टि से तमोयुग रहा ऐसा कहने में अत्युक्ति नहीं होगी और विद्वानों का अनादर भी नहीं होगा। इसी अभाव के कारण 90 प्रतिशत नाटक और अन्य साहित्य, पौराणिक आख्यान, उपाख्यानों पर आधारित रहा। इस परिस्थिति में भी कुछ ऐतिहासिक नाटक लिखने का कार्य जिन साहित्यिकों ने किया उन्हें सर्वथा अभिनन्दनीय मानना योग्य होगा । ऐतिहासिक नाटकों में विशेष उल्लेखनीय नाटक; प्रतापरुद्रकल्याण वरंगळ (आन्ध्र) के सुप्रसिद्ध काकतीय वंश के राजा प्रतापरुद्र (ई. 13 वीं शती) के सम्मानार्थ यह पंचांकी नाटक लिखा गया। इसके लेखक विद्यानाथ प्रतापरुद्र के आश्रित कवि थे ।
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X
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गंगादास प्रतापविलास विजयनगर के राजा मल्लिकार्जुन के मित्र चंपकपुर (चापनेर) के राजा गंगादास भूवल्लभ प्रतापदेव के आश्रित कवि गंगाधर ने "गंगादास - प्रताप विलास” नामक वीररसपूर्ण नाटक लिखा। इस नाटक का विषय है। गंगादास राजा का गुजरात के यवन राजा महंमद (दूसरा) (1443-52 ) से हुआ युद्ध । कवि स्वयं गुजराती थे।
x
नन्दिघोषविजय (अथवा कमलाविलास भगवान विष्णु की कथा से संबंधित प्रस्तुत नाटक में लेखक शिवनारायणदास
ने अपने आश्रयदाता गजपतिराज नरसिंहदेव (17 वीं शती का मध्य) का ऐतिहासिक पात्र प्रविष्ट किया है।
शृंगारमंजरी शाहराज तंजौर के नृपति शहाजी भोसले (17 वीं शती का उत्तरार्ध) के आश्रित पेरिअप्पा कवि ने अपने आश्रयदाता के सम्मानार्थ प्रस्तुत शृंगारप्रधान नाटक लिखा है।
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भोजराज सत्चरित वेदान्त वागीश भट्टाचार्य ने अपने आश्रयदाता, (जो हरिद्वार से मथुरा तक के वृन्दावती या वृन्दावनी नामक प्रदेश के राजा थे ) सूरिजान पुत्र भोजराज के सम्मानार्थ यह दो अंकों का नाटक लिखा है।
Page #251
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अद्भुतार्णव - नवद्वीप के राजा ईश्वर की राजसभा का वर्णन प्रस्तुत द्वादशांकी नाटक में कवि भूषण ने किया है।
अंग्रेजी साम्राज्य हिंदुस्थान में प्रस्थापित होने के बाद कुछ नाटक संस्कृत साहित्यिकों ने लिखे, जिन में परकीय आधिपत्य का प्रभाव दिखाई देता है। इन नाटकों का अंतर्भाव भी ऐतिहासिक नाटकों में हो सकता है :
कंपनी-प्रतापमण्डन - लेखक बिंदुमाधव जयसिंहाश्वमेधीय - सातवे एडवर्ड के राज्यारोहणनिमित्त मुडुम्ब नरसिंहाचार्य स्वामी ने यह नाटक लिखा। दिल्लीसाम्राज्य - पंचम जार्ज के दिल्ली दरबार के निमित्त लक्ष्मण सूरी ने इसकी रचना की।
ऐतिहासिक नाटकों का अभाव दूर करने का प्रयास 19 वीं शती से प्रारंभ हुआ जैसे सिद्धान्तवागीश के मिवारप्रताप, शिवाजीचरित, वंगीयप्रताप ये तीन नाटक।
जीवन्यायतीर्थ के शंकराचार्यवैभव, विवेकानन्दचरित, स्वातंत्र्यसंधिक्षण (प्रहसन) और स्वाधीनभारतविजयः।
मूलशंकर माणिकलाल याज्ञिक के प्रतापविजय, संयोगितास्वयंवर, और छत्रपतिसाम्राज्य (शिवाजी चरित्र विषयक) भारतविजय, शंकरविजय, वीर पृथ्वीराज, और गान्धीविजय ।
डॉ. वेंकटराम राघवन के प्रतापरुद्रविजय, विजयाङ्का, विकट-नितम्बा और अनारकली) श्रीमती लीलाराव दयाल के मीराचरित, तुकारामचरित, और ज्ञानेश्वरचरित ।
डा. यतीन्द्रविमल चौधरी के भारतविवेक, भारतराजेन्द्र, सुभाष सुभाष, देशबंधु देशप्रिय, रक्षकश्रीगौरक्ष, भारत- हृदयारविन्द, शक्तिसारद, मुक्तिसारद, अमरमीर, भारतलक्ष्मी और विमलयतीन्द्र। डा. रमा चौधरी (डा. यतीन्द्र विमल चौधरी की धर्मपत्नी) के शंकरशंकर, रामचरितमानस, भारतपथिक, भारताचार्य, अग्निवीणा, भारततात, (म. गांधीविषयक) और भारतवीर (शिवाजी विषयेक)।
वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य के गीतगौरांग और सिद्धार्थ चरित। श्रीराम भिकाजी वेलणकर के रानी दुर्गावती, स्वातंत्र्यलक्ष्मी, छत्रपति शिवराज और लोकमान्यस्मृति।
डा. श्रीधर भास्कर वर्णेकर के विवेकानन्दविजय और शिवराज्याभिषेक।
इन के अतिरिक्त सहस्रबुद्धे कृत अब्दुलमर्दन और प्रतीकार, रंगाचार्यकृत शिवाजीविजय और हर्षबाणभट्टीय, सत्यव्रतकृत महर्षि (दयानंद) चरितामृत, नीर्पाजे भीमभट्टकृत काश्मीरसन्धानसमुद्यम और हैदराबादविजय, के. रामरावकृत पौरव-दिग्विजय, डा. गजानन बालकृष्ण पळसुलेकृत धन्योऽहं धन्योऽहम् (वीरसावरकर विषयक), योगेन्द्रमोहनकृत संयुक्ता - पृथ्वीराज, विश्वनाथ केशव छत्रेकृत प्रतापशक्ति, सिद्धार्थप्रव्रजन, डा. बलदेवसिंह वर्माकृत हर्षदर्शन, विनायक बोकीलकृत शिववैभव और रमामाधव, रमाकान्त मिश्रकृत जवाहरलाल नेहरू विजय, हजारीलाल शर्मा कृत हकीकतराय, पद्मशास्त्री कृत बंगलादेश विजय और डा. रेवाप्रसाद द्विवेदी कृत काँग्रेसपराभव, इत्यादि आधुनिक लेखकों के ऐतिहासिक नाटकों की नामावली से, संस्कृत साहित्य क्षेत्र में दीर्घ काल तक जिन ऐतिहासिक विषयों के नाटकों का अभाव या, वह प्रायः समाप्त हो गया है, यह हम कह सकते हैं। भारत के प्राचीन और अर्वाचीन इतिहास में जिन महानुभावों के नाम अजरामर हुए हैं ऐसे अधिकांश श्रेष्ठ पुरुषों के चरित्रों पर आधारित ऐतिहासिक स्वरूप के नाटक अर्वाचीन कालखंड में लिखे गए और प्रायः उन सभी के प्रयोग भी यथावसर प्रस्तुत हो चुके हैं।
अर्वाचीन नाटककारों ने और भी एक विषेष कार्य किया है, और वह है भारत की अन्यान्य प्रादेशिक भाषाओं में लोकप्रिय हुए श्रेष्ठ नाटकों के संस्कृत अनुवाद। अनेक सुप्रसिद्ध अंग्रेजी नाटकों के भी अनुवाद विद्वान लेखकों ने किए हैं और उनके भी यथावसर प्रयोग प्रस्तुत हो चुके हैं।
15 नाटकोंका नाट्यशास्त्रीय वर्गीकरण अभी तक संस्कृत नाट्य वाङमय का विषयानुसार वर्गीकरण करते हुए संक्षिप्त परिचय दिया गया। प्राचीन शास्त्रकारों ने जिन दशविध रूपकों एवं अठारह प्रकार के उपरूपकों में नाट्य वाङ्मय का वर्गीकरण किया, उनमें से कुछ प्रमुख रूपकों का उल्लेख करना आवश्यक है। उपर्युक्त वर्गीकरण में नाटक, प्रकरण, नाटिका इस प्रकार के अनेक रूपकों का परिचय हो चुका है। अतः आगे अवशिष्ट रूपकप्रकारों में विशिष्ट रूपकों का निर्देश किया जा रहा है।।
ईहामृग :- कृष्ण मित्र कृत वीरविजय और कृष्ण अवधूत घटिकाशतक द्वारा विरचित सर्वविनोद । डिम :- रामविरचित मन्मथोन्मथन और वेंकटवरदकृत कृष्णविजय।
प्रहसन :- शंखधरकृत लटकमेलक- यह अतिप्राचीन प्रहसन माना जाता है। ज्योतिरीश्वर (16 वीं शती) कृत धूर्तसमागम, वाणीनाथ के पुत्र कवितार्कितकृत कौतुकरत्नाकर, सामराजकृत धूर्तनर्तक, महेश्वरकृत धूर्तविडंबन, बत्सराज-कृत हास्यचूडामणि, जगदीश्वर
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 235
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कृत हास्यार्णव, कविपंडित कृत हृदयगोविंद, भारद्वाजकृत कालेयकुतूहल, गोपीनाथ चक्रवर्ती कृत कौतुकसर्वस्व, सुंदरदेवकृत- विनोदरंग, शिव ज्योतिविदकृत मुंडितप्रहसन, कृष्णदत्तमैथिल कृत सांद्रकुतूहल, अरुणगिरिनाथकृत सोमवल्ली-योगानंद और कविसार्वभौमकृत डिंडिम इत्यादि विविध प्रहसनों में वेश्या और धूर्त लोगों का व्यभिचारमय जीवन चित्रित करते हुए हास्य रस निर्माण करने का प्रयत्न लेखकों ने किया है। संस्कृत वाङ्मय का आखाद लेने वाला बहुसंख्यांक वर्ग गंभीर प्रकृति का और उच्च, उदात्त अभिरुचि रखने वाला होने कारण, प्रहसन वाङ्मय और उनके प्रयोग समाज में लोकप्रिय नहीं हुए। आधुनिक नाटककारों ने हास्य रसात्मक रूपक निर्माण करने की और अपनी प्रवृत्ति दिखाई है।
उत्सृष्टिकांक (अथवा अंक) प्राचीन लेखकों ने रूपक के इस प्रकार की और विशेष ध्यान नहीं दिया। इस प्रकार के रूपकों में भास्कर कवि-कृत उन्मत्तराघव, लोकनाथ भट्ट का कृष्णाभ्युदय, हरिमोहन प्रामाणिक कृत कमलाकरुणविलास, महेश पंडितकृत स्वर्णमुक्तासंवाद, राजवर्मबालकविकृत गैर्वाणीविजय, वरदराजपुत्र स्नुषाविजय व सुंदरराजकृत वैदर्भी-वासुदेव इन कृतियों की प्रधानता से गणना होती है।
व्यायोग - इस रूपक प्रकार में भासकृत मध्यमव्यायोग सुप्रसिद्ध है। अन्य सुप्रसिद्ध व्यायोगों में काकतीय प्रतापपरुद्र (13-14 वीं शती) के आश्रित कवि विश्वनाथ का सौगंधिकाहरण (महाभारत के भीम-हनुमान युद्धप्रसंग पर आधारित), नारायणपुत्र कांचनाचार्य का धनंजयविजय, मोक्षादित्य का भीमविक्रम, रामचन्द्र का निर्भयभीम इत्यादि महाभारत के आख्यानों से संबंधित व्यायोग उल्लेखनीय हैं। कृष्णचरित्र से संबंधित व्यायोगों में रामचंद्र बल्लाळकृत कृष्णविजय, पर्वतेश्वर पुत्र धर्मसूरिकृत नरकासुरविजय
और रामकथा से संबंधित भागवत लक्ष्मणशास्त्री कृत रामविजय उल्लेखनीय हैं। गरुडाख्यान विषयक दो आयोग प्रसिद्ध हैं (1) वाराणसी के कवि गोविंद (यज्ञेश्वर के पुत्र) का विनतानंद और एक अज्ञात कवि का प्रचंडगरूड।
भाण :- यह रूपक का प्राचीन प्रकार है, परंतु उपलब्ध भाणवाङ्मय अर्वाचीन है और वह भी प्रायः दाक्षिणात्य साहित्यिकों ने लिखा हुआ है। विशेष उल्लेखनीय भाण :लेखक
भाण वामन भट्टबाण (14-15 वीं शती)
शृंगारभूषण रामभद्र दीक्षित (18 वीं शती तंजौर निवासी)
शृंगारतिलक अथवा अय्याभाण अम्मलाचार्य (वैष्णवाचार्य)
(1) वसंततिलका अथवा अम्मातिलकभाण
और (2) चौलभाण नल्लकवि -
शृंगारसर्वस्व. युवराज (केरलवासी)
रससदन. वरदाचार्य
अनंगसंजीवन. वरदाचार्य (अथवा वरदार्य)
अनंग-ब्रह्मविद्याविलास. लक्ष्मीनरसिंह
अनंगसर्वस्व. जगन्नाथ (श्रीनिवासपुत्र)
अनंगविजय. गोविंद (पिता- भट्टरंगाचार्य)
गोपलीलार्णव. हरिदास
हरिविलास. व्यंकप्पा
कामविलास. वेंकटकवि (कांचीवासी)
कंदर्पदर्पण. श्रीकंठ (अभिनव कालिदास का पुत्र)
कंदर्पदर्पण. धनगुरुवर्य (वरदगुरुपुत्र)
कंदर्पविजय, रामचंद्र दीक्षित
केरलाभरण. गुरुराम
मदनगोपाल-विलास. श्रीकंठ (अन्यनाम- नंजेंद्र) (पिता शामैयाय)
मदन महोत्सव. घनश्याम
मदनसंजीवन पुरवनम्
मालमंगल. (महिषमंगल) रंगाचार्य
पंचबाणविजय. त्रिविक्रम
पंचायुधप्रपंच. चोक्कनाथ
रसविलास.
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236 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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वेंकट ( पिता - वेदान्तदेशिक) शंकरनारायण श्रीनिवास
श्रीनिवास वेदान्ताचार्य रंगनाथ महादेशिक
श्रीनिवास (वरदाचार्य पुत्र) रामचंद्र विजिमूर राघवाचार्य
गीर्वाणेन्द्र (पिता- नीलकंठ दीक्षित)
काश्यप (अभिनव कालिदास)
गोपालराय
वैद्यनाथ (पिता- कृष्णकवि)
अविनाशीश्वर
राजचूडामणि दीक्षित
नृसिंह (मदुरानिवासी)
रामव युवराज
कोरड रामचंद्र
रामभद्र
वेंकटाचार्य (सुरपुरवासी)
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रसिकजनरसोल्लास. रसिकामृत. रसिकरंजन.
रसोल्लास
संपतकुमार विलास. (अथवा माधवभूषण)
शारदानंदन.
सरसकविकुलानंद,
शृंगारदीपक. शृंगारकोश. संगार कोश.
शृंगारमंजरी (श्रीरंगराज)
शृंगार पावन.
शृंगारसर्वस्व
शृंगारसर्वस्व.
शृंगारस्तबक
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शृंगार सुधाकर. शृंगारसुधार्णव.
शृंगारतरंगिणी
शृंगारतरंगिणी
इनके अतिरिक्त कुछ अप्रसिद्ध लेखकों के भाण :- चंद्ररेखाविलास, कुसुमकल्याणविलास, मदनभूषण, पंचबाणविलास, शृंगारचन्द्रिका और शृंगारजीवन ।
भाणों की इस नामावली में निर्दिष्ट नामों से इनके अंतरंग का शृंगारिक तथा कामप्रधान स्वरूप ध्यान में आ सकता है। अनेक भाणों से संकलित की गई कथावस्तु में कुक्कुटयुद्ध, अजयुद्ध, मल्लयुद्ध, सपेरों एवं जादुगरों के खेल, उन्मत्त हाथी के कारण भगदड़, वेश्याओं की बस्तियों का कामुक वातावरण, व्यभिचारी युवक वर्ग, इस प्रकार के दृश्य चित्रित किए हैं। सामान्य रसिकों के मनोरंजन में ऐसे दृश्य सहायक होने के कारण भाण रूपक लिखने में अच्छे ख्यातनाम साहित्यिकों ने भी रुचि दिखाई है
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मिश्रभाण :- इस रूपक प्रकार का निर्देश, शाहूदेव कृत संगीतरत्नाकर (13 वीं शती) की काशीपति कविराज कृत टीका में किया हुआ है। इसी कविराज ने मुकुंदानंद नामक मिश्रभाण लिखा है। रामसुकविशेखर (अथवा लिंगमगुंटराम) का शृंगाररसोदय भी मिश्र भाग है। मुकुंदानंद में नायक भुजंगशेखर कृष्णरूपी होकर गोपियों से क्रीडा करता है। इस प्रकार एक ही पात्र की दो भूमिका के कारण इस रूपक को "मिश्रभाण" संज्ञा दी गई होगी।
कुछ नाट्यशास्त्रियों ने "भाणिका" नामक एक रूपक प्रकार माना है। रूपगोस्वामी की दानकेलिकौमुदी भाणिका मानी जाती है। साहित्यदर्पण में निर्दिष्ट श्रीगदित नामक उपरूपक प्रकार के अंतर्गत माधवकृत सुभद्राहरण की गणना की जाती है।
16 संस्कृत नाट्य का सर्वात्रिक प्रभाव
प्राचीन काल में भारत ने बाहर के देशों में अनेक क्षेत्रों में सांस्कृतिक योगदान दिया है रामायण, महाभारत और बौद्ध कथाओं तथा पंचतंत्र की राजनीतिक कथाओं का बाह्य देशों में मध्ययुग में प्रचार हुआ था। पूर्व और मध्य एशिया के अनेक राष्ट्रों में इन के अनुवाद योजनापूर्वक करवाए गए। जावा में 11 वीं शताब्दी से पहले ही नाट्यकला का विकास हुआ था । विशेषतः छायानाटकों के प्रयोग उस देश में विविध प्रकारों से प्रदर्शित होते है उनमें "व्यंग पूर्वा" नामक छायानाटकों के संविधानक, रामायण, महाभारत और उस देश के मनिकमय नामक ग्रंथों के आख्यानों पर आधारित होते है । जावानी नाटकों में भारतीय नाटकों का "सूत्रधार" "दलंग" नाम से पहचाना जाता है। "दलंग" शब्द का अर्थ है सूत्र हिलाने वाला ।
1
मलाया, ब्रह्मदेश, सयाम और कांबोडिया में, रामचरित्र परक नाटकों के प्रयोग आज भी लोकप्रिय हैं। इन सभी पौरस्त्य देशों में छायानाटक विशेष प्रचलित हैं। संस्कृत वाङ्मय में एकमात्र "दूतांगद" छाया नाटक प्रसिद्ध है। इससे यह अनुमान किया जा सकता है कि यह प्रयोग प्रकार उन देशों के संपर्क के कारण भारत में प्रचलित हुआ परंतु वह यहां सर्वत्र लोकप्रिय नहीं हो सका। चीन में बौद्ध धर्म के प्रचार के कारण वहां की नाट्यसृष्टि में भी अहिंसादिक बौद्ध सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले धार्मिक नाट्यमंच निर्माण हुए।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 237
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मुसलमानी शासन के प्रदीर्घ काल में भारत की नाट्यकला केवल दक्षिण में जीवित सी थी। सर विल्यम जोन्स को भारतीय नाटक का परिचय संस्कृत नाटकों का वाचन करने से हो सका। प्रत्यक्ष प्रयोग वे देख नहीं सके। नाट्यग्रंथों के वाचन से नाटक याने ड्रामा यह अर्थ उनकी समझ में आ सका।
उर्दू नाटकों का प्रारंभ मुगल सल्तनत् समाप्त होने के बाद होता है। उस भाषा के रसिकों ने अपने निजी विषयों के अतिरिक्त, नलदमयंती, वीर अभिमन्यु, रुक्मिणीविवाह, गंगावतरण, राजा भर्तृहरि, रामायण-महाभारत के आख्यान आदि संस्कृत विषयों पर नाटक निर्माण किये और उनमें से कुछ लोकप्रिय हुए।
महाराष्ट्र में 1841 से नाट्य संस्था का उद्गम सांगली राज्य के अधिपति श्रीमंत आप्पासाहेब पटवर्धन और उनके आश्रित लेखक श्री विष्णुदासजी भावे के प्रयत्नों से हुआ। इससे पहले मराठी में नाटक नहीं थे। श्री विष्णुदास भावेजी का पहला नाटक था सीतास्वयंवर। उनके अन्य सभी नाटक पौराणिक आख्यानों पर आश्रित है। प्रारंभिक मराठी नाटकों की निम्न लिखित नामावली से संस्कृत साहित्य के प्रभाव की कल्पना आ सकती है -
__मराठी नाटक :- सुभद्राहरण, वत्सलाहरण, सीताहरण, कीचकवध, दुःशासनवध, वृत्रासुरवध, रावणवध, दक्षप्रजापतियज्ञ, कच-देवयानी, सुरत-सुधन्वा, बाणासुरवध, रासक्रीडा, नरनारायणचरित्र, कौरव पाण्डव युद्ध, किरातार्जुन युद्ध, इन्द्रजितवध, हरिश्चन्द्र इत्यादि। इन संस्कृत आख्यानोपजीवी नाटकों के अतिरिक्त शाकुन्तल, उत्तररामचरित प्रसन्नराघव इत्यादि उत्कृष्ट संस्कृत नाटकों के अनुवादों ने मराठी नाट्यवाङ्मय का पोषण किया है।
हिंदी में वाराणसी के बाबू हरिश्चन्द्र से जो नाट्य वाङ्मय की परम्परा निर्माण हुई उसमें, संस्कृत-आख्यानोपजीवी नाटकों की संख्या पर्याप्त मात्रा में बड़ी है। भारत के सभी प्रादेशिक भाषाओं के साहित्येतिहास अब प्रकाशित हो चुके हैं। उन सभी भाषाओं के नाट्य वाङ्मय के प्रारंभिक काल में संस्कृत आख्यानों एवं नाट्य ग्रन्थों का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है।
17 अर्वाचीन संस्कृत नाटक प्रादेशिक भाषाओं में नाटक वाङ्मय की निर्मिति का प्रारंभ 19 वीं शती में हुआ। संस्कृत की नाट्य वाङ्मय परम्परा अति प्राचीन काल से अखिल भारत में अखंड चालू रही। नाट्य ग्रंथों की निर्मिति (और उन नाट्यों के प्रयोग) संस्कृत जगत् में कभी बंद नहीं रही। कराल काल के प्रभाव से अभी तक कितने नाटकों का विलय हुआ यह कहना असंभव है। फिर भी आज जितना नाट्य वाङ्मय उपलब्ध है उसमें निर्मिति का कार्य सतत दिखाई देता है। पाश्चात्य विद्वानों ने संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लेने वाले अपने ग्रंथों में 16 वीं शताब्दी के बाद की संस्कृत साहित्य की निर्मिति की और ध्यान न देते हुए, उस वाङ्मय प्रवाह को खंडित मान कर, संस्कृत को "मृत" कहने का दुस्साहस किया। परंतु उस 16 वीं शताब्दी के बाद जो विपुल वाङ्मय सभी विषयों में संस्कृत के विद्वानों ने निर्माण किया, उसमें नाट्य ग्रंथों का प्रमाण भरपूर है। प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश में अनेक आधुनिक नाटकों एव नाटकलेखकों का परिचय यथाक्रम दिया है। इन आधुनिक नाटकों में कालिदास, भवभूति वाङ्मय के अध्ययन के कारण, उस नवीन पद्धति का अनुसरण तथा पाश्चात्य नाट्यवाङ्मय के अध्ययन के कारण, उस नवीन पद्धति का भी अनुकरण अनेक लेखकों ने किया है। इस आधुनिक कालखंड में पचास से अधिक प्रतिभासंपन्न नाटककार और उनके द्वारा लिखित सवासौ से अधिक उत्कृष्ट नाट्य ग्रंथों का प्रणयन हुआ है। मध्यम और निकृष्ट श्रेणी की रचनाओं को ध्यान में लेते हुए यह संख्या काफी बड़ी होती है। प्रादेशिक भाषाओं के अर्वाचीन नाट्यवाङ्मय में, देशकाल परिस्थिति के प्रभाव के कारण, जितनी विविधता निर्माण हुई, उतनी आधुनिक संस्कृत नाट्य वाङ्मय में भी दिखाई देती है। दुर्भाग्य यही है की आज की विशिष्ट परिस्थिति में, अनेक कारणों से संस्कृत भाषा और संस्कृत विद्या का मौलिक अध्ययन करने वालों की संख्या में सर्वत्र हास होने के कारण, संस्कृत साहित्यिकों के इस कर्तृत्व की ओर शिक्षित वर्ग का भी ध्यान नहीं है।
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प्रकरण-12 "ललित वाङ्मय"
1 प्रास्ताविक रामायण, महाभारत और पुराण वाङ्मय के आख्यान-उपाख्यानों की रोचकता तथा रसात्मकता की अपूर्वता से प्रतिभासम्पन्न विद्वान साहित्यिक अतिप्राचीन काल से प्रभावित होते रहे। इस प्राचीन इतिहास-पुराणात्मक वाङ्मय का दृढ परिशीलन तथा व्याकरण, छन्दःशास्त्र, धर्मशास्त्र, राजनीतिशास्त्र, कामशास्त्र, अध्यात्मविद्या का महान अध्ययन, कथा-आख्यायिकाओं का पठन-श्रवण तथा लौकिक जीवन का सूक्ष्म अवलोकन इत्यादि के संस्कार से जिन की प्रतिभा पल्लवित हुई ऐसे लेखकों ने रस-रीति-अलंकार निष्ठ रमणीय पद्धति की रचना करने की प्रथा शुरू की। इस प्रकार की मधुर रचना का प्रारंभ किस काल में हुआ यह एक विवाद्य प्रश्न है। वास्तव में वेदों की "नारांशसी" गाथाओं तथा कुछ कथाओं एवं आख्यानों में रोचक या चित्ताकर्षक वाङ्मय का मूल स्रोत दिखाई देता है। पुराणों के अनेक आख्यानों, उपाख्यानों में उस रोचकता या रमणीयता का विकास हुआ। रामायण
और महाभारत प्रमुखतया इतिहासात्मक होते हुए भी उनके वर्णनों एवं संवादों में यह वाङ्मयीन रमणीयता का अंश इतनी मात्रा में विकसित हुआ है कि रामायण को आदिकाव्य माना गया और महाभारत को समस्त कविवरों का उपजीव्य आख्यान माना गया। वास्तव में समग्र पुराण वाङ्मय और रामायण, महाभारत तथा (पुराणान्तर्गत) श्रीमद्भागवत संस्कृत भाषा के प्रसन्न, मधुर एवं ओजस्वी, रसात्मक, अलंकारप्रचुर वाङ्मय के उपजीव्य ग्रंथ है। इस प्रकार के शब्द एवं अर्थ की विचित्रता तथा व्यंजकता से ओतप्रोत वाङ्मय को ही "ललित वाङ्मय" संज्ञा दी है। इस ललित वाङ्मय के गद्य, पद्य, महाकाव्य, खंडकाव्य, चम्पू, दूतकाव्य, स्तोत्रकाव्य, नाटकादि रूपक प्रकार, कथा, आख्यायिका इत्यादि अवांतर भेद माने गये हैं। इस ललित वाङ्मय को ही "साहित्य" संज्ञा दी गयी है। .
साहित्य शब्द "सहित" से बना है। इसमें शब्द और अर्थ का सहितत्व अथवा सहभाव अपेक्षित है। दर्शन, शास्त्र, विज्ञान जैसे विषयों के अतिरिक्त, रागात्मक, रसात्मक, तथा कल्पनात्मक रमणीय रचना को ही “साहित्य" कहते हैं। इस प्रकार के लक्ष्य ग्रन्थों का विवेचन करने वाले, भरत भामह, दण्डी, आनंदवर्धन आदि मनीषियों के ग्रंथ "साहित्यशास्त्र" के अन्तर्गत आते हैं और इस प्रकार की शास्त्रानुकूल रचना करने वाले कवि, नाटककार, चम्पूकार आदि लेखक "साहित्यिक" या "साहित्याचार्य" माने जाते हैं। अंग्रजी में लिटरेचर" और उर्दू में "अदब" शब्द साहित्य के अर्थ को धोतित करते हैं। संस्कृत भाषा में "साहित्य" शब्द के अर्थ में सामान्यतः काव्य शब्द का प्रयोग होता है। आचार्य भामह ने (ई.6 श.) "शब्दार्थों सहितौ काव्यम्--" इस अपनी काव्यव्याख्या में साहित्य और काव्य शब्द की समानार्थकता सूचित की है। पंडितराज जगन्नाथ की "रमणीयार्थप्रतिवादकः शब्दः काव्यम्" "इस काव्य व्याख्या में भी शब्द और अर्थ की रमणीयता का सहितत्व (साहित्य) अध्याहत है। मम्मट (ई. 12 वीं शती) की "तददोषौ शब्दार्थों सगुणावनलंकृती पुनः क्वापि" इस सुप्रसिद्ध काव्यव्याख्या में, आचार्य हेमचंद्र की "अदोषौ सगुणौ सालंकारौ च शब्दार्थों काव्यम्" इस व्याख्या में और वाग्भट (ई. 12 वीं शती) की शब्दार्थों निर्दोषौ सगुणौ प्रायः सालंकारौ काव्यम्" इस व्याख्या में निर्दोष, गुणयुक्त तथा अलंकारनिष्ठ शब्द और अर्थ के सहितत्व को ही काव्य कहा है, जिस का स्पष्ट अर्थ यही होता है कि साहित्य और काव्य दोनों शब्द प्रायः समानार्थक हैं।
साहित्यशास्त्रियों ने काव्य का वर्गीकरण अनेक प्रकारों से किया है। उसमें रचना की दृष्टि से "श्राव्य" और दृश्य"नामक दो प्रकार प्रमुख माने जाते हैं। श्राव्य काव्य के तीन भेद होते है :- गद्य, पद्य और मिश्र। गद्य काव्य छन्दों के बन्धनों से मुक्त होता है। फिर भी उसके अपने कुछ आवश्यक नियम होते हैं। गद्य काव्य के "कथा" (कल्पितवृत्तान्त) और "आख्यायिका" (ऐतिहासिक वृत्तान्त) नामक दो प्रमुख भेद होते हैं। कथा का उदाहरण है बाणभट्ट की कादम्बरी और आख्यायिका" का, उसी महाकवि की दूसरी रचना हर्षचरित ।
पद्य याने छन्दोबद्ध रचना। इस के दो भेद होते हैं :- (1) प्रबन्ध काव्य और (2) मुक्तक काव्य। "पूर्वापरार्थधटनै. प्रबन्धः" इस लक्षण के अनुसार पूर्वापर संबंध निर्वाहपूर्वक कथात्मक रचना को "प्रबन्ध" काव्य कहते है। मुक्तक काव्य के पद्य स्वतःपूर्ण होते हैं। स्फुट सुभाषितों एवं स्तोत्रों का स्वरूप मुक्तकात्मक होता है। प्रबन्धकाव्य के दो प्रकार माने जाते हैं :
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1) महाकाव्य और (2) कथाकाव्य। महाकाव्य का सविस्तर लक्षण विश्वनाथ ने अपने साहित्य दर्पण में बताया है :
"सर्गबन्धो महाकाव्यं तत्रैको नायकः सुरः। सवंशः क्षत्रियो वाऽपि धीरोदात्त-गुणान्वितः ।।
एकवंशभवा भूपाः कुलजा बहवोऽपि वा। शृंगारवीरशान्तानाम् एकोऽङ्गी रस इष्यते ।। अंगानि सर्वेऽपि रसाः सर्वे नाटकसन्धयः। इतिहासोद्भवं वृत्तम् अन्यद् वा सज्जनाश्रयम्।। चत्वारस्तस्य वर्गाः स्युः तेष्वेकं च फलं भवेत्। आदौ नमस्क्रियाशीर्व। वस्तुनिर्देश एव वा।।
क्वचिनिन्दा खलादीनां सतां च गुणकीर्तनम्। एकवृत्तमयैः पद्यैः अवसानेऽन्यवृत्तकैः ।। नातिस्वल्पा नातिदीर्घा सर्गा अष्टाधिका इह। नानावृत्तमयः क्वापि सर्गः कश्चन दृश्यते।। सर्गान्ते भाविसर्गस्य कथायाः सूचनं भवेत्। सन्ध्या-सूर्येन्दु-रजनी-प्रदोष-ध्वान्तवासराः ।।
प्रातर्मध्याह्नमृगया शैलर्तुवनसागराः। सम्भोग-विप्रलम्भौ च मुनिस्वर्गपुराध्वराः ।। रणप्रयाणोपयम-मन्त्रपुत्रोदयास्तथा। वर्णनीया यथायोगं साङ्यपोपाङ्गा अमी इह ।। कवेत्तस्य वा नाम्ना नायकस्येतरस्य वा। नामास्य स्यादुपादेयकथाया सर्गनाम तु ।।
(साहित्यदर्पण - 4-315-25) साहित्यदर्पण का यह महाकाव्य-लक्षण सर्वमान्य हो चुका है। यह लक्षण कालिदास, भारवि, माघ इत्यादि प्राचीन महाकवियों के प्रख्यात महाकाव्यों को लक्ष्य रख कर लिखा गया है। इस लक्षण-श्लोकावली के अनुसार महाकाव्य का स्वरूप निम्न प्रकार होना चाहिए:
(1) उसका विभाजन सर्गों में होना चाहिए। (2) उसका नायक धीरोदात्त गुणयुक्त कुलीन श्रत्रिय या देवता या एक वंश के अनेक राजा हो। (3) शृंगार, वीर या शान्त अङ्गी रस और अन्य सभी रस अङ्गभूत हों। (4) नाटक के पांचों सन्धियों में कथानक का विभाजन हो। (5) उस का वृत्तान्त ऐतिहासिक या किसी सत्पुरुषों के चरित्र से संबंधित हो। (6) प्रारंभ में नमन, आशीर्वाद, दुर्जननिंदा, सुजनस्तुति हो। (7) उसमें चतुर्विध पुरुषार्घ का प्रतिपादन हो। (8) सर्ग में एक ही वृत्त हो किन्तु अन्त में भिन्न वृत्त में श्लोकरचना हो। सर्गों की संख्या 8 से अधिक हो और उनका विस्तार समुचित हो। किसी एक सर्ग में नाना प्रकार के वृत्तों में श्लोकरचना हो। सर्ग के अन्त में भावी कथा की सूचना हो। (9) निसर्गसौंदर्य तथा नगर, आश्रम, मृगया, युद्ध, शृंगारचेष्टा आदि के वर्णन यथास्थान अवश्य हो। (10) महाकाव्य का नाम कविनाम, नायकनाम इत्यादि से संबंधित हो। सर्ग का नाम, उसमें वर्णित घटना के अनुरूप हो। इसी प्रकार का महाकाव्य का लक्षण दण्डी ने अपने काव्यादर्श में कर रखा है जो प्रस्तुत लक्षण से मिलता जुलता एवं संक्षिप्त है।
___ संस्कृत वाङ्मय में कालिदासकृत रघुवंश, कुमारसंभव, भारविकृत किरातार्जुनीय, माघकृत शिशुपालवध, और श्रीहर्षकृत नैषधचरित, ये "पंच महाकाव्य" सर्वश्रेष्ठ माने जाते है। इनमें उत्कृष्ट कवित्व और श्रेष्ठ पाण्डित्य, दोंनों गुणों का प्रकर्ष दिखाई देता है, अतः इन्हींका अध्ययन प्रायः सर्वत्र होता आ रहा है।
2 महाकाव्य इन सुप्रसिद्ध पंच महाकाव्यों के अतिरिक्त महाकाव्य लक्षणानुसार लिखे गये महाकाव्यों की संख्या बहुत बडी है। इस विभाग के अन्यान्य प्रकरणों में संदर्भानुसार उनका उल्लेख हुआ है। अतः यहां उनकी सूची देने की आवश्यकता नहीं है। महाकाव्यों की परंपरा प्रायः पाणिनि कृत पातालविजय या जाम्बवतीजय महाकाव्य से मानी जाती है। वैयाकरण पाणिनि और महाकवि पाणिनि को डॉ. भांडारकर, पीटरसन, आदि विद्वान विभिन्न मानते हैं, किन्तु डॉ. ओफ्रेक्ट तथा डॉ. पिशेल दोनों में अभेद मानते हैं। पंतजलि ने अपने व्याकरण-महाभाष्य में वररुचि-(वार्तिककार कात्यायन का नामान्तर) कृत काव्य (वाररुचं काव्यम्) का तथा वासवदत्ता, सुमनोहरा, भैमरथी नामक गद्य आख्यायिकों का (जो अनुपलब्ध है) उल्लेख किया हैं। पिंगलमुनि के छन्दःसूत्रों में जिन लौकिक छन्दों का विवरण हुआ है, उनके नामों की काव्यात्मकता एवं शृंगारात्मकता की ओर संकेत करते हुए डॉ. याकोबी ने संस्कृत काव्यों में उनका प्रयोग विक्रमपूर्व शताब्दियों में माना है। इन प्रमाणों के आधार पर संस्कृत भाषा के सरस एवं सालंकृत ललितवाङ्मय का अथवा काव्यों का उदय विक्रमपूर्व शताब्दियों में माना जाता है। महाकाव्यों की यह परंपरा आज की 20 वीं शताब्दी तक अखंडित रूप से चल रही है। वह कभी भी खंडित नहीं हुई। पाश्चात्य समीक्षाशास्त्रियों ने महाकाव्य के दो रूप स्वीकृत किए हैं :
1) संकलनात्मक महाकाव्य (एपिक ऑफ ग्रोथ) और 2) अलंकृत महाकाव्य (एपिक ऑफ आर्ट) रामायण और महाभारत को उन्होंने संकलनात्मक महाकाव्य माना है जिन्हें (उनके मतानुसार) समय समय पर विद्वानों ने परिवर्धित किया है। अर्थात वे इन महाकाव्यों को एककर्तृक नहीं मानते। अलंकृत महाकाव्यों का प्रादुर्भाव रामायण- महाभारत के पश्चात् ही हुआ
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और इन पर उनका प्रभाव दिखाई देता है। संस्कृत के ललित वाङ्मय में, अलंकृत महाकाव्यों का ही प्रवाह अखंडित चल रहा है और इस प्रकार के काव्यों की संख्या भरपूर है। अलंकृत काव्यों में बहुसंख्य काव्य पौराणिक विषयों पर आधारित है। ऐतिहासिक काव्यों की संख्या उनसे कम है। तीसरे शास्त्रीय महाकाव्य हैं जिनमें काव्यशास्त्रियों द्वारा प्रणीत शास्त्रों के नियमों का शत-प्रतिशत पालन करने का प्रयास होता है और इस प्रयास के कारण उसमें कथावस्तु को गौणत्व और अलंकार तथा पाण्डित्यप्रदर्शन को प्राधान्य मिलता है। भारविकृत किरातार्जुनीय, माधकृत शिशुपालनवध, श्रीहर्षकृत नैपधीय, वस्तुपालकृत नरनारायणानन्द आदि इस प्रकार के उदाहरण हैं । महाकाव्यों में पाण्डित्यप्रदर्शन करने की एक स्पर्धा सी संस्कृत साहित्यिकों में चलती रही।
इस स्पर्धा में सुबन्धु ने वासवदत्ता नामक "प्रत्यक्षर-श्लेषमयः प्रबन्धः “लिख कर जो पांडित्यपूर्ण कवित्व का आदर्श प्रस्थापित किया, उसका अनुसरण करते हुए अपने काव्यग्रन्थों में विविध प्रकार की क्लिष्टता निर्माण करने वाले साहित्यिकों की एक पृथक् परंपरा प्रचलित हुई। 12 वीं शताब्दी में कविराज ने राघव-पाण्डवीय नामक द्वयर्थी काव्य (जिस में रामायण और भारत की कथा श्लेष के आधार पर एकत्र रची हुई है।), लिख कर "संधान" (या अनेकार्थक) काव्य की प्रथा शुरू की। एक अर्थ के अनेक पर्यायवाची शब्द और एक शब्द के अनेक वस्तुवाचक अर्थ, संस्कृत भाषा के कोष में भरपूर मात्रा में मिलते हैं। संस्कृत शब्दों की इस विशेषता का स्वच्छंद उपयोग करने की शक्ति जिन कवियों में रही उन्होंने इस प्रकार के "संधान" काव्यों की रचना की।
इस परंपरा में उल्लेखनीय काव्य :नाभेय नेमिद्विसंधान काव्य :- ले-सुराचार्य। ई. 12 वीं शती। इसमें नेमिनाथ और ऋषभदेव की कथाएं एकत्रित की हैं। इस प्रकार का अज्ञातकर्तृक और भी एक काव्य उपलब्ध है। कुमारविहार प्रशस्तिकाव्य :- ले. हेमचंद्र के शिष्य वर्धमान गणि। इस काव्य में कुमारपाल, हेमचंद्राचार्य और वाग्भट मंत्री के संबंध में विविध अर्थ निकलते हैं। इस काव्य के 87 वें पद्य के 116 अर्थ निकाले गये हैं। शतार्थिक काव्य :- ले. सोमप्रभाचार्य (वर्धमानगणि के समकालिक)। यह काव्य याने एक मात्र पद्य है, जिससे "स्वयं कवि ने अपनी टीका में 106 अर्थ निकाले हैं, जिनमें 24 तीर्थंकर, ब्रह्मा, विष्णु, महेश, तथा चालुक्य नृपति जयसिंह, कुमारपाल, अजयपाल आदि के संबंध में अर्थ निकलते हैं। अष्टलक्षी :- ले. समयसुन्दर। ई. 16 वीं शती। चतुःसन्धान काव्यः- ले. मनोहर और शोभन । सप्तसन्धानकाव्य :- ले. जगन्नाथ। चतुर्विशतिसंधानः :- ले. जगन्नाथ। इसके एक ही श्लोक से 24 तीर्थंकरों का अर्थबोध होता है। सप्तसंन्धान काव्य :- ले. मेघविजय गणि। ई.18 वीं शती। सर्ग-9। प्रत्येक श्लेषमय पद्य से ऋषभ, शान्ति, नेमि, पार्श्व और महावीर इन तीर्थंकरों एवं राम और कृष्ण इन सात महापुरुषों के चरित्र का अर्थ निकलता है। यादवराघवीयम् :- ले. वेंकटध्वरी (विश्वगुणादर्शचम्पूकार) ई.17 वीं शती। राघव-यादव-पाण्डवीयम् (त्रिसंधान काव्य) : ले. चिदम्बर कवि। ई. 17 वीं शती। इस काव्य पर कवि के पिता अनन्तनारायण ने टीका लिखी है। पंचकल्याणचम्पू : ले. चिदम्बर कवि । इसमें राम, कृष्ण, विष्णु, शिव और सुब्रह्मण्य इन पाच देवताओं के विवाहोत्सवों का वर्णन मिलता है। भागवतचम्पू : चिदम्बर कवि । यादव-राघव-पाण्डवीयम् : ले. अनन्ताचार्य। उदयेन्द्रपुर (कर्नाटक) के निवासी। राघवनैषधीयम् : ले. जयशंकरपुत्र हरदत्त । ई. 18 वीं शती। सर्ग 2। कवि ने स्वयं टीका लिखी है। यादव-राघवीयम् : ले. नरहरि । नैषधपारिजातम् : ले. कृष्ण (अय्या) दीक्षित। विषय : नलकथा और भागवत की पारिजातहरण कथा। . कोसल-भोसलीयम् : ले. शेषाचलकवि। सर्ग : 61 प्रस्तुत काव्य में तंजौर नरेश शहाजि (एकोजी का पुत्र) और प्रभु रामचंद्र का चरित्र मिलता है। अबोधाकरम् : ले. तंजौर के तुकोजी भोसले का मंत्री घनश्याम। इसमें नल, कृष्ण और हरिश्चन्द्र के चरित्र मिलते हैं। इसी घनश्याम कवि ने कलिदूषणम् नामक संधान काव्य लिखा है जिसमें संस्कृत और प्राकृत भाषा में अर्थ मिलते हैं। घनश्याम ने प्रचण्डराहूदय नामक लाक्षणिक नाटक भी लिखा है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 241
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कंकणबन्धरामायण : ले. कृष्णमूर्ति । ई. 19 वीं शती । इस एक अनुष्ठभ् श्लोकात्मक रामायण में 64 अर्थ मिलते हैं। यह श्लोक कंकणाकृति या मंडलाकार लिखा जाता है, और सव्य तथा अपसव्य दिशा से पढ़ा जाता है। इसी प्रकारका कंकणबन्ध रामायण चारला भाष्यकार नामक कवि ने (ई. 20 वीं शती) लिखा है। निवासस्थान: काकरपर्ती (कृष्णा ज़िला आंध्र प्रदेश) ।
जैन स्तोत्र साहित्य में इसी अनेकार्थक पद्धति से रचित कुछ स्तोत्र उपलब्ध हैं।
नवखंड पार्श्वस्तव : ले. ज्ञानसूरि । विविधार्थमय सर्वज्ञस्तोत्र : ले. सोमतिलकसूरि । नवग्रहगर्भितपार्श्वस्तवन : ले. राजशेखरसूरि । पंचतीर्थीस्तुति: ले. मेघविजय । द्वयर्थकर्ण पार्श्वस्तव : ले. समयसुन्दर । इत्यादि । (प्राचीन साहित्योद्धार ग्रन्थावली ( अहमदाबाद ) द्वारा प्रकाशित अनेकार्थ साहित्य संग्रह नामक ग्रंथ में इस प्रकार के कुछ जैन काव्यों का संकलन किया गया है। ये सारे सन्धानकाव्य, व्याख्या के बिना दुर्बोध होते हैं। अतः इन काव्यों के लेखकों या उनकी परंपरा के अन्य विद्वानों को उन पर टीकाएं लिखनी पडी।
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इस प्रकार के “व्याख्यागम्य" काव्यों का और एक प्रकार चौथी या पांचवी शताब्दी में प्रारंभ हुआ। इन काव्यों रयचिताओं ने अलंकार तथा व्याकरण शास्त्र का बोध अपने शिष्यों तथा पाठकों को देने के हेतु ग्रंथनिर्मिती की । भट्टिकाव्य इस प्रकार का प्रथम काव्य है जिसकी रचना ई. 4-5 वीं शती में हुई। इस महाकाव्य के प्रकीर्ण, प्रसन्न, अलंकार और तिङन्त नामक चार भाग हैं। इनमें पाणिनीय सूत्रों के क्रमानुसार व्याकरण शास्त्र के सारे उदाहरण उपलब्ध होते हैं। दसवें सर्ग में अलंकारों के सारे उदाहरण उपलब्ध होते हैं। अपने इस काव्य की शास्त्रनिष्ठता का अभिमान व्यक्त करते हुए भट्टि (या भर्तृहरि) कहते हैं।
दशाननवधम् ले योगीन्द्रनाथ तर्कचूडामणि ।
:
"व्याख्यागम्यमिदं काव्यम् उत्सवः सुधियामलम् । हता दुर्मेधसास्मिन् विद्वत्प्रियतया मया (11-34)
अर्थात् यह मेरा कव्य व्याख्या की सहायता से ही समझने योग्य है, अतः बुद्धिमान् पाठकों को इसमें भरपूर आनंद मिलेगा। मेरी विद्वप्रियता के कारण बुद्धिहीन पाठक इसमें नष्ट होंगे। भट्टिकाव्य की इस विशिष्ट प्रणाली में निर्माण हुए कुछ उल्लेखनीय काव्य :
रावणार्जुनीयम्: ले. भूम (अथवा भौमिक) कवि। ई 7 वीं शती । सर्ग 27, विषय कार्तवीर्य का चरित्र । इसमें अष्टाध्यायी के उदाहरण मिलते हैं।
पाण्डवचरितम् : ले. दिवाकर। सर्ग 14। यह काव्य व्याकरणशास्त्रनिष्ठ है ।
धातुकाव्यम् और सुभद्राहरणम् : ले. नारायण । पिता ब्रह्मदत्त । दोनों काव्य व्याकरणनिष्ठ है।
वासुदेवविजयम् : ले. वासुदेव
श्रीचिह्नकाव्य : ले. कृष्णलीलाशुक । सर्गसंख्या 12। इसके अंतिम चार सर्ग कवि के शिष्य दुर्गाप्रसाद ने लिखे हैं; जिनमें त्रिविक्रमकृत व्याकरण के उदाहरण उद्धृत हैं। कृष्णलीलाशुक द्वारा लिखित भाग में वररुचि के प्राकृत उदाहरणों का प्रयोग हुआ है। रघुनाथभूपालीयम् : ले. कृष्ण पंडित । तंजौरनरेश रघुनाथनायक के सभापंडित । सर्ग 8। इसमें कवि ने अलंकारों के उदाहरणों द्वारा अपने आश्रयदाता का चरित्र वर्णन किया है। इसकी टीका विजयेन्द्र तीर्थ के शिष्य सुधीन्द्रतीर्थ ने रघुनाथनायक के आदेशानुसार लिखी । रामवर्मयशोभूषणम् ले सदाशिव मखी पिता कोकनाथ (या चोक्कनाथ) विषय त्रिवंकुर नरेश रामवर्मा का चरित्र यह
अलंकारशास्त्रनि काव्य है।
:
माधवराव पेशवा (प्रथम) और रघुनाथराव पेशवा का अलंकारनिष्ठ गुणवर्णन। विषय त्रिवांकुरनरेश विशाखराम वर्मा की स्तुति ।
ठगोप- गुणालंकार - परिचर्या : ले. श्रीरंग नगर के भट्ट कुल में उत्पन्न अज्ञातनामा । ई. 17 वीं शती । विषय षठगोप नम्मालवार साधु की अलंकारनिष्ठ स्तुति । अलंकारमंजूषा ले. देवशंकर ई. 18 वीं विषय अर्थचित्रमणिमाला : ले. म.म. गणपतिशास्त्री लोकमान्यालंकार : ले. गजानन रामचंद्र करमरकर इन्दौर के निवासी लोकमान्य तिलकजी का अलंकारनिष्ठ गुणवर्णन | अलंकारमणिहार ले. ब्रह्मतंत्र परकालस्वामी जो पूर्वाश्रम में कृष्णम्माचार्य नामक मैसूर में वकील थे। विषय वेंकटेश्वरस्तुति । इसी परंपरा में विविध छन्दों के लक्षणसहित उदाहरण प्रस्तुत करने वाले रामदेवकृत वृत्तरत्नावली, गंगादासकृत छन्दोमंजरी, वसंत त्र्यंबक शेवडे कृत वृत्तमंजरी इत्यादि काव्य लिखे गये, जिनका विषय विशिष्ट देवता की स्तुति है।
242 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
3
"कथाकाव्य"
प्रबन्ध का दूसरा प्रकार है कथाकाव्य जिसमें रसात्मक एवं अलंकारप्रचुर शैली में रोमांचक तत्त्वों के समावेश के साथ कथावर्णन होता है। यह छंदोबद्ध रचना होने से गद्यात्मक आख्यायिका एवं कथा से भिन्न है परंतु गद्य पद्य का भेद छोड़
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दिया जाय तो तत्त्वतः उनमें भेद नहीं। कथा के विभिन्न रूपों का वर्गीकरण विषय, शैली, पात्र, एवं भाषा के आधार पर किया गया है। विषय की दृष्टि से कथाएं चार प्रकार की होती हैं :
धर्मकथा, अर्थकथा, कामकथा, और मिश्रकथा। इनमें से धर्मकथा के चार भेद किए जाते हैं। आक्षेपिणी, विक्षेपिणी, संवेदनी और निवेदनी। मिश्रकथा में मनोरंजन और कौतुकवर्धक सभी प्रकार के कथानक रहते हैं। पात्रों के आधार पर दिव्य, मानुष्य और मिश्र कथाएं कही गई हैं। भाषा की दृष्टि से संस्कृत, प्राकृत और मिश्र रूप में कथाएं लिखी गयी हैं। शैली की दृष्टि से सकलकथा, खंडकथा उल्लाघकथा, परिहासकथा और संकीर्ण कथा के भेद से पांच प्रकार की कथाएं मानी गयी हैं। इनमें सकलकथा और खंडकथा प्रमुख हैं। सकलकथा का कथानक विस्तृत होता है और उसमें अवान्तर कथाओं की योजना होती है। प्रद्युम्नसूरिकृत समरादित्यचरित, जिनेश्वरसूरिकृत निर्वाणलीलावती आदि सकलकथा के उदाहरण हैं। इन भेदों के अतिरिक्त कथानक की दृष्टि से प्राचीन कथासाहित्य का स्वरूप बहुतही वैविध्यपूर्ण है। इनमें नीतिकथा, लोककथा, पुरातनकथा, दैवतकथा, दृष्टान्तकथा, परीकथा, कल्पितकथा आदि अनेकविध प्रकार मिलते हैं। प्राचीन इतिहास एवं पुराण वाङ्मय में कथाओं का भंडार भरा हुआ है। उन सभी कथाओं में उपरि निर्दिष्ट कथाप्रकार बिखरे हुए हैं।
__ कथा का लक्षण अमरकोश में "प्रबन्धकल्पना कथा" इस प्रकार किया है। इस लक्षण का विवरण करते हुए सारसुन्दरीकार कहते हैं, "प्रबन्धेन कल्पना अर्थात् प्रबन्धस्य अभिधेयस्य कल्पना स्वयं रचना" अर्थात् जिस रचना में वक्तव्य विषय की रचना लेखक द्वारा अपनी कल्पना के अनुसार होती है, ऐसी रचना को कथा" कहते है। भरत के मतानुसार कथा "बहनृता स्तोक सत्या" (बहुत अंशमें असत्य और अल्प अंश में सत्य) होती है।
भारतीय कथा साहित्य का मूलस्रोत वैदिक वाङ्मय में मिलता है। वैदिक कथाओं का संग्रह सर्वप्रथम शौनक ने अपने बृहद्देवता ग्रंथ में किया। इस संग्रह में 48 कथाएं मिलती हैं। जिनको शौनक ने ऐतिहासिकता का महत्त्व दिया है। रामायण, महाभारत, पुराणवाङ्मय, त्रिपिटक, जैनपुराण एवं चूर्णियाँ इत्यादि में उपलब्ध बहुत सारी कथाओं का स्वरूप धार्मिक दृष्ट्या महत्त्वपूर्ण है। इन धर्मकथाओं का प्रवचन और श्रवण पुण्यदायक माना जाता है। नीतितत्त्वप्रधान कथाओं का संग्रह जैन कथाकोश, बौद्धजातक, पंचतंत्र, कथासारित्सागर जैसे ग्रन्थों में हुआ है। नीतिपरक कथासंग्रहों की दृष्टि से जैन और बौद्ध वाङ्मय विशेष समृद्ध हैं। बौद्ध जातक कथाओं की संख्या 550 है। बौद्धों का "अवदान" साहित्य भी इसी प्रकार का है। पंचतंत्र, हितोपदेश और कथासरित्सागर में सामान्य जनजीवन की पृष्ठभूमि पर आधारित व्यवहारिक नीतितत्त्वों का प्रतिपादन हुआ है। इन सभी नीतिकथाओं का प्रभाव सारे संसार के कथावाङ्मयपर अतिप्राचीन काल में पड़ा है।
नीतिकथाओं का उद्गम वैदिक ब्राह्मण वाङ्मय में हुआ। इन कथाओं में प्राणिकथाओं या जन्तुकथाओं का प्रवेश, महाभारत की नीतिकथाओं के द्वारा हुआ। जिन धर्मसंप्रदायों में कर्मकाण्ड की अपेक्षा नीतिनिष्ठ जीवन को ही धार्मिक दृष्टि से अधिक महत्त्व दिया गया ऐसे जैनो बौद्ध, वैष्णव और शैव संप्रदायों में सभी प्रकार की नैतिक कथाओं, तीर्थकथाओं और व्रतकथाओं को विशेष महत्त्व प्राप्त हुआ। इन संप्रदायों ने अपने उदात्त धर्मविचारों का प्रचार, सुबोध कथाओं के माध्यम से किया। भारतीय कथाओं का प्रचार ई. छठी शताब्दी से पूर्व, चीन में हुआ था। चीन के विश्वकोश में अनेक भारतीय कथाओं के अनुवाद मिलते हैं। इताली का प्रख्यात कवि पेत्रार्क के डिकॅमेरान नामक कथासंग्रह में अनेक प्राचीन भारतीय कथाएं मिलती हैं। इसापनीति, अलिफफलैला (अरबी कथासंग्रह) तथा बाइबल की भी अनेक कथाओं का मूल भारतीय कथाओं में माना जाता है। इन कथाओं का समाज में कथन करने वाले आख्यानविद् सूत, मागध, कथावकाश, इत्यादि नाम के उत्तम गुणी वक्ताओं का उल्लेख प्राचीन वाङ्मय में मिलता है।
संस्कृत वाङ्मय में उल्लेखनीय कथासंग्रह बृहत्कथामंजरी : क्षेमेन्द्र। गुणाढ्य की बृहत्कथा (मूल-पैशाची भाषीय ग्रंथ) का संस्कृत संस्करण । कथासरित्सागर : ले. सोमदेव। बृहत्कथा का संस्कृत रूपांतर । पंचतंत्र : ले. विष्णुशर्मा। इसके पांच तंत्र नामक प्रकरणों में 87 कथाओं का संग्रह है। साथ में प्राचीन ग्रंथों के अनेक नीतिपर सुभाषित श्लोक उद्धृत किये हैं। हितोपदेश :ले. नारायण तथा उनके आश्रयदाता राजा धवलचन्द्र। इसमें मित्रलाभ सुहद्भेद, विग्रह और सन्धि नामक चार भागों. में पंचतंत्र की कथाएं समाविष्ट की हैं। इसमें 679 नीतिविषयक पद्य हैं जो महाभारत, चाणक्य नीतिशास्त्र आदि ग्रंथों से संगृहित किये हैं। वेतालपंचविंशति : 1) ले. शिवदास। 2) ले. जम्भलदत्त । पंचाख्यानक : ले. पूर्णभद्र सूरि । पंचतंत्र का संशोधित संस्करण ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 243
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तन्त्रोपाख्यान : ले. वसुभाग। सिंहासन-द्वात्रिंशिका : ले. क्षेमशंकर मुनि। शुकसप्तति : ले. चिन्तामणि भट्ट (ई. 12 वीं शती के पूर्व) शुकद्वासप्ततिका (या रसमंजरी) ले. रत्नसुन्दरसूरि । ई. 17 वीं शती। कथारत्नाकर : ले. हैमविजयमणि। 256 कथाओं का संग्रह। बृहत्कथाकोश : ले. हरिषेणाचार्य। 157 कथाओं का संग्रह। ई. 10 वीं शती। प्रबन्धचिन्तामणि : ले. मेरुतुंगाचार्य। ई. 14 वीं शती। प्रबन्धकोश (चतुर्विंशति प्रबंध) : ले. राजशेखर। ई. 14 वीं शती। विविधतीर्थकल्प : ले. जिनप्रभसूरि।। भोजप्रबन्ध : ले. बल्लालसेन। ई. 16 वीं शती। उपस्थितिभवप्रपंच कथा : ले. सिद्धर्षि। ई. 10 वीं शती। प्रबोधचिन्तामणि : ले. जयशेखरसूरि। ई. 15 वीं शती। मदनपराजय : ले. नागदेव। ई. 14 वीं शती। कालकाचार्यकथा : इस नाम के ग्रंथ, महेन्द्र, देवेन्द्र, प्रभाचन्द्र, विनयचंद्र, शुभशीलगणि, जिनचंद्र आदि अनेक जैन विद्वानों ने लिखे है। उत्तमचरित्र कथानक चम्पकश्रेष्ठिकथानक : ले. जिनकीर्तिसूरि। ई. 15 वीं शती। पालगोपाल कथानक : सम्यक्त्वकौमुदी : ले. अज्ञात कथाकोश : ले. अज्ञात पंचशतीप्रबोधसंबंध : ले. शुभशीलगणि। ई. 15 वीं शती। 500 से अधिक कथाओं का संग्रह । अंतरकथासंग्रह : या विनोदकथा संग्रह। ले. राजशेखर। एक सौ कथाओं का संग्रह । कथामहोदधि : ले. सोमचंद्र । कथारत्नाकर : ले. हेमविजय। इ. 15 वीं शती। इसमें 258 कथाएं हैं। उपदेशमाला प्रकरण : ले. धर्मदास गणि। इसमें 542 गाथाओं में दृष्टान्त स्वरूप 310 कथानकों का संग्रह है। धमोपदेशमालाविवरण : ले. जयसिंह सूरि। ई. 10 वीं सदी। इसमें 156 कथाएं समाविष्ट हैं। कथानककोश (कथाकोश) : ले. जिनेश्वर सूरि। ई. 16 वीं शती। शुभशीलगणि ने प्रभावकथा, पुण्यधननृपकथा, पुण्यसारकथा, शुकराजकथा, जावडकथा आदि अनेक प्रबन्ध लिखे हैं। पंचशतीप्रबोधसंबंध : ले. शुभशील गणि। ई. 16 वीं शती। इस कथाकोश में 4 अधिकारों में ऐतिहासिक धार्मिक एवं लौकिक विषयों से संबंधित 625 कथाओं का संग्रह हुआ है। कथासमास : ले. जिनभद्र मुनि। ई. 13 वीं शती। कथार्णव : ले. पद्ममंदिर गणि। ई. 16 वीं शती। श्लोक 75901 कथारत्नाकर : (या कथारत्नसागर) : ले. नरचन्द्र सूरि । ई. 13 वीं शती। पुण्याश्रय-कथाकोश : ले. रामचंद्र मुमुक्षु। ई. 12 वीं शती। इसमें कुल मिला कर 56 कथाएं हैं जो रविषेणकृत पद्यपुराण, जिनसेनकृत हरिवंशपुराण, हरिषेणकृत बृहत्कथाकोश और गुणभद्रकृत महापुराण से ली गई हैं। धर्माभ्युदय (या संघपतिचरित्र) ले. उदयप्रभसूरि । सर्ग 15। श्लोक 52001 धर्मकल्पद्रुम : ले. उदयधर्म। ई. 15 वीं शती के बाद । श्लोक 4814। 9 पल्लवों में विभक्त । दानप्रकाश : ले. कनककुशलगणि। ई. 17 वीं शती। 8 प्रकाशों में विविध प्रकार के दानों की कथाएं संगृहित हैं। प्रस्तुत लेखक ने शुक्ल पंचमी कथा, सुरप्रियमुनिकथा, रोहिण्यशोकचन्द्रनृपकथा अक्षयतृतीया कथा, मृगसुन्दरी कथा इत्यादि कथाप्रबन्ध लिखे हैं। उपदेशप्रासाद : ले. विजयलक्ष्मी। गुरु विजयसौभाग्य सूरि। ई. 19 वीं शती। सूरत में स्वर्गवास हुआ। इस प्रबंध में कुल मिलाकर 348 कथाएं दी गई हैं।
244 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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जैन पौराणिक साहित्य में तथा विविध कथाकोशों में जो अनेक प्रकार के कथानक आये हैं, उनमें से अनेकों पर आधारित स्वतंत्र कथाप्रबन्धों की रचनाएं हुई हैं। ऐसी रचनाओं में समरादित्यकथा, यशोधरकथा, श्रीपालकथा, रत्नचूडकथा, इत्यादि पुरुषचरित्र प्रधान कथाप्रबंध एवं तरंगवतीकथा, कुवलयमाला कथाप्रबंध इत्यादि स्त्रीप्रधान तथा शत्रुजयमाहात्म्य, सुदर्शनचरित, ज्ञानपंचमी कथा, भक्तामर कथा इत्यादि तीर्थक्षेत्र, पवित्रतिथि, स्तोत्र आदि विषयक कथाएं सुप्रसिद्ध हैं। पार्श्वनाथ विद्यालय शोध संस्थान द्वारा प्रकाशित जैन साहित्य का बृहद् इतिहास (भाग 6) के प्रकरण 3 में (पृ. 231-390 में जैन कथासाहित्य का यथोचित प्रदीर्घ परिचय दिया है।) संस्कृत गद्य साहित्य में सुबन्धु की वासवदत्ता, बाणभट्ट की कादम्बरी धनपाल की तिलकमंजरी और वादीभसिंह का गद्यचिन्तामणि, अपने कल्पगुणों के कारण उत्कृष्ट गद्यकाव्य माने गये हैं। वस्तुतः कथा की रोचकता की दृष्टि से उनका अन्तर्भाव प्रबन्धकथाओं में ही करना उचित लगता है।
4 चम्पूवाङ्मय कथाप्रबन्धों में उपरिनिर्दिष्ट पद्य एवं गद्यप्रधान ग्रन्थों के साथ गद्यपद्य मिश्रित शैली में लिखे गए काव्यात्मक प्रबन्धों की प्रणाली संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में 10 वीं शताब्दी में त्रिविक्रम भट्ट कृत नलचम्पू से प्रारंभ हुई। इस प्रकार के पद्यमिश्रित गद्यसाहित्य की निर्मिति कनड भाषा में 8-9 वीं शताब्दी में प्रारंभ हो गई थी। पम्प, पोत्र, रन आदि कन्नड साहित्यिक चम्पूकाव्य के प्रारंभिक रचयिता माने जाते हैं; परंतु इन कन्नड लेखकों के पूर्व (ई. 7 वीं शती में) हुए दण्डीने अपने काव्यादर्श में, "गद्य-पद्यमयी काचित् चम्पूरित्यभिधीयते" (का.द-1/31) इस प्रकार व्याख्या की है जिसे आगे चल कर हेमचन्द्र और विश्वनाथ ने प्रमाण मानी है। हेमचंद्र ने चम्पू का “सांक" और "सोच्छ्वास" होना आवश्यक माना है। क्यों कि कुछ चम्पू ग्रन्थों का विभाजन अंकों में और कुछ का विभाजन उच्छ्वासों में किया गया था। साथ ही उसमें उक्ति-प्रत्युक्ति, शून्यता तथा विष्कम्भक होना भी आवश्यक माना गया है। चम्पू का गद्य और पद्य अलंकारनिष्ठ होता है। गद्य में समासबाहुल्य और पद्य में छन्दों का वैविध्य प्रशस्त माना गया है। चम्पूकाव्यों के पूर्व ही संस्कृत में गद्य-पद्य मिश्रित लेखन पद्धति का प्रारंभ वैदिक वाङ्मय से ही होता है। कृष्ण यजुर्वेद की तीनों ही शाखाओं में गद्य-पद्य रचना है। अथर्व वेद का छठा अंश गद्यमय है। पुराणों में भी यह प्रवृत्ति दिखाई देती है। विष्णुपुराण का चतुर्थ अंश तथा श्रीमद्भागवतपुराण का पंचम स्कन्ध गद्यमय है, जिसमें प्रदीर्घ समासों का प्राचुर्य है। तथापि गद्यपद्यमय चम्पूकाव्य का प्रवर्तकत्व त्रिविक्रमभट्ट को ही दिया जाता है। इनके नलचम्पू को "नलदमयन्तीकथा" भी कहते हैं। डॉ. छबिनाथ त्रिपाठी ने अपने "चम्पूकाव्य का आलोचनात्मक एवं ऐतिहासिक अध्ययन-" नामक शोध प्रबन्ध में इस काव्य प्रकार का मार्मिक समीक्षण किया है। तदनुसार चम्पूकाव्य का विकास दसवीं शताब्दी से सतत होता रहा। इनमें रामायण, महाभारत, भागवत, शिवपुराण, जैन पुराणवाङ्मय जैसे प्राचीन उपजीव्य ग्रंथों पर आधारित ही चम्पूग्रन्थ अनेक हैं। इनके अतिरिक्त चरित्रयात्रा, क्षेत्रदेवता और उनके महोत्सव, तथा काल्पनिक कथाओं पर आश्रित चम्पूग्रन्थ मिलते हैं। कुछ उल्लेखनीय चम्पू :नलचम्पू :- ले-त्रिविक्रम भट्ट (ई-10 वीं शती)। मदालसाचम्पू :- ले-त्रिविक्रम भट्ट (ई-10 वीं शती)। मार्कंडेय पुराण की कथा पर आधारित । यशस्तिलकचम्पू :- ले- सोमदेवसूरि। ई-10 वीं शती। गुणभद्र कृत उत्तरपुराण की कथा पर आधारित । जीवन्धरचम्पू :- ले- हरिश्चन्द्र। ई-10 वीं शती। उत्तर पुराण की कथा पर आधारित । रामायणचम्पू :- ले-भोजराज-ई-11 वीं शती। इस चम्पू का किष्किन्धाकाण्ड के आगे का युद्धकाण्ड तक भाग लक्ष्मणसूरि, राजचूडामणि दीक्षित (ई-17 वीं शती) घनश्याम कवि, आदि लेखकों ने पूर्ण किया। भारतचम्पू :- ले-अनन्तभट्ट। ई-15 वीं शती। भागवतचम्पू :- ले- अभिनव कालिदास। ई-11 वीं शती। विषय-कृष्णकथा। आनन्दवृन्दावनचम्पू :- ले- कविकर्णपूर। ई-16 वीं शती। गोपालचम्पू :- ले- जीव गोस्वामी। ई-17 वीं शती। आनन्दकन्दचम्पू :- ले- मित्रमिश्र । ई-17 वीं शती। वीरमित्रोदय नामक धर्मशास्त्र विषयक प्रसिद्ध प्रबन्ध के लेखक। परिजातहरणचम्पू :- ले-श्रीकृष्णशेष । प्रसिद्ध वैयाकरण। ई-16 वीं शती। नृसिंहचम्पू :- ले- सूर्यकवि। ई-16 वीं शती। लीलावती (गणितग्रंथ) के एक टीकाकार । नीलकण्ठविजयचम्पू :- ले-नीलकण्ठ दीक्षित। ई-17 वीं शती। वरदाम्बिकापरिणयचम्पू :- लेखिका- तिरुमलाम्बा। विजयनगर के अधिपति अच्युतराय की पटरानी। ई-16 वीं शती। विषयअच्युतराय और वरदाम्बिका का विवाह ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 245
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आनन्दरंगविजय-चम्पू :- ले- श्रीनिवास कवि। ई-18 वीं शती विषय- पांडिचेरी के व्यापारी आनंदरंग पिल्लै का चरित्र तथा तत्कालीन ऐतिहासिक घटना। आचार्यदिग्विजय चम्पू :- ले- वल्लीसहाय। ई-16 वीं शती। विषयः- श्रीशंकराचार्य का दिग्विजय । जगदगुरुविजय चम्पू :- ले- श्रीकण्ठशास्त्री। शंकरचम्पू ले- लक्ष्मीपति। शंकराचार्यचम्पूकाव्य :- ले- बालगोदावरी । रामानुजचम्पू- ले- रामानुजार्य। ई-16 वीं शती। यतिराजविजयचम्पू- ले- अहोबलसूरि । ई-16 वीं शती। विषयः रामानुजाचार्य का चरित्र । विरूपाक्षमहोत्सवचम्पू :- ले- अहोबलसूरि। ई-16 वीं शती। वीरभद्रदेवचम्पू :- ले- पद्मनाभ। ई-16 वीं शती। विषयःल रीवानरेश वीरभद्र का चरित्र । विश्वगुणादर्शचम्पू :- ले- वेंकटाधारी। ई-17 वीं शती। विषयः- दोषदर्शी कृशानु और गुणग्राही विश्वावसु इन दो गगनचारी गंधर्वो के संवाद में 17 वीं शताब्दी के लोगों का तथा तीर्थस्थलों का गुणदोष वर्णन। वेंकटाध्वरी ने हस्तिगिरिचम्पू (अथवा वरदाभ्युदयचम्पू) उत्तररामचरित चम्पू और श्रीनिवासविलास चम्पू नामकअन्य चम्पूग्रंथ लिखे हैं। यात्राप्रबन्धचम्पू :- ले- समरपुंगव दीक्षित। ई-16-17 वीं शती। आनन्दकन्दचम्पू :- ले- समरपुंगव दीक्षित। इसमें कुछ शैव संतों के चरित्र वर्णन किये हैं। मन्दारमरन्दचम्पू :- ले- कृष्णकवि। ई-16 वीं शती। विषयः- छन्दों के लक्षण और उदाहरण। विद्वन्मोदतरंगिणी चम्पू :- ले- चिरंजीव भट्टाचार्य। ई-16 वीं शती। विषय- दार्शनिक मतों की आलोचना । माधवचम्पू- ले. चिरंजीव भट्टाचार्य । विषय- श्रीकृष्ण का काल्पनिक विवाह । चित्रचम्पू :- ले- बाणेश्वर विद्यालंकार । ई-18 वीं शती। विवादार्णवसेतु नामक सुप्रसिद्ध धर्मशास्त्रीय ग्रंथ के बंगाली लेखक। विषय वैष्णव तत्त्वों का प्रकाशन । तत्त्वगुणादर्शचम्पू :- ले- अण्णैयाचार्य। विषय जय-विजय के सवांद द्वारा शैव और वैष्णव मतों के गुणदोषों का विवेचन । गंगागुणादर्श चम्पू :- ले- दत्तात्रेय वासुदेव निगुडकर । ई-19-20 वीं शती । विषय- हाहा-हूहू संवाद द्वारा गंगानदी का गुण-दोष वर्णन। वैकुण्ठविजयचम्पू :- ले- राघवाचार्य। विषय तीर्थस्थलों एवं मंदिरों का वर्णन । काशिकातिलकचम्पू :- ले- रामभट्ट-पुत्र नीलकण्ठ। विषय- शैवक्षेत्रों का वर्णन। विबुधानन्दप्रबन्धचम्पू :- ले- वेंकटकवि। विषय- प्रवासवर्णन। श्रुतकीर्तिविलास चम्पू :- ले- सूर्यनारायण। विषय-प्रवासवर्णन । केरलाभरणचम्पू :- ले- केशवपुत्र रामचंद्र । ई-20 वीं शती। विषय- प्रवास वर्णन। 17 वीं शताब्दी में केरल में नारायण भट्टपाद अथवा भट्टात्रि नामक प्रकांड लेखक हुए। इन्होंने रामायण, महाभारत और अन्य पुराण ग्रंथों की विविध कथाओं पर आधारित 20 चम्पू लिखे, जिनके नाम हैं :- पांचालीस्वंयवरचम्पू, राजसूय, द्रौपदीपरिणय, सुभद्राहरण, दूतवाक्य, किरात, भारतयुद्ध, स्वर्गारोहण, मत्स्यावतार, मृगमोक्ष, गजेन्द्रमोक्ष, स्यमन्तक, कुचेलवृत्त, अहल्यामोक्ष, निरनुनासिक, दक्ष, त्याग, पार्वतीस्वयंवर, अष्टमी, गोटीनगर, कैलासवर्णन, शूर्पणखाप्रलाप, नलायनीचरित्र और रामकथा। (रामकथाविषयक अनेक चम्पू काव्यों में उल्लेखनीय अर्वाचीन ग्रंथ)। चम्पूराघव :- ले- आसुरी अनन्ताचार्य। (1) चम्पूरामायण- लेखिका सुंदरवल्ली। रामायणचम्पू -ले सतीश रामशास्त्री (2) रामानुज। रामचम्पू- ले-बंदला मूडी रामस्वामी। एम. कृष्णम्माचारियर ने अपने हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर में रामायण विषयक कुछ अप्रकाशित रामायण चम्पू ग्रंन्थों का नामावली दी है। (परिच्छेद- 541) वे हैं :अमोघराघव-चम्पू :- ले- विश्वेश्वरपुत्र दिवाकर । कुशलव-चम्पू :- ले- वेंकटय्या सुधी। रामकथासुधोदय- ले- देवराज देशिक। रामभिषेक- देवराज देशिक । सीताविजय :- ले- घण्टावतार। रामचन्द्र चम्पू ले- विश्वनाथ (2) रामचंद्र। उत्तरकाण्ड- राघव। उत्तरचम्पू -ले- ब्रह्मपण्डित, (2) राघवभट्ट (3) भगवन्त । अभिनव रामायण-ले- रामानुज । काकुत्स्थविजय-ले- वल्लीसहाय । सीताचम्पू- गुण्डुस्वामी शास्त्री। मारूतिविजय :- ले- रघुनाथ। आंजनेयविजय। ले- नृसिंह । उत्तरचम्पूरामायण :- ले- वेंकटकृष्ण इत्यादि ।
___ 17 वीं शताब्दी के बाद लिखे गये श्रीकृष्ण चरित्र विषयक चम्पू :राधामाधावविलासचम्पू :- ले- जयराम पिप्ठ्ये ।
246/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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भागवतचम्पू :- ले- सोमशेखर (या राजशेखर)। आनन्दवृन्दावनचम्पू :- ले- परमानन्ददास। बालकृष्णचम्पू। ले- जीवनजी शर्मा। मन्दारमन्दचम्पू- श्रीकृष्ण। रुक्मिणीपरिणय-लेअम्मल और वेंकटाचार्य । रुक्मिणीवल्लभपरिणय.-ले- नरसिंह तात । इनके अतिरिक्त 25 से अधिक कृष्णचरित्र विषयक चम्पू अमुद्रित हैं।
वैष्णव आख्यानों पर आधारित चम्पूकाव्य : नृसिंह ले- केशवभट्ट, (2) दैवज्ञ दुर्ग और (3) संकर्षण। वराहचम्पू- लेश्रीनिवास। गजेन्द्रचम्पू ले- पंतविठ्ठल इत्यादि उल्लेखनीय हैं। कुछ चम्पूग्रंथ ऐतिहासक दृष्टि से भी महत्त्व रखते हैं, जिनमें जयराम पिण्डये कृत राधामाधवविलासचम्पू (इसके उत्तरार्ध में छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शहाजी की राजसभा के वैभव का वर्णन किया है।) शंकर दीक्षित कृत शंकरचेतोविलासचम्पू (इसमें काशीनरेश चेतसिंह का चरित्र वार्णित है)
राजराजवर्मकृत :- विशाखतुला-प्रबन्धचम्पू, गणपतिशास्त्री कृत विशाखसेतुयात्रा वर्णन चम्पू। रामस्वामीशास्त्री कृत विशाखकीर्तिविलासचम्पू इन तीन ग्रंथों में त्रिवांकुरनरेश विशाख महाराज का चरित्र वर्णित है। भूमिनाथ मल्लदीक्षित कृत धर्मविजयचम्पू में तंजौरनरेश शहाजी (व्यंकोजी भोसले के पुत्र) का चरित्र और वेंकटेश कविकृत भोसलवंशावली चम्पू में तंजौर के भोसला राजवंश का चरित्र दर्शन किया है।
मैसूर नरेश के चरित्र विषयक उल्लेखनीय चम्पू :- महीशूराभिवृद्धिप्रबन्धचम्पू ले- वेंकटराम शास्त्री। महीशूरदेशाभ्युदयचम्पू ले- सीताराम शास्त्री। कृष्ण-राजेन्द्र, यशोविलास- ले- एस नरसिंहाचार्य । कृष्णराजकलोदय ले- यदुगिरि अनन्ताचार्य। श्रीकृष्णनृपोदयचम्पू ले-कुक्के सुब्रह्मण्य शर्मा।
तीर्थक्षेत्र माहात्म्य विषयक चम्पू :
भद्राचलचम्पू :- ले- राघव। विषय- वेंकटगिरी तथा भगवान् श्रीनविास। धर्मराजकृत वेंकटशचम्पू तथा श्रीनिवासकविकृत श्रीनिवासचम्पू भी इस विषय पर लिखे हैं।
मार्गसहायचम्पू :- ले- नवनीतकवि। विषय- विरंचिपुर का मार्गसहायमंदिर। व्याघालयेशाष्टमी-महोत्सवचम्पू विषय- त्रिवांकुर का मंदिर। सम्पतकुमारविजयचम्पू ले- रंगनाथ। विषय- मेलकोटे (कर्णाटक) के देवतामहोत्सव। पद्मनाभचरितचम्पू ले- कृष्ण । विषय-तिरुअनंतरपुरम् के भगवान् पद्मनाभ की कथा । हस्तिगिरिचम्पू ले- वेंकटाध्वरी । विषय- कांचीवरम् के देवराज का माहात्म्य।
चम्पूकाव्यों की इस नामावली से यह स्पष्ट दिखाई देता है कि भारत के अन्य प्रदेशों के लेखकों की अपेक्षा दक्षिण भारत के विद्वानों ने चम्पूकाव्यों की रचना में अधिक योगदान दिया है । ज्ञात चम्पू काव्यों की संपूर्ण संख्या अढ़ाई सौ के आसपास मानी जाती है।
5 "गीतिकाव्य" गीतगोविन्दकार जयदेव कवि को गीतिकाव्यों के युगप्रवर्तकत्व का समान संस्कृत साहित्य के सभी समालोचक देते है। उनके गीतिकाव्यों की सरसमधुरता के कारण सुभाषितकार हरिहर, जयदेव की रचना का तो कालिदास से भी अधिक सरस मानते हैं :
__ "आकर्ण्य जयदेवस्य गोविन्दानन्दिनीर्गिरः। बालिषा कालिदासाय स्पृहयन्तु धयं तु न।। (सुभाषितावली-17)
(जयदेव की वाणी कृष्णप्रेमपूर्ण है। उसे सुनने पर, कालिदास के काव्य पर बालिश लोग ही आस्था रखेंगे। हम तो नहीं रखते)। इस काव्य में मात्रिक वृत्तों के साथ संगीत के मात्रिक पदों का मनोहर समन्वय किया है। इस प्रकार की "मधुर-कोमल-कान्त पदावली" से ओतप्रोत राग-तालनुकूल पदरचना, जयदेव के पहले किसी ने की होगी, परंतु जयदेव की रचना इतनी उत्कृष्ट हुई कि वे इस प्रकार की काव्यरचना के युगप्रवर्तक हो गये। 12 सर्गों के इस प्रबन्धात्मक काव्य में श्रीमद्भागवत की रासलीला के अनुसार रासलीला तथा राधाकृष्ण की विप्रलंभ-संभोगात्मक शृंगार लीला का वर्णन हुआ है। इस के पाश्चात्य समीक्षकों में विलियम जोन्स ने इसे पैस्टोरल ड्रामा (पशुचारण नाट्य) कहा है। पिशेल मेलो ड्रामा (अत्युक्तिपूर्ण कृत्रिम नाट्य) कहते हैं, तो सिल्वाँ लेवी गीत और नाट्यकी समन्वित रचना मानते हैं । इस प्रकार इस गीतिकाव्य का स्वरूप विवाद्य सा हुआ है।
तमिळ साहित्य में पेरियपुराणम् नामक एक प्राचीन "गेयचरित्रम्" प्रसिद्ध है। वह 63 नायन्पारों (शैवसंतों) की चरित्रगाथा पर आधारित है। इस गेयचरित्रम् का स्वरूप संगीत नाटक सा होता है, परंतु उसमें अंक, दृश्य इत्यादि विभाग नहीं होते। कुछ हेर फेर कर के गेयचरित्रम् को नाटकवत् किया जा सकता है। जयदेव के गीतगोविन्दम् की यही अवस्था है। रंगमंच पर गीतगोविंद के नाट्यवत् अभिनयपूर्ण प्रयोग होते हैं। दक्षिण भारत में "गेयनाटकम्" के संगीतमय प्रयोग भी लोकप्रिय है। इस में नाटक के अभिनय से संगीत को ही अधिक प्रधानता होती है। सुप्रसिद्ध आधुनिक “वाग्गेयकार" त्यागराज के गेय नाटक दक्षिण भारतीय समाज में अत्यंत लोकप्रिय है। तमिळनाडु में "भागवतमेलानाटकम्" नामक एक नृत्यप्रकार प्रचलित है, परंतु उसका प्रारंभ ई. 17 वीं शती से माना जाता है। जयदेव का गीतगोविंद 12 वीं शताब्दी की रचना है। संभव है कि गीतगोविंद के सार्वत्रिक प्रचार एवं प्रभाव के कारण दक्षिण में भगवद्भाक्ति परक भागवतमेलानाटकम् का उदय हुआ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 247
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गीतगोविंद का प्रेरणा स्थान कृष्णलीला है, जिसका उत्कट और उदात्त रसमय स्वरूप श्रीमद्भागवत के दशमस्कन्ध में दिखाई देता है। इस स्कन्ध में वेणुगीत, गोपीगीत, युगलगीत, महिषीगीत, भ्रमरगीत, जैसे अप्रतिम गीतकाव्य हैं। इनका रसमाधुर्य अलौकिक है। जयदेव जैसे कृष्णभक्त को श्रीमद्भागवत के इन गीतकाव्यों से तथा "रासपंचाध्यायी" जैसे विप्रलंभ शृंगार रसमय काव्य से प्रेरणा मिलने के कारण उनकी कृष्णभक्ति गीतगोविंद के स्वरूप में मुखरित हुई। इस दृष्टि से श्रीमद्भागवत के विविध 'गीत' ही गीतिकाव्य के मूलस्रोत मानना उचित होगा। परंतु गीतगोविंद की "राग-ताल योजना" तथा उसकी अपूर्व मधुरिमा का
अनुकरण करने वाले कवियों की प्रदीर्घ परंपरा संस्कृत साहित्यिकों में हुई, इस कारण गीतिकाव्य के प्रवर्तकत्व का बहुमान उन्हींको दिया जाता है। कुछ उल्लेखनीय गीतिकाव्य :गीतराघवम् :- ले. प्रभाकर, (2) हरिशंकर, (3) रामकवि, गीतगंगाधरम् :- ले. कल्याणकवि, (2) नंजराजशेखर, (3) चंद्रशेखर सरस्वती। गीतशंकरम-ले-मृत्युंजय अनंत नारायण । गीतदिगम्बरम् :- ले- रामचंद्रसुत वंशमणि। गीतगौरीपति :- ले-भानुदास। संगीतमाधवम्-ले-गोविंददास। संगीतरघुनन्दनम् :- ले-प्रियदास, (2) विश्वनाथ । संगीतराघवम् :- ले-चिन्ना बोम्मभूपाल। संगीतसुंदरम् :- ले-सदाशिव दीक्षित । गीतवीतरागप्रबन्ध :- ले. अभिनवचारुकीर्ति । गीतशतकम् :- ले- सुन्दराचार्य। शिवगीतमालिका :- ले-चण्डशिखामणि। गानामृततरंगिणी :- ले-टी.नरसिंह अय्यंगार। (या कल्किसिंह)। शंकरसंगीतम् :- ले-जयनारायण । शिवगीतमालिका :- ले-चन्द्रशेखर सरस्वती (आप कांची कामकोटी शांकर पीठ के 63 वें आचार्य थे)। शहाजिविलासगीतम् :- ले-ढुण्डिराज। कृष्णलीलातरंगिणी :- ले-नारायणतीर्थ (2) बेल्लंकोण्ड रामराय। कृष्णभावनामृतम् :- ले-विश्वनाथ । कृष्णामृत तरंगिका-ले-वेंकटेश। तीर्थभारतम् :- ले-श्रीधर भास्कर वर्णेकर। श्रीरामसंगीतिका :- ले-श्री.भा.वर्णेकर। श्रीकृष्णसंगीतिका- ले.श्री.भा.वर्णेकर, (प्रस्तुत कोश के संपादक) गीतिकाव्यों के आधुनिक लेखकों में पदुकोट्टा के प्राध्यापक सुब्रह्मण्यसूरि ने रामावतारम्, विश्वामित्रयागम्, सीताकल्याणम्, रुक्मिणीकल्याणम् विभूतिमाहात्म्यम्, हल्लीश-मंजरी, दोलागीतानि इत्यादि गीतिकाव्य लिखे हैं। महाराष्ट्र के राम जोशी ने संस्कृत-मराठी संवादात्मक द्वैभाषिक गीतकाव्य लिखे हैं। जयपुर के भट्टश्री मथुरानाथशास्त्री (मंजुनाथ) ने अपने साहित्यवैभवम्, में रेलशकटि (रेलगाडी), वायुयान, अब्धियान (जहाज) ट्रामवे जैसे लौकिक विषयों पर विविध प्रकार के गीतिकाव्य लिखे हैं। कोचीन के वारवूर कृष्ण मेनन ने गाथाकादम्बरी नामक कादम्बरी का गेय रूपांतर रचा है। वेंकटरमणार्य ने अपने कमलाविजयम् नाटक में श्री, स्त्री, सुधी, कन्या, पंक्ति, शशिवदना, विद्युल्लेखा, कुमारललिता इत्यादि अभिनव गेयकाव्यों के लक्षणों की चर्चा की है। गुजरात में गरबा नृत्य की प्रथा लोकप्रिय है। उस नृत्य के योग्य संस्कृतगीतों का संग्रह चांदोद के संस्कृतभाषा प्रचार मंडल ने प्रसिद्ध किया है। आधुनिक संस्कृत कवियों में गीति काव्य रचना की प्रवृत्ति अधिक मात्रा में दिखाई देती है। संस्कृत की मासिक पत्रिकाओं में आज कल वृत्तबद्ध काव्यों की अपेक्षा गीतिकाव्य अधिक प्रकाशित होते हैं।
6 "दूतकाव्य" महाकवि कालिदास की प्रत्येक काव्यकृति की यह अपूर्वता है कि वह स्वसदृश काव्य तथा नाट्य प्रणाली की प्रवर्तक हुई है। कालिदास की प्रत्येक काव्यकृति तथा नाट्यकृति को आदर्श मानते हुए अनेक कवियों ने अपनी प्रतिभा शक्ति का विनियोग किया और तदनुसार महाकाव्यों तथा नाटकों की रचना की। उनमें कालिदास का मेघदूत यह खण्डकाव्य भी एक युगप्रवर्तक कलाकृति हुई जिसके प्रभाव के कारण संस्कृत साहित्य क्षेत्र में दूतकाव्यों की पृथक् परंपरा प्रचलित हुई।
वस्तुतः दूतकाव्यों की परंपरा का मूल ऋग्वेद के दशम मण्डलस्थ-108 वें सूक्त में मिलता है; जिसमें सरमा नामक देव-शुनी को पणियों पास दूतकर्म के लिये भेजा गया है। रामायणकार आदिकवि वाल्मीकि ने हनुमान् का दूतकर्म अत्यंत
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प्रभावपूर्ण पद्धति से चित्रित किया है। महाभारत के नलोपाख्यान में वर्णित हंस का दूतकर्म सर्वत्र सुविदित है। इस प्रकार दूतद्वारा प्रिय व्यक्ति की ओर काव्यात्मक संदेश भेजने की कविपरंपरा कालिदास को अज्ञात नहीं थी। मेघदूत की रचना करते समय रामायण के हनुमद्भूत का चित्र कालिदास के मन में था इस का प्रमाण “इत्याख्याते पवनतनयं मैथिलीवोन्मुखी सा" इस पंक्ति में स्पष्ट मिलता है। परंतु कालिदास का मेघरूपी दूत "धूमज्योतिसलितमरुतां सन्निपातः" याने एक अचेतन पदार्थ था। इस प्रकार के अचेतन दूतों के माध्यम से काव्यात्मक सन्देश (या सन्देशकाव्य) लिखने की प्रवृत्ति पर भामह ने अपने काव्यालंकार में प्रतिकूल अभिप्राय व्यक्त किया है :
"अयुक्तिमद् यथा दूता जलभृन्मारुतेन्दवः। तथा भ्रमरहारीतचक्रवाकशुकादयः ।।2-42।। अवाचो युक्तिवाचश्च दूरदेशविचारिणः। कथं दूत्यं प्रपद्येरनिति युक्त्या न युज्यते।।43 ।।
यदि चोत्कण्ठया यत् तदुन्मत्त इव भाषते। तथा भवतु भूनेदं सुमेधोभिः प्रयुज्यते । 144 ।। अर्थात् मेघ, वायु, चंद्र, भ्रमर, आदि पक्षी वाणीहीन होने के कारण संदेशवाहक दूतकर्म कैसे कर सकेंगे? उन का दूतकर्म युक्तिसंगत नहीं प्रतीत होता। अत्यंत उत्कण्ठा के कारण उन्मत्त होकर नायक उनके द्वारा संदेश भेजते होगे तो वह ठीक नहीं है। इस प्रकार के दूत अच्छे बुद्धिमान् लोगों द्वारा भेजे गए. काव्यक्षेत्र में दिखाई देते हैं। इस प्रकार का साहित्य-शास्त्रकार भामह का प्रतिकूल अभिप्राय होने पर भी संस्कृत साहित्यिकों ने उस की ओर विशेष ध्यान नहीं दिया। संदेशकाव्यों की परंपरा अव्याहत चालू ही रही।
__ कुछ समालोचकों ने दूतकाव्यों का अन्तर्भाव प्रबन्धात्मक गीतिकाव्यों में तथा मुक्त गीतिकाव्य के रसात्मक प्रकार में किया है। रसरहित गीति साहित्य के अर्न्तगत स्तोत्र, शतक आदि काव्यप्रकारों का अन्तर्भाव वे करते हैं।
उत्तम दूतकाव्य नायक-नायिका के वियोग को पृष्ठभूमि पर लिखे गये हैं। ऐसी विरहावस्थामें दूरस्थ नायिका की स्मृति से व्याकुल नायक मेघ, चंद्रमा, हंस पक्षी आदि के द्वारा अपनी व्यथा प्रेयीसी के प्रति काव्यरूप में भेजता है। साथ ही वह अपने कल्पित संदेशवाहक को प्रिया के निवासस्थान का मार्ग कथन करते हुए नदी, पर्वत, कानन, नगर, ग्राम, तीर्थक्षेत्र आदि रमणीय स्थानों का चित्रण करता है, जिसमें उसकी विरहव्यथा या विप्रलंभ शृंगार की व्यज्जना अत्यंत हृदयावर्जक हुई है। दूतकाव्यों का विषय इतना ही सीमित होने के कारण वह लघुत्तर होता है। इसी कारण साहित्यशास्त्री उसे “खण्डकाव्य" कहते हैं। इस प्रकार की काव्य परंपरा में मेघदूत की साथ ही घटखर्परकाव्य (ले-घटखर्पर) को भी महत्त्व दिया जाता है। मेघदूत और घटखर्परकाव्य के पौर्वापर्य के संबंध में मतभेद है। अभिनवगुप्ताचार्य ने घटखर्पर काव्य पर टीका लिखी है। उसीमें वे उसे कालिदास की ही रचना मानते हैं। मेघदूत का स्पष्ट प्रभाव या अनुकरण, रामचंद्रकृत घनवृत्त, कृष्णमूर्तिकृत यक्षोल्लास, रामशास्त्रीकृत मेघप्रतिसन्देश, परमेश्वर झा कृत यक्षसमागम जैसे काव्यों में दिखाई देता है। जिनसेनाचार्य कृत पार्वाभ्युदय काव्य में प्रत्येक पद्य मेघदूत के क्रम से एक चरण या दो चरणों की समस्या के रूप में ले कर पूरा किया है। विक्रमकविकृत नेमिदूत में मेघदूत के अन्तिम चरणों की समस्यापूर्ति की गई है। मेरुतुंग आचार्य के काव्य का नाम जैनमेघदूत हे परंतु इसमें मेघदूत की समस्यापूर्ति नहीं है। चरित्रसुंदरगणिकृत शीलदूत में कालिदास के मेघदूत का अनुकरण और उसके चौथे चरण की समस्यापूर्ति प्रत्येक श्लोक में की गयी है। मेघविजय कृत मेघदूतसमस्यालेख में मेघद्वारा गुरु के पास सन्देश भेजा गया है।
कालिदास के मेघदूत में प्रधान रस वियोग शृंगार, उद्दीपनविभाव के रूप में आकाश मार्ग से दृग्गोचर सृष्टिके सौंदर्य का रसानुकूल चित्रण हुआ है। परंतु उसका अनुकरण करने वाले अन्य काव्यों में सन्देशवाहक की कल्पना के अतिरिक्त रस, भाव में तथा छन्द में भी वैचित्र्य आया है। जैन संप्रदायी कवियों के दूतकाव्यों में शृंगारिकता के स्थान पर आध्यात्मिक उदात्तता का भाव प्रतीत होता है। वैष्णव कवियों की रचनाओं में कवीन्द्र भट्टाचार्य कृत उध्दवदूत, रूपगोस्वामी कृत उद्धवसन्देश, श्रीकृष्णसार्वभौम कृत पादाङ्कदूत, लंबोदरवैद्यकृत गोपीदूत, त्रिलोचन कृत दूत तुलसी जैसे काव्यों में कृष्णभक्ति का मनोज्ञ उद्रेक दिखाई देता है।
मेघदूत के सन्देशवाहक दूत कल्पना का प्रभाव जर्मन कवि शीलर पर हुआ था। उसने अपने "मारिया स्टुअर्ट" नामक काव्य में कारागृह में पड़ी हुई नायिका का सन्देश मेघ द्वारा प्रियतम की ओर भेजा है। विश्वसाहित्य में बाइबल और पंचतंत्र के अनुवाद संसार की सभी प्रमुख भाषाओं में अभी तक हुए हैं। मेघदूत के अनुवादों की भी संख्या उतनी ही बडी है। इसका पहला अनुवाद 13 वीं शती में तिब्बती भाषा में हुआ। सन 1847 में मैक्समूल्लर ने जर्मन भाषा में किया हुआ अनुवाद उत्कृष्ट माना जाता है। अंग्रेजी अनुवादों में अमेरिकन पंडित रायडर का अनुवाद उत्कृष्ट माना जाता है। 19 वीं शताब्दी में बोन आर गील्ड मिस्टर ने लातिन भाषा में उत्तम अनुवाद किये। मराठी भाषा में भारत के भूतपूर्व विद्वान अर्थमंत्री डॉ. चिन्तामणि द्वारकानाथ देशमुख का समवृत्त अनुवाद सर्वोकृष्ट माना जाता है।
दूतकाव्य की विशेष अभिरुचि बंगाली साहित्यिकों में दिखाई देती है। डॉ. जतीन्द्रबिमल चौधरी ने सन 1953 में
ने घटसर्पर काव्य पर महत्त्व दिया जाता है। मघटूकहते हैं। इस प्रकार
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"बंगीय दूतकाव्येतिहास:" नामक प्रबन्ध लिखा जिसमे बंगाल के पचीस दूतकाव्यों का सविस्तर परिचय दिया है।
कुछ उल्लेखनीय दूतकाव्य :
पवनदूत : ले धोयी कवि ई-12 वीं शती सिद्धदूत ले अवधूत रामयोगी, ई-13 वीं शती मनोदूत :- ले-विष्णुदास कवि, ई-15 वीं शती ।
मनोदूत :- ले- रामशर्मा, ई- 15 वीं शती । उद्धवदूतः ले-कवीन्द्र भट्टाचार्य, ई-16 वीं शती । 17 वीं शती के दूतकाव्य : उद्धवसन्देश ले रूप गोस्वामी पिकदूत पादांकदूतले श्रीकृष्ण सार्वभौम ।
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गोपीदूत :- ले लम्बोदर वैद्य तुलसीदूत ले त्रिलोचन ।
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।
हंससन्देश :- ले-वेदान्त देशिक कवीन्द्राचार्य भ्रमरदूत ले रुद्रवाचस्पति कोकिलसन्देश :- ले वेंकटाचार्य यक्षोल्लास :- कृष्णमूर्ति ।
हंसदूत :- रघुनाथदास पवनदूत :- ले-सिद्धनाथ विद्यावागीश । I
। ।
वातदूत :- कृष्णानन्द ( या कृष्णनन ) न्यायपंचानन ।
अनिलदूत - रामदयाल तर्करत्न । पादपदूत गोपेन्द्रनाथ गोस्वामी कोकिलसन्देश : वेंकटाचार्य
I
।
18 वीं शती के कुछ दूतकाव्य : चन्द्रदूत ले कृष्णचंद्र तर्कालंकार ।
:- ले- त्रिलोचन । तुलसीदूतः ले वैद्यनाथ द्विज ।
20 वीं शती के दूतकाव्य ।
शुकसन्देश :
·
तुलसीदूत :
कोकिल :- ले- हरिदास । काकदूत-ले-रामगोपाल । पिकदूत-ले-अंबिकाचरण देवशर्मा ।
:- ले-रंगनाथ वाताचार्य
19 वीं शती के दूतकाव्य : मेघदूत :- - त्रैलोक्यमोहन । भक्तिदूत :- ले-कालीप्रसाद ।
उध्दवदूत :- ले-माधव ।
:- - रुद्र न्यायवाचस्पति । पवनदूत ले- वादिराज ।
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250 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
सन्देश :- ले- रंगनाथ ताताचार्य । कीरसन्देश -ले-लक्ष्मी कान्तय्या (हैद्राबाद निवासी) । कीरदूत :- ले-रामगोपाल । भृंगसंदेश :लेखिका-त्रिवेणी। भ्रमरसन्देश लेय. महालिंगशास्त्री मधुकरतूतः चक्रवर्ती राजगोपाल मैसूर निवासी) कोकिलसन्देश :ले-1) नृसिंह (2) वरदाचार्य, (3) वेंकटचार्य, (4) उद्दण्डकवि इनके काव्य में वासुदेव कविकृत भृंगसंदेश का प्रतिसन्देश है। पिकसन्देश :- ले-1) रंगाचार्य, 2) कोचा नरसिंहाचार्य कोकिलदूत ले प्रमथनाथ तर्कभूषण कोकिल-सन्देश1) अण्णंगराचार्य 2) गुणवर्धन, 3) नरसिंह। हंससन्देश :- ले- 1) वेंकटेश 2) सरस्वती । गरुडसन्देश :- कोचा नरसिंहाचार्य । चकोरसन्देश :- ले-1) वासुदेव, 2) वेंकट, 3) पेरुसूरि । मयूरसन्देश :- 1) रंगाचार्य, 2) श्रीनिवासाचार्य सुरभिसन्देश :--विजयराघवाचार्य सुभगसन्देश : ले-1 ) लक्षमणसूरि 2) नारायण कवि पान्यदूतः ले भोलानाथ मनोदूत ले 1 ) व्रजनाथ, 2) विष्णुदास, 3) रामकृष्ण । कोकसन्देश - ले-विष्णुत्रात । हास्यप्रधानदूतकाव्य : मुद्गरतूत ले रामावतार शर्मा बल्लवदूत बटुकनाथ शर्मा काकदूत : ले 1) सहस्रबुद्धे, 2) राजगोपाल अय्यंगार अलकामिलन : ले-द्विजेन्द्रलाल शर्मा पुरकायस्थ इनके अतिरिक्त मारुतसंदेश मधुरोष्ठसंदेश, रन्ताङ्गददूत, चातकसंन्देश, पद्मदूत इत्यादि अनेक दूतकाव्य प्रकाशित हुए हैं। सुप्रसिद्ध आधुनिक विद्वान वसिष्ठ गणपति मुनि ने भृंगदूत नामक काव्य लिखा, परंतु उसमें कालिदासीय दूतकाव्य के माधुर्य की प्रतीति न आने के कारण उन्होंने वह नदी में फेंक दिया।
।
। । :
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7 स्तोत्रकाव्य
मम्मटाचार्य ने अपने काव्यप्रकाश में प्रारंभ में काव्य के छह प्रयोजन तथा फल बताएं हैं। उनमें "शिवेतरक्षति" याने अमंगल का नाश भी एक प्रयोजन बताया है इसके उदाहरण में सूर्यशतककार मयूर एवं गीतगोविंदकार जयदेव आदि कवियों की काव्यरचना की कथाएं बताई जाती हैं। सूर्यशतक की रचना के कारण मयूर कवि का श्वेतकुष्ठ नष्ट हुआ। गीतगोविंद के गायन से जयदेव की मृत पत्नी का उज्जीवन हुआ। गंगातट पर गंगालहरी के गायन से पण्डितराज जगन्नाथ का उद्धार हुआ । नारायणीय स्तोत्र के गायन से नारायणभट्ट वातरोग से मुक्त हुए, इस प्रकार की स्तोत्र काव्य विषयक अनेक कथाएं सर्वत्र प्रसिद्ध हैं।
स्तोत्रकाव्य का स्थायी भाव है उपास्य दैवत, गुरु तथा वंद्य महापुरुष के प्रति उत्कट भक्ति या परमप्रीति । इस अतिसात्त्विक भाव का उद्रेक, ऋग्वेद के इन्द्रवरुणादि देवताविषयक सूक्तों में सर्वप्रथम मिलता है समग्र ऋग्वेद को आद्य स्तोत्रसंग्रह कहने
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में अत्युक्ति नहीं होगी। ऋग्वेद के प्रत्येक सूक्त में स्तुत्य देवता के प्रति मंत्रद्रष्टा ऋषि के हृदय के सात्त्विक भाव व्यक्त हुए हैं। उपास्य देवता के दिव्य गुणों तथा कर्मों का वर्णन किया हुआ है। "त्वं हि नः पिता वसो त्वं माता शतक्रतो बभूविथ अद्या ते सुम्नमीमहे। (ऋ. 8-98-11)
सखा पिता पितृतमः पितृणां । कामु लोकमुशते वयो धा।। (क्र. 4-98-17) इस प्रकार के कुछ मंत्रों में उपास्य देवता से माता, पिता, सखा, बंधु जैसा नाता भी जोड़ा गया है। साथ ही पापक्षालन, पुण्यलाभ, विजय, अभ्युदय के लिए देवता से प्रार्थना अथवा याचना भी की गयी हैं। इसी प्रकार के मंत्र या सूक्त यजुर्वेद
और अथर्ववेद में भी स्थान स्थान पर मिलते हैं। स्तोत्रवाङ्मय में जिस भक्तिभाव का नितान्त महत्त्व है, उसकी महिमा सर्वप्रथम श्वेताश्वतर उपनिषद के,
“यस्य देवे परा भक्तिः यथा देवे तथा गुरौ। तस्यैते कथिता ह्या प्रकाशन्ते महात्मनः" (श्वेता. 6-23) ("जिस के हृदय में देवता के प्रति तथा गुरु के प्रति भी पराभक्ति होती है, उसी महात्मा को उपनिषद् के गूढ अर्थों कि प्रतीति आती है।) इस मंत्र में प्रतिवादन किया है। इसी भक्तियोग का प्रतिपादन श्रीमद्भगवद्गीता तथा समग्र पुराण वाङ्मय में किया हुआ है। श्रीमद्भागवत जैसे उत्कृष्ट पुराण में अनेक मधुर स्तोत्रों का भरपूर संग्रह मिलता है। अन्य सभी पुराणों में सर्वत्र स्तोत्र काव्य बिखरे हुए हैं। शंकर, रामानुज, वल्लभ, मध्व, रामानंद, चैतन्य आदि सभी वैष्णव, शैव, जैन, बौद्ध इत्यादि अन्यान्य सम्प्रदायों के आचार्यों ने अपनी अपनी धारणा के अनुसार अनन्य भक्तिभाव का महत्त्व प्रतिपादन किया है, और उनके सभी श्रेष्ठ अनुयायी साहित्यिकों ने अपनी अपनी काव्यशक्ति के अनुसार भक्तिभावपूर्ण स्तोत्रकाव्यों की रचना, संस्कृत प्राकृत तथा अर्वाचीन प्रादेशिक भाषाओं में भरपूर मात्रा में की है। संसार की सभी भाषाओं में स्तोत्रमय काव्यों का जितना अधिक प्रमाण है उतना अन्य प्रकार के काव्यों का नहीं होगा।
संस्कृत स्तोत्रसाहित्य अत्यंत विशाल एवं सार्वत्रिक है। इसमें उपास्य देवता, पवित्र नदियां, तीर्थक्षेत्र, संत-महात्मा इत्यादि विभूतियों के प्रति भक्ति एवं लौकिक विषयबहुल तुच्छ जीवन के प्रति विरक्ति उत्कट स्वरूप में व्यंजित हुई है। साथ ही अलंकारों का वैचित्र्य भी भरपूर मात्रा में दिखाई देता है। तांत्रिक वाङ्मय में अन्तर्भूत स्तोत्रों एवं कवचों पर जनता की नितांत श्रद्धा होने के कारण उनके पारायण होते हैं।
रामायण का आदित्यहृदय, महाभारत का विष्णुसहस्रनाम, मार्कण्डेयपुराण का दुर्गास्तोत्र जैसे अनेक पौराणिक आख्यानों के अंगभूत स्तोत्रों का स्वतंत्र पुस्तकों के रूप में प्रकाशन हुआ है। महाकाव्यों में भी पौराणिक पद्धति से रचे हुए, परंतु अधिक अलंकारमय स्तोत्रों का प्रमाण भरपूर मात्रा में मिलता है। इनके अतिरिक्त 'सहस्रक" तथा "शतक" पद्धति के स्तोत्रमय खण्डकाव्यों का भी प्रमाण संस्कृत साहित्य में भरपूर है।
कुछ उल्लेखनीय सहस्रक : लक्ष्मीसहस्रम् : ले. वेंकटाध्वरि । शिवदयासहस्रम् : ले. नृसिंह। शिवपादकमलरेणुसहस्रम् : ले. सुन्दरेश्वर। लक्ष्मीसहस्रम्
और रंगनाथसहस्रम् लेखिका त्रिवेणी। (प्रतिवादिभयंकर वेंकटाचार्य की धर्मपत्नी। ई. 10 वीं शती) नारायणीयम् : ले. नारायणभट्ट। उमासहस्रम् ले. वसिष्ठ गणपतिमुनि (ई. 20 वीं शती) क्षमापनसहस्र : ले. त्रिवांकुरनरेश केरलवर्मा (ई. 19-20 वीं शती)। महाभारत के अंतर्गत विष्णुसहस्रनाम स्तोत्र एक उत्कृष्ट भगवत्स्तोत्र माना गया है, उसके अनुसार विविध देवताओं के सहस्रनाम तांत्रिक स्तोत्रकारों ने लिखे हैं; जैसे उच्छिष्टगणेश सहस्रनाम, कादिसहस्रनामकला, गकारादिगणपतिसहस्रनाम स्तोत्र, गणेशसहस्रनाम, गायत्रीसहस्रनाम, जिनसहस्रनाम ले. जिनसेन। ज्वालासहस्रनाम, तारासहस्रनाम, त्रिपुरासहस्रनामस्तोत्र, दक्षिणकालिककारादिसहस्रनाम, दश्रिणामूर्तिसहस्रनाम, दुर्गा-दकारासहस्रनाम, प्रचण्डचण्डिकासहस्रनाम, बटुकभैरवसहस्रनाम, बालभैरवसहस्रनाम, भद्रकालीसहस्रनाम, भवानीसहस्रनाम, भुवनेश्वरीसहस्रनाम, मंत्राधारीभवानीसहस्रनाम, महागणपतिसहस्रनाम, योगेशसहस्रनाम, रकारादिरामसहस्रनाम, रामसहस्रनाम, ललितासहस्रनाम, वाराही सहस्रनाम, शिवसहस्रनाम, सूर्यसहस्रनामस्तोत्र, ले.भानुचंद्र मणि । सहस्रनामकमाला-कला (ले. तीर्थस्वामी । इन्होंने 40 सहस्रनामों के गूढार्थकनामों की कला नामक व्याख्या लिखी है।
आंध्र के अर्वाचीन सत्पुरुष बेल्लकोण्ड रामराय ने विवर्णादिविष्णु-सहस्रनामावली, हकारादि-हयग्रीव-नामावली और परमात्मसहस्रनामावली की रचना की और स्वयं उनकी व्याख्याएं भी लिखीं। नटराजसहस्रम् नामक अतिप्राचीन स्तोत्र की टीका आनंदतांडव दीक्षित और सोमशेखर दीक्षित ने लिखी है।
सहस्रनामस्तोत्रों के समान अष्टोत्तरशतनाम स्तोत्रों का प्रमाण भी भरपूर है। इस प्रकार के स्तोत्रों का विनियोग तंत्रमार्ग के साधकों एवं सकाम उपासकों द्वारा यत्र तत्र यथावसर होता है।
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सहस्रश्लोकात्मक स्तोत्रों के समान शतकस्वरूप स्तोत्रों की रचना भी अनेक कवियों ने की है। अध्यर्धशतक : ले. मातृचेट। यह एक प्राचीन बौद्धस्तोत्र है। जिनशतकालंकार : ले. समन्तभद्र। सूर्यशतक : मयूरकवि । देवीशतक : ले. आनंदवर्धनाचार्य। गीतिशतक : ले. सुंदरार्य। अंबाशतक : ले. सदाक्षर, ई. 17 वीं शती। अंबुजवल्ली शतक : ले. वरदादेशिक, ई. 17 वीं शती। इन्होंने वराहशतक भी लिखा है। देव्यायशतक ले. रमणापति। रसवतीशतक : ले. धरणीधर । रामशतक : ले. सोमेश्वर । ईश्वरशतक : ले. अवतार । मीनाक्षीशतक : हनुमत्शतक, मालिनीशतक और लक्ष्मीनृसिंहशतक इन चारों स्तोत्रों के लेखक हैं परिथियुर कृष्णकवि। सुदर्शनशतक : ले. कूरनारायण । कालिकाशतक और आत्मनिवेदनशतक : दोनों के लेखक हैं बटुकनाथ शर्मा । कोमलाम्बाकुचशतक ले. सुंदराचार्य, ई. 20 वीं शती। शारदाशतक, विज्ञप्तिशतक, महाभैरवशतक, हेटिराजशतक, योगिभोगिसंवादशतक : इन पांच शतकों के लेखक हैं श्रीनिवासशास्त्री; तंजौरनिवासी, ई. 19 वीं शती। नृसिंहशतक और नखशतक : दोनों के लेखक हैं तिरुवेंकट तातादेशिक । पद्मनाभशतक : ले. त्रिवांकुरनरेश रामवर्मकुलशेखर, ई. 19 वीं शती। गुरुवायुरेशशतक, व्याघ्रालयेशशतक और द्रोणाद्रिशतक : तीनों के लेखक- त्रिवांकुरनरेश केरलवर्मा, ई. 19-20 वीं शती। गणेशशतक : ले. अंबिकादत्त व्यास। रामवल्लभराजशतक : ले. बेल्लंकोण्ड रामराय। कृष्णशतक : ले. वाक्तोलनारायण मेनन । सूर्यशतक और मारुतिशतक : ले. रामावतारशर्मा। शूलपाणिशतक : ले. कस्तूरी श्रीनिवासशास्त्री। राधाप्रियशतक : ले. राधाकृष्ण तिवारी (सोलापुर निवासी)। कटाक्षशतक : ले. गणपतिशास्त्री। वीरांजनेयशतक : ले. श्रीशैलदीक्षित। रक्षाबन्धनशतक : ले. विमलकुमार जैन (कलकत्तानिवासी)। युगदेवताशतक : ले. श्रीधर भास्कर वर्णेकर। विषय श्रीरामकृष्ण परमहंस) बाललीलाशतक (अपरनाम वात्सल्यरसायनम्) : ले. श्रीधर भास्कर वर्णेकर ।
उपरनिर्दिष्ट शतकात्मक स्तोत्र काव्यों की रचना आधुनिक कालखण्ड में हुई है। इनके अतिरिक्त दशक, अष्टक षट्पदी जैसे लघुस्तोत्रों की संख्या अगण्य है जिनमें कुछ स्तोत्र सर्वत्र छपे हैं। शंकराचार्यकृत शिवमानसपूजास्तोत्र के अनुसार अन्यान्य देवताओं के भी मानसपूजास्तोत्र लिखे गये हैं।
कुछ सुप्रसिद्ध प्राचीन स्तोत्र शिवमहिम्नःस्तोत्र : ले. पुष्पदन्त नामक गन्धर्व । मद्रास की कितनी ही हस्तिलिखित प्रतियों में कुमारिलभट्टाचार्य ही इनके कर्ता लिखे गये हैं। सुभगोदयस्तुति : ले. गौडपादाचार्य (शंकराचार्य के दादागुरु) । ललितास्तवरत्न और त्रिपुरसुन्दरी महिम स्तोत्र दोनों के रचयिता दुर्वास माने जाते हैं। सौन्दर्यलहरी : ले. शंकराचार्य । शिवस्तोत्रावली : ले. उत्पलदेव। इसमें शिवपरक 21 स्तोत्रों का संग्रह है। अर्धनारीश्वरस्तोत्र ले. राजतंरगिणीकार कल्हणकवि। दीनाक्रन्दनस्तोत्र : ले. लोष्टककवि । स्तुतिकुसुमांजलि : जगद्धरकृत। 38 शिवस्तोत्रों का संग्रह। इसकी श्लोकसंख्या 1415 है। (मालतीमाधव और वेणीसंहार के टीकाकार जगद्धर इनसे भिन्न है)। आनंदमंदाकिनी : ले. मधुसूदन सरस्वती। कृष्णकर्णामृत : ले. लीलाशुक । रामचार्यस्तव : ले. रामभद्रदीक्षित। तंजौर नरेश शहाजी (प्रथम ई. 17-19 वीं शती) के सभाकवि। इन्होंने रामभक्ति परक रामबाणस्तव, विश्वगर्भस्तव (या जानकीजानिस्तोत्र) वर्णमालास्तोत्र और रामाष्टप्रास इन पांच स्तोत्र काव्यों में प्रभुरामचंद्र की स्तुति की है। वरदराजस्तव : ले. अप्पय्य दीक्षित । गंगालहरी या पीयूषलहरी : ले. पंडितराज जगन्नाथ। इनकी करुणालहरी, अमृतलहरी (यमुनास्तुति), लक्ष्मीलहरी, सुधालहरी (सूर्यस्तुति) ये अवांतर 4 लहरियां भी स्तोत्रकाव्यों में प्रसिद्ध हैं।
जैन स्तोत्र जैन धर्म के प्राचीनतम स्तोत्र प्राकृत भाषा में मिलते हैं। बाद में संस्कृत भाषा में दार्शनिक तथा आलंकारिक शैली में अनेक स्तोत्र लिखे गये। दार्शनिक स्तोत्रों में उल्लेखनीय स्तोत्र हैं: समन्तभद्रकृत स्वयंभूस्तोत्र, देवागमस्तोत्र, युत्तयनुशासन और जिनशतकालंकार। आचार्य सिद्धसेनकृत द्वात्रिशिकाएं। आचार्य हेमचंद्र कृत अयोगव्यवच्छेद-द्वात्रिंशिका और अन्ययोगव्यवच्छेद द्वात्रिंशिका। इसी प्रकार के दार्शनिक स्तोत्र वेदान्ती आचार्यों ने भी लिखे हैं। व्याख्याओं की सहायता से ये स्तोत्र दार्शनिक प्रकरणग्रन्थों के समान उद्बोधक होते हैं।
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आलंकारिक जैन स्तोत्र सर्वजिनपतिस्तुति : ले. श्रीपाल (प्रज्ञाचक्षु)। चतुर्हारावलि चित्रस्तव : ले. जयतिलकसूरि। वीतरागस्तव : ले. विवेकसागर। इस श्लेषमय स्तोत्र से तीस अर्थ निकलते हैं। स्तंभपार्श्वस्तव : ले. नयनचन्द्रसूरि। इसमें 14 अर्थ मिलते हैं। पादपूर्तिप्रधानस्तोत्र : ऋषभ-भक्तामर : ले. समयसुन्दर। शान्तिभक्तामर : ले. लक्ष्मीविमल। नेमिभक्तामर (या प्राणप्रियकाव्य) : ले. रत्नसिंहसूरि। वीरभक्तामर : ले. धर्मवर्धनगणि। सरस्वतीभक्तामर : ले. धर्मसिंहसूरि। एवं जिनभक्तामर, आत्मभक्तामर, श्रीवल्लभभक्तामर तथा कालूभक्तामर इत्यादि स्तोत्रों में सुप्रसिद्ध मानतुंगाचार्य कृत भक्तामरस्तोत्र के चतुर्थ पाद की पूर्ति करते हुए, कवियों ने अपने भक्तिमय भाव व्यक्त किये हैं। भक्तामरस्तोत्र में 44 या 48 पद्यों में प्रथम तीर्थंकर की स्तुति मानतुंगाचार्य ने की है। भक्तामरस्तोत्र पर कनन कुशलगणिकृत टीका महत्त्वपूर्ण है। जैनस्तोत्रों में कुमुदचन्द्रकृत कल्याणमंदिरस्तोत्र भी विशेष लोकप्रिय है। इसके 44 पद्यों में तीर्थंकर पार्श्वनाथ की स्तुति की है। समस्यापूर्ति के लिए इस स्तोत्र का आधार लेते हुए भावप्रभसूरि ने जैनधर्मपर स्तोत्र लिखा। पार्श्वनाथस्तोत्र, विजयनन्दसूरीश्वरस्तवन, वीरस्तुति आदि स्तोत्रों के लेखक अज्ञात हैं। इनके अतिरिक्त जैन स्तोत्रों में देवनन्दीपूज्यपाद (छठी शती) कृत सिद्धभक्ति आदि बारह भक्तियां और सिद्धप्रियस्तोत्र पात्रकेशरी (छठी शती) कृत जिनेन्द्रगुणस्तुति (या पात्रकेशरीस्तोत्र)। बप्पभट्टिकृत (8 वीं शती) सरस्वतीस्तोत्र, शान्तिस्तोत्र चतुर्विशति जिनस्तुति और वीरस्तव धनंजयकृत विषापहारस्तोत्र, विद्यानंदकृत श्रीपुरपार्श्वनाथ स्तोत्र, शोभनमुनिकृत (11 वीं शती) चतुर्विंशतिजिनस्तुति, वादिराजसूरिकृत ज्ञानलोचनस्तोत्र एवं एकीभावस्तोत्र, भूपालकविकृत जिनचतुर्विंशतिका, आचार्य हेमचंद्र (12 वीं शती) कृत वीतरागस्तोत्र, महादेवस्तोत्र और महावीरस्तोत्र, जिनवल्लभसूरिकृत (12 वीं शती) भवादिवारण, अजितशान्तिस्तव आदि अनेकस्तोत्र प्रसिद्ध हैं।
आशाधर (ई. 13 वीं शती) कृत सिद्धगुणस्तोत्र, जिनप्रभसूरिकृत सिद्धान्तागमस्तव, अजितशान्तिस्तवन, महामात्य वस्तुपाल (ई. 13 वीं शती) कृत अम्बिकास्तवन, पद्मनन्दिभट्टारककृत रावणपार्श्वनाथस्तोत्र, शान्तिजिनस्तोत्र, वीतरागस्तोत्र, शुभचन्द्रभट्टारककृत शारदास्तवन, मुनिसुंदर (14 वीं शती) कृत स्तोत्ररत्नकोश आदि अनेक स्तोत्र मिलते हैं। इन विविध स्तोत्रों के संग्रह के रूप में अनेक संस्करण प्रकाशित हुए हैं जैसे जैनस्तोत्रसंदोह, जैनस्तोत्रसमुच्चय, जैनस्तोत्रसंग्रह, स्तोत्ररत्नाकर, जिनरत्नकोश आदि ।
बौद्ध स्तोत्र बौद्ध साहित्यिकों में अध्यर्धशतक (150 श्लोकों का स्तोत्र) के रचयिता मातृचेट स्तोत्रसाहित्य के अग्रदूत माने जाते हैं। इनके अतिरिक्त शून्यवादी नागार्जुनकृत चतुःस्तव, वज्रदत्तकृत लोकेश्वरशतक, सर्वज्ञमित्र (8 वीं शती) कृत आर्यातारास्रग्धरास्तोत्र, रामचन्द्रकविभारतीकृत (13 वीं शती) भक्तिशतक, इत्यादि बौद्धस्तोत्र उल्लेखनीय हैं। बौद्धसाहित्य में अन्य संप्रदायी साहित्य की अपेक्षा स्तोत्रकाव्य अत्यल्प हैं।
शंकर रामानुजादि वेदान्ती आचार्योने प्रस्थानत्रयी पर भाष्य लिख कर अपना प्रौढ पांडित्य व्यक्त किया; उसी प्रकार सगुण परमात्मा के प्रति अपनी भक्तिभावना व्यक्त करने वाले मधुर स्तोत्र भी लिखे हैं और वे उनके मठों में गाये जाते हैं। स्तोत्र कवियों में जगद्गुरु शंकराचार्य अग्रगण्य माने जाते हैं। उनकी साहित्यिक निपुणता तथा भावप्रवणता उनके सभी स्तोत्रों में प्रतिपद अभिव्यक्त होती है।
. आचार्यों का स्तोत्रसाहित्य शंकराचार्यकृत : सौन्दर्यलहरी, देव्यपराधक्षमापन, शिवापराधक्षमापन, आत्मषट्क, षट्पदी, दशश्लोकी, हस्तामलक, चर्पटमंजरी, (भज गोविंदम्), आनंदलहरी (इस पर 30 टीकाएं लिखी गई हैं, जिनमें एक स्वयं आचार्यजी ने लिखी है), दक्षिणामूर्तिस्तोत्र, हरिमीडे, शिवभुजंगप्रयात, अद्वैतपंचरत्न, धन्याष्टक। शंकराचार्यजी के नाम पर 2 सौ से अधिक स्तोत्र मिलते हैं। उपरनिर्दिष्ट स्तोत्रों के अतिरिक्त प्रायः सभी स्तोत्र उत्तरकालीन शांकरपीठाधिपतियों द्वारा विरचित माने जाते हैं। मध्वाचार्यकृतस्तोत्र : द्वादशस्तोत्र, नखस्तुति और कृष्णामृतमहार्णव। रामानुजाचार्यकृतस्तोत्र : विष्णुविग्रहासनस्तोत्र । वल्लभाचार्यकृत : पुरुषोत्तमसहस्रनाम, त्रिविधनामावली, यमुनाष्टक, मधुराष्टक, परिवृद्धाष्टक, नंदकुमाराष्टक, श्रीकृष्णाष्टक, गोपीजनवल्लभाष्टक, इ.।
चैतन्यमहाप्रभुकृत श्लोकाष्टक, मधुसूदनसरस्वतीकृत आनंदमंदाकिनी । उपासकों में बुधकौशिक विरचित श्रीरामरक्षास्तोत्र, रावणकृत शिवताण्डवस्तोत्र, देवीपुष्पांजलि, शिवमहिम्नस्तोत्र, षट्पदी, चर्पटपंजरिका, शिवमानसपूजा इत्यादि स्तोत्र विशेष प्रिय हैं।
स्तोत्र काव्य मुख्यतः स्तुतिपरक एवं प्रार्थनापरक होता है। देवतास्तुति के समान महापुरुषों के स्तुतिपरक अनेक स्तोत्र काव्य आधुनिक काल में लिखे गये हैं। जैसे :
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कवीन्द्रचन्द्रोदय-विषय कवीन्द्राचार्य की अनेक विद्वानों द्वारा की हुई स्तुति ।
कालिदासप्रतिभा दक्षिण भारत के 28 कवियों द्वारा विरचित कालिदासस्तुतिपरक विविध काव्यों का संग्रह।
'
तीर्थभारतम् ले. श्रीधर भास्कर वर्गेकर शंकर महावीर इत्यादि प्राचीन और विवेकानंद, स्तुति पद्य संगीत प्रधान हैं और कवि ने उनके
कालिदासरहस्यम् ले श्रीधर भास्कर वर्णेकर
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देशिकेन्द्रस्तयांजलि
कवितासंग्रह ले. केशव गोपाल ताम्हण विषय श्री शंकराचार्य, वासुदेवानंद सरस्वती, लोकमान्य तिलक आदि महापुरुषों की स्तुति । ले महालिंगशास्त्री विषयकांची कामकोटी पीठाधीश्वर चंद्रशेखर सरस्वतीजी की स्तुति श्रीमनरसिंहसरस्वतीमानसपूजा- ले, गोपाल मोहनाभिनन्दम्- ले. गणेशरामशर्मा विषय- महात्मा गांधी की स्तुति संस्कृत मासिक पत्रिकाओं में इस प्रकार के स्तुतिकाव्यों की भरमार मिलती है।
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विषय संपूर्ण भारत के विविध सुप्रसिद्ध तीर्थक्षेत्र तत्रस्थ देवता एवं बुद्ध, दयानंद म. गांधी इत्यादि अनेक महापुरुषों का स्तवन तीर्थभारतम् के सभी रागों का निर्देश चलनस्वरों के साथ प्रत्येक भक्तिगीत के साथ में किया है।
8 सुभाषितसंग्रह
सुभाषित, सूक्त, सूक्ति, सदुक्ति, सुवचन इत्यादि समानार्थ शब्दों द्वारा एक विशिष्ट काव्यप्रकार की ओर संकेत किया जाता है। लौकिक व्यवहार में न्याय, आभाणक, मुहावरे, प्रॉव्हर्ब इत्यादि द्वारा विचारों की वैचित्र्यपूर्ण अभिव्यक्ति होती है, उसी प्रकार साहित्यकारों की रचनाओं में पद्य या गद्य वाक्यों में जब चित्ताकर्षक विचार रखे जाते हैं, तब उसे सुभाषित कहा जाता है 1 ऐसे सुभाषितों का व्याख्यानों एवं लेखों में उपयोग करने से उनमें रोचकता बढती है। अतः कई वक्ता या लेखक ऐसे सुभाषितों का संग्रह स्वेच्छा से करते हैं। "कर्तव्यो हि सुभाषितस्य मनुजैरावश्यकः संग्रहः " इस प्रसिद्ध सुभाषित में भी सुभाषितों को कण्ठस्थ करने का संदेश दिया है। इस लिये कि सुभाषितों के यथोचित प्रयोग से, वक्ता या लेखक सब प्रकार के लोगों को वश कर सकता है "अज्ञान् ज्ञानवतोऽप्यनेन हि वशीकर्तुं समर्थो भवेत् ")
साहित्यशास्त्रियों ने महाकाव्य, खंडकाव्य, मुक्तक, चम्पू, नाटक इत्यादि साहित्य प्रकारों के तथा उनके अवांतर उपभेदों के लक्षण बताए हैं, परंतु "सुभाषित" का लक्षण किसी शास्त्रकार ने नहीं किया।" नूनं सुभाषित-रसोऽन्यरसातिशायी" इस वचन में "सुभाषितरस" का निर्देश किया है और यह रस अन्य रसों से श्रेष्ठ भी कहा है। सुभाषितों के जो अन्यान्य प्राचीन और अर्वाचीन संग्रह प्रकाशित हुए हैं, उनमें देवतास्तुति, राजस्तुति, अन्योक्ति, नवरस, नायक नायिका का सौंदर्य वर्णन, ऋतुवर्णन, मूर्खनिंदा, पंडितप्रशंसा, सत्काव्यस्तुति, कुकाव्यनिंदा, सामान्य नीति, राजनीति इत्यादि विविध विषयों पर पुराण, रामायण, भारत, पंच महाकाव्य प्रसिद्ध स्मृतिग्रंथ, नाटक, मुक्तककाव्य इत्यादि ग्रन्थो से चुने हुए श्लोकों का और वैचित्र्यपूर्ण गद्यवचनों का संग्रह मिलता है। इन पद्यों या गद्यों को आप्तवचन सा प्रामाण्य तत्त्वतः नहीं है, परंतु अनेक विद्वान ऐसे सुभाषितों को आप्त वाक्यवत् उद्धृत भी करते हैं।
प्रतिभाशाली वक्ता या लेखक के द्वारा ऐसे "सुभाषित " विषय प्रतिपादन के आवेश में या वर्णन के ओघ में, उनमें सूचित उत्कट अनुभव के कारण, अनायास व्यक्त होते हैं। व्यवहार में तो कभी कभी छोटे बच्चे के भी मुख से "सुभाषित " निकल आते हैं और वे प्रौढों ने ग्रहण करने योग्य होते हैं। इसी लिए कहा है कि "वालादपि सुभाषितं ग्राह्यम्। सारे ही वेदवचनों को आप्तवचन का प्रामाण्य है, तथापि उन में भी अनेक ऐसे वाक्य हैं जिनका सुभाषितों की पद्धति से उपयोग होता है, जैसे :- " नायमात्मा बलहीनेन लभ्यः । अहमिन्द्रो न पराजिग्ये । स्वर्गकामो यजेत । मातृदेवो भव, पितृदेवो भव । यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि नो इतराणि" इत्यादि । पुराणों और रामायण, महाभारत के सुभाषितों के स्वतंत्र संग्रह अब प्रकाशित हो चुके हैं। सुप्रसिद्ध सुभाषित संग्रहों में भर्तृहरि (7 वीं शती) के नीतिशतक, वैराग्यशतक और शृंगारशतक में कुछ सुभाषित पूर्वकालीन ग्रंथों से संकलित हुए हैं। संभव है कि कुछ पद्य अन्य अज्ञात कवियों के काव्यों से संकलित और कुछ स्वयं भर्तृहरिविरचित होंगे। सुभाषित संग्रहात्मक ग्रंथों का एक विशेष गुण है कि उनमें अनेक अज्ञात कवियों के इधर उधर बिखरे हुए मनोहर स्फुट पद्य सुरक्षित रहे, साथ ही कुछ कवियों के नाम भी । भोजराज के सभाकवियों का चित्रण, नाम तथा पद्य, सूक्तिग्रन्थों के कारण ही उपलब्ध होता है। उसी प्रकार,
"भासनाटकचक्रेऽपिच्छेकैः क्षिप्ते परीक्षितुम् । स्वप्नवासवदत्तस्य दाहकोऽभून्न पावकः । ।"
इस अज्ञात-कर्तृक एकमात्र सुभाषित के कारण उपलब्ध भासनाटकों का ज्ञान हुआ अन्यथा वे सारे (13) नाटक अज्ञातकर्तृक नाटकों की नामावली में जमा हो जाते।
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प्राचीन सुभाषित संग्रह :सुभाषित - सं. विद्याधर । ई. 12 वीं शती। बंगाल में मालदा जिले के निवासी। श्लोक- 1739। सदुक्तिकर्णामृत - सं. श्रीधरदास। ई. 13 वीं शती। श्लोक- 23801 सूक्तिमुक्तावली- सं. जल्हण। ये देवगिरी (महाराष्ट्र) के यादवंशीय राजा कृष्ण (ई. 13 वीं शती) के हस्तिवाहिनी पति थे। इन्होंके नाम भानुकवि ने यह संग्रह बनाया है। प्रसन्नसाहित्यरत्नाकर- सं. नन्दन पंडित ई. 15 वीं शती। शार्गधरपद्धति- सं. शाङ्गंधर। ई. 14 वीं शती। श्लोक 46161 सुभाषितावली- सं. वल्लभदेव। काश्मीरनिवासी। ई. 15 वीं शती। श्लोक- 3528 । पद्यावली- सं. रूपगोस्वामी। इसमें कृष्ण परक 386 श्लोकों का संग्रह है। सूक्तिरत्नहार- सं. कलिंगराय। ई. 14 वीं शती। सूक्तिरत्नाकर- सं. सिद्धचन्द्रमणि। ई. 13 वीं शती। प्रस्तावरत्नाकर- सं. हरिदास ।ई. 16 वीं शती। सुभाषितहारावली. सं. हरिदास। सूक्तिसुन्दर- सं. सुंदरदेव ई. 17 वीं शती। पद्यतरंगिणी- सं. व्रजनाथ। पद्यवेणी- सं. वेणीदत्त ई. 17 वीं शती। पद्यरचना- सं. लक्ष्मणभद्र अंकोलकर, ई. 17 वीं शती। श्लोक- 7561 पद्यामृततरंगिणी- सं. हरिभास्कर, ई. 17 वीं शती। श्लोक 301 । श्लोकसंग्रह- सं. मणिराम दीक्षित। 17 वीं शती श्लोक 16,061 शंगारालाप- स. रामयाज्ञिक। ई. 16 वीं शती। इस में शृंगारमय 1 सहस्र से अधिक श्लोकों का संग्रह है। सूक्तिमालिका-सं. नारोजी पंडित । ई. 16 वीं शती। श्लोक-- एक सहस्र से अधिक, जिनमें 238 श्लोक दशावतार वर्णन परक हैं। विद्याधरसहस्रक- सं. विद्याधर मिश्र। मिथिलानिवासी। पद्यमुक्तावली- सं. घाशीराम (2) गोविंदभट्ट। सुभाषित सुधानिधि- सं. सायणाचार्य। ई. 14 वीं शती। श्लोक 11181 । पुरुषार्थ-सुधानिधि- सं. सायणाचार्य। इसमें महाभारत, पुराणों उपपुराणों के सुभाषितों का संकलन तथा आख्यानों का संक्षेप एकत्रित किया है। अध्यायसंध्या- धर्मस्कन्ध- 45, अर्थस्कन्ध 23, कामस्कन्ध-14, मोक्षस्कन्ध- 191, पद्यावली- सं. मुकुंदकवि, (2) विद्याभूषण, (3) रूपगोस्वामी। प्रसतावचिन्तामणि- सं. चंद्रचूड। प्रस्तावतरंगिणी- सं. श्रीपाल। प्रस्तावमुक्तावली- सं. केशवभट्टी। प्रस्तावसारसंग्रह- सं. रामशर्मा । प्रस्तावसार- सं. साहित्यसेन । सुभाषितकौस्तुभ- सं. वेंकटाध्वरी। सुभाषितावली- सं. सकलकीर्ति । सुभाषितरत्न कोश- सं. कृष्णभट्ट। सुभाषितरत्नावलीसं. उमामहेश्वरभट्ट। सारसंग्रह- सं. शम्भुदास। सारसंग्रहसुधार्णव- सं. भट्टगोविंदजित् । सुभाषितनीति- सं. वेंकटनाथ। सुभाषितपदावली। सं. श्री निवासाचार्य । सुभाषितमंजरी- सं. चक्रवर्ती वेंकटाचार्य । सुभाषितसर्वस्वसं. गोपीनाथ । सूक्तिवारिधि- सं. पेदुभट्ट। सूक्तिमुक्तावली- सं. विश्वनाथ । सूक्तावली- सं. लक्ष्मण । सुभाषितसुरद्रम- . (1) केलाडी बसवप्पानायक (2) खंडेराय बसवयतीन्द्र। सुभाषितरत्नाकर- सं. (1) मुनिवेदाचार्य, (2) कृष्ण (3) उमापति, (4) के.ए. भाटवडेकर । सुभाषितरंगसार- सं. जगनाथ। सभ्यालंकरण- सं. गोविंदजित् । बुधभूषण- छात्रपति संभाजी (शिवाजी महाराज के पुत्र) सभ्यभूषणमंजरी- सं. गौतम । पद्यतरंगिणी- सं. व्रजनाथ ।
जैन संस्कृत साहित्य के सुभाषित संग्रह प्रायः धार्मिक तथा नैतिक सदाचार एवं लोकव्यवहार विषयक हैं। इन में उल्लेखनीय ग्रंथ हैं :- अमितगतिकृत सुभाषित रत्नसन्दोह। अर्हद्दासकृत भव्यजन- कण्ठाभरण। सोमप्रभकृत सूक्तिमुक्तावली काव्य । नरेन्द्रप्रभकृत विवेकपादप तथा विवेककलिका । मल्लिषेणकृत सज्जनचित्तवल्लभ। सोमप्रभकृत शृंगार-वैराग्यतरंगिणी। राजशेखरकृत उद्देश्यतरंगिणी। हरिसेनकृत कपूप्रकर। दर्शन विजयकृत अन्योक्तिशतक। हंसविजयगणिकृत अन्योक्तिमुक्तावली। धनराजकृत धनदशतकत्रय (विषयशंगार, नीति, वैराग्य) तेजसिंहकृत दृष्टान्तशतक।
ये सारे सुभाषित' ग्रंथ एककर्तृक हैं, अर्थात् इनमें अन्यान्य कवियों के काव्यों का संग्रह नहीं है। श्रीशंकराचार्यकृत विवेकचूडामणि का स्वरूप अध्यात्मपरक सुभाषितसंग्रह के समान ही है। जगन्नाथपंडितराजकृत भामिनीविलास में उनके शृंगार, करुण, मान्त रसमय तथा अन्योक्तिपरक सुभाषितों का संग्रह मिलता है। विठ्ठलपंत (विठोबा अण्णादप्तरदार) कृत सुश्लोकलाघव में महाराष्ट्र के अनेक ऐतिहासिक संतों की प्रशंसा वैशिष्यपूर्ण शैली में की है। श्लोक संख्या 500 से अधिक। श्री. ग. जो. जोशी कृत काव्यकुसुमगुच्छ, श्री. अर्जुनवाडकर कृत कण्टाकांजलि, महालिंगशास्त्रीकृत व्याजोक्तिरत्नावली, और द्राविडार्यासुभाषित
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 255
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सप्तप्ति। डॉ. चिन्तामणराव देशमुखकृत गान्धीसूक्तिमुक्तावली (गांधीजी की अंग्रेजी सदुक्तियों का पद्यानुवाद), डॉ. कुर्तकोटी शंकराचार्यकृत समत्वगीत, और श्रीधर भास्कर वर्णेकर कृत मन्दोर्मिमाला इत्यादि एककर्तृक सुभाषितों के विविध संग्रह प्रकाशित हुए हैं। आधुनिक काल में काशीनाथ पांडुरंग परब द्वारा संपादित सुभाषितरत्नभाण्डागार यह ग्रंथ अंतिम सुभाषितसंग्रह माना जाता है। इस में 7 प्रकरणों में दस हजार से अधिक विविध विषयों पर प्राचीन कवियों द्वारा रचित श्लोकों का संग्रह हुआ है। पूर्वकालीन प्रायः सभी सुभाषितसंग्रहों का इसके संपादन में सहाय लिया गया है। अब तक इसकी 8 आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं।
सुभाषित वाङ्मय में अब आवश्यकता है, 17 वीं शती के बाद हुए कवियों के सुभाषितों का संग्रह करने की। प्राचीन सुभाषित संग्रहों ने प्राचीन अज्ञात कवियों की स्मृति, उनके श्लोकों के रूप में जीवित रखे। आधुनिक कालखंड में प्रादेशिक भाषाओं का विशेष महत्त्व और प्रादेशिक साहित्य का बोलबाला होने के कारण आधुनिक संस्कृत साहित्य उपेक्षित रहा है। ऐसी अवस्था में अर्वाचीन संस्कृत सुभाषितों का बृहत्संग्रह संपादित होना नितान्त आवश्यक प्रतीत होता है।
१ कोशवाङ्मय सुभाषितसंग्रहों के समान संस्कृति वाङ्मय के क्षेत्र में शब्दकोश, हस्तलिखित संग्रहकोश, संस्कृत शब्द और उनके अन्यभाषीय पर्याय कोश, अन्यान्यशास्त्रों के परिभाषिक शब्दकोश, महत्त्वपूर्ण ग्रन्थों की अकारादिवर्णानुक्रमणिका इत्यादि विविध प्रकार का कोश वाङ्मय प्राचीन काल से आधुनिक काल तक यथावसर निर्माण होता रहा। चिकित्सात्मक एवं शोधात्मक कार्य करने वाले विद्वानों का कार्य, ऐसे कोशों से सुगम होता है। यह निर्विवाद है कि संस्कृत कोशवाङ्मय का प्रारंभ "निघंटु"से हुवा। निघण्टु की रचना वैदिक मंत्रों के स्पष्टीकरण के लिए की गई। निघंटु में वेदोक्त केवल दुर्बोध एवं आर्ष शब्दों का संग्रह मिलता है। यास्काचार्य का निरुक्त (जो वेदांग माना जाता है) प्रस्तुत निघण्टु का ही भाष्य है। इसी प्रकार कविजनों को काव्यरचना में उपयोगी कोशों की रचना मुरारि, मयूर, वामन, श्रीहर्ष, बिल्हण इत्यादि साहित्यिकों ने की। श्रीहर्षकृत श्लेषार्थपदसंग्रह उत्तरकालीन श्लेषप्रिय कवियों को अवश्य सहायक हुआ होगा।
मध्य एशिया में काशगर में एक आठ पृष्ठों का कोश प्राप्त हुआ है। इसका लेखक कोई बौद्ध पंडित माना जाता है जिसका काल और नाम विदित नहीं; परंतु यही अज्ञातकर्तृक एवं अज्ञातनामा अपूर्ण ग्रंथ आधुनिक ऐतिहासिकों के मतानुसार संसार का प्रथम कोश माना जाता है। अन्यान्य टीका ग्रंथों में कात्यायन कृत नाममाला, वाचस्पतिकृत शब्दार्णव, विक्रमादित्यकृत संसारावर्त, व्याडिकृत उत्पलिनी इत्यादि प्राचीन कोशों के नाम मिलते हैं, परंतु संपूर्ण भारत में अत्यंत लोकप्रिय कोश है अमरसिंहकृत नामलिंगानुशासन, जो "अमरकोश" नाम से सुप्रसिद्ध है। अनुष्टुप् छंद में लिखे हुए प्रस्तुत कोश के तीन काण्डों में दस हजार शब्दों का संग्रह मिलता है। नाम के साथ ही उसके लिंग का परिचय इस कोश की विशेषता है। ई. छठी शताब्दी के पूर्व ही इस कोश का चीनी भाषा में अनुवाद हो चुका था। आज तक इस पर पचास से अधिक टीकाएं लिखी गयीं, जिन में क्षीरस्वामीकृत (ई. 11 वीं शती) अमरकोशोद्घाटन और भानुजी भट्ट (ई. 17 वीं शती) कृत "रामाश्रमी" टीका सर्वमान्य हैं। अमरकोश के प्रभाव से अनेक पद्यात्मक शब्दकोशों की निर्मिती प्रायः 7 वीं शताब्दी से 17 वीं शताब्दी तक . होती रही। कुछ प्रमुख कोश :हारावली (या त्रिकाण्डकोश) - ले. पुरुषोत्तम देव। ई. 7 वीं शती। धनंजयनिघण्टु (या नाममाला) ले. धनंजय। 9 वीं शती। अनेकार्थनाममाला - ले. धनंजय । अभिधानरत्नमाला - ले. हलायुध । ई. 10 वीं शती। वैजयन्ती - ले. यादवप्रकाश। 11 वीं शती। शब्दकल्पद्रुम - ले. केशवस्वामी। 12 वीं शती। विश्वप्रकाश - ले. महेश्वर। 12 वीं शती। नानार्थरत्नमाला - ले. अभयपाल। 12 वीं शती। अभिधानचिन्तामणि - ले. हेमचंद्र। 12 वीं शती। (हेमचंद्र ने अनेकार्थसंग्रह, देशीनाममाला और निघण्टुशेष नामक अन्य तीन कोश लिखे हैं।) नानार्थरत्नमाला - ले. इरुगपद दण्डाधिनाथ। 14 वीं शती। नानार्थशब्दकोश - ले. मेदिनीकर - 14 वीं शती। शब्दचन्द्रिका और शब्दरत्नाकर - ले. वामनभट्ट। 15 वीं शती। सुन्दरप्रकाश-शब्दार्णव - ले. पद्मसुंदर। 16 वीं शती। कल्पद्रुम - ले. केशव देवज्ञ। 17 वीं शती। नामसंग्रहमाला - ले. अप्पय्य दीक्षित। 17 वीं शती।
ये और इस प्रकार के अन्य प्राचीन शब्दार्थ-कोशों में पर्याय शब्द भी संस्कृत भाषीय ही होते हैं। उन में एक वस्तुवाचक समानार्थ अनेक शब्दों का एवं एक एक शब्द के अनेक अर्थों का संग्रह मिलता है। अन्यान्य कोशकारों ने शब्दों की व्यवस्था अन्यान्य पद्धति से की है, जैसे किसी कोश में लिंगानुसार, किसी में शब्द की अक्षरसंख्या के अनुसार, किसी में अक्षरक्रमानुसार तो किसी में पर्यायी शब्दों की संख्या के अनुसार शब्दव्यवस्था की गयी है। इन कोशों के अतिरिक्त एकाक्षरकोश, द्विरूपकोश,
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त्रिरूपकोश, इत्यादि अज्ञातकर्तृक कोश लिखे गये हैं। महाव्युत्पत्तिकोश (ले. अज्ञात) में बौद्ध धर्म में प्रचलित विशिष्ट संज्ञाओं का स्पष्टीकरण मिलता है। 16 वीं शताब्दी में पारसी-प्रकाश नामक फारसी शब्दों के संस्कृत पर्यायों का कोश लिखा गया। इस के पहले कर्णपूर ने संस्कृत- पारसिक प्रकाश की रचना की थी। शाहजहां के समकालीन वेदांगराय ने ज्योतिष विषयक शब्दों का कोश फारसीप्रकाश नाम से लिखा।
शिवाजी महाराज ने अपने सभापण्डित रघुनाथ हणमंते द्वारा राजव्यवहारकोश की रचना करवायी। इस पद्यात्मक कोश में तत्कालीन मुसलमानी राज्यों में प्रचलित फारसी राजकीय शब्दों के संस्कृत पर्याय दिये हैं। भाषाशुद्धि के कार्य में प्रथम प्रयास यही रहा। इस राज्यव्यवहार कोश का यही विशेष महत्त्व है। संस्कृत भाषा के प्रचार का हास आधुनिक काल में होने लगा, तब से संस्कृत के अन्य भाषीय पर्याय देने वाले अकारादिवर्णानुसार सूचीप्राय कोशों की रचना का प्रारंभ हुआ। इस प्रकार के कुछ उल्लेखनीय कोश :डिक्शनरी ऑफ बेंगाली अॅण्ड संस्कृत - ले. ग्रेब्ज हागून। 1833 में लंदन में मुद्रित । संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी - ले. बेन फे। 1866 में लंदन में मुद्रित । संस्कृत अॅण्ड इंग्लिश डिक्शनरी - ले. रामजसन। 1870 में लंदन में मुद्रित। पॅक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी - ले. आनंद-राम बरुआ। कलकत्ता - ई. 18771 संस्कृत - इंग्लिश डिक्शनरी - ले. केपलर। ट्रान्सबर्ग - 1891 । संस्कृत- इंग्लिश डिक्शनरी - ले. मोनियर विल्यम्स।
ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी - 1899 । इस कोश की सुधारित आवृत्तियां 1956 में दिल्ली से और 1957 में लखनऊ से प्रकाशित हुई। सरस्वतीकोश - ले. जीवराम उपाध्याय। मुरादाबाद - 1912 स्टूडण्टस् इंग्लिशसंस्कृत डिक्शनरी - ले. वामन शिवराम आपटे। मुंबई - १९१५ । पॅक्टिकल संस्कृत - इंग्लिश-डिक्शनरी - ले. वामन शिवराम आपटे। मुंबई - 1924। इसी महत्त्वपूर्ण कोश की सुधारित आवृत्ति प्रकाशित करने का कार्य पुणे की प्रसाद प्रकाशन संस्था ने किया। सन 1957 में प्रथम खण्ड और 58 में द्वितीय खंड का प्रकाशन हुआ। संस्कृत- हिंदीकोश - ले. द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी। लखनऊ-1917। संस्कृत- हिंदीकोश - ले. विश्वंभरनाथ शर्मा। मुरादाबाद- 1924 । पॅक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी - ले. मैक्डोनेल। लंदन- 1924 । पद्यचंद्रकोश - ले. गणेशदत्त शास्त्री। लाहोर- 1925 संस्कृत - गुजराती शब्दादर्श - ले. गिरिजाशंकर मेहता। अहमदाबाद-1924 । सार्थ- वेदार्थनिघण्टु- ले. शिवरामशास्त्री शिंत्रे यह वैदिक-मराठी कोश है। आदर्श हिन्दी- संस्कृत कोश- ले. रामस्वरूप शास्त्री। वाराणसी-1936 । आधुनिक- संस्कृत- हिंदीकोश- ले. ऋषीश्वरभट्ट। आग्रा-1955। संस्कृत शब्दार्थ- कौस्तुभ- ले. द्वारकाप्रसादशर्मा और तारिणीश झा। प्रयाग-1957 । व्यवहारकोश- ले. सदाशिव नारायण कुलकर्णी। नागपूर-1951। इस कोश की विशेषता यह है की इसमें लौकिक व्यवहार में उपयुक्त राजकीय, यांत्रिक, औद्योगिक शब्दों के संस्कृत पर्याय हिंदी, मराठी और अंग्रजी शब्दों के साथ दिये गये हैं। कोशकार ने अनेक व्यवहारोपयुक्त अंग्रेजी शब्दों के संस्कृतपर्याय व्युत्पत्ति की प्रक्रिया के अनुसार, स्वयं निर्माण किये हैं, जो प्राचीन कोशों में नहीं मिलते। आधुनिक नानाविध शास्त्रों के विकास के कारण यूरोपीय भाषाओं में अगणित पारिभाषिक शब्दों को निर्मिति हुई। संस्कृत या अन्य प्रादेशिक भाषाओं में उनके पर्याय न होने के कारण जो समस्या भारतीय भाषाक्षेत्र में निर्माण हुई थी, उसे निवारण करने का कार्य, सुप्रसिद्ध कोशकार डॉ. रघुवीर ने किया। अपने आंग्लभारतीय कोश में, संस्कृत भाषा की व्युत्पत्तिप्रक्रिया के अनुसार नए पारिभाषिक शब्दों की निर्मिति उन्होंने की। इस के लिए उन्होंने स्वयं अनेक भाषाओं का अध्ययन किया था। डॉ. रघुवीर ने (1) अर्थशास्त्र शब्दकोश (2) आंग्ल-भारतीय पक्षिनामावली, (3) आंग्लभारतीय प्रशासन शब्दकोश, (4) खनिज अभिज्ञान, (5) तर्कशास्त्र पारिभाषिक शब्दावली (6) वाणिज्य शब्दकोश, (7) सांख्यिकी शब्दकोश इत्यादि शब्दकोशों के द्वारा संस्कृत भाषा की शब्दसंपदा में सहस्रावधि नवीन शब्दों का योगदान दिया है। शासनकर्ताओं की अनास्था के कारण डॉ. रघुवीर के शब्दकोश, प्रत्यक्ष व्यवहार में उपयोगी नहीं हो सके।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/257
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इन शब्दकोशों के अतिरिक्त विविध शास्त्रीय कोश अर्वाचीन काल में मिर्माण हुए जैसे :कोश
कर्ता धातुरूपचन्द्रिका
- व्ही.व्ही.उपाध्याय धातुरत्नाकर (आठ भागों में)
- श्रीधरशास्त्री पाठक अष्टाध्यायी शब्दानुक्रमणिका
- श्रीधरशास्त्री पाठक महाभाष्य शब्दानुक्रमणिका संस्कृतधातुरूपकोश
- कृ. भा. वीरकर संस्कृत शब्दरूपकोश तिङ्न्तार्णवतरणिकोश प्रत्ययकोश
- गुंडेराव हरकरे (हैदराबाद निवासी)। न्यायकोश
- भीमाचार्य झलकीकर। मीमांसाकोश (चार भाग) - केवलानंद सरस्वती निघण्दुमणिमाला (या वैदिककोश)- मधुसूदन विद्यावाचस्पति । गोज्ञानकोश :- पं. श्रीपाद दामोदर सातवळेकर। उसमें गोमाता विषयक वैदिक मंत्रों का संकलन किया है। ऐतरेय ब्राह्मण-आरण्यक कोश :- केवलानंद सरस्वती। कौषीतकी ब्राह्मण- आरण्यक कोश :वैदिक कोष :- (ब्राह्मण-वाक्यों का संग्रह):- हंसराज । सामवेदपादनाम् अकारादिवर्णानुक्रमणिका- स्वामी- विश्वेश्वरानंद और स्वामी नित्यानंद । धर्मकोश :- (व्यवहारकाण्ड)-3 भागों में तर्कतीर्थ- लक्ष्मणशास्त्री जोशी। धर्मकोश :- (उपनिषत्कांड) (चार भागों मे)- तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी। स्मृतितत्त्वम्ः रघुनंदन भट्टाचार्य। इसमें 28 स्मृतियों का संग्रह है। स्मृतीनां समुच्चय :- 27 स्मृतियों का संग्रह। पुराणविषय अनुक्रमणिका : यशपाल टंडन । पुराणशब्दानुक्रमणिका - (3 भागों में। डी. आर. दीक्षित)। महाभारतशब्दानुक्रमणिका - गणितीय कोश :- डॉ. व्रजमोहन । भरतकोश- नाट्यसंगीत विषयक पारिभाषिक शब्द कोश । भारतीय राजनीति कोष (कालिदास खंड) ले- वेंकटशशास्त्री जोशी। वैदिकपदानुक्रमकोष (सात भागों में) ले. विश्वबन्धुशास्त्री। सर्वतंत्रसिद्धान्त- पदार्थ-लक्षणसंग्रहवैदिकशब्दार्थ पारिजातकौटिलीय अर्थशास्त्र पदसूची/ 3 भागों में- . पुरातन जैनवाक्यसूची बृहत्स्तोत्ररत्नाकर-500 स्तोत्रों का संग्रह। जैनस्तोत्र रत्नाकरकहावत रत्नाकर-संस्कृत हिंदी और अंग्रेजी कहावतों का संग्रह।
शब्दकोश निर्मिति के क्षेत्र में पुणे के डेक्कन कॉलेज द्वारा एक महत्त्वपूर्ण उपक्रम सन 1942 से डॉ. सुमंत मंगेश को के नेतृत्व में चलता रहा है। इस महान् कोश में ई-पू. 14 वीं शती से ई-18 वीं शती तक संस्कृत भाषा में निर्मित सर्वांगीण वाङ्मय प्रकार के दो हजार ग्रंथों से पांच लक्ष शब्दों का संग्रह, उनकी व्युत्पत्ति, यथाकाल हुआ अर्थान्तर तथा विविध ग्रन्थों में उनके प्रयोग इत्यादि अनेक प्रकार की जानकारी के साथ, किया जा रहा है। इस कार्य में यूरोप तथा जापान के अनेक विद्वान विना वेतन सहकार्य देते है। कोशनिर्मिति की दिशा में आधुनिक काल में जो विशेष महत्त्वपूर्ण कार्य हुआ, इस प्रकार का कार्य प्राचीन काल में नहीं हो सका। वह कार्य याने प्राचीन हस्तलिखित ग्रंथसंग्रहों की सूचियां बनाना। जर्मन पंडित मैक्समूलर ने कहा है कि सारे संसार में भारत ही एकमात्र ऐसा देश है जहाँ हस्तलिखित ग्रंथों में विपुल ज्ञानभंडार भरा हुआ
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है अपने "इंडिया, व्हाट इट कॅन टीच अस" नामक सुप्रसिद्ध ग्रन्थ के द्वारा उन्होंने भारत के हस्तलिखित ग्रन्थभांडारों की ओर विद्वानों का चित्त आकृष्ट किया। उस प्रकार की प्रेरणा के कारण कुछ पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय हस्तलिखित ग्रंथों के सूचीरूप कोश निर्माण करना प्रारंभ किया। मैक्समूलर का ध्यान भारत के संस्कृत हस्तलिखित ग्रंथभांडारों पर जब केन्द्रित हुआ, उसके पहले की मध्ययुगीन बर्बर प्रशासकों के विध्वंसक आक्रमणों में, अगणित ग्रंथों का नाश हो चुका था। सन् 1784 में कलकत्ते में रायल एशियाटिक सोसायटी की स्थापना हो कर संस्कृत पांडुलिपियों का संचयन प्रारंभ हुआ। इस सोसाइटी के द्वारा सर विल्यम् जोन्स और उनकी सुविद्य पत्नी ने सन 1807 में, संस्कृत ग्रंथ संग्रह की प्रथम सूची प्रकाशित की सर विल्यम जोन्स संस्कृत के महान् जिज्ञासु थे। उनके संस्कृत अध्ययन की कहानी बडी मनोरंजक एवं स्फूर्तिप्रद है। सन 1807 में हेनरी टॉमस कोलबूक को एशियाटिक सोसाइटी ऑफ बेंगाल नामक संस्था का अध्यक्षपद प्राप्त हुआ। उनके द्वारा संगृहीत सारे हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथ, लंदन के इंडिया ऑफिस में सुरक्षित रखे गये। इस कार्य के लिए उन्होंने अपने निजी धन का भी व्यय किया । इसी सोसाइटी द्वारा सन 1817 से 1834 तक पं. हरिप्रसाद शास्त्री के नेतृत्व में ग्रन्थसूची के प्रथम सात भाग सिद्ध हुए । अग्रिम भागों का संपादन श्री. चिन्ताहरण चक्रवर्ती और चन्द्रसेन गुप्त द्वारा सन 1945 तक हुआ।
डॉ. बूल्हर ने (सन 1837-1898) पैरीस, लंदन, ऑक्सफोर्ड आदि स्थानों पर संस्कृत ग्रंथों की जानकारी प्राप्त की। मैक्समूलर की प्रेरणा से वे भारत में आये मुंबई मे शिक्षा विभाग में उच्चाधिकार पर वे नियुक्त हुए बॉम्बे संस्कृत सीरीज नामक ग्रन्थमाला का प्रकाशन उन्होंने शासकीय सहायता से शुरू किया। यह ग्रन्थमाला संस्कृत पंडितों के लिए उपकारक हुई। सन 1866 में मुंबई, मद्रास और बंगाल के प्रशासकों द्वारा शोधकार्य को प्रोत्साहन दिया गया। डॉ. बूल्हर, मुंबई राज्य की शोधसंस्था के अध्यक्ष हुए। उन्होंने 2300 महत्त्वपूर्ण हस्तलिखित ग्रंथों का संशोधन एवं संपादन करवाया। गुजरात, काठियावाड और सिंध इन प्रदेशों में डॉ. बूल्हर के नेतृत्व में हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों का संकलन और संशोधन हुआ। सन 1871-83 के बीच मुंबई से उन ग्रंथों का सूचीपत्र प्रकाशित हुआ । सन 1875 में संस्कृत ग्रंथों के शोधकार्य के संबंध में डॉ. बूल्हर का एक महत्वपूर्ण प्रतिवृत्त प्रकाशित हुआ। राजस्थान और मध्यभारत के संस्थानों से अनेक पांडुलिपियां मंगवा कर उनका प्रकाशन सन 1887 में डॉ. बूल्हर ने करवाया। उन्हीं से प्रेरणा पा कर कुछ विद्वान इस अपूर्व कार्य में प्रवृत्त हुए। श्रीराजेन्द्रलाल मिश्र ने "नोटिसेस ऑफ संस्कृत मॅन्युस्क्रिप्टस्' नामक 9 खण्डों का प्रकाशन किया। हरप्रसाद शास्त्री ने अग्रिम दो खंड प्रकाशित किए।
विंटरनिटस् ने बोडलियन लाइब्रेरी के संग्रह की सूची करने का कार्य शुरू किया। डॉ. कीथ ने डॉ. स्टीन की “इंडियन इन्स्टिट्यूट" (ऑक्सफोर्ड) में सुरक्षित संग्रह की सूची तैयार की जो 1903 में ऑक्सफोर्ड के क्लेरेन्डन प्रेस द्वारा मुद्रित हुई। बोडलियन लाइब्रेरी के पालि ग्रंथों की सूची करने का कार्य फ्रेंकफर्टर ने सन 1882 में पूर्ण किया। डॉ. वेबर (ई. 1825-1901) ने बर्लिन के राजकीय पुस्तकालय के संस्कृत हस्तलिखित ग्रन्थों की बृहत्सूची तैयार की और डॉ. बूल्हर द्वारा बलीन पुस्तकालय में प्राप्त हुए 500 जैन हस्तलिखित ग्रंथों का सूक्ष्म अध्ययन कर जैन वाङ्मय पर प्रकाश डाला। सन 1869 में केब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज के ग्रंथसंग्रह की बृहत्सूची ऑफ्रेट ने तैयार की। सन 1870 में जेम्स डी अलीज् ने कोलम्बो में भारतीय संस्कृत ग्रंथों की सूची प्रकाशित की। उसी वर्ष एन. सी. बर्नेल ने लंदन के इंडिया ऑफिस के संस्कृत ग्रन्थों की सूची का प्रकाशन किया। सन 1880 में क्लासीफाईड इंडेक्स टू दि संस्कृत मॅन्युस्क्रिप्टस् इन दि पॅलेस अँट् तंजौर यह खंड बर्नेल ने लंदन में प्रकाशित किया। ज्यूलियस एगलिंग ने सन 1887 और 1896 में लंदन में दो सूचियां प्रकाशित की। 1935 में कीथ और टॉमस की सूची और ओल्डेनबर्ग की सूची का प्रकाशन लंदन से हुआ। लंदन के इंडिया ऑफिस में आज भी इस प्रकार का कार्य चालू है। सन 1883 में जोसिल बंडाल और राइस डेव्हिड्स ने केंब्रिज विश्वविद्यालय के संस्कृत और पाली ग्रन्थों की सूची प्रकाशित की। सन 1874 में मध्य भारत के संस्कृत ग्रंथों की सूची डॉ. एफ. कीलहॉर्न ने प्रकाशित की। उन्होंने सन 1877-73 में सरकार द्वारा खरीदे गये हस्तलिखित ग्रंथों की सूची तैयार की।
मुंबई राज्य के हस्तलिखितों की सूची श्री. काशिनाथ कुंटे ने सन 1880-81 मे तैयार की, उसका प्रकाशन 1881 में कीलहॉर्न ने करवाया। पीटर्सन ने की बृहत्सूची 1883 और 1898 में छः खंडों में प्रकाशित हुई। इसके अतिरिक्त उन्होंने अल्वर नरेश के संग्रह की सूची भी सिद्ध की। पीटर्सन के बाद यह कार्य डॉ. रामकृष्ण गोपाल भांडारकर ने सम्हाला । इस संबंध में उनका प्रतिवृत्त सन 1897 में मुंबई से प्रकाशित हुआ। डॉ. भांडारकर ने 1917 से 1929 तक की अवधि में ओरिएंटल लाइब्रेरी (पुणे) के हस्तलिखितों की सात सूचियां प्रकाशित की। श्री हरि दामोदर वेलणकर ने रॉयल एशियाटिक सोसाइटी के संग्रह की सूचियां तैयार की, जो सन 1926, 28 तथा 30 में प्रकाशित हुई ।
सन 1880 में तंजोर के सरस्वती महल के हस्तलिखितों की सूची कर्नेल ने की। बाद में यह कार्य पी.पी.एस. शास्त्री ने सम्हाला। उन्होंने तैयार की हुई बृहत्सूची 19 खंडों में प्रकाशित हुई तंजौर के सरस्वतीमहल में आज 25 हजार हस्तलिखित ग्रंथ सुरक्षित है। दक्षिण भारत में ग्रंथसूची का कार्य गुस्ताव ओपर्ट ने शुरू किया। उनके संपादित दो खंड सन 1880 और
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1885 में प्रकाशित हुए। मैसूर और कूर्ग राज्य में ग्रन्थसूची का संपादन कार्य लेबिज राईस ने किया। 1884 में उनकी सूची बंगलोर में प्रकाशित हुई। मद्रास सरकार की ओरिएंटल मॅन्युस्क्रिए लाईब्रेरी की ओर से सन 1893 में प्रथम सूची का प्रकाशन हुआ। यह कार्य बाद में शेषगिरी शास्त्री ए. शंकरन् आदि विद्वानों के संचालकत्व में चालू रहा। अभी तक इस लाइब्रेरी द्वारा 30 से अधिक सूचीखंड प्रकाशित हुए।
अड्यार (मद्रास के अन्तर्गत) थिओसोफिकल सोसाइटी का जागतिक केंद्रस्थान है। इस जागतिक संस्था का अपना एक विशाल हस्तलिखित ग्रंथसंग्रह है। सन् 1920 और 28 में “ए केटलाँग ऑफ दि संस्कृत मॅन्युस्क्रिप्टस्" नाम के दो खण्ड प्रकाशित हुए। 1942 में डॉ. कुन्हन् राजा और के माधवकृष्ण शर्मा ने वैदिक भाग की सूची प्रकाशित की और 1947 में व्ही. कृष्णम्माचार्य ने व्याकरण भागों की सूची तैयार की। दक्षिण भारत की कुछ सूचियों का प्रकाशन 1905 में हल्डन ने किया। सन 1895 से 1906 तक कलकत्ता संस्कृत लाईब्रेरी के हस्तालिखित संग्रह ही सूची पं. हृषीकेश शास्त्री और शिवचन्द्र गुंई ने तैयार की। कलकत्ता विश्वविद्यालय द्वारा 1930 में असमीज मॅन्यूस्क्रिए नामक दो सूचीखण्ड प्रकाशित हुए जिन में संस्कृत ग्रंथों का उल्लेख भरपूर मात्रा में हुआ है। रायबहादुर हीरालाल शास्त्री ने पुराने "मध्यप्रदेश और बेरार" के हस्तलिखितों का प्रतिवृत्त तैयार किया था, जिसका प्रकाशन सन 1926 में नागपूर में हुआ। वाराणसी के सरस्वती भवन में सवालाख से अधिक पाण्डुलिपियों का महान् संग्रह है। सन 1953 से 58 तक उनमें से 1600 ग्रन्थों की सूची आठ खंडों में प्रकाशित हुई। इलाहाबाद की गंगानाथ झा शोधसंस्था द्वारा भी अनेक सूचीखंडों का प्रकाशन हुआ है। जम्मू-काश्मीर के रघुनाथ मंदिर के ग्रन्थालय के हस्तलिखितों की सूची डॉ. स्टीन द्वारा तैयार हुई। सन 1894 में वह मुंबई में प्रकाशित हुई। काश्मीर नरेश के पुस्तकालय की सूची तैयार करने का काम पं रामचंद्र काक और हरभट्ट शास्त्री ने किया। सन 1927 में उसका प्रकाशन पुणे में हुआ। राजस्थान और मध्यभारत के ग्रंथसंग्रहों का प्रतिवृत्त डॉ. भांडारकर ने तैयार किया। 1907 में वह मुंबई में प्रकाशित हुआ। बडोदा की सेंट्रल लाईब्रेरी की सूची जी. के. गोडे और के एस. रामस्वामी शास्त्री ने तैयार की। सन 1925 में गायकवाड
ओरिएंटल सीरीज् की ओर से उसका प्रकाशन हुआ। डॉ. काशीप्रसाद जायसवाल और ए. बेनर्जी ने मिथिला के संग्रह की सूची तैयार की, जिसका प्रकाशन सन 1927 से 40 तक की अवधि में, चार खंडों में बिहार-उडीसा-रीसर्च सोसायटी ने किया। उज्जयिनी की ओरिएंटल मॅन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी द्वारा सन 1936 और 1941 में सूची का प्रकाशन हुआ। पाटण (गुजरात) के जैन ग्रंथों की सूची का संपादन सी.डी. दलाल ने प्रांरभ किया और एल. बी. गान्धी ने वह संपूर्ण किया। गायकवाड ओरिएंटल सीरीज् ने अपनी प्रथम सूची का प्रकाशन 1937 में बडोदा में किया। 1942 में द्वितीय सूची प्रकाशित हुई। जैसलपीर राज्य के ग्रंथालय की सूची भी गायकवाड ओरिएंटल सीरीज द्वारा ही प्रकाशित हुआ। तिरूअनन्तपुर (त्रिवेंद्रम) के सरकारी पुस्तकालय की सूची आठ भागों में प्रकाशित हो चुकी है।
"कैटेलोगस कैटेलागोरम्" ___ 19 वीं शताब्दी के अन्त तक भारत में जिनकी विविध पाण्डुलिपियों की सूचियाँ प्रकाशित हुई उनमें उल्लिखित सभी ग्रंथों की सर्वकष बृहत्तम सूची का संपादन करने का अपूर्व कार्य डॉ.आफ्रेट ने प्रारंभ किया। सन 1891, 1896 और 1903 में इस के प्रथम तीन खंड, कैटेलोगस कैटेलोगोर में नाम से लिपझिग (जर्मनी) में प्रकाशित हुए।
सन् 1935 ५ से ऑफ्रेट की सूची की सुधारित और संवर्धित आवृत्ति संपादित करने का कार्य, डॉ. कुन्हन राजा और डॉ. वे. राघवन् इन प्रसिद्ध विद्वानों के नेतृत्व में मद्रास विश्वविद्यालय द्वारा प्रारंभ हुआ। इस "न्यू केटलोगस केटेलोगोरम्" का प्रथम खंड (जिस में केवल अकारादि नामक ग्रंथों की ही प्रविष्टियां है) मद्रास युनिव्हर्सिटी संस्कृत सीरिज द्वारा सन 1949 में प्रकाशित हुआ।
हस्तालिखित ग्रंथों की सूची करने का यह कार्य संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में सर्वथा अपूर्व है प्राचीन राजा महाराजाओं ने और मठाधिपतियों ने अपनी पद्धति के अनुसार अपने अपने स्थानों पर हस्तालिखित ग्रंथों का संचयन किया। मुसलमानी शासन के प्रदीर्घ आपात काल में उनमें से अनेक स्थानों का विध्वंस राज्यकर्ताओं की असहिष्णुता एवं असंस्कृतता के कारण हुआ। फिर भी जो संग्रह सुरक्षित रहे, उन सभी में संचित वाङ्मयराशि के सूचीकोश करना एक राष्ट्रीय महत्त्व का कार्य होना आवश्यक था। अभी तक कुछ महत्त्वपूर्ण कोशों तथा उनके स्वनामधन्य संपादकों तथा संस्थाओं का निर्देश मात्र इस प्रकरण में हुआ है। इन के अतिरिक्त जिन महानुभावों ने इस क्षेत्र में कार्य किया, उनमें एस. जैकोबी. व्ही. फासबोल, जॉन. सी. नेसफील्ड, फ्रेड्रिक लेवीज, इत्यादि पाश्चात्य पंडितों का तथा उन्ही की पद्धति से इस कार्य को चलाने वाले भारतीय विद्वानों में म.म. गौरीशंकर हीराचंद ओझा, पं. देवीप्रसाद, डॉ. श्याम सुंदरदास, डॉ. पितांबरदत्त, डॉ. प्रबोधचंद्र, मुनि जिनविजय, रामशास्त्री, बागची, आचार्य विश्वबन्धु शास्त्री, डॉ. धर्मेन्द्र, पं. राधाकृष्ण, एच.आर. रंगस्वामी अय्यंगार, के. भुजबलीशास्त्री, पद्मभूषण डॉ. रा. ना. दांडेकर, इत्यादि अनेक कार्यकर्ताओं के नामों का कृतज्ञता से निर्देश करना आवश्यक है।
कैटेलागारकी सूचियाँ प्रसन 1891,
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प्रकरण-13
अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय
गत शताब्दी से मैक्समूलर, विंटरनिट्झ, कीथ, मेक्डोनेल इत्यादि यूरोपीय पंडितों ने संस्कृत वाङमय का समालोचन एवं विवेचन करने वाले अनेक समीक्षात्मक इतिहासग्रंथ निर्माण किये। इस प्रकार संस्कृत वाङमय का परामर्श लेने वाले वाङ्मयेतिहासात्मक ग्रंथ इस के पूर्व निर्माण नहीं हुए थे। इन यूरोपीय समीक्षकों ने प्रायः 16 वीं शताब्दी तक निर्माण हुए विशिष्ट ग्रंथों का समालोचन करते हुए संस्कृत वाडमय का परिचय दिया और उसका मूल्यमापन करने का प्रयत्न किया। कुछ समीक्षकों ने यूरोपीय वाङ्मय के साथ संस्कृत वाडमय की तुलना प्रस्तुत करते हुए, अपने अनुकूल प्रतिकूल अभिप्राय प्रकट किए। परंतु इन समीक्षकों ने प्रायः 16 वीं शती तक निर्मित ग्रंथकारों का ही परामर्श लिया। पंडितराज जगन्नाथ को संस्कृत वाङमय का अंतिम प्रतिनिधि मानते हुए यह सारा विवेचन अथवा समीक्षण का कार्य इन विद्वानों ने किया।
यूरोपीय पंडितों का आदर्श सामने रखते हुए भारतीय विद्वानों ने भी इसी प्रकार के ग्रंथ बहुत बड़ी मात्रा में अंग्रजी एवं हिंदी-प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं में निर्माण हिए। परंतु इन भारतीय समीक्षाकारों ने प्रायः यूरोपीय विद्वानों का अनुकरण मात्र किया। जगन्नाथ पंडित के पश्चात् संस्कृत वाङ्मय का प्रवाह कुंठित हुआ, संस्कृत भाषा मृतवत् होने के कारण संस्कृत पंडितों की वाङ्मय निर्माण करने की क्षमता नष्टप्राय हुई, इस प्रकार का प्रचार सर्वत्र हुआ। इस प्रचार की वास्तवता या अवास्तवता का परीक्षण किये बिना भारतीय विद्वानोंने भी संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लिया गया।
जगन्नाथोत्तर काल में निर्मित साहित्य की ओर संस्कृतज्ञों का ध्यान आकर्षित न होने के कुछ कारण हैं जिनमें प्रमुख कारण यह है कि संस्कृत के विद्वान व्यास, वाल्मीकि, कालिदास बाणभट्ट जैसे प्राचीन साहित्यिकों की लोकोत्तर कलाकृतियों में ही निरंतर रममाण रहे। उन स्वनामधन्य महासारस्वतों के अतिरिक्त अन्य साहित्यिकों एवं शास्त्री-पंडितों द्वारा निर्मित वाङ्मय का अवगाहन या आलोडन करने की इच्छा उनमें कभी अंकुरित नहीं हुई।
दूसरा उल्लेखनीय कारण यह भी कहा जा सकता है कि नवनिर्मित संस्कृत ग्रंथों का मुद्रण एवं प्रकाशन करने में किसी का सहकार्य न मिलने से नवनिर्मित साहित्य का प्रचार अत्यल्प मात्रा में हुआ। भारत के अन्यान्य प्रदेशों में रहने वाले संस्कृत लेखकों का परस्पर संपर्क न होने के कारण बहुत सारा प्रकाशित वाङ्मय भी अज्ञात सा रहा। अ.भा. प्राच्यविद्या परिषद् जैसी प्रतिष्ठित संस्थाओं एवं विश्वविद्यालयों के संस्कृत विभागों ने भी अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का समुचित संकलन करने में यथोचित तत्परता नहीं बताई। 20 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध में अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का परामर्श लेने की प्रवृत्ति विद्वानों में अंकुरित हुई। डॉ. कृष्णम्माचारियर का "हिस्ट्री ऑफ क्लासिकल संस्कृत लिटरेचर", डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर का "अर्वाचीन संस्कृत साहित्य" 1963 में प्रकाशित (मराठी में), डॉ. हीरालाल शुक्ल का "आधुनिक संस्कृत साहित्य", 1971 में प्रकाशित (हिंदी में), डॉ. उषा सत्यव्रत का ट्वेंटिएथ सेंचुरी संस्कृत प्लेज् (1972 में प्रकाशित) इन ग्रंथों के कारण तथा उसके पूर्व सन 1956-57 में डॉ. वेंकटराम राघवन् द्वारा लिखित आधुनिक संस्कृत वाङ्मय विषयक कुछ अंग्रेजी स्फुट लेखों के कारण अर्वाचीन संस्कृत वाङ्मय की ओर विद्वानों का ध्यान आकर्षित हुआ।
17 वीं से 20 वीं शती तक का कालखंड संस्कृत वाङ्मय के इतिहास की दृष्टि से अर्वाचीन काल खंड माना जाता है। इस अवधि में पंडितराज जगन्नाथ के समकालीन 104 ग्रंथों के लेखक अप्पय्या दीक्षित, 60 ग्रंथों के लेखक रत्नखेट नीलकण्ठ दीक्षित, 64 ग्रंथों के लेखक घनश्याम कवि, 143 ग्रंथों के लेखक बेल्लंकोंड रामराय, 108 ग्रंथों के लेखक राधा मंडलम् नारायण शास्त्री, 93 नाटकों के लेखक म. म. लक्ष्मणसूरी, 135 ग्रंथों के लेखक पं. मधुसूदनजी ओझा, तथा भट् मथुरानाथ शास्त्री, महालिंग शास्त्री, क्षितीशचंद्र चटोपाध्याय, श्रीपादशास्त्री हसूरकर, काव्यकंठ वासिष्ठ गणपतिमुनि, ब्रह्मश्री कपाली शास्त्री, अखिलानंद शर्मा, स्वामी भगवदाचार्य, पं. दृषीकेश भटाचार्य, आप्पाशास्त्री राशिवडेकर, विधुशेखर भटाचार्य, प्रज्ञाचक्षु गुलाबराव महाराज, वासुदेवानंद सरस्वती, पंडिता क्षमादेवी राव. डॉ. राघवन, डॉ. रामजी उपाध्याय, डॉ. वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य इत्यादि अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों कार्य अत्यंत श्लाघनीय है।
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परम्परा का रक्षण मध्ययुगीन संस्कृत साहित्यिकों में से सुबन्धु, कविराज, सन्ध्याकरनन्दी, धनंजय जैसे लेखकों ने जिस प्रकार यर्थी, व्यर्थी महाकाव्य निर्माण कर भाषाप्रभुत्व का एक अद्भुत निदर्शन स्थापित किया, उसी आदर्श के अनुसार अर्वाचीन साहित्यिकों में यादव-राघवीयम् के लेखक वेंकटाध्वरी (17 वीं शती) राघव-यादव पाण्डवीय एवं पंचकल्याणचम्पू के लेखक चिदम्बरकवि (17 वीं शती) राघव-नैषधीय के लेखक हरदत्त (18 वीं शती) और कोसलभोसलीय के लेखक शेषाचलपति (18 वीं शती), सात अर्थों वाले सप्तसंधान काव्य के लेखक मेघविजयगणी इत्यादि विद्वानों ने श्लेषप्रचुर काव्यरचना की विशिष्ट परम्परा अर्वाचीन कालखंड में अक्षुण्ण रखी। 19 वीं शती के कृष्णमूर्ति और चार्ला भाष्यकार शास्त्री ने "कंकणबंधरामायण" नामक एक मात्र अनुष्टुप् छंदोबद्ध श्लोक की, रचना की जिसके यथाक्रम 64 ओर 128 अर्थ निकलते हैं और उन अर्थो द्वारा संपूर्ण रामकथा का निवेदन होता है। इन श्लोकों के सारे अर्थ उन्होंने ही स्वयं टीका द्वारा विशद किये हैं।
संस्कृत साहित्य के प्रतिकूल काल में काव्य नाटकादि की रचना इन सारे साहित्यिकों ने किस उद्देश्य से की, इस प्रश्न का उत्तर अनेक लेखकों ने अपने शब्दों में दिया है। (यशोलाभ, अर्थप्राप्ति, व्यवहारज्ञान की प्राप्ति, अमंगल का निवारण, तत्काल परमानंद की प्राप्ति और कान्तासंमित उपदेश इन परंपरागत प्रयोजनों के अतिरिक्त, संस्कृत भाषा की सेवा, अन्यभाषीय साहित्य का संस्कृतज्ञों को परिचय, छात्रों का हित इत्यादि नवीन प्रयोजनों से, इन अर्वाचीन लेखकों ने संस्कृत में साहित्यनिर्मिति की। अनेक साहित्यिकों के अन्तःकरण में कालिदास, भवभूति जैसे प्राचीन महाकवियों का अनुकरण करने की तीव्र प्रेरणा होने के कारण वे संस्कृत साहित्यनिर्मिति में प्रवृत्त हुए। इस प्रकार के साहित्यियों ने स्वयं अपना निर्देश उन प्राचीन महाकवियों के महनीय नामों की उपधि धारण करते हुए किया है। अथवा उनके सहदय पाठकों ने उन्हें उस प्रकार की उपाधियां दी। जैसे :"अभिनव-कालिदास" = यशोभूषणकार माधव ओर संक्षेपशंकरविजयकार गोपालस्वामी शास्त्री। नूतन-कालिदास - विक्रमराघव कवि। कलियुग-कालिदास = शृंगारकोशभाण के लेखक। केरल-कालिदास = केरलवर्ममहाराज। अभिनव-भवभूति = श्रीनिवास दीक्षित (रत्नखेट), अभिनव-रामानुज - श्रीनिवासगुणाकार महाकाव्य के लेखक मायावादि-मतंगज = कंठीरवाचार्य। नवीन-पतंजलि = पेरुसूरि। अभिनवभर्तृहरि - पं. तेजोभानु शृंगारादि शतकमय के लेखक, अभिनव-पंडितराज = पुल्य उमामहेश्वरशास्त्री, अभिनव भोज = तंजौर नरेश शहाजी (एकोजी का पुत्र) भोसले, अभिनव-जयदेव -शाहविलासगीत के रचयिता दुण्ढिकवि, आन्ध्र पाणिनि = कोसलभोसलीयकर्ता शेषाचलपति।
इन व्यक्तिनामों के अतिरिक्त ग्रन्थों के भी नाम देखिए :- अभिनवकादम्बरी (लेखक- म्हैसूर के राजकवि अहोबिल नरसिंह), अभिनवभारतम् (ले. नरसप्पा), अभिनवभारतचम्पू (ले. श्रीकण्ठकवि), अभिनव गीतगोविंद, अभिनवरामायण, अभिनवभागवत, अभिनववासवदत्ता, अभिनवहितोपदेश इत्यादि। इन ग्रन्थनामों से भी यह स्पष्ट दिखाई देता है कि आर्वाचीन संस्कृत लेखकों में प्राचीन साहित्यिकों तथा उनकी प्रख्यात वाङ्मय कृतियों का अनुकरण करने की तीव्र आकांक्षा थी। इन आकांक्षा से प्रेरित होकर ही अनेक ग्रंथों की रचना अर्वाचीन काल में हुई। कालिदास के रघुवंश का अनुकरण करने की प्रेरणा से, गुरुवंश (ले.
लक्ष्मणशास्त्री, (18 वीं शती), भटवंश (ले. युवराजकवि) इत्यादि वंशानुचरितात्मक काव्यग्रंथों की रचना हुई। इस प्रवृत्ति की विकृति, जार्जवंश (ले. अप्पाशास्त्री अय्यर) और एडवर्डवंश (ले. उर्वीदत्तशास्त्री, लखनऊ निवासी) जैसे काव्यों में दिखाई देती है।
माघकृत शिशुपालवध का अनुकरण करने का प्रयत्न करते हुए वंशीधर शर्मा ने दुर्योधनवध नामक महाकाव्य लिखा। वत्सकुलोत्पन्न वामन कवि ने बाणभट्ट का यश हरण करने की आकांक्षा से वीरनारायणचरित्र नामक गद्य प्रबन्ध का निर्माण किया। (वह प्रयत्न सर्वथा निष्फल रहा, यह कहने की आवश्यकता नहीं है।) व्याकरणशास्त्र के द्वारा साधित शब्दों का उपयोग कर काव्यरचना का एक अनोखा आदर्श भट्टी ने स्थापित किया। उस आदर्श को लेकर भागवतव्यंजन (ले. ढुण्डिराज काले, 19 वीं शती), मोहभंग, (ले. डॉ. रसिक बिहारी जोशी, 1976)। जैसे काव्य भी अर्वाचीन कालखंड में निर्माण हुए।
17 वीं शताब्दी से 20 वीं शताब्दी तक संस्कृत वाङ्मय का अर्वाचीन कालखंड माना जाता है परंतु इस अर्वाचीन कालखंड के भी दो खंड स्पष्टतया दिखाई देते है। पहला कालखंड 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध के साथ समाप्त होता है और दूसरा कालखंड अंग्रेजी शासन की प्रस्थापना के बाद पाश्चात्य वाङ्मय का परिचय यहां के विद्वानों को होने के कारण, 19 वीं शताब्दी के उत्तरार्ध से अद्ययावत् माना जाता है। इस प्रथम कालखंड में निर्मित प्रादेशिक भाषाओं के साहित्य में संत साहित्य
और कुछ लोकसाहित्य के अतिरिक्त अन्य सारा साहित्य, तत्कालीन संस्कृत साहित्य से किसी प्रकार अलग सा नहीं था। इस काल के संस्कृत के साहित्यिक जिस प्रकार रामायण, महाभारत और भागवतादि पुराणग्रंथों को उपजीव्य मानकर अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करते थे, उसी प्रकार हिंदी, मराठी, बांगला प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यिक भी उन्हीं परम्परागत या गतानुगतिक विषयों को लेकर काव्यरचना करते रहे। परंतु उसमें भी संस्कृत लेखकों के चम्पू, नाटक, खंडकाव्य इत्यादि वाङ्मय प्रकार
SUSHो प्रख्यात वाङ्मय कृतियों कालदास के रघुवंश का अनुकरण
की रचना हुई। इस प्रवृत्ति
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प्रचलित नहीं हुए थे। अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों ने परस्परागत विषयों पर आधारित रामायणसारसंग्रह (ले. अप्पय्य दीक्षित), रामायणकाव्य (ले. मधुरवाणी), रामयमकार्णव (ले. व्यंकटेश), रामविलासकाव्य (ले. रामचंद्र तर्कवागीश), राघवीय (ले. रामपाणिवाद), सीतास्वयंवर (ले. काशीनाथ) इत्यादि रामचरित्रविषयक अनेक काव्यग्रंथों की निर्मिति की अथवा पारिजातहरण, रुक्मिणीहरण, कंसवध (ले. राजचूडामणि) माधवमहोत्सव (ले. सूर्यनारायण), विक्रमभारत (ले. श्रीधर विद्यालंकार), पांडवविजय (ले. हेमचंद्राचार्य) इत्यादि कृष्णचरित्र से संबंधित काव्यों की भी रचना की। उसी प्रकार इन पौराणिक विषयों पर आधारित नाटक, प्रकरण भाण, चम्पू जैसे अन्य प्रकारों के ग्रंथ भी संस्कृत साहित्यिकों ने पर्याप्त मात्रा में निर्माण किये। अर्वाचीन प्रादेशिक भाषीय साहित्य का यह एक वैशिष्ट्य माना जा सकता है। 19 वीं शताब्दी के पूर्वार्ध तक प्रादेशिक भाषीय साहित्यों में नाट्य वाङ्मय की निर्मिती नहीं हुई थी। असमिया बांगला जैसी कुछ भाषाओं में नाट्य वाङ्मय की परंपरा दिखाई देती है, परंतु उसका स्वरूप संस्कृतनिष्ठ ही है।
वीरचरितों पर आधारित महाकाव्यों की निर्मिति करने की परंपरा संस्कृत साहित्य के क्षेत्र में अतिप्राचीन काल से निरंतर चलती रही। उस परंपरा को भी अर्वाचीन संस्कृत साहित्यिकों ने अक्षुण्ण रखी है। छत्रपति शिवाजी महाराज के वीरचरित्र एवं पुण्यचारित्र्य ने अनेक प्रतिभाशाली लेखकों को प्रेरणा दी, जिस के फलस्वरूप कवीन्द्र परमानन्दकृत शिवभारतम् (17 वीं शती), कालिदास विद्याविनोदकृत शिवचरितम् (19 वीं शती) आधुनिक बाणभट्ट अंबिकादत्त व्यास कृत शिवराजविजय (गद्यकाव्य), व्ही. व्ही. सोवनीकृत शिवावतारप्रबन्ध, डॉ. श्रीधर भास्कर वर्णेकर विरचित 68 सर्गों का शिवराज्योदय (प्रस्तुत महाकाव्य को सन 1974 में साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ) डॉ. त्रिपाठीकृत क्षत्रपतिचरित इत्यादि विविध महाकाव्य आधुनिक काल में निर्माण हुए। इसी परंपरा में रुद्रकविकृत जहांगीरचरित (17 वीं शती) रामय्याकृत गझनवीमहंमदचरित (19 वीं शती), पांडुरंगकवि कृत विजयपुरकथा (19 वीं शती), और छज्जूरामकृत सुलतानचरित जैसे मुस्लिम राजाओं के चरित्र पर आधारित कुछ काव्य भी निर्माण हुए।।
अंग्रेजों के प्रशासन काल में, व्हिक्टोरियाचरितसंग्रह (ले. व्रजेन्द्रनाथ शास्त्री, सन 1887), व्हिक्टोरियामाहात्म्य (ले. राजा शौरीन्द्रमोहन टागोर, सन 1897) प्रीतिकुसुमांजलि (ले. काशी के कालीपथ पंडित- 1897 (विजयिनीकाव्य) ले. श्रीश्वर विद्यालंकार भट्टाचार्य- 1902) आंग्लसाम्राज्य (ले. राजवर्मा), आंग्लजर्मनीयुद्धविवरण (ले. तिरुमल बुक्कपट्टनं श्रीनिवासाचार्य- 1924), समरशान्तिमहोत्सव (ले. पी. व्ही. रामचंद्र आचार्य- 1924), यदुवृद्ध (एडवर्ड) सौहार्द (ले. गोपाल अयंगार- 1937), इत्यादि काव्य महारानी व्हिक्टोरिया, सप्तम एडवर्ड, पंचमजार्ज जैसे आंग्ल नृपतियों के संबंध में निर्माण हुए।
__ महाकाव्यों के समान स्तोत्रकाव्य, शतककाव्य, दूतकाव्य, गीतिकाव्य, गद्यकाव्य, चम्पू इत्यादि ललित वाङ्मय के विविध प्राचीन प्रकार संस्कृत साहित्य के अर्वाचीन सेवकों ने अखंडित चालू रखे। इनके विषय भी प्रायः गतानुगतिक स्वरूप के ही दिखाई देते हैं। इन लेखकों ने प्राचीन वाङ्मय परंपरा अक्षुण्ण रखी इसलिए उनकी विशेष प्रशंसा करने की अथवा उन्होंने गतानुगतिक रूढ विषयों से बाह्य विषयों का परामर्श नहीं लिया, इस कारण उनकी निन्दा करने की भी आवश्यकता नहीं है। संस्कृत साहित्य के प्रतिकूल कालखंड में भी सुर-भारती का प्रवाह इन महानुभावों ने अखंडित रखा यही इनका कार्य है। इस काल में निर्मित हिंदी, मराठी, बंगाली, प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं के साहित्यिकों के विषय में भी इसी प्रकार का अभिप्राय दिया जा सकता है।
भारत के साहित्य क्षेत्र में सन 1857 की राज्यक्रांति के बाद कुछ विशेष प्रकार का परिवर्तन प्रारंभ हुआ। अंग्रेजी राजसत्ता की प्रेरणा से स्थापित आधुनिक विश्वविद्यालयों में शिक्षा दीक्षा पाये हुए नवशिक्षित साहित्यिकों ने, पाश्चात्य साहित्य का वैशिष्ट अपने निजी भाषा के साहित्य में लाने का प्रयत्न शुरु किया। इस प्रक्रिया के कारण महाकाव्यों तथा अन्य काव्य प्रकारों में पौराणिक विषयों के अतिरिक्त विषयों का अन्तर्भाव होने लगा। राजस्तुति परक काव्यों में मुसलमान एवं अंग्रेज राजाओं के संबंध में लिखे गए कुछ काव्यों का निर्देश उपर हुआ है। उन विषयों के अतिरिक्त अश्वघोष के बुद्धिचरित की परम्परा में जिनका अन्तर्भाव हो सकेगा ऐसे महापुरुष विषयक महाकाव्य आधुनिक काल में निर्माण हुए, जिनमें निम्नलिखित काव्य विशेष उल्लेखनीय हैं :1) यशोधरामहाकाव्य : 20 सर्ग, लेखक ओगटी परीक्षित शर्मा। (सन 1976) 2) क्रिस्तुभागवतम् : 33 सर्ग, लेखक पी. सी. देवासिया (सन 1976 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त) 3) येशुसौरभ : ले. सोमवर्मराजा। 4) श्रीमदाद्यशंकर-जन्मकालकाव्य : लेखक शिवदास बालिगे (सन 1954) 5) श्रीगुरुगोविंदसिंहचरित : लेखक डॉ. सत्यव्रत। (सन 1967 में साहित्य अकादमी पुरस्कार प्राप्त)। 6) श्रीनारायणविजय : लेखक के. बलराम पणिक्क। विषय-केरल के आधुनिक संत नारायण गुरु, 21 सर्ग (सन 1971) 7) त्यागराजचरित : ले. सुंदरेशशर्मा (सन 1979) 8) दीक्षितेन्द्रचरित : ले. डॉ. व्ही. राघवन् 9) विश्वभानु : ले. नारायण पिल्ले, विषय-स्वामी विवेकानंदचरित्र। 21 सर्ग (सन 1980)
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10) भारतपारिजात : ले. स्वामी भगवदाचार्य। विषय-महात्मा गांधी का चरित्र । 27 सर्ग (सन 1980)
इस प्रणाली में जवाहरलाल नेहरु, सुभाषचंद्र बोस, राष्ट्रपति राजेन्द्रप्रसाद, लोकमान्य तिलक, इत्यादि आधुनिक राष्ट्रनेताओं के चरित्रों पर आधारित महाकाव्यों का अन्तर्भाव हो सकता है।
कालिदास के मेघदूत से प्रवर्तित दूतकाव्य की परंपरा को अक्षुण्ण रखनेवाले आधुनिक दूतकाव्यों की संख्या काफी बड़ी है। आधुनिक दूतकाव्यों में हंसदूत, पवनदूत, चंद्रदूत, हनुमद्दूत, गोपीदूत, तुलसीदूत, पिकदूत, काकदूत, भ्रमरदूत, पान्थदूत तथा कोकिलसंदेश, कीरसंदेश, हंससंदेश, गरुडसंदेश, मयूरसंदेश, मानससंदेश इत्यादि काव्यों का निर्देश मात्र करना पर्याप्त है।
दूतकाव्य के समान शतक, स्तोत्र इत्यादि खण्डकाव्यों की परंपरा को अक्षुण्ण रखते हुए, उसमें विषयों की नवीनता निर्माण करने का प्रयास दिखाई देता है। बल्लवदूत (ले. घटकनाथ शर्मा) मुद्गरदूत (ले. रामावतार शर्मा) पलांडुशतक (ले. श्रीकृष्णराम शर्मा), होलिक शतक (ले. विश्वेश्वर) सम्मार्जनीशतक (ले. अनन्ताचार), कलिविडम्बन (ले. नीलकण्ठ दीक्षित), कलियुगाचार्यस्तोत्र, चहागीता, कॉफी-शतकम् इत्यादि काव्यों के नामों से ही पता चल सकता है कि आधुनिक संस्कृत साहित्यिक हास्य रस की निष्पत्ति करने में कितना रस लेने लगे हैं। हास्य रस के साथ ही राष्ट्रभक्ति का परिषोण करनेवाले, भारतीमनोरथ (ले. एम. के. ताताचार्य) भारतीशतक (ले. महादेव पाण्डेय) भारतीगीता (ले. व्ही. आर. लक्ष्मी अम्मल) भारतीस्तवः (ले. कपाली शास्त्री) इत्यादि अनेक स्तोत्रात्मक खंडकाव्य आधुनिक संस्कृत साहित्य की विशेषता दिखाते हैं। राष्ट्रभक्ति का आवेश आधुनिक महाकाव्यों तथा नाटकों में भी यथास्थान भरपूर मात्रा में दिखाई देता है। कई महाकाव्यों के सर्ग इस राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत हैं जिसका अभाव प्राचीन महाकाव्यों में था।
जयदेव के गीतगोविंद के प्रभाव से एक अभिनवकाव्य संप्रदाय 12 वीं शती से संस्कृत साहित्य क्षेत्र में प्रवर्तित हुआ। गीतराघव (ले. प्रभाकर) गीतगिरीश (ले. रामकवि) गीतगौरीपति (ले. चंद्रशेखर सरस्वती), गीतरघुनन्दन (ले. प्रियदास) शहाजिगीतविलास (ले. ढुंढिराज), कृष्णलीलातरंगिणी, (ले. नारायणतीर्थ); तीर्थभारतम्, श्रीरामसंगीतिका और श्रीकृष्णसंगीतिका (ले. श्री. भा. वर्णेकर) इत्यादि अनेक गीतिकाव्य आधुनिक काल में निर्माण हुए जिन्होंने गीतगोविंद की परंपरा सतत प्रवाहित रखी। अनेक आधुनिक नाटकों में श्लोकों के स्थान पर गीतिकाव्यों का प्रयोग शुरु हुआ है। कोचीन के कवि वारवूर कृष्ण मेनन ने बाणभट्ट की कादम्बरी का गेय कविता में रूपांतर किया। जयपुर के साहित्याचार्य भट् मथुरानाथशास्त्री (मंजुनाथ) ने अपने साहित्य वैभव में हिंदी और उर्दू भाषा के गझल, ठुमरी, दोहा, चौपाई, कवित्त, सवैया इत्यादि गेय छदों में भरपूर काव्य रचना की। इन गेय काव्यों के विषय भी रेडिओ, हवाई जहाज, मोटरगाडी जैसे आधुनिक हैं।
पाश्चात्य विद्वानों के समान विशिष्ट शास्त्रीय विषयों पर गद्य प्रबन्धों की रचना अर्वाचीन संस्कृत लेखकों ने की है। आधुनिक पद्धति के निबंध वाङ्मय में विशेषतया उल्लेखनीय ग्रंथ हैं :निबंध लेखक
विषय कविकाव्यविचार राजगोपाल चक्रवर्ती
साहित्यशास्त्र हौत्रध्वान्तीदिवाकर कृष्णशास्त्री धुले
धर्मशास्त्र बालविवाहहानिप्रकाश
रामस्वरुप परिणयमीमांसा
नरेश शास्त्री उद्धारचंद्रिका
काशीचंद्र मानवधर्मसार
डॉ. भगवानदास ख्रिस्तधर्मकौमुदी-समालोचना
वज्रलाल मुखोपाध्याय सत्यार्थप्रकाश
दयानंद सरस्वती शांकरभाष्यगांभीर्य निर्णयखंडन गौरीनाथ शास्त्री .
तत्त्वज्ञान भाष्यगांभीर्यनिर्णयमंडन
वेंकटराघव शास्त्री नूतनगीतावैचित्र्यविलास
गीतादास पाश्चात्यशास्त्रसार
आप्पाशास्त्री राशिवडेकर क्षेत्रतत्त्वदीपिका इलातुर रामस्वामी
भूमिती सनातनभौतिकविज्ञान
वेंकटरमणय्या नेत्रचिकित्सा डॉ. बालकृष्ण शिवगम मुंजे
शारीर विज्ञान प्रत्यक्षशारीर
गणनाथ सेन
विज्ञान
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सिद्धान्तनिदान रसजलनिधि आयुर्वेदीयपदार्थविज्ञान शारीरदर्शन भाषातन्त्र भाषाशास्त्रसंग्रह गीर्वाणभाषाभ्युदय
पी. एम. वेरीयर डॉ. चिं. ग. काशीकर हिलेकर शास्त्री शयम शास्त्री एस. टी. जी. वरदाचारियर श्रीनिवास राघवन
भाषाविज्ञान
उपन्यास निबंध के समान गद्य उपन्यास का आधुनिक वाङ्मय प्रकार भी संस्कृतज्ञों ने अपनाया और अनेक उपन्यासों का योगदान संस्कृत साहित्य में दिया। वास्तविक यह वाङ्मय प्रकार आख्यायिका और कथा के रुप में प्राचीन काल से भारत में प्रचलित था। पातंजल महाभाष्य में वासवदत्ता, सुमनोत्तरा, भेमरथी इन आख्यायिकाओं का उल्लेख आता है। वासवदत्ता का अध्ययन करने वालों के लिए "वासवदत्तिक" संज्ञा रूढ थी। इनके अतिरिक्त वररुचिकृत चारुमति, श्रीपालिकृत तरंगवती, रामिल-सौमिलकृत शूद्रककथा इत्यादि आख्यायिकाएँ ईसापूर्व काल में प्रसिद्ध थीं। हरिश्चंद्र की मालती, भोज की शृंगारमंजरी, कुलशेखर की आश्चर्यमंजरी, रुद्रट की त्रैलोक्यसुंदरी, अपराजित की मृगांकलेखा इत्यादि अवान्तर आख्यायिकाओं का भी निर्देश संस्कृत साहित्यिकों ने आदरपूर्व किया है। प्राचीन ललित गद्य लेखकों में बाणभट्ट, दण्डी और सुबन्धु इन तीन साहित्यिकों ने जो लोकोत्तर प्रतिभासामर्थ्य और संस्कृत भाषा का वैभव व्यक्त किया वह विश्वविख्यात है। इनकी परंपरा भूषणभट्ट (बाणभट्ट का पुत्र एवं कादम्बरी के उत्तरार्ध का लेखक), चक्रपाणि दीक्षित (दशकुमारचरित के उत्तरार्ध का लेखक) आनंदधर (10 वीं शती, माधवानल कथा का लेखक) धनपाल (11 वीं शती, तिलकमंजरी का लेखक) सोडुढल (11 वीं शती, उदयसुंदरी का लेखक) वादीभसिंह (12 वीं शती, गद्यचिन्तामणि का लेखक), विद्याचक्रवर्ती (13 वीं शती गद्यकर्णामृत का लेखक) अगस्ति (14 वीं शती कृष्णचरित्र का लेखक) वामन (अभिनव बाणभट्ट, 15 वीं शती) वीरनारायणचरित का लेखक और देवविजयगणि (16 वीं शती, रामचरित का लेखक) इत्यादि महान् गद्य कवियों ने अखण्डित चालू रखी। बाणभट्ट की कादम्बरी के अदभुत प्रभाव के कारण आधुनिक कालखंड में ढूंढिराजकृत अभिनवकादम्बरी (18 वीं शती) मणिरामकृत कादम्बर्यर्थसार, काशीनाथकृत संक्षिप्तकादम्बरी, व्ही. आर. कृष्णम्माचार्यकृत कादम्बरीसंग्रह तथा हर्षचरितसार, डा. वा. वि. मिराशी कृत हर्षचरितसार, अहोबिल नरसिंहकृत अभिनवकादम्बरी (अर्थात् त्रिमूर्तिकल्याण) इत्यादि कादम्बरीनिष्ठ ग्रंथ प्रकाशित हुए। इनके अतिरिक्त इस परंपरा में श्रीशैल दीक्षित कृत श्रीकृष्णाभ्युदय, कृष्णम्माचार्यकृत सुशीला और मंदारवती, नारायणशास्त्री खिस्तेकृत दिव्यदृष्टि, चक्रवर्ती राजगोपालकृत शैवलिनी और कुमुदिनी, जग्गू बकुलभूषणकृत जयन्तिका, हरिदास सिद्धान्तवागीशकृत सरला और रामजी उपाध्याय कृत द्वा सुपाणां इत्यादि उपन्यासात्मक ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। अंबिकादत्त व्यास कृत शिवराजविजय का उल्लेख शिवाजी विषयक काव्यों में उपर आया है।
उपन्यासों के समान लघुकथाओं की निर्मिति आधुनिक संस्कृत वाङ्मय की विशेषता कही जा सकती है। प्रायः सभी संस्कृत मासिक पत्रिकाओं में आधुनिक पद्धति की कथाएँ निरंतर प्रकाशित होती आ रही हैं।
आधुनिक संस्कृत नाटकों का संक्षेपतः परिचय नाट्यवाङ्मय विषयक प्रकरण में आया है। अतः इस प्रकरण में उसका पृथक् निर्देश करने की आवश्यकता नहीं है। डॉ. रामजी उपाध्याय के आधुनिक संस्कृत नाटक नामक ग्रंथ में प्रायः सभी आधुनिक नाटकों एवं नाटककारों का यथोचित परामर्श लिया गया है।
- अनुवाद 19 वीं शताब्दी तक संस्कृत ग्रन्थों के ही अनुवाद अन्य भाषाओं में करने की प्रथा थी। पूर्वकालीन साहित्यिक अन्य भाषीय ग्रंथों को संस्कृत भाषा में अनुवादित करने के संबंध में उदासीन या पराङ्मुख थे। परंतु 19 वीं शती के उत्तरार्ध से अनुवादित साहित्य पर्याप्त मात्रा में संस्कृत भाषा में निर्माण होने लगा। इस अनुवादित संस्कृत वाङ्मय का यह वैशिष्ट्य है कि, इस में भारत की विभिन्न प्रादेशिक भाषाओं तथा अंग्रेजी जैसी विदेशी भाषा के उत्तमोत्तम ग्रंथों के अनुवाद, संस्कृत की अखिल भारतीयता के कारण, अनायास निर्माण हुए। इन अनुवादों में तुलसीरामायण, ज्ञानेश्वरी, तिरुक्कुरळ, धम्मपद, गाथासप्तशती, मिलिंदप्रश्न, कथाशतक, कामायनी, श्रीरामकृष्णकथामृत, मनोबोध, उमरखय्याम की रुबाइयां, अरेबियन नाइटस्, बाईबल इत्यादि सुप्रसिद्ध ग्रंथों के संस्कृत अनुवाद विशेष उल्लेखनीय हैं। शेक्सपीयर, टैगोर, विवेकानन्द, महात्मा गांधी, विनोबाजी भावे, योगी अरविंद, अरस्तू, जर्मन कवि गटे इत्यादि श्रेष्ठ लेखकों के ग्रंथ अंशतः अनुवादित हो चुके हैं। मराठी के प्रायः सभी लोकप्रिय नाटकों के संस्कृत अनुवाद और प्रयोग हो चुके हैं। स्वतंत्र भारत के संविधान का गद्य और पद्यात्मक अनुवाद भी हुआ है।
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पत्र-पत्रिकाएँ 19 वीं शताब्दी में भारत के विविध प्रान्तों के नेताओं ने लोकजागृति के हेतु अंग्रेजी तथा हिंदी, बांगला प्रभृति प्रादेशिक भाषाओं में वृत्तपत्र तथा मासिक पत्रिकाएँ प्रकाशित करना प्रारंभ किया। लोकजागृति के इस वाङ्मयीन कार्य में संस्कृत पण्डितवर्ग भी अग्रेसर हुआ। सन 1866 में वाराणसी के राजकीय संस्कृत विद्यालय से "काशीविद्यासुधानिधि" नामक प्रथम संस्कृत पत्रिका प्रकाशित हुई।। सन 1876 में इसका प्रकाशन स्थगित होने के बाद 1887 से 1977 तक यह "पंडितपत्रिका" प्रकाशित होती रही। वाराणसी से 1876 से पूर्णमासिकी अथवा प्रत्यग्रनन्दिनी नामक पत्रिका सत्यव्रत सामश्रमी के संपादकत्व में प्रकाशित होने लगी। इस प्रकार संस्कृत के नियतकालिक साहित्य का उद्गम काशी (या वाराणसी) जैसे संस्कृत विद्या के महान् केंद्र से हुआ। 1871 से 1914 तक लाहौर से ऋषीकेश भट्टाचार्य के संपादकत्व में विद्योदय का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। पंजाब विश्वविद्यालय के अधिकारी डा. वुलनर का इस कार्य में प्रोत्साहन था। लाहौर का त्याग कर पं. ऋषीकेश भट्टाचार्य कलकत्ता में निवासार्थ गए। तब से विद्योदय का प्रकाशन कलकत्ते से होने लगा।
डॉ. रामगोपाल मिश्र ने सागर विश्वविद्यालय से पीएच.डी. उपाधि के लिए “संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास" नामक शोध प्रबंध लिखा है। (पृष्ठसंख्या 235) प्राप्तिस्थान विवेक प्रकाशन, सी. 11/17 मॉडल टाऊन, दिल्ली-9। इसमें 19 वीं और 20 वीं शताब्दी में उदित एवं अस्तंगत प्रायः सभी नियतकालिक पत्रिकाओं का सविस्तर परामर्श लिया गया है। आधुनिक संस्कृत वाङ्मय का परामर्श लेने वाले कुछ शोधप्राय निबंधों एवं प्रबन्धों में भी नियतकालिक साहित्य का पर्याप्त विवेचन हुआ है। श्रीराम गोपाल मिश्र की सूची के अनुसार 19 वीं शताब्दी में 54 और 20 वीं शताब्दी में 166 पत्र-पत्रिकाएँ संस्कृत वाङ्मय क्षेत्र में निर्माण हुईं। आज करीब 40 पत्रिकाएँ प्रकाशित हो रही हैं। मैसूर से सुधर्मा नामक दैनिक पत्रिका 1970 से अव्याहत चल रही है। संस्कृत में दैनिक पत्रक प्रकाशित करने का साहस त्रिवेंद्रम की जयन्ती और पुणे की संस्कृति के संपादकों ने भी किया था। संस्कृत पत्रपत्रिकाओं के संपादन का कार्य विशिष्ट उद्देश्य से चला था। कांचीवरम् के प्रतिवादिभयंकर मठ के अधिपति अनन्ताचार्य ने अपनी मंजुभाषिणी नामक मासिक पत्रिका अपने मठ का मतप्रचार करने के उद्देश्य से चलाई थी। मद्रास के आर. कृष्णम्माचार्य की सहृदया का उद्देश्य पौरस्य एवं पाश्चात्य विद्याओं का समन्वय करना था। अयोध्यावासी कालीप्रसाद त्रिपाठी ने अपना संस्कृतम् साप्ताहिक "अस्यामेव शताब्दयां संस्कृतं राष्ट्रभाषा भवतु" इस ध्येय से प्रेरित होकर प्रतिकूल परिस्थिति में चलाया।
संस्कृत केवल धार्मिक व्यवहार की ही भाषा नहीं। उस भाषा में अद्ययावत् लौकिक व्यवहार करने की भी क्षमता है। यह सिद्ध करने की महत्त्वाकांक्षा सभी पत्रपत्रिकाओं के संपादन के पीछे रही और प्रायः सभी पत्रपत्रिकाओं ने संस्कृत भाषा की वह शक्ति अच्छी प्रकार से सिद्ध की। संस्कृत एक अखिल भारतीय भाषा होने के कारण, इन नियतकालिकों का क्षेत्र संपूर्ण भारतवर्ष रहा। भारत के सभी प्रदेशों के प्रमुख शहरों से संस्कृत पत्रपत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ यह उल्लेखनीय है।। दूसरी उल्लेखनीय बात यह है कि आधुनिक संस्कृत साहित्य का बहुत सारा उत्कृष्ट अंश इन पत्रिकाओं में यथावसार प्रकाशित होता गया। गोल्डस्मिथ के हरमिट काव्य का अनुवाद (एकान्तवासी योगी) पंडित जगन्नाथप्रसाद के संसारचक्र नामक हिन्दी उपन्यास का अनुवाद, वासिष्ठचरितम् इत्यादि ग्रंथ कांचीवरम् की मंजुभाषिणी में क्रमशः प्रकाशित हुए। सद्हृदया में शेक्सपीयर के काव्यों के अनुवाद एवं सुशीला नामक उपन्यास प्रकाशित हुआ। पं. अंबिकादत्त व्यास का सुप्रसिद्ध शिवराजविजय, आप्पाशास्त्री राशिवडेकर की संस्कृतचन्द्रिका में प्रकाशित हुआ। वाराणसी की संस्कृतभारती में रवीन्द्रनाथ टैगोर की सुप्रसिद्ध गीतांजली का संस्कृत अनुवाद प्रकाशित हुआ। पं. वसन्त गाडगीळ की शारदापत्रिका और जयपुर की भारती में श्री. भा. वर्णेकर का 68 सर्गों का महाकाव्य शिवराज्योदय प्रकाशित हुआ। प्रा, अशोक अकलूजकर की आप्पाशास्त्री साहित्यसमीक्षा, डॉ. ग. बा. पळसुलेकृत विवेकानंदचरित इत्यादि पचास से अधिक पुस्तकें क्रमशः तथा ग्रंथरूप में वसंत गाडगीळ की शारदा में प्रकाशित हुई। सभी श्रेष्ठ नियतकालिकों में यथावसर प्रकाशित कथा, उपन्यास, खंडकाव्य, नाटक आदि का यथोचित संकलन करना और उन्हें स्वतंत्र ग्रंथरूप में या कोशरूप में प्रकाशित करना एक आवश्यक कार्य है। इस प्रकार संकलन अभी नहीं हो सका तो अर्वाचीन संस्कृत साहित्य का बहुत सारा संरक्षणीय अंश काल के कराल गाल में ग्रस्त हो जाएगा।
आधुनिक नियतकालिक वाङ्मय के कारण संस्कृत गद्य में महान परिवर्तन हुआ है। प्राचीन लेखकों की श्लिष्ट एवं दीर्घ समासादि के कारण क्लिष्ट लेखन शैली समाप्त होकर सरल सुबोध लेखन शैली प्रचालित हुई है। पुराने मुद्रित ग्रंथों में संधियुक्त मुद्रण के अतिरेक से दुर्वाचनीयता दोष निर्माण हुआ है। (जिस के कारण संस्कृत एक दुर्बोध भाषा मानी गई थी) वह नियतकालिक साहित्यद्वारा हटाया गया। आधुनिक युग के राजकीय, सामाजिक, आर्थिक व्यवहारों में एवं यांत्रिक जीवन में
आवश्यक आशय व्यक्त करने के लिए प्राचीन संस्कृत साहित्यमें न मिलने वाले अनेक नवीन संस्कृत शब्दों का प्रचार इन "नियतकालिकाओं के द्वारा सर्वत्र हो रहा है। कुछ पत्रिकाओं में प्रादेशिक भाषाओं में विशिष्ट अर्थ में रूढ हुए संस्कृत शब्द
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उन्हीं अर्थों में प्रयुक्त होते हैं, परंतु ऐसे कुछ दोष क्षम्य माने जा सकते हैं। संस्कृत नियतकालिकों का इस प्रतिकूल काल में भी जो अव्याहत प्रकाशन होता आया और आज भी हो रहा है उससे इस भाषा पर लादा गया मृतत्व का आक्षेप अनायास खंडित होता है। कतिपय उल्लेखनीय पत्रपत्रिकाओं की नामावली प्रतशः परिशिष्ट में दी है।
संस्कृत नियतकालिकों की यह नामावली परिशिष्ट (घ) में निर्दिष्ट डॉ. रामगोपाल मिश्र के संस्कृत पत्रकारिता का इतिहास नामक शोध प्रबंध पर आधारित है। उस नामावली के अतिरिक्त भी कुछ और नाम भी जोड़े गये हैं। इस सूची के अनुसार कलकत्ता से 17, वाराणसी से 32, बंबई से 11, मद्रास से 11, और दिल्ली से 5 पत्रिकाओं का प्रकाशन हुआ। असम और सिंध से इस कार्य में योगदान नहीं हुआ। संस्कृत वाङ्मय की निधि में आधुनिक काल में अनुवादित ग्रन्थों एवं नियतकालिकों के द्वारा उल्लेखनीय योगदान हुआ है। संस्कृत वाङ्मयेतिहास के प्राचीन कालखंड में जिन महान् प्रेषकारों ने अपना वैशिष्यपूर्ण योगदान पर्याप्त मात्रा में दिया उन में बहुत सारे प्रतिभासंपन्न एवं पांडित्यसम्पन्न महानुभावों के नाम सर्वविदित है दुर्भाग्य की बात यह है कि आर्वाचीन कालखंड में जिन्होंने इस सनातन वाङ्मय निधि को श्रीवृद्धि भरपूर मात्रा में की, ऐसे ग्रन्थकारों के नाम उनके प्रदेश में भी प्रख्यात नहीं हो सकें। ऐसे अप्रसिद्ध परंतु श्रेष्ठ ग्रंथकारों में पंडितराज जगन्नाथ के समकालीन, अप्पय्य दीक्षित (104 ग्रंथों के निर्माता ) तंजौर के नृपति रंघुनाथनायक, उनकी धर्मपत्नी रामभद्राम्बा, और मंत्री गोविंद दीक्षित, रलखेट श्रीनिवास दीक्षित (अभिनव भवभूति । ) तंजौर के तुकोजी महाराज का मंत्री घनश्यान कवि, केरल निवासी नारायण भट्टपाद (भट्टात्रि), राजस्थान के समीक्षाचक्रवर्ती मधुसुदनजी ओझा, (135 ग्रंथों के लेखक ), कर्नाटक के वासिष्ठगणपति मुनि और उनके शिष्य ब्रह्मश्री कपालीशास्त्री, महाराष्ट्र के वासुदेवानंद सरस्वती, प्रज्ञाचुक्ष गुलाबराव महाराज, अप्पाशास्त्री राशिवडेकर, बंगाल के प. हृषीकेश भट्टाचार्य, गणनाथ सेन, वाराणसी के गागाभट् काशीकर, इत्यादि अनेक स्वनामधन्य महानुभावों ने संस्कृत के शास्त्रीय एवं लालित्यपूर्ण वाङ्मय की परंपरा अखंडित रखी है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 267
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संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड
अंबालाल पुराणी (प्रा.) - अरविन्दाश्रम के संस्कृत पण्डित । कृति-योगिराज अरविन्द के तत्त्वज्ञान का सूत्ररूप संग्रह 'पूर्णयोग सूत्राणि'। अंबिकादत्त व्यास (पं.) - ई. 19 वीं शताब्दी के प्रसिद्ध गद्य-लेखक, कवि एवं नाटककार । पिता-दुर्गादत्त शास्त्री (गौड)। समय 1858 से 1900 ई.। इनके पूर्वज भानपुर ग्राम (जयपुर राज्य) के निवासी थे किन्तु इनके पिता वाराणसी जाकर वहीं बस गए। व्यासजी, राजकीय संस्कत महाविद्यालय पटना में। अध्यापक थे, और उक्त पद पर जीवन पर्यन्त रहे। इनके द्वारा प्रणीत ग्रथों की संख्या 75 है। इन्होंने हिन्दी और संस्कृत दोनों भाषाओं में समान अधिकार के साथ रचनाएं की हैं। व्यासजी ने छत्रपति शिवाजी के जीवन पर 'शिवराज-विजयम्' नामक गद्यकाव्य की रचना की है, जो 'कादंबरी' की शैली में रचित है। इनका 'सामवतम्' नामक नाटक, 19 वीं शती का श्रेष्ठ नाटक माना जाता है। पंडित जितेन्द्रियाचार्य द्वारा संशोधित 'शिवराजविजयम्' की, 6 आवृत्तियां प्रकाशित हो चुकी हैं। कवि अम्बिकादत्त अपनी असाधारण विद्वत्ता तथा प्रतिभा के कारण समकालीन विद्वन्मण्डली में 'भारतभास्कर', 'साहित्याचार्य', 'व्यास' आदि उपाधियों से भूषित थे। इन्हें 19 वीं सदी का बाणभट्ट माना जाता है। श्री. व्यास जीवनपर्यन्त साहित्याराधना में लीन रहे । उनकी प्रमुख काव्य-कृतियां :
1) गणेशशतकम्, 2) शिवविवाहः (खण्डकाव्य), 3) सहस्रनामरामायणम् (इसमें एक हजार श्लोक हैं। यह 1898 ई. में पटना में रचा गया)। 4) पुष्पवर्षा (काव्य), 5) उपदेशलता (काव्य), 6) साहित्यनलिनी, 7) रत्नाष्टकम् (कथा)यह हास्यरस से पूर्ण कथासंग्रह है। 8) कथाकुसुमम् (कथासंग्रह), 9) शिवराजविजयः (उपन्यास)। (1870 में लिखा गया, किन्तु इसका प्रथम संस्करण 1901 ई. में प्रकाशित हुआ), .10) समस्यापूर्तयः, काव्यकादम्बिनी (ग्वालियर में प्रकाशित) 11) सामवतम् (यह नाटक, पटना में लिखा गया। इसकी प्रेरणा महाराज लक्ष्मीश्वरसिंह से प्राप्त हुई थी। यह स्कन्दपुराण की कथा पर आधारित है तथा इसमें छह अंक हैं), 12) ललिता नाटिका, 13) मूर्तिपूजा, 14) गुप्ताशुद्धिदर्शनम्, 15) क्षेत्र-कौशलम्, 16) प्रस्तारदीपिका और 17) सांख्यसागरसुधा। अकबरी कालिदास - ई. 16-17 वीं सदी। मूल नाम गोविंद भट्ट। अकबर के शासनकाल में जिन संस्कृत पंडितों को उदार राजाश्रय मिला, उन्हीं में से एक हैं। वहीं 'अकबरी कालिदास' यह उपाधि मिली। महाराजा रामचंद्र का भी आश्रय इन्हें प्राप्त था। अपनी प्रशस्ति में उन्होंने स्वयं लिखा है -
अनाराध्य कालीमनास्वाद्य गौरीम्ऋते मन्त्रतन्त्राद्विना शब्द-चौर्यात् । प्रबंधं प्रगल्भं प्रकर्तुं विरिचिप्रपंचे मदन्यः कविः कोऽस्ति धन्यः ।
(पद्यवेणी- 786) अर्थ काली की आराधना, गौरी का आस्वादन, मंत्रतंत्र एवं शब्दचौर्य के बगैर प्रगल्भ प्रबंध निर्माण करना तथा प्रवचन करना, इस कामों में ब्रह्मा की सृष्टि में मुझे छोड़ कर और कौन कवि है? अकलंकदेव - ई. 8 वीं सदी (दिगंबरपंथीय जैन तर्काचार्य। कवि-उपाधि प्राप्त। अनेक बौद्ध पंडितों के साथ वादविवाद कर दक्षिण भारत में जैन दर्शन का बौद्ध मत के प्रभाव से रक्षण किया। गृध्रपिच्छविरचित तत्त्वार्थसूत्र पर तत्त्वार्थवार्तिक ग्रंथ की रचना द्वारा, जैन सिद्धान्त पर किये जाने वाले विविध आक्षेपों का इन्होंने निराकरण किया। संमतभद्रकृत आप्तमीमांसाग्रंथ पर अष्टशती नामक स्वल्पाक्षर टिप्पण प्रस्तुत किया। प्रमाणसंग्रह, न्यायविनिश्चय, सिद्धिविनिश्चय एवं लघीयस्त्रय ये चार प्रकरण ग्रंथ लिख कर जैन प्रमाणशास्त्र की व्यवस्थित पुनर्रचना की। ज्ञानकोश-स्वरूप के ग्रंथ लिखने की जो प्रथा वाचस्पतिमित्र, उदयन, शांतरक्षित आदि दर्शनकारों ने प्रारम्भ की, उसकी प्रेरणा अकलंकदेव के ग्रंथ से ही मिली। रामस्वामी अय्यंगार के अनुसार कांची के हिमशीतल राजा की सभा में इन्होंने बौद्धों का पराभव किया। परिणामतः बौद्ध दक्षिण से
चले गये। ____ पांडव-पुराण में एक दंतकथा है-हिमशीतल राजा के दरबार में बौद्ध दार्शनिक के साथ अकलंकदेव का वादविवाद हुआ जिसमें बौद्ध दार्शनिक की हार हुई। वादविवाद के प्रारंभ में अकलंदेव को संदेह हुआ कि बौद्ध पंडित के निकट जो पात्र है, उसमें कोई मायावी पुतली है, जो अपने स्वामी को जिताने में सहायक हो रही है। अकलंदेव ने तुरंत उस पात्र को ठोकर मारकर उलट दिया। परिणामतः बौद्ध दार्शनिक की वादविवाद में पराजय हुई। इस घटना के पश्चात् दक्षिण में बौद्धों का प्रभाव प्रायः समाप्त हो गया।
दर्शनशास्त्री होने पर भी अकलंकदेव का हृदय भक्त का था। अपने अकलंकस्तोत्र में वे कहते हैं :
त्रैलोक्यं सकलं त्रिकालविषय सालोकमालोकितं साक्षायेन यथा निजे करतले रेखात्रयं साङ्गुलि । रागद्वेष-भयामयान्तक-जरा-लोलत्व-लाभोदयो नालं यत्पदलङ्घनाय स महादेवो मया वंद्यते।।
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अर्थ- जिसने त्रिकाल विषय, सकल त्रैलोक्य, को हाथ की अंगुलियां और उन पर जो रेखाएं है, उनके समान साक्षात् देखा है एवं राग, द्वेष, भय, रोग, मृत्यु, जरा, चंचलता, लोभ ये विकार जिसके पद का उल्लंघन करने में असमर्थ हैं, उस महादेव (महावीर) को मैं वंदन करता हूं। अकालजलद - महाराष्ट्रीय कविचूडामणि राजशेखर के प्रपितामह । समय ई. 8-9 वीं शती। उनकी कोई भी रचना प्राप्त नहीं होती, पर 'शागधरपद्धति' प्रभृति सूक्ति-संग्रहों में इनका 'भेकैः कोटरशायिमिः' - श्लोक मिलता है। उसी प्रकार राजशेखर के नाटकों में इनका उल्लेख प्राप्त होता है तथा उन्हीं की 'सूक्ति-मुक्तावली' में इनकी निम्न प्रकार प्रशस्ति की गई है
अकालजलदेन्दोः सा हृद्या वचनचन्द्रिका।
नित्यं कविचकोरैर्या पीयते न तु हीयते।। अक्षपाद - समय-सन् 150 के आसपास । न्यायसूत्र के कर्ता। षोडषपदार्थवादी। माधवाचार्य ने सर्वदर्शन में न्यायशास्त्र को अक्षपाददर्शन ही कहा है।
पद्मपुराण एवं अन्य कुछ पुराणों में कहा गया है कि न्यायशास्त्र गौतम (अथवा गोतम) की रचना है। न्यायसूत्र वृत्ति के कर्ता विश्वनाथ ने इस सूत्र को गौतमसूत्र कहा है। संभवतः अक्षपाद और गौतम दोनों ने इसे लिखा हो। ___ गौतम मिथिला के तो अक्षपाद काठियावाड के प्रभास क्षेत्र के थे। ब्रह्मांडपुराण के अनुसार अक्षपाद के पिता सोमशर्मा एवं कणाद थे। गौतम और अक्षपाद एक ही है ऐसा माना जाता है। एक दंतकथा बताई जाती है- विचारमग्न गौतम कुएँ में गिरे। कठिनाई से उन्हें बाहर निकाला जा सका। पुनः ऐसी स्थिति नहीं हो, इसलिये उनके पैरों में ही आखें निर्माण की गई। अखंडानन्द सरस्वती - श्रीमत् शंकराचार्य के अद्वैत-सिद्धांत पर 'तत्त्वदीपन' नामक ग्रंथ के रचयिता। अखिलानन्द शर्मा - आर्य समाजी विद्वान्। रचना- 'दयानन्द दिग्विजय' (21 सर्गों का महाकाव्य)। रचना का उद्देश जन-जागृति। समय- 20 वीं शती का पूर्वार्ध। अग्गल - मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वय के विद्वान श्रुतकीर्ति विद्यदेव के शिष्य। पिता-शान्तीश । मातापोचम्बिका। जन्म-इंगेलेश्वर ग्राम (दक्षिण) में। राज-परिवार द्वारा सम्मानित। समय- 11 वीं शती का अंतिम चरण और 12 वीं शती का प्रारंभ। रचना चन्द्रप्रभपुराण (वि.सं. 1146) जिसमें 16 आश्वास हैं। अच्युत नायक - समय 1572-1614 ई.। रघुनाथ नायक (1614-1633 ई.) तथा विजय राघव नायक (1633-1673 ई.) के राजगुरु रहे। इनके ग्रंथों के संरक्षण हेतु जो ग्रन्थालय तंजौर में बनाया गया वही आज सरस्वती महल के नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है। रचना- पारिजातहरण नामक 5 अंकों का नाटक।
अच्युत शर्मा- 'भागीरथीचंपू' के रचयिता। पिता-नारायण। माता-अन्नपूर्णा । इनके चंपू-काव्य का प्रकाशन, गोपाल नारायण कंपनी से हो चुका है। अजयपाल - ई. 11 वीं शती। 'नानार्थसंग्रह' नामक कोश के कर्ता। अजितदेव सूरि- चन्द्रगच्छीय महेश्वर सूरि के शिष्य। समय ई. 16 वीं शती । ग्रंथ आचारांगदीपिका नामक (शीलांकाचार्यकृत आचारांगविवरण के आधार पर विरचित टीका)। अजितनाथ न्यायरत्न (म.म.)- बंगाली। 'बक-दूत' के रचयिता। 'अजितप्रभसूरि-ई. 13 वीं शती। पौर्णसिक गच्छीय जैनाचार्य । गुरुपरम्परा-चन्द्रसूरि, देवसूरि, तिलकप्रभ, वीरप्रभ, और अजितप्रभ । ग्रंथ- (1) शान्तिनाथचरित (5000 श्लोक) और (2) भावनासार। अजितसेन (अजितसेनाचार्य) . ई. 13 वीं शती। दक्षिणदेशान्तर्गत तुलुव प्रदेश के निवासी। सेनगण पोरारिगच्छ के मुनि। अलंकार-शास्त्र के वेत्ता। 1245 ई. में रानी विट्ठलाम्बा के पुत्र कामराय वंगनरेन्द्र प्रथम के लिए ग्रंथ-निर्माण का कार्य किया। ग्रंथ-शृंगारमंजरी और अलंकारचिन्तामणि (पांच परिच्छेद) तथा चिंतामणि-प्रकाशिका नामक टीका।। अण्णार्य (अण्णयाचार्य)- तत्त्वगुणादर्श' नामक चम्पू-काव्य के प्रणेता। समय 1675 ई. से 1725 ई. के आस-पास । पिता श्रीशैलवंशीय श्रीदास ताताचार्य। पितामह अण्णयाचार्य, जो श्रीशैल-परिवार के थे। अण्णार्य का यह काव्य अभी तक अप्रकाशित है। इस काव्य में अण्णार्य ने शैव. व वैष्णव सिद्धांतों की अभिव्यंजना की है। अणे, माधव श्रीहरि -लोकनायक बापूजी अणे के नाम से समूचे भारत में विशेषतः महाराष्ट्र में प्रसिद्ध। जन्मदिन दि. 29 अगस्त 1880। जन्मस्थान- महाराष्ट्र के यवतमाल जिले का वणी नामक गांव। कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के तेलंगनावासी ब्राह्मण परिवार में जन्म लेकर भी आपने ऋग्वेद का अध्ययन किया था। चंद्रपुर तथा नागपुर में शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात्, यवतमाल में वकालत एवं सार्वजनिक कार्य का प्रारंभ । लोकमान्य तिलक के अग्रगण्य अनुयायी के नाते, होमरूल-आंदोलन का प्रसार विशेष उत्साह से किया। फिर वकालत का त्याग कर, देशबंधु चित्तरंजन दास के स्वराज्य-पक्ष का प्रचारकार्य विदर्भ में किया। मदनमोहन मालवीय, लाला लाजपतराय, पं. मोतीलाल नेहरू, महात्मा गांधी, पं. जवाहरलाल नेहरू आदि नेताओं के साथ आपने विविध प्रकार के राष्ट्रीय कार्यों में विदर्भ के नेता के नाते सहकार्य किया। महात्मा गांधी ने जब नमक-सत्याग्रह का आंदोलन शुरू किया, तब श्री. अणे ने जंगल-सत्याग्रह का स्वतंत्र आंदोलन विदर्भ में छेड़ा। इस सत्याग्रह में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के संस्थापक
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डॉ. हेगडेवारजी, श्री. अणे के सहकारी सत्याग्रही रहे । सन 1941 में आप वाइसराय की शासन परिषद के सदस्य चुने गए थे, पर आगाखाँ - पैलेस में गांधीजी के उपवास के समय आपने वह उच्च पद छोड़ दिया। सन् 1943 में आप श्रीलंका में भारत सरकार के एजंट नियुक्त किए गए। स्वतंत्रता के पश्चात् देश की विधान निर्मात्री सभा के भी आप सदस्य रहे । बाद में लोकसभा के भी सदस्य रहे । महाराष्ट्र में विदर्भ के पृथक् राज्य का आंदोलन भी आपने खड़ा किया था। सन 1951 में आप दीर्घ काल तक पुणे में अस्वस्थ रहे। शरीर की उस अत्यंत विकल अवस्था में, शरीर प्लैस्तर में पड़ा होते हुए भी, अन्तःकरण की शांति के लिए आपने अपने पूज्य गुरुदेव श्री. लोकमान्य तिलक का संस्कृत पद्यात्मक चरित्र लिखने का संकल्प किया और पांच-छह वर्षों में अपना 'तिलक - यशोर्णवः' नामक पद्यमय तिलक चरित्र पूर्ण किया । सन् 1960 में आपका देहांत होने के पश्चात् सन् 1962 में इस ग्रंथ को साहित्य अकादमी का पुरस्कार दिया गया। पद्मविभूषण उपाधि भारत सरकार की ओर से विभूषित । राष्ट्रीय आंदोलनों में अग्रसर रहते हुए भी संस्कृत पांडित्य का रक्षण करते हुए संस्कृत में महत्त्वपूर्ण ग्रंथ का निर्माण करना, बापूजी अणे की विशेषता थी विदर्भ प्रदेश के प्रायः सभी राजकीय, धार्मिक, साहित्यिक, शैक्षणिक कार्यों को आपका संपूर्ण सहकार्य मिलता रहा। बापूजी अणे का अवांतर मराठी-अंग्रेजी लेखन, 'अक्षरमाधव' नामक ग्रंथ में संकलित किया गया है। अतिरात्रयाजी त्रिपुर- विजयचम्पू' नामक काव्य के रचयिता । 'नीलकंठ-विजयचंपू' के रचयिता नीलकंठ दीक्षित के सहोदर भ्राता । समय 17 वीं शती का मध्य। इनका चंपू-काव्य अभी तक अप्रकाशित है।
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अत्रि ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 37, 43 एवं 76-77 वें सूक्त इनके नाम से हैं। इस मंडल के अन्य सूक्त इनके गोत्रज ऋषियों के दृष्ट हैं। जन्मकथा इस भांति है
प्रजापति ने साध्यदेवों सहित त्रिसंवत्सर नामक एक सत्र आरंभ किया। उसमें वाग्देवी प्रकट हुई। उसे देख प्रजापति और वरुण का मन विचलित हुआ। दोनों का वीर्य पतन हुआ। वायु ने उसे अग्नि में डाला। उस अग्निज्वाला से भृग, और अंगारों से अंगिरा ऋषि का जन्म हुआ। इन दो सुंदर बच्चों को देख कर वाग्देवी ने प्रजापति से कहा- "इन दोनों के समान तीसरा पुत्र आप मुझें दे।” प्रजापति ने स्वीकार किया, और प्रतिसूर्य ही जिसे कहा जाय ऐसा पुत्र निर्माण किया । वही थे अत्रि (बृहद् देवता - 9, 101 ) ।
दूसरी कथा स्वायंभुव मन्वंतर में ब्रह्मा के नेत्र से इनका जन्म हुआ। ब्रह्मा के दस मानसपुत्रों में से एक। कर्दम प्रजापति की अनसूया नामक कन्या इनकी पत्नी थी। इन्होंने
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चतूरात्र नामक याग प्रारंभ किया ( तै.सं.7.1.8)। किसी कारण कारावास भी भोगना पड़ा। अग्नि से अश्विनी की कृपा से बच पाये (ऋ. 1.118.7)।
सूर्यग्रहण संबंधी ज्ञान प्रथमतः इन्हें ही हुआ इसी कारण ग्रस्त सूर्य को अत्रि ही वापस लाते हैं, यह धारणा बनी (ऋ.5.40.5.9.) । अत्रिकुल के पुरुष, कवि थे और योद्धा भी । अत्रि का पर्जन्यसूक्त ओजस्वी है ऋ. 83 एक स्थान पर उन्होंने कहा है
विसमणं कृणुहि वित्तमेषां
ये भुञ्जते अपृणन्तो न उक्थेः । अपव्रतान् प्रवसे वावृधानान्
ब्रह्मद्विषः सूर्याद् यावयस्व ।। (ऋ.5.42.9.) अर्थ- जो लोग स्तोत्र गाकर पेट भरते हैं पर कौड़ी का भी दानधर्म नहीं करते, देवताओं को संतुष्ट नहीं करते, उनका धन क्षण भर भी टिकने न दो। उसी भांति सन्मार्ग से भ्रष्ट, भरपूर बालबच्चे होने से मस्त, धर्म का (शन का) द्वेष करने वाले जो दुष्ट होंगे, उन्हे सूर्यप्रकाश से अंधकार में गाड दो।
अत्रि सप्तर्षियों में से एक हैं। वे अत्यंत कर्मनिष्ठ एवं तेजस्वी थे। उन्हें उन्नीसवें द्वापरयुग का व्यास कहा जाता है। अनसूया से दत्त, दुर्वास, सोम और अर्यमा नामक चार पुत्र एवं अमला नामक एक कन्या उन्हें हुई। दाशरथी राम जब वनवास में थे, तब इनके आश्रम में भी गये थे। इस दंपती ने उनका स्वागत किया। वहां से अगला मार्ग (राम-लक्ष्मण को) अत्रि ने ही दिखाया (वा.रा. 2-117 119 ) ।
अत्रिसंहिता एवं अत्रिस्मृति नामक दो ग्रंथ इनके नाम पर हैं। मनु ने अत्यंत गौरव के साथ इनका मत स्वीकार किया है ( 3.16) । अत्रिसंहिता में 9 अध्याय हैं। योग, जप, कर्म विपाक, प्रायश्चित आदि का विचार उनमें किया गया है। वे सूत्रकार भी है।
अधीरकुमार सरकार- ई. 20 वीं शती । 'पाशुपत' नामक (एकांकी) तथा 'कचदेवयानी' नामक नाटक के प्रणेता। प. बंगाल में मेदिनीपुर के निवासी ।
अनन्तकीर्ति- अनन्तकीर्ति नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। ये हैं- 'प्रामाण्यभंग' के रचयिता और 'सिद्धिप्रकरण' तथा सर्वज्ञसिद्धि के कर्ता (ई. 8-9 वीं शती)। ये रचनाएं बृहत् वादिराज द्वारा उल्लिखित हैं। विद्यानंद नामक विद्वान इनके समकालीन थे । अनंतदेव- ई. 13 वीं सदी। भास्कराचार्य के वंश के एक ज्योतिषी 'महागुप्त-सिद्धान्त' के बीसवें अध्याय और बृहज्जातक पर इन्होंने टीकाएँ लिखी है।
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अनन्तदेव - ई. 16 वीं शती का उत्तरार्ध । गुरु- रामतीर्थ । कृतियां (1) मनोनुरंजन अथवा हरिभक्ति (नाटक) और (2) श्रीकृष्णभक्तिचन्द्रिका, जो विष्णुभक्ति एवं शृंगार रसप्रधान रचना है।
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अनंतदेव- ई. 17 वीं शती। पैठन (महाराष्ट्र) के एकनाथ महाराज के बाद चौथे पुरुष। पिता का नाम आपदेव। आपदेव ने 'मीमांसान्यायप्रकाश' नामक ग्रंथ लिखा है। मीमांसाशास्त्र का अध्ययन इस परिवार में परंपरा से चल रहा था। इनके आश्रयदाता, अलमोडा एवं नैनीताल के चन्द्रवंशीय शासक बाजबहादुर थे (17 वीं सदी)। उन्हींकी प्रेरणा से अनंतदेव ने 'राजधर्मकौस्तुभ' नामक ग्रंथ लिखा"बाजबहादुरचंद्र-भूपतेस्तस्यभूरियशसे प्रतन्यते। राजधर्मविषयेऽत्र कौस्तुभेऽनेकपद्धतियुतोऽर्थ-दीधितिः ।।" इन्होंने राज-धर्म के पूर्वस्वीकृत सिद्धान्तों का समावेश करते हुए, अपने इस ग्रंथ की रचना की है। अनन्तदेव की अन्य रचनाएं हैं- सैनिक शास्त्र तथा त्रिवर्णिक-धर्म। इनका रचना-काल 1662 ई. के आसपास है। ___ भारत के सर्वोच्च न्यायलय ने इनके 'स्मृतिकौस्तुभ' नामक ग्रंथ को प्रमाणभूत माना है। दत्तक विधान पर इसमें उल्लेख है। संस्कारकौस्तुभ, अग्निहोत्र-प्रयोग आदि ग्रंथ भी इन्होंने लिखे हैं। ये कृष्णभक्तिचंद्रिका नामक नाटक के भी प्रणेता हैं।
अनन्तनारायण- बृहदम्मा तथा मृत्युंजय के पुत्र । रचना-'सराफोजीचरितम्'। 'पंचरत्नकवि' की उपाधि प्राप्त। ई. 19 वीं शती। अनन्तनारायण- ई. 18 वीं शती। ये पाण्ड्य-प्रदेशीय थे। इन्हें केरलनरेश मानविक्रम तथा त्रिचूरनरेश रामवर्मा द्वारा सम्मानित किया गया था। इनका 'शृंगारसर्वस्व' नामक भाण प्रसिद्ध है। अनंतभट्ट- 'भारतचंपू' तथा 'भागवतचंपू' के रचियता। समय अज्ञात। कहा जाता है कि भागवतचंपू' के प्रणेता अभिनव कालिदास की प्रतिस्पर्धा के कारण ही इन्होंने उक्त दो चंपू-काव्यों का प्रणयन किया था। इस दृष्टि से इनका समय 11 वीं शती है। 'भारतचंपू' पर मानवदेव की टीका प्रसिद्ध है, जिसका समय 16 वीं शती है। प. रामचंद्र मिश्र की हिन्दी टीका के साथ 'भारतचंपू' का प्रकाशन, चौखंबा विद्याभवन से 1957 ई. में हो चुका है। अनन्तवीर्य (बृहद् अनन्तवीर्य)- अनन्तवीर्य नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। उनमें से हुम्मवंशी पंचवस्तिवर्ती प्रांगण के पाषाण-लेख में (ई.1077) अकलंक-सूत्र के वृत्तिकर्ता के रूप में इनका नामोल्लेख है। ये द्रविडसंघ के आचार्य-ग्रंथकार रहे हैं। ये वादिराज के दादागुरु और श्रीपाल के सधर्मा थे। समय ई. 10-11 वीं शती। रविभद्र के शिष्य। रचनाएं सिद्धिविनिश्चय-टीका और प्रमाण-संग्रह-भाष्य या प्रमाणसंग्रहालंकार (दार्शनिक ग्रंथ)। मणिप्रवाल की तरह इनकी गद्य-पद्यमय रैली चंपूकाव्य जैसी है। अकलंक के सिद्धिविनिश्चिय की टीका करते समय इन्होंने प्रकरणगत अर्थ को स्वरचित श्लोकों में व्यक्त किया है।
अनंतवीर्य- समय लगभग 11 वीं सदी। जैनधर्मी दिगंबरपंथी __ आचार्य। इन्होंने परीक्षामुख नामक ग्रंथ पर प्रमेयरत्नमाला एवं
अकलंक के ग्रंथ पर न्यायविनिश्चयवृत्ति नामक टीकाएं लिखी हैं। अनन्ताचार्य- 'प्रपन्नामृतम्' काव्य के रचयिता। इसमें दक्षिण भारत के अलवार-संप्रदाय के कतिपय साधुओं का चरित्र ग्रंथित है। अनन्ताचार्य- मैसूर राज्य के उदयेन्द्रपुर-निवासी। इन्होंने 'यादव-राघवपाण्डवीयम्' नामक काव्य की रचना की। भगवान कृष्ण, राम, तथा पांडवचरित्र विषयक तीन अर्थों की सभंग
और अभंग श्लेषद्वारा अभिव्यक्ति यह इस काव्य की अनोखी विशेषता है। अनंताचार्य (अनंत) - समय - ई. 18 वीं शती। काण्ववंशीय ब्राह्मण पंडित। काण्वसंहिता (शुक्ल यजुर्वेद) का भाष्य (भावार्थदीपिका) इनकी प्रमुख रचना है। इनके अन्य ग्रंथ हैं- (1) शतपथब्राह्मण भाष्य। इसके 13 वें अर्थात् अष्टाध्यायीकाण्ड के भाष्य का एक लेख मद्रास में है। (2) कण्वकण्ठाभरण। इसके हस्तलेख भी मद्रास में हैं। (3) पदार्थ-प्रकाश नामक याजुष प्रातिशाख्य-भाष्य और (4) भाषिक-सूत्र-भाष्य।
इन कृतियों में से काण्व-संहिता के उत्तरार्ध पर विरचित भाष्य-ग्रंथ में अनन्ताचार्य का मातृ-पितृनाम, निवास-स्थान इत्यादि विषयक कुछ जानकारी प्राप्त होती है। तदनुसार पिता नागदेव या नागेश भट्ट। माता-भागीरथी और वे काशी में रहते थे। अनंताचार्यजी स्वयं को प्रथम शास्त्रीय कहते हैं। काण्व-संहिता के केवल उत्तरार्ध पर भाष्य-रचना करने का कारण यह बतलाया गया है कि केवल पूर्वार्ध पर ही सायणाचार्यजी का भाष्य उपलब्ध है, उत्तरार्ध पर नहीं। किन्तु हाल की में संपूर्ण काण्वसंहिता पर सायणाचार्यजी की भाष्यरचना उपलब्ध होने का दावा कुछ अभ्यासकों ने किया और तद्नुसार ग्रंथ प्रकाशित भी हुआ है। इससे यह बात स्पष्ट है कि अनन्ताचार्यजी को काण्वसंहिता का सायणाचार्यविरचित समग्र भाष्य उपलब्ध नहीं था।
अनन्ताचार्यजी की भाष्य-रचना पर महीधराचार्यजी (माध्यन्दिनसंहिता के भाष्यकार) का प्रभाव है।
श्रौत अर्थ के अतिरिक्त कई मन्त्रों में अनन्ताचार्यजी ने पौराणिक अर्थ दिखाया है। इन्होंने ब्राह्मण-ग्रंथ का गहरा अध्ययन किया था। संभवतः वे माध्व-संप्रदाय के थे। अनन्ताचार्य- समय- 1874-1942 ई. । श्री. रामानुज सम्प्रदाय के प्रकाण्ड पण्डित, महान दार्शनिक तथा धर्मप्रचारक थे। वे कांचीवरस्थ प्रतिवदि-भयंकर मठ के अधिपति थे। इन्होंने अपने मत के प्रचारार्थ 'मंजुभाषिणी' नामक पत्रिका का अनेक वर्षों तक सम्पादन और भारत-भ्रमण किया। 'संसारचरितम्' और 'वाल्मीकि-भावप्रदीप', इनकी श्रेष्ठ रचनाएँ हैं। इनकी अन्य रचनाएं हैं- वासिष्ठचरितम् तथा एकांतवासी योगी( अंग्रेजी काव्य (हरमिट) का अनुवाद)।
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 271
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अनंतार्य - ई. 16 वीं सदी। कर्नाटक में मेलकोटे में निवास । इन्होंने ज्ञानयाथार्थ्यावाद, प्रतिज्ञावादार्थ, ब्रह्मलक्षणनिरूपण आदि ग्रंथों की रचना की है।
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अनन्ताल्वार- इन्होंने रामशास्त्री के शतकोटि का खण्डन करने हेतु न्यायभास्कर की रचना की। इसका खंडन राजशास्त्रीगल ने अपने 'न्यायेन्दुशेखर' में करते हुए शैवाद्वैत मत की स्थापना की। अनादि मिश्र - ई. 18 वीं शती । भारद्वाज गोत्रीय खंडपारा (उत्कल) के राजा नारायण मंगपारा द्वारा सम्मानित । आप अध्यापन भी करते थे पिता शतंजीव (मुदितमाधव गीतिकाव्य के कर्ता) । पितामह - मुकुन्द। इनके एक पूर्वज दिवाकर कविचन्द्र राय ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'प्रभावती' नाटक सुविख्यात है। कृतियां मणिमाला (नाटिका), राससंगोष्ठी (संगीत) और केलिकल्लोलिनी (काव्य) । अनुभूतिस्वरूपाचार्य- एक प्रकाण्ड वैयाकरण। इन्होंने 'सारस्वतप्रक्रिया', 'आख्यातप्रक्रिया' और 'धातुपाठ' नामक ग्रंथों का प्रणयन किया। कहते हैं- इन्हें साक्षात् देवी सरस्वती से व्याकरण का ज्ञान प्राप्त हुआ था। अपने व्याकरण-ग्रंथों का प्रसार करने हेतु वे विव्दन्मण्डली में भाषण देते थे तथा अपना नया व्याकरण प्रस्तुत करते थे ।
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एक समय भाषण करते समय वे गलत प्रयोग कर बैठे। तब विद्वन्मण्डली ने परिहास के साथ उस प्रयोग का आधार बताने के लिये कहा। आचार्य प्रमाद कर चुके थे। अतः आधार बताने में स्वयं को असमर्थ पाकर, 'कल बताऊंगा' ऐसा आश्वासन दिया। बाद में सरस्वती मन्दिर में जाकर उन्होंने देवी की प्रार्थना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर देवी ने उनका मार्गदर्शन किया। दूसरे दिन विद्वन्मण्डली में उन्होंने अपना उत्तर बताया। उनके बताए समाधान से सब प्रसन्न हुए। अन्नंभट्ट ई. 17 वीं सदी का उत्तरार्ध । 'तर्कसंग्रह' नामक . एक अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ के रचयिता । जन्म- तेलंगणा के गरिकपाद ग्राम में पिता- तिरुमलाचार्य, जिनकी उपाधि अद्वैतविद्याचार्य की थी। अन्नंभट्ट ने काशी में जाकर विद्याध्ययन किया था इन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रंथों की टीकाएं लिखी हैं, पर इनकी प्रसिद्धि 'तर्कसंग्रह' के कारण ही है जिसकी 'दीपिका' नामक टीका भी इन्होंने लिखी है। इनके अन्य टीका- ग्रंथों के नाम हैं- राणकोज्जीवनी (न्यायसुधा की विशद टीका), ब्रह्मसूत्रव्याख्या, अष्टाध्यायी टीका, उद्योतन (कैपटप्रदीप पर व्याख्यान ग्रंथ) और सिद्धान्त, जो न्यायशास्त्रीय ग्रंथ अर्था जयदेव विरचित 'मन्यालोक' की टीका है।
इनके 'तर्कसंग्रह' पर 25 टीकाएं तथा दीपिका' पर 10 व्याख्यान प्राप्त होते हैं। इनमें गोवर्धन मिश्र कृत 'न्यायबोधिनी', श्रीकृष्ण धूर्जट दीक्षित-रचित 'सिध्दांत चंद्रोदय, चंद्रजसिंहकृत 'पदकृत्य' तथा नीलकंठ दीक्षित रचित 'नीलकंठ' प्रभुति टीकाएं अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
272 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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अन्नदाचरण ठाकुर तर्कचूडामणि- जन्म सन् 1862 में सोमपारा ग्राम (बंगाल), जिला नोआखाली में हुआ था । कलकत्ता और वाराणसी में इन्होंने अध्ययन किया। काशी के विद्वत् समाज ने इन्हें तर्कचूडामणि की उपाधि प्रदान की। ये मीमांसा, सांख्य और योग के ज्ञाता थे। कुछ काल के लिये ये बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। आपने 'सुप्रभातम्' नामक एक पत्रिका का भी कुशल संपादन किया । आप अनेक सरस लघुगीतों के प्रणेता थे। आपकी उल्लेखनीय रचनाएं इस प्रकार हैं: प्रणति, प्रार्थना, आशा, शिशुहास्य, वनविहंगः, निद्रा, तदतीतं, कल्पना आदि लघुगीत, रामाभ्युदयम् और महाप्रस्थानम् (दोनों महाकाव्य), ऋतुचित्रं और काव्यचन्द्रिका (काव्यशास्त्र से संबंधित रचनाएं ) किमेष भेदः (सामाजिक रचना ), तत्त्वसुधा नामक सांख्यकारिका की टीका, न्यायसुधा और वैशेषिकसुधा
अत्रैयाचार्य आपने अपने 'रामानुजविजयम्' नामक काव्य में रामानुजाचार्य का चरित्र प्रथित किया है।
अपराजित सूरि- अपरनाम श्री विजय या विजयाचार्य । यापनीय संघ के जैन आचार्य चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव सूरि के शिष्य । समय ई. 9 वीं शताब्दी । रचनाएं - शिवार्य की भगवती आराधना पर विजयोदया नामक बृहत् टीका तथा दशवैकालिक सूत्र पर टीका । अप्पय दीक्षित ई. 17-18 वीं शती । द्रविड ब्राह्मण । पिता नारायण दीक्षित । बारह वर्ष की आयु में पिता के पास अध्ययन पूर्ण । पिता व पितामह अद्वैती होने से आपने अद्वैत मत का प्रसार किया, और श्रीशंकाराचार्य की अद्वैत-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य बने । शैव होने पर भी अप्पय अनाग्रही थे I
मुरारौ च पुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः । तथापि मामकी भक्तिचन्द्र प्रधावति।।
अर्थ- विष्णु व शिव में परमार्थतः भेद नहीं, पर मेरी भक्ति चंद्रशेखर शिव के प्रति ही है।
शैव-सिद्धान्त की स्थापना हेतु आपने शिवार्क-मणिदीपिका, शिवतत्त्वविवेक, शिवकर्णामृत आदि ग्रंथों का प्रणयन किया। शांकरसिद्धान्त में वाचस्पति मिश्र, रामानुजमत में सुदर्शन एवं माध्वमत में जयतीर्थ का जो स्थान है, वही स्थान श्रीकंठ संम्प्रदाय में, 'शिवार्क-मणिदीपिका' की रचना के कारण अप्पय दीक्षित का माना जाता है।
कुवलयानंद, चित्रमीमांसा आदि साहित्यिक ग्रंथों के कर्ता अप्पय दीक्षित, कट्टर शिवभक्त थे। एक समय वे अनवधान से विष्णु मंदिर में गए। वहां विष्णु मूर्ति के सम्मुख ही उन्होंने शिवाराधना शुरू की। शिवभक्ति में वे इतने तल्लीन हो गए कि विष्णुमूर्ति शिवलिंग में परिवर्तित हो गई। दर्शनार्थी लोगों ने यह चमत्कार देखा तथा उन्हें बताया। तब उन्हें सत्य प्रतीत हुआ। फिर उन्होंने विष्णुस्तुति प्रारंभ की तथा उसमें लीन हो
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गए। तब थोड़े ही समय में मंदिर में फिर विष्णुमूर्ति विराजमान हुई दिखाई दी। दर्शनार्थी लोग यह देख बड़े आश्चर्यचकित हुए तथा अप्पय दीक्षित के प्रति उनके मन में आदर की वृद्धि हुई।
प्रसिद्ध वैयाकरण, दार्शनिक एवं काव्यशास्त्री अप्पय दीक्षित, संस्कृत के सर्वतंत्रस्वतंत्र विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने विविध विषयों पर 104 ग्रंथों का प्रणयन किया है। ये दक्षिण भारत के निवासी तथा तंजौर के राजा शाहजी भोसले के सभा-पंडित थे। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है- (1) अद्वैत वेदांत विषयक 6 ग्रंथ, (2) भक्तिविषयक 26 ग्रंथ, (3) रामानुज-मत-विषयक 5 ग्रंथ, (4) मध्वसिद्धांतानुसारी 2 ग्रंथ, (5) व्याकरणसंबंधी ग्रंथ-नक्षत्रवादावली, (6) पूर्वमीमांसाशास्त्रसंबंधी 2 ग्रंथ, (7) अलंकार-शास्त्र विषयक 3 ग्रंथ-वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा तथा कुवलयानंद। इनमें से प्रथम दो ग्रंथ अधूरे रह गए। तीसरा ग्रंथ 'कुवलयानंद', अप्पय दीक्षित की अलंकारविषयक अत्यंत लोकप्रिय रचना है। इसमें शताधिक अलंकारों का निरूपण है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त इनके नाम से प्राकृतमणिदीप और वसुमतीचित्रसेनीय नामक दो नाटक भी हैं।
अप्पय के गुणों पर लुब्ध होकर, चंद्रगिरि (आंध्र) के राजा वेंकटपति रायलु ने उनके परिवार एवं विद्यार्थियों के लिये अग्रहार दिया था। दक्षिण की अनेक राजसभाओं में भी उन्हें बिदागी एवं मानसम्मान प्राप्त होता रहा। आपने कावेरी के किनारे अनेक यज्ञ किये। काशी में वास्तव्य किया। वहीं पर पंडितराज जगन्नाथ से भेंट हुई। जगन्नाथ पंडित ने इनकी 'चित्रमीमांसा' का खंडन किया है। दार्शनिक दृष्टि से वे निर्गुणब्रह्मवादी थे पर उस ब्रह्म की उपलब्धि के लिये साधन के रूप में उन्होंने सगुणोपासना स्वीकार की। अप्पय दीक्षित के समय के बारे में विद्वानों में मतभेद है। अप्पय्याचार्य- मृत्यु- ई. 1901 में। रचना-'अनुभवामृतम्' जिसमें सांख्य, योग तथा वेदान्त का समन्वय किया गया है। अप्पा तुलसी (काशीनाथ)- रचनाएं- संगीतसुधाकर, अभिनवतालमंजरी और रागकल्पद्रुमांकुर (ई. 1914)। तीनों ग्रंथ संगीतशास्त्र परक हैं। अप्या दीक्षित - (अपर नाम अप्या शास्त्री अथवा पेरिय अप्पाशास्त्री)। तंजौर के निकट किलयूर अग्रहार के निवासी। कवितार्किक-सार्वभौम की उपाधि से मण्डित । तंजौरनरेश शाहजी (1684-1711 ई.) से समाश्रयप्राप्त कवि। पिता-चिदम्बरेश्वर दीक्षित, जिन्होंने कामदेव नामक विद्वान् को शास्त्रार्थ में जीतने के कारण, तंजौर नरेश से स्वर्ण-शिबिका और एरकरण का अग्रहार पाया था। गुरु-कृष्णानन्द देशिक, पिल्लेशास्त्री और उदयमूर्ति । रचनाएं:- शृंगारमंजरी-शाहराजीय, मदनभूषण (भाण), गौरीमायूर (चम्पू) और आचार-नवनीत । अभयचन्द्र (सिद्धांतचक्रवर्ती)- मूलसंघ देशीयगण,
पुस्तकगच्छ, कुन्दकुन्दान्वय की इंगेलेश्वर शाखा के श्रीसमुदाय में हुए माघनंदि भट्टारक के शिष्य । बालचंन्द्र पण्डितदेव के श्रुतगुरु । समय-ई. 14 वीं शती। कर्नाटकवासी। ग्रंथ-गोम्मट्टसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका तथा कर्मप्रकृति (गद्य)। इस पर अभयचन्द्र के शिष्य केशव ने टीका लिखी है। अभयदेव - ई. 13 वीं शती के एक जैन कवि। इन्होंने 19 सर्गों में 'जयंतविजय' नामक महाकाव्य की रचना की है। इस महाकाव्य में मगध-नरेश जयंत की विजय-गाथा,2,000 श्लोकों में वर्णित है। अभयदेव सूरि- धारनिवासी सेठ धनदेव के पुत्र । प्रारम्भ में चैत्यवासी, पर बाद में सुविहित मार्गी वर्धमान सूरि के प्रशिष्य और जिनेश्वर सूरि के शिष्य। पाटन में स्वर्गवास (वि.सं. 1135)। समय-वि. की 11-12 वीं शती। ग्रंथ- (1) स्थानांगवृत्ति (वि.सं.1120) द्रोणाचार्य के सहयोग से, 14,250 श्लोक प्रमाण। (2) समवायांगवृत्ति (वि.सं. 1120) अनहिलपाटन में समाप्त, 3,575 श्लोक प्रमाण। (3) व्याख्याप्रज्ञावृत्ति (वि.सं. 1128) 18,616 श्लोक प्रमाण । (4) ज्ञाताधर्मकथाविविरण (वि.सं.1120)- 3800 श्लोक प्रमाण । (5) उपासकदशांगवृत्ति, (6) अंतकृद्दशावृत्ति, (7) अनुत्तरोपपातिकदशावृत्ति, (8) प्रश्नव्याकरणवृत्ति, (9) विपाकवृत्ति और (10) औपपातिकवृत्ति। ये सभी वृत्तियां शब्दार्थप्रधान हैं। कहीं-कहीं प्राकृत उध्दरण भी हैं। सांस्कृतिक सामग्री से सभी ओतप्रोत हैं। अभयपण्डित- ई. 17 वीं शती। गुरु-सोमसेन। जैनपंथी। ग्रंथ- 'रविव्रतकक्ष। अभिनंद- 'रामचरित' नामक महाकाव्य के प्रणेता। समय ई. 9 वीं शताब्दी का मध्य। पिता-शतानंद; वे भी कवि थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता का नाम श्रीहारवर्ष लिखा है। 'रामचरित' महाकाव्य में किष्किंधाकांड से लेकर युद्धकांड तक की कथा 36 सर्गों में वर्णित की गई है। यह ग्रंथ अधूरा है। इसकी पूर्ति के लिये दो परिशिष्ट (4-4 सों के) है। इनमें से प्रथम परिशिष्ट के रचयिता स्वयं अभिनंद हैं। द्वितीय परिशिष्ट किसी 'कायस्थकुलतिलक' भीम कवि की रचना है। अन्य कृतियां-भीमपराक्रम (नाटक) और योगवासिष्ठ-संक्षेप। अभिनंदन - 'गौड अभिनंद' के नाम से विख्यात काश्मीरी पंडित । समय- ई. 10 वीं शती। इन्होंने 'कादंबरीसार' नामक 10 सर्गों का एक महाकाव्य लिखा है। पिता-प्रसिद्ध नैयायिक जयंत भट्ट । 'कादंबरीसार' में अनुष्टुप् छंद में 'कादंबरी' की कथा संगुंफित की गई है। क्षेमेन्द्र ने इनके अनुष्टप् छंद की प्रशंसा की है। 'कादंबरीसार' का प्रकाशन, काव्यमाला संख्या 11 में मुंबई से हो चुका है। अभिनंद द्वारा प्रणीत एक और ग्रंथ है- 'योगवासिष्ठसार'। अभिनव कालिदास- उत्तरी पेन्तार के किनारे स्थित विद्यानगर
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 273
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के राजा राजशेखर के राजकवि। समय 11 वीं शताब्दी। (तंत्रशास्त्र का ग्रंथ), 3. मालिनीविजयवार्तिक (मालिनीविजयतंत्र इनके द्वारा रचित दो चंपू-काव्य उपलब्ध होते हैं- (1) नामक ग्रंथ का वार्तिक), 4. तंत्रालोक (तंत्रशास्त्र का आकर भागवतचंपू तथा (2) अभिनवभारतचंपू। भागवतचंपू का ग्रंथ) 5-6. तंत्रसार, तंत्रवटधानिका, 7-8. ध्वन्यालोकलोचन प्रकाशन गोपाल नारायण कंपनी, बुक-सेलर्स, कालबादेवी, व अभिनव-भारती (ध्वन्यालोक' व भरत-नाट्य-शास्त्र की मुंबई, से 1929 ई. में हुआ है। द्वितीय ग्रंथ अभी तक टीकाएं), 9. भगवद्गीतार्थसंग्रह (गीता की व्याख्या), 10. अप्रकाशित है। इनकी कविता में उत्तान श्रृंगार का बाहुल्य है परमार्थसार (105 श्लोकों का शैवागम-ग्रंथ) और 11. तथा इनके श्रृंगार-वर्णन पर राज-दरबार की विलासिता का प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (उत्पलाचार्यकृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञासूत्र की टीका । पूर्ण प्रभाव है।
यह ग्रंथ 4 हजार श्लोकों का है)। जयरथ ने 'तंत्रालोक' अभिनवगुप्त - भरत कृत नाट्यशास्त्र के प्रणयन के पश्चात् पर 'विवेक' नामक टीका की रचना की है। शताब्दियों तक इस विषय पर जो चिन्तन हुआ, वह लेखबद्ध अभिनवगुप्त के प्रकाशित उक्त 11 व शेष 39 अप्रकाशित रूप में प्रायः अनुपलब्ध है। कवि तथा नाटककार व्यवहार ग्रंथों को 3 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- दार्शनिक, में नाट्यसिद्धान्तों का अनुसरण करते रहे तथा प्रसंगवश किसी साहित्यिक और तांत्रिक। इनकी लेखन-साधना की अवधि, शास्त्रीय विषय पर अभिमत भी प्रकट करते रहे। इस 980 ई. से लेकर 1020 ई. तक सिद्ध होती है। आप चिन्तन-परम्परा का परिचय, आचार्य अभिनवगुप्त की। उच्चकोटि के कवि, महान् दार्शनिक एवं साहित्य-समीक्षक हैं। 'अभिनवभारती' नामक नाट्यशास्त्र की टीका से मिलता है। इन्होंने रस को काव्य में प्रमुख स्थान देकर उसकी महत्ता
अपने विषयगत मौलिक विवेचन के कारण, उनके द्वारा व्याख्यात प्रतिपादित की है। इनका रसविषयक सिद्धान्त, 'अभिव्यक्तिवाद' तथा निर्णीत सिद्धान्तों को प्रमाणभूत समझा जाता है। नाट्य कहा जाता है जो मनोवैज्ञानिक भित्ति पर आधारित है। इन्होंने तथा काव्यशास्त्र के परवर्ती चिंतक इनके ऋणी हैं। आचार्य व्यंग-रस को काव्य की आत्मा माना है। अभिनवगुप्त, काश्मीरीय अभिनवगुप्त का समय 950 ई. से 1030 ई. है।
प्रत्यभिज्ञार्शन के महान् आचार्य हैं। अपने 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' इनका वंश शिव-भक्ति के लिए प्रसिद्ध था। वे नामक ग्रंथ में, इन्होंने अपने वंश का वर्णन किया है। शैव-प्रत्यभिज्ञादर्शन के सिद्ध तथा मान्य आचार्य थे। उनका शंकराचार्य से उनका वादविवाद हुआ, तथा आचार्य द्वारा हराये सारा चिंतन इसी दर्शन से प्रभावित है। वे नाट्यशास्त्र के 36 गए गुप्तजी उनके शिष्य हुए ऐसी भी एक कथा प्रचलित है अध्यायों की संगति, शैव दर्शन के 36 तत्त्वों से बिठलाते पर उनका शिष्यत्व ऊपरी दिखावा मात्र था। हृदय में वे हैं। उनकी अधिकांश रचनाएं उक्त दर्शन की विविध शाखाओं आचार्य से बडे अप्रसन्न थे, तथा अपनी हार का बदला लेना पर हैं। साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में ध्वन्यालोकलोचन तथा चाहते थे। तब जारणमारणादि उपाय से उन्होंने शंकराचार्य को अभिनवभारती नामक दो टीका-ग्रंथों के आधार पर ही वे भगंदर से पीडित किया, आचार्य बड़े त्रस्त हुए। रोग ने हटने आचार्य-पद पर अभिषिक्त हुए। वे प्राचीन परम्परा को उसके का नाम नहीं लिया। सब शिष्यगण भी दुःखित हुए। अन्त मूलभूत प्रमाणित रूप में जानते थे, जब कि परवर्ती आचार्य में इन्द्र द्वारा प्रेरित अश्विनीकुमार प्रकट हुए, तथा उन्होंने इस इन परंपराओं का अधिकांश अभिनवगुप्त के उद्धरणों से जानते रोग का भेद बतलाया। आचार्य के शिष्यों ने देववैद्यों द्वारा है। नाट्य के प्राणभूत तत्त्व 'रस' के पारंपारिक विवेचन की बताए हुए मांत्रिक उपाय से रोग हटाया। रोग के दूर होते समीक्षा के उपरान्त अभिनवगुप्त ने ही इसके तात्त्विक स्वरूप ही अभिनवगुप्त की तत्काल मृत्यु हो गई। को स्पष्टतापूर्वक उद्घाटित तथा प्रतिष्ठित किया।
अभिनव चारुकीर्ति पण्डिताचार्य- देशीगण के जैन आचार्य । आचार्य अभिनव गुप्त के कथन से ज्ञात होता है कि बेलुगुलुपुर के निवासी। नैयायिक और तार्किक। इंगुलेश्वर बलि इनके पूर्वज अंतर्वेद (दोआब) के निवासी थे, किंतु बाद में के आचार्य। श्रवणबेलगोल पट्ट पर आसीन । जन्म-दक्षिण काश्मीर में जाकर बस गए। पिता-नृसिंह गुप्त । पितामह-वाराह भारत के सिंहपुर में। गंगवंश के राजपुत्र देवराज द्वारा सम्मानित गुप्त। पिता का अन्य नाम 'चुखल', और माता का विमला (शक सं. 1416 ई. सन् 1564)। रचनाएं 1. गीतवीतराग या विमलकला। ब्राह्मण-कल। आपने अपने 13 गुरुओं का ___(24 प्रबंध)। 2. प्रमेयरत्नमालालंकार (नव्यन्याय शैली में विवरण प्रस्तुत किया है जिनमें प्रसिद्ध हैं- नृसिंहगुप्त (इनके लिखी प्रमेयरत्नमाला की टीका)। पिता), व्योमनाथ, भूतिराजतनय, इन्दुराज, भूतिराज और भट्टतौत। अभिनव रामानुजाचार्य- कार्बेट-निवासी वादिभास्कर-वंशीय । आप परम शिवभक्त तथा आजीवन ब्रह्मचारी थे।
पिता-वेंकटराय। इनके द्वारा रचित महाकाव्य ___ इन्होंने अनेक विषयों पर 41 ग्रंथों का प्रणयन किया है। 'श्रीनिवास-गुणाकार-काव्यम्' में 17 सर्ग हैं। प्रथम आठ सर्गों उनमें से प्रकाशित 11 ग्रंथों के नाम हैं- 1. बोधपंचदशिका। की टीका कवि ने स्वयं लिखी तथा शेष सर्गों की इनके बन्धु (शिवभक्तिविषयक 15 श्लोक), 2. परात्रिंशिंका-विवरण वरदराज ने।
274/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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अमरकीर्ति ऐन्द्रवंश के एक प्रसिद्ध विद्वान त्रैविद्य उपाधिप्राप्त। समय- 13-14 वीं शती । ग्रंथ- धनंजय कवि की नाममाला का भाष्य । इस भाष्य में यशः कीर्ति, अमरसिंह, हलायुध इन्द्रनंदी, सोमदेव, हेमचन्द्र, आशाधर आदि कवि उल्लिखित हैं।
अमरचन्द्र सूरि (कविसार्वभौम) जन्मतः ब्राह्मण, पर याद में जैनधर्म के श्वेताम्बर - सम्प्रदाय में दीक्षित हुए। आपने वायडगच्छ के जिनदत्त सूरि के शिष्य कविराज अरिसिंह से सारस्वत - मंत्र की प्राप्ति की, जिसकी साधना पद्मश्रावक के भवन के एकान्त भाग में की थी। इनके पाण्डित्य से आकृष्ट होकर वाघेलावंशी गुजरेश्वर बीसलदेव (ई. 14 वीं शती) ने इन्हें अपनी राजसभा में निमन्त्रित किया था। उन्होंने वहां 108 समस्याओं की पूर्ति करते हुए राजसभा को विस्मित कर दिया । इनके आशुकवित्व से वस्तुपाल भी प्रभावित थे। इन्होंने यंगियाबाडा में मूर्ति प्रतिष्ठापित की। समय- 13 वीं शती ।
ग्रंथ- 1. चतुर्विंशति जिनेन्द्र-संक्षिप्तचरितानि (24 अध्याय और 1802 पद्य), 2. पद्मानन्द महाकाव्य (जितेन्द्रचरित 18 सर्ग और 6381 पद्य), 3. बालभारत (18 पर्व, 44 सर्ग, 6950 श्लोक ), 4. काव्यकल्पलता या कवि-शिक्षा, 5. काव्य- कल्पलतावृत्ति, 6. सुकृत संकीर्तन, 7. काव्यकल्पलता मंजरी, 8 स्वादिशब्दसमुच्चय, 9. काव्यकल्पलतापरिमल, 10 काव्यकलाप, 11. छन्दोरत्नावली, 12. अलंकार - प्रबोध और 13. सूक्तावली।
अमरदत्त ई. 10 वीं शती के पूर्व बंगाल निवासी । 'अमरमाला' नामक कोश के कर्ता ।
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अमरदेवसूरि चन्द्रगच्छ के एक विद्वान इस गच्छ में वर्धमान सूरि की शिष्य परंपरा में पद्मेन्दु के शिष्य । समय ई. 13 वीं शताब्दी। आप का सफल महाकाव्य, लोककथा पर आधारित एवं सुप्रसिद्ध पंच महाकाव्यों के संदर्भों से प्रभावित है।
अमरमाणिक्य- ई. 16 वीं शती नोआखाली के राजा लक्ष्मणमाणिक्य के पुत्र वैकुण्ठविजय (नाटक) के प्रणेता। अमरुक (अमरु ) 'अमरु - शतक' नामक प्रसिद्ध शृंगारिक मुक्तक काव्य के रचयिता। इसमें एक सौ से अधिक स्फुट पद्य हैं। इनके जीवन-वृत के विषय में अधिकृत जानकारी प्राप्त नहीं होती । अन्य ग्रंथों में उद्धृत इनके पद्यों के आधार पर इनका समय 750 ई. के पूर्व निश्चित होता है ।
अमरुक से संबंधित निम्न दो प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। भ्राम्यन्तु मारवयामे विमूढा रसमीप्सवः । अमरुद्देश एवासौ सर्वतः सुलभी रसः ।।
अमरक- कवित्व- डमरूक नदेन विहिता न संचरति । श्रृंगारभणितिरन्या धन्यानां श्रवणविवरेषु ।।
(सूक्ति-मुक्तावली 4-101)
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एक किंवदंती के अनुसार अमरुक जाति के स्वर्णकार थे। ये मूलतः श्रृंगार रस के कवि है अपने सुप्रसिद्ध मुक्तक काव्य में इन्होंने तत्कालीन विलासी जीवन (दांपत्य एवं प्रणय- व्यापार) का सरस चित्र खींचा है, जिसे परवर्ती साहित्याचार्यो ने अपने लक्षणों के अनुरूप देखकर, लक्ष्य के रूप में उद्धृत किया है।
शांकरदिग्विजय में कहा गया है कि शंकराचार्य ने जिस मृत राजा की देह में प्रवेश किया था, उसका नाम अमरु था। कहा जाता है कि अमरु की देह में प्रवेश करने के बाद, वात्स्यायन -सूत्र के आधार पर शंकराचार्य ने कामशास्त्र की विविध अवस्थाओं और प्रसंगों पर सौ श्लोक लिखे । अमरुशतक संस्कृत प्रणय-काव्य की सर्वश्रेष्ठ रचना है। दीर्घ और नादमधुर छंद इसकी विशेषता है।
अमरु के अनुसार प्रणय ही सर्वंकश देवता है। एक मुग्धा का शब्दचित्र प्रस्तुत है :
मुग्धे मुग्धतयैव नेतुमखिलः कालः किमारभ्यते मानं धत्स्व धृतिं बधान, ऋजुतां दूरे कुरु प्रेयसि । सख्यवं प्रतिबोधिता प्रतिवचस्तामाह भीतानना
नीचैः शंस हृदि स्थितो हि ननु मे प्राणेश्वरः श्रोष्यति । । अर्थ- हे मुन्धे तू अपना समय मुन्धावस्था (भोलेपन) में ही क्यों व्यतीत कर रही है? अरी प्रेमिके, जरा रूठ, धैर्य रख और प्रियतम से सरलता को दूर रख । सखी के इस उपदेश पर, प्रेयसी मुद्रा पर भय दिखाते हुए सखी से बोलीअरी जरा धीरे बता हृदय में बसा मेरा प्राणेश्वर सन लेगा । अमरसिंह- अमरकोश नामक सुप्रसिद्ध संस्कृत शब्दकोश के कर्ता । परंपरा के अनुसार इन्हें विक्रम के नवरत्नों में स्थान प्राप्त था। विल्सन इनका काल ईसा पूर्व पहली सदी का मानते हैं, जबकि अन्य संशोधक ईसा की तीसरी या पांचवी सदी । अमितगति (प्रथम) अमितगति नामक दो ग्रंथकार हुए हैं। अमितगति (प्रथम) नेमिवेष के गुरु तथा देवसेन के शिष्य थे । समय-नवम शताब्दी का मध्यभाग । ग्रंथ-योगसार-1 र- प्राभृत।
अमितगति (द्वितीय) - ई. 11 वीं सदी । दिगम्बर जैन सम्प्रदाय के माथुर संघ के एक ग्रंथकार । परमार वंश के वाक्पतिराज मुंज के दरबारी विद्वान । इनके ग्रंथों में प्रमुख हैंसुभाषितरत्नसंदोह, धर्मपरीक्षा और श्रावकाचार ( उपासकाचार), पंचसंग्रह, आराधना, भावनाद्वात्रिंशतिका, चंद्रप्रज्ञप्ति, साइयद्वीपप्रज्ञप्ति, व्याख्याप्रज्ञप्ति आदि ।
अमृतचन्द्र सूरि ई. 9 वीं शती कालिदास के टीकाकार मल्लिनाथ के समान ही कुन्दकुन्द के टीकाकार अमृतचन्द्र सूरि हैं। जन्मतः क्षत्रिय या ब्राह्मण ('ठक्कर' शब्द का प्रयोग मिलता है) । समय 10-11 वीं शती । रचनाएं- पुरुषार्थ सिद्धयुपाय, तत्वार्थसार और समयसार कलश। टीकाग्रंथ- समयसार टीका,
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प्रवचनसार-टीका और पंचास्तिकाय-टीका । अम्मल (अमलानंद)- 'रुक्मिणी-परिणय-चंपू' नामक काव्य के रचयिता। समय- ई. 14 वीं शती का अंतिम चरण । अम्मल को अमलानंद से अभिन्न माना गया है, जो प्रसिद्ध वैष्णव आचार्य थे। इन्होंने 'वेदांत-कल्पतरु' (भामती-टीका की व्याख्या), 'शास्त्र-दर्पण' तथा पंचपादिका की 'व्याख्या' नामक ग्रंथों का भी प्रणयन किया है। देवगिरि के यादवों के राज्य में निवास था। अम्माल आचार्य - समय- ई. 17 वीं सदी का अंतिम चरण। कानेई के वैष्णव आचार्य। पिता-घटित सुदर्शनाचार्य। रामानुज के दर्शन एवं दिग्विजय पर यतिराजविजय अथवा वेदांतविलास नामक नाटक की रचना । अन्य कृतियां हैं चोलभाण व वसंततिलकाभाण। अमियनाथ चक्रवर्ती- मृत्यु सन् 1970 में। एम.ए. तथा काव्यतीर्थ । हुगली में संस्कृत-परिषद के संस्थापक। पिता-दुर्गानाथ । पुत्री-डॉ. वाणी भट्टाचार्य। कृतियां-हरिनामामृत, सम्भवामि युगे युगे, धर्मराज्य, श्रीकृष्ण-चैतन्य और मेघनाद-वध। अय्यपार्य- मूल संघान्वयी पुष्पसेन के शिष्य । पिता-करुणाकर । माता- अर्काम्बा । गोत्र- काश्यप । मंत्रचिकित्सा-शास्त्र के विशेषज्ञ । कार्यक्षेत्र-वरंगल (तैलंग देश की राजधानी)। समय- ई. 14 वीं शती, राजा रुद्रदेव के काल में । ग्रंथ- जिनेन्द्र-कल्याणाभ्युदय। अरुणगिरिनाथ (द्वितीय)- कुमारडिण्डिम तथा डिण्डिम चतुर्थ के नाम से भी ज्ञात। पिता-राजनाथ (द्वितीय)। आश्रयदाता- (1) विजयनगर के राजा वीरनरसिंह (1505 से 1509 ई.) तथा (2) कृष्णदेव राय (1509 से 1530 ई.)। पारेन्द्र अग्रहार के निवासी। 'कविराज' तथा 'डिण्डिम', 'कविसार्वभौम' की उपाधियों से समलंकृत। अनेक भाषाओं पर अधिकार। कृतियां- वीरभद्रविजय (संस्कृत- डिम) और कृष्णराजविजयम् (तेलगु)। अरुणदत्त- ई. 12 वीं शती के लगभग। पिता-मृगांकदत्त । बंगाल के निवासी। कृतियां- सर्वांग-सुन्दरा (वाग्भट के 'अष्टांगहृदय' पर भाष्य) और सुश्रुत पर भाष्य। अरुणमणि (लालमणि)- काष्ठासंघ, माथुरगच्छ, पुष्करगण के गृहस्थ-विद्वान। श्रुतकीर्ति के प्रशिष्य और बुधराघव के शिष्य। पिता-कान्हणसिंह । ग्रंथनाम- 'अजितनाथ-पुराण'। अर्जुन मिश्र- महाभारत के टीकाकार । 'पुराणसर्वस्व' ग्रंथ के रचयिता। बंगाल के निवासी। अलमेलम्मा- मद्रास निवासी। ई. 1922 में इस विदुषी ने 'बुद्धचरितम्' की रचना की। अहंददास (अर्हत)- ई. 13 वीं शती (अंतिम चरण) । आशाधर के शिष्य। मालव प्रदेश कार्यक्षेत्र रहा। ग्रंथ-मुनिसुव्रतकाव्य (10 सर्ग) उत्तरपुराण पर आधारित,
पुरुदेव-चम्पू (10 स्तबक) और भव्यजनकण्ठाभरण (242 पद्य)। 'पुरुदेव चम्पू में इन्होंने जैन संत पुरुदेव का जीवन-वृत्तांत दिया है। अवतार काश्यप- ऋग्वेद के नौवें मंडल के 53 से 60 सूक्त इनके नाम पर हैं। सोमपान से योद्धा में वीरश्री उत्पन्न होती है, यह इन सूक्तों में प्रतिपादित है।
अश्वघोष- एक बौद्ध महाकवि। इनके जीवन-संबंधी अधिक विवरण प्राप्त नहीं होते। इनके 'सौंदरनंद' नामक महाकाव्य के अंतिम वाक्य से विदित होता है कि इनकी माता का नाम सुवर्णाक्षी तथा निवास स्थान का नाम साकेत था। 'महाकवि' के अतिरिक्त, ये 'भदन्त', 'आचार्य', 'महावादी' आदि उपाधियों से भी विभूषित थे। उपाधियों की पुष्टि होती है। __इनके ग्रंथों के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये जाति के ब्राह्मण रहे होंगे। इनकी रचनाओं का प्रधान उद्देश्य है बौद्ध धर्म के विचारों को काव्य के परिवेश में प्रस्तुत कर, उनका जनसाधारण के बीच प्रचार करना। अश्वघोष का व्यक्तित्व बहुमुखी है। इन्होंने समान अधिकार के साथ काव्य एवं धर्मदर्शन विषयक ग्रंथों का प्रणयन किया है। इनके नाम पर प्रचलित ग्रंथों का परिचय इस प्रकार है :(1) वज्रसूची- इसमें वर्ण-व्यवस्था की आलोचना कर सार्वभौम समानता के सिद्धांत को अपनाया गया है। कतिपय विद्वान इसे अश्वघोष की कृति मानने में संदेह प्रकट करते हैं। (2) महायान- श्रद्धोत्पाद शास्त्र- यह दार्शनिक ग्रंथ है। इसमें विज्ञानवाद एवं शून्यवाद का विवेचन किया गया है। (3) सूत्रालंकार या कल्पनामंडितिका- सूत्रालंकार की मूल प्रति प्राप्त नहीं होती। इसका केवल चीनी अनुवाद मिलता है जो कुमारजीव नामक बौद्ध विद्वान् ने पंचम शती के प्रारंभ में किया था। इस ग्रंथ में धार्मिक एवं नैतिक भावों से पूर्ण काल्पनिक कथाओं का संग्रह है। (4) बुद्धचरित- यह एक प्रसिद्ध महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध का चरित्र, 28 सर्गों में वर्णित है। रघुवंश और बुद्धचरित में यत्र तत्र साम्य है। (5) सौंदरनंद- यह भी महाकाव्य है। इसमें भगवान बुद्ध के अनुज नंद का चरित्र वर्णित है। (6) शारिपुत्र-प्रकरण- यह एक नाटक है जो खंडित रूप में प्राप्त होता है। इसमें मौद्गल्यायन एवं शारिपुत्र को बुद्ध द्वारा दीक्षित किये जाने का वर्णन है। ___ इनकी समस्त रचनाओं में बौद्धधर्म के सिद्धांतों की झलक दिखाई देती है। बुद्ध के प्रति अटूट श्रद्धा तथा अन्य धर्मो के प्रति सहिष्णुता, इनके व्यक्तित्व की बहुत बड़ी विशेषता है। इनका व्यक्तित्व एक यशस्वी महाकाव्यकार का है। इनकी कविता में श्रृंगार, करुण, एवं शांतरस की वेगवती धारा अबाध
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गति से प्रवाहित होती है।
अश्वघोष, सम्राट् कनिष्क के समसामयिक थे। स्थिति-काल ई. प्रथम शती है। बौद्ध धर्म के अनेक तथ्य प्राप्त होते हैं, जिनके अनुसार ये कनिष्क के समकालीन सिद्ध होते हैं। चीनी परंपरा के अनुसार अश्वघोष बौद्धों की चतुर्थ संगीति या महासभा में विद्यमान थे। यह सभा काश्मीर के कुंडलवन में कनिष्क द्वारा बुलाई गई थी। अश्वसूक्ति काण्वायन एक वैदिक सूक्तद्रष्टा । इंद्र को सोम अर्पण न करनेवाली विमुक्त जमातों का उल्लेख इनके सूक्तों में है। ये सामद्रष्टा भी थे। अष्टावधानी सोमनाथरचना- स्वररागसुधारसम् नाट्यचूडामणि । संभवतः ये ही तेलगु कवि नाचन सोमन हैं, जिन्हें बुक्कराव प्रथम (विजयनगर) ने दान दिया था। समयई. 14 वीं शती ।
या
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अतः इनका ग्रंथों में ऐसे
असंग (आर्य वसुबंधु असंग) प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक वसुबंधु के ज्येष्ठ भ्राता। पुरुषपुर (पेशावर) निवासी कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण कुल में जन्म समय तृतीय शताब्दी के अंत व चतुर्थ शताब्दी के मध्य में समुद्रगुप्त के समय में विद्यामान । गुरु- मैत्रेयनाथ । बौद्धों के योगाचार - संप्रदाय के विख्यात आचार्य। इनके ग्रंथ चीनी भाषा में अनूदित है (उनके संस्कृत रूपों का पता नहीं चलता) इनके ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है (1) महायान संपरिग्रह- इसमें अत्यंत संक्षेप में महायान सिद्धांतों का विवेचन है। चीनी भाषा में इसके 3 अनुवाद प्राप्त होते हैं। (2) प्रकरण आर्यवाचा यह ग्रंथ 11 परिच्छेदों में विभक्त है। इसका प्रतिपाद्य है योगाचार का व्यावहारिक एवं नैतिक पक्ष । ह्वेनसांग कृत चीनी अनुवाद उपलब्ध है। (3) योगाचारभूमिशास्त्र अथवा सप्तदश भूमिशास्त्रयह ग्रंथ अत्यंत विशालकाय है। इसमें योगाचार के साधन-मार्ग का विवेचन है। संपूर्ण ग्रंथ अपने मूल रूप में (संस्कृत में) हस्तलेखों में प्राप्त है। राहुलजी ने इसका मूल हस्तलेख प्राप्त किया था। इसका छोटा अंश (संस्कृत में) प्रकाशित भी हो चुका है। (4) महायानसूत्रालंकार ये अपनी रचनाओं के कारण अनेक गुरु से भी सुप्रसिद्ध हुए। असंग- ई. 10 वीं शती । जन्तमः ब्राह्मण, बाद में जैन मत का स्वीकार किया । पिता-पटुमति। माता-पैरेत्ति । गुरु-नागनन्दी । पुत्र- जिनाप । दक्षिण भारतीय चोल राजा श्रीनाथ के समकालीन । रचनाएं वर्द्धमानचरित, शान्तिनाथचरित (2500 पद्य), लघु शान्तिनाथपुराण (12 सर्ग, उत्तरपुराण की कथावस्तु पर आधारित) ।
असहाय- मनुस्मृति के एक टीकाकार। मेघातिथि के साथ इनका नाम लिया जाता है। गौतमधर्मसूत्र और नारदसूत्र पर भी इन्होंने टीकाएं लिखी है। अहोबल ये भास्कर वंशोत्पन्न थे। पिता का नाम नृसिंह
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था। इन्होंने रुद्राध्याय का विस्तृत व्याख्यान किया है। भाष्य (व्याख्यान ) श्लोक-रूप में है। इस टीका का अन्य नाम 'कल्पलता' है । अहोबलाचार्यजी ने गद्यरूप काव्य भी लिखा हो ऐसा तर्क है।
अहोबल ई. 17 वीं सदी। संगीतपारिजात नामक ग्रंथ के कर्ता । द्रविड ब्राह्मण। पिता श्रीकृष्ण पंडित । पिता के पास संगीतशास्त्र का अध्ययन । धनवड रियासत के आश्रय में रह कर हिन्दुस्थानी संगीत का अभ्यास किया। इनके ग्रंथ में, श्रुति और स्वर भिन्न नहीं, एक हैं, यह प्रतिपादित किया गया है। विशिष्ट स्वर की ध्वनि के लिये खीणा की तार विशिष्ट लंबाई की चाहिये, इस खोज का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है । अहोबल - नृसिंह- मैसूर नरेश वोडियार, द्वितीय (1732-1760 ई.) तथा चामराज वोडियार (1760-1776 ई.) द्वारा सम्मानित । 'नलविलास' नामक छः अंकी नाटक के प्रणेता। 'यतिराजविजय अहोबल-सूरिके चंपू' रचयिता । पिता- वेंकटाचार्य, माता लक्ष्मीअंबा गुरु-राजगोपाल मुनि । समय ई. 14 वीं शती का उत्तरार्ध । 'यतिराजविजय- चंपू' में रामानुजाचार्य के जीवन की घटनाएं वर्णित हैं। इन्होंने 'विरूपाक्ष वसंतोत्सव' नामक एक अन्य चंपू की भी रचना की है। इसमें 9 दिनों तक चलने वाले विरूपाक्ष महादेव के वसंतोत्सव का वर्णन है । यह काव्य मद्रास से प्रकाशित हो चुका है। आंगिरस- अथर्ववेद के प्रवर्तक । द्विरात्रयाग का प्रारंभ इन्हीं के द्वारा माना जाता है ।
आप्रायण यास्काचार्य ने अपने निरुक्त में जिन प्राचीन आचार्यो का निर्देश किया है, उनमें आग्रायण एकतम है । निरुक्त में आग्रायण का मत चार बार उद्धृत किया गया है। आंजनेय- संगीतविद्या के प्राचीन ज्ञाता। नारद, शागदेव, शारदातनय आदि ने इनके मतों को उद्धृत किया है। इन्होंने 'हनुमद - भरतम्' नामक ग्रंथ की रचना की है। आत्मानन्द - ई. 13 वीं शती । ऋग्वेदान्तर्गत 'अस्यवामीय सूक्त' के भाष्यकार । केवल एक छोटे-से सूक्त पर भाष्य-रचना करते हुए ग्रंथकार ने लगभग सत्तर ग्रंथों का प्रमाण दिया है। इस भाष्य के अंत में आत्मानन्द लिखते हैं
"अधियज्ञ-विषये स्कन्दादिभाष्यम्। निरुक्तमधिदैवत-विषयम् । इदं तु भाष्य-मध्यात्मविषयम्। न च भिन्नविषयाणां विरोधः ।" अर्थात् स्कंदादि आचार्यो का भाष्य यज्ञीय विचारों तथा निरुक्त दैवत विचारों से निगडित है; किन्तु यह भाष्य आध्यात्मिक दृष्टिकोण से लिखा गया है। विषय भिन्न होने के कारण निर्दिष्ट भाष्यों का अन्यान्य विरोध होने की कोई संभावना नहीं । आध्यात्मिक दृष्टि से मंत्रों का व्याख्यान करने की परंपरा इस देश में बहुत पुरातन है। इस परंपरा का पालन रावणाचार्य ने भी किया, यह उल्लेखनीय है आत्मानन्दाचार्य, शंकरमतानुयायी अव्दैतवादी थे।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 277
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आत्रेय- तैत्तिरीय संहिता के पदपाठकार । भट्ट भास्कराचार्य ने अपने तैत्तिरीय संहिता के भाष्य में आत्रेयजी का निर्देश 'पदपाठकार', इस विशेषण से किया है। सभी संहिताओं के पद-पाठ एक ही समय में हुए होंगे, ऐसा विव्दानों का तर्क है। भादित्यदर्शन- कठमन्त्रपाठ के (सम्भवतः चारायणीय मन्त्र-पाठ के) भाष्यकार। पिता का नाम वेद और गुरु का नाम माधवरात। आदेन्त- महाभाष्यप्रदीप-स्फूर्ति के लेखक। पिताअतिरात्र-आप्तोर्यामयाजी वेंकट । आनंदगिरि- ई. 12 वीं सदी। इन्होंने शंकराचार्य के सभी भाष्यों पर टीकाएं लिखी हैं। शांकरदिग्विजय-ग्रंथ इन्हीं का माना जाता है। ग्रंथ की पुष्पिका में लेखक का नाम अनंतानंदगिरि है। आगे चल कर शंकराचार्य की गद्दी पर आसीन हुए। अद्वैतवेदान्त के इतिहास में इनका नाम अजरामर है। आनन्द झा- ई. 20 वीं शती। न्यायाचार्य। लखनऊ वि.वि. में व्याख्याता। 'पुनःसंगम' नामक रूपक के प्रणेता। आनन्दतीर्थ- समय 1283-1317 ई.। आनन्दतीर्थ का ही दूसरा नाम मध्वाचार्य था। इन्होंने ऋक्संहिता के चालीस सूक्तों पर भाष्य-रचना की। ये मध्व (द्वैत) संप्रदाय के प्रतिष्ठापक आचार्य थे।
संहिता-मंत्रों का भगवत्परक अर्थ दिखलाने के लिए इन्होंने भाष्यरचना की। मध्व-संप्रदाय में जयतीर्थ और राघवेन्द्र नामक दो महापुरुष हुए। उन्होंने मध्वभाष्य का विस्तृत व्याख्यान किया। जयतीर्थजी के विवरण का फिर से विवरण नरसिंहाचार्यजी ने किया। नरसिंहाचार्यजी के समान नारायणाचार्य ने भी जयतीर्थ की व्याख्या का विवरण किया है। इस प्रकार आनन्दतीर्थजी का भाष्यग्रंथ अनेक व्याख्याकर्ताओं का प्रेरणा-स्थान रहा है। आनन्दतीर्थजी का भाष्य सर्वथा भक्तिसंप्रदाय का पुरस्कारक है। इन्होंने 'भागवततात्पर्य-निर्णय' नामक ग्रंथ की भी रचना की है।
आनन्दनारायण- ई. 18 वीं शती। ये 'पंचरत्न कवि' के नाम प्रसिद्ध थे। इन्होंने राम-कथा पर आधारित 'राघवचरितम्' नामक 12 सर्गों का महाकाव्य लिखा। कवि ने अपने आश्रयदाता सरफोजी भोसले के नाम से यह काव्य प्रसिद्ध करने का प्रयास किया, इस लिये सरफोजी ही इसके कवि हैं, यह ग्रह रूढ हुआ। इस प्रकार का काव्य-लेखन करने की क्षमता विद्वान राजा सरफोजी में थी, यह वस्तुस्थिति भी इस ग्रह (धारणा) को कारणीभूत हुई होगी। आनन्दबोध- ई. १६ वीं शती। पिता- जातवेद भट्टोपाध्याय । आनन्दबोध भट्टोपाध्याय ने संपूर्ण काण्व-संहिता पर भाष्य-रचना की। अध्यायों की परिसमाप्ति पर इस भाष्य का नाम । 'काण्ववेदमन्त्र-भाष्यसंग्रह' ऐसा लिखा है। आनन्दराय मखी- ई. 17 वीं शती (उत्तरार्ध)। मृत्यु लगभग
1735 ई. में। तंजौर के मराठा राजा शाहजी प्रथम, सरफोजी प्रथम तथा तुकोजी के धर्माधिकारी एवं सेनाधिकारी। पितानृसिंहराय, एकोजी तथा शाहजी के मंत्री थे। पितामह गंगाधर-एकोजी के मंत्री थे। कृतियां- आश्वलायन-गृह्यसूत्र-वृत्ति, विद्यापरिणयन (नाटक), और जीवानन्दन (नाटक)।
आनन्दवर्धन- काश्मीर के निवासी। समय 9 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध। प्रसिद्ध काव्यशास्त्री व ध्वनि-संप्रदाय के प्रवर्तक । काव्यशास्त्र के विलक्षण प्रतिभासंपन्न व्यक्ति। ध्वन्यालोक जैसे असाधारण ग्रंथ के. प्रणेता। 'राजतरंगिणी' में इन्हें काश्मीर नरेश अवंतिवर्मा का सभा-पंडित बताया गया है
मुक्ताकणः शिवस्वामी कविरानन्दवर्धनः।।
प्रथा रत्नाकराश्चागात् साम्राज्येऽवन्तिवर्मणः।। (5-4)। -मुक्ताकण, शिवस्वामी, आनंदवर्धन एवं रत्नाकर अवंतिवर्मा के साम्राज्य में प्रसिद्ध हुए। ___ अवंतिवर्मा का समय 855 से 884 ई. तक माना जाता है। आनंदवर्धन द्वारा रचित 5 ग्रंथ- विषमबाणलीला, अर्जुनचरित, देवीशतक, तन्त्रालोक और ध्वन्यालोक। सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ 'ध्वन्यालोक' में ध्वनि-सिद्धांत का विवेचन किया गया है, और अन्य सभी काव्यशास्त्रीय मतों का अंतर्भाव उसी में कर दिया गया है। देवीशतक नामक ग्रंथ (श्लोक 110) में, इन्होंने अपने पिता का नाम 'नोण' दिया है। हेमचन्द्र के काव्यानुशासन में भी इनके पिता का यही नाम आया है। आनन्दवर्धन ने प्रसिद्ध बौद्ध दार्शनिक धर्मकीर्ति के ग्रंथ 'प्रमाण-विनिश्चय' पर 'धोत्तमा' नामक टीका भी लिखी है। हरिविजय नामक प्राकृत काव्य के भी ये प्रणेता हैं। आपस्तंब- भृगुकुलोत्पन एक सूत्रकार ब्रह्मर्षि। कश्यप ऋषि ने दिति से जब पुत्रकामेष्टि यज्ञ कराया, तब आपस्तंब उसके आचार्य थे। पत्नी का नाम अक्षसूत्रा एवं पुत्र का कर्कि था। तैत्तिरीय शाखा (कृष्णयजुर्वेद की 15 अध्वर्यु शाखाओं में से एक) की एक उपशाखा के सूत्रकार। याज्ञवल्क्य-स्मृति में स्मृतिकार के रूप में इनका उल्लेख है।
सर्वश्री केतकर, काणे एवं डॉ. बूल्हर के अनुसार, आपस्तंब आंध्र के रहे होंगे। ग्रंथरचना- 1. आपस्तंब श्रौतसूत्र, 2. आ. गृह्यसूत्र, 3. आ. ब्राह्मण, 4. आ. मंत्रसंहिता, 5. संहिता, 6. आ. सूत्र, 7. आ. स्मृति, 8. आ. उपनिषद्, 9. आ. अध्यात्मपटल, 10. आ. अन्त्येष्टिप्रयोग, 11. आ. अपरसूत्र, 12. आ. प्रयोग. 13. आ. शल्बसूत्र और 14. आ. धर्मसूत्र।
आपस्तंब-धर्मसूत्र का रचनाकाल ई. पूर्व 6 से 3 शती है। इनके माता-पिता के नाम का पता नहीं चलता। निवास स्थान के बारे में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। डॉ. बूलर प्रभृति के अनुसार ये दाक्षिणात्य थे, किंतु एक मंत्र में यमुनातीरवर्ती साल्वदेशीय स्त्रियों के उल्लेख के कारण, इनका निवास स्थान मध्यदेश माना जाता है। इनके 'आपस्तंब-धर्मसूत्र' पर हरदत्त
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ने 'उज्ज्वला' नामक टीका लिखी है। इनका यह सूत्र-ग्रंथ (हरदत्त की टीका के साथ) कुंभकोणम् से प्रकाशित हो चुका है। आपिशलि- पाणिनि के पूर्ववर्ती एक वैयाकरण। युधिष्ठिर मीमांसकजी के अनुसार इनका समय 3000 वि. पू. है। इनके मत का उल्लेख 'अष्टाध्यायी', 'महाभाष्य', 'न्यास' एवं 'महाभाष्यप्रदीप' प्रभृति ग्रंथों में प्राप्त होता है। 'महाभाष्य' से पता चलता है कि कात्यायन व पतंजलि के समय में ही इनके व्याकरण को प्रचार व लोकप्रियता प्राप्त हो चुकी थी। प्राचीन वैयाकरणों में सर्वाधिक सूत्र इनके ही प्राप्त होते हैं। इससे विदित होता है कि इनका व्याकरण, पाणिनीय व्याकरण के समान ही प्रौढ व विस्तृत रहा होगा। इनके सूत्र अनेकानेक व्याकरण-ग्रंथों में बिखरे हुए हैं। इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त 'धातुपाठ', 'गणपाठ', 'उणादिसूत्र' एवं 'शिक्षा' नामक चार
अन्य ग्रंथों का भी प्रणयन किया है। इनके 'धातुपाठ' के उध्दरण 'महाभाष्य', 'काशिका', 'न्यास' तथा 'पदमंजरी' में उपलब्ध होते हैं तथा 'गणपाठ' का उल्लेख भर्तृहरि कृत 'महाभाष्य-दीपिका' में किया गया है। 'उणादि-सूत्र' के वचन उपलब्ध नहीं होते। 'शिक्षा' नामक ग्रंथ 'पाणिनीय-शिक्षा' से मिलता-जुलता है। इसका संपादन पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने किया है। भानुजी दीक्षित के उद्धरण से ज्ञात होता है कि इन्होंने एक कोशग्रंथ की भी रचना की थी। इनके 'अक्षरतंत्र' में सामगान विषयक स्तोभ वर्णित हैं। इनका प्रकाशन सत्यव्रत सामाश्रमी द्वारा कलकत्ता से हो चुका है।
इनके कतिपय उपलब्ध सूत्र इस प्रकार हैं- 'उभस्योभयो द्विवचनटापोः' (तंत्रप्रदीप, 2-3-8)- 'विभक्त्यन्तं पदम्' आदि।
न्यासकार जिनेन्द्रबुद्धि ने उनके धातुपाठ का निर्देश किया है कि- आपिशलि अस् धातु का 'स' मात्र स्वीकार करते हैं, पाणिनि के समान अस् भुवि ऐसा उनका पाठ नहीं है। अस्ति आदि में गुण (अट्) और आसीत् आदि में वृद्धि (आट्) का आगम मान कर आपिशलि रूप-सिद्धि मानते हैं। आप्पाराव के.व्ही.एन.- संस्कृत-कॉलेज कोवूर (गोदावरी) से एम. ए. हुए । रचना- 'गंगालहरी' । यह प्रकाशित हो चुकी है। आर. कृष्णमाचार्य- समय 1869-1924 ई. । 'सहृदया' नामक मद्रास की मासिक पत्रिका में आर. कृष्णमाचार्य की अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। उनकी प्रकाशित कृतियां हैं- 'सुशीला' (भारतीय नारी का चित्रण करने वाला सरस गद्यकाव्य), मेघसन्देशविमर्शः (अनुसन्धानप्रधान समीक्षा), पातिव्रतम्, पाणिग्रहणम्, 'वररुचि', 'वासन्तिकस्वप्नः' और 'यथाभिमत' (शेक्सपीयर के नाटक का अनुवाद)। आर्यदेव- बौद्ध-दर्शन के माध्यमिक मत के शास्त्रकार आचार्यों में इनका नाम महत्त्वपूर्ण है। समय 200 से 300 ई. के बीच। चंद्रकीर्ति नामक विद्वान के अनुसार ये सिंहल द्वीप के नृपति के पुत्र हैं। इन्होंने अपने अपार वैभव का त्याग कर
नागार्जुन का शिष्यत्व स्वीकार किया था। शून्यवाद के आचार्यो में इनका स्थान है। वुस्तोन नामक विद्वान के अनुसार इनकी रचनाओं की संख्या 10 हैं:
1. चतुःशतक- इसमें 16 अध्याय व 400 कारिकाएं हैं। इसका चीनी अनुवाद ह्वेनसांग ने किया था। इसका कुछ अंश संस्कृत में भी प्राप्त होता है। इसमें शून्यवाद का प्रतिपादन है।
2. चित्तविशुद्धि-प्रकरण- इसमें ब्राह्मणों के कर्मकांड का खंडन व तांत्रिक बातों का समावेश किया गया है। इसमें वार एवं राशियों के नाम प्राप्त होने से विद्वानों ने इस ग्रंथ के किसी अन्य आर्यदेव की कृति माना है। ___3. हस्तलाघव-प्रकरण- इसका नाम 'मुष्टि-प्रकरण' भी है। इसका अनुवाद चीनी व तिब्बती भाषा में प्राप्त होता है और उन्हीं के आधार पर इसका संस्कृत में अनुवाद प्रकाशित किया गया है। यह ग्रंथ 6 कारिकाओं का है जिनमें प्रथम 5 कारिकाएं जगत् के मायिक रूप का विवरण प्रस्तुत करती हैं। अंतिम (6 वीं) कारिका में परमार्थ का विवेचन है। इस पर दिङ्नाग ने टीका लिखी है।
4. शेष ग्रंथों के नाम हैं- स्खलितप्रमथनयुक्ति, हेतुसिद्धि, ज्ञानसार-समुच्चय, चर्यामेलापन-प्रदीप, चतुःपीठ-तंत्रराज, चतुःपीठ-साधन, ज्ञान-डाकिनी-साधन एवं एकद्रुमपंजिका। 'चतुःशतक' इनका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। ___ आर्यदेव-देव, काणदेव तथा नालनेत्र नामों से भी ये जाने जाते थे। आर्यचन्द्र- एक बौद्ध कवि। कुमारलात व मातृचेट के समकालीन। सम्भवतः सौत्रान्तिक संप्रदायी। रचना- मैत्रेयव्याकरण। आर्यभट्ट (प्रथम)- ज्योतिष शास्त्र के एक महान् आचार्य। कुसुमपुर (पटना) के निवासी। भारतीय ज्योतिष का क्रमबद्ध इतिहास आर्यभट्ट (प्रथम) से ही प्रारंभ होता है। इनके विश्वविख्यात ग्रंथ का नाम 'आर्यभटीय' है जिसकी रचना इन्होंने अपने अनुभवों के आधार पर की है। जन्मकाल- 476 ई. । इन्होंने "तंत्र' नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की है। इनके ये दोनों ही ग्रंथ आज उपलब्ध हैं। इन्होंने सूर्य तथा तारों को स्थिर मानते हुए, पृथ्वी के घूमने से रात और दिन होने के सिद्धांत का प्रतिपादन किया। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ 'आर्यभटीय' की रचना, पटना में हुई थी। इस ग्रंथ में आर्यभट्ट ने चंद्रग्रहण व सूर्यग्रहण के वैज्ञानिक कारणों का विवेचन किया है। 'आर्यभटीय' का अंग्रेजी अनुवाद डॉ. केर्न ने 1874 ई. लाइडेन (हॉलैंड) में प्रकाशित किया था। इसका हिन्दी अनुवाद उदयनारायणसिंह ने सन् 1903 में किया था। संस्कृत में 'आर्यभटीय' की 4 टीकाएं प्राप्त होती है। सूर्यदेव यज्वा की टीका सर्वोत्तम मानी जाती है जिसका नाम है 'आर्यभट्ट-प्रकाश'। मूल ग्रंथ के चार पाद हैं- गातिकापाद
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गणितपाद, कालक्रियापाद और गोलपाद । श्लोक-संख्या 121 है। द. भारत में इस ग्रंथ का प्रचार विशेष रूप से हुआ। इसके आधार पर बना पंचांग दक्षिण के वैष्णवपंथी लोगों को मान्य है। आर्यभट्ट (द्वितीय) - ई. 8 वीं शती। ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य और गणिती। भास्कराचार्य के पूर्ववर्ती । ज्योतिष-शास्त्र विषयक एक अत्यंत प्रौढ ग्रंथ 'महाआर्य सिद्धांत' के प्रणेता। भास्कराचार्य के सिद्धांत-शिरोमणि' में इनके मत का उल्लेख मिलता है।
आर्यशूर- 'जातकमाला' या 'बोधिसत्त्वावदानमाला' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता। समय- ई. तृतीय-चतुर्थ शती। आर्यशूर ने बौद्ध जातकों को लोकप्रिय बनाने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया है। अश्वघोष की भांति बौद्धधर्म के सिद्धांतों को साहित्यिक रूप देने में आर्यशूर का भी बड़ा योगदान है। 'जातकमाला' की ख्याति बाहरी बौद्ध-देशों में भी थी। इसका चीनी रूपांतर (केवल 14 जातकों का) 690 से 1127 ई. के मध्य हुआ था। इत्सिंग के यात्रा-विवरण से ज्ञात हुआ कि 7 वीं शताब्दी में इसका बहुत प्रचार हो चुका था। अजंता की दीवारों पर 'जातकमाला' के कई जातकों के चित्र (दृश्य) अंकित हैं। इन चित्रों का समय 5 वीं शताब्दी है। 'जातकमाला' के 20 जातकों का हिन्दी अनुवाद, सूर्यनारायण चौधरी ने किया है। आर्यशूर की दूसरी रचना का नाम है- 'पारमिता-समास' जिसमें 6 पारमिताओं का वर्णन किया है। 'जातकमाला' की भांति इसकी भी शैली सरल व सुबोध है। अन्य रचनाएं- सुभाषितरत्नकरंडक-कथा, प्रातिमोक्षसूत्रपद्धति, सुपथनिर्देशपरिकथा और बोधिसत्वजातक-धर्मगंडी।
आर्यशूर की काव्यशैली, काव्य के उपकरणों पर उनके अधिकार को दिखाई हुई, अत्युक्ति से रहित व संयत है। उनका गद्य व पद्य समान रूप से सावधानी के साथ लिखा गया है और परिष्कृत है। आशाधरभट्ट (प्रथम) - काव्यशास्त्र के एक जैन आचार्य। जन्मस्थान-अजमेर। ई. 13 वीं शती। माण्डलगढ़ (मेवाड) के मूल निवासी। बाद में मेवाड़ पर शहाबुद्दीन गोरी के आक्रमणों से त्रस्त होकर धारा नगरी में आ बसे । जाति-वर्धरवाल। पिता-सल्लक्षण। माता-श्रीरानी। पत्नी-सरस्वती। पुत्रनाम-छाहड। मालवनरेश अर्जुन वर्मदेव के सन्धिविग्रह मंत्री। गुरु-महावीर पण्डित। 'नयविश्वचक्षु', 'कलिकालिदास', 'प्रज्ञापुंज' आदि नामों से उल्लिखित । शिष्यनाम- मदनकीर्ति, विशालकीर्ति व देवचन्द्र । धारानगरी से दस मील दूर नलमच्छपुर में सरस्वती की साधना करते रहे। नेमिनाथ मंदिर ही उनका विद्यापीठ रहा है। ये व्याघ्ररवालवंशीय थे, और आगे चल कर जैन हो गए थे।
रचनाएं- आशाधर द्वारा लिखित बीस ग्रंथ मिलते हैं, जिनमें मुख्य ग्रंथ चार हैं- 1. अध्यात्म-रहस्य अपरनाम योगोद्दीपन
(72 पद्य), 2. धर्मामृत- इसके दो खण्ड हैं- अनगारधर्मामृत जो मुनिधर्म की व्याख्या करता है और सागारधर्मामृत जो गृहस्थ-धर्म को स्पष्ट करता है, 3. जिनयज्ञकल्प- यह ग्रंथ प्रतिष्ठाविधि का सम्यक् प्रतिपादन करता है और 4. त्रिषष्टिस्मृतिचंद्रिका- 63 शलाका- पुरुषों का संक्षिप्त जीवन-परिचय प्रस्तुत करता है। इनके अतिरिक्त मूलाराधना-टीका, इष्टोपदेशटीका, भूपालचतुर्विपूर्तिटीका, आराधनासार टीका, प्रमेयरत्नाकर, काव्यालंकार-टीका, सहस्र-नामस्तवन टीका, भरतेश्वराभ्युदय (चंपू) आदि ग्रंथ भी उल्लेखनीय हैं।
इन्होंने अपने एक ग्रंथ 'त्रिषष्टिस्मृतिचंद्रिका' का रचना-काल 1236 दिया है। इनका पता डॉ. पीटरसन ने 1883 ई. में लगाया था। संस्कृत अलंकार-शास्त्र के इतिहास में दो आशाधर नामधारी आचार्यों का विवरण प्राप्त होने से नाम-सादृश्य के कारण, डॉ. हरिचंद शास्त्री जैसे विद्वानों ने दोनों को एक ही लेखक मान लिया था पर वस्तुतः दोनों ही भिन्न हैं। द्वितीय आशाधर भट्ट का पता डॉ. बूलर ने 1871 ई. में लगाया था। आशाधरभट्ट (द्वितीय)- काव्यशास्त्र के एक आचार्य । समय ई. 17 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। पिता-रामजी भट्ट। गुरु-धरणीधर । इन्होंने अपनी 'अलंकार-दीपिका' में अपना परिचय इस प्रकार दिया है- "शिवयोस्तनयं नत्वा गुरुं च धरणीधरम्। आशाधरेण कविना रामजीभट्टसूनुना।।' इन्होंने अप्पय दीक्षित के 'कुवलयानंद' की टीका लिखी है। अतः ये उनके परवर्ती सिद्ध होते हैं। इनके अलंकारविषयक 3 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं- कोविदानंद, त्रिवेणिका व अलंकार-दीपिका । कोविदानंद अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण त्रिवेणिका' में प्राप्त होता है। डॉ. भांडारकर ने 'कोविदानंद' के एक हस्तलेख की सूचना दी है जिसमें निम्न श्लोक है
प्राचां वाचां विचारेण शब्द-व्यापारनिर्णयम्।
करोमि कोविदानंदं लक्ष्यलक्षणसंयुतम्।। शब्दवृत्ति के इस अपने प्रौढ ग्रंथ पर आशाधर भट्ट ने स्वयं ही 'कादंबिनी' नामक टीका भी लिखी है।
"त्रिवेणिका' का प्रकाशन 'सरस्वती-भवन-टेक्स्ट' ग्रंथमाला, काशी से हो चुका है। अलंकार-शास्त्र-विषयक इन 3 ग्रंथों के और 2 टीकाओं के अतिरिक्त आशाधर भट्ट ने 'प्रभापटल' व अद्वैतविवेक' नामक दो दर्शन-ग्रंथों की भी रचना की है।
ये आशाधर भट्ट (प्रथम) से सर्वथा भिन्न व्यक्ति हैं। इनका पता डॉ. बूलर ने 1871 ई. में लगाया था। आशानन्द- समय 1745-1787 ई.। आप महाराजा अनूपसिंह के प्रपौत्र महाराजा गजसिंह के राज्यकाल में बीकानेर में निवास करते थे। आपने राजा के आश्रय में रहकर 'आनन्दलहरी' को प्रणीत किया था। आश्मरथ्य- व्यासकृत ब्रह्मसूत्रों में इनका उल्लेख है। इनके अनुसार परमात्मा एवं विज्ञानात्मा में परस्पर भेदाभेद संबंध है।
280 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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शंकराचार्य एवं वाचस्पति मिश्र ने इन्हें विशिष्टाद्वैतवादी कहा है। आसुरि - सांख्यदर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल के साक्षात् शिष्य। डॉ. ए. बी. कीथ के अनुसार ये ऐतिहासिक पुरुष नहीं। इसके विपरीत म.म. डॉ. गोपीनाथ कविराज एवं 'सांख्य फिलॉसफी' नामक ग्रंथ के प्रणेता डॉ. गो. ने इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति माना है। 725 ई. के आसपास हुए हरिभद्र सूरि नामक एक जैन विद्वान ने, अपने ग्रंथ 'षड्दर्शनसमुच्चय' में, 'आसुरि' नाम से एक श्लोक उद्धृत किया है - महाभारत (शांतिपर्व) भागवत में भी कपिल द्वारा विलुप्त 'सांख्य-दर्शन' का ज्ञान, अपने शिष्य 'आसुरि' को देने का वर्णन है। उक्त तथ्यों के प्रकाश में 'आसुरि'को काल्पनिक व्यक्ति मानना उचित नहीं है। इनकी कोई भी रचना प्राप्त नहीं होती। इंदुलेखा- एक कवयित्री। इनका केवल एक श्लोक वल्लभदेव की 'सुभाषितावली' में प्राप्त होता है
एके वारिनिधौ प्रवेशमपरे लोकांतरालोकनं, केचित् पावकयोगितां निजगदुः क्षीणेऽहनि चंडार्चिषः । मिथ्या चैतदसाक्षिकं प्रियसखि प्रत्यक्षतीव्रातप,
मन्येऽहं पुनरध्वनीनरमणीचेतोऽधिशेते रविः ।। इसमें सूर्यास्त के संबंध में सुंदर कल्पना है- 'किसी का कहना है कि सूर्यदेव संध्याकाल में समुद्र में प्रवेश कर जाते हैं। पर किसी के अनुसार वे लोकांतर में चले जाते हैं पर मुझे ये सारी बातें मिथ्या प्रतीत होती हैं। इन घटनाओं का कोई प्रमाण नहीं है। प्रवासी व्यक्तियों की नारियों का चित्त विरहजन्य बाधा के कारण अधिक संतप्त रहता है। ज्ञात होता है कि सूर्यदेव इसी कोमल चित्त में रात्रि के समय शयन करने के लिये प्रवेश करते है, जिससे उनमें अत्यधिक गर्मी उत्पन्न हो जाती है। इस श्लेक के अतिरिक्त इस कवयित्री के संबंध में कुछ भी जानकारी नहीं है। इंद्र (इन्द्रदत्त)- कथासरित्सागर के चौथे तरंग के अनुसार पाणिनि के पूर्व भी व्याकरणकारों का एक सम्प्रदाय था। व्याडि, वररुचि एवं इंद्रदत्त उस सम्प्रदाय के प्रमुख थे। इंद्र का व्याकरण-ग्रंथ उपलब्ध नहीं परन्तु अभिनव शाकटायन के 'शब्दानुशासन' में उसके उद्धरण हैं। इन्द्र (प्रा.) - कुरुक्षेत्र विश्वविद्यालय में संस्कृत के अध्यापक । रचना- भगवद्(बुद्ध) गीता (पाली धम्मपद का संस्कृत अनुवाद)। इन्द्रनन्दि- दक्षिणवासी प्रतिष्ठाचार्य और मन्त्रविद् । वासवनन्दि के प्रशिष्य और बप्पनन्दि के शिष्य। समय दशम शताब्दी। रचना- 'ज्वालमालिनीकल्प' (मंत्रशास्त्र)। इस ग्रंथ के 10 परिच्छेद और 372 पद्य हैं। इन्द्रभूति- एक प्रसिद्ध बौद्ध (वज्रयानी) ग्रंथकार। उड्डियान के राजा। पद्मसंभव के पिता। इनके तेईस ग्रंथों के अनुवाद तंजूर नामक तिब्बत के ग्रंथालय में मिलते हैं। 'कुरूकुल्लासाधन' एवं 'ज्ञानसिद्धि' ये दो ग्रंथ संस्कृत में उपलब्ध हैं।
इन्दुमित्र (इन्दु) - 'अनुन्यास' नामक काशिका-व्याख्या के रचयिता। इस व्याख्या के उद्धरण अनेक व्याकरण-ग्रन्थों में प्राप्त होते हैं। इनमें और तन्त्रप्रदीपकार मैत्रेयरक्षित में शाश्वत विरोध था। श्रीमान् शर्मा ने अनुन्याससार नामक टीका रची है। इन्हीं शर्मा ने सीरदेव की परिभाषावृत्ति' पर विजयाटीका की रचना की है। इम्मादि प्रौढ देवराय- विजयनगर नरेश (ई.स. 1422-1448)। रचना-रतिरत्न-प्रदीपिका। विषय- कामशास्त्र। इरिबिठि काण्व- ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 16-18 सूक्तों के द्रष्टा । इ.सु. सुन्दरार्य- ई. 20 वीं शती। जन्म-तिरुचिरापल्ली । मद्रास के राजकवि। इन्हें म.म. पण्डितराज कृष्णमूर्ति शास्त्री द्वारा 'अभिनव-जयदेव', तथा संस्कृत साहित्य परिषद् द्वारा 'अभिनव-कालिदास' की उपाधियां प्राप्त हुई थीं।
ये तिरुचिरापल्ली की सं.सा. परिषद् के मंत्री रहे। ये अभिनेता तथा निर्देशक भी थे। कई प्राचीन संस्कृत नाटकों का निर्देशन इन्होंने किया।
कृतियां- समुद्रस्य स्वावस्थावर्णन (काव्य), स्तोत्रमुक्तावली, गानमंजरी, उमापरिणय तथा मार्कण्डेयविजय (नाटक) तथा तमिल में तीन उपन्यास। ईशानचन्द्र सेन- बंगाली। 'राजसूय-सत्कीर्ति-रत्नावली' नामक काव्य के रचयिता। ईश्वरकृष्ण- सांख्य-दर्शन के एक आचार्य और 'सांख्यकारिका नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ के रचयिता। शंकराचार्यजी ने अपने 'शारीरकभाष्य' में 'सांख्यकारिका' के उद्धरण प्रस्तुत किये हैं। अतः इनका शंकर से पूर्ववर्ती होना निश्चित है। विद्वानों ने इनका आविर्भाव-काल चतुर्थ शतक माना है, किंतु ये इससे भी अधिक प्राचीन हैं। 'अनुयोगद्वार-सूत्र' नामक जैन-ग्रंथ में 'कणगसत्तरी' नाम आया है जिसे विद्वानों ने 'सांख्यकारिका' के चीनी नाम 'सुवर्णसप्तति' से अभिन्न मान कर, इनका समय प्रथम शताब्दी के आस-पास निश्चित किया है। 'अनुयोगद्वार सूत्र' का समय 100 ई. है। अतः ईश्वरकृष्ण का उससे पूर्ववर्ती होना निश्चित है। ___ 'सांख्यकारिका' पर अनेक टीकाओं व व्याख्या-ग्रंथों की रचना हुई है। इनमें से वाचस्पति मिश्रकृत 'सांख्यतत्त्व-कौमुदी' सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण टीका है। काशी के हरेराम शास्त्री शुक्ल ने इस कौमुदी पर सुषमा नामक टीका लिखी है। डॉ. आद्याप्रसाद मिश्र के हिंदी अनुवाद के साथ सांख्यतत्त्वकौमुदी प्रकाशित हो चुकी है। ईश्वर शर्मा- ई. 18 वीं शती का मध्य। बिम्बली ग्राम (केरल) के निवासी। 'शृंगार-सुन्दर' नामक भाण के रचयिता। ईश्वरानन्द सरस्वती- रामचन्द्र सरस्वती के शिष्य। इन्होंने 'बृहत् महाभाष्य प्रदीप विवरण' की रचना की जिसकी तीन प्रतियां उपलब्ध हैं। इन्होंने अपने गुरु का नाम सत्यानन्द लिखा है।
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भौफेक्ट के अनुसार सत्यानन्द ही रामचन्द्र सरस्वती हैं। समयई. 1678-17101 ईश्वरोपाध्याय- ई. 8 वीं शती। आन्ध्रवासी। न्याय, मीमांसा, व्याकरण तथा धर्मशास्त्र में पारंगत । शांकर-मत के अनुयायी। इन्होंने ज्योतिष्मती एवं इलेश्वरविजय नामक ग्रंथों की रचना की है। उद्गीथ - ई. 18 वीं शती। स्कंदस्वामी, नारायण और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिलकर ऋग्भाष्य-रचना की। अर्थात् शैली में समानता न होना इन भाष्यों में स्वाभाविक है। उद्गीथाचार्य ने याज्ञिक पद्धति के अनुसार पूरे विस्तार से भाष्यरचना की है। परवर्ती भाष्यकारों ने उद्गीथाचार्यजी का निर्देश किया है। निरुक्त-भाष्य के एक रचयिता स्कंद-महेश्वर, संभवतः उद्गीथाचार्य के शिष्य थे। उद्गीथ-भाष्य में ग्रंथकार के नाम आदि का कुछ संकेत मिलता है। तदनुसार वे कर्नाटक की वनवासी नगरी के निवासी थे। उयादित्य- आयुर्वेद के विशेषज्ञ। गुरु-श्रीनन्दि। ग्रंथ-निर्माण का स्थान- रामगिरि जो त्रिकलिंग के बेंगी में स्थित है। त्रिकलिंग जनपद, मन्दाज के उत्तर पीलकट नामक स्थान से लेकर उत्तर गंजाम और पश्चिम में बेल्लारी कर्नल, बिदर तथा चान्दा तक विस्तृत है। 'रामगिरि', नागपुर का समीपवर्ती रामटेक भी हो सकता है। नृपतुंग अमोघवर्ष (प्रथम) के समय औषधि में मांस-सेवन का निराकरण करने के लिए उग्रादित्य ने 'कल्याणकारक' नामक बृहद्काय ग्रंथ का निर्माण किया था। समय-ई. 9 वीं शताब्दी। ग्रंथ के 25 परिच्छेदों
और दो परिशिष्टों में स्वास्थ्य-संरक्षण, गर्भोत्पत्ति, अन्नपानविधि, वात-पित्त-कफ, रसायन आदि का विस्तृत वर्णन है। उत्प्रेक्षावल्लभ- मूल नाम गोकुलनाथ । ई. 6 वीं शती। इन्होंने 'भिक्षात्म' नामक महाकाव्य की रचना की। इसमें शंकर के शृंगार-विलास का वर्णन है। उत्पलदेव- ई. 9 वीं शती। त्रिकदर्शन के एक आचार्य। इनकी 'शिव-स्तोत्रतलि' प्रसिद्ध है। इसमें 21 श्लोक हैं
कण्ठकोणविनिविष्टमीश ते कालकूटमपि मे महामृतम्। अप्युपात्तममृतं भवद्वपुर् भेदवृत्ति यदि मे न रोचते।। अर्थ- हे भगवन् तुम्हारे कंठ के कोने में जो विष है, वह भी मुझे अमृत समान है। पर तुम्हारे शरीर से अलग अमृत भी मिला तो वह मुझे अच्छा नहीं लगेला। यह श्लोक सुप्रसिद्ध काव्यप्रकाश में उद्धृत है। उदय कवि- 'मयूर-संदेश' नामक संदेश-काव्य के प्रणेता । समय- ई. 14 वीं शताब्दी। इन्होंने 'ध्वन्यालोकलोचन' पर 'कौमुदी' नामक टीका भी लिखी थी जो प्रथम उद्योग तक ही प्राप्त होती है। इसके अंत में जो श्लोक है, उससे पता चलता है कि इस ग्रंथ के रचयिता उदय नामक राजा
(क्षमाभृत्) थे। उदयप्रभदेव- ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य । समय- ई. 13 वीं शती। इन्होंने 'आरम्भसिद्धि' या 'व्यवहारचर्या' नामक ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ में उन्होंने प्रत्येक कार्य के लिये शुभाशुभ मुहूतों का विवेचन किया है। इस पर रत्नेश्वर सरि के शिष्य हेमहंसगणि ने वि.सं. 1514 में टीका लिखी थी। उदयप्रभदेव का यह ग्रंथ व्यावहारिक दृष्टि से 'मुहूर्तचिंतामणि' के समान उपयोगी है। उदयानाचार्य- रचना- 'वंशलता'। इस महाकाव्य में पौराणिक तथा ऐतिहासिक राजवंशों का वर्णन है। उदयनाचार्य- एक सुप्रसिद्ध मैथिल नैयायिक। इनका जन्म दरभंगा से 20 मील उत्तर कमला नदी के निकटस्थ मंगरौनी नामक ग्राम में एक संभ्रांत ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। 'लक्षणावली' नामक अपनी कृति का रचना-काल इन्होंने 906 शकाब्द दिया है। इनके अन्य ग्रंथ है- न्यायवार्तिक-तात्पर्य-टीकापरिशुद्धि, न्यायकुसुमांजलि तथा आत्मतत्त्व-विवेक । इन ग्रंथों की रचना इन्होंने बौद्ध दार्शनिकों द्वारा उठाये गए प्रश्नों के उत्तर-स्वरूप की थी। इन्होंने 'प्रशस्तपाद-भाष्य' (वैशेषिकदर्शन का ग्रंथ) पर 'किरणावली' नामक व्याख्या लिखी है। इसमें भी इन्होंने बौद्ध-दर्शन का खंडन किया है। 'न्याय-कुसुमांजलि' भारतीय दर्शन की श्रेष्ठ कृतियों में मानी जाती है और उदयनाचार्य की यह सर्व श्रेष्ठ रचना है।
ईश्वर के अस्तित्व के लिये बौद्धों से विवाद के समय, अनुमान-प्रमाण से ईश्वर का अस्तित्व सिद्ध नहीं कर पाने पर, एक ब्राह्मण और एक श्रमण को लेकर वे एक पहाड़ी पर चले गये। दोनों को वहां से नीचे धकेल दिया। गिरते हुए ब्राह्मण चिल्लाया- 'मुझे ईश्वर का अस्तित्व मान्य है', तो श्रमण चिल्लाया 'उसे मान्य नहीं । ब्राह्मण बच गया, श्रमण की मृत्यु हो गई परंतु उदयनाचार्य पर हत्या का आरोप लगा। इस पर उदयन पुरी के जगन्नाथ मंदिर में जाकर भगवान् के दर्शन की प्रार्थना करने लगे। उस समय मान्यता थी कि भगवान् पुण्यवान् लोगों को ही दर्शन देते हैं। तीसरे दिन भगवान् ने स्वप्न में आकर कहा- काशी जाकर स्वयं को जला कर प्रायश्चित्त करो, उसके बाद ही मेरा दर्शन हो सकेगा। उसके अनुसार उदयनाचार्य ने अग्नि को देह अर्पित किया पर मरते समय उन्होंने कहा
ऐश्वर्यमदमत्तः सन् मामवज्ञाय वर्तसे। प्रवृत्ते बौद्धसंपाते मदधीना तव स्थितिः।। अर्थः- भगवन्, ऐश्वर्य के मद में आप मेरा धिक्कार कर रहे हैं, पर बौद्धों का प्रभाव बढ़ने पर तो आपका अस्तित्व मेरे अधीन ही था। उदयराज-प्रयागदत्त के पुत्र । रामदास के शिष्य । रचना-राजविनोद काव्यम्। सात सगों के इस काव्य में गुजरात के सुलतान
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बेगडा महंमद का स्तुतिपूर्ण वर्णन है।
उद्दंड कवि समय- 16 वीं शताब्दी का प्रारंभ। पिता रंगनाथ | माता- रंगांबा । बधुल गोत्रीय ब्राह्मण कुल में जन्म। 'कोकिल-संदेश' नामक काव्य के प्रणेता। इसके अतिरिक्त 'मल्लिका - मारुत' नामक (10 अंकों के) एक प्रकरण के भी रचयिता कालीकट के राजा जमूरिन के सभा-कवि । उद्भट नाम से ये काश्मीरी ब्राह्मण प्रतीत होते हैं इनका समय ई. 8 वीं शती का अंतिम चरण व 9 वीं शती का प्रथम चरण माना जाता है। कल्हण की 'राजतरंगिणी' से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर नरेश जयापीड के सभा-पंडित थे और उन्हें प्रतिदिन एक लाख दीनार वेतन के रूप में प्राप्त होते थे
विद्वान् दीनारलक्षेण प्रत्यहं कृतवेतनः । भट्टोऽभूद्भटस्तस्य भूमिभर्तुः सभापतिः ।।
(4-495)
-
जयापीड का शासनकाल 779 ई. से 813 ई. तक माना जाता है। अभी तक उद्भट के 3 ग्रंथों का विवरण प्राप्त होता भामह - विवरण, कुमारसंभव (काव्य) व काव्यालंकार - सारसंग्रह । उनमें भामह - विवरण, भामहकृत 'काव्यालंकार' की टीका है, जो संप्रति अनुपलब्ध है। कहा जाता है कि यह ग्रंथ इटाली से प्रकाशित हो गया है पर भारत में अभी तक नहीं आ सका है। इस ग्रंथ का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज ने अपनी 'लघुविवृति' में किया है। अभिनवगुप्त, रुय्यक तथा हेमचंद्र भी अपने ग्रंथों में इसका संकेत करते हैं। इनके दूसरे ग्रंथ कुमारसंभव का उल्लेख प्रतिहारेंदुराज की 'विवृति' में है। इनमें महाकवि कालिदास के 'कुमारसंभव' के आधार पर उक्त घटना का वर्णन है। 'कुमारसंभव' के कई श्लोक उद्भट ने अपने तीसरे ग्रंथ 'काव्यालंकार सारसंग्रह' मे उदाहरण के रूप में प्रस्तुत किये हैं। प्रतिहारेंदुराज व राजानक तिलक, उद्भट के दो टीकाकार हैं, जिन्होंने क्रमशः 'लघुविवृति' तथा 'उद्भट विवेक' नामक टीकाओं का प्रणयन किया है। उद्भट भामह की भांति अलंकारवादी आचार्य हैं।
'अभिनव भारती' के छठे अध्याय में इनका उल्लेख है'निर्देशे चैतत्क्रमव्यत्यसनादित्यौद्धाः' अभिनवभारती में 'नैतदिति भट्टलोल्लट' उल्लेख के कारण, इन्हें लोल्लट का पूर्ववर्ती माना जाता है। अतः ये सातवीं शती के अन्तिम अथवा आठवीं शती के आरंभिक के भाग के माने जा सकते हैं।
उद्भट ने 'उद्घटालंकार' नामक एक और ग्रंथ की रचना की है और भरत मुनि के 'नाट्य-शास्त्र' पर टीका लिखी है।
इनके समय जयापीड की राजसभा में मनोरथ, शंखदत्त, चटक, संधिमान् तथा वामन मंत्री थे। सद्गुरु-सन्तान परिमल ग्रंथ (कामकोटिपीठ के 38 वें आचार्य के समय की रचना ) में भी यह दर्शित है। राजा जयापीड, कल्लट नाम धारण
कर, अन्यान्य राज्यों का भ्रमण करते हुए गौड़ देश में आया। वहां पौण्डरवर्धन गांव के कार्तिकेय मन्दिर में उसने भरत नाट्य देखा। वह इतना प्रभावित हुआ कि कमला नामक नर्तिका को अपने साथ ले गया तथा उसे अपनी रानी बनाया। संभवतः इसी राजा के आदेश से उद्भट ने अपनी साहित्य-शास्त्रीय कृति 'काव्यालंकार - सारसंग्रह' की रचना की है। "योतकर समय- ई. षष्ठ शताब्दी । शैव आचार्य । बौद्ध पंडित धर्मकीर्ति के समकालिक । 'वात्स्यायनभाष्य' पर 'न्यायवार्तिक' नामक टीका ग्रंथ के रचयिता । इन्होंने अपने 'न्यायवार्तिक' ग्रंथ का प्रणयन, दिनाग प्रभृति बौद्ध नैयायिकों के तर्कों का खंडन करने हेतु किया था। अपने इस ग्रंथ में बौद्ध मत का पंडित्यपूर्ण निरास कर ब्राह्मण-न्याय की निर्दष्टता प्रमाणित की है। सुबंधु कृत 'वासवदत्ता' में इनकी महत्ता इस प्रकार प्रतिपादित की गई है- 'न्यायसंगतिमिव उद्योतकरस्वरूपाम्' । स्वयं उद्योतकर ने अपने ग्रंथ का उद्देश्य निम्न श्लोक में प्रकट किया है
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"यदक्षपादः प्रवरो मुनीनां शमाय शास्त्रं जगतो जगाद । कुतार्विकाज्ञाननिवृत्तिहेतोः, करिष्यते तस्य मया प्रबंधः ।। "
ये भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण तथा पाशुपत संप्रदाय के अनुयायी थे- ('इति श्रीपरमर्षिभारद्वाज - पाशुपताचार्य श्रीमदुद्योतकरकृतौ न्यायवार्तिके पंचमोऽध्याव') आप पाशुपताचार्य के नाम से भी जाने जाते थे। आपने दिङ्नाग के आक्रमण से क्षीणप्रभ हुए न्याय-विद्या के प्रकाश को पुनरपि उद्योतित कराते हुए, अपने शुभनाम की सार्थकता सिद्ध की। इनका यह ग्रंथ अत्यंत प्रौढ व पांडित्यपूर्ण है । कतिपय विद्वान काश्मीर को इनका निवासस्थान मानते हैं, तो अन्य कुछ विद्वान मिथिला को। उपनिषद् ब्राह्मण (संन्यासी) कांचीवरम् निवासी। इन्होंने 100 उपनिषदों तथा भगवद्गीता पर भाष्य-रचना की है। - उपाध्याय पद्मसुन्दर - नागौर निवासी जैन तपागच्छ के विद्वान् । गुरु- पद्ममेरु और प्रगुरु आनन्दमेरु । अकबर द्वारा सम्मानित । स्वर्गवास वि.सं. 1639 ग्रंथ (1) रायमल्लाभ्युदय (चोबीस तीर्थंकरों का चरित्र) - सेठ चौधरी रायमल्ल की अभ्यर्थना और प्रेरणा से रचित (2) भविष्यरतचरित (3) पार्श्वनाथराय प्रमाणसुंदर, (4) सुंदरप्रकाशशब्दार्णव, (5) शृंगारदर्पण, (6) जम्बूचारित, और (7) हायनसुंदर
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उपाध्याय मेघविजय व्याकरण, न्याय, साहित्य, अध्यात्मविद्या, योग तथा ज्योतिर्ज्ञान के निष्णात पण्डित। समय ई. 17 वीं शती। गुरुपरम्परा- हीरविजय, कनकविजयशीलाविजय सिद्धिविजय कमलविजय कृपाविजय मेघविजय तपागच्छीय जैन विद्वान् विजयप्रभसूरि द्वारा 'उपाध्याय' की पदवी से विभूषित। राजस्थान और गुजरात प्रमुख कार्यक्षेत्र । प्रमुख ग्रंथ - 1. अर्हद्गीता (36 अध्याय 772 श्लोक ), 2. युक्तिप्रबोध (इसमें बनारसीदास के मत का खण्डन किया गया
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 283
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है), 3. चन्द्रप्रभामकौमुदी व्याकरण ( 8000 श्लोक ), 4. लघुत्रिषष्टिचरित्र (5000 श्लोक ), 5. श्रीशान्तिनाथचरित्र (6 सर्ग), नैषधीय काव्य की समस्यापूर्ति, 6. मेघदूत समस्या- पादपूर्ति (130 श्लोक ), 7. देवानंदाभ्युदय महाकाव्य ( माघकाव्य समस्यारूप), 8. शंखेश्वर प्रभुस्तवन, 9. श्रीविजयसेनसूरि -दिग्विजय काव्य-तपागच्छ पट्टावली, 10. मातृकाप्रसाद, 11. सप्तसंधान महाकाव्य (ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, कृष्ण एवं रामचन्द्र का श्लेषपूर्ण वर्णन ), 12 हस्तसंजीवनी (525 श्लोकों में हस्तरेखाविज्ञान स्वोपज्ञवृत्तिसहित) 13. वर्षप्रबोध, अपरनाम मेषमहोदय (13 अधिकार और 3500 श्लोक ), 14. रमलशास्त्र, 15 सीमंधरस्वामि-स्तवन, 16. पर्वलेखा, 17. भक्तामर टीका, 18. ब्रह्मबोध, 19. मध्यमव्याकरण (3500 श्लोक ), 20. यावच्चकुमार स्वाध्याय, 21. लघुव्याकरण, 22. पार्श्वनाथनामावली, 23. उदयदीपिका, 24. रावणपार्श्वनाथोपक्रम, 25. पंचतीर्थस्तुति (ऋषभनाथ, शांतिनाथ, संभवनाथ, नेमिनाथ तथा पार्श्वनाथ का एकसाथ वर्णन ), 26. भूविश्वेत्यादिकाव्य-विवरणम्, 27. विंशति-यंत्रविधि, 28. पंचमीकथा, 29. धर्ममंजूषा, 30 अर्जुनपताका और 31. विजयपताका ।
उपेन्द्रनाथ सेन- ई. 20 वीं शती । कलकत्ता- निवासी । कृतियां पल्ली- छवि, मकरन्दिका, कुन्दमाला (उपन्यास) तथा आयुर्वेद संग्रह।
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बेक कुमारिल भट्ट के शिष्य भवभूति एवं उंबेक दोनों एक ही व्यक्ति के नाम माने जाते हैं। कुमारिल के 'श्लोकवार्तिक' की एक कारिका पर उन्होंने टीका लिखी है। चित्सुखाचार्य विरचित चित्सुखी के अनुसार उंबेक एवं भवभूति अलग-अलग व्यक्ति हैं। इनके द्वारा श्लोकवार्तिक पर लिखी तात्पर्य - टीका एवं मंडन मिश्र - रचित भावनाविवेक पर लिखी टीका उपलब्ध है। उभयकुशल- ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य। फल- ज्योतिष के मर्मज्ञ । समय- ई. 17 वीं शती । ये मुहूर्त व जातक दोनों ही अंगों के पण्डित थे। 'विवाहपटल' व 'चमत्कार - चिंतामणि' इनके प्रसिद्ध ग्रंथ है, और दोनों ही ग्रंथों का संबंध फल ज्योतिष से है।
उमापति- मिथिला निवासी। 'पारिजातक-हरण' नाटक के रचयिता ।
उमापति (उमापतिधर ) - ई. 12 वीं शती । बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन की कवि-सभा के पंचरलों में से एक। संभवतः मंत्री । बल्लालसेन के पिता विजयसेन के, देवपारा - शिलालेख के लेखक वेंकट कविसार्वभौम के मतानुसार 'कृष्णचरित'काव्य के लेखक ।
उमापति शर्मा द्विवेद 'कविपति' जन्म सन् 1894 में। जन्मग्राम - उत्तर प्रदेश के देवरिया जिले का पकड़ी नामक ग्राम । आपने कई ग्रंथों की रचना की है, जिनमें 'शिवस्तुति' व
284 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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'वीरविंशतिका' विशेष प्रसिद्ध हैं। द्वितीय ग्रंथ में हनुमानजी की स्तुति है । 'पारिजात - हरण' आपका सर्वाधिक प्रौढ महाकाव्य है जिसका प्रकाशन 1958 ई. में हुआ है । उमापति शिवार्य - चिदम्बरम् के निवासी । समय- ई. 12वीं शती से पूर्व । रचना - औमापत्यम् (संगीतविषयक ग्रंथ) । उमास्वाति (उमास्वामी ) - इनका जन्म स्थान मगध है। श्रुतपरम्परा के जैनाचार्य अपर नाम गृद्धपिच्छाचार्य दक्षिण भारतीय कुन्दकुन्दान्वय के अनुयायी। समय- ई. प्रथम शताब्दी का अन्तिम भाग। इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ है तत्त्वार्थ अथवा तत्त्वार्थसूत्र रचना का हेतु सिद्धव्य नामक श्वेताम्बरीय विद्वान द्वारा लिखित सूत्र 'दर्शन-ज्ञान-चरित्राणि मोक्षमार्ग' के प्रारंभ में सम्यक् पद का योग । 'आत्मा का हित क्या है - इस प्रश्न के उत्तर में तत्त्वार्थ सूत्र की रचना की गई है। श्रुतसागर द्वारा सूरि-तत्त्वार्थवृत्ति के प्रारंभ में प्रश्नकर्ता के रूप में द्वैपायक नामका उल्लेख है।
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उमास्वाति ने विक्रम संवत् के प्रारंभ में 'तत्त्वार्थसूत्र' का प्रणयन किया था। अपने इस ग्रंथ पर इन्होंने स्वयं ही भाष्य लिखा है। इसका महत्त्व दोनों ही जैन संप्रदायों (श्वेतांबर व दिगंबर) में समान है। दिगंबर जैनी इन्हें उमास्वामी कहते हैं। उमेश गुप्त ई. 19 वीं शती 'वैद्यक-शब्द-सिन्धु' के कर्ता। बंगाली ।
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उवट - समय ई. 12 वीं शती के आसपास । शुक्लयजुर्वेद माध्यन्दिन संहिता के प्रसिद्ध भाष्यकार । उवटाचार्य ने यजुर्वेद संहिता - भाष्य के अन्त में अपने काल आदि का संकेत दिया है। तदनुसार भोज राजा के समय अवन्तीपुर में रहते हुए वाचार्य ने भाष्य-रचना की, यह बात स्पष्ट है। इनके पिता का नाम वज्रट था । उवटाचार्य के अन्य ग्रंथ हैं- (1) ऋ - प्रातिशास्त्र भाष्य, (2) यजुः प्रातिशाख्यभाष्य और (3) ऋसर्वानुक्रमणी भाष्य तीसरे ग्रंथ के लेखक यही उपाचार्यजी हैं या अन्य, इस विषय में एकमत नहीं है। उसी तरह उवटाचार्यजी के ऋग्भाष्य-रचना के विषय में भी मतभेद है । यह बाद तो निःसंदिग्ध है कि उवटाचार्य का भाष्य शत्रुघ्न, महीधर आदि माध्यंदिन वेद भाष्यकारों का आधार भाष्य रहा । उवटाचार्यजी का भाष्य संक्षिप्त और मार्मिक है। महीधराचार्य ने, उसी का अपनी शैली के अनुसार विवरण किया है। उवंटाचार्य ज्ञान-कर्म-समुच्चयवाद के समर्थक थे। इससे भाष्यकार की स्वतंत्र भूमिका और प्रतिभा का परिचय मिलता है। उवट-भाष्य का नया संस्करण आवश्यक है, क्यों कि उपलब्ध संस्करणों में कई स्थानों पर महीधराचार्य का भाष्य ही उवटाचार्य के नाम पर दिया गया है।
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ऋद्धिनाथ झा - ई. 20 वीं शती। जन्म- शारदापुर (मिथिला) में। कुलनाम सकरादि । राजकुमार के शिक्षक। राजमाता को पुराण सुनाते थे। साहित्याचार्य की उपाधि प्राप्त महारानी
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महेश्वरलता महाविद्यालय के प्राचार्य। तत्पूर्व लोहना विद्यापीठ में प्रधान अध्यापक। पिता- म.म.हर्षनाथ शर्मा ('उषाहरण' के । लेखक)। राजसभापण्डित। मैथिली में भी अनेक नाटकों का । सर्जना
कृतियां-शशिकला-परिणय (पांच अंकी नाटक) और पूर्णकाम (एकांकी रूपक)। भाषिक ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य। इनके बारे में कोई प्रमाणिक विवरण प्राप्त नहीं होता। इन्हें जैन धर्मानुयायी ज्योतिषी माना जाता है। 'कैटलोगस् कैटागोरम' (आफ्रेट कृत) में इन्हें प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्री आचार्य गर्ग का पुत्र कहा गया है।
ऋषिपुत्र का लिखा हुआ 'निमित्तशास्त्र' नामक ग्रंथ संप्रति उपलब्ध है। तथा इनके द्वारा रचित एक संहिता के उद्धरण, 'बृहत्संहिता' की भट्टोत्पली टीका में प्राप्त होते हैं। ज्योतिष-शास्त्र के प्रकांड पंडित वराहमिहिर के ये पूर्ववर्ती ज्ञात होते हैं। वराहमिहिर ने 'बृहज्जातक' के 26 वें अध्याय में इनका प्रभाव स्वीकार किया है। एम. अहमद (प्रा.)- विल्सन महाविद्यालय (मुंबई) में फारसी के प्राध्यापक। अनुवाद- कृति 'दुःखोत्तर' सखम्' (मूल अरबी कथासंग्रह अल्फरजबादष्पिद्द) और फारसी में देहिस्तानी से अनूदित जामे उहलीकायान्।
ओक, महादेव पांडुरंग- पुणे के निवासी। आपने संत ज्ञानेश्वर प्रणीत ज्ञानेश्वरी (भावार्थ-दीपिका के प्रथम ६ अध्यायों) का संस्कृत-अनुवाद किया जो मुद्रित भी हो चुका है। अन्य रचनाएं- कुरुक्षेत्रम् (15 सर्गो का) महाकाव्य और ममंग-रसवाहिनी। मोपमन्यव- यास्काचार्यद्वारा निर्दिष्ट निरुक्तकारों में एकतम । आचार्य औपमन्यव का मत निरुक्तकार ने बारह बार उपस्थित किया है। बृहद्देवता में भी औपमन्यव आचार्य का एक बार निर्देश है।
और्णवाभ- निरुक्तकार यास्काचार्य ने आचार्य और्णवाभ का पांच बार निर्देश किया है। बृहदेवता में भी और्णवाभ आचार्य का एक बार निर्देश मिलता है। प्रसिद्ध ऋग्भाष्य-रचियता आचार्य वेंकटमाधव भी अपने प्रथम ऋग्भाष्य में और्णवाभ का निर्देश करते हैं।
औदुम्बरायण- यास्काचार्य ने जिन बारह निरूक्तकारों का निर्देश किया है, उनमें औदुम्बरायण एक हैं। निरुक्त 1-1 में यह नाम उल्लिखित है।
औदंबराचार्य- वैष्णवों के निंबार्क-संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य निंबार्क के शिष्य । निवासस्थान- कुरुक्षेत्र के पास । मुख्य ग्रंथ(1) औदुंबर-संहिता और (2) श्री. निंबार्क-विक्रांति । औरभट्ट- 'व्याकरणप्रदीपिका' नामक अष्टाध्यायी-वृत्ति के लेखक। समय -ई.18 वीं शती।
कंठमणि शास्त्री- जन्म- 1898 ई.। श्री. शास्त्री का जन्म दतिया (मध्यप्रदेश) में हुआ, किन्तु उनका कर्मक्षेत्र कांकरौली रहा है। उनके पिता श्री. बालकृष्ण शास्त्री थे । आप कांकरौली महाराजा के निजी पण्डित और उनके ही विद्या-विभाग, सरस्वती-भण्डार, पुस्तकालय तथा चित्रशाला के अध्यक्ष थे। आपको महोपदेशक, शुद्धाद्वैतभूषण एवं कविरत्न की उपाधियां तथा स्वर्णपदक पुरस्कारस्वरूप प्राप्त हैं। आपके प्रसिद्ध काव्य हैं- 1. चाय-चतुर्दशी, 2. उपालम्भाट, 3. 'पक्वान्नप्रशस्तिः , 4. काव्य-मणिमाला और 5. कविता-कुसुमाकर। "सुरभारती" पत्रिका में भी आपकी स्फुट रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। आपके पत्रिका NR 5. कावता-कुसुमाकर द्वारा सम्पादित ग्रन्थ हैं- 1. ईशावास्योपनिषत् (सटीक), 2. केनोपनिषत् (सटीक), 3. विष्णुसूक्तम् (सटीक), 4. श्रीनाथ-भावोच्चय (सटीक), 5. रसिकरंजनम् (आर्यासप्तशती) तथा 6. सम्प्रदाय-प्रदीप। कंदाड अप्पकोण्डाचार्य- आपने अद्वैत-विरोधी तथा विशिष्टाद्वैत (वैष्णव) वादी 60 ग्रंथ लिखे। (डॉ. राघवन द्वारा उल्लिखित)। कक्षीवान- ऋग्वेद के सूक्तद्रष्टा। दीर्घतमा और उशिज के पुत्र। उनकी जन्मकथा इस प्रकार बतायी जाती है- दीर्घतमा एक बार नदी में गिर पड़े और बहते-बहते अंगदेश के किनारे जा लगे। उन्होंने वहां के राजा से भेंट की। राजा को संतान नहीं थी। अतः दीर्घतमा से पुत्रप्राप्ति की आशा से राजा ने उशिज नामक अपनी दासी को उनके पास भेजा। उनसे जो पुत्र हुआ, वही कक्षीवान् हैं। वे स्वयं को पज्रकुल का मानते थे। वे क्षुतिरथ प्रियरथ और सिन्धुतट पर राज्य करनेवाले भाव्य राजा के पुरोहित थे। वे स्वयं बड़े दानी थे। उन्होंने दान की महत्ता इस प्रकार बतायी है
नाकस्य पृष्ठे अधितिष्ठति श्रितो यः पृणाति स ह देवेषु गच्छति। सस्मा आपो धृतमर्षन्ति सिन्धवस्तस्मा इयं दक्षिणा पिन्वते सदा। अर्थात् जो कोई दान-धर्म से ईश्वर को संतुष्ट करता है, वह स्वर्ग के शिखर पर पहुंचकर वहीं निवास करता है। देव-मंडल में उसका प्रवेश होता है। स्वर्ग तथा पृथ्वी की नदियां उसकी ओर ही घृत का प्रवाह बहा कर ले जाती हैं। उसी के लिये यह उर्वरा भूमि समृद्धि से भर जाती है। कक्षीवान् के सूक्तों में इन्द्र व अश्विनों के सामर्थ्य और परोपकार की अनेक कथाओं के बीज है। कणाद- वैशेषिक दर्शन के प्रवर्तक। उनके कणाद, कणभक्ष, कणभुक्, उलूक, काश्यप, पाशुपत आदि विविध नाम हैं। इनके आधार पर ये काश्यपगोत्री उलूक मुनि के पुत्र सिद्ध होते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार वे सड़क पर गिरे हुए या खेतों में बिखरे हुए अनाज के कणों का भोजन करते थे। इसलिये वे 'कणाद' कहलाये। सूत्रालंकार में उन्हें "उलूक"
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 285
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कहा गया है, क्योंकि वे रात्रि में आहार की खोज में भटकते थे। "वायुपुराण' के अनुसार कणाद का जन्म प्रभास क्षेत्र में हुआ था और वे अवतार तथा प्रभासनिवासी आचार्य सोमशमन के शिष्य थे। उदयनाचार्य ने अपने "किरणावली" ग्रन्थ में उन्हें कश्यप-पुत्र माना है। पाशुपत-सूत्र में कणाद को पाशुपत कहा गया है। एक जनुश्रुति के अनुसार भगवान शिव से साक्षात्कार होने पर उनकी कृपा और आदेश से कणाद ने वैशेषिक दर्शन की रचना की। रचनाकाल बुद्ध से आठ सदी पूर्व माना जाता है। इसमें 10 अध्याय हैं, और हर अध्याय में दो आह्निक हैं। वैशेषिक दर्शन में पदार्थ के सामान्य और विशेष गुणों की चर्चा एवं परमाणुवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन है। कणाद तर्कवागीश- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- मणिव्याख्या, भाषारत्नम् और अपशब्दखण्डनम्। कन्हैयालाल- वल्लभ-संप्रदास की मान्यता के अनुसार, भागवत की महापुराणता के पक्ष में गंगाधर भट्ट द्वारा लिखित"दुर्जन-मुख-चपेटिका" पर, आपने "प्रहस्तिका" नामक व्याख्या लिखी। मूल "चपेटिका" तो लघु है, किंतु आपने अपनी व्याख्या- “प्रहस्तिका" में विषय का बड़े विस्तार के साथ प्रतिपादन किया है। प्रस्तुत व्याख्या की पुष्पिका से आप गंगाधर भट्ट के पुत्र निर्दिष्ट किये गये हैं। कपालीशास्त्री ति.वि.- ब्रह्मश्री उपाधि से विभूषित। पाण्डेचरी अरविंदाश्रम के निवासी। रचना- (1) ऋग्वेद का सिद्धांजन नामक भाष्य, (2) वासिष्ठगणपतिमुनिचरितम् और मातृभूस्तवन तथा भारतीस्तवः आदि अनेक राष्ट्रवादी मुक्तक काव्य । कपिल (महर्षि)- सांख्यदर्शन के आधाचार्य। जन्मस्थान- सिद्धपुर। कर्दम व देवहूति के पुत्र । भागवत पुराण में इन्हें विष्णु का 5 वां अवतार कहा गया है। इनके बारे में महाभारत, भागवत आदि ग्रंथों में परस्पर-विरोधी कथन प्राप्त होते हैं। स्वयं महाभारत में ही प्रथम कथन के अनुसार ये ब्रह्मा के पुत्र हैं, तो द्वितीय वर्णन में अग्नि के अवतार कहे गए हैं (महाभारत, शांतिपर्व, अध्याय 218)। अतः कई देशी-विदेशी आधुनिक विद्वानों ने इन्हें ऐतिहासिक व्यक्ति न मान कर काल्पनिक ही माना है। पर प्राचीन परंपरा में आस्था रखने वाले विद्वान, इन्हें एक ऐतिहासिक व्यक्ति एवं सांख्यदर्शन का आदि प्रवर्तक मानते हैं। गीता में भगवान श्रीकृष्ण, स्वयं को सिद्धों में कपिल मुनि बताते हैं। "सिद्धान्तों कपिलो मुनिः" (गीता 10-26) । ब्रह्मसूत्र के "शांकरभाष्य" में शंकर ने इन्हें सांख्य-दर्शन का आद्य उपदेष्टा और राजा सगर के 60 सहस्र पुत्रों को भस्म करने वाले कपिल मुनि से भिन्न स्वीकार किया है। [ब्रह्मसूत्र, शांकरभाष्य (2-1-1)] | इन विवरणों के अस्तित्व में कपिल की वास्तविकता के प्रति संदेह नहीं किया जा सकता। प्रसिद्ध पाश्चात्य विद्वान गाबे ने अपने ग्रंथ "सांख्य फिलॉसफी" में मैक्समूलर व कोलबुक के निष्कर्षों का खंडन
करते हए कपिल को ऐतिहासिक व्यक्ति सिद्ध किया है । महर्षि कपिल रचित दो ग्रंथ प्रसिद्ध है। "तत्त्वसमास" और "सांख्यसूत्र"। कपिल के शिष्य का नाम आसुरि था जो सांख्यदर्शन के प्रसिद्ध आचार्य हैं। कपिल के प्रशिष्य पंचशिख हैं और वे भी सांख्यदर्शन के आचार्य हैं। तकों और तथ्यों से निष्कर्ष निकलता है कि कपिल बुद्ध से पहले तथा कम-से-कम कुछ उपनिषद लिखे जाने के पूर्व ही ख्याति प्राप्त कर चुके थे। बुद्ध के जन्मस्थान "कपिलवस्तु" का नामकरण भी, वहां कपिल मुनि के वास्तव्य के कारण हुआ माना जाता है। कपिल के सांख्य-शास्त्र में कर्म की अपेक्षा ज्ञान को अधिक महत्त्व दिया गया है। श्वेताश्वर-उपनिषद् में सांख्य-सिद्धान्त का प्रतिपादन किया गया है। कपिल ने सर्वप्रथम प्रकृति और पुरुष के भेद-ज्ञान के द्वारा विकासवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया है। कपिल निरीश्वरवादी थे। कपिल के नाम पर सांख्यसूत्र
और तत्त्वसमास के अलावा व्यास-प्रभाकर, कपिल-गीता, कपिल-पंचरात्र, कपिल-संहिता, कपिल-स्तोत्र व कपिल-स्मृति नामक ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। कपिलदेव द्विवेदी : ई. 20 वीं शती। काशी हिन्दू वि. वि. के धर्मशास्त्र विभाग के अध्यक्ष। राधाप्रसाद शास्त्री के पुत्र । पंजाब में एम्.ए., शास्त्री, एम.ओ.एल., एलएल.बी. आदि उपाधियां प्राप्त की। भारत सरकार के न्यायविभाग के विशेष कार्याधिकारी। तत्पश्चात् उ. प्र. शासन के विदेश-कार्याधिकारी। संस्कृत-परिषद् के संस्थापक एवं प्रवर्तक। “परिवर्तन" नामक नाटक के रचयिता। कमलभाव : मूलसंघ कुन्दकुन्दान्वय देशीगण और पुस्तकगच्छ के आचार्य माघनन्दि के शिष्य। समय ई. 13 वीं शती। ग्रंथ-शान्तीश्वरपुराण। मल्लिकार्जुन ने इस ग्रंथ से कुछ पद्य उद्धृत किये हैं। कमलशील : काल ई. 8 वीं शती। शांतरक्षित के शिष्य तथा बौद्ध न्याय के पंडित, नालंदा में तंत्रशास्त्र के अध्यापक। बाद में तिब्बत के राजा के निमंत्रण पर तिब्बत चले गये। चीनी धर्मोपदेशक महायान होशंग को वाद-विवाद में परास्त किया। न्यायबिंदु पूर्वपक्ष और तत्वसंग्रहपंजिका नामक दो ग्रन्थों के लेखक। कमलाकर भट्ट (प्रथम) • ई. 17 वीं शताब्दी के एक धर्मशास्त्रकार। पिता-रामकृष्ण भट्ट। इनका ग्रंथ-लेखन-काल, 1610 से 1640 ई. तक माना जाता है। इनके ग्रंथों से जैसा स्पष्ट है, ये न्याय, व्याकरण, मीमांसा, वेदांत, साहित्य शास्त्र, वेद और धर्मशास्त्र के प्रकांड पंडित थे। इनके द्वार प्रणीत ग्रंथों की संख्या 22 है, जिनमें अधिकांश धर्मशास्त्र विषयक हैं। इनके निर्णयसिंधु, दानकमलाकर, शांतिरत्न, विवादतांडव, गोत्रप्रवरदर्पण, कर्मविपाकरत्न आदि ग्रंथों में निर्णयसिंधु, विवाद-तांडव तथा शूद्रकमलाकर अति प्रसिद्ध ग्रंथ हैं।
286 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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"शूद्रकमलाकर" में शूद्रों के धार्मिक कर्तव्यों का तथा "विवादतांडव" में पैतृक सम्पत्ति के वितरण, दावे, प्रमाप, दण्ड के प्रकार आदि का विवेचन है। “निर्णयसिन्धु" तो न्यायालयों में आज भी प्रमाण ग्रंथ के रूप में माना जाता है। कमलाकर भट्ट (द्वितीय) - ज्योतिषशास्त्र के एक आचार्य । इन्होंने "सिद्धान्ततत्त्वविवेक" नामक अत्यंत महत्त्वपूर्ण ज्योतिष शास्त्रीय ग्रंथ की रचना सं. 1580 में की है। इन्हें गोल और गणित दोनों का मर्मज्ञ बतलाया जाता है। ये प्रसिद्ध ज्योतिषी दिवाकर के भ्राता थे और इन्होंने अपने इन भ्राता से ही इस विषय का ज्ञान प्राप्त किया था। इन्होंने भास्कराचार्य के सिद्धान्त का अनेक स्थलों पर खंडन किया है और सौरपक्ष की श्रेष्ठता स्वीकार कर ब्रह्मपक्ष को अमान्य सिद्ध किया है। करमरकर, गजानन रामचन्द्र - इन्दौर के महाराज होलकर महाविद्यालय के प्राध्यापक। रचना-लोकमान्यालंकार। इसमें लोकमान्य तिलकजी का स्तवन है तथा अलंकारों के छात्रोपयुक्त उदाहरण भी हैं। करवीर्य - आयुर्वेद के आचार्य। सुश्रुत के समकालीन और धन्वंतरि के शिष्य। इन्होंने एक शल्यतंत्र विकसित किया था किंतु वह उपलब्ध नहीं। कर्णजयानन्द - मिथिलानरेश माधवसिंह (1776-1808 ई.) के समकालीन । "रुक्मांगद" नामक कीर्तनिया परम्परा के नाटक के रचयिता। कर्णप्पार्य - कर्नाटकवासी। गुरु कल्याणकीर्ति। गोपन राजा के पुत्र लक्ष्मीधर के आश्रित कवि। समय ई. 12 वीं शती। ग्रंथ-नेमिनाथ पुराण, वीरेशचरित और मालती-माधव। अनेक श्रेष्ठ कवियों द्वारा इनकी प्रशंसा हुई है। कर्णपूर - जन्म 1517 ई.। अलंकार शास्त्र के आचार्य एवं वैष्णव कवि। पिता-शिवानन्द सेन। बंगाल के कांचनपाडा के निवासी। महाप्रभु चैतन्य के शिष्य। इनके पिता ने उनकी आज्ञानुसार अपने पुत्र का नाम परमानन्ददास रखा। फिर महाप्रभु इन्हें पुरीदास कहने लगे। सात वर्ष की आयु में पुरीदास द्वारा रचित एक श्लोक के प्रथम दो पदों की प्रमुखता को ध्यान में रख कर, महाप्रभु ने उन्हें “कर्णपूर" कहना प्रारंभ किया।
कृतियां-चैतन्यचन्द्रोदय (महानाटक) चैतन्यचरितामृत (महाकाव्य), गंगास्तव, वृत्तमाला, पारिजातहरण, आनन्दवृन्दावन (चम्पू), अलंकारकौस्तुभ (टीका ग्रंथ), कृष्णलीलोद्देशदीपिका, गौरगणोद्देशदीपिका, वर्णप्रकाशकोष, आर्याशतक (अप्राप्त) और चमत्कारचन्द्रिका (अप्राप्त) । “अलंकारकौस्तुभ' पर 3 टीकाएं मिलती हैं। कर्णश्रुत वासिष्ठ - वैदिक सूक्तद्रष्टा। इन्होंने सोम के स्तवन में 58 ऋचाओं वाले सूक्त की रचना की है जिसमें उपमा
आदि अलंकारों का विपुल उपयोग किया गया है। सोम ने किस प्रकार निगुत नामक आर्यशत्रुओं को गहरी निद्रा में सुला
कर उनका संहार किया इसका निरूपण भी प्रस्तुत किया गया है। कल्य लक्ष्मीनरसिंह - ई. 18 वीं शती। कौशिकगोत्री। पिता-अहोबल सुधी। उपास्य दैवत आंध्र में कुर्नूल जिले के
अहोबल पर्वत पर प्रतिष्ठापित लक्ष्मीनरसिंह । कृतियां-जनकजानन्दन नामक पांच अंकी नाटक, कवि कौमुदी तथा विश्वदेशिकविजय। पिता की कृतियां-साहित्यमकरन्द तथा अलंकारचिन्तामणि । कल्याणकीर्ति - मूलसंघ, देशीयगण, पुस्तकगच्छ के भट्टारक ललितकीर्ति के शिष्य । कार्कल के मठाधीश। पट्टस्थान-पनसोगे (मैसूर) शिष्य- देवचंद्र। समय ई. 15 वीं शती। ग्रंथ-जिनयज्ञकलोदय, ज्ञानचन्द्राभ्युदय, जिनस्तुति, तत्त्वभेदाष्टक, सिद्धराशि, फणिकुमार-चरित और यशोधरचरित (1850 श्लोक)। कल्याणमल्ल - ई. 17 वीं शती। बरद्वान निवासी श्रेष्ठी। भरत मल्लिक के आश्रयदाता । कृति-मालती (मेघदूत पर टीका)। कल्याणमल्ल - रचना-अनंगरंग। (कामशास्त्रविषयक ग्रंथ) अवध नरेश लदाखान लोधी (अहमदखान का बेटा) को प्रसन्न करने हेतु रचित। कल्याणरक्षित - काल ई. 9 वीं शती। एक बौद्ध दार्शनिक । धर्मोत्तराचार्य के गुरु । आपने पांच ग्रंथों की रचना की। 1. सर्वज्ञसिद्धिकारिका, 2. बाह्यार्थसिद्धिकारिका, 3. श्रुतिपरीक्षा, 4. अन्यापोहविचारकारिका और 5. ईश्वरभंगकारिका। इन सभी ग्रंथों के केवल तिब्बती अनुवाद ही उपलक्ष हैं। कल्याणवर्मा - भारतीय ज्योतिष के एक प्रसिद्ध आचार्य । समय 578 ई., किन्तु आधुनिक युग के प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्री पं. सुधाकर द्विवेदी के अनुसार 500 ई.। इन्होंने "सारावली" नामक जातकशास्त्र की रचना की है जिसमें 42 अध्याय हैं। यह ग्रंथ वराहमिहिर रचित "बृहज्जातक" से भी आकार में बडा है। लेखक ने स्वीकार किया है कि इस ग्रंथ की रचना वराहमिहिर, यवन ज्योतिष व नरेन्द्रकृत "होराशास्त्र" के आधार पर हुई है और उनके मतों का सार संकलन किया गया है। भट्टोत्पल नामक ज्योतिष शास्त्री ने, अपनी बृहज्जातक टीका में, इनके श्लोकों को उदधृत किया है। इनकी "सारावली" में ढाई हजार से भी अधिक श्लोक हैं। “सारावली" का प्रकाशन निर्णय सागर प्रेस से हो चुका है। कल्हण - "राजतरंगिणी' नामक सुप्रसिद्ध ऐतिहासिक महाकाव्य के रचयिता। काश्मीर के निवासी। आढ्यवंशीय ब्राह्मण कुल में जन्म। इन्होंने अपने संबंध में जो कुछ अंकित किया है, वही उनके जीवनवृत्त का आधार है। "राज तरंगिणी" की प्रत्येक तरंग की समाप्ति में "इति काश्मीरिक महामात्य श्रीचम्पकप्रभुसूनोः कल्हणस्य कृतौ राजतरङ्गिण्यां" यह वाक्य अंकित है। इससे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम चम्पक था और वे काश्मीर नरेश हर्ष के महामात्य थे। काश्मीर नरेश हर्ष का शासन काल 1089 से 1101 ई. तक था। चंपक के नाम का कल्हण ने अत्यंत आदर के साथ
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तब
उल्लेख किया है। इससे उनके कल्हण के पिता होने में किसी (बंगाल) के निवासी। व्यवसाय से वैद्य। पिता-कवि कर्णपूर । भी प्रकार का संदेह नहीं रह पाता।
माता-कौसल्या। कृतियां "काव्यचन्द्रिका" और "चिकित्सा कल्हण ने चंपक के अनुज कनक का भी उल्लेख किया रत्नावली"। है जो हर्ष के कृपापात्रों में से थे। उन्होंने परिहारपुर को कनक कविचन्द्र द्विज - असम नरेश महाराज शिवसिंह (1714-1744) का निवास स्थान कहा है और यह भी उल्लेख किया है कि के आश्रित कवि। कृतियां-धर्मपुराण का अनुवाद (ई. 1735 जब राजा हर्ष बुद्ध प्रतिमाओं का विध्वंस कर रहे थे तब में) और कामकुमार हरण, नाटक (ई. 1724-31 के बीच)। कनक ने अपने जन्मस्थान की बुद्धप्रतिमा की रक्षा की थी। कविचूडामणि चक्रवर्ती - भागवत की केवल वेदस्तुति पर (राजतरंगिणी 7/1097) । कल्हण के इस कथन से यह निष्कर्ष ___ "अन्वयबोधिनी" नामक सफल सार्थक टीका के प्रणेता। अपनी निकलता है कि इनका जन्मस्थान परिहारपुर था और ये स्वयं इस टीका के अंत में आपने केवल इतना ही परिचय दिया बौद्धधर्म का आदर करते थे। कल्हण शैव थे। इस तथ्य है कि वे ब्राह्मण वर्ण तथा वृंदावन निकुंज के वासी थे। की पुष्टि "राजतरंगिणी" की प्रत्येक तरंग में अर्धनारीश्वर शिव इनके समय का ठीक पता नहीं चलता। किन्तु इनकी टीका की वंदना से होती है। कल्हण का वास्तविक नाम कल्याण अन्वयबोधिनी बहुत पुरानी मानी जाती है। अष्टटीका भागवत था और वे अलकदत्त नामक किसी व्यक्ति के आश्रय में में वह प्रकाशित भी हो चुकी है। रहते थे। इन्होंने सुस्सल के पुत्र राजा जयसिंह के राज्यकाल कवितार्किक - ई. 16-17 वीं शती। नोआखाली में भुलुया में (1127 से 1159 ई.) “राजतरंगिणी" का प्रणयन किया
के राजा लक्ष्मण-माणिक्य के पुरोहित। पिता वाणीनाथ । था। इस महाकाव्य का लेखन दो वर्षों में (1148 से 1150
रचनाएं-कौतुकरत्नाकर (प्रहसन) और जामविजयम् (काव्य)। ई.) हुआ था। शैवमतानुयायी होते हुए भी कल्हण बौद्ध धर्म
"जामविजयम्" में कच्छ के जामवंश का वर्णन है। यह के अहिंसा तत्त्व के पूर्ण प्रशंसक थे। इन्होंने बौद्धों की
काव्य 7 सर्गों का है। उदारता, अहिंसा व भावनाओं की पवित्रता की अत्यधिक
कवितार्किकसिंह - वेदान्तचार्य। पिता- वेंकटाचार्य। गोत्रप्रशंसा की है। राजा के गुणों की ये बोधिसत्व से तुलना
कौशिक । रचना-आचार्यविनयचम्पू, इसमें वेदांतदेशिक (14 वीं करते हैं। (राज 1/34, 1/138)। "श्रीकण्ठचरित' में कल्हण
शती) का चरित्र निवेदित किया है। की प्रशस्ति प्राप्त होती है। (25/78, 25/79 व 25/80) ।
कल्हण की एकमात्र रचना "राजतरंगिणी' ही प्राप्त होती कवि परमेष्ठी - नामान्तर कवि परमेश्वर। पम्प, नयसेन, है। इसमें उन्होंने अत्यंत प्राचीन काल से लेकर 12 वीं अग्गल, कमलभव, गुणवर्म द्वितीय, पार्श्वपण्डित, गुणभद्र, जिनसेन शताब्दी तक काश्मीर का इतिहास अंकित किया है और आदि कनड एवं संस्कृत कवियों द्वारा उल्लिखित । ऐतिहासिक शुद्धता एवं रचनात्मक साहित्यिक कृति, दोनों ग्रंथ-वागर्थसंग्रह। आवश्यकताओं की पूर्ति की है। उन्होंने ऐतिहासिक तथ्यों का कवि मदन - ई. 17 वीं शताब्दी। “घटखर्पर" नामक काव्य विवरण, कई स्रोतों से ग्रहण कर, उसे पूर्ण बनाया है। कल्हण का समस्या के रूप में उपयोग करते हुए काव्य रचना की का व्यक्तित्व, एक निष्पक्ष व प्रौढ ऐतिहासिक का है। राजतरंगिणी जिसका नाम है "कृष्णलीला"। . के प्रारंभ में उन्होंने यह विचार व्यक्त किया है कि "वही कविराज - कीर्तिनारायण और चन्द्रमुखी का पुत्र । वनवासी गुणवान कवि प्रशंसा का अधिकारी है, जिसकी वाणी, अतीत का के कदम्ब राजाओं का राजकवि। पिता वहीं पर सेनापति । चित्रण करने में घृणा या प्रेम की भावनाओं से मुक्त और राजा का नाम कामदेव। समय 12 वीं शती का उत्तरार्ध । निश्चित होती है। ("श्लाघ्यः स एव गुणवान् रागद्वेष बहिष्कृता। वक्रोक्ति-निपुणता के लिए प्रसिद्ध है। रचनाएँ पारिजातहरणम् भूतार्थकथने यस्य स्थेयस्येव सरस्वती" -11 1/7)। कल्हण 10 सर्गों का काव्य। इन्द्रोद्यान से श्रीकृष्ण द्वारा पारिजात का ने इतिहास के वर्णन में इस आदर्श का पूर्णतः पालन किया हरण इस काव्य की कथा वस्तु है। श्लिष्ट शब्दावली के है। कवि के रूप में उनका व्यक्तित्व अत्यंत प्रखर है। उन्होंने अभाव में यह काव्य मधुरता से पूर्ण है। संभवतः कवि की स्वयं को इतिहासवेत्ता न मान कर, एक कवि के रूप में ही प्रथम रचना है। दूसरे काव्य राघवपाण्डवीयम् में रामायण तथा प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं अमृत का पान करने से केवल भारत की कथा श्लेषमय रचना द्वारा वर्णित है। पीने वाला ही अमर होता है, किन्तु सुकवि की वाणी, कवि कविराज - इन्होंने छत्रपति शिवाजी द्वारा मिर्जा राजा जयसिंह एवं वर्णित पात्रों, दोनों के ही शरीर को अमर कर देती है। को फारसी में लिखे गए महत्त्वपूर्ण पत्र का संस्कृत में अनुवाद (राज 1/3)। इनके उत्कृष्ट कवित्व ने ही काश्मीर के इतिहास किया है जिसकी श्लोक संख्य 60 है। को प्रकाशित किया है।
कवि राम - ई. 17 वीं शती । “दिग्विजयप्रकाश" के रचयिता। कविचन्द्र - ई. 17 वीं शती। कुलनाम-दत्त। दीर्घाङ्क ग्राम कवि वाचस्पति - ई. 11 वीं शती। बंगाल निवासी। राजा
288 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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हरिवर्मदेव के मंत्री भवदेव के मित्र "भवदेवकुलप्रशस्ति" नामक काव्य के रचयिता ।
कवीन्द्र परमानन्द नेवासेकर रचना "शिवभारतम्”। छत्रपति शिवाजी महाराज का जीवन चरित्र अन्यान्य भाषाओं में उपलब्ध है, तथापि इस चरित्र ग्रंथ की ऐतिहासिक प्रामाण्य की दृष्टि से, विशेष योग्यता है। कवि की विद्वत्ता को पहचान कर महाराज ने उन्हें चरित्र लेखन का आदेश दिया था। कवीन्द्र परमानन्द शिवाजी महाराज के साथ आगरा गए थे। अंतिम अवस्था में आपने संन्यास ग्रहण किया था। महाराष्ट्र में लोहगड के पास कवीन्द्र की समाधि विद्यमान है।
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कवीन्द्र परमानन्द 20 वीं शती लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल में निवास रचना कर्णार्जुनीयम्।
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कवीन्द्राचार्य सरस्वती इनकी स्तुतियों का संग्रह कवीन्द्रचन्द्रोदय नाम से प्रकाशित है। समय 17 वीं शती । रचनाएं हंससंदेशम् और कवीन्द्रकल्पद्रुमः ।
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कवीश्वर जणु श्रीवकुलभूषण जग्गु अलवार अय्यंगार नाम से प्रसिद्ध पिता-तिरुनारायण मेलकोटे (कर्नाटक) नगर के निवासी। रचना-बाणभट्ट की शैली का अनुसरण करते हुए रचित कथा जयन्तिका । अन्य रचनाएं स्थमन्तकः व अद्भुतांशुकम् (दोनों नाटक) तथा करुणारसतरंगिणी व हयग्रीवस्तुति (दोनों स्तोत्र ) ।
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कश्यप एक वैदिक सूक्तद्रष्टा । अग्नि के शिष्य और विभांडक के गुरु । मरीचि के पुत्र । माता का नाम है कर्दमकन्या कला। ये तार्क्ष्य व अरिष्टनेमि नामों से भी जाने जाते हैं । इनकी गणना सप्तर्षियों और प्रजापतियों में की जाती है। वायुपुराण में इनके कुल की महिमा बताई गई है । दिति व अदिति कश्यप की भार्याएं थीं दिति से दैत्यों और अदिति से आदित्यों अर्थात् देवों की उत्पत्ति हुई। भागवत के अनुसार कश्यप की अरिष्टि नामक अन्य चार भार्याएं बतायी गयी हैं। मनुष्य, पशु, पक्षी, नाग, जलचर आदि सब कश्यप की संतति हैं ।
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इनके सम्बन्ध में एक कथा यह भी बताई जाती है - परशुराम ने समूची पृथ्वी को निःक्षत्रिय बना कर, सरस्वती के तट पर रामतीर्थ में अश्वमेघ यज्ञ किया। कश्यप ही उस यज्ञ के अध्वर्यु थे। यज्ञ की समाप्ति पर दक्षिणा के रूप में परशुराम ने विजित पृथ्वी (मध्यप्रदेश) कश्यप को दे दी। कश्यप ने वह पृथ्वी ब्राह्मणों को सौंप दी और स्वयं वनवास स्वीकार किया।
इसी प्रकार एक और कथा बतायी जाती है जब कश्यप ऋषि ने अर्बुद ( अरावली ) पर्वत पर महान तप किया तब अन्य ऋषियों ने उन्हें गंगा लाने के लिये कहा। कश्यप ने शिव की उपासना कर उनसे गंगा प्राप्त की। जिस स्थान पर उन्हें गंगा मिली वह स्थान कश्यपतीर्थ नामसे विख्यात हुआ । गंगा को काश्यपी भी कहा जाता है। विष्णु भगवान के वाहन गरुड को इन्होंने नारायण माहात्म्य बताया ।
कश्यप के नाम पर कश्यपसंहिता (वैद्यकीय) कश्यपोत्तर संहिता, कश्यपस्मृति व कश्यपसिद्धान्त ये चार ग्रंथ बताएं जाते है । बौधायन ने अपने धर्मसूत्र में कश्यप मत का प्रतिपादन इस प्रकार किया है :
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"क्रीता द्रव्येण या नारी सा न पत्नी विधीयते । सान दैवे न सा पित्र्ये दासीं तां कश्यपोऽब्रवीत् । ।" अर्थात् द्रव्य देकर जिस स्त्री को खरीदा गया, वह पत्नी नहीं हो सकती। उसे दैव पितृकार्य में कोई अधिकार नहीं होता। वह केवल दासी होती है।
कश्यप कुल में छह ऋषि हुए हैं: कश्यप, अवत्सार, नैधुव, रैभ्य, असित व देवल। कश्यप का गोत्र काश्यप है। शांडिल्य गोत्र से इनका मेल नहीं बैठता। जिन ब्राह्मणों को अपने गोत्र का ज्ञान नहीं उनका गोत्र काश्यप ही माना जाता है। कस्तूरी रंगनाथ ई. 19 वीं शती का प्रारम्भ कुलनाम-वाधूल । पिता वीरराघव कवि माता कनकवल्ली गुरु श्रीवत्सर्वशोद्भव वेंकटकृष्णमार्य । अनेक शास्त्रों में पारंगत । बाल-किंगृहपुरी के निवासी । "रघुवीर विजय” नामक समवकार (एक प्रकार का रूपक) के प्रणेता।
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कस्तूरी श्रीनिवास शास्त्री समय ई. स. 1833 से 1917) गोदावरी जिले के (आन्ध्र) कूचिमंचीवरी अग्रहार गांव के निवासी रचनाएं शूलपाणिशतकम्, स्तोत्रकदम्बः, द्वादशमंजरी, शिवानन्दलहरी शिवपादस्तुतिः नृसिंहस्तोत्रम् व समुद्राष्टकम्। कात्यायन ( वैयाकरण) - "अष्टाध्यायी" पर वार्तिक लिखने वाले प्रसिद्ध वैयाकरण जिन्हें "वार्तिककार कात्यायन" के नाम से ख्याति प्राप्त है। श्री. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार 'महाभाष्य 3 / 2 / 118) में इनका स्थितिकाल वि. पू. 2700 वर्ष है। संस्कृत व्याकरण के मुनित्रय में पाणिनि, कात्यायन एवं पतंजलि का नाम आता है। पाणिनीय व्याकरण को पूर्ण बनाने के लिये ही कात्यायन ने अपने वार्तिकों की रचना की थी जिनमें अष्टाध्यायी के सूत्रों की भांति ही प्रौढता व मौलिकता के दर्शन होते है। इनके वार्तिक, पाणिनीय व्याकरण के महत्त्वपूर्ण अंग हैं जिनके बिना वह अपूर्ण लगता है।
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प्राचीन वाङ्मय में कात्यायन के लिये कई नाम आते हैं। कात्य, कात्यायन, पुनर्वसु, मेधाजित् तथा वररुचि, और कई कात्यायनों का उल्लेख प्राप्त होता है- कात्यायन कौशिक, आंगिरस, भार्गव एवं कात्यायन द्वामुष्यायण । "स्कंदपुराण" के अनुसार इनके पितामह का नाम याज्ञवल्क्य, पिता का नाम - कात्यायन और इनका पूरा नाम वररुचि कात्यायन है। कात्यायन बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न व्यक्ति थे। इन्होंने व्याकरण के अतिरिक्त काव्य, नाटक, धर्मशास्त्र व अन्य अनेक विषयों पर स्फुट रूप से लिखा है। इनके ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है। स्वर्गारोहण (काव्य) इसका उल्लेख "महाभाष्य" (4/3/110) में "वाररुच" काव्य के रूप में प्राप्त होता है
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 289
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तथा समुद्रगुप्त के "कृष्णचरित" में भी इसका निर्देश है। इसके अनेक पद्य "शारङ्गधर पद्धति", "सदुक्तिकर्णामृत" व "सूक्तिमुक्तावली" में प्राप्त होते हैं। इन्होंने कोई काव्यशास्त्रीय ग्रंथ भी लिखा था जो संप्रति अनुपलब्ध है, किन्तु इसका विवरण "अभिनवभारती" व "श्रृंगारप्रकाश" में है। ___ इनके अन्य ग्रंथों के नाम हैं-"भाज", "संज्ञक श्लोक" तथा "उभयसारिकाभाण"। कात्यायन के नाम पर कुल 26 ग्रंथ प्राप्त होते हैं। कात्यायन (स्मृतिकार) - "कात्यायनस्मृति" के रचयिता भारतरत्न पी. वी. काणे के अनुसार इनका समय ईसा की तीसरी या चौथी शताब्दी है। इनका धर्मशास्त्र विषयक कोई भी ग्रंथ अभी तक उपलब्ध नहीं हुआ है। विविध धर्मशास्त्रीय ग्रंथों में इनके लगभग 900 श्लोक उद्धृत हैं। दस निबंध ग्रंथों में इनके व्यवहार संबंधी उद्धृत श्लोकों की संख्या 900 मानी जाती है। एकमात्र “स्मृतिचंद्रिका" में ही इनके 600 श्लोकों का उल्लेख है। जीवानंद संग्रह में कात्यायनकृत 500 श्लोकों का एक ग्रंथ प्राप्त होता है। यही ग्रंथ "कर्मप्रदीप" या "कात्यायनस्मृति" के नाम से विख्यात है। इस ग्रंथ के अनेक उदाहरण मिताक्षरा व अपरार्क ने भी दिये हैं। कात्यायनस्मृति लेखक कौन है, यह भी विवादास्पद विषय हुआ है। कास्थक्य - यह नाम निरुक्त में सात बार और बृहद्देवता में एक बार निर्दिष्ट है। इस निर्देश के आधार पर, कात्थक्य आचार्य, न केवल गण्यमान्य निरुक्तकार अपि तु बडे याज्ञिक भी होंगे ऐसा विद्वानों का तर्क है। कामंदक - प्राचीन भारतीय राज्यशास्त्र के एक प्रणेता एवं राज्यशास्त्र विषयक ग्रंथ "कामंदकनीति" के रचयिता। इनके समय निरूपण के संबंध में विद्वानों में मतैक्य नहीं। डा. अनंत सदाशिव आल्तेकर के अनुसार, "कामंदकनीति" का रचनाकाल 500 ई. के आसपास है। इस ग्रंथ में भारतीय राज्यशास्त्र के कतिपय लेखकों के नाम उल्लिखित हैं जिनसे इनके लेखन काल पर प्रकाश पडता है। मनु, बृहस्पति, इन्द्र, उशना, मय, विशालाक्ष, बाहुदंतीपुत्र, पराशर व कौटिल्य के उद्धरण, “कामंदकनीति" में यत्र तत्र प्राप्त होते हैं। इससे स्पष्ट है कि इस ग्रंथ की रचना कौटिल्य के बाद ही हुई होगी। कामंदक ने अपने ग्रंथ में स्वीकार किया है कि इस ग्रंथ के लेखन में कौटिल्य के “अर्थशास्त्र" की विषयवस्तु का आश्रय ग्रहण किया गया है। "कामंदकनीति" की रचना 19 सर्गों में हुई है। इस ग्रंथ में 1163 श्लोक हैं। ग्रंथारंभ में विद्याओं का वर्गीकरण करते हुए उनके 4 विभाग किये गए हैं। आन्वाक्षीकी, त्रयी, वार्ता व दंडनीति। इसमें बताया गया है कि नय (न्याय) व अनय का सम्यक् बोध करानेवाली विद्या को दंडनीति कहते हैं। इसमें वर्णित विषयों की सूची इस प्रकार है :- राज्य का स्वरूप, राज्य की उत्पत्ति का
सिद्धान्त, राजा की उपयोगिता, राज्याधिकारविधि, राजा का आचरण, राजा के कर्तव्य, राज्य की सुरक्षा, मंत्रिमंडल, मंत्रिमंडल की सदस्यसंख्या, कार्यप्रणाली, मंत्र का महत्त्व, मंत्र के अंग, मंत्र के भेद, मंत्रणा-स्थान, राजकर्मचारियों की आवश्यकता, राजकर्मचारियों के आचार व नियम, दूत का महत्त्व, योग्यता, प्रकार व कर्तव्य, चर व उसकी उपयोगिता, कोश का महत्त्व, आय के साधन, राष्ट्र का स्वरूप व तत्त्व, सैन्य, बल, सेना आदि के अंग। कामंदककृत विविध राज मंडलों के निर्माण का वर्णन भारतीय राज्यशास्त्र के इतिहास में, अभूतपूर्व देन के रूप में स्वीकृत है। कामाक्षी - तंजौर जिले के गणपति अग्रहार की निवासी। पंचपागेशाचार्य की कन्या। कालिदास के अनुकरण पर रचना "रामचरितम्" जिसमें कालिदास के शब्द तथा वाक्यों का प्रचुर प्रयोग है। पति- विद्वान् मुथुकृष्ण। कडलोर में संस्कृत की प्राध्यापिका। समय 19 वीं शती। समस्त लेखन कार्य वैधव्यावस्था में हुआ। सभी कृतियां प्रकाशित हो चुकी हैं। कालनाथ- ई. 12 वीं शती। यजुर्मन्जरी के लेखक। यजुर्मन्जरी, यजुर्विधानान्तर्गत लगभग 250 मंत्रों का भाष्य है। कालनाथाचार्य ने अपने ग्रंथ में अपना परिचय दिया है। तदनुसार वे महाराज देवराजा के सभापण्डित और पंचनद के निवासी थे। संभवतः यह स्थान राजस्थान समीपवर्ती होगा ऐसा विद्वानों का तर्क है। यजुर्मंजरी, उवटभाष्य की छायामात्र प्रतीत होती है। कालहस्ती- "वसुचरित्रचंपू' नामक काव्य के रचियता। ये अप्पय दीक्षित के शिष्य कहे जाते हैं। समय 17 वीं शती। “वसुचरित्रचंपू' अभी तक अप्रकाशित है। उसका विवरण तंजौर कैटलाग संख्या 4/46 में प्राप्त होता है। कालिदास- महाकवि कालिदास संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ कवि व नाटककार तथा भारतीय साहित्य और प्राचीन भारतीय अंतरात्मा के प्रतिनिधि हैं। भारतीय सौंदर्य-दर्शन की सभी विभूतियां इनके साहित्य में समाहित हो गई हैं। ऐसे सुप्रसिद्ध कवि का जीवनचरित्र अद्यापि अनुमान का विषय बना हुआ है। महाकवि ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर जो विचार व्यक्त किये हैं, उनसे उनकी प्रकृति का पता चलता है। अपने "रघुवंश"महाकाव्य के प्रथम सर्ग में कवि ने अपनी विनम्र प्रकृति का परिचय दिया है। अपनी प्रतिभा को हीन बताते हुए महाकवि, रघु जैसे तेजस्वी कुल के वर्णन में स्वयं को अमर्थ पाते हैं
और छोटी नाव द्वारा सागर को पार करने की तरह अपनी मूर्खता प्रदर्शित करते है (1/2-4)। कवि, विद्वानों की महत्ता स्वीकार करते हुए, उनकी स्वीकृति पर ही अपनी रचना को सफल मानता हैं (शाकुंतल 1/2)। कवि होने पर भी उनमें आलोचक की प्रतिभा विद्यमान है। वे प्रत्येक प्राचीन वस्तु को इसलिये स्तुत्य नहीं मानते कि वह पुरानी है और न नये
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पदार्थ को केवल नवीनता के कारण बुरा मानते हैं ( मालविकाग्निमित्र 1/2 ) ।
अनेक व्यक्तियों ने कालिदास की प्रशस्तियां की हैं, तथा अनेक ग्रंथों में उनकी प्रशंसा के पद्य प्राप्त होते हैं। उदा.राजशेखर, दंडी, बाण (हर्षचरित 1/16), तिलक मंजरी (25), आर्या- सप्तशती (35), सोड्डल, कृष्णभट्ट, सोमेश्वर, श्रीकृष्ण कवि, भोज व सुभाषितरत्नभांडागार (2/19, 2/21)। इनके सुप्रसिद्ध काव्य "मेघदूत" के तिब्बती तथा सिंहली भाषा में प्राचीन काल में ही अनुवाद हो चुके हैं। कालिदास उपमा-सम्राट् माने जाते है- (उपमा कालिदासस्य") और कविकुलगुरु तथा कविताकामिनी के विलास जैसे दुर्लभ उपाधियों से भूषित हैं।
कालिदास के जीवन व जन्म तिथि के बारे में विद्वानों का एकमत नहीं इसके कई कारण बताये गए हैं। स्वयं कवि का अपने विषय में कुछ भी न लिखना, इनके नाम पर कई प्रकार की किंवदंतियों का प्रचलित होना तथा कृत्रिम नामों का जुड़ जाना और कालांतर में संस्कृत साहित्य में "कालिदास " नाम की उपाधि हो जाना। किंवदंतियों के अनुसार ये अपने जीवन के प्रारंभिक वर्षों में कमूर्ख थे, तथा आगे चलकर देवी काली की कृपा से ये महान् पंडित बने। किंवदंतियां इन्हें विक्रम की सभा का रत्न व भोज की राजसभा का कवि भी बतलाती है।
इनके बारे में लंका में भी एक जनश्रुति प्रचलित है। तदनुसार लंका के राजा कुमारदास की कृति "जानकीहरण" की प्रशंसा करने पर ये राजा द्वारा लंका बुलाए गए थे। इसी प्रकार इन्हें "सेतुबंध" महाकाव्य के प्रणेता प्रवरसेन का मित्र कहा जाता है एवं मातृकेट से वे अभित्र माने जाते हैं। इनके जन्म-स्थान के बारे में भी यही बात है। कोई इन्हें बंगाली, कोई काश्मीरी, कोई मालव-निवासी, कोई मैथिल, एवं कोई बक्सर के पास का रहने वाला बतलाता है। कालिदास की कृतियों में उज्जैन के प्रति अधिक आत्मीयता प्रदर्शित की गई है। अतः अधिकांश विद्वान इन्हें मालव निवासी मानने के पक्ष में हैं। इधर विद्वानों का झुकाव इस तथ्य की और अधिक है कि इनकी जन्मभूमि काश्मीर व कर्मभूमी मालवा थी पद्मभूषण म.म. डॉ. मिराशी विदर्भ प्रदेश से भी इनका संबंध जोडते हैं।
कालिदास के स्थिति-काल को लेकर भारतीय व पाश्चात्य पंडितों में अत्यधिक वाद-विवाद हुआ है। इनका समय ईसा पूर्व प्रथम शताब्दी से लेकर ई. छठी शताब्दी तक माना जाता रहा है। परंपरागत अनुश्रुति के अनुसार महाकवि कालिदास, सम्राट् विक्रमादित्य के नवरलों में से एक थे। इनके ग्रंथों में भी विक्रम के साथ रहने की बात सूचित होती है। कहा जाता है कि कालिदास के "शांकुतल" का अभिनय विक्रम की "अभिरूप-भूयिष्ठा" परिषद में ही हुआ था। "विक्रमोर्वशीय
नाटक में भी "विक्रम" का नाम उल्लिखित है । "अनुत्सेकः खलु विक्रमालंकारः " इस वाक्य से भी ज्ञात होता है कि कालिदास का विक्रम से संबंध रहा होगा अभिनंदकृत "रामचरित महाकाव्य" के "ख्यातिं कामपि कालिदासकृतयो नीताः शंकारातिना " इस कथन से भी विक्रम के साथ महाकवि के संबंध की पुष्टि होती है। इससे स्पष्ट होता है कि कालिदास शकाराति अर्थात् शक आक्रान्ताओं को परास्त करने वाले विक्रम की सभा में रहे होंगे।
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कालिदास के समय निरूपण के बारे में तीन मत प्रधान हैं- (क) कालिदास का आविर्भाव षष्ठ शतक में हुआ था, (ख) इनकी स्थिति गुप्तकाल में थी और (ग) विक्रम संवत् के आरंभ में ये विद्यमान थे। प्रथम मत के पोषक फर्ग्युसन प्रभृति विद्वान हैं। इनके मतानुसार मालवराज यशोधर्मा के समय में कालिदास विद्यमान थे। इन्होंने छठी शताब्दी में हूणों पर विजय प्राप्त कर, उसकी स्मृति में 600 वर्ष पूर्व की तिथि देकर मालव संवत् चलाया था। यही संवत् आगे चलकर विक्रम-सवंत् के नाम से प्रचलित हुआ । इन विद्वानों ने "रघुवंश" में वर्णित हूणों की विजय के आधार पर कालिदास का समय छठी शताब्दी माना है
तत्र हूणावरोधानां भर्तृषु व्यक्तविक्रमम् । कपोलपाटलादेशि बभूव रघुचेष्टितम् ।1 (4/66)
पर यह मत अमान्य हो गया है क्यों कि कुमारगुप्त की प्रशस्ति के रचियता वत्सभट्टि (473 ई.) की रचना में कालिदासकृत "ऋतुसंहार" के कई पद्यों का प्रतिबिंब दिखाई देता है।
द्वितीय मत के अनुसार कालिदास गुप्त काल में हुए थे। इसमें भी दो मत हैं- एक के अनुसार वे कुमारगुप्त के राजकवि थे, और द्वितीय मतानुसार इन्हें चन्द्रगुप्त द्वितीय का राजकवि माना जाता है। प्रो. के. बी. पाठक ने इन्हें स्कंदगुप्त विक्रमादित्य का समकालीन कवि माना है। इनके अनुसार वल्लभदेवकृत निम्न श्लोक ही इस मत का आधार है"विनीताध्वश्रमास्तस्य सिंधुतीरविचेष्टनैः । दुधुवुर्वाजिनः स्कंधांल्लग्नकुंकुमकेसरान्।।"
पाश्चात्य विद्वानों ने इन्हें शकों को पराजित कर भारत से बाहर खदेड़ने वाले चन्द्रगुप्त द्वितीय का राजकवि माना है। "रघुवंश" के चतुर्थ सर्ग में वर्णित रघु-विजय, समुद्रगुप्त की दिग्विजय से साम्य रखती है तथा इंदुमती के स्वयंवर में प्रयुक्त उपमा के वर्णन में चन्द्रगुप्त के नाम की ध्वनि निकलती है। पर यह मत भी नहीं टिक पाता क्यों कि द्वितीय चन्द्रगुप्त प्रथम विक्रमादित्य नहीं थे और इनसे भी पहले प्राचीन मालवा में राज्य करने वाले एक विक्रम का पता लग चुका है। अतः कालिदास की स्थिति गुप्तकाल में नहीं मानी जा सकती। तृतीय मत के अनुसार कालिदास ईसा पूर्व प्रथम शती
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के माने जाते हैं। वे विक्रमादित्य के नवरत्नों में प्रमुख माने द्वितीय सर्ग में सुदक्षिणा व दिलीप के उदात्त स्वरूप के चित्रण गए हैं। हाल की "गाथासप्तशती" में विक्रम नामक दानशील में मानवचरित्र के अंतःसौंदर्य की अभिव्यक्ति हुई है। रघुवंश राजा का उल्लेख प्राप्त होता है (5/64) । स्मिथ के अनुसार के इंदुमती-स्वयंवर में दीप-शिखा की अपूर्व उपमा के कारण इसका रचना-काल 70 ई. के आसपास है। विद्वानों ने विक्रम कवि, “दीपशिखा-कालिदास" के नाम से विख्यात हो गये है। का समय ईसा से एक सौ वर्ष पूर्व माना है। इन्हीं विक्रमादित्य कालिदास ने जहां नागरिक जीवन की समृद्धि व विलासिता को "शकारि" की उपाधि प्राप्त हुई थी। ईसा के 150 वर्ष का चित्रण किया है वहीं तपोनिष्ठ साधकों के पवित्र वास-स्थानों पूर्व, शकों के भारत पर आक्रमण का विवरण प्राप्त होता का भी स्वाभाविक चित्र उपस्थित किया है। कवि का मन है। अतः इससे "शकारि" उपाधि की संगति में भी कोई
जितना उज्जयिनी, अलका व अयोध्या के वर्णन में रमा है, बाधा नहीं पड़ती। भारतीय विद्वानों ने इस विक्रम को ऐतिहासिक उससे कम आसक्ति पार्वती की तपनिष्ठा व कण्व ऋषि के व्यक्ति मान कर उनकी राजसभा में कालिदास की उपस्थिति आश्रम-वर्णन में नहीं दिखाई पडती । स्वीकार की है। अभिनंद ने अपने "रामचरित" में इस बात
कालिदास रसनिष्ठ कलाकार हैं। वे प्रधानतः श्रृंगार रस का उल्लेख किया है कि कालिदास की कृतियों को शकारि
की और आकर्षित हैं किन्तु अज-विलाप, रति-विलाप व यक्ष द्वारा ख्यातिप्राप्त हुई थी।
के अश्रु-सिक्त संदेश-कथन में करुणा का श्रोत उमड़ पडता कालिदास के आश्रयदाता विक्रम का नाम महेंद्रादित्य था। है। अज-विलाप व रति-विलाप में अतीत की प्रणय-क्रीडा कवि ने अपने नाटक "विक्रमोर्वशीय" में अपने आश्रयदाता की मधुर स्मृति के चित्र रह-रह कर पाठकों के हृदय की के इस नाम का संकेत किया है। बौद्धकवि अश्वघोष ने, तारों का झंकृत कर देते हैं। जिनका समय विक्रम का प्रथम शतक है, कालिदास के अनेक
एक सफल नाटककार होने के कारण कालिदास ने अपने पद्यों का अनुकरण किया है। इससे कालिदास का समय,
दोनों प्रबंधकाव्यों में नाटकीय संवादों का अत्यंत कुशलता के विक्रम संवत् का प्रथम शतक सिद्ध होता है। कालिदास को साथ नियोजन किया है। दिलीप-सिंह-संवाद, रघु-इन्द्र-संवाद, उत्तरकालीन मानने वाले विद्वान, कालिदासद्वारा अश्वघोष का
व पार्वती-ब्रह्मचारी-संवाद, उत्कृष्ट संवाद-कला का निदर्शन अनुकरण मानते हैं।
करते हैं। कालिदास को 7 कृतियां प्रसिद्ध हैं जिनमें 4 काव्य तथा
कालिदास ने अपने ग्रंथों में स्थान-स्थान पर समस्त भारतीय 3 नाटक हैं। ऋतुसंहार, कुमारसंभव, मेघदूत, रघुवंश,
विद्या के प्रौढ अनुशीलन का परिचय दिया है। इनकी राजनैतिक मालविकाग्निमित्र, विक्रमोर्वशीय व अभिज्ञान-शाकुंतल। इन
व दार्शनिक एवं सामाजिक मान्यताएं ठोस आधार पर अधिष्ठित कृतियों द्वारा कालिदास भारतीय संस्कृति के रसात्मक व्याख्याता
हैं। इन्होंने जीवन के शाश्वत एवं सार्वभौमिक तत्त्वों का रसात्मक सिद्ध होते हैं। भारतीय संस्कृति के 3 महान विषयों- तप,
चित्र प्रस्तुत कर वास्तविक अर्थ में “विश्वकवि" की उपाधि तपोवन व तपस्या, का इन्होंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
प्राप्त की है। शाकुंतल, रघुवंश व कुमारसंभव में इन तीनों का उदात्त रूप
कालिदास विषयक कथाएँ अंकित है। कालिदास के काव्य में भारतीय सौंदर्य-तत्त्व का उत्कृष्ट रूप चित्रण हुआ है। मनुष्य एवं प्रकृति दोनों का मधुर
कालिदास का कोई अधिकृत चरित्र उपलब्ध नहीं है। संपर्क व अद्भुत एकरसता दिखा कर कवि ने प्रकृति के
प्राचीन साहित्यिकों में कालिदास-विषयक जो भी कुछ कथाएं भीतर स्फुरित होने वाली हृदय संवेदना को पहचाना है। इनके .
प्रचलित हैं, वे ही उस महाकवि का चरित्र है। बल्लालकवि अधिकांश प्रकृति-वर्णन, स्वाभाविकता से पूर्ण व रसमय हैं।
कृत "भोज-प्रबंध" में कालिदास-विषयक विविध दन्तकथाएं कवि ने प्रकृति को भावों का आलंबन बना कर उसके द्वारा
संकलित की गई हैं जिनसे उनके व्यक्तित्व के कुछ पहलुओं रसानुभूति कराई है। कुमारसंभव व शाकुंतल में पशुओं पर
का परिचय हो सकता है। उनमें से कुछ कथाएं संक्षेप में प्रकृति के मादक एवं करुण प्रभाव का निदर्शन हुआ है।
यहां दी जा रही हैं :कुमारसंभव तो मानों कवि की सौंदर्य-चेतना की रमणीय
कालिदास कथा- १ (विवाह) ब्राह्मण-कुल में उत्पन्न रंगशाला ही है। इसमें कवि ने हिमालय को जड सृष्टि का
कालिदास के माता-पिता उसे बाल्यकाल में ही छोड़ कर चले रूप न देकर, “देवतात्मा" कहा है जहां पर सभी देवता
गए। एक ग्वाले ने उसे पाल-पोस कर बडा किया। वह आकर निवास करते हैं।
अठारह वर्ष की आयु तक अनपढ एवं जडबुद्धि ही था।
स्थानीय राजा की कन्या सुन्दर, सुविद्य तथा कलाभिज्ञ थी। ___ कालिदास भारतीय सांस्कृतिक चेतना के पुनर्जागरण के
उसके विवाह के लिये उसके पिता ने कई वर देखे पर उस कवि है। इनकी कलात्मक कविता में प्रेम, सौंदर्य व मानवता
कन्या को एक भी पसन्द न आया। तब राजा ने ऊब कर को उन्नत करनेवाले भावों की अभिव्यक्ति हुई है। रघुवंश के
वरसंशोधन का कार्य अपने प्रधान को सौंपा। किसी कारणवश
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राजकन्या से असंतुष्ट प्रधान ने उसे नीचा दिखाने के लिये, से त्रिपुरारि भगवान् शंकर का भी पौरुष आधा रह गया कालिदास को ही वर बनाना चाहा। तदनुसार दरबार में (अर्धनारी-नटेश्वर)। राजा ने इस पर प्रसन्न होकर महाकवि कालिदास अच्छे वस्त्र पहने हुआ तथा पण्डित-मण्डली ने घिरा को लक्ष सुवर्ण-मुद्राओं से पुरस्कृत किया। हुआ प्रविष्ट हुआ। कन्या ने यह जानकर कि वह महापण्डित
कालिदास कथा-4 (देशत्याग) कालिदास कविमण्डल में अपने शिष्यों के साथ उपस्थित है, उसका सुंदर रूप देखा सर्वश्रेष्ठ होते हए भी उनका वेश्यागमन ध्यान में रखते हुए तथा शिष्यों से बातचीत कर, उसकी परीक्षा ली। मोनी पण्डित राजा भोज मन में खिन्न थे। राजा का अभिप्राय जानकर को, जिसके रूप में कालिदास उपस्थित था, बडा विद्वान् जान कालिदास भी अपने प्रति अवज्ञा का अनुभव करते हुए कर, उसने अपने विवाह के लिये चुना।
राजसभा में उपस्थित नहीं हुए। तब भोज ने उन्हें बुलवाया ___परन्तु विवाह के पश्चात् शीघ्र ही भंडाफोड होकर यह सत्य तथा बड़े आदर से बैठाया। यह देख अन्य पण्डितों को ईर्ष्या उसने जाना कि कालिदास निरा मूर्ख है। विवाह होने से वह हुई। उन्होंने आपस में चर्चा कर अन्तःपुर की एक दासी को कुछ कर भी न पाई। अन्त में राजकन्या ने उसे काली की धन दान से संतुष्ट कर, उसके द्वारा कालिदास के रानी उपासना कर, विद्या प्राप्त करने को कहा। कालिदास भी उग्र लीलावती के साथ अवैध सम्बन्ध की झूठी वार्ता राजा तक तपस्या में जुट गया तथा देवी को प्रसन्न न होते देख अपना पहुंचा दी। राजा ने सत्य जानने के लिए स्वयं अस्वस्थ होने शीष देवी को अर्पण करने को सिद्ध हुआ। यह देख देवी का बहाना कर रानी से पथ्य-भोजन मंगवाया। रानी ने मूंग प्रसन्न हुई। उसने उसके सिर पर वरद-हस्त रखा। तब से दाल की खिचडी राजा के सम्मुख रखी। बिना छिलके की वह विद्वान् तथा प्रतिभासंपनन कवि हुआ और हुआ "कालिदास' मूंगदाल देख कर राजा ने कालिदास से पूछा- "मुद्गदाली के नाम से प्रसिद्ध ।
गदव्याली कवीन्द्र वितुषा कथम्"। कालिदास ने त्वरित उत्तर कालिदास कथा-2 (काव्य-रचना की प्रेरणा) कालीदेवी दिया- "अन्धोवल्लभसंयोगाज्जाता विगतकंचुकी' (अन्नरूप से कृपा-प्रसाद पाकर कालिदास जब घर लौटा, तब उसकी वल्लभ से मिलने के कारण यह विगतकंचुकी हुई है)। यह पत्नी ने उसे पूछा- “अस्ति कश्चिद् वाग्-विशेषः' (आपकी सुनकर रानी लीलावती मुस्कुराई। इससे राजा को अवैध संबंध वाणी में कुछ बदल हुआ)। प्रश्न सुन कर, जिसकी वाणी . के प्रति विश्वास हो गया तथा उसने कालिदास को अपना देवी के प्रसाद से पुनीत हुई थी उस कालिदास ने, धारावाहिक देश छोड जाने का आदेश दिया। कालिदास के चले जाने रूप से उस प्रश्न-वाक्य का एक-एक शब्द लेकर, उससे पर जब रानी को कारण ज्ञात हुआ, तो उसने तीन प्रकार से प्रारम्भ कर, दो महाकाव्य तथा एक खण्डकाव्य की रचना दिव्य कर अपनी शुद्धता राजा के सम्मुख सिद्ध की। तब करते हुए अपनी पत्नी को सुनाया। “अस्ति" शब्द से पश्चाताप से दग्ध राजा कालिदास के लिये विलाप करने लगे। कुमारसम्भव प्रारम्भ हुआ। “कश्चित्" शब्द से मेघदूत प्रारम्भ फिर उन्होंने अपनी सभा में समस्या रखकर उसकी पूर्ति के हुआ, तथा वाग्विशेष के "वाक्" से रघुवंश- महाकाव्य प्रसृत
लिये कविवृन्द को सात दिन का समय दिया। कविमण्डल हुआ। इस अद्भुत काव्यस्त्रोत तथा प्रवाह से राजपुत्री स्तिमित ने पूर्ति करने में अपने को असमर्थ पाकर नगरी छोड कर हो गई। परन्तु जिसकी प्रेरणा से उसे यह सिद्धि प्राप्त हुई अन्यत्र जाना निश्चित किया। कालिदास ने यह जान कर उनके थी उस अपनी पत्नी को, वह माता तथा गुरु मानने लगा। सम्मुख समस्या-पूर्ति कर दी। तब एक कवि ने राजा के पास इस नए रिश्ते से उसकी पत्नी बडी असंतुष्ट हुई तथा क्रोध वह समस्यापूर्ति रख उसे स्वयं की रचना बताया। किन्तु राजा से उसने शाप दिया कि उसकी मृत्यु किसी स्त्री के ही हाथों ने कालिदास की ही रचना जान कर उन्हें खोज निकाला तथा होगी। इस प्रकार भिशप्त होकर. कालिदास का जीवनप्रवाह स्वयं जाकर उन्हें वे सम्मानपूर्वक अपने साथ वापस ले आए। नए रूप से प्रसृत हुआ तथा उसका अधिकतर समय वेश्याओं कालिदास के पुनरागमन से राज-सभा काव्यगोष्ठी से पुनः के सहवास में बीतने लगा।
चमक उठी। कालिदास कथा-3 (वेश्यासक्ति) कालिदास की वेश्या कालिदास कथा-5 (एकशिलानगरी में) एक बार श्रीशैल -लंपटता के कारण राजा भोज की सभा के सभी पंडित उनसे से कोई ब्रह्मचारी राजसभा में आया। उसकी अल्प आयु देख घृणा करने लगे। राजा भी इससे बडे चिन्तित हुए। एक कर राजा प्रभावित हुए। उनकी क्या सेवा की जावे यह पूछा। समय सभा में बैठे राजा के मन में विचार आया- “यह ब्रह्मचारी ने कहा- “राजन्, हम वाराणसी जा रहे हैं। रास्ते प्रज्ञावान् कवि वेशागमन जैसा प्रमाद करता है, यह सर्वथा में मनोविनोद के लिये काव्यगोष्ठी के लिये आपके पण्डितवृंद अनुचित है"। कालिदास ने राजा का मानस जानकर कहा- . सपत्नीक हमारे साथ प्रस्थित हों"। राजा ने तदनुसार आदेश अनंग कामदेव की चंचलता से देवता भी प्रभावित हैं, फिर दिया। राजसभा के सभी पण्डित ब्रह्मचारी के साथ गए। मनुष्यों की क्या कथा। देखिये न, इस दहनशील कामविकार अकेले कालिदास नहीं गए। उन्हे कारण पूछने पर उन्होंने
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 293
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कहा- "राजन्, काशीतीर्थ को वे लोग ही जाते है, जो भगवान् शंकर से दूरवर्ती हों। जिसके हृदय में ही उमापति का निवास हो उसके लिये वही बड़ा तीर्थ है।"
पण्डितों के काशी क्षेत्र की ओर प्रयाण करने के बाद राजा ने कालिदास से पूछा- "तुमने आज कोई वार्ता सुनी।" कालिदास ने "हां" कहते हुए कहा- "मेरु-मन्दार की गुफाओं में, हिमालय पर महेन्द्राचल पर, कैलास के शिलातल पर, मलय पर्वत के अन्यान्य भागों पर तथा सहयाद्रि पर भी चारणगण आपका ही यशोगान करते हैं ऐसा मैने सुना है"। यह उत्तर सुनकर राजा बहुत प्रसन्न हुए तथा कालिदास को विशेष धन देकर पुरस्कृत किया। फिर भी ब्रह्मचारी के साथ कालिदास के न जाने से भोज ने सोचा कि यह कवि वेश्यालंपट होने से ही मेरी आज्ञा का उल्लंघन कर, नहीं गया। इस विचार से उन्होंने आत्मग्लानि का अनुभव किया तथा कालिदास की अवज्ञा की। तब कालिदास तुरन्त धारा नगरी से प्रस्थान कर एकशिला नगरी के राजा बल्लाल की सभा में पहुंचे। वहां अपना परिचय देकर उन्होंने राजा का यशोगान किया। उससे प्रसन्न होकर राजा ने उन्हें आश्रय दिया। एक बार राजा ने उन्हें एकशिला नगरी का वर्णन करने के लिये कहा। कालिदास ने एक श्लोक प्रस्तुत किया, जिसका
भाव था
"एकशिला नगरी में विचरण करनेवाले युवक स्वयं को पगपण पर बिना किसी अपराध के शृंखला - बद्ध पाते हैं क्यों कि वे हरिणी के समान नेत्रों वाली वहां की सुन्दरियों के कटाक्षों से अपने को पीडित पाते हैं यह सुनकर बल्लाल नृप बडे प्रसन्न हुए।
कालिदास कथा 6 (प्रत्यागमन) कालिदास के परदेशगमन से भोज बडे दुखी थे। राजा की खिन्नता तथा कृशता देख मंत्रियों ने सोचा कि कालिदास की वापसी से ही राजा प्रसन्न होंगे। सबकी मन्त्रणा से एक अमात्य बल्लाल राज्य में कालिदास के पास पहुंचा तथा उन्हें एक पत्र दिया। उसमें था
"हे कोकिल, आम्रवृक्ष पर चिरनिवास कर अन्य वृक्ष का आश्रय लेते तुम लज्जित नहीं होते। तुम्हारी वाणी तो आम्रवृक्ष पर ही शोभा देती है, न कि खैर या पलाश जैसे झाड़ों पर।"
कालिदास ने पत्र पढा तथा राजा की अवस्था सुनी। फिर बल्लालनुपति से बिदा लेकर वे तुरंत मालय देश वापिस आए। राजा भोज ने अपने परिवार के साथ उनका स्वागत किया। कालिदास कथा-7 (भोजो दिवं गतः) एकबार भोज ने कालिदास से कहा- "मेरी मृत्यु का वर्णन करो" । तब कालिदास क्रुद्ध हो गए। उन्होंने राजा की निन्दा की और उनकी वेश्या विलासवती के साथ वे एकशिला नगरी को चले गए। कालिदास के विरह से उद्विग्न तथा त्रस्त राजा भी उन्हें
294 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
खोजने के लिये, कापालिक का वेश धारण कर, निकल पडे। घूमते-घूमते वे एकशिला नगरी में प्रविष्ट हुए कालिदास ने कापालिक को देखकर विनय से पूछा- "हे योगिराज, आपका निवास कहां है।" योगी ने बताया- “हम धारानगरी में रहते हैं"।
तब कालिदास ने भोज की कुशल पूछी। योगी ने बताया"भोजो दिवं गतः " यह सुनते ही कालिदास भूमि पर गिर पडे तथा विलाप करने लगे। उनके मुख से श्लोक प्रस्फुटित हुआ
"अद्य धारा निराधारा । निरालम्बा सरस्वती । पण्डिताः खण्डिताः सर्वे । भोजराजे दिवं गते । । "
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श्लोक सुन योगी संज्ञाहीन होकर गिर पडा । उसे होश में लाने के प्रयास में कालिदास ने उन्हें पहचान लिया कि वह भोज ही है। होश में आने पर उनसे कहा "आपने मेरी वंचना की। फिर उक्त श्लोक को उन्होंने निम्न रूप दिया
"अद्य धारा सदाधारा । सदालम्बा सरस्वती । पण्डिता मण्डिताः सर्वे । भोजराजे भुवं गते ।। "
प्रसन्न हुए भोज ने उन्हें आलिंगन दिया और उन्हें साथ लेकर धारानगरी को प्रस्थित हुए। कालिदास कथा-8 (कुन्तलेश्वर दौत्य) चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य की कन्या प्रभावती का विवाह वाकाटक राजा द्वितीय रुद्रसेन से हुआ था। राजा की मृत्यु के पश्चात् रानी प्रभावती ने अपने अल्पवयीन पुत्र को गद्दी पर बैठाया, तथा वह स्वयं कारोबार देखने लगी। उसके शासन का हाल जानने के लिये चन्द्रगुप्त ने कालिदास को विदर्भ भेजा। जब कालिदास वहां की राजसभा में उपस्थित हुए तो उन्हें उचित स्थान पर नहीं बैठाया गया। तब वे भूमि पर बैठ गए। सभासदों के हंसने पर उन्होंने भूमि का महत्त्व वर्णन किया- 'मेरु पर्वत तथा सप्त सागर इस भूमि पर ही स्थित हैं, तथा इसे शेष नाग ने अपने सिर पर धारण किया है। इस लिये मेरे समान लोगों के बैठने के लिये यही योग्य स्थान है।" तब कालिदास का उचित सम्मान हुआ। लौटकर चन्द्रगुप्त को उन्होंने बताया"हे राजन, कुन्तलेश्वर (प्रवरसेन द्वितीय) अपने शासन का सारा भार आपके ऊपर डाल कर, स्वयं विलास में मग्न हैं।" कालिदास द्वारा यह जान कर चन्द्रगुप्त ने कहा कि प्रवरसेन ऐसा ही करें। यह ठीक है।
"पिबतु मधुसुगन्धीन्याननानि प्रियाणाम्। मयि विनिहितभारः कुन्तलामधीशः ।। " कालिदास कथा - 9 (लीलापुरुष) एक बार राजा भोज के सिर में दर्द प्रारंभ हुआ। उपचारों से कम होने के बदले, वह अधिकाधिक बढता गया। राजवैद्यों के उपचार निरर्थक
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हुए देख आयुर्वेद पर से भोज का विश्वास अत्यंत शिथिल योगे वियोगे दिवसोङ्गनाया हुआ। तब अश्विनीकुमार ब्राह्मण-वेश धारण कर, आयुर्वेद में अणोरणीयान् महतो महीयान्।।" विश्वास की पुनः स्थापना करने के लिये स्वर्ग से उपस्थित आशय "में यज्ञोपवीत हाथ में लेकर शपथपूर्वक कहता हुए। उन्होंने शल्य-चिकित्सा द्वारा सिरदर्द का मूल कारण नष्ट हूं कि अङ्गना के सहवास में दिन छोटे से छोटा उसके कर राजा को स्वस्थ तथा आश्वस्त किया। प्रसन्न होकर राजा वियोग में बड़े से बड़ा होता है।" ने पथ्य पूछा। उन्होंने बताया
यह पूर्ति सुन, विरोधी सभ्य भी कालिदास का आदर करने लगे। ___ "मनुष्यों के लिये पथ्य उष्ण जल से स्नान, दुग्धपान तथा
कालिदास कथा - (12) (प्रत्युत्पन्न बुद्धि) - एक बार कुलीन स्त्रियों से संगत और--1" "मनुष्य" का निर्देश सुनकर धनंजय कवि भोज की सभा में आए तथा राजा के सम्मुख राजा ने पूछा- "फिर, आप कौन है।" और उनका हाथ अपना श्लोक सुनाने को प्रस्तुत हुए। इतने में कालिदास ने पकड लिया। तब अन्तर्हित होते हुए वे बोले- “शेष भाग उनसे बातचीत करते हुए उनका लिखा श्लोक पढा। आशय कालिदास बतायेंगे। महाकवि ने तुरंत बताया "स्निग्धमुष्णं च
यह था - "माघ काव्य में 100 अपशब्द हैं, भारत में 300, भोजनम्"
तथा कालिदास के काव्य में अगणित अपशब्द है। अकेला आश्चर्य से चकित होकर राजा ने वह वृत्त सबको सुनाया। धनंजय ही ऐसा कवि है जिसके काव्य में अपशब्द नहीं है। तब सभी विस्मित हुए और कालिदास को "लीलापुरुष" मानने धनंजय के परोक्ष, कालिदास ने अपशब्द के बदले "आपशब्द" लगे।
कर दिया। इससे धनंजय के श्लोक पढने पर सारी सभा कालिदास कथा-10 (दीनसहायक) राजा भोज की सभा हंसने लगी। "आपशब्द" का अर्थ जलवाचक शब्द होता में कालिदास अपने पाण्डित्य तथा प्रतिभा का ही प्रदर्शन नहीं है। धनंजय कवि सभा में लज्जित हुये तथा यह कालिदास करते थे अपि तु दरिद्री, जडबुद्धि ब्राह्मणों को पुरस्कार भी की ही करतूत है जान गए। दिलाते थे। एक बार एक दरिद्र ब्राह्मण सभा में उपस्थित कालिदास कथा - (13) (असहाय के सहायक) - हुआ तथा पाण्डित्यप्रदर्शन के लिये पास कुछ भी न होने से, एक दरिद्ध मन्दबद्धि विप्र. मद्री भर चावल की पोटली लिये. केवल पुरुष सूक्त की प्रथम पंक्ति का उच्चार कर मौन खडा रहा- राजदर्शन के लिये धारा नगरी में आया। जब वह एक वृक्ष "सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात्"
. के नीचे विश्राम कर रहा था तब कुछ शरारती लोगों ने . यह सुन सारे सभ्य तथा राजा हंसने लगे। तब ब्राह्मण उसकी पोटली से चांवल निकाल लिये, तथा उसमें थोडे की दीन मुद्रा देखकर, कालिदास बोले- "चलितश्चकितश्छन्नस्तव कोयले रख दिये, विप्र को इस का पता नहीं चला। जब । सैन्ये प्रधावति" (हे राजन्, इस ब्राह्मण ने बड़ी खूबी से विप्र सभा में पहुंच कर राजा के सम्मुख पोटली खोलने लगा संक्षेप में आपकी स्तुति की है। जब आपकी सेना कूच करती तब कोयेले देख कर दंग रह गया। लज्जा से वह अधोवदन है, तब हजार सिर वाला शेषनाग विचलित होता है, इन्द्र हो गया। राजा भी बडे क्रुद्ध हुए। इस समय कालिदास उस चकित होता है। तथा सौ पैरों वाला सूर्य सेना के संचलन विप्र की सहायता को प्रस्तुत हो कहने लगे - "राजन्, क्रोध से उड़ने वाली धूलि से आच्छन्न हो जाता है। अपने मौन न करें। विप्र का आशय समझने की कृपा करें । उसका आशय है - का वैशिष्ट्यपूर्ण समर्थन देखकर दरिद्र ब्राह्मण कालिदास के अर्जुन ने खाण्डव वन जलाया, पर उसमें विद्यमान सारी पैरों पर गिर पडा। राजा ने भी उसे उचित द्रव्य प्रदान कर दिव्य औषधियां जल गई। हनुमान ने लंका जलाई पर वह बिदा किया।
जलने पर सोने की हो गई। भगवान शंकर ने कामदेव को कालिदास कथा - (11) (शृंगार-प्रवणता) - भोज राजा जलाया। यह उनकी कृति बडी अयोग्य थी। परन्तु लोगों को की सभा में कालिदास को नीचा दिखाने के लिये एक बार संताप देने वाले दारिद्रय जलाने हेतु यह विप्र आपके पास विरोधी सभ्यों ने उपनिषद्वाक्य ही समस्यारूप में प्रस्तुत किया, आया है।" यह सोच कर कि कालिदास की रचना शृंगारप्रचुर होती है,
विप्र की कृति का यह अद्भुत अर्थ जान कर सारे सभ्य जब कि इसकी पूर्ति में शृंगार नहीं आ सकता। अतः वे
आश्चर्य से चकित हुए तथा कालिदास की सराहना करने लगे। समस्यापूर्ति में हार जाएंगे। समस्या थी :
धन पाकर विप्र भी प्रसन्न हआ। अणोरणीयान्महतो महीयान्" (यह ब्रह्मवर्णन कठोपनिषत् में है)। कालिदास विद्याविनोद - "शिवाजीचरितम्" काव्य के
किंतु इसकी पूर्ति भी कालिदास ने शृंगार रस में ही इस लेखक। प्रस्तुत काव्य कलकत्ता संस्कृत-साहित्य-पत्रिका के 11 प्रकार कर दिखाई
वे अंक में कवि द्वारा प्रकाशित किया गया है। यज्ञोपवीतं परमं पवित्रम्।
कालीचरण वैद्य - ई. 19-20 शती। बंगाल के निवासी । करे गृहीत्वा शपथं करोमि ।
कृति-चिकित्सासारसंग्रह।
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कालीपद तर्काचार्य (म. म.) - समय 1888-1972 ई.। प्रखर वक्ता और सशक्त लेखक। छद्मनाम काश्यप कवि। जन्म फरीदपुर जिले के कोटलिपारा उनशिया ग्राम में। कान्यकुब्ज मिश्र। मधुसूदन सरस्वती तथा हरिदास सिद्धान्तवागीश के वंशज। पिता-सर्वभूषण हरिदास शर्मा । उच्च शिक्षा भाटपाडा में, म. म. पण्डित शिवचन्द्र सार्वभौम के पास। 1931 में कलकते के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में न्याय के प्राध्यापक। "तर्काचार्य", विद्यावारिधि", "तर्कालंकार" (शंगेरी मठ के शंकराचार्य द्वारा), “महाकवि" (हावडा संस्कृत पण्डित समाज द्वारा) को उपाधियों से विभूषित। 1941 में महामहोपाध्याय बने। 1961 में राष्ट्रपति द्वारा पाण्डित्य प्रशस्तिपत्र प्राप्त। 1972 में बदेवान वि.वि. से डी.लिट. उपाधि से सम्मानित। 1954 में सेवानिवत्ता अभिनय में रुचि। संस्कृत नाट्य प्रयोगों में इनकी चारुदत्त. चाणक्य, चन्दनदास, भीम, युधिष्ठिर, राम, कण्व, दुष्यन्त, विराट व दुर्योधन की भूमिकाएं सुविख्यात है।
कृतियां - (नाटक) - नलदमयन्तीय, माणवक-गौरव, प्रशान्त-रत्नाकर, स्यमन्तकोद्धार-व्यायोग।। महाकाव्य-सत्यानुभव, योगिभक्तचरित ।। काव्य-आशुतोषावदान, आलोक-तिमिर-वैर।। गद्य-मनोमयी। समालोचना-काव्यचिन्ता। दर्शन-न्यायपरिभाषा, जातिबाधक विचार, ईश्वरसमीक्षा, न्यायवैशेषिकतत्त्व-भेद। इनके अतिरिक्त आठ दर्शन ग्रंथों की आलोचना । पद्यानुवाद-रवीन्द्रप्रतिच्छाया, गीतांजलिच्छाया। बंगाली ग्रंथ-नवगीताच्छाया, चण्डीछाया तथा विविध पा और निबंध। . प्रणवपारिजात तथा संस्कृत-साहित्य-परिषत्-पत्रिका के आप संचालक-संपादक थे। "काश्यपकवि" उपनाम से कतिपय साहित्यिक निबंध। कालीप्रसाद त्रिपाठी - अयोध्या से 1930 से प्रकाशित "संस्कतम" नामक साप्ताहिक का आमरण संपादन किया। कार्णाजिनि - व्यास व जैमिनी से पूर्वकाल के वेदान्ती आचार्य। पुनर्जन्म के विषय में इनका मत है कि अनुशयभूत कर्मों के द्वारा प्राणियों का नयी योनियों में जन्म होता है। अनुशय का अर्थ है भोगे हुए कर्मों के अतिरिक्त शेष कर्म । इनके नाम पर एव, स्मृति ग्रंथ भी है। मिताक्षरा, अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका व श्राद्धविषयक ग्रंथों में इनकी स्मृतियों का उल्लेख है। काशकृत्स्र - एक प्राचीन वैयाकरण। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 3100 वर्ष वि.पू. है। इनके व्याकरण, मीमांसा व वेदान्त संबंधी ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। पातंजल "महाभाष्य" में इनके "शब्दानुशासन" नामक ग्रंथ का उल्लेख है - "पाणिनिना प्रोक्तं पाणिनीयम् आपिशलम् काशकृत्स्रम् इति।" महाभाष्य के प्रथम आह्निक में इनके ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है-काशकृत्स्र शब्दकलाप, धातुपाठ। संप्रति "काशकृत्स्र व्याकरण" के लगभग 140 सूत्र उपलब्ध हुए हैं।
काशिराज, प्रभुनारायण सिंह - शासनकाल 1889-1925 ई.। वेदान्त में प्रवीण। सूक्तिसुधा नामक संस्कृत पत्रिका में रचनाएं प्रकाशित । "पार्थपाथेय' नामक उपरूपक के प्रणेता। काशीकर चिं. ग. - पुणे निवासी। रचना - आयुर्वेदीय पदार्थविज्ञानम्। इसमें आयुर्वेद की पार्श्वभूमि विशद की गई है। आप पुणे विश्वविद्यालय द्वारा डी. लिट. (डाक्टर ऑफ लिटरेचर) इस उच्च उपाधि से विभूषित विद्वान हैं। वैदिक वाङ्मय के आप विशेषज्ञ माने गए हैं। काशीनाथ उपाध्याय - ई. 18 वीं शताब्दी के धर्मशास्त्रियों में इनका नाम अत्यंत महत्त्व का है। इन्होंने "धर्मसिंधसार" या “धर्माब्धिसार" नामक वृहद् ग्रंथ की रचना की है। ग्रंथ का रचना काल 1790 ई.। उपाध्यायजी का स्वर्गवास 1805 ई. में हुआ था। इनका जन्म महाराष्ट्र के रत्नागिरि जिले के अंतर्गत गोलवली नामक ग्राम में हुआ था। ये कहाडे ब्राह्मण थे। इनके द्वारा प्रणीत अन्य ग्रंथों के नाम हैं - "प्रायश्चित्तशेखर" व "विठ्ठल-ऋमंत्रभाष्य"। धर्मसिंधुसार 3 परिच्छेदों में विभक्त है व तृतीय परिच्छेद के भी दो भाग किये गये हैं। इस ग्रंथ की रचना “निर्णयसागर" के आधार पर की गई है। काशिनाथ शर्मा द्विवेदी ("सुधीसुधानिधि") - रुक्मिणीहरण महाकाव्य के प्रणेता। यह महाकाव्य 20 वीं शती के प्रसिद्ध महाकाव्यों में गिना जाता है। इसका प्रकाशन 1966 ई. में हुआ है। द्विवेदीजी वाराणसी के निवासी हैं। काशीपति - मैसूरनरेश कृष्णराज द्वितीय के प्रधान मंत्री नजराज (1739-59 ई.) का इन्हें समाश्रय प्राप्त था। कौण्डिन्यवंशी। आप न्यायशास्त्र के प्रकाण्ड पंडित और संगीत के भी मर्मज्ञ थे। कृतियां-मुकुन्दानन्द (मिश्र भाण) तथा श्रवणानन्दिनी व्याख्या (नंदराज लिखित "संगीतगंगाधर" की टीका। कापीरक महानंद यति - ई. 17 वीं शताब्दी के एक आचार्य। अद्वैतब्रह्मसिद्धि नामक ग्रंथ के रचयिता। यह ग्रन्थ अद्वैत दर्शन का एक प्रामाणिक ग्रन्थ माना जाता है जिसमें एकजीवत्व ही वेदान्त का प्रमुख सिद्धान्त है, इस विचार का विवेचन किया गया है। काश्यप - पाणिनि के पूर्व के एक वैयाकरण। समय 3000 वर्ष वि.पू. (पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार)। इनके मत के 2 उद्धरण "अष्टाध्यायी" में प्राप्त होते हैं। "तृषिमृषिकृषेः काश्यपस्य" 1/2/25 और "नोदात्तस्वरितोदयमगार्यकाश्यपगालवा नाम्" 8/4/67। "वाजयसनेयप्रातिशाख्य" में भी शाकटायन के साथ इनका उल्लेख है। "लोपं काश्यपशाकटायनौ" 4/5/| इनका व्याकरण ग्रंथ संप्रति अप्राप्य है। इनके अन्य ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है :
(1) कल्प :- कात्यायन (वार्तिककार) के अनुसार अष्टाध्यायी (4/3/103) में "काश्यपकल्प" का उल्लेख है, (2) छंदःशास्त्र :- पिंगल के "छंदःशास्त्र" में (7/9) काश्यप
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का मत दिया गया है कि इन्होंने तद्विषयक ग्रंथ की रचना की थी, (3) आयुर्वेदसंहिता-नेपाल :- के राजगुरु पं. हेमराज शर्मा ने "आयुर्वेद संहिता" का प्रकाशन सं. 1955 में कराया है। (4) पुराण :- “सरस्वती कंठाभरण' की टीका में "काश्यपीय पुराणसंहिता" का उल्लेख है (3/229) । "वायुपुराण" से पता चलता है कि इसके प्रवक्ता का नाम "अकृतव्रण काश्यप" था। काश्यपीय सूत्र-“न्यायवार्तिक" में (1/2/23) उद्योतकर ने कणादसूत्रों को "काश्यपीय सूत्र" के नाम से उद्धृत किया है। काश्यप भट्टभास्कर मिश्र - सामवेद के आर्षेय ब्राह्मण पर इन्होंने "सामवेदार्षेयदीप" नामक भाष्य लिखा था। काश्यप भट्ट सायणचार्य के समकालीन होंगे ऐसा प्रतीत होता है। किबे, गंगाधर दत्तात्रेय - मद्रकन्या-परिणयचंपू, शिवचरित्रचंपू तथा महानाटक- सुधानिधि नामक तीन ग्रंथों के प्रणेता। समय ई. 17 वीं शती का अंतिम चरण ये उदय परिवार के दत्तात्रेय के पुत्र थे। “मद्रकन्यापरिणयचंपू" अभी तक अप्रकाशित
कीर्तिवर्मा - चालुक्यवंशीय (सोलंकी) महाराज त्रैलोक्यमल्ल (सन् 1044-1068) के पुत्र । माता केतनदेवी जिसने शताधिक जैनमंदिरों का निर्माण कराया। कर्नाटक कार्यक्षेत्र। समय ई. 11 वीं शती। ग्रंथ- गोवैद्य (पशुचिकित्सा ग्रंथ)। गुरुनामदेवचन्द्र। आप योद्धा भी थे। किशोरीप्रसाद - रासपंचाध्यायी श्रीमद्भागवत का हृदय है। उस पर टीका लिखने का कार्य अनेक विद्वानों ने किया है। उनमें "विशुद्ध-रसदीपिका" के प्रणेता किशोरीप्रसाद का अपना विशेष स्थान है। "श्रीमद्भागवत के टीकाकार" नामक ग्रंथ में किशोरीप्रसाद को विष्णुस्वामी संप्रदाय का अनुयायी बताया गया है। किंतु आचार्य बलदेव उपाध्याय के मतानुसार ये राधावल्लभी संप्रदाय के वैष्णव संत थे। इस संप्रदाय की राधा- भावना का प्रभाव किशोरीप्रसाद की “विशुद्ध-रस-दीपिका" नामक पंचाध्यायी की टीका पर बहुत अधिक है। इस टीका में भक्तिमंजूषा, भक्तिभावप्रदीप, कृष्णयामल एवं राघवेन्द्र सरस्वती प्रणीत पद्य उद्धृत हैं। यह किशोरीप्रसादजी के भक्तिशास्त्रीय पांडित्य का प्रमाण है। कीथ ए. बी. - इनका पूरा नाम आर्थर बेरिडोल कीथ था। ये प्रसिद्ध संस्कृत प्रेमी आंग्ल विद्वान थे। इनका जन्म 1879 ई. में ब्रिटेन के नेडाबार नामक प्रांत में, और शिक्षा एडिनबरा व आक्सफोर्ड में हुई। ये एडिनबरा विश्वविद्यालय में संस्कृत एवं भाषाविज्ञान के अध्यापक 30 वर्षों तक रहे। इनका निधन 1944 ई. में हुआ। इन्होंने संस्कृत साहित्य के संबंध में मौलिक अनुसंधान किया है। इनका "संस्कृत साहित्य का इतिहास' अपने विषय का सर्वोच्च एवं प्रामाणिक ग्रंथ माना जाता है। इन्होंने संस्कृत साहित्य व दर्शन के अतिरिक्त
राजनीतिशास्त्र पर भी कई प्रामाणिक ग्रंथों की रचना की है, जिनमें अधिकांश संबंध का भारत से है। ये मेक्डोनल के शिष्य थे। इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ इस प्रकार है :
ऋग्वेद के ऐतरेय एवं कौषीतकी ब्राह्मण का दस खण्डों में अनुवाद (1920 ई.), शांखायन आरण्यक का अंग्रेजी अनुवाद (1922 ई.), कृष्णयजुर्वेद का दो भागों में अंग्रेजी अनुवाद (1924 ई.), हिस्ट्री ऑफ संस्कृत लिटरेचर (1928 ई.), वैदिक इंडेक्स (मेक्डोनल के सहयोग से), रिलीजन एण्ड फिलॉसाफी आफ् वेद एण्ड उपनिषदस्, बुद्धिस्ट फिलासाफी इन इंडिया एण्ड सीलोन और "संस्कृत ड्रामा" नामक ग्रंथ । कीलहान - डा. फ्रान्झ कीलहान मूलतया जर्मन नागरिक थे। कालखण्ड ई. स. 1840-1908 | संस्कृत भाषा व व्याकरण के प्रति विशेष रुचि। ई.स. 1866 में पुणे के कालेज में संस्कृत व प्राच्य भाषा के प्राध्यापक के रूप में नियुक्ति। “परिभाषेन्दुशेखर" का अंग्रेजी में अनुवाद कर इन्होंने पतंजलि के महाभाष्य की आवृत्ति का प्रकाशन किया। प्राचीन भारतीय शिलालेखों, ताम्रपटों आदि का अध्ययन कर इन्होंने गुप्तकाल के बाद के राजवंशों का कालक्रम निर्धारण किया तथा कलचुरि संवत् के आरम्भकाल की खोज की। तत्कालीन सरकार ने "एपिग्राफिका इंडिका" नामक त्रैमासिक इन्हीं की प्रेरणा से शुरु किया था। कुण्डिन - ई. 5 वीं शती। तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार । तैत्तिरीय संहिता से संबंधित काण्डानुक्रमणी ग्रंथ में लिखा है कि तैत्तिरीय संहिता के पदकार और वृत्तिकार कुण्डिन हैं। बौधायन गृह्यसूत्र में भी "कौण्डिन्याय वृत्तिकाराय" (कौण्डिन्य वृत्तिकार) ऐसा उल्लेख है। कुन्तक (कुंतल) • समय ई.स. 925-1025। साहित्य शास्त्रीय “वक्रोक्तिजीवित” नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ के प्रणेता। इसमें वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मान कर उसके भेदोपभेद का विस्तारपूर्वक विवेचन है। कुंतक ने अपने ग्रंथ में "ध्वन्यालोक" की आलोचना की है और ध्वनि के कई भेदों को वक्रोक्ति में अंतर्भूत किया है। महिमभट्ट ने इनके एक श्लोक में अनेक दोष दर्शाए हैं। इससे ज्ञात होता है कि ये आनंदवर्धन और महिमभट्ट के मध्य में हुए होंगे। कुंतक और अभिनवगुप्त एक दूसरे को उद्धृत नहीं करते। अतः ये दोनों समसामयिक माने जाते हैं। इस प्रकार कुंतक का समय दशम शतक का अंतिम चरण निश्चित होता है। काव्यमीमांसा के क्षेत्र में आनंदवर्धन के पश्चात् कुंतक एक ख्यातिप्राप्त साहित्यशास्त्रज्ञ हैं। इन्होंने वक्रोक्तिजीवित और अपूर्वालंकार नामक दो ग्रंथों का प्रणयन किया है। कुंतक का "वक्रोक्तिजीवित" ग्रंथ, वक्रोक्ति संप्रदाय का प्रस्थान ग्रंथ एवं भारतीय काव्य शास्त्र की अमूल्य निधि है। इसमें ध्वनि को काव्य की आत्मा मानने वाले विचार का प्रत्याख्यान करते हुए वह शक्ति वक्रोक्ति को
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ही प्रदान की गई है। इसमें वक्रोक्ति, अलंकार के रूप में प्रस्तुत न होकर, एक व्यापक काव्यसिद्धान्त के रूप में उपन्यस्त की गई है। इस ग्रंथ में वक्रोक्ति के 6 विभाग किये गये हैं। वर्णवक्रता, पदपूर्वार्द्धवक्रता, पदोत्तरार्धवक्रता, वाक्यवक्रता, प्रकरणवक्रता व प्रबंधवक्रता। उपचारवक्रता नामक भेद के अंतर्गत कुंतक ने समस्त ध्वनि प्रपंच का (उसके अधिकांश भेदों का) अंतर्भाव कर दिया है। वक्रोक्ति को काव्य की आत्मा मान कर कुंतक ने अपूर्व मौलिक प्रतिभा का परिचय दिया है और युगविधायक काव्यशास्त्रीय सिद्धान्त की स्थापना की है। "अपूर्वालंकार" में काव्य विषयक विशिष्ट भूमिका स्पष्ट की गई है। कुंदकुंदाचार्य- जैन-दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य । जन्म द्रविड देश में। दिगंबर संप्रदायी। समय-प्रथम शताब्दी माना जाता है। इन्होंने "कुंदकुंद" नामक ग्रंथ का प्रणयन किया जिसका द्राविड नाम "कोण्डकुण्ड" है। इनके अन्य 4 ग्रंथ भी प्रसिद्ध हैं जिन्हें जैन-आगम का सर्वस्व माना जाता है। ग्रंथों के नाम हैं- नियमसार, पंचास्तिकायसार, समयसार,
और प्रवचनसार। अंतिम 3 ग्रंथ जैनियों में "नाटकत्रयी' के नाम से विख्यात हैं। कुम्भ (महाराणा)- समय- 1433-1468 ई.। पिता-मोकल। पत्नियां-कुंभलदेवी व अपूर्वदेवी। महाराणा कुम्भा मेदपाट (मेवाड) में चित्तौड़ के राजा थे। इनके ग्रंथों का उल्लेख चित्तौड के कीर्तिस्तम्भ के शिलालेख में किया गया है। महाराणा कुम्भा के प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- 1. संगीतराज या संगीतमीमांसा, 2. बाणरचित चण्डीशतक पर वृत्ति, 3. जयदेवरचित गीतगोविन्द की रसिकप्रिया टीका, 4. वाद्यप्रबन्ध, 5. रस-रत्नकोष, 6. नृत्यरत्नकोश एवं 7. पाठ्यगीत, 8. संगीतक्रमदीपिका, 9. एक लिंगाश्रय और 10. कुम्भस्वामिमंदार।
कुक्के सुब्रह्मण्य शर्मा- रचना- श्रीकृष्णनृपोदयप्रबन्धचम्पू (मैसूर नरेश का चरित्र)। अन्य रचना-शरावती-जलपातवर्णन-चम्पू। कचिमार- कामशास्त्र के औपनिषद खण्ड के रचनाकार। इनके ग्रंथ में भिन्न प्रकार की औषधियों का प्रयोग बताया है। इस प्राचीन रचना का नाम है- कुचिमारतन्त्र । वर्तमान उपलब्ध रचना (जो अधूरी है) ई. 10 वीं शती की होगी ऐसा अनुमान है।। कुमारदास- "जानकीहरण" नामक महाकाव्य के प्रणेता। इनके संबंध में ये तथ्य प्राप्त हैं : (क) इनकी जन्मभूमि सिंहलद्वीप थी, (ख) ये सिंहल के राजा नहीं थे, (ग) सिंहल के इतिहास में यदि किसी राजा का नाम कवि के नाम से मिलता जुलता था, तो वह कुमार धातुसेन का था। परन्तु वे कुमारदास से पृथक् व्यक्ति थे, (घ) कवि के पिता का नाम मानित व दो मामाओं का नाम मेघ और अग्रबोधि था। उन्हीं की सहायता से इन्होंने अपने महाकाव्य की रचना की थी और (ड) कुमारदास का समय ई. 7 वीं शती माना गया है।
"जानकीहरण" 20 सर्गों का महाकाव्य है जिसमें राम-जन्म से लेकर राम-राज्याभिषेक तक की कथा दी गई है। कुमारदास की प्रशस्ति मे सोड्ढल व राजशेखर ने निम्न उद्गार व्यक्त किये हैं
बभूवुरन्येऽपि कुमारदासभासादयो हन्त कविन्दवस्ते। यदीयगोभिः कृतिनां द्रवंति चेतांसि चंद्रोपल-निर्मितानि ।।
-सोड्ढल जानकीहरणं कर्तुं रघुवंशे स्थिते सति। कविः कुमारदासश्च रावणश्च यदि क्षमः ।।
__ -राजशेखर, सूक्तिमुक्तावलि (4-86) कुमारदास कालिदासोत्तर (चमत्कारप्रधान महाकाव्यों के) युग की उपलब्धि हैं जिनकी कविता कलात्मक काव्य की उंचाई को संस्पर्श करती है। कुमारलात- समय- ई. 2 री शती। नागार्जुन के समकालीन । बौद्ध-दर्शन के अंतर्गत सौत्रांतिक मत के प्रतिष्ठापक आचार्य। तक्षशिला-निवासी किंतु अलौकिक विद्वत्ता एवं प्रभावशाली व्यक्तित्व के कारण कबंध के अधिपति द्वारा अपनी राजसभा में सादर आमंत्रित। उन्हीं के आश्रय में ग्रंथ-रचना संपन्न । बौद्ध-परंपरा के अनुसार ये 4 प्रकाशमान सूर्यों में हैं, जिनमें अश्वघोष, देव व नागार्जुन आते हैं। इनके ग्रंथ का नाम है"कल्पनामण्डतिका-दृष्टांत जो तुरफान में डॉ. लूडर्स को हस्तलिखित रूप में प्राप्त हुआ था। इस ग्रंथ में आख्यायिकाओं के माध्यम से बौद्ध-धर्म की शिक्षा दी गई है। इस ग्रंथ का महत्त्व, साहित्यिक व सांस्कृतिक दोनों ही दृष्टियों से है। प्रत्येक कथा के प्रारम्भ में कुमारलात ने बौद्धधर्म की किसी मान्य शिक्षा को उद्धृत किया है और उसके प्रमाण में आख्यायिका प्रस्तुत की है। कुमारताताचार्य- पिता-वेंकटाचार्य। तंजौरनरेश रघुनाथ नायक का पुरोहित । रचना- पारिजातनाटकम्। कुमारिल भट्ट- ई. 7 वीं शती के प्रख्यात दार्शनिक । मीमांसादर्शन के तीन आधारभूत ग्रंथों- (श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक
और टपटीका) के रचियता। बौद्ध दर्शन का खंडन कर कर्ममार्ग का प्रवर्तन तथा वैदिक धर्म का पुनरुज्जीवन करने वाले इस दार्शनिक ने मीमांसा-शास्त्र मे भाट्ट-सम्प्रदाय की स्थापना की। विद्यारण्यकृत शांकरदिग्वजय में इन्हें स्कन्द का अवतार माना गया है। इनके विषय में यह कथा बतायी जाती है- सुधन्वा राजा के दरबार में इन्होंने बौद्ध व जैन पंडितों को परास्त किया और राजा की आज्ञा से यह कह कर कि “यदि वेद सच्चे होंगे तो मुझे चोट नहीं पहुंचेगी", पर्वत की चोटी से कूद पडे किन्तु उन्हें कोई खरोच तक नहीं
आयी। बाद में राजा ने एक नाव में सर्प रख कर प्रश्न किया- इसमें क्या हैं। बौद्ध जैन पंडितों ने कहा- इसके भीतर सर्प है। किन्तु कुमारिल भट्ट ने कहा- इसमें शेषशायी की मूर्ति है और वही सच निकला। इस कारण राजा ने बौद्ध
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व जैन पंडितों का तिरस्कार किया।
जैन ग्रंथों के अनुसार कुमारिल भट्ट, महानदी के तट पर। स्थित जयमंगल नाम गावं के यज्ञेश्वर भट्ट के पुत्र थे। माता का नाम चन्द्रगुणा था। जन्मदिवस-वैशाख पोर्णिमा, रविवार, युधिष्ठिर संवत् 2110। इन्हें जैनियों ने साक्षात् यम की उपमा दी है। इन्होंने सर्वप्रथम जैमिनिसूत्र-भाष्य व जैन भंजन नामक ग्रंथों की रचना की थी। कुमारिल भट्ट प्रखर कर्मकाण्डी थे। बौद्ध मत का खण्डन करने हेतु बौद्धों से ही उनके मत का ज्ञान उन्होंने प्राप्त किया। इस काम में बौद्धों के सम्मुख उन्हें वेदमाता की निन्दा भी करनी पड़ी पर पूरा बौद्ध मत जान कर, उन्होंने उसका खण्डन किया, तथा कर्मकाण्ड की स्थापना की। एक अन्य कथा के अनुसार एक बार बौद्धों ने उन्हें अपने मत की पुष्टि के लिये पहाड पर से कूदने को कहा। वे सहर्ष तैयार हुए तथा "यदि वेद प्रमाण हैं, तो मुझे कुछ नहीं होगा"-- ऐसा कह कर कूद गए। वे जीवित तो रहे, पर "यदि" के प्रयोग से, प्रमाण्यशंका प्रकट होने से उनका पैर चौट खा गया।
वेदमाता की अनिच्छा से की हुई निन्दा तथा "यदि" कहकर प्रकट हुई प्रामाण्यशंका के अपराधों के लिये उन्होंने "तुषाग्निसाधन" कर प्रायश्चित किया।
जब वे तुषाग्नि पर बैठे थे, उनके पास विवाद करने तथा ज्ञानमार्ग की महत्ता स्थापित करने शंकराचार्य आए। उन्होंने "तुषाग्निसाधन" न करने की हार्दिक प्रार्थना कुमारिल भट्ट से की। वे नहीं माने। वादविवाद के लिये उन्होंने आचार्य को अपने प्रधान शिष्य मंडनमिश्र के पास भेजा। तुषाग्निसाधन से भट्ट की मृत्यु बडी कष्टदायक रही पर उन्होंने कृतनिश्चय होकर वह प्रायश्चित्त लिया। कुमुदचन्द्र- कतिपय विद्वानों के मत में सिद्धसेन दिवाकर का अपरनाम परन्तु यह मान्यता तथ्यसंगत नहीं मानी जाती। गुजरात-निवासी। गुजरात के जयसिंह सिद्धराज की सभा में गादी सीरदेव के साथ इनका शास्त्रार्थ हुआ था। समय- ई. 12 वीं शती। रचना-कल्याणमंदिर-स्तोत्र। यह स्तवन भावपूर्ण और सरस है। कुमुदेन्दु- मूलसंघ-नन्दिसंघ बलात्कार गण के विद्वान् । माघनन्दि सैद्धान्तिक के गुरु। कर्नाटक के संस्कृत कवि। समय- ई. 13 वीं शती। पिता-पद्मनन्दी व्रती। माता-कामाम्बिका । पितव्य-अर्हनन्दी व्रती। ये मन्त्रशास्त्र के भी विद्वान थे। ग्रंथ :कुमुदेन्दु-रामायण। कुलकर्णी, दिगम्बर महादेव- संस्कृताध्यापक न्यू इंग्लिश स्कूल, सातारा । रचना-धारायशोधारा । इस लघुकाव्य में कुलकर्णी ने मालव-प्रदेश तथा उसके इतिहास का वर्णन किया है। कुलकर्णी, सदाशिव नारायण- नागपुर की संस्कृत भाषा प्रचारिणी सभा के संस्थापक। रचना-व्यवहारकोश। संस्कृत
भवितव्यम् साप्ताहिक में आपके अनेक निबंध प्रकाशित हुए। कुलभद्र- कार्यक्षेत्र-राजस्थान। समय- 13-14 वीं शती । रचना-सारसमुच्चय (330 पद्य)। यह धर्म और नीतिप्रधान सूक्तिकाव्य है। कुल्लूकभट्ट- समय- ई. 12 वीं शती। मनुस्मृति की टीका मन्वर्थमुक्तावली के रचयिता। बंगाल के नंदनगाव में वारेन्द्र ब्राह्मण-कुल में जन्म। पिता का नाम-भट्ट दिवाकर था। इनके धर्मशास्त्र विषयक अन्य ग्रन्थ हैं- स्मृतिसागर, श्राद्धसागर, विवादसागर व आशौचसागर। श्राद्धसागर में पूर्वमीमांसा विषयक चर्चा के साथ ही श्राद्ध सम्बन्धी जानकारी दी गयी है। कृपाराम तर्कवागीश- मैथिल पण्डित। वारेन हेस्टिंग्ज द्वारा नियुक्त ग्रंथ लेखन समिति के सदस्य । रचना-नव्यधर्मप्रदीपिका । कृष्णकवि-ई. 17 वीं शती। पिता-नारायण भट्टपाद । कृष्णकवि ने किसी राजा का चरित्र-ग्रथन धनाशा से अपने "ताराशशाङ्कम्" नामक काव्य में किया है। यह काव्य प्रकाशित हो चुका है। कृष्णकवि- रचना- रघुनाथभूपालीयम्। तंजौर के राजा रघुनाथ नायक के आश्रित । आपने आश्रयदाता का स्तवन तथा अलंकारों का निदर्शन इस रचना में किया है। राजा के आदेश पर विजयेन्द्रतीर्थ के शिष्य सुधीन्द्रयति की टीका लिखी। कृष्ण कौर- रचना भ्यंककाव्यम्। 16 सर्ग। विषय-सिक्खों का इतिहास। कृष्णकान्त विद्यावागीश (म.म.)- ई. 19 वीं शती। नवद्वीप (बंगाल) के निवासी। कृतियां-गोपाल-लीलामृत,
चैतन्यन्द्रामृत तथा कामिनी-काम-कौतुकम् नामक तीन काव्य, न्याय-रत्नावली, उपमान-चिंतामणि और जगदीश की "शब्द-शक्ति-प्रकाशिका" पर टीकाएं। कृष्ण गांगेय- पिता-रामेश्वर। रचना- सात्राजितीपरिणयचम्पूः । कृष्णचंद्र- एक पुष्टिमार्गीय आचार्य। इन्होंने ब्रह्म-सूत्र पर, "भाव-प्रकाशिका" नामक महत्त्वपूर्ण वृत्ति लिखी है। यह वृत्ति, मात्रा में वल्लभाचार्य जी के "अणु-भाष्य" से बढ़ कर है। ये प्रसिद्ध पुष्टिमतीय आचार्य पुरुषोत्तमजी के गुरु थे। कृष्णजिष्णु- समय- ई. 15 वीं शती। भट्टारक रत्नभूषण आम्नाय के अनुयायी। पिता-हर्षदेव। माता-वीरिका। ग्रंथविमलपुराण (2364)। अनुज- मंगलदास की सहायता से इस ग्रंथ की रचना हुई। कृष्णदत्त मैथिल- ई. 18 वीं शती। बिहार में दरभंगा के निकट उझानग्राम के निवासी। पिता-भवेश। माता-भगवती। भाई-पुरन्दर, कुलपति तथा श्रीमालिका। परम्परा से शैव या शाक्त पण्डित । सम्पति वंशज ऋद्धिनाथ झा, दरभंगा के निकट लोहना में संस्कृति विद्यापीठ के प्राचार्य। नागपुर के देवाजीपंत से समाश्रय प्राप्त । कृतियां- पुरंजनविजयम्, तथा कुवलयाश्वीयम् (नाटक), गीतगोपीपति व राधा-रहस्य (काव्य), सान्द्रकुतूहल.
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(प्रहसन) और गीतगोविंद पर गंगा नामक व्याख्या, जो से रचित ज्योतिःशास्त्र विषयक ग्रंथ है। विद्वानों द्वारा समादृत । राधाकृष्ण के साथ गीतगोविंद का प्रत्येक गीत शिव-पार्वती-परक कृष्णनाथ न्यायपंचानन- ई. 19 वीं शती। बंगाली। कृतियांबताती है। रचनाएं संस्कृत-प्राकृत-मिश्रित हैं।
शाकुन्तल व रत्नावली (नाटकों) पर संस्कृत टीकाएं । कृष्णदास कविराज- चैतन्य-मत के मूर्धन्य वैष्णव आचार्य। कृष्णनाथ न्यायपंचानन- ई. 20 वीं शती। बंगाली। षट्-गोस्वामियों के समान ही अपने निर्मल आचरण एवं जन्मग्राम-पूर्वस्थली (बंगाल) कृति- "वातदूतम्" (दूतकाव्य)। भक्ति-ग्रंथों के प्रणयन द्वारा भक्ति की प्रभा चतुर्दिक् छिटकाने कृष्णपन्त- ई. 19-20 वीं शती। पिता-वैद्यनाथ। पितामहवाले भक्तों में कृष्णदास कविराज की ख्याति सब से अधिक
विश्वनाथ, गुरु- रंगाप्पा बालाजी। उन्नीसवीं शती के उत्तरार्ध है। वे बंगाल के बर्दवान जिले के निवासी थे। आपका जन्म
तथा बीसवीं शती के प्रारम्भ में प्रणीत रचनाएं- कामकंदल 1496 ई. में हुआ था। पिता-भगीरथ। माता- सुनंदा देवी।
(नाटक), रत्नावली (गद्य) तथा कालिका (मन्दाक्रान्ता) शतक। माता-पिता बचपन में ही परलोकवासी हुए। जाति के कायस्थ ।
कृष्णप्रसाद शर्मा घिमिरे- काठमांडू (नेपाल) के निवासी। श्यामदास नामक अपने भाई के नास्तिक विचारों से ये बड़े
20 वीं शती के एक श्रेष्ठ संस्कृत कवि। विद्यावारिधि एवं व्यथित रहा करते थे। बचपन में ही ग्रंथ-रचना में संलग्न
कविरत्न इन उपाधियों से विभूषित। आपके द्वारा लिखित 4 हुए। इनके प्रमुख संस्कृत ग्रंथों के नाम हैं- गोविंद-लीलामृत,
महाकाव्य हैं। (1) श्रीकृष्ण चरितामृतम् (दो विभागों में कृष्णकर्णामृत की टीका, प्रेम-रत्नावलि, वैष्णवाष्टक,
प्रकाशित), (2) नाचिकेतसम्. (3) वृत्रवधम् और (4) कृष्णलीलास्तव, रागमाला आदि।
ययातिचरितम्। इन 4 महाकाव्यों के अतिरिक्त मनोयान और ___ आपकी सर्वश्रेष्ठ रचना है- “चैतन्यचरितामृत"। यह ग्रंथ
श्रीरामविलाप नामक दो खंड-काव्य तथा पूर्णाहुति और महामोह बंग-भाषा में है पर उसमें ब्रज भाषा का भी पर्याप्त मिश्रण
नामक दो नाटक भी शर्माजी ने लिखे हैं। श्रीकृष्णगद्यसंग्रह है। इस 3 खंडों वाले ग्रंथ में चैतन्य महाप्रभु के जीवन
और श्रीकृष्णपद्यसंग्रह की भी रचना आपने की है। आपके चरित्र का विस्तृत वर्णन है। जिस प्रकार गोस्वामी तुलसीदास
द्वारा निर्मित सत्सूक्तिकुसुमांजलि, सत्पुरुषों के स्तुतिपर काव्यों का ग्रंथ रामचरित मानस हिन्दी भाषी जनता के लिये सकल
का संग्रह है। संपातिसंदेश एक संदेशकाव्य है। (कुल ग्रंथ 12)। शास्त्रों का सार तथा निःस्पंद है, उसी प्रकार कृष्णदास कविराज
कृष्णम्माचार्य आर. व्ही.- पंचम जार्ज के राज्यभिषेक पर का चैतन्य-चरितामृत बंगाल की वैष्णव जनता के लिये पूज्य है।
रचित काव्य चक्रवर्तिचत्वारिंशत्। अन्य रचनाएं- (1) सुगम भाषा में दुर्गम तत्त्वों का विशदीकरण इस ग्रंथ-रत्न
कादम्बरीसारः, (2) हर्षचरितसारः, (3) वेमभूपालचरितम्, (4) की विशेषता है। भक्तों के आग्रह पर 79 वर्ष की आयु में
महाकविसुभाषितानि, (5) साहित्यरत्नमंजूषा, (6) कविराज ने इस ग्रंथ की रचना प्रारंभ की और 7 वर्षों में
सुभाषितशतकम्, (7) प्रस्तुतांकुरविमर्शः (8) विलुप्तकौतुकम्, ग्रंथ पूरा किया।
(9) वृत्तवार्तिकटीका, (10) चित्रमीमांसाटीका, (11) कृष्णदास कविराज के समकालीन नित्यानंददास के विख्यात वाणीविलापः, (12) अकलापिविलापः, (13) अन्यापदेश, ग्रंथ प्रेमविलास में कविराज अवसान की विचित्र घटना (14) वायसवैशसम्, (15) श्रीदेशिक-त्रिंशत्, (16) उल्लिखित है। तद्नुसार कविराज ने जब सुना कि उनके ग्रंथ धर्मराजविज्ञप्तिः, (17) भारतगीता (स्वदेशस्तुतिपरक) आदि। की एकमात्र हस्तलिखित प्रति को डाकू लूट में ले गए तो ये सभी काव्य मुद्रित हो चुके हैं। तत्क्षण इनकी मृत्यु हो गई। यह घटना 1598 ई. की है।
कृष्णम्माचार्य- पिता- रंगनाथाचार्य। तिरुपति के निवासी। इस प्रकार वे पूरे 102 वर्ष जीवित रहे।
रचना- (1) मन्दारवती, आधुनिक शैली में 18 प्रकरणों का कृष्णदास सार्वभौम भट्टाचार्य- ई. 17 वीं शती। उपन्यास। (2) विलापतरंगिणी। (3) रसाणवतरंग-भाण। तत्त्वचिन्तामणि, दीधितिप्रसारिणी तथा अनुमानालोकप्रसारिणी नामक कृष्ण मिश्र - समय- ई. 11 वीं शती। बंगाल के निवासी। तीन रचनाएं इनके नाम पर प्राप्त हैं।
आपका "प्रबोधचंद्रोदयम्" नामक नाटक अत्यंत वैशिष्ट्यपूर्ण कृष्णदेवराय- विजयनगर के राजा। शासनकाल 1509 से है। यह नाटक प्रयोगक्षम नहीं है। फिर भी उच्च धार्मिक 1530 ई. तक। तुलवराजवंश में जन्म। पिता का नाम नरस।। विचार और गंभीर तत्त्वज्ञान का काव्यमय आविष्कार करने में कृतियां- तेलगु और संस्कृत में कतिपय रचनाएं। संस्कृत इस नाटक ने जो सफलता प्राप्त की, वही अपने-आप में रूपक-उषापरिणय, जाम्बवती-कल्याण, रसमंजरी (गद्यप्रबंध) बहुत-कुछ है। इस नाटक के पात्र मानवी नहीं, वे भावरूप तेलगु ग्रंथ मदालसाचरित, सत्यावधूसान्त्वन, सकलकथासंग्रह एवं प्रतीकात्मक हैं। आध्यात्मिक भावनाओं को रूपकों द्वारा और ज्ञान-चिन्तामणि।
दृश्य करते हुए, इस नाटक में उनका परस्पर संबंध भली कृष्णदैवज्ञ- समय 17 वीं शती। रचना- करणकौस्तुभ। यह भांति दर्शाया गया है। इस नाटक का उद्देश्य है विष्णुभक्ति पंचागशुद्धि के प्रयास हेतु छत्रपति शिवाजी महाराज के आदेश की महिमा स्थापित करना। इनकी इस नाट्य-शैली का अनुकरण
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अद्यावधि चालू है।
गणपतिस्तुति,कर्कोटकस्तुति, रामचंद्रस्तुति, अभव-स्तुति, कृष्णस्तुति, कृष्ण मिश्र 'हंस' क्षेणी के संन्यासी तथा शांकराद्वैतमत के विश्वार्धिकस्तुति, कृष्णचरितम्, अभिनवकौस्तुभमाला, क्रमदीपिका, प्रचारक भे। इनका एक शिष्य दर्शनशास्त्र के अध्ययन में शांकरहृदयांगन, वृन्दावनस्तुति (रासवर्णन), कालवध (मार्कण्डेय अनुत्सुक था। उसे मार्ग पर लाने के लिये इन्होंने "प्रबोध कथा), गोविन्दाभिषेकम् (श्रीचिह्नकाव्यम्) और कृष्णकर्णामृतम् चन्द्रोदय" की रचना की थी। इस नाटक का कथानक भागवत जिससे आप विख्यात हुए। से लिया गया है। नाटक की प्रस्तुति में राजा कीर्तिवर्मा अपने कृष्णशास्त्री - ई. 19 वीं शती। पूर्ण नाम-ब्रह्मश्री परितियकृष्ण सेनापति गोपाल की सहायता से कर्णदेव को हराता है इसका शास्त्री। जन्म कलमगवडी ग्राम (तामिळनाडू) में। केरलनरेश उल्लेख कर, कृष्णमिश्र इस आनन्दोत्सव में प्रस्तुत नाटक के रामवर्मा का आश्रय प्राप्त । काव्य, दर्शन, व्याकरण व धर्मशास्त्र प्रयुक्त होने की घटना का निर्देश करते है। कीर्तिवर्मा का में निपुण। गुरु-विद्यानाथ दीक्षित । आपने 16 वर्ष की अवस्था काल, ई. 1049 से 1100 है। अतः कृष्ण मिश्र का काल में ही “कौमुदी-सौम" नामक नाटक की रचना की। ई. 11 वीं शती निश्चित होता है।
कृष्ण सार्वभौम- अपरनाम कृष्णनाथ सार्वभौम भट्टाचार्य । कृष्णमूर्ति- ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध। वसिष्ठ गोत्रीय । समय- ई. 18 वीं शती। निवासस्थान-पश्चिम बंगाल का पिता-सर्वशास्त्री। कृतियां- मदनाभ्युदय (भाण) और यक्षोल्लास शांतिपुर। इन्होंने नवद्वीप के राजा रघुराम राय की आज्ञा से (काव्य)। इन्होंने स्वयं का निर्देश अभिनव कालिदास के रूप "पदाङ्कद्त" की रचना की थी। इस तथ्य का निर्देश इन्होंने में किया है।
अपने इस दूतकाव्य के अंत में किया है। इस काव्य में कृष्णमूर्ति- ई. 19 वीं शती। रचना- कङ्कणबन्ध-रामायणम्। कृष्णसार्वभौम ने श्रीकृष्ण के एक पदाङक को दूत बना कर यह रामायण केवल एक श्लोक का है। इस एक श्लोक के किसी गोपी द्वारा कृष्ण के पास संदेश भिजवाया है। 64 अर्थ निकलते हैं। उसमें पूरी राम-कथा समाविष्ट है। __अपने पिता दुर्गादास चक्रवर्ती की भांति ये भी कृष्ण-भक्त कृष्णराम व्यास- आयुर्वेदाचार्य । जयपुर-निवासी श्री. कुन्दनराम थे। इन्हें सामंत चिंतामणि, रामजीवन तथा उनके पुत्र राजा के ज्येष्ठ पुत्र। जन्म 1871 ई.। जयपुर के सभा-पंडित। इनकी रघुराम राय (1715-1728 ई.) इन तीनों से समाश्रय प्राप्त प्रसिद्ध कृतियां हैं- 1. कच्छवंश-महाकाव्यम्, 2. था। अन्य कृतियां- 1. आनंदलतिका (नाटक), 2. कष्ण-पदामृत जयपुरविलासकाव्यम्, 3. सारशतकम्, 4. मुक्तकमुक्तावली, 5. (स्तोत्र) और 3. मुकुंदपद- माधुरी (सटीक कारिकाएं)। जयपुरमेलकुतुकम्, 6. आर्यालंकारशतकम्, 7. गोपालगीतम्, कृष्णसुधी- पं. जगन्नाथ के वंशज। उत्तरमेरु (कांची के 8. गल्पसमाधानम्, 9. होलीमहोत्सव, 10. माधवपाणिग्रहणोत्सव, पास) में वास्तव्य। रचना- काव्यकलानिधि। यह एक 11. काशीनाथस्तव, 12. गोविन्दभट्टभंगम्, 13. छन्दश्छटामर्दनम्, साहित्यशास्त्रीय रचना है जिसमें उदाहरणों के माध्यम से 14. स्मरशतकम्, 15. पलाण्डराजशतकम् व 16. आश्रयदाता कौल्लमनरेश रामवर्मा का गुणगान किया गया है। चन्द्रचरितमण्डनम्।
कृष्णानंद- समय- ई. 14 वीं शती। "सहृदयानंद" नामक प्रथम दो काव्यों में जयपुर के अनेक राजाओं का चरित्र
महाकाव्य के प्रणेता। 15 सर्गों में रचित इस काव्य में, राजा ग्रथित किया गया है। “सारशतकम्", श्रीहर्ष के "नैषध"
नल का चरित्र वर्णित है। ये जगन्नाथपुरी के निवासी थे। काव्य का संक्षेप है।
इनका एक पद्य विश्वनाथ कविराज द्वारा रचित "साहित्य-दर्पण" कृष्णलाल 'नादान' (डा.) - दिल्लीनिवासी। दिल्ली वि.वि.
में उद्धृत है। यह महाकाव्य (हिन्दी अनुवाद सहित) चौखंबा में संस्कृत विभाग में उपाचार्य। सन् 1956 में "भारती"
विद्याभवन वाराणसी से प्रकाशित हो चुका है। पत्रिका की प्रतियोगिता में "शिंजारव" शीर्षक पद्य-रचना पर प्रथम पुरस्कार प्राप्त। कृतियां- शिंजारव (काव्य) व प्रतिकार
कृष्णानंद व्यास (पं.) - जन्म- 1790 ई.। दिल्ली-निवासी (एकांकी)। 'संस्कृत शोधप्रक्रिया एवं वैदिक अध्ययन' नामक एक संगीतज्ञ। इन्होंने 1842 ई. में "रागकल्पद्रुम' नामक आपका हिन्दी प्रबंध सन 1978 में प्रकाशित ।
संगीतविषयक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में धूपद, धमार, कृष्णलीलाशुक - पिता-दामोदर। माता-नीली। "ईशानदेव
ख्याल, टप्पा, ठुमरी आदि विषयों की मौलिक जानकारी प्रस्तुत
की गई है। तन्त्रपद्धति' के लेखक ईशानदेव के शिष्य । श्वेतारण्य (दक्षिण कैलास) के मृत्युंजय के भक्त। मुक्तिस्थल निवासी। श्रीकृष्ण मेवाड की महारानी द्वारा इन्हें 'राग-सागर" की उपाधि से के परम उपासक। समय- ई. 11 वीं शती। वृंदावन में मृत्यु।। विभूषित किया गया था। कुछ काल तक ये मेवाड के काव्य के साथ व्याकरण व दर्शन-शास्त्र में भी नैपुण्य प्राप्त । राजकवि भी रहे थे। इनकी अन्य प्रसिद्ध कृति है- सुदर्शनचंपू। कृष्णलीलाशुक की अन्य रचनाएं हैं- सरस्वतीकण्ठाभरण की के. आर. नैयर अलवाये - ई. 20 वीं शती। "अलब्ध-कर्मीय" टीका, पुरुषकार (तत्त्वज्ञानपरक), त्रिभुवनसुभग, नामक प्रहसन के प्रणेता।
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बैलकर, व्यंकटेश बापूजी जन्म ई. 1797 रचनाएं ज्योतिर्गणितम्, सौरार्य ब्रह्मपक्षीयतिथिगणितम् केतकी भाष्यम्, केतकीग्रहगणितम्, वैजयन्ती, भूमण्डलीय सूर्यग्रहगणितम् मराठी में भी ज्योतिःशास्त्र विषयक लेखन किया है।
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केदारभट्ट सम्भवतः ई. 12 वीं शती । बंगाल के निवासी । "वृत्तरत्नाकर" के कर्ता पिता पब्बेक (संभवतः "वासनामन्जरी" के प्रणेता) इनके वृत्तरत्नाकर ग्रंथ पर 20 से अधिक टीकाएं लिखी गई है।
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केरलवर्मा श्रवणकोरनरेश (19-20 वीं शती) इन्होंने प्रभूत तथा उत्कृष्ट साहित्यनिर्मिति की है। केरल - कालिदास की उपाधिप्राप्त रचनाएं गुरुवायुरेशशतकम् व्याधालयेशशतकम् द्रोणाद्विशतकम्, विशाखराजमहाकाव्यम् क्षमापनसहस्रम् और शृंगारमंजरीभाण ।
302 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
I
केवलानन्द सरस्वती समय ई.स. 1877-1955 महाराष्ट्र के वाई नामक ग्राम में स्थित प्राज्ञ पाठशाला के संस्थापक । इनका पूर्वनाम नारायण सदाशिव मराठे था। प्रज्ञानंद सरस्वती स्वामी इनके गुरु थे। संस्कृत भाषा और प्राचीन धर्मग्रन्थों के गहरे अध्ययन के बाद आपने अध्यापन क्षेत्र में प्रवेश किया और राष्ट्रभक्ति से ओतप्रोत धर्मप्रचारक तैयार करने के उद्देश्य से नयी शिक्षा पद्धति तैयार की धार्मिक एवं सामाजिक क्षेत्रों में कालानुरूप परिवर्तन एवं सुधार के वे पक्षपाती थे। आपने अनेक ग्रन्थों का संपादन किया जिनमें से कुछ इस प्रकार है- 1. मीमांसाकोश (खण्ड 7 ), 2. अव्दैतसिद्धि का मराठी अनुवाद 3. ऐतरेयविषयसूची 4. कौषीतकीब्रह्मण की सूची, 5. तैत्तिरीय मंत्र - सूची, 6. सत्याषाढसूत्र - विषयसूची, 7. अद्वैतवेदान्तकोश 8. ऐतरेय ब्राह्मण आरण्यक कोश तथा, 9. धर्मकोश (6 खण्ड) के संपादक तर्कतीर्थ लक्ष्मणशास्त्री जोशी आपके प्रमुख शिष्यों में सुप्रसिद्ध कार्यकर्ता हैं । केशव पिता- श्रीनिवास । रचना - सत्यध्यानविजयम् । 5 सर्गात्मक। इनके छोटे भाई ने इस पर टीका लिखी है। केशव एक ज्योतिष शास्त्रज्ञ इन्होंने "विवाहवृंदावन" और "करणकंठीरव" नामक दो ग्रंथों का प्रणयन किया है। इनमें से केवल प्रथम ग्रंथ ही उपल्बध है। समय- 14 वीं शती । केशव काश्मीरी- समय ई. 13-14 शती । निबार्क संप्रदाय के एक प्रसिद्ध दिग्विजयी आचार्य। कहा जाता है कि इन्होंने 3 बार दिग्विजय कर "दिग्विजयी" की उपाधि प्राप्त की थी। काश्मीर में अधिक काल तक निवास करने के कारण "काश्मीरी" उपनाम से विख्यात थे। ये अलाउद्दीन खिलजी (शासन काल 1296-1320 ई.) के समकालीन माने जाते है। इनका अपर नाम "केशवभट्ट" है। कहते हैं कि मथुरा के किसी मुसलमान सुबेदार के आदेशानुसार, एक फकीर ने लाल दरवाजे पर एक मंत्र टांग दिया। जो भी हिन्दु उधर से निकलता, मंत्र के प्रभाव से उसकी शिखा कट जाती और
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वह मुसलमान बन जाता। इस बात की सूचना पाकर काश्मीरीजी उस स्थान पर अपने शिष्यों सहित पहुंचे, और अपने प्रभाव से उस मंत्र को निष्प्रभ कर डाला। केशव काश्मीरी मथुरा में ध्रुव टीले पर निवास करते थे इनके अंतर्धान का स्थान मथुरा का नारद-टीला है, जहां इनकी समाधि बनी हुई है। इनका जन्मोत्सव ज्येष्ठ शुक्ल चतुर्थी को मनाया जाता है। काश्मीरीजी के विषय में निम्र श्लोक प्रसिद्ध हैवागीशा यस्य वदने हृत्-कंजे श्रीहरिः स्वयम्। यस्यादेशकरा देवा मंत्रराजप्रसादतः ।।
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नाभादासजी ने इनके द्वारा किया गया चमत्कार तथा संपन्न दिग्विजय को व्यक्त करने वाला निम्न छप्पय लिखा हैकासमीर की छाप पात तापन जगमंडन,
दृढ हरि-भक्ति-कुठार आनमत विटप विहंडन । मथुरा मध्य मलेच्छ दल करि वर बट जीते, काजी अजित अनेक देखि परचे भय भीते । विदित बात संसार सब, संत साखि नाहिन दुरी । श्री "केशवभट" नरमुकुट मणि, जिनकी प्रभुता निस्तरी ।। (छप्पय 75) श्री. केशव काश्मीरी के ग्रंथ निंबार्क संप्रदाय की अतुल संपत्ति है इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथ है- (1) तत्त्व- प्रकाशिका (गीता का निर्कमतानुयायी भाष्य), (2) कौस्तुभ प्रभा (श्रीनिवासाचार्य के "वेदांत कौस्तुभ" का पांडित्यचूर्ण भाष्य), (3) प्रकाशिका (दशोपनिषद् पर भाष्य जिसमें केवल "मुण्डक" का भाष्य प्रकाशित हो चुका है) (4) भागवत टीका, (जिनकी केवल "वेद-स्तुति' का भाष्य उपलब्ध तथा प्रकाशित है और (5) क्रमदीपका (सतिलक) जो पूजा पद्धति का विवरणात्मक ग्रंथ है। केशवदैवज्ञ - ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य । 'ग्रहलाघवकार" गणेश दैवज्ञ के पिता पश्चिमी समुद्र तटवर्ती नंदिग्राम के निवासी । आविर्भाव-काल सन् 1456 ई. । पिता कमलाकर, गुरु- वैजनाथ। इनके द्वारा रचित ग्रंथों के नाम हैं; ग्रहकौतुक, वर्षमहसिद्धि तिथिसिद्धि जातक पद्धति, जातक पद्धतिविवृत्ति, ताजिक-पद्धति सिद्धान्तवासनापाठ, मुहूर्ततस्त्व, कायस्थादिधर्मपद्धति, कुंडाप्टकलक्षण और गणित-दीपिका। ग्रह - गणित व फलितज्योतिष दोनों के ही मर्मज्ञ थे । केशवपण्डित- रचना- "राजारामचरितम्"। इसमें राजाराम महाराज (छत्रपति शिवाजी के सुपुत्र) और मरहठा वीरों द्वारा, औरंगजेब से अपने साम्राज्य के रक्षण हेतु किये गए महान् संघर्ष का वर्णन है।
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केशवभट्ट 'नृसिंहचंपू' या 'प्रह्लादचंपू' नामक काव्य के रचयिता । गोलाक्षी परिवार के केशवभट्ट इनके पितामह थे । पिता - अनंतभट्ट । इनका जन्म गोदावरी जिले के (आंध्र) पुण्यस्तंब नामक नगर में हुआ था। "नृसिंहचंपू" (प्रह्लादचंपू)
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का रचना - काल 1684 ई. है। इसका प्रकाशन कृष्णाजी गणपत प्रेस, मुंबई से, 1909 ई. में हो चुका है। केशव मिश्र काव्यशास्त्र के एक आचार्य। इन्होंने "अलंकार - शेखर" नामक ग्रंथ की रचना की है। समय 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण । ग्रंथ रचना, कांगडा नरेश माणिक्यचन्द्र के आग्रह पर की। "अलंकार - शेखर" में 8 रत्न या अध्याय है व कारिका, वृत्ति और उदाहरण इसके 3 विभाग हैं। अध्यायों का विभाजन 22 मरीचियों में हुआ है। स्वयं लेखक ने कारिका व वृत्ति की रचना की है। उदाहरण अन्य ग्रंथों से लिये हैं। ग्रंथ में वर्णित विषय हैं (1) काव्य - लक्षण, (2) रीति, (3) शब्द-शक्ति, (4) आठ प्रकार के पददोष, (5) अठारह प्रकार के शब्द-दोष, (6) आठ प्रकार के अर्थ-दोष, (7) पांच प्रकार के शब्द-गुण, (8) अलंकार व (9) रूपक। ग्रंथकार के अनुसार कारिकाओं की रचना, "भगवान् शौद्धोदनि" के अलंकार-ग्रंथ के आधार पर हुई है।
केशव मिश्र समय- ई. 13 वीं शती । न्यायदर्शन के लोकप्रिय लेखकों में केशव मिश्र का नाम अधिक प्रसिद्ध है। इनकी प्रसिद्ध रचना "तर्कभाषा" है। संस्कृत में तर्कभाषा के 3 लेखक है, और तीनों भिन्न-भिन्न दर्शन के अनुयायी हैं। केशव मिश्र के शिष्य बंगाल के गोवर्धन मिश्र ने प्रस्तुत "तर्कभाषा" पर "तर्कभाषाप्रकाश" नामक व्याख्या लिखी है। गोवर्धन ने अपनी व्याख्या में अपने गुरु का परिचय भी दिया है। केशव मिश्र के पिता का नाम बलभद्र और दो ज्येष्ठ भ्राताओं के नाम विश्वनाथ व पद्मनाभ थे। अपने बड़े भाई से तर्कशास्त्र का अध्ययन करके ही केशव मिश्र ने अपने ग्रंथ का प्रणयन किया था। ये मिथिला के निवासी थे। केशिवराज समय ई. 11 वीं शती सुधार्णव के कर्ता मल्लिकार्जुन के पुत्र । होयसालवंशी राजा नरसिंह के कटकोपाध्याय सुमनोबाण के दौहित्र और जनकवि के भांजे कर्नाटकवासी। ग्रंथ-चोलपालकचरित, सुभद्राहरण, प्रबोधचन्द्र, किरात और शब्दमणिदर्पण |
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कैकिणी, व्यंकटराव मंजुनाथ (डॉ.) - मुंम्बई के प्रसिद्ध डाक्टर व कवि । शैक्षणिक पात्रता बी.ए. एम.बी.बी.एस., एफ. आर. सी. एस. साहित्यभूषण डाक्टरनी ने अपने पूर्वज साधु (जो कारवार जिले के कैकिणी ग्रामवासी थे) शिवकैवल्य का चरित्र 6 उल्लासों में "शिवकैवल्यचरितम्" नामक काव्य में प्रथित किया है।
कैटभट्ट समय ई. 11 वीं शताब्दी एक कश्मीरी वैयाकरण जिन्होंने पतंजलि के महाभाष्य पर "प्रदीप" नामक समीक्षा ग्रंथ लिखा। इस "प्रदीप" पर 15 टीकाएं लिखी गई है।
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्हें पाणिनीय व्याकरण कंठस्थ था । "प्रदीप" में अनेक स्थानों पर "स्फोटवाद" का
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विवेचन किया गया है। महाभाष्य की प्राचीन टीकाओं में भर्तृहरि के पश्चात् "प्रदीप" का ही क्रम आता है। "देवीशतक" के टीकाकार कैयट से, प्रदीपकार कैयट भिन्न हैं। पिता-जैयट उपाध्याय । गुरु-महेश्वर। शिष्य उद्योतकर। कोक्कोक- समय ई. 12 वीं शती । पारिभद्र के पात्र । तेजो के पुत्र रचना- रतिरहस्यम्। नयचन्द्र और कुम्भकर्ण द्वारा उल्लेख। कोगण्टि सीतारामाचार्य ई. 20 वीं शती । अध्यात्म-शास्त्र तथा तन्त्र में निष्णात । साहित्यसमिति, गुण्टुर के सदस्य । प्रतिज्ञा- कौल्स, आमुख, एकलव्य तथा पद्मावती चरण चारण चक्रवर्ती नामक चार एकांकियों के प्रणेता । कोचा नरसिंहाचार्य तिरुपति के श्रीनिवासाचार्य के पुत्र । रचनाएं पिकसन्देशम् तथा गरुडसन्देशम् नामक दूतकाव्य । कौच्चुण्णि भूपालक- अपर नाम ताम्पूरान् । जन्म 1858 ई. में, कोटिलिंगपुर (कोचीन) के राजवंश में मूल नाम रामवर्मा । चाचा गोदावर्मा से काव्यशास्त्र की शिक्षा पाई। संगीत तथा इन्द्रजाल में विशेष रुचि । कोचीन के राजा द्वारा "कविसार्वभौम " की उपाधि प्राप्त । गुरु- कृष्णशास्त्री ।
कृतियाँ- अनंगजीवन तथा विटराजविजय भाण, विद्धयुवराज चरित, श्रीरामवर्मकाव्य, विप्रसन्देश, बाणयुद्धचेपू और देवदेवेश्वर-शतक । गोदावर्मा का अधूरा रामचरित भी इन्होंने पूर्ण किया ।
कोरड रामचन्द्र- आन्ध्र-निवासी रचना (1) "स्वोदयकाव्यम्” आत्मचरित्रपरकग्रंथ (यह रचना अप्रकाशित है ) (2) घनवृत्तम् (प्रकाशित) ।
कोलब्रुक ई.स. 1765 से 1837 एक ब्रिटिश प्राच्यविद्या पंडित । पूरा नाम - हेनरी टामस् कोलबुक । कलकत्ता में मुख्य न्यायाधीश के पद पर रहते इन्होंने वेद, संस्कृत-व्याकरण, जैन आचार, हिन्दू विधि, भारतीय दर्शन, ज्योतिष आदि का गहरा अध्ययन कर अनेक लेख लिखे। यूरोपीय जनता को प्रथम बार हिन्दुओं के पवित्र ग्रंथों और दर्शनों का परिचय कराया । इनके पास अनेक संस्कृत हस्तलिखितों का संग्रह था जो ईस्ट इंडिया कम्पनी को 1818 में दानस्वरूप दिया गया।
को. ला. व्यासराजशास्त्री - “विद्यासागर" की उपाधि से विभूषित समय ई. 20 वीं शती कृतियां महात्मविजय, विद्युन्माला, चामुण्डा, शार्दूलसम्पात, निपुणिका तथा अन्य 19 लघु नाटक ।
कौषीतकी ऋग्वेद के कौषीतकी ब्रह्मण के कर्ता इनके नाम पर आरण्यक उपनिषद, सांख्यायन श्रौत व गृह्यसूत्र आदि ग्रंथ पाये जाते हैं। इनके मतानुसार प्राण ही ब्रह्म है। मन उसका भाष्यकार, वाणी उसकी सेवक, आंख संरक्षण और कान - श्रवणेन्द्रिय है। यज्ञोपवीत धारण, आचमन व उगते सूर्य की उपासना - यह त्रिविध उपासना भी इन्होंने बतायी है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 303
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कोहल स्वयं भरत मुनि ने कोहल को यह सम्मान दिया है कि "शेष नाट्यशास्त्रीय विवेचन कौहल ही करेंगे"" शेषमुत्तरतंत्रेण कोहलः कथयिष्यति” । संभवतः कोहल ने संगीत, नृत्य और अभिनय के सम्बन्ध में भी शास्त्ररचना की होगी ।
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अभिनवगुप्त ने अपनी टीका में अनेक स्थलों पर कोहलाचार्य को उद्धृत किया है । नान्दी - विवेचन के प्रसंग में उद्धरण है" इत्येषा - कोहलप्रदर्शिता नान्दी उपपन्ना भवति ।। नाट्य के रस, भाव आदि । अंगों की गणना के समय अभिनवगुप्त ने इन्हें कोहलाभिमत कहा है, भरताभिमत नहीं ("अनेन तु श्लोकेन कोहलमतेन एकादशांगत्वमुच्यते। न तु भरते" ।) नाट्यशास्त्र तथा अभिनवभारती में कुल मिला कर 8 स्थलों पर कोहल के नाम का उल्लेख है। भावप्रकाशन तथा नाट्यदर्पण में रूपकों की संख्या के प्रसंग में तथा अन्यत्र इनका उल्लेख है। शिंगभूपाल ने भी कोहलाचार्य का उल्लेख किया है। दामोदरगुप्त ने "कुट्टनीमत" नामक कृति में भरत के साथ ही कोहल का उल्लेख किया है। बालरामायण में कोहल को नाट्याचार्य के रूप में प्रस्तावना में ही उद्धृत किया गया है । रामकृष्ण कवि के मत से, कोहल तीसरी शती ई. पूर्व में हुए थे।
"भरत इव नाट्याचार्यः कोहलादय इव नटाः " इस अभिनवभारती के उल्लेख से प्रतीत होता है कि कोहल भरत की परम्परा के आचार्यों तथा प्रयोक्ताओं में परिगणित हुए हैं। संगीतरत्नाकर में कोहल के संगीत संबंधी अनेक उद्धरण प्राप्त होते हैं। पार्श्वदेव के संगीतसमयसार में कोहल तथा दत्तिल को संगीतशास्त्र के आचार्य के रूप में स्मरण किया है । कोहलप्रोक्त ग्रंथ का 13 वां अध्याय मद्रास के शासकीय हस्तलिखित ग्रंथागार में विद्यमान है जिसका नाम "कोहलरहस्य" है । यह ग्रंथ खण्डित है। इसमें कोहल का उल्लेख, भरतपुत्र के रूप में हुआ है "कोहलमतम्" नामक एक ग्रंथ भी मिला है ऐसा श्री. शुक्ल कहते हैं। इसमें पुष्पांजलि का मात्र स्वरूप मिलता है इन्होंने ही "कोहलीयम्" नामक ग्रन्थ का उल्लेख किया है जो तालपत्र पर लिखित है तथा लन्दन की इंडिया आफिस लायब्रेरी में संग्रहित है। ये सभी ग्रन्थ अपूर्ण तथा अप्रकाशित हैं। कोहल के उत्तराधिकारी होने एवं अभिनवगुप्त के मतों को लेकर निष्कर्ष निकालते हुए श्री शुक्ल ने लिखा है कि नाट्यशास्त्र की रचना के समय भरत अत्यंत वृद्ध थे जिससे ग्रन्थ में ही "मुनिना भरतेन यः प्रयोगो" आदि उल्लेखों में भरत को मुनि कहा गया। लेखन के अन्त समय तक कोहल प्रसिद्ध प्राप्त नाट्याचार्य हो गए थे तथा अवशिष्ट विषयों पर लिखने की क्षमता भी उनहीं की थी। अतः स्वयं भरत ने यह भविष्यवाणी की कि अवशिष्ट भाग कोहल ही पूर्ण करेगा।
डॉ. राघवन् ने भरत के बाद कोहल को ही सर्वाधिक
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महत्त्वपूर्ण आचार्य निरूपित करते हुए कहा है कि नाट्यशास्त्र में भरत के पूर्वतन्त्र के साथ कोहल के उत्तरतन्त्र के विषय भी उपपादन तथा उपबृंहण के रूप में समाविष्ट हैं। संगीतरत्नाकर के टीकाकार कल्लिनाथ के द्वारा उद्धृत ग्रन्थ संगीतमेरु किसी अन्य आचार्य की रचना है तथा कोहल के नाम से उसका प्रचार किया गया है ऐसा डा. राघवन का मत है । कौत्सव्य अथर्व परिशिष्ट की कुल 78 संख्या में कौत्सव का निरुक्त-निघण्टु 48 वां है। इस आथर्वण निरुक्त-निघण्टु में कुछ ऐसे पद आते है जो उपलब्ध अर्थवशाखा में नहीं मिलते; अथर्ववेद की किसी अज्ञात शाखा से उनका संबंध होगा ऐसा विद्वानों का तर्क है।
कौशिक कुछ ऋचाओं के द्रष्टा, एक गोत्र ऋषि तथा कौडिण्य के शिष्य । पाणिनि के अनुसार एक शाखा के प्रवर्तक । इनके नाम पर ये ग्रन्थ हैं: 1. कौशिकसूत्र, 2. कौशिकस्मृति, 3. कौशिकशिक्षा व 4. कौशिकपुराण कुशिक विश्वामित्र के पूर्वज तथा भरत के पुरोहित थे । कुशिक कुल ही कौशिक के नाम से जाना जाता है। विश्वामित्र के पिता गाधी भी कौशिक नाम से जाने जाते थे।
कौशिक भट्टभास्कर ई. 11 वीं शती यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार सायणाचार्य, देवराज यज्जा, श्रीकण्ठाचार्य, विश्वेश्वरभट्ट मान्धाता आदि भाष्यकार भट्ट भास्कराचार्य का प्रमाण रूप से निर्देश करते हैं। भट्टभास्करप्रणीत "तैत्तिरीयभाष्य" में चतुर्थ काण्ड मुद्रित नहीं फिर भी चतुर्थकाण्ड के अन्तर्गत रुद्राध्याय पर भट्टभास्कराचार्यजी का भाष्य उपलब्ध है। संहिता भाष्यकार और रुद्रभाष्यकार कौशिक अभिन्न हैं या भिन्न, इस विषय में मतभेद है। एक एक शब्द के अनेक अर्थ देने के कारण भट्ट भास्कराचार्यजी का विशेष निर्देश होता है। कौशिक रामानुजाचार्य श्रीरंगपट्टणम् निवासी । रचना - अथर्वशिखाविलासः । इसमें वैष्णवमत का प्रतिपादन किया गया है ।
क्रमदीश्वर संक्षिप्तसारव्याकरण के रचयिता । इसकी स्वोपज्ञ टीका (रसवती) का जुमरनन्दी ने परिष्कार किया था। इस लिये वह जौमर के नाम से ज्ञात है।
क्रोष्टुक निरुक्तकार के रूप में यास्कप्रणीत निरुक्त में आचार्य क्रोष्टुक का एक बार निर्देश है। बृहदेवता में भी इनका एक बार निर्देश मिलता है।
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क्षमाकल्याण ई. 18 वीं शती । रचना "यशोधरचरितम् " (जैन राजा यशोधर का चरित्र ) । क्षमादेवी राव प्रसिद्ध कवयित्री । जन्म 4 जुलाई 1890 को पुणे में। पिता शंकर पांडुरंग पण्डित। बचपन में ही पितृवियोग काका के यहां विद्यार्जन पति कंबई के डा. राघवेन्द्र राव। अनेक भाषाओं तथा क्रीडाओं में नैपुण्य । अंग्रेजी और मराठी में लेखन। सन 1930 से, म. गांधी के सत्याग्रह
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आन्दोलन के प्रभाव से संस्कृत में भी लेखन प्रारंभ। लिखे। वे हैं :- 1. अमरकोशोद्घाटनम, 2. निपाताव्ययोपसर्गवृत्ति, रचनाएं-सत्याग्रहगीता, उत्तरसत्याग्रहगीता। (राष्ट्रीय आन्दोलन की 3. गणवृत्ति, 4. अमृततरंगिणी (अथवा कर्मयोगामृततरंगिणी) घटनाएं इनमें वर्णित है। विचित्रपरिषद्यात्रा, शंकरजीवनाख्यानीयम्, और 5. निघण्टुटीका। वेदभाष्यकार देवयज्वाचार्य ने प्रमाणरूप रामदासचरितम्, तुकारामचरितम्, मीरालहरी, श्रीज्ञानेश्वरचरितम्, में अनेक बार क्षीरस्वामी का निर्देश किया है। ये तंत्रशास्त्र कथामुक्तावली, कटुविपाक (नाटक), महास्मशानम् (नाटक), के ज्ञाता तथा आयुर्वेद के पंडित थे। वनौषधिवर्ग पर इन्होंने कथापंचकम्, ग्रामज्योति (दोनों पद्यात्मक कथा) और मायाजालम् टीका लिखी है। (आख्यायिका)।
क्षुर - ई. 12 वीं शती। सायणाचार्य अपने तैत्तिरीय भाष्य स्वयं क्षमाजी द्वारा किये गए अंग्रेजी अनुवादसहित प्रकाशित में भट्ट भास्कराचार्य के साथ आचार्य क्षुर का पांच बार 5 काव्य हैं : रामदासचरितम्, तुकारामचरितम्, ज्ञानेश्वरचरितम्, उल्लेख करते हैं। क्षुर-भाष्य अनुपलब्ध है। मीरालहरी और शंकरजीवनाख्यानम् (इसमे इनके पिताजी का क्षेमकीर्ति · ई. 14 वीं शती। गुरुनाम-विजयचन्द्र सूरि जो चरित्र चित्रित है)।
जगच्चन्द्र सूरि के शिष्य थे। गुरुभ्राता वज्रसेन और पद्मचन्द्र। क्षारपाणि - आत्रेय पुनर्वसु के छठवें शिष्य तथा आयुर्वेदाचार्य। समय ई. 13 वीं शती। ग्रंथ-बृहत्कल्पवृत्ति (मलयगिरिकृत इन्होंने कायचिकित्सा पर ग्रंथ लिखा जो "क्षारपाणितंत्र" के बृहत्कल्प की अपूर्ण वृत्ति को पूर्ण करने का श्रेय) । पीठिकाभाष्य नाम से विख्यात है। यह आज उपलब्ध नहीं किन्तु अन्य की 606 गाथाओं से आगे के संपूर्ण भाष्य (लघुभाष्य) की ग्रंथकारों ने इसके श्लोक उदधृत किये हैं।
वृत्ति के कर्ता। क्षितीशचन्द्र चट्टोपाध्याय (डॉ.) - जन्म सन 1896 में, क्षेमीश्वर - समय 10 वीं शती। "नैषधानंद" व "चण्डकौशिक" जोडासांको (कलकत्ता) में। शास्त्री तथा विद्यावाचस्पति । सन् । नामक दो नाटकों के प्रणेता। राजशेखर के समसामयिक कवि । 1949 में डी.लिट,। आशुतोष महाविद्यालय में दो तीन वर्षों कनोजनरेश महीपाल के आश्रय में रह कर "चण्डकौशिक" तक अध्यापन। फिर 35 वर्षों तक कलकत्ता वि.वि. में नाटक की रचना की। इनके नाटकों की साहित्यिक दृष्टि से तुलनामूलक भाषाशास्त्र विभाग में अध्यापन । वेद तथा व्याकरण विशेष महत्त्व नहीं है। के विशेषज्ञ। आप होमियोपेथी के ज्ञाता थे और रोगियों की क्षेमेन्द्र - सिंधु के पौत्र, प्रकाशेन्द्र के पुत्र, "दशावतारचरित" निःशुल्क चिकित्सा करते थे। पिता- शरच्चन्द्र। माता- नामक महाकाव्य के प्रणेता। इन्होंने काव्यशास्त्र एवं काव्य-सृजन गिरिबालादेवी। कृतियां "अन्धैरन्धस्य यष्टिः प्रदीयते (एकांकी) दोनों ही क्षेत्रों में समान अधिकार से अपनी लेखनी चलाई
और षष्ठीतंत्र नामक गद्य उपन्यास। सुरभारती, मंजूषा तथा है। ये काश्मीर के निवासी थे। लोगों को चरित्रवान बनाने कलकत्ता ओरिएंटल जर्नल का सम्पादन। संस्कृत साहित्य परिषद् के हेतु इन्होंने रामायण व महाभारत का संक्षिप्त वर्णन अपनी की पत्रिका का सात वर्षों तक सम्पादन। बंगला तथा अंग्रेजी __"रामायणमंजरी" व "महाभारतमंजरी” में किया है। इनका में अनेक अनुसन्धानात्मक ग्रंथ लिखे हैं। इनके द्वारा संपादित
रचनाकाल 1037 ई. है। इन्होंने राजा शालिवाहन (हाल) के पत्रिकाओं में "मंजूषा" का विशेष स्थान है। इनके अधिकांश सभापण्डित गुणाढ्य के पैशाची भाषा में लिखित अलौकिक निबंध इसी पत्रिका में प्रकाशित हुए। व्याकरण शास्त्र की ग्रंथ का "बृहत्कथामंजरी' के नाम से संस्कृत पद्य में अनुवाद इनकी ज्ञानगरिमा, "मंजूषा" से ही प्रकट हुई। इनका. जीवन किया है। इनकी दूसरी कथा कृति “बोधिसत्त्वावदानकल्पलता" है। वृत्तान्त "मंजूषा" के अंतिम अंक में प्रकाशित हुआ है। इनकी
(1052 ई.)। इसमें भगवान् बुद्ध के प्राचीन जीवन संबद्ध शैली व्यंगप्रधान थी। आपने गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर की
कथाएं पद्य में वर्णित हैं। “दशावतार-चरित" में इन्होंने स्वयं कथाओं-कविताओं के समान ही अन्य कवियों की रचनाओं
को "व्यासदास" लिखा है। (10-14)। प्रसिद्ध आचार्य के भी संस्कृत अनुवाद किये और उन्हें पत्र पत्रिकाओं में छपवाया।
अभिनवगुप्त इनके गुरु थे जिनका उल्लेख "बृहत्कथामंजरी" क्षीरसागर वा. का. - ई. 20 वीं शती। "नाट्ये च दक्षा में है (19-37) ये काश्मीर के दो नृपों- अनंत (1018 से वयम्" नामक प्रहसन के प्रणेता।।
1063 ई.) व कलश (1063 से 1089 ई.)- के शासनकाल क्षीरस्वामी - समय ई. 1080 से 1130 ई.। पिता भट्ट में विद्यमान थे। अतः इनका समय 11 वीं शताब्दी है। ईश्वरस्वामी। संभवतः काश्मीरवासी। कठशाखा के अध्येता। इन्होंने "औचित्यविचारचर्चा", "कविकंठाभरण" व "तिलक" क्षीरस्वामी ने पाणिनीय धातुपाठ के औदीच्य पाठ पर "क्षीरतरंगिणी' नामक 3 काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखे हैं। इन्हें साहित्यशास्त्र के नामक वृत्तिग्रंथ लिखा। इसका रोमन लिपि में प्रथम प्रकाशन औचित्यसंप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। इनके नाम पर करने का श्रेय जर्मन पण्डित लिबिश को है। दूसरा सुधारित 33 ग्रंथ प्रचलित हैं जिनमें 18 प्रकाशित व 15 अप्रकाशित संस्करण पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने देवनागरी में प्रकाशित किया। हैं। प्रकाशित ग्रंथों के नाम इस प्रकार हैं : रामायणमंजरी, क्षीरस्वामी ने "क्षीरतरंगिणी" के अतिरिक्त पांच ग्रंथ और महाभारतमंजरी, बृहत्कथामंजरी, दशावतारचरित (1066 ई.),
संस्कृत वाङ्मय कोश- ग्रंथकार खण्ड/305
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बौद्धावदान - कल्पलता, चारुचर्याशतक, देशोपदेश, दर्प दलन, चतुर्वर्गसंग्रह, कलाविलासनर्ममाला, कविकंठाभरण, औचित्यविचारचर्चा, सुवृत्ततिलक, लोकप्रकाशककोष, नीतिकल्पतरु और व्यासाष्टक । अप्रकाशित रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं। नृपाली ( इसका निर्देश राजतरंगिणी व कंठाभरण में है), शशिवंश (महाकाव्य), पद्यकादंबरी, चित्रभारत नाटक, लावण्यमंजरी, कनकजानकी, मुक्तावली, अमृततरंग, (महाकाव्य), पवन- पंचाशिका, विनयवल्ली, मुनिमतमीमांसा, नीतिलता, अवसरसार, ललितरत्नमाला और कविकर्णिका । क्षेमेन्द्र की 3 संदिग्ध रचनाएं भी है हस्तिप्रकाश, स्पंदनिर्णय और स्पेदसंदोह ।
अपनी उक्त 33 कृतियों में इन्होंने अनेकानेक विषयों का विवेचन किया है। व्यंग व हास्योस्पादक रचना के तो ये संस्कृत के यशस्वी प्रयोक्ता हैं। "औचित्यविचारचर्चा" में औचित्य ही काव्य का प्राण है यह सिद्धान्त प्रतिपादित किया गया है। इसका एक श्लोक इस प्रकार है :
उचितं प्राहुराचार्यः सदृशं किल यस्य यत् । उचितस्य च यो भावस्तदौचित्यं प्रचक्षते । ।
अर्थात् जो जिसके अनुरूप है वही उचित है, ऐसा आचार्य का कथन है। इस उचित का जो भाव है वही औचित्य कहलाता है।
अपने दीक्षागुरु भागवताचार्य सोमपाद की शिक्षा के कारण शैवमण्डल से परिवृत्त होने पर भी क्षेमेन्द्र परम भागवत थे। खंडदेव मिश्र मीमांसा दर्शन के भाट्टमत के अनुयायी । जन्म काशी में । पिता रुद्रदेव । निधन काल-विक्रम संवत् 1722 | रसगंगाधरकार पंडित जगन्नाथ के पिता पेरुभट्ट के गुरु इन्होंने मीमांसा दर्शन के भाट्ट-मत के इतिहास में "नव्यमत" की स्थापना कर, नवयुग का शुभारंभ किया । जीवन के अंतिम दिनों में इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया था। संन्यासी होने पर इनका नाम 'श्रीधरेन्द्र यतीन्द्र" हुआ था। इन्होंने 3 उच्चस्तरीय ग्रंथों की रचना की है वे हैं : मीमांसाकौस्तुभ (भाइकौस्तुभ), भाट्टदीपिका व भाइरहस्य । भाट्टकौस्तुभ मीमांसा सूत्रों पर रचित विशद टीका ग्रंथ है। भाट्टदीपिका इनका सर्वोत्तम ग्रंथ है इस पर 3 टीकाएं प्राप्त होती हैं। इस प्रकार आप मीमांसादर्शन के प्रौढ लेखक हैं।
खरनाद आयुर्वेद के एक प्राचीन आचार्य उनका गोत्र भरद्वाज था। पाणिनीय गणपाठ तथा तदुत्तरकालीन चांद्रव्याकरण में इनका उल्लेख है। वैद्यकशास्त्र पर इनकी संहिता, चरक के टीकाकार भट्ट हरिचन्द्र के पूर्वकाल में रची गयी अनेक टीकाग्रंथों में इस संहिता के वचन उदधृत किये गये हैं । खरखण्डीकर दे. खं. (डॉ.) - ई. 20 वीं शती । अहमदनगर निवासी कृतियां सुवचनसन्दोह (गीत संकलन) च्यवनभार्गवीय नाटिका ।
तथा
खांडेकर राघव पण्डित खानदेश (महाराष्ट्र) के निवासी । रचनाएं खेटकृति, पंचांगार्क और पद्धति चन्द्रिका । ये तीनों ग्रंथ
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ज्योतिषविषयक हैं।
खासनीस, अनन्त विष्णु इन्होंने मूल भावार्थदीपिका (भगवद्गीता की श्रेष्ठ मराठी टीका ज्ञानेश्वरी) का संस्कृत में अनुवाद किया। इसके 6-6 अध्यायों के दो खण्ड, " गीर्वाणज्ञानेश्वरी" के नाम से प्रकाशित हो चुके हैं। श्री. खासनीस जत संस्थान (महाराष्ट्र) के न्यायाधीश थे । खिस्ते, नारायणशास्त्री ( म. म.) जन्म काशी में 1892 ई. में । पिता भैरवपन्त । बचपन में ही शास्त्राध्ययन। 18 वर्ष की आयु में ही दक्षाध्वरध्वंसम (खण्डकाव्य) का लेखन जो "साहित्यसरोवर" (हिन्दी मासिक) में क्रमशः प्रकाशित हुआ । सरस्वती भवन ग्रंथालय काशी के अधिकारी। 'गवर्नमेंट संस्कृत सीरीज माला" में 20 ग्रंथ प्रकाशित किये। पदभार ग्रहण के समय ग्रंथालय में 13,999 ग्रंथ थे, इनकी व्यवहार चतुरता तथा दीर्घ परिश्रम से वह संख्या 60,999 तक पहुंची। इनके शिष्य वर्ग में अमेरिकन डा. नार्मन ब्राउन, डॉ. फ्रेंकलिन एजरटन, डॉ. पोलमेन तथा कुछ जर्मन तथा अंग्रेज संस्कृत पण्डित भी थे। शासकीय संस्कृत महाविद्यालय (काशी) में अनेक वर्षों तक अध्यापन कार्य किया । रचनाएं - दक्षाध्वरध्वंसम्, विद्वच्चरित्पंचकम् (चम्पूकाव्य), अभिज्ञान शाकुन्तलम् की लक्ष्मीटीका, स्वप्नवासवदत्तम् की टीका और दरिद्राणां हृदयम् तथा दिव्यदृष्टि नामक दो उपन्यास । सन् 1944 में आप "अमरभारती" नामक पत्रिका के संपादक बने। इस पत्रिका में आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई। म. म. गंगाधर शास्त्री आपके गुरु थे ।
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खेता समय ई. 15-16 वीं शती । रचना सम्यक्त्वकौमुदी । 3999 श्लोक । आध्यात्मिक ग्रंथ । यह ग्रंथ जहांगीर बादशाह के राज्यकाल में लिखा गया खोत, स्कन्द शंकर ई. 20 वीं शती । नागपुर निवासी । कबड्डी की क्रीडा में अत्यंत निपुण । वाई की प्राज्ञ पाठशाला में संस्कृत का अध्ययन कृतियां मालाभविष्यम्, हा हन्त शारदे, लालावैद्य, ध्रुवावतार और अरघट्टघट ये सभी छात्रोपयोगी लघु नाटिकाएं हैं और उत्सवों के अवसर पर नागपुर तथा मुंबई में मंचित हो चुकी हैं। नागपुर में कृषि विभाग से सेवानिवृत्त हुए।
गंगादास (गंगदास ई. 16 वीं शती पिता गोपालदास ) । - । व्यवसाय से वैद्य बंगाल के निवासी कृतियां छन्दोमंजरी, कविशिक्षा अच्युतचरित, दिनेशचरित और छन्दोगोविन्द । गंगादास "वृत्तिमुक्तावली" के कर्ता । "छन्दोमंजरी" कार गंगादास के भिन्न ।
गंगादेवी ई. 14 वीं शती। "मधुराविजय" (या "वीरकंपराय चरित") नामक ऐतिहासिक महाकाव्य की रचयित्री। विजयनगर के राजा कंपण्णा की महिषी एवं महाराज बुक्क की पुत्रवधू । ई. स. 1361 व 1371 में कंपण्णा ने मदुरई पर आक्रमण
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किया था। तब रानी गंगादेवी अपने पति के साथ गई थी। इन्होंने अपने पराक्रमी पति की विजय यात्राओं का वर्णन उक्त महाकाव्य में किया है। यह कात्य अधूरा है और 8 सर्गों तक ही प्राप्त होता है। गंगाधर- इस नाम के चार लेखक हुए
(1) बिल्हण के "विक्रमांकदेवचरित" के अनुसार, ये कर्ण के दरबार में कवि थे। इनके अनेक श्लोक श्रीधर कवि ने अपने "सदुक्तिकर्णामृत" में उद्धृत किये हैं।
(2) माध्यंदिन शाखा के एक स्मार्त पंडित। इन्होंने कात्यायनसूत्र पर टीका तथा “आधानपद्धति" आदि ग्रंथ लिखे हैं।
(3) 15 वीं शताब्दी के एक ज्योतिषी, जो श्रीशैल के पश्चिम में संगेर नामक ग्राम में रहते थे। "चांद्रमान" नामक तांत्रिक ग्रंथ के लेखक।
(4) मुहूर्तमार्तडकार नारायण के पुत्र । गोत्र-कौशिक, शाखा-वाजसनेयी। निवास-घृष्णेश्वर (महाराष्ट्र) के उत्तर में टापर नामक ग्राम। आपने "ग्रहलाघव" पर "मनोरमा" नामक टीका लिखी है।
(5) वृत्तधुमणिकार गंगाधर- तंजावर के राजा व्यंकोजी के अमात्य । रचना-भोसल-वंशावलि। राजपुत्र शाहजी की प्रशस्ति ।। गंगाधर कविराज- समय- सन् 1798-1885। मुर्शिदाबाद (बंगाल) के निवासी। व्यवसाय-वैद्यक। कृतियां :- दुर्गवध (काव्य), लोकालोकपुरुषीय (काव्य), हर्षोदय (चित्रकाव्य)
और छन्दोनुशासन। (व्याकरण विषयक) :- धातुपाठ, गणपाठ (मुग्धबोध), शब्द-व्युत्पत्तिसंग्रह, पाणिनीय अष्टाध्यायी की वृत्ति
और कात्यायन-वार्तिक-व्याख्या । (टीकाएं) :- अमरुशतक-टीका, पदांकदूत-विवृति और कौमारव्याकरण टीका। (काव्यशास्त्रीय)प्राच्यप्रभा (अग्निपुराण पर आधारित अलंकार-विषयक ग्रंथ), छन्दःपाठ व छन्दःसार। (नाटिका)- तारावती- स्वयंवर। (वैद्यक विषयक)- जल्पकल्पतरु, पंचनिदानव्याख्या, नाडीपरीक्षा, राजवल्लभकृत "द्रव्यगुण" की व्याख्या, आयुर्वेद-संग्रह, आयुर्वेद-परिभाषा, भैषज्य-रसायन और मृत्युंजय-संहिता। गंगाधरभट्ट- वल्लभ-संप्रदाय के मूर्धन्य विद्वान। भागवत की महापुराण के पक्ष में लघु-कलेवर-ग्रंथकारों में से एक। रचना का नाम- "दुर्जन-मुख-चपेटिका"। इनकी "चपेटिका" पर पंडित कन्हैयालाल द्वारा "प्रहस्तिका" नामक विस्तृत व्याख्या लिखी गई जो प्रकाशित भी है। गंगाधर शास्त्री- वाराणसी-निवासी। समय- ई.19 वीं शती। कृतियां हैं- "हंसाष्टकम्" तथा "अलि-विलास-संल्लापम्" ये दोनों दार्शनिक स्तोत्र हैं। गंगाधरेन्द्र-सरस्वती- रचनाएं- स्वाराज्यसिद्धिः (मुद्रित), वेदान्तसिद्धान्तसूक्तिमंजरी और सिद्धान्तचन्द्रिकोदय।
गंगानन्द कवीन्द्र- समय ई. 16 वीं शती का आरंभ। मैथिल पंडित। अपने काव्यों की रचना इन्होंने बीकानेर में रह कर की थी। कवीन्द्र की रचनाएं हैं- 1. वर्णभूषणम् (काव्य-शास्त्र का ग्रंथ), 2. काव्यडाकिनी (इसमें काव्य दोषों का विवेचन किया गया है), 3. भृगदूतम् (दूतकाव्य) एवं 4. मन्दारमंजरी (रूपक)। गंगाप्रसाद उपाध्याय- इनका जन्म उत्तर प्रदेश के नरदइ ग्राम में दि. 6 सितंबर 1881 ई. को हुआ था। इन्होंने प्रयाग से अंग्रेजी और दर्शन में एम. ए. किया था। आप कई विषयों व भाषाओं के पंडित तथा अंग्रेजी व हिन्दी में अनेक ग्रंथों के लेखक थे। इनके प्रसिद्ध ग्रंथ हैं- फिलॉसाफी ऑफ दयानंद, ऐतरेय व शतपथ ब्राह्मण के हिन्दी अनुवाद, मीमांसा-सूत्र व शाबर-भाष्य का हिन्दी अनुवाद आदि। आप आर्य समाजी थे। आपका आर्योदय नामक संस्कृत काव्य भारतीय संस्कृति का काव्यात्मक इतिहास माना जाता है। गंगाराम दास- बंगाली। “शरीर-निश्चयाधिकार" नामक आयुर्वेद विषयक ग्रंथ के लेखक। गंगासहाय (पं)- समय- 1811-1889 ई.। बूंदी के महाराव रामसिंह के समय में सेखावाटी से आये हुए गंगासहाय दर्शन व प्राच्य विद्या के विद्वान थे। इन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें से प्रसिद्ध ग्रन्थ हैं : परमेश्वर-शतक (काव्य) व न्याय-प्रदीप। गंगासहाय- भागवत की आधुनिक टीकाओं में मान्यताप्राप्त टीका "अन्वितार्थ-प्रकाशिका" के प्रणेता। इन्होंने टीका के उपोद्घात में अपना पूरा परिचय निबद्ध किया है। तदनुसार ये पाटण नामक स्थान के निवासी थे। यह स्थान, पांडुवंशीय तौमर अनंगपाल के वंशज मुकुंदसिंह के शासन में था। माता-लक्ष्मी, जो बचपन में ही चल बसीं। पिता-पंडित रामधन । इन्हींसे आपने सकल शास्त्रो एवं भागवत का अध्ययन किया। अनेक राजदरबारों से इनका समय-समय पर. संबंध रहा । बूंदी-नरेश रामसिंह के यहां आप अनेक वर्षो तर अमात्य-पद पर कार्यरत रहे, वृद्धावस्था प्राप्त होते ही इन्होंने अमात्य-पद छोड दिया और भागवत के अनुशीलन में संलग्न हुए। इन्होंने प्राचीन टीकाओं का अध्ययन किया किंतु अन्वयमुखेन सरलार्थ-दीपिका व्याख्या न मिलने पर, इन्होंने स्वान्तःसुखाय "अन्वितार्थ प्रकाशिका" का प्रणयन किया। उस समय (1955 विक्रमी- 1898 ई.) आपकी आयु 60 वर्ष से अधिक थी। भागवत में प्रयुक्त प्रसिद्ध-अप्रसिद्ध सभी प्रकार के छंदों का लक्षणपूर्वक निर्देश संभवतः गंगासहाय ने ही पहली बार किया है। गंगेश उपाध्याय (गंगेरी उपाध्याय)- समय ई. 13 वीं शती। प्रसिद्ध मैथिल नैयायिक आचार्य गंगेश उपाध्याय, न्याय-दर्शन के अंतर्गत नव्यन्याय नामक शाखा के प्रवर्तक हैं। इन्होंने "तत्त्व-चिंतामणि" नामक युगप्रवर्तक ग्रंथ की रचना कर
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न्याय-दर्शन में युगांतर का आरंभ किया था और उसकी धारा ही पलट दी थी। "तत्त्व-चिंतामणी" का प्रणयन 1200 ई. के आसपास इन्होंने किया। प्रस्तुत ग्रंथ की पृष्ठसंख्या 300 है, जब कि उस पर लिखे गये टीकाग्रंथों की पृष्ठ-संख्या 10 लाख से भी अधिक है। गंगेश के पुत्र वर्धमान उपाध्याय भी अपने पिता के समान बहुत बडे नैयायिक थे। इन्होंने भी "तत्त्व-चिंतामणि" पर "प्रकाश" नामक टीका लिखी है। गौतम के केवल एक सूत्र- "प्रत्यक्षानुमानोपमानशब्दाः प्रमाणानि" पर रचित "तत्-चिंतामणि'- ग्रंथ में प्रत्यक्ष, अनुमान, उपमान व शब्द-इन 4 प्रमाणों का विवेचन गंगेशजी ने किया है। गंगेशजी की लेखन-शैली अत्यंत प्रौढ व शास्त्र-शुद्ध होने के कारण ज्योतिष को छोड प्रायः सभी उत्तरकालीन शास्त्रीय ग्रंथों पर उनकी शैली का प्रभाव परिलक्षित होता है। गजपति वीरश्री नारायणदेव- पिता- पद्मनाभ। पार्ला कीमेडी (उडीसा) में, ई. 1700 में राज्याधिपति। पुरुषोत्तम के पास संगीत-शिक्षा। रचना- "संगीत-नारायण" जिसमें अपनी अन्य रचना "अलंकारचंद्र" का उल्लेख इन्होंने किया है। अनेक कवियों तथा उनकी रचनाओं का इसमें उल्लेख है। गणधरकीर्ति- गुजरात-निवासी। पुष्पदन्त के प्रशिष्य और कुवलयचन्द्र के शिष्य। रचना- सोमदेवाचार्य के ध्यानविधि पर "अध्यात्मतरंगणी" नामक विस्तृत टीका। वाटग्राम में गुजरात के चालुक्यवंशी राजा जयसिंह (या सिद्धराज जयसिंह) के काल में यह टीका लिखी गई। समय ई. 12 वीं शती। गणनाथ सेन- ई. 20 वीं शती। बंगाली विद्वान्। कृतियांछन्दोविवेक, प्रत्यक्षशारीर व सिद्धान्त-निदान। गणपतिमुनि (वासिष्ठ)- ई. स. 1878-1936। जन्म-आन्ध्र के विशाखापट्टणम् जिले के कवलरायी ग्राम में, अय्यल सोमयाजी के परिवार में। पिता-नरसिंहशास्त्री। माता-नरसांबा। आयु के 6 वर्ष तक ये रोगग्रस्त थे और इन्हें वाणी भी प्राप्त नहीं हुई थी किन्तु बाद की आयु में अल्प काल में ही इन्होंने संस्कृत गणित, ज्योतिष, पंचमहाकाव्य आदि का अध्ययन पूर्ण कर लिया। इसी अवधि में सहस्रावधि संस्कृत श्लोकों की रचना की। अपनी माता की जन्मपत्रिका देखकर मृत्यु दिन का भविष्य कथन किया, जो सही निकला। छात्रावस्था में ही इनका विवाह हो गया किन्तु गृहस्थी में उनका मन नहीं रमा। 14 वर्षों की अवस्था में धार्तराष्ट्रसंभव नामक खंडकाव्य की रचना की। 18 वर्ष की आयु में पेरमा नामक अग्रहार में जाकर तप करने लगे। बाद में बंगाल के नवद्वीप में एक साहित्य-परिषद् के अवसर पर शीघ्रकवित्व की प्रवीणता से "काव्य-कंठ" की उपाधि प्राप्त की। इनके कुछ प्रमुख ग्रंथ :- उमासहस्रम्, इन्द्राणी-सप्तशती, शिवशतक, भुंगदूत, विश्वप्रमाण-चर्चा, विवाहधर्मसूत्रम्, ईशोपनिषद्भाष्यम् तथा आयुर्वेद व ज्योतिष पर 5-6 ग्रंथों के अलावा महाभारत-विमर्शः नामक
प्रकरण-ग्रंथ । रमण महर्षि और योगी अरविंद के शिष्य तथा मित्र । गणपतिशास्त्री (म.म.)- इन्होंने अपने "श्रीमूलचरितम्" काव्य में त्रावणकोर-राजवंश का चरित्र वर्णन किया है। अन्य काव्य "अर्थचिन्तामणिमाला" में त्रावणकोर के राजा विशाखराम का स्तवन है। आप त्रिवेन्द्रम में दीर्घकाल तक संस्कृताध्यापक रहे । तदनन्तर "क्यूरेटर" के पद पर नियुक्ति हुई। इस कार्यकाल में "भासनाटक-चक्र" प्रकाशित कर बहुत ख्याति प्राप्त की। गणपतिशास्त्री- ई. 19-20 वीं शती। तंजौर जिले के निवासी। रचनाएं-कटाक्षशतकम्, ध्रुवचरितम्, रसिकभूषणम्, गुरुराजसप्ततिः तटाटाका-परिणयम् और अन्यापदेशशतकम्। गणेश दैवज्ञ- ज्योतिष-शास्त्र के एक श्रेष्ठ महाराष्ट्रीय आचार्य । पिता-केशव। माता-लक्ष्मी। सन् 1517 ई. में जन्म। इन्होंने 13 वर्ष की आयु में ही "ग्रह-लाघव" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की थी। इनके द्वारा प्रणीत अन्य ग्रंथ हैंलघुतिथि-चिंतामणि, बृहत्तिथि- चिंतामणि, सिद्धान्त-शिरामणिटीका, लीलावती-टीका, विवाह-वृंदावन-टीका, मुहूर्त-तत्त्व-टीका, श्राद्धादि-निर्णय, छंदोर्णव-टीका, सुधीर-रंजनी-यंत्र, कृष्ण-जन्माष्टमी-निर्णय और होलिका-निर्णय।। गणेश दैवज्ञ कथाः- यह प्रसिद्ध ज्योतिषी "ग्रहलाधव" के लेखक हैं। इनके पिता-केशव जाने माने ज्योतिषशास्त्र विशारद थे। एक बार केशव द्वारा बताया गया समय गलत निकला तब सब ने उनका उपहास किया। इस से अपमानित होकर वह गणेश मंदिर में गए तथा वहां उन्होंने तपश्चर्या
आरम्भ की। गणेश ने प्रसन्न होकर उन्हें दृष्टांत दिया कि वृद्धावस्था के कारण वह ग्रहशोध तथा गणित ठीक से कर न पाएंगें उस समय गणेश स्वयं उनके पुत्ररूप में जन्म ग्रहण करनेका आश्वासन दिया। यही पुत्र आगे चलकर गणेश दैवज्ञ के नाम से प्रसिद्ध हुए। ग्रहवेध तथा गणित दोनों कार्यों में वह प्रवीण थे। इनके पैर में आंख निकलने से वह समाज में आदर के भाजन हुए। गणेशराम शर्मा (पं)- जन्म 27 मार्च, 1908 ई.। जन्मस्थान डूंगरपूर, किन्तु इनका कार्यक्षेत्र झालावाड रहा है, अतः इनकी गणना पूर्वी राजस्थान के कवियों में होती है। पिता-श्री. केदारलाल शर्मा । भारतधर्ममहामण्डल द्वारा आपको "विद्याभूषण" की उपाधि से सम्मानित किया गया था। "ज्योतिषोपाध्याय', “साहित्य-रत्न" आदि उपाधियां भी आपको प्राप्त थीं। आप झालावाड के राजेन्द्र कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक रहे हैं। साहित्य सम्मेलन दिल्ली द्वारा आपको स्वर्णपदक भेंट किया गया। आपकी प्रमुख कृतियां हैं : ___1. आशीःकुसुमांजली, 2. श्रीलामणिप्रशस्तिः, 3. श्रीमोहनाभ्युदयः (गांधीजी पर), 4. महिषमर्दिनी- स्तुतिः, 5. देवीस्तुतिः, 6. संस्कृतकथाकुंज, 7. लक्ष्मणाभ्युदय (इसमें डूंगरपुर के राजा लक्ष्मणसिंह का चरित्र ग्रंथित है।
308 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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संस्कृत गद्य में भी आप समयोपयोगी ग्रन्थ लिखते रहे हैं। श्रीमहारावल - रजत जयन्तीग्रंथ का आपने संपादन किया । भारती, मधुरवाणी, संस्कृतरनाकार, संस्कृतसाकेत, संस्कृतचन्द्रिका, दिव्यज्योतिः, सरस्वती, सौरभ, भारतवाणी इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में आपके अनेक लेख, कविता, कथा प्रकाशित हुए हैं। गदाधर चक्रवर्ती भट्टाचार्य- समय- ई. 17 वीं शती । पिता - प्रसिद्ध नैयायिक | गुरु हरिराम तर्कांलंकार। नवद्वीप (बंगाल) के प्रसिद्ध नव्य नैयायिकों में इनका स्थान सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है। समय- 17 वीं शताब्दी । इन्होंने रघुनाथ शिरोमणि के सुप्रसिद्ध ग्रंथ "दीधिति" पर विशद व्याख्या - ग्रंथ की रचना की है जो इनके नाम पर "गादाधरी" की अभिधा से विख्यात है। इनके द्वारा रचित ग्रंथों की संख्या 52 बतलायी जाती है। इन्होंने उदयनाचार्य के प्रसिद्ध ग्रंथ "आत्मतत्त्व-विवेक" व गंगेश उपाध्याय के "तत्त्व- चिंतामणि" पर टीकाएं लिखी हैं जो "मूलगादाधारी" के नाम से प्रसिद्ध है "तत्त्व- चिंतामणि" के कुछ ही भागों पर टीका लिखी गई हैं। "शक्तिवाद" व "व्युत्पत्तिवाद", इनके न्याय-विषयक अत्यंत महत्त्वपूर्ण मौलिक ग्रंथ हैं
2.
इनके कुछ अन्य ग्रंथों के नाम हैं- मुक्तावली टीका, रत्नकोषवादरहस्य, आख्यातवाद, कारकवाद, शब्द- प्रामाण्यवाद रहस्य, बुद्धिवाद, युक्तिवाद, विधिवाद और विषयतावाद इ. । गागाभट्ट काशीकर ई. 17 वीं शताब्दी के महान् मीमांसक व धर्मशास्त्री । पैठण-निवासी दिनकर भट्ट के पुत्र । ये बाद में काशी गये। इनका वास्तविक नाम विश्वेश्वर था किन्तु पिताजी प्यार से गागा कहा करते। वही नाम रूढ हो गया। प्रमुख ग्रंथ- 1. मीमांसा - कुसुंमाजलि (पूर्वमीमांसावृत्ति), भाट्टचिंतामणि 3. राकागम (जयदेव के चंद्रालोक पर टीका), 4. दिनकरोद्योत (धर्मशास्त्र पर लिखे इस ग्रंथ का प्रारंभ पिता - दिनकर भट्ट ने किया था), निरूढपशुबंधप्रयोग, 5. पिडपितृयज्ञप्रयोग 6. सुज्ञान-दुर्गोदय (सोलह संस्कारों का विवेचन) 7. शिवाकोंदय (शिवाजी के आदेश पर पूर्वमीमांसा पर लिखा गया ), 8. समयनय ( यह ग्रंथ संभाजी राजा के लिये लिखा गया) 9 आपस्तंबपद्धति 10. अशौचदीपिका, 11. तुलादानप्रयोग, 12 प्रयोगसार और शिवराज्याभिषेकप्रयोग ।
"
+
गागाभट्ट ने शिवाजी महाराज का व्रतबंध करा, वैदिक पद्धति से उनका राज्याभिषेक किया। शिवाजी सिसोदिया वंश के क्षत्रिय थे, यह अन्वेषण उन्होंने किया। ई. 16 व 17 वीं शताब्दी के मुस्लिम बादशाहों के दरबारों में भी उनके परिवार को सम्मान प्राप्त था । राज्याभिषेक के बाद शिवाजी ने विपुल धन-सम्पदा देकर उनका गौरव किया था ।
गागाभट्ट को शिवराज्याभिषेक - विधि के हेतु आमंत्रित किया जाने पर उन्होंने "शिवराज्याभिषेक प्रयोग" की रचना की थी जो पुणे के इतिहास-अन्वेषक वा. सी. बेन्द्रे द्वारा 42 पृष्ठों
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की प्रस्तुति सहित प्रकाशित है। मूल हस्तलिखित प्रति बीकानेर राज्य के संग्रह से प्राप्त हुई थी। डॉ. श्री. भा. वर्णेकर ने इसका मराठी अनुवाद किया, जो मुंबई विश्वविद्यालय के "कॉरोनेशन व्हॉल्यूम में मूल प्रथसहित 1974 में प्रकाशिर हुआ। गाडगीळ वसंत अनंत पुणे निवासी शारदा नामक पाक्षिक पत्रिका के संपादक एवं शारदागौरव ग्रंथमाला के संचालक । इस ग्रंथमाला में 50 से अधिक संस्कृत ग्रन्थों का प्रकाशन श्री गाडगील ने किया है।
गाथी ऋग्वेद के 19 से 22 वे सूक्तों के द्रष्टा । इनमें से दो सूक्तों में अश्विन की स्तुति की गई है। सर्वानुक्रमणि के अनुसार गाधी कुशिक के पुत्र और विश्वामित्र के पिता थे। गार्ग्य (गार्ग्याचार्य)- पाणिनि के पूर्ववर्ती वैयाकरण । पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय ई. पू. 4 थी शताब्दी है। पाणिनिकृत अष्टाध्यायी में इनका उल्लेख 3 स्थानों पर है- (1) 7-3-991 (2) 8-3-201 (3) 8-4-67।
व
इनके मतों मतों के के उद्धरण "ऋक्प्रातिशाख्य" "वाजसनेय प्रातिशाख्य" में प्राप्त होते है। इससे इनके व्याकरणविषयक ग्रंथ की प्रौढता का परिचय प्राप्त होता है। इनका नाम गर्ग था और ये प्रसिद्ध वैयाकरण भारद्वाज कें पुत्र थे । यास्ककृत "निरुक्त" में भी एक गार्ग्य नामक व्यक्ति का उल्लेख है तथा "सामवेद" के पदपाठ को भी गार्ग्य-रचित कहा गया है। मीमांसाकजी के अनुसार "निरुक्त" में उद्धृत मत वाले गार्ग्य व वैयाकरण गार्ग्य अभिन्न है- "तत्र नामानि सर्वाण्याख्यातजानीति शाकटायनो निरुक्तसमयश्च न सर्वाणीति गाम्यों वैयाकरणानां चैके" (निरुक्त 1-12 ) ।
प्राचीन वाड्मय में गार्ग्य रचित कई ग्रंथों का उल्लेख प्राप्त होता है। वे हैं निरुक्त, सामवेद का पदपाठ, शालाक्य-तंत्र, भूवर्णन, तंत्रशास्त्र, लोकायतशास्त्र, देवर्षिचरित और सामतंत्र इनमें से सभी ग्रंथ वैयाकरण गार्ग्य के ही हैं या नहीं, यह प्रश्न विचारणीय है ।
गार्ग्य आंगिरस कुल के गोत्रकार व मंत्रकार ऋषि है। ये कुल मूलतः क्षत्रिय थे। बाद में इन्होंने तपोबल से ब्राह्मणत्व प्राप्त किया। गार्ग्य के सम्बन्ध में धर्म-शास्त्रकार होने का भी उल्लेख मिलता है। यद्यपि इनका सम्पूर्ण ग्रन्थ कहीं भी उपलब्ध नहीं है तथापि अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, मिताक्षरा आदि ग्रंथों में इनके ग्रन्थ के अनेक उध्दरण लिये गये हैं । गालव - एक प्राक्पाणिनि वैयाकरण । पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय ई. पू. 4 थी शताब्दी है। आचार्य गालव का पाणिनि नं 4 स्थानों पर उल्लेख किया है( अष्टाध्यायी 6-3-61, 8-4-67, 7-1-74 और 7-3-99)। अन्यत्र भी इनकी चर्चा की गई है, जैसे- "महाभारत" के शांतिपर्व (342-103,104) में गालव, "क्रमपाठ" " शिक्षापाठ" के प्रवक्ता के रूप में वर्णित हैं। इन्होंने व्याकरण
व
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के अतिरिक्त अन्यान्य ग्रंथों की भी रचना की थी। दैवतग्रंथ, वेदना-वेदनगीति, 5. सूक्तिमुक्तावलि, 6. शृंगारलहरी और 7. शालाक्यतंत्र, कामसूत्र, भूवर्णन आदि। सुश्रुत के टीकाकार ___ "भारती", "संस्कृतरत्नाकार" आदि पत्रिकाओं में प्रकाशित डल्हण के अनुसार गालव धन्वंतरि के शिष्य थे। इनके पिता
रचनाएं। का नाम गलु या गलव माना जाता है। भगवद्दत्तजी के गिरिधरलाल व्यास शास्त्री- जन्म- 2 अप्रैल 1894 ई. को अनुसार ये शाकल्य के शिष्य थे।
उदयपूर (मेवाड़) में हुआ। पिता-गोवर्धन शर्मा । संस्कृत-साहित्य __ यास्कप्रणीत "निरुक्त" में उल्लिखित निरुक्तकारों में की सेवा के लिए केन्द्रीय सरकार द्वारा 100/- रु. प्रतिमाह गालव एकतम हैं। गालवाचार्य का निरुक्त में एकबार और अनुदान प्राप्त । इनकी प्रसिद्ध रचनाएं हैं- 1. अभिनव-काव्यप्रकाश बृहदेवता में चार बार उल्लेख मिलता है। गालत्र के नाम (प्रथम व द्वितीय भाग), 2. काव्य-सुधाकर (चन्द्रालोकवृत्तिरूप), से एक ब्राह्मण-ग्रंथ" भी प्रसिद्ध है। "महाभारत' के शान्तिपर्व 3. स्वजीवनवृत्तम् (काव्यम्), 4. मेदपाटेतिहासः (काव्यम्) । में गालव नाम का जो उल्लेख है, उससे एक और निष्कर्ष
संपादन- 1. वीरभूमिः- संस्कृत-पद्य-रचना, 2. योगसूत्रम्, संमत हो सकता है कि उनका गोत्र बाभ्रव्य था।
3. परमार्थविचार, 4. चतुरचिन्तामणिः (भाग्यत्रयी), 5. गिरिधरलाल गोस्वामी- काशी में निवास। काशीवाले गोसाई महिम्नस्तोत्रम्, 6. चन्द्रशेखरः ।
और गिरिधरजी महाराज के नामों से प्रसिद्ध। संपूर्ण भागवत गीर्वाणेन्द्र दीक्षित- ई. 17 वीं शती। नीलकण्ठ दीक्षित के पर "बालप्रबोधिनी" नामक टीका के लेखक। वल्लभाचार्य तृतीय पुत्र । शिक्षा पिता से पायी। कृतियां- अन्यापदेश-शतक की टीका "सुबोधिनी' की रचना अंशतः होने से सांप्रदायिक
(काव्य) और शृंगारकोश (भाण)। मतानुसार तदितर स्कंधों का तात्पर्य अनिर्णित रह गया था।
गुणनन्दी- ई. 10 वीं शती। जैनेन्द्र व्याकरण पर शब्दार्णव इसी अभाव की पूर्ति, गिरिधरलालजी ने "बालप्रबोधिनी" के
नामक व्याख्या आपने लिखी है। जैनेन्द्र धातुपाठ का संशोधन प्रणयन द्वारा की।
भी आपने किया है। भारतीय ज्ञानपीठ से प्रकाशित जैनेन्द्र इनका दूसरा ग्रंथ है "शुद्धाद्वैतमार्तण्ड"। इसमें इनके
महावृत्ति के अन्त में गुणनन्दी द्वारा संशोधित धातुपाठ छपा है। जन्मकाल का उल्लेख 1847 सर्वत् (1780 ई.) दिया गया
गुणभद्र (प्रथम)- जन्मस्थान- दक्षिण अर्काट जिले का है। इन्होंने सुबोधिनी का ही नहीं प्रत्युत प्रौढ दार्शनिक ग्रंथों
तिरुमरुङ्कुण्डम् नगर । सेनसंघ के आचार्य । गुरु-जिनसेन द्वितीय । का भी अनुसंधान एवं मनन किया था। पंडित होने के
दादागुरु-वीरसेन । साधनाभूमि-कर्नाटक और महाराष्ट्र । स्थितिकालअतिरिक्त ये बड़े सिद्ध पुरुष थे। काशी का प्रख्यात गोपाल
राष्ट्रकूट अकालवर्ष के समकालीन। ई. नवमशती का अन्तिम मंदिर, इनका साधना-स्थल था। इस मंदिर के ये स्वामी थे।
भाग। रचनाएं- आदिपुराण (जिनसेन द्वितीय द्वारा अधूरे छोडे कहते हैं कि गिरिधरलालजी के आशीर्वाद से श्रेष्ठ हिंदी आदिपुराण के 43 वें पर्व के चतुर्थ पद्य से समाप्ति पर्यन्त साहित्यिक भारतेंदु हरिश्चंद्र का जन्म हुआ था। अतः उनके
1620 पद्य-) शक सं. 820, उत्तरपुराण (महापुराण का उत्तर उपकृत होने के कारण भारतेन्दु के पिता अपनी कविताओं में
भाग), आत्मानुशासन और जिनदत्तचरित काव्य । अपना उपनाम “गिरिधर" रखते थे।
गुणभद्र (द्वितीय)- ई. 13 वीं शती। "उत्तर पुराण" के ये गोपेश्वरजी के शिष्य थे। इन्होंने आचार्य वल्लभ के
रचयिता गुणभद्र से भिन्न। माणिक्य सेन के प्रशिष्य और "अणु-भाष्य" को अपनी पांडित्यपूर्ण टीका से मंडित किया। नेमिसेन के शिष्य। कवि ने बिलासपुर के जैन मंदिर में रहकर ये व्याकरण के मर्मज्ञ विद्वान होने के कारण पाठ-भेद के
लम्बकंचुकवंश के महामना साहू शुभचन्द्र के पुत्र बल्हण के प्रवीण समीक्षक थे। अतः इन्होंने अणुभाष्य के अनेक पाठों
आग्रह से धन्यकुमार-चरितकाव्य (सात सर्ग) की रचना की। का विवेचन कर, उसका विशुद्ध स्वरूप प्रस्तुत किया। इनका यह रचना महोबे के चन्देल नरेश परमादि देव के शासन-काल विख्यात ग्रंथ "शुद्धाद्वैत-मार्तण्ड", शुद्धाद्वैत के सिद्धांतो के प्रतिपादन में उपकारक है।
गुणभूषण- समय- ई. 14 वीं शती। मूल संघ के विद्वान गिरिधारीलाल शर्मा तेलंग भट्ट (पं.)- जन्म- सन् 1895 विनयचन्द्र के प्रशिष्य और त्रैलोक्यकीर्ति के शिष्य । ई.। आपका जन्म अलवर में हुआ था। पिता- रणछोडजी स्याद्वाद-चूडामणि के नाम से ख्यातिप्राप्त। रचना गुणभूषणतेलंग। ये व्याकरण, साहित्य व वेदान्त के विद्वान हैं। आप श्रावकाचार (तीन उद्देश्य) यह ग्रंथ वसुनन्दि- श्रावकाचार से "कविकिंकर" के नाम से लिखते हैं। सन् 1915 से 1935 प्रभावित है। तक ये अलवर व झालावाड के नरेशों के आश्रय में रहे।
गुणविष्णु- ई. 13 वीं शती। गुणविष्णु कृत छान्दोग्यमंत्र-भाष्य,, वृद्धावस्था के कारण अनेक रोगों से आक्रांत होकर झालावाड
सामवेद की कौथुम शाखा के मंत्रों पर लिखा है। इनमें में निवास करने लगे। इनकी प्रकाशित रचनाएं हैं- 1. अधिकांश मंत्र साममंत्र ब्राह्मण के ही हैं और अन्य मन्त्र ऋतुशतकम्, 2. अलवरवर्णनम्, 3. मुद्रामाहात्म्यम्, 4.
कुछ लुप्त साम मन्त्र पाठ से लिए हुए हो सकते हैं। गुणविष्णु
"कविकिकर"
झालावाड के
आक्रांत होकर
1.
310/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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बंगाल अथवा मिथिला के निवासी होंगे। वे महाराज बल्लालसेन
और लक्ष्मणसेन के काल में राजपण्डित थे। सायणाचार्य ने गुणविष्णु आचार्य से सहायता ली ऐसा विद्वानों का तर्क है। गुणविष्णु आचार्य ने पारस्कर गृह्यसूत्र और मंत्र-ब्राह्मण पर भी भाष्य रचना की हैं। गुणानन्द विद्यावागीश- 17 वीं शती। रचनाएंअनुमानदीधितिविवेकः, आत्मतत्मविवेक-दीधिति-टीका, गुणविवृत्ति-विवेक, न्यायकुसुमांजलिविवेक, न्यायलीलावतीप्रकाश, दीधितिविवेकः और शब्दलोक-विवेकः । गुरुप्रसन्न भट्टाचार्य- जन्म-सन् 1882 में। स्मृति-पण्डित काशीराम (वाचस्पति) के पुत्र । कृतियां- श्रीराम (महाकाव्य) व माथुर (खण्डकाव्य) । नाभाग-चरित (नाटक), भामिनीविलास और मदालसा-कुवलयाश्व तथा वरूथिनीचंपू।
ढाका और वाराणसी में संस्कृत के प्राध्यापक रहे। गुरुराम- ई. 16 वीं शती। उत्तर अर्काट जिले के निवासी। पिता-स्वयंभू दीक्षित। माता-राजनाथ की कन्या। रचनाएंहरिश्चन्द्रचरित (चम्पू), रत्नेश्वर-प्रसादन (नाटक), सुभद्रा-धनंजय (नाटक), मदन-गोपाल-विला: (भाण) और विभागरत्नमालिका । गुलाबराव महाराज- समय 1831-1915 ई. जन्म- अमरावती (विदर्भ) जिले के लोनीटाकली नामक श्रम में शकाब्द 1803 में हुआ। पिता-गोंदुजी मोहोड और माता-अलोकाबाई। मूल क्षत्रिय, परंतु वे स्वतः को शूद कहते थे। जब वे 7-8 वर्ष के बालक थे तब उनकी आंखों की ज्योति सदा के लिये चली गयी।
उनके साथ सौतेली माता का व्यवहार अच्छा न होने से वे प्रायः घर के बाहर ही रहा करते। अंधत्व के कारण दे पाठशाला नही जा सकते थे। वे एकपाठी थे। अतः जो-कुछ श्रवण करते, वह उन्हें तुरन्त मुखोद्गत हो जाता था। गाव में कभी-कभी एकाध मुल्ला-मौलवी आ जाता तो वे उसके निकट जाकर उससे कुराण की आयतें श्रवण करते। ___ एक बार गुलाबराव महाराज अपने पड़ोसी के यहां खेलने गये थे। उसी समय पडोस के सीताराम भुयार की मां अपनी पोती के साथ वहां पहुंची। उसने विनोद में 12 वर्ष के गुलाब से कहा- “एक मुक्के में नारियल फोड दो, तो अपन पोती में तुम्हें दूंगी" उन्होंने ने वह प्रण पूर्ण कर दिखाया। अंध गुलाब का विवाह उसी कन्या मनकर्णिका के साथ हुआ।
महाराज ने सभी शास्त्रों का ज्ञान श्रवण से ही प्राप्त किया था। वेद-वेदान्त से लेकर संगीत, वैद्यक, साहित्यशास्त्र, थियॉसफी, पाश्चात्य दर्शन, आधुनिक विज्ञान, इतिहास आदि विषयों पर उन्होंने अधिकार-वाणी से विचार व्यक्त किये हैं। महाराज ने सूत्रग्रन्थ से लेकर आकर ग्रन्थों तक विविध प्रकार की रचनाएं मराठी, हिन्दी और संस्कृत भाषा में की हैं। उनकी संख्या 125 है। सभी ग्रंथ नागपुर में प्रकाशित । उनकी संस्कृत रचनाओं की नामावलि इस प्रकार है।
___1. अन्तर्विज्ञानसंहिता, 2. ईश्वरदर्शन, 3. समसूत्री, 4.
दुर्गातत्त्वम्, 5. काव्यसूत्र-संहिता, 6. शिशुबोध-व्याकरण, 7. न्यायसूत्राणि, 8. एकादशी-निर्णय, 9. पुराणमीमांसा, 10. नारदीय-भक्त्यधिकरण-न्यायमाला, 11. भक्तिसूत्र, 12. श्रीधरोच्छिष्टपुष्टि, 13. उच्छिष्टपुष्टिलेख, 14. ऋग्वेद-टिप्पणी, 15. बालवासिष्ठ, 16. शास्त्रसमन्वय, 17. आगमदीपिका, 18. युक्तितत्त्वानुशासन, 19. तत्त्वबोध, 20. षड्दर्शनलेश-संग्रह, 21. भक्तितत्त्वविवेकः, 22. प्रियप्रेमोन्माद, 23. गोविंदानन्दसुधा, 24. मानसायुर्वेद, 27. संप्रदायकुसुममधु, 28. सच्चिन्निर्णय, 29. कान्तकान्तावाक्यपुष्पम् और 30. मात्रामृतपानम्।
गुलाबराव महाराज मधुराद्वैत संप्रदाय के प्रवर्तक थे। महाराज कहते थे कि मुझे संत ज्ञानेश्वर ने गोदी में लेकर कृपा-दृष्टि से निहारा, और मेरी योग्यता आदि न देखते हुए मुझ पर अपनी करुणा की वर्षा कर अपने नाम का मन्त्र मुझे (सन 1901) दिया। इस साक्षात्कार के पश्चात् महाराज को ज्ञानसिद्धि प्राप्त हुई।
महाराज की पत्नी मनकर्णिका पतिपरायण तो थी ही, साथ ही श्रेष्ठ शिष्या भी थी। एक बार महाराज ने अपनी पत्नी को कसौटी पर परखने का निश्चय किया। उन्हें चार मास का इकलौता पुत्र था। पुत्र-मोहवश पत्नी का चित्त परमार्थ-मार्ग से विचलित तो नहीं होता यह परखने के लिये, एक दिन रात्रि को (दिसंबर 1905) उन्होंने पत्नी से कहा कि वह अपने हाथ से संतान को विष खिला दे। उस कसौटी पर मनकर्णिका खरी उतरी। महाराज को परम संतोष हुआ। बाद में मनकर्णिका को ज्ञात हुआ कि पति ने पुत्र को पिलाने झूठ-मूठ का विष दिया था।
दि. 20 सितंबर 1915 को, आयु के 34 वें वर्ष में, महाराज ने अपनी इहलीला समाप्त की। गुह त्रैलोक्यमोहन - रचना- गीतभारतम्। विषय-आङ्ग्ल साम्राज्य तथा सम्राज्ञी व्हिक्टोरिया का यशोगान । गुहदेव - ई. 8 वीं या 9 वीं शती। यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के एक भाष्यकार । सगुण ब्रह्म ही उपनिषदों का प्रतिपाद्य है, यह इनका सिद्धांत है। शास्त्रोक्त कर्म के बिना ईश्वर प्राप्ति संभव नहीं- यह मत भी इन्होंने प्रतिपादित किया है। इनका भाष्य-ग्रंथ उपलब्ध नहीं, किंतु देवराज यज्वा ने अपने निघंटु-भाष्य की भूमिका में और रामानुजाचार्य ने अपने वेदार्थ-संग्रह में गुहदेव का निर्देश किया है। गोकुलचन्द्र- आपने अष्टाध्यायी-संक्षिप्त वृत्ति की रचना की है। गोकुलनाथ - पिता- महाकवि विद्यानिधि पीताम्बर । गृहस्थाश्रम के प्रारम्भिक दिन श्रीनगर के राजा फतेहशाह (1684-1716) के समाश्रय मे रहे। बाद में मिथिला-निवासी। मिथिला के राजा राघवसिंह (1703-1709) के प्रीत्यर्थ "मासमीमांसा" नामक ग्रंथ की रचना की। काशी में 90 वर्ष की अवस्था में मृत्यु ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 311
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गोतम एक वैदिक ऋषि । पिता रहुगण । शतपथ के अनुसार ये राजा जनक और ऋषि याज्ञवल्वय के समकालीन थे (शतपथ ब्राह्मण 11.4.3.20 ) । अथर्ववेद में भी इनका दो बार उल्लेख आता है। (4.29.6.18.3.16 ) ।
इन्हें वामदेव और नोधा नामक दो पुत्र थे । ऋग्वेदा रक्षोघ्न अग्नि का सूक्त (ऋ. 4.4) गौतम से उनके पुत्र वामदेव को प्राप्त हुआ था (ऋ. 4.4.11)।
सत्कृत्य और भक्ति के संयोग से अंगिरस द्वारा प्रथम अग्नि निर्माण किया ऐसा इसने उल्लेख किया है (इ.ऋ. 83.4 ) । इन्होंने गौतम और भद्र नामक प्रसिद्ध सामों की रचना की। ये एक स्तोम के कर्ता हैं। इनकी गणना सप्तर्षियों में होती है।
प्रत्येक मंगलकार्य में गौतम के निम्न मंत्र का पठन किया जाता है.
स्वस्ति न इन्द्रो वृद्धश्रवाः
स्वस्ति नः पूषा विश्ववेदाः ।
स्वस्ति नस्तार्क्ष्यो अरिष्टनेमिः
स्वस्ति नो बृहस्पतिर्दधातु ।। (ऋ. 1.89.6) अर्थ-ज्ञानसंपन्न इंद्र, सर्वज्ञ पूषा, जिसके रथ की गति अप्रतिहत है ऐसे तार्क्ष्य तथा बृहस्पति हमारा मंगल करें। इनके विषय में प्रचलित दो आख्यायिकाओं में से एक इस प्रकार है
सरस्वती नदी के किनारे विदेघमाधव अपने पुरोहित गौतम के साथ रहते थे। एक दिन विदेघमाधव के मुख से वैश्वानर- अग्नि पृथ्वी पर गिर पड़ा। वह अग्नि सभी वस्तुओं को भस्म करता हुआ पूर्व दिशा की और बढ़ता गया । विदेघमाधव और गौतम ने उसका पीछा किया। वैश्वानर- अग्नि की गति सदानीरा नदी के तट पर पहुंचते ही रुक गई। विदेघमाधव ने अग्नि से पूछा “अब में कहां रहूं? अग्नि ने उत्तर दिया- "इस सदानीरा नदी की पूर्व दिशा में तुम रहो"। विदेघमाधव वहीं रहने लगे। तब से उस क्षेत्र का नाम विदेह हुआ। (श.ब्रा. 1.4.1.10 ) । इस आख्यायिका का महत्त्व ऐतिहासिक है। इससे सूचित होता है, कि विदेषमाधव व गौतम द्वारा यज्ञप्रधान आर्य-संस्कृति का विस्तार पूर्व दिशा की ओर हुआ। ऋग्वेद में गौतम के अनेक सूक्त हैं (1.74-93, 9.31, 9.67 आदि) ।
गोदावर्मा (गोदवर्मा) जन्त - 1800 ई. । नम्पूतिरि ब्राह्मण । व्याकरण, ज्योतिष, हस्तिशास्त्र व धर्मशास्त्र में प्रवीण केरल के युवराज, परंतु विरक्त प्रवृत्ति ।
कृतियां महेन्द्रविजय (महाकाव्य) जो वाल्कुद्भव के नाम से भी ज्ञात है। त्रिपुरदहन (लघु काव्य), रससदन (भाण), रामचरित (महाकाव्य), जिसके 13 सर्गों की रचना के बाद
312 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
इनकी मृत्यु होने से, उनके वंशज रामवर्मा ने उसे 40 सर्गो में पूर्ण किया। दशावतार दण्डक (स्तोत्र ) तथा अन्य नौ स्तोत्रग्रन्थ और सुधानंदलहरी । सभी ग्रंथ मुद्रित हो चुके हैं। गोपाल - राजधर्म के निबंधकार । इन्होंने "राजनीति - कामधेनु” नामक निबंध ग्रंथ का प्रणयन किया था, जो संप्रति अनुपलब्ध है। इनका समय 1000 ई. के आसपास है। राजनीति-निबंधकारों में गोपाल सर्वप्रथम निबंधकार के रूप मे आते हैं। चंडेश्वरकृत "राजनीति - रत्नाकर" व "निबंध - रत्नाकर" में गोपाल की चर्चा की गई है।
गोपाल चक्रवर्ती - ई. 17 वीं शती । कुलनाम- वंद्यघटीय । पिता दुर्गादास कृतिया अमरकोश तथा चण्डीशतक पर टीकाएं। गोपाल शास्त्री ई. 19-20 वीं शती विशाखापट्टनम् के निवासी । "सीतारामाभ्युदय" नामक काव्य के प्रणेता ।
गोपाल शास्त्री 20 वीं शती काशी के निवासी। ई. । व्याकरणाचार्य, साहित्याचार्य व न्यायतीर्थ । सन् 1921 से 1947 तक काशी- विद्यापीठ में दर्शन के आचार्य । भारतीय स्वतन्त्रता संग्राम में कारावास । वृद्धावस्था में ज्योतिर्मठस्थ बदरीनाथ वेद-वेदांग महाविद्यालय के प्रधानाचार्य । "पण्डितराज", "दर्शनकेसरी" तथा " महामहाध्यापक" - उपाधियों से अलंकृत । कृतियां - नारीजागरण, गोमहिमाभिनय तथा पाणिनीय नामक नाटक । गोपालसेन कविराज ई. 17 वीं शती सेनभूम (बंगाल) के निवासी । "योगामृत" ग्रंथ के कर्ता । गोपीनाथ कविभूषण - करणवंशीय वासुदेव पात्र के पुत्र । पिता - वासुदेव, खिमिन्डी के गजपति जगन्नाथ नारायण के राजवैद्य । समय- ई. 1766 से 1806 रचनाएं कविचिन्तामणि और रामचन्द्र-विहार (काव्य) । गोपीनाथ चक्रवर्ती- "कौतुकसर्वस्व" (प्रहसन) के प्रणेता। समय 18 वीं शती उत्तरार्ध । गोपीनाथ दाधीच जन्म सन् 1810 के लगभग । जयपुर नरेश सवाई माधवसिंह (सन् 1880-1922) का समाश्रय प्राप्त । आचार्य जीवनाथ ओझा से व्याकरण, न्याय, साहित्य, वेदान्त की शिक्षा। बाद में जयपुर के संस्कृत विद्यालय में अध्यापक कृतियां माधव-स्वातंत्र्य (नाटक), वृत्त- चिन्तामणि, शिवपदमाला, स्वानुभवाष्टक, राम सौभाग्य शतक, स्वजीवन-चरित, आनन्द- रघुनन्दन, यशवन्त प्रताप प्रशस्ति, नीति- दृष्टांत - पंचाशिका आदि 23 संस्कृत ग्रंथ । सत्य-विजय तथा समय-परिवर्तन नामक दो हिन्दी नाटक |
गोपीनाथ मौनी ई. 17 वीं शती रचनाएं शब्दालोकरहस्यम्, उज्वला (तर्कभाषा टीका) और पदार्थ-विवेक-टीका।
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गोपेन्द्र तिम्म भूपाल- शाल्व वंशीय विजयनगर के राजा । ई. 15 वीं शती । रचना - वामन के काव्यालंकारसूत्र की टीका एवं तालदीपिका ।
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गोपेन्द्रनाथ गोस्वामी - ई. 20 वीं शती। बंगाली । “पादप-दूत" । गोवर्धन - (1) ई. 16 वीं शती। नैयायिक। इन्होंने के रचयिता।
केशवमिश्र के तर्कभाषा नामक ग्रन्थ पर तर्कभाषाप्रकाश नामक गोपेश्वर- सं. 1836-1897। इन्होंने पुष्टिमार्गीय पुरूषोत्तमजी टीका लिखी है। के "भाष्य-प्रकाश" पर "रश्मि" नामक व्याख्या लिखी है। (2) बंगाल में भी इसी नाम के एक व्यक्ति हुए जिन्होंने गोयीचन्द्र- जौमर-व्याकरण-परिशिष्ट के रचनाकार । "पुराणसर्वस्व" नामक ग्रन्थ लिखा है। जौमर-व्याकरण के खिल पाठ की वृत्ति लिखी। इस गोयीचन्द्र (3) द्रौपदीवस्त्रहरणम् के लेखक कृत वृत्ति की 6 व्याख्याकारों ने व्याख्या रची है।
(4) मधुकेलिवल्ली के लेखक गोरखनाथ (गोरक्षनाथ) - इनके अविर्भाव-काल के संबंध गोवर्धनाचार्य - "आर्या-सप्तशती" नामक श्रृंगार प्रधान मुक्तक में मतभेद हैं। कुछ विद्वान इनका समय ई. 11-12 शताब्दी काव्य के रचयिता। पिता-नीलांबर सोमयाजी। बंगाल के राजा में मानते है। इनके जन्म तथा वर्ण के संबंध में मतमतान्तर लक्ष्मणसेन के आश्रित कवि। समय- 1075-1125 ई. । इन्होंने हैं। डॉ. मोहनसिंह इन्हें विधवा की अवैध सन्तान बताते हैं। अपने आश्रयदाता का उल्लेख अपने ग्रन्थ में इस प्रकार किया है। गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह में इन्हें “ईश्वरी सन्तान" कहा गया है,
सकलकलाः कल्पयितुं प्रभुः प्रबंधस्य कुमुदबंधोश्च । जिसका अर्थ है अनौरस सन्तान। मतिरत्नाकर के अनुसार ये
सेनकुलतिलकभूपतिरेको राकाप्रदोषश्च ।।39 ।। शूद्र हैं। डा. द्विवेदी इनका जन्म ब्राह्मण-कुल में बताते हैं।
अपने काव्य की प्रशंसा करते हुए वे कहते हैं - डा. रा.चिं. ढेरे के मतानुसार इनका जन्म दक्षिण में बसे हुए
मसणपदरीतिगतयः सज्जनहृदयाभिसारिकाः सुरसाः । काश्मीरी ब्राह्मण पण्डित के कुल में हुआ है। गोरक्षनाथ अत्यंत विरक्त पुरुष थे। ज्ञानेश्वर महाराज उन्हें “विषयविध्वंसकवीर"
मदनाद्वयोपनिषदो विशदा गोवर्धनस्यार्याः ।।51 ।। विशेषण से सम्बोधित करते हैं।
आर्यावृत्त में रचित 756 श्लोकों की "आर्यासप्तशती" में इनके प्रमुख शिष्य थे- महाराष्ट्र के अमरनाथ और गहिनीनाथ,
कहीं कहीं श्रृंगार का चित्रण पराकाष्टा पर पहुंच गया है, उज्जयिनी के राजा भर्तृहरि, बंगाल के राजा गोपीचन्द्र और
जिसकी आलोचकों ने निंदा की है। अन्योक्ति का प्रयोग प्रायः
नीतिविषयक कथनों में ही किया जाता रहा है पर इन्होंने विमला देवी।
श्रृंगारात्मक संदर्भो में भी इसका प्रयोग ऐसी कुशलता के साथ इनके संस्कृत ग्रन्थः- अमनस्व, अमरौघ, प्रबोध, गोरक्षपद्धति,
किया है कि कलाप्रियता व शब्दवैचित्र्य उनका साथ नहीं छोडते। गोरक्षसंहिता, योगमार्तण्ड, गोरक्षकल्प, अवधूतगीता, गोरक्षगीता आदि।
"गीतगोविंद" के रचयिता कवि जयदेव इनकी प्रशंसा इस गोरक्षनाथ ने ईश्वरोपासना में देश, काल, धर्म, वंश, जाति प्रकार करते हैं - के बन्धनों को त्याज्य माना, और वह बात अपने आचरण "श्रृंगारोत्तरसत्प्रमेयरचनैराचार्यगोवर्धन । स्पर्धी कोऽपि न विश्रुतः" ।। से सिद्ध कर दिखाई। इनके शिष्यों में हिन्दू और मुसलमान अर्थ - श्रृंगारप्रधान कविता करने में आचार्य गोवर्धन के दोनों थे। बाबा रतन हाजी इनका प्रमुख मुसलमान अनुयायी साथ प्रतिद्वन्द्विता कर सकने वाला दूसरा कोई सुना नहीं। था। आज भी नाथ सम्प्रदाय की रावल शाखा में मुसलमान इनके दो शिष्यों के नाम है - उदयन और बलभद्र । बहुसंख्यांक हैं। स्त्रियां तथा अन्त्यज भी इनके अनुयायी थे।
गोविंद - (1) समय - 13 वीं शती। इनकी शिष्या विमलादेवी तथा मयनावती नामक दो महिलाएं
रचना-रागताल-पारिजात-प्रकाश। इस ग्रंथ में शाङ्गदेव का थीं। बंगाल के हडिपा नामक अंत्यज भी, जो आगे चल कर।
उल्लेख मिलता है। जालन्दरनाथ नाम से विख्यात हुए, इनके अनुयायी थे।
(2) समय - ई. 15 वीं शती। जाति-अग्रवाल। गोत्र-गर्ग। अखिल भारतीय स्तर पर मत-प्रसारार्थ, गोरखनाथ द्वारा
पिता- साहु। माता- पद्मश्री। ग्रंथ- पुरुषार्थानुशासन । ग्रंथस्थ लोकभाषा विशेषतः हिन्दी को अपनाया गया। आगे चल कर
प्रशस्ति के अनुसार यह ग्रंथ कायस्थ लक्ष्मण की प्रेरणा से अन्य साधुसन्तों ने उन्हीं से प्रेरणा प्राप्त कर लोकभाषा को
निर्मित हुआ। ही अपने विचार-प्रसार का माध्यम बनाया, यह विशेष लक्षणीय
(3) श्रीनिवासपुत्र। रचना कृष्णचन्द्रोदयः।। बात है। गोरखनाथ वर्णाश्रम के कट्टर विरोधक थे। वे गोविन्दकान्त विद्याभूषण - ई. 19-20 शती। गौड बारेन्द्र। शब्द-प्रामाण्य के स्थान पर आत्मानुभूतिप्रामाण्य को महत्त्व देते थे। पिता - श्रीकान्त। शालिखा ग्राम (बंगाल) के निवासी। गोलोकनाथ बंद्योपाध्याय- ई. 19 वीं शती। जियाराखी
"लघुभारत" के कर्ता। (बंगाल) के निवासी। कृतियां- देव्यागमन तथा हीरकजुबिली- गोविन्द खन्ना न्यायवागीश - ई. 17 वीं शती। रचनाएं - काव्य।
न्यायसंक्षेप, पदार्थखण्डन-व्याख्या और समासवाद ।
संस्कृत बाइपय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 313
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गोविन्ददास - ई. 16 वीं शती का मध्य। बंगाली वैष्णव कवि। “कर्णामृत" तथा "संगीतमाधव" नामक कृष्णभक्तिपर गीतकाव्य के रचयिता। गोविन्ददास - ई. 17 वीं शती। सत्काव्यरत्नाकर, काव्यदीपिका तथा चिकित्सामृत टीका के कर्ता। गोविन्द दीक्षित - ई. स. 1554-16261 कर्नाटकी ब्राह्मण। कावेरी नदी के किनारे स्थित पट्टीश्वरम् ग्राम के मूलनिवासी। अय्यन नाम से भी पहिचाने जाते थे। पत्नी का नाम नागम्बा था। दोनों का एक पुतला पट्टीश्वरम् के मन्दिर में आज भी देखने को मिलता है। तंजौर के राजा अच्युतराय नायक तथा राजा रघुनाथराय नायक के प्रधान थे। इन्होंने “हरिवंशसारचरितम्" नामक ग्रन्थ तीन खण्डों में लिखा है। इनके द्वारा रचित पद "संगीतसुधानिधि" नामक ग्रन्थ में संकलित किये गये हैं। वेदान्त, धर्म, शिल्प, संगीत आदि शास्त्रों पर भी इन्होंने ग्रन्थरचना की है। अपने “साहित्यसुधा" नामक काव्य में इन्होंने राजा अच्युत व राजा रघुनाथ का चरित्र वर्णन किया है। इन्होंने एक अभिनव वीणा का आविष्कार किया जिसमें चौदह पर्दे होते हैं। यह "तंजौर" के नाम से विख्यात है।
औदार्य, नीति-निपुणता, धार्मिकता, विद्वत्ता आदि गुणों से विभूषित होने के कारण राजा प्रजा दोनों पर इनका प्रभाव था। गोविन्दपाद - अद्वैत संप्रदाय के एक प्रमुख आचार्य, गौडपादाचार्य के शिष्य और शंकराचार्य के गुरु। ये नर्मदा तट पर निवास करते थे। "रसहृदयतन्त्र" नामक एक ग्रन्थ की रचना की है। गोविन्दभट्ट - (1) बीकानेर के निवासी। इन्होंने वहां के राजा के यश का वर्णन अपने काव्य "रामचन्द्रयशःप्रबन्ध" में किया है। ___ (2) पद्यमुक्तावली नामक सुभाषितसंग्रह के लेखक। गोविन्द भट्टाचार्य - ई. 17 वीं शती। रुद्र वाचस्पति के पुत्र । “पद्यमुक्तावली' के रचयिता। गोविन्दराज - ई. 11 वीं शती। पिता- भट्टमाधव। पितामह-नारायण। इन्होंने मनुस्मृति पर टीका लिखी। इनका स्मृतिमंजरी नामक धर्मशास्त्रविषयक ग्रन्थ भी प्रसिद्ध है। गोविन्द राय - ई. 19 वीं शती। “स्वास्थ्य-तत्त्व" नामक आयुर्वेदविषयक ग्रंथ के रचयिता। गोविन्द सामन्तराय - ई. 18 वीं शती। बांकी। (उत्कल) के निवासी। पिता-रामचंद्र। पितामह-विश्वनाथ। तीनों को "सामन्तराय" उपाधि थी। “समृद्धमाधव" नामक सात अंकी नाटक के रचयित । “कविभूषण" की उपाधि से भी विभूषित। गोविन्दानन्द - 1) इन्होंने शंकराचार्य के शारीरभाष्य पर "रत्नप्रभा" नामक टीका लिखी है।
2) ई. सं. 1500-1554। मूलतः द्रविड। पश्चात् बांकुरा
के निवासी। पिता-गणपति भट्ट। "कविकंकणाचार्य" नाम से विभूषित। इनके धर्मशास्त्र विषयक दानकौमुदी, शुद्धि कौमुदी, श्राद्धकौमुदी तथा वर्षकृत्य-कौमुदी नामक प्रमुख चार ग्रन्थ उपलब्ध हैं। इनके अर्थकौमुदी और तत्त्वार्थकौमुदी नामक दो टीका ग्रंथ भी हैं। अर्थकौमुदी, शुद्धिदीपिका की तथा तत्वार्थकौमुदी, शूलपाणि के प्रायश्चित्तविवेक की, टीका है। अमरकोश की टीका भी आपने लिखी है। गोषूक्ति काण्वायन - ऋग्वेद के 8 वे मंडल के 13 वें
और 14 वें सूक्त के रचयिता जिनमें इन्द्र की इस प्रकार प्रशंसा की गयी है -
इन्द्र ने बल नामक असुर का वध किया, चारो और संचार करने वाली अधार्मिक टोलियों का विनाश किया. नमची राक्षस का शिरश्छेद किया, तथा गुफा में छिपा कर रखी गई गायों का आंगिरा ऋषि के लिये उद्धार किया। एक ऋचा इस प्रकार है -
इन्द्रेण रोचना दिवो दळ्हानि इंहितानि च। __ स्थिराणि न पराणुदे ।।
आकाश में जो तेजस्वी और लक्ष्यवेधी नक्षत्र खचाखच उभरे हुए दिखाई देते हैं, वे अपने अपने स्थान पर इन्द्र द्वारा दृढता से स्थिर किये गये हैं। उन्हें कोई भी शक्ति हिला नहीं सकती। गौडापादाचार्य - ई. 6 वीं शती। श्रीशंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य के ये गुरु थे। ये महाराष्ट्र के सांगली जिले के भूपाल नामक ग्राम के मूल निवासी थे। पिता-विष्णुदेव, माता-गुणवती। इनका व्यावहारिक नाम शुकदत्त था। ___ गौडापादाचार्य बचपन में ही तपश्चर्या करने के लिये घर से निकल पडे। तपश्चर्या काल में उन्हें दृष्टान्त हुआ, जिसके अनुसार वे गुरु की खोज में वंगदेश में जिष्णुदेव नामक सिद्धपुरुष के पास गये। गुरु ने उन्हें दीक्षा दी और अत्यंत दूर से पैदल चल कर आये हुए अपने शिष्य का, 'गौडपाद' अर्थात् पैदल चल कर गौड देश आया हुआ ऐसा अन्वर्थक नाम रखा। इनकी गुरु परंपरा "व्यासं शुकं गौडपादं महान्तम्" इस प्रकार बताते हैं परन्तु "शुक" से किसी निश्चित व्यक्ति का बोध नहीं होता।
अद्वैत सिद्धान्त का प्रतिपादन करने वाले प्राचीन आचार्यों में गौडपादाचार्य का नाम अग्रणी है। उन्होंने मांडूक्योपनिषद् पर कारिकायें लिखी है जिनमें अद्वैत वेदान्त का संपूर्ण तत्त्वज्ञान संक्षेप में ग्रथित किया है। एक कारिका इस प्रकार है -
अजातस्यैव भावस्य जातिमिच्छान्ति वादिनः । अजातो ह्यमृतो भावो मर्त्यतां कथमेष्यति ।। न भवत्यमृतं मर्यं न मय॑ममृतं तथा। प्रकृतेरन्यथाभावो न कथंचिद् भविष्यति ।। अर्थ - द्वैतवादी, जो अजन्मा है उससे आत्मा के जन्म
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की कामना करते हैं। (आत्मा जन्म ग्रहण करता है ऐसा . “निंबार्कसहस्रनाम" ग्रंथ के प्रणेता। मानते हैं)। जो वस्तु अजात और अमर है, वह मर्त्य कैसे गौरीकान्त सार्वभौम - ई. 18 वीं शती। वंग प्रदेश वासी होगी। अमर वस्तु कभी मर्त्य नहीं होती तथा मर्त्य कभी। नैयायिक। इन्होंने भावार्थदीपिका, तर्कभाषा-टीका, सयुक्तिअमर नहीं होती । प्रकृति के विपरीत कदापि कुछ नहीं होता। मुक्तावलि, आनन्दलहरीतरी, विदग्धमुखण्डन-टीका तथा
अनुगीताभाष्य, उत्तरगीताभाष्य, चिदानन्दकेलिविलास, विवादार्णवभंजन आदि ग्रंथों की रचना की है। (देवीमाहात्म्य टीका), सांख्यकारिकाभाष्य आदि ग्रन्थ भी गौरीकान्त द्विज कविसूर्य - असम नरेश कमलेश्वरसिंह गौडपादाचार्य द्वारा रचित बताये जाते हैं।
(1785-1810) द्वारा सम्मानित शैव पंडित। पिता-गोविन्द । गौतम - न्यायशास्त्र के प्रामाणभूत आद्यग्रंथ "न्यायसूत्र" "विघ्नेभजन्मोदय" नामक नाटक के रचयिता। के रचयिता महर्षि गौतम हैं। समय- विक्रम पूर्व चतुर्थ शतक। गौरीप्रसाद झाला - मुंबई के सेन्ट झेवियर महाविद्यालय में न्यायशास्त्र के निर्माण का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है, यद्यपि
संस्कृताध्यपक। रचना-सुषमा (स्फुट काव्य संग्रह) इस संबंध में मतविभिन्नता भी कम नहीं है। "पद्मपुराण" (उत्तरखंड अध्याय-263), "स्कंदपुराण" (कालिका खंड,
गृत्समद - पिता का नाम अंगिरस कुल के शनहोत्र। ये अध्याय 17), "नैषधचरित" (सर्ग 17), "गांधर्वतंत्र" व
शनक के दत्तकपुत्र थे। गृत्स का अर्थ है प्राण तथा मद का "विश्वनाथवृत्ति" प्रभृति ग्रंथों में गौतम को ही न्यायशास्त्र का
अर्थ है अपान। प्राणापान का समन्वय अर्थात् गृत्समद । प्रवर्तक कहा गया है। किन्तु कतिपय ग्रंथों में अक्षपाद को
गृत्समद तथा उनके कुल के लोग, ऋग्वेद के दूसरे मंडल न्यायशास्त्र का रचयिता बतलाया गया है। ऐसे ग्रंथों में
के रचियता हैं। "न्यायभाष्य", "न्यायवार्तिक-तात्पर्य-टीका" व "न्यायमंजरी" के
____ आचार्य विनोबा भावे के कथनानुसार गृत्समद बहुमुखी नामों का समावेश है। एक तीसरा मत कविवर भास का है,
प्रतिभा-संपन्न वैदिक ऋषि थे। वे ज्ञानी, भक्त कवि, गणितज्ञ, जो मेधातिथि को न्यायशास्त्र के रचयिता मानते हैं। प्राचीन विज्ञानवेत्ता, कृषिसंशोधक तथा कुशल बुनकर थे। समुद्र की विद्वान गौतम को ही अक्षपाद मानते हैं पर आधुनिक विद्वानों
भाप से पर्यन्यवृष्टि होती है, यह उन्होंने सर्वप्रथम बताया। ने इस संबंध में अनेक विवादास्पद विचार व्यक्त किये हैं
यह उनकी वैज्ञानिक प्रतिभा का परिचायक है। ये विदर्भवासी जिनसे यह प्रश्न अधिक उलझ गया है। डॉ. सुरेन्द्रनाथ दासगुप्ता
थे। इस प्रदेश में इन्होंने कपास की खेती प्रारंभ की थी। ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ "हिस्ट्री ऑफ इंडियन फिलॉसाफी भाग-2"
उनके सूक्तों में कताई-बुनाई के दृष्टांत प्रमुखता से पाये जाते में गौतम को काल्पनिक व्यक्ति मान कर, अक्षपाद को न्यायसूत्र
हैं। निम्नलिखित ऋचा इसका उदाहरण हैका प्रणेता स्वीकार किया है पर अन्य विद्वान दासगुप्तजी से साध्वपासि सनता न उक्षिते सहमत नहीं है। "महाभारत" में गौतम व मेधातिथि को उषासानक्ता वय्येव रण्विते ।। (ऋ. 2.3.6.) अभिन्न माना गया है।
अर्थ- यह यौवनाढ्य रात्रि पक्षियों के समान रमणीय है "मेधातिथिर्महाप्राज्ञो गौतमस्तपसि स्थितः"
तथा संलग्न है। यह कालरूप धागे से निरंतर वस्त्र बुनती (शांति पर्व, अध्याय 265-45)।
है। गृत्समद गणित की गुणाकार प्रक्रिया के आविष्कारक थे। यहां एक संज्ञा वंशबोधक तथा दूसरी नामबोधक है। इस निम्न ऋचा में मानों दो-एक-दो, दो-दूना चार, दो-त्रिक-छह, समस्या का समाधान न्यायशास्त्र के विकास की दो धाराओं ___आदि इस प्रकार दे कर गिनती कही गयी है। के आधार पर किया गया है, जिसके अनुसार प्राचीन न्याय आ द्वाभ्यां हरिभ्यामिन्द्र याह्या की दो पद्धतियां थी। (1) अध्यात्मप्रधान और (2) तर्कप्रधान । चतुर्भिरा षड्भिर्हृयमानः। इनमें प्रथम धारा के प्रवर्तक गौतम और द्वितीय के प्रतिष्ठापक आष्टाभिर्दशभिः सोमपेय अक्षपाद माने गये हैं। इस प्रकार प्राचीन न्याय का निर्माण मयं सुतः सुमख मा मृधस्कः ।। (ऋ.2.18.4) महर्षि गौतम एवं अक्षपाद इन दोनों महापुरुषों के सम्मिलित अर्थ- हे इंद्र, तुम्हें हम आमंत्रित करते हैं। इसलिये तुम प्रयत्न का फल माना गया है।
(रथ को) दो अश्व जोत कर, चार जोत कर, छह जोत कर गौरधर - ई. 13 वीं शती। सुप्रसिद्ध “स्तुतिकुसुमांजलि" के आओ, या इच्छा हो तो आठ या दस जोत कर आओ। हे कर्ता जगद्धर के पितामह। आपने यजुर्वेद पर "वेदविलास" परमपवित्र देवता, यहां सोमरस छना है उसे अस्वीकार मत करो। नामक ऋजुभाष्य की रचना की है।
इनके सूक्तों में अनेक ओजपूर्ण ऋचायें है जो उनके गौरनाथ - समय 15 वीं शती (पूर्वार्ध) । रचना - संगीतसुधा। विजिगीषु प्रयोगशील तथा जीवनविषयक उदात्त दृष्टिकोण को गौरमुखाचार्य - वैष्णवों के निंबार्क संप्रदाय के प्रवर्तक प्रकट करती हैं। उदा. आचार्य निबार्क के शिष्य। निवासस्थान - नैमिषारण्य । "प्राये प्राये जिगीवांसः स्याम"
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अर्थ- "जीवन के सभी क्षेत्रों में हम विजयी हों" पर ऋणा सावीरध मत्कृतानि ।।
माहं राजन्नन्यकृतेन भोजम्।। (ऋ. 2.28.9.) हे वरुण ऐसा करो कि मैं अपने द्वारा किये गए ऋणों से मुक्त हो सकू तथा मुझ पर ऐसा अवसर न आए कि मैं दूसरों के परिश्रम पर जीवननिवार्ह करूं।
ऊपर गृत्समद का वैदिक चरित्र दिया गया है। उनका पौराणिक चरित्र कुछ भिन्न है। वाचक्नवी ऋषि की कन्या मुकुंदा, रुक्मांगद नामक राजपुत्र पर अत्यंत मोहित थी। एक बार उसने राजपुत्र से काम-पूर्ति की याचना की। परंतु राजपुत्र ने वह अस्वीकार की। तब मुकुंदा ने उसे शाप दिया कि उसे महारोग होगा। रुक्मांगद की प्राप्ति के लिये मुकुंदा की व्याकुलता का इन्द्र ने लाभ उठाया। उसने रुक्मांगद का रूप धारण कर मुकुंदा से समागम किया। इस संबंध से गृत्समद का जन्म हुआ।
एक दिन गृत्समद श्राद्ध-कर्म के लिये मगधराज के यहां अनेक ऋषियों के साथ उपस्थित हुए थे। वहां अत्रि के साथ गृत्समद का वाद-विवाद छिड गया। अत्रि ने उन्हें ऋषिसमुदाय के समक्ष जारज-पुत्र कहकर तिरस्कृत किया। गृत्समद इस अपमान से क्षुब्ध हो अपने आश्रम में लौट आए और अपनी मां से अपने जन्मदाता के विषय में पूछा। मां ने शाप के भय से सब-कुछ सच-सच बतला दिया। वे अत्यंत दुःखित हुए। इसके बाद उन्होंने गणेश की कठोर उपासना की। गणेशजी उन पर प्रसन्न हुए। गणेशजी ने उनके द्वारा मांगा गया ब्राह्मण्य का वरदान उन्हें दिया। इस कारण गृत्समद को गाणपत्य संप्रदाय का प्रवर्तक माना जाता है। घटकर्पर- परम्परानुसार विक्रमादित्य के नौ रत्नों में से एक। "घटकपर" नामक यमकबद्ध काव्य के रचयिता। अपने काव्य के अंतिम श्लोक में कवि आत्मस्तुति के साथ कहता है "यदि यमक-काव्य-रचना में मुझे कोई जीतेगा, तो उसके घर, मैं घटकर्पर से पानी भरूंगा। में यह शपथपूर्वक कहता हूं कि मेरी रचना मेरे ही नाम से ज्ञात है।
संभवतः श्लोक में प्रयुक्त “घटकर" शब्द के कारण कवि का यही नाम पड़ गया।
केवल 22 श्लोकों के इनके "घटकर्पर' (विरह-काव्य) पर सात से अधिक विद्वानों की टीकाएं हैं और इस काव्य का जर्मन भाषा में अनुवाद हुआ है। घनश्याम (कवि-आर्यक)- तंजौर के राजा तुकोजी भोसले (1729-1733 ई.) के मंत्री। दो पत्नियां- कमला तथा सुंदरी विदुषी थीं। दोनों ने मिल कर "विद्धशालंभजिका" की "चमत्कार-तरंगिणी" टीका लिखी। शाकंबरी परमहंस के ये दौहित्र थे। ये घटकर्पर के टीकाकार है। इन्होंने बारह वर्ष की आयु में भोजचंपू के "युद्धकाण्ड" का प्रणयन किया।
सौ से अधिक रचनाएं, जिनमें 64 रचनाएं संस्कृत, 20 प्राकृत तथा शेष अन्य भाषाओं में हैं। तंजौर के सरस्वती-भवन में, इनके अधिकांश ग्रंथ प्राप्य । सर्वज्ञ, कण्ठीरव, सुरनीर, वश्यवाक् इन उपाधियों तथा "आर्यक" नाम से प्रसिद्ध थे।
प्रमुख रचनाएं- कुमारविजय (नाटक), मदनसंजीवन (भाण), नवग्रहचरित, डमरुक, प्रचण्ड-राहूदय, अनुभूति-चिन्तामणि (नाटिका), प्रचण्डानुरंजन (प्रहसन), आनन्दसुन्दरी (सट्टक) और भवभूति के नाटक-महावीर चरित के 2 अनुपलब्ध अंक।
अप्राप्य ग्रंथ- गणेश-चरित, त्रिमठी नाटक, एक डिम और एक व्यायोग जो चमत्कार-तरंगिणी में उल्लिखित है।
काव्य- भगवत्पादचरित, षण्मतिमण्डन, और अन्यापदेशशतक । प्रसंगलीलार्णव, वेंकटचरित और स्थलमाहात्म्यपंचक (अप्राप्य)
टीकाएं- उत्तर-रामचरित, भारतचम्पू, विद्धशालभंजिका, नीलकंठविजय चम्पू, अभिज्ञानशाकुन्तल तथा दशकुमारचरित पर।
अप्राप्य टीकाएं- महावीरचरित, विक्रमोर्वशीय, वेणीसंहार, चण्डकौशिक, प्रबोध-चन्द्रोदय, कादम्बरी, वासवदत्ता, भोजचम्पू तथा गाथासप्तशती पर।
इनके अतिरिक्त, “अबोधाकर" नामक व्यर्थी श्लेषकाव्य, जिसका प्रत्येक श्लोक हरिश्चन्द्र, नल तथा कृष्णपरक है। "कलिदूषण" नामक काव्य, संस्कृत तथा प्राकृत दोनों में सिद्ध । आप "डमरुक" नाट्य-विधा के प्रणेता हैं। घनश्याम त्रिवेदी- संस्कृत एवं समाजशास्त्र में उपाधिप्राप्त । एल.एल.बी. होने के बाद साहित्यशास्त्री हुए। नाट्यकला में विशेष अभिरुचि। सवा सौ से अधिक संस्कृत-नाटकों में अभिनय तथा दिग्दर्शन किया। अहमदाबाद की गुजरात संस्कृत परिषद् के प्रमुख कार्यकर्ता के नाते संस्कृत की सेवा में रत । नूतन नाट्य प्रस्थानम् नामक आपका लघुनाटकसंग्रह, जिसमें सत्यवादी हरिश्चंद्र, राजयोगी भर्तृहरि, मेना गुर्जरी, महासती तोललम् इत्यादि आठ सुबोध नाटकों का संग्रह है, बृहद् गुजरात संस्कृत परिषद, अहमदाबाद द्वारा सन 1977 में प्रकाशित हुआ है। घुले, कृष्णशास्त्री (म.म.)- समय- 19-20 वीं शती। विद्वान पण्डितों का कुल। पूर्वजों ने ग्रंथ-निर्मिति कर बुद्धिमत्ता का परिचय दिया। दक्षिण में पेशवाओं के आश्रित (अनन्तशास्त्री घुले-दुर्बोधपदचन्द्रिका। राजारामभट्ट-सप्तशती-दंशोद्धार। रामकृष्णभट्ट-नामस्मरण-मीमांसा, मलमास-टीका, अष्टावक्र-टीका, भागवत-विरोध परिहार, इस प्रकार घुले वंश की ग्रंथसेवा है। ई. 1886 के लगभग बुंदेलखण्ड में जागीर। सदाशिवभट्ट का काशी में वास्तव्य था। तदुपरान्त नागपुर में आगमन। इसी परिवार में सीताराम शास्त्री (भाऊशास्त्री) को म.म.की उपाधि । धर्मशास्त्र तथा व्याकरण में पारंगत। इन्हीं के पुत्र कृष्णशास्त्री। जन्म- 31-5-18731 पुरानी तथा नई पद्धति से शिक्षा प्राप्त । संस्कृत के साथ हिन्दी, अंग्रेजी, बंगाली, गुजराती, फ्रेन्च,
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उर्दू-साहित्य का भी गहन ज्ञान। छात्रावस्था में ही पतितोद्धार-मीमांसा नामक प्रबंध लेखन (विषय-पतित हिन्दुओं का उद्धार)। हौत्रध्वान्त-दिवाकरः तथा सापिण्डयभास्करः नामक दो शास्त्रीय प्रबन्ध। वाचकस्तवः नामक काव्य विद्यार्थी दशा में, तथा "हरहरीयम्" श्लेषगर्भ काव्य प्रौढावस्था में। उसकी पाण्डित्य तथा प्रतिभापूर्ण टीका स्वलिखित । लोकमान्य तिलकजी से वैदिक संशोधन की स्फूर्ति। ऋग्वेद के मराठी अनुवाद में लिखित टिप्पणियों से उनका अधिकार ज्ञात होता है। वेदविषयक मराठी लेख उनके शिष्य साहित्याचार्य बालशास्त्री हरदास (नागपुर) द्वारा ई. 1949 में प्रकाशित। अनपत्य मृत्यु से घुले वंश की विद्वत्-परंपरा खण्डित । "हरहरीयम्- "काव्य सन् 1953 में नागपुर की संस्कृत-भवितव्यम् पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित। चण्डिकाप्रसाद शुक्ल (डॉ.) - ई. 20 वीं शती। एम.ए.डी.लिट्. । प्रयाग वि. वि. के प्रवाचक "वीरवदान्य" तथा “तापसधनंजय" नामक नाटकों के प्रणेता। चण्डीदास मुखोपाध्याय - ई. 13 वीं शती के लगभग। बंगाली ब्राह्मण। गंगातटवर्ती केतुग्राम (उद्धारणपुर के पास) के निवासी। कृति-काव्यप्रकाश-दीपिका। चण्डेश्वर - मिथिला-नरेश हरिसिंह देव के मंत्री। पिता-वीरेश्वर । पितामह-देवादित्य। समय 14 वीं शताब्दी का प्रथम चरण।। चण्डेश्वर ने “निबंध-रत्नाकर' नामक विशाल ग्रंथ की रचना की है। इनकी अन्य कृतियां हैं : राजनीति-रत्नाकर, शिव-वाक्यावली एवं देव-वाक्यावली। इन्होंने राजनीति-रत्नाकर के विषयों का चयन करते समय धर्मशास्त्रों, रामायण, महाभारत तथा नीतिग्रंथों के वचनों को भी उद्धृत किया है। राज्य का स्वरूप, राज्य की उत्पत्ति, राजा की आवश्यकता व उसकी योग्यता, राजा के भेद, उत्तराधिकार-विधि, अमात्य की आवश्यकता, मंत्रणा, पुरोहित, सभा, दुर्ग, कोष, शक्ति, बल, बल-भेद, सेना के पदाधिकारी, मित्र, अनुजीवी, दूत, चर, प्रतिहार, षाड्गुण्य मंत्र आदि विषयों पर इन्होंने अपने विद्वत्तापूर्ण विचार व्यक्त किये हैं यथा - "प्रजारक्षको राजेत्यर्थः। राजशब्दोऽपि नात्र क्षत्रिय-जातिपरः।
अमात्यं विना राज्यकार्य न निर्वहति । बहुभिः सह न मंत्रयेत्।" । चन्द्रकान्त तर्कालंकार (म.म.) - सन् 1836-1908 । बंगाली विद्वान्। कृतियां-सतीपरिणय (काव्य), चन्द्रवंश (महाकाव्य), कातन्त्रछन्दःप्रक्रिया (व्याकरण), कौमुदी-सुधाकर (प्रकरण) और अलंकार-सूत्र (साहित्यशास्त्र)। ___ दर्शन, धर्म व काव्य की सर्वोच्च शिक्षा पाकर कलकत्ते के राजकीय संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापक। "महामहोपाध्याय" तथा "तर्कालंकार" की उपाधियों से अलंकृत। कई ग्रंथों का मुद्रणव्यय स्वयं वहन किया। फिर धनाभाव से चिंतित । तब सेरपुर के हरचन्द्र चतुर्धरीण द्वारा आपके सभी ग्रंथ प्रकाशित हुए।
चंद्रकीर्ति (बौद्धपंथी) - जन्म दक्षिण में स्थित समन्त नामक स्थान में। बाल्यकाल से ही आप प्रतिभासम्पन्न थे। बौद्ध मत स्वीकार करने के बाद, शीघ्र ही संपूर्ण पिटकों का अध्ययन संपन्न किया। आचार्य कमलबुद्धि द्वारा नागार्जुन की कृतियों का ज्ञान प्राप्त किया। आचार्य चन्द्रगोमिन् के प्रतिद्वन्दी माने जाते हैं। प्रासंगिक मत के समर्थक। ई. 7 वीं शती में माध्यमिक संप्रदाय के प्रतिनिधि माने जाते थे। दक्षिण भारतीय बुद्धिपालित नामक विद्वान् के शिष्य कमलबुद्धि के शिष्य । महायान दर्शन के प्रकांड पंडित माने जाते हैं। इन्हें नालंदा महाविहार में अध्यापक का पद प्राप्त हुआ था। इनके द्वारा रचित 3 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं:
(1) माध्यमिकावतार - इसका मूल रूप प्राप्त नहीं होता, किन्तु तिब्बती भाषा में इसका अनुवाद प्राप्त है। इसमें चंद्रकीर्ति ने शून्यवाद का विशद विवेचन प्रस्तुत किया है। (2) प्रसन्नपदा - यह मौलिक ग्रंथ न होकर, नागार्जुनरचित "माध्यमिककारिका" की टीका है। (3) चतुःशतक-टीका- यह आर्यदेवरचित चतुःशतक नामक ग्रंथ की टीका है। चन्द्रकीर्ति (जैन पंथी) - काष्ठासंध, नन्दीतरगच्छ, विद्यागण के भट्टारक श्रीभूषण के पट्टधर शिष्य। मतप्रचारार्थ दक्षिण यात्रा की। "वादिविजेता" इस उपाधि से भूषित। 17 वीं शती। रचनाएं : पार्श्वनाथपुराण (15 सर्ग, 2715 श्लोक), 2 ऋषभदेवपुराण (25 सर्ग), 3 कथाकोश, 4 पाण्डवपुराण, 5 नन्दीश्वरपूजा आदि चन्द्रगोमिन् - बंगाली क्षत्रिय कुल में जन्म। गुरु-स्थिरमति । चन्द्रकीर्ति के प्रतिपक्षी तथा समकालीन । बहुमुखी प्रतिभा से सम्पन्न । बौद्धसाहित्य में दार्शनिक, वैयाकरण तथा कवि के रूप में ख्यात। स्तुतिकाव्य तथा नाट्यरचनाकार। ईत्सिंग ने (673 ई.) इनका एक पवित्र धार्मिक व्यक्ति तथा बोधिसत्त्वरूप में उल्लेख किया है। साथ ही इन्हें युवराज विश्वन्तर से सम्बद्ध संगीत नाटककार बताया है। राजतरंगिणिकार ने इन्हें महाभाष्य का पुनरुद्धारक माना है। इन्होंने व्याकरण में नये संप्रदाय की स्थापना की, जिसे चान्द्रव्याकरण कहते हैं। बौद्ध योगाचारसंप्रदाय के श्रेष्ठ विद्वान, वसुबन्धु के प्रशिष्य तथा स्थिरमति के शिष्य माने जाते हैं। तारादेवी के अनन्य भक्त।
रचनाएं - शिष्यलेखधर्म काव्य, आर्यसाधनशतक, आर्य तारान्तर-बलिविधि (तारासाधकशतक) लोकानन्द (नाटक) और चान्द्रव्याकरण।
इन्होंने दक्षिण भारत तथा लंका की यात्रा की थी। संस्कृत में बौद्ध धर्मविषयक छोटे बडे 60 ग्रंथों का प्रणयन किया। इन ग्रंथों का तिब्बती भोट भाषा में अनुवाद हुआ है। "ब" तथा "व" का समान उच्चारण मानना, इनके बंगाली होने की पुष्टि करता है। चन्द्रधर शर्मा - जन्म 11 जनवरी, 1920 ई. को। पिता-कृष्णदत्त
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शास्त्री। इन्होंने एम.ए.डी.लिट., एलएल.बी. की उपाधियां प्राप्त कारण ये अध्ययनार्थ पैदल ही काशी पहुंचे और अनेक संकटों की। ये साहित्याचार्य व साहित्यरत्न भी थे। अध्यापन आपका का सामना करते हुए साहित्याचार्य की परीक्षा उत्तीर्ण हुए। प्रमुख कार्य है। आप हिन्दू विश्वविद्यालय, वाराणसी के दर्शन जयपुर के राजकुमार के शिक्षक बनकर जयपुर गये। देश के विभाग के अध्यक्ष रहे हैं। आपके ग्रंथ हैं : 1. श्रद्धाभरणम् विभिन्न भागों की उपदेशक के रूप में यात्रा करने पर अनेक (खण्डकाव्य)। इस पर उत्तरप्रदेश राज्य द्वारा पुरस्कार प्रदान कटु अनुभव आये। फलस्वरूप आजीवन नौकरी या परवशता किया गया है। 2. स्तोत्रत्रयो, 3. 16 वीं शताब्दी के अप्रकाशित से दूर रहने का संकल्प किया। स्वतंत्र लेखन ही आजीविका सुर्जनचरितमहाकाव्यम् का हिन्दी अनुवाद तथा संस्कृत टिप्पणी का एकमात्र साधन रहा। 1913 में "शारदा' पत्रिका के सहित प्रथम बार संपादन व प्रकाशन आपने कराया। सम्पादन कार्य का प्रारंभ किया। “दरिद्रकथा" उनकी स्वाभाविक चन्द्रभूषण शर्मा - रचना-जीवितवृत्तांत (संस्कृत विद्यालय प्रवृत्ति का द्योतक थी। निःशुल्क शिक्षा के कट्टर समर्थक वाराणसी के विद्वान आचार्य पं. बेचनराम का चरित्र)। होने के कारण शिक्षा से कभी कमाई नहीं की। ये धार्मिक चन्द्रमोहन घोष - ई. 20 वीं शती। कृति-छन्दःसारसंग्रह।
प्रवृत्ति के थे, तथा संस्कृत भाषा के प्रचारार्थ सतत प्रयास करते रहे। चन्द्रशेखर - उत्कल निवासी। उत्कलनरेश गणपति वीरकेसरी चन्द्रशेखर सरस्वती - 18 वीं शती। कांची-कामकोटी के देव (1736-1773 ई.) का समाश्रय प्राप्त। पिता-गोपीनाथ । शांकरपीठ के 63 वें आचार्य। रचना - (1) गीतगंगाधरम् पिता तथा पुत्र दोनों राजगुरु। दोनों धर्माचार्य तथा यज्ञसम्पादन (2) शिवगीतमालिका। प्रेमी। पिता ने सप्तसोम तथा वाजपेय यज्ञ किये। पुत्र ने चंद्रसेन - ज्योतिषशास्त्र के एक आचार्य। समय ई. 7 वीं चयनयज्ञ किया। इसी कारण “चयनीचन्द्रशेखर" की उपाधि शताब्दी। कर्नाटक प्रान्त के निवासी। “केवलज्ञानहोरा' नामक से समलंकृत। न्यायशास्त्र के पण्डित। "मधुरानिरुद्ध" नामक ग्रंथ के प्रणेता। इन्होंने अपने इस ग्रंथ में बीच-बीच में कन्नड आठ अंकों के नाटक के रचयिता।
भाषा का भी प्रयोग किया है। यह अपने विषय का विशालकाय चन्द्रर्षिमहत्तर - विद्वानों ने ऋषि शब्दान्त नाम के कारण, ग्रंथ है। इसमें 4 हजार के लगभग श्लोक हैं। विषय सूचि समय विक्रम की नवीं दसवीं शताब्दी माना है। ग्रंथ- पंचसंग्रह के अनुसार यह रचना होरा विषयक न होकर संहिता विषयक (मूल ग्रंथ प्राकृत में) । लगभग 1000 गाथाएं। योग, उपयोग, रचना सिद्ध होती है। ग्रंथ के प्रारंभ में चंद्रसेन ने स्वयं अपनी गुणस्थान, कर्मबन्ध, बन्धहेतु, उदय, सत्ता, बंधनादि आठ करण प्रशंसा की है। आदि विषयों का विवेचन। ग्रंथकार की वोपज्ञवृत्ति संस्कृत में। चक्र कवि - समय ई. 17 वीं सदी का अंतिम चरण । 9000 श्लोक प्रमाण। स्वोपज्ञवृत्ति के अन्त में आचार्य ने _ "द्रौपदीपरिणय-चम्पू", "रुक्मिणीपरिणय", "जानकीपरिणय", अपने को पार्श्वर्षि का पादसेवक अर्थात् शिष्य बताया है। "पार्वतीपरिणय" व "चित्ररत्नाकर" नामक ग्रंथों के प्रणेता। "पार्श्वर्षः पादसेवातः कृतं शास्त्रमिदं मया"।
पिता अंबा लोकनाथ । माता- अंबा। पांड्य व चेर नरेश के चंद्रशेखर - रसवादी आचार्य (महापात्र) कविराज विश्वनाथ सभाकवि। "द्रौपदीपरिणय-चंपू" के प्रत्येक अध्याय में इन्होंने के पिता। उत्कल के प्रतिष्ठित पंडितकुल में जन्म। आप अपना परिचय दिया है। "द्रौपदीपरिणय-चम्पू", "जानकीपरिणय" विद्वान्, कवि व संधिविग्रहिक थे। इन्होंने "पुष्पमाला" व और "चित्ररत्नाकर' प्रकाशित हो चुके हैं। "भाषार्णव" नामक ग्रंथों का प्रणयन किया था। इन ग्रंथों का चक्रपाणि दत्त : 1- चक्रपाणि का समय 11 वीं शताब्दी उल्लेख, इनके पुत्र विश्वनाथ द्वारा प्रणीत "साहित्यदर्पण' नामक है। पिता का नाम नारायण जो गौडाधिपति नयपाल (1038-1055 सुप्रसिद्ध ग्रंथ में है।
ई.) की पाकशाला के अधिकारी थे। आयुर्वेदशास्त्र के प्रसिद्ध चन्द्रशेखर (पं) (गौडमित्र) - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। ग्रंथ "चक्रदत्त" के प्रणेता। वीरभूम (बंगाल) के निवासी। वैद्य। पिता- जनमित्र । “सुर्जनचरित' नामक एकमात्र प्रसिद्ध इन्होंने वैद्यक ग्रंथों के अतिरिक्त शिशुपाल वध, कादंबरी, महाकाव्य के प्रणेता। कवि ने इस काव्य की रचना अपने
दशकुमारचरित व न्यायसूत्र की टीकाएं लिखी हैं। इनके आश्रयदाता बूंदी के राजा राव सुर्जन के आदेश पर की थी। चिकित्साशास्त्र विषयक ग्रंथों के नाम हैं : वैद्यककोष, आयुर्वेदइस काव्य के 20 सर्ग हैं जिनमें कवि के आश्रयदाता राव दीपिका। (चरकसंहिता की टीका), भानुमती (सुश्रुत की टीका) सुर्जन का चरित्र ग्रथित है।
द्रव्य-गुण-संग्रह, चिकित्सासार-संग्रह । व्यंग्य-दरिद्रशुभंकरणम् एवं चंद्रशेखर भट्ट - ई. 16 वीं शती। कृति-वृत्तमौक्तिकम् चक्रदत्त (चिकित्सासंग्रह)। (छन्दशास्त्र विषयक)। बंगाल के निवासी।
2- रचना - प्रक्रियाप्रदीपः (प्रक्रियाकौमुदी की व्याख्या)। चन्द्रशेखर शास्त्री - स. 1884-1934 ई.। इनका जन्म बिहार इस लेखक ने प्रौढमनोरमा का खण्डन भी एक ग्रंथद्वारा किया के आरा जिले में निमेज गांव में हुआ। पिता शंकरदयाल है। वह ग्रंथ अनुपलब्ध है। ओझा। परिवार के सदस्यों की शिक्षा के प्रति उदासीनता के चक्रवर्ती राजगोपाल - समय 1882-1934 ई.।
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मैसूर विश्वविद्याय में संस्कृत विभागाध्यक्ष । रचनाएं :- काव्यः मधुकर दूत, वियोगिविलाप तथा गंगातरंग आधुनिक शैली के उपन्यास :- शैवालिनी व कुमुदिनी । दीर्घ कथाएँ विलासकुमारी व सङ्गरम् । प्रवासवर्णन तीर्थाटनम् । साहित्यशास्त्रीय प्रबंध“कविकाव्यविचारः”। “तीर्थाटनम्" के 4 अध्याय हैं, जिनमें भारत प्रवास में प्राप्त विविध अनुभवों का वर्णन है। सभी कृतियां प्रकाशित हो चुकी है।
चतुर कल्लीनाथ पिता-लक्ष्मीधर विजयनगर के इम्मादि देवराव (मल्लिकार्जुन) के आश्रित ई. 15 वीं शती का उत्तरार्ध । रचना - शाङ्गदेव के संगीतरत्नाकर नामक प्रसिद्ध ग्रंथ की विद्वमान्य टीका।
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चतुर दामोदर चतुर कल्लीनाथ के वंशज । पिता- लक्ष्मीधर । सम्राट् जहांगीर की सभा के सदस्य। ई.स. 1605 से 1627 । रचना-संगीतदर्पण।
चतुर्भुज ई. 15 वीं शती । रामकेलि ग्राम (बंगाल) के निवासी। पैतृक ग्राम- करंज । कवि नित्यानंद के पौत्र । "हरिचरित" (काव्य) के प्रणेता ।
चतुर्भुज रचना :- साहित्यशास्त्रीयः- प्रबन्धरसकल्पद्रुमः । इसमें 65 प्रस्ताव तथा एक सहस्र श्लोक हैं। कवि ने अपने परम मित्र आशकखान के पुत्र शाहस्तेखान की कृपा प्राप्त करने इसकी रचना की। शाईस्तेखान, श्रेष्ठ दर्जे के संस्कृत कवि थे। उनके 6 श्लोक इस प्रबन्ध र - रसकल्पद्रुम में हैं उद्धृत 1 चतुर्वेदस्वामी ई. 16 वीं शती । ऋग्वेद भाष्य के प्रणेता । भगवद्गीता पर परमार्थ नामक टीका सामभाष्य के लेखक देवज्ञ सूर्यपण्डित इन चतुर्वेदाचार्य अथवा चतुर्वेदस्वामी के शिष्य थे।
सूर्यपण्डित का समय ई. 16 वीं शती निश्चित है, अर्थात् चतुर्वेदस्वामी का भी वही समय समझना चाहिये । चतुर्वेदाचार्य का ऋग्वेदभाष्य उपलब्ध नहीं है।
चत्रवीर ई. 16 वीं शती । काशकृत्स्र के धातुपाठ पर इनकी टीका कन्नड भाषा में है। लेखक का पूरा नाम काशीकाण्ड चन्नवीर कवि था । गोत्र- अत्रि । शाखा - तैत्तिरीय । निवास- सह्याद्रि मण्डलवर्ती कुण्टिकापुर। सारस्वत व्याकरण, पुरुषसूक्त और नमक- चमक की कन्नड टीकाएं इनकी अन्य रचनाएं हैं। चन्नवीर की कन्नड़ टीका में काशकृत्स्र व्याकरण के 137 सूत्र उपलब्ध होते हैं। इसलिए संस्कृत व्याकरण के इतिहास में इनका महत्त्व माना गया है।
चरक आयुर्वेद शास्त्र के विद्वान । इन्होंने आयुर्वेद पर ग्रंथ लिखा जो "चरकसंहिता" नाम से विख्यात है। चरक के जन्म के सम्बन्ध में भावप्रकाश में कथा इस प्रकार है।
जब भगवान् विष्णु ने मत्स्यावतार ग्रहण कर वेदों का उद्धार किया, तब शेष भगवान् को सामवेद के साथ
अथर्ववेदान्तर्गत आयुर्वेद की प्राप्ति हुई। एक बार शेष भगवान् पृथ्वी पर गुप्तचर बनकर भ्रमण कर रहे थे, तब उन्होंने असंख्य व्याधिग्रस्त लोगों को देखा। उन्हें अत्यंत पीड़ा हुई । लोगों के रोगोपशम के लिये क्या उपाय किये जायें, इस विचार से वे अत्यंत अस्वस्थ हुए। आगे उन्होंने इस कार्य के लिये पृथ्वी पर एक मुनि के यहाँ जन्म ग्रहण किया। चर के रूप में वे भूतल पर आये थे, इसलिये वे "चरक" नाम से विख्यात हुए । अग्निवेश चरक के गुरु थे। चरण वैद्य (अथवंशाखा) कौशिकसूत्र (6-37) की केशव कृत व्याख्या के अथर्व परिशिष्ट में (22-2), वायुपुराण में ( 61-69 ) तथा ब्रह्माण्डपुराण में चरण वैद्य का निर्देश मिलता है।
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चरित्र सुन्दरगणी ई. 15 वीं शती । रचना - "शीलदूतम्” । मेघदूतपंक्तियों का समस्यापूर्तिरूप तत्त्वोपदेश इस खंड काव्य का विषय है।
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चाणक्य ई. 4 थीं शती । इनका जन्मनाम विष्णुगुप्त था । शायद चणक के पुत्र होने के कारण इन्हें चाणक्य नाम प्राप्त हुआ और कुटिल राजनीतिज्ञ होने के कारण ये कौटिल्य कहलाए। बुन्देलखण्ड के नागोद के समीप नाचना नामक ग्राम है जिसे डा. हरिहर द्विवेदी चाणक्य का मूल स्थान बतलाते हैं। आर्य चाणक्य नाम ही सर्वाधिक प्रचलित है। ये ब्राह्मण थे। तक्षशिला में इनका विद्याध्ययन हुआ। बाद में इसी विद्यापीठ में इनकी आचार्यपद पर नियुक्ति हुई। यहीं से उनकी विद्वता की कीर्ति संपूर्ण भारतवर्ष में फैली। चाणक्य के समय भारतवर्ष गणराज्यों में विघटित था। कोई भी केन्द्रीय सत्ता नहीं थी। इस प्रकार की परिस्थिति में भारत की अखण्डता की सुरक्षा के लिये चाणक्य ने देश में सबल तथा सक्षम केन्द्रीय सत्ता की आवश्यकता अनुभव की। इसके लिये उन्होंने मगध के तेजस्वी युवक चंद्रगुप्त के नेतृत्व में क्रान्ति की योजना बनायी।
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विशाखदत्त ने अपने मुद्राराक्षस नामक प्रसिद्ध नाटक में चाणक्य का चरित्र चित्रण करने का सफल प्रयास किया है। वही उनका प्रसिद्ध चरित्र माना जाता है। इतिहास तज्ञों के मतानुसार चाणक्य ने चन्द्रगुप्त के नेतृत्व में मगध में शक्तिशाली केन्द्रीय सत्ता स्थापित कर भारत की अखण्डता की रक्षा की। चाणक्य का यह महान् कार्य भारतीय इतिहास में स्वर्णाक्षरों से लिखा गया।
चाणक्य का दूसरा महान् कार्य राजनीतिविषयक एक अतुलनीय ग्रंथ "अर्थशास्त्र" की रचना यह ग्रन्थ भारतीय राजनीति का आदर्श है। संस्कृत के शास्त्रीय वाङ्मय में यह अतुलनीय है। इस ग्रंथ के पन्द्रह प्रकरणों में राज्यव्यवहार संबंधी 180 विषयों की चर्चा की गयी है 1
मगध साम्राज्य के महामन्त्री बनने के पश्चात् भी चाणक्य
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एक साधारणसी पर्णकुटी में ही ऋषि के समान निवास किया करते थे, राजप्रासाद में नहीं।
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अवंती क्षेत्र में क्षिप्रा तथा चामला नदियों के संगम पर स्थित शंखोद्धार स्थान पर 82 वर्ष की आयु में उनकी मृत्यु हुई। चामुण्डराव मूल नाम गोम्मट अथवा गोम्मटराय। ई. 10 वीं शती । माता- कालिकादेवी । पिता गंगवंश के राज्याधिकारी । महाराज मानसिंह तथा राजमल्ल द्वितीय के प्रधानमंत्री । ब्रह्मक्षत्रिय वंश । गुरु- अजितसेन तथा नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती। कन्नड और संस्कृत के विद्वान प्रसिद्ध योद्धा और सेनापति कर्नाटक में श्रवण बेलगोल के विन्ध्यगिरि पर्वत पर भगवान् बाहुबलि की 57 फीट ऊंची विशाल काय मूर्ति का निर्माण (ई. 981 में) एवं चन्द्रगिरि पर एक जैन मंदिर का भी निर्माण कराया। पुत्र - जिनदेव | ग्रंथ - चरित्रसार (चार प्रकरण) चारलु भाष्यकार शास्त्री समय 20 शर्तों का पूर्वार्ध । रचना कंकणबन्ध रामायण । यह रामायण एक ही श्लोक का है, और उस श्लोक के 128 अर्थ निकलते हैं। आचर्यकारक तथा क्लिष्ट रचना का यह नमूना है। कवि आंध्र में कृष्णा जिले के काकरपारती ग्राम निवासी थे।
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चारायण पाणिनि पूर्वकालीन एक वैयाकरण पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार, इनका समय ई. पू. 4 थी शती । ये वेद व्याख्याता, वैयाकरण व साहित्य शास्त्री थे। "लोगाक्षिगृह्यसूत्र” के व्याख्याता देवपाल (5-1) की टीका में चारायण ( अपरनाम चारायणि) का एक सूत्र व्याख्यासहित उद्धृत है । इनका उल्लेख "महाभाष्य" (1-1-73) में पाणिनि व रोढि के साथ किया गया है । वात्स्यायन - कामसूत्र व कौटिल्य कृत अर्थशास्त्र (5-5) में भी किसी चारायण आचार्य के मत का उल्लेख है। चारायण को "कृष्ण यजुर्वेद" की "चारायणीय शाखा" का रचयिता भी माना जाता है, जिसका "चाराणीय मंत्रार्षाध्याय" नामक अंश उपलब्ध है। इनके अन्य ग्रंथ हैं- चारायणीयशिक्षा व चारायणीय संहिता इन्होंने साहित्य - शास्त्र संबंधी किसी ग्रंथ की भी रचना की थी, जिसका उल्लेख सागरनंदी कृत "नाटक- लक्षण - रत्नकोश" में है। चारुचन्द्र रायचौधुरी ई. 19-20 शती। बंगाली। एकवीरोपाख्यान (गद्य) के लेखक । चार्वाक ई. पूर्व 23 वीं शताब्दी युधिष्ठिर शक 661 प्रभवनाम संवत्सर में वैशाख पौर्णिमा को दोपहर में जन्म तथा युधिष्ठिर शक 727 में पुष्करतीर्थ के समीप यज्ञगिरि नामक पर्वत पर इनकी मृत्यु मानी जाती है। पिता इंदुकांत माता स्वग्विणी । ई. 8 वीं शताब्दी से साहित्य में चार्वाक का नाम अनेक बार आया है। प्रबोधचंद्रोदय नाटक में उल्लेख है कि लोकायत दर्शन के संस्थापक बृहस्पति के चार्वाक शिष्य थे। माधवाचार्य अपने सर्वदर्शनसंग्रह में चार्वाक का उल्लेख, "नास्तिकशिरोमणि" विशेषण से करते हैं। उसी ग्रंथ में चार्वाक
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दर्शन का परिचय मिलता है।
महाभारत में एक संन्यासी चार्वाक का उल्लेख आता है। (शांति 37, 38, शल्य 65 ) । भारतीय युद्ध की समाप्ति पर जब युधिष्ठिर अश्वमेध यज्ञ की तैयारी कर रहे थे, तब चार्वाक ने वहां उपस्थित होकर उनसे पूछा "रक्तपात कर और बांधवों की हत्या कर तुमने यह जो विजय पायी है, उसे सच्ची विजय कहा जायेगा क्या?" इस प्रश्न से वहां एकत्रित ब्रह्मवृंद कहने लगा "यह दुर्योधन का मित्र चार्वाक, मनुष्य न होकर यतिवेषधारी राक्षस है"। उस पर कृष्ण ने कहा "यह श्रेष्ठ तपस्वी है, परंतु ब्राह्मणों का अपमान करने के कारण इसे शाप मिला है कि इसकी मृत्यु ब्राह्मणों द्वारा ही होगी।" तदनुसार आगे चलकर, चार्वाक की मृत्यु ब्रह्मतेज से दग्ध होकर ही हुई ।
महाभारत के शल्य पर्व में चार्वाक का उल्लेख इस प्रकार है :
जब दुर्योधन ने देखा कि उसका विनाशकाल सन्निकट है, तब उसे अपने परिव्राजक मित्र चार्वाक का स्मरण होता है । उसके मन में विश्वास होता है कि उसकी मृत्यु के पश्चात् चार्वाक ही उसका वीरोचित अंत्यसंस्कार करेगा।
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प्रा. आठवले इनका आविर्भावकाल, ई. 2 री शती से 7 वीं शती के बीच मानते हैं । चिन्तानरसिंह- गोदावरी (आव) जिले के येनुगुमहल के (आन्ध्र) निवासी । गणित, ज्योतिष आदि के जानकार पण्डित । बहुत काल तक विजयनगर के राजा के आश्रित जीवन के उत्तरार्ध में संन्यास लिया । रचना चित्सूर्योदय नाटक । चिन्तामणि - ई. 16 वीं शती (उत्तरार्ध) । संभवतः शेषवंशीय तथा नृसिंह के पुत्र । पिता- गोदावरी परिसर छोड़ काशी में जा बसे थे। चिंतामणि ने वहां तण्डनवंशीय राजा गोविन्दचन्द्र के आश्रय में "गोविन्दार्णव' नामक धर्मशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की। महाभाष्य कैयटप्रकाश के प्रणयन द्वारा इन्होंने काशी में वैयाकरण परम्परा की स्थापना की, जिसमें आगे चलकर भट्टोजी तथा नागोजी आदि विद्वान् हुए। भाई शेषकृष्ण को काशिराज गोवर्धनधारी का आश्रयप्राप्त था।
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अन्य कृतियां- 1) रसमंजरीपरिमल, 2) रुक्मिणीहरण (नाटक), जिसका गुजराती अनुवाद मुंबई से 1873 ई. में प्रकाशित हो चुका है। चिंतामणिकृत "महाभाष्य-कैपटप्रकाश", बीकानेर के अनूप सं. पुस्तकालय में विद्यमान है। चिन्तामणि ज्योतिर्विद्
गोविन्दपुत्र शिवपुर निवासी रचना 1630 ) ।
प्रस्तार - चिन्तामणि (ई. चिन्तामणि दीक्षित सातारा (महाराष्ट्र) के निवासी। रचनाएं - सूर्यसिद्धान्तसारिणी और गोलानन्दः । चिट्टिगुडुर वरदाचारियर- चिट्टिगुडर (आन्ध्र) नरसिंह संस्कृत कलाशाला के संस्थापक रचनाएं- वामनशतकम्,
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दाशरथिशतकम्, कृष्णशतकम् भास्करशतकम्, सुभाषितशतकम्, (तेलुगुशतककाव्यों के अनुवाद) और सुषुप्तिवृत्तम् । चित्सुखाचार्य समय 1220-1284 ई. अद्वैत वेदान्त के महनीय आचार्य गुरु ज्ञानोत्तम तत्संबंधी अनेक ग्रंथों का प्रणयन किया। आप अपनी मौलिक प्रमेय बहुला कृति "तत्त्वदीपिका" (प्रख्यात नाम चित्सुखी) से विख्यात हैं जो अद्वैत वेदांत का प्रमाण-ग्रंथ है, परन्तु इनकी व्याख्यायें भी कम महत्त्व की नहीं। इनमें शारीरक भाष्य की भावप्रकाशिका, ब्रह्मसिद्धि पर अभिप्रायप्रकाशिका तथा नैष्कर्म्यसिद्धि पर भावतत्त्वप्रकाशिका पर्याप्त रूप से विख्यात हैं । इन्होंने विष्णुपुराण तथा भागवत पर भी व्याख्यायें लिखी थीं। जीव गोस्वामी द्वारा निर्दिष्ट भागवत के व्याख्याकारों का कालक्रम अज्ञात है फिर भी चित्सुखाचार्य ही भागवत के सर्वाधिक प्राचीन व्याख्यानुसार प्रतीत होते हैं।
श्रीधर स्वामी ने विष्णु पुराण के अपने व्याख्या "आत्मप्रकाश" के आरंभ में चित्सुख-रचित व्याख्या का किया है किन्तु यह टीका उपलब्ध नहीं है। इसी प्रकार भागवत के व्याख्या ग्रंथ का निर्देश ही इतर टीकाग्रंथों में मिलता है। समग्र ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जीव गोस्वामी ने अपनी भागवत - व्याख्याओं में चित्सुख द्वारा निर्दिष्ट पाठ का सम्मान के साथ संकेत किया है। यदि यह टीका उपलब्ध हो तो भागवत के अर्थ - परमार्थ जानने के अतिरिक्त उसके मूल पाठ की भी समस्या का विशेष समाधान हो सकता है।
चित्सुख का समय निर्धारण, शिलालेखों के आधार पर किया गया है। दक्षिण के दो शिलालेखों में चित्सुख का नाम मिलता है। 1220 ई. के शिलालेख में चित्सुख सोमयाजी का तथा 1284 ई. के शिलालेख में चित्सुख भट्टारक उपनाम नरसिंह मुनि का उल्लेख है। ये दोनों ग्रंथकार, प्रसिद्ध अद्वैत वेदांत चित्सुख से अभिन्न माने जाते हैं अतः उनका समय, इन शिलालेखों के समकालीन (1220 ई. 1284 ई.) माना जाता है।
चित्सुख के कुछ अन्य छोटे-बडे ग्रंथ हैं पंचपादिका विवरण की व्याख्या "भावद्योतिनी" "न्यायमकरंदटीका", "प्रमाणरत्नमाला व्याख्या", "खंडनखंडद्य - व्याख्यान", “अधिकरणसंगति”, “अधिकरणमंजरी" और वृहत्शंकरविजयः । चित्रसेन- ई. 17 वीं शती । बरद्वान निवासी। जैन धर्मगुरु । रचना - चित्रचम्पू ।
चित्रभानु इस कवि के तीन काव्य विशेष उल्लेखनीय है(1) पाण्डवाभ्युदयम् (2) भारतोद्योतः तथा (3) तरुणभारतम् । चिदम्बर- पिता- अनन्त नारायण । चिदम्बर का विलक्षण भाषा - प्रभुत्व लक्षणीय है। रचना- राघव यादव- पाण्डवीयम् (सन्धानकाव्य ) । इस पर पिता की टीका अन्य रचनाएं (1) पंचकल्याणचम्पू । इस पंचार्थश्लिष्ट काव्य में पांच देवताओं के
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विवाह का वर्णन श्लेषालंकार से वर्णित है। इस पर स्वयं कवि की टीका है और (2) भागवत - चम्पू । चिद्विलासयति रचना - शंकरविजयविलासः । यह संवादात्मक काव्य है। संवादक हैं- विज्ञानकांड और तपोधन । चिरंजीव भट्टाचार्य- समय- 15 वीं शती । वास्तवनाम - रामदेव अथवा वामदेव किन्तु चिरंजीव नाम से विख्यात । शतावधानी राघवेन्द्र भट्टाचार्य के पुत्र । ढाका के नायब दीवान यशवन्तसिंह का समाश्रय प्राप्त था। मूलतः राधापुर (बंगाल) के निवासी । गोत्र - काश्यप ।
कृतियां कल्पलता, शिवस्तोत्र, शृंगार तटिनी, माधवचम्पू और विद्वन्मोदतरंगिणी ( इसमें इन्होंने अपने वंश का वर्णन किया है। दो ग्रंथ, क्रमशः कलकत्ता तथा मुंबई से प्रकाशित) । चिरंजीव शर्मा - समय ई. 18 वीं शती । बंगाल के निवासी । कृतियां काव्यविलास और वृत्तरत्नावली।
चूडानाथ भट्टाचार्य - ई. 20 वीं शती। शासकीय संस्कृत महाविद्यालय, काठमाण्डू (नेपाल) के प्राचार्य "परिणाम" नामक सात अंकी नाटक के प्रणेता।
चैतन्य (गौरांग महाप्रभु) कृष्णचैतन्य- समय-1485-1536 ई. । गौडीय वैष्णव मत अथवा चैतन्य-मत के प्रवर्तक । वंशदेशीय नदिया (नवद्वीप) के एक पवित्र ब्राह्मण कुल में जन्म (1485 ई.) । बाल्यकाल का नाम विश्वंभर मिश्र । नवद्वीप के प्रख्यात पंडित गंगादास से विद्याध्ययन। समस्त शास्त्रों में, विशेषतः तर्कशास्त्र में, अत्यधिक विचक्षणता प्राप्त । अनेक पंडितों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। अपनी पाठशाला खोलकर छात्रों को ज्ञानदान का कार्य किया । पिता जगन्नाथ ने उनका नाम विश्वंभर रखा था। माता शचिदेवी उन्हें निमाई के नाम से पुकारती थीं क्यों कि उनका जन्म नीम-वृक्ष के तले हुआ था । पास-पडोस के लोग उनका गौरवर्ण देखकर उन्हें गौरहरि कहते थे ।
गौरांग प्रभु के नाना महान् ज्योतिषी थे। गौरांग के जन्म के पश्चात् उसके शरीर के शुभचिन्ह देखकर उन्होंने भविष्यवाणी की थी कि एक महापुरुष अवतरित हुआ
है ।
अपने पिता के श्राद्ध हेतु 1507 ई. में गया धाम गये। वहां ईश्वरपुरी से वैष्णव- दीक्षा ली। फिर पुरीजी के गुरुभाई केशब भारती से 1508 ई. में संन्यासदीक्षा ग्रहण की। आप तभी से कृष्णचैतन्य के नाम से विख्यात हुए और वृद्धा माता तथा तरुण पत्नी के स्नेह - ममत्व को भुलाकर, राधाकृष्ण की भक्ति के प्रचार में जुट गए।
चैतन्य महाप्रभु ने अखिल भारत के विख्यात तीर्थो की यात्रा करते हुए भक्ति का प्रचार किया। सन् 1510-11 ई. में उत्तर भारत की यात्रा करते समय इनका ध्यान वृंदावन के उद्धार की ओर गया। अतः इन्होंने अपने सहपाठी लोकनाथ
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बाड्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 321
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गोस्वामी को इस कार्य हेतु वृंदावन भेजा। ये स्वयं भी काशी, प्रयाग होते हुए वृंदावन पहुंचे और कुछ महीनों तक वहां निवास किया। किन्तु इनकी लीला-स्थली बनी जगन्नाथपुरी, जहां रथ-यात्रा के अवसर पर बंगाल के भक्तों की अपार भीड़ जुटती थी।
इनसे संबंधित काशी की दो घटनाएं चैतन्य चरितामृत में उल्लिखित हैं- (1) बंगाल के नवाब हुसेनशाह के प्रधान अमात्य सनातन को भक्ति का उपदेश और (2) स्वामी प्रकाशानंद सरस्वती की शास्त्रार्थ में पराजय। प्रकाशानंद महान् अद्वैत वेदांती थे, किन्तु महाप्रभु के उपदेश से कृष्णभक्त बने
और प्रबोधानंद के नाम से विख्यात हुए। ___ महाप्रभु चैतन्य, श्रीकृष्ण के अवतार माने जाते हैं। भक्तमाल की टीका में प्रियादास ने लिखा है- "जसुमतिसुत सोई सचीसुत गौर भये"। संप्रदाय में भी अनंतसंहिता, शिवपुराण, विश्वसारतंत्र, नृसिंहपुराण तथा मार्कंडेयपुराण के तत्तत् वचनों के अनुसार इन्हें अवतार माना जाता है। जीव गोस्वामी ने भी भागवत की टीका "क्रमसंदर्भ" के आरंभ में ही इनके अवतार की सूचना, भागवत के प्रख्यात श्लोक (12-32) के द्वारा दिये जाने का उल्लेख किया है। साथ ही अगले पद्यों में इस श्लोक का अर्थ विशेष देते हुए उन्होंने उनका निर्गलितार्थ निम्न प्रकार दिया है
अन्तः कृष्णं बहिगौर दर्शिताङ्गादिवैभवम्। कलौ संकीर्तनाद्यैः स्म कृष्णचैतन्यमाश्रिताः ।। चैतन्य के जीवन-काल में ही बहुत से लोगों को उनके अवतार होने में विश्वास हो गया था परन्तु उनकी मूर्ति की पूजा संप्रदाय में कब आरंभ हुई इसका निर्णय कठिन है। इस बारे में वंशीदास और नरहरि सरकार का नाम विशेष रूप से उल्लेखनीय माना जाता है। "वंशी-शिक्षा' के अनुसार वंशीदास ने चैतन्य की मूर्ति-पूजा का प्रचार किया। इन्होंने चैतन्य की धर्मपत्नी श्रीविष्णुप्रिया देवी के लिये चैतन्य की काष्ठ-मूर्ति बनाई और नरहरि सरकार ने चैतन्य के विषय में बहुत से पदों की रचना की तथा चैतन्य-पूजा के विधिविधानों को व्यवस्थित किया। परन्तु चैतन्यमत का शास्त्रीय रूप, विधि-विधानों की व्यवस्था, भक्तिशास्त्र के सिद्धान्तों का निर्णय बंगाल में न होकर, सुदूर वृंदावन में जिन विद्वान गोस्वामियों के द्वारा किया गया, वे छह गोस्वामी (षट् गोस्वामी के नाम से) प्रसिद्ध हैं। __ चैतन्य महाप्रभु का कोई भी ग्रंथ प्राप्त नहीं होता। केवल 8 पद्यों का एक ललित संग्रह ही उपलब्ध है। ये 8 पद्य, चैतन्य द्वारा समय-समय पर भक्तों से कहे गये थे। निम्न पद । में चैतन्य के उपदेश का सार है
जीवे दया, नामे रुचि, वैष्णव सेवन, इहा इते धर्म नाई सुनो सनातन ।
सनातन गोस्वामी को काशी में दो मास तक उपदेश देने के पश्चात् चैतन्य ने उक्त पद को ही सब का सार बतलाया था। डॉ. राजवंश सहाय “हीरा" के संस्कृत साहित्य कोश के अनुसार चैतन्य के शिष्यों ने “दशमूलश्लोक" को इनकी रचना माना है। चोकनाथ- ई. 17 वीं शती। गदाचार्य तिप्पाध्वरीन्द्र के पंचम पुत्र । गुरु-स्वामी शास्त्री व सीताराम शास्त्री। बंधुद्वय-कुप्पाध्वरी
और तिरुमल शास्त्री। पिता के अग्रहार शाहजीपुरम् के निवासी। तंजौर के राजा शाहजी भोसले से समाश्रय प्राप्त। दक्षिण कर्नाटक के बसव-भूपाल की राजसभा में भी कुछ समय तक आश्रय। कृतियां- (दो नाटक) सेवान्तिका-परिणय तथा कान्तिमती-शाहराजीय, और रसविलास (भाण) । छज्जूराम शास्त्री- जन्म-शेखपुर लावला (कर्नाल जनपद, कुरुक्षेत्र), में, सन् 1895 में। पिता-मोक्षराम। आशुकवि । "कविरत्न" की उपाधि से अलंकृत। षड्दर्शन-विषयक पांडित्य के कारण, 25 वर्ष की अवस्था में शंकराचार्य द्वारा "विद्यासागर" की उपाधि प्राप्त। यमुनातटवर्ती गौरिशंकर मन्दिर विद्यालय में अध्यापक।
रचना- "सुलतानचरितम्" (महाकाव्य)। अनुप्रासयुक्त । कल्पना नैषध के समान। पं. महावीर प्रसाद द्विवेदी ने कवि की बड़ी प्रशंसा की है। अन्य रचनाएं- (1) दुर्गाभ्युदय (नाटक), (2) छज्जुराम-शतकत्रयम्, (3) साहित्यबिन्दु, (4) मूलचन्द्रिका, (न्यायमुक्तावली की टीका), (5) सरला नामक न्यायदर्शन की वृत्ति, (6) सारबोधिनी (सदानन्द कृत वेदान्तसार की टीका)। सभी प्रकाशित ।
अप्रकाशित रचनाएं- (1) निरुक्त-पंचाध्याय की परीक्षा-टीका, (2) व्याकरण महाभाक्य के दो आह्निकों की परीक्षा-टीका, (3) कुरूक्षेत्र-माहात्म्य टीका और, (4) प्रत्यक्षज्योतिषम्। "साहित्यबिन्दु" के सम्बन्ध में किसी टीकाकार ने कहा है कि साहित्य-सर्वज्ञ पं. छज्जूरामजी के आने से पंडितराज जगन्नाथ
और विश्वनाथ निरर्थक हुए। छत्रसेन- गुरु- समन्तभद्र। रचनाएं- मेरुपूजा, पार्श्वनाथपूजा, अनन्तनाथ-स्तोत्र आदि। समय-ई. 18 वीं शती। छत्रे, विश्वनाथ- पिता-केशव। जन्म-नासिक (पंचवटी) में दि. 27 अक्तूबर 1906 | माध्यमिक शिक्षा के बाद रेल-विभाग में कर्मचारी। संगीत-कला में कुछ नैपुण्य प्राप्त किया। हरिकीर्तन और प्रवचन के कार्यक्रम सेवाकाल में करते थे। 36 वर्षों की सेवा के बाद अवकाश प्राप्त होने पर संस्कृत साहित्य रचना में उत्तरायुष्य सफल किया। निवास स्थान- कल्याण (जिला-ठाणे महाराष्ट्र) । ग्रंथ- श्रीसुभाषचरितम्, काव्यत्रिवेणी (इसमें ऋतुचक्रम्, गंगातरंगम् और गोदागौरवम् इन तीन खण्ड काव्यों का अन्तर्भाव है)। सिद्धार्थप्रव्रजनं (नाटक), अपूर्वः शांतिसंग्रामः (गांधीजी की दाण्डीयात्रा पर
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रचित एकांकिका), संगीत-शिक्षणम् (तीन अंकी नाटक), सुपुत्र । रचना- “संगीतचूडामणि" । रणरागिणी लक्ष्मीः (झांसी की रानी लक्ष्मीबाई के संबंध में
जगद्धर - भवभूतिकृत "मालती-माधव" प्रकरण के टीकाकार । एकांकिका), वधूपरीक्षणम् (एकांकिका)
पिता-महामहोपाध्याय पण्डितराज महाकविराज धर्माधिकारी श्री. श्री छत्रे का बहुत-सा साहित्य अमृतलता, विश्वसंस्कृतम् ___ रत्नधर पण्डित। माता- दमयन्ती। रत्नधर के पूर्वज थे विद्याधर, गुरुकुलपत्रिका, पुरुषार्थ, एकता इत्यादि प्रसिद्ध मासिक पत्रिकाओं रामेश्वर । ये सभी मीमांसक विद्वान थे। में सतत प्रकाशित होता रहा। श्री. छत्रे ने मराठी में संस्कृत समय 15 वीं शती। अन्य कृतियां- सरस्वती-कंठाभरण की साहित्य से संबंधित कुछ छात्रोपयोगी पुस्तकें भी लिखी हैं। टीका, संगीत-सर्वस्व तथा शिव-स्तोत्र। मुंबई-आकाशवाणी से आपके जवाहरस्वर्गारोहणम्,
जगन्नाथ - इस मैथिल कवि ने अपने 20 सर्गयुक्त महाकाव्य नाट्यरूप-मेघदूतम, कीचकहननम्, नन्दिनीवरप्रदानम्,
"ताराचन्द्रोदयम्" में ताराचन्द्र नामक एक साधारण राजा का सिद्धार्थ-प्रवजनम्, श्रीकृष्णदानम्, संन्यासि-संतानम्, लुण्टाको चरित्र लिखा है। महर्षिः परिवर्तितः, येशुजन्म इत्यादि नभोनाटक यथावसर
जगन्नाथ - भट्टारक नरेन्द्र-कीर्ति के शिष्य। खण्डेलवाल-वंश। ध्वनिक्षेपित हुए थे। समर्थ रामदास का मनोबोध, मोरोपंत की
गोत्र-लोगाणी। पिता-सोमराज श्रेष्ठी। भाई- वादिराज। तक्षक केकावली और ग्रे कवि की एलिजी जैसे प्रसिद्ध काव्यों के
(वर्तमान नाम टोडा) नगर-निवासी। राजा जयसिंह द्वारा संस्कृत अनुवाद श्री. छत्रे ने किए हैं। इसके अतिरिक्त मराठी
सम्मानित। समय 17 वीं शती का अन्त और 18 वीं शती में आपकी 25 पुस्तकें प्रकाशित हुईं। अनेक संस्थाओं द्वारा
का प्रारम्भ। रचनाएं- (1) चतुर्विंशति सन्धान (स्वोपज्ञ टीका आपका सम्मान हुआ। रेल-विभाग के कर्मचारी-वर्ग में श्री.
सहित), (2) सुखनिधान, (3) ज्ञानलोचनस्तोत्र, (4) छत्रे संस्कृत साहित्य के एकमात्र उपासक रहे।
श्रृंगारसमुद्रकाव्य, (5) श्वेताम्बरपराजय, (6) नेमिनरेन्द्र स्तोत्र, जगजीवन (पं.)- जन्म 1704 ई. । मारवाड-शासक अजितसिंह (7) सुपेष्ट-चरित्र और (8) कर्मस्वरूपवर्णन। ये प्राकृत व के समकालीन। अजितसिंह ही इनकी रचना के प्रतिपाद्य विषय
संस्कृत दोनों के विद्वान थे। हैं। आपके द्वारा रचित "अजितोदय-काव्यम्", 23 सों का
जगन्नाथ- फतेहशाह (1684-1716 ई.) के समाश्रित। बंगाल महाकाव्य है।
के निवासी। वंश-तीरभक्ति। पिता-पीताम्बर। अनेक रचनाओं जगज्ज्योतिर्मल्ल- नेपाल नरेश। पिता-त्रिभुवनमल्ल । कार्यकाल
में से केवल "अतन्द्र-चन्द्र प्रकरण" उपलब्ध है। ई. 1617-1633। संगीतज्ञ। कृतियां- पद्मश्रीज्ञान लिखित
जगन्नाथ - [1] तंजौर के महाराज सरफोजी "नागर-सर्वस्व" पर टीका, संगीत-सारसंग्रह, स्वरोदय-दीपिका,
भोसले (1711-1728 ई.) के मंत्री श्रीनिवास के पुत्र । गीत-पंचाशिका, संगीत-भास्कर और श्लोक-संग्रह।
काकलवंशीय। चाचा-रघुनाथ, न्यायशास्त्र के पण्डित । स्वयं जगदीश तर्कपंचानन - समय ई. 16 वीं शती का उत्तरार्ध ।
राजतन्त्र में नियुक्त। सम्भवतः पिता के पश्चात् राजमंत्री पद काव्यप्रकाश की "रहस्य-प्रकाश" नामक टीका के कर्ता।
पर विराजमान। जगदीश भट्टाचार्य (तर्कालंकार) - ई. 17 वीं शती।
कृतियां- अनंगविजय (भाण), शृंगारतरंगिणी (भाण) तथा मथुरानाथ तर्कवागीश के पश्चात् हुए एक श्रेष्ठ नैयायिक। इन्होंने
शरभराज- विलासकाव्य (इसमें गीवार्ण विद्यारसिक तथा "सरस्वती श्री. रघुनाथ शिरोमणि के टीका-ग्रंथ दीधिति पर "जागदीशी'
महल" नामक संस्कृत ग्रंथालय के संस्थापक सरफोजी राजे नामक विस्तृत टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त तर्कामृत व
भोसले का चरित्र वर्णित है। रचना का काल 1722 ई.)। शब्दशक्तिप्रकाशिका नामक दो ग्रंथों की रचना भी आपने की।
[।।] सरफोजी भोसले के मन्त्री बालकृष्ण का पुत्र । इनमें से शब्दशक्ति-प्रकाशिका को जगदीश भट्टाचार्य का सर्वस्व माना जाता है। इसमें साहित्यिकों की व्यंजना नामक शब्द-शक्ति
रचना- (1) रतिमन्मथम्। (2) वसुमतीपरिणयम्। का खंडन किया गया है। शब्द-शक्तिविषयक यह अत्यंत
जगन्नाथ - तंजौर के महाराजा प्रतापसिंह (1739-1763 ई.) प्रामाणिक ग्रंथ है। नवद्वीप (बंगाल) के प्रसिद्ध नैयायिकों में
के समाश्रित। विश्वामित्र गोत्री। पिता- बालकृष्ण राजमंत्री थे। भट्टाचार्यजी का स्थान अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। इनके कुछ अन्य गुरु- कामेश्वर । प्रतापसिंह से अनुज्ञा लेकर काशीयात्रा। लौटते ग्रंथों के नाम हैं : तत्त्वचिंतामणिमयूख, न्यायादर्श और
समय पुणे के पेशवा बालाजी बाजीराव से सम्पर्क प्राप्त हुआ। पदार्थतत्त्वनिर्णय।
वहीं "वसुमतीपरिणय' नामक नाटक की रचना, जिसका प्रथम जगदीश्वर भट्टाचार्य -महामहोपाध्याय। तर्कालंकार। ई. 18
अभिनय पेशवा ने स्वयं देखा था। वीं शती। "हास्यार्णव नामक प्रहसन के प्रणेता।
कृतियां- वसुमतीपरिणय तथा रतिमन्मथ (नाटक), अश्वधाटी जगदेकमल्ल चालुक्य - कल्याण के चालुक्यवंशीय राजा
तथा भास्कर-विलास (काव्य) और हृदयामृत तथा (ई.स. 1138 से 1150)। तीसरे सोमेश्वर पश्चिम चालक्य के नित्योत्सव-निबन्ध (तांत्रिक ग्रंथ)।
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जगन्नाथ - जन्म- सन् 1758 में, गुजरात के न्हानी बोइऊ आसफखां की प्रेरणा से इन्हें अपने यहां बुलाया और ग्राम में। आशुकवि। भावनगर के राजा बख्तसिंह के राजकवि।। "पंडितराज" की उपाधि देकर इन्हें सम्मानित किया। शाहजहाँ बडोदा-नरेश के द्वारा भी सम्मानित । मूर्तिकला, संगीत, चित्रकला की मृत्यु के बाद ये एकाध वर्ष के लिये प्राण-नारायण के तथा नृत्य में प्रवीण। आपकी अनेक कृतियों में प्रसिद्ध हैं- पास गए होंगे और फिर वहां से आकर अपनी वृद्धावस्था नागरमहोदय, श्रीगोविन्दरावविजय, रमा-रमणांधिसरोजवर्णन मथुरा में बिताई होगी। (विष्णुस्तुति) । वृद्धवंशवर्णन, 1912 में भावनगर से प्रकाशित) पंडितराज की रचनाएं- रसगंगाधर, चित्रमीमांसाखण्डन, तथा सौभाग्यमहोदय (नाटक)।
गंगालहरी, (या पीयूषलहरी), अमृतलहरी, करुणालहरी (या जगन्नाथ - समय- 18 वीं शताब्दी। जयपुरनिवासी गणितज्ञ।। विष्णुलहरी), लक्ष्मीलहरी, सुधालहरी, आसफ-विलास (शाहजहां "सिद्धान्त-सम्राट्” तथा “सिद्धान्त-कौस्तुभ' नामक दो के मामा आसफखां का चरित्र- आख्यायिका के माध्यम से। ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथों के रचयिता।
यह ग्रंथ अपूर्ण है), प्राणाभरण (कामरूप नरेश प्राण-नारायण जगन्नाथ - अरविन्दाश्रम के शिष्य। माताजी की फ्रान्सीसी की प्रशस्ति), जगदाभरण (उदयपूर के राजा जगत्सिंह का भाषा में रचित नीतिकथाओं का संस्कृत अनुवाद (मूल पुस्तक
वर्णन), भामिनीविलास (फुटकल पद्यों का का संग्रह), "बेलजिस्तृवार" कथामंजरी के नाम से प्रकाशित) अन्य रचनाएं
मनोरमाकुचमर्दन (व्याकरण विषयक टीका-ग्रंथ, भट्टोजी दीक्षित श्रीमातुः सूक्तिसुधा। (माताजी की फ्रान्सीसी सुभाषितों का
के मनोरमा-ग्रंथ का खंडन), यमुनावर्णनचंपू, अश्वधाटी पण्डितराज प्रासादिक अनुवाद) और अग्निमंत्रमाला- वेदों के अग्निविषयक शतक (अनुपलब्ध) आदि। मंत्रों पर अरविंदमतानुसार भाष्य।
बादशाह शाहजहां की लावण्यवती मानसकन्या लवंगी और जगन्नाथ तर्कपंचानन - समय - ई. 18 वीं शताब्दी। जगन्नाथ पण्डित की प्रणय-कथा बहुत प्रसिद्ध है। वंगप्रदेश-वासी। विलियम जोन्य की सूचना पर हिंदू न्यायविधान जगन्नाथ मिश्र - ई. 18 वीं शती। बंगाल के निवासी। पर “विवादभंगार्णव"- ग्रंथ लिखा। अंग्रेज न्यायाधीशों को कृति-छन्दःपीयूष। न्यायदान के कार्य में इस ग्रंथ का बहुत उपयोग हुआ। जगन्नाथशास्त्री - समय 1897 ई.। प्रतापगढ़ के राजपण्डित । जगन्नाथ दत्त - ई. 19-20 शती। बंगाल के निवासी। कृति- इन्होंने हरिभूषणकाव्य, उत्सवप्रतान, काव्य-कुसुम इत्यादि कृतियों चिकित्सारत्न।
की रचना की। अनेक संस्कृत पत्र-पत्रिकाओं में भी आपकी जगन्नाथ पंडितराज - आन्ध्र प्रदेश के मुंगुज नामक ग्राम रचनाएं प्रकाशित हुई हैं। में जन्म। समय- 1590 से 1665 ई.। एक महान् काव्यशास्त्री जगन्मोहन - चौहानवंशीय राजा बैजल के आदेश पर इन्होंने व कवि। इनका युगप्रवर्तक ग्रंथ "रसगंगाधर" है, जो भारतीय ___देशालिविवृति" की रचना की। इसमें समकालीन 56 राजाओं आलोचना-शास्त्र की अंतिम प्रौढ रचना मानी जाती है। पंडितराज का चरित्र-वर्णन तथा ऐतिहासिक घटनाओं का उल्लेख होने तेलंग ब्राह्मण तथा मुगलबादशाह शाहजहां के सभा-पंडित थे। से, तत्कालीन इतिहास पर प्रकाश पडता है।। इन्हें शाहजहां ने ही "पंडितराज' की उपाधि से विभूषित किया ___ जग्गू शिंगरार्य- जन्म- सन् 1902 में। मृत्यु-सन् 1960 में। था। इनके पिता का नाम पेरूभट्ट (या पेरमभट्ट) और माता यदुशैलपुर (मेलकोटे) के निवासी। कृतियां-युवचरित (नाटक), का नाम लक्ष्मी था।
पुरुषकार-वैभवस्तोत्र, अन्योक्तिमाला, ऋतुवर्णन, ग्रन्थिज्वर- चरित, ___ इसी प्रकार पंडितराजकृत "भामिनीविलास" से ज्ञात होता वेदान्तविचारमाला और शिबिवैभव (नाटक) । इनमें से शिबिवैभव है (4-45) कि इन्होंने अपनी युवावस्था दिल्लीश्वर शाहजहां को छोड अन्य सभी रचनाएं अप्रकाशित हैं। के आश्रय में व्यतीत की थी। ये 4 राजपुरुषों के आश्रय में जग्गू श्रीबकुलभूषण - जन्म 1902 में। पूर्ण नाम- जग्गू रहे। वे हैं- जहांगीर, जगसिंह, शाहजहां व प्राण-नारायण। अलवारैय्यंगार। पिता-श्रीनारायणार्य। पितामह- महाकवि जग्गू पंडितराज ने प्रारंभ के कुछ वर्ष जहांगीर के आश्रय में बिताये। श्रीशिंगरार्य। कुलनाम-बालधन्वी, गोत्र कौशिक। इनके चाचा 1627 ई. के बाद ये उदयपुर नरेश जगत्सिंह के यहां चले मैसूर महाराज के राजपण्डित थे। आप यदुगिरि (मैसूर) की गए। कुछ दिन वहां रहे और उनकी प्रशंसा में “जगदाभरण' संस्कृत महापाठशाला में साहित्य के अध्यापक रहे। 17 वें की रचना की। 1628 ई. में जगत्सिंह गद्दी पर बैठे। शाहजहां वर्ष से संस्कृत रचना प्रारंभ।। भी 1628 ई. में ही गद्दी पर बैठे थे। कृतिया- (नाटक)- अद्भुतांशुक, मंजुलमंजीर, प्रतिज्ञाकौटिल्य, कुछ दिनों बाद शाहजहां ने उन्हें अपने यहां बुला लिया। संयुक्ता, प्रसन्नकाश्यप, स्यमंतक, बलिविजय, अमूल्यमाल्य, किन्तु कुछ विद्वानों के मतानुसार इन्हें जगत्सिंह के यहां से अप्रतिमप्रतिम, मणिहरण, प्रतिज्ञाशान्तनव, नवजीमूत, यौवराज्य, आसफखां ने (काश्मीर के सूबेदार के मामा) अपने पास वीरसौभद्र, अनंगदा (महाकाव्य) अद्भुतदूत (प्रकाशित) तथा बुलाया और ये उसी के आश्रय में रहे तथा शाहजहां ने अप्रकाशित काव्य- करुणरस- तरंगिणी, शृंगारलीलामृत और
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पथिकोक्तिमाला। (गद्य)- यदुवंशचरित (प्रकाशित) और उत्तरार्ध सिद्ध होता है। आपकी यह कृति न्यायशास्त्र पर एक उपाख्यान-रत्नमंजूषा (अप्रकाशित)। (चम्पू) भारत-संग्रह स्वतंत्र ग्रंथ के रूप में प्रतिष्ठित है। (प्रकाशित) व यतिराज (अप्रकाशित)। इनके अतिरिक्त चार जयन्त- 16 वीं शती। तत्त्वचन्द्रिका नामक प्रक्रिया कौमुदी दण्डक स्तोत्र । कुल 30 रचनाएं।
की टीका के लेखक। जटाधर - ई. 15 वीं शती। फेणी नदी के तट पर स्थित जयकान्त - रचनाएं हैं- (1) "ध्रुवचरितम्" (2) "प्रह्लाद चाटीग्राम के निवासी। कृति-अभिधानतन्त्र ।।
चरि म्" (3) "अजामिलोपाख्यानम्"। (4) गोवर्धन कृष्ण जटासिंह नन्दि - जिनसेन, उद्योतनसूरि, चामुण्डराय आदि चरितम्। आचायों द्वारा उल्लिखित । कर्नाटकवासी। कोप्पल में समाधिमरण । जयकीर्ति - कर्नाटकवासी। समय- ई. 10 वीं शती। ग्रंथलहराती हुई लम्बी जटाओं के कारण जटिल या जटाचार्य छन्दोऽनुशासन"। इनमें वैदिक छन्दों को छोडकर आठ अध्यायों कहलाये थे। समय- ई. 7 वीं शताब्दी का अन्तिम पाद।। में विविध लौकिक छंदों का विवरण किया है। असंग कवि रचना- वराङ्गचरित नामक पौराणिक महाकाव्य (31 सर्ग और ने इनका उल्लेख किया है। 1805 श्लोक)। जैन पुराणकथा पर महाकाव्य आधारित है। जयतीर्थ - समय- लगभग 1365-1388। इनके जीवन की जनार्दन - ई. 13 वीं शती । बंगाल-निवासी। रचना- रघुवंश। सामान्य घटनाओं का ज्ञान, उनके "दिग्विजय-ग्रंथ' से भली-भांति जन्न - समय- 12-13 वीं शती। कर्नाटकनिवासी। वंश कम्मे । प्राप्त होता है। तदनुसार उनका पूर्वाश्रम का नाम धोंडोंपत पिता-शंकर। माता- गंगादेवी। गुरु- नागवर्म। इनके पिता रघुनाथ था। महाराष्ट्र में पंढरपुर से लगभग 12 मील की शंकर, हयशालवंशीय राजा नरसिंह के सेनापति थे। जन्नकवि, दूरी पर स्थित एक गांव में उनका जन्म हुआ था। उनके सूक्तिसुधार्णव ग्रंथ के कर्ता मल्लिकार्जुन के साले और पिता जमीनदार थे। इनकी आरंभिक शिक्षा-दीक्षा अच्छी हुई शब्दमणिदर्पण के कर्ता केशिराज के मामा थे। चोलकुल थी। 20 वर्ष की आयु में ही इनके जीवन में आध्यात्मिक नरसिंह देव के सभाकवि। दुर्ग में जैन मंदिर के निर्माता। मोड आया। एक बार घोड़े पर सवार होकर ये कहीं जा रहे रचना- यशोधरचरित्र और अनन्तनाथ-पुराण।
थे। प्यास जोरों से लगी थी। अतः समीपस्थ पर्वत की जमदग्नि - पिता- भृगुकुल के ऋचीक ऋषि (पद्मपुराण के
तलहटी से बहने वाली नदी में, घोडे पर सवारी कसे ही ये अनुसार भृगु)। माता-सत्यवती। पत्नी-रेणुका। रुमण्वान, सुषेण, भीतर चले गए और घोडे की पीठ पर बैठे-बैठे ही मुंह वसुमान, विष्वावसु तथा परशुराम नामक पुत्र । भिन्न-भिन्न पुराणों
नवाकर इन्होंने अपनी प्यास बुझाई। नदी के दूसरे किनारे से में इनका चरित्र भिन्न-भिन्न प्रकार से वर्णित है।
एक महात्मा इन्हें देख रहे थे। महात्मा के बुलाने पर ये ऋग्वेद के नवम मण्डल के 62 तथा 65 एवं दसवें
उनके पास गए। उन्होंने कुछ प्रश्न पुछे। फलतः इनको अपने मण्डल के 110 वें सूक्त की रचना इन्होंने की है।
पूर्व जन्म की घटनाएं स्मरण हो आईं। महात्मा थे माध्व-मत जमदग्नि नाम के अनुरूप क्रोधी थे। एक बार पत्नी को
की गुरु-परंपरा में 5 वें गुरु अक्षोभ्यतीर्थ। उन्होंने दीक्षा देकर सरोवर से स्नान कर लोटने में देरी हुई, तो इन्होंने पुत्रों को
इन्हें अपना शिष्य बनाया और नाम रखा जयतीर्थ। प्रसिद्ध
अद्वैती विद्वान विद्याचरण स्वामी के ये समकालीन थे। इन्होंने अपनी माता का वध करने की आज्ञा की परन्तु उस का
अपने ग्रंथों में श्रीहर्ष, आनंदबोध एवं चित्सुख के मतों को आज्ञा पालन केवल परशुराम ने किया। इस लिये जमदग्नि ने शेष चार पुत्रों का वध कर डाला। जमदग्नि परशुराम पर
उद्धृत कर, उनका खंडन किया है। अत्यन्त प्रसन्न हुये थे। अतः उन्होंने उसे वर मांगने के लिये जयतीर्थ ने मध्वाचार्य के ग्रंथों पर नितांत प्रौढ एवं कहा। तब परशुराम ने अपनी मातासमेत चारों भाइयों को प्रमेय-संपन्न टीकाएं लिखी हैं, उनके सिद्धांतों को अपने जीवित करने की प्रार्थना की। जमदग्नि ने उसकी प्रार्थना
व्याख्यानों द्वारा विशद, बोधगम्य तथा हृदयाकर्षक बनाया और स्वीकार कर ली और अपनी पत्नी और चारों पुत्रों को पुनर्जीवित
नवीन ग्रंथों का निर्माण कर मध्व-मत को शास्त्रीय मान्यता के किया।
उच्च शिखर पर प्रतिष्ठित किया। जयतीर्थ द्वारा प्रणीत ग्रंथों जयंतभट्ट - "न्याय-मंजरी" नामक प्रसिद्ध न्यायशास्त्रीय की संख्या 20 है जिनमें प्रमुख हैं- तत्त्व-प्रकाशिका, न्यायसुधा, टीका-ग्रंथ के प्रणेता। समय-नवम शतक का उत्तरार्ध । भट्टोजी गीताभाष्य-प्रमेय-टीका, गीता-तात्पर्य-न्यायदीपिका, वादावलि और ने अपने इस ग्रंथ में "गौतम-सूत्र" के कतिपय प्रसिद्ध सूत्रों प्रमाण-पद्धति । प्रमाण-पद्धति पर 8 टीकाएं प्राप्त हुई हैं। मध्व पर प्रमेयबहुला वृत्ति प्रस्तुत की है। इसमें चावार्क, बौद्ध, तथा व्यासराय के साथ जयतीर्थ द्वैत-संप्रदाय के "मुनित्रय" मीमांसा, वेदान्त-मतावलंबियों के मतों का खंडन किया है। में समाविष्ट होते हैं। जयतीर्थ की ऋक्भाष्य-टीका पर नरसिंहाचार्य "न्याय-मंजरी" में वाचस्पति मिश्र व ध्वन्यालोककार आनंदवर्धन की विवृत्ति तथा बारायणाचार्य की भाष्यटीकाविवृत्ति प्रसिद्ध है। का उल्लेख होने के कारण इनका समय नवम शतक का जयतीर्थ ने कई स्थलों पर सायणाचार्य का खण्डन किया
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 325
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है, ऐसा माना जाता है। यदि वह सच हो, तो जयतीर्थ का समय 14 वीं शती के बाद मानना उचित होगा। जयदेव - छन्द शास्त्र के रचयिता । अभिनवगुप्त द्वारा उल्लिखित । समय ई. की प्रारम्भ की शतियां। यह रचना सूत्ररूप होने से इनका समय सूत्रकाल में ईसा पूर्व 2 री या 3 री शती हो सकता है। जयदेव (पीयूषवर्ष) - "चंद्रालोक" नामक लोकप्रिय काव्यशास्त्रीय ग्रंथ के प्रणेता। "गीत-गोविंद" के रचयिता जयदेव से सर्वथा भिन्न। इन्होंने "प्रसन्न-राघव" नाटक की भी रचना की है। तत्कालीन समाज में ये "पीयूषवर्ष" के नाम से विख्यात थे- "चंद्रालौकममुं स्वयं वितनुते पीयूषवर्षः कृती"(चंद्रालोक 1-2) । पिता- महादेव। माता- सुमित्रा । - "प्रसन्न राघव नाटक (हिन्दी अनुवाद सहित) चौखंबा से प्रकाशित हो चुका है।
ये संभवतः 13 वीं शताब्दी के मध्य चरण में रहे होंगे। "प्रसन्नराघव" के कुछ श्लोक "शाङ्गधरपद्धति" में उद्धृत हैं जिसका रचना-काल 1363 ई. है। आचार्य जयदेव ने मम्मट के काव्यलक्षण का खंडन किया है, अतः वे उनके परवर्ती हैं। इन्होंने "विचित्र" एवं विकल्प" नामक अलंकारों के लक्षण रुय्यक के ही शब्दों में दिये हैं। अतः ये रुय्यक के भी पश्चाद्वर्ती सिद्ध होते हैं। इस प्रकार इनका समय रुय्यक (1200 ई.) एवं शागधर (1350 ई.) का मध्यवर्ती निश्चित होता है। कुछ विद्वान इन्हें तथा मैथिल नैयायिक पक्षधरमिश्र अभिन्न सिद्ध करना चाहते हैं। पर अब यह प्रायः निश्चित हो गया है कि ये दोनों भिन्न व्यक्ति थे। पक्षधर मिश्र का समय 1464 ई. है।
कौण्डिण्य गोत्रीय आचार्य जयदेव हरि मिश्र के शिष्य थे। एक तर्कशास्त्रज्ञ के रूप में इन्होंने गंगेश उपाध्याय के "तत्त्वचिंतामणि" पर "आलोक" नामक टीका लिखी है जो इनके "प्रसन्नराघव' में उल्लेख से विदित होती है। ये दक्षिण भारत के राजाश्रय में रहे थे। जयदेव - एक युग-प्रवर्तक गीतिकार। इन्होंने "गीतगोविंद" नामक एक लोकप्रिय गीति-काव्य की रचना की है। ये बंगाल के राजा लक्ष्मण सेन के सभा-कवि थे। इनका समय ई. 12 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध है। "गीत-गोविंद" में राधा कृष्ण की ललित लीला का मनोरम व रसस्निग्ध वर्णन है। इस पर राजस्थान के राजा कुंभकर्ण व एक अज्ञातनामा लेखक की टीकाएं प्राप्त होती हैं, जो निर्णयसागर प्रेस से प्रकाशित है। जयदेव का निवास स्थान केंदुबिल्ब या कंदुली (बंगाल) था, पर कतिपय विद्वान इन्हें बंगाली न मानकर उत्कल-निवासी कहते हैं। जयदेव के संबंध में कतिपय प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं, तथा कवि ने स्वयं भी अपनी कविता के संबंध में प्रशंसा के वाक्य कहे हैं -
यदि हरिस्मरणे सरसं मनो यदि विलासकलासुकुतूहलम्।
कलितकौमलकांतपदावलीं श्रुणु तदा जयदेव-सरस्वतीम्।
(स्ववचन : गीत-गोविंद, 1-3) साध्वी माध्वीक चिंता न भवति भवतःशर्करे कर्कशासि, द्राक्षे द्रक्ष्यन्ति के त्वाममृतमृतमसि क्षीर नीरं रसस्ते । माकंद कंद, कांताधर धरणितलं गच्छ, यच्छन्ति भावं, यावच्छृङ्गारसारं स्वयमिह जयदेवस्य विश्वग्वचांसि ।।
(गीत-गोविंद) __ जयदेव के पिता का नाम भोजदेव और माता का नाम रमादेवी था। बहुत दिनों तक इस दंपति को संतान नहीं हुई। इसके लिये उन्होंने जगन्नाथ की आराधना की। जगन्नाथ की कृपा से उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। जयदेव के समय उत्कल पर कामदेव का शासन था। कतिपय विद्वानों के अनुसार, उन्हीं के आश्रय में रहते हुये जयदेव ने "गीत-गोविंद" की रचना की। कहते हैं कि गीतगोविंद के श्रवण के बिना राजा कामदेव अन्नग्रहण नहीं करते थे। ____किंतु जयदेव के विवाह के संबंध में एक किंवदंती हैकेंदुपाटण (किंदुबिल्व) में देवशर्मा नामक एक ब्राह्मण रहता था। वह निःसंतान था। उसने भगवान जगन्नाथ से मनौती की कि यदि उसे संतान हुई तो वह उसे भगवान् के चरणों में समर्पित कर देगा। कुछ दिनों पश्चात् उसके यहां एक कन्या ने जन्म लिया। उसने उसका नाम पद्मावती रखा, और उसके युवा होने पर उसे मंदिर के पुजारी को सौंप दिया। रात को पुजारी ने स्वप्न देखा कि भगवान जगन्नाथ उसे आदेश दे रहे हैं कि वे पद्मावती को जयदेव को समर्पित कर दें। भगवान के आदेशानुसार दूसरे दिन प्रातः पुजारी पद्मावती को अपने साथ लेकर जयदेव के पास पहुंचा। जयदेव गांव के बाहर कुटिया में संन्यस्त वृत्ति से रहते थे। पुजारी ने अपने स्वप्न की बात उनसे कही। जयदेव को उस पर विश्वास नहीं हुआ पर पुजारी पद्मावती को वहीं छोडकर चला गया। अंततः अनिच्छापूर्वक जयदेव को उसे पत्नी के रूप में स्वीकार करना पड़ा।
पद्मावती के पातिव्रत्य के संबंध में भी एक बहुत ही अद्भुत आख्यायिका प्रचलित है :
एक बार राजा लक्ष्मणसेन जयदेव के साथ शिकार खेलने गये। इधर रनिवास में लक्ष्मणसेन की रानी और पद्मावती वार्तालाप में मग्न थीं। रानी को पद्मावती के पातिव्रत्य की परीक्षा लेने की इच्छा हुई। उसने एक दूत के साथ कानाफूसी कर षडयंत्र रचा।
कुछ समय पश्चात् दूत दौडा-दौडा रानिवास में आया और उसने शिकार खेलते समय जयदेव की मृत्यु हो जाने की वार्ता सुनाई। वह समाचार सुनते ही पद्मावती के प्राणपखेरू उड गये।
कुछ समय पश्चात् राजा लक्ष्मणसेन और जयदेव आखेट से राजप्रासाद लोटे। राजा ने जब यह सुना कि उनकी रानी
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पद्मावती की मृत्यु के लिये उत्तरदायी है, तब वे बहुत कुपित हुए और अपनी रानी को मारने के लिये दौड़े, जयदेव ने उन्हें मना किया और कहा - जब मैं जीवित हूं, तो पद्मावती का पुनजीवित होना संभव है। उन्होंने संजीवनी अष्टपदी कहकर जैसे ही पत्नी की देह पर जलसिंचन किया, वह सचेत होकर उठ बैठी। ___ "गीतगोविंद" के अतिरिक्त जयदेव को कतिपय बंगाली पर्दो का भी रचयिता बतलाया जाता है। इन पदों का समावेश गुरुग्रंथसाहब तथा दादूपंथी साधकों के पदसंग्रहों में भी हुआ है। मूल बंगाली पदों का स्वरूप, उन ग्रंथों में हिंदी, पंजाबी या राजस्थानी हो गया है। जयदेव- केरलनिवासी। सोमयाग करने पर संन्यास ग्रहण किया। रचना- पूर्णपुरुषार्थ-चन्द्रोदयम् (नाटक)। जयराम न्यायपंचानन - ई. 17 वीं शती। कृष्णनगर के राजा रामकृष्ण का समाश्रय प्राप्त । रामभद्र सार्वभौम के शिष्य । कृति - काव्यप्रकाश पर "रहस्यदीपिका" (अपर नाम "तिलक" अथवा “जयरामी") नामक टीका। जयराम न्यायपंचानन (तर्कालंकार) - ई. 17-18 वीं शती। गुरु- रामभद्र सार्वभौम । रचनाएं- तत्त्वचिंतामणि-दीधिति- गूढार्थविद्योतन, त.चि. आलोकविवेक, न्यायसिद्धान्तमाला, दीधिति विवृत्ति, न्यायकुसुमांजलिकारिकाव्याख्या, पदार्थमणिमाला (या पदार्थमाला), वृंदावनविनोद (काव्य), काव्यप्रकाशतिलक (साहित्यशास्त्रीय) और शक्तिवाद-टीका।।
उपरोक्त ग्रंथों में से “पदार्थमणिमाला'' इनका सर्वोत्तम ग्रंथ माना जाता है। भीमसेन दीक्षित ने अपने दो ग्रंथों में इन्हें तथा देवनाथ तर्कपंचानन को तर्कशास्त्र का प्रमाण कहा है। जयराम कृष्णनगर के राजा रामकृष्ण (नवद्वीपाधिपति) के आश्रय में रहते थे। जयराम पाण्डे - मुंबई के एक प्रसिद्ध व्यापारी। शेअर बाजार में प्रतिष्ठा। अर्थशास्त्रज्ञ धर्म और अर्थ पुरुषार्थ पर शतक रचनाएं-धर्मशतकम् और अर्थशतकम्। जयराम पिण्ड्ये - शिवाजी महाराज के समकालीन। 5 सर्गों के इनके "पर्णालपर्वत-ग्रहणाख्यान" काव्य में शिवाजी महाराज का पन्हाला किले पर प्रदर्शित पराक्रम वर्णित है। इस छोटे से काव्य को ऐतिहासिक महत्त्व है। ____ 12 भाषाओं के तज्ञ तथा इन सब भाषाओं में काव्य करने की क्षमता उनमें थी। प्रस्तुत काव्य, भारत इतिहास संशोधक मण्डल, पुणे के प्रसिद्ध संशोधक सदाशिव महादेव दिवेकर ने अभ्यासपूर्ण प्रस्तुति के साथ तथा मराठी अनुवाद सहित प्रकाशित किया है। अन्य रचना - राधामाधवविलास-चम्पू। जयरामशास्त्री - साहित्याचार्य । रचना - जवाहरवसन्तसाम्राज्यम्। 7 सर्ग, 500 श्लोक। 1950 ई. को पं. जवाहरलाल नेहरू
की षष्ठ्यब्दिपूर्ति के वर्ष में प्रकाशित । जयराशि भट्ट - ई. 7 वीं शताब्दी। चार्वाक मतानुयायी। "तत्त्वोपप्लवसिंह" नामक ग्रन्थ के रचयिता। इसमें वैदिक और जैन तत्त्वज्ञान का खण्डन है। जयशेखर सूरि - अंचलगच्छीय महेन्द्रसूरि के शिष्य। इस गच्छ के संस्थापक आर्यरक्षित सूरि थे, जिनकी दसवीं पीढ़ी में महेन्द्रप्रभसूरि हुए। उनके तीन शिष्य थे - मुनिशेखर, जयशेखर और मेरुतुंग सूरि। समय - ई. 16 वीं शती। ग्रंथ-जैनकुमार-सम्भव (वि. सं. 1483)। (भरत की उत्पत्ति का वर्णन 11 सर्ग)। इनके अन्य ग्रंथ हैं 1) उपदेशचिन्तामणि (सं. 1436), 2) प्रबंधचिन्तामणि (वि. सं. 1464) और 3) अम्मिल्लचरित। जयसेन - ई. 10 वीं शती। भावसेन सूरि के शिष्य । लाडबागडसंघ के विद्वान । समय ई. 12 वीं शती का मध्यकाल। इन्हें जयसेन प्रथम कहा जाता है। इस नाम के अन्य विद्वान हुए हैं। रचना - धर्मरत्नाकर। ___कुन्दकुन्द के टीकाकार जयसेन द्वितीय, साधु महीपति के पुत्र चारुभट जो उत्तरकाल में जयसेन कहलाये। गुरु का नाम सोकसेन और दादा गुरु का नाम वीरसेन । समय ई. 11-12 वीं शती। रचना कुन्दकुन्द के समयसार, प्रवचनसार और पंचास्तिकाय पर टीकाएं। जयसेनापति - वरंगलनरेश काकतीय गणपति (ई. स. 1200 से 1265) के गजसेनाप्रमुख। रचना-वृत्त-रत्नावली। (ई. स. 1254 में रचित)। जयस्वामी - समय - ई. 16 वीं शताब्दी से पूर्व । आश्वलायन ब्राह्मण के भाष्यकार। जयस्वामी और जयन्तस्वामी एक ही हो सकते हैं। अपने "संस्कारतत्त्व" के मलमास प्रकरण में ग्रंथकर्ता रघुनन्दन आश्वलायन ब्राह्मण के भाष्यकार जयस्वामी का निर्देश करते हैं। जयन्तस्वामी ने आश्वलायन गृह्यसूत्र पर "विमलोदय" नामक टीका लिखी है। यह भी संभव है कि जयन्त स्वामी के अतिरिक्त जयस्वामी भी कोई अन्य ग्रंथकार हुए हों। "हारीत स्मृति" पर भी जयस्वामी की टीका उपलब्ध है। जयस्वामी - हरिस्वामी के पुत्र। इन्होंने "ताण्ड्यब्राह्मण" पर भाष्य रचना की है। उस भाष्य का नामान्तर, पंचविंशार्थमाला होगा, ऐसा अनुमान है। जयादित्य और वामन - अष्टाध्यायी की काशिका नामक वृत्ति इनकी सम्मिलित रचना है। पाणिनीय व्याकरण में महाभाष्य तथा भर्तृहरि के बाद यह सब से प्राचीन तथा महत्त्वपूर्ण वृत्ति है। इत्सिंग के अनुसार जयादित्य का मृत्युकाल वि.सं. 718 है। __वामन (साहित्यकार), विश्रान्तविद्याधर (जैन व्याकरणकार) तथा लिंगानुशासनकार इन सबसे काशिकाकार भिन्न हैं। समय वि.सं. 650 से 7181
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जल्हण - 13 वीं शती। रचना - सूक्तिमुक्तावली । जातुकर्ण्य - तीसरी या पांचवी शती के एक धर्मसूत्रकार । पिता- कात्यायन। गुरु- आसुरायण तथा यास्क। इनके एक शिष्य का नाम पारागर्व था। जातुकर्ण्य द्वारा रचित आचार तथा श्राद्ध संबंधी सूत्र अनेक व्यक्तियों के ग्रन्थों में बिखरे हुए मिलते हैं। विश्वरूप, अपरार्क, हलायुध तथा हेमाद्रि ने तथा स्मृतिचन्द्रिका, श्रौतसूत्र आदि ग्रन्थों में इनके सूत्रों का आधार लिया गया है। जितेन्द्रिय - समय ई. 11 वीं शती। वंगवासी। इनके नाम पर ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। जीमूतवाहन के "कालविवेक" तथा रघुनन्दन के "दायतत्त्व" नामक ग्रंथों में जितेन्द्रिय के व्यवहार एवं उत्तराधिकार संबंधी मतों का उल्लेख है। जिनचन्द्र - दिल्ली की भट्टारक गद्दी के आचार्य। इन्होंने प्राचीन ग्रंथों की नयी नयी प्रतियां कराकर मंदिरों में प्रतिष्ठित की। जीर्णोद्धार किया। रचनाएं-सिद्धान्तसार और जिनचतुर्विंशतिस्तोत्र। इनके अतिरिक्त हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं। बाघेरवाल जाति। जीवराज पापडीवाल ने जो वि. सं. 1548 में प्रतिष्ठा कराई थी, उसका आचार्यत्व शुभचन्द्र के शिष्य जिनचन्द्र ने ही किया था। जीवनकाल 91 वर्ष। जिनदास - आयुर्वेद के निष्णात पण्डित। चिकित्साशास्त्री। पिता रेखा। माता-रेखश्री। धर्मपत्नी-जिनदासी । पुत्र-नारायणदास। जिनदास के पिता रणस्तम्भ में बादशाह शेरशाह के द्वारा सम्मानित हुए। नवलक्षपुर के निवासी। समय ई. 16 वीं शती । रचना होलीरेणुका-चरित (वि. सं. 1608) 843 पद्य। जिनदासगणि - कोटिकगणीय, वज्रशाखी गोपालगणि महत्तर के शिष्य। समय वि. सं. 650-750। जिनदासगणि महत्तर ने जैन आगम ग्रंथों पर चूर्णियां लिखी हैं । नन्दीचूर्णि, अनुयोगद्वारचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, दशवैकालिक-चूर्णि, उत्तराध्यायनचूर्णि, आचारांगचूर्णि, सूत्रकृतांगचूर्णि और व्याख्याप्रज्ञप्ति-चूर्णि। इन चूर्णियों की भाषा प्रायः प्राकृत बहुल संस्कृत है। उत्तराध्ययन चूर्णि और सूत्रकृतांग-चूर्णि में संस्कृत भाग अधिक है। कर्मप्रकृतिचूर्णि (7000 श्लोक प्रामण) शायद जिनदासगणि महत्तर की ही हो। जिनसेन (प्रथम) - ई. 8 वीं शती। जैन पंथी पुत्राटसंघ के आचार्य। गुरु-कीर्तिषेण। मूलतः दक्षिणवासी। रचना हरिवंशपुराण। (ई. 783)। रचनास्थान-वर्धमानपुर (वर्तमान धार जिले का बदनावर), जहां हरिषेण ने अपने कथाकोष की रचना की थी। रविषेण के पद्मचरित से प्रभावित । पौराणिक महाकाव्य में बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ का चरित्र चित्रण तथा पाण्डवों और कौरवों का लोकप्रिय चरित्र भी सुंदरता के साथ अंकित है। कथावस्तु 36 सर्गों में विभक्त है। जिनसेन (द्वितीय) - ई. 9-10 वीं शताब्दी। बचपन में ही जैन पंथ की दीक्षा ली। गुरु का नाम वीरसेन और दादागुरु
का आर्यनन्दि। गुरुभाई का नाम जयसेन। उनके सतीर्थ दशरथ नामक आचार्य थे। उनके शिष्य गुणभद्र ने आदिपुराण के अवशिष्ट अंश को पूरा किया। जिनसेन का संबंध चित्रकूट, बंकापुर और बटग्राम से रहा है। राष्ट्रकूटवंशीय राजा अमोघवर्ष द्वारा सम्मानित रहे हैं। अतः जन्मस्थान महाराष्ट्र और कर्नाटक की सीमाभूमि अनुमानित की जा सकती है। ब्राह्मण कुल। रचनाएं-पार्वाभ्युदय (संदेशकाव्य), आदिपुराण और जयधवला टीका। पार्वाभ्युदय (ग्रंथार्गत जानकारी के अनुसार) कालिदास के मेघदूत नामक काव्य की समस्यापूर्ति है। इसमें 364 मन्दाक्रान्ता छन्द हैं। चौबीस जैन पुराणों में सर्वाधिक प्रसिद्ध 12 हजार श्लोकों वाले आदिपुराण में ऋषभदेव के दस पूर्व जन्मों की कथाएं वर्णित हैं। जयधवला टीका मूलतः वीरसेन (गुरु) की है, पर उनके स्वर्गस्थ हो जाने पर उसे जिनसेन ने पूरी की, जिसका प्रमाण चालीस हजार श्लोक हैं। जिनेन्द्रबुद्धि - ई. 8 वीं शती। बौद्ध पण्डित। “स्थविर जिनेन्द्र" तथा बोधिसत्त्वदेशीयाचार्य" के नामों से विख्यात । बंगाल के पाल राजा के समाश्रित। काशिका विवरण पंजिका (अपर नाम "न्याय") नामक पाणिनीय व्याकरण विषयक ग्रंथ के रचयिता । काशिका की टीकाओं में यह सर्वाधिक प्राचीन ग्रंथ है। जीमूतवाहन - समय - 1090-1130 ई. के बीच। स्थान - राढा। परिभद्रकुलोत्पन्न। बंगाल के राजा विष्वक्सेन की राजसभा में न्यायाधीश तथा बंगाल के प्रसिद्ध धर्मशास्त्रकार । इन्होंने कालविवेक, व्यवहारमातृका (न्यायमातृका) तथा दायभाग नामक तीन ग्रंथ लिखे हैं। "कालविवेक" में धार्मिक कृत्यों तथा संस्कारों के लिये उचित काल के विषय में विवेचन है। "व्यवहारमातृका" में न्यायालयीन कार्यपद्धति, न्यायालयों का संविधान, न्यायालयों का वर्गीकरण तथा अष्टादशाधिकार विधि का विवरण है। ___"दायभाग" में स्वामित्व, संपत्तिविभाजन, उत्तराधिकार, स्त्रीधन, विधवा-विवाह आदि विषयों का विवेचन है। इस ग्रंथ पर रघुनन्दन की टीका प्रसिद्ध है। कोलबुक ने इसका अंग्रेजी अनुवाद किया है। बंगाल के सभी न्यायालयों में दायभाग ग्रंथ प्रमाण माना जाता रहा। इसमें हिन्दू कानूनों का विस्तारपूर्वक विवेचन करते हुए अनेक विचार "मिताक्षरा" के विरुद्ध व्यक्त किये गए हैं। जीवगोस्वामी - समय लगभग 1575-1625 ई.। बंगाल में जन्म। भारद्वाज गोत्री यजुर्वेदी ब्राह्मण। गोडीय मतावलंबी, उद्भट विद्वान, भागवत के मर्मज्ञ तथा पाठादि के निमित्त बडे ही जागरूक टीकाकार। आपकी गणना गौडीय वैष्णव समाज के दैदीप्यमान रत्नों में की जाती है।
"दुर्गम संगमनी" टीका के आरंभ में इन्होंने अपने ज्येष्ठ पितृव्य सनातन एवं वल्लभ का निर्देश किया है।
बाल्यकाल में पिता का देहांत। अतः माता की देखरेख
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में शिक्षा। अपने भक्त पितृव्यों की भक्ति तथा वैराग्य के उज्वल आदर्श से प्रभावित हो अल्पायु में ही घर बार त्याग कर परम विरक्त बन गए। काशी में मधुसूदन सरस्वती से वेदांत शास्त्र का पूर्ण अध्ययन किया। पश्चात् वृंदावन में अपने पितृव्यों की संगति में आकर रहने लगे। प्रकांड पंडित के रूप में इनकी ख्याति सर्वत्र फैली। कहते हैं कि इन्होंने असम के रूपनारायण नामक एक उद्धत संन्यासी को शास्त्रार्थ में पराजित कर, उसका गर्वहरण किया था कितु इनके पितृव्य सनातनजी उनसे इस वैष्णव विरोधी कार्य पर रुष्ट हुए थे। बाद में रूप गोस्वामी ने बडी युक्ति से इन्हें क्षमा प्रदान कराई थी। बादशाह अकबर के आग्रह करने पर ये एक दिन के लिये आगरा भी गए थे।
भजन भक्ति और ग्रंथप्रणयन ही इनके जीवन का व्रत था। इनके ग्रंथ गौडीय वैष्णव संप्रदाय के सिद्धान्तों के प्रकाश स्तंभ हैं जिनमें इनकी विद्वत्ता पाठकों को पग पग पर विस्मित करती है। इनके प्रमुख ग्रंथों के नाम हैं। षट्संदर्भ, क्रमसंदर्भ, दुर्गमसंगमनी, ब्रह्मसंहिता की टीका, कृष्ण-कर्णामृत की टीका, हरिनामामृत-व्याकरण और कृष्णार्चन-दीपिका। ब्रह्मसंहिता की टीका और कृष्णकर्णामृत की टीका को चैतन्य महाप्रभु अपनी दक्षिण यात्रा के समय अपने साथ ले गए थे।
इनके अतिरिक्त इनकी अन्य रचनाएं भी मिलती हैं। चैतन्य मत के षट्गोस्वामियों (6 आचार्यो) का कार्य, इस मत के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। जीव गोस्वामीजी, इन छहों गोस्वामियों में निःसंदेह प्रगल्भतम आचार्य थे। इनका अलौकिक कार्य विवेचक को विस्मय विमुग्ध करने वाला है।
ये एक ऐसे महनीय आचार्य हैं जिन्होंने भागवत पर 3 टीकाओं का प्रणयन करते हुए, उसके रहस्यभूत एवं गूढतम अर्थ की अभिव्यक्ति की।
इनके अतिरिक्त इन्होंने लघुतोषिणी, धातुसंग्रह, सूत्रमालिका, माधवमहोत्सव, गोपालचंपू, गायत्रीव्याख्या निवृत्ति, गोपालतापिनी, योगसारस्तोत्र आदि छोटे बड़े ग्रंथों की रचना की है।
केवल 25 वर्ष की आयु में ही अपने चाचा रूप गोस्वामी से वैष्णव पंथ की दीक्षा ली और आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचारी रहकर अपने संप्रदाय की सेवा में संलग्न रहे। इन्होंने चैतन्य मत को सुदृढ़ दार्शनिक भित्ति पर प्रतिष्ठित किया। अतः इन्हें चैतन्य मत का महान् भाष्यकार कहा जाता है। जीवधर शर्मा - ई. 17 वीं शती। मेवाड के कवि। इनकी कृति है : “अमरसार" नामक महाकाव्य। इसमें मेवाड़ के राणा प्रताप, राणा अमरसिंह और राणा करणसिंह के शासनकाल का वर्णन है। जीवनलाल नागर - समय - 1823-1869 ई.। नागर बूंदी के महाराजा रामसिंह के शासनकाल में बूंदी राज्य के मुख्यमंत्री थे। "कृष्णखण्डकाव्य" इनकी प्रसिद्ध कृति है।
जीवनलाल पारेख - ई. 20 वीं शती। सूरत महाविद्यालय में व्याख्याता । "छायाशकुन्तला" नामक एकांकी रूपक के प्रणेता। जीव न्यायतीर्थ - जन्म- ई. 1894 में बंगाल के चौबीस परगना जिले के भट्टपल्ली (भाटपाडा) ग्राम में। पंचानन तर्कशास्त्र के पुत्र। गुरु-काशी निवासी म.म. राखालदास ।
1929 में कलकत्ता वि.वि. में संस्कृत के प्राध्यापक। वहां 29 वर्ष अध्यापन । फिर भट्टपल्ली के संस्कृत कालेज के प्राचार्य। "प्रणवपारिजात" तथा "अर्थशास्त्र" नामक पत्रिकाओं के संपादक। राष्ट्रपति पुरस्कार से सम्मानित। 1955 से सटीक महाभारत का सम्पादन। जीवबुध - ई. 17 वीं शती। पिता- कोनेरी राजा। जन्म उपद्रष्टा वंश में जिसमें पण्डितराज जगन्नाथ हुए थे। रचना-“नलानन्द" नामक नाटक। जीवराज - "गोपालचम्पू" के रचयिता। इसका प्रकाशन वृंदावन से वंगाक्षरों में हुआ है। इन्होंने स्वयं ही अपने इस चम्पू काव्य पर एक टीका लिखी है। आप महाप्रभु चैतन्य के समकालीन व परम वैष्णव थे। ये महाराष्ट्र निवासी तथा भारद्वाज गोत्रोत्पन्न कामराज के पौत्र थे। जीवानन्द विद्यासागर - ई. 19 वीं शती। कृतियां-हर्षचरित, दशकुमारचरित तथा वासवदत्ता पर व्याख्याएं। मृच्छकटिक, शाकुन्तल, रत्नावली, मुद्राराक्षस, मालतीमाधव, उत्तररामचरित, बालरामायण, विद्धशालभंजिका तथा कर्पूरमंजरी इन नाटकों की व्याख्याएं। "काव्यसंग्रह" (संस्कृत पद्य रचनाएं)।
रघुवंश, कुमारसम्भव, मेघदूत, भट्टिकाव्य, किरात, शिशुपालवध, घटकर्पर तथा नलोदय पर टीकाएं। साहित्यदर्पण पर "विमला" नामक वृत्ति तथा श्रुतबोधव्याख्यान । जुह - ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 109 वें सूक्त के द्रष्टा । इस सूक्त में उन्होंने कहा है कि सृष्टि और उसके लिये आवश्यक तप की उत्पत्ति सत्य से हुई है। जैमिनि . कौत्सकुलोत्पन्न। वेदव्यास के शिष्य । सामवेद के अध्यापक व प्रसारक। पूर्वमीमांसादर्शन के सूत्रकार के रूप में महर्षि जैमिनि का नाम प्रसिद्ध है। समय ई.पू. 4 थी शती। विष्णुशर्मा कृत "पंचतंत्र" में हाथी द्वारा जैमिनि के कुचल दिये जाने की घटना का उल्लेख है। (मित्रसंप्राप्ति, 36 श्लोक)। महर्षि जैमिनि, मीमांसा दर्शन के प्रवर्तक न होकर उसके सूत्रकार माने जाते हैं क्यो कि इन्होंने अपने पूर्ववर्ती व समसामयिक 8 आचार्यों का नामोल्लेख किया है। वे है : आत्रेय, आश्मरथ्य, कार्णाजिनि, बादरि, ऐतिशायन, कामुकायन, लाबुकायन व आलेखन। पर इन आचार्यों के कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होते। जैमिनिकृत "मीमांसासूत्र" 16 अध्यायों में विभक्त है जिसमें इस दर्शन के मूलभूत सिद्धान्तों का निरूपण है। इस पर अनेक वृत्तियों व भाष्यों की रचना हुई है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 329 .
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इन्हें सामवेद की जैमिनीय शाखा, जैमिनीय ब्राह्मण तथा 1) ज्ञानसागर - जैनधर्मी बृहत्तपागच्छ के रत्नसिंह के शिष्य । जैमिनियोपनिषद् ब्राह्मण का भी रचयिता माना जाता है। इनके ग्रंथ-विमलनाथचरित। साम्यतार्थ, खंभात में सं. 1517 में अतिरिक्त जैमिनिकोशसूत्र, जैमिनिनिघंटु, जैमिनिपुराण,
रचित, शाष्टराज सेठ की प्रार्थना पर। पांच सर्ग, गद्य रचना । ज्येष्ठमाहात्म्य, जैमिनिभागवत, जैमिनिभारत, जैमिनिसूत्र, अन्य रचना-शान्तिनाथचरित। भाषा और शैली आकर्षक । जैमिनिसूत्रसारिका, जैमिनिस्तोत्र आदि अनेक ग्रन्थों का भी। ज्ञानसुंदरी - 19 वीं शती। कुम्भकोणम् की प्रख्यात नर्तकी। रचयिता इन्हें बताया जाता है।
नृत्य गीत तथा वक्तृत्व में अत्यंत निपुण। मैसूर राज्य से धर्मराज युधिष्ठिर के यज्ञ के ऋत्विज और जनमेजय के कविरत्नम् उपाधि से सत्कार हुआ था। रचना - हालास्यचम्पू सर्पसत्र के उद्गाता का नाम भी जैमिनि ही था।
6 स्तबकों का काव्य । विषय-मीनाक्षी-सुन्दरेश विवाह प्रसंग जोशी लक्ष्मणशास्त्री (तर्कतीर्थ) - वाई (महाराष्ट्र) के
का वर्णन, कुम्भकोणम् से मुद्रित। निवासी, महाराष्ट्र के सुप्रसिद्ध सामाजिक एवं सांस्कृतिक नेता। ज्ञानेन्द्रसरस्वती - सिद्धान्तकौमुदी की तत्त्वबोधिनी नामक सुप्रसिद्ध रचना - 1) धर्मकोश (व्यवहारकाण्ड) 3 भाग, 2) धर्मकोश व्याख्या के लेखक। गुरु-वामनेन्द्र सरस्वती। शिष्य-नीलकण्ठ (उपनिषत्काण्ड) 4 भाग। गुरु- केवलानन्द सरस्वती, जो स्वयं
__ वाजपेयी। भट्टोजी दीक्षित के समकालीन- वि.सं. 1550-1600 महान् वैदिक कोशकार थे।
टी. गणपति शास्त्री (म.म.) - 20 वीं शती का पूर्वार्ध । जोशी ग. गो. - रचना - काव्य-कुसुमगुच्छ। इसमें महाराष्ट्र भास नाटक चक्र के प्रकाशन से विशेष प्रख्यात। अपनी के अर्वाचीन श्रेष्ठ संस्कृत पण्डित म. म. वासुदेव शास्त्री रचना अर्थचित्र मणिमाला में त्रिवांकुरनरेश (केरलवासी) अभ्यंकर की स्तति है।
विशाखरामवर्मा का स्तवन अलंकारों के उदाहरणार्थ किया है। ज्ञानकीर्ति - ई. 17 वीं शती। यति वादिभूषण के शिष्य । अन्य रचनाएं - भारतेतिहास और माधवीवसन्त-नाटकम् । अकछरपुर (बंगाल) के निवासी। बंगाल के महाराजा मानसिंह टैगोर सुरेन्द्रमोहन - काव्य- व्हिक्टोरियामाहात्म्यम्। ई. स. के प्रधान अमात्य नानू के आग्रह से, यशोधरचरित महाकाव्य 1898। अन्य रचना- प्रिन्स पंचाशत् (प्रिन्स ऑफ वेल्स की का निर्माण 1659 में किया।
स्तुति)। "राजा" और "सर" उपाधियों से विभूषित । ज्ञानभूषण (भट्टारक) - ज्ञानभूषण नामक चार प्रधान आचार्य ठाकुर ओमप्रकाश शास्त्री - ई. 20 वीं शती। हरियाणा भट्टारक हुए। उनमें विमलेन्द्रकीर्ति के शिष्य भट्टारक ज्ञानभूषण में अध्यापक । “क्षमाशीलो युधिष्ठिरः" नामक रूपक के प्रणेता । अधिक प्रसिद्ध हैं। गुजरात निवासी। मूर्तिप्रतिष्ठापक । गोलालारीय डड्डा - चित्तोड़ निवासी। पिता-श्रीपाल । जाति-प्राग्वाट (पोरवाड)। जाति। द्रविडदेश महाराष्ट्र और राजस्थान कार्यक्षेत्र। समय- समय- ई. 11 वीं शती। ग्रंथ "पंचसंप्रह" जो प्राकृत पंचसंग्रह वि.सं. 1500-1562। प्रतिष्ठाचार्य। रचनाएं-आत्मसंबोधनकाव्य,
का अनुवादसा लगता है। अमितगति ने डड्डा के "पंचसंग्रह" ऋषिमण्डलपूजा, तत्त्वज्ञानतरंगिणी व पूजाष्टक-टीका, का आधार लेकर एक और पंचसंग्रह रचा है। पंचकल्याणकोद्यापनपूजा, नेमिनिर्वाणकाव्य पंचिका टीका, भक्तामरपूजा,
डांगे सदाशिव अंबादास - मुंबई विश्वविद्यालय के संस्कृत श्रुतपूजा, सरस्वतीपूजा, सरस्वतीस्तुति, शास्त्रमंडलपूजा, आदिनाथ फाग, परमार्थोपदेश आदि। इनके
विभागाध्यक्ष। रचना-भावचषकः रुबाइयों का संस्कृत पद्यों एवं अतिरिक्त कुछ हिन्दी रचनाएं भी प्राप्य हैं।
हिंदी गद्य में अनुवाद। ज्ञानविमलसूरि - तपागच्छीय जैन विद्वान्। अपरनाम
डाऊ, माधव नारायण - दारव्हा (विदर्भ) के निवासी नवविमलगणि । वीर-विमल-गणि के शिष्य । समय- ई. 17-18
वकील। रचनाएं- विनोदलहरी। विषय- हरि-हर तथा उमा-रमा वीं शती। ग्रंथ :- प्रश्नव्याकरण-सुखबोधिकावृत्ति । तरसिपुर में
का परिहासगर्भ संवाद। इनमें सामान्य व्यक्तिजीवन के सुखदुख सुखसागर के सहयोग से लिखित । (वि.सं. 1783) । ग्रंथमान
का हृदयस्पर्शी चित्रण करते हुए कवि ने सांसारिक जीवन को 7500 श्लोक।
सुखी बनाने के लिये परस्पर आचारात्मक उपाय बताये हैं।
इनका विनोद उच्च कोटि का तथा विद्वज्जनों का मन प्रसन्न ज्ञानश्री - बंगाल निवासी। ई. 10 वीं शती। विक्रमशील मठ के द्वारपण्डित। "वृत्तिमालाश्रुति" के रचयिता।
करने वाला है। इस पर इनके चचेरे भाई की टीका है।
डेग्वेकर पांडुरंग शास्त्री - पुणे निवासी। मृत्यु दिनांक ज्ञानश्री - ई. 14 वीं शती। बौद्धाचार्य। माधवाचार्य ने
24-11-1961 को। पंढरपुर में व्याकरण, न्याय व वेदान्त के सर्वदर्शनसंग्रह में इनका उल्लेख किया है। ये क्षणिकवाद के
अध्यापक। हर्षदर्शन नाटक और कुरुक्षेत्र (काव्य) के प्रणेता । पुरस्कर्ता थे। इन्होंने कार्यकारणभावसिद्धि, क्षणभंगाध्याय,
मनोबोधः (समर्थ रामदासस्वामी कृत) का समवृत अनुवाद । व्याप्तिचर्चा, भेदाभेदपरीक्षा, अनुपलब्धिरहस्य, अपोहपकरण, ईश्वरदूषण, योगनिर्णय, साकारसिद्धि आदि ग्रंथ लिखे हैं। कुछ
ढुण्डिराज - ज्योतिष शास्त्र के आचार्य । पाथपुरा के निवासी । विद्वानों के अनुसार ये काश्मीर निवासी थे।
पिता- नृसिंह दैवज्ञ। गुरु- ज्ञानराज। समय ई. 16 वीं शती।
330/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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इन्होंने "जातकाभरण' नामक फलितज्योतिष के एक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ की रचना की है जिसमें दो हजार श्लोक हैं। ढुण्डिराज व्यास यज्वा - पिता- लक्ष्मण। गुरु- त्र्यंबक। निवास- स्वामीमलै। रचना "शाहविलासम्", यह संगीत प्रधान काव्य शाहजी भोसले का चरित्र वर्णन करता है। कवि की अन्य रचनाएं- "अभिनव-कादम्बरी' (काव्य) तथा विशखादत्त के "मुद्राराक्षस'' पर विद्वन्मान्य टीका। ढोक, भास्कर केशव - महाराष्ट्रीय। "श्रीकृष्णदौत्य' नामक नाटक के रचयिता। तपतीतीरवासी- इन्होंने अपने मूल नाम का निर्देशन करते हुए तपतीतीरवासी इस नाम से ही अपना निर्देश किया है। ग्रन्थ-समर्थ रामदास स्वामी कृत मनाचे श्लोक नामक महाराष्ट्र के लोकप्रिय ग्रंथ का मनोबोध नाम से अनुवाद । तपेश्वरसिंह- गया के निवासी, वकील । रचना-पुनर्मिलनम् जिसमें राधा- माधव का पुनर्मिलन चित्रित है। अतिरिक्त रचना-हरिप्रिया (खण्डकाव्य, 108 श्लोक)। तपोवनस्वामी- मलबार-निवासी। "ईश्वरदर्शनम्' या "तपोवनदर्शनम्" नामक काव्य में कवि ने आत्मचरित्र लिखा है। 1950 ई. में लिखित यह काव्य त्रिचूर में प्रकाशित । संस्कृत साहित्य में आत्मचरित्रपर ग्रंथ अतीव दुर्लभ है। अतः इनका ग्रंथ विशेष उल्लेखनीय हैं। ताम्पुरान- केरलनिवासी। 19 वीं शती। चार रत्तनाएं- (1) किरातार्जुन, (2) सुभद्राहरण, (3) दशकुमारचरित और (4) जरासन्धवध । व्यायोग। ताम्हन, केशव गोपाल (म.म.)- मारिस कालेज (नवीन नाम, नागपूर महाविद्यालय) के भूतपूर्व प्राचार्य। रचनाएंकविता-संग्रह (स्वरचित 24 काव्यों का संग्रह) जिसमें देवता स्तोत्र, श्रीरामस्तव, श्रीरामाष्टक, श्रीरामयष्टिकम्, श्रीरामस्तुति, तथा स्थानीय प्रमुख व्यक्तियों की स्तुति प्रासादिक भाषा में लिखी है। ताराचन्द्र (या ताराचरण)- ई. 19 वीं शती। वाराणसी नरेश के राजपण्डित। म.म. प्रमथनाथ तर्कभूषण के पिता। कृतियां- (काव्य)- कनकलता, शृंगार-रत्नाकार, काननशतकम् (निसर्ग-वर्णनपरक) और रामचन्द्रजन्म (भाण)। तारानाथ तर्कवाचस्पति- ई. 1822-1885 1 बंगाली। कृतियांआशुबोध व्याकरण, शब्दार्थ-रत्न, वृत्तरत्नाकर-विवृत्ति । कुमारसम्भव, मालविकाग्निमित्र, वेणीसंहार, विक्रमोर्वशीय, तथा मुद्राराक्षस, महावीरचरित आदि नाटकों की टीकाएं। तिग्मकवि- पिता-जग्गू। स्थान- इन्द्रपालयम्। रचनासुजनमनःकुमुदचन्द्रिका (अपने पितामह के जनमनोभिराम नामक तेलुगु कथासंग्रह का अनुवाद । तिरश्ची- एक सूक्त-द्रष्टा। आंगिरस कुलोत्पन्न होने के कारण इन्हें तिरश्ची आंगिरस कहते हैं। इनके नाम पर ऋग्वेद में
8-95 यह इन्द्र-सूक्त हैं। उन्होंने स्वयं को एक सिद्धहस्त सूक्तकार बताया है। तिरुमल कवि- तिरुमलनाथ तथा त्रिमलनाथ नामों से भी ज्ञात। पिता- बोम्मकण्ठि गंगाधर। आन्ध्र-प्रदेशी। "कुहनाभैक्षव प्रहसन' के प्रणेता (सन् 1750)। तिरुमलाचार्य- ई. 17 वीं शती। गोत्र-शंठमर्शन। तेलंगना में गडबल के निवासी। आश्रयदाता-पालभूपाल। रचनाकल्याणपुरंजन (नाटक)। तिरुवेंकटतातादेशिक- नेलोर-निवासी। रचनाएं- नृसिंहशतकम्, नखरशतकम् और स्तुतिमालिका। तुलजराय (तुलाजी राजे भोसले)- तंजौर के नरेश। ई. 1729 से 1735। रचनाएं-संगीत-सारामृत और नाट्यवेदागम । तेजोभानु (पं)- रावलपिण्डी-निवासी। जन्म- 1880 ई.। पिता- पं.विष्णुदत्त। पंजाब में संस्कृत-प्रचार का महत् कार्य किया। ख्यातिप्राप्त रचनाएं- विप्रपंचदशी, श्रीचन्द्रचरितम्, स्ततिमुक्तावली, नीतिशतकम्, वैराग्यशतकम्। इस शतकत्रय के लेखन से “अभिनवभर्तृहरि" की उपाधि प्राप्त । तोटकाचार्य- ई. 8 वीं शती। आद्य शंकराचार्यजी के चतुर्थ शिष्य। मूल शुभनाम आनंदगिरि, किन्तु बाद में केवल "गिरि" नाम से ही पहचाने जाने लगे। शांकरभाष्य के व्याख्याकार आनंदगिरि और ये आनंदगिरि दोनों भिन्न हैं। आद्य
शंकराचार्यजी ने इन्हें बदरीनारायण के ज्योतिर्मठ का पीठाधिकारी नियुक्त किया था।
तोटकाचार्य के नाम पर अनेक ग्रंथ हैं। उनकी प्रमुख रचना है- तोटकश्लोक। कालनिर्णय नामक ग्रंथ भी इन्हींका बताया जाता है। इनके श्रुतिसारसमुद्धरण नामक ग्रंथ में 179 श्लोक तोटक छंद में हैं जिनमें अत्यंत सुबोध रीति से अद्वैतवेदान्त का प्रतिपादन किया गया है। इसी के कारण इन्हें तोटकाचार्य यह उपाधि प्राप्त हुई। त्यागराज- जन्म तिरुवारुर में, ई. स. 1758 में, वैदिक ब्राह्मण कुल में। पिता- रामब्राह्मण, । माता-पिता का बालपन में देहान्त । कौटुंम्बिक पीडा का अनुभव। असीम रामभक्ति। भक्तिपरक गीत-रचना (आशुरचना)। देश में तथा बाहर भी प्रसिद्धि। उत्तरायुष्य में संन्यास । मृत्यु ई. 1846 में। प्रारम्भ की गीत-रचना संस्कृत में हुई है। इनके गीत दक्षिणभारत में अत्यंत लोकप्रिय हैं। त्यागराज मखी (राजूशास्त्रिगल)- मन्नारगुडी (तामिलनाडू) के शिवाद्वैत सिद्धान्त के समर्थनार्थ "न्यायेन्दुशेखरः" की रचना की। त्रिलोचनदास- ई. 13 वीं शती। अमरकोश के टीकाकार। त्रिलोचनादित्य- ई. 14 वीं शती। दिवाकर (ई. 1385) और चरित्रवर्धन नामक टीकाकारों द्वारा उल्लेख। रचना- नाट्यालोचन और लोचनव्याख्यांजन। त्रिविक्रम- ई. 11 वीं शती। गौड ब्राह्मण। अनहिलवाड
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 331
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पट्टन (गुजरात) के निवासी। पिता- राघवार्य।
कृतियां- बृहवृत्ति (सारस्वत व्याकरण पर भाष्य), उद्योत (कातन्त्रवृत्ति पर टीका) और वृत्त-रत्नाकर-तात्पर्यटीका।। त्रिविक्रम- ई. 19 वीं शती। पिता-चिद्धनानन्द । अग्रज-त्र्यंबक। पंचायुध-प्रपंच भाण के रचयिता। त्रिविक्रम पंडित- ई. 13 वीं शती। एक द्वैती आचार्य। दक्षिण भारत के काकमठ-निवासी। पिता-सुब्रह्मण्यम भट्ट, श्रीविष्णु की उपासना से, ढलती आयु में उन्हें एक पुत्र की प्राप्ति हुई। त्रिविक्रम बाल्यावस्था से ही बुद्धिमान् थे। उनका संपूर्ण अध्ययन अपने पिता के ही मार्गदर्शन में हुआ। काव्यशास्त्र के अध्ययन की समाप्ति के पश्चात् उन्होंने अद्वैत वेदांत का अध्ययन प्रारंभ किया। किन्तु इस दर्शन के कई सिद्धांतों से वे सहमत न हो सके। अतः पिताजी की अनुमति से वे भक्तिमार्ग की ओर मुडे।
बाद में एक बार मध्वाचार्यजी से शास्त्रार्थ में पराजित होने पर उन्होंने उनका शिष्यत्व स्वीकार करते हुए उनके मार्गदर्शन में द्वैतमत का अध्ययन प्रारंभ किया। अल्पावधि में ही वे माध्वमत के बड़े पंडित बन गए। फिर मध्वाचार्य की आज्ञा से उन्होंने आचार्यजी के भाष्य पर तत्त्वप्रदीप नामक एक टीकाग्रंथ लिखा, जिसे देख मध्वाचार्यजी परम संतुष्ट हुए। । इन्होंने "उषाहरण" नामक एका काव्यग्रंथ की भी रचना की जो कालिदास के शाकुंतल जैसा ही लोकप्रिय हुआ। ये आजीवन माध्वमत का प्रचार करते रहे। त्रिविक्रम भट्ट- ई. 10 वीं शती का पूर्वार्ध। "नलचंपू' नामक चंपू-काव्य के रचयिता। इनकी यह कृति संस्कृत साहित्य का प्रथम और उत्कृष्ट चंपू-काव्य है। इन्होंने अपने "नलचंपू" में अपने कुल-गोत्रादि का जो विवरण प्रस्तुत किया है, उसके अनुसार इनका जन्म शांडिल्य गोत्र में हुआ था। पितामह-श्रीधर । पिता-नेमादित्य या देवादित्य । राष्ट्रकूटवंशीय नृप इंद्रराज तृतीय के सभा-पंडित। इंद्रराज तृतीय ने अपने राज्याभिषेक के अवसर पर अनेक प्रकार के दान दिये थे जिनका उल्लेख अभिलेख में किया गया है और उन प्रशस्तियों के लेखक त्रिविक्रम भट्ट ही हैं
श्रीत्रिविक्रमभट्टेन नेमादित्यस्य सूनुना ।
कता शस्ता प्रशस्तेयमिंद्रराजाङघ्रिसेवया ।। इंद्रराज की प्रशस्ति के श्लोक की श्लेषमयी शैली, "नलचंपू" के श्लेषबहुल पद्यों से साम्य रखती है ।त्रिविक्रमभट्ट के नाम पर एक अन्य ग्रंथ भी प्रचलित है जिसका नाम है "मदालसा-चंपू"। किन्तु तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर । दोनों काव्यों का लेखक एक ही व्यक्ति सिद्ध नहीं होता। संस्कृत साहित्य में श्लेष-प्रयोग के लिये इनकी अधिक प्रशस्ति है।
इनका "नलचंपू' काव्य अधूरा है। उसके अधूरे रहने के बारे में एक किंवदंती प्रचलित है -
"किसी समय समस्त शास्त्रों में निष्णात देवादित्य (नेमादित्य) नामक एक राजपंडित थे। उनका पुत्र त्रिविक्रम था। प्रारंभ में उसने कुकर्म ही सीखे थे, किसी शास्त्र का अध्ययन नहीं किया था। एक समय किसी कार्यवश देवादित्य दूसरे गांव चले गए। राजनगर में उनकी अनुपस्थिति जान कर एक विद्वान राजभवन आया व राजा से बोला- राजन् मेरे साथ किसी विद्वान् का शास्त्रार्थ कराइये, अन्यथा मुझे विजय-पत्र दीजिये ।राजा ने दूत को आदेश दिया कि वह देवादित्य को बुला लाये। राजदूत द्वारा जब यह ज्ञात हुआ कि देवादित्य कहीं बाहर गए हैं, तो उसने उनके पुत्र त्रिविक्रम को ही शास्त्रार्थ के लिए बुलवा लिया। त्रिविक्रम बड़ी चिंता में पडे। शास्त्रार्थ का नाम सुनते ही उनका माथा ठनका। अंततः उन्होंने सरस्वती की स्तुति की। तब पितृपरंपरा से पूजित कुलदेवी सरस्वती ने उन्हें वर दिया - "जब तक तुम्हारे पिता लौट कर नहीं आते, मैं तुम्हारे मुख में निवास करूंगी"। इस वर के प्रभाव से राजसभा में अपने प्रतिद्वंद्वी को पराजित कर राजा द्वारा बहुविध सम्मान प्राप्त कर त्रिविक्रम घर लौटे। घर आकर उन्होंने सोचा कि पिताजी के आगमन-काल तर सरस्वती मेरे मुख में रहेंगी, यश के लिये में कोई प्रबंध क्यों न लिख डालू। अतः उन्होंने पुण्यश्लोक राजा नल के चारित्र को गद्य-पद्य में लिखना प्रारंभ किया। इस प्रकार 7 वें उच्छ्वास की समाप्ति के दिन उनके पिताजी का आगमन हो गया और सरस्वती उनके मुख के बाहर चली गई। इसी लिये उनका "नलचम्पू" काव्य अधूरा रह गया। परन्तु इस किंवदंती में अधिक सार नहीं है क्यों कि त्रिविक्रम भट्ट की अन्य रचनाएं भी प्राप्त होती हैं।
"नलचम्पू" के टीकाकार चण्डपाल ने इनकी प्रशस्ति में निम्न श्लोक लिखा है -
शक्तिस्त्रिविक्रमस्येव जीयाल्लोकातिलंधिनी। दमयंती-प्रबंधेन सदा बलिमतोर्जिता।। सुप्रसिद्ध ज्योतिर्गणिती भास्कराचार्य के ये छटवें पूर्वज थे। भास्कराचार्य के पोते चंगदेव के पाटन-शिलालेख के अनुसार इन्हें “कविचक्रवर्ती" यह विरुद प्राप्त हुआ था। इनका घराना सह्यपर्वताश्रित विजलविड नामक गांव का निवासी रहा। उनके घराने में ज्ञानोपासना की परंपरा सात-आठ पीढियों तक चली ऐसा प्रतीत होता है।
नलचंपू, संस्कृत चंपूसाहित्य का हक उत्तम ग्रंथ है। इसका दूसरा नाम है दमयंतीकथा। त्रिविक्रम के मदालसाचंपू के विषय में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं। त्रिवेणी - ई. 1817 से 1883। उपेन्द्रपुर के विद्वान अनन्ताचार्य की कन्या। पेरंबुदूर के प्रतिवादिभयंकर वेंकटाचार्य पति । वैधव्य दशा में अपने आराध्य दैवत का मन्दिर शासकीय साहाय्य से बनवाया। 19 वीं सदी की प्रसिद्ध लेखिका। रचनाएं - लक्ष्मीसहस्रम् और रंगनाथसहस्रम्।
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त्रिवेदी लक्ष्मीनारायण (साहित्याचार्य) जयपुर निवासी। रचना- पुरुसिकंदरीयम्। विषय- पुरु तथा सिंकदर की ऐतिहासिक घटना अन्य रचनाएं (1) वागीश्वरीस्तवराज (2) ऋतुविलसित (काव्य), (3) स्वर्णेष्टकीय (नाटक), (4) त्रिभण्डघट्टक (भाण), (5) शिशुविलसित (हिन्दी छन्द में संस्कृत काव्य ) । त्रैलोक्यमोहन गुह ( नियोगी) ई. 19-20 वीं शती । "मेघदौत्य" नामक दूतकाव्य के रचयिता । पाबना (बंगाल) के निवासी ।
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त्र्यंबक पिता श्रीधर रचना- श्रीनिवासकाव्यम् । त्र्यंबक पिता - पद्मनाभ । रचना - श्रीनिवासकाव्यम् दण्डनाथ नारायण भट्ट सरस्वतीकण्ठाभरण की व्याख्या हृदयहारिणी के रचयिता । हृदयहारिणी सहित सरस्वती- कंठाभरण के सम्पादक का मत है कि नारायण भट्ट भोज के सेनापति वा न्यायधीश थे । समय- ई. 14 वीं शती ।
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दंडी ई. 6 वीं व 7 वीं शती एक प्रसिद्ध संस्कृत महाकवि और काव्यशास्त्रज्ञ । इन्होंने अपने ग्रंथों में महाराष्ट्री प्राकृत की प्रशंसा की है, वैदर्भी रीति को श्रेष्ठ माना है और आंध्र, चोल, कलिंग व विदर्भ-प्रदेशों का विपुल वर्णन किया है। उनके काव्य में कावेरी नदी तथा दाक्षिणात्य रीति-रिवाजों का अनेक स्थानों पर उल्लेख मिलता है। इस आधार पर विद्वानों ने उन्हें दाक्षिणात्य माना है।
दंडी के प्रपितामह दामोदर पितामह मनोरथ, पितावीरदत्त और मां का नाम गौरी था। यह जानकारी उनकी अवंतिसुदरीकथा में मिलती है। तदनुसार कांचीस्थित पल्लव - राजसभा में आप कवि थे। उनके जीवनकाल के बारे में विद्वानों में मतभेद है, किन्तु बहुसंख्य अभ्यासक उन्हें छठी शताब्दी के आसपास का मानते हैं।
दंडी के नाम पर प्रसिद्ध अनेक ग्रंथों में से केवल दो ही उपलब्ध हैं। उनमें से प्रथम काव्यादर्श ग्रंथ है काव्यशास्त्रविषयक, और दूसरा दशकुमारचरित है-गद्य काव्यरूप कथा | स्वतंत्र काव्यचर्चा के प्रारंभिक काल में रचित काव्यादर्श ग्रंथ को संस्कृत साहित्यशास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण स्थान तथा विद्वज्जनों में आदर प्राप्त है।
वैदर्भी शैली में लिखे गए गद्यषेध दशकुमारचरित का पदलालित्य रसिकों को मुग्ध करने वाला है। इसीलिये "दंडिनः पदलालित्यम्" कह कर संस्कृत के रसिकों ने दण्डी की शैली का गौरव किया है।
किंवदंती की परंपरा के अनुसार इन्होंने ३ प्रबंधों की रचना की थी। इनमें पहला “दशकुमारचरित" है, व दूसरा "काव्यादर्श"। तीसरी रचना के बारे में विद्वानों में मतभेद है। पाश्चात्य पंडित पिशेल का कहना है कि इनकी तीसरी रचना "मृच्छकटिक' ही है, जो भ्रमवश शूद्रक की रचना के नाम से
प्रसिद्ध है। कुछ विव्दानों ने "छंदोविचिति" को इनकी तृतीय कृति माना है, क्यों कि इसका संकेत "काव्यांदर्श" में भी प्राप्त होता है। पर डॉ. कीथ के अनुसार "छंदोविचिति" व "कालपरिच्छेद" दंडी की स्वतंत्र रचना न होकर काव्यादर्श के दो परिच्छेद थे। अधिकांश विद्वान "अवन्तिसुंदरीकथा" को उनकी तीसरी कृति मानते हैं, जो एक अपूर्ण ग्रंथ है। अवन्तिसुंदरी - कथा में दंडी के जीवन चरित के बारे में जानकारी प्राप्त होती है। इसके नवीन पाठ के अनुसार, भारवि, दंडी के प्रपितामह दामोदर के मित्र थे। दंडी, बाण व हर्षवर्धन के पूर्ववतीं है, और उनका समय 600 ई. के आसपास निश्चित होता है।
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अभिव्यंजना शैली के निर्वाह में संतुलन उपस्थित कर दंडी ने संस्कृत में नवीन पद्धति प्रारंभ की है। चरित्र-चित्रण की विशिष्टता, दंडी की निजी विशेषता है। इनके बारे में कई प्रशास्तियां प्राप्त होती हैं यथा
जाते जगति वाल्मीकौ शब्दः कविरिति स्थिरः । व्यासे जाते कवी चैति कवयश्चेति दण्डिनि । ।
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दत्त उपाध्याय सन् 1275-1310 एक धर्मशास्त्रकार । मिथिला के निवासी इन्होंने धर्मशास्त्र पर आचारादर्श, छान्दोगाडिक, पितृभक्ति, शुद्धिनिर्णय, श्राद्धकल्प, समयप्रदीप, व्रत्तसार आदि अनेक संस्कृत ग्रंथ लिखे हैं। छांदोगाह्निक व श्राध्दकल्प ये ग्रंथ सामवेदी लोगों के लिये है और उनमें नित्यकर्मविषयक जानकारी है। पितृभक्ति व आचारादर्श ग्रंथ हैं यजुर्वेदी लोगों के लिये । पितृभक्ति नामक ग्रंथ के अनेक उद्धरण रुद्रधर ने उपयोग में लिये हैं। समयप्रदीप तथा व्रतसार नामक ग्रंथों में व्रतों, व्रत-तिथियों आदि का विवेचन किया गया है। दत्तक मथुरा के एक ब्राह्मण के पुत्र जन्म पाटलिपुत्र में । माता की मृत्यु से अन्य ब्राह्मणी द्वारा पालन। इसलिये दत्तक । वेश्या व्यवसाय पर प्रबन्ध रचना किन्तु अप्राप्त। केवल दो दत्तकसूत्र, श्यामिलक और ईश्वरदत द्वारा निर्दिष्ट है। गंगवेश के माधववर्मा द्वितीय ने दत्तक-सूत्र पर वृत्ति लिखी (समय ई. 380 ) । केवल दो अध्यायों की छन्दोबद्ध वृत्ति उपलब्ध । संभवतः दत्तक-मत पर आधारित यह लेखक की स्वतंत्र रचना हो । दत्तात्रेय कवि "दत्तात्रेयचम्पू" नामक काव्य के रचयिता । समय 17 वीं शताब्दी का अंतिम चरण । पिता वीरराघव । माता - कुप्पम्मा । गुरु- मीनाक्ष्याचार्य। इन्होंने अपने चम्पू- काव्य में विष्णु के अवतार दत्तात्रेय का वर्णन किया है। दत्तिल एक नाट्याचार्य व संगीताचार्य डॉ. दीक्षित के अनुसार कोहल के बाद दत्तिल (या देतिल) ही सर्वाधिक ख्यात आचार्य रहे हैं। धृवा के सम्बन्ध में दत्तिल के मत का उल्लेख अभिनवगुप्त ने किया है रसार्णवसुधाकर में तथा कुट्टनीमतम् में भी इनका उल्लेख किया गया है। रामकृष्ण कवि ने दत्तिल के "गांधर्व-वेदासार" नामक ग्रंथ का उल्लेख
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 333
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किया है। कामसूत्र के अनुसार पाटलिपुत्र की गणिकाओं के उन्होंने अग्नि से प्रार्थना की है कि वह मृतक के कलेवर के अनुरोध पर कामशास्त्र के वैशिक अध्याय की रचना दत्तक किसी भी भाग को इधर या उधर न होने देते हुए उसे पूर्णतः मे की थी। ये दत्तक, दंतिल या दत्तिल से अभिन्न थे या दग्ध करे और उसे पितरों के लोक में ले जाकर छोड़े। नहीं यह संदिग्ध है। अभिनवभारती की बड़ोदा में सुरक्षित जिस मृतक की देह को अग्नि ने दग्ध किया, उसके लिये पांडुलिपि में आतोद्य तथा ताल के प्रसंग में दत्तिल के अनेक अंत में दमन ने यह आश्वासन मांगा है कि दहनभूमि पर पद्य उद्धृत हैं। इससे केवल यह सुस्पष्ट है कि ये भी एक पुनः दूर्वाकुरों की हरियाली फैले और वल्लरियों की आल्हाददायक नाट्याचार्य थे। दत्तिल को आचार्य विश्वेश्वर ने भरत का पूर्ववर्ती शीतलता छाए। माना है परंतु बाबूलाल शुक्ल ने समकालीन माना है। सुरेन्द्रनाथ
___ इस प्रकार एक मृत संबंधी के प्रति स्नेहभावना से सरोबार दीक्षित का भी यही मत है। श्री. शुक्ल के अनुसार आचार्य
होने के कारण इस सूक्त को काव्यात्मकता प्राप्त हुई है। दमन दत्तिल का "दत्तिल-कोहलीयम्" नामक नृत्यकला विषयक ग्रंथ
को यम का पुत्र माना जाता है। है जिसकी अप्रकाशित पाण्डुलिपि तंजौर के ग्रन्थागार में विद्यमान
दयानंद सरस्वती - समय- 1824-1883 ई.। मूल नाम है। "दत्तिलम्" नामक प्रसिद्ध तथा सर्वविदित प्राप्य संगीत
मूलशंकर (मूलजी)। पिता- अंबाशंकर, सामशाखीय औदीच्य ग्रंथ का भी उल्लेख किया गया है। नाट्यशास्त्र के संगीतकला
ब्राह्मण । कर्मठ, धर्मनिष्ठ, संपन्न शैव परिवार में जन्म । जन्मस्थान विषयक 28 वें अध्याय में दत्तिल के मत का उल्लेख प्रायः
मोरवी (काठियावाड)। पिता के पास आठ वर्ष की आयु में 14 बार किया गया है, तथा उसके कुछ उद्धरण भी हैं।
ही यजुर्वेद का अध्ययन तथा व्याकरण से परिचय। छोटी भरत के एक पुत्र को इन्होंने संगीत सिखाया था। भरत ने
बहन तथा पितृव्य की मृत्यु के कारण संसार से विरक्ति । अपने ग्रंथ में दत्तिलाचार्य का उल्लेख किया है।
गृह-त्याग। स्वामी पूर्णानंद से सन 1845 में संन्यास- दीक्षा दफ्तरदार, विठोबाअण्णा - सन् 1813-1873 । एक महाराष्ट्रीय
। स्वामी विरजानंद के पास व्याकरण का अध्ययन । रचनाएंकवि। इनका जन्म बेदरे उपनामक शांडिल्यगोत्र के देशस्थ
सत्यार्थ-प्रकाश, संस्कार-विधि, ऋग्वेदादि-भाष्य-भूमिका, ग्राम्हण-परिवार में क-हाड में हुआ था। मूलतः उनका घराना ऋग्वेद-भाष्य, यजुर्वेद-भाष्य, उणादिकोश-वृत्ति आदि। बेदर का, किन्तु इनके पितामह पेशवा की सेवा में कहाड आर्य-समाज के संस्थापक, वेदों के आधुनिक भाष्यकार और विभाग के दफ्तरदार बने और क-हाड ही में यह घराना बस महान् समाज-सुधारक के नाते सुप्रसिद्ध। गुरु विरजानंद की गया। तभी से इनका परिवार बेदरे के बदले दफ्तरदार-उपनाम इच्छा के अनुसार की हुई प्रतिज्ञानुसार उन्होंने अपना पूरा से पहचाना जाने लगा।
जीवन सत्य के प्रचार, मूर्तिपूजा व अंध रूढियों के खंडन-उच्चाटन विठोबाअण्णा ने संस्कृत एवं मराठी श्रेष्ठ कवियों की रचनाओं तथा वैदिक ज्ञान की पुनःस्थापना के हेतु समर्पित कर दिया था। का सूक्ष्म अध्ययन किया था। अपनी रसीली वाणी से वे दयानंदजी का जन्म वेदविद्या के हासकाल में हुआ पुराणों का कथन भी किया करते थे। अपने वक्तृत्व को संगीत था। अंग्रेजी विद्या बड़ी तेजी से भारत में प्रतिष्ठित होने लगी से सजा कर, उन्होंने कीर्तन-कला में भी प्रावीण्य प्राप्त किया ___ थी। अपनी भारतीय विद्या के संबंध में उदासीनता भी उसी था। बचपन से ही वे आशुकवि थे। उन्होंने संस्कृत में अनेक तरह फैल रही थी। ऐसे समय दयानन्दजी प्रकट हुए और काव्यों की रचना की। वे भगवान राम के उपासक थे। उन्होंने उन्होंने ऋग्वेद और यजुर्वेद पर भाष्य-रचना कर वेद-विद्या पर अपनी रामभक्ति, अपने काव्य में अनेक प्रकार से व्यक्त की नया प्रकाश डाला। है। उन्होंने गजेन्द्रचंपू, सुश्लोकलाघव, हेतुरामायण, वेदों में एकेश्वर-उपासना ही प्रतिपादित है, यह उनका मन्तव्य प्रबोधोत्सवलाघव, साधुपार्षदलाघव आदि दस-बारह संस्कृत था। सायण-सदृश पूर्ववर्ती भाष्यों से उन्होंने कुछ सहायता ली काव्य-ग्रंथों की रचना की है। उनके मराठी काव्य पर भी किन्तु अर्थ का व्याख्यान स्वतंत्र रूप से किया। कर्म, उपासना संस्कृत का काफी प्रभाव है।
व ज्ञानकाण्ड का अधिक विस्तार न कर उन्होंने संहितामंत्रों के अपनी आयु के साठवें वर्ष, चैत्र वद्य एकादशी के दिन मूल अर्थ की खोज करने पर ही अधिक ध्यान दिया। अतः प्रातः इन्होंने इहलोक छोडा। अपने कीर्तनों को प्रभावशाली पूर्ववर्ती भाष्यकारों का उन्होंने उचित स्थल, पर खण्डन भी किया है। बनाने हेतु महाराष्ट्र के कीर्तनकार आज भी विठोबाअण्णा के उनके मत से अरुचि रखने वाले अभ्यासक भी उनकी संस्कृत ब मराठी काव्य का सहारा लिया करते हैं। असाधारण विद्वत्ता, अलौकिक प्रतिभा, उत्कृष्ट वक्तृत्व व दमा - ऋग्वेद के दसवें मंडल के सोलहवें सूक्त के द्रष्टा वाक्यटुता, स्वदेशाभिमान और परम वेदनिष्ठा को सदैव मानते किन्तु ऋग्वेद में इनका कहीं पर भी नामोल्लेख नहीं। अपने रहेंगे। प्रतिकूल काल में उन्होंने वेदनिष्ठा जगाई और वेदविद्या एक मृत संबंधी के कलेवर को भस्मसात् करने वाली अग्नि के रक्षण के लिए तथा वेदानुकूल समाज-सुधार के लिए आर्य को संबोधित करते हुए इस सूक्त की रचना दमन ने की है। समाज जैसी प्रभावी संघटना की स्थापना की।
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दयालपाल मुनि - रचना- रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरण दानशेखरसुरि- तपागच्छीय हेमविमल सूरि के समकालीन । का प्रक्रिया-ग्रन्थ)। इसके अतिरिक्त दो टीकाकारों ने प्रक्रिया जिन माणिक्यगणि के प्रशिष्य और अनन्तहंसगणि के शिष्य । ग्रंथ की रचना की है। अभयचन्द्राचार्य (प्रक्रियासंग्रह), और ग्रंथ :- भगवती-विशेषपद-व्याख्या। संबद्ध विषयों का विस्तृत भावसेन विद्यदेव (शाकटायन टीका)। रूपसिद्धि प्रकाशित विवेचन इस ग्रंथ में किया है। है पर शेष दो अप्राप्य हैं। भावसेन को "वादिपर्वतवज्र' भी दामोदर- ई. 17 वीं शती। गुजरात के संन्यासी कवि। वेदों कहते हैं।
के उपासक। रचना- "पाखण्ड-धर्म-खण्डन" नामक तीन अंकी दवे, जयन्तकृष्ण हरिकृष्ण - कार्यवाह, संस्कृत विश्व परिषद्।। नाटक। कृति-सोमनाथ प्रतिष्ठापन के प्रसंग पर रचित सोमराजस्तवः।। दामोदर- पुष्टि-मार्ग (वल्लभ-संप्रदाय) की मान्यता के अनुसार ४० श्लोकों का शिवस्तोत्र। भारतीय विद्याभवन द्वारा आंग्लानुवाद भागवत की महापराणता के पक्ष में सहित प्रकाशित । मुंबई के भारतीय विद्याभवन के निदेशक।। "श्रीमद्भागवत-निर्णय-सिद्धान्त” नामक लघु कलेवर ग्रंथ के अंग्रेजी में लिखे हुए अनेक शोधलेख प्रकाशित हैं। शंकराचार्य
लेखक। प्रस्तुत कृति एक स्वल्पाकार गद्यात्मक रचना है जिससे द्वारा महामहोपाध्याय उपाधि प्राप्त ।
दामोदर द्वारा पुराणों के विस्तृत अनुशीलन किये जाने का दांडेकर, रामचंद्र नारायण (पद्मभूषण)- जन्म- सन 1901 में, परिचय मिलता है। सातारा (महाराष्ट्र) में। डेक्कन कॉलेज (पुणे) में उच्च शिक्षा
दामोदरशर्मा गौड (पं.)- वैद्य। वाराणसी में वास्तव्य । ग्रहण। 1931 में हिडलबर्ग (जर्मनी) में एम्. ए. उपाधि तथा
ए.एम.एस.। रचना-अभिनव-शारीरम् (पृष्ठ 582, श्वेतकृष्ण तथा 1938 में वहीं पर पीएच.डी. उपाधि प्राप्त। 1932 से 50
रंगीन चित्रों व आकृतियों सहित) । वैद्यनाथ आयुर्वेदीय प्रकाशन । तक फर्ग्युसन कालेज (पुणे) में संस्कृत के आचार्य। 1939
1975 ई.। से भांडारकर प्राच्यविद्या संस्थान के सतत अवैतनिक सचिव।
दामोदरशास्त्री- समय- 1848-1909 ई. में नूतन विचारों से डेक्कन एज्युकेशन सोसाइटी के मंत्री। 1964 से 74 तक पुणे
संबंधित पाक्षिक पत्र “विद्यार्थी' का सम्पादन कर आपने विश्वविद्यालय के संस्कृत उच्चाध्ययन केंद्र के निदेशक। विश्व के सभी देशों में, जहां भी संस्कृत के सम्मेलन हुए, वहां
संस्कृत साहित्य की अपूर्व सेवा की है। उनके द्वारा रचित, भारत के प्रतिनिधि होकर सहभागी हुए। विदेशों में सर्वत्र
"बालखेलम्" नामक पांच अंकों वाला नाटक, श्रीगंगाष्टकम्
तथा जगन्नाथाष्टकम् आदि अष्टक, कालिदास व हर्षवर्धन की मान्यता प्राप्त। 1943 से अ. भारतीय प्राच्यविद्या परिषद् के
शैलियों का अपना कर लिखी गयी "चन्द्रावलि" नाटिका के सचिव का दायित्व। विश्व संस्कृत सम्मेलन, वाराणसी-अधिवेशन
अतिरिक्त दार्शनिक सिद्धान्तों के विवेचन में "एकान्तवासः" के अध्यक्ष। अवकाश प्राप्ति के बाद पुणे विश्वविद्यालय में
नामक निबंध विशेष उल्लेखनीय है। "एमेरिटस् प्रोफेसर" पद प्राप्त । इन विविध संमानों के अतिरिक्त 1973 में इण्टरनेशनल यूनियन फार ओरिएंटल अॅण्ड एशियन
दिङ्नाग- "कुन्दमाला" नामक नाटक के प्रणेता। इस नाटक स्टडीज के अध्यक्ष, यूनेस्को के जनरल असेंब्ली ऑफ दी
की कथा "रामायण" पर आधृत है। रामचंद्र-गुणचंद्र द्वारा इंटर नेशनल कौन्सिल फॉर फिलॉसाफी अॅण्ड ह्यूमेनिस्टिक
रचित "नाट्य-दर्पण" में "कुंदमाला" का उल्लेख है। अतः स्टडीज के सदस्य, इत्यादि विविध प्रकार के दुर्लभ सम्मान
इनका समय 1000 ई. के निकट माना गया है। बौद्ध न्याय डॉ. दाण्डेकरजी को प्राप्त हुए। ग्रंथ- देर वेदिक (1938),
के जनक आचार्य दिङ्नाग से ये भित्र हैं। ज्ञानदीपिका (आदिपर्व) 1941, ए हिस्ट्री आफ् गुप्ताज् 1941,
दिङ्नाग- उच्च ब्राह्मण-कुल में जन्म। बौध्दन्याय के जनक । प्रोग्रेस ऑफ इंडिक स्टडीज (1942), रसरत्नदीपिका (1945),
दीक्षा के पूर्व का नाम नागदत्त । ये दक्षिणी ब्राह्मण थे। जन्म वैदिक बिब्लिओग्राफी, प्रथम खंड (1951), द्वितीय खंड
कांची के निकट सिंहवक्र नामक गांव में। प्रारंभ में वे (1961), तृतीय खंड (1973), न्यू लाइट ऑन् वैदिक
हीनयान संप्रदायांतर्गत वात्सीपुत्रीय शाखा के नागदत्त के शिष्य माइथॉलाजी (1951), श्रौतकोष-तीन खण्डो में (1958-73),
थे। पश्चात् त्रिपिटक का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद उन्होंने क्रिटिकल एडिशन ऑफ दी महाभारत शल्यपर्व (1961),
महायान पंथ में प्रवेश किया और वे आचार्य वसुबंधु के अनुशासनपर्व (1966), सुभाषितावली (1962), सम् आस्पेक्टस्
शिष्य बने। वसुबंधु के मार्गदर्शन में उन्होंने महायान पंथ के ऑफ हिस्ट्रि ऑफ हिंदुईज्म (1967), इस बहुमूल्य वाङ्मय
सभी प्रमाणभूत ग्रंथो का अध्ययन किया। कहते हैं कि उन सेवा के अतिरिक्त देश-विदेश की अनेक शोध पत्रिकाओं तथा
पर बोधिसत्त्व मंजुश्री की असीम कृपा थी। अतः उन्हें कुछ अभिनंदन ग्रंथों में डॉ. दाण्डेकरजी के अनेक विद्वत्तापूर्ण निबंध
भी अगम्य न रहता था। उनकी तीक्ष्ण बुद्धि तथा प्रकांड प्रकाशित हुए हैं। संस्कृत वाङ्मय की सेवा आपने केवल
पांडित्य की कीर्ति जब नालंदा पहुंची, तो नालंदा विद्यापीठ अंग्रेजी के माध्यम से की। संस्कृत भाषा में आपकी कोई
के आचार्य ने उन्हें वहां सादर आमंत्रित किया। वहां पहुंच रचना नहीं।
कर उन्होंने सुदुर्जय नामक एक वैदिकधर्मीय तार्किक को तथा
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अन्य वैदिक पंडितों को वाद-विवाद में पराभूत किया। इस इत्यादि। विजय के कारण उन्हें तर्कपुंगव यह विरुद एवं "पंडितोष्णीष" इन्होंने बौद्धन्याय को सुव्यवस्थित करने में पूर्ण योग दिया । नामक शिरोभूषण प्राप्त हुए।
तथा गौतम और वात्स्यायन के पंचावयव-वाक्य का खण्डन तदुपरांत दिङ्नाग ने महाराष्ट्र और उडीसा-प्रदेशों में संचार कर, अनुमान के लिए तीन अवयव ही पर्याप्त हैं यह प्रमाणित करते हुए अनेक जैन पंडितों को वाद-विवाद में पराजित किया। किया । महाराष्ट्र के आचार्य विहार में वे दीर्घ काल तक रहे थ। दिनकर- ई. 19 वीं शती। पिता-अनन्त (महान् गणितज्ञ)।
दिङ्नाग ने न्यायशास्त्र पर न्यायप्रवेश, हेतुचक्रडमरु, रचनाएं- ग्रहविज्ञान-सारिणी, मास-प्रवेश-सारिणी, लग्न-सारिणी, प्रमाणशास्त्र, आलंबनपरीक्षा, प्रमाणसमुच्चय आदि अनेक संस्कृत क्रान्तिसारिणी, दृक्कर्मसारिणी, चन्द्रोदयांकजालम्, ग्रहमानजालम्, ग्रंथों की रचना की। किन्तु केवल "न्यायप्रवेश" के अतिरिक्त पातसारिणी-टीका और यन्त्र-चित्तामणि-टीका। उनका अन्य कोई भी ग्रंथ मूल स्वरूप में उपलब्ध नहीं। दिनकरभट्ट- ई. 17 वीं शती। एक संस्कृत धर्मनिबंधकार । उनके कुछ ग्रंथों के तिब्बती भाषानुवाद दिखाई देते हैं। दिङ्नाग इन्हें दिवाकरभट्ट भी कहते हैं। न्याय, वैशेषिक, मीमांसा एवं का मुख्य ग्रंथ है "प्रमाणसमुच्चय"। छह परिच्छेदों में विभाजित धर्म शास्त्रों के वे प्रकांड पंडित थे। कहा जाता है कि वे यह ग्रंथ, प्रमाणों के संबंध में समय-समय पर रचे गये शिवाजी महाराज के आश्रित थे। उनके भाई लक्ष्मणभट्ट ने श्लोकों का संग्रह है। अपने इस ग्रंथ में दिङ्नाग ने, दो अपने आचाररत्न नामक ग्रंथ में उनकी स्तुति निम्न शब्दों में की हैपूर्वाचार्यों, वात्स्यायन और गौतम का खंडन किया है। डा.
____ "जिस प्रकार आदिवराह ने जल में डूबी हुई पृथ्वी को कीथ, प्रो. मेक्डोनेल प्रभृति के अनुसार इनका समय 400 ई. है।
ऊपर निकाला, उसी प्रकार जिसने अपने कुल की प्रतिष्ठा को सन् 557 से 569 तक के कालखंड में, दिङ्नाग के
उच्च पद तक पहुंचाया और जिससे गंगा के समान (पवित्र) दो ग्रंथों का अनुवाद चीनी भाषा में किया गया था।
विद्या प्रसृत हुई, उस ज्येष्ठ भ्राता की अर्थात् भट्ट दिवाकर प्रमाणसमुच्चय का तिब्बती अनुवाद तिब्बती राजालामा दे-प-शे-ख
की, में स्तुति करता हूं।" के सहयोग से हेमवर्मा नामक एक भारतीय बौद्ध पंडित ने
__दिनकर भट्ट ने शास्त्रदीपिका पर भट्ट-दिनकरमीमांसा अथवा किया। ग्रंथ का तिब्बती नाम है छे-म-कुंत-ई।
भाट्टदिनकरी, शांतिसार, दिनकरोद्योत अथवा भाट्ट दिनकरोद्यांत दिङ्नाग अत्यंत वादनिपुण एवं आक्रमक प्रवृत्ति के पंडित
ये ग्रंथ लिखे हैं। किन्तु कहा जाता है कि इनमें से अंतिम थे। उनके पश्चात् हुए उद्योतकर, वाचस्पति मिश्र, कुमारिल
ग्रंथ उनके हाथों से पूरा न हो सका था। उसे उनके सुप्रसिद्ध भट्ट, सुरेश्वराचार्य प्रभृति वैदिक पंडितों तथा प्रभाचन्द्र, विद्यानंद
पुत्र विश्वेश्वर (गागाभट्ट काशीकर) ने पूरा किया। प्रभृति जैन दार्शनिकों ने दिङ्नाग के मतों का खंडन किया है। इनका निर्वाण उडीसा के एक वन में हुआ।
दिलीपकुमार राय- ई. 20 वीं शती। द्विजेन्द्रलाल राय के
पुत्र । रचना- पिता की बंगाली कविताओं के संस्कृत-अनुवाद । इन्हें बौद्ध न्याय का संस्थापक माना जाता है। प्राचीन नैयायिकों में दिङ्नाग का स्थान अत्यंत उच्च है। इत्सिंग के
दिवाकर- ज्योतिषशास्त्र के एक आचार्य। समय ई. 17 वीं आलेखानुसार, उनके ग्रंथों को भारतीय विद्या-केन्द्रों में पाठ्यग्रंथों
शती। इनके चाचा शिव देवज्ञ अत्यंत प्रसिद्ध ज्योतिषी थे। का स्थान प्राप्त था। गंगेश उपाध्याय के काल तक (सन्
दिवाकर ने इन्हीं से ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया था। 1200) भारतीय न्यायविद्या के क्षेत्र में दिङ्नाग का ही साम्राज्य
इन्होंने "जातक-पद्धति" नामक फलित ज्योतिष के ग्रंथ की
रचना की है। इसके अतिरिक्त "मकरंद-विवरण" व रहा।
केशवीय-पद्धति" नामक टीकाग्रंथों की भी इन्होंने रचना की दिङ्नाग के जीवन के वास्तव्य का अधिकांश काल उडीसा
है। इनका दूसरा मौलिक ग्रंथ है "पद्धति-प्रकाश" जिसकी में रहा। ये मंत्रतंत्र-विशेषज्ञ भी थे। उडीसा के अर्थमंत्री
सोदाहरण टीका इन्होंने स्वयं ही लिखी है। भद्रपालित (जिसे इन्होंने बौद्ध दीक्षा दी थीं) के सूखे हरीतकी-वृक्ष को आपने प्रयोग से हरा-भारा किया। इनकी दिवाकर- पिता-विश्वेश्वर। रचना-राघवचम्पू । शिष्य-शाखा में धर्मकीर्ति, शान्तरक्षित, कमलशील, शंकरस्वामी दिवेकर, हरि रामचंद्र (डॉ)- समय- ई. 20 वीं शती। जैसे विद्वान थे।
ग्वालियर-निवासी। प्रयाग वि.वि. से एम.ए.डी.लिट्. । मध्यभारत रचनाएं- न्यायदर्शन पर इनके द्वारा लगभग सौ ग्रंथ रचित । में सर्वोच्च शैक्षणिक पदों पर राजकीय सेवा में रत रहे। हैं, जिनमें प्रमुख ग्रंथ हैं- (1) प्रमाणसमुच्चय, (2) "कालिदासमहोत्सवम्" नामक नाटक के रचयिता। वैदिक तथा प्रमाणसमुच्चय-वृत्ति, (3) न्यायप्रवेश, (4) हेतुचक्रडमरु, (5)
ऐतिहासिक विषयों पर इन्होंने अनेक मौलिक शोधनिबंध लिखे हैं। प्रमाणशास्त्र-न्यायप्रवेश, (6) आलम्बनपरीक्षा, (7) दिव्य आंगिरस- ऋग्वेद के दसवें मंडल का 107 वां सूक्त आलम्बनपरीक्षावृत्ति, (8) त्रिकालपरीश्रा और (9) मर्मप्रदीपवृत्ति इनके नाम पर है। दक्षिणा की महिमा है सूक्त का विषय ।
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इनके कथनानुसार देवताओं के लिये किये जाने वाले यज्ञ में दी जाने वाली दक्षिणा में दैवी प्रवृत्ति की पूर्णता होती है।
दक्षिणा के कारण प्राप्त होने वाली अनेक बातें आपने निम्न ऋचा में बताई हैं
दक्षिणावान् प्रथमो हूत एति दक्षिणावान् ग्रामीणरग्रमेंति । तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय ।।
(ऋ. 10-107-5) अर्थ- जो दक्षिणा देता है, उसी का नाम (लोगों के मुखों पर) प्रथम आता है। जो दक्षिणा अर्पण करता है, वही अपने गावं में नेता कहला कर श्रेष्ठ पदवी प्राप्त करता है। सर्वप्रथम व भरपूर दक्षिणा देने वाले पुरुष को ही में जनता का राजा मानता हूं।
इस सूक्त के अंत में दानमाहात्म्य का वर्णन भी है। दीक्षित राजचूडामणि (यज्ञनारायण)- ई. 17 वीं शती। इन्हें यज्ञनारायण के नाम से पहचाना जाता है। इन्होंने तीन ग्रंथों की रचना की है- जैमिनिसूत्र पर तंत्ररक्षणामणि नामक टीका, कपूरवातिक और जमिनि के संकर्षणकांड (या देवता कांड) पर संकर्षण न्यायमुक्तावलि नामक टीका। इन्होंने एक संस्कृत नाटिका भी लिखी है। दीक्षित समरपुंगव- ई. 17 वीं शती। रचना-तीर्थयात्रा-प्रंबध (अनेक तीर्थक्षेत्रों तथा मन्दिरों का काल्पनिक वर्णन इसमें है)। दीनद्विज- ई. 19 वीं शती का प्रथम चरण। असम-निवासी। सन्दिकेवंशीय राजा बरफुकन द्वारा सम्मानित । "शंखचूडवध' नामक आंकिया नाटक के रचयिता । रचनाकाल- सन् 1803 ई.। दीर्घतमा- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 140 से 164 तक के 25 सूक्तों के आप द्रष्टा हैं। आंगिरस गोत्र के दीघतर्मा, उतथ्य व ममता के पुत्र थे। अपने चाचा बृहस्पति के शाप से वे जन्मांध थे। तद्विषयक एक कथा बृहदेवता में मिलती है। माता के गर्भ में ही उन्हें संपूर्ण वेदविद्या अवगत हो चुकी थी। उन्होंने अग्नि की प्रार्थना की और उसकी कृपा से उन्हें दृष्टि प्राप्त हुई। ___ इनकी पत्नी का नाम था प्रद्वेषी। उससे इन्हें गौतम प्रभृति अनेक पुत्र हुए। किन्तु अपने कुल के अत्यधिक विस्तार हेतु इन्होंने गोरतिविद्या प्राप्त की, और वे लोगों के सामने स्त्री-समागम करने लगे। तब प्रद्वेषी दूसरा पति करने के लिये उद्युक्त हुई। यह देख उन्होंने मर्यादा डाल दी कि “स्त्री को यावज्जन्म एक ही पति होना चाहिये"।
फिर वे पुरोहित बने। उन्होंने यमुना के किनारे भरत दौष्यंति को ऐंद्र महाभिषेक किया था। लोकमान्य तिलक ने “दीर्घतमा' शब्द का ज्योतिर्विषयक अर्थ लगाया है- दीर्घ दिवसोपरांत अस्त होने वाला सूर्य। ऋषि दीर्घतमा का ऋग्वेद का सूक्त (1.164), "अस्य वामीय सूक्त" के नाम से प्रसिद्ध है। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से तो यह सूक्त बडा ही महत्त्वपूर्ण हैं।
उसकी निम्न ऋचाएं प्रसिध्द हैं
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।
___ (ऋ. 1. 164. 20) वेदांतियों के अनुसार इस ऋचा में जीवात्मा और परमात्मा का आलंकारिक वर्णन है। इसमें पिप्पल (फल) खाने वाला अर्थात् विषयोपभोग करने वाला है जीवात्मा, और निरासक्त रह कर किसी भी प्रकार का भोग न करते हुए केवल साक्षित्व से रहनेवाला है परमात्मा।
दीर्घतमा ने वेदों की स्तुति निम्नप्रकार की हैऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तन वेद किमृचा करिष्यति
य इत्तद् विदुस्त इमे समासते ।। (ऋ. 1.164.39) ___ अर्थ- ऋचाएं, अक्षर अविनाशी अत्युच्च स्वर्लोक में रहती हैं, जहां सभी देवों ने वास किया है। इस बात को जो व्यक्ति समझ नहीं पाता उसे वेदों का भी क्या उपयोग। जिन्हें यह अर्थ समझा वे सब एकत्रिक (सामंजस्यपूर्वक).रहा करते है।
डॉ. सम्पूर्णानंद के अनुसार अपनी परावलंबिता तथा अन्य कटु अनुभवो का विचार करने से दीर्घतमा के अंतकरण में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। भोगों से परावृत्त होकर वे आत्मस्वरूप का चिंतन करने लगे और अंततः निर्विकल्प समाधि तक पहुंचे। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार दीर्घतमा है दीर्घकालीन अंधकार अर्थात् विश्वोत्पत्ति के रहस्य को सुलझाने का प्रयत्न करनेवाले एक तत्त्वचिंतक ऋषि का उपनाम। दृष्य जगत् का वैज्ञानिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण से अर्थ लगानेवाले प्रथम द्रष्टा थे ये दीर्घतमा ऋषि । दुःखभंजन- 18 वीं शती में वाराणसी के निवासी। रचनाचन्द्रशेखरचरितम्। दुर्गाचार्य- यास्काचार्य के निरुक्त पर लिखी गई उपलब्ध टीकाओं में दुर्गाचार्य की टीका सर्वाधिक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। किन्तु जैसा कि दुर्गाचार्य की टीका से विदित होता है, इससे पूर्व भी कुछ आचार्यों ने निरुक्त पर टीकाएं लिखीं थीं। दुर्गाचार्य ने अपनी टीका में अपने विवेचन के समर्थनार्थ उन पूर्वाचार्यों के वचनों को उद्धृत किया है। कतिपय ग्रंथों के अनुसार आप जंबुमार्गस्थित आश्रम में रहते थे। किन्तु इस स्थान का पता नहीं चलता। डा. लक्ष्मण-स्वरूप के मतानुसार यह स्थान काश्मीर में होगा। इसके विपरीत पं. भगवद्दत्त, दुर्गाचार्य को गुजरात के निवासी मानते हैं। दुर्गाचार्य की टीका में मैत्रायणी संहिता के अनेक उद्धरण हैं और प्राचीन काल में यह संहिता गुजरात ही में अधिक प्रचलित थी। यही है भगवद्दत्त की उक्त मान्यता का आधार ।
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दुर्गाचार्य लिखित निरुक्त टीका की उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित प्रति सन् 1387 के आसपास की है। तदनुसार दुर्गाचार्य 14 वीं शताब्दी के होने चाहिये। किंतु वै. का. राजवाडे दुर्गाचार्य को 10 वीं अथवा 11 वीं शताब्दी के मानते हैं। उद्गीथाचार्य प्रभूति वेदभाष्यकारों ने पर्याप्त स्थलों में दुर्गाचार्य को प्रमाण माना है उससे दुर्गाचार्य की प्राचीनता और श्रेष्ठता स्पष्ट होती है।
इनका नाम भगवद् दुर्गासिंह था। भगवद् उपाधि से वे विशिष्ट श्रेणी के संन्यासी होंगे ऐसा अनुमान है।
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अपने निजी कापिष्ठल वसिष्ठ गोत्र का वे निर्देश करते हैं। संन्यासी रहते हुए अपने गोत्र का निर्देश उन्होंने क्यों किया यह चिंता का विषय हैं। अनेक पूर्ववर्ती ग्रंथों से उन्होंने उद्धरण लिए जिनका मूल अभी अज्ञात है। इससे दुर्गाचार्य के पाण्डित्य की गहराई स्पष्ट होती है।
"ईदृशेषु शब्दार्थन्यायसंक्टेषु मन्त्रार्थघटनेषु दुरवबोधेषु मतिमतां मतयो न प्रतिहन्यन्ते । वयं त्वेतावदत्रावबुध्यामहे इति ।"
(ऐसे कठिन मन्त्रों के व्याख्यान में विद्वानों की बुद्धियां नहीं रुकती । हम तो यहां इतना ही जानते हैं) । यह उद्गार दुर्गाचार्यजी की प्रगल्भता और विनय का द्योतक है। दुर्गाचार्य की निरुक्त-वृत्ति के अनेक संस्करण निकले है। इससे भी ग्रंथ और ग्रंथकार का प्रामाण्य स्पष्ट होता है । दुर्गादत्तशास्त्री - ई. 20 वीं सदी हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले के अन्तर्गत नलेटी जैसे छोटे से गांव में रहते हुए आपने संस्कृत साहित्य की अच्छी सेवा की विद्यालंकार एवं साहित्यरत्न इन उपाधियों से आप विभूषित हैं, और आपको राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। कृतियां (1) राष्ट्रपथप्रदर्शनम् (18 अध्यायों का काव्य), (2) तर्जनी (11 अध्यायों का काव्य), (3) मधुवर्षणम् (7 सर्गो का काव्य), (4) वत्सला (छह अंकों का सामाजिक नाटक) (5) वियोगवल्लरी (गद्य कथा) और (6) तृणजातकम् (सामाजिक लघुनाटक)। इन ग्रंथों के निर्माण से आपने संस्कृत साहित्यिकों में प्रतिष्ठा प्राप्त की है। दुर्गादास ई. 16 वीं शती । प्रकाण्ड नैयायिक वासुदेव सार्वभौम विद्यावागीश के पुत्र । कुलनाम- गांगुली । कृतियांसुबोधा ( व्याकरण ग्रंथ ) यह मुग्धबोध की टीका है। दुर्गाप्रसन्न देवशर्मा विद्याभूषण ई. 20 वीं शती । कुलनामभट्टाचार्य गुरु- कालीपद तर्काचार्य पिता- विद्वचन्द्रकिशोर वाचस्पति । "एकलव्य-गुरुदक्षिणा" नामक नाटक के प्रणेता । दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी समय- ई. 19 वीं शती । निवासस्थानएकडलाग्राम पिता- कोदीराम। गुरु-छोटक मिश्र । कुलपति के नाते दुर्गाप्रसादजी ने सैकडों छात्रों का अध्यापन किया था। काशिकासार- टीका, शब्देन्दुशेखर- टीका, बलभद्रीय सारस्वतटीका, रसमंजरीटीका और रासपंचाध्यायी टीका नामक टीकाग्रंथ और
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338 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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पुराणपरिमल, जातकशेखर ( ज्योतिष - ग्रंथ ) तथा प्रतिष्ठाप्रदीप, संस्कारदर्पण और दानचंदिका नामक तीन कर्मकाण्डविषयक आपके ग्रंथ अद्यापि अप्रकाशित है। त्रिविक्रम-कविकृत रामकीर्तिकुमुदमाला नामक खंडकाव्य पर आपकी माधुरी नामक टीका मूल ग्रंथ सहित श्रीचंद्रभानु त्रिपाठी ने इलाहाबाद से प्रकाशित की है।
दुर्मित्र ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 105 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्होंने इन्द्र के अश्वों और उसके वज्र की क्षमता का वर्णन किया है। इनके इस सूक्त में निम्न मानसशास्त्रीय विचार प्रस्तुत है
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आ योरिन्द्रः पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान् । शुभे यद्युयुजे तविषीवान्।। (ऋ. 10-105-3)
अर्थ- जो वासनाएं (वृत्तियां) पातक से उद्भूत होती हैं, उनका नाश इन्द्र करता है क्यों कि मर्त्य (मानव) परिश्रम से कतराने वाला तथा भीरू है किन्तु किसी शुभ कार्य के लिये प्रवृत्त होते ही वही बडा धैर्यशाली बन जावेगा। इस सूक्त के 11 वें मंत्र में दुर्मित्र ने स्वयं को कुत्सपुत्र कहा है । दुवस्यू- ऋग्वेद के दसवें मंडल का 100 वां सूक्त इनके नाम पर है। एक धर्मपरिषदके अवसर पर यज्ञमंडप में इस सूक्त की रचना हुई होगी। इस सूक्त का विषय है इन्द्र, सूर्य, अग्नि, धेनु प्रभृति देवताओं की स्तुति। इस सूक्त की प्रत्येक ऋचा के अंत में "हम स्वतंत्र बने रहें" ऐसी प्रार्थना की गई है किन्तु हम उन्हें अपनी शरण में लाकर ही छोडेंगे" - ऐसा आत्मविष्वास भी अंत में व्यक्त किया गया है। संबंधित सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है
ऊर्ज गावो यवसे पीवो अत्तनत्रतस्य याः सदने कोशे अवे । तनुरेव तन्वो अस्तु भेषजमा सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ।। अर्थ- हे धेनुओं, तृणधान्य से परिपूर्ण इस भूमि पर तुम ( चरती हो तब मानों ) ओज और पुष्टि का ही सेवन करती हो तथा सद्धर्म के गृह में वह ओज ( दुग्ध के रूप में) प्रकट करती हो, तो तुम्हारा शरीरजन्य (दुग्ध) हमारे शरीरों के लिये औषधि बने क्यों कि हम यही वरदान मांगते हैं कि हमारा सर्वतोपरि मंगल हो और हम सदा स्वतंत्र बने रहें । स्वातंत्र्य प्रेम इस सूक्त का वैशिष्टय है।
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दृढबल- एक आयुर्वेदाचार्य पिता- कपिलबल तदनुसार इनको कापिलबलि भी कहा जाता था। काश्मीरस्थित पंचनपुर के निवासी। अनुमानतः आपका काल वाग्भट के पहले का ( अर्थात् सन् 300 के आसपास का) माना जाता है क्यों कि वाग्भट और जेज्जट ने आपके वचनों को उद्धृत किया है। ऐसा कहते हैं कि चरकसंहिता का कुछ भाग आपने पूर्ण किया था ।
टूळच्युत वेद के 9वें मंडल के 25 वे सूक्त के दृष्टा ये अगस्त्य कुल के हैं। इन्होंने अपने सूक्त में सौम प्रशस्ति
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का मान किया है। तदंतर्गत एक ऋचा इस प्रकार है - +ने अन्य अनेक ग्रंथों व ग्रंथकारों के मतों की समीक्षा करते अरुषो जगयन् गिरः सोमःपवत आयुषक् ।
हुए बाद में स्वयं के मत प्रस्तुत किये हैं। इन्द्रं गच्छन् कविक्रतुः ।।
इनके ग्रंथ को दक्षिण के न्याय-विभाग में बड़ा मान दिया अर्थ- तेजस्वी तथा काव्य-स्फूर्ति प्रदान करने वाला सोम, जाता है। "स्मृति-चंद्रिका", संस्कृत निबंध-साहित्य में अत्यंत मानवों का हित करने हेतु इन्द्र की और जाने वाला ये अत्यंत मूल्यवान् निधि के रूप में स्वीकृत है। स्मृति-चंद्रिका के पांच प्रतिभावन सोम, देखिये किस प्रकार प्रवाहित है। सोमरस को कांडों के अतिरिक्त इन्होंने राजनीति-कांड का भी प्रणयन किया बुद्धि-चातुर्य का एक साधन बताना ही इस ऋचा का आशय है। इन्होंने राजनीति-शास्त्र को धर्म-शास्त्र का अंग माना है प्रतीत होता है।
व उसे धर्मशास्त्र के ही अंतर्गत स्थान दिया है। धर्म-शास्त्र दे. ति. ताताचार्य - ई. 20 वीं शती। नई दिल्ली के द्वारा स्थापित मान्यताओं की पुष्टि के लिये इन्होंने अपने ग्रंथ निवासी। रचना "पुनःसृष्टि" व "सोपानशिला नामक रूपक। में यत्र-तत्र धर्मशास्त्र, रामायण व पुराण के भी उद्धरण दिये हैं। देव- ई. 12 वीं शती। रचना- पाणिनीय धातुपाठ पर 200 देवनन्दि पूज्यपाद - ई. 5-6 वीं शती। जिनसेन, शुभचन्द्र, श्लोकों की वृत्ति पर लीलाशुकमुनि ने पुरुषकार नामक वार्तिक गुणनन्दि, धनंजय आदि आचार्यों द्वारा उल्लिखित कवि और लिखा है। पं. युधिष्ठिर मीमांसक ने यह वार्तिक प्रकाशित दार्शनिक। मूल नाम देवानन्दि। बाद में बुद्धि की महत्ता के किया है। इस ग्रंथ में समान रूप वाली अनेक गणों में कारण "जिनेन्द्रबुद्धि" तथा "पूज्यपाद" भी कहलाये। पठित धातुओं का विभिन्न गणों में पाठ करने के प्रयोजन का पिता-माधवभट्ट और माता- श्रीदेवी। ब्राह्मण-कुल। कर्नाटक विचार किया गया है।.
के "कोले" नामक ग्राम के निवासी। नन्दिसंघ के आचार्य । देव विश्वनाथ - ई. 17 वीं शती। शैवसंप्रदायी। गोदावरी-परिसर
सरस्वती-गच्छ के अनुयायी। के धारासुर नगर के निवासी। बाद में काशी में प्रतिष्ठित । कहा जाता है माता श्रीदेवी के भ्राता का नाम पाणिनि रचना- "मृगाड्कलेखा" (नाटिका)।
था। पूज्यपाद की बहन का नाम कमलिनी था जिसका पुत्र देवकी मेनन - ई. 20 वी शती। मद्रास के क्वीन मेरी
नागार्जुन था। सांप के मुंह से फंसे मेंढक को देख कर संसार महाविद्यालय में संस्कृत-विभाग की अध्यक्षा। सेवानिवृत्ति के
से विरक्त हुए और दिगम्बर दीक्षा ग्रहण की। पाणिनि के पश्चात् एर्नाकुलम (केरल) में वास्तव्य। “कुचेल-वृत्त" तथा . अपूर्ण व्याकरण को पूर्ण किया। नागार्जुन को सिद्धियां सिखायीं। "सैरन्धी' नामक प्रेक्षणकों (आपेरा) की रचयित्री।
आकाशगामिनी विद्याधारी होने से विदेह-क्षेत्र आदि का भ्रमण देवकुमारिका - एक कवियित्री। उदयपुर के राणा अमरसिंह
किया। प्रस्तुत कथा की सत्यता विचारणीय है। इनके अतिरिक्त इनके पति थे। समय- 18 वीं शताब्दी का पूर्वार्ध। इन्होंने
कतिपय अन्य घटनाएं भी उल्लेखनीय हैं। - घोर तपश्चरणादि "वैद्यनाथ-प्रासाद-प्रशस्ति" नामक ग्रंथ की रचना की है जिसका
के कारण आंखों की ज्योति नष्ट हो गई। कुछ मंत्र साधना प्रकाशन "संस्कृत पोयटेसेस" नामक ग्रंथ में (1940 ई. में
से उसकी पुनः प्राप्ति हुई। इन्हें औषधि-ऋद्धि की उपलब्धि कलकत्ता से हुआ है)। इस ग्रंथ में 142 पद्य हैं जो पांच
हुई। कहते है कि इनके पाद-स्पृष्ट-जल के प्रभाव से लोह प्रकरणों में विभक्त हैं। प्रथम प्रकरण में उदयपुर के राणाओं
_स्वर्ण में परिणत हो जाता था ऐसे ये महान् योगी थे। का संक्षिप्त वर्णन है व द्वितीय प्रकरण में राणा संग्रामसिंह पूज्यपाद, गंगवंशीय राजा अविनीति के पुत्र दुर्विनीति (ई. का अभिषेक वर्णित है। शेष प्रकरणों में मंदिर की प्रतिष्ठा
6 वीं शती) के शिक्षा-गुरु थे। अकलंक द्वारा पूज्यपाद का का वर्णन है।
उल्लेख हुआ है। अतः पूज्यपाद का समय पांचवी शती का देवण भट्ट - ई. 13 वीं शती का पूर्वार्ध । राजधर्म के
उत्तरार्ध और छठी शती का पूर्वार्ध माना जाता है। एक मान्य निबंधकार व याज्ञिक। पिता- केशवादित्य भट्टोपाध्याय ।
रचनाएं- दशभक्ति, जन्माभिशेष, तत्त्वार्थवृत्ति (सर्वार्थ-सिद्धि), डॉ. शामशास्त्री के मतानुसार ये आंध्र-प्रदेश के निवासी हो
समाधितन्त्र, इष्टोपदेश, जैनेन्द्र-व्याकरण, सिद्धिप्रियस्तोत्र, सकते है क्यों कि अपने ग्रंथ में मामा की पुत्री से विवाह
वैद्यक-शास्त्र, छन्दःशास्त्र, शान्त्यष्टक, सार-संग्रह । इन ग्रंथों पर करने का इन्होंने विधान किया है जिसे आंध्र में मान्यता है।
कुन्दकुन्द, उमास्वाति, समन्तभद्र आदि आचायों का प्रभाव धर्मशास्त्र पर लिखा गया इनका "स्मृतिचंद्रिका' ग्रंथ पांच
परिलक्षित होता है। कांडों में विभाजित है। उसमें संस्कार, आह्निक, व्यवहार, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि विषय समाविष्ट हैं। प्रस्तुत प्रथ में उन्होंने
देवनाथ उपाध्याय - ई. 18 वीं शती। मैथिल ब्राह्मण । प्रायः सभी टीकाकारों का उल्लेख किया है। विज्ञानेश्वर का
पर्वतपुर-निवासी। पिता-रघुनाथ। माता- गुणवती। "उषाहरण" बडे आदर के साथ निर्देश करते हुए भी उन्होंने कुछ स्थानों
नाटक के रचयिता। पर अपना मतभेद भी व्यक्त किया है। इस ग्रंथ में देवणभट्ट देवनाथ ठाकुर - ई. 16 वीं शती। मिथिला के निवासी।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 339
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इनका पूरा घराना ही विद्यावान् था। इन्होंने मीमांसा पर को अर्पित किया तब इन्होंने "बालमार्तण्डविजयम्" नामक अधिकरणकौमुदी नामक ग्रंथ की रचना की है जिसमें मीमांसा नाटक की रचना की। राजा बालमार्तण्ड ने ही त्रावणकोर के
और धर्म के संबंध का अभेद प्रतिपादित किया है। पद्मनाभ-मंदिर का जीर्णोध्दार किया था। देवनाथ तर्कपंचानन- ई. 17 वीं शती। प्रसिद्ध बंगाली देवविजय गणि - तपागच्छ के आचार्य। विजयदान सूरि के नैयायिक। कृतियां- रसिकप्रकाश और काव्यकौमुदी।
प्रशिष्य और रामविजय के शिष्य। कार्यक्षेत्र- गुजरात। रचना देवनारायण पांडे- संस्कृत साहित्य सुषमा का संपादन । (राजापुर "पाण्डवचरित्र" जो देवप्रभसूरिकृत "पाण्डवचरित्र" महाकाव्य (उ.प्र.) के निवासी)।
का संस्कृत में गद्यात्मक रूपान्तर है (18 सर्ग)। जैन-रामायण देवपाल - कठ मन्त्रपाठ के भाष्यकार। यह स्वतंत्र ग्रंथ नहीं (वि.सं. 1652) और कुछ अन्य रचनाएं भी इनके नाम पर
अपि तु कठ-गृह्यभाष्य के अंतर्गत ही उपलब्ध है। इससे प्राप्त हुई हैं। विद्वानों का तर्क है कि देवपाल के पिता हरिपाल ने कठ देवविमल गणि - एक जैन महाकवि। समय- ई. 16 वीं मन्त्रपाठ पर भाष्यरचना की थी और पुत्र देवपाल ने उसे शती। इन्होंने "हीर-सौभाग्य" नामक महाकाव्य की रचना की स्वकृत गृह्यभाष्य में संमिलित किया। वेद-मंत्रों का यज्ञपरक है जिसमें हीरविजय सूरि का चरित वर्णित है। इस महाकाव्य तथा अध्यात्मपरक अर्थ देने में देवपाल की श्रेष्ठता अभ्यासकों के 17 सर्ग हैं। सूरिजी ने मुगल सम्राट अकबर को जैन को प्रतीत होती है।
धर्म का उपदेश दिया था। देवप्रभ सूरि - एक जैन कवि। ई. 13 वीं शती।। देवशंकर पुरोहित - ई. 18 वीं शती। राठोड ग्राम (गुजरात) मलधारी गच्छ के आचार्य। रचना- पाण्डवचरित नामक (18 के निवासी। रचना - अलंकारमंजूषा जिसमें बडे माधवराव सर्ग) वीररसप्रधान महाकाव्य । ग्रंथरचना मुनिचन्द्रसूरि के शिष्य तथा रघुनाथराव इन दो पेशवाओं का चरित्र-वर्णन करते हुए देवानन्द सूरि के अनुरोध पर हुई है। भाषा-शैलीगत प्रौढता अलंकारों के उदाहरण दिये हैं। पेशवाओं पर लिखी गई यही
और कवित्व-कला का अभाव । कथानक का आधार षष्ठांगोपनिषद् एकमात्र संस्कृत रचना है। तथा त्रिषष्टिशलाका पुरुषचरित है।
देवसूरि- सन्- 1086-1169। श्वेतांबर पंथ के एक जैन देवराज यज्वा- ई. 14 वीं शती। समग्र वैदिक निघण्टु के आचार्य, मुनि चन्द्रसूरि के शिष्य। इन्होंने न्यायशास्त्र पर भाष्यकार। पिता-यज्ञेश्वर आर्य और पितामह- देवराज यज्वा । "प्रमाणनय-तत्त्वालोकालंकार" नामक ग्रंथ की रचना की और गोत्र-अत्रि । निवास-स्थान रंगेशपुरी। देवराज यज्वा ने नैघण्टुक उस पर स्वयं ही "स्याद्वादरत्नाकर' नामक टीका भी लिखी। का निर्वचन ही अधिक विस्तार से किया है। इस ग्रंथ का जैन न्याय में इन ग्रंथों को प्रमाणभूत माना जाता है। गुजराथ मूल आधार आचार्य स्कन्दस्वामी का ऋग्वेदभाष्य और स्कन्दमहेश्वर के अनहिलपट्टणस्थित जयसिंहदेव के दरबार में एक बार की निरुक्तभाष्य-टीका है। फिर भी स्कंदभाष्य पर विशेष बल दिगंबरपंथी कुमुदाचार्य से इनका शास्त्रार्थ हुआ। वाद का है। "स्कंद- स्वामिव्यतिरिक्त भाष्यकार" इस तरह निर्देश देवराज विषय था- स्त्रियां निर्वाण पद को प्राप्त कर सकती हैं या यज्वा के भाष्य में मिलता है किन्तु यह कौन भाष्यकार है नहीं। इस वाद में यह सिद्ध करते हुए कि स्त्रियां भी यह ठीक समझ में नहीं आता।
निर्वाण-पद प्राप्त कर सकती हैं, देवसूरि ने कुमुदाचार्य को देवराज यज्वा सायणाचार्य के वचन उद्धृत नहीं करते। पराजित किया। इन्होंने सन् 1147 में फलवर्धिग्राम में एक इससे वे सायण के पूर्ववर्ती हैं यह बात सूचित होती है। चेत्य का निर्माण कराया और अरसाणा में इन्होंने नेमिनाथ की आचार्य देवराज यज्वा ने दुर्गाचार्य को कहीं भी उद्धृत नहीं मूर्ति स्थापित की। किया यह आश्चर्यजनक है किन्तु दुर्गाचार्य की प्राचीनता देवसेन - समय ई. 10 वीं शताब्दी। गुरु नाम- विमलगणि। प्रमाणान्तर से स्पष्ट है। देवराज के निर्वचन में स्वतंत्र रूप रचनाएं - दर्शनसार, भावसंग्रह, आलापपध्दति, लघुनयचक्र, बहुत कम लिखा गया है। वहां पुरातन प्रमाणों का संग्रह आराधनासार और तत्वसार । सुलोचनाचरित्र के रचयिता देवसेन अत्यधिक है।
से भिन्न (देवसेन नाम के अनेक जैन आचार्य प्रसिद्ध हैं) देवराज सूरि - उपाधि- "अभिनव कालिदास"। केरल के देवस्वामी - ई. 11 वीं शती। विमलबोध के ग्रंथ राजा बालमार्तण्ड वर्मा (1729 से 1758 ई. तक) तथा उनके विदित होता है कि इन्होंने ऋग्वेद पर भाष्य लिखा था। भागिनेय रामवर्मा (1758-1798) के प्रमुख सभापण्डित। आश्वालायन श्रौतसूत्र पर भी इनका भाष्य है। भट्टोजी लिखित मद्रास के तिन्नेवेल्ली जनपद में पट्टमडाड ग्राम के निवासी। चतुर्विंशतिमत नामक ग्रंथ की टीका में देवस्वामी के मत का पिता- शेषाद्रि। सन् 1765 ई. में जिन बारह ब्राह्मणों को उल्लेख किया गया है। प्राप्त उल्लेख के अनुसार देवस्वामी अग्रहार प्रदान किया गया उनमें देवराज प्रमुख थे। सन् 1750 ने शाबरभाष्य पर भी व्याख्या लिखी है। महाभारत की में जब मार्तण्ड ने दिग्विजय के पश्चात् अपना राज्य पद्मनाभ विमलबोधनात्मक टीका में पूर्ववर्ती टीकाकार के नाते देवस्वामी
340/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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का निर्देश होता है। ये सभी भिन्न व्यक्ति हैं या अभिन्न, यह देवचन्द्र सुरि। ग्रंथ - चन्द्रप्रभचरित - वि. सं. 1260। इसमें गवेषणा का विषय है।
वज्रायुध नप की कथा विस्तार से वर्णित है जिसका उत्तरभाग देवाचार्य - निबार्क संप्रदाय में प्रसिद्ध कृपाचार्य के शिष्य । नाटक शैली में लिखा गया है। इनकी सर्वश्रेष्ठ रचना है “सिद्धान्तजाह्नवी" जो ब्रह्मसूत्र का देवेन्द्र भट - ई. 14-15 शती। रचना - संगीतमुक्तावली। विस्तृत समीक्षात्मक भाष्य है। इस ग्रंथ में निंबार्क से 7 वीं
देवेन्द्रकीर्ति - ई. 16 वीं शती। कारंजा के बलात्कारगण के पीढी में स्थित पुरुषोत्तमाचार्य द्वारा प्रणीत "वेदान्त-रत्नमंजूषा"
आचार्य। ग्रंथ - कल्याणमंदिरपूजा और विषापहारपूजा । का उल्लेख है। अतः ये अवांतरकालीन ग्रंथकार हैं। गुरुपरंपरा
देवेन्द्रनाथ चट्टोपाध्याय - रचना - वंगवीरः प्रतापादित्यः नामक में क्रमांक 16 पर। गुर्जराधिप राजा कुमारपाल के अभिषेक
ऐतिहासिक उपन्यास। काल में ये वर्तमान माने जाते हैं। आपके समय तक एक ही शिष्यपरंपरा थी। किन्तु पश्चात् दो शाखाएं हुई। प्रधान
देवेन्द्र वंद्योपाध्याय - ई. 19-20 वीं शती। कृति - पाणिनिप्रभा
नामक व्याकरण विषयक ग्रंथ। शाखा में सुंदर भट्टाचार्य तथा दूसरी शाखा में व्रज-भूषण देवाचार्य प्रसिद्ध हुए।
देवेश्वर या देवेन्द्र - वाग्भट के पत्र । एस. के. डे. का कथन
है कि ये वाग्भट दोनों साहित्यशास्त्रज्ञों से भिन्न हैं। ये मालवा देवातिथि - ऋग्वेद के आठवे मंडल का चौथा सूक्त इनके
नरेश के महामात्य थे। एक श्लोक में इन्होंने हम्मीर महीनाम पर है। इस सूक्त में इंद्र-सूर्यस्तुति है। तुर्वश राजा के
महेन्द्र की प्रशंसा की है। इस चौहान नप का समय ई. 13 यज्ञ में दान में सौ घोडे प्राप्त हुए ऐसा उनका कथन है।
वीं शती है। रचना - कविकल्पक्तता। समय ई. स. 13001 सूर्यस्तुति में उन्होंने एक निराले ही प्रकार की प्रार्थना सूर्य से
देशमुख, चिंतामणि द्वारकानाथ - (पद्मविभूषण) की है जो निम्नांकित है -
जन्म ई. 18961 जन्मस्थान- कोंकण में रोहे नामक गाव । सं नः शिशीहि भुजयोरिव क्षुरं रास्व रायो विमोचन।
मुंबई और केंब्रिज में शिक्षा। बरिस्टर तथा आई.सी.एस. की त्वे तन्नः सुवेदमुस्त्रियं वसु यं त्वं हिनोषि मर्त्यम् ।। (ऋ. 8,4,16) उपाधि प्राप्त होने पर सन 1910 से अनेक उच्च अधिकारपद __ अर्थ - दोनों हाथों में पकड़ कर जिस प्रकार छुरी को ___पर विभूषित किए। 1950 में स्वतंत्र भारत के अर्थमंत्री बने घिसा जाता है, उसी प्रकार (संकटों के पत्थर पर घिस कर) और संयुक्त महाराष्ट्र राज्य की स्थापना के विषय में मतभेद हम लोगों को तीक्ष्ण बनाइये। हे दुःखविमोचन, हमें अक्षय के कारण मंत्रीपद का त्याग किया। अनेक जागतिक संस्थाओं संपत्ति प्रदान कीजिये। जो उषःकाल की कांति के समान के पदाधिकारी रहने का सम्मान श्री. देशमुख के समान प्रायः तेजस्वी हैं और (जिसे आप मर्त्य मानव की ओर सहज ही अन्य किसी को नहीं मिला। कलकत्ता, कर्नाटक, अन्नमलै, बिखेर देते हैं), वे आपके पास के गउओं के झुंड आदि इलाहाबाद, नागपुर और पंजाब इन विश्वविद्यालयों द्वारा आपको अक्षय धन हमें प्राप्त हो।
डाक्टर आफ सायन्स एवं डाक्टर आफ लिटरेचर जैसी श्रेष्ठतम देवापि - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 98 वां सूक्त देवापि उपाधियां असामान्य विद्वत्ता के कारण दी गईं। डा. देशमुख के नाम पर है। ये कुरुकुलोत्पन्न एक राजपुत्र तथा राजा शंतनु की संस्कृत साहित्य में अत्यधिक रुचि प्रारंभ से ही रही। के ज्येष्ठ बंधु थे। कुष्ठरोग से पीडित होने के कारण, राजगद्दी 'गांधीसूक्तिमुक्तावली' नामक महात्मा गांधी के वचनों का पर न बैठते हुए तपस्या हेतु इन्होंने वन की ओर प्रस्थान पद्यानुवाद तथा संस्कृतकाव्यमालिका (अनेक स्फुट काव्यों संग्रह) किया था। इसी लिये छोटे भाई शंतनु राजगद्दी पर आए इन ग्रंथों के अतिरिक्त मेघदूत का मराठी भाषा में समश्लोकी किन्तु बड़े भाई के जीवित रहते हुए छोटे भाई के राजा बनने अनुवाद आपने किया है जो मराठी के अनेक अनुवादों में के कारण देवताओं ने राज्य में पर्जन्यवृष्टि बंद कर दी। तब सर्वोत्कृष्ट माना गया है। भगवद्गीता पर आपका एक निबंध शंतनु ने देवापि को राजा बनने हेतु सविनय आमंत्रित किया। __ ग्रंथ और अमरकोश पर व्याख्याग्रंथ अंग्रेजी में प्रकाशित हुए इस पर देवापि ने शंतनु से कहा से कहा "तुम यज्ञ करो हैं। (प्रकाशक उप्पल पब्लिशिंग हाऊस नई दिल्ली-2) । मृत्यु
और मै तुम्हारा पुरोहित बनूंगा, इससे पर्जन्यवृष्टि होगी।" सन 1980 में हैदराबाद में। इंडिया इंटरनेशनल एवं अन्य तदनुसार शंतनु ने यज्ञ किया और उसके फलस्वरूप सर्वत्र अनेकविध सांस्कृतिक संस्थाओं की संस्थापना आपने की है। पर्जन्यवृष्टि हुई। उपरोक्त सूक्त की रचना देवापि ने इसी यज्ञ आपकी धर्मपत्नी श्रीमती दुर्गाबाई देशमुख एक विदुषी, के समय की थी। चरित्र से देवापि क्षत्रिय थे ऐसा प्रतीत स्वातंत्र्यसैनिक तथा प्रसिद्ध सार्वजनिक कार्यकर्ता होने के कारण होता है, फिर भी उनके द्वारा पौरोहित्य किये जाने की कथा भारत शासन द्वारा "पद्मविभूषण उपाधि' से सम्मानित थीं। है। (ऋ. 10,98,11)। थोड़े बहुत अंतर से देवापि के विषय
दैवज्ञ सूर्य - "नृसिंहचंपू' नामक काव्य के प्रणेता। रचना में यही जानकारी पुराणवाङ्मय में भी मिलती है।
काल ई. 16 वीं शती का मध्य भाग। इन्होंने नृसिंह चंपू में देवेन्द्र . नागेन्द्रगच्छीय विजयसिंह सरि के शिष्य देवेन्द्र या स्वयं का परिचय दिया है। (5-76-78)। तदनसार देवज सर्य
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 341
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भारद्वाज कुलोदभव नागनाथ के पौत्र व ज्ञानराज के पुत्र थे। द्विजेन्द्रलाल पुरकायस्थ (प्रा.) - रचना अलकामिलनम्। इनका जन्म गोदावरी तटस्थ वार्धा नामक नगर में हुआ था। विषय- मेघदूत का पूरक खण्ड काव्य, यक्षपत्नी का विरह इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है जिनमें "लीलावती' व तथा मिलन। 113 श्लोक। अन्य रचना अद्वैतामृतसारः । "बीजगणित" की टीकाएं भी हैं। नृसिंहचंपू का प्रकाशन कृष्ण द्विवेदगङ्ग - इन्होंने माध्यन्दिन आरण्यक पर मुख्यार्थप्रकाशिका ब्रदर्स द्वारा जालंधर से हुआ है।
नामक व्याख्या लिखी है। वेबर ने उसका संक्षेप अपने शतपथ दोडय्य - आत्रेय गोत्रीय विप्रोत्तम जैन धर्मावलम्बी। पिरियपट्टण ब्राह्मण के संस्करण के अन्त में छापा है। के निवासी। करणिकतिलक देवप्प के पुत्र। गुरु नाम- पण्डित धनंजय (नैघण्टुक) - निघण्टु के प्रणेता होने के कारण मुनि। समय ई. 16 वीं शती। ग्रंथ - भुजबलिचरितम् । इन्हें नैघण्टुक धनंजय भी कहा गया है। पिता- वसुदेव । कालिदास से प्रभावित।
माता- श्रीदेवी। गुरु- दशरथ। विषापहार स्तोत्र के माध्यम से द्या द्विवेद - नीतिमंजरी (अथवा वेदमंजरी) नामक एक अपने पुत्र को सर्प विष से मुक्त किया। समय लगभग ई. नीतिपरक पद्य ग्रंथ के रचयिता। आनंदपुर (गुजरात) के 8 वीं शती। रचनाएं- धनंजयनिघण्टु या अनेकार्थ निवासी तथा शुक्ल यजुर्वेदीय ब्राह्मण। आपने इस ग्रंथ की
नाममाला (246 पद्यों का शब्दकोश), विषापहारस्तात्र (39 रचना, सन 1494 में की। चतुर्विध पुरुषार्थों के संदर्भ में
पद्य)। इस पर अनेक टोकाएं लिखी गई हैं। राघव-पाण्डवीय ऋग्वेद के संदेश को स्पष्ट करने वाला यह ग्रंथ नीतिपरक
नामक द्विसन्धान महाकाव्य सन्धान शैली का सर्वप्रथम महाकाव्य संस्कृत साहित्य में सम्मानित है।
(सर्ग 18)। इसमें आद्यन्त राम और कृष्ण चरितों का निर्वाह, ___ इस ग्रंथ पर स्वयं द्या द्विवेद ने ही संस्कृत में टीका भी
प्रत्येक श्लोक के दो दो अर्थों द्वारा किया गया है। इस लिखी है। इस ग्रंथ में वैदिक साहित्य की नानाविध कथाओं
महाकाव्य की गणना जैनियों के "अपश्चिम रत्नत्रय' में की का परिचय प्राप्त होने के साथ ही उनके नैतिक मूल्यों का
जाती है। धनंजय की इस द्वयर्थी काव्यशैली का अनुकरण दर्शन भी होता है।
आगे के अनेक कवियों ने किया है। द्रविडाचार्य - इन्होंने छांदोग्य उपनिषद् पर बृहद् भाष्य लिखा
धनंजय - "दशरूपक" नामक सुप्रसिद्ध नाट्यशास्त्रीय ग्रंथ है। बृहदारण्यक उपनिषद् पर भी इनका भाष्य होने के उल्लेख
के प्रणेता। समय- 10 वीं सदी का अंतिम चरण। पितामिलते हैं। शंकराचार्य ने इन्हें आगमविद् व संप्रदायविद् कह
विष्णु। भ्राता- धनिक। "दशरूपक" का प्रणयन परमारवंशी कर गौरवान्वित किया है। शंकराचार्यजी ने इनके मतों का
राजा मुंज (वाक्पतिराज द्वितीय) के दरबार में हुआ था। मुंज कहीं पर भी खंडन नहीं किया है। रामानुज संप्रदाय के कतिपय
का शासनकाल 974 ई. से 994 ई. तक है। स्वयं धनंजय ग्रंथों में द्रविडाचार्य नामक एक प्राचीन आचार्य का उल्लेख
ने भी इस तथ्य का स्पष्टीकरण अपने "दशरूपक' नामक मिलता है। कुछ विद्वानों के मतानुसार शंकराचार्यजी द्वारा
ग्रंथ में (4-86) किया है। गौरवान्वित द्रविडाचार्य और ये द्रविडाचार्य भिन्न हैं। कहते हैं
धनंजय व उनके भ्राता धनिक दोनों ही ध्वनि-विरोधी कि इन दूसरे द्रविडाचार्य ने, पांचरात्र सिद्धान्त का अवलंब
आचार्य हैं। ये रस को व्यंग न मानकर भाव्य मानते हैं। करते हुए तमिल भाषा में कुछ ग्रंथों की रचना की। अर्थात् इनके मतानुसार रस व काव्य का संबंध भाव्यभावक
का है। "न रसादीनां काव्येन सह व्यंगव्यंजक भावः किं तर्हि द्रोणसूरि - पाटनसंघ के प्रमुख पदाधिकारी।
भाव्यभावकसंबंधः । काव्यं हि भावक भाव्या रसादयः” (अवलोक समय ई. 11-12 वीं शती। ग्रंथ- ओघनियुक्ति और उसके टीका, दशरूपक (4-30)। लघुभाष्य पर वृत्ति । प्राकृत और संस्कृत उद्धरण भी हैं। आपने
__इन्होंने शांतरस को नाटक के लिये अनुपयुक्त माना है क्यों अभयदेव सूरिकृत टीकाओं का संशोधन भी किया है।
कि शम की अवस्था में व्यक्ति की लौकिक क्रियाएं लुप्त हो द्वारकानाथ - ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध। गोविन्दवल्लभ जाती हैं। अतः उसका अभिनय संभव नहीं है। इनकी यह प्रकरण के रचयिता।
भी मान्यता है कि रस का अनुभव दर्शक या सामाजिक को द्विजेंद्रनाथ शास्त्री - बीसवीं शताब्दी के आर्यसमाजी लेखक होता है। अनुकार्य को नहीं (अ. टी. 4-38) पद्मगुप्त,
और महाकवि। इनके द्वारा रचित ग्रंथ हैं : यजुर्वेदभाष्यम्, ____ धनपाल और हलायुध इनके मित्र थे। ऋग्वेदादिभाष्य भूमिका प्रकाशः, वेदान्तत्त्वालोचनम्, संस्कृतसाहित्य धनपति सूरि - समय लगभग ई. 1725 ई. एक विद्वान -विमर्शः एवं स्वराज्यविजय (महाकाव्य)। इसका रचनाकाल वैष्णव व्याख्याकार। श्रीमद्भागवत की रास-पंचाध्यायी एवं 1955 ई. है। "स्वराज्यविजय" महाकाव्य की रचना 1960 भ्रमरगीत (10-47) की भागवतगूढार्थदीपिका नामक टीका ई. में इन्होंने पूर्ण की। वृंदावन के आर्यसमाजी गुरुकुल के तथा भगवद्गीता की भाष्योत्कर्ष-दीपिका नामक टीका के आप कुलपति थे। निवास स्थान मेरठ।
प्रणेता। गुरु- बालगोपाल तीर्थ तथा पिता- रामकुमार। आपने
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अपनी भगवद्गीता की टीका का रचनाकाल 1864 वि. सं. (1707 ई.) स्वयं ही दिया है।
श्रीधर स्वामी के समान ये भी रास-पंचाध्यायी को निवृत्ति मार्ग का उपदेश देने वाली मानते हैं। इनकी भाष्योत्कर्षदीपिका आचार्य शंकर के गीता भाष्य के उत्कर्ष को प्रदर्शित करने वाली है। किंतु अद्वैत के आचार्यप्रवर मधुसूदन सरस्वती के अर्थ पर आक्षेप करने से भी ये पराङ्मुख नहीं होते। इनकी भागवत । गूढार्थदीपिका, “अष्टटीका भागवत" के संस्करण में प्रकाशित हो चुकी है। धनपाल - ई. 10 वीं शती। मेरुतुंगाचार्य के प्रबंधचिंतामणि नामक ग्रंथ में धनपाल का चरित्र आया है। संकाश्य गोत्र के ब्राह्मण सर्वदेव आपके पिता थे। प्रारंभ में धनपाल जैन धर्म के विरोधी थे, किन्तु बाद में जैनधर्म का अध्ययन कर वे जैन बन गए। आप भोजराजा के सभा में पंडित थे। धनपाल के ग्रंथों के नाम है : पाईलच्छीनाममाला, तिलकमंजरी और ऋषपंचाशिका। पाईलच्छीनाममाला है उनका प्राकृतकोश, जो प्राकृत का एकमात्र कोश है। धनपाल का संस्कृत ग्रंथ है तिलकमंजरी। यह ग्रंथ राजा भोज को अत्यंत प्रिय था। धनपाल की भाषा का गौरव करते हुए पंडितों का प्रश्नार्थक कथन है कि धनपाल के सरस वचन और मलयगिरि के चंदन से कौन संतुष्ट न होगा। धनेश्वर या धनेश - महाभाष्य के टीकाकार। वोपदेव के गुरु । टीका- चिन्तामणि नामक व्याकरण विषयक ग्रंथ और अन्य रचना "प्रक्रिया-रत्नमणि' उपलब्ध। समय वि. की 13 वीं शती का उत्तरार्ध । धनेश्वर सूरि - चन्द्रगच्छ के प्रसिद्ध जैन आचार्य। समय 610 ई.। “शत्रुजय" नामक महाकाव्य के रचयिता। इस महाकाव्य में इन्होंने शत्रुजयतीर्थ के उद्धारक 18 राजाओं की प्रसिद्ध दंतकथाओं का वर्णन 14 सर्गों में किया है। इसमें बौद्ध शास्त्रार्थ का भी उल्लेख है। तत्कालीन शासक शिलादित्य थे। डा. हीरालाल जैन ने इनका समय 7-8 वीं शती माना है। धन्वन्तरि - इन्हें आद्य धन्वंतरि का ही अवतार माना गया है। पुराणांतर्गत वंशावलि के अनुसार इनका जन्म चंद्रवंशी राजकुल में हुआ था। "हरिवंश" में सुहोत्र, काशिक, दीर्घतपा, धन्वंतरि के क्रम से इनकी वंश परंपरा दी हुई है। (1,32,18,22)। कुछ, पुराणों में इन्हें दीर्घतप का पौत्र तथा धन्वा का पुत्र माना गया है।
धन्वंतरि को आयुर्वेद का प्रवर्तक माना जाता है। इन्होंने भारद्वाज से आयुर्वेद का ज्ञान प्राप्त किया, उसका अष्टांगों में विभाजन किया और वह ज्ञान अपने अनेक शिष्यों को प्रदान किया। पुराणों ने इन्हें विद्वान, सर्वरोगप्रणाशन, महाप्राज्ञ, वाविशारद, राजर्षि आदि विशेषणों से गौरवान्वित किया है। इनके नाम पर चिकित्सादर्शन, चिकित्साकौमुदी, योगचिंतामणि,
सन्निपातकलिका, गुटिकाधिकार, धातुकल्प, अजीर्णामृतमंजरी, रोगनिदान, वैद्यचिंतामणि, विद्याप्रकाशचिकित्सा, धन्वंतरिनिघंटु, वैद्यभास्करोदय और चिकित्सासारसंग्रह नामक तेरह ग्रंथ हैं। उनमें से कुछ ग्रंथ उपलब्ध हो चुके हैं। इनके प्रपौत्र काशीराज दिवोदास को भी "धन्वन्तरि" का बिरुद प्राप्त हुआ था। धरणीदास - ई. 11 वीं शती। बंगाल के निवासी। अनेकार्थ संग्रह (अपरनाम धरणीकोश) के कर्ता। धर्मकीर्ति (आचार्य) - ई. 7 वीं शती। एक बौद्ध नैयायिक। संभ्रांत ब्राह्मणकुल में जन्म। मूलतः ये आंध्रप्रदेश के तिरुमलै के निवासी थे। प्रारंभ में इन्होंने वैदिक परंपरा के ग्रंथों का उत्तम अध्ययन किया था, किन्तु बौद्ध पंडितों के संपर्क में आने के बाद उन्होंने बौद्ध धर्म स्वीकार किया। न्यायशास्त्र में विशेष अभिरुचि होने के कारण इन्होंने सुप्रसिद्ध बौद्ध नैयायिक दिङ्नाग के शिष्य ईश्वरसेन के पास बौद्धन्याय का अध्ययन किया। पश्चात् वे नालंदा महाविहार पहुंचे और वहां पर उन्होंने संघस्थविर विज्ञानवादी आचार्य धर्मपाल का शिष्यत्व स्वीकार किया। ब्राह्मण दर्शनों का ज्ञान कराने वाले कुमारिल इनके प्रथम गुरु थे किन्तु कुमारिल और धर्मकीर्ति ने एक दूसरे के मतों का खंडन किया है।
धर्मकीर्ति ने ब्राह्मण तार्किकों का खंडन करने हेतु अनेक ग्रंथ लिखे। "प्रमाणवार्तिक' उनका सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ है। इसके अतिरिक्त न्यायबिंदु, हेतुबिंदु, प्रमाणविनिश्चय, वादन्याय, संबंधपरीक्षा और समान्तरसिद्धि नामक अन्य 6 ग्रंथ भी उनके नाम पर हैं। इनमें से प्रमाणवर्तिक, न्यायबिंदु एवं वादन्याय नामक केवल तीन ग्रंथ ही मूल संस्कृत रूप में उपलब्ध हैं। शेष ग्रंथों के तिब्बती अनुवाद प्राप्त हुए हैं। "न्यायमंजरी"कार जयंत भट्ट (1000 ई.) जैसे विरोधकों ने भी आचार्य धर्मकार्ति की प्रशंसा की है।
बौद्ध न्याय परंपरा में दिङ्नाग के पश्चात् धर्मकीर्ति का ही स्थान माना जाता है। इत्सिंग ने अपने यात्रा वर्णन में इनका उल्लेख किया है। महापंडित डा. राहुल सांकृत्यायन ने तिब्बत से इनके ग्रंथ खोज निकाले हैं। उसके पूर्व ब्राह्मण नैयायिकों के ग्रंथों में हुए नामाल्लेख के अतिरिक्त इनके बारे में कुछ भी जानकारी उपलब्ध नहीं थी। धर्मकीर्ति - न्यायबिन्दुकार धर्मकीर्ति से भिन्न बौद्ध पंडित । समय वि. सं. 1140 के लगभग । रचना- रूपावतार, प्रक्रियानुसारी ग्रन्थों में सबसे प्राचीन।। धर्मकीर्ति - ई. 17 वीं शती। धर्मकीर्ति नाम के अनेक विद्वान भट्टारक परम्परा में हुए। उनमें ललितकीर्ति के शिष्य जैन मत के बलात्कारगण जेरहट शाखा के आचार्य धर्मकीर्ति की दो संस्कृत रचनाएं मिलती हैं - पदमपुराण और हरिवंशपुराण । धर्मतापस - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 114 वें सूक्त के रचयिता। इसमें उन्होंने विश्वेदेव की स्तुति की है।
संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/343
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धर्मदास - ई. 11 वीं शती के पूर्व। बंगाल निवासी। “विदग्धमुख-मण्डन" नामक काव्य के प्रणेता। धर्मदास - चन्द्र व्याकरण पर अनेक वृत्तियां लिखी किंतु सभी अप्राप्य। केवल एक वृत्ति जर्मनी में रोमन लिपिबद्ध है। उस पर धर्मदास रचयिता होने का उल्लेख है पर युधिष्ठिर मीमांसकजी को संदेह है कि वह चन्द्रगोमी द्वारा रचित होगी। धर्मदेव गोस्वामी - ई. 18 वीं शती का उत्तरार्ध । केहती सत्र (असम) के निवासी। कृतियां-नरकासुर विजय काव्य, धर्मोदय काव्य तथा धर्मोदय नाटक। धर्मधर - ई. 16 वीं शती। पिता- यशपाल । माता- हीरादेवी। गोलाराडान्वयी। इनके विद्याधर और देवधर नामक दो भाई थे। पत्नी- नन्दिका। पुत्र- पराशर और मनसुख। सरस्वतीगच्छ के अनुयायी। गुरु- भट्टारक पद्मनन्दी योगी। रचनाएं- श्रीपालचरित और नागकुमारचरित (ई. 1454)। चौहानवंशी राजा माधवचन्द्र द्वारा सम्मानित। नल्हू साहू की प्रेरणा से नागकुमारचरित की रचना की। धर्मपाल - ई. 7 वीं शती के एक बौद्ध नैयायिक। तमिलनाडु के कांचीपुरम् में जन्म। आठ भाइयों में सबसे बडे प्रमुख मंत्री के ज्येष्ठ पुत्र। दिङ्नाग के परवर्ती। किशोरावस्था में ही संसार से विरक्त हो कर धर्मपाल ने गृहत्याग किया। घूमते फिरते नालंदा विद्यापीठ में रह कर आपने बौद्ध धर्म का अध्ययन किया। फिर आप वहीं पर प्रधानाचार्य बने। उस विद्यापीठ ने "बोधिसत्त्वविद्' पदवी देकर आपको गौरवान्वित किया। सुप्रसिद्ध बौद्ध पंडित शून्यवाद के व्याख्याता धर्मकीर्ति तथा युआनच्चांग के गुरु शीलभद्र आपके ही शिष्य थे। चीनी यात्री युआन च्वांग और इत्सिंग ने धर्मपाल का उल्लेख किया है। ___धर्मपाल ने पाणिनि के व्याकरण पर एक वृत्ति लिखी है जिसका नाम है वेदवृत्ति। इसके अतिरिक्त आपके बौद्ध धर्म विषयक संस्कृत ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। वे है :- आलंबन-प्रत्यवधान शास्त्रव्याख्या, विज्ञाप्तिमात्रतासिद्धि-व्याख्या, शतशास्त्रव्याख्या आदि। एक ग्रंथ का चीनी भाषा में अनुवाद हो चुका है ।ऐसा कहा जाता है कि कौशांबी में अनेक ब्राह्मणों को शास्त्रार्थ में आपने पराभूत किया। धर्मपाल बौद्धदर्शन के योगाचार मतानुयायी दार्शनिक थे। धर्मभूषण (अभिनव) - अभिनव धर्मभूषण, वर्धमान भट्टारक के शिष्य थे। विजयनगर के राजा देवराय प्रथम द्वारा सम्मानित । विजयनगर के निवासी। समय ई. 13 वीं शती का उत्तरार्ध । रचना- न्यायदीपिका (तीन परिच्छेद)। इसमें प्रमाण, प्रमाण के भेद और परोक्ष प्रमाण का विशद विवेचन किया गया है। धर्मराज कवि - "वेंकटेशचंपू' के प्रणेता। निवासस्थान तंजौर। ये ई. 17 वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे। इनकी काव्यकृति अभी तक अप्रकाशित है। उसका विवरण तंजौर केटलाग में प्राप्त होता है।
धर्मराजाध्वरींद्र - एक प्राचीन नैयायिक। दक्षिण भारत स्थित बोलागुली के निवासी। वेंकटनाथ इनके गुरु थे। इन्हनि तत्त्वचिंतामणिग्रंथ पर पहले की दस टीकाओं का खंडन करते हुए एक नई टीका लिखी। इनका प्रमुख ग्रंथ है- वेदांतपरिभाषा। वेदांतविषयक विचारों को समझने की दष्टि से यह ग्रंथ अत्यंत उपयोगी माना जाता है। धर्मसूरि - ई. 15 वीं शती। आंध्र में गुंतूर जिले के तेनाली समीपस्थ कठेश्वर गांव के निवासी। जन्म वाराणसी के एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण कुल में। यह घराना अलौकिक बुद्धिमत्ता तथा पांडित्य के लिये प्रसिद्ध था। धर्मसूरि के पितामह धर्मसुधी ने तपस्या द्वारा यह वरदान प्राप्त किया था कि उनके कुल में सात पीढियों तक पांडित्य की परंपरा चलती रहे। उनके तीनों ही पुत्र महापंडित थे। उनसे पर्वतनाथ के सुपुत्र धर्मसूरि का तो चौदह विद्याओं पर प्रभुत्व था। न्यायशास्त्र में वे विशेष रूप से पारंगत थे। धर्मसूरि का "साहित्यरत्नाकर' नामक ग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। दस तरंगों में विभाजित इस ग्रंथ में संपूर्ण काव्यशास्त्र की चर्चा की गई है। इसके अतिरिक्त धर्मसूरि ने कृष्णस्तुति व सूर्यशतक नामक दो स्तोत्रों तथा बालभागवत
और कंसवध एवं नरकासुरविजय नामक दो नाटक भी लिखे हैं। धमोत्तराचार्य - ई. 9 वीं शती। ये कल्याणरक्षित और धर्मकरदत्त के शिष्य थे। ये बौद्धों के सौत्रान्तिक मत के अनुयायी थे। इन्होंने प्रमाणपरीक्षा अपोह नामक प्रकरण तथा परलोकसिद्धि, क्षणभंगसिद्धि और प्रमाणविनिश्चय- टीका नामक ग्रंथों की रचना की। इनके अतिरिक्त इन्होंने धर्मकीर्ति के न्यायबिंदु पर न्यायबिंदुटीका नामक ग्रंथ भी लिखा है। धानुष्कयज्वा (धन्वयज्वा) - ई. 13 वीं शती। एक वैष्णव आचार्य। इन्होंने ऋग्वेद, यजुर्वेद व सामवेद इन तीनों वेदों पर भाष्य लिखे, किन्तु उनमें से अब एक भी उपलब्ध नहीं। वेदाचार्य की सुदर्शनमीमांसा में इनका त्रिवेदी भाष्यकार अथवा त्रयीनिष्ठ वृद्ध कहकर अनेक बार उल्लेख हुआ है। धोयी - ई. 12 वीं शती। "पवनदूत" नामक एक संदेश काव्य तथा "सत्यभामाकृष्णसंवाद" के प्रणेता। इनके कई नाम मिलते हैं यथा धूयि, धोयी व धोयिक। ये बंगाल के राजा लक्ष्मणसेन के दरबारी कवि रहे। श्रीधरदासकृत "सदुक्तिकर्णामृत" में इनके पद्य उद्धृत है, जो कि शक सं. 1127 या 1206 ई. का ग्रंथ है। म. म. हरप्रसाद शास्त्री के अनुसार कविराज धोयी पालधिगधि तथा काश्यप गोत्र के राढीय ब्राह्मण थे। इनके वैद्य जातीय होने का आधार वैद्य वंशावली ग्रंथों में दुहिसेन या धुयिसेन नाम का उल्लिखित होना है। "गीतगोविंद" से ज्ञात होता है कि लक्ष्मणसेन के दरबार में उमापतिधर, शरण, गोवर्धन, धोयी और जयदेव कवि रहे थे। इन्हें "कविराज" उपाधि प्राप्त हुई थी। अपने संदेशकाव्य "पवनदूत में (श्लोक सं. 101 व 103) इन्होंने स्वयं को "कविक्ष्मामृतां में (प्रलोक में 101 din होने को चक्रवर्ती" तथा "कविनरपति" कहा है।
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HEATRE
ध्यानेश नारायण चक्रवर्ती - ई. 20 वीं शती। रवीन्द्रभारती वि.वि. में प्राध्यापक। रवीन्द्रनाथ ठाकुर के नाटकों, गीतों के संस्कृत अनुवाद किये। विश्वेश्वर विद्याभूषण के साथ "दस्युरत्नाकर" नामक नाटक की रचना की। नंदराज शेखर - शैव तत्त्वज्ञान विषयक 18 ग्रंथों के रचयिता। मैसूर के कृष्णराज द्वितीय के सर्वाधिकारी। रचना- संगीतगंगाधरम् नंदकुमार शर्मा - नवद्वीप के नरेशचन्द्र (1639 ईसवी) का समाश्रय प्राप्त। "राधा-मान-तरंगिणी" के रचयिता। नंदपंडित - समय 1595-16301 विनायक पंडित के शुभनाम से प्रसिद्ध एक काशीनिवासी धर्मशास्त्रकार। भारत के विभिन्न भागों के धनिकों की ओर से नंदपंडित को आश्रय प्राप्त था। लोग इन्हें धर्माधिकारी मानते थे। ग्रंथरचना - विद्वन्मनोहरा (पाराशरस्मृति पर टीका), प्रमिताक्षरा व प्रतीताक्षरा (मिताक्षरा पर टीका), श्राद्धकल्पलता, स्मृतिसिंधु (इसकी रचना महेंद्र घराने के मंगो राजा के पुत्र हरिवंश वर्मा के निर्देशानुसार), तत्त्वमुक्तावलि, केशववैजयंती (अथवा वैजयंती), इसमें कर्नाटक स्थित विजयपुर के ब्राह्मण राजवंश की जानकारी है। (यह ग्रंथ कोडप नायक के पुत्र केशव नायक के नाम पर है) नवरात्रप्रदीप, हरिवंशविलास, काशीप्रकाश, तीर्थकल्पलता, शुद्धिचंद्रिका, कालनिर्णयकौतुक, ज्योतिःसारसमुच्चय, स्मार्तसमुच्चय
और दत्तकमीमांसा। नंदलाल विद्याविनोद - सन 1885 ई. में प्रकाशित "गर्वपरिणति" नामक नाटक के लेखक। बंगाल के निवासी। नंदिकेश्वर - "अभिनयदर्पण' नामक नृत्य कला विषयक ग्रंथ के प्रणेता। राजशेखर ने अपनी "काव्यमीमांसा" में काव्य विद्या की उत्पत्ति पर विचार करते हुए काव्यपुरुष के 18 स्नातकों का उल्लेख किया है। उनमें नंदिकेश्वर का भी नाम है। इन्होंने रस विषय पर ग्रंथ लिखा था, ऐसा राजशेखर का मत है । ___"रसाधिकारिकं नंदिकेश्वरः'। बहुत दिनों तक भरत व नंदिकेश्वर को एक ही व्यक्ति माना जाता रहा, किंतु "अभिनय दर्पण" के प्रकाशित हो जाने से यह भ्रम दूर हो गया। नंदिकेश्वर ने अपने ग्रंथ में भरत द्वारा निर्मित "नाट्यशास्त्र" का उल्लेख किया है। इससे यह सिद्ध होता है कि दोनों ही व्यक्ति भिन्न थे और नंदिकेश्वर भरत के परवर्ती थे।
डॉ. मनमोहन घोष ने "अभिनयदर्पण" के आंग्लानुवाद की भूमिका में सिद्ध किया है कि नंदिकेश्वर का समय 5 वीं शताब्दी है, पर अनेक विद्वान इन्हें 12 वीं व 13 वीं शताब्दी के बीच का मानते हैं। नंदिपति - ई. 18 वीं शती का उत्तरार्ध । पुगौली (मिथिला) निवासी। कृतियां- कृष्णकेलिमाला तथा दो अप्राप्त नाटककदम्बकेलिमाला और रुक्मिणीस्वयंवर नंदी - नन्दी अथवा तण्डु या नन्दिकेश्वर नामों को अभिनवगुप्त
ने पर्यायवाचक माना है। अभिनवभारती के चतुर्थ अध्याय में नन्दिमत का उल्लेख है। भरतमुनि के ताण्डव शिक्षक होने की बात तण्डु नाम से ही प्रमाणित हो जाती है। यह ताण्डव नृत्य साक्षात् शिव से नन्दी ने पाया था। वास्तव में तण्डु तथा नन्दी दो भिन्न आचार्य हैं ऐसा वाचस्पति गैरोला का मत है। नन्दी का सुप्रसिद्ध ग्रंथ "अभिनयदर्पण" है जो अत्यंत लोकप्रिय रहा है। नन्दिकेश्वर का "नन्दिभरतोक्तसंकरहस्ताध्याय" नामक हस्तलिखित ग्रंथ अपूर्ण प्राप्त होता है ऐसा श्री शुक्ल का मत है। भरत के नाट्यशास्त्र की पुष्पिका में "नन्दिप्रणीतं संगीतपुस्तकं" के उल्लेख से नन्दि तथा भरत को एक मानने का उपक्रम भी हुआ है। वास्तव में भरत के शिष्यत्व तथा नंदि के महत्त्व का ही यह संकेत है। राजशेखर ने "रूपक-निरूपणीयं भरतः” तथा “रसाधिकारिकं नन्दिकेश्वरः" लिखकर इस तथ्य का समर्थन किया है। वाचस्पति गैरोला ने मनमोहन घोष, रामकृष्ण कवि आदि विद्वानों के एतद्विषयक विचारों का विवेचन करते हुए “अभिनयदर्पण" के कर्ता नन्दिकेश्वर के समय को तेरहवीं शती के आसपास स्थिर किया है। नंदीश्वर - ई. 12 वीं शती। ये केरली' ब्राह्मण थे। मीमांसा पर लिखे गये इनके ग्रंथ का नाम है प्रभाकरविजय। यह ग्रंथ प्रभाकरमत की प्रवेशिका ही है। नंदीश्वर ने अपने इस ग्रंथ में शालिकनाथ व भवनाथ नामक दो पूर्वसूरियों का सादर उल्लेख किया है। इस ग्रंथ के आज केवल इक्कीस प्रकरण ही उपलब्ध हैं। नभःप्रभेदन- ऋग्वेद का 10-112 यह सूक्त आपके नाम पर है। इस सूक्त का विषय है इन्द्र का पराक्रम और सोमरस की स्तुति । नयचन्द्र सूरि- जैनमतीय कृष्णगच्छ के स्थापक जयसिंहसूरि के शिष्य। प्रसिद्ध नैयायिक। समय-ई. 15 वीं शती। ग्रंथ(1) हम्मीर-महाकाव्य (वि. सं. 1448)- ग्वालियर के तोमर नृपति वीरमदेव की प्रेरणा से निर्मित। रणस्तंभपुर के युद्ध (वि.सं. 1357) में अलाउद्दीन खिलजी के साथ वीरतापूर्वक लड़ने वाला योद्धा हम्मीरदेव इस काव्य का नायक है। 14 सों में 1572 पद्य हैं। यह दुःखान्त महाकाव्य है। (2) रम्भामंजरी- प्राकृत भाषीय सदृक, जिसमें संस्कृत का भी प्रयोग है। हम्मीर महाकाव्य की निर्मिति से संबंधित एक घटना, स्वयं कवि के ही शब्दों में इस प्रकार है__एक बार तोमर वीर की राजसभा में किसी ने कहा कि प्राचीन कवियों के समान काव्य करने की शक्ति अब किसी भी कवि में दिखाई नहीं देती। इन शब्दों से तिलमिलाकर तथा उस आव्हान को स्वीकार करते हुए नयचंद्र सूरि ने श्रृंगार, वीर व अद्भुत रसों युक्त चौदह सर्गो का काव्य प्रस्तुत कर वीर हम्मीर के शौर्यशाली जीवन को अमर कर दिया। नयचंद्र के इस काव्य में जैन कवि अमरचंद्र का लालित्य और श्रीहर्ष की वक्रिमा परिलक्षित होती है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 345
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गचा हा
नयसेन- मूलसंघ-सेनान्वय-चन्द्रकवाट अन्वय के विद्वान और विषय-मैसूरनरेश का चरित्र। विशचक्रवर्ती नरेन्द्रसूरि के शिष्य। व्याकरण और न्यायशास्त्र नरसिंहाचार्य स्वामी- जन्म- सन् 1842 में विजयनगर के के विद्वान । चालुक्यवंशीय भुवनैकमल्ल (सन् 1069-1076) समीप सिंहाचलम् में। पिता-वीरराघव। पितामह-नृसिंहार्य । द्वारा प्रशंसित। मल्लिषेण के गुरु जिनसेन के सधर्मा। समय- विजयनगरनरेश आनन्द गजपतिनाथ (1851-1897 ई.) का ई. 11-12 वीं शती। ग्रंथ-कत्रडव्याकरण और धर्मामृत।
समाश्रय प्राप्त। संस्कृत, प्राकृत और कन्नड के विद्वान। ग्रंथ कन्नड में होते
कृतियां- उज्ज्वलानन्द (उपन्यास), अलंकार-सारसंग्रह, हुए भी संस्कृत से अत्यधिक प्रभावित ।
नीतिरहस्य, रामचन्द्रकथामृत, भागवत इ. ग्रंथ तथा चार नरचंद्र उपाध्याय- समय- ई. 14 वीं शताब्दी। इन्होंने नाटक-वासवी-पाराशरीय, राजहंसीय (प्रकरण), गजेन्द्र (व्यायोग) ज्योतिष-शास्त्र-विषयक अनेक ग्रंथों की रचना की थी, किन्तु
तथा शीतसूर्य। कुल ग्यारह ग्रंथों के लेखक। संप्रति "बेडाजातक वृत्ति" व ज्योतिष-प्रकाश" नामक ग्रंथ ही प्राप्त होते है। "बेडाजातक वृत्ति" का रचनाकाल सं. 1324
नरहरि - इनका "यादवराघवीय" नामक काव्य (द्वयर्थी) माघ सुदि 8 रविवार बताया जाता है। "ज्योतिष-प्रकाश"
कृष्ण और राम के चरित्र पर आधारित है। इसके अतिरिक्त फलित ज्योतिष की महत्त्वपूर्ण रचना है जिसमें मुहूर्त व संहिता
रचना :- छन्दःसुन्दरम्। चन्द्रलक्ष्मोत्प्रेक्षा। शृंगारशतकम्। का सुंदर विवेचन है। "बेडाजातक वृत्ति' में लग्न व चंद्रमा.
नरेन्द्रनाथ चौधुरी- ई. 20 वीं शती। काव्य-तत्त्व-समीक्षा के द्वारा सभी फलों पर विचार किया गया है।
नामक ग्रंथ के रचयिता।।
नरेन्द्र सेन- ई. 18 वीं शती। नरेन्द्र सेन नाम के अनेक नरपति महामिश्र- न्यासप्रकाश के लेखक। समय- वि. सं.
विद्वान हुए हैं। उनमें “सिद्धान्तसार" के कर्ता नरेन्द्र सेन और 15 वीं शती (पूर्वार्ध)। इनके अतिरिक्त जिनेन्द्रबुद्धि के न्यास
"प्रमाणप्रमेयकलिका" नामक न्यायविषयक ग्रंथ के लेखक पर पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर और रत्नमति की टीकाएं उल्लिखित हैं।
नरेन्द्रसेन, प्रसिद्ध हैं। उनके गुरु थे छत्रसेन । नरसिंह- श्रीमध्वाचार्य के ऋग्भाष्य पर जयतीर्थकृत टीका-ग्रंथ
"धर्मरत्नाकर" के कर्ता नरेन्द्र, जयसेन के वंशज हैं। ये के विवृतिकार। वे कर्नाटक और महाराष्ट्र की सीमा पर रहते
गुणसेन के शिष्य थे। समय- ई. 18 वीं शताब्दी। थे ऐसा अनुमान, उनके उभयभाषापरिचायक कुछ स्थलों के
रचना-सिद्धान्तसार-संग्रह । तत्त्वार्थसूत्र और अमितगति श्रावकाचार आधार से होता है।
से प्रभावित । नरेन्द्रसेन के नाम से एक प्रतिष्ठा-ग्रंथ भी मिलता है। टी. नरसिंह अय्यंगार- (अपरनाम-कल्किसिंह)। इ. 1867-1935 । बंगलोर में प्राध्यापक। रचनाएं- पुष्पांजलिस्तोत्रम्। नरेन्द्राचार्य- समय- वि. सं. 1110। सारस्वत व्याकरण के पुष्पसेनसमय राज्यारोहणम् (नाटक) एवं तमिलवैष्णवगीतों के प्रवक्ता। इस मूल व्याकरण की प्रक्रिया को सरल करने वाले अनुवाद।
अनुभूतिस्वरूपाचार्य, नरेन्द्राचार्य और नरेन्द्रसेन, एक ही व्यक्ति नरसिंहकवि- अलंकार-शास्त्र के एक आचार्य। इन्होंने । हैं। अनेक व्याकरणों के ज्ञाता। मूल ग्रंथ अप्राप्य। अतः "नंजराज-यशोभूषण" नामक ग्रंथ की रचना, विद्यानाथ कृत उसकी प्रक्रिया को सरल करने वाली नरेन्द्राचार्य की कृति ही "प्रतापरुद्र -यशोभूषण" के अनुकरण पर की है। यह ग्रंथ सारस्वत व्याकरण के नाम से ज्ञात है। इस पर 18 टीकाएं मैसूर राज्य के मंत्री नंजराज की स्तुति में लिखा गया है। लिखी गईं तथा अनेक रूपान्तर किये गए है।। इसका प्रकाशन गायकवाड ओरिएंटल सीरीज ग्रंथ-संख्या 47 नवरंग- जैनसंप्रदायी। 17 वीं शती । रचना- परमहंस-चरितम्। से हो चुका है।
नल्ला दीक्षित - समय- 1684 से 1710 ई.। कौशिक नरसिंह कवि - रचना- शिवनारायणमहोदयम् के लेखक।
गोत्रीय। अपर नाम "भूमिनाथ"। "अभिनव-भोजराज" की नरसिंह कविराज- दाक्षिणात्य वैदिक ब्राह्मण । पिता-नीलकण्ठ।
उपाधि । चोल प्रदेश में कुम्भकोणम् के समीप "कण्डरमाणिक्य" कृति-मधुमती नामक वैद्यकशास्त्रविषयक ग्रंथ।
अग्रहार में जन्म। पिता-बालचंद्र । गुरु-रामभद्र दीक्षित के ही नरसिंह मिश्र- उत्कल प्रदेश में मयूरभंज के निकट केओझर
परिवार से संबध्द। शिष्य-सदाशिव ब्रह्मेन्द्र और रामनाथ के राजा बलभद्र भंज (1764-1782 ई.) के द्वारा सम्मानित ।
मखीन्द्र। अपने “धर्मविजयचंपू' में तंजौर के शासक राजा "शिवनारायण-भंजमहोदय" नाटक के रचियता।
शाहजी की जीवन-गाथा प्रस्तुत की है। अन्य कृतियांनरसिंहाचार्य- ई. 20 वीं शती। यह मद्रास के पण्डित हैं। शृंगारसर्वस्व (भाण), सुभद्रापरिणय, जीवन्मुक्तिकल्याण और इनका “आर्यनैषधम्" नामक काव्य, आर्यावृत्त में "नैषध" चित्तवृत्ति-कल्याण नामक 3 नाटक और अद्वैतमंजरी नामक काव्य का संक्षेप है।
निबंध। प्रथम दो कृतियों की रचना सत्रहवीं शती अंतिम नरसिंहाचार्य एस.- रचना- कृष्णराजेन्द्रयशोविलासचम्पू। चरण में। शेष तीन अठारहवीं शती प्रथम चरण में।
346 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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केरल-निवासी ।
नवकृष्णदासअठारहवी शती । "कलावती - कामरूप" नामक नाटक के रचयिता । नवहस्त रघुनाथ गणेश- समय- 1650-1713 ई. । समर्थ रामदास स्वामी के मित्र । तंजौर के राजा एकोजी (व्यंकोजी) भोसले (जो छत्रपति शिवाजी के सौतेले भाई थे) की पत्नी दीपाबाई के आश्रित होकर रहे। इनका "भोजनकुहल" नामक ग्रंथ भारतीय पाकशास्त्रविषयक एक मत्त्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। अन्य ग्रंथ है- साहित्यकुतूहल, प्रायश्चित्तकुतूहल, जनार्दन महोदधि, धर्ममित्र- महोदधि, काशी-मीमांसा मराठी भाषा में “नरकवर्णन” नामक ग्रंथ की रचना रघुनाथ नवहस्त ने की है । अनन्तदेव इनके गुरु थे। भोजनकुतूहल में एकेक भोज्यपदार्थ के कई प्रकार बताए गए हैं। लेखक महाराष्ट्रीय होने के कारण, महाराष्ट्रीय भोजन पदार्थों का वर्णन अधिक मात्रा में मिला है। दाक्षिणात्य इटली का भी वर्णन "भोजनकुतूहल" में है। नागचन्द्र- अपरनाम - अभिनव पम्प सरस्वती और लक्ष्मी का अनूठा समन्वय स्थल । बीजापुर में विशाल मल्लिनाथ जिन मन्दिर
निर्माता । बीजापुर निवासी। गुरु- वक्रगच्छ के विद्वान् मेघचन्द्र के सहाध्यायी बालचन्द्र । समय- ई. 12 वीं शती । ग्रंथमल्लिनाथपुराण (14 आश्वास) और रामायण | नागचन्द्र- मूलसंघ, देशीवगण, पुस्तकगच्छ के विद्वान् ललितकीर्ति तथा देवचन्द्र मुनीन्द्र के शिष्य कर्नाटकवासी विप्रकुल गोत्र श्रीवत्स । पार्श्वनाथ और गुमराम्बा के पुत्र । समय- ई. 16 वीं शती रचना विषापहारस्तोत्र एकीभावस्तोत्र आदि पर टीकाएं। नागदेव ई. 14 वीं शती पिता मल्लुगितू सारस्वत कुल में उत्पन्न । चिकित्साशास्त्र के जानकार हरदेव द्वारा लिखित अपभ्रंश के मथपापराजड ग्रंथ के आधार पर कवि ने संस्कृत में मदनपराजय नामक रूपक काव्य की रचना की। नागवर्म ( प्रथम ) - नागवर्म नाम के दो जैन कवि हैं। प्रथम नागवर्म बेंगीदेश के बेंगीपुर नगर निवासी कौडिण्य गोत्रीय बेनामय्य ब्राह्मण के पुत्र । माता-पोलकच्वे । गुरुनाम - अजितसेनाचार्य । रक्कसगंगराज ( राचमल्ल के भाई) तथा चामुण्डराय ( ई. 984-999) के दरबारी कवि | योद्धा भी थे। समय- ई. 10-11 वीं शती ग्रंथ छन्दोऽम्बुनिधि तथा कादम्बरी का पद्यानुवाद |
नागवर्म (द्वितीय) - नागवर्म द्वितीय जन्मतः ब्राह्मण थे । पिता दामोदर चालुक्यनरेश जगदेकमल्ल के सेनापति और जन कवि के गुरु कन्नड साहित्य में कविता-गुणोदय" नाम से ख्यातिप्राप्त। समय ई. 12 वीं शताब्दी । ग्रंथ-काव्यावलोकन, कर्नाटक भाषाभूषण और वस्तुकोश कर्नाटक भाषाभूषण संस्कृत में कन्नड़ भाषा का उत्कृष्ट व्याकरण है। इसमें मूल सूत्र और वृत्ति संस्कृत में तथा उदाहरण कन्नड में दिये गए हैं। इसी को आदर्श मान कर भट्टाकलंक द्वितीय (सन 1604) ने कन्नड का शब्दानुशासन नामक संस्कृत व्याकरण लिखा ।
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"वस्तुकोश" कवड में प्रयुक्त होने वाले संस्कृत शब्दों का अर्थ बतलाने वाला पद्यमय निघण्टु या कोश है। "काव्यावलोकन " अलंकार शास्त्र का ग्रंथ है।
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नागार्जुन - बौध्द पंडित । समय-134- से 220 ई. 1 रचना- अर्जुनभरतम् नामक (अंशतः प्राप्त) संगीत विषयक ग्रंथ । नागार्जुन समय 166-196 ई. बौध्द-दर्शन के एक सिद्धांतशून्यवाद के प्रवर्तक तथा उसे दार्शनिक रूप देने वाले उच्च श्रेणी के दार्शनिक इन्होंने बौध्द साहित्य को अनेक ग्रंथ दिये हैं। भारत की अपेक्षा तिब्बत, चीन, मंगोलिया आदि बाह्य देशों में अधिक विख्यात हैं। इनके स्थल-कालादि तथा जीवनचरित्र विषयक तथ्य अज्ञात हैं। इतना निश्चित हुआ है कि ये दार्शनिक नागार्जुन, तान्त्रिक नागार्जुन तथा रासायनिक नागार्जुन से भिन्न हैं। चीनी तथा तिब्बती-परम्परा में ये तीनों एक ही व्यक्ति माने गए हैं। आरोग्यमंजरी, योग- शतक, रसरत्नाकर तथा रसेन्द्रभंग आदि ग्रंथों के रचयिता तथा तान्त्रिक नागार्जुन सर्वथा भिन्न है। लोहशास्त्रविद् तृतीय नागार्जुन कल्पनामात्र है। रासायनिक तांत्रिक तथा लोहशास्त्रविद नागार्जुन ई. पू. 2 या 3 री शती के माने जाते हैं। अतः दार्शनिक बौध्द नागार्जुन, उनसे पश्चात ही है। चीनी व तिब्बती भाषा में इनके 20 ग्रंथों के अनुवाद प्राप्त होते हैं ।
प्रख्यात बौध्द भिक्षु तथा संस्कृत ग्रंथों के चीनी रूपान्तरकार कुमारजीव ने नागार्जुन तथा वसुबन्धु का जीवन-वृत्तान्त लिखा है (चीनी अनुवाद ई. 405)। उससे ज्ञात होता है की नागार्जुन दक्षिण कोसल या प्राचीन विदर्भ के निवासी थे । प्रथम ब्राह्मण थे किन्तु श्रीकृष्ण एवं गणेश की प्रेरणा से बौध्दधर्म स्वीकृत । तारनाथ के अनुसार गुरु-राहुलभद्र । वेद-ब्राह्मण के अध्ययन के उपरान्त बौध्द धर्मग्रंथों का परिशीलन किया। व्हेन सांग के अनुसार ये बौद्ध धर्म के चार सूर्या में से एक थे। समय के संबंध में विद्वानों में एकमत नहीं है।
रचनाएं (1) माध्यमिककारिका (2) दशभूमि विभाषाशास्त्र, (3) महायज्ञापारमिता सूत्रकारिका (4) उपायकौशल्य, (5) प्रमाणविध्वंसन, (6) जिमहय्यावर्तिनी (7) चतुःस्तव, (8) युक्तिषष्टिका (9) शून्यतासप्तति (10) प्रतीत्यसमुत्पादहृदय, (11) महायानविंशक, (12) सहृल्लेख, (13) एक श्लोकशास्त्र (14) प्रशादण्ड, (15) निरोपम्यस्तव और ( 16 ) अचिन्त्यस्तव आदि। इनमें से केवल दो ग्रंथ (क्र. 1 और 6) मूल संस्कृत रूप में प्राप्त होते हैं। नागेश पण्डित समय ई. 20 वीं शती मुंबई के गोकुलदास तेजपाल संस्कृत महाविद्यालय के छात्र व्याकरणाचार्य काव्यतीर्थ शालिग्राम द्विवेदी तथा अच्युत पाध्ये के साथ " भ्रान्त - भारत" नाटक की रचना की।
नागेश भट्ट ( महाबल भट्ट) सन् 1741-1782 आपको महाबल भट्ट भी कहा जाता था। कर्नाटक के कारवार
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 347
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जिले के हलदीपुर नामक गांव में आपका जन्म हुआ। आप वैष्णव सम्प्रदायी सारस्वत ब्राह्मण थे। पिता- वेंकटेशभट्ट | माता - सतीदेवी । धर्मशास्त्र, ज्योतिष, याज्ञिक आदि विषयों में नागेशभट्ट निष्णात थे। यह विद्या उन्होंने अपने पिताश्री से ही प्राप्त की थी।
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नागेशभट्ट ने धर्मशास्त्र तथा ज्योतिष शास्त्र पर 6 बड़े-बड़े ग्रंथ लिखे। इनके स्मृत्यर्थमुक्तावली, तांत्रिकमुक्तावली और आगम नामक तीन ग्रंथ धर्मशास्त्र विषयक है तथा आयतंत्र आर्याकौतुक और महाबलिसिद्धांत नामक तीन ग्रंथ हैं गणित विषयक । कनार्टक के लोगों ने नागेशभट्ट को श्रौतस्मार्त कमों में अग्रमान दिया था। यह सम्मान उनके वंशजों को आज तक प्राप्त है। नागेशभट्ट को आसपास के गांव वालों की और से भूमि, वर्षासन आदि अनेक सुविधाएं प्रदान की गई थीं। नागोजी भट्ट समय 1700-50 के लगभग। काशी के एक प्रसिद्ध महाराष्ट्रीय वैयाकरण व दार्शनिक पिता- शिवभट्ट माता सती । काले और उपाध्ये इनके कुलनाम (उपनाम) थे। उत्तरभारतीय श्रृंगवेरपुर के राजा रामराजा इनके आश्रयदाता थे । नागोजी भट्ट ने भट्टोजी दीक्षित के पौत्र हरि दीक्षित के यहां व्याकरण शास्त्र का, तथा पंडित रामराम भट्टाचार्य के यहां न्यायशास्त्र का अध्ययन किया था। इनके तीसरे गुरु थे शंकरभट्ट ।
व्याकरण, धर्मशास्त्र, अलंकारशास्त्र, इतिहास, पुराण, काव्यशास्त्र, सांख्य, योग आदि विविध विषयों पर नागोजी भट्ट ने तीस से अधिक ग्रंथों की रचना की है। तीर्थेदुशेखर, आचारेंदुशेखर, अशौचनिर्णय तिथीन्दुसार आदि है इनके धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ । किन्तु पाणिनीय व्याकरण पर लिखित महाभाष्यप्रदीपोद्योत परिभाषेंदुशेखर, लघुशब्देदुशेखर, बृहत्शब्देदुशेखर, वैयाकरणसिद्धान्तमंजरी नामक ग्रंथों तथा रसगंगाधर व रसतरंगिणी इन साहित्यशास्त्रीय ग्रंथों पर लिखे गये भाष्यों के कारण उनकी कीर्ति दूर-दूर तक फैली।
अपने गुरु के प्रति श्रद्धादर व्यक्त करने हेतु नागोजी भट्ट ने "शब्दरत्न" नामक व्याकरणविषयक ग्रंथ की रचना करते हुए, उसे उन्हींके नाम से प्रसिद्ध किया । अनेक शास्त्रों पर विपुल ग्रंथ - रचना करने पर भी उनकी विद्वत्ता का प्रमुख क्षेत्र व्याकरणशास्त्र ही था। इनका पांडित्य ज्ञानकोश के स्वरूप का था। आपने पचास वर्षो से भी अधिक कालावधि तक शास्त्रोपासना की ।
एक आख्यायिका के अनुसार, जयपुर के राजा सवाई जयसिंह ने सन् 1714 में अधमेथ का पौरोहित्य करने हेतु निमंत्रण किया था, किन्तु स्वयं द्वारा क्षेत्रसंन्यास लिये जाने का कारण बताकर नागोजी भट्ट ने उस निमंत्रण को अस्वीकार कर दिया। काशीक्षेत्र में 62 वर्ष की आयु में आपका देहांत हुआ। नाथमुनि समय- 824 से 924 ई. । दक्षिण भारत के वैष्णवों में रंगनाथ मुनि के नाम से विख्यात विशिष्टाद्वैतवाद
348 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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के आचार्य तमिल वेद के पुनरुद्धारक। शठकोपाचार्य की शिष्य परंपरा में आते हैं जन्मस्थान वीरनारायणपुरम् श्रीरंगम् में निवास । नाथमुनि को सिद्धियां प्राप्त थीं । अतः उन्हें योगींद्र भी कहा करते थे। उनके मूल नाम का पता नहीं चलता। संन्यास लेने के पश्चात् वे नाथमुनि कहलाए। नाथमुनि संस्कृत व तमील इन दोनों भाषाओं के पंडित थे। आपका सबसे बडा वाड्मयीन कार्य है आलवार संतों के गीतों का संकलन एवं संपादन "नालाविरदिव्यप्रबंधम्" नामक संकलन में बारह आलवारों के चार हजार गीतों का संग्रह है।
नम्मालवार की शिष्यपरंपरा के परांकुश मुनि थे नाथमुनि के गुरु नाथमुनि के ग्यारह शिष्यों में, पुंडरीकाक्ष, कुस्कनाथ और लक्ष्मीनाथ प्रमुख थे। उन्होंने भी अपने गुरु के भक्तिसिद्धांत का प्रचार-प्रसार किया। रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैत मत की नींव, नाथमुनि ने ही डाली। वेदान्तदेशिक नामक आचार्य तो नाथमुनि को ही विशिष्टाद्वैत संप्रदाय के संस्थापक मानते हैं।
नाथमुनि द्वारा लिखित संस्कृत ग्रंथों के नाम हैं- न्यायतत्त्व, पुरुषनिश्चय और योगरहस्य इनमें से न्यायतत्व को विशिष्टाद्वैत मत का सर्वप्रथम ग्रंथ माना जाता है। श्रीनिवासदास नामक पंडित ने अपने ग्रंथ में नाथमुनि का उल्लेख व्यास और बोधायन के समकक्ष किया है। नाथमुनि के पौत्र यामुनाचार्य, प्रसिद्ध रामानुजाचार्य के गुरु थे ।
नान्यदेव - तिरहुत (मिथिला) के राजा । बंगाल के विजसेन द्वारा ई.स. 1160 में परास्त । नेपाल की तराई में कर्कोटक-वंश के राज्य-संस्थापक । राज्यकाल (लेवी के अनुसार ) ई.स. 1097 से 1147 तक । रचना- सरस्वती - हृदयभूषण या सरस्वती हृदयालंकारहार। अतिरिक्त रचनाएं मालतीमाधव-टीका, भरतनाट्य शास्त्रभाष्य ( भरतवार्तिक) । 'अभिनव भारती' में अभिनव गुप्त ने "उक्तं नान्यदेवेन स्वभरतभाष्ये" ऐसा निर्देश किया है। इससे भारत भाष्यकर्ता नान्यदेव का अस्तित्व सिद्ध होता है।
नाभाक ऋग्वेद के आठवें मंडल के क्रमांक 39 से 42 तक के सूक्त नाभाक के नाम पर हैं। इन्होंने एक ऋचा में अपने नाम का स्पष्ट उल्लेख किया है। (8-41-2)। ये कण्वकुल के होंगे। आपने अपने एक सूक्त में मांधाता का उल्लेख किया है। अतः वे मांधाता के उत्तरकालीन होने चाहिये। वायु, भागवत व विष्णु इन पुराणों में दी गई वंशावली के अनुसार आप श्रुत के पुत्र हैं किन्तु मत्स्य पुराण में आपको भगीरथ का पुत्र कहा गया है।
नाभाक के सूक्तों का विषय है अग्नि एवं वरुण की स्तुति । उनके मतानुसार अग्नि काव्यस्पूर्ति का पोषण करने वाला है। वह देवताओं में वास करता है। वह सात ऋषिकुलों का अग्रणी है। नाभाक ने अग्नि से दुष्टविनाशक शक्ति की याचना
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की है। तत्संबंधी उनकी एक ऋचा इस प्रकार है न्यग्ने नव्यसा वचस्तनूषु शंसमेषाम् । न्यराती रराव्णां विश्वा अयो अरारितो
युच्च्छन्त्वामुरो नभन्तामन्यके समे।। (ऋ. 8-39-2) अर्थ है अग्निदेव हमारी इस अपूर्व प्रार्थना से इन (दुष्टों) की गालियों को उनके शरीरों ही में भस्म कर डालिये। उसी प्रकार दानशील भक्तों के शत्रु और आर्यों के सभी शत्रु मूढ होकर यहां से पूरी तरह चलते बने तथा सभी दुष्टों का नाश हो जाये। नाभाक ने अपनी एक ऋचा में अपने काव्य के मननीय होने का आत्मविश्वास व्यक्त किया है (ऋ. 8-39-3)।
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नाभानेदिष्ठ ऋग्वेद के दसवें मंडल के 61 व 62 क्रमांक सूक्त इनके नाम पर हैं। विश्वेदेवों की प्रार्थना इन सूक्तों का विषय है। नाभानेदिष्ठ हैं मनु के पुत्र । इनकी कथा इस प्रकार है :
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नाभानेदिष्ठ जब विद्यार्जन हेतु गुरुगृह रहते थे, तब उनके तीन भाइयों ने समूचे पितृधन को आपस में बांट लिया। घर लौटने पर जब उन्होंने अपने हिस्से के बारे पूछा, तो उनके पिता बोले- "वत्स, संपत्ति का बंटवारा क्या कोई बडी बात हैं । तुम अच्छे सुशिक्षित हो। तुम्हें कहीं पर भी संपत्ति प्राप्त हो सकती है । अब यदि तुम्हें संपत्ति चाहिये ही हो तो सुनो। पास ही नवग्व अंगिरस स्वर्ग-प्राप्ति के लिये एक यज्ञ कर रहे हैं। उस यज्ञ में 6 दिनों तक अनुष्ठान करने पर उनको बुद्धिभ्रम होगा। तब तुम वहां एक सूक्त कहना। इससे उनका कार्य सफल होगा और वे तुम्हें एक सहस्र गोधन देंगे ।
तब नाभानेदिष्ठ यज्ञस्थल पहुंचे। सातवें दिन यज्ञ में गड़बड़ी हो गई। यह देख नाभानेदिन आगे बड़े और "इदमित्था" (ऋग्वेद 10-61) यह सूक्त उन्होंने कहा । परिणामस्वरुप यज्ञ की निर्विघ्न सफल समाप्ति हुई। नाभानेदिष्ठ की विद्वत्ता से अंगिरस प्रसन्न हुए, और उन्होंने नाभानेदिष्ठ को एक सहस्र गोधन दान में दिया ।
इस गोधन को घर ले जाते समय मार्ग में उन्हें वास्तोष्यति रुद्र मिले। बोले "यह मेरा भाग होने के कारण, यह गोधन तुम मुझे दे डालो।" सुनकर नाभानेदिष्ठ ने कहा" अपने पिता की सूचनानुसार मैने इस दान का स्वीकार किया है। अतः में वह तुम्हें नहीं दूंगा। तब रुद्र बोले- "अच्छा, तो तुम जाकर इस बारे में अपने पिता से पूछ आओ और फिर मुझे उचित उत्तर दो।” तदनुसार नाभानेदिष्ठ ने जाकर अपने पिता से पूछा । पिता ने बताया- "वत्स, वह भाग रुद्र का ही है"। नाभानेदिए ने लौटकर पिता का निर्णय ज्यों-का-त्यों सुना दिया। इस सत्य कथन से रुद्र प्रसन्न हुए और उन्होंने वह गोधन नाभानेदिष्ट को पुरस्कार में दे दिया। न्याय्य व सत्य भाषण उन्हें अत्यंत प्रिय है। उनके सूक्तों पर से भी
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यही बात परिलक्षित होती है। वे कहते हैं। मक्षू कनायाः सख्यं नवग्वा ऋतं वदतं ऋतयुक्तिमग्मम् । द्विवर्हसो य उप गोपमागुदक्षिणासो अच्युता दुदुक्षन् ।। (12-61-10)
अर्थ- न्याय भाषण तथा धर्मानुकूल योजना करने वाले नवग्वों ने युवती का प्रेम तत्काल संपादन कर लिया। वे सव्यसाची नवग्व-रक्षक जो देवता की ओर गए उन्होंने ऐहिक लाभ की आशा न कर जो अचल एवं शाश्वत के रूप में (प्रसिद्ध ) था उसी का दोहन किया। इनकी कथा ऐतरेय ब्राह्मण के समान ही सांख्यायन ब्राह्मण तथा सांख्यायन श्रौतसूत्र में भी आयी है।
नारद काण्व
पौराणिक नारद से ये भिन्न हैं। ऋग्वेद के आठवें मंडल का 13 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्द्र की स्तुति इस सूक्त का विषय है। ऋषि नारद काण्व कहते हैं। कि जिस प्रकार इन्द्र बलवान और सज्जनप्रतिपालक है, उसी प्रकार वे काव्य के स्फूर्तिदाता भी हैं। उनके सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है
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वृषायमिन्द्र ते रथ उतो ते वृषणा हरी ।
वृषा त्वं शतक्रतो वृषा हवः ।। ( 8-13-31)
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अर्थ- हे इन्द्र, तुम्हारा यह रथ वीर्यशाली है उसी प्रकार तुम्हारे अश्व भी वीर्यशाली हैं। हे अपार कर्तृत्त्व वाले देवता, आप स्वयं तो वीर्यशाली हैं ही, किन्तु आपका नामसंकीर्तन भी वैसा ही वीर्यशाली है।
इसके अतिरिक्त 9 वें मंडल के 104 और 105 क्रमांक के दो सूक्त, पर्वत नारदी इस संयुक्त नाम पर है। सोम की स्तुति इन सूक्तों का विषय है।
नारायण ई. छठी शती । वैदिक साहित्य में नारायण नाम के अनेक लेखक हुए है। स्कन्दस्वामी, नारायण और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिल कर ऋग्वेद पर भाष्य रचना की । नारायण नामक अन्य दो विद्वानों ने आश्वलायन श्रौतसूत्र और आश्वलायन गृह्यसूत्र पर भाष्य लिखे हैं ।
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श्रीमध्वाचार्य कृत ऋग्भाष्य पर जयतीर्थ प्रणीत व्याख्या की विवृत्ति लिखने वाले और एक नारायण हुए हैं ।
ऋग्भाष्यकार नारायण के पुत्र थे सामवेद-विवरणकार माधव भट्ट । उन्हीं का श्लोक बाणभट्ट ने मंगल श्लोक के स्वरूप में स्वीकार किया है। इसी आधार पर नारायणाचार्य का काल सातवीं शताब्दी के पहले माना गया है। आश्वलायन श्रौतसूत्र भाष्यकार नारायणाचार्य के पिता का नाम नरसिंह, और गोत्र गर्ग था। आश्वलायन गृह्यसूत्र के भाष्यकार नारायण, श्रौतसूत्र भाष्यकार नारायण से अर्वाचीन है। जयतीर्थ प्रणीत व्याख्या की विवृत्ति लिखने वाले नारायणाचार्य बहुत ही अर्वाचीन हैं इसमें कोई संदेह नहीं हो सकता ।
नारायण
ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य। समय 1571 ई. ।
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क पात।
पिता- अनंतनंदन, जो टापर ग्राम के निवासी थे। इन्होंने "मुहूर्त-मार्तण्ड" नामक मुहूर्तविषयक ग्रंथ की रचना की है। नारायण नामक एक अन्य विद्वान ने भी ज्योतिष-विषयक ग्रंथ की रचना की है, जिनका समय 1588 ई. है। "केशवपद्धति" पर रचित इनकी टीका प्रसिद्ध है। इन्होंने बीजगणित का भी एक ग्रंथ लिखा था। नारायण - ई. 16 वीं शती। पिता-शंकर, जिन्हें गणित तथा ज्योतिषज्ञान के कारण बृहस्पति का अवतार माना गया। केरल में कोचीन के राजा राजराज का इन्हें आश्रय प्राप्त था। गणित-शास्त्र के विशेषज्ञ होते हुए भी नारायण साहित्योपासक थे।
कृतियां- महिषमंगल (भाण), रासक्रीडा (पद्य), उत्तररामचरित (चम्पू) और भाषानैषधचम्पू (मलयालम भाषा में)। नारायण गांगाधरि - समय 18 वीं शती । रचना- विक्रमसेनचम्पू।। तंजौर के शाहजी राजा के अमात्य त्र्यंबक के पोते। नारायण गुरु - सन 1856-1928। केरल के एक महान् धर्मसुधारक । त्रिवेंद्रम से सात मील की दूरी पर स्थित चंबाझन्ती ग्राम तथा एलुवा नामक अस्पृश्य जाति में जन्म। पिता-मातन । माता- कुही। प्रारंभ में अपने चाचा तथा बाद में रामन् पिल्ले नामक एक विद्वान से संस्कृत भाषा की शिक्षा ग्रहण की। केरल प्रदेश में उस समय भी अछूतों को संस्कृत सीखने की छूट थी। अतः नारायण गुरु ने प्रारंभिक तीन वर्षों तक संस्कृत व तमिल के वेदान्तविषयक ग्रंथों का अध्ययन किया और छात्रों को संस्कृत तथा तमिल पढाई।
वेदांत का अध्ययन करते हुए उन्हें विरक्ति उत्पन्न हुई। उसी अवस्था में उनकी भेट चट्टांबी स्वामी और थैक्कर अय्युबू नानक दो योगियों से हुई। उनके मार्गदर्शन में नारायणगुरु ने योगाभ्यास प्रारंभ किया। फिर कन्याकुमारी के समीप मरुत्तमलै नामक स्थान पर पिल्ला थाडम नामक गुफा में रहते हुए उन्होंने घोर तपस्या की। फिर समाज जीवन के निरीक्षणार्थ तमिलनाडु तथा केरल प्रदेशों की यात्रा की।
उन दिनों सवर्ण हिन्दुओं द्वारा अछूतों की बडी अवहेलना की जा रही थी। अस्पृश्य होने के कारण स्वयं नारायण गुरु को भी सतत तीस वर्षों तक अनेक कठिनाइयां झेलनी पडी थीं। उस स्थिति से लाभ उठाते हुए ईसाई तथा मुसलमान लोग अछूतों को अपने-अपने धर्मों में खींचने हेतु संलग्न थे। विशेष कर मछुए एवं एलुवा जाति के लोग ईसाई बनाये जा रहे थे। उस स्थिति को देखते हुए नारायण गुरु ने अपनी भारत-भ्रमण की योजना स्थगित की और वे समाजोद्धार के कार्य में जुट गए। तदर्थ अरूविप्पुरम नामक गाव में उन्होंने अपना वास्तव्य स्थिर किया। प्रतिदिन ध्यान-धारणा के पश्चात् नारायण गुरु दीन-दुखियों
परिणामस्वरूप अधिकांश निम्न वर्ग के लोग उनसे प्रेम करने लगे। उन्होंने अधिकारी परुषों को परमार्थ मार्ग का उपदेश देना भी प्रारंभ किया। ___ केरल के विकृत बने धार्मिक एवं सामाजिक जीवन को सुधारने हेतु, सर्वप्रथम उन्होंने अछूतोद्धार का कार्य प्रारंभ किया। उस समय स्पृश्यों के मंदिरों में अछूतों को प्रवेश बंदी थी, किन्तु अछूत समाज के अंतःकरण पर सुसंस्कारों की दृष्टि से, उनके लिये देवालयों का होना आवश्यक था। अतः नारायण गुरु ने एक शिवमंदिर बनवाया। किसी अस्पृश्य व्यक्ति द्वारा निर्मित यही भारत का पहला मंदिर है। बाद में उन्होंने कुछ और मंदिरों का भी निर्माण कराया। इन मंदिरों के लिये उन्होंने एक स्वतंत्र उपासना-पद्धति भी निर्माण की। साथ ही समाज में वेदांत के प्रचार हेतु, नारायण गुरु ने नवीन संन्यासी-मठ भी स्थापित किये। अल्पावधि में ही ये मठ-मंदिर, हिन्दू समाज के संगठन तथा ज्ञान-प्रचार के प्रभावी केन्द्र बन गए।
नारायण गुरु ने सभी जातियों को समान माना और सभी को संन्यास लेने की छूट दी। उन्होंने अस्पृश्यों को अद्वैत की सीख दी और मद्यपान पर प्रतिबंध लगाया। पशुबलि की प्रथा का अंत करते हुए आपने अनेक सामाजिक सुधारों की नींव रखी।
"सदाचार ही सर्वश्रेष्ठ धर्म है। जातिभेद का विचार एवं उसकी चर्चा मत करो। इस संसार में केवल एक ही जाति है, और वह है मानव जाति। परमात्मा भी एक ही है- इस प्रकार के अपने उपदेशों से नारायण गुरु ने लोगों के हृदय जीत लिये। परिणामस्वरूप विदेशी ईसाई धर्म की ओर प्रवाहित अस्पृश्य समाज का प्रवाह केरल प्रदेश में रुक गया। कहा जाता है कि यदि नारायण गुरु न हुए होते, तो केरल का बहुसंख्य हिन्दू समाज ईसाई बन गया होता। उनका प्रतिपादन था कि जतिहीन व वर्गहीन नवीन समाज का निर्माण करने हेतु, हिन्दू समाज में आंतर्जातीय विवाह होने चाहिये। जो धर्म अच्छाई की ओर उन्मुख होने की प्रेरणा देता है, वही सच्चा धर्म है।
नारायण गुरु के इन विचारों एवं कार्यकलापों से, गुरुदेव रवीन्द्रनाथ ठाकुर और महात्मा गांधी जैसे श्रेष्ठ पुरुष भी उनकी ओर आकृष्ट हुए थे। शिवगिरिस्थित उनके आश्रम जाकर, ये दोनों ही महापुरुष नारायण गुरु से मिले थे।
उनके द्वारा मलयालम् भाषीय ग्रंथों में "आत्मोपदेशतकम्" नामक काव्य ग्रंथ में, उनके सभी उपदेशों का सार है। इसके अतिरिक्त संस्कृत में नारायण गुरु ने विपुल उपदेशपरक एवं स्तोत्रात्मक वाङ्मय की निर्मिति की है, जो ग्रंथरूप में प्रकाशित है। केरल के बरकम नामक गांव में आपका देहान्त हुआ। वहां पर उनकी समाधि बनाई गई है। वहां के आश्रम में,
निःशुल्क देने लगे। वे औषधियां रामबाण सिद्ध होने लगीं।
350 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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हीन कहलाने वाली अनेक जातियों के लोगों ने संस्कृत एवं वेदांत का ज्ञान प्राप्त किया।
नारायणतीर्थ - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। ये स्मार्त ब्राह्मण थे, और तंजौर में रहते थे गुरु-शिवरामानंदतीर्थ । श्रीकृष्णलीला-तरंगिणी (12 तरंग) नामक ग्रंथ में नारायणतीर्थ ने स्वयं का निर्देश शिवरामानंदतीर्थपादसेवक कह कर किया है। आपने जयदेव के गीतगोविंद का गहरा अध्ययन किया था उन्हें जयदेव का अवतार माना जाता है। नारायणतीर्थ ई. 18 वीं शती। आंध्र में गोदावरी जिले में कृषिमन्त्री के निवासी मीमांसा दर्शन के एक प्रख्यात विद्वान् । संन्यास लेने के पहले का नाम गोविंद शास्त्री । काशी के नीलकंठ सूरि के सुपुत्र शिवरामतीर्थ से संन्यास-दीक्षा ली। दीक्षा से पूर्व, मीमांसा पर भाट्टपरिभाषा नामक ग्रंथ की रचना । इस ग्रंथ में जैमिनीय सूत्र के बारह अध्यायों का सारांश संकलित किया गया है। मीमांसा के समान ही आपने वेदांत पर भी ग्रंथ लिखे है। आपको एक प्रतिभाशाली विद्वान् के रूप में मान्यता प्राप्त है । नारायण दीक्षित तंजौर के राजा शाहजी भोसले (1683-1711) की राजसभा के सदस्य रचना अद्भुतपंजर (नाटक) । नारायण पण्डित काल 900 तथा 1373 ई. के बीच माना जाता है। धवलचन्द्र का समाश्रय प्राप्त । सुप्रसिद्ध "हितोपदेश” नामक नीतिकथा संग्रह के रचयिता । (2) आश्लेषाशतकम् के लेखक ।
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नारायण नायर केरल में नेम्मर ग्राम के निवासी रचनाशीलपट्टिकारम् नामक प्रसिद्ध मलयालम् भाषीय ग्रंथ का अनुवाद । नारायण भट्ट समय- ई. 16 वीं शती । जन्म- मदुरा के निवासी एक भृगुवंशी दीक्षित ब्राह्मण कुल में । बाल्यकाल से ही कृष्णभक्ति में पले हुए नारायणभट्ट, बाद में स्थायी निवास हेतु ब्रजमंडल गए और वहां पर उन्होंने कृष्णदास ब्रह्मचारी से दीक्षा ग्रहण की। नारायणभट्ट ने ब्रजमंडल के माहात्म्य को बहुत वृद्धिंगत किया। भागवत तथा वराहादि पुराणों में श्रीकृष्ण लीला के जिन स्थानों का उल्लेख है, वे स्थान कालप्रवाह में विस्मृत हो चुके थे। नारायणभट्ट ने उन स्थानों को खोज निकाला और ब्रजमंडल के वनों, उपवनों, तीथों तथा देवी-देवताओं का माहात्य वृद्धिंगत करने की दृष्टि से एवं कृष्णभक्ति के प्रसारार्थ अनेक ग्रंथों की रचना की। उसी प्रकार भक्तों द्वारा कृष्णलीला का अनुकरण किया जाने हेतु उन्होंने रास नृत्य का भी प्रसार किया। तदर्थ उन्होंने ब्रजमंडल में अनेक स्थानों पर रास-मंडलों की स्थापना की।
नारायणभट्ट ने संस्कृत भाषा में व्रजोत्सवचंद्रिका, व्रजोत्सवाह्लादिनी
ब्रजभक्तिविलास, भक्तभूषणसंदर्भ
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बृहत्नजगुणोत्सव, भक्तिविवेक, साधनदीपिका आदि साठ ग्रंथ लिखे है।
गोवर्धन पर्वत के समीप स्थित राधाकुंड के तट पर बारह वर्षो तक वास्तव्य करने के पश्चात् नारायणभट्ट ब्रजमंडल के अंतर्गत ऊंचेगाव में रहने गए, और वहां पर उन्होंने अपना गृहस्थजीवन प्रारंभ किया। ऊंचेगांव में उन्होंने बलदेवजी की, और बरसाना में लाडलीलालजी की पूजा-अर्चा प्रारंभ की। वह वृत्ति (कार्य) उनके वंशजों द्वारा अभी तक चालू है । ऊंचेगांव में ही नारायणभट्ट की समाधि है । नारायणभट्ट जन्म सन 1513 में एक श्रेष्ठ मीमांसक तथा धर्मशास्त्री । विश्वामित्र गोत्रीय देशस्थ ऋग्वेदी ब्राह्मण। मूल निवासस्थान पैठण (महाराष्ट्र)। कुलदेवता - कोल्हापुर की महालक्ष्मी । कहते हैं कि इनके पिता रामेश्वरभट्ट ने पुत्रप्राप्ति के हेतु महालक्ष्मीजी की मनौती मानी थी और उन्हीं के कृपाप्रसाद से नारायणभट्ट का जन्म हुआ । इनके पुत्र का नाम शंकरभट्ट । आपने अपने पिताजी के पास ही शास्त्रों का अध्ययन किया था। राजा टोडरमल से इनकी मित्रता थी । गाधिवेशानुचरित तथा भट्ट नामक ग्रंथों के उल्लेखानुसार नारायणभट्ट ने बंगाल व मिथिला के पंडितों को वाद विवाद में पराजित किया था। आपकी विद्वत्ता के कारण ही काशीक्षेत्र में दाक्षिणात्य पंडितों को प्रतिष्ठा प्राप्त हुई थी। आपने काशी में महाराष्ट्रीय लोगों की एक बस्ती बसाई। उत्कृष्ट विद्वत्ता तथा सदाचरण के कारण आपको "जगद्गुरु" की पदवी प्राप्त हुई थी । अतः मंत्रजागर के प्रसंग पर समस्त वैदिकों में इनके घराने को अग्रपूजा का सम्मान दिया जाने लगा, जो अभी तक चालू है। इनके वंशजों ने इन्हें प्रत्यक्ष विष्णु का अवतार माना है निर्णयासिंधुकार कमलाकर भट्ट कहते हैं "वेदों के उद्दिष्ट धर्म की रक्षार्थ श्रीहरि ने नारायणभट्ट के नाम से मनुष्य रूप धारण किया, मेरे ऐसे पितामह को मैं वंदन करता हूं।
1
कहा जाता है कि मुगलों द्वारा उध्वस्त काशी विश्वेश्वर का मंदिर इन्होंने फिर से बनवाया था ।
इन्होंने पार्थसारथी मिश्र के शास्त्रदीपिका नामक ग्रंथ के एक भाग पर टीका लिखी और दूसरे भाग पर उनके सुपुत्र शंकरभट्ट ने नारायणभट्ट की वृत्तरत्नाकर पर लिखी टीका प्रसिद्ध है, और उनके मूहूर्तमार्तंड, अंत्येष्टि-पद्धति, त्रिस्थलीखेतु तथा प्रयोगरत्न नामक ग्रंथ उल्लेखनीय है। प्रयोगरल में विवाह से गर्भाधान तक के सभी संस्कारों का इन्होंने विस्तारपूर्वक वर्णन किया है।
अन्य ग्रंथ अवननिर्णय, आरामोत्सर्गपद्धति आतुरसंन्यासविधि, जीवच्छ्रद्धप्रयोग आहिताग्निमरणदाहादि पद्धति, महारुद्रपद्धति अथवा रुद्रपद्धति, काशीमरणमुक्तिविवेक, गोत्रप्रवरनिर्णय, तिथिनिर्णय, तुलापुरुषदानप्रयोग, दिव्यानुष्ठानपद्धति, मासमीमांसा, कालनिर्णयकारिका व्याख्या, वृक्षोत्सर्गपद्धति, लक्षहोमपद्धति और
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 351
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का चितिकलाविलासमताप्रवालम्,
विष्णुश्राद्धपद्धति हैं इनके धर्मशास्त्रविषयक ग्रंथ ।
निवासी। "ब्रह्मविद्या" मासिक के सम्पादक श्रीनिवास शास्त्री नारायण भट्टपाद - समय 1560-1666 ई. । कवि, व्याकरणकार
के बन्धु । पाण्डित्य तथा कवित्व के लिये "भट्टश्री" और और मीमांसक। अपरनाम भट्टात्रि। मेलकुत्तूर (मलबार) के "बालसरस्वती' की उपाधियां प्राप्त। असाधारण वक्तृत्व । रचनाएंनिवासी। केरल में जन्म। पिता- मातृदत्त। पुत्र- कृष्णकवि।
सुन्दरविजयम् (महाकाव्य), गौरीविलास (चम्पू), चिन्तामणि नम्बुद्रि ब्राह्मण। विवाहोपरान्त शिक्षा का प्रारम्भ। एक कथा
(आख्यायिका), आचार्यचरितम् (गद्य) नाटकदीपिका के अनुसार गुरु का वातविकार इन्होंने अपने योगसामर्थ्य से (नाट्यशास्त्रीय प्रबंध, 12 भाग) विमर्श (साहित्यशास्त्रीय प्रबन्ध, वयं पर लिया। गुरुवायूर के श्रीकृष्ण की स्तुति में रचित
6 भाग) और काव्यमीमांसा (2 अध्याय)। इनका प्रधान सहस्र श्लोकों का नारायणीयम् नामक भक्तिस्तोत्र अत्यंत लोकप्रिय लेखन है 91 नाटक (पुराण के रोचक विषयों पर)। 10 है। भट्टोजी दीक्षित, इनकी प्रशंसा सुन मिलने गए, परंतु
नाटक मद्रास तथा चिदम्बरम् में प्रकाशित। नाट्यनामावलि : उनकी (106 वर्ष की आयु में) मृत्यु होने से भेंट न हो सकी।
त्रिपुरविजयम् (12 अंक), मैथिलीयम्। 10 अंकी नाटक :रचनाएं - (1) पांचालीस्वयंवरचम्पू, (2) राजसूयचम्यू,
कलिविधूनन, चित्रदीप, बालचन्द्रिका, मुक्तमन्दार, कृतकयौवत, (3) द्रौपदीपरिणयचम्पू, (4) सुभद्राहरणचम्पू, (5)
मधुमाधवीयम, अवकीर्णकौशिकम्, माकन्दमकरन्दम्, ब्रह्मविद्या, दूतवाक्यचम्पू, (6) किरातचम्पू, (7) भारतयुद्धचम्पू, (8)
दृष्टरोहितम्। (9 अंकी नाटक) मुग्धबोधनम्, भट्टभासीयम्, स्वर्गारोहणचम्पू, (9) मत्स्यावतारचम्पू, (10) नृगमोक्षचम्पू,
बालचन्द्रिका, मृकण्डकोदय। (8 अंकी नाटक) रक्तसारसम् (11) गजेन्द्रमोक्षचम्पू, (12) स्यमन्तकचम्पू, (13)
अमृतमन्थनम्, मैथिलीविजयम्, विश्ववीरव्रतम्, वीरवैश्वानरम्। (7 कुचेलवृत्तचम्पू, (14) अहल्यामोक्षचम्पू, (15)
अंकी नाटक) सामन्तसोविदल्लम्, सुदतीसमितिंजयम्, निरनुनासिकचम्पू, (16) दक्षयागचम्पू, (17) पार्वतीस्वयंवरचम्पू,
भामाभिषङ्गम, चितिनिग्रहम्, गूढकौशिकम्, मदालसा, (18) अष्टमीचम्पू, (19) गोष्ठीनगरवर्णनचम्पू, (20)
मन्दारिकाविलासम्, महिलाविलासम्, रत्नमाला, वरगुणोदयम्, कैलासवर्णनचम्पू, (21) शूर्पणखाप्रलापचम्पू, (22)
हारहैमवतम्, कलिविजयम्, मुक्ताप्रवालम्, भग्नाशकम्, नलायानीयचम्पू और (23) रामकथाचम्पू।
अयश्चणकम्, कनकाङ्गी, कांचनमाला, प्रौढपरपन्तपम्,
मारुतिमैरावणम्, लवणलक्ष्मणम्, क्लान्तकौन्तेयम्, व्यत्यस्तभक्तम्, ___ इनमें से क्र. 2 व 9 प्रकाशित । अन्य रचनाएं- प्रक्रियासर्वस्व
विजययादवम्, जैत्रजैवातृकम्, शूरमयूरम्।। 6 अंकी नाटक(व्याकरण) और मानमेयोदय (मीमांसा)।
मुग्धमन्थरम् राजीविनी, शशिशारदीयम, मंजुलमन्दिरम्, काममंजरी, नारायण कवि - समय 17-18 वीं शती। "विक्रमसेनचंपू"
सुभद्राहरणम्, मन्दारमाला, पुष्करराघवम्, क्रूरसापत्यम, नामक काव्य ग्रंथ के रचयिता। इन्होंने अपने चंपू काव्य में
शिशुविनिमयम्, शिवदूतम्, विद्राणमाधवम्, बालप्राहुणिकम्। 5 जो परिचय दिया है, उसके अनुसार ये मरहठा शासन के
अंकी नाटक = प्राज्ञसामन्तम्, मुष्टिपाथेयम्, त्रिबदरम, बिल्हणीयम, सचिव तथा गंगाधर अमात्य के पुत्र थे। इनके भाई का नाम
भीमरथी, प्रसन्नपार्थम, कान्तिमती, भट्टराजीयम्, मूढकौशिकम्, भगवंत था। इनके चंपू काव्य में प्रतिष्ठानपुर के राजा विक्रमसेन
सीताहरणम्, स्तब्धपाण्डवम्, क्लिष्टकीचकम्, प्लुष्टखाण्डवम्, की काल्पनिक कथा गुंफित की गयी है।
धृष्टधौरेयम्, निरुद्धानिरुद्धम्, श्येनदूतम्, विद्धवेदनम्, नारायणराव चिलुकुरी (डा.) - ई. 20 वीं शती। शिक्षा
विष्टब्धचापलम्, दूतवीरम्, मनोरमा, बद्धबाडवम्, मुक्तमन्दरम्। एम.ए., पीएच.डी. एल.टी.। अनन्तपुर (कर्नाटक) की प्रभुत्व 4 अंकी नाटक = मुक्तावली। 3 अंकी = तरंगिणी, स्वैराचार कलाशाला में संस्कृत तथा कन्नड के अध्यापक। मधविधनम, बहबालिशम्। 2 अंकी = शोभावती। 1 अंकी "विश्वकलापरिषद" से अनेक उपाधियां प्राप्त । "विक्रमाश्वत्थामीय" = शरभविजयम्, मुक्तकेशी, मणिमेखला, महिषासुरवधम्। नामक व्यायोग के प्रणेता।
इनके अतिरिक्त 21 महाप्रबंध तथा कतिपय प्राथमिक शिक्षा नारायण विद्याविनोद - ई. 16 वीं शती। पूर्वग्राम (बंगाल) के लिये उपयुक्त पुस्तकें भी इनके नाम पर हैं। के निवासी। अभिधानतंत्र के कर्ता जटाधर के पौत्र । कृति । शब्दार्थ-सन्दीपिका (अमरकोश पर वृत्ति)।
नारायणशास्त्री कांकर - ई. 20 वीं शती। जयपुर निवासी।
"नराणां नापितो धूर्तः" तथा "स्वातंत्र्ययज्ञाहुति" नामक एकांकियों नारायणशास्त्री - समय लगभग वि. सं. की 18 वीं शती।
के प्रणेता । इनके द्वारा रचित कुछ स्तोत्र काव्य भी प्रकाशित हैं। "महाभाष्यप्रदीप" की व्याख्या के लेखक। माता पिता का नाम अज्ञात । नल्ला दीक्षित के पुत्र नारायण दीक्षित इनके जामात
नारायणस्वामी - पिता- मण्डोय नारायण। गुरु- नृसिंहसूरि ।
सन् 1750 के लगभग "कैतवकलाचन्द्र" (भाण) का लेखन थे। गुरु- धर्मराज यज्वा (नल्ला दीक्षित के भाई)।
किया। नारायण शास्त्री - जन्म 1860 ई.। मृत्यु 1911। पिता- नारायणाचार्य ने ताण्ड्य भाष्य पर भाष्य लिखा है, ऐसा मैसूर रामस्वामी यज्वा। माता- सीतांबा । तंजौर जिलान्तर्गत नेडुकावेरी सूचिपत्र (1922) से स्पष्ट होता है।
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निबार्काचार्य द्वैताद्वैत मत के (ऐतिहासिक प्रतिनिधि) प्रवर्तक आचार्य दार्शनिकता तथा प्राचीनता की दृष्टि से वैष्णव संप्रदायों में इनके मत का विशेष महत्त्व है। संप्रदाय के अनुसार इस मत के सर्वप्रथम उपदेश, हंसावतार भगवान् हैं। उनके शिष्य सनत्कुमार हैं। सनत्कुमार ने इसका उपदेश नारदजी को दिया और नारदजी से यह उपदेश निंबार्क को प्राप्त हुआ। इस परंपरा के कारण यह मत (संप्रदाय) हंससंप्रदाय, सनकादि संप्रदाय (या सनातन संप्रदाय), देवर्षि संप्रदाय आदि नामों से कहा जाता है।
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आचार्य निबार्क की जन्म तिथि कार्तिक शुक्ल पौर्णिमा मानी जाती है, और इसी दिन तत्संबंधी उत्सव मनाये जाते हैं। आचार्य का निश्चित देश काल आज भी अज्ञात है । कहा जाता है कि ये तेलंग ब्राह्मण थे और दक्षिण के बेल्लारी जिले के निवासी थे किन्तु तैलंग प्रदेश से आज निवार्क मत का संबन्ध तनिक भी नहीं है। न तो इनके अनुयायी आज वहां पाए जाते हैं और न इनके किसी संबंधी का ही पता उधर चलता है। निंबार्क वैष्णवों का अखाड़ा वृंदावन ही है। आज भी गोवर्धन समीपस्थ "निम्बग्राम" इनका प्रधान स्थान माना जाता है ।
आचार्य स्वभाव से ही बडे तपस्वी, योगी एवं भगवद् भक्त थे। कहा जाता है कि दक्षिण में गोदावरी के तीर पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में इनका जन्म हुआ। पिताअरुणमुनि । माता जयंतीदेवी । ये भगवान के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं। सुनते हैं कि इनके उपनयन संस्कार के समय स्वयं देवर्षि नारद ने उपस्थित होकर इन्हें " गोपाल मंत्र" की दीक्षा दी, तथा "श्री-भू-लीला" सहित श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया । इनका मूल नाम नियमानंद था । नियमानंद की निंबार्क और निंबादित्य के नाम से प्रसिद्धि की कथा "भक्तमाल" के अनुसार इस प्रकार है :
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मथुरा के पास यमुना तीर के समीप ध्रुवक्षेत्र में आचार्य विराजमान थे। तब एक संन्यासी आपसे मिलने आए। उनके साथ आध्यात्मिक चर्चा में आचार्य इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें पता न चला की सूर्य भगवान् अस्ताचल के शिखर से नीचे चले गये। संध्याकाल उपस्थित हो गया। अपने संन्यासी अतिथि को भोजन कराने के लिये उद्युत होने पर आचार्य को पता चला कि रात्रि भोजन निषिद्ध होने के कारण संन्यासीजी रात को भोजन नहीं करेंगे। अतिथि सत्कार में उपस्थित इस अड़चन से आचार्य को बड़ी वेदना हुई। तभी एक अदभुत घटना घटी। संन्यासीजी तथा स्वयं आचार्य ने देखा कि आश्रम के नीम वृक्ष के ऊपर भगवान सूर्यदेव चमक रहे हैं। तब आचार्य ने प्रसन्न होकर अतिथि संन्यासी को भोजन कराया। पश्चात् सूर्यदेव अस्त हुए और सर्वत्र घना अंधकार छा गया। इस चमत्कार तथा भगवदूकृपा के कारण इनका नाम "निंबादित्य"
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और "निंबार्क" पड़ गया और इसी नाम से ये प्रसिद्ध हो गए। उसी प्रकार जहां चमत्कार हुआ, वह स्थान आज भी निम्बग्राम के नाम से प्रसिद्ध है ।
आचार्य के आविर्भाव-काल की निश्चिति, प्रमाणों के अभाव में असंभव है। इनके अनुयायियों की मान्यता के ' अनुसार, इनका उदय कलियुग के आरंभ में हुआ था और इन्हें भगवान् वेदव्यास का समकालीन बताया जाता है। इसके विपरीत आधुनिक गवेषक आचार्य का समय ई. 12 वीं शती या उसके भी बाद मानते हैं। डॉ. भांडारकर ने गुरुपरंपरा की छान-बीन करते हुए इनका समय ई. स. 1162 के आसपास माना है। नवीन विद्वानों की दृष्टि में यही आचार्य का प्राचीनतम काल है । कतिपय निंबार्कानुयायी पंडितों का कथन है कि उनके आचार्य योगी होने के कारण दीर्घजीवी थे, और वे 200-300 वर्षो तक जीवित रहे।
जो कुछ भी हो, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि आचार्य निबार्कद्वारा प्रवर्तित संप्रदाय, अन्य वैष्णव संप्रदायों से प्राचीनतम है। इसकी प्राचीनता के पक्ष में भविष्य पुराण का निम्न पद्य भी प्रस्तुत किया जाता है। तदनुसार, एकादशी के निर्णय के अवसर पर निंबार्क का मत उद्धृत किया गया है और निंबार्क के प्रति असीम आदर व्यक्त करने हेतु उन्हें "भगवान्" विशेषण से विभूषित किया गया है :
निंबार्को भगवान् येषां वाछिंतार्थफलप्रदः । उदय - व्यापिनी ग्राह्या कुले तिथिरुपोषणे । ।
उक्त पद्य को कमलाकर भट्ट ने अपने “निर्णयसिंधु " में, और भट्टोजी दीक्षित ने भविष्य पुराणीय मान कर सादर उल्लिखित किया है (द्रष्टव्य संकर्षणशरण देव रचित "वैष्णव-धर्म-सुरम-मंजरी")।
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आचार्य निवार्क के 4 शिष्य बताये जाते हैं- (1) श्रीनिवासाचार्य (प्रधान-शिष्य), (2) औदुंबराचार्य (3) गौरमुखाचार्य और (4) लक्ष्मण भट्ट
आचार्य निंबार्क की सर्वत्र प्रसिद्ध 5 रचनाओं के नाम हैंवेदांत - पारिजात-सौरभ (वेदांत भाष्य), दश-श्लोकी, श्रीकृष्ण - स्तवराज, मंत्र - रहस्य - षोडशी तथा प्रपन्नकल्पवल्ली इनके अतिरिक्त, पुरुषोत्तमाचार्य तथा सुंदर भट्टाचार्य प्रभृति अवांतर लेखकों के उल्लेखों से विदित होता है कि आचार्य ने गीता - वाक्यार्थ प्रपत्ति - चिंतामणि तथा सदाचार प्रकाश नामक 3 और ग्रंथों का प्रणयन किया था परंतु अभी तक ये 3 ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं।
दार्शनिक पक्ष की ओर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि आचार्य निबार्क ने "भर्तृभेद सिद्धान्त" से लुप्त गौरव को पुनः प्रतिष्ठित किया। इन वेदांताचार्यों के विचार अब जन-मानस से ओझल हो चुके है, किंतु निवार्क का कृष्णोपासक संप्रदाय भक्ति-भाव का प्रचार करता हुआ आज भी भक्त जनों के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 353
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का
विपुल आदर का भाजन बना हुआ है।
नाम से एक गुफा दिखाई जाती है। कहा जाता है कि वहां निबार्काचार्य ने जिस स्वतंत्र दर्शन की नींव रखी, उसे पर तपस्या करके ही उन्हें "शिवयोग" प्राप्त हुआ था। द्वैताद्वैत दर्शन कहते हैं। इनके वेदांतपारिजातसौरभ नामक ग्रंथ निजगुणशिवयोगी के काल के बारे में मतभेद है, जो ई. में ब्रह्मसूत्र पर व्याख्या है। दशश्लोकी में निंबार्क-संप्रदाय के 12 वीं से 16 वीं शताब्दी तक माना जाता है। उनके कन्नड उपास्य-दैवत राधाकृष्णयुगल का वर्णन है। शेष ग्रंथों में ग्रंथों की भाषा के आधार पर नरसिंहाचार्य उन्हें 12 वीं शताब्दी युगल-उपासना का रहस्य प्रकाशित किया गया है।
का नहीं मानते। शांतलिंग स्वामी ने विवेकचिंतामणि नामक निंबार्काचार्यजी के पूर्व जगन्नाथपुरी बौध्दों की विहारभूमि कनड ग्रंथ का मराठी अनुवाद सन् 1604 में किया था। थी। उसे वैष्णवों का केन्द्र बनाने का महत्कार्य किया आचार्यश्री ___ अतः उनका काल 16 वीं शताब्दी के पूर्व का तो है ही। ने। जगन्नाथ-मंदिर के शिखर पर जो चक्र है, उसे निंबार्काचार्य निजगुण ने कन्नड भाषा में वेदांतविषयक विवेक चिंतामणि का प्रतीक मानकर भक्तजन श्रद्धापूर्वक उसका दर्शन करते हैं। के अतिरिक्त और भी कई ग्रंथ लिखे। उन से उनकी विद्वत्ता निरंतर भगवान् के सानिध्य में रहने के कारण आचार्यजी को तथा षट्शास्त्र-संपन्नता व्यक्त होती है। रंगदेवी नामक कृष्णसखी का भी अवतार माना जाता है। निजगुण द्वारा रचित भक्तिगीत कर्नाटक के गांव-गांव
उत्तर भारत में निंबार्क-संप्रदाय के अनेक मंदिर हैं और में बड़े चाव से गाये जाते है। निजगुण ने दो संस्कृत ग्रंथ राजस्थान के सलेमाबाद में संप्रदाय की सर्वश्रेष्ठ गद्दी है। भी लिखे थे। उनके नाम है : दर्शनसार और आत्मतर्कचिंतामणि । वृंदावन, मथुरा, राधाकुंड, गोवर्धन तथा नीमगाव में भी इस उनकी विचारधारा पर विवेकासिंधु एवं अमृतानुभव नामक दो संप्रदाय के मंदिर हैं। वहां श्रीनिंबार्कजी ने प्रचारकार्य किया था। मराठी ग्रंथों का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। __इस संप्रदाय के अनुयायी माथे पर गोपीचंदन का खडा नित्यानन्द- ई. 14 वीं शती। उत्तर बंगाल के करंजग्राम के तिलक लगाते हैं, और उसके मध्य बुक्के का काला टीका निवासी। "हरिचरित' के लेखक चतुर्भुज के पितामह । लगाते हैं। ये अनुयायी शुभ्र वस्त्र परिधान करते हैं, अपने "कृष्णानन्द" नामक काव्य के प्रणेता। गले में तुलसी-काष्ठ की माला पहनते हैं और अपने नाम के नित्यानन्द- ज्योतिष-शास्त्र के, एक गौडवंशीय आचार्य । आगे लगाते हैं, 'दास' अथवा 'शरण' उपपद। एक-दूसरे का पिता-देवदत्त। समय ई. 17 वीं शताब्दी का प्रारंभ। इन्होंने अभिवादन करते समय वे "जय सर्वेश्वर" का घोष करते हैं
1639 में "सिध्दांतराज" नामक एक महनीय ज्योतिष-ग्रंथ की और मठ-प्रमुख को महंत कहते हैं। इस संप्रदाय के अनुयायियों
रचना की थी। ये इन्द्रप्रस्थपुर के निवासी थे। इनका के विरक्त और गृहस्थ ऐसे दो भेद हैं। निंबार्क के हरिव्यास
"सिध्दांतराज" ग्रह-गणित का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह नामक एक शिष्य, गृहस्थ अनुयायियों के प्रमुख थे। मथुरा
ग्रंथ सायनमान का है। इसमें ग्रहों के बीज-संस्कार भी कथन के समीप धुवसेन नामक स्थान पर उनका मुख्य केंद्र है। किये गये हैं। निंबार्काचार्य "रसिक भागवत" संप्रदाय के आद्य आचार्य
नित्यानन्द-ई. 20 वीं शती । बंगाल-निवासी। भारद्वाज गोत्रीय । हैं। उन्होंने रागात्मक भक्ति के केवल प्रियावत् भाव का ही पिता-रामगोपाल स्मृतिरत्न । पितामह-मधुसूदन । शासकीय संस्कृत अंगीकार किया था। किन्तु एक अंतःसाधक होने के कारण
महाविद्यालय, कलकत्ता के भारतीभवन में अध्यापक। उन्होंने बाह्य स्त्री-वेश आदि का स्वीकार नहीं किया। निंबार्क
कृतियां- मेघदूत, प्रह्लाद-विनोदन, तपोवैभव और ने व्रजमंडल में वैष्णव-भक्ति का जो प्रवाह प्रारंभ किया था,
सीतारामाविर्भाव। उसी ने आगे चलकर संपूर्ण उत्तर भारत को आप्लावित कर दिया। निगुडकर, दत्तात्रेय वासुदेव- ई. 19-20 वीं शती।। नित्यानन्द शास्त्री- जन्म 1875 ई. में। माधव कवीन्द्र के संस्कृत विद्यालय, राजापुर (महाराष्ट्र) के आचार्य। सुपुत्र। इनका जन्म जोधपुर में हुआ था। ये आशुकवि, रचना-गंगागुणादर्शनचम्पू। इसमें संवादों द्वारा गुणदोष-विवेचन कविराज, साहित्यरत्न, कविभूषण, कविरत्न, महाकवि, किया गया है। अन्य रचनाएं- जानकीहरणम्, रुक्मिणीहरणम्, विद्यावाचस्पति आदि उपाधियों से सम्मानित थे। इनकी रचनाएं बुद्धचरितम् तथा रत्नावलि की स्पष्टीकरणात्मक टीका एवं निम्नांकित हैंरघुवंशसारः।
__ 1. मारुतिस्तवः, 2. लघु-छन्दोलंकार-दर्पण, 3. हनुमदूतम् निजगुण-शिवयोगी- इन का मूल नाम था निजगुणराय। पहले (खण्डकाव्य), 4. श्रीरामचरिताब्दि-रत्नम्, 5. आर्यामुक्तावली, ये मैसूरस्थित शंभुलिंगन बेट्ट पर राज्य करते थे। कालांतर 6. कृष्णाष्टप्रास, 7. पुष्पचरितम्, 8. आर्यानक्षत्रमाला, 9. से वैराग्य के कारण उन्होंने शिवयोगसाधना का मार्ग अपनाया। आत्मारामपंचरंगम्, 10. लक्ष्मीषट्पदी (स्तोत्र), 11. गंगाष्टपदी शंभुलिंग उनका आराध्य दैवत था, जिसका उन्होंने अपने (स्तोत्र), 12. शारदास्तवः (संस्कृतचन्द्रिका- 13/6, 1906 प्रत्येक ग्रंथ में उल्लेख किया है। शंभुलिंग के पर्वत पर इनके ई.) 13. समस्यापूर्तयः, 14. मेघदूतम् (नाटक), 15.
354 / संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रथकार खण्ड
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प्रह्लाद-विनोदनम् (नाटक), 16. सीतारामविर्भावम् (नाटक), और 17. तपोवैभवम् (नाटक)।
नित्यानन्द शास्त्री ने कुछ ग्रन्थों का सम्पादन भी किया था। यथा- 1. सूक्तिमुक्तावली, 2. चेतोदूतम्, 3. विश्वेश्वर-स्मृतिगवर्धि-आर्यविधानम्-उत्तरार्ध (दो भाग)। "दधिमथी" ओर "सनातन" नामक पत्रिकाओं के संपादन का कार्य भी इन्होंने किया था। निध्रुव काण्व- कश्यप-वंश। अवत्सार के सुपुत्र। पत्नीसुकेशा। ऋग्वेद के 9 वें मंडल का 63 वां सूक्त इनके नाम पर है किन्तु संपूर्ण सूक्त में निध्रुव काण्व का नाम कहीं पर भी दिखाई नहीं देता। इनके इस सूक्त का विषय है सोम-स्तुति । सोम की स्तुति करते हुए निध्रुव ने उससे अनेक बातों की अपेक्षा की है। तत्संबंधी दो ऋचाओं का भावार्थ इस प्रकार है- हे पावन सोम, हे आल्हादप्रद, तुम सभी धोखेबाज दुष्टों को पूरी तरह मार भगाओ। हे पराक्रमी सोम, राक्षसों को जान से मार डालो। राक्षसों का निःपात कर हे सोम, तुम गर्जना करते हुए अपने प्रवाह से तेजस्वी तथा उत्कृष्ट साहस हमारी ओर लाओ। इनका कथन है कि सोमरस में संपूर्ण विश्व को आर्यधर्मी बनाने की क्षमता है। निश्चलपुरी- ई. 17 वीं शताब्दी। गुसाई-पंथ के एक ग्रंथकार । इन्होंने संस्कृत भाषा में “राज्याभिषेक-कल्पतरु" नामक ग्रंथ की रचना की। गागाभट्ट ने छत्रपति शिवाजी महाराज का वैदिक पद्धति से राज्याभिषेक किया था। उनके उस प्रयोग के अनेक दोष-स्थल निश्चलपुरी ने अपने इस ग्रंथ में दर्शाए हैं। प्रतीत होता है कि निश्चलपुरी एक उत्तम ज्योतिषी भी थे। उन्होंने शिवाजी महाराज को चेतावनी दी थी कि उनके राज्याभिषेक के पश्चात् तेरहवें, बाईसवें और पचपनवें दिन उन पर कुछ संकट आवेंगे और उनकी भविष्यवाणी सही निकली। तब शिवाजी ने निश्चलपुरी को बुलवाकर उनसे तांत्रिक पद्धति के अनुसार पुनः वैदिक राज्याभिषेक के छह महीने बाद अपना तांत्रिक राज्याभिषेक करवा लिया था। नीतिवर्मा- ई. 10 वीं शती। बंगाल या कलिंग (उत्कल) के निवासी। "कीचकवध' नामक चित्र-काव्य के प्रणेता। नीपातिथि- ऋग्वेद के आठवें मंडल के 34 सूक्त के द्रष्टा । फिर भी संपूर्ण सूक्त में नीपातिथि के नाम का कहीं भी उल्लेख नहीं मिलता। ये कण्व-कुल के होंगे। इसी सूक्त की पहली व चौथी ऋचा में कण्व का उल्लेख है। इस सूक्त का विषय है इन्द्र की स्तुति । उसकी दो ऋचाएं इस प्रकार है
आ नो गव्यान्यशव्या सहस्रा शूर दर्दृहि । दिवो अमुष्य शासतो दिव्यं यय दिवावसो।।
आ नः सहस्रशो भरायुतानि शतानि च। दिवो अमुष्य शासतो दिव्यं यय दिवावसो।।
(ऋ. 8.34.14-15)
अर्थ- (हे इन्द्रदेव) इधर पधारिये, हजारों गउएं, हजारों अश्व आदि प्रकार का ऐश्वर्य हमें सौपिए (और) फिर दिव्यलोक को गमन कीजिये।
प्रस्कण्व द्वारा उल्लिखित एक प्रमाण के अनुसार एक बार इन्द्र ने नीपातिथि की रक्षा की थी (8.49.9)। एक अन्य स्थल पर श्रुष्टिगू द्वारा किये गये उल्लेख के अनुसार इन्द्र ने इसके घर सोमरस का पान किया था (8.51.1)। नीपातिथि ने एक साम की भी रचना की थी, ऐसा पंचविश ब्राह्मण में कहा गया है (14.10.4.)। नीजे भीमभट्ट- जन्म-सन् 1903 में। कन्यान (दक्षिण कर्नाटक) के निवासी। प्रारंभिक शिक्षा कम्मेज संस्कृत पाठशाला में। तत्पश्चात् परेडाल महाजन संस्कृत महापाठशाला से "साहित्य-शिरोमणि" की पदवी प्राप्त की।
"काश्मीर-सन्धान-समुद्यम" तथा "हैदराबादविजय" नामक समकालीन घटनाओं पर आधारित नाटकों के प्रणेता। आधुनिक राजनैतिक घटनाओं का चित्रण इन नाटकों की विशेषता है। नीलकंठ- ई. 15 वीं शताब्दी में हुए एक शैवाचार्य । नीलकंठ ने वीरशैव पंथविषयक “क्रियासार" नामक ग्रंथ की रचना की है। इसके अतिरिक्त कन्नड भाषा में भी आपका एक ग्रंथ है। इनके मतानुसार केवल वीरशैवागम ही वैदिक है जब की अन्य आगम है अवैदिक। आपने अपने ग्रंथ में शक्तिविशिष्ट अद्वैतब्रह्मरूपी शिव के माहात्म्य का वर्णन किया है। नीलकंठ- ई. 16 वीं शताब्दी। एक प्रसिद्ध ज्योतिषी। माता-पद्मा। "टोडरानंद” नामक आपका एक प्रसिद्ध ग्रंथ जो अब पूर्णावस्था में उपलब्ध नहीं, फिर भी उस ग्रंथ का विवरण अन्यत्र मिलता है। तदनुसार प्रतीत होता है कि इस ग्रंथ के तीन स्कंध होंगे- गणित, मुहूर्त और होरा। इस ग्रंथ के उपलब्ध भाग की श्लोकसंख्या एक हजार है। अकबर के मंत्री टोडरमल के नाम पर इस ग्रंथ का नामकरण हुआ होना चाहिये। नीलकंठ को अकबर बादशाह के दरबार में "पंडितेंद्र" की पदवी प्राप्त हुई थी। जैसा कि इनके पुत्र गोविंद ने लिख रखा है, ये एक बड़े मीमांसक और सांख्यशास्त्रज्ञ भी थे। ज्योतिष की ताजिक-पद्धति पर, इनका समातंत्र (वर्षतंत्र) नामक एक और ग्रंथ है। उसे “ताजिक-नीलकंठी" भी कहते हैं। यह ग्रंथ विभिन्न टीकाओं सहित छपा है। इस ग्रंथ पर विश्वनाथ की सोदाहरण टीका उपलब्ध है।
नीलकंठ ने एक जातक-पद्धति की भी रचना की। उसके साठ श्लोक हैं। वह मिथिला में प्रसिद्ध है। आफ्रेच-सूची के अनुसार इनके अन्य ग्रंथ हैं- तिथिरत्नमाला, प्रश्नकौमुदी अथवा ज्योतिषकौमुदी व दैवज्ञवल्लभा (ज्योतिषविषयक), जैमिनी-सूत्र पर सुबोधिनी नामक टीका तथा ग्रहकौतुक, ग्रहलाघव व मकरंद नामक ग्रंथों पर लिखे टीकाग्रंथ ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 355
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नीलकण्ठ- काल-1610 से 1670 ई. । रचना- अधरशतकम्। अश्लीलता से अस्पृष्ट शृंगारिकता इस काव्य का वैशिष्ट्य है। अति तरल कल्पनाशक्ति का यह उदाहरण है। अतिरिक्त रचनाएंशृंगारशतकम्, जारजातशतकम्, चिमनीशतकम् (विवाहिता मुस्लिम स्त्री तथा ब्राह्मण युवक का प्रेमसंबंध वर्णित) तथा शब्दशोभा नामक व्याकरण विषयक लघुग्रंथ। नीलकण्ठ- ई. 17 वीं शती। केरल के संग्राम ग्राम (वर्तमान कुडल्लूर) में जन्म। कुल-नम्बूदिरी। गोत्र-गाधि। रचनाकमलिनी-कलहंस (नाटक)। नीलकंठ- अठारहवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में महाराष्ट्र में हुए। एक शैव-परिवार में इनका जन्म हुआ था। इनके आचार्यों के शुभनाम हैं काशीनाथ और श्रीधर। आपके कथनानुसार आपने किसी रत्नाजी नामक व्यक्ति के कहने से "देवीभागवत" पर टीका लिखी। लगभग बारह ग्रंथों के रचयिता नीलकंठ तंत्रशास्त्र के ऊंचे पंडित थे। इनके तंत्रविषयक ग्रंथ हैंदेवीभागवत की टीका, कात्यायनी तंत्र की टीका, शक्तितत्त्वविमर्शिनी
और कामकलारहस्य। देवीभागवत की टीका में नीलकंठ ने देवी को मायाविशिष्ट ब्रह्मरूप बताया है और कहा है कि देवी को पशुबलि भाती है। नीलकण्ठ- केओंझर (उड़ीसा) के राजा बलभद्र भंज (1764-1782 ई.) तथा जनार्दन भंज (1782-1831) द्वारा सम्मानित। "भंजमहोदय" नामक नाटक के रचियता। नीलकण्ठ- रामभट्ट के पुत्र । रचना- काशिकातिलकचम्पू (गंधर्वो के संवाद-माध्यम से शैव-क्षेत्रों का वर्णन)। नीलकंठ चतुर्धर- ई. 17 वीं शती। इनके द्वारा लिखित महाभारत की सुप्रसिद्ध टीका का नाम "नीलकंठी" व "भारत-भाव-दीप" है। पिता-गोविंद चौधरी। माताफुल्लांबिका । गौतमगोत्रीय । गोदावरीतटस्थ कर्पूरनगर (कोपरगावमहाराष्ट्र) में रहते थे। अल्पकाल काशीक्षेत्र में भी निवास था। इनके कथनानुसार महाभारत की "भारतभावदीप" टीका इन्होंने काशी में ही लिखी। इसके अतिरिक्त मंत्रकाशीखंडटीका, मंत्रभागवत, मंत्ररामायण, वेदांतशतक, शिवतांडवव्याख्या, षट्तंत्रीसार, गणेशगीता-टीका, हरिवंश-टीका, सौरपौराणिकमतसमर्थन, विधुराधानविचार, आचारप्रदीप आदि ग्रंथ भी नीलकण्ठ चतुर्धर ने लिखे हैं।
ये महाराष्ट्रीय थे किंतु "सप्तशती" पर लिखी अपनी "सुबोधिनी" नामक टीका में इन्होंने स्वयं को चतुर्धर मिश्र कहलाया है। उसी प्रकार अपनी इस टीका को उन्होंने भाष्य कहा है। आपने वेद-मंत्रों को एकत्र कर "मंत्र-रामायण" नामक जिस सुप्रसिद्ध ग्रंथ का निर्माण किया, उससे रामोपासना की प्राचीनता सिद्ध होती है। संप्रति इनके वंशज काशी में रहते हैं।
महाभारत वनपर्व (162-11) की टीका करते हुए इन्होंने लिखा है "निपुणतरमुपपादितमेतदस्माभिः काण्वशतपथभाष्य
एकपादी-काण्डे" अर्थात् ये काण्वशतपथ के भाष्यकार थे। एकपादी काण्ड का ही दूसरा नाम “एकवायी काण्ड" दाक्षिणात्य हस्तलेखों में मिलता है। अतः विद्वानों का तर्क है कि भाष्यकार नीलकण्ठ, उत्तरभारत में रहने वाले (संभवतः वाराणसी-वासी) महाराष्ट्रीय होंगे। नीलकण्ठ दीक्षित - ई. 17 वीं शती। गुरु-वेंकटेश्वर अपरनाम अय्या दीक्षित। पिता- नारायण दीक्षित तथा चाचा अप्पय्य दीक्षित से धर्मशास्त्र तथा व्याकरण का अध्ययन किया। इन्हें अपने ब्राह्मण्य पर अभिमान था। माता - भूमिदेवी। गोत्र-भारद्वाज।
मदुराई के तिरुमल नायक आदि राजाओं के पैतीस वर्षों तक मंत्री। सन् 1659 ई. में सेवानिवृत्त । अन्तिम आश्रम ताम्रपर्णी के तट पर राजा की ओर से अग्रहार रूप में प्राप्त पालामडई ग्राम में। वहीं पर आज भी उनकी समाधि विद्यमान है। रचनाएं- अघविवेक (धर्मशास्त्र)। कैयट-व्याख्या (व्याकरण)। शिव-तत्त्वरहस्य (दर्शन)।। महाकाव्यशिवलीलार्णव (मदुरा के हालास्यनाथ आख्यान पर 22 सों का महाकाव्य) और गंगावतरण- 8 सगों का काव्य ।। खण्डकाव्य- कलिविडम्बन, सभारंजन, शान्तिविलास, अन्यापदेशशतक और वैराग्यशतक।। भक्तिकाव्यआनन्द-सागर-स्तव; शिवोत्कर्षमंजरी, चण्डीरहस्यम्, रामायण-सार-संग्रह और रघुवीर-स्तव; नलचरित (नाटक), नीलकण्ठविजय (चम्पू), मुकुन्द-विलास (अप्रकाशित)। नीलकण्ठ भट्ट - समय- लगभग 1610 ई.। पिता-शंकर भट्ट, पितामह- नारायण भट्ट, ज्येष्ठ भ्राता- कमलाकर भट्ट
और पुत्र- शंकर भट्ट। ये सभी विद्वान् व ग्रंथलेखक थे। नीलकंठ भरेह के राजा भगवंतदेव के सभा-पंडित थे। इन्होंने भगवंतदेव के सम्मान में "भगवंतभास्कर" नामक धर्मशास्त्र विषयक बृहद्काय ग्रंथ का प्रणयन किया था। इस ग्रंथ के 12 विभाग हैं जो मयूख के नाम से प्रसिद्ध हैं। नीलकंठ ने अन्य ग्रंथों का भी प्रणयन किया था। वे हैं- व्यवहारतत्त्व, कुंडोद्योत, दत्तकनिरूपण व भारत-भावदीप (महाभारत की संक्षिप्त व्याख्या)। नीलकंठ की अपने चचेरे भाई कमलाकर से स्पर्धा रहती थी। अनेक स्थानों पर इन दोनों के मत परस्पर-विरोधी हैं। नीलकंठ ने मीमांसा का अध्ययन किया था।
नीलकंठ वाजपेयी - वि.सं. 1575-1625, भाष्यतत्त्वविवेक नामक व्याकरण महाभाष्य की व्याख्या के रचयिता । (मद्रास के हस्तलेख पुस्तकालय में विद्यमान) लेखक रामचंद्र का पौत्र,वरदेश्वर का पुत्र और ज्ञानेन्द्र सरस्वती का शिष्य था। रचनाएं- पाणिनीय-दीपिका, परिभाषावृत्ति, सिद्धान्त-कौमुदी की सुखबोधिनी टीका, गूढार्थ-दीपिका का तत्त्वबोधिनी नामक व्याख्यान।
356 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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नीलांबर शर्मा - सन् 1823-1883। ज्योतिष-शास्त्रव के एक आचार्य। मैथिलीय ब्राह्मण। पटना के निवासी और वहीं जन्म। इन्होंने कुछ समय तक अपने बड़े भाई जीवनाथ के पास, तथा बाद में कुछ दिनों तक काशी की पाठशाला में ज्योतिष शास्त्र का अध्ययन किया था। अलवर-नरेश शिवदाससिंह। की सभा में ये मुख्य ज्योतिषी के पद पर रहे। इन्होंने पाश्चात्य पद्धति के अनुसार "गोल-प्रकाश" नामक एक ग्रंथ की रचना की है। पांच अध्यायों में विभाजित इस ग्रंथ के विषय हैं : ज्योत्पत्ति, त्रिकोणमिति-सिद्धांत, चापीय रेखागणित-सिद्धांत और चापीय त्रिकोणमिति-सिद्धांत । इस ग्रंथ का प्रकाशन बापूदेव ने काशी में किया। नीलांबर ने कतिपय भास्करीय ग्रंथों पर टीकाएं भी लिखी हैं। पिता-शंभुनाथ शर्मा। नमेध- ऋग्वेद के 8 वें मंडल के क्रमांक 89-90, 98-99
और 9 वें मंडल के क्रमांक 27 व 29 के सूक्त नृमेध के नाम पर हैं किंतु उन सूक्तों में नृमेध का नाम कहीं पर भी दिखाई नहीं देता। आंगिरसकुलोत्पन्न नमेध सामों के भी द्रष्टा
थे। अग्नि ने इन्हें संतति प्रदान की ऐसा ऋग्वेद में उल्लेख है (ऋ. 10-83-3)। इनके एक सुपुत्र शकपूत भी सूक्तद्रष्टा
थे। ऋग्वेद के एक उल्लेखानुसार, एक बार मित्रावरुण ने नमेध की रक्षा की थी (ऋ. 12-132-7) । प्रतीत होता है, कि नमेध परूच्छेप के शत्रु थे। इन्द्र एवं सोम की स्तुति नृमेध के सूक्तों का विषय है। उनके मतानुसार सोम काव्यवृत्तिप्रेरक । तथा पापनाशक है। नृसिंह - ई. 16 वीं शती। गोदावरीतटस्थ गोलग्रामस्थ दिवाकर के कुल में नृसिंह का जन्म हुआ था। आपने अपने पिता तथा चाचा के पास अध्ययन किया। नृसिंह ने सूर्यसिद्धांत पर "सौरभाष्य" नामक एक ग्रंथ की रचना की। श्लोकसंख्या है- 42001
आपने "सिद्धान्तशिरोमणि" पर वासनावार्तिक अथवा वासनाकल्पलता नामक एक टीका भी लिखी जिसकी श्लोक संख्या 5500 है। नृसिंह- ई. 16 वीं शती। सुप्रसिद्ध ग्रहलाघवकार गणेश दैवज्ञ के भतीजे। जैसा कि सुधाकर ने लिख रखा है, आपने मध्यग्रहसिद्धि नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में केवल मध्यम-ग्रह ही दिये हैं। ग्रहलाघव की टीका और ग्रहकौमुदी नामक एक और ग्रंथ आपके नाम पर है। नृसिंह- सनगरवंशीय ब्राह्मण कवि। ई. 18 वीं शती। मैसूर के निवासी। पिता-सुधीमणि, भाई-सुब्रह्मण्य, गुरु-योगानन्द । गुरु से परा विद्या का अध्ययन और पिता से ज्ञान-विज्ञान का। एक अन्य गुरु-पेरुमल। आश्रयदाता-नंजराज (1739-59 ई.) मैसूर के राजा कृष्णराज द्वितीय (1734-1766 ई.) के श्वशुर तथा सर्वाधिकारी। अभिनव- कालिदास की उपाधि से प्रख्यात। चन्द्रकला-कल्याण (नाटक) के प्रणेता।
नृसिंह- ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध। कैरविणीपुरी (मद्रास) के निवासी। भारद्वाज गोत्र। पिता-कृष्णम्माचार्य। अनुमिति-परिणय (नाटक) के प्रणेता। न्यायशास्त्र पर यह लाक्षणिक नाटक आधारित है। नृसिंह पंचानन - ई. 17 वीं शती। रचनान्यायसिद्धान्त-मंजरी-भूषा। नृसिंह (बापूदेव) - सन् 1821-1890 । एक सुप्रसिद्ध ज्योतिषी व गणितज्ञ। महाराष्ट्रीय ऋग्वेदी चित्तपावन ब्राह्मण। मूल निवास-नगर जिले का गोदावरी- तटस्थ टोकेगाव। नागपुर में
आपका प्राथमिक शिक्षण हुआ और वहीं पर ढुंढिराज नामक एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण विद्वान् के पास भास्कराचार्य के लीलावती व बीजगणित नामक ग्रंथों का अध्ययन हुआ। नृसिंह का गणित-विषयक ज्ञान देखकर, विल्किन्सन नामक एक अंग्रेज अधिकारी उन्हें सिहूर की संस्कृत पाठशाला में अध्ययनार्थ ले गए। वहीं पर सेवाराम नामक एक गुरुजी के पास उन्होंने रेखागणित का अध्ययन किया। सन् 1841 में नृसिंह काशी की एक संस्कृत-पाठशाला में रेखागणित के अध्यापक बने और बाद में वहीं पर बने गणित-शाखा के मुख्याध्यापक। सन् 1864 में ग्रेट ब्रिटेन व आयर्लंड की रॉयल एशियाटिक सोसायटी के और सन् 1868 में बंगाल की एशियाटिक सोसायटी के वे सम्माननीय सदस्य बने। पश्चात् सन् 1869 में उन्हें कलकत्ता तथा इलाहाबाद विश्वविद्यालयों की फेलोशिप प्रदान की गई। फिर सन् 1887 में सरकार ने उन्हें महामहोपाध्याय की पदवी से गौरवान्वित किया। नृसिंह द्वारा लिखे गए ग्रंथ हैं- रेखागणित, सायनवाद, ज्योतिषाचार्याशयवर्णन, अष्टादशविचित्रप्रश्नसंग्रह (सोत्तर), तत्त्वविवेकपरीक्षा, मानमंदिरस्थ-यंत्र- वर्णन और अंकगणित। इनके अतिरिक्त नृसिंह द्वारा लिखित कुछ छोटे-बडे अप्रकाशित लेख हैंचलनकलासिद्धान्तबोधक बीस श्लोक, चापीयत्रिकोणमिति संबन्धी कुछ सूत्र, सिद्धांत ग्रंथोपयोगी टिप्पणियां, यंत्रराजोपयोगी छेद्यक व लघुशंकुच्छिन्नक्षेत्रगुण। नृसिंह के कुछ ग्रंथों के हिन्दी और अंग्रेजी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुके हैं। नृसिंहाचार्य - "त्रिपुर-विजय-चम्पू" के रचयिता। तंजोर के भोसला नरेश एकोजी के अमात्यप्रवर। चंपू- का रचना-काल ई. 16 वीं शती के मध्य के आस-पास माना जाता है। पिता-भारद्वाज गोत्रोत्पन्न आनंद यज्वा। “त्रिपुर-विजयचम्पू" एक साधारण कोटि का काव्य है जो अभी तक अप्रकाशित है। इसका विवरण तंजौर केटलाग संख्या 4036 में प्राप्त होता है। नृसिंहाश्रम - ई. 16 वीं शती। एक आचार्य व ग्रंथकार । ये पहले दक्षिण में तथा बाद में काशी में रहते थे। इनके गुरु थे सर्वश्री गीर्वाणेंद्र सरस्वती और जगन्नाथाश्रम। कहा जाता है कि इनके संपर्क में आने पर ही अप्पय्य दीक्षित ने शांकरमत की दीक्षा ली थी। इनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों के
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/357
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नाम हैं- वेदान्ततत्त्वविवेक, तत्त्वबोधिनी, भावप्रकाशिका, अद्वैतदीपिका और भेदधिक्कार। इनके अतिरिक्त नृसिंहाश्रम ने पंचपादिका-विवरण व प्रकाशिका नामक दो टीकाएं भी लिखी हैं। न्यायविजय मुनिमहाराज - जैन मुनि। वाराणसी-निवासी। रचना-सन्देश। इस नीतिपरक काव्य में छात्रों को उपयुक्त सन्देश चार भागों में दिया गया है। नेम भार्गव - ऋग्वेद के 8 वें मंडल का 100 वां सूक्त इनके नाम पर है। इस सूक्त में नेम भार्गव ने इन्द्र की स्तुति की है। इसके साथ ही उनके द्वारा व्यक्त वाणी-विषयक विचार निम्नांकित हैं
देवीं वाचमजनयन्त देवास्तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति ।
सा नो मन्द्रेषमूर्जं दुहाना धेनुर्वागस्मानुप सुष्टुतैतु ।। अर्थ- उस दिव्य वाणी को देवताओं ने ही जन्म दिया। किसी भी स्वरूप का प्राणी हो, वह बोलता ही है। (चाहे वह स्पष्ट ध्वनित हो, या न हो)। वह उल्लसित दिव्य वाणी, एक धेन ही है। वह उत्साह व ओजस्विता का भरपूर दूध देती है। तो इस प्रकार की वह मनःपूर्वक स्तुति की गई दिव्य वाणी, हम लोगों के समीप आवे। नेमिचन्द्र - प्रथम नेमिचंद्र को, सिद्धान्तग्रंथों का गहन अध्ययन मनन और चिंतन होने के कारण, "सिद्धान्त-चक्रवर्ती' की उपाधि प्रदत्त । देशीयगण के आचार्य। गुरु-अभयनन्दि, वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि । शिष्य- गंगवंशी राजा राचमल्ल के प्रधान मंत्री और सेनापति चामुण्डराय, जिन्होंने श्रवणबेलगोला (मैसूर) में स्थित विन्ध्यगिरि पर 57 फीट ऊंची बाहुबलि स्वामी की मनोज्ञ प्रतिमा प्रतिष्ठित की थी। चामुण्डराय का पारिवारिक नाम "गोम्मट' था। इसलिए उक्त प्रतिमा को गोम्मटेश्वर भी कहा गया है। इस मूर्ति का स्थापना काल ई. 981 है। अतः नेमिचन्द्र का समय ई. 10 वीं शती का उत्तरार्ध है। ग्रंथ-गोम्मटसार, त्रिलोकसार, लब्धिसार, क्षपणकसार, द्रव्य-संग्रह, प्रतिष्ठापाठ आदि। द्वितीय नेमिचन्द्र - नयनन्दि के शिष्य थे। समय ई. 12 वीं शती के आसपास । रचनाएं- महाभारत का जैन रूपांतर, जैनों के उत्तराध्ययन पर टीका और भववैराग्य शतक नामक स्वतंत्र ग्रंथ। तृतीय नेमिचन्द्र ने 16 वीं शती में गोम्मटसार पर "जीवतत्त्वप्रदीपिका' नामक टीका लिखी थी। चतुर्थ नेमिचन्द्र भोजकालीन "द्रव्यसंग्रह" के रचयिता हैं जिन्हें "सिद्धान्तदेव" कहा गया है। समय ई. 12 वीं शती। रचनाएं- लघुद्रव्यसंग्रह
और बृहद्र्व्यसंग्रह । कार्यक्षेत्र- राजस्थान (बूंदी के पास)। नेमिचन्द्र सूरि - अपरनाम-देवेन्द्र गणि। उद्योतनाचार्य के शिष्य उपाध्याय आम्रदेव के शिष्य। गुरुभ्माता- मुनिचन्द्र सूरि । अणहिलपाटन नगर कार्यक्षेत्र । समय- ई. 11-12 वीं शती। ग्रंथ- उत्तराध्ययन-सुखबोधावृत्ति (वि.सं. 1128), शान्त्याचार्य विहित शिष्यसंहिता नामक बृहद्वृत्ति पर आधारित ।
नेवासकर, परमानंद कवीन्द्र - ई. 17 वीं शती। इनका मूल नाम था गोविद निधिवासकर अर्थात् नेवासकर। ये महाराष्ट्र में नेवासा के रहने वाले थे और इनके घराने की कुलदेवी थी एकवीरा। जैसा कि उन्होंने लिखा है, इस देवी से ही उन्हें वाक्सिद्धि अथवा प्रतिभा प्राप्त हुई थी।
परमानंद कवीन्द्र अनेक वर्षों तक अध्ययनार्थ काशी में रहे। सन् 1673 में वे महाराष्ट्र लोटे और पोलादपुर में रहकर छात्रों को पढाने लगे। उनकी कीर्ति सुनकर शिवाजी महाराज पोलादपुर में उनसे मिले। सन् 1674 में शिवाजी का राज्याभिषेक हुआ। उस प्रसंग पर परमानंद कवीन्द्र वहां उपस्थित थे। उस समय शिवाजी ने उनसे कहा कि वे उनके जीवन पर एक बृहत् काव्य की रचना करें। यह बात परमानंद ने अपने निम्न श्लोकों द्वारा बताई है
योऽयं विजयते वीरः पर्वतानामधीश्वरः । दाक्षिणात्यो महाराजः शाहराजात्मजः शिवः ।। साक्षान्नारायस्यांशस्त्रिदशद्वेशिदारणः । स एकदात्मनिष्ठं मां प्रसाद्येदमभाषत ।। यानि यानि चरित्राणि विहितानि मया भुवि । विधीयन्ते च सुमते तानि सर्वाणि वर्णय । मालभूपमुपक्रम्य प्रथितं मत्पितामहम् ।
कथामेतां महाभाग महनीयां निरूपय।। अर्थ - दुर्गो (किलों) के अधिपति, दक्षिण के महाराजा, प्रत्यक्ष विष्णु के अवतार, देवद्रोहियों के संहारकर्ता, शहाजी के पुत्र वीर शिवाजी जो विजयों से विभूषित है, उन्होंने एक बार मुझ ब्रह्मनिष्ठ को प्रसन्न करते हुए कहा - ____ "हे सुबुद्धे, मैने इस पृथ्वी पर जो जो कार्य किये तथा संप्रति जो कार्य कर रहा हूं, उन सब का आप वर्णन कीजिये। मेरे पितामह सुप्रसिद्ध मालोजी राजा प्रारंभ करते हुए, हे महाभाग, आप इस महनीय कथा का कथन करें।
तब परमानंद ने 100 अध्यायों की योजना करते हुए शिवाजी के चरित्र पर एक महाकाव्य की रचना करने का निश्चय किया। किन्तु नियोजित महाकाव्य के 32 वें अध्याय के 9 श्लोक ही पूरे हो सके। सन् 1661 में शिवाजी द्वारा श्रृंगारपुर पर की गई चढाई तक का शिवचरित्र उसमें संगुफित है। इस महाकाव्य को परमानंद ने नाम दिया "सूर्यवंश", परंतु प्रकाशन संस्था ने इसे "शिवभारत" नाम से प्रकाशित किया। इस ग्रंथ पर शिवाजी महाराज ने उन्हें कवीन्द्र की पदवी से विभूषित किया।
इस ग्रंथ को लेकर परमानंद वाराणसी गए थे। इस बारे में ग्रंथ के पहले ही अध्याय में कहा गया है कि काशी के पंडितों की प्रार्थना पर उन्होंने गंगाजी के तट पर इस महाकाव्य का पाठ किया था।
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शिवाजी महाराज के ही शासनकाल में उनकी शासन व्यवस्था, जीवन कार्य आदि का प्रत्यक्ष अवलोकन करते हुए ही परमानंद ने इस महाकाव्य की रचना की थी। अतः ऐतिहासिक दृष्टि से भी प्रस्तुत "शिवभारत" ग्रंथ को शिवाजी चरित्र की दृष्टि से बडा महत्त्वपूर्ण माना जाता है। नैव व्यंकटेश - रचना - भोसल वंशावलि चम्पू। मनलूर के धर्मराज के पुत्र । चंपू का केवल प्रथम भाग उपलब्ध । अन्य रचनाएं- राघवानन्दम् (नाटक), नीलापरिणयम् (नाटक) और सभापतिविलासम् (नाटक)। तंजौरनरेश सरफोजी भोसले (18-19 वीं शती) द्वारा "साहित्यभोग" की उपाधि से सम्मानित । नोधा गौतम - ऋग्वेद के पहिले मंडल के 58-64 तथा आठवें मंडल के 88 व 93 क्रमांक के सूक्त इनके नाम पर हैं। गौतम कुलोत्पन्न नोधा अच्छे कवि भी थे। उन्हें अपने काव्य के बारे में सार्थ अभिमान था। वे कहते हैं - ___ "हे नोधा, वीर्यशाली, अत्यंत पूज्य अत्यंत कर्तृत्ववान् ऐसे मरुतों के सम्मानार्थ उनके गुणों को संबोधित करते हुए एक सुंदर स्तोत्र अर्पण करो। एक कवि होने के कारण मनन द्वारा अच्छा कौशल साध्य कर, मैं यज्ञ के अवसर पर प्रभावसंपन्न स्तोत्रों की पानी की भांति वृष्टि करूंगा।" । ___ इन सभी सूक्तों में अग्नि, इन्द्र, मरुत व सोम की स्तुति है। अग्नि विषयक स्तुति की उनकी ऋचा निम्नांकित है :
मूर्धा दिवो नाभिरग्निः पृथिव्य अथाभवदरती रोदस्योः ।
ते तं त्वा देवासो जनयन्त देवं वैश्वानर ज्योतिरिदार्याय ।। अर्थ- अग्नि है धुलोक का मस्तक और पृथ्वी की नाभि, वह धुलोक तथा भूलोक का अधिपति बना है। संपूर्ण विश्व के प्रति मित्रत्व धारण करनेवाले हे अग्निदेव, आप इस प्रकार के श्रेष्ठ देवता होने के कारण, आप आर्य जनों के प्रकाश (मार्गदर्शक) बनें इस हेतु, आपको दिव्य जनों ने जन्म लेने के लिये प्रेरित किया।
नोधा ने मरूतों के सूक्त में (1.64) मरुतों संबंधी पर्याप्त चरित्रविषयक जानकारी दी है। न्यायवागीश भट्टाचार्य - ई. 18 वीं शती। रचना - "काव्यमंजरी"| बंगाल के निवासी।। पंचपागेश शास्त्री - (कविरत्न)। कुम्भकोणम् के शांकर मठ में अध्यापक। समय ई. 19-20 वीं शती। रचनाएंहरिश्चन्द्रविजयचम्पूः, ताटंकप्रतिष्ठामहोत्सव चम्पूः, जगद्गुरु
अष्टोत्तरशतकम्, रामकृष्ण परमहंस चरितम्, शंकरगुरुचरित-संग्रह तथा अनेक देवतास्तोत्र। सभी मुद्रित । पंचशिख - सांख्यदर्शन को व्यवस्थित व सुसंबद्ध करने वाले प्रथम आचार्य। सांख्यदर्शन के प्रवर्तक महर्षि कपिल के शिष्य आचार्य आसुरि के ये शिष्य थे। इनके सिद्धांत वाक्य अनेक ग्रंथों में उद्धृत हैं, जिन्हें पंचशिखसूत्र कहा जाता है। यथा -
1) एकमेव दर्शनं ख्यातिरेव दर्शनम् (योगाभाष्य, 1-4)। 2) तमणुमात्रमात्मानमनुविद्यारमीत्येवं तावत्संप्रजानीते (योग, 1-36)। 3) तत्संयोगहेतु विवर्जनात् स्यादयमात्यंतिको दुःखप्रतिकारः ।
(योगभाष्य 2-17, ब्रह्मसूत्र-भामती, 2-2-10)। चीनी परंपरा, पंचशिख को “षष्टितंत्र' का रचयिता मानती है जिसमें 60 हजार श्लोक थे। इनके सिद्धांतों का विवरण "महाभारत" में भी प्राप्त होता है। (शांतिपर्व, अध्याय 302-308)। "षष्टितंत्र" के प्रणेता के बारे में विद्वानों में मतभेद है। उदयवीर शास्त्री व कालीपद भट्टाचार्य, "षष्टितंत्र" का रचयिता कपिल को मानते है। भास्कराचार्य ने भी अपने ब्रह्मसूत्र के भाष्य में कपिल को ही "षष्टितंत्र" का प्रणेता कहा है। “कपिलमहर्षिप्रणीत षष्टितंत्राख्यस्मृतेः (ब्रह्मसूत्र 2-1-1) पर म.म.डा. गोपीनाथ कविराज के अनुसार, पंचशिख ही "षष्टितंत्र" के प्रणेता हैं। पंचाचार्य - वीरशैव मत के प्रवर्तक पांच आर्य। इनके शुभनाम हैं एकोरामाराध्य, पंडिताराध्य, रेवणाराध्य, मरुलाराध्य
और विश्वाराध्य। कहा गया है कि ये आचार्य शिवलिंग से उद्धृत हुए और उन्होंने विश्वसंचार करते हुए शिवभक्ति का सर्वत्र प्रचार किया। इस संबंध में शिवजी पार्वती से कहते हैं :
मदादिसर्वलोकानां जगद्गुरुवरोत्तमाः ।। अर्थ - मेरे पांच मुखों से उत्पन्न हुए ये पांच आचार्य, मेरे तथा सभी लोगों के श्रेष्ठ गुरु हैं। ___ इन आचार्यों ने कर्नाटक के बाले होन्नूर, मालवा की उज्जयिनी, हिमालय के केदारक्षेत्र, श्रीशैलक्षेत्र तथा काशी इन पांच स्थानों पर धर्मपीठ स्थापन किये। माना जाता है कि इन पांच आचार्यों ने उपनिषदादि ग्रंथों पर भाष्यों की रचना की थी, किन्तु अभी तक उनमें से एक भी भाष्य उपलब्ध नहीं हो सका है। पंचानन तर्करत्न (म.म.) - जन्म- सन् 1866 में बंगाल के चौबीस परगना जिले के भट्टपल्ली (भाटापाडा) में। 19 वर्ष की अवस्था में पिता- नन्दलाल विद्यारत्न, जयराम न्यायभूषण, राखालदास न्यायरत्न, मधुसूदन स्मृतिरत्न, ताराचरण तर्करत्न, भास्कर शर्मा आदि से शिक्षा प्राप्त की। सन् 1885 से 1937 तक वंगवासी प्रेस में संपादन तथा संशोधन में रत रहे। नॅशनल कालेज व संस्कृत साहित्य परिषद् की स्थापना की। शारदा बिल का विरोध करते हुए, “महामहोपाध्याय' की उपाधि का त्याग किया। "अनुशीलनी" नामक क्रान्तिकारी दल का गठन किया। अलीपुर बम विस्फोट के संदर्भ में सन 1907 में बन्दिवास में रहे।
कृतियां - पार्थाश्वमेध व सर्वमंगलोदय (काव्य), अमरमंगल तथा कलंकमोचन (नाटक), ब्रह्मसूत्र पर शक्तिभाष्य, रामायण, महाभारत,पंचदशी, वैशेषिक दर्शन, सांख्यतत्व कौमुदी आदि
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 359
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पर टीकाएं। पक्षधर मिश्र - समय ई.की 13 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इनका मूल नाम था जयदेव। किसी भी सिद्धांत को लेकर उसका एक पक्ष (पखवाडे) तक समर्थन करते रहने के उनके स्वभाव के कारण, उन्हें “पक्षधर" कहते थे। इन्होंने गंगेश उपाध्याय के तत्त्वचिंतामणि नामक ग्रंथ पर, आलोक नामक टीका लिखी है। इनके शिष्य रुचिदत्त मिश्र भी प्रकांड पंडित थे। उन्होंने वर्धमान के कुसुमांजलिप्रकाश पर "मकरंद" नामक तथा गंगेरी की तत्त्वचिंतामणि पर "प्रकाश" नामक टीका लिखी है। पट्टाभिराम शास्त्री (विद्यासागर एवं मीमांसान्यायकेसरी उपाधियों से विभूषित) - - समय ई. 20 वीं शती। महाराजा संस्कृत कॉलेज, जयपुर के अध्यक्ष एवं कलकत्ता वि. वि. में मीमांसा प्राध्यापक। "नवोढा वधूः वरश्च” नामक प्रहसन के प्रणेता। वाराणसी में निवास । पतंग प्राजापत्य - ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 177 वां सूक्त इनके नाम पर है। ये प्रजापति के प्रिय पुत्र थे। एक कथा के अनुसार, इनके द्वारा निर्मित साम (मंत्र) के कारण, उच्चैःश्रवस कौपेय को मृत्यु के पश्चात् धूम्रशरीर प्राप्त हुआ। उनके द्वारा विरचित सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है -
पतङ्गमक्तमसुरस्य मायया हदा पश्यन्ति मनसा विपश्चितः । समुद्रे अन्तः कवयो विचक्षते
मरीचीनां पदमिच्छन्ति वेधसः ।। (ऋ. 10.1.77) अर्थ - यह पतंग = (परमात्मरूप पक्षी अथवा सूर्य) अपनी ईश्वरीय माया से (अतयं शक्ति से) व्याप्त होने के कारण उत्तम ज्ञानी जन उसे केवल अपने हृदय की संवेदना से युक्त मन से ही पहचानते हैं। गूढ कल्पना तरंग में निमग्न रहनेवाले कवि भी (विश्वरूपी) सागर के उदर में ही उसे देखते हैं और विधाता (स्वानुभवी) होते हैं, वे उसके प्रकाश स्थान की प्राप्ति की इच्छा करते हैं। सूर्य का वर्णन "पतंग" इस नाम से करने के कारण इन्हें 'पतंग' यह नाम प्राप्त हुआ होगा। पतंजलि - ई. 2 री शती। "व्याकरण-पहाभाष्य" के रचयिता, योगदर्शन के प्रणेता तथा आयुर्वेद की चरक परंपरा के जनक पतंजलि की गणना, भारत के अग्रगण्य विद्वानों में की जाती है। इसी लिये उन्हें नमन करते हुए भर्तृहरि ने अपने ग्रंथ वाक्यपदीय के प्रारंभ में निम्न श्लोक लिखा है -
योगेन चित्तस्य पदेन वाचां मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां
पतंजलिं प्रांजलिरानतोऽस्मि ।। अर्थ - योग से चित्त का, पद (व्याकरण) से वाणी का व वैद्यक से शरीर का मल जिन्होंने दूर किया, उन मुनिश्रेष्ठ पतंजलि को में अंजलि बद्ध होकर नमस्कार करता हूँ।
पतंजलि के अन्य नाम हैं- गोनीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, चूर्णिकार, फणिभृत, शेषाहि, शेषराज और पदकार । निवास स्थान - गोनर्द ग्राम (काश्मीर) अथवा गोंडा उ. प्र.। माता- गोणिका। पिताजी का नाम उपलब्ध नहीं। रामचंद्र दीक्षित ने पतंजलिचरित नामक उनका चरित्र लिखा है जिसमें पतंजलि को शेष का अवतार मानकर, तत्संबंधी निम्न आख्यायिका दी गई है
एक बार जब श्रीविष्णु शेषशय्या पर निद्रित थे, शंकरजी ने अपना तांडव नृत्य प्रारंभ किया। उस समय श्रीविष्णु गहरी निद्रा में नहीं थे। अतः स्वाभाविकतः उनका ध्यान उस शिवनृत्य की ओर आकर्षित हुआ। उस नृत्य को देखते हुए श्रीविष्णु को इतना आनंद हुआ, कि वह उनके शरीर में समाता नहीं था। अतः उन्होंने अपने शरीर को बढ़ाना प्रारंभ किया। विष्णु का शरीर वृद्धिंगत होते ही शेष को उनका भार असह्य हो उठा। वे अपने सहस्र मुखों से फूत्कार करने लगे। उसके कारण लक्ष्मीजी घबराईं और उन्होंने श्रीविष्णु को नींद से जगाया। उनके जागते ही उनका शरीर आकुंचित हुआ। तब छुटकारे की सांस लेते हुए शेष ने पूछा "क्या आज मेरी परीक्षा लेना चाहते थे।" इस पर श्रीविष्णु ने शेष को, शिवजी के तांडव नृत्य का कलात्मक श्रेष्ठत्व विशद करके बताया। तब शेष बोले - “वह नृत्य एक बार मै देखना चाहता हूं"। इस पर विष्णु ने कहा - "तुम एक बार पुनः पृथ्वी पर अवतार लो, उसी अवतार में तुम शिवजी का तांडव नृत्य देख सकोगे।" ।
तदनुसार अवतार लेने हेतु उचित स्थान की खोज में शेषजी चल पडे। चलते चलते गोनर्द नामक स्थान पर, उन्हें गोणिका नामक एक महिला, पुत्रप्राप्ति की इच्छा से तपस्या करती हुई दीख पडी। शेषजी ने उसे मातृरूप में स्वीकार करने का मन ही मन निश्चय किया। अतः जब गोणिका सूर्य को अर्घ्य देने हेतु सिद्ध हुई तब शेषजी सूक्ष्म रूप धारण कर उसकी अंजलि में जा बैठे और उसकी अंजलि के जल के साथ नीचे आते ही, उसके सम्मुख बालक के रूप में खडे हो गए। गोणिका ने उन्हें अपना पुत्र मान कर गोदी में उठा लिया और बोली "मेरी अंजुलि से पतन पाने के कारण, मै तुम्हारा नाम पतंजलि रखती हूँ"।
पतंजलि ने बाल्यावस्था से ही विद्याभ्यास प्रारंभ किया। फिर तपस्या द्वारा उन्होंने शिवजी को प्रसन्न कर लिया। शिवजी ने उन्हें चिदंबर क्षेत्र में अपना तांडव नृत्य दिखलाया और पदशास्त्र पर भाष्य लिखने का आदेश दिया। तदनुसार चिदंबरम् में ही रह कर पतंजलि ने पाणिनि के सूत्रों तथा कात्यायन के वार्तिकों पर विस्तृत भाष्य की रचना की। यह ग्रंथ “पातंजल महाभाष्य" के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
इस महाभाष्य की कीर्ति सुनकर, उसके अध्ययनार्थ हजारों
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पंडित पतंजलि के यहां आने लगे। पतंजलि एक यवनिका (पर्दे) की ओट में बैठ कर, शेषनाग के रूप में उन सहस्रों शिष्यों को एक साथ पढाने लगे। उन्होंने शिष्यों को कडी चेतावनी दे रखी थी कि कोई भी यवनिका के अंदर झांक कर न देखे। किन्तु शिष्यों के हृदय में इस बारे में भारी कुतूहल जाग्रत हो चुका था कि एक ही व्यक्ति एक ही समय इतने शिष्यों को ग्रंथ के अन्यान्य भाग किस प्रकार पढ़ा सकता है। अतः एक दिन उन्होंने जब यवनिका दूर की, तो उन्हें दिखाई दिया कि पतंजलि सहस्रमुख शेषनाग के रूप में अध्यापन कार्य कर रहे हैं किन्तु शेषजी का तेज इतना प्रखर था कि उन्हें देखने वाले सभी शिष्य तुरंत जल कर भस्म
भा शिष्य तुरत जल कर भस्म हो गए। केवल एक शिष्य जो उस समय जल लाने के लिये बाहर गया था, बच गया। पतंजलि ने उसे आदेश दिया, कि वह सुयोग्य शिष्यों को महाभाष्य पढाए। फिर पतंजलि चिदंबर क्षेत्र से गोनर्द ग्राम लौटे। वहां पहुंच कर उन्होंने अपनी माताजी के दर्शन किये, और फिर अपने मूल शेष रूप में वे प्रविष्ट हो गए।
महाभाष्य के समान ही पतंजलि ने आयुर्वेद की चरक संहिता भी लिखी ऐसा कहा गया है। चरक संहिता का मूल नाम है आत्रेयसंहिता। कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा थी चरक। उसके अनुयायियों को भी चरक ही कहा जाता था। ऐसा प्रसिद्ध है कि चरक लोग सामान्यतः आयुर्वेदज्ञ, मांत्रिक तथा नागोपासक थे। कहा जाता है कि पतंजलि भी उसी शाखा के होंगे। चरकसंहिता अत्रि के नाम पर होते हुए भी अधिकांश विद्वान मानते हैं कि पतंजलि ने उस पर प्रबलसंस्कार अवश्य किये होंगे। पतंजलि को आयुर्वेद की अच्छी जानकारी थी, यह बात उनके महाभाष्य से भी दिखाई देती है। उनके महाभाष्य में शरीररचना, शरीरसौंदर्य, शरीरविकृति, रोगनिदान, औषधिविज्ञान आदि के विषय में अनेक स्थानों पर उल्लेख आए हैं। __ योगसूत्रों की भी रचना पतंजलि ने ही की ऐसा प्रसिद्ध है किंतु भाष्यकार, योगसूत्रकार तथा चरकसंस्कर्ता को एक ही व्यक्ति मानना, अनेक विद्वानों को मान्य नहीं। उनका तर्क है कि ये तीनों पतंजलि भिन्न काल के भिन्न व्यक्ति होने चाहिये। योगसूत्रों में आर्ष (ऋषिप्रणीत) प्रयोग नहीं हैं। सूत्रों के अर्थों के लिये अध्याहार (वाक्यपूर्ति के लिये शब्द-योजना) की आवश्यकता नहीं पडती और उसकी रचना-शैली महाभाष्य के अनुरूप स्पष्ट एवं प्रासादिक है। इन आधारों पर डॉ. प्रभुदयाल अग्निहोत्री, महाभाष्यकर्ता को ही योगसूत्रों का कर्ता मानते हैं। अन्य किसी भी दार्शनिक की तुलना में योगसूत्रकार एक श्रेष्ठ वैयाकरण प्रतीत होते हैं। चक्रपाणि नामक एक प्राचीन टीकाकार ने भी निम्न श्लोक द्वारा पतंजलि को एक ही व्यक्ति माना है
पातंजल-महाभाष्य-चरकप्रतिसंस्कृतैः । मनोवाक्कायदोषाणां हन्तेऽहिपतये नमः ।।
अर्थ- योगसूत्र, महाभाष्य तथा चरकसंहिता का प्रतिसंस्करण इन कृतियों से, क्रमशः मन, वाणी एवं देह के दोषों का निरसन करने वाले पतंजलि को मैं नमस्कार करता हूं।
चरक शब्द के कल्पित अर्थ लेकर विद्वानों ने जो तर्क प्रस्तुत किये हैं उनमे द्विवेदी कहते हैं- अध्ययन की समाप्ति के पश्चात्, पतंजलि कुछ समय के लिये "चरक" अर्थात् भ्रमणशील रहे। विभिन्न प्रदेशों व ग्रामों में घूम-फिर कर, उन्होंने पाणिनि कात्यायन के पश्चात् संस्कृत भाषा के शब्द-प्रयोगों में जो परिवर्तन रूढ हुए उनका अध्ययन किया, और उनका निरूपण करने हेतु “इष्टि" के नाम से कुछ नये नियम बनाये।
पुणे निवासी श्री. अ. ज. करंदीकर ने चरक के चर अर्थात् गुप्तचर इस अर्थ के आधार पर अपनी संभावना व्यक्त करते हुए लिखा हैं___"प्रारंभ में पतंजलि ने एक गुप्तचर की भूमिका से भारत भ्रमण किया होगा। उस स्थिति में उनका समावेश, अर्थशास्त्र में वर्णित सत्री नामक गुप्तचरों में हुआ होना चाहिये। आर्य चाणक्य ने अपने अर्थशास्त्र में कहा है कि पितृहीन व आप्तहीन बालकों को सामुद्रिक, मुख-परीक्षा, जादू-विद्या, वशीकरण, आश्रम-धर्म, शकुन-विद्या आदि सिखाकर, उनमें से संसर्ग अथवा समागम द्वारा वृत्त-संग्रह करने वाले गुप्तचरों का चुनाव किया जाना चाहिये। पतंजलि को गोणिका-पुत्र कह कर ही पहचाना जाता है। अतः उनके पिताजी की अकालमृत्यु हुई होगी और वे निराधार रहे होंगे। परिणामस्वरूप सत्री नामक गुप्तचरों के बीच ही उनकी शिक्षा-दीक्षा हुई होगी, अथवा उन्होंने स्वेच्छा से ही उस साहसी व्यवसाय का स्वीकार किया होगा।" __पतंजलि के जन्मस्थान के बारे में भी विद्वानों का एकमत नहीं हैं। पतंजलि ने कात्यायन को दाक्षिणात्य कहा है। इससे अनुमान होता है, कि वे उत्तर भारत के निवासी रहे होंगे। उनके जन्म-ग्राम के रूप में गोनर्द ग्राम का नामोल्लेख हो चुका है। किन्तु गोनर्द का संबंध गोंडप्रदेश से भी मानते हैं। कतिपय पंडितों के मतानुसार गोनर्द ग्राम अवध प्रदेश का गोंडा होगा। वेबर इस गावं को मगध के पूर्व में स्थित मानते हैं। कनिंगहैम के अनुसार, गोनर्द है गौड किन्तु पतंजलि थे आर्यावर्त का अभिमान रखने वाले। अतः उनका जन्म-ग्राम, आर्यावर्त ही में कहीं-न-कहीं होना चाहिये, इसमें संदेह नहीं। उस दृष्टि से वह गोनर्द, विदिशा और उज्जैन के बीच किसी स्थान पर होना चाहिये। प्रो. सिल्व्हाँ लेव्ही भी गोनर्द को विदिशा व उज्जैन के मार्ग पर ही मानते हैं। उन्होंने यह भी बताया है कि विदिशा के समीप स्थित सांची के बौद्ध स्तूप को, आसपास के प्रायः सभी गांवों के लोगों द्वारा दान दिये जाने के उल्लेख मिलते हैं, किन्तु उसमें गोनर्द के लोगों के नाम दिखाई नहीं देते। इस बात पर उन्होंने आश्चर्य भी व्यक्त
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किया है। तथापि इस पर से अनुमान निकलता है कि गोनर्द शंकराचार्य, रामानुज, सायण जैसे महान् आचार्य किन्तु केवल के लोग कट्टर बौद्ध-विरोधक होंगे। ऐसे बौद्ध-विरोधकों के । पतंजलि का भाष्य ही, "महाभाष्य" होने का सम्मान प्राप्त केन्द्र में पतंजलि पले यह घटना, उनके चरित्र की दृष्टि से
कर सका। इस महाभाष्य द्वारा व्याकरण के सूक्ष्मातिसूक्ष्म महत्त्वपूर्ण है। व्याकरण-महाभाष्य से यह सूचित होता है, कि । रहस्यों तक का उद्घाटन किया जाता है। : पतंजलि की मौर्य सम्राट् बृहद्रथ का वध कराने वाले पुष्यमित्र
___इसके साथ ही अपने इस ग्रंथ में शब्द की व्यापकता पर शुंग से मित्रता थी। पतंजलि ने व्याकरण की परीक्षा पाटलीपुत्र
प्रकाश डाल कर, पतंजलि ने "स्फोटवाद" नामक एक नवीन (पटना) में दी। वहीं पर उन दोनों की मित्रता हुई होगी। दार्शनिक सिद्धांत की नींव भी डाली है। अनादि, अनंत, बौद्ध बन कर वैदिक धर्म का विरोध करने वाले मौर्य-कुल
अखंड, अज्ञेय, स्वयंप्रकाशमान आदि नाना विशेषणों से विभूषित का उच्छेद कर, भारत में वैदिकधर्मी राज्य की प्रस्थापना करने
शब्दब्रह्म ही सृष्टि का आदिकारण है, ऐसा पतंजलि मानते हैं। की योजना, उन दोनों ने वहीं पर बनाई होगी। इस दृष्टि से
पतंजलि की रचनाएं- व्याकरण महाभाष्य के अतिरिक्त पतंजलि अ. ज. करंदीकर ने पतंजलि से संबंधित आख्यायिकाओं को
नाम से संबंधित निम्न कृतियाँ हैऐतिहासिक, अर्थ लगाने का निम्न प्रकार से प्रयत्न किया है
महाराज समुद्रगुप्त कृत "कृष्णचरित" में पतंजलि को- "महानंद" ___ श्री विष्णु ने अपने शरीर को बढाया और उसका भार
या "महानंदमय" काव्य का प्रणेता कहा गया है जिस में शेषजी को असह्य हुआ। इसका अर्थ यह कि पृथ्वीपति रूपी
काव्य के बहाने योग का वर्णन किया गया है। विष्णु अर्थात् मौर्य सम्राट् द्वारा अपनी अधिकार-मर्यादा का
__ "सदुक्तिकर्णामृत' में भाष्यकार के नाम से निम्न श्लोक किया गया उल्लंघन, पतंजलि के समान ही मध्यभारत के
उद्धृत किया गया हैसभी नागकुलोप्तन्नों को असह्य हो चुका था। प्रतीत होता है
यद्यपि स्वच्छभावेन दर्शयत्यम्बुधिर्मणीन् । कि पतंजलि का नागकुल से घनिष्ट संबंध था, क्योंकि उन्हें
तथापि जानुदन्नोऽयमिति चेतसि मा कथाः ।। शेषनाग का अवतार माना गया है। इन नागों का पुष्यमाणव
2. शारदातनय-रचित "भावप्रकाशन" में किसी वासुकी नामक एक संगठन, पुष्यमित्र के ही नेतृत्व में निर्माण हुआ
आचार्य कृत साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ का उल्लेख है। इसमें भावों होगा यह बात
द्वारा रसोत्पत्ति का कथन किया गया है। इससे अनुमान होता ___ "महीपालवचः श्रुत्वा जुधुषुः पुष्यमाणवाः" अर्थात् महीपाल
है कि पतंजलि ने कोई काव्यशास्त्रीय ग्रंथ लिखा होगा। का (राजा का) वचन सुनकर पुष्यमानव प्रक्षुब्ध हुए- इस
3. लोहशास्त्र- शिवदासकृत वैद्यक ग्रंथ "चक्रदत्त" की महाभाष्यांतर्गत श्लोक से सूचित होती है। यह कल्पना, टीका में लोहशास्त्र नामक ग्रंथ के रचयिता पतंजलि बताए गए हैं। प्रभातचंद्र चॅटर्जी से लेकर डॉ. वासुदेवशरण अग्रवाल तक
5. सिद्धांत-सारावली- इसके प्रणेता भी पतंजलि कह गए हैं। अनेक विद्वानों ने स्वीकार की है। पुष्यमित्र के साथ ही पतंजलि ने भी इस संगठन का नेतृत्व किया होगा।
6. कोश- अनेक कोश-ग्रंथों की टीकाओं में वासकि,
शेष, फणपाति व भोगींद्र आदि नामों द्वारा रचित कोश-ग्रंथ पुष्यमित्र शुंग व पतंजलि दोनों ही वैदिक धर्म एवं संस्कृत
के उद्धरण प्राप्त होते हैं। भाषा के अभिमानी थे। पुष्यमित्र ने दो अश्वमेघ यज्ञ किये थे, और उनका पौरोहित्य किया था पतंजलि ने । व्याकरण-महाभाष्य
पतंजलि का समय- बहुसंख्य भारतीय व पाश्चात्य विद्वानों लिख कर तो पतंजलि ने संस्कृत भाषा को गौरव के शिखर
के अनुसार पतंजलि का समय 150 ई. पू. है; पर युधिष्ठिर पर ही पहुंचा दिया। परिणामस्वरूप पाली-अर्धमागधी जैसी
मीमांसकजी ने जोर देकर बताया है, कि पतंजलि, विक्रम बौद्ध-जैनों की धर्मभाषाएं तक संस्कृत के सामने पिछड गई।
संवत् से दो हजार वर्ष पूर्व हुए थे। इस संबंध में अभी "संस्कृत तथा अपभ्रंश शब्दों से यद्यपि एक जैसा ही अर्थ
तक कोई निश्चित प्रमाण प्राप्त नहीं हो सका है पर अंतःसाक्ष व्यक्त होता है, फिर भी धार्मिक दृष्टि से संस्कृत-शब्दों का
के आधार पर इनका समय-निरूपण कोई कठिन कार्य नहीं। ही उपयोग किया जाना चाहिये, क्योंकि ऐसा करने से अभ्युदय
"महाभाष्य" के वर्णन से पता चलता है कि पुष्यमित्र ने होता है"- ऐसा पतंजलि ने कहा है। उस काल में पतंजलि
किसी ऐसे विशाल यज्ञ का आयोजन किया था, जिसमें अनेक व पुष्यमित्र द्वारा किये गये संस्कृत भाषा के पुनरुत्थान के
पुरोहित थे, और उनमें पतंजलि भी थे। वे स्वयं ब्राह्मण कारण ही रामायण-महाभारतादि महान् ग्रंथों का अखिल भारत
याजक थे और इसी कारण उन्होंने क्षत्रिय याजक पर कटाक्ष
किया हैमें सामान्यतः एक ही स्वरूप में प्रचार हुआ, और भारत का
यदि भवद्विधः क्षत्रियं याजयेत् (3-3-147, पृ. 332)। एकराष्ट्रीयत्व अब तक टिक सका।
पुष्यमित्रो यजते, याजकाः याजयंति । तत्र भवितव्यम् व्याकरण महाभाष्य है पतंजलि की अजरामर कृति। भारत
पुष्यमित्रो याजयते, याजकाः याजयंतीति यज्वादिषु में अनेक भाष्यों का निर्माण हुआ जिनके निर्माता थे शबर,
चाविपर्यासो वक्तव्यः (महाभाष्य, 3-1-26)।
जी ने जोर
पर्व हुए थे। इस
पर अंतःसाक्ष
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इससे पता चलता है, कि पतंजलि का आविर्भाव कालिदास के पूर्व व पुष्यमित्र के राज्य-काल में हुआ था। "मत्स्य-पुराण" के अनुसार पुष्यमित्र ने 36 वर्षों तक राज्य किया था। पुष्यमित्र के सिंहासनासीन होने का समय 185 ई. पू. है, और 36 वर्ष कम कर देने पर उसके शासन की सीमा 149 ई. पू. निश्चित होती है। गोल्डस्टुकर ने "महाभाष्य" का काल 140 से 120 ई. पू. माना है। डॉ. भांडारकर के अनुसार पतंजलि का समय 158 ई. पू. के लगभग है पर प्रो. बेबर के अनुसार इनका समय कनिष्क के बाद अर्थात् ई. पू. 25 वर्ष होना चाहिये। डा. भांडारकर ने प्रो. बेबर के इस कथन का खंडन कर दिया है। बोथलिंक के मतानुसार पतंजलि का समय 200 ई. पू. है (पाणिनीज् ग्रामेटिक)। इस मत का समर्थन मेक्समूलर ने भी किया है। कीथ के अनुसार पतंजलि का समय 140-150 ई. पू. है।। पद्मगुप्त (परिमल)- ई. 11 वीं शती। पिता-मृगांकगुप्त । धारा नगरी के सिंधुराज के ज्येष्ठ भ्राता राजा मुंज के आश्रित कवि। इन्होंने संस्कृत साहित्य के सर्वप्रथम ऐतिहासिक महाकाव्य की रचना की। इस महाकाव्य का नाम है "नवसाहसाङ्कचरित"। यह इतिहास एवं काव्य दोनों ही दृष्टियों से मान्यता प्राप्त है।
इस महाकाव्य के 18 सर्ग हैं, और इसमें सिंधुराज के पूर्वजों अर्थात् परमारवंशीय राजाओं का वर्णन किया गया है। इस कृति पर महाकवि कालिदास के काव्य का प्रभाव परिलक्षित होता है। इसकी रचना सन 1005 के आसपास हुई थी। इसका, हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशन चौखम्बा-विद्याभवन से हो चुका है।
पद्मगुप्त, “परिमल कालिदास" कहलाते थे। धनिक व मम्मट ने इन्हें उद्धृत किया है। पद्मनंदि- इस नाम के अनेक सत्पुरुष जैन संप्रदाय में हए। वे सभी संमानित है परंतु उन में संस्कृत ग्रंथकार के रूप में पद्मनंदि द्वितीय विशिष्ट उल्लेखनीय हैं। गुरुनाम-वीरनन्दि । समय ई. 11 वीं शती। रचनाएं-1. पद्मनन्दि पंचविंशतिका। इसमें धर्मोपदेशामृत (198 पद्य), दानोपदेशन (54 पद्य), उपासकसंस्कार (12 पद्य), देशव्रतोद्योतन (27 पद्य), सद्बोधचन्द्रोदय (50 पद्य) आदि 26 विषयों का सुंदर वर्णन मिलता है। इस ग्रंथ के कन्नड टीकाकार भी पद्मनंदि हैं। कार्यक्षेत्र कोल्हापूर तथा मिरज रहा है।
पद्मनंदि भट्टारक प्रभाचन्द्र के शिष्य । जाति-ब्राह्मण । मूलसंघ स्थित नन्दिसंघ बलात्कारगण और सरस्वती गच्छ के आचार्य। शिष्यनाम- मदनदेव, नयनन्दि और मदनकीर्ति। ई. 13 वीं शताब्दी। प्रतिष्ठाचार्य। रचनाएं:- 1. जीरापल्ली-पार्श्वनाथ स्तवन (10 पद्य), 2. भावना-पद्धति (34 पद्य), 3. श्रावकाचारसारोद्धार (तीन परिच्छेद), 4. अनन्तव्रतकथा (85 पद्य) और 5. वदमानचरित (300 पद्य)।
पद्मनाभ- ई. 15 वीं शती (पूर्वार्ध)। जन्मतः कायस्थ थे, बाद में गुणकीर्ति भट्टारक के उपदेश से जैन धर्म स्वीकार किया। ग्वालियर के आसपास के निवासी। ग्रंथः यशोधरचरित (9 सर्ग)। यह ग्रंथ पद्मनाभ ने ग्वालियर के तोमरवंशी राजा वीरमदेव के मंत्री कुशराज के आग्रह से लिखा था। पद्मनाभ- कामशास्त्री के पुत्र। ई. 19 वीं शती। गोदावरी के तट पर कोटिपल्ली में जन्म। आन्ध्र के कोटिपल्ली गावं के महोत्सव में प्रदर्शन हेतु लिखित रचना "त्रिपुरविजय-व्यायोग"। पद्मनाभ- मूलतः आन्धनिवासी। तदनन्तर काशी-वास्तव्य में रचना- लीलादर्पणभाणः (शृंगारिक)। पद्मनाभ दत्त- वि. सं. 1400। “सुपद्म" नामक व्याकरण की रचना। पिता-दामोदरदत्त। पितामह-श्रीदत्त। अन्य रचनाएं-सुपाम-पंजिका, प्रयोगदीपिका, उणादिवृत्ति, धातुकौमुदी, यङ्लुङ्वृत्ति, गोपालचरित, आनन्दलहरी (माघटीका), छन्दोरत्न, आचारचन्द्रिका, भूरिप्रयोगकोश और परिभाषावृत्ति।
टीकाएं-विष्णुमिश्र (सुपद्ममकरन्द), रामचंद्र, श्रीधर चक्रवर्ती, काशीश्वर प्रभृति ने "सुपद्म' पर टीकाएं लिखी हैं। इस व्याकरण का प्रचार बंगाल के कुछ जिलों तक ही सीमित रहा।
इनके अतिरिक्त सुपद्मव्याकरण विषयक ग्रन्थकारों की व्याकरण-रचना अल्पमात्रा में प्रचलित है:- शुभचन्द्र कृत-चिन्तामणि व्याकरण। भरतसेनकृत-द्रुतबोध व्याकरण और रामकिंकरकृत-आशुबोध व्याकरण । रामेश्वर-शुद्धाशुबोध व्याकरण । शिवप्रसाद-शीघ्रबोध व्याकरण। काशीश्वर-ज्ञानामृत व्याकरण । रूपगोस्वामी-हरिनामामृत। जीवगोस्वामी-हरिनामामृत। बालराम पंचानन- प्रबोधप्रकाश व्याकरण । विज्जल भूपति- प्रबोध-चंद्रिका व्याकरण। विनायक - भावसिंहप्रक्रिया। चिद्रूपाश्रम - दीपव्याकरण । नारायण सुरनन्द - कारिकावली व्याकरण। नरहरि - बालबोध व्याकरण। पद्मनाभ मिश्र (प्रद्योतन भट्टाचार्य)- समय - ई. 16 वीं शती। पिता-बलभद्र मिश्र । माता-विजयश्री। मूलतः बंगाली। काशी में निवास । “वीरभद्रसेन चंपू' सहित अनेक ग्रंथों के प्रणेता, जिनमें काव्य के अतिरिक्त दर्शन-ग्रंथों का भी समावेश है। इस चंपू के साथ ही इनकी दूसरी प्रमुख कृति जयदेव कृत "चंद्रालोक" की शरदागम टीका है। ___ "वीरभद्रसेन चंपू' का रचना-काल 1577 ई. है (7-7), जिसे इन्होंने रीवानरेश रामचंद्र के पुत्र वीरभद्रदेव के आग्रह पर लिखा था। इस चंपू-काव्य का प्रकाशन प्राच्यवाणी-मंदिर, 3, फेडरेशन स्ट्रीट कलकत्ता-9 से हुआ है। पद्मनाभ शास्त्री- व्ही. जी. श्रीरंगनिवासी। रचना-जार्ज-देवचरितम् जो राजभक्तिप्रदीप के नाम से भी प्रसिद्ध है अन्य रचना-पवनदूतम् (खण्ड काव्य)। जार्ज देवचरितम् में आंग्लनृप पंचम जार्ज का चरित्र वर्णित है।
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पद्मनाभाचार्य- ई. 16 वीं शती। आप शोभनभट्ट नाम से एक उद्भट विद्वान् के रूप में चालुक्यों की राजधानी कल्याण नगरी में सुप्रसिद्ध थे। इसी नगरी में मध्वाचार्य से हुए शास्त्रार्थ में पराजित होने पर उन्होंने मध्वाचार्यजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। तभी मध्वाचार्य ने उनका नया नाम रखा पद्मनाभाचार्य । मध्वाचार्य के पश्चात् वे ही उनके मठ के उत्तराधिकारी बने। उन्होंने मध्वाचार्यजी के ग्रंथों पर टीकाएं तथा पदार्थसंग्रह, मध्वसिद्धांतसार आदि कुछ ग्रंथ भी लिखे हैं। पद्मनाभाचार्य- 19 वीं शती। कोईमतूर में वकील। रचनाएं-गोवर्धन-विलासम् और ध्रुवतपः । पद्मपादाचार्य- ई. 8 वीं शती। आद्य शंकराचार्यजी के चार प्रमुख शिष्यों में से एक। काश्यपगोत्रीय ऋग्वेदी ब्राह्मण। चोकदेश के निवासी। आपके माता-पिता अहोबल क्षेत्र में रहते थे। नरसिंह ही कृपा से पद्मपाद का जन्म हुआ था। पिताजी के समान आप भी नरसिंह के भक्त थे। नरसिंह की प्रेरणा से वे वेदविद्या के अध्ययनार्थ काशी गए। वहां पर वेदाध्ययन करते समय उनकी भेट आद्य शंकराचार्यजी से हुई। आचार्य श्री ने पद्मपाद की परीक्षा ली, और उसमें भलीभांति उत्तीर्ण हुआ देख, उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम रखा पद्मपादाचार्य। आगे चलकर वे शंकराचार्यजी के निस्सीम भक्त बने। इनके पद्मपाद नाम के बारे में एक रोचक आख्यायिका प्रसिद्ध है___ एक बार उन्हें शंकराचार्यजी की करुण पुकार सुनाई दी। पुकार सुनते ही पद्मपाद अपने गुरुदेव के पास पहुंचने के लिये उतावले हो उठे। मार्ग में थी अलकनंदा नदी। नदी पर पुल भी था किन्तु व्यग्रतावश पुल से न जाते हुए, पद्मपाद सीधे नदी के पात्र में से ही गुरुदेव की ओर जाने लगे। नदी का जल-स्तर ऊंचा था। परन्तु पद्मपाद की भाक्त के सामर्थ्य के कारण उनके हर पग के नीचे कमल-पुष्प उत्पन्न होते गए और उन पुष्पों पर पैर रखते हुए उन्होंने सहज ही अलकनंदा को पार किया। इस प्रकार उनके पैरों के नीचे पद्मों की उत्पत्ति होने के कारण उनका नाम पद्मपाद पड़ा।
पद्मपादाचार्य सदैव शंकराचार्यजी के साथ भ्रमण किया करते थे। एक बार गुरुदेव की अनुज्ञा प्राप्त कर वे अकेले ही दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले और कालहस्तीश्वर, शिवकांची, बल्लालेश, पुंडरीकपुर, शिवगंगा, रामेश्वर आदि तीर्थो की यात्रा कर वे अपने गांव लौटे।
फिर वे अपने मामा के गांव जाकर रहे। इससे पूर्व वे ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर अपना “पंचपदिका" नामक टीका-ग्रंथ लिख चुके थे। उनके मामा द्वैती थे। अपना भांजा विद्यासंपन्न होकर ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर टीका-ग्रंथ लिख सका, यह देख मामा बडे प्रसन्न हुए। किन्तु जब उन्होंने वह टीका-ग्रंथ पढा तो उन्हें विदित हुआ कि भांजे ने उनके द्वैत मत का खंडन करते हुए
अद्वैत मत का प्रतिपादन किया है। परिणामस्वरूप मामाजी को बडा बुरा लगा और वे मन-ही-मन पद्मपाद का द्वेष करने लगे।
पद्मपाद को मामा के द्वेष की जानकारी नहीं थी। अतः फिर से तीर्थयात्रा पर निकलते समय उन्होंने अपना टीका-ग्रंथ मामा के ही यहां रख छोडा। मामाजी, जो इस प्रकार के अवसर की ताक में थे ही, वे चाहते थे कि भांजे का टीका-ग्रंथ तो नष्ट हो, किन्तु तत्संबंधी दोषारोपण उन पर कोई भी न कर सके। इस उद्देश्य से उन्होंने स्वयं के घर को ही आग लगा दी। घर के साथ ही भांजे का टीका-ग्रंथ भी जल गया।
तीर्थयात्रा से लौटने पर पद्मपाद को वह अशुभ वार्ता विदित हुई। मामाजी ने भी दुःख का प्रदर्शन करते नक्राश्रु बहाये। पद्मपादाचार्य को इस दुर्घटना से दुःख तो हुआ, किन्तु वे हताश नहीं हुए। वे बोले- ग्रंथ जल गया तो क्या हुआ। मेरी बुद्धि तो सुरक्षित है। मैं ग्रंथ का पुनर्लेखन करूंगा।
तब पद्मपादाचार्य की बुद्धि को भी नष्ट करने के उद्देष्य से. उनके मामा ने उन पर विषप्रयोग किया। विषमिश्रित अन्न-भक्षण के कारण, उनकी बुद्धि बेकार हो गई। तब पद्मपाद ने अपने गुरुदेव के पास जाकर वहीं रहने का निश्चय किया। उस समय शंकराचार्यजी केरल में थे। पद्मपाद ने वहां पहुंच कर उन्हें सारा वृत्तांत निवेदन किया। आचार्यश्री ने अपने शिष्य का सांत्वन किया और उसकी बुद्धि भी उसे पुनः प्राप्त करा दी। तब पद्यपाद ने अपना टीका-ग्रंथ फिर से लिखा।
पद्मपादाचार्य ने शंकराचार्यजी के अद्वैत मत का प्रभावपूर्ण प्रचार करने का महान् कार्य किया। वेदान्त के समान ही वे तंत्रशास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों में, प्रस्तुत पंचपादिका नामक टीका-ग्रंथ ही प्रमुख है। शंकराचार्यजी के ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर लिखी गई, यह पहली ही टीका है। इसमें चतुःसूत्री का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ पर आगे चलकर अनेक महत्त्वपूर्ण विवरणग्रंथ लिखे गए। ___ इसके अतिरिक्त विज्ञानदीपिका, विवरणटीका, पंचाक्षरीभाष्य, प्रपंचसार तथा आत्मानात्मविवेक जैसे अन्य कुछ ग्रंथ भी पद्मपादाचार्य के नाम पर है। पद्मप्रभ मलधारिदेव- वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य। कार्यक्षेत्र तमिलनाडु। पश्चिमी चालुक्यराजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर देव के समकालीन। पद्मनंदि-पंचविंशतिका के कर्ता पद्मनंदि से मलधारि पद्मप्रभदेव भिन्न रहे हैं। समय ई. 12 वीं शती। रचनाएं-नियमानुसार-टीका तथा पार्श्वनाथ-स्तोत्र।। पद्मप्रभसरि- ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य। समय ई. 10 वीं शताब्दी। इन्होंने "भुवन-दीपक" नामक ज्योतिष-विषयक ग्रंथ की रचना की है, जिस पर सिंहतिलक सूरि ने वि.सं. 1362 में “विवृत्ति" नामक टीका लिखी थी। इन्होंने "मुनिसुव्रत-चरित", कुंथुचरित" व "पार्श्वनाथ-स्तवन" नामक 3 अन्य ग्रंथों की भी रचना की है।
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पद्मशास्त्री- ई. 20 वीं शती। सिंगाली ग्राम (जिला पिथौरागढ, उ. प्र.) के निवासी। राजकीय उच्चमाध्यमिक विद्यालय, भीलवाडा (राजस्थान) में वरिष्ठ संस्कृत-अध्यापक। पिता-श्रीबदरीदत्त। कृतियां- बंगलादेश-विजय, सिनेमाशतक, स्वराज्य, पद्य-पंचतंन्त्र, लोकतन्त्र-विजय, लेनिनामृत-महाकाव्य (उ. प्र. शासन द्वारा पुरस्कृत। सोवियत-भूमि नेहरू-पुरस्कार प्राप्त)।
हिन्दी रचना-महावीरचरितामृत। "महावीर-विशेषांक' का सम्पादन। पद्मश्री (ज्ञान)- "नागर-सर्वस्व' के रचयिता। बौद्ध भिक्षु । इन्होंने "कुट्टनीमतम्" का उल्लेख किया है और "शाङ्गंधर गद्धति" में इनका उल्लेख है। अतः इनका समय 1000 ई. के लगभग माना गया है। पद्मसुन्दर- समय-1532-1573 ई.। आनन्दमेरु के प्रशिष्य
और पद्ममेरु के शिष्य। भट्टारकीय पण्डित-परम्परा से जुड़े हुए। साहू रायमल्ल की प्रेरणा। चरस्थावर (मुजफ्फरनगर जिले का वर्तमान चरथावल) कार्यक्षेत्र रहा। रचनाएंभविष्यदत्तचरित (5 सर्ग), रायमल्लाभ्युदय महाकाव्य (25 सर्ग), सुंदर-प्रकाश-शब्दार्णव (कोष), श्रृंगार-दर्पण, हायनसुंदर (ज्योतिष), प्रमाणसुंदर, ज्ञानचन्द्रोदय (नाटक) और पार्श्वनाथ काव्य। पद्मसुंदर, मुगल सम्राट अकबर के सभा-पंडित थे
और उन्हें जोधपुर के राजा मालदेव ने सम्मानित किया था। परमानन्द चक्रवर्ती- ई. 15 वीं शती। पिता-व्रजचंद्र । रचना-शृंगारसप्तशती। काव्यप्रकाश की "विस्तारिका-टीका" एवं नैषध-काव्य की टीका के कर्ता। परमानन्द शर्मा- जन्म 1870 ई. में। प्राचीन मारवाड राज्य के अन्तर्गत पाली नामक ग्राम के निवासी। श्रीमाली द्विवेदी के पुत्र । इनकी प्रसिद्ध कृतियां है- 1. विधवा-विलापः (कविता), 2. विज्ञप्तिः (निबन्ध) आदि। परमानन्द शर्मा कवीन्द्र-ई. 19-20 शती। जयपुर राज्यान्तर्गत लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल में रहने वाले कवीन्द्र ने, संपूर्ण रामचरित्र काव्य, पांच भागों में विभाजित कर लिखा है। उनके नाम- मंथरादुर्विलसितम्, दशरथविलापः, मारीचवधम्, मेघनादवधम् और रावणवधम्। परमेश्वर झा- यक्ष-मिलन-काव्य (या यक्ष-समागम), महिषासुर-वध (नाटक), वाताह्वान (काव्य), कुसुम-कलिका (आख्यायिका) तथा ऋतु-वर्णन काव्य के रचयिता। समय, वि.सं. 1913 से 1981 तक। बिहार के दरभंगा जिला के तरुवनी (तरोनी) नामक ग्राम के निवासी। पिता-पूर्णनाथ या बाबूनाथ झा। जो व्याकरण के अच्छे पंडित थे। परमेश्वर झा स्वयं बडे विद्वान् थे। विद्वत्-समाज ने उन्हें “वैयाकरण-केसरी", कर्मकांडोध्दारक" तथा "महोपदेशक" आदि उपाधियां प्रदान की थीं। तत्कालीन सरकार की ओर से भी इन्हें महामहोपाध्याय
की उपाधि प्राप्त हुई थी। "यक्ष-मिलन काव्य" में महाकवि कालिदास के "मेघदूत" के उत्तराख्यान का वर्णन है। इस संदेश-काव्य का प्रकाशन वि.सं. 1962 में दरभंगा से हो चुका है। पराकुश - ई. 16 वा शती। रचना - नरसिंहस्तवः । परांकुश रामानुज - ई. 18 वीं शती। रचनाएं - श्रीप्रपत्ति, नरसिंहमंगलाशंसन, क्षीरनदीस्तव, विहगेश्वरस्तव, देवराजस्तव, लक्ष्मीनरसिंहस्तव और वैकुण्ठविजय चम्पू। पराशर - वसिष्ठ ऋषि के पौत्र, गोत्र प्रवर्तक व ग्रंथकार । ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 65 से 73 तक के सूक्त पराशर के नाम पर हैं। ये सभी सूक्त अग्निविषयक एवं काव्यमय हैं। अपने उपमेयों को अनेक उपमानों से विभूषित करना है पराशरजी की विशेषता । इस दृष्टि से निम्न ऋचा उल्लेखनीय है। पुष्टिर्न रणवा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिन भुज्म क्षोदो न शंभु । अत्यो नाज्मन् त्सर्गप्रतक्तः सिंधुर्न क्षोदः क ई वराते।
(ऋ. 1.65.3.) अर्थ - उत्कर्ष के समान रमणीय, पृथ्वी के समान विस्तीर्ण, पर्वत के समान (फल पुष्पादि) भोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण, उदक (जल) के समान हितकारी, तथा तीव्र वेग से निकला अश्व मैदान में जिस प्रकार अधिक गतिमान होता है, महानदी जिस प्रकार अपने दोनों तटों को भग्न करने की क्षमता रखती है, उसी प्रकार की है यह अग्नि । वस्तुतः इसे कौन प्रतिबंधित कर सकेगा।
पाराशरजी को अग्नि का दिव्यत्व तथा महनीयत्व प्रतीत हुआ है। कात्यायन की सर्वानुक्रमणी में, पराशर को वसिष्टपुत्र शक्ति का पुत्र कहा गया है, किन्तु निरुक्त में की गई व्युत्पत्ति के आधार पर उन्हें बताया गया है वसिष्ठ का पुत्र। वहां पराशर शब्द की "पराशीर्णस्य स्थविरस्य जज्ञे" अत्यंत थके हुए वृद्ध से इनका जन्म हुआ, ऐसी व्युत्पत्ति दी है। परन्तु उस पर से पराशर को वसिष्ठ का पुत्र मानना समुचित नहीं क्यों कि अपने सभी पुत्रों का निधन हो जाने के कारण, वसिष्ठ को केवल इन्हीं का आधार उत्पन्न हुआ था, और उसी पर से यह व्युत्पत्ति निर्माण हुई होगी। तत्संबंधी कथा इस प्रकार है :
एक बार वसिष्ठ हताश स्थिति में अपने आश्रम के बाहर निकले। तब उनके पुत्र शक्ति की विधवा पत्नी अदृश्यंती भी चुपके से उनके पीछे हो निकली। कुछ समय के उपरान्त वसिष्ठ के कानों पर वेद ध्वनि आने लगी। पीछे मुड कर देखने पर उनके ध्यान में आया की वह ध्वनि अदृश्यंती के उदर से आ रही है। तब अपने वंश का अंकुर जीवित है यह जानकर वसिष्ठ आश्रम में लौटे।
यह विदित होने पर कि अपने पिता शक्ति को राक्षसों ने मार डाला है, पराशर ने सभी राक्षसों का संहार करने हेतु राक्षस सत्र आरंभ किया। परिणाम स्वरूप उसमें निरपराध
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राक्षस भी मारे जाने लगे। अतः पुलस्त्यादि ऋषियों ने उन्हें उस सत्र से परावृत्त किया। पराशर ने उनकी बाते मानते हुए उस सत्र को रोक दिया। तब ऋषि पुलस्त्य ने "तुम सकल शास्त्र पारंगत तथा पुराण वक्ता बनोगे" ऐसा उन्हें वरदान किया (विष्णु पु. 1.1)। राक्षस सत्र हेतु सिद्ध की गई अग्नि को पराशर ने हिमालय के उत्तर में स्थित एक अरण्य में डाल दिया। अग्नि अभी तक पर्व के दिन राक्षसों, पाषाणों व वृक्षों का भक्षण करती है ऐसा विष्णु पुराण (1.1) एवं लिंग पुराण (1.64) में कहा गया है।
एक बार पराशरजी तीर्थ यात्रा पर थे। यमुना के तट पर सत्यवती नामक एक धीवरकन्या उन्हें दिखाई दी। वे उसके रूप व यौवन पर लुब्ध हो उठे। उसके शरीर से आने वाली मत्स्य की दुर्गंधि की ओर ध्यान न देते हुए जब कामातुर होकर वे उससे भोग की याचना करने लगे, तब वह बोली "आपकी इच्छा पूर्ण करने पर मेरा कन्या भाव दूषित होगा"। तब पराशर ने सत्यवती को दो वरदान दिये। 1) तेरा कन्याभाव नष्ट नहीं होगा और 2) तेरे शरीर की मत्स्य गंध नष्ट होकर
प्राप्त होगी और वह एक योजन तक फैलेगी। ये वरदान दिये जाने पर सत्यवती पराशरजी की इच्छा पूर्ति हेतु सहमत हुई। तब पराशरजी ने भरी दोपहर में नाव पर कोहरा निर्माण करते हुए अपने एकांत को लोगों की दृष्टि से ओझल बनाने की व्यवस्था की और फिर सत्यवती का उपभोग लिया। उस संबंध से सत्यवती को वेदव्यास नामक पुत्र हुआ (म.भा. 63, 105 भाग पु. 1, 3)।
पराशर से प्रवृत्त हुए पराशर गोत्र के गौरपराशर, नीलपराशर, कृष्णपराशर, श्वेतपराशर, श्यामपराशर व धूम्रपराशर नामक 6 भेद हैं। ___ पराशर ने राजा जनक को जिस तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था, उसी का सारांश आगे चलकर भीष्म पितामह ने धर्मराज (युधिष्ठिर) को बताया। उसे पराशरगीता कहते हैं। (महा. शांति. 291-299)। इसके अतिरिक्त पराशरजी के नाम पर जो ग्रंथ मिलते हैं उनके नाम हैं- बृहत्पाराशर, होराशास्त्र (12 हजार श्लोकों का ज्योतिष विषयक ग्रंथ), लघु पाराशरी, बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता (3300 श्लोक, पाराशर धर्मसंहिता (स्मृति), पराशरोदितं वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने इसका उल्लेख किया है), पाराशर संहिता (वैद्यक शास्त्र), पराशरोपपुराण, पराशरोदितं नीतिशास्त्रम् एवं पराशरोदितं केवलसारम्। ये सब ग्रंथ लिखने वाले पराशर, सूक्तद्रष्टा पराशर से भिन्न प्रतीत होते हैं।
इसी प्रकार कृषिसंग्रह, कृषिपराशर व पराशर तंत्र नामक ग्रंथ भी पराशर के नाम पर हैं किन्तु ये पराशर कौन, इस बारे में विद्वानों में मतभेद है। कृषिपराशर नामक ग्रंथ की शैली पर से यह ग्रंथ ईसा की 8 वीं शताब्दी के पहले का प्रतीत नहीं होता।
कृषिपराशर नामक ग्रंथ में खेती पर पड़ने वाला ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, बादल और उनकी जातियां, वर्षा का अनुमान, खेती की देखभाल, बेलों की सुरक्षितता, हल, बीज की बोआई, कटाई व संग्रह, गोबर का खाद आदि से संबंधित जानकारी है। इस ग्रंथ पर से अनुमान किया जाता सकता है कि उस काल में यहां की खेती अत्यधिक समृद्ध थी।
पराशर आयुर्वेद के एक कर्ता व चिकित्सक थे। अग्निवेश, भेल और पराशर समकालीन थे यह बात चरक संहिता से विदित होती है (सूत्र 1, 31)। पराशर तंत्र में कायचिकित्सा पर विशेष बल दिया गया है।
पराशरजी ने हत्यायुर्वेद नामक एक और ग्रंथ की भी रचना की है। हेमाद्रि ने उनके मतों पर विचार किया है। पराशरजी का यह ग्रंथ स्वतंत्र था अथवा उनकी ज्योतिष संहिता का ही वह एक भाग था, इस बारे में मतभेद है। पराशर - फल ज्योतिष के प्राचीन आचार्य। इनकी एकमात्र रचना "बृहत्पाराशर-होरा" है। इसी ग्रंथ के अध्ययन के उपरान्त विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है, कि पराशर वराहमिहिर के पूर्ववर्ती थे। इनका समय संभवतः 5 वीं शती, और निवासक्षेत्र पश्चिम भारत रहा होगा।
इनके नाम पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जैसे “पराशर स्मृति" आदि। कौटिल्य ने इनके नाम व मत का छ: बार उल्लेख किया है पर विद्वानों का कहना है कि स्मृतिकार पराशर, ज्योतिर्विद् पराशर से भिन्न हैं। कलियुग में पराशर के ग्रंथ को अधिक महत्त्व दिया है। "कलौ पाराशरः स्मृतः"। परितोष मिश्र - ई. 13 वीं शती। मीमांसा दर्शन के एक मैथिल आचार्य। कुमारिल भट्ट के तंत्रवार्तिक पर, आपने अजिता नामक एक व्याख्या लिखी है। इस व्याख्या के अजिता नाम पर से आगे चलकर परितोष मिश्र को "अजिताचार्य" के नाम से पहचाना जाने लगा। इसी व्याख्या पर मिथिला के ही निवासी अनंत नारायण मिश्र ने विजया नामक टीका लिखी है। परुच्छेप देवोदासी - ऋग्वेद के प्रथम मंडल के क्रमांक 127 से 139 तक के सूक्तों के द्रष्टा। इन सूक्तों में अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्रावरुण, पूषा व विश्वदेव की स्तुति है। इन्द्र की प्रार्थना करते हुए वे कहते है -
त्वं इन्द्र राया परीणसा याहि
पथा अनेहसा पुरो याह्यरक्षसा
सचस्व नः पराक आ सचस्वास्तमीक आ पाहि नो दूरादारादभिष्टिभिः सदा पाह्यभिष्टिभिः । (ऋ. 1, 129, 9) ___अर्थ - हे इन्द्र जो मार्ग विपुल वैभव का व निर्दोष हो, उसी मार्ग से हमें ले चलो। जिस मार्ग में राक्षस न हों, उसी मार्ग से हमें ले चलो, हम परदेश में हो तो भी हमारे साथ रहो, और हम अपने घर में हो तो भी हमारे साथ रहो। हम पास हो या दूर, आप सदा ही अपने कृपा छत्र
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पर्वते, रघुनाथशास्त्री - भोर नामक ग्राम के निवासी। ___ एक बार मंत्र सामर्थ्य के बारे में परुच्छेप व नमेध के रचना- शांकर पदभूषणम् और पदभूषणम् (गीता की बीच स्पर्धा लगी। तब नृमेध ने गीली लकडियों में धुंआं टीका)। उत्पन्न किया। यह देख परुच्छेप ने बिना लकडी के ही अग्नि पलसुले, गजानन बालकृष्ण (डॉ.) - जन्म सन प्रज्ज्वलित कर दिखाई। यह घटना तैत्तिरीय ब्राह्मण में अंकित 1921 में सातारा (महाराष्ट्र) में, सन 1948 में पुणे है (2, 5, 8, 3)।
से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण होने पर संस्कृत धातुपाठों पर्वणीकर, सीताराम - ई. 18 से 19 वीं शती। सीताराम, पर शोधप्रबंध लिखकर, सन 1957 में आपने पीएच.डी. जयपुर के महाराजा के आश्रय में थे। पर्वणी नामक ग्राम, की उपाधि प्राप्त की। आधुनिक वैयाकरणो में आप जिस पर से उक्त उपनाम प्रचलित हुआ, महाराष्ट्र में नासिक सम्मानित हैं। भांडारकर प्राच्यविद्या मंदिर में आपने संशोधन के पास है। सर्वप्रथम सीतारामजी के पूर्वज माधवभट्ट जयपुर गए। एवं अध्यापन का कार्य किया। सन 1981 में पुणे विद्यापीठ __ संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों को अभी अभी तक इतना से प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त होने के बाद आप भांडारकर ही ज्ञात था कि सीतारामजी ने कुमारसंभव के 8 से 17 सगों प्राच्यविद्या मंदिर में निदेशक हुए। संस्कृत भाषा का तौलनिक पर एक भाष्य लिखा है; किन्तु जयपुरस्थित उनके घराने में, और ऐतिहासिक परिचय करानेवाले “सिक्स्टी उपनिषदाज ऑफ तदुपरांत उनका विपुल साहित्य उपलब्ध हुआ है। सीतारामजी दी वेदाज्” नामक डायसनकृत जर्मन ग्रंथ का अनुवाद और का "जयवंश" नामक एक महाकाव्य, राजस्थान वि.वि. ने सौ से अधिक शोधनिबंधों के अतिरिक्त, डा. पलसुले ने प्रकाशित किया है। इसमें जयपुर के राजवंश और उसके संस्कृत में, "समानमस्तु वो मनः" (भारत शासन द्वारा पुरस्कार कार्यों के अतिरिक्त प्रमुख दर्शनीय स्थानों का भी वर्णन है। प्राप्त नाटक), विनायक-वीरगाथा (वीर सावरकर का चरित्र), इसके अतिरिक्त, आप निम्न ग्रंथ संपदा के धनी हैं। विवेकानंदचरितम्, नामक मौलिक रचनाएं, अग्निजाः और कमला
काव्य- राघवचरित, नलविलास (लघुकाव्य) व नृपविलास। (वीर सावरकर के मराठी काव्यग्रंथों के अनुवाद, “अथाऽतो विशेषता यह है कि ये सभी काव्य ग्रंथ सटीक हैं। ज्ञानदोवोऽभूत" “धन्येयं गायनी कला", खेटग्रामस्य चक्रोद्भवः, __ अष्टक (10)= शिवाष्टक, सूर्याष्टक, भैरवाष्टक, देव्यष्टक,
भ्रातृकलहः नामक मराठी नाटकों के संस्कृत अनुवाद भी लिखे हेरंबाष्टक, गंगाष्टक, विष्णूवष्टक और हनुमदष्टक। शेष दो,
हैं। पुणे में "भारतवाणी" नामक संस्कृत पत्रिका भी आपने अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं।
शुरू की थी, जो अल्प अवकाश में बंद हुई। अन्य ग्रंथ साहित्यसार, साहित्यसुधा, काव्यप्रकाश-टीका,
पांडुरंग - ई. 19 वीं शती। रचना - विजयपुरकथा। इसमें कुमारसंभव-व्याख्या, छंदःप्रकाश, अलंकार शास्त्र पर तीन ग्रंथ,
विजयपुर के यवन बादशाहों का चरित्र वर्णित है। गणित विषय पर एक ग्रंथ। (जो अभी तक उपलब्ध नहीं
पांडे, राजमल - ई. 16 वीं शती। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश हो सका है) और सत्ताईस नक्षत्र माला।
व हिन्दी इन चार भाषाओं में आपने ग्रंथ लिखे हैं। उन ग्रंथों पर्वत काण्व - आप काण्व कुल के थे। ऋग्वेद के के नाम हैं- लाटी संहिता, जंबुस्वामीचरित्र, अध्यात्म-कमलमार्तंड, 8 वें मंडल का 12 वां सूक्त आपके नाम पर है। 9 वें ____ पंचाध्यायी आदि। कुंदकुंदाचार्य के समयसारचरित्र, अध्यात्म मंडल के क्रमांक 104 व 105 वाले सूक्त हैं “पर्वत-नारदौ" कमलमार्तंड, पंचाध्यायी आदि, संस्कृत ग्रंथों पर आपने टीकाएं इस सम्मिलित नाम पर। किन्तु कहा जाता है कि इन दो भी लिखी है। हिन्दी जैन गद्य में यही सर्वाधिक प्राचीन टीका सूक्तों के भी द्रष्टा, पर्वत काण्व ही थे। इन्द्र की स्तुति करते है। इसके अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व हिन्दी इन हुए आप कहते हैं -
चारों ही भाषाओं में राजमल पांडे द्वारा लिखे गए वैशिष्ट्यपूर्ण न यं विविक्तो रोदसी नान्तरिक्षाणि वज्रिणम्।
ग्रंथ प्रसिद्ध है। अमादिदस्य तित्विषे समोजसः।। (ऋ. 8, 12, 24) पाटणकर, परशुराम नारायण - ई. 20 वीं शती।
अर्थ - आकाश व पृथ्वी ये दोनों लोक भी इन्द्र रत्नागिरि में जन्म । पिता - नारायण शर्मा । दादा-माधव शर्मा । का आकलन नहीं कर सकते, और अंतरिक्ष तो कदापि प्रपितामह- नरहरिभट्ट। अपरान्त विद्यापीठ से बी.ए. तथा प्रयाग नहीं। इसके विपरित इन्हीं की (इन्द्र की) ओजस्विता विद्यापीठ से एम.ए. की उपाधि प्राप्त। डेक्कन कालेज, पुणे के कारण सभी (विश्व) उज्ज्वल होता है।
में डा. रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर के शिष्य। अनेक देशों इस सूक्त में इन्द्र और विष्णु के ऐकात्मरूप की में अध्यापन कार्य। सन् 1905 में “वीरधर्मदर्पण" नामक कल्पना की गई है। इससे विदित होता है कि ऋग्वेद नाटक की रचना। के काल में ही विष्णु एक स्वतंत्र देवता के रूप में पाठक, रत्नाकर - खरतरगच्छ के चन्द्रवर्धनगणी के प्रशिष्य प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे थे।
और मेघनन्दन के शिष्य। समय ई. 16 वीं शती। ग्रंथ
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शान्तिसूरि द्वारा लिखित “जीववियार" पर संस्कृत वृत्ति (वि.सं. विद्वान इन्हें कौशांबी या प्रयाग का निवासी मानने के पक्ष में 1610) सलेकशाह के राज्य में। इस पर मेघनन्दन (वि.सं. हैं, किन्तु अधिकांश मत शालातुर के ही पोषक हैं। पाणिनि 1610) समयसुन्दर (वि.सं. 1698), ईश्वराचार्य तथा क्षमाकल्याण के गुरु का नाम था वर्ष। वर्ष के भाई का नाम उपवर्ष । (वि.सं. 1850) ने भी संस्कृत में वृत्तियां लिखी हैं। 2) पाणिनि के भाई का नाम पिंगल व उनके शिष्य का नाम रचनाविचार पर वृत्ति।
कौत्स मिलता है। "स्कंद पुराण" के अनुसार पाणिनि ने गो पाठक, वासुदेव - ई. 20 वीं शती। एम.ए., साहित्याचार्य । पर्वत पर तपस्या की थी जिससे उन्हें वैयाकरणों में महत्व बी.डी. कॉलेज, अहमदाबाद के प्राचार्य। "साम्मनस्य' त्रैमासिक प्राप्त हुआ। पत्रिका के सम्पादक। कृतियां- प्रबुद्ध, आराधना, साम्मनस्य "गोपर्वतमिति स्थानं शंभोः प्रख्यापितं पुरा। आदि लघु नाटक।
यत्र पाणिनिना लेभे वैयाकरणिकाग्रता ।।" पाठक, श्रीधरशास्त्री (म.म.) - धुलिया (महाराष्ट्र) निवासी । अरूणाचल महात्म्य, उत्तरार्ध 2-28)। इनके धर्मशास्त्र के व्याख्यान (पुस्तकबद्ध) नागपुर वि.वि. में पाणिनि की मृत्यु - "पंचतंत्र" के एक श्लोक के अनुसार मीमांसा तथा धर्मशास्त्र की शास्त्री परीक्षा के लिये पाठ्य पाणिनि सिंह द्वारा मारे गए थे (पंचतंत्र, मित्रसंप्राप्ति श्लोक पुस्तक के रूप में निर्धारित थे। अन्त में संन्यासी होकर आप 36)। एक किंवदंती के अनुसार इनकी मृत्यु त्रयोदशी को गंगातट पर निवास करने चले गए। आचार्य विनोबाजी भावे हुई थी। अतः अभी भी वैयाकरण उक्त दिवस को अनध्याय के गीता-प्रवचन नामक ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद आपने ही करते हैं। किया है। अन्य रचना - अष्टाध्यायीशब्दानुक्रमणिका। पाणिनि के ग्रंथ - "महाभाष्य-प्रदीपिका" से ज्ञात होता है, पाणिनि (भगवान्) - "अष्टाध्यायी' नामक अद्वितीय व्याकरण । कि पाणिनि ने "अष्टाध्यायी" के अतिरिक्त "धातुपाठ", गणपाठ, ग्रंथ के प्रणेता। पाश्चात्य व आधुनिक भारतीय विद्वानों के उणादिसूत्र व लिंगानुशासन की रचना की है। कहा जाता है अनुसार, इनका समय ई. पू. 7 वीं शती है, किन्तु पं. युधिष्ठिर कि पाणिनि ने "अष्टाध्यायी" के सूत्रार्थ परिज्ञान के लिये वृत्ति मीमांसक के अनुसार ये वि.पू. 2900 वर्ष में हुए थे। इनका लिखी थी, किन्तु वह अनुपलब्ध है, पर उसका उल्लेख
वृत्त, अद्यावधि अज्ञात है। प्राचीन ग्रंथों में इनके कई "महाभाष्य" व "काशिका" में है। नाम मिलते हैं यथा पाणिन, पाणि, दाक्षीपुत्र, शालकि, शिक्षासूत्र- पाणिनि ने शब्दोच्चारण के ज्ञान के लिये "शिक्षासूत्र" शालातुरीय व आहिक। इन नामों के अतिरिक्त पाणिनेय व की रचना की थी जिसके अनेक सूत्र विभिन्न व्याकरण ग्रंथों पाणिपुत्र ये नाम भी इनके लिये प्रयुक्त किये गये हैं। पुरुषोत्तम में प्राप्त होते हैं। पाणिनि के मूल "शिक्षा सूत्र" का उद्धार देव कृत "त्रिकांड शेष" नामक ग्रंथ में सभी नाम उल्लिखित हैं। स्वामी दयानंद सरस्वती ने किया तथा उसका प्रकाशन "वर्णोच्चारण
कात्यायन व पतंजलि ने पाणिनि नाम का ही प्रयोग किया शिक्षा" के नाम से सं. 1936 में किया था। है। पाणिन नाम का उल्लेख "काशिका" व "चांद्रवृत्ति" में पाणिनि का कवित्व - वैयाकरण की प्रचलित दंतकथा के प्राप्त होता है। दाक्षीपुत्र नाम का उल्लेख "महाभाष्य", अनुसार पाणिनि ने "जाम्बवतीविजय" या "पातालविजय" समुद्रगुप्त कृत "कृष्णचरित" व श्लोकात्मक "पाणिनीय-शिक्षा' नामक एक महाकाव्य का भी प्रणयन किया था। उसके कतिपय में है। शालातुरीय नाम का निर्देश भामहकृत "काव्यालंकार", श्लोक लगभग 26 ग्रंथों में मिलते हैं। राजशेखर, क्षेमेंद्र व "काशिका विवरण पंजिका", "न्यास" तथा "गुणरत्न महोदधि' शरणदेव ने भी इस महाकाव्य का उल्लेख करते हुए उसका में प्राप्त होता है।
प्रणेता पाणिनि को ही माना है। पाणिनि द्वारा प्रणीत एक और वंश व स्थान - पं. शिवदत्त शर्मा ने "महाभाष्य" की काव्य ग्रंथ माना जाता है। उसका नाम है "पार्वतीपरिणय'। भूमिका में पाणिनि के पिता का नाम शलङ्क व उनका पितृ राजशेखर ने वैयाकरण पाणिनि को कवि पाणिनि (जांबवती व्यपदेशक नाम "शालाकि" स्वीकार किया है। शालातुर विजय के प्रणेता) से अभिन्न माना है। क्षेमेंद्र ने अपने "सुवृत्त अटक के निकट एक ग्राम था, जो लाहुर कहलाता था। तिलक" नामक ग्रंथ में सभी कवियों के छंदों की प्रशंसा पाणिनि को वहीं का रहनेवाला बताया जाता है। वेबर के करते हुए पाणिनि के "जाति" छंद की भी प्रशंसा की है। अनुसार पाणिनि उदीच्य देश के निवासी थे, क्यों कि शालंकियों कतिपय पाश्चात्य व भारतीय विद्वान, (जैसे पीटर्सन व भांडारकर) का संबंध वाहीक देश से था। श्यू आङ् चुआङ् के अनुसार कहते हैं कि कवि एवं वैयाकरण पाणिनि ऐसे सरस व अलंकृत पाणिनि गांधार देश के निवासी थे। इनका निवास स्थान श्लोकों की रचना नहीं कर सकते। साथ ही इस ग्रंथ के शालातुर, गांधार देश (अफगनिस्तान) में ही स्थित था, जिसके श्लोकों में बहुत से ऐसे प्रयोग हैं जो पाणिनीय व्याकरण से कारण पाणिनि शालातुरीय कहलाते थे। इनकी माता का नाम सिद्ध नहीं होते, अर्थात वे अपाणिनीय या अशुद्ध हैं पर रुद्रट दाक्षी होने के कारण इन्हें "दाक्षीपुत्र" कहा जाता था। कुछ कृत "काव्यालंकार" के टीकाकार नमिसाधु के कथन से, यह
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बात निर्मूल सिद्ध हो जाती है।। उनके अनुसार पाणिनि कृत "पातालविजय" महाकाव्य में “संध्या वधूं गृह्य करेण भानुः" में "गृह्य" शब्द पाणिनीय व्याकरण के मत से अशुद्ध है। उनका कहना है कि महाकवि भी अपशब्दों का प्रयोग करते हैं और उसी के उदाहरण में पाणिनि ने यह श्लोक प्रस्तुत किया है। डा. आफ्रेट व डा. पिशेल ने पाणिनि को न केवल शुष्क वैयाकरण अपि तु सुकुमार हृदय कवि भी माना है। अतः पाणिनि के कवि होने में संदेह का प्रश्न नहीं उठता। "श्रीधरदासकृत सदुक्तिकर्णामृत' (सं. 1200) में सुबंधु, रघुकार (कालिदास) हरिश्चंद्र, शूर, भारवि व भवभूति जैसे कवियों के साथ दाक्षीपुत्र का भी नाम आया है जो पाणिनि का ही पर्याय है -
"सुबंधौ भक्तिर्नःक इह रघुकारे न रमते धृतिर्दाक्षीपुत्रे हरति हरिश्चंद्रोऽपि हृदयम्। विशुद्धोक्तिः शूरः प्रकृतिमधुरा भारविगिरः
तथाप्यंतर्मोदं कमपि भवभूतिर्वितनुते"। महाराज समुद्रगुप्त रचित "कृष्णचरित" नामक काव्य में बताया गया है कि वररुचि ने पाणिनि के व्याकरण व काव्य दोनों का ही अनुकरण किया था। __"जांबवती-विजय" में श्रीकृष्ण द्वारा पाताल में जाकर जांबवती से विवाह व उसके पिता पर विजय प्राप्त करने की कथा है। दुर्घटवृत्तिकार शरणदेव ने "जांबवती-विजय" के 18 वें सर्ग का उद्धरण अपने ग्रंथ में दिया है। उससे विदित होता है कि उसमें कम से कम 18 सर्ग अवश्य होंगे। पाणिनि का समय - डा. पीटर्सन के अनुसार अष्टाध्यायीकार पाणिनि एवं वल्लभदेव की "सुभाषितावली" के कवि पाणिनि एक हैं और उनका समय ईसवी सन का प्रारंभिक भाग है। वेबर व मैक्समूलर ने वैयाकरण व कवि पाणिनि को एक मानते हुए, उनका समय ईसा पूर्व 500 वर्ष माना है। डा. ओटो बोथलिंक ने "कथासारित्सागर" के आधार पर पाणिनि का समय 350 ई.पू. निश्चित किया है, पर गोल्डस्टकर व डा. रामकृष्ण भांडारकर के अनुसार इनका समय 700 ई.पू. है। डा, बेलवलकर ने इनका समय 700 से 600 ई. निर्धारित किया है और डा. वासुदेवशरण अग्रवाल इनका समय 500 ई.पू. मानते हैं। इन सभी के विपरीत पं. युधिष्ठिर मीमांसक का कहना है, कि पाणिनि का आविर्भाव वि.पू. 2900 वर्ष हुआ था। मैक्समूलर ने अपने कालनिर्णय का आधार, "अष्टाध्यायी' (5,1,18) में उल्लिखित सूत्रकार शब्द को माना है, जो इस तथ्य का द्योतक है कि पाणिनि के पूर्व ही सूत्र ग्रंथों की रचना हो चुकी थी। मैक्समूलर ने सूत्रकाल को 600 ई.पूर्व से 200 ई.पू. तक माना है, किन्तु उनका काल विभाजन विद्वान्मान्य नहीं है। वे पाणिनि व कात्यायन को समकालीन मान कर, पाणिनि का काल 350 ई.पू. स्वीकार करते हैं, क्यों कि कात्ययन का भी समय यही है। गोल्डस्टूकर
ने बताया कि पाणिनि केवल ऋग्वेद, सामवेद व यजुर्वेद से ही परिचित थे पर अथर्ववेद व दर्शन ग्रंथों से वे अपरिचित थे किन्तु डा. वासुदेवशरण अग्रवाल ने इस मत का खंडन कर दिया हैं । पाणिनि को वैदिक साहित्य के कितने अंश, का परिचय था,इस विषय में विस्तृत अध्ययन के आधार पर थीमे का निष्कर्ष है कि ऋग्वेद, मैत्रायणी संहिता, काठक संहिता, तैत्तिरीय संहिता, अथर्ववेद, संभवतः सामवेद, ऋग्वेद के पद पाठ और पैप्पलाद शाखा का भी पाणिनि को परिचय था। अर्थात् यह सब साहित्य उनसे पूर्व युग में निर्मित हो चुका था। गोल्डस्कूटर ने यह माना था कि पाणिनि को उपनिषद् साहित्य का परिचय नहीं था, अतः उनका समय उपनिषदों की रचना के पूर्व होना चाहिये यह कथन निराधार है, क्योंकि सूत्र 1-4-79 में पाणिनि ने उपनिषद् शब्द का प्रयोग ऐसे अर्थ में किया है, जिसके विकास के लिये उपनिषद् युग के बाद भी कई शतीयों का समय अपेक्षित था। कीथ ने इसी सूत्र के आधार पर पाणिनि को उपनिषदों के परिचय की बात प्रामाणिक मानी थी। तथ्य तो यह है कि पाणिनिकालीन साहित्य की पारिधि वैदिक ग्रंथों से कही आगे बढ़ चुकी थी। अद्यावधि शोध के आधार पर पाणिनि का समय ई.पू. 700 वर्ष माना जा सकता है।
पाणिनिकृत "अष्टाध्यायी" भारतीय जन जीवन व तत्कालीन सांस्कृतिक परिवेश को समझने के लिये स्वच्छ दर्पण है। इसमें अनेकानेक ऐसे शब्दों का सुगुंफन है, जिनमें उस युग के सांस्कृतिक जीवन के चित्र का साक्षात्कार होता है। तत्कालीन भूगोल, सामाजिक जीवन, आर्थिक अवस्था, शिक्षा व विद्या संबंधी जीवन, राजनैतिक व धार्मिक जीवन, दार्शनिक चिंतन, रहन सहन, वेश भूषा व खान पान का सम्यक् चित्र "अष्टाध्यायी" में सुरक्षित है। किंवदंतियां - ई. 7 वीं शताब्दी में भारत भ्रमण करते हुए चीनी यात्री युआन च्वांग शलातुर भी गया था। तब उन्हें पाणिनि से संबंधित अनेक दंतकथाएं सुनने को मिलीं। उनके कथनानुसार वहां पर पाणिनि की एक प्रतिमा भी स्थापित की हुई थी। वह प्रतिमा संप्रति लाहोर के संग्रहालय में है किन्तु दीक्षित उसे बुद्ध की प्रतिमा मानते हैं। पाणिनि के जीवन चरित्र की दृष्टि से किंवदंतियों तथा आख्यायिकों पर ही निर्भर रहना पडता है। कथासरित्सागर में एक किंवदंती इस प्रकार है :
वर्ष नामक एक आचार्य पाणिनि के गुरु थे। उनके पास पाणिनि और कात्यायन पढा करते थे। इन दोनों में कात्यायन कुशाग्र बुद्धि के थे जब कि पाणिनि मंदबुद्धि के। कात्यायन सभी विषयों में पाणिनि से आगे रहा करते। यह स्थिति पाणिनि को असह्य हो उठी। अतः गुरुगृह का त्याग कर वे हिमालय गये। वहां पर शिवजी का प्रसाद प्राप्त करने हेतु उन्होंने घोर तपस्या की । शिवजी ने प्रसन्न होकर उन्हें
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प्रतिभाशाली बुद्धि प्रदान की। पाणिनि के सम्मुख नृत्य करने हुए शिवजी ने अपना डमरू 14 बार बजाया। डमरू से जो ध्वनि निकले उनका अनुकरण करते हुए पाणिनि ने अइउण, ऋलुक्, एओङ् आदि 14 प्रत्याहार सूत्र बनाए (कथासरित्सागर 1.4)। पाणिनि की अष्टाध्यायी, इन 14 शिवसूत्रों पर ही आधारित है।
शलातुर गांव में युआन च्वांग को पाणिनि के बारे में जो आख्यायिकाएं विद्वानों से सुनने को मिली उनका सारांश इस प्रकार है -
अति प्राचीन काल में साहित्य का विस्तार अत्यधिक था। कालक्रम से उसका हास होता गया और एक दिन सभी कुछ शून्य हो गया। उस समय ज्ञान की रक्षा हेतु देवताओं ने पृथ्वी पर अवतार लिया। उन्होंने फिर व्याकरण व साहित्य की निर्मिति की। आगे चल कर व्याकरण का विस्तार होने लगा। उसे अत्यधिक वृद्धिंगत हुआ देख ब्रह्मदेव व इन्द्र ने लोगों की आवश्यकता को ध्यान में रखते हुए, व्याकरण के कुछ नियम बनाए और शब्दों के रूपों को स्थिर किया। आगे चल कर विभिन्न ऋषियों ने अपने अपने मतानुसार अलग अलग व्याकरणों की रचना की। उनके शिष्य व प्रशिष्य उन व्याकरणों का अध्ययन करने लगे किन्तु उनमें जो मंदबुद्धि के थे उन्हें उन सब का यथावत् आकलन न हो पाता था। उसी काल में पाणिनि का जन्म हुआ। अध्ययन यात्रा - पाणिनि की ग्रहण शक्ति जन्मतः ही तीव्र थी। उन्होंने देखा कि मानव की आयुमर्यादा तथा व्याकरण के विस्तार का आपस में मेल बैठना संभव नहीं। अतः पाणिनि ने व्याकरण में सुधार करने तथा नियमों के निर्धारण द्वारा अशुद्ध शब्द प्रयोगों को ठीक करने का निश्चय किया। व्याकरण विषयक सामग्री के संग्रह हेतु वे तुरंत यात्रा पर चल पडे। इस यात्रा में उनकी भेट हुई ईश्वरदेव नामक एक प्रकांड पंडित से। पाणिनि ने ईश्वरदेव के सम्मुख अपने नवीन व्याकरण की योजना प्रस्तुत की। ईश्वरदेव का मार्गदर्शन प्राप्त कर पाणिनि एकांत स्थान में पहुंचे। वहां बैठ कर उन्होंने आठ अध्यायों के एक नये व्याकरण की निर्मिति की। फिर उन्होंने अपना वह व्याकरण ग्रंथ पाटलिपुत्र स्थित सम्राट् नंद के पास भिजवाया। सम्राट ने उस ग्रंथ को उपयुक्त व सारभूत घोषित किया। तब सम्राट ने एक आज्ञापत्र प्रसारित करते हुए आदेश दिया कि वह ग्रंथ उनके साम्राज्य में पढाया जाये। मगध सम्राट् नंद पाणिनि के मित्र बन गए थे। महती सूक्ष्म दृष्टि- पाणिनि इस दृष्टि से नर्मदा के उत्तर के प्रायः संपूर्ण भू-भाग में घूमे थे। विविध प्रकार के पदार्थों के बारे में पाणिनि की अष्टाध्यायी में नियम और उल्लेख मिलते हैं। इस पर से अनुमान किया जा सकता है कि भाषा-विषयक सामग्री जुटाने हेतु, पाणिनि ने विभिन्न प्रदेशों
की कितनी व्यापक यात्रा की थी। पाणिनि ने उदीच्याम, प्राच्याम् के निदेशों के साथ अपनी अष्टाध्यायी में यह भी बताया है कि किस प्रदेश के लोग किसी शब्द विशेष का हस्व-दीर्घ आदि की दृष्टि से किस प्रकार उच्चारण किया करते है। इन्हीं बातों से प्रभावित होकर काशिकाकार के गौरवोद्गार व्यक्त हुए- "अहो महती सूक्ष्मेक्षिका वर्तते सूत्रकारस्य" (पाणिनि की यह कितनी महान् सूक्ष्मदृष्टि है) पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में जनपद, ग्राम, नगर, संघ गोत्र, चरण आदि की सुदीर्घ सूचि भी दी है। गोत्रों के लगभग एक हजार नाम पाणिनीय गणों ने संग्रहित किये हुए हैं। अष्टाध्यायी में 500 ग्रामों व नगरों की पूरी सूची मिलती है। साथ ही तत्कालीन रीति-रिवाज कला-कौशल, देव-धर्म, उपासना की पद्धतियां, लोगों की रहन-सहन, शिक्षा-दीक्षा, जीवन-व्यवयसाय आदि अनेक बातों की भी जानकारी पाणिनि के इस व्याकरण-ग्रंथ से उपलब्ध होती है।
वेदत्रयी, वेदों की विभिन्न शाखाएं, वेदांग, ब्राह्मण, महाभारत, कथागाथात्मक साहित्य, श्रौतसूत्र व धर्मसूत्र, उपनिषद् तथा दृष्ट व प्रोक्त के अन्तर्गत आने वाला अधिकांश वाङ्मय पाणिनि को ज्ञात था, ऐसा दिखाई देता है।
अपने इस सर्वग्राही स्वरूप के कारण पाणिनि की अष्टाध्यायी, प्रातिशाख्यों के समान संबंधित वेद-विशेष तक ही सीमित नहीं रही। उसने अपना संबंध सभी वेदों से स्थापित किया। सामवेद के ऋक्तंत्र नामक प्रातिशाख्य के अनेक सूत्र पाणिनि के सूत्रों से मिलते-जुलते प्रतीत होते हैं। उन दोनों की तुलना करते हुए डा. वासुदेवशरण अग्रवाल कहते हैं- पाणिनि ने अपने पहले के सूत्रों को भाषा, अर्थ एवं विस्त ही दृष्टियों से पल्लवित किया। पाणिनि ने किसका और कितना ऋण लिया यह निर्धारित करने की दृष्टि से निश्चित साधन उपलब्ध नहीं फिर भी यह कहा जा सकता है कि विषय-प्रतिपादन की दृष्टि से अष्टाध्यायी अपने-आप में परिपूर्ण है। वेदों से लेकर समस्त संस्कृत वाङ्मय का अध्ययन उसके कारण सुलभ होता है।
भट्टोजी दीक्षित ने अष्टाध्यायी पर आधारित “सिद्धांत कौमुदी' नामक ग्रंथ की रचना की। उसमें वैदिकी प्रक्रिया व स्वर-प्रक्रिया नामक दो प्रकरण हैं। वैदिकी प्रक्रिया में बताया गया है कि पाणिनि के व्याकरण-विषयक नियम किस प्रकार समस्त वैदिक वाङ्मय को लागू पडते हैं और स्वर-प्रक्रिया मे वैदिक भाषा के उच्चार किस प्रकार किये जायें इसका विवेचन है। अपने व्याकरण-विषयक सूत्रों की रचना करते समय पाणिनि ने संपूर्ण वैदिक ग्रंथ-भांडार व उपनिषदों का आलोडन किया था ऐसा प्रतीत होता है। ___ पाणिनि व्याकरण की सर्वकष विशेषता को ध्यान में रखते हुए शिक्षा-ग्रंथों में निम्न श्लोक अंकित किया गया है
येन धौता गिरः पुंसां विमलैः शब्दवारिभिः । तमश्चाज्ञानजं भिन्नं तस्मै पाणिनये नमः ।।
370/ संस्कृत वाकाय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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अर्थ- जिन्होंने निमर्ल शब्द-जल से मानवों की वाणियों को धोकर स्वच्छ किया और अज्ञानजन्य अंधकार को दूर किया, उन पाणिनि को नमस्कार ।
पात्रकेसरी कुलीन ब्राह्मण अहिच्छत्र (पांचाल की राजधानी ) निवासी इमिल संघ के आचार्य अनन्तवीर्य, शान्तरक्षित आदि आचार्यों ने उनका नामोल्लेख किया है। समय-ई. की छठी शताब्दी का उत्तरार्ध और सातवीं शताब्दी का पूर्वार्ध । राज्य का महामात्यपद छोड कर त्रिलक्षणकदर्थन में बौद्धों द्वारा प्रतिपादित पक्षधर्मत्व, सपक्षसत्त्व और विपक्षाद्व्यावृत्तिरूप हेतु के त्रैरूप्य का खण्डन कर अन्यथानुपपन्नत्व रूप हेतु का समर्थन किया गया है। इसी तरह " स्तोत्र" भी समन्तभद्र के स्तोत्रों के समान न्यायशास्त्र का ग्रंथ है। पात्रकेसरी को नैयायिक कवि कहा जा सकता है।
पाध्ये, काशीनाथ अनंत- सन् 1790-1806 | धर्मशास्त्र के निबंधकार । पिता - अनंत पाध्ये व माता अन्नपूर्णा । मूल ग्राम रत्नागिरि जिले का गोलवली किन्तु पांडुरंग के भक्त होने के कारण पंढरपुर जा बसे और जीवन के अंत तक वहीं पर रहे। इन्हे बाबा पाध्ये भी कहा जाता था ।
आपने धर्मसिंधु नामक ग्रंथ की रचना की । धार्मिक व्यवहार के लिये आवश्यक धर्मशास्त्रीय विषयों का विचार आपने इस ग्रंथ में उत्तम रीति से किया है।
काशीनाथ उपाख्य बाबा पाध्ये पंढरपुर में एक संस्कृत पाठशाला भी चलाते थे। तदर्थ पेशवा की ओर से उन्हें 1,200 रु. वार्षिक मानधन दिया जाता था। बाबा ने पंढरपुर के विठोबा की पूजा के उपचारों में वृद्धि की । स्वरचित संस्कृत स्तवन- गीत (आरतियां), विठोबा की आरती के प्रसंग पर (व्यक्तिशः अथवा सामूहिक पद्धति से) गाने की प्रथा भी पाध्ये बाबा ने प्रारंभ की। अपनी विद्वत्ता तथा अपने सदाचरण के कारण बाबा के प्रति पंढरपुर में बड़ा श्रद्धाभाव निर्माण हो चुका था। अतः बड़े-से-बड़े प्रतिष्ठाप्राप्त महानुभाव एवं राजा-महाराजा भी पांडुरंग (विठोबा ) के दर्शन करने के पश्चात् बाबा के दर्शन हेतु अवश्य जाया करते थे। अपने देहावसान के कुछ समय पूर्व, पाध्ये बाबा ने संन्यास ग्रहण किया था । 'बाबावाक्यं प्रमाणम्'- यह कहावत इसी बाबा पाध्ये के कारण चालू हुई।
पायगुंडे, वैद्यनाथ- ई. 18 वीं शती । पिता - रामभट्ट । पुत्र बालंभट्ट गुरु-नागोजी भट्ट पत्नी लक्ष्मी चातुर्मास्यप्रयोग, वेदान्तकल्पतरु - मंजरी, प्रभा (शास्त्र- दीपिका की व्याख्या) आदि रचनाएं प्रमुख हैं। महाभाष्य- प्रदीपोद्योत के व्याख्याकार ।
पायु भारद्वाज ऋग्वेद के 6 वें मंडल का 75 वां और 10 वें मंडल का 87 वां सूक्त इनके नाम पर है। प्रथम सूक्त में पायु भारद्वाज ने धनुष्य, बाण, तूणीर (तरकश ), कवच (जिरह-बस्तर), भुजबंध, रथ, सारथी एवं वीर योद्धाओं के
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बारे में गौरवपूर्वक व आत्मीयता से लिखा है। इस सूक्त पर से प्रतीत होता है कि सूक्त-द्रष्टा का या तो प्रत्यक्ष युद्धक्षेत्र से संबंध आया होगा, अथवा उन्होंने युद्धों का अति निकट सूक्ष्म निरीक्षण किया होगा। सूक्तकार का धनुष्य पर अटूट विश्वास है । " धनुष की सहायता से हम विश्व पर विजय प्राप्त करेंगे" ऐसा वे आत्मविश्वासपूर्वक कहते है। दूसरा सूक्त रक्षोहाग्नि सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इस सूक्त में सूक्तकार ने मुरदेव, यातुधान, क्रव्याद व किमीदिन नामक राक्षसों का वध करने की अग्नि से प्रार्थना की है। जब अभ्यावर्ती चायमान और प्रस्तोक सांजय का वरशिखों ने युद्ध में पराभव किया तब पिता भरद्वाज ने पायु को उनके लिये यज्ञ करने को कहा था।
पार्थसारथी वैयाकरणपंचानन लुग्विड ग्रामवासी जमींदार वेंकटाद्रि अप्पाराव के आश्रित रचनाएं मदनानन्दभाणः, आर्तिस्तवः और स्वापप्रत्ययः (यह दो स्तोत्रकाव्य) । पार्थसारथि मिश्र (मीमांसाकेसरी) मीमांसादर्शन के अंतर्गत भाट्ट-मत के एक आचार्य। पिता यज्ञात्मा । समय- ई. 12 वीं शती । मिथिला के निवासी। इन्होंने अपनी रचनाओं द्वार भट्ट परंपरा को अधिक महत्त्व व स्थायित्व प्रदान किया मीमांसा - दर्शन पर इनकी विद्वन्मान्य 4 कृतियां उपलब्ध होत हैं- तंत्ररत्न, न्याय- रत्नाकर, न्याय- रत्नमाला व शास्त्र- दीपिक (पूर्व मीमांसा)। "तंत्ररत्न", प्रसिद्ध मीमांसक कुमारिल भट् रचित "टुप्टीका" नामक ग्रंथ की टीका है। "न्याय - रत्नाकर भी कुमारिल भट्ट की रचना " श्लोकवार्त्तिक" की टीका है "न्याय -रत्नमाला" इनकी मौलिक कृति है जिस पर रामानुजाचा ने (17 वीं शती) "नाणकरत्न" नामक व्याख्या- ग्रंथ की रच की है। "शास्त्र - दीपिका " भी प्रौढ कृति है । इसी ग्रंथ कारण इन्हें "मीमांसा - केसरी" की उपाधि प्राप्त हुई "शास्त्र - दीपिका " पर 14 टीकाएं उपलब्ध हैं। सोमनाथ अप्पय दीक्षित की क्रमशः "मयूख-मालिका" व मयूखावलं नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं ।
अपने ग्रंथों द्वारा पार्थसारथि मिश्र ने बौद्ध तत्त्वज्ञान नास्तिकवाद, विज्ञानवाद व शून्यवाद का सप्रमाण खंडन क हुए वेदान्त शास्त्र के व्यावहारिक दृष्टिकोण को स्पष्ट किया उनकी टीका की शैली व्यंगपूर्ण है। उन्होंने अनेक नवीन प्रस्थापित किये हैं। मीमांसा दर्शन के इतिहास में इनका स्ट अद्वितीय माना जाता है। इनके पिता यज्ञात्मा, तत्कालीन विद्वा में एक दार्शनिक के नाते सुप्रसिद्ध थे पार्थसारथि ने अप पिता के ही पास समस्त शास्त्रों का अध्ययन किया था। पारिथी कृष्ण कवि- ई. 19 वीं शती । रचनाएं मीनाक्षीशतक मालिनीशतक, हनुमतूशतक, लक्ष्मीनृसिंहशतक, कौमुदीसोम (नाटक), कलि-विलास-मणि-दर्पणः (काव्य) और रामाया के एक भाग पर रसनिस्यन्दिनी नामक टीका ।
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 37
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पाल्यकीर्ति- अपर नाम शाकटायन। प्राचीन आर्य शाकटायन व्याकरण के रचयिता थे। ये अर्वाचीन जैन शाकटायन हैं। इन्होंने भी व्याकरण रचना की है। यापनीय संप्रदाय के प्रभावी लेखक। समय वि.सं. 871-9241 अन्य रचनाएं-स्त्रीमुक्ति, केवलभुक्ति। आपने निजी शब्दानुशासन से संबंधित धातुपाठ पर धातुवितरण नामक प्रवचन किया है। शाकटायन का धातुपाठ पाणिनि के उदीच्य पाठ से अधिक मिलता है। पार्श्वदेव- (संगीतकार)- महादेवार्य के शिष्य और अभयचंद्र के प्रशिष्य। श्रीकान्त जाति के आदिदेव एवं गौरी के पुत्र । दाक्षिणात्य। इनके संगीतसमयसार ग्रंथ में भोज, सोमेश्वर, परमार्दिन आदि का उल्लेख होने से तथा सिंगभूपाल द्वारा ग्रंथ उल्लिखित होने से इनका समय ई. 12-13 वीं शती होगा। "संगीतरत्नाकर" से प्रभावित यह ग्रंथ 9 अधिकरणों में विभाजित है। इस ग्रंथ में संगीत से अध्यात्म का संबंध जोडा गया है। पार्श्वदेव के अनुसार संगीत से मुक्ति मिलती है न कि दर्शन से। पार्श्वदेव स्वयं को "संगीताकर" और "श्रुतिज्ञान-चक्रवर्ती' कहते हैं। पिंगल- आपने वेदों के 5 वें अंग छंद पर, छन्दःसूत्र नामक सूत्ररूप ग्रंथ की रचना की। इसके 8 अध्याय हैं। इसमें प्रारंभ से लेकर चौथे अध्याय के 7 वें मूत्र तक वैदिक छंदों के लक्षण बताये हैं और उसके पश्चात् लौकिक छंदों का वर्णन किया है। आप पिंगलाचार्य अथवा पिंगलानाग के नाम स भो जाने जाते थे। आपके काल के बारे में पर्याप्त जानकारी उपलब्ध नहीं है। कीथ ने आपका काल ईसा पूर्व 200 वर्ष निश्चित किया है। छन्दःसूत्र पर लिखी गई भाव-प्रकाश नामक
का में आपको पाणिनि का छोटा भाई बताया गया है। पाल ने अपने ग्रंथ में क्रौष्टकी, यास्क, काश्यप, गौतम, अगिरस, भार्गव, कौशिक, वसिष्ठ, सेतव प्रभृति आचार्यों का उल्लेख किया है। पिंड्य. जयराम - ई. 17 वीं शती। पिता-गंभीरराव व माता- गंगांबा। छत्रपति शिवाजी महाराज के पिता शाहजी राजा भोसले जब बंगलोर (कर्नाटक) में शासक के रूप में स्थिर हुए, तब जयराम पिंड्ये उनके आश्रय में पहुंचे। आप 12 भाषाएं जाने थे। राजा शाहजी की स्तुति में आपके द्वारा लिखा गया राधामाधवविलास-चंपू नामक संस्कृत काव्य प्रसिद्ध है। ऐतिहासिक प्रमाणों की दृष्टि से भी यह काव्य ग्रंथ महत्त्वपूर्ण है। __ के. व्ही. लक्ष्मणराव के मतानुसार राधामाधवविलास चंपू की रचना, शाहजी के पुत्र एकोजी के शासन काल में हुई
और जयराम पिंड्ये, एकोजी तथा छत्रपति शिवाजी दोनों के ही आश्रित कवि रहे थे। तदनसार जयराम पिंड्ये ने शिवाजी महाराज के विषय में भी पणालपर्वतग्रहणाख्यानम् नामक एक काव्य की रचर की थी। इस आख्यानकाव्य का भी ऐतिहासिक महत्त्व वित्रिका शिवाजी महाराज ने जीवा कार्य व धवल
चरित्र पर मुग्ध होकर आपने उनके संपूर्ण जीवन को विविध भाषाओं में काव्यबद्ध करने का प्रयास भी प्रारंभ किया था। पितामह - समय- अनुमानतः 400 से 700 ई. के बीच। "पितामहस्मृति" के प्रणेता। आपने अपनी स्मृति में व्यवहार का विशेष विचार किया है। आपके मतानुसार वेद, वेदांग, मीमांसा, स्मृति, पुराण व न्यायशास्त्र का धर्मशास्त्र में समावेश होता है। आपने बताया है कि कोई भी अभियोग (दावा) पहले ग्राम पंचायत में, फिर नगर में, और उसके पश्चात् राजा के सम्मुख चलाया जाना चाहिये। यदि वादी तथा प्रतिवादी एक ही देश, नगर अथवा गांव के हों, तो संबंधित अभियोग का निर्णय स्थानीय रीति प्रथाओं तथा संकेतों के अनुसार दिया जाय किन्तु वादी व प्रतिवादी भिन्न गावों के होने की स्थिति में, संबंधित अभियोग का निर्णय शास्त्रानुसार ही दिया जाना चाहिये।
पितामह के आह्निक, व्यवहार व श्राद्ध संबंधी वचनों को "स्मतिचंद्रिका" में उद्धत किया गया है। इसी प्रकार विश्वरूप ने, अनेक अशौच विषयक मत का उल्लेख किया है और उन्हें धर्मवक्ताओं में स्थान दिया है। इनकी स्मृति के उद्धरण, “मिताक्षरा' में भी प्राप्त होते हैं।
पितामह ने न्यायालय में जिन 8 कारणों की आवश्यकता पर बल दिया है वे हैं- लिपिक, गणक, शास्त्र, साध्यपाल, सभासद, सोना, अग्नि और जल। पिप्पलाद - एक ऋषि। इस शब्द का अर्थ है पीपल के पेड के पत्ते खाकर जीवित रहनेवाला। इनकी माता के तीन नाम मिलते हैं गभस्तिनी, सुवर्चा व सुभद्रा। गभस्तिनी दधीचि ऋषि की पत्नी थी। दधीचि के देहावसान के समय गभस्तिनी गर्भवती थी तथा अन्यत्र रहती थी। पति के निधन का समाचार विदित होते ही उन्होंने अपना पेट चीर कर गर्भ को बाहर निकाला तथा उसे पीपल वृक्ष के नीचे रखा। पश्चात् वे सती गईं। गभस्तिनी के इस गर्भ का वृक्षों ने संरक्षण किया। आगे चलकर इस गर्भ से जो शिशु बाहर निकला, वही पिप्पलाद कहलाया।
पशु पक्षियों ने इस शिशु का पालन पोषण किया तथा सोम ने उसे सभी विद्याएं सिखाई। यह ज्ञात होने पर कि अपने मातृपितृवियोग के लिये शनि ग्रह कारणीभूत है, पिप्पलाद ने शनि को आकाश से नीचे गिराया। शनि उनकी शरण आया। तब शनि को यह चेतावनी देकर कि 12 वर्ष की आयु तक के बालकों को वे भविक्य में पीडा न पहुंचाएं, पिप्पलाद ने उन्हें छोड़ दिया। ऐसा कहते हैं कि गाधि (विश्वामित्र के पिता), पिप्पलाद व कौशिक (विश्वामित्र) इस त्रयी का स्मरण करने से शनि की पीडा नहीं होती। देवताओं की सहायता से अपने माता पिता से मिलने पिप्पलाद स्वर्गलोक गए, वहां से लौटने पर उन्होंने गौतम की कन्या से विवाह किया।
संम्कन वाद माय के
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पिप्पलाद के पिता दधीचि ऋषि ने जिस स्थान पर देह त्याग किया था, वहां पर कामधेनु ने अपनी दुग्ध धास छोड़ी थी। अतः उस स्थान को "दुग्धेश्वर" कहा जाने लगा । पिप्पलाद उसी स्थान पर तपस्या किया करते थे। इसलिये उसे पिप्पलादतीर्थ भी कहते हैं।
वेदव्यासजी ने अपने शिष्य सुमंतु को अथर्वसंहिता दी थी। पिप्पलाद उन्हीं सुमंत के शिष्य थे। इन्होंने अथर्ववेद की एक शाखा का प्रवर्तन किया था। अतः उस शाखा को पिप्पलाद शाखा कहा जाने लगा। इन्होंने अथर्ववेद की एक पाठशाला भी स्थापित की थी । पिप्पलाद एक महान् दार्शनिक भी थे। जगत् की उत्पत्ति के बारे में कबंधी कात्यायन द्वारा पूछे गए प्रश्न का उत्तर उन्होंने इस प्रकार दिया
सृष्टि की उत्पत्ति के पूर्व जगत्कर्ता थे। उन्होंने रे व प्राण की जोड़ी का निर्माण किया। प्राण आत्मा से उत्पन्न हुआ, और आत्मा पर छाया के समान फैल गया। मन की क्रिया से प्राण मानवी शरीर में प्रवेश करते हुए स्वयं को 5 रूपों में विभाजित करता है।
उन्होंने गार्ग्य को बताया गहरी नींद में इन्द्रियां निष्क्रिय रहती हैं, केवल प्रतीति ही कार्य किया करती है शैव्य सत्यकाम से वे कहते हैं, ओंकार की विभिन्न मात्राओं का ध्यान करने से जीव-ब्रह्मैक्य साध्य होता है। एक अन्य स्थान पर वे बताते हैं- ओंकार का ध्यान व योगमार्ग के द्वारा परब्रह्म की प्राप्ति होती है। शरभ उपनिषद्, पिप्पलाद का महाशास्त्र है।
इसमें ब्रह्मा, विष्णु व महेश की एकरूपता प्रतिपादित की गई है। भीष्म पितामह के निर्वाण के समय, पिप्पलाद अन्य मुनिजनों के साथ वहां पर उपस्थित थे ।
पी. एस. वेरियर (व्ही. एन. नायर) मलबार प्रदेशीय । रचना - अनुग्रहमीमांसा जिसका विषय है, जंनुरोगों की चिकित्सा । पुंडरीक विठ्ठल ई. 16-17 वीं शती एक सुप्रसिद्ध गायक व संगीतज्ञ । जामदग्न्य गोत्रीय ब्राह्मण । मैसूर के निवासी । कीर्ति संपादन हेतु सन् 1570 में आप मैसूर छोड़ कर उत्तर की ओर चल पडे, और पहला पडाव किया बुरहानुपर में । पुंडरीक विठ्ठल के समय उत्तर हिन्दुस्तानी संगीत पद्धति में बडी अव्यवस्था फैली थी। अतः राजा बुरहानखान ने इनसे कहा कि वे उस संगीत पद्धति को अनुशासनबद्ध सुव्यवस्थित रूप दें। तदनुसार कार्यारंभ की दृष्टि से पुंडरीक विटुल ने उत्तर व दक्षिण की संगीत पद्धतियों का तौलानिक अध्ययन किया और बाद में "सद्राग चंद्रोदय" नामक ग्रंथ की रचना की। फिर वे राजपूत राजा मानसिंग के आश्रय में पहुंचे, तथा मानसिंग के निर्देशानुसार आपने "रागमंजरी" नामक ग्रंथ लिखा। परिणामस्वरूप संगीतशास्त्रज्ञ के रूप में आपको दिल्ली बुलवाया गया। अकबर के आश्रय में पुंडरीक ने "रागमाला” नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में उन्होंने रागों के वर्गीकरण
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हेतु परिवार-राग-पद्धति अपनाई। यह पद्धति, रागों में दिखाई देने वाला स्वरसाम्य के तत्त्व पर आधारित हैं। विद्वानों के मतानुसार इस प्रकार रोगों के गुट निर्माण करने वाली पुंडरीक की यह पद्धति, अन्य तत्सम पद्धतियों से अधिक सयुक्तिक है। दाक्षिणात्य संगीत को ध्यान में रखते हुए पुंडरीक ने एक नवीन पद्धति का निर्माण किया। इनके अन्य ग्रंथ हैं- विठ्ठलीय, रागनारायण और नृत्यनिर्णय । संगीत - वृत्तरत्नाकर के प्रणेता विठ्ठल तथा पुंडरीक विठ्ठल एक ही हैं। पुंडरीक विट्ठल को दिल्ली में विपुल सम्मान प्राप्त हुआ। पुंडरीकाक्ष विद्यासागर ई. 15 वीं शती। बंगाल के निवासी । पिता - श्रीकान्त । कृतियां काव्यप्रकाश, दण्डी - वामन के साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ भट्टकाव्य तथा कलापव्याकरण पर टीकाएं। कारककौमुदी नामक व्याकरण ग्रंथ । न्यासटीका और कातन्त्र परिशिष्ट- टीका ।
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पुन्नशेरि नीलकण्ठ शर्मा सन् 1859-1935 पट्टाम्बी के संस्कृत महाविद्यालय में आचार्य पुत्रशेरि नीलकण्ठ शर्मा केरल के प्रतिष्ठित विद्वान थे। आपको "पण्डितराज' की उपाधि प्राप्त थी। पत्र पत्रिकाओं के माध्यम से संस्कृत के प्रचार का उद्देश्य सामने रख कर, आपने विज्ञानचिन्तामणि और "साहित्य रत्नावलि" नामक पत्रिकाओं का कुशल सम्पादन किया। व्यंगात्मक निबन्धों के लेखक और अनेक "शतकों" के प्रणेता के रूप में इनकी विशेष ख्याति थी। शैलब्धि शतक पट्टाभिषेक प्रबन्ध, सात्त्विकस्वप्र और आयशतक इनकी प्रसिद्ध रचनाएं है। पुरुषोत्तम रचना- शिवकाव्यम् । इसमें शिवाजी महाराज से दूसरे बाजीराव पेशवा तक मराठा साम्राज्य का इतिहास वर्णित है। पुरुषोत्तम ( कविरत्न ) जन्म- गंजम जिले में सन 1790 में । रचनाएं - रामचन्द्रोदय, रामाभ्युदय, बालरामायण और रागमालिका । इनके पुत्र कविरत्न नारायण मिश्र की भी संगीत, बलभद्रविजय, शंकरविहार, कृष्णविलास आदि अनेक रचनाएं हैं।
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पुरुषोत्तमजी इनका जन्म सं. 1724 में आचार्य वल्लभ से 7 वीं पीढी में हुआ था। पिता का नाम पीतांबर । आरंभिक जीवन मथुरा में और बाद का सूरत में बीता। इन्होंने आचार्य वल्लभ के “अणुभाष्य” पर “भाष्यप्रकाश” नामक पांडित्यपूर्ण व्याख्यान लिखे, जिसमें अणुभाष्य के गूढार्थ का प्रकाशन होने के अतिरिक्त अन्य भाष्यों का तुलनात्मक विवेचन भी है। इस व्याख्या की यही विशेषता है।
पुरुषोत्तमजी के अन्य मुख्य ग्रंथ हैं (1) सुबोधिनी - प्रकाश, (2) उपनिषद्दीपिका, (3) आवरणभंग, (4) प्रस्थान - रत्नाकर, (5) सुवर्णसूत्र (विद्वन्मण्डन की पांडित्यपूर्ण विवृति), (6) अमृततरंगिणी (गीता की पुष्टिमार्गीय टीका) तथा (7) षोडश-ग्रंथ विवृत । श्रीमद्भागवत-स्वरूप शंकानिरास नामक अपनी रचना में आपने श्रीमद्भागवत के अष्टादश पुराणों के
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 373
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अंतर्गत होने का मत, परमतखंडन पूर्वक स्थापित किया है। 'शत्रुभयंकर, वृत्रनाशन, अभयलोक धारक आदि विशेषण प्रयुक्त
पुरुषोत्तमजी का ।। वन ई. 1838 में माना जाता है। ये किए हैं। इनके सूक्त की एक ऋचा में इन्द्र का माहात्म्य इस कृष्णचन्द्र महाराज के शिष्य थे। इनके "भाष्यप्रकाश" पर,
प्रकार वर्णित है : जो श्रेष्ठों में भी श्रेष्ठ, पूजनीयों में भी इनके गुरु की ब्रह्म-सूत्रवृत्ति (भावप्रकाशिका) का विशेष प्रभाव
अत्यंत पूजनीय तथा वरदान देने के लिये सदैव सिद्ध रहते पड़ा है।
है, उन (इन्द्रदेव) का स्तवन कीजिये । संकट चाहे क्षुद्र हो पुरुषोत्तमजी (पुरुषोत्तमलालजी) द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या
अथवा दुस्तर हो, संकट काल में उन्हींको पुकारा जाना चाहिये। 45 बतलाई जाती है। इनमें कुछ तो टीका ग्रंथ हैं और अन्य
सत्त्वप्राप्ति का प्रयत्न करते समय उन्हीं की पुकार की जानी स्वतंत्र निबंध ग्रंथ हैं। ग्रंथों के प्रणयन के साथ ही ये मूर्धन्य
चाहिए। (ऋ. 8-70-8)। पंचविंश ब्राह्मण में (14.9.29) विद्वानों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त किया करते थे। शक्ति
इन्हें वैखानस भी कहा गया है। तंत्र के मर्मज्ञ विद्वान भास्करराय तथा शैव दर्शन के आचार्य पुलस्त्य - एक सांख्याचार्य व स्मृतिकार। महाभारत में (आदि अप्पय्य दीक्षित से हुए शास्त्रार्थ का विवरण वल्लभ संप्रदाय 66-10) इन्हें ब्रह्मदेव का मानसपुत्र तथा भागवत में (4.1) के इतिहास में मिलता है।
कपिल का बहनोई बताया गया है। मिताक्षरा में इनके कुछ पुरुषोत्तमजी वस्तुतः शुद्धाद्वैत मत के प्राण थे। इन्हीं के
श्लोक दिए गए हैं। पुलस्त्यस्मृति की रचना इन्होंने अनुमानतः प्रयास से संप्रदाय की दार्शनिक प्रतिष्ठा में विशेष वृद्धि हुई।
ई. 4 थी व 7 वीं शती के बीच की होगी। आचार्य वल्लभ, गोसाई विठ्ठलनाथ और पुरुषोत्तमजी शुद्धाद्वैत
पुल्य उमामहेश्वर शास्त्री - इस कवि ने अपने "दुर्गानुग्रहकाव्यम्" मत के “त्रिमुनि" माने जाते हैं।
में वाराणसी के तुलाधार श्रेष्ठी का पुष्कर क्षेत्र के समाधि पुरुषोत्तम देव - ई. 12 वीं अथवा 13 वीं शती। बंगाल
नामक वैश्य का तथा विजयवाडा के धनाढ्य व्यापारी चुण्डूरी के एक प्रसिद्ध बौद्ध वैयाकरण। देव, इनकी उपाधि थी।
रेड्डी का चरित्र वर्णन किया है। रेड्डी का चरित्र धनाशा से अतः अष्टाध्यायी की वैदिकी प्रक्रिया को छोड कर, आपने
लिखा है ऐसा उन्होंने कहा है। शेष सूत्र पर भाष्य लिखा जो भाषावृत्ति के नाम से सुप्रसिद्ध
इस कवि ने अपनी अन्य रचना में आन्ध्र के विद्वान् साधु है। पुरुषोत्तम देव, राजा लक्ष्मणसेन के आश्रित थे। इन्हींकी
बेल्लमकोण्ड रामराय का चरित्र वर्णन, अश्वधाटी छन्द के 108 प्रेरणा से आपने भाषावृत्ति की रचना की। सृष्टिधर नामक एक
श्लोकों में किया है। बंगाली पंडित ने देव की भाषावत्ति पर टीका लिखी है। पुष्पदंत - शिवमहिम्नःस्तोत्र के रचयिता। यह स्तोत्र सर्वत्र बिहार के वैयाकरणों ने इनके प्रस्तुत ग्रंथ को प्रमाण ग्रंथ के अत्यधिक लोकप्रिय है किंतु उसके कर्ता के नाम (पुष्पदंत) रूप में मान्यता दी है।
के अतिरिक्त जीवन चरित्र विषयक अन्य कोई भी अधिकृत देवजी द्वारा लिखित अन्य ग्रंथों के नाम है : महाभाष्यलघुवृत्ति,
जानकारी उपलब्ध नहीं हो पाती। शिवभक्त लोग महिम्नः स्तोत्र भाष्यव्याख्याप्रपंच, गणवृत्ति, प्राणपणा, कारककारिका, दुर्घटवृत्ति,
को वैदिक रूद्रसूक्त के समकक्ष मंत्रमय मानते हैं। त्रिकांडशेष, अमरकोश- परिशिष्ट, परिभाषावृत्ति (ललितावृत्ति), पुसदेकर, शाङ्गधर - ई. 16 वीं शती। एक महानुभाव ज्ञापकसमुच्चय, उणादिवृत्ति, द्विरूपकोश, कारकचक्र, सम्प्रदायी व्युत्पन्न ब्राह्मण। पुसदे (विदर्भ, जिला अमरावती) हारावली-कोश, वर्णदेशना और एकाक्षर-कोश । इनके अतिरिक्त के निवासी। अनेक शास्त्रों में पारंगत। संस्कृत व मराठी नलोदयप्रकाश नामक नलोदय काव्य की टीका भी आपने लिखी है। भाषाओं में विपुल ग्रंथरचना। गीता पर कैवल्यदीपिका नामक पुरुषोत्तमाचार्य (विवरणकार) - निंबार्क संप्रदायी।
संस्कृत व मराठी में टीकाएं। काव्यचूडामणि नामक प्रसिद्ध आचार्य निंबार्क की 7 वीं पीढी में स्थित। आपने निंबार्काचार्यजी
संस्कृत ग्रंथ के कर्ता। मराठी में गीताप्रश्नावली, परमहंस-धर्मके "दशश्लोकी" नामक ग्रंथ पर, "वेदांत-रत्नमंजूषा" नामक
मालिका आदि ग्रंथ भी लिखे हैं। विशाल विवरण भाष्य लिखा है। दशश्लोकी तथा श्रीनिवासाचार्यजी पूर्णसरस्वती - ई. 14 वीं शती का पूर्वार्ध । केरल में दक्षिण के रहस्यप्रबंध नामक ग्रंथों पर विवरण लिखने वाले प्रथम मलबार के एक ब्राह्मण परिवार में जन्म। गुरु का नामआचार्य होने के कारण, आप “विवरणकार" के रूप में प्रसिद्ध पूर्णज्योति। कहते हैं कि गुरु व शिष्य दोनों ही संन्यासी थे हैं। आपके दूसरे ग्रंथ का नाम है "श्रुत्यंतसुरद्रुम"। उसमें और त्रिचूरस्थित मठ में रहते थे। पूर्णसरस्वती द्वारा लिखे गए श्रीकृष्णस्तवराज पर वेदांतपरक टीका है।
ग्रंथों के नाम हैं- विद्युल्लता (मेघदूत पर टीका), भक्ति
मंदाकिनी (शंकराचार्यजी के विष्णुपादादि के शान्त-स्तोत्र पर पुरुहन्मा (वैखानस) - आंगिरस कुलोत्पन्न। ऋग्वेद के 8
टीका), ऋजुलध्वी- माधव पर काव्यमय टीका, हंसदूत (मेघदूत वें मंडल का 70 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्द्र की स्तुति ।
की शैली पर लिखा गया काव्य) और कमलिनी-राजहंस (पांच इस सूक्त का विषय है। पुरुहन्मा ने इन्द्र के लिये अखंडानंदपूरण,
अंकों का नाटक)।
374 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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बालकों एवं मदिवालयो व गणों को नहीं। इसी पन विद्वत्परिषद
इनके अतिरिक्त कुछ और भी टीका ग्रंथ आपने लिखे हैं। संस्कृत साहित्य को समृद्ध करने वाले केरल के पंडितों में, पूर्णसरस्वतीजी का अपना एक विशेष स्थान है। पेरियअप्पा दीक्षित - किलायूर के चिदम्बर के पुत्र। रचना - शृंगारमंजरी, शाहजीयम् (नाटक), तंजावर नरेश शहाजी का विलास वर्णन इनके कवित्व का विषय है। पेरूसूरि - ई. 18 वीं शती। सम्भवतः कांचीपुर के निवासी। पिता- वेंकटेश्वर । माता- वेंकटाम्बा । "वसुमंगल" (नाटक) के रचयिता। अन्य काव्यकृतियां- रामचन्द्रविजय, भरताभ्युदय व चकोरसंदेश। पैठीनसी - अर्थव परिशिष्ट के अंतर्गत तर्पण की सूचि में आपका नाम समाविष्ट है और आपके द्वारा अंकित श्राद्ध विधियों के कुछ विधि, अथर्ववेदीय श्राद्धविधियों से मिलते जुलते हैं। इस आधार पर कहा जाता है कि आप अथर्ववेदी होंगे। स्मृति-चंद्रिका तथा अपरार्क, हरदत्त प्रभृति के ग्रंथों में पैठीनसी के पर्याप्त वचन उद्धृत हैं। अपुत्र का धन विद्वत्परिषद् को प्राप्त होना चाहिये, राजा को नहीं। इसी प्रकार आपका कहना है, कि देवालयों व गणों की धरोहर का तथा अवयस्क बालकों एवं महिलाओं के धन का विनियोग, राजा ने स्वयं के लिये नहीं करना चाहिये। पौष्करसादि - संस्कृत व्याकरण के प्राचीन आचार्य । पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 3100 वर्ष वि.पू. है। इनका उल्लेख महाभाष्य के एक वार्तिक में हुआ है। ("चयो द्वितीयाः शरि पौष्करसादेरिति वाच्यम् 8-4-48)। पिता- पुष्क्रत्। निवासस्थान- अजमेर के निकटस्थ पुष्कर। तैत्तिरीय प्रातिशाख्य" (5-40) के माहिषेय भाष्य में कहा गया है कि पौष्करसादि ने कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा का प्रवचन किया था। इनके मत “हिरण्यकेशीय गृह्यसूत्र' (1-6-8) एवं “आग्निवेश्य गृह्यसूत्र" (1-1 पृ. 9) में भी उल्लिखित है। "आपस्तंब धर्मसूत्र" में भी (1-19-7 1-18-1) पुष्करसादि आचार्य का नाम आया है। पौत्र आत्रेय - ऋग्वेद के 5 वें मंडल का 73 वां व 74 वां सूक्त इनके नाम पर है। अश्विदेवों की स्तुति इन सूक्तों का विषय है। 74 वें सूक्त की 4 थी ऋचा में इनका नाम है। उसमें आपने यह बताया है कि उन्होंने सोम याग की दीक्षा ली थी। दीक्षा काल में आप दुष्टों के चंगुल में फंसे थे। किन्तु अश्विदेवों ने उन्हें उनसे मुक्त किया। यह बात उनकी ऋचाओं से ध्वनित होती है। उनके सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है -
सत्यमिद् वा उ अश्विना युवामाहुर्मथोभुवा। ता यामन् यामहूतमा यामन्ना मृळ्यत्तमा।। (5.73.9) अर्थ - अहो अश्वी, आपको (जगत् का) मंगल करनेवाले कहते हैं, वह सर्वथा सत्य ही है। इसी लिये यज्ञ में (भक्तजन)
आप लोगों की अत्याग्रहपूर्वक प्रार्थना किया करते हैं (क्योंकि) यज्ञ में पुकार की जाने पर आप ही अत्यंत सुख देने वाले हैं। अश्विदेवों को पौर आत्रेय कवि-प्रतिपालक कह कर भी संबोधित करते हैं। प्रकाशात्म यति - ई. 13 वीं शती। रामानुजाचार्य द्वारा शांकर मत के खंडन का प्रयत्न किया जाने पर, प्रकाशात्मयति ने शांकर मत के समर्थनार्थ पद्मपादाचार्यकृत पंचपादिका पर "पंचपादिका-विवरण" नामक टीका लिखी। अद्वैत तत्त्वज्ञान के क्षेत्र में, इस टीका ग्रंथ को अत्यंत महत्त्वपूर्ण माना जाता है। वेदांत तत्त्वज्ञान में भामती प्रस्थान के पश्चात् विवरण-प्रस्थान के रूप में एक नवीन प्रस्थान का उपक्रम, प्रकाशात्म यति ने किया। प्रस्तुत टीका ग्रंथ में अद्वैत मत का और विशेषतः पद्मपादाचार्य के मत का विशेष विवेचन किया गया है। शारीरकभाष्य पर न्यायसंग्रह व शब्दनिर्णय नामक दो और भी ग्रंथ यतिजी ने लिखे हैं। इन्हें "प्रकाशानुभव" नाम से भी जाना जाता है। प्रकाशानंद - ई. 15 वीं शती। ज्ञानानंद के शिष्य। इनका प्रमुख पांडित्यपूर्ण ग्रंथ, वेदान्त-सिद्धांत-मुक्तावलि है। यह वेदांत का प्रमाणभूत ग्रंथ माना जाता है। यह ग्रंथ गद्य पद्यात्मक है। गद्य में युक्तिवाद है। प्रकाशानंद के मतानुसार माया अनिर्वचनीय है, अज्ञान प्रमाणगम्य नहीं है, आत्मा केवल आनंदस्वरूप न होकर आनंदवान् तथा दुःखवान् भी हो सकती है आदि। प्रस्तुत ग्रंथ पर अप्पय्य दीक्षित ने सिद्धांतदीपिका नामक वृत्ति लिखी है। वेदांत-सिद्धांत-मुक्तावलि के अतिरिक्त प्रकाशानंद द्वारा लिखे गए तांत्रिक ग्रंथों के नाम हैं : मनोरमातंत्रराज टीका, महालक्ष्मी-पद्धति, श्रीविद्या-पद्धति आदि । प्रगाथ काण्व - ऋग्वेद के 8 वे मंडल के क्रमांक 10, 48, 51 व 54 के सूक्त आपके नाम पर हैं। इन्हें प्रगाथ नामक मंत्रविशेष का द्रष्टा माना गया है। यज्ञ में शंसन करने समय एक विशिष्ट पद्धति से दो ऋचाओं की तीन ऋचाएं करते हैं, जिन्हें "प्रगाथ" कहा जाता है। इन प्रगाथों को, संबंधित देवता के अनुसार, ब्रह्मणस्पद प्रगाथ काण्व ने अपने सूक्तों में इन्द्र, अश्वी व सोम की स्तुति की है। सोमरस के बारे में इन्होंने काव्यमय भाषा में लिखा है। सोम के पान से उल्लसित होकर वे कहते हैं।
अपाम सोममममृता अभूमागन्म ज्योतिरविदाम देवान्। किं नूनमस्मान् कृणवदरातिः किमु धूर्तिरमृत मर्त्यस्य ।।
(ऋ. 8.48.3) अर्थ - हमने सोम रस का प्राशन किया, हम अमर हुए, दिव्य प्रकाश को प्राप्त हुए। हमने देवों को पहचाना। अब धर्म विमुख दुष्ट हमारा क्या कर लेंगे। हे अमर देव, मानवों की धूर्तता भी अब हमारा क्या अहित कर सकेगी। इसके उपरांत ग्रगाथ काण्व ने स्वयं को अग्नि के समान
संस्कृत वाङ्मय कोश · ग्रंथकार खण्ड / 375
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उज्जवल बनाने तथा सभी प्रकार की समृद्धि प्रदान करने की सोम से प्रार्थना की है।
प्रचेता आंगिरस ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 164 सूक्त इनके नाम पर है। दुःस्वप्ननाश इस सूक्त का विषय है। तत्संबंधी एक ऋचा इस प्रकार है
अनाम वा भूमानागसो वयम् जाग्रत्स्वप्रः सङ्कल्पः पापो यं द्विष्मस्तं स ऋच्छतु यो नो द्वेष्टितमृच्छतु।। (ऋ. 10.164.5) अर्थ- देखो, आज हमने वाणी पर विजय प्राप्त करने के साथ ही अपना उद्दिष्ट भी साध्य किया। अपना निरपराधी होना भी सिद्ध किया। फिर भी जाग्रत् या निद्रित अवस्था में जो कोई दुर्वासना हमारे मन में छिपी बैठी हो, वह पापी वासना हमारे शत्रुओं की ओर उन्मुख हो; जो हमारा द्वेष करते हैं, उनकी ओर जावे ।
1
प्रजापति इनकी एक श्राद्धविषयक स्मृति है । उसमें 198 लोक विविध छंदो में है चरित्रकोशकार चित्राव शास्त्री के कथनानुसार प्रस्तुत स्मृति में कल्पशास्त्र, स्मृति, धर्मशास्त्र एवं पुराणों का विचार किया गया है। अशौच्य व प्रायश्चित्त से संबंधित इनके श्लोक, याज्ञवल्क्य स्मृति पर लिखी गई मिताक्षरा टीका में दिये गये है अपने परिवाजक दिय में इनका एक गद्यात्मक उध्दरण समाविष्ट किया है। इसी प्रकार स्मृति-चंद्रिका, पराशर माधवीय एवं कतिपय अन्य ग्रंथों में भी इनके व्यवहार - विषयक श्लोक अपनाए गए हैं। प्रजापति के मतानुसार निपुत्रिक विधवा का अपने पति की संपत्ति पर अधिकार होता है, उसे अपने पति का श्राद्ध करने का भी अधिकार है।
प्रजापति परमेष्ठी वेद के 10 वे मंडल के 129 में सूक्त के द्रष्टा । यह सूक्त, "नासदीय" के नाम से प्रसिद्ध है । प्रजापति वाच्य इनके नाम पर ऋग्वेद के तीसरे मंडल के सूक्त क्रमांक 38, 54, 55 व 56 हैं। इन्हें 9 वें मंडल के 101 वें सूक्त की 13 से 16 तक की ऋचाओं का भी द्रष्टा माना जाता है। प्रजापति इनका व्यक्तिनाम व वाच्य कुलनाम है ये दोनों ही नाम काल्पनिक है। इनको प्रजापति वैश्वामित्र
I
भी कहते हैं । विश्वामित्र कुलोत्पन्न के मतानुसार, प्रजापति वाच्य व प्रजापति वैश्वामित्र ये दो भिन्न व्यक्ति होने चाहिये। इन्होंने अपने सूक्तों में व्यक्त किये कुछ विचार इस प्रकार हैं
चाहे कोई कितना ही बडा युक्तिवान्, सूज्ञ या सज्जन हो, किंतु पुरातन काल से अबाधित सिध्द हुए देवों के नियमों को वह बाधा नहीं पहुंचा सकता द्यावापृथिवी सभी मानवों व देवों को धारण करती हैं। ऐसा करते हुए वे कभी नहीं थकतीं। देवों की ओर जाने का मार्ग वास्तव ही में गूढ है।
ये ऋषि कवि हृदय के हैं। अन्य द्रष्टा कवियों से वे कहतें हैं- अपने स्तोत्रों को वेद न रहने दो, उन्हें सुंदर व सुशोभित
376 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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बनाओं। उन्हें जिस प्रकार के इहलोक उत्कृष्ट सुखों का उपभोग करने की तीव्र आकांक्षा है, उसी प्रकार प्रज्ञावंतों के दर्शन व सहवास का आकषर्ण भी है। उन्होंने अनेक देवताओं को संबंधित करते हुए ऋचाओं की रचना की है व उनके द्वारा संबंधित देवता के सामर्थ्य को अभिव्यक्त किया है। निम्र ऋचा में वे परमेश्वर का वर्णन तीन स्वरूपों में करते हैं
त्रिपाजस्यो वृषभो विश्वरूप उतत्र्युधा पुरूषः प्रजावान् । त्र्यनीकः पत्यते माहिनावान्त्स रेतोधा वृषभः शश्वतीनाम् ।। (ऋ. 3.56.3 ) ।।
अर्थ- ये जो अनंत रूपों को धारण करनेवाला, मनोरथ पूर्ण करनेवाला व वीर्यशाली परमेश्वर है, उसकी ऊर्जास्थिता तीन प्रकार की है। उसके वक्षस्थल भी तीन ही हैं। उसकी प्रजा तीन लोकों में भारी हुई है। उसके प्रकाशमय रूप भी तीन प्रकार के हैं। वह सर्वश्रेष्ठ देव त्रैलोक्य का प्रभु है ।
ऐसा कहा जा सकता है कि पुराण-काल में सत्त्व - रज-तम पर आधारित जो त्रिमूर्ति - कल्पना उदित व विकसित हुई तथा
मूर्तिकला में भी स्वीकृत की गई, उसका बीज उक्त मंत्र में है। प्रजावान् प्राजापत्य ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 183 वां सूक्त इनके नाम पर है। इस सूक्त के कोई विशेष देवता नहीं हैं। इसमें ऋषि अपनी प्रेयसी को, पुत्र की प्राप्ति के हेतु अपने पास आने का आग्रह करते हैं। अतः इस सूक्त को संततिदायक माना गया है। इसमें कहा गया है कि "प्रवर्ग्य" नामक अनुष्ठान में इस सूक्त का पठन करने से संतति का लाभ होता है।
प्रतर्दन ऋग्वेद के 9 वें मंडल का 96 वां सूक्त व 10 वें मंडल के 179 वें सूक्त की दूसरी ऋचा इनके नाम पर है। इन्होंने अपने सूक्त में पवमान सोम की प्रशंसा की है। वे कहते हैं- सोमरस का प्रभाव वाणी को चालना, मन को प्रेरणा व स्तवनों को स्फूर्ति देता है, इसी प्रकार सोमरस का प्रान करने वाले वीर संग्राम में निर्भयतापूर्ण लडते हैं। सोम की प्रार्थना में उनकी ऋचा इस प्रकार है:
यथा पवथा मनवे वयोधा अमित्रहा वरिवो विद्धविष्मान् ।
एवा पवस्व द्रविणं दधान इन्द्रे सं तिष्ठ जनयायुधानि ।। अर्थ- यौवन का बल - उत्साह लाने वाला, शत्रुओं का वध करने वाला, समाधानी वृत्ति देने वाला व दिव्य जनों को हविर्भाग पहुंचाने वाला तू जिस प्रकार पहले मनु के लिये पावन प्रवाह से प्रवाहित रहता था, उसी प्रकार अब भी संपत्ति के साथ आकर अपने प्रवाह से बह, इन्द्र में वास कर, और युद्ध में शस्त्रों को प्रकट कर । प्रतापरुद्र देव ई. 16 वीं शती । उड़ीसा में राज्य करनेवाले गजपति घराने के एक राजा । सरस्वतीविलास नामक ग्रंथ के रचयिता । अपनी राजधानी में पंडितों की सभा आयोजित कर तथा उनसे चर्चा करने के पश्चात् आपने प्रस्तुत ग्रंथ लिखा ।
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इस ग्रंथ में आर्थिक विधान (दीवानी कानून) व धर्मशास्त्रों का मत है कि मिश्रजी के ग्रंथों के अनुशीलन से वे भट्टजी के नियमों का समन्वय किया गया है। आगे चल कर इस ग्रंथ को विधान (कानून) का स्वरूप प्राप्त हुआ।
प्रभाचंद्र - गुरुनाम- पद्मनन्दी सैद्धान्तम्। दक्षिण भारतीय । __ आपने प्रताप मार्तण्ड नामक एक और ग्रंथ की भी रचना श्रवण बेलगोल शिलालेखों में उल्लिखित । कार्यक्षेत्र उत्तरभारत की है। उसके पदार्थ निर्णय, वासरादि निरूपण, तिथि निरूपण, (घारानगरी)। माणिक्यनन्दी के शिष्य। चतुर्भुज का नाम भी प्रतिनिरूपण व विष्णु भक्ति शीर्षक नामक पांच विभाग हैं। गुरु के रूप में उल्लिखित । समय के बारे में तीन मान्यताएं प्रतापसिंह देव - जयपुर के महाराजा। ई. 1779-1804 । हैं (1) ई. 8 वीं शताब्दी, (2) ई. 11 वीं शताब्दी और रचना - संगीतसागरः।
(3) ई. 1065। इनमें द्वितीय मत अधिक युक्तिसंगत है। प्रतिप्रभ आत्रेय - ऋग्वेद के 5 वें मंडल का 49 वां सूक्त
भोजदेव और जयसिंह देव (ई. 1065) के राज्यकाल में वे इनके नाम पर है। सविता की प्रार्थना इस सूक्त का विषय ।
रहे। रचनाएं - प्रमेयकमलमार्तण्ड (परीक्षामुख व्याख्या), है। प्रस्तुत सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है -
न्यायकुमुदचन्द्र (लघीयस्त्रय व्याख्या), तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरण तन्नो अनर्वा सविता वरूयं तत्सिंधव इष्यन्तो अनुग्मन् ।
(सर्वार्थसिद्धि व्याख्या), शाकटायनन्यास (शाकटायन व्याकरण
व्याख्या), शब्दाम्भोजभास्कर (जैनेन्द्र व्याकरण व्याख्या), उप यद् वोचे अध्वरस्य होता रायः स्याम पतयो वाजरत्नाः ।।
प्रवचनसार, सरोजभास्कर (प्रवचनसार व्याख्या), गद्यकथाकोष अर्थ - जिसका किसी भी प्रकार का अहित नहीं हो
(स्वतन्त्र रचना), रत्नकरण्डश्रावकाचारटीका, समाधितन्त्रटीका, सकता, ऐसा सविता ही हमारा अभेद्य कवच है। वेगवान
क्रियाकलाप टीका, आत्मानुशासन टीका और महापुराण टिप्पण। नदियां हमारी इच्छा पूर्ण करने के लिये बहती हैं। इसी लिये
प्रायः ये सभी ग्रंथ महाकाय हैं। मैं अध्वर (यज्ञ) का होता प्रार्थना करता हूं कि हम लोग
प्रभुदत्त शास्त्री - ई. 20 वीं शती। दिल्ली निवासी। "संस्कृत सत्त्वाढ्य व (दिव्य) वैभव के अधिपति बनें।
वाग्विजय" नामक 5 अंकी नाटक के प्रणेता। इस नाटक में प्रबोधानन्द सरस्वती - ई. 16 वीं शती। कृतियां- संगीत-माधव, प्राचीन प्राकृत के स्थान पर अर्वाचीन प्राकृत (हिंदी) का वृन्दावन-महिमामृत तथा चैतन्यचन्द्रामृत ।
उपयोग किया है। प्रभाकरभट्ट - ई. 16 वीं शती का उत्तरार्ध। माधव भट्ट प्रभुवसु आंगिरस - ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 35 व 36 के पुत्र । बंगाली नैयायिक। कृतियां रसप्रदीप, अलंकार-रहस्य वें तथा 9 वें मंडल के भी 35 व 36 वें सूक्त इनके नाम तथा लघु सप्तशतिका स्तोत्र।
पर हैं। प्रथम दो सूक्तों का विषय इन्द्र की स्तुति है व द्वितीय प्रभाकर मिश्र (गुरु) - ई. 7 वीं शती। अनेक विद्वानों दो सूक्तों का विषय सोम की स्तुति है। आपने इंद्र के लिये के मतानुसार कुमारिल भट्ट के शिष्य व मीमांसा क्षेत्र में अशनिधर, अपारप्रज्ञ, अतुलबल, भक्तों पर कृपा करने हेतु "गुरुमत" के संस्थापक। आपकी अलौकिक कल्पनाशक्ति पर अवतीर्ण होनेवाला आदि अनेक विशेषणों का प्रयोग किया मोहित होकर कुमारिल भट्ट ने इन्हें "गुरु" की उपाधि से है। इस प्रत्येक विशेषण से इन्द्र के चरित्र के विविध अंग गौरवान्वित किया। तब से आपका उल्लेख "गुरु" के ही स्पष्ट होते हैं। उनकी एक ऋचा इस प्रकार है। नाम से होने लगा।
अस्माकमिन्द्रेहि नो रथमवा पुरन्ध्या। भारतीय दर्शन के इतिहास में मिश्रजी का शुभनाम एक वयं शविष्ठ वीर्यं दिवि श्रवो दधीमहि देदीप्यमान रूप में अंकित है। अपने स्वतंत्र मत की प्रतिष्ठापना दिवि स्तोमं मनामहे (ऋ. 5.35.8) करने हेतु, आपने "शाबरभाष्य" पर बृहती अथवा निबंधन अर्थ - हे इन्द्र देव, हमारी ओर कृपया आगमन कीजिये तथा लघ्वी अथवा विवरण नामक दो टीकाएं लिखीं हैं। उनमें और अपनी प्रगल्भ बुद्धि से हमारे (मनो) रथ पर अपनी से बृहती प्रकाशित हो चुकी है। अपनी अमोघ विचारशक्ति अनुकंपा की छाया (संरक्षा) रखिये। हे सामर्थ्यसागर, हम के बल पर मिश्रजी ने मीमांसादर्शन को विचारशास्त्र बनाने में आपके सुयश को स्वर्ग में भी स्थिर कर सकें तथा स्वर्ग में सहायता की, और दर्शन पर स्थापित कुमारिल भट्ट के भी आपके ही गुणानुवाद का चिंतन हो ऐसी योजना कीजिये। एकाधिपत्य को दूर किया।
अपनी एक ऋचा में (ऋ. 5.36.6) प्रभुवसु आंगिरस ने कप्पुस्वामी शास्त्री ने प्रभाकर मिश्र का काल सन् 610 से उन्हें प्राप्त एक दान का वर्णन किया है। वे कहते हैं "न्यायी 690 के बीच तथा कुमारिल भट्ट का काल सन् 600 से व सामर्थ्य के प्रशंसक श्रुतरथ (राजा) ने 2 अवलक्ष 660 के बीच निश्चित किया है। प्रो. कीथ व डा. गंगानाथ (अबलख) अश्व, उन पर आरूढ अश्ववीर और उनके साथ झा के मतानुसार मिश्रजी सन् 600 से 650 के बीच हुए ____ 300 सैनिक मुझे अर्पण किये। हे मरुत प्रभो, उस युवा तथा भट्टजी उनसे कुछ काल के उपरांत हुए। इन विद्वानों श्रुतरथ राजा के सम्मुख, उसके अधीनस्थ प्रजानन नतमस्तक रहे"।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 377
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प्रमथनाथ तर्कभूषण ( म.म.) वाराणसी के राजपण्डित ताराचन्द्र के पुत्र जन्म सन् 1866 में, भाटपारा, जिला चौबीस परगना, बंगाल में कृतियां (काव्य) रासरसोदय, विजयप्रकाश, और कोकिलदूतम् ।
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प्रयस्वन्त आत्रेय आपने ऋग्वेद के 5 वें मंडल के 20 वें सूक्त की रचना की है। अग्नि की स्तुति उस सूक्त का विषय है। प्रस्तुत सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है ये अग्ने नेरयन्ति ते वृद्धा उग्रस्य शवसः । अप द्वेषो अपह्वरो न्यव्रतस्य सश्चिरे ।। (ऋ. 5.20.2) अर्थ- हे अग्निदेवता, आप उम्र एवं उत्कट बलाढ्य होने पर भी जो उच्च पद पर पहुंचे हुए अथवा वयस्क लोग आपके अंतःकरण को (भक्तिद्वारा) द्रवीभूत नहीं करते, वे निश्चित ही दूसरों की सेवा में रत पुरुषों के द्वेष व तिरस्कार के पात्र होते हैं।
प्रयाग वेंकटाद्रि रचना विद्वन्मुखभूषण ( महाभाष्य टिप्पणी) । इसी ग्रंथ के अड्यार में उपलब्ध दूसरी प्रति का नाम है । विद्वन्मुखमण्डन ।
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प्रयोग भार्गव ऋग्वेद के 8 वें मंडल का 102 वां सूक्त इनके नाम पर है। आपने विविध नामों से अग्नि की स्तुति की है। अन्न की प्राप्ति के हेतु किये जाने वाले प्रयत्नों के सफल होने की वे कामना करते हैं। उनकी एक ऋचा इस प्रकार है - त्वया ह विधुजा वयं चोदिष्ठेन यविष्य
अभिष्मो वाजसातये । (ऋ. 8.102.3)
अर्थ हे अति युवा अग्ने, समृद्धि हेतु हमें प्रेरणा देने वाले आपकी सहायता से हम लोग अन्न की प्राप्ति के लिये किये जाने वाले युद्ध में शत्रु का पराभव करेंगे।
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प्रह्लाद बुवा ई. 18 वीं शती। अमृतानुभव नामक (ज्ञानेश्वर कृत) आध्यात्मिक मराठी ग्रंथ का संस्कृत में अनुवाद किया। पिता- शिवाजी। गुरु- राघव पंढरपुर (महाराष्ट्र) के निवासी । बाल्यकाल से ही परमार्थ में रुचि । बाल्यजीवन विषयक अनेक आख्यायिकाओं में से एक इस प्रकार है।
एक बार उनकी मां ने कहा “मै देवालय जा रही हूं । आंगन में दाल सूखने के लिये फैलाई हुई है। उसे गाय न खाए इसका ध्यान रखना"। मां के जाने के पश्चात् एक गाय आयी और दाल को खाने लगी, किन्तु प्रह्लाद ने उसे नहीं रोका। इसी बीच मां देवालय से लौटी। गाय को देख मां बडी क्रोधित हुई तथा गाय को मारने के लिये दौडी । तब प्रल्हाद ने मां का हाथ पकड़ा और कहा "मां, पहले अपनी दाल का वजन करके देख लो, कम हुई तो ही गाय को पीटना ।" मां ने वैसा ही किया और पाया कि दाल तनिक भी कम नहीं हुई।
छत्रपति शिवाजी महाराज की
औरंगजेब
378 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
मृत्यु के उपरान्त,
अति विशाल सेना के साथ दक्षिण पर छा गया। देवालयों को गिराना और देव मूर्तियों की विटंबना करना, उसके अत्याचारों का प्रमुख अंग था। अतः पंढरपुर जाकर भगवान् विठ्ठल की मूर्ति को नष्ट करने का उसने निश्चय किया। यह बात विदित होते ही प्रह्लादबुवा ने विठ्ठल मूर्ति को देवालय से उठाकर अपने घर में छिपा दिया। औरंगजेब की मृत्यु के पश्चात् उस मूर्ति की देवालय में पुनः प्राणप्रतिष्ठा की गई। कहा जाता है कि वह मूर्ति आज तक वहां है ।
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"अमृतानुभव" के संस्कृत अनुवाद के अतिरिक्त प्रल्हादबुवा ने मराठी में श्रीपांडुरंग माहात्म्य, अहिल्योद्धार, सीतास्वयंवर, प्रमाण लक्षण आदि प्रकरण ग्रंथ लिखे।
आप उत्तम कीर्तनकार भी थे। भागवत के दशम स्कंध का पारायण करते हुए माघ वद्य एकादशी के दिन प्रल्हादबुवा का देहावसान हुआ। उनकी समाधि पंढरपुरस्थित मंदिर में ही है प्रवर्तकोपाध्याय रचना महाभाष्यप्रदीप प्रकाशिका (प्रकाश) । इस ग्रंथ के अनेक हस्तलेख उपलब्ध हैं । प्रशस्तपाद ( प्रशस्तदेव ) - वैशेषिक दर्शन के प्रसिद्ध आचार्य । "पदार्थधर्मसंग्रह" नामक मौलिक ग्रंथ के रचयिता । समयईसा की चतुर्थ शती का अंतिम चरण । इनके ग्रंथ का चीनी भाषा में (648 ई. में) अनुवाद हो चुका था । प्रसिद्ध जापान विद्वान डा. उई ने उसका आंग्ल भाषा में अनुवाद किया। इस ग्रंथ की व्यापकता व मौलिकता के कारण इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई हैं। वैशेषिक सूत्र के पश्चात् इस दर्शन का अत्यंत प्रौढ ग्रंथ, “प्रशस्तपादभाष्य" ही माना जाता है। ("पदार्थधर्मसंग्रह " की प्रशस्ति, "प्रशस्तपादभाष्य" के रूप में है) यह वैशेषिक दर्शन का आकर ग्रंथ है।
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इस ग्रंथ में भाष्य ग्रंथ के कोई भी लक्षण नहीं फिर भी अनेक विद्वान् इसे भाष्यग्रंथ के तुल्य ही मानते हैं। स्वयं प्रशस्तपाद ने इसे भाष्य ग्रंथ नहीं बताया है। उदयनाचार्यजी के मतानुसार वैशेषिक सूत्रों पर प्रसिद्ध रावणभाष्य के विस्तृत होने के कारण, प्रशस्तपादजी ने वैशेषिक सिद्धान्तों का संकलन संक्षेप में किया है।
प्रियंवदा - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध, पिता शिवराम | पति- रघुनाथ फरीदपुर (बंगाल) में निवास "श्यामरहस्य" (कृष्णभक्तिपरक काव्य ) की रचयित्री ।
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प्रेमचन्द्र तर्कवागीश समय ई. 19 वीं शती। बंगाली। कृतियां - शाकुन्तल, उत्तररामचरित और काव्यप्रकाश पर टीकाएं। बकुलाभरण शठगोप के पुत्र अपने "यतीन्द्रचम्पू" में इन्होंने रामानुजाचार्य का चरित्र लिखा है ।
बटुकनाथ शर्मा (प्रा.) जन्म वाराणसी में सन 1895 में। उपनाम- बालेन्द्र । काशी हिन्दू वि.वि. में प्राध्यापक । पिता ईश्वरीप्रसाद मिश्र । कृतियां- बल्लवदूत, शतकसप्तक,
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आत्मनिवेदन-शतक, कालिकाष्टक, सीतास्वयंवर आदि महाकाव्य संगृहीत। तथा पाण्डित्य-ताण्डवित (प्रहसन)। आपने भरत के नाट्यशास्त्र बलदेवसिंह वर्मा (डा.) - ई. 20 वीं शती । एम.ए.,पीएच.डी. । का (संशोधित संस्करण का) भी प्रकाशन कराया।
व्याकरणाचार्य। शिमला वि.वि. (हिमाचल प्रदेश) में प्राध्यापक बदरीनाथ शास्त्री - ई. 20 वीं शती। बडौदा निवासी। तथा संस्कृत विभागाध्यक्ष। संस्कृत और भाषाविज्ञान पर प्रभुत्व । "विद्यासुधानिधि" की उपाधि से विभूषित। "रत्नावलि' नामक "हर्षदर्शन" नामक एकांकी के प्रणेता। पुष्पगण्डिका के प्रणेता।
बलरामवर्मा (बालरामवर्मा) - कोचीन नरेश बालमार्तण्ड बदरीनाथ शर्मा - मुजफरपुर (बिहार) के निवासी। रचना- वर्मा के भतीजे। जन्म सन् 1724 में। राजाधिकार 1753 ई. दीधितिः (ध्वन्यालोक की सुबोध टीका)।
से 1798। शूर, दयालु, लोकप्रिय, धर्मराज इन नामों से भी बभ्र आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवे मंडल के तीसवें सूक्त के प्रसिद्ध। कवियों के लिये उदार। स्वयं भाषाशास्त्री। इनकी रचयिता। इस सूक्त का विषय इंद्रस्तुति है।
राजसभा के सदस्य सदाशिव मखी की रचना "रामवर्मयशोभूषणम्" ___ इस सूक्त में बभ्रु आत्रेय ने स्वयं की जानकारी भी दी तथा अप्पय दीक्षित के वंशज वेंकट सुब्रह्मण्याध्वरिन् की रचना है। उससे ज्ञात होता है कि बभ्र आत्रेय ऋणंचय नामक राजा
"वसुमतीकल्याणम्"। स्वयं इनकी रचना बालरामभरतम् के आश्रय में रहते थे।
(संगीतविषयक) है। बरु - आंगिरस कुल के एक सूक्तद्रष्टा। ऋग्वेद के दसवें बल्लालसेन - बंगाल के राजा विजयसेन इनके पिता थे। मंडल के 96 वें सूक्त के रचयिता। ऐतरेय ब्राह्मण (6.25)
ई. स. 1158 में ये गद्दी पर बैठे। इनके गुरु का नाम तथा शांखायन ब्राह्मण (25.8) में इनका उल्लेख है। अनिरुद्ध भट्ट था। बर्बरस्वामी - स्कन्दस्वामी के निर्देशानुसार दुर्गासिंह के अतिरिक्त
___ इन्होंने अद्भुतसागर (ज्योतिषविषयक) दानसागर, निरुक्त के एक व्याख्याकार ।
प्रतिष्ठासागर, आचारसागर तथा व्रतसागर नामक (धर्मशास्त्र
विषयक) ग्रंथों की रचना की। बलदेव विद्याभूषण - ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध । मेदिनीपुर निवासी। इनका जन्म बंगाल में वैश्य जाति में हुआ
___ बल्लालसेन अत्यंत पराक्रमी पुरुष थे और ज्योतिषशास्त्र के था। इन्होंने गौडीय वैष्णव धर्म स्वीकार किया था। रूप
प्रसिद्ध आचार्य भी। इन्होंने 1168 ई. में "अद्भुतसागर" गोस्वामी की स्तवमाला तथा उत्कलिका वल्लरी के टीकाकार।
नामक ग्रंथ का प्रणयन किया था। इन्होंने ग्रहों के संबंध में
जितनी बातें लिखी हैं, उनका स्वयं परीक्षा कर विवरण दिया इन्होंने पीतांबरदास के निकट शास्त्राध्ययन करने के पश्चात्
है। यह ग्रंथ इन्होंने उनके राज्याभिषेक के 8 वर्षों के बाद वंदावन में जाकर विश्वनाथ चक्रवर्ति का (जिनका स्वतंत्र पंथ
लिखा था। यह अपने विषय का विशाल ग्रंथ है, जिसमें था) शिष्यत्व ग्रहण किया। विश्वनाथ चक्रवर्ती के पश्चात् बलदेव
लगभग 8 हजार श्लोक हैं। इस ग्रंथ का प्रकाशन प्रभाकरी ही उनके उत्तराधिकारी हुए। इन्होंने वैष्णव संप्रदाय की दृष्टि
यंत्रालय काशी से हो चुका है। से ग्रंथ लेखन किया।
बसव नायक - हुक्केरी (कर्नाटक) के निवासी। रचना-शिवतत्त्व उस समय वृंदावन जयपुरनरेश के शासनाधीन था। कुछ
रत्नाकरः। ई. 18 वीं शती। ईर्ष्यालु लोगों ने वृंदावन के चैतन्य संप्रदाय के विरुद्ध राजा
बाणभट्ट - समय ई. 7 वीं शती। संस्कृत के सर्वश्रेष्ठ के कान फूंके। राजा ने सत्यासत्य का पता लगाने के लिये
कथाकार व संस्कृत गद्य के सार्वभौम सम्राट्। संस्कृत के जयपुर में पंडितों की सभा बुलायी। उस सभा में उपस्थित
साहित्यकारों में एकमात्र बाण ही ऐसे कवि हैं, जिनके जीवन होकर बलदेव ने अकाट्य प्रमाणों से सिद्ध कर दिया कि
के संबंध में पर्याप्त मात्रा में प्रामाणिक जानकारी उपलब्ध चैतन्य मत वेदविरोधी न होकर वेदानूकुल है।
होती है। इन्होंने अपने ग्रंथ "हर्षचरित" की प्रस्तावना व उस सभा में पंडितों ने उनसे पूछा - "तुम्हारे मत का ___ "कादंबरी" के प्रारंभ में अपना परिचय दिया है। ब्रह्मसूत्रभाष्य है क्या।" बलदेव ने कहा "अभी तक नहीं है,
इनके पूर्वज सोननद के निकटस्थ प्रीतिकूट नामक नगर के परंतु वह निर्माण करूंगा"। इसके पश्चात् बलदेव ने ब्रह्मसूत्र निवासी थे। कतिपय विद्वानों के अनुसार यह स्थान बिहार पर वैष्णवमतानुसार गोविंदभाष्य लिखा।
प्रांत के आरा जिले में "पियरो" नामक ग्राम है, तो अन्य इसके अतिरिक्त इन्होंने सिद्धांतरत्न, पद्यावली, कृष्णानंदिनी, कुछ विद्वान उसे गया जिले के "देव" नामक स्थान के निकट व्याकरणकौमुदी, प्रमेयरत्नावलि, साहित्यकौमुदी, वेदांतस्यमंतक, "पिट्रो" नामक ग्राम मानते हैं। बाण का कुल पांडित्य के काव्यकौस्तुभ, छंदःकौस्तुभभाष्य आदि ग्रंथ लिखे है। लिये विख्यात था। ये वात्स्यायन गोत्रीय ब्राह्मण थे। इनके बलदेवसिंह . वाराणसी के निवासी। रचना- यहां अनेक छात्र यजुर्वेद का पाठ किया करते थे। कुबेर के चक्रवर्ति-व्हिक्टोरिया-भारत वर्षे 32 विजयपत्रम्। ई. 1889 में चार पुत्र हुए। इनमें से पाशुपत के पुत्र का नाम अर्थपति
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 379
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था। अर्थपति के 11 पुत्र थे जिनमें से चित्रभानु के पुत्र 'उन्हीं से शिक्षा प्राप्त । बाणभट्ट थे। बाण की माता का नाम राजदेवी था।
नदिया के महाराज कृष्णचन्द्र के सभाकवि। बाद में इनकी मां का देहांत इनकी बाल्यावस्था में ही हो चुका मुर्शिदाबाद में अलिवर्दीखान के पास रहे। फिर बर्दवान के था। पिता द्वारा ही इनका पालन पोषण हुआ। 14 वर्ष का राजा चित्रसेन के पास ई. 1744 तक रहे। उसकी मृत्यु के आयु में बाण के पिता भी इन्हें अकेला छोड स्वर्गवासी हुए। पश्चात् फिर कृष्णचन्द्र के आश्रय में। अनन्तर कलकत्ता के अतः योग्य अभिभावक के संरक्षण के अभाव में ये अनेक शोभा बाजार के महाराज नवकृष्णदेव के आश्रय में। अन्त प्रकार की शैशवोचित चपलताओं में फंस गए और देशाटन में सन् 1755 में काशीयात्रा की। करने के लिये निकले। इन्होंने अनेक गुरुकुलों में अध्ययन ___ वारेन हेस्टिंग्ज के आदेशानुसार "विवादार्णव-सेतु" की किया और कई राजकुलों को देखा।
रचना, जो फारसी तथा अंग्रेजी में अनूदित है। यह ग्रंथ 21 विद्वत्ता के प्रभाव से इन्हें महाराज हर्षवर्धन की सभा में खण्डों में है। ये समस्यापूर्ति में अद्वितीय आशुकवि थे।। स्थान प्राप्त हुआ। कुछ दिनों तक वहां रहकर बाण अपनी कृतियां- चन्द्राभिषेक (नौ अंक), चित्रचम्पू, रहस्यामृत जन्मभूमि को लौटे और हर्षवर्धन की जीवन गाथा प्रस्तुत की।
(महाकाव्य), वाराणसीशतक, शिवशतक (काव्य), हनुमत्स्तोत्र, फिर इन्होंने अपने महान् ग्रंथ "कादंबरी" का प्रणयन प्रारंभ तारास्तोत्र और विवादार्णवसेतु (धर्मशास्त्र-विषयक ज्ञान-कोश के किया, किन्तु इनके जीवन काल में यह ग्रंथ पूरा न हो सका। समान)। उनकी मृत्यु के पश्चात् उन्हीं की शैली में उनके पुत्र भूषणभट्ट
बादरायण- ई. पू. 6 वीं शती (अनुमानतः)। इनके द्वारा ने उनकी "कादंबरी' के उत्तर भाग को पूर्ण किया। कुछ
रचित ब्रह्मसूत्रों को वेदांतसूत्र अथवा व्याससूत्र कहते हैं। ये विद्वानों का यह भी कहना है कि कई स्थलों पर बाणतनय
"व्यास"- उपाधि से विभूषित थे। इन्होंने अपने ब्रह्मसूत्रों में ने अपने पिता से भी अधिक प्रौढता प्रदर्शित की है।
उपनिषदों के भिन्न-भिन्न सिद्धांतों का निवेदन किया है। ___ बाण की संतति के बारे में किसी भी प्रकार का उल्लेख
बापूदेव शास्त्री- जन्म-1686 ई. मृत्यु-1755 ई. । पिता-सीताराम । नहीं है। धनपाल को "तिलकमंजरी' में बाणतनय पुलिंध्र का
मूल निवास-अहमदनगर (महाराष्ट्र)। अध्ययनार्थ अधिक काल वर्णन है, जिसके आधार पर विद्वानों ने उनका नाम पुलिन
काशी में वास्तव्य। भारतीय तथा पाश्चात्य ज्योतिःशास्त्र का भट्ट निश्चित कर दिया है। "केवलोऽ पि स्फुरन् बाणः करोति
तौलनिक अभ्यास कर अनेक भाषाओं में ग्रंथ-लेखन । आधुनिक विमदान् कवीन्। किं पुतः क्लुप्तसंधानः पुलिंध्रकृतसन्निधिः।।"
काल के एकमेव श्रेष्ठ ज्योतिःशास्त्रज्ञ । शासकीय संस्कृत कालेज अनुमान है कि इनके गुरु भचु नामक महापंडित थे और
में अध्यापक। रचनाएं- रेखा-गणितम् (प्रथमाध्याय), इनका विवाह मयूरभट्ट नामक एक विद्वान पंडित की भगिनी
त्रिकोणमितिः, सायनवाद, प्राचीन अष्टादशविचित्र-प्रश्न-संग्रह, के साथ हुआ था।
तत्त्वविवेक-परीक्षा, मानमन्दिरस्य यंत्रवर्णनम्, अंकगणितम् आदि बाणकत 3 ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। हर्षचरित, कादंबरी और
प्रकाशित। अन्य हस्तलिखित ग्रंथ प्रकाशित। हिन्दी में प्रभूत चण्डीशतक। इनकी अन्य दो कृतियां भी प्रसिद्ध हैं, वे हैं :
लेखन । लीलावती का एक संस्करण प्रकाशित । सिद्धान्तशिरोमणि पार्वतीपरिणय व मुकटताडितक पर विद्वान् इन्हें अन्य बाणभट्ट
के गोलाध्याय का तथा सूर्यसिध्दान्त का अंग्रजी अनुवाद नामधारी लेखक की रचनाएं मानते हैं। बाणभट्ट के बारे में
विल्किन्सन की सहायता से किया। मैथिल पण्डित नीलाम्बर अनेक कवियों की प्रशस्तियां उपलब्ध होती हैं। बाणभट्ट का
शर्मा की पाश्चात्य पद्धति के अनुसार लिखित संस्कृत रचना समय 607 ई. से 648 ई. (महाराज हर्षवर्धन का शासनकाल)
गोलप्रकाशः का प्रकाशन किया। पाण्डित्य के कारण शासन तक है।
द्वारा सी.आई.ई. तथा महामहोपाध्याय की उपाधियां प्रदत्त । बाणभट्ट अत्यंत प्रतिभाशाली साहित्यकार हैं। इन्होंने कादंबरी की रचना कर, संस्कृत कथा साहित्य में युग प्रवर्तन किया।
बालकवि- ई. 16 वीं शती। उत्तर अर्काट में मुलुंड्रम के हर्षचरित की प्रस्तावना में इनकी अलंकार प्रचुर शैली संबंधी
निवासी। बाद में आश्रयदाता की खोज में केरल में आगमन । मान्यता का पता चलता है। इनके वर्णन संस्कृत काव्य की
कोचीन के राजा रामवर्मा द्वारा आश्रय प्राप्त । पिता-कालहस्ती । निधि हैं। धनपाल ने उन्हें अमृत उत्पन्न करने वाला गंभीर
पितामह-मल्लिकार्जुन। प्रपितामह-यौवनभारती (कवि)। गुरुसमुद्र कहा है। अपनी वर्णनचातुरी के लिये बाण प्राचीन काल
कृष्ण। रचनाएं- (1) रामवर्माविलासः, (2) रत्नकेतूदय नाटकम्, से ही प्रसिद्ध रहे हैं और आचार्यों ने इनके इस गुण पर
(3) शिवभक्तानंदम् (4) गैर्वाणीविजयम्। मुग्ध हो कर "बाणोच्छिष्टं जगत सर्वम" तक कह दिया है।
बालकृष्ण- तैत्तिरीय संहिता के भाष्यकार । बाणेश्वर- ई. 18 वीं शती। जन्म-हुगली जनपद (बंगाल) बालकृष्ण दीक्षित- जन्म-1740 ई. में । दीक्षितजी जयपुर-निवासी के गुप्तपल्ली ग्राम में। पिता-रामदेव (तर्कवागीश नैयायिक)। औदीच्य ब्राह्मण थे। मारवाड-शासक अजितसिंह के समय में
380/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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इनका जन्म हुआ था। “अजितसिंहचरितम्" महाकाव्य, इनकी एकमात्र कृति है जिसमें अजितसिंह का चरित्र 10 सर्गों में वर्णित है। बालचन्द- मूल संघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वयके विद्वान् । गुरु-नयकीर्ति । भ्राता-दामनन्दी। समयई. 12 वीं शती। ग्रंथ-प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और तत्त्वार्थसूत्र (तत्त्वरत्न-प्रदीपिका) इन पांचों ग्रंथों पर टीकाएं उपलब्ध हैं। बालसरस्वती- व्याकरण के एक सुप्रसिद्ध पंडित तथा कवि भी थे। इनका राघवयादव-पांडवीय नामक महाकाव्य (शब्दश्लेश द्वारा) तीन अर्थो को प्रकट करता है। काव्य का प्रत्येक श्लोक राम, कृष्ण तथा पांडव तीनों से संबंधित अर्थ प्रकट करता है, जिससे संपूर्ण काव्य में रामायण, महाभारत तथा भागवत की कथा का समावेश हो गया है। इन्होंने चंद्रिकापरिणय नामक एक अन्य काव्य की भी रचना की है। बालचंद्र सूरि- समय- ई. 13 वीं शताब्दी। “वसंत-विलास" नामक महाकाव्य के प्रणेत.। इस महाकाव्य में राजा वस्तुपाल का जीवन-चरित्र वर्णित है। कवि ने इसकी रचना, वस्तुपाल के पुत्र के मनोरंजनार्थ की थी। "प्रबंध-चिंतामणि" के अनुसार यह काव्य वस्तुपाल को इतना अधिक रुचिकर प्रतीत हुआ कि उन्होंने इस पर बालचंद्र सूरि को एक सहस्र सुवर्ण मुद्राएं प्रदान की और उन्हें आचार्य-पद पर अभिषिक्त किया। बाहवृक्त आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 71 एवं 72 • दो सूक्त इनके नाम पर हैं। इन सूक्तों में मित्र और वरुण की स्तुति की गयी है। एक ऋचा इस प्रकार है- .
मित्रश्च नो वरुणश्च जुषता यज्ञमिष्टये।
नि बर्हिषि सदता सोमपीतये।। अर्थ- हमारी अभीप्सा पूर्ण हो इसके लिये मित्र और वरुण हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करें। इस लिये अब दोनों देवताओं, सोमरस के आस्वादन के लिये इस कुशासन पर आप आरोहण कीजिये! बिल्वमंगल- (लीलाशुक) पिता-दामोदर । माता-नीली या नीरी। अपने जीवन के पूर्वार्ध में ये अत्यंत विषयासक्त थे। चिंतामणि नामक वेश्या के घर पर दिन-रात पड़े रहते थे। ___एक बार अपने पिता की श्राध्दतिथि पर भी वे चिंतामणि वेश्या के यहां गये। वेश्या को अपार दुःख हुआ। उसने उनकी निर्भत्सना करते हुए कहा, मुझ पर जितने आसक्त हो उतना भगवान् कृष्ण पर प्रेम करो तो तुम्हारा और तुम्हारे कुल का उद्धार हो जायेगा। बिल्वमंगल को उपरति हुई। वहां से वे सीधे व्रजभूमि की ओर चल पड़े। राह में सोमगिरि नामक महात्मा से इनकी भेंट हुई। उन्होंने बिल्वमंगल को वैष्णवदीक्षा दी और इनका नाम "लीलाशुक" रखा। इनकी यात्रा जारी रही। रास्ते में सुंदर-सुंदर वस्तुओं को देख कर इनका मन
उनकी ओर आकृष्ट होता था। एक दिन इनके मन में विचार आया "आंखे बडी पापी हैं। वे भगवान् के दर्शन में बाधक हैं, क्यों कि ये अनेक विषयों की ओर मन को आकर्षित करती हैं। उन्होंने तुरंत एक कांटा लेकर उससे अपनी दोनों आंखे बेध डाली। दृष्टिविहीन बिल्वमंगल ठोकरे खाते हुए ब्रज की ओर चलने लगे।
कहते है कि भगवान् कृष्ण को इनकी दया आयी। उन्होंने बालक का रूप धारण कर उन्हें अपने हाथ का सहारा दिया
और वृंदावन तक पहुंचा दिया। वहां उन्होंने बिल्वमंगल से बिदाई मांगी। परंतु इन्होंने उनका हाथ दृढता से पकड रखा । फिर भी भगवान् कृष्ण हाथ छुड़ा कर चल पड़े। तब इन्हें अनुभव हुआ कि इन्हें पहुंचाने वाला बालक स्वयं भगवान कृष्ण थे। उस समय इनके मुख से निम्न श्लोक निकला
हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्।
हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते।। बिल्वमंगल वृंदावन में रहने लगे। वहां इन्होंने कृष्ण की सरस और मधुर लीलाओं पर 112 श्लोक रचे। इनके ये श्लोक "कृष्णकर्णामृत" के नाम से विख्यात हुए। चैतन्य महाप्रभु इनका नित्य पाठ करते थे इससे कृष्णकर्णामृत की महत्ता प्रमाणित होती है। कृष्णकर्णामृत का निम्न श्लोक बिल्वमंगल की हरि-दर्शन की उत्कटता प्रकट करता हैअमून्यधन्यानि दिनान्तराणि हरे त्वदालोकनमन्तरेण । अनाथबन्धो करुणैकसिन्धो हा हन्त हा हन्त कथं नयामि ।।
अर्थ हे हरि, हे अनाथ बंधु, हे करुणासागर, तुम्हारे दर्शन के बिना मेरे विफल सिद्ध होनेवाले दिन मैं कैसे पार करूं। मुझे अत्यंत दुःख हो रहा है। बिल्हण- पिता-ज्येष्ठ कलश और माता-नागदेवी। जन्म-काश्मीर के प्रवरपुर के निकटवर्ती ग्राम खानमुख में । कौशिक गोत्री ब्राह्मण।
बिल्हण के प्रपितामह और पितामह वैदिक वाङ्मय के प्रकांड पंडित थे। इनके पिता ने पतंजलि के महाभाष्य पर टीका लिखी थी। बिल्हण ने वेद, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र का अध्ययन काश्मीर में ही पूर्ण किया था।
ई. स. 1062-65 के बीच किसी समय बिल्हण ने काश्मीर छोडा और देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। अंत में कर्नाटक के चालुकक्यवंशीय सम्राट विक्रमांक की राजसभा में उन्हें सम्मानपूर्वक आश्रय मिला। वहीं इन्होंने कालिदास के रघुवंश के अनुकरण पर "विक्रमांकदेव-चरित' नामक महाकाव्य लिखा। उनका और पर्याय से बिल्हण का समय 1076-1127
बिल्हण का कर्णसुंदरी नामक नाटक और चौरपंचाशिका नामक लघु प्रणयकाव्य भी उपलब्ध है।
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चौरपंचाशिका के संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है- बिल्हण का किसी राजकुमारी पर प्रेम था। यह वार्ता राजा को ज्ञात होते ही उसने बिल्हण को मृत्युदंड दिया। जब सिपाही वधस्तंभ की ओर बिल्हण को ले जाने लगे, तब इनके मन में अपने अनुभूत प्रणय की स्मृतियां उभर आयीं
और इन्होंने उन्हें श्लोकबद्ध किया। उन श्लोकों को सुन कर राजा का मन द्रवित हुआ। उसने बिल्हण को मुक्त किया तथा उनका राजकन्या के साथ विवाह भी कर दिया।
ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में ये बडे जागरूक रहे हैं। वैदर्भी-मार्ग के कवि हैं। बिल्हण ने राजाओं की कीर्ति
ओर अपकीर्ति प्रसारण का कारण, कवियों को माना है। इनके महाकाव्य का सर्वप्रथम प्रकाशन जे.जी. बूल्हर द्वारा 1875 ई. में हुआ था। फिर हिन्दी अनुवाद के साथ वह चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित हुआ। बुद्धघोष- समय- संभवतः 4-5 वीं शती। टीकाकार बुद्धघोष से भिन्न। इन्होंने “पद्मचूडामणि' नामक महाकाव्य की रचना की है। ये पाली-लेखकों व बौद्ध-धर्म के व्याख्याकारों में महनीय स्थान के अधिकारी हैं। इन्होंने “विसुद्धिमग्ग" नामक बौद्ध-धर्म-विषयक ग्रंथ का भी प्रणयन किया है, तथा “महावंश" व "अठठ कथा" नामक ग्रंथ भी इनके नाम पर प्रचलित हैं। ये ब्राह्मण से बौद्ध हुए थे। इनके एक ग्रंथ का चीनी अनुवाद 488 ई. में हुआ था। जैसा कि इनके महाकाव्य "पद्मचूडामणि" से ज्ञात होता है, ये अश्वघोष तथा कालिदास के काव्यों से पूर्णतः परिचित थे। बुध्ददेव पाण्डेय- ई. 20 वीं शती। दयानंद कन्या विद्यालय, मीठापूर (पटना) में अध्यापक। "आदिकवि" नामक नाटक के प्रणेता। बुद्धपालित- समय- प्रायः पांचवीं शती। महायान सम्प्रदाय के महान् आचार्य। शून्यवाद के प्रमुख व्याख्याकार। प्रासंगिक मत के प्रतिष्ठापक। इसके कारण विशेष प्रसिद्ध । रचना-माध्यमिक-कारिका पर “अकुतोभया" नामक टीकाग्रंथ। अन्य स्वतंत्र रचना नहीं। बुध आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के प्रथम सूक्त के रचयिता। इस सूक्त में अग्नि की स्तुति की गयी है। बुधवीस- वंश-अग्रवाल। साहू तोतू के पुत्र और म. हेमचन्द्र के शिष्य। समय- ई. 16 वीं शती। ग्रंथ-बृहत्सिद्धचक्र-पूजा, धर्मचक्र-पूजा, नन्दीश्वर-पूजा और यष्टिमंडल-यन्त्र-पूजापाठ। बूल्हर जे. जी.- जर्मनी के प्राच्य-विद्या-विशारद। जर्मनी में 19 जुलाई 1837 ई. को जन्म। हनोवर-राज्य के अंतर्गत, वोरलेट नामक ग्राम के निवासी। एक साधारण पादरी की संतान । शैशव से ही धार्मिक रुचि। उच्च शिक्षा प्राप्ति के । हेतु गार्टिजन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट व वहां संस्कृत के अनूदित
ग्रंथों का अध्ययन। 1858 ई. में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, और भारतीय विद्या के अध्ययन में संलग्न हुए। आर्थिक संकट होते हुए भी बड़ी लगन के साथ भारतीय हस्तलिखित पोथियों का अन्वेषण कार्य प्रारंभ किया। तदर्थ आप पेरिस, लंदन व ऑक्सफोर्ड के इंडिया आफिस-स्थित विशाल ग्रंथागारों में उपलब्ध सामग्रियों का आलोडन करने के लिये गए। संयोगवश लंदन में मैक्समूलर से भेंट होकर इस कार्य में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लंदन में ये विंडसर के राजकीय पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्य के रूप में नियुक्ति हए व अंततः गार्टिजन-विश्वद्यिालय के पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में इनकी नियुक्ति हुई। भारतीय विद्या के अध्ययन की उत्कट अभिलाषा के कारण ये भारत आए और मैक्समूलर की संस्तुति के कारण बंबई-शिक्षा-विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष हार्वड ने इन्हें मुंबई-शिक्षा-विभाग में स्थान दिया। यहां ये 1863 ई. से 1880 ई. तक रहे। विश्वविद्यालय का जीवन समाप्त होने पर इन्होंने स्वयं को लेखन-कार्य में लगाया और "ओरिएंट एण्ड ऑक्सीडेंट" नामक पत्रिका में भाषा-विज्ञान व वैदिक शोधविषयक निबंध लिखने लगे। इन्होंने "बंबई संस्कृत-सीरीज' की स्थापना की, और वहां से "पंचतंत्र", "दशकुमार-चरित" व "विक्रमांकदेवचरित' का संपादन व प्रकाशन किया। सन् 1867 में सर रेमांड वेस्ट नामक विद्वान के सहयोग से इन्होंने "डाइजेस्ट-ऑफ हिंदू लॉ' नामक पुस्तक का प्रणयन किया। इन्होंने संस्कृत की हस्तलिखित पोथियों की खोज का कार्य अक्षुण्ण रखा, और 1868 ई. में एतदर्थ शासन की ओर से बंगाल, मुंबई व मद्रास में संस्थान खुलवाये। डा. कीलहान, बूल्हर, पीटर्सन, भांडारकर, बनेल प्रभृति विद्वान भी इस कार्य में लगे। बूल्हर को मुंबई शाखा का अध्यक्ष बनाया गया। बूल्हर ने लगभग 2300 पोथियों को खोज कर उनका उद्धार किया। इनमें से कुछ बर्लिन-विश्वद्यिालय में गयीं तथा कुछ पोथियों को इंडिया
ऑफिस लाइब्रेरी लंदन में रखा गया। सन् 1887 में इन्होंने लगभग 500 जैन ग्रंथों के आधार पर जर्मन भाषा में धर्म-विषयक एक ग्रंथ की रचना की, जिसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई।
इस प्रकार अनेक वर्षों तक निरंतर अनुसंधान-कार्य में जुटे रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिरने लगा । अतः आरोग्य लाभ हेतु, ये वायना (जर्मनी) चले गए। वायना-विश्वविद्यालय में इन्हें भारतीय साहित्य व तत्त्वज्ञान के अध्यापन का कार्य मिला। वहां इन्होंने 1886 ई. में “ओरीएंटल इन्स्टीट्यूट' की स्थापना की और "ओरीएंटल जर्नल' नामक पत्रिका का प्रकाशन इन्होंने किया। इन्होंने 30 विद्वानों के सहयोग से " एनसायक्लोपेडिया ऑफ इंडो-आर्यन् रिसर्च" का संपादन-कार्य प्रारंभ किया किन्तु इसके केवल 9 भाग ही प्रकाशित हो सके।
अपनी मौलिक प्रतिभा के कारण, बूल्हर विश्वविश्रुत विद्वान
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हो गए। एडिनबरा-विश्वविद्यालय ने इन्हें डाक्टरेट की उपाधि गाथाएं दी गयी हैं। मनुस्मृति को चार विभागों में विभाजित से विभूषित किया। दि. 8 अप्रैल 1898 ई. को झील मे करने का श्रेय जिन चार ऋषियों को दिया जाता है, उनमें नौका-विहार करते हुए ये अचानक जल-समाधिस्थ हो गए। बृहस्पति एक हैं। अन्य तीन ऋषि हैं- आंगिरस, नारद और भृगु । उस समय आपकी आयु 61 वर्ष की थी।
बृहस्पति मिश्र-ई. 15 वीं शती। पिता-गोविन्द । माता-नीलमुखायी बृहदुक्थ वामदेव - वामदेव के पुत्र हैं या वंशज, इस विषय देवी। "रायमुकुट" के नाम से विख्यात । राढ प्रदेश (बंगाल) में निश्चयपूर्वक नहीं कहा जा सकता। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के निवासी। गौड-नरेश से समाश्रय प्राप्त । कृतियां- पदचन्द्रिका के 54-56 सूक्तों के द्रष्टा। इनके पुत्र का नाम वाजिन था। अथवा अमरकोश-पंचिका, व्याख्याबृहस्पति (रघुवंश तथा कुमार पुत्र की मृत्यु के पश्चात् उसके शरीर के भाग ले जाने की पर टीका) और निर्णयबृहस्पति (माघ काव्य पर टीका)। इन्होंने देवताओं से प्रार्थना की है (10-56)। ऐतरेय ब्राह्मण बेडुल सुब्रह्मण्य शास्त्री- ई. 20 वीं शती। संस्कृत तथा से ज्ञात होता है कि इन्होंने पांचाल देश के दुर्मुख नामक तेलुगु में एम. ए.। ए. वी. एस. आर्ट्स कालेज, विशाखापट्टम राजा का राज्याभिषेक किया था।
में तेलुगु के व्याख्याता। "वरुथिनी-प्रवर" नामक एकांकी के ___ इनके तीनों सूक्त इंद्र-स्तुतिपरक हैं। इन सूक्तों में इनकी प्रणेता। प्रतिभा का परिचय मिलता है। ये सूक्त श्रेष्ठ काव्यगुणों से युक्त हैं। बेल्लमकोण्ड रामराय- अल्पजीवन काल में लोकोत्तर ग्रंथसम्भार बृहद्दिव आथर्वण- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 120 वें। की निर्मिति करने वाले प्रकाण्ड विद्वान्। जन्म 1875 ई. में। सूक्त के द्रष्टा । यह सूक्त इंद्रस्तुतिपरक है। शाखांयन आरण्यक पिता-मोहनराय, माता-हनुमाम्बा। नरसाराबुपेट (आन्ध्र) के में इन्हें सुम्नयु का शिष्य कहा गया है। (15-1) ।
निवासी। पिता का शीघ्र ही देहान्त। काका के पास अध्ययन । बृहन्मति आंगिरस- ऋग्वेद के नवम मंडल के 39 वें तथा
गुरु-सीताराम। हयग्रीवोपासना एवं रत्नगुरू के पास साधना । 40 वें सूक्त के द्रष्टा । इन सूक्तों में सोम की स्तुति की गयी है।
अद्भुत काव्य-शक्ति। प्रायः 16 वर्ष की आयु में बृहस्पति- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 71 तथा 72 वें सूक्त
रुक्मिणी-परिणय-चम्पू: (सटीक) और कृष्णलीलातरंगिणी इन
काव्यों की निर्मिति। आदिलक्ष्मी से विवाह। दैनिक के द्रष्टा। इनके नाम की व्युत्पत्ति इस प्रकार है- "वाग् बृहती
कार्यक्रम-उपासना, अध्यापन, अध्ययन, चिन्तन तथा ग्रंथशोधन तस्या एष पतिस्तस्मादु बृहस्पतिः", वाणी का पति बृहस्पति ।
व लेखन। सिद्धान्त-कौमुदी पर शरद्-रात्रिः नामक टीका । गुरुअपने सूक्त में दिव्य वाणी का महत्त्व बतलाते हुए ये
रामशास्त्री प्रसन्न। चम्पू-भागवत की टीका गुरु के आदेश से कहते हैं- "सक्तुमिव तितउना पुनन्तो यत्र धीरा मनसा वाचमक्रत ।
की। इनकी कुल रचनाएं 143 हैं। आयु मर्यादा 38 वर्ष । अत्रा सखायः सख्यानि जानते। भद्रेषां लक्ष्मीर्निहिताधि वाचि"।
मधुमेह से मृत्यु। पुल्य उमामहेश्वर शास्त्री ने इनका चरित्र (ऋ. 10-71-2)।
लिखा (108 श्लोक) और इनकी कुछ रचनाओं का प्रकाशन अर्थ- जिस प्रकार चलनी से सत्तू छानकर साफ करते हैं,
किया। उसी प्रकार शुद्ध बुद्धि के सत्पुरुष अपने अंतःकरण से ही
प्रमुख रचनाएं- भगवद्गीताभाष्यार्थ-प्रकाश, समुद्रमन्थन-चम्पूः, भाषण करते हैं। ऐसे समय वे उस भाषण का मर्म समझते
कन्दर्पदर्पविलास (भाण), शारीरक-चतुःसूत्रीविचारः, हैं जो भगवान् के प्रिय होते हैं तथा इन (सत्पुरुषों की)
शंकराशंकर-भाष्यविमर्शः, वेदान्तकौस्तुभ, अद्वैतविजय, मुरारिनाटक वाणी में मंगलरूप लक्ष्मी निवास करती है।
व्याख्या, दशावताराष्टोत्तराणि, धर्मप्रंशसा, काममीमांसा, इन्हें चतुर्विंशति रात्र, अन्य कुछ यागों (ते.सं.7-4-1) तथा
त्रितरसम्मतम्, विद्यार्थिविद्योतनम्, रामायणान्तरार्थ, भारतान्तरार्थ, कुछ सामों के रचयिता कहा जाता है। बताया जाता है कि
मोक्षप्रासादः, ब्राह्मणशब्दविचारः आदि। इन्होंने याज्ञवल्क्य को तत्त्वज्ञान की शिक्षा दी थी।
बोकील, विनायकराव- जन्म-दि 8-1-1890 को, सातारा बृहस्पति (अर्थशास्त्रकार)- अर्थशास्त्र के एक प्राचीन आचार्य। जिले में। स्नातकीय शिक्षा पुणे के फर्ग्युसन कालेज में। सन् इनके द्वारा रचित अर्थशास्त्र का ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, परंतु 1939 से 1945 तक शिक्षा विभाग में इन्स्पेक्टर। पुणे में कौटिल्य ने अपने "अर्थशास्त्र" ग्रंथ में बार्हस्पत्य शाखा के प्राध्यापक के पद पर भी रहे। प्रवृत्ति आध्यात्मिक। मतों का छह बार उल्लेख किया है।
कृतियां- (नाटक)- श्रीकृष्ण-रुक्मिणीय, सौभद्र, श्रीशिववैभव, राजा के 16 प्रधानमंत्री हों ऐसा इनका मत था। महाभारत भीमकीचकीय व रमा-माधव जिसमें माधवराव पेशवा और के अनुसार (शांति 59.80.85) ब्रह्मा द्वारा धर्म, अर्थ तथा उनकी धर्मपत्नी सती रमाबाई का व्यक्तित्व चित्रित किया है। काम-विषय पर लिखे हुए प्रचंड ग्रंथ का, इन्होंने 3 हजार (बालोपयोगी-बालरामायण), बालभागवत और बालभारत । इनके अध्यायों में संक्षेप किया है। वनपर्व में (महाभारत) बृहस्पति-नीति अतिरिक्त मराठी और अंग्रेजी में भी ग्रंथ-लेखन किया है। का उल्लेख है। शांतिपर्व में बृहस्पति के कुछ श्लोक तथा
बोधायन- संभवतः ईसा पूर्व छठी से तीसरी शती के बीच
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इनका आविर्भाव हुआ था। कल्पसूत्र के रचयिता। ये कृष्णयजुर्वेदीय थे। बर्नेल के अनुसार इनके छह सूत्र उपलब्ध हैं। वे इस प्रकार हैं- 1. श्रौतसूत्र, 2. कर्मान्तसूत्र, 3. द्वैधसूत्र, 4. गृह्यसूत्र, 5. धर्मसूत्र और 6. शुल्बसूत्र । बौधायन-शाखा के लोग संप्रति आन्ध्र में कृष्णा नदी के मुहाने के निकटवर्ती क्षेत्र में अधिक संख्या में हैं। बोपदेव- मुग्धबोध नामक लघु व्याकरण-तन्त्र के प्रणेता। पिता-केशव। गरु-धनेश्वर (धर्मेश)। निवास-दौलताबाद (देवगिरि) के समीप । देवगिरि के हेमाद्रि के मन्त्री। समय-वि.सं. 1300-1350 । अन्य रच पाएं-कवि-कल्पद्रुम नामक धातुपाठ-संग्रह
और उसकी टीका, मुक्ताफल, हरिलीलीविवरण, शतश्लोकी (वैद्यक ग्रंथ) और हेमाद्रि नामक धर्मशास्त्रीय निबन्ध । बोम्मकांटि रामलिंगशास्त्री- ई. 20 वीं शती। उस्मानिया वि.. वि. हैदराबाद में संस्कृत-विभागाध्यक्ष । शिक्षा-एम.ए. (भारतीय पुरातत्त्व) पीएच.डी. (संस्कृत) तथा शास्त्री। प्राच्य तथा पाश्चात्य विद्याओं के ज्ञाता। नाट्यसाहित्य आधुनिक विदेशी पद्धति पर विकसित किया। कृतियां- सत्याग्रहोदय (नाटक), दशग्रीव (पद्य-संवाद), जवाहर-श्रध्दांजलि, लघुगीतसंग्रह, गेयांजलि (कविता-संकलन), संस्कृतिकरणम्, शुनःशेप (एकांकी), मेघानुशासन (एकांकी), सुग्रीव-सख्य, मातृगुप्त (एकांकी), देवयानी और यामिनी (नभोनाट्य) और विक्रान्त-भारत। ब्रजनाथ तैलंग- “मनोदूत" नामक संदेश-काव्य के रचयिता। रचना-काल, वि.सं. 1814। इस काव्य की रचना, इन्होंने वृंदावन में की थी। पिता-श्रीरामकृष्ण। पितामह-भूधर भट्ट । ये पंचनंद के निवासी माने जाते हैं। ब्रह्म कृष्णदास (केशवसेन सूरि)- लोहपत्तन नगर-निवासी। पिता-हर्ष। माता-वीरिकादेवी। ज्येष्ठ भ्राता-मंगलदास। काष्ठासंघ के पट्टधर भट्टारक रत्नकीर्ति के शिष्य। समय- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- मुनिसुव्रत-पुराण (वि.सं.1681)-23 सर्ग और 3025 पद्य। कर्णामृत-पुराण व षोडशकारण व्रतोद्यापन । ब्रह्मगुप्त (गणकचक्रचूडामणि)- समय- 598-665 ई. । पिता-जिष्णु। गणित-ज्योतिष के सुप्रसिद्ध आचार्य। इनका जन्म 598 ई. में पंजाब के "भिलनालका" नामक स्थान में हुआ था। इन्होंने "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" व "खंड-खाद्यक" नामक ग्रंथों की रचना की है। ये बीजगणित के प्रवर्तक व ज्योतिष शास्त्र के प्रकांड पंडित माने जाते हैं। इनके दोनों ही ग्रंथों के अनुवाद अरबी भाषा में हुए है। "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत" को अरबी में "असिन्द हिन्द" व "खंड-खाद्यक" के अनुवाद को "अलर्कन्द" कहा जाता है। आर्यभट्ट के पृथ्वी-चलन-सिद्धांत को खंडित करते हुए, इन्होंने पृथ्वी को स्थिर कहा है। अपने ग्रंथों में ब्रह्मगुप्त ने अनेक स्थलों पर आर्यभट्ट, श्रीषेण, विष्णचंद्र प्रभृति आचार्यों के मतों का खंडन करते हुए, उन्हें त्याज्य बतलाया है। ब्रह्मगुप्त के अनुसार इन आचार्यों की
गणना-विधि से ग्रहों का स्पष्ट स्थान शुद्ध रूप में नहीं आता। सर्वप्रथम इन्होंने गणित व ज्योतिष के विषयों को पृथक् कर, उनका वर्णन अलग-अलग अध्यायों में किया है और गणित-ज्योतिष की रचना विशेष क्रम से की है। आर्यभट्ट के निंदक होते हुए भी, इन्होंने ज्योतिष विषयक तथ्यों के अतिरिक्त बीरगणत, अंकगणित व क्षेत्रमिति के संबंध में अनेक मौलिक सिद्धांत प्रस्तुत किये हैं, जिनका महत्त्व आज भी उसी रूप में अक्षुण्ण है। "ब्रह्मस्फुट-सिद्धांत' मूल व लेखक-कृत टीका
के साथ काशी से 1902 ई. में प्रकाशित । संपादक- सुधाकर द्विवेदी। मूल व आमराज-कृत संस्कृत टीका के साथ कलकत्ता से प्रकाशित । भास्कराचार्य ने इन्हें "गणक-चक्र-चूडामणि' की उपाधि से विभूषित किया है। अंग्रेजी अनुवाद पी.सी.सेनगुप्ता, कलकत्ता द्वार, संपन्न। ब्रह्म जिनदास- कुन्दकुन्दान्वयी, सरस्वतीगच्छ के भट्टारक सकलकीर्ति के कनिष्ठ भ्राता। बलात्कारगण की ईडर-शाखा के प्रमुध आचार्य। पिता-कर्णसिंह, माता-शोभा। जाति-हुवंड। समय- वि. स. 1450-15251 शिष्यनाम-मनोहर, मल्लिदास, गुणदास और नेमिदास। रचनाएं-जम्बूस्वामि-चरित (11 सर्ग), हरिवंशपुराण (14 सर्ग), रामचरित (83 सर्ग), पुष्पांजलिव्रत-कथा-, जम्बूद्वीप-पूजा सार्द्धद्वय-द्वीपपूजा, सप्तर्षि पूजा, ज्येष्टिजिनवरपूजा, गुरुपूजा, अनन्तव्रतपूजा और
जलयात्राविधि । राजस्थानी भाषा में भी इन्होंने 53 ग्रंथ रचे हैं। ब्रह्मज्ञानसागर- ई. 17 वीं शती। गुरु-श्रीभूषण । ग्रंथ नेमिधर्मापदेश और दशलक्षण कथा। ब्रह्मतन्त्र परकाल स्वामी- मैसूर के परकाल मठ के 31 वें अधिपति (ई. 1839 से 1916)। रचना- अलंकारमणिहारः । काव्य में वेंकटेश्वर-स्तुति तथा अलंकारों का निदर्शन। ये स्वामी मैसूर के प्रसिद्ध कृष्णम्माचार्य वकील थे। इन्होंने अन्यान्य विषयों पर 67 ग्रंथों की रचना की। उनमें से कुछ प्रमुख हैं - रंगराजविलासचम्पू,
कार्तिकोत्सवदीपिकाचम्पू, श्रीनिवासविलासचम्पू, चपेटाहतिस्तुति, उत्तराङ्गमाहात्म्य, रामेश्वर-विजय, नृसिंह-विलास, मदनगोपाल-माहात्म्य आदि । ब्रह्मदत्त- एक महान् वेदांती। आद्य शंकराचार्य द्वारा अपने बृहदाराण्य के भाष्य में इनका उल्लेख किया गया है। वेदान्तदेशिकाचार्य अपनी सर्वाथसिद्धि नामक टीका में ब्रह्मदत्त के कुछ मतों का उल्लेख करते हैं। ये ध्याननियोगवादी थे
और जीवन्-मुक्ति नहीं मानते थे। मोक्ष को ये अदृष्ट फल मानते थे। टीकाकार सुरेश्वराचार्य तथा ज्ञानोत्तम इन्हें ज्ञानकर्मसमुच्चयवादी मानते हैं। ब्रह्मदेव- रचनाएं- 1. बृहद्र्व्यसंग्रह-टीका, 2. परमार्थप्रकाश-टीका, 3. तत्त्वदीपक, 4. ज्ञानदीपक, 5. प्रतिष्ठातिलक, 6. विवाहपटल, तथा 7. कथाकोष । ब्रह्मनेमिदत्त- ई. 16 वीं शती। मूलसंघ सरस्वतीगच्छ
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बलात्कार-गण के जैन विद्वान् । भट्टारक मल्लिषेण के शिष्य । अग्रवाल । गोत्र- गोयल । आशानगर (मालव प्रदेश) के निवासी । रचनाएं आराधना-कथा- कोश, नेमिनाथ- पुराण, श्रीपालचरित, सुदर्शनचरित, रात्रिभोजनत्याग कथा प्रीतंकर- महामुनिचरित, धन्यकुमारचरित नेमिनिर्वाण-काव्य, नागकुमार- कथा और धर्मोपदेशपीयूषवर्ष श्रावकाचार इनके अतिरिक्त हिन्दी में भी इनकी रचनाएं उपलब्ध हैं ।
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ब्रह्म शिव- कर्नाटकवासी । वत्सगोत्री ब्राह्मण । पिता अग्गलदेव । गुरुनाम - वीरनन्दी । कीर्तिवर्मा और आहवमल्ल नरेश के समकालीन पहले वैदिक मतानुयायी, बाद में लिंगायती बने। तत्पश्चात् जैन धर्मावलंबी हुए। समय- ई. 12 वीं शती । ग्रंथसमयपरीक्षा ।
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ब्रह्मश्री कपाली - शास्त्री - योगिराज अरविन्द के प्रमुख शिष्य । वेदोपनिषदन्तर्गत गूढ आध्यात्मिक ज्ञान का संशोधन करने में व्यस्त । आधुनिक समय के रमण महर्षि, तथा वसिष्ठ - गणपति-मुि कपाली शास्त्री के प्रेरक तथा स्फूर्तिदायक थे। भारद्वाज गोत्र पिता-विश्वेश्वर । तिरुवोषिपुरि-निवासी । पिता के पास वेदाध्ययन । 20 वर्ष की आयु तक आयुर्वेद तथा ज्योतिषशास्त्र में नैपुण्य प्राप्त । गायत्री साधना । वेदविद्या का गूढ खोजने की अनिवार अभिलाषा । वासिष्ठ गणपति मुनि से संपर्क। उनके द्वारा मन्त्रतंत्रादि साधना में विशेष गति । रमण महर्षि से भेंट । अन्तः प्रेरणा से पाण्डीचेरी में योगिराज अरविन्द का शिष्यत्व ग्रहण कर उनके अंग्रेजी ग्रंथों द्वारा (लाइटस् आन दि उपनिषदाज तथा थॉटस ऑन् दि तन्त्राज) उपनिषदों पर तथा तन्त्रमार्ग पर प्रकाश । योगिराज अरविंद के पूर्णयोग-सिद्धान्त के अनुसार, ऋग्वेद-सिद्धांजनभाष्य । ( भूमिका सहित) 60 वर्ष की आयु में लिखा । वासिष्ठ गणपति मुनि का चरित्र लिखा तथा उनकी रचनाओं पर टीकाएं लिखी। "भारतीस्तवः " लिख कर दशभक्ति का परिचय दिया। ऐसे देशभक्त योगी तथा वेदरहस्यज्ञ महापुरुष का देहावसान, सन् 1953 में हुआ । ब्रह्मतिथि काण्व ऋग्वेद के आठवें मंडल के पांचवे सूक्त के रचियता । इस सूक्त में अश्विनी-देवताओं की स्तुति की गयी है । ब्रह्मानंद सरस्वती - ई. 17 वीं शती । ये गौड ब्रह्मानंद नाम से भी विख्यात हैं। मूलतः बंगाल प्रान्त के निवासी । परंतु काशी - क्षेत्र में रहते थे। इनके नारायणतीर्थ तथा परमानंद सरस्वती दो गुरु थे । इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर मुक्तावलि नामक तथा जैमिनि सूत्र पर मीमांसा चंद्रिका नामक टीका ग्रंथ लिखे हैं। इनका, अद्वैतसिद्धि पर अद्वैतचंद्रिका नामक टीकाग्रंथ बहुत प्रसिद्ध है। इस टीका के लघु तथा गुरु दो भेद उपलब्ध हैं। लघुरूप, चंद्रिका नाम से सर्वत्र विख्यात है । इन ग्रंथों के अतिरिक्त, "अद्वैतसिद्धांतविद्योतन" नामक इनका और एक ग्रंथ है। ये भट्ट संप्रदायानुगामी मीमांसक थे। भगवंत कवि ( भगवंतराय गांगाधरि )
समय 1687 से
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1711 ई. के आस पास । ये नरसिंह के शिष्य तथा शाहजी राजा भोसले के पुत्र एकोजी (शिवाजी के सौतेले भाई) के मुख्य सचिव गंगाधरामात्य के पुत्र थे। इन्होंने अपने चंपू काव्य में अपना परिचय दिया है।
अन्य कृतियां राघवाभ्युदय (नाटक) मुकुंदविलास ( काव्य ) और उत्तररामचम्पू (वाल्मीकि रामायण पर आधारित ) भगवत्प्रसाद स्वामिनारायण संप्रदाय के संस्थापक तथा उद्धव के अवतार माने गए ब्रह्मानंद स्वामी (1837 वि. 1866 वि.) के पौत्र । इन्होंने अपने संप्रदाय के अनुसार भागवत की व्याख्या लिखी जिसका 'भक्तरंजनी' नाम है। यह व्याख्या भगवत्प्रसाद के पुत्र बिहारीलाल की आज्ञा से 1940 वि. 1883 ई. में प्रकाशित हुई है। इसका रचना काल 1850 ई. के लगभग माना जा सकता है। I
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भगवदाचार्य स्वामी ई. 20 वीं शती का पूर्वार्ध । आपने "भारतपारिजातम्" नामक 26 सर्ग के महाकाव्य की, लोक-जागृति- हेतु, रचना की। इस महाकाव्य में महात्मा गांधी का चरित्र वर्णित है। स्वामीजी जन्मतः बिहारी थे। अहमदाबाद में आपका दीर्घकाल निवास रहा। भारत पारिजात के अतिरिक्त पारिजातापहार और पारिजातसौरभ नामक गांधी चरित्र से संबंधित रचनाएं तथा ब्रह्मसूत्रवैदिकभाष्य और सामसंस्कारभाष्य नामक आपके ग्रंथ प्रकाशित हैं । हुए
=
भगीरथप्रसाद त्रिपाठी - ई. 20 वीं शती । उपनाम - वागीश । जन्मग्राम - विलइया (म.प्र.) के खुरई स्टेशन के समीप, जिला सागर पूरा कुटुम्ब संस्कृत भाषाभाषी संस्कृत वि.वि. वाराणसी से व्याकरणात्मक शोधप्रबन्ध पर "विद्यावाचस्पति" की उपाधि | संस्कृत वि. वि. वाराणसी में अनुसन्धान संचालक । "सारस्वती सुषमा" नामक पत्रिका के प्रधान सम्पादक । हिन्दी तथा संस्कृत में बहुविध रचनाएं। "कृषकाणां नागपाशः " नामक रूपक के प्रणेता ।
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भट्ट अकलङ्क व्याकरण- रचयिता । स्वयं उस पर मंजरी - मकरन्द नाम्नी टीका लिखी। टीका का प्रारंभिक भाग लन्दन में सुरक्षित । समय लगभग वि.सं. 700।
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भट्ट अकलंक जैन दर्शन के एक आचार्य। ये दिगंबर मतावलंबी जैन आचार्य थे। समय- ई. 8 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । इनके 3 लघु ग्रंथ प्रसिद्ध हैं। लघीयस्त्र, न्याय-विनिश्चय एवं प्रमाण - संग्रह। तीनों ही ग्रंथों का प्रतिपाद्य विषय जैन-न्याय है। इनके अतिरिक्त भट्ट अकलंक ने कई जैन ग्रंथों के भाष्य भी लिखे है । तत्त्वार्थ सूत्र पर "राजवार्तिक" व आप्तमीमांसा पर " अष्टशती" के नाम से इन्होंने टीका-ग्रंथों की रचना की है। भट्ट गुणविष्णु पिता-दामुकाचार्य समय 16 वीं शती से । पूर्व । रचना - मंत्रब्राह्मण का भाष्य ।
भट्टगोपाल
ई. 9 वीं शती। ये संगीतज्ञ थे। इन्होंने
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तालशास्त्र पर तालदीपिका नामक ग्रंथ और भरत के नाट्यशास्त्र भट्टनायक - ई. 10 वीं शती। काव्य-शास्त्र के आचार्य । के कुछ अंशों पर टीका लिखी है।
"राजतरांगणी' में उल्लेखित भट्टनायक से भिन्न । "हृदय-दर्पण" भट्ट गोविंदस्वामी - ऐतरेय ब्राह्मण के भाष्यकार । समय-संभवतः नामक (अनुपलब्ध) ग्रंथ के प्रणेता। इनके मत, अभिनवभारती, नवम शताब्दी से पूर्व। देवग्रन्थ की पुरुषकार व्याख्या के कर्ता व्यक्ति-विवेक, काव्य-प्रकाश, काव्यानुशासन माणिक्यचंद्र-कृत श्रीकृष्ण-लीलाशुक मुनि, और मेधातिथि (अनुक्रमतः) स्पष्ट काव्यप्रकाश की संकेत-टीका में उद्धत हैं। भट्टनायक ने रूप से और अस्पष्ट रूप से भट्ट गोविन्द स्वामी का निर्देश भरतकृत "नाट्यशास्त्र" की भी टीका लिखी थी। भरत मुनि करते हैं। गोविन्द स्वामी ने संभवतः बोधायन धर्मसूत्र पर भी के रस-सूत्र के तृतीय व्याख्याता के रूप में भट्टनायक का बोधायनीय धर्मविवरण लिखा होगा।
नाम काव्यप्रकाश में आता है। इन्होंने रसविवेचन के क्षेत्र में भट्ट तौत - अभिनवगुप्ताचार्य के गुरु। “काव्यकौतुक" नामक
"साधारणीकरण" के सिद्धांत का प्रतिपादन कर भारतीय काव्य काव्य-शास्त्रविषयक ग्रंथ के प्रणेता। इस ग्रंथ में इन्होंने शांतरस शास्त्र के इतिहास में युग-प्रवर्तन किया है। को सर्वश्रेष्ठ रस सिद्ध किया है। "अभिनवभारती' के अनेक इनका समय ई. 9 वीं शती का अंतिम चरण या 10 वीं स्थलों में अभिनवगुप्त ने भट्ट तौत के मत को "उपाध्यायाः" शती का प्रथम चरण है। इनके रसविषयक सिद्धांत को या "गुरवः" के रूप में उद्धृत किया है। उनके उल्लेख से भुक्तिवाद कहते हैं। तदनुसार न तो रस की उत्पत्ति होती है विदित होता है कि भट्ट तौत ने नाट्य-शास्त्र की टीका भी और न अनुमिति, अपि तु भुक्ति होती है। इन्होंने रस की लिखी थी। भद्र तौत का रचना काल 950 ई. से 980 के स्थिति सामाजिकगत मानी है। भट्टनायक के अनुसार शब्द बीच माना जाता है। मोक्षप्रद होने के कारण, इनके मतानुसार, की तीन व्यापार हैं- अभिधा, भावकत्व व भोजकत्व । भोजकत्व शांतरस सभी रसों में श्रेष्ठ है।
नामक ततीय व्यापार के द्वारा रस का साक्षात्कार होता है। अभिनवगुप्त ने इनका स्मरण “अभिनवभारती" तथा इसी को भट्टनायक "भुक्तिवाद" कहते हैं। भोजकत्व की "ध्वन्यालोक-लोचन" में श्रद्धापूर्वक किया है। नाट्यशास्त्र-विषयक स्थिति, रस के भोग करने की होती है। इस स्थिति में दर्शक इनकी गंभीर मान्यताएं भी उद्धत की गई हैं। शान्त रस के के हृदय के राजस व तामस भाव सर्वथा तिरोहित हो जाते विवरण को मूल पाठ की मान्यता देना, रस की अनुकरणशीलता
हैं और (उन्हें दबा कर) सत्त्वगुण का उद्रेक हो जाता है। का विरोध, काव्य एवं नाट्य में रस-प्रतिपादन आदि विषयों
भट्टनायक ध्वनि-विरोधी आचार्य हैं। इन्होंने अपने "हृदय-दर्पण' पर, इनके अपने सिद्धान्त हैं। अपने समय के वे प्रख्यात
नामक ग्रंथ की रचना ध्वनि के खंडन के लिये ही की थी। नाट्यशास्त्रीय व्याख्याता- आचार्य माने जाते थे। इनके
"ध्वन्यालोकलोचन" में भट्टनायक के मत अनेक स्थानों पर "काव्यकौतुक" पर अभिनवगुप्त ने विवरण भी लिखा था। बिखरे हुए हैं। उनसे पता चलता है कि इन्होंने ध्वनि-सिद्धांत दुर्भाग्य से ये दोनों ग्रंथ अप्राप्य है। हेमचन्द्र ने "काव्यकौतुक" । का खंडन, बडी ही सूक्ष्मता के साथ किया है। ये काश्मीर-निवासी से तीन पद्य उद्धृत किये है। इससे इस ग्रंथ के अस्तित्व को
थे। इनके "हृदय-दर्पण' का उल्लेख महिमभट्ट कृत प्रामाणिक आधार मिलता है। भट्ट तौत का समय 10 वीं
___ "व्यक्ति-विवेक" में भी है। शती का पूर्वार्ध रहा होगा, क्योंकि अभिनव गुप्त का काल भट्टनायक, नाट्यशास्त्र के भी प्रमुख व्याख्याता हैं। अभिनवगुप्त 10 वीं शती के उत्तरार्ध से 11 वीं शती के पूर्वार्ध तक। ने छः स्थानों पर इनका उल्लेख किया है। जयरथ, माहिमभट्ट माना जाता है।
तथा रुय्यक ने भी इनका उल्लेख किया है। ये ध्वनि-सिद्धान्त अभिनवगुप्त ने अपने व्याख्यान सन्दर्भो में कीर्तिधर,
के विरोधी आचार्य थे। काश्मीर के राजा अवन्तिवर्मा (855-884 भट्टगोपाल, भागुरि, प्रियातिथि, भट्टशंकर आदि आचार्यों का ई.) इनके आश्रयदाता थे। अतः संभव है कि ये आनन्दवर्धन भी उल्लेख किया है परन्तु इनके विषय में अधिक जानकारी नहीं है। के समकालीन रहे हों। रसशास्त्र के व्याख्यान-क्रम में साधारणीकरण रसनिष्पत्ति की प्रक्रिया का विवेचन, भट्ट तौत ने इस प्रकार
के उद्भावक तथा भुक्तिवाद के प्रवर्तक रूप में आप प्रसिद्ध हैं। किया है :- "काव्य का विषय श्रोता के आत्मसात् होने पर भट्टनारायण - ई. 7 वीं शती का उत्तरार्ध । ब्राह्मण-कुल। वह प्रत्यक्ष होने की संवेदना होती है तथा उसमें रसनिष्पत्ति शांडिल्य गोत्र। कन्नौज से बंगाल जा बसे। "वेणी-संहार" होती है। इस पर शंकुक द्वारा उठाये गये आक्षेपों का भट्ट नामक नाटक के प्रणेता। इनके जीवन का पूर्ण विवरण प्राप्त तौत ने निवारण किया है।
नहीं होता। इनकी एकमात्र कृति "वेणीसंहार" उपलब्ध होती क्षेमेंद्र, हेमचंद्र, सोमेश्वर आदि संस्कृत साहित्यकार, भट्ट है। इनका दूसरा नाम (या उपाधि) "मृगराजलक्ष्म" था। एक तौत के मतों का अपने-अपने ग्रंथों में उल्लेख करते हैं। अनुश्रुति के अनुसार वंगराज आदिशूर द्वारा गौड देश में अभिनवगुप्त के विचारों पर भट्ट तौत के मतों का प्रभाव आर्य-धर्म की प्रतिष्ठा कराने के लिये बुलाये गये पांच ब्राह्मणों परिलक्षित होता है।
में भट्टनारायण भी थे। राजा ने इन्हें नाम मात्र मूल्य पर कुछ
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त
गाव दिये। कुछ इतिहासवेत्ताओं का मत है कि बंगाल का ठाकुर-राजवंश इन्हीं से प्रारंभ हुआ। "वेणी-संहार" के अध्ययन से ज्ञात होता है कि ये वैष्णव संप्रदाय के कवि थे। "वेणीसंहार" के भरतवाक्य से पता चलता है कि ये किसी सहृदय राजा के आश्रित रहे होंगे। पाश्चात्य पंडित स्टेन कोनो के कथनानुसार वे राजा आदिशूर आदित्यसेन थे, जिनका समय 671 ई. है। रमेशचंद्र मजूमदार भी माधवगुप्त के पुत्र आदित्यसेन का समय 675 ई. के लगभग मानते हैं, जो शक्तिशाली होकर स्वतंत्र हो गए थे। आदिशूर के साथ संबद्ध होने के कारण, भट्टनारायण का समय 7 वीं शती का उत्तरार्ध माना जा सकता है। विल्सन ने "वेणी-संहार" का रचना-काल 8 वीं या 9 वीं शती माना है। परंपरा में एक श्लोक मिलता है - ___ 'वेदबाणाङ्गशाके तु नृपोऽभूच्चादिशूरकः। वसुकर्माङ्गके शाके गौडे विप्रः समागतः" ।। इसके अनुसार आदिशूर का समय 654 शकाब्द (या 732 ई.) है पर विद्वानों ने छानबीन करने के बाद आदित्यसेन व आदिशूर को अभिन्न नहीं माना है। बंगाल में पाल-वंश के अभ्युदय के पूर्व ही आदिशूर हुए थे, और पाल-वंश का अभ्युदय 750-60 ई. के आस-पास हुआ था। "काव्यालंकार-सूत्र" में भट्टनारायण का उल्लेख किया है। अतः इनका समय ई. 8 वीं शती का पूर्वार्ध सिद्ध होता है। सुभाषित-संग्रहों में इनके नाम से अनेक पद्य प्राप्त होते हैं जो "वेणी-संहार" में उपलब्ध नहीं होते। इससे ज्ञात होता है कि "वेणी-संहार" के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां भी रही होंगी। दंडी ने अपनी 'अवन्ति-सुंदरी कथा" में उल्लेख किया है कि भट्टनारायण की 3 कृतियां हैं। प्रो. गजेंद्रगडकर के अनुसार "दशकुमारचरित" की पूर्वपीठिका के रचयिता भट्टनारायण ही थे। "जानकी-हरण" नामक नाटक की एक पांडुलिपि की सूची इनके नाम से प्राप्त हुई है पर कतिपय विद्वान् इस विचार के हैं कि ये ग्रंथ किसी अन्य के हैं। भट्टनारायण को एकमात्र "वेणी-संहार" का ही प्रणेता माना जा सकता है। ___ "वेणी-संहार" में महाभारत के युद्ध को वर्ण्य-विषय बनाकर उसे नाटक का रूप दिया गया है। अंत में गदा-युद्ध में भीमसेन दुर्योधन को मार कर उसके रक्त से रंजित अपने हाथों द्वारा द्रौपदी की वेणी (केश) का संहार (गूंथना) करता है। इसी कथानक की प्रधानता के कारण कवि ने इसे "वेणी-संहार" की संज्ञा दी। आलोचकों ने इनके “वेणी-संहार" को नाट्य-कला की दृष्टि से दोषपूर्ण माना है पर इसका कला-पक्ष या काव्य-तत्त्व सशक्त है। इनकी शैली पर कालिदास माघ व बाण का प्रभाव है।
रात्रि (निशा) का सुंदर वर्णन करने के कारण, इन्हें "निशा-नारायण" यह अपरनाम सुभाषित-संग्रह-कारों ने दिया। बाण के कहने पर वे बौद्धशिष्य होकर उस मत में पारंगत
हुए और धर्मकीर्ति (बौद्ध) को पराजित किया। "रूपावतार" यह रचना भट्टनारायण तथा धर्मकीर्ति की बताई जाती है। भट्ट भास्कराचार्य - ई. 11 वीं शती। उज्जयिनी के निवासी। सायणाचार्य और देवयज्वाचार्य के पूर्वकालीन भट्ट भास्कराचार्य, अपने काल के बडे उद्भट वेद-भाष्यकार थे। सायण के पूर्ववर्ती, अस्य वामीयसूक्त के भाष्यकार आत्मानन्द भी भट्ट भास्कराचार्य का निर्देश करते हैं।
तैत्तिरीय संहिता पर "ज्ञानयज्ञ" नामक भाष्य के समान, ब्राह्मण और आरण्यक आदि ग्रंथों पर भी भट्ट भास्कर के भाष्य हैं। वे कौशिक गोत्री तेलगु ब्राह्मण थे। उनके शिवोपासक होने का अनुमान है।
अपने भाष्य में एक-एक शब्द के अनेक अर्थ भट्ट भास्कर देते हैं। मंत्रों के आध्यात्मिक अर्थ भी उनकी भाष्यरचना में उपलब्ध हैं। वैदिकी स्वरप्रक्रिया का उन्हें प्रशस्त ज्ञान था। भट्ट मथुरानाथ शास्त्री - समय 1890 से 1960 ई.। पिता द्वारकानाथ शर्मा प्रकांड पंडित थे। संस्कृत-पत्रिका "भारती" के प्रारंभ से संपादक। जयपुर के निवासी। इन्होंने साहित्याचार्य व व्याकरणशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की थी, तथा जयपुर के विख्यात महाराजा संस्कृत महाविद्यालय के प्रोफेसर व अध्यक्ष( संस्कृत-साहित्य-विभाग) के पद को भूषित किया था। श्री. शास्त्री को कवि शिरोमणि, साहित्यवारिधि, साहित्यालंकार कविरत्न, कविसार्वभौम, कवि-सम्राट् इत्यादि उपाधियों से अलंकृत किया गया था। राजस्थान के संस्कृत-कवियों में इनकी गणना प्रथम श्रेणी में की जाती है।
प्रकाशित कृतियां - 1. साहित्यवैभव, 2. गोविन्दवैभव, 3. जयपुरवैभव, 4. संस्कृतगाथासप्तशती (हालकृत गाथा सप्तशती का संस्कृत अनुवाद), 5. त्रिपुरसुन्दरीस्तवराज, 6. मंजुकवितानिकुंजम्, 7. ईश्वरविलासितम्, ___ अप्रकाशित कृतियां - 1. आर्याणामादिभाषा, 2. काश्मीरकमहाकविविह्नणस्तस्य काव्यं च, 3. संस्कृतसुधा, 4. भारतवैभवम्। संपादित कृतियां हैं- 1. रसगंगाधर, 2. ईश्वरविलासकाव्य, 3. कादम्बरी, 4. धातुप्रयोगपारिजात, 5. शिलालेखललन्तिका, 6. पद्यमुक्तावली आदि।
“साहित्यवैभवम्" में आधुनिक विषयों पर हिन्दी-उर्दू छंदों में ग्रथित काव्य-रचनाएं कर संस्कृत में आधुनिकता लाने का प्रथम प्रयास आपने किया। काव्य के प्रेमियों की ओर से उनके इस प्रयास को संमिश्र प्रतिसाद प्राप्त हुआ। “साहित्यवैभवम्" पर इन्होंने स्वयं ही "सहचरी' नामक टीका लिखी है।
अनेक विषयों पर आपकी स्फुट रचनाएं भी हैं - सामाजिक-1. एकवार दर्शनम्, 2. दयनीया, 3. अनादृता । प्रणय संबंधी - प्रतिदानम्, 2. दीक्षा। ऐतिहासिक- 1.
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अंगुलिमाल, 2. पुरुराजपौरुषम्, 3. भारतध्वजः, 4. विजयिघण्टा; 5. अत्याचारिणः परिणामः, 6. पृथ्वीराज- पौरुषम्, 7. आल्हा च ऊदलच, 8, सिंहदुर्गे सिंहवियोगः, 9. वीरवाणी, 10. कृत्रिमबूंदी, 11. सामन्तसंग्राम, 12. चिरममरे द्वे बलिदाने, 13. अनुपतापः। विविध - 1. करुणा (कपोती च युवती च), 2. दानी दिनेशः। हास्यपरक- 1. लाला-व्यायोगः, 2. चपण्डुकः, 3. शिष्याणां फाल्गुनगोष्ठी। भावनात्मक और मनोवैज्ञानिक - 1. सत्यो बालचरः, 2. विषमाः समस्याः, 3. बालकभृत्यः, 4. मनोलहरी। भट्ट लोल्लट (आपराजिति) - ये भरतकृत "नाट्यशास्त्र" के प्रसिद्ध टीकाकार व उत्पत्तिवाद नामक रस-सिद्धांत के प्रवर्तक हैं। संप्रति इनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं होता, पर अभिनवभारती, काव्य-प्रकाश (4-5), काव्यानुशासन, ध्वन्यालोक-लोचन, मल्लिनाथ की तरला टीका और गोविंद ठाकुर-कृत "काव्य-प्रदीप" (4-5) में इनके विचार व उद्धरण प्राप्त होते हैं। राजशेखर व हेमचंद्र के ग्रंथों में इनके कई श्लोक "आपराजिति" के नाम से प्राप्त होते है। इनसे ज्ञात होता है कि इनके पिता का नाम अपराजित था। लोल्लट नाम के आधार पर इनका काश्मीरी होना सिद्ध होता है। ये उद्भट के परवर्ती थे क्यों कि अभिनवगुप्त ने उद्भट के मत का खंडन करने के लिये इनके नाम का उल्लेख किया है। भरत-सूत्र के व्याख्याकारों में इनका नाम प्रथम है। इनके मतानुसार रस की उत्पत्ति अनुकार्य में( मूल पात्रों में) होती है, और गौण रूप में अनुसंधान के कारण नट को भी इसका अनुभव होता है। विभाव, अनुभाव आदि संयोग से अनुकार्य गम आदि में रस की उत्पत्ति होती है। उनमें भी विभाव सीता आदि मुख्य रूप से इनके उत्पादन होते हैं। अनुभाव उस उत्पन्न रस के परिपोषक होते हैं। अतः स्थायी भावों के साथ विभावों का उत्पाद्य उत्पादक, अनुभावों का गम्य-गमक
और व्याभिचारियों का पोष्य-पोषक संबंध होता है। "काव्य-मीमांसा' में भट्ट लोल्लट के तीन श्लोक उद्धृत हैं। काव्यप्रकाश के प्राचीन व्याख्याकार माणिक्यचन्द्र ने लोल्लट तथा शंकुक की तुलना में लोल्लट को ही रसशास्त्र का मार्मिक पंडित माना है। इन्होंने कल्लट की "स्पंदकारिता" पर "वृत्ति' नामक टीका भी लिखी जिसका उल्लेख अभिनवगुप्त के परम शिष्य क्षेमराज ने किया है। भट्टवोसरि - दामनन्दी के शिष्य। वैदिक धर्म से जैनधर्म में दीक्षित। धारा नगरी कार्यक्षेत्र। समय- ई. 12 वीं शती। ग्रंथ-प्राकृत भाषा में "आर्यज्ञान-तिलक" जो प्रश्नविद्या से संबद्ध है। चिकित्सा और ज्योतिष का यह महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। ग्रंथकार को ही इस पर स्वोपज्ञ एक संस्कृत टीका है। भट्ट व्रजनाथ - पुष्टिमार्गीय सिद्धांतानुसार ब्रह्मसूत्र पर लिखी
हुई "मरीचिका" नामक महत्त्वपूर्ण वृत्ति के लेखक। भट्ट श्रीनिवास - ग्वालियर-निवासी। समय- ई. 20 वीं शती। इनकी कृतियां- श्रीनिवाससहस्र, रंगराजस्तवराज, भगवविंशति,
और माधवराव- सिंधिया- प्रशस्तिः प्रकाशित हैं। श्रीनिवाससहस्रम् 10 शतकों का, विविध छन्दों मे विरचित, एक प्रौढ, सरस तथा उपनिषद् व पुराणकथाओं के सन्दर्भो से परिपूर्ण स्तोत्र है। भट्टि • समय ई. 7 वीं शती। “भट्टि-काव्य" या "रावण-वध" नामक महाकाव्य के प्रणेता। इन्होंने संस्कृत में शास्त्र-काव्य लिखने की परंपरा का प्रवर्तन किया है। ये मूलतः वैयाकरण व अलंकारशास्त्री हैं जिन्होंने सुकुमारमति के या काव्य-रसिकों को व्याकरण व अलंकार की शिक्षा देने के लिये अपने महाकाव्य की रचना की थी। उनके काव्य का मुख्य उद्देश्य है व्याकरण-शास्त्र के शुद्ध प्रयोगों का संकेत करना, जिसमें वे पूर्णतः सफल हुए हैं।
कतिपय विद्वानों ने “भट्टि" शब्द को "भर्तृ" शब्द का प्राकृत रूप मान कर उन्हें भर्तृहरि से अभिन्न माना है। डॉ. बी. सी. मजूमदार ने 1904 ई. में 'जर्नल ऑफ द रॉयल एशियाटिक सोसायटी' (पृ. 306 एफ) में एक लेख लिख कर यह सिद्ध करना चाहा था कि भट्टि, मंदसौर- शिलालेख के वत्सभट्टि तथा 'शतकत्रय' के भर्तृहरि से अभिन्न है। पर इसका खंडन डा. कीथ ने, उसी पत्रिका में 1909 ई. में लेख लिख कर किया था। (पृ. 455)। डॉ. एस. के. डे ने अपने ग्रंथ "हिस्ट्री ऑफ् संस्कृत लिटरेचर" में कीथ के कथन का समर्थन किया है। ___ भट्टि के जीवन-वृत्त के बारे में कुछ भी जानकारी प्राप्त नहीं होती किंतु अपने महाकाव्य के अंत में उन्होंने जो श्लोक लिखा है, उससे विदित होता है कि भट्टि को वलभी-नरेश श्रीधर सेन की सभा में अधिक सम्मान प्राप्त होता था। शिलालेखों में वलभी के श्रीधर सेन संज्ञक 4 राजाओं का उल्लेख मिलता है। प्रथम का काल 500 ई. के लगभग व अंतिम का काल 650 ई. के आस-पास है। श्रीधर द्वितीय के एक शिलालेख में भट्टि नामक किसी विद्वान् को कुछ भूमि दी जाने की बात उल्लिखित है। इस शिलालेख का समय 610 ई. के आस-पास है। अतः महाकवि भट्टि का समय 7 वीं शती के मध्य काल से पूर्व निश्चित होता है। ये भामह और दंडी के पूर्ववर्ती हैं। विद्वानों ने इनकी गणना अलंकारशास्त्रियों में की है।
भट्टि ने अपने महाकाव्य में काव्य की सरलता का निर्वाह करते हए पांडित्य का भी प्रदर्शन किया है। उसमें महाकाव्योचित सभी तत्त्वों का सुंदर निबंध है, और पात्रों के चरित्र-चित्रण में उत्कष्ट कोटि की प्रतिभा का परिचय है। यत्र-तत्र उक्ति-वैचित्र्य के द्वारा भी भट्टि ने अपने महाकाव्य को सजाया है। इस काव्य का प्रकाशन मल्लिनाथ की "जयमंगला" टीका के
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I
साथ, निर्णयसागर प्रेस बंबई से 1887 ई. में हुआ था । भट्टोजी दीक्षित ई. स. 1570 से 1635। पिता- लक्ष्मीधर भट्ट आंध्रप्रदेश के रहनेवाले, तथा विजयनगर के राजा के आश्रित महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। उनके दो पुत्र थे भट्टोजी तथा रंगोजी भट्टोजी की प्रारंभिक शिक्षा अपने पिता के सान्निध्य में हुई। पिता की मृत्यु के पश्चात् वे प्रथम जयपुर तथा वहां से काशी गये। काशी में उन्होंने शेषकृष्ण नामक गुरु के निकट व्याकरण का अध्ययन किया। विद्याध्ययन पूर्ण करने के पश्चात् इन्होंने गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। उसके बाद उन्होंने सोमयाग किया। सोमयाग करने कारण उन्हें भट्टोजी "दीक्षित" के नाम से संबोधित किया जाने लगा। इन्होंने पाणिनि की अष्टाध्यायी की "सिद्धांत कौमुदी" नामक ग्रन्थ के रूप में पुनर्रचना की। व्याकरणशास्त्र के अध्ययन के लिये यह सिद्धात कौमुदी अत्यंत महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। इस ग्रंथ ने व्याकरण के अध्यापन क्षेत्र में नया मोड उपस्थित किया। भट्टोजी ने अपने सिद्धांतकौमुदी - ग्रंथ पर स्वयं "प्रौढमनोरमा” नामक टीका लिखी है। इसके अतिरिक्त इन्होंने पाणिनि सूत्रों (अष्टाध्यायी पर शब्दकौस्तुभ" नामक टीका लिखी है।
भट्टोजी वेदांतशास्त्र तथा धर्मशास्त्र के प्रगाढ पंडित थे। व्याकरणशास्त्र के अतिरिक्त इन्होंने अद्वैतकौस्तुभ आचारप्रदीप, आह्निकम् कारिका, कालनिर्णयसंग्रह, गोत्रप्रवरनिर्णय, दायभाग, तंत्राधिकारनिर्णय, श्राद्धकांड आदि 34 ग्रंथ लिखे हैं ।
भट्टोजी के वीरेश्वर तथा भानु नामक दो पुत्र तथा वरदाचार्य, नीलकंठ शुक्ल, रामाश्रम तथा ज्ञानेंद्र सरस्वती नामक शिष्य थे।
इनके पौत्र हरि दीक्षित ने "प्रौढ मनोरमा" पर दो टीकाएं लिखी हैं जिनके नाम हैं: बृहच्छब्दरत्न" व "लघुशब्दरत्न" । इनमें से द्वितीय प्रकाशित है और सांप्रतिक वैयाकरणों में अधिक लोकप्रिय है "शब्दकौस्तुभ" पर 7 टीकाएं और "सिद्धान्तकौमुदी" पर 8 टीकाएं प्राप्त होती हैं। “प्रौढ मनोरमा " पर पंडितराज जगन्नाथ ने "मनोरमा कुचमर्दिनी" नामक (खंडनात्मक) टीका लिखी है।
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काशी के पंडित भट्टोजी को नागदेवता का अवतार मानते हैं। नागपंचमी के दिन वहां के छात्र "बड़े गुरु का, छोटे गुरु का नाग लो नाग" कहते हुए नाग के चित्रों की बिक्री करते है। बड़े गुरु से पतंजलि तथा छोटे गुरु से भट्टोजी की ओर संकेत है।
इनके संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार प्रचलित हैइनकी, काशी में विद्यालय स्थापित करने की इच्छा अपूर्ण रह जाने से, मृत्यु के बाद ये ब्रह्मराक्षस होकर अपने घर ही रहने लगे। परिवार के लोग इससे त्रस्त हो गये तथा उन्होंने मकान छोड़ दिया। कुछ वर्षों के बाद काशी में विद्याध्ययन के उद्देश्य से आये हुए दो ब्राह्मण घूमते घूमते उस मकान के भीतर पहुंचे। उन्होंने छपरी पर भट्टोजी को बैठे हुए देखा।
भट्टोजी ने उन दोनों से कुशल क्षेम पूछकर उनके निवास तथा भोजन की व्यवस्था की। दोनों ब्राह्मणों ने उस "भूत महल" में 7-8 वर्ष रहकर भट्टोजी के मार्गदर्शन में व्याकरणशास्त्र का अध्ययन पूर्ण किया। तब भट्टोजी ने उन्हें अपना सत्य स्वरूप कथन किया। दोनों छात्रों ने जब अपने गुरु का शास्त्रविधि से क्रियाकर्म पूर्ण किया तब भट्टोजी को मुक्ति मिली। भट्टोत्पल ई. 10 वीं शती का उत्तरार्ध । काश्मीर निवासी, शैव । ज्योतिषशास्त्र के महान् आचार्य । इन्होंने वराहमिहिर के यात्रा, बृहज्जातक, लघुजातक तथा बृहत्संहिता नामक ग्रंथों पर टीकाग्रंथ लिखे हैं। इन्होंने ब्रह्मगुप्त के खंडखाद्यक तथा षट्पंचाशिका पर भी टीकाएं लिखी हैं। कल्याणवर्मा के अपूर्ण रहे सारावलि ग्रंथ को इन्होंने पूर्ण किया ।
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इन्होंने प्रश्नज्ञान अर्थात् आर्यासप्तती नामक प्रश्नग्रंथ की भी रचना की है।
अल्बेरुनी, इनके द्वारा रचित कुछ अन्य ग्रंथों का भी उल्लेख करते हैं परंतु वे अभी तक उपलब्ध नहीं हुए हैं। भय्याभट्ट कृष्णभट्ट के पुत्र । समय ई. 17 वीं शती । रचना- तक्ररामायण । विषय काशीस्थित राम का वर्णन ।
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भरत मल्लिक ई. 17 वीं शती भूरिश्रेष्ठी (बंगाल) के कल्याणमल्ल के समाश्रित गौरांग सेन के पुत्र । कृतियां - एकवर्णार्थसंग्रह, द्विरूपध्वनि संग्रह, लिंगादि संग्रह, मुग्धबोधिनी ( अमरकोश की वृत्ति), उपसर्गवृत्ति, कारकोल्लास, द्रुतबोध व्याकरण तथा सुखलेखन ये व्याकरण ग्रंथ । इन्होंने रघुवंश, कुमारसंभव मेघदूत, शिशुपालवध, नैषय, पटकर्पर और गीतगोविंद पर टीकाएं लिखीं जिनका नाम 'सुबोधा' है। भट्टिकाव्य की टीका का नाम है मुग्धबोधिनी ।
भरतमुनि भारतीय काव्यशास्त्र, नाट्यशास्त्र व अन्य ललित कलाओं के आद्य आचार्य। इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है "नाट्यशास्त्र", जो अपने विषय का "महाकोश" है। इनका समय अद्यावधि विवादास्पद है। डा. मनमोहन घोष ने "नाट्यशास्त्र" के आग्लानुवाद की भूमिका में भरतमुनि को काल्पनिक व्यक्ति माना है (1950 ई. में रॉयल एशियाटिक सोसायटी बंगाल द्वारा प्रकाशित ) किन्तु अनेक परवर्ती ग्रंथों में उनका उल्लेख होने के कारण यह धारणा निर्मूल सिद्ध हो चुकी है | महाकवि कालिदास ने अपने नाटक "विक्रमोर्वशीय" में उनका उल्लेख किया है (2-18)। अश्वघोषकृत "शारिपुत्र प्रकरण" पर नाट्यशास्त्र" का प्रभाव परिलक्षित होता है। अश्वघोष का समय विक्रम की प्रथम शती है। अतः भरत मुनि का काल, विक्रम पूर्व सिद्ध होता है। इन्हीं प्रमाणों के आधार पर कतिपय विद्वानों ने उनका समय वि.पू. 500 ई. से 100 ई. तक माना है। हरप्रसाद शास्त्री ने इनका आविर्भाव काल ईसा पूर्व 2 री शती माना है, जब कि प्रभाकर भांडारकर और पिशेल के मतानुसार इनका काल क्रमशः चौथी और छटवीं शती है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 389
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एस.के. डे का कहना है कि मल "नाट्यशास्त्र" में परिवर्तन मरुत देवता ने उठा लिया तथा वे उसे दुष्यंतपुत्र भरत के होते रहे हैं और उसका वर्तमान रूप उसे ई. 8 वीं शती में निकट ले गये। उस समय भरत द्वारा पुत्र-प्राप्ति के लिये प्राप्त हुआ होगा।
मरुतस्तोम नामक यज्ञ का आयोजन किया गया था। मरुत् ने भरतमुनि के दो नाम मिलते हैं। वृद्ध भरत या वह शिशु भरत को अर्पण कर दिया। भरद्वाज बडे हुये तब आदिभरत तथा भरत । रचनाएं भी दो हैं। नाट्यवेदागम तथा उन्होंने भरत के लिये एक यज्ञ किया। फलस्वरूप छठवां नाट्यशास्त्र। नाट्यवेदागम को द्वादशसाहस्री और नाट्यशास्त्र मंडल भरद्वाज तथा उनके वंशजों द्वारा रचित है। भरद्वाज की को षट्साहस्री कहा गया है। द्वादशसाहस्री संभवतः वृद्धभरत ऋचायें अत्यंत ओजपूर्ण हैं। कुछ ऋचाओं का आशय इस की रचना हो। अब इसके केवल 36 अध्याय उपलब्ध हैं। प्रकार है - वृद्धभरत रचित श्लोकों को निश्चयपूर्वक पहचानना अशक्यप्राय "हम उत्तम वीरों सहित सहस्रों वर्षों तक आनंदपूर्वक है। शारदातनय का कथन है कि दोनों रचनाएं एकसाथ ही जीवित रहेंगे। हमारी देह पाषाणवत् कठिन हो।" लिखी गई हैं तथा छोटी रचना केवल संक्षेप है।
भरद्वाज गोभक्त थे। ऋग्वेद के छठवें मंडल का 28 वां ___ "नाट्यशास्त्र" सबसे पुरातन संस्कृत रचना है। उसमें न सूक्त 'गोसूक्त' नाम से विख्यात है जिसकी एक ऋचा का ऐंद्र व्याकरण तथा यास्काचार्य के उद्धरण है, न पाणिनि के। आशय इस प्रकार है:भाषा प्रयोग भी कुछ आर्ष हैं। विषयचर्चा भी आर्ष पद्धति
अनेक जातियों की कल्याणप्रद सवत्स गायें हमारे गोशालाओं की है। यही कारण है कि उसका लेखक, "मुनि" की उपाधि
में विद्यमान रह कर उषःकाल में इंद्र के लिये दुग्ध-स्रवण करें। से सादर निर्दिष्ट है। भरतमुनि को कहीं कहीं सूत्रकृत भी
इनके वेदाध्ययन के संबंध में एक कथा इस प्रकार है :कहा गया है। पुराणों की कालगणना के अनुसार इनका समय
संपूर्ण वेदों का अध्ययन करने का प्रयास असफल होने बहुत प्राचीन होता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि
पर भरद्वाज ने इंद्र की स्तुति की। उनकी स्तुति से इन्द्र प्रसन्न "नाट्यशास्त्र", रामायण महाभारतादि के समय या उसके अनन्तर
हुए तथा उन्हें सौ-सौ वर्षों के तीन जन्म प्रदान किये। तीनों की रचना हो सकती है। सूत्रकाल के बाद ही जब शास्त्र
जन्म इन्होंने वेदाध्ययन करने में व्यतीत किये। जब तीसरे विवरण छन्दोबद्ध होने लगा तब इसकी रचना हुई होगी।
जन्म के अंतिम दिनों में भरद्वाज मरणासन्न स्थिति में थे, तब ___ भरत मुनि बहुविध प्रतिभासंपन्न व्यक्ति ज्ञात होते हैं। उन्होंने
इन्द्र उनके निकट पधारे और उन्होंने भरद्वाज से पूछा- "यदि नाट्यशास्त्र, संगीत, काव्यशास्त्र, नृत्य आदि विषयों का अत्यंत
तुम्हें और एक जन्म की प्राप्ति हुई तो तुम क्या करोगे'। वैज्ञानिक व सूक्ष्म विवेचन किया है। उन्होंने सर्वप्रथम चार
भरद्वाज ने उत्तर दिया - "मैं वेदाध्ययन करूंगा'। अलंकारों का विवेचन किया था- उपमा, रूपक, दीपक व यमक। नाटक को दृष्टि में रखकर उन्होंने रस का निरूपण
तब इन्द्र ने तीन पर्वतों का निर्माण किया तथा प्रत्येक किया है, और अभिनय की दृष्टि से 8 ही रसों को मान्यता
पर्वत की एक-एक मूछि मिट्टी लेकर तथा उसमें से एक-एक दी है। उनका रसनिरूपण अत्यं प्रौढ व व्यावहारिक है। इसी
कण भरद्वाज को दिखाकर कहा, "वेदों का ज्ञान इन तीन प्रकार संगीत के संबंध में भी उनके विचार अत्यंत प्रौढ सिद्ध
पर्वतों के बराबर है तथा तुमने जो ज्ञान प्राप्त किया है वह
इन तीन कणों के बराबर है। अतः तुम एक और जन्म की होते हैं।
प्राप्ति होने पर भी पूर्ण वेदाध्ययन नहीं कर सकोगे।" भरतस्वामी - ई. 13 वीं शती। ये काश्यपगोत्र के ब्राह्मण थे। पिता-नारायण। माता-यज्ञदा। ये दक्षिण के श्रीरंगम् के इंद्र द्वारा परावृत्त किये जाने पर भी भरद्वाज ने सौ रहनेवाले थे। ये होयसल-राजवंश के रामनाथनृपति (1263-1310 वर्षों के एक और जन्म की मांग की। उनकी ज्ञाननिष्ठा देखकर ई.) के समकालीन थे। इन्होंने सामवेद पर भाष्य लिखा है। इन्द्र अत्यंत प्रसन्न हुए तथा सरल उपाय से वेदज्ञान प्राप्ति जो इसी नृपति के काल में लिखा जाने का निर्देश इन्होंने के लिये सावित्राग्निविद्या भरद्वाज को सिखलाई। इस प्रकार अपने भाष्य में किया है। भरतस्वामी का प्रस्तुत भाष्य अत्यंत भरद्वाज वेदज्ञाता हुए। संक्षिप्त है। सामविधानादि ब्राह्मणों पर भी भरतस्वामी ने
भर्तृप्रपंच - आद्य शंकराचार्यजी के पूर्ववर्ती वेदांताचायों में भाष्यरचना की है।
ये भेदाभेद-सिद्धांत के पक्षपाती थे। शंकराचार्यजी ने इनके इनके भाष्य में ऐतरेय ब्राह्मण और आश्वालायन सूत्र का ।
मत का उल्लेख तथा खंडन बृहदारण्यक के भाष्य में किया अधिक निर्देश होता है। भरतस्वामी ने आचार्य माधव से ।
है (2-3-6, 2-5-1, 3-4-2, 4-3-30)। इनका मत है कि पर्याप्त सहायता ली है।
परमार्थ एक भी है तथा नाना भी है। ब्रह्म रूप में एक और भरद्वाज - पिता- बृहस्पति। माता-ममता। इनके जन्म के बाद जगद्रूप में नाना है। जीव नाना तथा परमात्मा का एकदेश ही इनके माता-पिता इन्हें छोड़कर चले गये। उस अर्भक को मात्र है। काम, वासनादि जीव के धर्म हैं। अतः धर्म तथा
390/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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दृष्टि के भेद से जीव का नानात्व औपाधिक नहीं है, अपि तु वास्तविक है। ब्रह्म एक होने पर समुद्र-तरंग न्याय से द्वैताद्वैत है जिस प्रकार समुद्र-रूप से समुद्र की एकता है, परन्तु विकार-रूप तरंग, बुबुद आदि की दृष्टि से वही समुद्र नानात्मक है। इनके मतानुसार परमात्मा तथा जीव में अंशांशि-भाव अथवा एकदेश-एकदेशिभाव सिद्ध होता है। इन्होंने कठ तथा बृहदारण्यक- उपनिषद पर भाष्य लिखे हैं। बादरायण-पूर्व आचार्यों की भेदाभेद- परंपरा का अनुसरण भर्तृप्रपंच ने अपने ग्रंथों में किया है। भर्गप्रागाथ - ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 60 तथा 61 वें सूक्त के द्रष्टा। इन सूक्तों में अग्नि तथा इंद्र की स्तुति है। 61 वें सूक्त के, “यत इन्द्र भयामहे" ऋचा से प्रारंभ होने वाली 13 से 18 ऋचायें, शांतिपाठ-मंत्र है। ग्रहबाधा के निवारणार्थ तथा अपशकुनादि के परिहारार्थ इस मंत्र का जप करते हैं। भर्तृमेण्ठ - "हयग्रीव-वध" नामक महाकाव्य के प्रणेता। यह काव्य अभी तक अनुपलब्ध है किंतु इसके श्लोक क्षेमेंद्र-रचित "सुवृत्ततिलक", भोजकृत "सरस्वती-कंठाभरण' व 'श्रृंगारप्रकाश" एवं "काव्य-प्रकाश" प्रभृति रीतिग्रंथों व सूक्ति-ग्रंथों में उद्धृत किये गये हैं। इनका विवरण कल्हण की "राजतरंगिणी"
कहते हैं कि मेंठ हाथीवान् थे। मेंठ शब्द का अर्थ भी महावत होता है। लोगों का अनुमान है कि विलक्षण प्रतिभा के कारण ये महावत से महाकवि बन गए। इनके आश्रयदाता काश्मीर-नरेश मातृगुप्त थे। इनका समय ई. 5 वीं शती है। सूक्ति-ग्रंथों में कुछ पद "हस्तिपक' के नाम से प्राप्त होते हैं। उन्हें विद्वानों ने भर्तृमेण्ठ की ही कृति स्वीकार किया है। इनकी प्रशंसा में धनपाल का एक श्लोक मिलता है जिसमें कहा गया है कि जिस प्रकार हाथी महावत के अंकुश की चोट खाकर बिना सिर हिलाये नहीं रहता, उसी प्रकार भर्तमेण्ठ का काव्य श्रवण कर सहृदय व्यक्ति आनंद से विभोर होकर सिर हिलाये बिना नहीं रहता। ___ "राजतरंगिणी" में कहा गया है कि अपने "हयग्रीव-वध" काव्य की रचना करने के पश्चात् मेंठ किसी गुणग्राही राजा की खोज में निकले और काश्मीर-नरेश मातृगुप्त की सभा में जाकर उन्होंने अपना काव्य सुनाया। काव्य की समाप्ति होने पर भी मातृगुप्त ने उनके काव्य के गुण-दोष के संबंध में कुछ भी नहीं कहा। राजा के इस मौनालंबन से मेंठ को बडा दुख हुआ और वे अपना काव्य वेष्टन में बांधने लगे। इस पर राजा ने काव्य-ग्रंथ के नीचे सोने का थाल इस भाव से रख दिया कि कहीं काव्य-रस भूमि पर न जाय। राजा की इस सहृदयता व गुणग्राहकता को देख मेंठ बडे प्रसन्न हुए, उन्होंने उसे अपना सत्कार माना तथा राजा द्वारा दी गई
संपत्ति को पुनरुक्त के सदृश समझा (राजतरंगिणी, 3-264-266)। इनके संबंध में अनेक कवियों की प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। भर्तृयज्ञ - ईसा पूर्व 8 वीं शती। एक प्राचीन भाष्यकार । मेधातिथि ने इनका उल्लेख किया है। कहा जाता है कि इन्होंने कात्यायन-श्रौतसूत्र तथा गौतम-धर्मसूत्र पर भाष्य लिखा है। प्रा. बलदेव उपाध्याय के मतानुसार ये पारस्कर गृह्यसूत्र के प्राचीनतम भाष्यकार हैं। अग्निहोत्र की दीक्षा ग्रहण करने का अधिकार किसे है इस विषय में भर्तृयज्ञ के मत का उल्लेख त्रिकांडमंडन ने अपने आपस्तंबसूत्र ध्वनितार्थकारिका में किया है। भर्तृहरि (राजा) - समय - ई. 7 वीं शती। एक संस्कृत कवि। इनके आविर्भाव काल के संबंध में मतभेद है। इनका विश्वसनीय चरित्र भी उपलब्ध नहीं है। दंतकथाओं, लोकगाथाओं तथा अन्य सामग्रियों से इनका जो चरित्र उपलब्ध होता है वह इस प्रकार है -
ये उज्जयिनी के राजा, तथा 'विक्रमादित्य' उपाधि धारण करनेवाले द्वितीय चंद्रगुप्त के बंधु थे। पिता-चंद्रसेन । पत्नी-पिंगला ।
इन्होंने नीति, वैराग्य तथा श्रृंगार इन तीन विषयों पर क्रमशः शतक-काव्य लिखे हैं। तीनों ही शतकों की भाषा रसपूर्ण और सुंदर है।
उक्त शतकत्रय के अतिरिक्त, 'वाक्यपदीय' नामक एक व्याकरण विषयक विद्वन्मान्य ग्रंथ भी भर्तहरि के नाम पर प्रसिद्ध है।
कहा जाता है कि नाथपंथ के वैराग्य नामक उपपंथ के ये ही प्रवर्तक हैं। चीनी यात्री इत्सिंग के कथनानुसार इन्होंने बौद्ध-धर्म ग्रहण किया था परंतु अन्य सूत्रों के अनुसार ये अद्वैत वेदान्ताचार्य हैं। इनके जीवन से संबंधित एक किंवदन्ती इस प्रकार है - ___एक बार भर्तृहरि अपनी पत्नी पिंगला के साथ शिकार खेलने के लिये जंगल में गये थे। वन में बहुत समय तक भटकने के बाद भी उनके हाथ कोई शिकार नहीं लगी। निराश होकर दोनों घर लौट रहे थे, तब उन्हें हिरनों का एक झुण्ड दिखाई दिया। झुण्ड के आगे एक मृग चल रहा था। भर्तृहरि ने उस पर प्रहार करने के लिये ज्यों ही अपने हाथ का भाला ऊपर उठाया, पिंगला ने पति को कहा- "महाराज, यह मृगराज 17 सौ हिरनियों का पति और पालनकर्ता है। इसलिये आप उसका वध मत कीजिये। भर्तृहरि ने पत्नी की बात नहीं मानी और उसने हिरन पर अचूक शूल फेंक कर मारा। हिरन जमीन पर गिर पडा। प्राण छोडते-छोडते उसने कहा- "तुमने यह ठीक नहीं किया। अब जो मैं कहता हूं उसका पालन करो। मेरी मृत्यु के बाद मेरे सींग श्रृंगीबाबा को दो, मेरे नेत्र चंचल नारी को दो, मेरी त्वचा साधु-संतों को दो, मेरे पैर भागने वाले चोरों को दो और मेरे शरीर की मिट्टी पापी राजा को दो।"
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 391
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हिरन की बात सुनकर भर्तृहरि का हृदय द्रवित हुआ। के हरिवर्म राजा के आश्रित । इनके द्वारा रचित ग्रंथ - हिरन का कलेवर घोडे पर लाद कर वह मार्गक्रमण करने 1. व्यवहारतिलक (न्यायालयीन कार्यपद्धति का विवरण), लगा। रास्ते मे गोरखनाथ से भेंट हुई। भर्तृहरि ने उन्हें सारा 2. कर्मानुष्ठानपद्धति, (दशकर्मपद्धति या दशकर्मदीपिका नाम किस्सा सुनाया, तथा उनसे प्रार्थना की कि वे हिरन को जीवित से भी इस ग्रंथ का उल्लेख होता है। विषय है- सामवेद करें। गोरखनाथ ने कहा- "एक शर्त पर में इसे जीवनदान का अध्ययन करने वाले ब्राह्मणों को जिन दस प्रमुख धार्मिक दूंगा। इसके जीवित होने पर तुम्हें मेरा शिष्यत्व स्वीकार करना विधियों का पालन करना पडता है, उनका विवरण), 3. पडेगा।" राजा ने गोरखनाथ की बात मान ली। भर्तृहरि ने प्रायश्चित्तनिरूपण (विषय-धर्मशास्त्र)। 4. तौतातित- मततिलक, वैराग्य क्यों ग्रहण किया यह बतलानेवाली और भी किंवदन्तियां है। विषय- कुमारिल भट्ट के दृष्टिकोण से पूर्वमीमांसा दर्शन ग्रंथ
दंतकथाएं उन्हें राजा तथा विक्रमादित्य का ज्येष्ठ भ्राता के सिद्धान्तों का स्पष्टीकरण। यह ग्रंथ लिखते समय इन्होंने बताती हैं। किन्तु कतिपय विद्वानों का मत है कि उनके ग्रंथों "बालवलभी-भुजंग" छद्मनाम धारण किया है। यह मीमांसादर्शन में राजसी भाव का पुट नहीं, अतः उन्हें राजा नहीं माना जा का प्रमाणभूत ग्रंथ है। ये वास्तुशास्त्र के भी ज्ञाता थे। इन्होंने सकता। अधिकांश विद्वानों ने चीनी यात्री इत्सिंग के कथन एक मंदिर तथा तालाब बनवाया था। में आस्था रखते हुए, उन्हें महावैयाकरण (वाक्यपदीय के भवस्वामी (भवदेव स्वामी) - यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता प्रणेता) भर्तृहरि से अभिन्न माना है। पर आधुनिक विद्वान् के भाष्यकार भट्टभास्कर दशम शताब्दी में हुए। उन्होंने भवस्वामी ऐसा नहीं मानते। इनके ग्रंथों से ज्ञात होता है कि इन्हें ऐसी का निर्देश किया है। अत एव भवस्वामी का समय दशम प्रियतमा से निराशा हुई थी जिसे ये बहुत चाहते थे। शताब्दी के पूर्व मानना चाहिये। त्रिकाण्डमण्डनकार केशवस्वामी "नीति-शतक" के प्रारंभिक श्लोक में भी निराश प्रेम की ने भी भवस्वामी का निर्देश किया है। त्रिकाण्ड-मण्डन 11 वीं झलक मिलती है। किंवदंती के अनुसार प्रेम में धोखा खाने शताब्दी का ग्रंथ है। इस प्रमाण से भी भवस्वामी का समय पर इन्होंने वैराग्य ग्रहण किया था। इनके तीनों ही शतक दशम शताब्दी के पहिले हो सकता है। भवस्वामी ने तैत्तिरीय संस्कृत काव्य का उत्कृष्टतम रूप प्रस्तुत करते हैं। इनके काव्य संहिता, तैत्तिरीय ब्राह्मण और बोधायनसूत्र पर विवरण लिखा का प्रत्येक पद्य अपने में पूर्ण है, और उससे श्रृंगार, नीति है। केशव स्वामी तथा बोधायन-कारिकाकार गोपाल भी इनका या वैराग्य की पूर्ण अभिव्यक्ति होती है। इनके अनेक पद्य निर्देश करते हैं, किंतु इनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। व्यक्तिगत अनुभूति से अनुप्रणित हैं तथा उनमें आत्म-दर्शन
भवभूति (उंबेकाचार्य) - समय- ई. 7-8 वीं शती। का तत्त्व पूर्णरूप से परिलक्षित है।
ये अपने युग के एक सशक्त एवं विशिष्ट नाटककार ही नहीं भर्तृहरि (वैयाकरण) - "वाक्यपदीय' नामक व्याकरण ग्रंथ
थे, अपि तु सांख्य, योग, उपनिषद् व मीमांसा प्रभृति विद्याओं के प्रणेता। पं. युधिष्ठिर शर्मा मीमांसक के अनुसार इनका में भी निष्पात थे। इनके आलोचकों ने इनके संबंध में कटु समय वि.पू. 400 वर्ष है। पुण्यराज के अनुसार इनके गुरु उक्तियों का प्रयोग किया था। उनसे क्षुब्ध होकर भवभूति ने का नाम वसुराज था। ये "शतकत्रय" के रचयिता भर्तृहरि __उन्हें चुनौती दी थी, कि निश्चय ही एक युग ऐसा आयेगा, से भिन्न हैं। इनके द्वारा रचित अन्य ग्रंथ हैं- महाभाष्य-दीपिका, जब उनके समानधर्मा कवि उत्पन्न होकर उनकी कला का भागवृत्ति (अष्टाध्यायी की वृत्ति), मीमांसा-वृत्ति और आदर करेंगे, क्यों कि काल निरवधि या अनन्त है और पृथ्वी शब्द-धातु-मीमांसा।
भी विशाल है (मालती- माधव, अंक प्रथम)। वह प्रसिद्ध भवत्रात - भवत्रात आचार्य ने जैमिनीय ब्राह्मण और आरण्यक श्लोक इस प्रकार है :के समान जैमिनीय श्रौतसूत्र पर भाष्यरचना की है। जैमिनीय
ये नाम केचिदिह नः प्रथयन्त्यवज्ञा ब्राह्मण का दूसरा नाम अष्ट-ब्राह्मण है। इस पर भवत्राताचार्य जानन्ति ते किमपि तान् प्रति नैष यत्नः । ने भाष्यरचना की है।
उत्पत्स्यतेऽस्ति मम कोऽपि समानधर्मा ये भवत्रात, देवत्रात (अपरनाम वराहदेव या वराहकाय कालो ह्ययं निरवधिर्विपुला च पृथ्वी।। देवत्रात) से संबंधित थे या नहीं इस विषय में विद्वानों में मतभेद है। भवभूति ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपना पर्याप्त भवदेव - षडङ्गरुद्र के भाष्यकार। इन्होंने शुक्ल यजुर्वेद पर परिचय दिया है। इनका जन्म कश्यप-वंशीय उदुंबर नामक भी भाष्य-रचना की है जो त्रुटित रूप में उपलब्ध है। गुरु ब्राह्मण-परिवार में हुआ था। ये विदर्भ (महाराष्ट्र) के अंतर्गत का नाम भवदेव। निवास-गंगातटवर्ती पट्टन नामक नगर में। पद्मपुर के निवासी थे। इनका कुल कृष्णयजुर्वेद की तैत्तिरीय भवदेव मैथिल थे। भवदेव के निवेदन के अनुसार "रुद्र-व्याख्या' शाखा का अनुयायी था। इनके पितामह का नाम भट्ट गोपाल उन्होंने उवटादि प्राचीन आचायों के अनुसार लिखी।
था जो महाकवि थे। पिता-नीलकंठ, माता-जतुकर्णी (अथवा भवदेव भट्ट - समय-ई. 11 वीं शती । बंगाल के वर्म-वंश जातूकर्णी)। इन्होंने अपना सर्वाधिक विस्तृत परिचय
392 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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"महावीर-चरित" की प्रस्तावना में प्रस्तुत किया है। उन्होंने स्वयं अपने श्रीकण्ठ नाम का संकेत किया है। इसी प्रकार का परिचय, किंचित् परिवर्तन के साथ, उनके "मालती-माधव" नाटक में भी प्राप्त होता है। इन्होंने अपने गुरु का नाम ज्ञाननिधि दिया है। कहा जाता है कि देवी पार्वती की प्रार्थना में बनाये गये एक श्लोक से प्रभावित होकर तत्कालीन पंडित-मंडली ने उन्हें "भवभूति' की उपाधि प्रदान की थी। "मालती-माधव" के टीकाकार जगद्धर के अनुसार भी इनका नाम श्रीकण्ठ था भवभूति नाम से वे प्रसिद्ध हुए- “नाम्ना श्रीकण्ठः प्रसिद्धया भवभूतिः"
इस संबंध में एक अति महत्त्वपूर्ण प्रश्न उठाया गया है कि क्या भवभूति उंबेकाचार्य से अभिन्न थे। “मालती-माधव' के एक हस्तलेख के तृतीय अंक की पुष्पिका में इसके लेखक का नाम उंबेक दिया गया है। उंबेक मीमांसा शास्त्र के प्रसिद्ध । विद्वान् कुमारिल भट्ट के शिष्य थे। उन्होंने कुमारिल रचित "श्लोकवार्तिक" की टीका भी लिखी थी। म.म.कुप्पुस्वामी शास्त्री, म.म.पां.वा. काणे तथा एस.आर. रामनाथ शास्त्री, उंबेक व भवभूति को एक ही व्यक्ति मानते हैं। पं. बलदेव उपाध्याय भी इसी मत का समर्थन करते हैं। किंतु डा. कुन्हन राजा व म.म.डा. मिराशी ने भवभूति व उंबेक को भिन्न व्यक्ति माना है। कुन्हन राजा तो भवभूति के मीमांसक होने पर भी संदेह प्रकट करते हैं। उनके अनुसार भवभूति का आग्रह वेदांत पर अधिक था किंतु डा. राजा का यह मत इस आधार पर खंडित हो जाता है कि भवभूति ने स्वयं अपने को "पदवाक्य-प्रमाणज्ञ" कहा है। डा. मिराशी के अनुसार उंबेक का रचना-काल 775 ई. है, और भवभूति 8 वीं शती के आदि चरण में हुए थे। भवभूति व उंबेक की एकता प्राचीन काल से ही चली आ रही है। अतः दोनों को पृथक् व्यक्ति स्वीकार करना ठीक नहीं है।
भवभूति ने अपने नाटकों की प्रस्तावना में अपना समय निर्दिष्ट नहीं किया है। अतः इनका काल-निर्णय भी विवादास्पद बना हुआ है। इनके बारे में प्रथम उल्लेख वाक्पतिराज कृत "गउडवहो' में मिलता है। इसमें कवि ने भवभूति रूपी सागर से निकले हुए काव्यामृत की प्रशंसा की है (779)। वाक्पतिराज, कान्यकुब्ज-नरेश यशोवर्मा के सभाकवि थे, जिनका समय 750 ई. है। भवभूति भी जीवन के अंतिम दिनों में राजा यशोवर्मा के आश्रित हो गए थे। "राजतरंगिणी" में लिखा है कि यशोवर्मा की सभा में भवभूति आदि कई कवि थे. (4-144)। वामन के 'काव्यालंकार" में भवभूति के पद्य उद्धृत हैं। वामन का समय 8 वीं शती का उत्तरार्ध या १ वीं शती का चतुर्थांश है। अतः भवभूति का समय 7 वीं शती का अंतिम चरण या 8 वीं शती का प्रथम चरण हो सकता है।
भवभूति की केवल तीन रचनाएं प्राप्त होती हैं
मालती-माधव (कल्पित कथात्मक प्रकरण)। महावीर-चरित (नाटक) व उत्तररामचरित (नाटक), दोनों नाटक राम-कथा पर आधारित हैं। 'उत्तररामचरित' उनकी सर्वश्रेष्ठ व अंतिम रचना है। इसमें सीतानिर्वासन की करुण गाथा वर्णित है। भवभूति के संबंध में अनेक कवियों की उक्तियां प्राप्त होती है। राजशेखर ने इन्हें वाल्मीकि का अवतार बताया है।
भवभूति, "नाटककारों के कवि" कहे जाते हैं। कालिदास के साथ इन्हें संस्कृत का सर्वोच्च नाटककार माना जाता है। इन्हें विशुद्ध नाटककार नहीं कहा जा सकता क्यों कि इनकी अधिकांश रचनाएं गीति-नाट्य (लिरिकल ड्रामा) है। भवभूति की भाव-प्रवणता, उनकी कला का प्राण है। इनके भाव-पक्ष में वैविध्य व विस्तार दिखाई पडता है। कालिदास की भांति ये केवल भावों के ही कवि नहीं है। इन्होंने कोमल के साथ ही साथ गंभीर व कठोर भावों का भी चित्रण किया है। इनकी शैली का प्रमुख वैशिष्ट्य, उसकी उदात्तता है। भाषा पर इनका अधिकार है। इन्होंने छोटे-बडे विविध छंदों का प्रयोग किया है। क्षेमेंद्र ने शिखरिणी छंद के प्रयोग में इनकी प्रशंसा की है। इनमें अलंकार-वैचित्र्य भी अधिक पाया जाता है।
कुछ आलोचकों ने नाटककार के रूप में इन्हें उच्च कोटि का नहीं माना है और इनके अनेक दोषो का निर्देश किया है। किंतु कतिपय दोषों के होते हुए भी भवभूति संस्कृत भाषा-साहित्य के गौरव हैं।
भवभूति के बारे में एक किंवदंती इस प्रकार है :- एक बार भवभूति अपने उत्तररामचरित नाटक के प्रति कालिदास का अभिप्राय जानने के लिये गये। उस समय वे चौसर खेल रहे थे। उन्होंने भवभूति को नाटक पढकर सुनाने को कहा। कालिदास ने नाटक की प्रशंसा की परंतु उसके एक श्लोक के एक शब्द से अनुस्वार हटा देने की सूचना की। श्लोक इस प्रकार है -
किमपि किमपि मन्दं मन्दमासत्तियोगाद् अविरलितकपोलं जल्पतोरक्रमेण । अशिथिलपरिरम्भव्यापृतैकैकदोष्णोः
अविदितगतयामा रात्रिरेवं व्यरसीत्।। इस श्लोक के चतुर्थ चरण के "एवं" शब्द से अनुस्वार हटा देने की कालिदास की सूचना भवभूति ने स्वीकार कर ली। इससे उसका सुधारित रूप इस प्रकार हुआ___ "रात्रिरेव व्यरंसीत्"। इसके कारण शब्द के अभिधार्थ के स्थान पर हद्य व्यंग्यार्थ उत्पन्न हुआ। "एवं" सहित इस चरण का मुल अर्थ था- "वार्तालाप में मग्न इस प्रकार रात समाप्त हो गयी"। परंतु "एव" के कारण रात्रि ही समाप्त हुई परंतु प्रेमालाप समाप्त नहीं हुआ, यह व्यंग्यार्थ ध्वनित हुआ। भवभूति-कथा - 1 भवभूति के पिता का नाम नीलकण्ठ था। उन्होंने अपने पुत्र का नाम श्रीकण्ठ रखा। (श्रीकण्ठ
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पदलांछनः) परन्तु आगे चलकर एक श्लोक में श्रीकण्ठ ने "भवभूति" शब्द का सुंदर प्रयोग किया। वह श्लोक है :
तपस्वी कां गतोऽवस्थामिति स्मेराविव स्तनौ। वन्दे गौरीधनाश्लेष-भवभूति-सिताननौ । आशय यह है- पार्वती द्वारा भगवान् शंकर का प्रगाढ आलिंगन करने पर उनके शरीर पर चर्चित विभूति से देवी के स्तन श्वेत हवे, मानो वे हंस को कह रहे हों कि इस तपस्वी की अवस्था प्रेमवश क्या हो गई है।
कुछ टीकाकार अन्य रचना की और निर्देश कर यही नामान्तर दर्शाते हैं। वह श्लोक है -
साम्बा पुनातु भवभूतिपवित्रमूर्तिः
इस कारण से वह "भवभूति" नाम से ही प्रसिद्ध हुए। भवानन्द सिद्धान्तवागीश - ई. 17 वीं शती। बंगालनिवासी। रचनाएं- तत्त्वचिंतामणिदीपिका, प्रत्यगालोकसारमंजरी, तत्त्वचिन्तामणिटीका और कारकविवेचन (व्याकरण- विषयक) भवालकर, श्रीमती वनमाला (डा.) - जन्म-सन् 1914 में, बेलगांव में। मातृभाषा- कन्नड। शिक्षा मराठी माध्यम से। मुंबई वि.वि. से बी.ए. तथा एम.ए. प्रथम श्रेणी में। "महाभारत में नारी" विषय शोधप्रबन्ध पर मध्यप्रदेश के सागर वि.वि. से डॉक्टरेट और उसी वि.वि. में संस्कृत की प्राध्यापिका। वहीं से प्रवाचक-पद से सेवानिवृत्त । नाट्याभिनय तथा निर्देशन में निपुण । वाद्यसंगीत में रुचि । उ.प्र. शासन द्वारा इनका "पाददण्ड" नामक नाटक पुरस्कृत। कृतियां- पाददण्ड, रामवनगमन और पार्वती-परमेश्वरीय नामक तीन नाटक। भल्लट - ई. 8 वीं शती का उत्तरार्ध । काश्मीर-निवासी कवि। इनका 'भल्लटशतक' नामक काव्यग्रंथ उपलब्ध है। मम्मट, क्षेमेंद्र, अभिनवगुप्त, आनंदवर्धन आदि प्रसिद्ध संस्कृत-कवियों ने अपने-अपने अंलकार-ग्रंथों में उत्तम काव्य के उदाहरण के रूप में इनकी काव्य-पंक्तियां उद्धृत की हैं। "भल्लटशतक' में मुक्तक पद्य हैं और उनमें अन्योक्ति का प्राधान्य है।
अध्ययन, अनुसंधान तथा अध्यापन-कार्य को ही इनका जीवन समर्पित था। सन् 1965 में इनकी हैदराबाद (सिंध प्रान्त) के हायस्कूल में इनकी मुख्याध्यापक पद पर नियुक्ति हुई। परंतु वहां से शीघ्र ही रत्नागिरि के हायस्कूल में इनका उसी पद पर स्थानांतरण हुआ। सन् 1868 में एल्फिन्स्टन कॉलेज में संस्कृत के प्राध्यापक नियुक्त हुए। सन् 1882 में डेक्कन कॉलेज में सेवारत हुए और 1893 में सेवानिवृत्त हुए।
ये संस्कृत-पंडित तथा पुरातत्त्वसंशोधक थे। ताम्रलेख-पठन, प्राकृत भाषाओं तथा ब्राह्मी तथा खरोष्ठी लिपियों का अध्ययन कर इन्होंने उन विषयों पर अनेक निबंध प्रकाशित किये। इनके इस कार्य का महत्त्व अनुभव कर सन् 1879 में सरकार ने पुरातन संस्कृत लेखों के संशोधन का दायित्व इन पर सौंपा। इन संशोधनलेखों के पांच संग्रह प्रकाशित हए हैं। सन् 1885 में जर्मनी के गारिजम-विश्वविद्यालय ने इन्हें पीएच.डी. की उपाधि प्रदान की। सन् 1891 में सरकार ने इन्हें सी.आय.ई. की उपाधि से गौरवान्वित किया। सन् 1893 में वे मुंबई-विश्वविद्यालय के कुलपति नियुक्त हुये।
आयु के 80 वर्ष पूर्ण करने के उपलक्ष में इनके शिष्यों ने सन् 1917 में "भांडारकर स्मारक लेखसंग्रह", स्मरणिका के रूप में प्रकाशित कर इन्हें समर्पित किया। उसी समय पुणे में "भांडारकर प्राच्यविद्यासंशोधन मंदिर" नामक एक संस्था की स्थापना की गयी। आज यह संस्था इनकी संस्कृत वाङ्मय सेवा तथा पुरातत्त्व अनुसन्धान का महान् केंद्र है। इन्होंने इस संस्था को अपना बहुमूल्य संस्कृत-ग्रंथों का संग्रह अर्पित किया। इस संस्था ने महाभारत की सैकडों पाण्डुलिपियों का अनुसंधान कर संपूर्ण महाभारत की शुद्ध प्रति तैयार की और उसे प्रकाशित करने का प्रचण्ड कार्य पूर्ण किया है। __इनके "अर्ली हिस्टरी ऑफ दि डेक्कन" तथा "वैष्णविज्म, शैविज्म एण्ड अदर मायनर रिलिजस सेक्ट्स' नामक दो ग्रंथ अत्यंत प्रसिद्ध हैं। इन्होंने 'मालती-माधव' ग्रंथ पर टीका तथा शालेय छात्रों के लिये संस्कृत व्याकरण की पुस्तकें लिखीं जो अत्यंत लोकप्रिय थीं। भागुरि - संस्कृत के प्राचीन वैयाकरण। युधिष्ठिर मीमांसकजी के अनुसार इनका समय 4000 वि. पू. है। व्याकरण संबंधी इनके कतिपत नवीन वचनों के उद्धरण, जदीश तर्कालंकारकृत "शब्दशक्ति-प्रकाशिका' में प्राप्त होते हैं। संभवतः इनके पिता का नाम भागुर था। विद्वानों का कथन है कि भागुरि का व्याकरण, "अष्टाध्यायी" से भी विस्तृत था। "शब्दशक्ति-प्रकाशिका" में उद्धृत वचनों से ज्ञात होता है कि इनके व्याकरण की रचना श्लोकों में हुई थी। इनकी कृतियों के नाम हैं- भागुरि-व्याकरण, सामवेदीय शाखा ब्राह्मण, अलंकार-ग्रंथ, त्रिकाण्ड-कोड, सांख्य-भाष्य व दैवत ग्रंथ । भागुरि की प्रतिभा बहुमुखी थी और उन्होंने अनेक शास्त्रों की रचना की थी।
भांडारकर, रामकृष्ण गोपाल (डा.) (सर) . ई. 1837-1925। एक श्रेष्ठ नव्य विद्वान् तथा गवेषक । रत्नागिरि जिले के मालवण नामक ग्राम में जन्म। सारस्वत ब्राह्मण। सन 1858 में मुंबई के एल्फिन्सटन कालेज से बी.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण की। सन् 1858 में इन्हें दक्षिणा-फेलोशिप प्राप्त हुई। उन्होंने पुणे के वर्तमान डेक्कन कालेज में 5-6 वर्षों तक संस्कृत का सूक्ष्म अध्ययन किया। सन् 1863 में इन्होंने संस्कृत में एम.ए. किया। इन्होंने संस्कृत का अध्ययन पाश्चात्य अनुसंधान पद्धति से किया था। इस पद्धति से इन्होंने न्याय, वेदान्त, व्याकरण आदि गहन विषयों का भी अध्ययन किया। एक संशोधक तथा चिकित्सक संस्कृत-पंडित के नाते इनकी कीर्ति फैली।
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भातखण्डे, विष्णु नारायण - जन्म- 10-8-1860। मृत्यु । 19-9-1936। संगीत-शास्त्र के महान् पण्डित तथा संगीत सेवा में निरत प्रख्यात कार्यकर्ता । हिन्दी, मराठी, अंग्रेजी, गुजराती, उर्दू तथा संस्कृत (छह) भाषाओं पर प्रभुत्व । विविध भाषाओं में किया हुआ संगीत विषयक लेखन। संगीत के जानकारों के लिये उपयुक्त। इन्होंने अभिनव-रागमंजरी तथा अभिनव तालमंजरी नामक दो रचनाएं "विष्णुशर्मा" उपनाम से की हैं। बडोदा, ग्वालियर, तथा लखनऊ में आपने संगीत शास्त्र के अध्ययनार्थ विद्यालय स्थापन किए। अनेक स्थानों में संगीत परिषदों को आयोजित कर, संगीत शास्त्र विषयक चर्चासत्र किए और संगीत शास्त्र को कालोचित व्यवस्थित रूप प्रदान किया। श्रीमल्लक्ष्यसंगीतम् यह अपना संस्कृत ग्रंथ चतुरपण्डित उपनाम से प्रकाशित किया। अतः इन्हें "चतुरपंडित" कहते हैं। नागपुर में इनके स्मरणार्थ चतुरसंगीत विद्यालय स्थापित हुआ है। हिंदुस्थानी संगीत पद्धति नामक इनके द्वारा निर्मित सखंड सर्वत्र लोकप्रिय हैं। इस ग्रंथमाला में 181 राग तथा 1875 गीतों का स्वरलिपि सहित संकलन करने का अपूर्व कार्य पं. भातखंडेजी ने किया है। भानुदत्त (भानुकर मिश्र या भानुमित्र) - समय- 13-14 वीं शती। इन्होंने अपने ग्रंथ "रस-मंजरी" में स्वयं को “विदेहभूः" लिखा है जिससे इनका मैथिल होना सिद्ध होता है। पिता गणेश्वर कवि थे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है:- रस-मंजरी, रस-तरंगिणी, अलंकार-तिलक, चित्र-चंद्रिका, गीत-गौरीश, मुहूर्तसार, रस-कल्पतरु, कुमारभार्गवीय आदि । "श्रृंगार-दीपिका'' नामक एक अन्य ग्रंथ भी इन्हीं का माना जाता है। ___ "रस-मंजरी" नायक-नायिका-भेद विषयक अत्यंत प्रौढ ग्रंथ है। इसकी रचना सूत्र-शैली में हुई है और स्वयं भानुदत्त ने इस पर विस्तृत वृत्ति लिखकर उसे अधिक स्पष्ट किया है।
नाधक स्पष्ट किया है। इस पर आचार्य गोपाल ने 1428 ई. में "विवेक' नामक टीका की रचना की है। आधुनिक युग में पं. बद्रीनाथ शर्मा ने “सरभि" नामक व्याख्या लिखी हैं जो चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित है। आचार्य जगन्नाथ पाठक कृत इसकी हिन्दी व्याख्या भी वहीं से प्रकाशित हो चुकी है।
भानुदत्त की प्रसिद्धि मुख्यतः “रस-मंजरी" व "रस-तरंगिणी" के कारण हैं। ये रसवादी आचार्य है। "रस-तरंगिणी' का हिंदी टीका के साथ प्रकाशन वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से हुआ है। भामह - समय- ई. 6 वीं शती का मध्य। “काव्यालंकार" नामक ग्रंथ के प्रणेता। अनेक. आचार्यों ने दंडी को भामह से पूर्ववर्ती माना है पर अब निश्चित हो गया है कि दंडी भामह के परवर्ती थे। भामह के व्यक्तिगत जीवन के बारे में कुछ भी पता नहीं चलता। अपने काव्यालंकार ग्रंथ के अंत में इन्होंने स्वयं को "रक्रिलगोमिन्" का पुत्र कहा है (6-64)। "रक्रिल" नाम के आधार पण कुछ विद्वानों ने इन्हें बौद्ध
माना है पर अधिकांश विद्वान् इससे सहमत नहीं क्यों कि भामह ने अपने ग्रंथ में बुद्ध की कहीं भी चर्चा नहीं की है। इसके विपरीत उन्होंने सर्वत्र रामायण व महाभारत के नायकों का निर्देश किया है। अतः वे निश्चित रूप से वैदिक-धर्मावलंबी ब्राह्मण थे। वे काश्मीर-निवासी माने जाते हैं।
भामह अलंकार-संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने अलंकार को ही काव्य का विधायक तत्त्व स्वीकार किया है। इन्होंने ही सर्वप्रथम काव्य-शास्त्र को स्वतंत्र शास्त्र का रूप प्रदान किया और काव्य में अलंकार की महत्ता स्वीकार की। भामह के अनुसार बिना अलंकारों के कविता-कामिनी उसी प्रकार सुशोभित नहीं हो सकती जिस प्रकार आभूषणों के बिना कोई रमणी। इन्होंने रस को "रसवत्" आदि अलंकारों में अंतर्भूत कर उसकी महत्ता कम कर दी है। भारतचन्द्र राय (गुणाकर) - जन्म, ई. 1712 में, बंगाल के हुगली-जनपद के बसन्तपुर ग्राम में। मृत्यु सन् 1860 में। नदिया के राजा कष्णचन्द्र राय (1728-1782) के सभाकावा 'गणाकर' की उपाधि से विभूषित। संस्कृत, फारसी, बंगला, हिन्दी तथा व्रजभाषा में प्रवीण। __ बर्दवान के राजा द्वारा जमीनदारी छीनी जाने के बाद दरिद्र अवस्था में मामा के यहां इनका वास्तव्य रहा। कई वर्षों पश्चात्, जमीनदारी मांगने पर कारागृहवास हुआ। कारागार के अधिकारियों की सहायता से भाग कर जगन्नाथपुरी में शंकराचार्य के मठ में संन्यास ग्रहण किया। सम्बधियों के अनुरोध पर पुनरपि गृहस्थाश्रम स्वीकार किया। परन्तु दारिद्रय के कारण पत्नी को मायके भेजकर स्वयं फ्रान्सीसी शासकों के मंत्री इन्द्रनारायण चौधरी के सम्पर्क में रहे। नदिया के राजा कृष्णचन्द्र राय का आश्रय इन्द्रनारायण की मध्यस्थता से मिला।
कृष्णचन्द्र द्वारा "मूलाजोड" ग्राम में भारतचन्द्र के सपत्नीक रहने की व्यवस्था की गई। मूलाजोड के नये स्वामी रामदेव नाग द्वारा अत्याचार हुए परंतु मूलाजोड के निवासियों से प्रेमसम्बन्ध के कारण वहीं वास्तव्य रहा। संस्कत कतियांआनन्दमंगल, विद्यासुन्दर, मानसिंह, चोरपंचाशत्, रसमंजरी, सत्यापीड, ऋतुवर्णना और चण्डीनाटक।
अन्य भाषा में रचनाएं- बंगला राधाकृष्ण के प्रेमालाप, घेडे बंडेर कौतुक, नानाभाषा की कवितावली, गोपाल उडेर, कवितावली
और नागाष्टक। हिन्दी कवितावली और फरदरफत। भारतीकृष्णतीर्थ (अद्वैत- ब्रह्मानन्द) - विद्यारण्य स्वामी के गुरु। सन् 1333 में विद्यातीर्थ महेश्वर के पश्चात् श्रृंगेरी- पीठ के आचार्यपद पर आसीन हुए। सन् 1346 में विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक हरिहरराय ने विजयप्राप्ति के लिये अपने पांचों बंधुओं के साथ शृंगेरी की यात्रा की तथा भारती कृष्णतीर्थ का आशीर्वाद प्राप्त किया था। विद्यारण्य ने अपने गुरु का स्तवन इस प्रकार किया है -
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"सर्वेषां तु प्रथममुखदं भारतीतीर्थमाहुः" (जिन्होंने मुझे सर्वप्रथम वाणी दी वे भारततीर्थ हैं)। माधवाचार्य को उनके जीवन के उत्तरार्ध में, भारतीतीर्थ ने ही संन्यासदीक्षा तथा 'विद्यारण्य'- अभिधान दिया। इन्होंने वाक्य-सुधा तथा वैयासिकन्यायमाला नामक दो ग्रंथों की रचना की है। "वाक्य सुधा" का दूसरा नाम “दृग्दृश्य- विवेक'' है। इस पर ब्रह्मानंद भारती रथा आनंदज्ञान यति ने टीकाएं लिखी हैं। भारद्वाज • पाणिनि के पूर्ववर्ती वैयाकरण व अनेक शास्त्रों के निर्माता। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 9300 वर्ष वि.पू. है। इनकी व्याकरण-विषयक रचना "भारद्वाजतंत्र' थी जो संपत्ति उपलब्ध नहीं है। "ऋक्तंत्र (1-4) में इन्हें ब्रह्म, बृहस्पति व इंद्र के पश्चात् चतुर्थ वैयाकरण माना गया है। इसमें यह भी उल्लिखित है कि भारद्वाज को इंद्र द्वारा व्याकरण-शास्त्र की शिक्षा प्राप्त हुई थी। इंद्र ने उन्हें घोषवत व उष्म वर्णों का परिचय दिया था। (ऋकतंत्र 1-4) "वायु-करण' के अनुसार भारद्वाज को पुराण की शिक्षा तृणंजय से प्राप्त हुई थी। (103-63)। कौटिल्य कृत "अर्थशास्त्र" से ज्ञात होता है कि भारद्वाज ने किसी अर्थशास्त्र की भी रचना की थी (12-1)। वाल्मीकि रामायण के अनुसार उनका आश्रम प्रयाग में गंगा-यमुना के संगम पर था (अयोध्या कांड, सर्ग 54)। भारद्वाज बहुप्रतिभासंपन्न व्यक्ति थे। उनकी अनेक रचनाएं हैं - भारद्वाज-व्याकरण, आयुर्वेद-संहिता, धनुर्वेद, राज्यशास्त्र, अर्थशास्त्र। प्रकाशित ग्रंथ-1. यंत्रसर्वस्व (विमानशास्त्र) और 2. शिक्षा। इनके प्रकाशक क्रमशः आर्य
शाख) आर 2. शिक्षा । ३नक प्रकाशक क्रमशः आय सार्वदेशिक प्रतिनिधि सभा, दिल्ली तथा भांडारकर रिसर्च इन्स्टिट्यूट, पुणे हैं। भारवि - समय- 550 ई. के लगभग। संस्कृत-महाकाव्य के इतिहास में अलंकृत शैली के प्रवर्तक होने का श्रेय इन्हें ही है। "किरातार्जुनीय" भारवि की एकमात्र अमर कृति है। इनका जीवन-वृत्त अभी तक अंधकारमय है। इनका समयनिर्धारण पुलकेशी द्वितीय के समय के एक शिलालेख से होता है। इसमें कवि रविकीर्ति ने अपने आश्रयदाता की प्रशस्ति में महाकवि कालिदास के साथ भारवि का भी नाम लिया है
और स्वयं को कालिदास व भारवि के मार्ग पर चलने वाला कहा है। इस शिलालेख का निर्माण काल 634 ई. है। कवि रविकीर्ति ने 634 ई. में एक जैन-मंदिर का निर्माण करवाया था। इससे सिद्ध होता है कि इस समय तक भारवि का यश दक्षिण में फैल चुका था।
भारवि के स्थिति-काल का पता एक दान-पत्र से भी चलता है। यह दान-पत्र दक्षिण के किसी राजा का है जिसका नाम पृथ्वीकोंगणि था। इसका लेखन-काल 698 शक (770 ई.) है। इसमें लिखा है कि राजा की 7 पीढियां पूर्व दर्विनीत नामक व्यक्ति ने भारविकृत “किरातार्जुनीय" के 15 वें सर्ग
की टीका रची थी। इस दान-पत्र से इतना निश्चित हो जाता है कि भारवि का समय ई. 7 वीं शती के प्रथम चरण के बाद नहीं हो सकता। वामन व जयादित्य की "काशिकावृत्ति" में भी, (जिसका काल 650 ई. है), "किरातार्जुनीय" के श्लोक उद्धृत हैं। बाणभट्ट ने अपने "हर्ष-चरित' में अपने पूर्ववर्ती प्रायः सभी कवियों का नामोल्लेख किया है किंतु उस सूची में भारवि का नाम नहीं है। इससे प्रमाणित होता है कि 600 ई. तक भारवि उतने प्रसिद्ध नहीं हो सके थे। भारवि पर कालिदास का प्रभाव परिलक्षित होता है और माघ पर भारवि का प्रभाव पड़ा है। अतः इस दृष्टि से भारवि, कालिदास के परवर्ती व माघ के पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। विद्वानों ने भारवि का काल ई छटी शती स्वीकार किया है जो बाण के 50 वर्ष पूर्व का है। 'अतः 500 ई. की अपेक्षा 550 ई. के लगभग ही भारवि के समय को मानना अधिक युक्तियुक्त प्रतीत होता है' (संस्कृत साहित्य का इतिहास-कीथ)।। ___ राजशेखर-कृत 'अवंति-सुंदरीकथा' के अनुसार भारवि परम
शैव थे। 'किरातार्जुनीय' की कथा से भी यह बात सिद्ध होती है। राजशेखर ने इस आशय का उल्लेख किया है कि उज्जयिनी में कालिदास की भांति, भारवि की भी परीक्षा हुई थी। कहा जाता है कि रसिकों ने भारवि के काव्य पर मुग्ध होकर उन्हें 'आतपत्रभारवि' की उपाधि दी थी। किरातार्जुनीय के एक श्लोक (5-39) से इसका प्रमाण प्राप्त होता है।
अवंतिसुंदरीकथा में भारवि का जो अन्य जीवनवृत्तांत आया है, वह इस प्रकार है -
भारत के वायव्य के आनंदपुर नगर में एक कौशिकगोत्री ब्राह्मण परिवार रहता था। कुछ दिनों बाद इस परिवार ने नासिक्य देश के अचलपुर नामक नगर में स्थलांतर किया। इस परिवार के नारायण स्वामी को दामोदर नामक जो पुत्र हुआ, वही आगे चलकर भारवि नाम से विख्यात हुआ। ___ अचलपुर के राजा विष्णुवर्धन के साथ भारवि का घनिष्ट संबंध था। एक बार राजा के साथ ये शिकार खेलने गये। वहां इन्होंने राजा के आग्रह पर मांसभक्षण किया। अभक्ष्यभक्षण के पातक के विचार से ये इतने अस्वस्थ हुए कि शिकार से ये सीधे तीर्थयात्रा के लिये चल पडे। तीर्थयात्रा के काल में इनका गंग राजवंश के दुर्विनीत नामक राजा से परिचय हुआ तथा उनके निकट वे कुछ काल रहे। वहां पल्लव-नृपति सिंहविष्णु की सुतिपरक एक आर्या लिखी। वह आर्या एक गायक के हाथ लगी। उसने उसे सिंहविष्णु की राजसभा में गाकर सुनाया राजा प्रसन्न हुआ। उसने कवि के नाम-ग्राम का पता लगाकर उसे अपनी सभा में राजकवि के नाते आश्रय दिया।
भारवि के महाकाव्य किरातार्जुनीय से उनका जीवनविषयक दृष्टिकोण प्रकट होता है। वे ऐहिक वैभव को महत्त्वपूर्ण मानते
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थे । इन्द्र-अर्जुन संवाद के रूप में भारवि ने अपना जीवनविषयक दृष्टिकोण अर्जुन के मुख से कहलवाया है जब अर्जुन ने इंद्र से शस्त्रों की मांग की तब इंद्र कहते हैं- 'शस्त्र क्या मांगते हो, मोक्ष मांगों। इस पर अर्जुन कहता है 'मुझ जैसे क्षत्रिय को विशेषतः अपमानदंश से दग्ध क्षत्रिय को यह उपदेश मत दो। जब तक में अपने शत्रुओं का विनाश कर वंश की कीर्ति को उज्ज्वल नहीं करता, तब तक यदि मुझे तुम्हारा मोक्ष प्राप्त हो भी गया, तो मेरी विजयसिद्धि के मार्ग में वह एक रोडा ही सिद्ध होगा' ।
इनके विषय में निम्र
प्रचलित है
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भारवि की पत्नी ने एक बार घर के दारिद्र के बारे में पति को उलाहना दिया । पत्नी की बात उनके हृदय को चुभी । वे गृहत्याग कर निरुद्देश्य चल पडे। मार्ग में एक तडाग के किनारे विश्राम के लिये बैठे। वहां उन्हें निम्न श्लोक स्फुरित हुआ
"सहसा विदधीत न क्रियामविवेकः परमापदां पदम् ।
वृणते हि विमृश्यकारिणं गुणलुब्धाः स्वयमेव सम्पदः ।। " अर्थ- कोई भी कार्य बिना सोचे-समझे नहीं करना चाहिये क्यों कि अविचार सभी अनर्थो की जड है। विवेकी पुरुष के गुणों पर मोहित होकर लक्ष्मी स्वयं उसे वरण करती है।
जैसे ही उपयुक्त श्लोक भारवि के मुख से बाहर निकला, निकटवर्ती राजधानी से मृगयार्थ आये हुए एक राजा ने उसे सुना। वे प्रसन्न हुये तथा उन्होंने भारवि को दूसरे दिन राजसभा में उपस्थित रहने का आमंत्रण दिया। तदनुसार भारवि राजप्रासाद के द्वार पर पहुंचे। द्वारपाल ने उन्हें चीथड़ों में देखकर भीतर प्रवेश करने की अनुमति नहीं दी।
राजा ने भारवि का वह श्लोक अपने शयनकक्ष में सुवर्णाक्षरों में अंकित करवाया ।
एक बार राजा मृगया से रात को बहुत देरी से लौटे तथा सीधे अपने शयनकक्ष में पहुंचे। उन्होंने पर्यंक पर रानी को किसी युवा पुरुष के साथ लेटे हुए देखा। उन्हें अत्यंत क्रोध हुआ। उन्होंने दोनों का शिरच्छेद करने के लिये खड्ग उठाया। उसी समय उनकी दृष्टि उस श्लोक पर पडी । अतः उन्होंने रानी को जगा कर उस युवक के विषय में पूछताछ की। रानी ने कहा "बीस वर्ष पूर्व खोया हुआ यह अपना पुत्र आज ही अचानक आया है। देखो, कैसा शांति से सो रहा है।" राजा ने अनुभव किया कि उस श्लोक के कारण ही उनके हाथों अविवेकपूर्ण कृति नहीं हुई। अतः उन्होंने भारवि को ढूंढ निकाला तथा उन्हें विपुल धन से पुरस्कृत किया ।
भारवि ने एकमात्र महाकाव्य 'किरातार्जुनीय' की रचना की है, जिसमें 'महाभारत' ( वनपर्व) के आधार पर अर्जुन व किरात - वेषधारी शिव के युद्ध का वर्णन है । 'किरातार्जुनीय', संस्कृत के प्रसिद्ध पंचमहाकाव्यों में गिना जाता है। भारवि
के संबंध में सुभाषित-संग्रहों में कतिपय प्रशास्तियां प्राप्त होती है।
भारवि ने अपने महाकाव्य में एक नयी शैली तथा नयी प्रवृत्ति का सूत्रपात किया जिसका अनुकरण माघ, रत्नाकर, भट्टि आदि परवर्ती कवियों ने किया है।
अनुमान है कि दंडी तथा भामह ने आदर्श महाकाव्य के जो लक्षण बताये हैं, वे भारवि के किरातार्जुनीय महाकाव्य पर आधारित हैं।
भावभट्ट संगीतशय जर्नादन भट्ट के पुत्र । गायक तानभट्ट के पौत्र, बीकानेर के राजा अनूपसिंह (ई.स. 1674 से 1709) के आश्रित रचनाए-अनुपसंगीत-विलास, अनूप-संगीतरत्नाकर, अनुपसंगीतकुश । मुद्रित संगीत-विनोद, मुरली - प्रकाश, नष्टोद्दिष्टप्रबोधक, धौवपद टीका ।
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भावमिश्र ई. 16 वीं शती । एक सुप्रसिध्द वैद्यकशास्त्रज्ञ । पिता - श्री मिश्र लटक । बहुधा कन्नौज निवासी। "भावप्रकाश” नामक ग्रंथ के रचयिता । इस ग्रंथ के पूर्व लिखे गये वैद्यकशास्त्र के ग्रंथों में जिन औषधि वनस्पतियों तथा व्याधियों का उल्लेख नहीं हुआ था, उनका इस ग्रंथ में वर्णन मिलता है। "भावप्रकाश" की गणना, आयुर्वेदशास्त्र की लघुत्रयी के रूप में होती है। भावमिश्र ने 'गुणरत्नमाला' नामक एक चिकित्सा-विषयक ग्रंथ की भी रचना की थी, जो हस्तलेख के रूप में इंडिया ऑफिस पुस्तकालय में है । भावविजयगणि जैनपंथी तपागच्छीय मुनि विमलसूर के शिष्य । समय- ई. 17 वीं शती ग्रंथ- उत्तराध्ययन-व्याख्या (वि.सं. 1689 ) । यह व्याख्या कथानकों से भरपूर और पद्यबद्ध है। भावविवेक - ( भव्य या भाविवेक) बौद्ध न्याय में स्वतन्त्र मत के उद्भावक । माध्यमिक सिद्धान्तों की सत्ता सिद्ध करने के लिये स्वतन्त्र प्रमाण उपस्थित करने से प्रतिपक्षी स्वयं परास्त होता है, यह इनकी मान्यता रही। इनकी रचनाएं मूल संस्कृत में अनुपलब्ध चीनी तथा तिब्बती अनुवादों से शत रचनाएं (1) माध्यमिक कारिका - व्याख्या (2) मध्यमहृदयकारिका, (3) मध्यमार्थ संग्रह और (4) हस्तरत्र । भावसेन त्रैविद्यई. 13 वीं शती। जैनपंथी मूलसंघ सेनगण के आचार्य । कर्नाटकवासी। व्याकरण, दर्शन और सिद्धान्त इन तीन विद्याओं में निपुण अतः त्रैविध कहलाये। वादीभकेसरी, वादिपर्वत आदि विशेषण प्राप्त रचनाएं 1. प्रभाप्रमेव, 2. कथाविचार, 3. शाकटायन-व्याकरण टीका, 4. कातन्त्ररूपमाला, 5. न्यायसूत्रावली, 6. भुक्ति-मुक्ति-विचार, 7. सिद्धान्तसार, 8. न्यायदीपिका, 9. सप्तपदार्थी टीका, 10. विश्वतत्त्वप्रकाश ।
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भास
समय - ई. पू. चौथी व पांचवी शती के बीच । इन्होंने 13 नाटकों की रचना की है जो सभी प्रकाशित हो चुके हैं। इनके सभी नाटकों का हिन्दी अनुवाद व संस्कृत टीका
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के साथ प्रकाशन, "भासनाटकचक्रम्" के नाम से "चौखंबा संस्कृत सीरीज" से हो चुका है। भास के संबंध में विविध ग्रंथों में अनेक प्रकार के प्रशंसा वाक्य प्राप्त होते हैं। संस्कृत के अनेक प्रसिद्ध साहित्यकारों ने भी भास का महत्त्व स्वीकार किया है। महाकवि कालिदास ने अपने 'मालविकाग्निमित्र' नामक नाटक की प्रस्तावना में भास की प्रशंसा की है। इनके नाटक दीर्घ काल तक अज्ञात अवस्था में पडे हुए थे। 20 वीं शती के प्रथम चरण के पूर्व तक, भास के संबंध में कतिपय उक्तियां ही प्रचलित थीं। इनके नाटकों का उद्धार सर्वप्रथम त्रिवेंद्रम के म.म.टी. गणपति शास्त्री ने 1909 ई. में किया। उन्हें पद्मनाभपुरम् के निकट मनल्लिकारमठम् में ताडपत्र पर लिखित इन नाटकों की हस्तलिखित प्रतियां प्राप्त हुईं। सभी हस्तलेख मलयालम् लिपि में थे। शास्त्रीजी ने सभी (13) नाटकों का संपादन कर, 1912 ई. में उन्हें प्रकाशित किया। ये सभी नाटक, 'अनंतशयन संस्कृत ग्रंथावली' में प्रकाशित हुए हैं। इन नाटकों को देख विद्वान् व रसिक जन विस्मित हो उठे ।
भास के नाटकों के संबंध में विद्वानों के तीन दल हैं। प्रथम दल के मतानुसार सभी (13) नाटक भासकृत ही हैं। दूसरा दल इन नाटकों को भासकृत नहीं मानता। उनके मतानुसार इनका रचयिता या तो 'मत्तविलासप्रहसन' का प्रणेता युवराज महेन्द्रविक्रम है या 'आश्चर्य चूडामणि' नाटक का प्रणेता शीलभद्र है। बर्नेट के अनुसार इन नाटकों की रचना पांड्य राजा राजसिंह प्रथम के शासन काल (675 ई.) में हुई थी। अन्य विद्वानों के मतानुसार इन नाटकों का रचना - काल सातवीं-आठवीं शती है और इनका प्रणेता कोई दाक्षिणात्य कवि था। तीसरा दल ऐसे विद्वानों का है जो इन नाटकों का कर्ता तो भास को ही मानता है किंतु इनके वर्तमान रूप को उनका संक्षिप्त व रंगमंचोपयोगी रूप मानता है। पर संप्रति अधिकांश विद्वान् प्रथम मत के ही पोषक हैं। डा. पुसालकर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ- 'भास-ए स्टडी' और ए. एस. पी. अय्यर ने अपने 'भास' नामक (अंग्रेजी) ग्रंथ में प्रथम मत की ही पुष्टि, अनेक प्रमाणों के आधार पर की है।
विद्वानों ने भास का समय ई.पू. छठी शती से 11 वीं शती तक स्वीकार किया है। अंतः व बहिःसाक्ष्यों के आधार पर इनका समय ई.पू. 4 थीं व 5 वीं शती के बीच निर्धारित किया गया है। अश्वघोष व कालिदास दोनों ही भास से प्रभावित हैं। अतः भास का इन दोनों से पूर्ववर्ती होना निश्चित है। कालिदास का समय सामान्यतः ई. पू. प्रथम शती माना गया है। भास के नाटकों में अपाणिनीय प्रयोगों की बहुलता देख कर उनकी प्राचीनता निःसंदेह सिद्ध हो जाती है। अनेक पाश्चात्य व भारतीय विद्वानों के मतों का ऊहापोह करने के पश्चात् बाह्य साक्ष्यों से भास का समय ई.पू. चतुर्थ शतक
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तथा पंचम शतक के बीच मानना युक्तिसंगत प्रतीत होता हैं । कथावस्तु के आधार पर भासकृत 13 नाटकों को 4 वर्गों में विभक्त किया गया है- (1) रामायण-नाटक प्रतिमा व अभिषेक, (2) महाभारत नाटक बालचरित, पंचरात्र, मध्यम - व्यायोग, दूत- वाक्य, उरु-भंग, कर्णभार व दूत- घटोत्कच, (3) उदयन नाटक स्वप्नवासवदत्त व प्रतिज्ञा- यौगंधरायण, (4) कल्पित नाटक अविमारक व दरिद्र चारुदत्त ।
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नाटकीय संविधान की दृष्टि से भास के नाटकों का वस्तुक्षेत्र विविध है। विस्तृत क्षेत्र से कथानक ग्रहण करने का कारण इनके पात्रों की संख्या अधिक है और उनकी कोटियां भी अनेक हैं। भास के सभी पात्र प्राणवंत तथा इसी लोक के प्राणी हैं। उनमें कृत्रिमता नाममात्र को नहीं है। इतना अवश्य है कि "मध्यम व्यायोग" व अविमारक' नामक नाटकों में ब्राह्मणीय संस्कृति एवं वैदिक धर्म का प्रभाव, इन्होंने जानबूझकर प्रदर्शित किया है। पात्रों के संवाद नाटकीय विधान के सर्वथा अनुरूप हैं। इन्होंने नवों रसों का प्रयोग कर अपनी कुशलता प्रदर्शित की है। इनके सभी नाटक अभिनय कला की दृष्टि से सफल सिद्ध होते हैं। कथानक, पात्र, भाषा-शैली, देश-काल व संवाद किसी के भी कारण उनकी अभिनेयता में बाधा नहीं पडती । इन्होंने ऐसे कई दृश्यों का भी विधान किया है जो शास्त्रीय दृष्टि से वर्जित हैं यथा वध, अभिषेक आदि पर ये दृश्य इस प्रकार रखे गए हैं कि इनके कारण नाटकीयता में किसी प्रकार की बाधा उपस्थित नहीं होती।
भास की शैली सरल व अकृत्रिम है। इनकी कवित्व शक्ति भी उच्च कोटि की है। अपने वर्ण्य विषयों को भास ने अत्यंत सूक्ष्मता से रखा है। इनका प्रकृति-वर्णन भी अत्यंत स्वाभाविक व आकर्षक है। I
भास के कुछ नाट्यगुण इतने श्रेष्ठ थे कि उनका परवर्ती नाटककारों धर प्रभाव पड़ना अपरिहार्य ही था। शूद्रक का मृच्छकटिक नाटक भास के चारुदत्त पर से ही लिखा गया मानते हैं। कालिदास, भवभूति और हर्षवर्धन जैसे श्रेष्ठ नाटककारों पर भी भास की छाप परिलक्षित होती है।
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"भासनाटकचक्रे हि च्छेकेः क्षिप्ते परीक्षितुम् । स्वप्नवासवदत्तस्य दाहकोऽभूत्र पावकः ।। "
उक्त प्रसिद्ध सुभाषित के अनुसार भास के सारे नाटकों की अग्निपरीक्षा की गई थी। उस परीक्षा में स्वप्नवासवदत्त नाटक को अग्नि भी नहीं जला सकी। उनके अनेक नाटकों में अग्निदाह के प्रसंग वर्णित हैं। अतः उन्हें 'अग्निमित्र' की उपाधि प्राप्त थी।
यद्यपि इनका विश्वसनीय जीवन चरित्र उपलब्ध नहीं है, तथापि इनके नाटकों के अध्ययन से इनके चरित्र पर कुछ प्रकाश पडता है जिससे अनुमान होता है कि वे ब्राह्मण थे । 'भास' व्यक्ति नाम है या कुल नाम इसका भी पता नहीं
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चलता। नाटकों में उत्तर भारत के स्थलों तथा रीति-रिवाजों का अधिक वर्णन है जो इनके उत्तर भारत के निवासी होने का प्रमाण है। राजप्रासाद, अंतःपुर, मंत्रिमंडल, सेना, द्वंद्वयुद्ध आदि इनके नाटकों के वर्णित विषयों से अनुमान निकलता है कि इनका राजघरानों से विशेष संपर्क रहा हो। उनके प्रत्येक नाटक के भरतवाक्य में 'राजसिंहः प्रशास्तु नः' (हमारा राजसिंह प्रशासक रहे) यह चरण आता है। इससे प्रतीत होता है कि इन्हें किसी राजसिंह नामक राजा का आश्रय प्राप्त हुआ था। भासर्वज्ञ - ई. 9 वीं शती का उत्तरार्ध। काश्मीर के निवासी। इन्होने 'न्यायसार' नामक ग्रंथ की रचना की। उसमें स्वार्थ व परार्थ अनुमान, पक्षाभास, दृष्टांताभास, मुक्ति आदि का विवेचन किया गया है। भासर्वज्ञ की ये सभी कल्पनाएं न्याय-जगत् में अपूर्व मानी जाती हैं। अन्य नैयायिकों के विपरीत, इन्होंने प्रमाण के 3 ही भेद माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान
और आगम । इनके न्यायसार ग्रंथ पर 10 टीकाएं लिखी गई हैं। भास्कर - 'भास्कर-भाष्य' के प्रणेता। भेदाभेदवादी। आचार्य शंकरोत्तर युग के वेदांताचायों में इनका नाम प्रमुख है। रामानुज ने अपने 'वेदार्थसंग्रह' में, उदयनाचार्य (984 ई.) ने 'न्याय-कुसुमांजलि' में और वाचस्पति ने 'भामती' में इनके मत का खंडन किया है। अतः इनका समय 8 वां शतक मानना चाहिये।
इनके मतानुसार ब्रह्म, सगुण, सल्लक्षण, बोधलक्षण और सत्य- ज्ञान-अनंत लक्षण है। चैतन्य तथा रूपांतररहित अद्वितीय है। ब्रह्म, कारण-रूप में निराकार तथा कार्य-रूप में जीव-रूप
और प्रपंचमय है। ब्रह्म की दो शक्तियां, भोग्य-शक्ति तथा भोक्तृ-शक्ति होती हैं (भास्कर भाष्य, 2-1-27)। भोग्य-शक्ति ही आकाशादि अचेतन जगत्-रूप में परिणत होती हैं। भोक्तशक्ति, चेतन जीव-रूप में विद्यमान रहती है। ब्रह्म की शक्तियां पारमार्थिक हैं। वह सर्वज्ञ तथा समग्र शक्तियों से संपन्न है (भा.भा. 2-1-24)। __ भास्करजी, ब्रह्म का परिणाम स्वाभाविक मानते हैं। जिस । प्रकार सूर्य अपनी रश्मियों का विक्षेप करता है, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी अनंत और अचिंत्य शक्तियों का विक्षेप करता है। ___ यह जीव, ब्रह्म से अभिन्न है तथा भिन्न भी। इन दोनों में अभेद रूप स्वाभाविक है, भेद उपाधिजन्य है। ____ मुक्ति के लिये भास्कर, ज्ञान-कर्म-समुच्चयवाद को मानते हैं। उनके मतानुसार शुष्क ज्ञान से मोक्ष का उदय नहीं होता, कर्म-संवलित ज्ञान से होता है। उपासना या योगाभ्यास के बिना अपरोक्ष ज्ञान का लाभ नहीं होता। श्री. भास्कर को सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति दोनों ही अभीष्ट हैं। भास्कर - जन्म- 1805 ई., मृत्यु 1837 ई.। जन्मग्रामशोरनूर । नम्मूतिरिवंशीय। कालीकट के राजा विक्रमदेव तथा कोचीन के महाराज द्वारा सम्मानित। वेदान्त का अध्ययन
त्रिपुणैथुरै में तथा व्याकरण का कूटल्लूर में। केवल 16 वर्ष की आयु में शृंगारलीला-तिलक-भाण की रचना की। भास्कर - रचना- शाहजी-प्रशस्तिः। इस काव्य में तंजौरनरेश शाहजी भोसले की स्तुति है। इन्हें राजा ने 40 घरों वाला एक ग्राम इनाम में दिया था। कवि ने वे सभी घर शिष्यों को दिये। भास्करनन्दी - सर्वसाधु के प्रशिष्य और जिनचन्द्र के शिष्य । समय- 14-15 वीं शती। दाक्षिणात्य । ग्रंथ-तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति पर सुबोध टीका तथा ध्यानस्तव। प्रथम ग्रंथ डड्ढा के पंचसंग्रह से प्रभावित है और द्वितीय ग्रंथ पर तत्त्वानुशासनादि का प्रभाव दिखाई देता है। भास्करभट्ट - ई. 15 वीं शती। इन्होंने यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता पर ज्ञानयज्ञ नामक भाष्य लिखा है। इसमें इन्होंने वेदमंत्रों का अर्थ यज्ञपरक लगाने के साथ ही उनका आध्यात्मिक अर्थ भी विशद किया है और पाणिनि के सूत्रों के आधार पर अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति बतलायी है। वैदिक साहित्य में यह ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भास्करयज्वा - ई. 16 वीं शती का पूर्वार्ध। पिता- महाकवि शिवसूर्य, जो पाण्ड्य राजा हालघट्टि के कुलगुरु थे। ये परम शैव तथा श्रोत्रियों में अग्रगण्य थे। रचना- वल्लीपरिणय (नाटक)। भास्करराय - ई. 18 वीं शती। एक मीमांसक तथा तंत्रशास्त्रज्ञ । इन्होंने वादकुतूहल तथा भाट्टजीविका दो ग्रंथ मीमांसा विषयक, तथा सेतुबंध और सौभाग्य-भास्कर (तंत्र-विषयक) ग्रंथ लिखे हैं। सेतुबंध में नित्याषोडशिकार्णव तंत्र का भाष्य है तथा सौभाग्यभास्कर ललिता-सहस्रनाम की व्याख्या है। भास्कराचार्य - वरदगुरु के वंशज। चिंगलपेट जिले के निवासी। समय- संभवतः ई. 18 वीं शती। रचनासाहित्य-कल्लोलिनी। भास्कराचार्य - समय- 1157 से 1223 ई.। एक महान् ज्योतिषशास्त्रज्ञ। मराठी ज्ञानकोशकार डा. केतकर के अनुसार ये सह्याद्रि पर्वत के निकटवर्ती विज्जलवीड (जि. जलगांव, महाराष्ट्र) नामक ग्राम के निवासी थे। अन्य एक विद्वान् के मतानुसार ये मराठवाडा के बीड नामक नगर के निवासी थे। गोत्र-शांडिल्य। पिता-महेश्वर उपाध्याय जो इनके गुरु भी थे।
इन्होंने गणित तथा ज्योतिषशास्त्र पर सिद्धान्तशिरोमणि, करणकुतूहल, वासना-भाष्य, बीजगणित, सर्वतोभद्र नामक ग्रंथ लिखे हैं।
सिद्धांतशिरोमणि तथा करणकुतूहल दोनों ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथ हैं। वासनाभाष्य, सिद्धांत- शिरोमणि के ग्रहगणित तथा गोलाध्याय पर भास्कराचार्य के स्वकृत टीकाग्रंथ भी हैं।
पृथ्वी गोल है तथा वह अपने चारों और घूमती है यह भास्कराचार्य को ज्ञात था। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी उन्हें ज्ञात था जो इन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है -
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आकष्टशक्तिश्च मही तथा यत् । स्वस्थं गुरु स्वाभिमुखं स्वशक्त्या। न करने वालों की निंदा है। आकृष्यते तत् पततीव भाति । समे समन्तात् क्व पतत्विदं च ।।
एक ऋचा इस प्रकार है - अर्थ- पृथ्वी में आकर्षण-शक्ति है। इस शक्ति से वह स इद् भोजो यो गृहवे ददात्यत्रकामाय चरते कृशाय। आकाश की जड वस्तयें अपनी और खींचती है। वह (पृथ्वी)
अरमस्मे भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ।। गिर रही है ऐसा भ्रम होता है, परंतु वह गिरती नहीं, क्यों
(ऋ 10-17-3) कि चारों ओर समानरूप से विद्यमान अवकाश में वह कहां जायेगी।
अर्थ- द्वार पर आये हुए क्षुधाग्रस्त तथा निर्धन अतिथि सर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के कारण तथा पृथ्वी के चारों को अन्नदान करनेवाले व्यक्ति के शत्र भी मित्र बनते हैं तथा ओर वायुमंडल की ऊंचाई आदि वैज्ञानिक तथ्य भी इन्हें ज्ञात थे।
उन्हें अन्न-फल प्राप्त होता है।। वायुमण्डल के संबंध में इन्होंने कहा है
भिडे न. ना. - पुणे- निवासी। रचना- कर्मतत्त्वम्। छात्रों में "भूमेर्बहिर्द्वादश योजनानि। भूवायुरत्राम्बुदविद्युदाद्यम्"।। सरल सुबोध संस्कृत लेखन का प्रसार करने हेतु मैसूर वि.वि.
अर्थ- पृथ्वी के पृष्ठभाग से 12 योजन (96 मील) तक। के नवीनम् रामानुजाचार्य द्वारा हर तीसरे वर्ष जो संस्कृत निबंध भूवायु है। उस वायुमंडल में बादल, बिजली आदि नैसर्गिक स्पार्धा आयोजित की जाती थी, उसमें प्रथम पुरस्कार सन् घटनाएं होती हैं।
1944 में प्राप्त किया। तदनंतर यह रचना मैसूर वि.वि. से ___ अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित के मौलिक सिद्धांत
प्रकाशित हुई। इन का अन्य निबंध "किं राष्ट्र कश्च राष्ट्रियः" इन्होंने ही सर्वप्रथम विश्व को दिये हैं। गणितशास्त्र का इतिहास
हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण से लिखा हुआ है। लिखने वाले विद्वानों के मतानुसार लाग्रांज नामक पाश्चात्य भिषग् आथर्वण - एक सूक्तद्रष्टा। ऋग्वेद के दसवें मंडल गणितशास्त्रज्ञ के पूर्व विश्व में भास्कराचार्य की बराबरी का के 97 वें सूक्त के रचयिता। सूक्त अनुष्टुप् छंद में है। अन्य गणितशास्त्री नहीं था। फलित-ज्योतिष पर इनके ग्रंथ औषधियों की प्रशंसा इसकी विषयवस्तु है। सूक्त की एक प्राप्त नहीं होते किंतु मुहूर्त- चिंतामणि की पीयूषधारा नामक ऋचा इस प्रकार हैटीका में इनके फलित-ज्योतिष-विषयक श्लोक प्राप्त होते हैं। शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः । सिद्धांतशिरोमणि के प्रथम अध्याय का नाम लीलावती है। अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत।। उसके संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है -
अर्थ- शतावधि मर्मस्थानों और सहस्रावधि अंकुरों से युक्त, भास्कराचार्य ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता थे। उन्हें लीलावती शतकार्यकारी तथा मातृभूत औषधियों, मुझे स्वस्थ रखो। नामक एक कन्या थी। उसकी जन्म-पत्रिका से उन्हें ज्ञात हुआ।
भीमसेन - ई. 7 वीं शती के पूर्व। पाणिनीय धातुपाठ का कि उसके भाग्य में वैधक्य-योग है परंतु यदि एक विशिष्ट
अर्थनिर्देश करने वाले वैयाकरण । गणनसूरि, सर्वानन्द, मैत्रेयरक्षित मुहूर्त पर विवाह- विधि हुआ तो वह दुर्भाग्य टल सकता है
जैसे लेखकों ने भीमसेन के वचन यत्र तत्र उद्धृत किये हैं। यह भी उन्हें ग्रह-गणना से ज्ञात था। उस विशिष्ट मुहूर्त पर
कुछ विद्वानों का मत है कि भीमसेन ने पाणिनीय धातुपाठ विवाह-विधि संपन्न हो, इस दृष्टि से उन्होंने व्यवस्था की। उन
पर का कोई व्याख्या लिखी थी। दिनों घटिकापात्र से मुहूर्त जाना जाता था। गौरीहरपूजा के
भुवनानन्द - ई. 14 शती। "कविकण्ठाभरण' उपाधि सम्मानित । लिये लीलावती को बिठाया गया तथा घटिकापात्र की ओर ध्यान देने की उसे सूचना दी गयी। घटिकापात्र जल में ठीक
विश्वप्रदीप ग्रंथ के लेखक। विषय - संगीत । प्रकार से डूबता है या नहीं इसकी प्रतीक्षा करती हुई लीलावती
भूतविद् आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मंडल के 62 वें सूक्त बैठी रही। दुर्भाग्य से उसके माथे की कुंकुम-अक्षत का दाना
के दृष्टा। सूक्त का विषय है मित्रावरुण की स्तुति. घटिकापात्र में गिर पडा तथा उसकी पेंदी का सूक्ष्म छिद्र बंद भूदेव मुखोपाध्याय - ई. 19 वीं शती। "रस-जलनिधि" हो गया। इससे घटिकापात्र में पानी भरने की क्रिया विलंब के कर्ता। से हुई। फलस्वरूप इष्ट विवाह-मुहूर्त टल गया। इस प्रकार भूदेव शुक्ल - संभवतः सत्रहवीं शती के कवि। जन्मभूमि विधि-विधान अटल सिद्ध हुआ तथा लीलावती विधवा हुई। जम्बूसर (जम्मू)। पिता- शुकदेव पंडित। कृतियां-धर्मविजयउस अवस्था में वह अपने पिता के घर लौट आयी। उसका नाटकम् और रसविलास प्रबन्धः। अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग समय ज्ञान-साधना में व्यतीत हो इस उद्देश्य से भास्कराचार्य इनकी रचनाओं में अधिक है। ने उसे जो गणितशास्त्रज्ञ सिखाया, वही सिद्धांत शिरोमणि के भूपाल - ग्रंथ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र (26 पद्य)। इस पर लीलावती अध्याय में ग्रथित हुआ है।
प्राचीन टीका पं. आशाधर की है। इसके बाद म. श्रीचन्द्र भिक्षु आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 117 वें सूक्त और नागचन्द की भी टीकाएं उपलब्ध हैं। उत्तरपुराण (गुणभद्रकृत) के रचयिता। इस सूक्त में अन्नदान की प्रशंसा तथा अन्नदान के एक पद्य से इस स्तवन के एक पद्य का साम्य देखते
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हुए कवि का समय 11 वीं शती के आसपास अनुमेय है।
भृगु एक सूक्तदृष्टा । ऋग्वेद के नववें मंडल का 65 वां
सूक्त भृगु तथा जमदग्नि ने तथा दसवें मंडल का 19 वां सूक्त भृगु, मथित तथा च्यवन ने मिलकर रचा है I
भृगु के जन्म के संबंध में भिन्न भिन्न मत है, परंतु सामान्यतः ब्रह्मदेव से उनकी उत्पत्ति बतलाई जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, महाभारत, भागवत और पुराणों में उनकी उत्पत्ति की कथाएं हैं।
ऋग्वेद में उल्लेख है कि भृगु ने मानव जाति के उपयोग के लिये अग्नि का आविष्कार किया। भृगु शब्द भृज् धातु से बना है, जिसका अर्थ भूनना है। महाभारतकार भृगु शब्द की उत्पत्ति भृक् धातु से बतलाते हैं, जिसका अर्थ ज्वाला है। ऋग्वेद ने मातरिश्वा को अग्नि का आविष्कारकर्ता बतलाया है। एक ही तत्त्व के दो आविष्कार होने से, प्रश्न निर्माण होता है कि दोनों के आविष्कार की क्या विशेषता है। इसका समाधान इस प्रकार है : मातारिश्वा ने भौतिकशास्त्र की दृष्टि से तथा भृगु ने व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से अग्नि का आविष्कार किया।
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I
भोज (भोजराज ) परमारवंशीय धारा- नरेश संस्कृत भाषा के पुनरुद्धारक । इन्होंने अनेक शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्होंने ज्योतिष संबंधी 'राजमृगांक' नामक ग्रंथ की रचना 1042-43 ई. में की थी। इनके पितृव्य (चाचा) महाराज मुंज की मृत्यु 994 से 997 ई. के मध्य हुई थी । तदनंतर इनके पिता सिंधुराज सिंहासनारूढ हुए और कुछ दिनों तक गद्दी पर रहे। भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह नामक राजा का समय 1055-56 ई. है क्यों कि उनका एक शिलालेख मांधाता नामक स्थान में इसी ई. का प्राप्त होता है। अतः भोजराज का समय, एकादश शतक का पूर्वार्ध माना जाना उचित है। (1018 से 1063 ई.) । राजा भोज की विद्वत्ता, गुणग्राहकता तथा दानशीलता, इतिहास प्रसिद्ध है। 'राजतरंगिणी' में काश्मीर नरेश अनंतराज व मालवाधिपति भोज को समान रूप से विद्वत्प्रिय बताया गया है ( 7-259) । उन्होंने विविध विषयों पर समान अधिकार के साथ अपनी लेखनी चलायी है और विविध विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे। इन्होंने 'श्रृंगार-मंजरी' नामक कथा- काव्य व 'मंदारमरंदचपू' काव्य का भी प्रणयन किया है। वास्तुशास्त्र पर इनका 'समरांगण सूत्रधार' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें 17 हजार श्लोक हैं। 'सरस्वती- कंठाभरण' (बृहत्शब्दानुशासन) नामक इनका व्याकरण संबंधी ग्रंथ प्रसिद्ध है जो 8 प्रकाशों में विभक्त है। इन्होंने 'युक्तिप्रकाश' व 'तत्त्वप्रकाश' नामक धर्मशास्त्रीय ग्रंथों की रचना की है, और औषधियों विषयक 'राजमार्तंड' नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें 418 श्लोक हैं। इनकी योगसूत्र पर 'राजमार्तंड' नामक टीका भी प्राप्त होती है।
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काव्याशास्त्र पर भोजराज ने 'शृंगार-प्रकाश'
और
'सरस्वती - कंठाभरण' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे हैं। इन ग्रंथों में तद्विषयक सभी विषयों के विस्तृत विवेचन के साथ कई नवीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं। श्रृंगार को मूल रस मान कर, भोज ने अलंकार - शास्त्र के इतिहास में नवीन व्यवस्था स्थापित की है। इन्होंने पूर्ववत सभी काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का विवेचन करते हुए समन्वयवादी परंपरा की स्थापना की है। इसी दृष्टि से इनका महत्त्व अधिक है। 1
भोजराज की बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित 16 वीं शती के बल्लाल सेन ने 'भोज-प्रबंध' नामक एक अनूठे काव्य का प्रणयन किया है। इस प्रबंध में भोजराज की विभिन्न कवियों द्वारा की गई प्रशस्ति का कथात्मक वर्णन है। उन में से कुछ कथाएं
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भोजकथा 1 एक दिन राजा भोज की सभा में घोर दारिद्रय का अनुभव करते हुए प्रकाण्ड विद्वान् कवि क्रीडाचन्द्र उपस्थित हुए । उनकी यह अवस्था देखकर कालिदास ने बड़े आदर से उनकी पूछताछ की तथा ऐसी दशा होने का कारण पूछा। क्रीडाचन्द्र ने बताया द्रव्य का संचय कर दान न देने वाला धनी भी दरिद्रों की संख्या में अग्रगण्य होता है। अपेय जल संचय करने वाला समुद्र भी मरुस्थल के समान है।
यह सुनकर कालिदास, वररुचि, मर आदि विद्वानों ने उसकी प्रशंसा की तथा राजा ने उन्हें बीस हाथी और पांच गांव भेंट किये।
पढा
भोजकथा - 2 अपनी दानशूरता पर राजा भोज ने गर्व का अनुभव किया। इसे जानकर उनके अमात्य ने विक्रमार्क के चरित्र का कुछ भाग राजा के सम्मुख रखा । उसने यह भाग 'राजा विक्रमार्क ने प्यास लगने पर दासी द्वारा पानी मंगवाया। उसने वह पानी हल्का, मधुर तथा शीतल ओर सुगंधित हो ऐसा आदेश दिया। यह सुनकर वैतालिक मागध ने कहा- 'हे देव, आपके मुख में सरस्वती ( देवी, नदी) का नित्य वास है। आपके शौर्य की याद दिलाता है समुद्र जो अंगूठी से युक्त है। वाहिनी ( सेना, नदी) आपके पार्श्व में नित्य उपस्थित है। आपका मानस (चित्त, सरोवर) स्वच्छ है 1 इतना होते हुए आपको पानी पीने की इच्छा कैसे हुई। विक्रमार्क ने इस उक्ति पर प्रसन्न होकर उस वैतालिक को प्रभूत सुवर्ण, मोती, एक करोड़ घोड़े, पचास हाथी, सौ वारांगनाएं आदि, जो पाण्ड्य राजा से यौतक में प्राप्त हुआ था, इनाम दे दिया।
यह विक्रमार्क की दान सीमा पढकर भोज का गर्व निरस्त हुआ। भोजकथा - 3 धारा के सिंधुल राजा को वृद्धावस्था में भोज नामक पुत्र हुआ। सिंधुल ने वृद्धावस्था के कारण राज्य का भार दूसरों को सौपने का विचार किया। छोटा भाई मुंज बडा शक्तिशाली था तथा भोज पांच वर्ष का बालक था। इस
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 401
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अवस्था में उसने अमात्यों से मंत्रणा कर राज्यभार मुंज को सौंपा और भोज को उसकी गोद में दे दिया।
एक बार उसकी सभा में एक सर्वविद्यापारंगत ज्योतिषी आया। मुंज ने उसे भोज का फलित बताने की इच्छा प्रकट की। तब उस महापण्डित ने कहा कि भोज गौडसहित दक्षिणापथ का राज्य करेगा।
यह जानकर राजा मुंज ने चौंक कर किसी प्रकार भोज को अपने मार्ग से अलग करना निश्चित किया। वंगदेश के वत्सराज को बुलवा कर आदेश दिया कि वह भुवनेश्वरी वन में भोज की हत्या कर दे तथा उसका कटा हुआ सिर राजा को लाकर दिखावे। वत्सराज के बहुत समझाने पर भी मुंज ने अपना आदेश नहीं फेरा तथा वत्सराज को आदेश पालन के लिये बाध्य किया। बेचारा वत्सराज भोज को साथ लेकर भुवनेश्वरी वन की और प्रस्थित हुआ। इधर भोज को उसका वध करने ले जाया गया यह जानकर धारावासी जनता अतिप्रक्षुब्ध हुई।
इधर वत्सराज भोज को भुवनेश्वरी वन में महामाया मंदिर के पास ले गया। उसे उसके पितृतुल्य चाचा का आदेश सुनाया गया। भोज ने एक वटवृक्ष के पत्र पर अपने रक्त से एक संदेश लिख कर राजा मुंज को देने के लिये वत्सराज को सौपा। फिर उसने वत्सराज को शीघ्र ही मुंज की आज्ञा का पालन करने को कहा। भोज के देदीप्यमान मुख को देखकर वत्सराज करुणा से ओतप्रोत हो गया। उसने भोज को अपने घर में सुरक्षित रखा और एक कृत्रिम सिर बनवा कर राजा मुंज को दिखाया और साथ-साथ भोज का संदेश भी उसने मुंज को दिया। मुंज ने वह संदेश पढा -
'मान्धाता स महीपतिः कृतयुगालंकारभूतो गतः । सेतुर्येन महोदधौ विरचितः क्वाऽसौ दशास्यान्तकः । अन्ये चापि युधिष्ठिरप्रभृतयो याता दिवं भूपते । नैकेनापि समं गता वसुमती मुंज त्वया यास्यति । संदेश पढ़कर मुंज बेहोश हुआ। जब वह होश में आया तो अपने को महापापी कहते हुए पुत्रघात के प्रायश्चित्त के । लिये वह उद्युक्त हुआ। तब वत्सराज ने बुद्धिसागर अमात्य से विचारणा कर तथा उसे सत्य घटना बताकर भोज को मुंज के सम्मुख उपस्थित किया। मुंज अपने किये पर पछताते हुए भोज के सम्मुख बहुत रोया। भोज ने उसे आश्वस्त किया।
इसके उपरान्त मुंज ने स्वयं भोज का राज्याभिषेक कर अपना पुत्र जयन्त, भोज को सौप दिया और स्वयं तपोवन में चला गया। भोज कथा- 4 एकबार मृगया के परिश्रम से थक कर भोज जंगल में एक वृक्ष के नीचे विश्रांति के लिये बैठ गये। उन्हें बडी प्यास लगी थी तथा पानी का कहीं पता नहीं था। धूप भी बड़ी तेज थी। इस से राजा बडे विकल थे। इतने में एक सुंदर गोपकन्या वहां से धारा नगरी की ओर जाती उन्हें
दिखाई दी। उसके सिर पर रखे पात्र में छाछ था ओर वह उसे बेचने जा रही थी।
उस पात्र में कोई पेय हो तो पीने की आशा से राजा ने उस कन्या से पूछा- 'तुम्हारे पात्र में क्या है। उसने उत्तर दिया___ हे नृपराज, हिम, कुन्द या चन्द्रमा के समान शुभ्र, पके हुए कपित्थ (केथ) के समान स्वाद वाला, युवति के हाथों मंथा हुआ, तथा रोगहर यह छाछ पीजिये।
तक्रपान कर राजा बडे प्रसन्न हुए तथा उस कन्या से पूछा- 'क्या चाहती हो'। उसने तुरन्त जबाब दिया- 'राजन् जिस प्रकार चंद्रविकासि कमल चंद्रमा को, चातक वृन्द मेघ को, भौरों की श्रेणी सुगंधि फूलों को या स्त्री अपने परदेशगमन किये प्राणेश्वर को देखने उत्कण्ठित रहते हैं, उसी प्रकार मेरी चित्तवृत्ति आपको देखने के लिये लालायित रहती है।'
उसका आशय जानकर राजा उसे अपने साथ धारा नगरी को ले गए तथा रानी लीलावती की अनुज्ञा से उस गोपकन्या को राजा ने अपनाया। भोलानाथ गंगटिकरी - ई. 20 वीं शती। बंगाली। 'पान्थदूत' नामक दूतकाव्य के रचयिता। मंख (मंखक) - समय-सन 1120 से 1170। पिता-विश्ववर्त (या विश्वव्रत)। काश्मीर के निवासी। राजतरंगिणी के अनुसार ये काश्मीर के राजा जयसिंह (सन् 1127 से 1149) के संधिविग्रहिक मंत्री थे। सुप्रसिध्द अलंकारशास्त्री रुय्यक इनके गुरु थे। गुरु के आदेश पर इन्होंने 'श्रीकंठ-चरित' की रचना की। 25 सगों के इस महाकाव्य में शंकर द्वारा त्रिपुरासुर के वध की कथा है।
महाकाव्य के 25 वें सर्ग में, कवि द्वारा उनके बंधु मंत्री अलंकार के यहां होने वाली विद्वत्सभा तथा उसमें भाग लेने वाले तीस विद्वद्रत्नों का विस्तृत वर्णन है। उसमें आनंद, कल्याण, गर्ग, गोविंद, जल्हण, पट, पद्मराज, भुडु, लोष्ठदेव, कल्याण, गग, गाविद, जल्हण, पट, पद्मराज, मुड बागीश्वर, श्रीगर्भ तथा श्रीवत्स नामक कवियों का उल्लेख है।
इन्होंने 'मंखकोश' नाम से एक शब्दकोश भी लिखा है। हेमचंद्र ने इसका उल्लेख अपने कोश में किया है। कोश में इन्होंने किसी भी विशिष्ट शब्द का उपयोग विशद करते समय अभिजात संस्कृत वाङ्मय के अवतरण उद्धृत किये हैं। यह इस कोश की विशेषता है। कोश अप्रकाशित है।
'श्रीकंठचरित' का प्रकाशन काव्यमाला से 1887 ई. में हो चुका है। इस महाकाव्य के कतिपय स्थलों पर आलोचनात्मक उक्तियां भी प्रस्तुत की गई हैं जिनमें मंखक की कवि एवं काव्य-संबंधी मान्यताएं निहित हैं। मंगराज - जन्मस्थान मुगुलिपुर (मैसूर)। संस्कृत और कन्नड के विद्वान्। ग्रंथ-खगेन्द्रमणि-दर्पण (विष-चिकित्सा का ग्रंथ)। 16 अधिकारों में विभक्त । ग्रंथ का अपर नाम जीवित-चिन्तामणि ।
402 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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मंगरुलकर, गंगाधरशास्त्री (गंगाधर कवि) - नागपुर की पण्डित-परम्परा में उल्लेखनीय व्यक्ति । जन्म- ई. 1790। पिता- विठ्ठलशास्त्री। नागपुर के भोसले (रघूजी) के पुराणवाचक । ग्रन्थरचना- भामाविलास, गुरुतत्त्वविचार, रामप्रमोद, अपराधमार्जन, राधाविनोद, गणेशलीला, विलासगुच्छ, रतिकुतूहल, प्रसन्नमाधव, चित्रमंजूषा, गंगाष्टपदी, संगीतराघव। इन काव्यों में संगीतराघवम् गेय है। शंकराचार्यजी की आनन्दलहरी पर इनकी गद्य-पद्य टीका भी है। इनका हस्तलिखित साहित्य नागपुर वि.वि. संग्रहालय में सुरक्षित है। मंगलगिरि कृष्णद्वैपायनाचार्य- ई. 20 शती का प्रथम चरण। कौशिक गोत्री। आन्ध्रप्रदेश के विजयपटनम् के निवासी। पिता-वेंकटरमणाचार्य मैसूर राज्य में प्रसिद्ध थे। कृतियांश्रीकृष्णदानामृत (नाटक), वसन्तमित्र (भाण), श्रीकृष्ण-चरित (काव्य) और हयग्रीवाष्टक (स्तोत्र)। तेलगु रचनाएंराका-परिणय, एकावली और पार्वतीपति-शतक । मंडनमिश्र - ई. 7 वीं शती का उत्तरार्ध। कुमारिल भट्ट के शिष्य। पिता- हिममित्र । शुल्क यजुर्वेदी काण्वशाखीय ब्राह्मण । कोई इन्हें मिथिला का तो कोई महिष्मती का (मध्यप्रदेश में नर्मदा के तट पर बसा हुआ महेश्वर नामक स्थान) निवासी बतलाते हैं। शोण नदी के तीर पर रहने वाले विष्णुमित्र नामक विद्वान् ब्राह्मण की विदुषी कन्या अंबा इनकी पत्नी थी। उस विदुषी को लोग 'भारती' के नाम से पहिचानते थे। इनके
जयामश्र भी मीमांसा दर्शन के प्रकांड पंडित थे। ये वैदिक कर्मकाण्ड के निष्ठावान् उपासक थे। तत्कालीन कर्मकांडी मीमांसक पंडितों में इनका स्थान सर्वश्रेष्ठ था।
ये आद्य शंकराचार्य के समकालीन थे। इन्होंने मीमांसा-दर्शन पर निम्न ग्रंथों की रचना की है - 1. विधिविवेक - इसमें विध्यर्थ का अनेक पहलुओं से विचार किया गया है। 2. भावनाविवेक - इसमें आर्थी भावना की विस्तारपूर्वक मीमांसा है। 3. विभ्रमविवेक- इसमें पांच ख्यातियों का विवरण है। 4. मीमांसासूत्रानुक्रमणी - इसमें मीमांसासूत्रों की श्लोकों में संक्षिप्त व्याख्या है। इन्होंने वेदांत पर ब्रह्मसिद्धि तथा स्फोटसिद्धि नामक दो और ग्रंथ लिखे हैं। दोनों ग्रंथों में अद्वैत तत्त्वज्ञान के सिद्धान्तों की चर्चा है। जीवन के पूर्वार्ध में मीमांसा तत्त्वज्ञान के अनुसार इनका आचार-विचार रहा, परंतु उत्तरार्ध में शंकराचार्य की प्रेरणा से ये वेदान्तनिष्ठ बने।।
शंकराचार्य से संन्यास धर्म की दीक्षा ग्रहण करने पर ये सुरेश्वराचार्य के नाम से विख्यात हुए परंतु कुछ विद्वानों का मत है कि मंडन मिश्र और सुरेश्वराचार्य भिन्न व्यक्ति है।
मंडन-मिश्र और शंकराचार्य के वाद-विवाद की आख्यायिका सुप्रसिद्ध है। एक बार जब शंकराचार्य की कुमारिल भट्ट से
भेंट हुई, तब उन्होंने अपना ब्रह्मसूत्र पर लिखा हुआ भाष्य कुमारिल भट्ट को दिखाया। कुमारिल भट्ट ने आचार्य से कहा कि वे अपना भाष्य मंडन मिश्र को दिखायें। यदि उन्होंने उनके अद्वैतसिद्धान्त को मान्यता दे दी, तो उसके विश्वमान्य होने में कोई अडचन नहीं रहेगी। कुमारिल भट्ट के कथनानुसार आचार्य अपनी शिष्य-मंडली के साथ माहिष्मती पहुंचे। वहां मंडन मिश्र का आवास ढूंढने के लिये अकेले ही चल पडे। मार्ग में एक दासी से आचार्य ने मंडन मिश्र का पता पूछा। दासी ने आचार्य से कहा कि वे जिस मार्ग से जा रहे है उसी से आगे जावे तथा जिस प्रासाद उसी से आगे जावें तथा जिस प्रासाद के सामने --
जगद् ध्रुवं स्याज्जगदधुवं स्यात् कीराङ्गना यत्र गिरं गिरन्ति ।
द्वारस्थनीडान्तरसन्निरुद्धा जानीहि तन्मण्डनपण्डितौकः ।। विश्व शाश्वत है या अशाश्वत है (मीमांसकों के मत से जगत् शाश्वत है तथा वेदांतियों के मत से जगत अशाश्वत है) ऐसी चर्चा जिसके द्वार पर टंगे हुए पिंजरे की मैनायें करती हों, वही आप समझिये कि मंडन पंडित का घर है।
दासी द्वारा बताये गये लक्षण के अनुसार आचार्य मंडन-मिश्र के घर पहुंचे। उस समय मंडन मिश्र अपने पिता के श्राद्धकर्म में लगे हुए थे। श्राद्ध के समय यतिदर्शन निषिद्ध माना जाता है। अतः मंडन मिश्र यतिवेष में आचार्य को देखकर अत्यंत कुद्ध हुए। दोनो में शाब्दिक नोंकझोंक हुई। अंत में मंडन-मिश्र ने यति को भिक्षा देने को कहा। तब शंकराचार्य ने कहा, 'मुझे अन्नभिक्षा नहीं, वाद-भिक्षा चाहिये। मंडन मिश्र ने आचार्य की चुनौती मान ली। शास्त्रार्थ में हार-जीत का निर्णय करने के लिये वहा उपस्थित व्यास-जैमिनि ने मंडनपत्नी भारती को ही पंच नियुक्त किया। दूसरे दिन दोनों के बीच शास्त्रार्थ प्रारंभ हुआ। शंकराचार्य ने निम्न प्रमेय रखा :
'इस जगत में एक ब्रह्म ही सत्, चित्, निर्मल तथा यथार्थ वस्तु है। वही ब्रह्म, सीप पर भासमान होनेवाली रजत की आभा-सदृश स्वयं जगद्प में भासमान है। जैसे सीप की रजतआभा मिथ्या है, वेसे ही यह जगत् भी मिथ्या है। अतः ब्रह्मज्ञान आवश्यक है। उस ज्ञान से प्रपंच का विनाश होकर मनुष्य जगत् के बाह्य जंजाल से मुक्त होगा, अपने विशुद्ध रूप में प्रतिष्ठित होगा तथा जन्म-मरण के चक्र से अर्थात् संसारपाश से मुक्त होगा। इस प्रकार मेरा अद्वैत का सिद्धान्त है। श्रुति इसका प्रमाण है।' - अपने सिद्धान्त का मंडन करने के पश्चात् आचार्य ने कहा, मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं शास्त्रार्थ में पराजित हुआ, तो में सन्यास धर्म छाडकर गृहस्थाश्रम स्वीकार करूगा।
इसके बाद मंडनमिश्र ने अपना निम्नलिखित प्रमेय प्रतिपादित किया :
वेदों का कर्मकांड ही प्रमाण है। ज्ञानकाण्ड (उपनिषद्) को मै प्रमाण नहीं मानता क्यों कि वह चैतन्यस्वरूप ब्रह्म का
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /403
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प्रतिपादन कर, सिद्धवस्तुओं का वर्णन करता है। विधि का प्रतिपादन ही वेदों का तात्पर्य है। परंतु उपनिषद् विधि का वर्णन न कर केवल ब्रह्मस्वरूप का ही प्रतिपादन करते हैं इसलिये प्रमाणकोटि में नहीं गिने जा सकते। शब्दों की शक्ति कार्यमात्र के प्रकटन में है तथा दुःख से मुक्ति कर्म द्वारा ही संभव है। इसलिये प्रत्येक मनुष्य को जीवन भर कर्मानुष्ठान में रत रहना चाहिये। यह मेरा वेदोक्त सिद्धांत है। इसके पश्चात् मंडन-मिश्र ने कहा, 'मैं प्रतिज्ञा करता हूं कि यदि मैं शास्त्रार्थ में हार गया, तो में गृहस्थाश्रम का त्याग कर संन्यास धर्म ग्रहण करूंगा' |
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शास्त्रार्थ में मंडन मिश्र की हार हुई। उनकी धर्मपत्नी भारती ने आचार्य की विजय की घोषणा की तथा शंकराचार्य से कहा, 'मेरे पति को शास्त्रार्थ में पराजित करने मात्र से आपको पूर्ण विजय प्राप्त नहीं होगी, मैं उनकी अर्धांगी हूं, अतः मुझसे शास्त्रार्थ कर यदि मुझे भी हरा सके तो ही आपकी जीत पूर्ण होगी।'
शंकराचार्य ने भारती का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया। बहुत समय तक दोनों के बीच शास्त्रार्थ चलता रहा। अंत में भारती ने आचार्य से कामशास्त्रविषयक प्रश्न पूछकर आचार्य को निरुत्तरित कर दिया। तब आचार्य ने प्रश्न का उत्तर देने के लिये 6 मास का समय मांगा। इस बीच उन्होंने परकाया प्रवेश कर कामशास्त्रविषयक ज्ञान प्राप्त किया ओर प्रत्यावर्तन कर भारती को उस शास्त्र में भी हराया। इसके पश्चात् मंडन मिश्र ने शंकराचार्य से संन्यास धर्म की दीक्षा ग्रहण की और उनके कार्य में जुट गए। मंडपाक पार्वतीश्वर समय- सन् 1833 से 1897। पिता कामकवि माता जोगम्मा। इनका जन्म विशाखापट्टण के समीप पालतेरू नामक देहात में हुआ था । बोब्बिल राजा के दरबार में ये विद्वत्कवि थे। इनके संस्कृत तथा तेलगु भाषा में 80 गद्यरूप एंव पद्यरूप ग्रंथ प्रकाशित हुए हैं।
कविता- विनोद-कोश, सीता नेतृ-स्तुति, काशीश्वराष्टकम्, श्रीवेंकटगिरिप्रभुद्वयर्थिश्लोक कदंब आदि इनकी संस्कृत रचनाएं हैं। मंदिकल रामशास्त्री 'मेघप्रतिसंदेशकथा' नामक संदेश काव्य के प्रणेता । मैसूर राज्य के अंतर्गत मंदिकल नामक नगरी में 1849 ई. में इनका जन्म हुआ। पिता- वेंकटसुब्बा शास्त्री, जो रथीतर - गोत्रोत्पन्न ब्राह्मण थे। माता अक्काम्बा महाराज कृष्णराज के सभा - पंडित । महाराज से अग्रहार प्राप्त। बहुत दिनों तक ये शारदा - विलास संस्कृत पाठशाला मैसूर में अध्यक्ष पद पर विराजमान रहे। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। वे हैं आर्यधर्म-प्रकाशिका, नलविजय, चामराज-कल्याणचंपू, चामराज- राज्याभिषेक चरित्र, कृष्णराज्याभ्युदय, भैमी- परिणय (नाटक) और कुंभाभिषेकचंपू । शास्त्रीजी को अनेक संस्थाओं एवं व्यक्तियों के द्वारा कविरत्न, कवि-कुलालंकार, कवि
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404 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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शिरोमणि, कवि - कुलावतंस आदि उपाधियों से विभूषित किया
गया था।
मत्स्येन्द्रनाथ नाथ संप्रदाय के प्रवर्तक। इनके नाम के साथ इतनी अद्भुत आख्यायिकाएं जुड़ी हैं कि उनका विश्वसनीय चरित्र लिखना कठिन है। उनके जीवन संबंधी कुछ कथाएं इस प्रकार हैं
(1) एक बार एक द्वीप में एकांत में बैठे हुए शंकर, पार्वती को योग का उपदेश दे रहे थे। समीप ही बहने वाले जलप्रवाह में विचरण करने वाली मछली ने उनका वह उपदेश सुन लिया। उसका मन इतना एकाग्र हो गया कि उसे निश्चलावस्था प्राप्त हुई। भगवान् शंकर ने उसकी वह अवस्था देखकर उस पर अनुग्रहपूर्वक जलप्रोक्षण किया। मत्स्य का मत्स्येंद्रनाथ बन गया।
(2) भगवान् शंकर द्वारा अपने गले में धारण की गयी मुण्डमाला के मुण्ड उनके पूर्वजन्मों के हैं, यह रहस्य जय नारद मुनि से जगन्माता पार्वती को ज्ञात हुआ, तब उन्हें भगवान् शंकर के पूर्वजन्म के बारे में जानने की जिज्ञासा हुई। उन्होंने अपनी इच्छा शिव के सामने प्रकट की। अपने पूर्वजन्म का रहस्य बतलाने के लिये शिवजी ने समुद्र में एकांत स्थान ढूंढा । संयोग से उसी समुद्र में 12 वर्षो से मछली के पेट में पलने वाले एक बालक ने वह शिव-पार्वती संवाद सुन लिया। वह बालक किसी भृगुवंशीय ब्राह्मण के यहां गंडांतरयोग पर पैदा होने के कारण पिता द्वारा समुद्र में फेंक दिया गया था, तथा उसे मछली ने निगल लिया था । अपना संवाद बालक ने सुन लिया है यह ज्ञात होने पर शिव ने उस पर कृपा की। वह बालक महासिद्ध अवस्था में मछली के पेट से बाहर निकला। वही मस्त्येन्द्रनाथ (मच्छिंद्रनाथ) के नाम से विख्यात हुआ।
(3) मच्छिंद्रनाथ और गोरखनाथ गुरु-शिष्य थे। एक बार घूमते हुये दोनों प्रयाग में पहुंचे। उस समय वहां के राजा की मृत्यु हो गयी थी । सारी प्रजा शोकसागर में डूब गयी थी । गोरखनाथ प्रजा का दुःख देखकर द्रवित हुए तथा उन्होंने अपने गुरु से अनुरोध किया कि वे राजा के मृत शरीर में प्रवेश कर उसे जीवित करें। मच्छिंद्रनाथ ने शिष्य का अनुरोध स्वीकार कर लिया।
इधर गोरखनाथ मच्छिंद्रनाथ के निर्जीव शरीर की रक्षा करते रहे, उधर मच्छिंद्रनाथ राजपाट तथा आमोद-प्रमोद में आकंठ डूब गये। बारह वर्षों के बाद रानियों को इस रहस्य का पता चला। उन्होंने मच्छिंद्रनाथ के शरीर के टुकडे-टुकडे करवा डाले तथा उन्हें चारों ओर फिंकवा दिया। भगवान् शिव को यह ज्ञात होते ही उन्होंने अपने अनुचर वीरभद्र को उन टुकडों को एकत्र कर लाने को भेजा। वीरभद्र ने अपने स्वामी की आज्ञा का पालन किया।
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गोरखनाथ को इस बात का पता चला। वे वीरभद्र के निकट गये और उन्होंने मच्छिंद्रनाथ के देहखंड उनसे मांगे। वीरभद ने अस्वीकार किया। तब गोरखनाथ ने वीरभद्र तथा उनके साथियों से युद्ध कर अपने गुरु के देहखंड उनसे छीन लिये। गोरखनाथ ने संजीवनी-विद्या से देहखंडों को शरीराकृति प्रदान की ओर गुरु के पास संदेश भेजा। तब गुरुजी राजशरीर का त्याग कर अपने मूल शरीर में प्रविष्ट हुए।
डा. हजारीप्रसाद द्विवेदी ने इन आख्यायिकाओं तथा कथाओं का परिशीलन कर यह निष्कर्ष निकाला है कि मच्छिंद्रनाथ योगमार्ग के प्रवर्तक थे परंतु दैववशात् वे एक ऐसी वामाचार-साधना में प्रविष्ट हो गए जिसमें निराबाध स्त्री-संग अनिवार्य था।
मत्स्येन्द्रनाथ के जन्मकाल के संबंध में मतभेद है। अनेक इतिहासवेत्ताओं का मत है कि वे 8 वीं, 9 वीं या 10 वीं शताब्दी में हुए हैं। इनके संप्रदाय में (1) कौलमत के ग्रंथों और (2) नाथमत के ग्रंथों को मान्यता है। कौलमत के ग्रंथ, कौलज्ञाननिर्णय, अकुलवीरतंत्र, कुलानंदतंत्र, तथा ज्ञानकलिका। इनके अतिरिक्त कामाख्यगुह्यसिद्धि, अकुलागमतंत्र कुलार्णवतंत्र, कौलोपनिषद्, ज्ञानकलिका कौलावलिनिर्णय आदि ग्रंथ भी मत्स्येन्द्रनाथ द्वारा रचित बताये जाते हैं। ये सारे ग्रंथ नेपाल के शासकीय ग्रंथालय में उपलब्ध है। __नाथमत के ग्रंथों में योगविषयक ग्रंथों तथा कुछ रचनाओं का समावेश है। नेपाल के नेवार लोग मत्स्येन्द्रनाथ को बहुत मानते हैं। ये लोग "कृषिदेव" के रूप में इनकी पूजा करते हैं। इसके लिये लकडी के पिण्ड को लाल रंग देकर उत्सवमूर्ति निर्माण करते है। नेपाल में मच्छिंद्रनाथ पर बौद्धमत का प्रभाव पडा है और उन्हें अवलोकितेश्वर का अवतार माना जाता है। पाटण में तथा बाघमती के तीर पर मच्छिंद्र का एक-एक मंदिर है। नेवारों की धारणा है कि मच्छिंद्रनाथ क्रमशः 6-6 महिने इन मंदिरों में रहते है। किंवदन्ती है कि जब एक बार नेपाल में अकाल पडा, तब गोरखनाथ मच्छिंद्रनाथ को बाघमती के तौर पर ले गये। उनके वहां जाने से अकाल दूर हो गया। श्रद्धालु नेवार इस मंदिर को मच्छिंद्रनाथ का प्रमुख निवासस्थान मानते हैं। गुरखा लोग भी इनकी उपासना करते हैं। मथित यामायन - एक सूक्तद्रष्टा। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 19 वें सूक्त के रचयिता। भृगु, च्यवन भी इसी सूक्त के रचयिता हैं। इस सूक्त में विनष्ट हुआ गोधन पुनः प्राप्त करने की दृष्टि से प्रार्थना की गयी है। मथुरानाथ - नवद्वीप (बंगाल) के एक प्रसिद्ध नव्य नैयायिक।। समय- ई. 16 वीं शताब्दी। इन्होंने नव्यन्याय के आलोक, चिंतामणि व दीधिति इन 3 प्रसिद्ध ग्रंथों पर, 'रहस्य' नामक टीकाएं लिखी हैं। इनकी टीकाएं दार्शनिक जगत् में मौलिक ग्रंथ के रूप में मान्य हैं। टीकाओं में मूल ग्रंथों के गूढार्थ
का सम्यक् उद्घाटन किया गया है। मथुरानाथ - इन्होंने पुष्टिमार्गीय आचार्य वल्लभ के अणु-भाष्य पर 'प्रकाश' नामक टीका लिखी है। मथुरानाथ - ई. 19 वीं शताब्दी के एक ज्योतिषशास्त्रज्ञ । पिता-सदानंद। पटना (बिहार) के निवासी। काशी संस्कृत पाठशाला में वृत्ति । काशिराज शिवप्रसाद के पितामह दयालुचंद्र का आश्रय इन्हें प्राप्त हुआ था। इन्होंने ज्योतिषविषयक यंत्रराजघटना तथा ज्योतिःसिद्धांतसार नामक दो ग्रंथों की रचना की। मथुरानाथ तर्कवागीश - समय- ई. 17 वीं शती। पिता-रघुनाथ शिरोमणि। रचनाएं- आयुर्वेदभावना, तत्त्वचिन्तामणिरहस्यम्, आलोक-रहस्यम् (पक्षधर मिश्र जयदेव के तत्त्वचिन्तामणि आलोक की टीका), दीधिति-रहस्य (पिता के ग्रंथ की टीका), सिद्धान्तरहस्य, किरणावलि-प्रकाश-रहस्य, न्यायलीलावतीप्रकाश-रहस्य, न्यायलीलावती-रहस्य, बौद्धधिक्कार-रहस्य और आदिक्रियाविवेक। मथुराप्रसाद दीक्षित (म.म.) - जन्म सन् 1878 में, भगवन्तनगर ग्राम (जिला हरदोई उ.प्र.) में। पिता-बदरीनाथ । माता- कुन्तीदेवी। पितामह- हरिहर (प्रसिद्ध आयुर्वेदाचार्य) पत्नी-गौरीदेवी। पुत्र-सदाशिव दीक्षित (संस्कृत नाटककार)। इनकी कृतियों की संख्या 24 हैं, जिनमें 6 नाटक हैं।
कृतियां :- निर्णय-रत्नाकर, नारायण-बलि-निर्णय, काशीशास्त्रार्थ, कुतर्क-तरु-कुठार, कलिदूतमुखमर्दन, जैनरहस्य, कुण्डगोलनिर्णय, मन्दिर-प्रवेश-निर्णय, आदर्श-लघुकौमुदी, वर्णसंकर-जाति-निर्णय, पणिनीय-सिद्धान्त-कौमुदी, मातृदर्शन, समास-चिन्तामणि, केलिकुतूहल, प्राकृतप्रकाश, रोगिमृत्यु-विज्ञान, गौरी-व्याकरण, पृथ्वीराजरासो की टीका, पालि-प्राकृत व्याकरण
और कविता-रहस्य। ___ अप्रकाशित नाटक - वीर-प्रताप, वीर-पृथ्वीराज-विजय, भारत-विजय, भक्त-सुदर्शन, शंकरविजय, गांधीविजय, भूभारोद्धरण। अप्रकाशित नाटक- जानकी-परिणय, युधिष्ठिरराज्य, कौरवोचित-भ्रष्टाचार-साम्राज्य। अप्रकाशित काव्यभगवत्-नख-शिख-वर्णनशतक, नारद-शिव-वर्णन। इनके अतिरिक्त, 'अभिधान-राजेन्द्र-कोश' का अंशतः सम्पादन । 'पृथ्वीराजरासो' की गवेषणात्मक टीका पर, 'महामहोपाध्याय' की उपाधि प्राप्त। मदनपाल - कन्नौज के नृपति। चन्द्रदेव के पुत्र। इनका शिलालेख प्राप्त (1104-1109 ई. का)। रचना-आनन्दसंजीवन (संगीत-विषयक)। शब्दकोश तथा धर्मशास्त्र पर भी इनकी रचना है। मदनपाल - ई. 14 वीं शती का उत्तरार्ध । 'नूतनभोजराज' इस उपाधि से विभूषित। मदनविनोदः और मदनपारिजातः (आयुर्वेद-विषयक), तिथिनिर्णयसागर और सूर्यसिद्धान्तविवेक (ज्योतिःशास्त्र- विषयक) और मंत्रप्रकाश आदि अन्य विषयों
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 405
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के प्रन्थों के लेखक। मदनविनोद ग्रन्थ में आयुर्वेद की अनेक वनस्पतियों के गुणधर्मों का वर्णन है। मदन बालसरस्वती - ई. 13 वीं शती। गौडदेशीय। धार के परमार राजा अर्जुनदेव के गुरु । 'पारिजात-मंजरी' नामक नाटक के प्रणेता। मदभूषी वेंकटाचार्य - ई. 19-20 वीं शती। अनन्ताचार्य के पुत्र, नैध्रुवकाश्यप गोत्र, पूर्व गोदावरी जिले के सामलकोट के निवासी। रचना- अर्जुनादिमतसार (संगीत-विषयक)। अन्य रचना-शुद्धसत्त्वम् (नाटक)। मधुर कवि - वाजिवंश। भारद्वाज गोत्र । पिता-विष्ण। माता-नागाम्बिका। विजयनगर साम्राज्य के संस्थापक बुक्कराय के पुत्र हरिहर (द्वितीय- 1377-1404 ई.) के मंत्री के आश्रित कवि। दक्षिण कर्नाटक के वासी। रचना- धर्मनाथ-पुराण और गोम्मटाष्टक। मधुच्छंदा - ऋग्वेद के प्रथम मंडल के प्रथम दस तथा नवम मंडल के प्रथम सूक्त के द्रष्टा। विश्वामित्र मुनि के सौ पुत्रों में से ये 51 वें पुत्र थे। ये शांति के पुरोहित थे। इन्हें धर्मराज युधिष्ठिर द्वारा राजसूय यज्ञ के लिये आमंत्रित किया गया था। (भागवत- 10-74-9 तथा वायुपुराण 91-96)। इन्हें जेता तथा अधमर्षण नामक दो पुत्र थे। इन्होंने ऋग्वेद के लिये तथा इनके पिता ने अर्थववेद के लिये ऋचायें रचीं थी। इसलिये इन्हें अथर्ववेद तथा ऋग्वेद के बीच की कडी । मानते हैं। मधुरवाणी - समय- 17 वीं शती। कुछ लोगों के अनुसार ये तंजौर के राजा रघुनाथ नायक की पत्नी, तो कुछ लोगों के अनुसार राजसभा की कवयित्री थीं। तेलगु, प्राकृत तथा संस्कृत पर इनका समान रूप से अधिकार था तथा वे तीनों भाषाओं में कवितायें करती थीं। ये समस्यापूर्ति में अत्यंत निपुण थीं। ये वीणा उत्तम बजाती थीं तथा कहा जाता है कि उसके कारण ही इनका नाम मधुरवाणी प्रचलित हुआ। इन्होंने एक तेलगु रामायण का संस्कृत रूपांतर किया है। प्रस्तत रूपांतर की संदर कांड तक की रचना उपलब्ध है। इस रूपांतर के विषय में एक किंवदन्ती प्रचलित है। एक बार रघुनाथ की राजसभा में उनके द्वारा रचित तेलगु रामायण का पाठ हो रहा था। उस समय वहां उपस्थित कवयित्रियों से राजा ने पूछा कि क्या उनमें से कोई उस काव्य का संस्कृत में रूपांतर कर सकती है। कोई प्रस्तुत्तर नहीं मिला परंतु रात्रि को राजा को स्वप्न में दृष्टांत हुआ कि वह मधुरवाणी से उस काव्य का संस्कृत में रूपान्तर करवा ले। राजाज्ञा से मधुरवाणी ने वह काम पूर्ण किया। मधुसूदन - कृष्णसरस्वती के शिष्य । नारायण के पुत्र । रचनाकृष्णकुतूहलम्। मधुसूदनजी ओझा (समीक्षा चक्रवर्ती) - जन्म ई. 1845
में, बिहार प्रान्त के गाढा ग्राम (जिला मुजफरपुर) में। पितापं. बैद्यनाथ ओझा, उच्च क्षेणी के विद्वान । सन्तानहीन काका के दत्तक पुत्र । जयपुर राज्य-पण्डित काका के पास अध्ययन । जयपुर नरेश तथा काका के देहान्त से अपने पिता के घर वापिस लोटे। वाराणसी में आगे का अध्ययन किया। 17 वर्ष की आयु में विवाह । अध्ययनोपरान्त अनेक संस्थानों में परिभ्रमण के बाद जयपुर के महाराजा संस्कृत कालेज में वेदान्त के प्राध्यापक, राजग्रन्थालय के प्रमुख तथा धर्मसभाध्यक्ष हुए। जयपुर-नरेश के साथ सन् 1902 में इंग्लैड का प्रवास हुआ। वहां केम्ब्रिज वि.वि. में संस्कृत में वेद-विज्ञान तथा वेद-इतिहास पर व्याख्यान। मैकडोनेल, बेंडाल आदि विद्वानों द्वारा महान् सत्कार। सन् 1915 में 70 वर्ष की आयु में देहान्त । लगभग 50 वर्षों तक वैदिक विज्ञान तथा इतिहास का अन्वेषण कर क्रमबद्ध सूत्र तैयार किया। अतः इन्हें आधुनिक ऋषि मानते हैं। मधुसूदनजी ने प्रभूत मात्रा में लेखन कार्य किया। उनके पुत्र प्रद्युम्नजी ओझा ने लगभग 50 ग्रन्थ प्रकाशित किये। अभी भी अप्रकाशित हस्तलिखितों की सूची बडी है। इनकी रचनाएं योजनाबद्ध थीं। रचनाएं- ब्रह्म-विज्ञान-खण्ड- (उपविभाग दिव्य-विभूति)।
1. जगद्गुरु-वैभव, 2. स्वर्गसन्देश, 3. इन्द्रविजय (उप विभाग-उक्थवैराजिक)- 4. सदसद्वाद, 5. व्योमवाद, 6. अपरवाद, 7. आवरणवाद, 8. अम्भोवाद, 9. अहोरात्रवाद, 10. संशयतदुच्छेदवाद, 11. दशकवाद-रहस्यम्। (उप विभाग-आर्यहृदयसर्वस्व)- 12. गीताविज्ञानभाष्यस्य प्रथम रहस्य-काण्डम्, 13. गीताविज्ञान. द्वितीय-रहस्य-काण्डम, 14. गीता.- तृतीयं आचार्यकाण्डम्, 15. गीता- चतुर्थ हृदयकाण्डम्, 16. शारीरक-विज्ञान भाष्यस्य प्रथमः भागः, 17. शारीरकद्वितीयः भागः, 18. शारीरकविमर्शः (उपविभाग-विज्ञानप्रवेशिका)19. विज्ञान-विद्युत्, 20. ब्रह्मविज्ञान-प्रवेशिका, 21. ब्रह्मविज्ञानम् । (उपविभाग-सायन्य प्रदीप) 22. पंचभूतसमीक्षा, 23३. वस्तुसमीक्षा, यज्ञ-विज्ञानखंड (उ.वि.-निचित्कलाप) 24. देवतानिवित्। (उ.वि.-यज्ञमधुसूदन) 25. स्मार्तकुण्डसमीक्षाध्याय । 26. यज्ञोपकरणाध्याय, 27. यज्ञविटपाध्यायः, 28. कमनिक्रमणिकाध्याय, 29. आधिदैविकाध्याय । (उ.वि.-यज्ञविज्ञान- पद्धति) 30. यज्ञसरस्वती, 31. छन्दोभ्यस्ता, (उ.वि.-प्रयोग-पारिजात) 32. निरूढ पशुबद्ध, पुराणसमीक्षाखंड- (उ.वि.-विश्वविकास)- 33. पुराणोत्पत्ति प्रसंग, 34. ३५.वैदिक उपाख्यान, (उ.वि.-देवयुगाभास) 36. देवासुरख्याति, 37. माध्वख्याति, 38. अत्रिख्याति, (उ.वि.-प्रसंगचर्चितक) 39. पुराणाधिकरण वेदांगसमीक्षा खण्ड- (उ.वि.-वाक्यदिका)- 40. वैदिककोश, 41. पदनिरुक्त, (उ.वि.-ज्योतिश्चक्रधर)- 42. कादम्बिनी। (उ.वि.-आत्मसंस्कारकल्प)- 43. पितृसमीक्षा, 44. अशौचपंजिका, 45. धर्मपरीक्षा पंचिका, (उ.वि.-परिशिष्टानुग्रह)
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46. कौशीतक्युपनिषत्, 47. ऐतरेयोपनिषत्, 48. प्रत्यन्तप्रस्थान-मीमांसा, 49. वेदधर्मव्याख्यान, 50. वेदार्थ-श्रम-निवारण। इस ग्रन्थावली से यह स्पष्ट है कि श्री
ओझाजी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत लेखक थे। इनका लिखा जानकीहरण नामक महाकाव्य (88 पृष्ठबद्ध अभी तक अप्रकाशित है। इंग्लैण्ड में दिये व्याख्यानों को 'वेदधर्म-व्याख्यानम्' में ग्रन्थबद्ध किया है। मधुसूदन-सरस्वती - समय- ई. 17 वीं शती का पूर्वा र्ध। पिता- प्रमोदन पुरंदर । ब्राह्मण-कुल। भागवत के उपजीव्य टीकाकारों में से एक। रामचरित-मानस (तुलसी रामायण) के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदासजी के समकालीन ये अद्वैतवादी आचार्य केवल शुष्क ज्ञानमार्ग के अनुयायी पंडित नहीं थे, प्रत्युत भक्तिरस के व्याख्याता एवं भक्तिस्निग्ध हृदयसंपन्न साधक थे। भक्ति-रस की शास्त्रीय व्याख्या के निमित्त इन्होंने अपना महनीय स्वतंत्र ग्रंथ रचा है 'भक्ति-रसायन'। इसमें एकमात्र भक्ति को परम रस सिद्ध किया गया है। 'आनंद-मंदाकिनी' इनकी एक और कृति है।
'अद्वैत-सिद्धि' है इनकी मूर्धन्य रचना, जिसमें द्वैतवादियों के तर्को का खण्डन करते हुए अद्वैतमत की युक्तिमत्ता सिद्ध की गई है। इनके मतानुसार परमानंद रूप परमात्मा के प्रति प्रदर्शित रति ही परिपूर्ण रस है, और श्रृंगार आदि रसों से वह उसी प्रकार प्रबल है जिस प्रकार खद्योतों से सूर्य की प्रभा -
परिपूर्ण-रसा क्षुद्ररसेभ्यो भगवद्-रतिः ।
खद्योतेभ्य इवादित्यप्रभेव बलवत्तरा।। - (भक्तिरसायन 2-78)
मानसकार गोस्वामी तुलसीदासजी की प्रख्यात प्रशस्ति आप ही ने लिखी थी।
आनंदकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः। कवितामंजरी यस्य रामभ्रमर-भूषिता ।। इनका जन्म तो हुआ था बंगाल के फरीदपुर जिले के कोटलिपाडा नामक गाव में, परन्तु इनकी कर्मस्थली काशी ही रही। यहीं रहकर इन्होंने अपने पांडित्यपूर्ण ग्रंथ-रत्नों का प्रणयन किया।
ये वेदांत के प्रकांड पंडित, रससिद्ध कवि एवं महान् भगवद्भक्त थे। नवद्वीप में हरिराम तर्कवागीश तथा माधव सरस्वती के पास अध्ययन के पश्चात् वे काशी गये तथा वहां अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्होंने विश्वेश्वर तीर्थ से संन्यासधर्म की दीक्षा ग्रहण की।
ये अद्वैत वेदान्त के कट्टर उपासक थे। "अद्वैतसिद्धि' नामक ग्रंथ में इन्होंने अद्वैत-सिद्धान्त का मण्डन किया है। इनके पूर्ववर्ती आचायों ने अद्वैत सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिये प्रमुखता से श्रुतियों को ही प्रमाणभूत माना था, मधुसूदन
सरस्वती ने प्रधानतः अनुमान प्रमाण के आधार पर अद्वैत-सिद्धान्त की स्थापना की है।
अद्वैत-वेदान्त पर इन्होंने 'सिद्धान्तबिंदु' या 'सिद्धान्ततत्त्वबिंदु', 'वेदान्तकल्पलतिका', 'संक्षेपशारीरक-व्याख्या', अद्वैतसिद्धि', अद्वैतरत्नरक्षण' तथा 'प्रस्थानभेद' नामक ग्रंथ लिखे हैं। इन्होंने गीता पर 'गूढार्थदीपिका' नामक भाष्य भी लिखा है। ये कृष्ण के अनन्य भक्त थे। कृष्णभक्ति के सामने वे अन्य बातों को तुच्छ मानते थे
ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं । ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु ते। अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं ।
कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं महो धावति ।। __ अर्थ- ध्यान के अभ्यास से जिनका मन वशीभूत हो चुका हो चुका है, ऐसे योगियों को यदि निर्गुण तथा निष्क्रिय परम ज्योति का दर्शन होता हो तो होने दो। हमारे नेत्रों को तो कालिंदी तट पर दौडने वाला श्यामल तेज (श्रीकृष्ण का बालरूप) ही सुख देता है। इन्होंने महिम्नःस्तोत्र की शिवपरक तथा विष्णुपरक व्याख्या कर दोनों में अभेद दिखाया है और भागवत पर टीका लिखी है। मध्वाचार्य - द्वैतमत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य के समय के बारे में विद्वानों का एकमत नहीं किंतु उपलब्ध शिलालेख एवं अवांतरकालीन द्वैत मतावलंबी ग्रंथकारों के ग्रंथों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इतिहास लेखकों ने सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि मध्वाचार्य का जीवन-काल 1238 ई. से 1317 ई. तक व्याप्त था। इस विषय में अब दो मत नहीं हो सकते।
नारायण पंडिताचार्य ने अपने 'मध्व-विजय' नामक ग्रंथ में आचार्य की सबसे प्राचीन जीवनी उपलब्ध की है जो घटनाओं के तारतम्य एवं निरूपण में प्रमाण मानी जाती है। मध्व का जन्म, वर्तमान मैसूर राज्य में प्रसिद्ध क्षेत्र उडुपी से लगभग 8 मील दक्षिण-पूर्व 'पाजक' नामक ग्राम में, तुलु ब्राह्मण के घर में हुआ था। उनके पिता के कन्नड भाषीय कुटुंब-नाम का संस्कृत रूप 'मध्यगेह' तथा 'मध्यमंदिर' माना जाता है। 7 वर्ष की आयु में उपनीत होकर इन्होंने बड़े परिश्रम तथा निष्ठा से वेद-शास्त्र का अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में गृह-त्याग कर इन्होंने अपने वेदांती गुरु अच्युतप्रेक्ष से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने पर इनका नया नाम हुआ पूर्णप्रज्ञ किन्तु थोडी ही कालावधि के उपरांत, वेदांत-विषय में गुरु-शिष्य के बीच मतभेद उत्पन्न हो गया। मायावाद तथा अद्वैत के प्रति इनके मन में तीव्र अवहेलना निर्माण हुई, और इन्होंने अपने स्वतंत्र द्वैत-मत को प्रतिष्ठित किया। कुछ दिनों तक उडुपी में इन्होंने निवास किया तथा अच्युतप्रेक्ष के शिष्यों को वे द्वैत-वेदांत पढाते रहे। फिर इन्होंने दक्षिण भारत की यात्रा की और वहां के विद्वानों को अपने नवीन मत का उपदेश
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देकर उडुपी लौटे। उडुपी में इन्होंने सर्वप्रथम गीता पर भाष्य लिखा।
मध्वाचार्य ने उत्तर भारत की दो बार यात्रा की। हिमालय के बदरीनाथ में कुछ दिनों तक रहकर ये महाबदरिकाश्रम (वेदव्यास के आश्रम) पहुचे। इन्होंने वहां पर कुछ मास तक निवास किया और वेदव्यास की कृपा से उबुद्ध प्रतिभा के द्वारा वहीं पर ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। मध्वाचार्य के साथ उनकी शिष्य-मंडली भी थी। पश्चात् बिहार-बंगाल होते हुए वे लौटे, और गोदावरी तीरस्थ शोभनतीर्थ नाम से उनके शिष्य बने।
उडुपी लौटने पर इन्होंने मठ स्थापित किया और श्रीकृष्ण की सुंदर मूर्ति प्रतिष्ठित की। उनकी शिष्य-परंपरा बढ़ने लगी तथा इनके द्वैत उपदेशों ने जनता एवं विद्वानों को अपनी और आकृष्ट किया। इन्होंने अनुष्ठान-पद्धति में सुधार किए, एवं वैदिक यज्ञों में पशु-बलि के स्थान पर पिष्ट-पशु (आटे के बने पशु) का विधान अपने अनुयायियों के लिये निर्दिष्ट किया। ___ इसके अनंतर मध्वाचार्य ने उत्तर भारत की द्वितीय यात्रा के लिये प्रस्थान किया, और दिल्ली, कुरुक्षेत्र, काशी तथा गोवा की यात्रा करते हुए लौटे। इस काल में इन्होंने दसों उपनिषदों पर भाष्य, दस प्रकरण एवं भागवत तथा महाभारत पर व्याख्याएं लिखकर अपने मत की पूर्ण प्रतिष्ठा का समुचित उद्योग किया। __कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रखर खंडन से उद्विग्न होकर अद्वैती लोगों ने इन पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया, इनके बहुमूल्य पुस्तकालय को ध्वस्त करने हेतु भी वे प्रयत्नशील रहे, किन्तु स्थानीय राजा जयसिंह के प्रयत्नों से उनकी पुस्तकें उन्हें वापस मिल गई।
इन्हीं जयसिंह के सभा-पंडित त्रिविक्रम पंडिताचार्य का मध्वअनुयायी बन जाना उस काल की बडी महत्त्वपूर्ण घटना है, क्योंकि वे अद्वैती पंडितों के प्रमुख अग्रणी थे। मध्वाचार्य के आदेश पर त्रिविक्रम ने आचार्य के ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर "तत्त्व-प्रदीप" नामक अपनी प्रौढ व्याख्या लिखी और आगे चलकर त्रिविक्रम के पुत्र नारायण पंडिताचार्य ने 'मध्व-विजय' नामक आचार्य की प्रामाणिक जीवनी लिखी। इसी काल में मध्वाचार्य ने अपने सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ 'अनु-व्याख्यान' का प्रणयन किया। इसी समय आचार्य ने उडुपी में अष्ट मठों की स्थापना की। साथ ही पूजन-अर्चन में संलग्न रहते हुए आचार्य ने न्याय-विवरण, कर्म-निर्णय तथा कृष्णामृतमहार्णव नामक तीन ग्रंथों की रचना की। इस प्रकार शिष्य-समुदाय एवं ग्रंथ-संपत्ति क द्वारा द्वैत-मत प्रतिष्ठित हआ। मध्वाचार्य के जीवन का उद्देश्य सफल हो गया। तब माघ शुक्ल नवमी तिथि को 1318 ई. में 79 की आयु पूर्ण कर आचार्य इस धरा-धाम से एकाएक अंतर्हित हुए। सांप्रदायिकों की धारणा है कि वे वेदव्यासजी के निकट बदरिकाश्रम चले गए। मध्वाचार्य, आनंदतीर्थ भी कहलाते थे। कहते हैं कि
जब वे हिमालय के व्यासाश्रम गए थे तब व्यासजी ने प्रसन्न होकर उन्हें शालिग्राम की 3 मूर्तियां दी थीं। इन मूर्तियों को आचार्य ने 3 क्षेत्रों- सुब्रहमण्यम्, उडुपी तथा मध्यतल में प्रतिष्ठित किया। समुद्र-तल से निकाली गई श्रीकृष्ण मूर्ति की भी प्रतिष्ठापना उन्होंने उडुपी में की। तभी से यह स्थान माध्वों के लिये आचार्य-पीठ एवं विशेष तीर्थ माना जाता है। यहीं पर आचार्य ने अपने शिष्यों की सुविधा के लिये 8 मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें सीता-राम, लक्ष्मण-सीता, द्विभुज कालिया-दमन, चतुर्भुज कालिया-दमन, विट्ठल आदि 8 मूर्तियों की स्थापना की। मध्वाचार्य ने अपने जीवन के आरंभ-काल से ही सिद्धांत-ग्रंथों के प्रणयन का महनीय कार्य अपने हाथ में लिया था। छोटे बडे मिलाकर उनके 37 ग्रंथ है, जिन्हें समवेत रूप से 'सर्व-मूल' कहा जाता है। सर्व-मूल के देवनागरी संस्करण, कुंभकोणम् तथा बेलगांव से प्रकाशित हुए हैं। __आचार्य के इन ग्रंथों को चार भागों में विभक्त किया जाता है- प्रस्थानत्रयी पर व्याख्या (16 ग्रंथ), दश-प्रकरण (10 ग्रंथ), तात्पर्यं-ग्रंथ (इनकी संख्या 3 है) और काव्य-ग्रंथ (8)। कंदुक-स्तुति नामक 38 वीं लघुतम कृति को, 'सर्व-मूल' में समाविष्ट नहीं किया जाता। यह आचार्य के बाल्य-काल की रचना है।
मध्वाचार्य की विशेषता थी, अपने व्याख्यान एवं मत की पुष्टि विविध प्राचीन ग्रंथों के उद्धरणों से करना। उनमें से आजकल अनेक अज्ञात अथवा अल्पज्ञात हैं तथा कतिपय ग्रंथों का पता भी नहीं चलता। उनके विस्तृत अध्ययन, गंभीर अनुशीलन एवं प्रगाढ पांडित्य का परिचय उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों से भली-भांति मिलता है।
जन्म और संन्यास विषयक विशेष- इनके पिता का नाम तुलु (मध्यगेहभट्ट) तथा माता का नाम वेदवती था। इनके जन्म के पूर्व मध्यगेहभट्ट के दो पुत्र और एक पुत्री थी, परंतु दोनों पुत्र बचपन में ही चल बसे थे। अतः मध्यगेहभट्ट (तुलु) ने पुत्र-प्राप्ति के लिये उडुपी के अनंतेश्वर की उपासना की। उनकी कृपा से उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। पुत्र का नाम वासुदेव रखा गया।
उपनयन-संस्कार के पश्चात् जब वासुदेव ने वेदाध्ययन तथा शास्त्राध्ययन पूर्ण किया तो माता-पिता ने वासुदेव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। परंतु वैष्णव भक्ति का प्रचार ही जीवित-कार्य है तथा उसकी पूर्ति संन्यास-धर्म की दीक्षा ग्रहण किये बिना संभव नहीं यह उनकी दढ धारणा होने से माता पिता के प्रस्ताव के प्रति उदासीन रहे।
एक बार उडुपी में अच्युतप्रेक्ष नामक एक विद्वान् यति का आगमन हुआ। मध्वाचार्य को समाचार मिलते ही घर पर किसी को भी सूचना न देते हुए वे उडुपी चले गये। वहां उम्होंने अच्युतप्रेक्ष से अनुरोध किया कि वे उन्हें संन्यासधर्म
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की दीक्षा दें। अच्युतप्रेक्ष ने उन्हें संन्यास की दीक्षा नहीं दी परंतु उन्हें अपने सान्निध्य में रख लिया। माता-पिता को इस बात का समाचार मिलते ही वे दोनों, पुत्र को घर लौटा लाने के लिये उडुपि गये। उन्होंने मध्वाचार्य को संन्यासधर्म ग्रहण करने से परावृत्त करने का प्रयत्न किया। परंतु मध्वाचार्य अपने निश्चय से डिगे नही किंतु उन्होंने पिता से कहा कि जब तक उनके एक और भाई नहीं होता तब तक वे घर पर रहेंगे तथा संन्यासदीक्षा ग्रहण नहीं करेंगे। इसके पश्चात् अल्पावधि में ही मध्वाचार्य की माता गर्भवती हुई तथा यथाकाल उनके एक पुत्र हुआ। इसके बाद मध्वाचार्य पुनश्च उडुपी गए तथा उन्होंने अच्युतप्रेक्ष से संन्यासदीक्षा ग्रहण की। उनका नाम पूर्णप्रज्ञतीर्थ रखा गया था परंतु लोगों में उनका मध्वाचार्य नाम ही प्रचलित रहा। मनु वैवस्वत - ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 27 से 31 तक के सूक्तों के द्रष्टा। इन सब सूक्तों का विषय विश्वेदेवस्तुति है। इनमें से 29 वां सूक्त प्रसिद्ध कूटसूक्त है। उसमें 10 ऋचायें है। प्रत्येक ऋचा की स्वतंत्र देवता का स्थूल चिन्ह से कूटसदृश उल्लेख इस प्रकार है
1. बभ्र (सोम), 2. योनि (अग्नि), 3. वाशी. (त्वष्टा), 4. वज्र (इंद्र), 5. जलाषभेषज (रुद्र), 6. पथ (पूषा), 7. उरुधनु (विष्णु), 8. सहप्रवासी (अश्विनीकुमार), 9. सम्राट (मित्रावरुण), 10. सूर्यप्रकाश (अत्रि अथवा सूर्य)। ___30 वें सूक्त की देवता अश्विनी है। 31 वें सूक्त में यजमान-प्रशंसा, दंपतीप्रशंसा तथा दंपती को आशीर्वाद है। इसे ऋग्वेद में मनुसावर्णी संज्ञा है। कहते हैं कि वैवस्वत इनका पैतृक नाम है और सावर्णी मातृवंशसूचक नाम है।
यदु, तुर्वश, मनु वैवस्वत के समकालीन तथा मांडलिक थे। ये इंद्र के कृपापात्र थे। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार जलप्रलय से जगत् की इन्होंने रक्षा की थी। ये दानशूर थे। मम्मटाचार्य - समय- ई. 12 वीं शती। 'राजानक' की उपाधि । इनके नाम से ज्ञात होता है कि ये काश्मीर निवासी रहे होंगे। इन्होंने 'काव्यप्रकाश' नामक युगप्रवर्तक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ का प्रणयन किया है जिसकी महत्ता व गरिमा के कारण ये 'वाग्देवतावतार' कहे जाते हैं। 'काव्यप्रकाश' की 'सुधाकर' नामक टीका के प्रणेता भीमसेन दीक्षित ने इन्हें काश्मीरदेशीय जैयट का पुत्र तथा पतंजलिकृत 'महाभाष्य' के टीकाकार कैयट एवं चतुर्वेदभास्कर उव्वट का ज्येष्ठ भ्राता माना है। पर इस विवरण को आधुनिक विद्वान् प्रामाणिक नहीं मानते। इसी प्रकार नैषधकार श्रीहर्ष को मम्मट का भागिनेय कहने की अनुश्रुति भी पूर्णतः संदिग्ध है, क्यों कि श्रीहर्ष काश्मीरी नहीं थे। 'अलंकारसर्वस्व' के प्रणेता रुय्यक ने 'काव्यप्रकाश' की टीका लिखी है और इसका उल्लेख भी किया है। रुय्यक का समय 1128-1149 ई. के आसपास है। अतः मम्मट
का समय उनके पूर्व ही सिद्ध होता है। यह अवश्य है कि रुय्यक, मम्मट के 40 या 50 वर्ष बाद ही हुए होंगे।
'काव्यप्रकाश' के प्रणेता के प्रश्न को लेकर भी विद्वानों में मतभेद है कि मम्मट ने संपूर्ण ग्रंथ की रचना अकेले नहीं की है। परंतु अनेक प्रमाणों के आधार पर आचार्य मम्मट ही इस संपूर्ण ग्रंथ के प्रणेता सिद्ध होते हैं। काव्यप्रकाश के अतिरिक्त शब्दव्यापारविचार तथा संगीतरत्नावली नामक दो अन्य ग्रंथ भी इन्होंने लिखे हैं। ___ इनका प्रमुख ग्रंथ काव्यप्रकाश, संस्कृत- साहित्य शास्त्र का आकरग्रंथ माना जाता है। उसके संबंध में कहा जाता है कि "काव्यप्रकाशस्य कृता गृहे गृहे टीका तथाप्येष तथैव दुर्गमः" अर्थात् काव्यप्रकाश पर घर-घर में टीका लिखी गई, परंतु वह दुर्गम ही है। मन्यु तापस- ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 83 वें तथा 84 वें सूक्त के दृष्टा । इन सूक्तों में रणदेवता की स्तुति है जैसे :
अग्निरिव मन्यो त्विषितः सहस्य-सेनानीनः सहुरे हूत एधि । हत्वाय शत्रुन् विभजस्व वेद ओजो मिमानो वि कृधो नुदस्व ।। (10-84-2) अर्थ- अग्निशिखासदृश, तेजस्वी, शत्रुसंहारक, युद्धनिमंत्रित तथा बलदाता मन्युदेवता हमारे सेनापति होकर आप हमें विपुल धन दें। यही सूक्त अथर्ववेद में भी है। (4-31-32) । मय- दक्षिण भारत के एक शिल्पशास्त्रज्ञ। इन्होंने शिल्पशास्त्र पर मयमत, मयशिल्प, मयशिल्पशतिका तथा शिल्पशास्त्रविधान नामक चार ग्रंथ लिखे हैं। अंतिम ग्रंथ में पांच प्रकरण हैं तथा उसमे मूर्ति-रचना का ऊहापोह है। मयूरभट्ट - समय- ई. 7 वीं शती। काशी के पूर्व में निवास । 'सूर्यशतक' के रचयिता। संस्कृत में मयूर नामक कई लेखक मिलते हैं उदाहरणार्थ बाण के संबंधी मयूरभट्ट, ‘पद्मचंद्रिका' नामक ग्रंथ के लेखक मयूर, सिंहलद्वीप के लेखक मयूरपाद थेर आदि। किंतु 'सूर्यशतक' के प्रणेता मयूरभट्ट इन सभी से भिन्न एवं प्राचीन हैं। ये बाणभट्ट के समकालीन थे और दोनों हर्षवर्धन की सभा में सम्मान पाते थे। ये बाण के संबंधी, संभवतः जामात कहे गए हैं। कहा जाता है कि इन्हें कुष्ठ-रोग हो गया था और उसकी निवृत्ति के के लिये इन्होंने 'सूर्यशतक' की रचना की थी। बाण और मयूर के संबंध में एक आख्यायिका प्रचलित है :- एक बार रात्रि को बाण पति-पत्नी का प्रेमकलह हुआ। तब बाण ने पत्नी को प्रसन्न करने के लिये निम्न श्लोक कहना प्रारम्भ कियागतप्राया रात्रिः कृशतनु शशी शीर्यत इव
प्रदीपोऽयं निद्रावशमुपगतो घूर्णत इव। प्रणामान्तो मानस्त्यजसि न तथापि क्रुधमहो।।
संयोगवश तभी मयूर वहां बाण से मिलने के लिये
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पहुंचे थे। उन्होंने उपर्युक्त तीन चरण सुन लिये थे। अतः चौथा चरण स्वयं उन्होंने ही इस प्रकार पूर्ण कर डाला- 'कुचप्रत्यासत्या हृदयमपि ते चण्डि कठिनम्।' चतुर्थ चरण सुनकर बाण को क्रोध हो आया। उन्होंने मयूर को शाप दिया कि वह कुष्ठरोगी होगा। शापनिवृत्ति कलिय मयूर ने सूर्यस्तुतिपरक सौ श्लोक (स्रग्धरा वृत्त में) लिखे। तब उनकी रोग से मुक्ति हुई।
उपयक्त श्लोक का अर्थ है- हे कशांगि रात्रि प्रायः समाप्त होती आयी है। चंद्र फीका पड गया है। यह दीप भी निद्रावश होकर बुझने को है। पति के चरण छूने पर (पत्नी का) मान दूर होता है, परंतु तूने अभी तक क्रोध नहीं छोडा है। हे चण्डि, कठिन स्तनों के
समीप रहने से तेरा हृदय भी कठिन हो गया है। मयूरेश - वैदिक रुद्र सूक्त के भाष्यकार। गुरु का नामकैवल्येन्द्र। भाष्यनिर्मिति का शक 1634। अपने भाष्य को मयूरेश 'अतिगूढ' बताते हैं। यह भाष्य चैत्र शुक्ल चतुर्थी शक 'विकृत्' में उन्होंने पूर्ण किया। मलयगिरि - गुजरात-निवासी मंत्रशास्त्रज्ञ। समय- ई. 11-12 वीं शती। हेमचन्द्रसूरि तथा देवेन्द्रसूरि के समकालीन। ग्रंथ-1. भगवतीसूत्र- द्वितीय शतक-वृत्ति, 2. राजप्रश्नीयोपांग टीका, 3. जीवाभिगमोपांग टीका, 4. प्रज्ञापनोपांग टीका, 5. चन्द्रप्रज्ञप्त्युपांग टीका, 6. सूर्यप्रज्ञप्त्युपांग टीका, 7. नंदिसूत्रटीका, 8. व्यवहारसूत्र वृत्ति, 9. ब्रह्मकल्प पीठिकावृत्ति (अपूर्ण), 10. आवश्यक-वृत्ति (अपूर्ण) 11. पिण्डनियुक्ति टीका, 12. ज्योतिष्करण्डकटीका, 13. धर्मसंग्रहणी वृत्ति, 14. कर्मप्रकृत्ति, 15. पंचसंग्रहवृत्ति, 16. षडशीतिवृत्ति, 17. सप्ततिकावृत्ति, 18. बृहत्संग्रहणीवृत्ति, 19. बृहत्क्षेत्रसमासवृत्ति और 20. मलयगिरि-शब्दानुशासन । सूत्र गाथा आदि का स्पष्टीकरण प्राकृत-संस्कृत उद्धरणों के साथ। मलयकवि- रचनाएं- (1) 'मीनाक्षी-परिणय' (अठारह सर्ग) (2) 'कामाक्षी-विलास' और (3) 'तारकासुर वध' मल्लय यज्वा - महाभाष्यप्रदीप पर टिप्पणी के लेखक। इनके पुत्र तिरुमल यज्वा ने अपने दर्शपूर्णमासमन्त्र भाष्य में इस टिप्पणी का उल्लेख किया है। राज,-हस्त,-पुस्त, मद्रास में उपलब्ध। तिरुमल ने भी एक भाष्य 'प्रदीप' पर लिखा जो अप्राप्य है। मल्लिनाथ - सुप्रसिद्ध पंच महाकाव्यों तथा मेघदूत के टीकाकार तथा न्यासद्योत नाम्नी शास्त्रीय टीका के लेखक। समय- ई. की 14 वीं शती। निवासस्थान- कोलाचलम् (जि.-मेदक, आंध्रप्रदेश) के तेलंग ब्राह्मण। मल्लिनाथ की टीकाएं साहित्यक्षेत्र में आदर्श मानी जाती हैं। "नामूलं लिख्यते किंचित् नानपेक्षितमुच्यते" अर्थात् मेरी टीका में निराधार तथा अनेपेक्षित कुछ भी लिखा नही है- यह इनकी प्रतिज्ञा थी। मल्लिनाथ की टीकाओं में उनका सर्वकष पांडित्य दिखाई देता है। इनके
पिता का नाम कपर्दी था और राजा सिंगभूपाल ने अपने 16 वें यज्ञ के अवसर पर इनका स्वर्ण-मौक्तिकों से अभिषेक किया था। मल्लिषेण - समय- ई. 11 वीं शती। कवि और मठाधिपति भट्टारक । मन्त्र-तन्त्र और रोगोपचार में प्रवृत्त । कार्यक्षेत्र- कर्नाटक के धारवाड जिले का मूलगुन्द नामक स्थान। चामुण्डराय के गुरु अजितसेन की परम्परा में दीक्षित। ___ रचनाएं- 1. नागकुमारकाव्य (5 सर्ग) 2. महापुराण (2000 श्लोक), 3. भैरवपद्यावतीकल्प (10 अधिकार और 400 अनुष्टुप), 4. सरस्वती-मन्त्रकल्प (75 पद्य तथा कुछ गद्य), 5. ज्वालिनीकल्प और 6. कामचाण्डालीकल्प। मल्लिसेन - ज्योतिष-शास्त्र के एक आचार्य । जन्म- 1043 ई.। इनके पिता जिनसेन सूरि जैन-धर्मावलंबी थे। कर्नाटक के धारवाड जिले में स्थित गदग नामक ग्राम के निवासी। प्राकृत तथा संस्कृत दोनों ही भाषाओं के पंडित। इन्होंने 'आर्यसद्भाव' नामक ज्योतिष शास्त्रीय ग्रंथ की रचना की है। इस ग्रंथ के अंत में इन्होंने बताया है कि ज्योतिष-शास्त्र के द्वारा भूत, भविष्य तथा वर्तमान का ज्ञान प्राप्त होता है। यह विद्या किसी अनधिकारी व्यक्ति को नहीं देनी चाहिये। महादेव - ई. 17 वीं शती। गोत्र-कौण्डिण्य। पिता-कृष्णसूरि तंजावर के निकट कावेरी के तट पर पलमारनेरी के निवासी । गुरु-बालकृष्ण। रामभद्र दीक्षित के सतीर्थ । शाहराज (शहाजी भोसले) के द्वारा दोनों सतीर्थों को 1693 में प्रदत्त अग्रहार में भाग। महादेव को रामभद्र दीक्षित से तिगुना भाग मिला। रचना- अद्भुतदर्पण नामक नौ अंकों का अद्भुतरस प्रधान नाटक। महादेव - रचना- प्रपंचामृतसार। इस का विषय है रामानुज के विशिष्टाद्वैत तथा माध्वद्वैत-सिद्धान्त का खण्डन तथा अद्वैतमत की स्थापना। मराठी अनुवाद उपलब्ध। महाबल - भारद्वाज गोत्रीय ब्राह्मण। पिता-राथिदेव । माता-राजियक्का। गुरु- माधवचन्द्र विद्य। कवि के आश्रयदाताराजा केतनायक। समय- ई. 13 वीं शती। ग्रंथ- नेमिनाथ-पुराण (ई. 1254) चम्पू-शैली में लिखित । महालिंग शास्त्री . जन्म तिरुवालंगाड (तंजावर) में जुलाई 1897 में। सुप्रसिद्ध अप्पय दीक्षित के वंशज । पिता-यज्ञस्वामी। शिक्षा- एम.ए., एल.एल.बी. । मद्रास हाईकोर्ट में वकालत । संगीतशास्त्र में निपुण । महालिंग शास्त्री द्वारा लिखित
प्रकाशित काव्यकृतियां - किंकिणीमाला, द्राविडार्या सुभाषित-सप्तति, व्याजोक्ति-रत्नावली, भ्रमरसन्देश, देशिकेन्द्रस्तवांजलि, शम्भुचर्योपदेश, वनलता, स्तुतिपुष्पोपहार (अपर नाम मुक्त-स्तुतिमंजरी)। __प्रकाशित नाट्यकृतियां - कौडिन्य-प्रहसन, प्रतिराजसूय, मर्कटमार्दलिक-भाण, शृंगारनारदीय, उभयरूपक, कलिप्रादुर्भाव, आदिकाष्योदय, उद्गातृदशानन तथा अयोध्याकाण्ड।
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अन्य प्रकाशित कृतियां - छात्रोपयोगी लघुरामचरित, महिम भट्ट : इन्होंने "व्यक्ति-विवेक" नामक काव्यशास्त्र के उपक्रम पाठावली, मध्यमपाठावली, प्रौढ पाठावली, प्रवेशपाठावली युगप्रवर्तक ग्रंथ की रचना की है जिसमें व्यंजना या ध्वनि तथा संस्कृत-लाघव । महाविद्यालयों के लिए भासकथासार (तीन का खंडन कर उसके सभी भेदों का अंतर्भाव अनुमान में खण्डों में) गद्य कथानककोश, संकथासन्दोह, कवि-काव्यनिकष । किया गया है। इनकी उपाधि "राजानक" थी आर ये काश्मीर इसके अतिरिक्त संस्कृत में कीर्तन तथा रागमालिकाएं में रागोचित के निवासी थे। स्वर-निर्देशन।
समय- ई. 11 वीं शती का मध्य। पिता-श्रीधैर्य व गुरु अप्रकाशित कृतियां . मणिमाला (काव्य), श्यामल। इन्होंने अपने ग्रंथ में कुंतक का उल्लेख किया है, प्रशस्ति-प्रगुणमालिका, किंकिणीमाला (द्वितीय खण्ड), और अलंकारसर्वस्वकार रुय्यक ने इनके ग्रंथ 'व्यक्तिविवेक' व्याजोक्तिरत्नावली (द्वितीय खण्ड), प्रकीर्ण काव्य, भारतीविषाद, की व्याख्या लिखी है। इससे इनका समय ई. 11 वीं शती महामहिषसप्तति, लघुपाण्डवचरितम्, शृंगाररसमंजरी, __का मध्य ही निश्चित होता है। महिमभट्ट नैयायिक हैं। इन्होंने श्रीवल्लभ-सुभाषितानि, उत्तरकाण्ड (लघु रामचरित का पूरक)। न्याय की पद्धति से ध्वनि का खंडन का उसके सभी भेदों महावीर प्रसाद जोशी - जन्म- 1914 ई. में। काव्यतीर्थ व
को अनुमान में गतार्थ किया है और ध्वनिकार द्वारा प्रस्तुत साहित्यायुर्वेदाचार्य महावीरप्रसाद जोशी का जन्म डूंडलोद (झुंझुन,
किये गये उदाहरणों में अत्यंत सूक्ष्मता के साथ दोषान्वेषण राजस्थान) में हुआ था। इनकी रचना है प्रतापचरितम्।
कर उन्हें अनुमान का उदाहरण सिद्ध किया है। इन्होंने संस्कृत-रत्नाकर, सुप्रभात तथा सूर्योदय आदि संस्कृत-पत्रिकाओं
ध्वन्यालोक में प्रस्तुत किये गये ध्वनि के लक्षण में 10 दोष में भी आपकी अनेक रचनाएं प्रकाशित हुई हैं।
ढूंढ निकाले हैं जिससे इनका प्रौढ पांडित्य झलकता है। इनके महावीरप्रसाद द्विवेदी - हिन्दी साहित्य के महान् सेवक।
समान ध्वनि-सिद्धांत का विरोधी कोई नहीं हुआ। इनका प्रौढ
पांडित्य व सूक्ष्म विवेचन संस्कृत काव्यशास्त्र में अद्वितीय है। संस्कृत में विनोदपरक रचना- 'कान्यकुब्जलीलामृतम्'।
इन्होंने व्यंग्यार्थ को अनुमेय स्वीकार करते हुए ध्वनि का नाम महावीराचार्य - समय ई. 9 वीं शती। रेखागणित, बीजगणित
'काव्यानुमिति' दिया है। इनके अनुसार काव्यानुमिति वहां होती व पाटीगणित के प्रसिद्ध आचार्य । कन्नड-भाषी। जैनमतावलंबी।
है जहां वाच्य या उसके द्वारा अनुमित अर्थ, दूसरे अर्थ को इन्होंने गणित व ज्योतिष पर दो ग्रंथों की रचना की है
किसी संबंध से प्रकाशित करे (व्य.वि. 1-25)। 'गणितसारसंग्रह' और 'ज्योतिषपटल' । ये जैनधर्मी राजा अमोघवर्ष
महिमभट्ट - रचना- नटाङ्कुशम्। (अभिनय और रस संबंधी)। (राष्ट्रकूट-वंश) के आश्रित थे। इनका 'ज्योतिषपटल' नामक ग्रंथ अधूरा ही प्राप्त हुआ है। अपने "गणितसार-संग्रह"
प्रथम श्लोक में महिम शब्द के प्रयोग से यह तर्क किया
जाता है, कि रचना महिमभट्ट की हो। नामक ग्रंथ के प्रारंभ में इन्होंने गणित की प्रंशसा की है। इनका 'जातकतिलक' ग्रंथ भी उल्लेखनीय है।
महिमोदय - ज्योतिषशास्त्र के आचार्य। समय- ई. 18 वीं
शती। गुरु-जैन विद्वान् लब्धिविजय सूरि। महिमोदय ने महासेन - लाङवागड संघ के जैन आचार्य। गुणाकरसेन के
'ज्योतिष-रत्नाकर' नामक फलित ज्योतिष का महत्त्वपूर्ण ग्रंथ शिष्य और पर्णट के गुरु । परमारवंशी राजा मुंज (समय- 10
लिखा है जिसमें संहिता, मुहूर्त तथा जातक तीनों ही अंगों वीं शताब्दी का उत्तरार्ध) द्वारा पूजित । ग्रंथ-प्रद्युम्नचरित महाकाव्य,
का विवेचन किया गया है। ये फलित व गणित दोनों के जिसमें 14 सर्गों में भगवान् श्रीकृष्ण और रुक्मिणी के पुत्र
ही मर्मज्ञ थे। इन्होंने 'गणित साठ सौ' तथा 'पंचांगानयनविधि' प्रद्युम्न की गौरव गाथा वर्णित है। यह गाथा श्रीमद्भागवत
नामक गणित 'ज्योतिष-विषयक दो ग्रंथों की रचना की है। तथा विष्णुपुराण में भी मिलती है पर जैन साहित्य में
महीधर - ई. 17 वीं शती। शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन हरिवंशपुराण के आधार पर उनके चरित को सुविधानुसार
संहिता के भाष्यकार। निवासस्थान- काशी। 'मन्त्रमहोदधि' परिवर्तित किया है। कथानक श्रृंखलाबद्ध एवं सुगठित है।
नामक तंत्र ग्रंथ और उस पर टीका भी महीधराचार्य ने लिखी। महासेन पण्डितदेव - दक्षिणवासी। समय-ई. 12 वीं शती।
मन्त्रमहोदधि में जो काल-निर्देश है, उससे महीधराचार्य का नवसेन पण्डितदेव के शिष्य। पद्मप्रभ मलधारी देव द्वारा
समय निःसंदिग्ध हो जाता है। उवट और माधव इन दोनों वादी-विजेता के रूप में उल्लिखित । ग्रंथ-स्वरूपसंबोधन तथा
के भाष्य का अभ्यास करते हुए अपने वेददीप नामक यजुर्भाष्य प्रमाण-निर्णय।
की रचना महीधर आचार्य ने की। कई विद्वानों के मतानुसार महास्वामी : सामसंहिता और भाषिकसूत्र के भाष्यकार । यह निर्दिष्ट माधव, वेंकट-माधव हैं, सायण-माधव नहीं किन्तु अनन्ताचार्य का भाषिक सूत्रभाष्य इनके ग्रन्थ की छायामात्र है। इस मत का खण्डन भी हो चुका है। महीधराचार्य का भाषिकसूत्रभाष्य और सामवेद-भाष्य इन दो कृतियों के कर्ता वेददीपभाष्य-उवटाचार्य के माध्यंदिनभाष्य से प्रभावित है। उवट एक ही हैं या भिन्न यह निश्चित कहना कठिन हैं।
संक्षेप के, और महीधर विस्तार के प्रेमी हैं। महीधराचार्य ने
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मंत्रों का विनियोग विस्तृत रूप से दिया है।
विख्यात है तथा गुजरात की सीमा से अत्यंत निकट है। माघ महीधर वेंकटराम शास्त्री - ई. 20 वीं शती।। पिता-वेंकटराम ने जिस रैवतक पर्वत का वर्णन अपने 'शिशुपाल-वध' में दीक्षित। राजमहेन्द्रवरम् नगरी (आध्रप्रदेश) के निवासी।। किया है, वह राजस्थान में ही है। इन प्रमाणों के आधार पर वैयाकरण एवं आयुर्वेद-विशारद । 'सरोजिनी-सौरभ' नामक नाटक विद्वानों ने माघ को राजस्थानी श्रीमाली ब्राह्मण कहा है। के रचयिता।
माघ का समय ई. 7 वीं शती से 11 वीं शती तक महेन्द्रसूरि- ज्योतिष शास्त्र के आचार्य। समय- ई. 12 वीं माना जाता रहा है। राजस्थान के वसंतपुर नामक स्थान में शती का अंतिम चरण । गुरु-मदनसूरि। महेन्द्रसूरि, फीरोज शाह राजा वर्मलात का एक शिलालेख प्राप्त हुआ है जिसका समय तुगलक के आश्रय में रहते थे। इन्होंने 'यंत्रराज' नामक 625 ई. है। यह समय माघ के पितामह सुप्रभदेव का है। ग्रह-गणित का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है जिस पर इनके अतः यदि इसमें 50 वर्ष जोड दिये गये जायें, तो माघ का शिष्य मलयेंद्र-सूरि ने टीका लिखी है। इस ग्रंथ का रचना-काल समय 675 ई. माना जा सकता है। 'शिशुपाल-वध' के एक सन् 1192 है।
श्लोक (2-114) में माघ ने राजनीति की विशेषता बताते महेशचन्द्र तर्कचूडामणि - ई. 19-20 वीं शती। राजारामपुर,
समय उध्दव के कथन में राजनीति व शब्दविद्या दोनों का (दिनाजपुर बंगाल) के निवासी। कृतियां- भूदेवचरित,
प्रयोग एक-साथ श्लिष्ट उपमा के रूप में किया है। इसमें दिनाजपुर-राजवंश-चरित व काव्यपेटिका तथा तत्त्वावली (काव्य) ।
काशिकावृत्ति (650 ई.) तथा उस पर जिनेंद्रबुद्धि रचित महेश ठक्कुर - अकबर बादशाह के आश्रित। इन्होंने
न्यास-ग्रंथ (700 ई.) का संकेत है। इससे सिद्ध होता है 'सर्व-देश-वृत्तान्त संग्रहः' की रचना की। यह ग्रंथ 'अकबरनामा'
कि "शिशुपाल-वध" की रचना 700 ई. के बाद हुई है। के नाम से प्रसिद्ध है। महेश ठक्कुर न्यायशास्त्र के विशेषज्ञ
सोमदेव कृत 'यशस्तिलकचंपू' (959 ई.) में माघ का उल्लेख थे। उनके शिष्य रघुनन्दनदास भी प्रखर नैयायिक थे। अकबर
प्राप्त होता है तथा 'ध्वन्यालोक' में 'शिशुपाल-वध' के दो ने इनकी विद्वत्ता से प्रसन्न होकर इन्हें दरभंगा प्रान्त भेंट दिया
श्लोक (3-53 व 5-26) उद्धृत हैं। 'शिशुपाल-वध' पर परंतु रघुनन्दनदास ने वह भेंट अपने गुरु के चरणों पर समर्पित
भारवि तथा भट्टि दोनों का प्रभाव लक्षित होता है। अतः
इनका समय ई.7 वीं शती का उत्तरार्ध माना जा सकता है। की। अभी-अभी तक ठक्कुर के वंशज दरभंगा की गद्दी पर थे।
माघ-प्रणीत एकमात्र ग्रंथ- "शिशुपाल-वध' है। इस महाकाव्य महेश्वर न्यायालंकार - ई. 16 वीं शती। बंगाल के निवासी।
की कथावस्तु का आधार महाभारतीय कथा है जिसे माघ ने कृतियां- 'साहित्यदर्पण' पर 'विज्ञप्रिया' नामक तथा 'काव्यप्रकाश'
अपनी प्रतिभा के बल पर रमणीय रूप दिया है। माघ का पर 'आदर्श' अथवा 'भावार्थ-चिन्तामणि' नामक टीका।
व्यक्तित्व एक पंडित कवि का है। उनका आविर्भाव संस्कृत माघ (घण्टामाघ) - "शिशुपाल-वध' नामक युगप्रवर्तक
महाकाव्य की उस परंपरा में हुआ था, जिसमें शास्त्र-काव्य महाकाव्य के प्रणेता। अपनी विशिष्ट शैली के कारण
एवं अलंकृत-काव्य की रचना हुई थी। इस युग में पांडित्य-रहित 'शिशुपाल-वध' संस्कृत महाकाव्य की 'बृहत्त्रयी' में द्वितीय
कवित्व को कम महत्त्व प्राप्त होता था। अतः माघ ने स्थान का अधिकारी रहा है। माघ की विद्वत्ता, महनीयता, स्थान-स्थान पर अपने अपूर्व पांडित्य का परिचय दिया है। प्रौढता व उदात्त काव्यशैली के संबंध में संस्कृत ग्रंथों में ये महावैयाकरण, दार्शनिक, राजनीतिशास्त्र विशारद एवं नीतिशास्त्री अनेक प्रकार की प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं। स्वयं माघ ने ही भी थे। बौद्ध-दर्शन के सूक्ष्म भेदों का भी इन्हें ज्ञान था। 'शिशुपाल-वध' के अंत में 5 श्लोकों में अपने वंश का इन्होंने एक ही श्लोक (2-28) के अंतर्गत, राजनीति व वर्णन किया है। तदनुसार माघ के पितामह का नाम सप्रभदेव ।
बौद्ध-दर्शन के मूल सिद्धातों का विवेचन किया है। इन शास्त्रों था और वे श्रीवर्मल नामक किसी राजा के प्रधान मंत्री थे। के अतिरिक्त नाट्यशास्त्र, व्याकरण, संगीतशास्त्र, अलंकारशास्त्र, सुप्रभदेव के पुत्र का नाम दत्त या दत्तक था, जो अत्यंत
कामशास्त्र एवं अश्वविद्या के भी परिशीलन का परिचय महाकवि गुणवान् थे, और इन्हीं के पुत्र माघ थे।
माघ ने अपने महाकाव्य में यत्र-तत्र दिया है। इनका प्रत्येक माघ का जन्म भिन्नमाल या भीमाल नामक स्थान में हुआ वर्णन, प्रत्येक भाव, अलंकृत भाषा में ही अभिव्यक्त किया था। इस स्थान का उल्लेख 'शिशुपाल-वध' की कतिपय गया है। इनका काव्य कठिनता के लिये प्रसिद्ध है और प्राचीन प्रतियों में मिलता है। विद्वानों का अनुमान है कि यही इन्होंने कहीं-कहीं चित्रालंकार का प्रयोग कर उसे जानबूझकर भित्रमाल का भीनमाल कालांतर में श्रीमाल हो गया था। कठिन बना दिया है। प्रभाचंद्र रचित 'प्रभाकरचरित' में माघ को श्रीमाल-निवासी कहा 'उदयति विततोर्ध्वरश्मिरज्जौ।। गया है। प्रभाचंद्र ने श्रीमाल के राजा का नाम वर्मलात और अहिमरुचौ- हिमधाम्नि याति चास्तम्। मंत्री का नाम सुप्रभदेव लिखा है (प्रभाकर-चरित, 14-5-10)। वहति गिरिरयं विलम्बिघण्टायह स्थान अभी भी राजस्थान में श्रीमाली नगर के नाम से द्वयपरिवारित-वारणेन्द्रलीलाम् ।।4-20 ।।
412 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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अर्थ- एक ओर से प्रदीर्घ और अर्ध्वगामी किरणों के रज्जु धारण करने वाले तेजस्वी सूर्य का उदय तथा दूसरी ओर से शीतरष्णि चन्द्रमा का अस्त होते समय, यह (रैवतक) पर्वत, दोनों ओर लटकनेवाली घंटा धारण करने वाले गजेन्द्र की शोभा धारण करता है। इस श्लोक में घण्टा की अपूर्व उपमा के कारण उत्तरकालीन रसिकों ने इन्हें 'घण्टामाघ' की उपाधि दी है। माघनन्दि - माघनन्दि नाम के तेरह आचार्य हुए हैं। सभी प्रायः दक्षिण भारतीय रहे हैं। इनमें माघनन्दि योगीन्द्र प्रमुख हैं जिनका समय ई. 12 वीं शती है। गुरुनाम-कुमुदेन्दु । शिष्यनाम- कुमुदचन्द्र। ग्रंथ- 1. माघनन्दि- श्रावणाचारसार (चार अध्याय) और 2. शास्त्रसार-समुच्चय। सिद्धान्तसार, पदार्थसार, और प्रतिष्ठाकल्पटिप्पण (जिनसंहिता)। माणिक्यशेखर सूरि - जैनधर्मी अंचलगच्छीय महेन्द्रप्रभसूरि के प्रशिष्य और मेरुतुंगसूरि के शिष्य। गुरुभ्राता- जयकीर्तिसूरि । चैत्यवासी। समय-वि.की 15 वीं शती। ग्रंथ- 1. आवश्यक-नियुक्ति-दीपिका, 2. दशवैकालिक-नियुक्ति-दीपिका, 3. पिण्डनियुक्ति-दीपिका, 4. उत्तराध्ययन दीपिका और 5. आचार-दीपिका। माणिक्यचन्द्र सूरि . वस्तुपाल (सं. 1276) के मंत्री से अच्छा संपर्क। रचना- 1. शान्तिनाथचरित। (आठ सर्ग, 5574 श्लोक) जो हरिभद्र सूरिकृत समराइच्चकहा पर आधारित है (विक्रम की 13 वीं शती का उत्तरार्ध, 1276) और 2. काव्यप्रकाश की संकेत नामक टीका (सं. 1266)। माणिक्यनन्दि - जैनधर्मी नन्दिसंघ के प्रमुख आचार्य। धारा नगरी के निवासी। गुरुनाम- रामनन्दी। शिष्य-नयनन्दी और प्रभाचन्द्र। न्यायशास्त्र के पण्डित। समय- ई. 11 वीं शताब्दी का प्रथम चरण । ग्रंथ-परीक्षामुख (जैन न्यायशास्त्र का आद्य न्यायसूत्र । कुल छः समुद्देशों में विभक्त, 208 सूत्र) । उत्तरकाल में इस पर अनेक टीकाएं- व्याख्याएं लिखी गयीं जिनमें प्रभाचन्द्र का प्रमेयकमल-मार्तण्ड, लघु अनन्तवीर्य की प्रमेय-रत्नमाला, चारुकीर्ति का प्रमेयरत्न-मालालंकार एवं शान्तिवर्णी की प्रमेयकण्ठिका आदि टीकाएं प्रसिद्ध हैं। देवसूरि का प्रमाण-नयतत्त्वालोक तथा हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा पर परीक्षामुख-सूत्र का प्रभाव स्पष्ट दिखाई देता है। मातृगुप्ताचार्य- समय- संभवतः 5 वीं शती। राजतरंगिणी में मातृगुप्त का कवि के रूप में उल्लेख है। अभिनवभारती में वीणावादन के पुष्प नाम प्रमेद की व्याख्या के समय मातृगुप्त का मत उद्धृत किया है। कुन्तक ने काव्य की सुकुमारता तथा विचित्रता नामक गुणों के लिये मातृगुप्त के उद्धरण दिये हैं। मातृगुप्त के सर्वाधिक उद्धरण अभिज्ञान-शाकुन्तल की टीका करते हुए राघवभट्ट ने दिए हैं। नान्दी का सूत्रधार नाटक तथा यवनिका के लक्षणहेतु, मातृगुप्त के ही श्लोक उद्धृत किए गए हैं। भरत के 'आरंभ' तथा 'बीज' विषयक पद्यों को
लिखते समय भी राघवभट्ट ने मातृगुप्त को उद्धृत किया है
'अत्र विशेषो मातृगुप्ताचायौँः उक्तः'क्वचित् कारणमात्रन्तु क्वचिच्च फलदर्शनम्।।' सुन्दरमिश्र ने नाट्यप्रदीप (1613 ई.) नामक ग्रंथ में भरत के नाट्यशास्त्र के अनुसार नान्दी का लक्षण देते हुए उसकी व्याख्या में मातृगुप्ताचार्य के मत का उल्लेख किया है। मातृचेट - समय- ई. प्रथम शती। कनिष्क के समकालीन महायानी बौद्ध पंडित व स्तोत्रकवि। स्तोत्र-साहित्य के प्रवर्तक । भारत के बाहर विशेष ज्ञात तथा आदृत। पाश्चात्य विद्वानों द्वारा खोतान तथा तुरफान से विशेष ग्रंथों का अन्वेषण कर इनके ग्रन्थों का प्रकाशन किया गया। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने महत्प्रयास से कवि के 'अध्यर्ध-शतक' (बुद्ध स्तोत्र) की मूल संस्कृत प्रति तिब्बल के विहार से प्राप्त की (1926)। इनके तथा अन्य अन्वेषण से विन्टरनिट्झ तथा तारानाथ ने कवि के जीवन पर कुछ प्रकाश डाला है। तदनुसार मातृचेट पूर्वायुष्य में काल नामक ब्राह्मण और शिवोपासक थे। नालन्दा में बौद्ध-केन्द्र पर शास्त्रार्थ में पराजित होने पर बौद्ध संघ में समाविष्ट हुए। आर्यदेव इनके धर्मपरिवर्तक थे। कुछ जीवनीकारों के अनुसार, इन्होंने क्षुधित व्याघ्री को शरीरार्पण किया।
रचनाएं- चतुःशतक और अध्यर्धशतक। तन्जौर के ग्रंथालय में इनके नाम पर 11 कृतियों का उल्लेख है- (1) वर्णनाथ-वर्णन, (2) सम्यक्बुद्धलक्षण-स्तोत्र, (3) त्रिरत्नमंगल-स्तोत्र, (4) एकोत्तरी स्तोत्र, (5) सुगत-पंचत्रिरत्न-स्तोत्र, (6) त्रिरत्न-स्तोत्र, (7) मिश्रक-स्तोत्र, (8) चतुर्विपर्यय-कथा, (9) कलियुग परिकथा, (10) आर्य तारादेवी-स्तोत्र (सर्वार्थसाधननाम-स्तोत्रराज) और (11) मतिचित्र-गीति। ये रचनाएं मूल संस्कृत में अनुपलब्ध है। नेपाल में उपलब्ध हस्तलेखों के अनुसन्धान से इनमें से कुछ प्राप्त हो सकती हैं। माथुरेश विद्यालंकार - ई. 17 वीं शती। पिता-शिवराम चक्रवर्ती। माता-पार्वती। बंगाली पंडित । कृतियां- शब्द-रत्नावली (कोश) व सार-सुन्दरी (व्याकरण)। माधव- आयुर्वेद के प्रसिद्ध ग्रंथ 'रोगविनिश्चय' या 'माधवानिदान' के प्रणेता। समय ई. 7 वीं शती के आसपास । 'माधव-निदान', आधुनिक युग में रोग निदान का अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ माना जाता है - ___निदाने माधवः श्रेष्ठः। इनके पिता निघण्टुकार इंदु हैं। कविराज गणनाथसेन ने इन्हें बंगाली कहा है। इनके 'माधव-निदान' ग्रंथ की दो टीकाएं प्रसिद्ध हैं और उसके तीन हिंदी अनुवाद प्राप्त होते हैं। माधव कवींद्र- ई. 17 वीं शती। बंगाली वैष्णव। 'उद्धव-दूत' नामक संदेश-काव्य के रचयिता। इनके जीवन के बारे में कोई
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जानकारी प्राप्त नहीं होती। डा. एस.के.डे के अनुसार इनका समय ई. 7 वीं शताब्दी है। इन्होंने अपने इस वैष्णव काव्य की रचना 'मेघदूत' के अनुकरण पर की है। माधव कवीन्द्र - समय- 1850-1895 ई.। इनका जन्म राजस्थान के अन्तर्गत विजयपुर राज्य के छीर ग्राम में हुआ था। पिता- रामवृक्ष, माता- जयकुमारी। ये दाधीच ब्राह्मण थे। इनकी शिक्षा महाराजा संस्कृत कालेज, जयपुर में हुई थी। कवि की प्रमुख कृति है - 'मुक्तिलहरी' । माधवचन्द्र विद्य - माधवचन्द्र नाम के 10-11 विद्वान् हुए हैं। उनमें दो का नाम उल्लेखनीय है। प्रथम माधवचन्द्र विद्य वे हैं जो आचार्य नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य थे। उनका समय ई. 10 वीं शताब्दी का अन्तिम भाग होना चाहिये। उनका ग्रंथ है त्रिलोकसार की संस्कृत टीका।
दूसरे माधवचन्द्र विद्य वे हैं जो चन्द्रसूरि के प्रशिष्य और सकलचन्द्र के शिष्य थे। उन्होंने क्षुल्लकपुर (कोल्हापुर) में 'क्षपणासार-गद्य' की रचना (शिलाहार कुल के राजा वीर भोजदेव के प्रधानमन्त्री बाहुबली के लिए) की। समय- ई. 13 वीं शती का प्रथम चरण। दोनों विद्वान त्रैविद्य अर्थात् जैनसिद्धांत, व्याकरण और न्यायशास्त्र के पण्डित थे। माधवभट्ट- ई. 16 वीं शती। पिता- मण्डलेश्वर । माता-इन्दुमती। श्रीपर्वत के समीप निवास। कृति- 'सुभद्राहरण' नामक एकांकी, जो श्रीगदित कोटि का एकमात्र उपलब्ध उपरूपक है। माधवभट्ट (कविराज) - 'राघव-पांडवीय' नामक श्लेष-प्रधान महाकाव्य के प्रणेता जिसमें आरंभ से अंत तक एक ही शब्दावली में रामायण और महाभारत की कथा कही गई। इनका वास्तविक नाम माधवभट्ट था और कविराज उपाधि थी। ये जयंतीपुर में कादंब-वंशीय राजा कामदेव के सभा-कवि थे जिनका शासन-काल 1182 से 1187 ई. तक रहा था। अपने ग्रंथ में इन्होंने स्वयं को सुबंधु एवं बाणभट्ट की श्रेणी में रखते हुए भंगिमामयश्लेषरचना की परिपाटी में निपुण कहा है तथा यह भी विचार व्यक्त किया है कि इस प्रकार का कोई चतुर्थ कवि है या नहीं इसमें संदेह है :
'सुबन्धुर्बाणभट्टश्च कविराज इति त्रयः।।
वक्रोक्तिमार्गनिपुणाः चतुर्थो विद्यते न वा।। (1/44) माध्यंदिनि - संस्कृत के पाणिनि पूर्वकालीन वैयाकरण। पं. युधिष्ठिर मीमांसक के अनुसार इनका समय 3000 वि. पू. है। 'काशिका' की उद्धृत एक कारिका से ज्ञात होता है कि इन्होंने एक व्याकरण-शास्त्र का प्रवर्तन किया था। (काशिका, 9-1-14)। पिता- मध्यंदिन। इनके नाम से दो ग्रंथ उपलब्ध होते हैं- 'शुक्लयजुः पदपाठ' तथा 'माध्यंदिनशिक्षा' । कात्यायन कृत 'शुक्लयजुःप्रातिशाख्य' में, 'माध्यंदिन-संहिता' के अध्येता माध्यंदिनि का एक मत उद्धृत है (8-35)। 'वायुपुराण' में
माध्यंदिनि को याज्ञवल्क्य का साक्षात् शिष्य कहा गया है (61-24, 25)। 'माध्यंदिन-शिक्षा' में स्वर तथा उच्चारण संबंधी नियमों का निरूपण है। इस शिक्षाग्रंथ के दो रूप हैं- लघु एवं बृहत्। मान्धाता - ई. 15 वीं शताब्दी का पूर्वार्ध । 'नूतनभोजराज'मदनपाल के द्वितीय पुत्र । 'संस्कृतविधाता' और 'रिपुकुलजेता' की उपाधियों से विभूषित। विश्वेश्वरभट्ट की सहायता से 'मदनमहार्णव' नामक कर्मविपाक-विषयक ग्रंथ की रचना की। कर्मविपाक के कारण कौन से रोग उत्पन्न होते हैं और उनका निवारण किन उपायों से करना चाहिये, इसका प्रतिपादन मदनमहार्णव में किया गया है। मानतुंग - समय- लगभग 7 वीं शती। इनके जीवन के विषय में अनेक किंवदन्तियां हैं। पायमल्लकृत 'भक्तामरवृत्ति' में, विश्वभूषणकृत' भक्तामरचरित में, प्रभाचन्द्रसूरिकृत 'प्रभावकचरित' में और मेरुतुंगकृत प्रबन्धचिन्तामणि में अनेक चमतमरपूर्ण इतिवृत्त उल्लिखित हैं। ये दिगम्बर-श्वेताम्बर-सम्प्रदाय द्वारा समान रूप से मान्य हैं। भक्त-कवि। ब्राह्मण कुलोत्पन्न । चमत्कार दिखाने के उद्देश्य से हथकड़ियों और बेड़ियों से हाथ-पैर कसवाकर, मानतुंग युगादिदेव मंदिर के पिछले भाग में बैठ गये। फिर मानतुंग ने 'भक्तामरस्तोत्र' की रचना कर अपने आपको उनसे मुक्त कर लिया। मानतुंग नाम के अनेक विद्वान् उत्तरकाल में हुए हैं। मानतुंग सूरि - जैनधर्मी कोटिगण की वैरशाखा के अन्तर्गत चन्द्रगच्छ से संबद्ध । रचना- श्रेयांसनाथ-चरित- (वि.सं. 1332) । इस काव्य का आधार है- देवभद्राचार्य- विरचित प्राकृत काव्य श्रेयांसनाथ-चरित। मानतुंग सूरि की शिष्यपरम्परा में क्रमशः रविप्रभसूरि, नरसिंहसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि और विनयचन्द्रसूरि पूर्णिमागच्छ के अधिपति । अन्य ग्रंथ- जयन्तीचरित (प्राकृत) तथा स्वप्रविचारभाष्य। मानदेव - कालीकत के नरेश। अपरनाम एरलपट्टी। रचना'मानदेव-चम्पू-भारतम्' मानवल्ली गंगाधरशास्त्र (म.म.) - सी.आई.ई.आन्ध्र पण्डित । वाराणसी में वास्तव्य। रचना- काव्यात्मक संशोधन, रसगंगाधर-टीका, राजाराम शास्त्री तथा बालशास्त्री (लेखक के गुरु) का पद्यमय चरित्र, भर्तृहरिकृत-वाक्यपदीयम् और कुमारिलभट्टकृत तन्त्रवार्तिक (व्याकरण और मीमांसा विषयक) ग्रन्थों का संस्करण आपने किया है। मानवेद - परम वैष्णव। गुरुवपूर (केरल) के विष्णु मन्दिर में निवास । आध्यात्मिक गुरु-बिल्वमंगल । व्याकरणों के गुरु-कृष्ण पिशारोटी। कृतियां-कृष्णनाटक (गीतिनाट्य) और पूर्वभारतचम्पू (अनन्तभट्ट के अपूर्ण भारतचम्पू पर आगे बढाई हुई रचना) । मानांक- ई. 10 वीं शती। वृन्दावन-यमकम् (चित्रकाव्य) तथा मेघाभ्युदय (काव्य) के प्रणेता। भवभूतिकृत मालती-माधव
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नामक प्रकरण के टीकाकार । मित्रमिश्र - पिता-परशुराम पंडित। पितामह-हंसपंडित।
ओरछा-नरेश वीरसिंह देव के आश्रित, जिनका शासनकाल सं. 1605 से 1627 तक था। इन्होंने वीरसिंह की ही प्रेरणा से "वीरमित्रोदय" नामक बृहत् प्रबन्ध का प्रणयन किया था। यह पद्य ग्रंथ 22 प्रकाशों में विभाजित है। सभी प्रकाश अपने आप में विशाल ग्रंथ हैं। उदाहणार्थ "व्रतप्रकाश" के श्लोकों की संख्या 22,650 है और "संस्कार-प्रकाश" की श्लोक संख्या 17,415 है। "वीरमित्रोदय" में धर्मशास्त्र के सभी विषयों के अतिरिक्त राजनीतिशास्त्र का भी निरूपण है। मित्रमिश्र ने याज्ञवल्क्यस्मृति पर भाष्य की भी रचना की थी। इनके काव्य “आनंदकंदचम्पू" में बाल श्रीकृष्ण की लीला वर्णित है। मिराशी - वासुदेव विष्णु - पद्मभूषण महामहोपाध्याय, डाक्टर आफ लेटर्स इत्यादि उपाधियों से विभूषित। राष्ट्रपति डा. राजेन्द्रप्रसाद, डा. राधाकृष्णन् और इंदिरा गांधी द्वारा सम्मानित । नागपुर विश्वविद्यालय में अनेक वर्षों तक संस्कृत-पालिप्राकृत विभाग के और प्राचीन भारतेतिहास और संस्कृति विभागों के अध्यक्ष। “कार्पस्कस् इंडिकेरम्" नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के संपादक। संशोधन-मुक्तावली नामक ग्रंथमाला में आपके अनेक शोधनिबंध प्रकाशित हुए हैं। नागपुर विदर्भ संशोधन मंडल के संस्थापक। संस्कृतरचना - हर्षचरितसारः (सटीक)। सन 1986 में आपका देहान्त नागपुर में हुआ। मीननाथ - ई. 10 वीं शती। एक बंगाली सिद्ध पुरुष । "स्मरदीपिका" या रतिरत्नप्रदीपिका नामक कामशास्त्रीय ग्रंथ के लेखक। मुंजाल (मंजुल) - समय, ई. 10 वीं शताब्दी। ज्योतिषशास्त्र के प्रसिद्ध आचार्य। "लघुमानस' नामक सुप्रसिद्ध ज्योतिष-विषयक ग्रंथ के प्रणेता। ज्योतिषशास्त्र के इतिहास में इनका महत्त्व दो कारणों से है। इन्होंने सर्वप्रथम ताराओं का निरीक्षण कर नवीन तथ्य प्रस्तुत करने की विधि का आविष्कार किया । म.म.पं. सुधाकर द्विवेदी ने भी अपने ग्रंथ "गणकतरंगिणी" में मुंजाल की प्रासादिक शैली की प्रशंसा की है। इनके "लघुमानस" का प्रकाशन परमेश्वर कृत संस्कृत टीका के साथ 1944 ई. में हो चुका है, संपादक हैं वी. डी. आपटे। एन. के. मजूमदार कृत इसका अंग्रेजी अनुवाद भी 1951 ई. में कलकत्ता से प्रकाशित हुआ है। मुंजे, बालकृष्ण शिवराम (डा) - रचना- नेत्रचिकित्सा। संकल्पित तीन खण्डों में से केवल एक ही लिख पाए। नागपुर (महाराष्ट्र) के निवासी। मुंबई के मेडिकल कालेज में अध्ययन हुआ। आयुर्वेद तथा कौटिलीय अर्थशास्त्र का विशेष अध्ययन किया था। लोकमान्य तिलक के अनुयायी होने के कारण सारा जीवन राजनीतिक कार्यों में व्यस्त रहा। अनेक वर्षों तक हिंदुमहासभा का नेतृत्व किया। उत्तरायुष्य में नासिक में भोसला
मिलिटरी स्कूल की स्थापना की। नेत्रचिकित्सा की प्रथम आवृत्ति का प्रकाशन चित्रशाला प्रेस, पुणे से 1930 ई. में। द्वितीय संस्करण 1976 में डाक्टरसाहब की शताब्दी निमित्त बैद्यनाथ प्रकाशन, नागपुर द्वारा प्रकाशित। मुकुलभट्ट - "अभिधावृत्तिमातृका" नामक काव्यशास्त्र विषयक लघु किंतु प्रौढ ग्रंथ के प्रणेता। समय ई. 9 वीं शती। अपने ग्रंथ के अंत में इन्होंने स्वयं को कल्लट भट्ट का पुत्र कहा है। उद्भट कृत "काव्यालंकारसारसंग्रह" के टीकाकार प्रतिहारेंदुराज ने स्वयं को मुकुल का शिष्य कहा है और इन्हें मीमांसा, साहित्य, व्याकरण व तर्क का प्रकांड पंडित माना है। "अभिधावृत्तिमातृका" में केवल 15 कारिकायें हैं जिन पर इन्होंने स्वयं वृत्ति लिखी है। ये व्यंजना-विरोधी आचार्य हैं। इन्होंने अभिधा को ही एकमात्र शक्ति मान कर उसमें लक्षणा व व्यंजना का अंतर्भाव किया है। मम्मट ने इनके ग्रंथ "अभिधावृत्तिमातृका" के आधार पर "शब्दव्यापारविचार" नामक ग्रंथ का प्रणयन किया था। मुडुम्बी नरसिंहाचार्य - विजयानगरम् के नरेश विजयराम गणपति तथा आनन्द गणपति के आश्रित । रचनाएं- काव्योपोद्घात, काव्यप्रयोगविधि, काव्यसूत्रवृत्ति, अलंकारमाला, दैवोपालम्भः, नरसिंहाट्टहास, जयसिंहश्वमेधीय, युद्धप्रोत्साहनम् और व्हिक्टोरिया-प्रशस्तिः। मुडुम्बी वेंकटराम नरसिंहाचार्य - समय 1842 से 1928 ई. । माता-रङ्गाम्बा, पिता-वीरराघव। विजयनगर के गणपति विजयराम के आश्रित। प्रमुख रचनाएं- चित्सूर्यालोक, गजेन्द्रव्यायोग, राजहंसीय (नाटक), वासवी-पाराशरीय (प्रकरण), रामचंद्र-कथामृत, भागवतम्, खलावहेलन, नीतिरहस्य, उज्वलानन्दचम्पू, काव्यालङ्कार-संग्रह इत्यादि कुल 114 ग्रंथ इन्होंने लिखे हैं। मुद्गल - ई. 14 वीं शती। ऋग्वेद के भाष्यकार । भाष्य-ग्रंथ त्रुटित रूप में उपलब्ध है। यह भाष्य, सायण कृत भाष्य का ही संक्षेप है। इस तरह का संकेत स्वयं ग्रंथकार ने ही दिया है। मुहुराम - तंजौर के महाराज शाहजी (1684-1711 ई.) द्वारा सम्मानित । तंजौर निवासी। पिता-रघुनाथाध्वरी। माता-जानकी। "रसिकतिलक' भाण के रचयिता। मुनिभद्रसूरि - जैनधर्मी बृहद्गच्छ के विद्वान्। मुहम्मद तुगलक द्वारा सम्मानित। गुणभद्रसूरि के शिष्य। समय ई. 14 वीं शती। ग्रंथ-शान्तिनाथ-चरित (सन् 1353) 14 सर्ग। कालिदास, भारवि आदि महाकावियों के काव्य में दोषावलोकन कर ग्रंथ की रचना की गई है। राजशेखरसूरि द्वारा संशोधित ।। मुनीश्वर - ज्योतिषशास्त्र के आचार्य। प्रसिद्ध ज्योतिषि रंगनाथ के सुपुत्र। स्थिति-काल ई. 17 वीं शती। इन्होंने "सिद्धान्तसार्वभौम" नामक सुप्रसिद्ध ग्रंथ की रचना की है तथा भास्कराचार्य-प्रणीत "सिद्धांतशिरोमणि" एवं "लीलावती"
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 415
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पर टीकायें लिखी हैं। मुम्मिडि चिक्कदेवराय - मैसूर के नरेश (ई. स. 1672 से 1704)। रचना-भरतसारसंग्रह।। मुरलीधर - पुष्टिमार्ग के प्रवर्तक आचार्य वल्लभ के अणु-भाष्य पर इन्होंने सिद्धान्त-प्रदीप नाम की टीका लिखी है। मुरारि - "अनर्धराघव" नाटक के रचयिता। बंगाल निवासी। इस नाटक की प्रस्तावना से ज्ञात होता है कि उनके पिता का नाम वर्धमान भट्ट व माता का नाम तंतुमती था। वे मौद्गल्य गोत्रीय ब्राह्मण थे। सूक्ति-ग्रंथों में इनकी प्रशंसा के अनेक श्लोक प्राप्त होते हैं। सूक्ति-ग्रंथों से स्पष्ट होता है कि मुरारि, माघ और भवभूति के परवर्ती थे। ये भवभूति की काव्य-शैली से प्रभावित हैं। अतः उनका समय 700 ई. के पश्चात् है। रत्नाकर ने अपने "हरविजय" महाकाव्य के एक श्लोक में मुरारि की चर्चा की है। अतः वे रत्नाकर (850 ई.) के पूर्ववर्ती हैं। मंख-रचित "श्रीकंठचरित" (1135 ई.) में मुरारि, राजशेखर के पूर्ववर्ती सिद्ध किये गये हैं। इन प्रमाणों के आधार पर मुरारि का समय 800 ई. के आस-पास निश्चित होता है। मुरारिमिश्र - समय ई. 12 वां शतक। मीमांसा-दर्शन के अंतर्गत मुरारि-परंपरा या मिश्र-परंपरा के प्रतिष्ठापक आचार्य । इन्होंने "नयविवेक" नामक ग्रंथ के प्रणेता तथा गुरुमत के अनुयायी भवनाथ नामक प्रसिद्ध मीमांसक के मत का खंडन किया है जिनका समय ई. 11 वीं शती है। इस आधार पर ये भवनाथ के परवर्ती सिद्ध होते हैं। मुरारि मिश्र के सभी ग्रंथ प्राप्त नहीं होते, और जो प्राप्त हुए हैं, वे अधूरे हैं। कुछ वर्षों पूर्व डा. उमेश मिश्र को इनके दो ग्रंथ प्राप्त हुए हैं। त्रिपादनीतिनयम् और एकादशाध्यायाधिकरणम्। दोनों ही ग्रंथ प्रकाशित हो चुके हैं। प्रथम ग्रंथ में जैमिनि के प्रारंभिक चार सूत्रों की व्याख्या है तथा द्वितीय में जैमिनि के 11 वें अध्याय में विवेचित कुछ अंशों की व्याख्या प्रस्तुत की गई है। इन्होंने प्रामाण्यवाद के संबंध में अपने मौलिक विचार व्यक्त किये हैं। इनके मत का उल्लेख अनेक दार्शनिकों ने किया है जिनमें प्रसिद्ध नव्यनैयायिक गंगेश उपाध्याय और उनके पुत्र वर्धमान उपाध्याय हैं। मुरारिदान चारण - जन्म 1837 में। कवि मुरारिदान चारण जोधपुर के निवासी थे। ये साहित्यशास्त्र के विद्वान थे। इन्होंने काव्यशास्त्रीय प्रसिद्ध ग्रन्थ "भाषा-भूषण" का संस्कृत रूपान्तर, "यशवन्तयशोभूषणम्" नाम से किया है। मॅक्डॉनल - पूरा नाम डा. आर्थर एंटनी मॅक्डॉनेल। जन्म 11 मई 1854 ई. में मजुफरपुर (बिहार) में। इनके पिता अलेक्जेंडर मॅक्डॉनेल भारतीय सेना के एक उच्च-पदस्थ अधिकारी थे। शिक्षा, गोटिंगन (जर्मनी) में। इन्होंने तुलनात्मक भाषा-विज्ञान की दृष्टि से जर्मन, संस्कृत व चीनी भाषाओं का अध्ययन
किया था। ये, प्रसिद्ध वैयाकरण विलियम्स, बेनफी (भाषा-शास्त्री),
रॉय एवं मैक्समुलर के शिष्य थे। इनका जन्म भारत में, किंतु शिक्षा-दीक्षा विदेशों में हुई। 1907 ई. में इन्होंने 6-7 मास के लिये भारत की यात्रा की थी और इसी यात्रा-काल में इन्होंने भारतीय हस्तलिखित पोथियों पर अनुसंधान किया था। एम. ए. करने के पश्चात् इन्होंने ऋग्वेद की कात्यायन कृत सर्वानुक्रमणी का पाठ-शोध कर उस पर प्रबंध लिखा। इसी पर इन्हें लिजिग विश्वविद्यालय से पीएच.डी. की उपाधि प्राप्त हुई। पश्चात् इनकी नियुक्ति संस्कृत-प्राध्यापक के रूप में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय में हुई। इनके ग्रंथों की नामावली - 1) ऋग्वेद सर्वानुक्रमणिका का "वेदार्थ-दीपिका" सहित संपादन (1896 ई.), 2) वैदिक-रीडर (1897 ई.), 3) हिस्ट्री आफ संस्कृत लिटरेचर (1900 ई.), 4) टिप्पणी सहित बृहदेवता का संपादन (1904) और 5) वैदिक ग्रामर (1910 ई.), साथ ही वैदिक इंडेक्स (कीथ के सहयोग से)। मेघविजय (गणि) - समय- ई. 18 वीं शती। तपागच्छ के जैनाचार्य। कृपाविजय के शिष्य । गुरुपरम्परा - हीरविजय, कनकविजय, शीलविजय, कमलविजय, सिद्धिविजय और कृपाविजय। ग्रंथ 1) देवानन्द महाकाव्य (सात पर्व), इसमें माघ काव्य की पादपूर्ति है। 2) शान्तिनाथचरित (छह सर्ग) नैषध महाकाव्य के प्रथम सर्ग के सम्पूर्ण श्लोकों की समस्यापूर्ति, 3) मेघदूत समस्यालेख - मेघदूत की समस्यापूर्ति, 4) दिग्विजय महाकाव्य (13 सर्ग) विजयप्रभसूरि का चरित निबद्ध, 5) हस्तसंजीवन (सामुद्रिक शास्त्रपरक), 6) वर्षप्रबोध (ज्योतिष), 7) युक्तिप्रबोध नाटक (दार्शनिक), 8) चन्द्रप्रभा (सिद्धहेमशब्दानुशासन की कौमुदी रूप टीका), 9) सप्तसंधान काव्य नामक श्लेषकाव्य, जिसमें ऋषभदेव, शान्तिनाथ, नेमिनाथ, पार्श्वनाथ, महावीर, रामचंद्र और श्रीकृष्ण इन सात महापुरुषों का चरित श्लेष अलंकार में वर्णन किया गया है। एक श्लोक के सात अर्थ निकलना यह महान् चमत्कार है। मेडपल्ली वेंकटरमणाचार्य - जन्म ई. 1862। महाराज महाविद्यालय में संस्कृत पण्डित। रचना- अनुवाद गीर्वाणशठगोपसहस्रम्, (मूल- तमिल भक्तिकाव्य) अनु. शेक्सपियर-नाटक-कथावली, मूल शेक्सपियर नाटक कथाएं (चार्ल्स लॅम्ब कृत)। मेदिनीकर - ई. 12 वीं शती। बंगाली। पिता प्राणकर । कृतियां- मेदिनी नामक शब्दार्थ कोश। मेधावि-रुद्र (मेधावी) - काव्य-शास्त्र के आचार्य। इनका कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं है, किंतु इनके विचार भामह, रुद्रट, नमिसाधु एवं राजशेखर प्रभृति के ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। मेधाविरुद्र, भरत व भामह के बीच पड़ने वाले समय के सुदीर्घ व्यवधान में हुए होंगे। उपमा के 7 दोषों का विवेचन करते हुए भामह ने इनके मत का उल्लेख किया है।
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(काव्यालंकार 2-39, 40)। मेधाविरुद्र को "संख्यान" अलंकार की उद्भावना करने का श्रेय दंडी ने दिया है। राजशेखर ने प्रतिभा के निरूपण में इनका उल्लेख किया है और बताया है कि वे जन्मांध थे। नमिसाधु इन्हें किसी अलंकार-ग्रंथ का प्रणेता भी मानते हैं। मेधावी - गुरुनाम- जिनचन्द्र सूरि । ग्रंथ - धर्मसंग्रह-श्रावकाचार (10 अधिकार) जो वि.सं. 1541 में समाप्त हुआ। प्रस्तुत ग्रंथ पर समन्तभद्र वसुनन्दि और आशाधर का प्रभाव है। मेधाव्रत शास्त्री . ई. 20 वीं शती का पूर्वार्ध । जन्म, नासिक के समीप येवला ग्राम में, सन् 1893 में। मूलतः गुजराती आर्यसमाजी। पिता -जगजीवन। माता-सरस्वती। प्राथमिक शिक्षा सिकन्दराबाद के गुरुकुल में। तत्पश्चात् वृन्दावन में। 1918 में कोल्हापुर के वैदिक विद्यालय के अध्यक्ष । सन् 1920 से 25 तक सूरत में अध्यापक। सन् 1925 में इटोला-गुरुकुल के आचार्य। सन् 1941 में नौकरी छोड कर अनेक प्रदेशों में भ्रमण करते हुए वेदों का प्रचार किया। सन् 1947 में वानप्रस्थ आश्रम में प्रवेश। बाद में नरेला तथा चित्तोडगढ के गुरुकुलों के प्राचार्य । दण्डकारण्य के निकट कुसूर ग्राम में दिव्यकुंज उपवन की स्थापना की। संस्कारादि कराने में दक्ष। योगाभ्यास में निपुण। पांचवें वर्ष से ही काव्य-सर्जन। सन् 1964 में मृत्यु। कृतियां- (चरित्र ग्रंथ) दयानन्द-दिग्विजय (महाकाव्य), हिन्दी अनुवाद सहित प्रकाशित, ब्रह्मर्षि विरजानन्द-चरित, नारायणस्वामिचरित, नित्यानन्द-चरित, ज्ञानेन्द्रचरित, विश्वकर्माद्भुतचरित व संस्कृतकथामंजरी।
(काव्य - दयानन्दलहरी, दिव्यानन्दलहरी, सुखानन्दलहरी, ब्रह्मचर्यशतक, गुरुकुलशतक व ब्रह्मचर्यमहत्त्व।
लघुकाव्य - वैदिक राष्ट्रकाव्य, मातः प्रसीद प्रसीद, वाङ्मन्दाकिनी, सरस्वती-स्तवन, मातः का ते दशा, श्रीरामचरितामृत, श्रीकृष्णचन्द्रकीर्तन, श्रीकृष्णस्तुति, विक्रमादित्य-स्तवन, नर्मदास्तवन, सत्यार्थप्रकाश-महिमा, दिव्यकुंजयोगाश्रमवर्णन, लालबहादुर शास्त्रिप्रशस्ति, श्रीवल्लभाष्टक, दामोदर-शुभाभिनन्दन, तद्भारतवैभवम्, मातृविलाप, विमानयात्रा, चित्तौडदुर्ग व देशोन्नति।
(गद्य) - कुमुदिनीचन्द्र, शुद्धिगङ्गावतार व हिन्दुस्वराज्यस्य प्रभातकालः।
(नाटक) - प्रकृति-सौन्दर्यम्। मेरुतुंग सूरि (प्रथम) - इस नाम के अनेक विद्वान् आचार्य हुए हैं। उनमें प्रथम थे प्रथम नागेन्द्रगच्छ के चन्द्रप्रभ के शिष्य। ग्रंथ - 1) महापुरुष-चरित (धर्मोपदेशशतक या काव्योपदेश शतक), स्थविरावली (विचारश्रेणी) और 3) प्रबंधचिंतामणि (संवत् 1361), वढमाण- (वर्धमानपुर) में रचित। पांच प्रकाशों और 11 प्रबन्धों में विभक्त । ऐतिहासिक उपाख्यानों से युक्त। इसमें वि.सं. 940-1250 तक के गुजरात का सामान्य इतिहास होने से इतिहास और संस्कृति की दृष्टि
से भी अत्यंत उपयोगी ग्रंथ। इसमें विक्रमादित्य, सातवाहन, भूपराज, चालुक्य कुमारपाल आदि राजाओं का वर्णन है। अपने युग (ई. 1304) का वर्णन कुछ भी नहीं। प्रस्तुति-पद्धति आकर्षक है। मेरुतुंग (द्वितीय) - ग्रंथ :- संभवनाथ-चरित (सं. 1413) तथा कामदेवचरित्र (सं. 1409)। मेरुतुंग (तृतीय) - महेन्द्रसूरि के शिष्य । ग्रंथ- नाभाकनृपकथा, जैनमेघदूत (सटीक), कातन्त्र व्याकरणवृत्ति, षङ्दर्शननिर्णय आदि । मैक्समूलर - इन्होंने अपना सारा जीवन संस्कृत, विशेषतः वैदिक वाङ्मय के अध्ययन व अनुशीलन में लगा दिया था। इनका जन्म जर्मनी के देसाउ नामक नगर में 6 दिसंबर 1823 ई. को हुआ था। इनके पिता प्राथमिक पाठशाला के शिक्षक थे। पिता का देहांत 33 वर्ष की आयु में ही हो गया था। उस समय मैक्समुलर की आयु 4 वर्ष की थी। 6 वर्ष से 12 वर्ष की आयु तक इन्होंने ग्रामीण पाठशाला में ही अध्ययन किया। फिर लैटिन भाषा के अध्ययन के लिये इन्होंने 1836 ई. में लिजिग विश्वविद्यालय में प्रवेश किया और 5 वर्षों तक वहां अध्ययन करते रहे। अल्पायु में ही इन्हें संस्कृत भाषा के अध्ययन की रुचि उत्पन्न हो गई थी। विश्वविद्यालय छोडने के बाद ही ये जर्मनी के राजा द्वारा इंग्लैण्ड से खरीदे गए संस्कृत-साहित्य के बृहद् पुस्तकालय को देखने के लिये बर्लिन गए। वहां उन्होंने वेदान्त व संस्कृत-साहित्य का अध्ययन किया। बर्लिन का कार्य समाप्त होते ही वे पेरिस गए। वहां इन्होंने एक भारतीय की सहायता से बंगला भाषा का अध्ययन किया और फ्रेंच भाषा में बंगला का एक व्याकरण लिखा। वहीं रहकर इन्होंने ऋग्वेद पर रचित सायणभाष्य का अध्ययन किया। इन्होंने 56 वर्षों तक अनवरत गति से संस्कृत-साहित्य व ऋग्वेद का अध्ययन किया, और ऋग्वेद पर प्रकाशित हुई विदेशों की सभी टीकाओं को एकत्र कर उनका अनुशीलन किया। इन्होंने सायण-भाष्य के साथ ऋग्वेद का अत्यंत प्रामाणिक शुद्ध संस्करण प्रकाशित किया, जो 6 सहस्र पृष्ठों एवं 4 खंडों में समाप्त हुआ। इस ग्रंथ का प्रकाशन, ईस्ट इंडिया कंपनी की ओर से 14 अप्रैल 1847 ई. को हुआ। मैक्समुलर के इस कार्य की तत्कालीन यूरोपियन संस्कृतज्ञों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की। फिर अपने अध्ययन की सुविधा देख कर मैक्समूलर इंग्लैण्ड चले गए और मृत्यु पर्यन्त लगभग 50 वर्षों तक वहीं रहे। इन्होंने 1859 ई. में अपना विश्वविख्यात ग्रंथ संस्कृत साहित्य का प्राचीन इतिहास लिखा और वैदिक साहित्य की विद्वत्तापूर्ण समीक्षा प्रस्तुत की। 1 जुलाई 1900 में मैक्समुलर रोग ग्रस्त हुए और रविवार 18 अक्तूबर को उनका निधन हो गया। इन्होंने भारतीय साहित्य और दर्शन के अध्ययन और अनुशीलन में यावज्जीवन घोर परिश्रम किया। इन्होंने तुलनात्मक भाषाशास्त्र एवं नृतत्वशास्त्र के आधार पर
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संस्कृत साहित्य के ऐतिहासिक अध्ययन का सूत्रपात किया था। इनके ग्रंथों के नाम हैं : 1) ऋग्वेद का संपादन 2) ए हिस्ट्री ऑफ दि एश्येंट संस्कृत लिटरेचर 3) लेक्चर्स ऑन दि साइंस ऑफ लेंग्वेज (दो भाग) 4) ऑन स्ट्रेटिफिकेशन
ऑफ लेंग्वेज 5) बायोग्राफीज ऑफ वंडर्स एण्ड टीम ऑफ आर्याज 6) इंट्रोडक्शन टु दि साइंस
ऑफ रिलिजन् 7) लेक्चर्स ऑन ओरीजन एण्ड ग्रोथ ऑफ रिलिजन ऐज इलस्ट्रेटेड बाय दि रिलिजन्स ऑफ इंडिया 8) नेचुरल रिलिजन् 9) फिजीकल रिलिजन 12) काँट्रिब्यूशन टु दि साइंस ऑफ साइकॉलॉजी 13) हितोपदेश का जर्मन अनुवाद 14) मेघदूत का जर्मन अनुवाद 15) धम्मपद का जर्मन अनवाद 16) उपनिषद् (जर्मन अनुवाद) 17) दि सेक्रेड बुक्स ऑफ दि इस्ट सीरीज (ग्रंथमाला) के 48 खंडों का संपादन। मैत्रेयनाथ - बौद्ध विज्ञानवाद के संस्थापक। योगाचार की स्थापना कर इन्होंने आर्य असंग को इस मत की दीक्षा दी। इनका मत आध्यात्मिक सिद्धान्तों के कारण विज्ञानवाद तथा धार्मिक एवं व्यावहारिक दृष्टि से योगाचार कहलाता है। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की। इनमें से केवल दो ही मूल संस्कृत में उपलब्ध हैं। शेष तिब्बती तथा चीनी अनुवाद के रूप में विद्यमान हैं। बस्तोन ने इनके 5 ग्रंथों का उल्लेख किया है 1) महायान सूत्रालंकार, 2) धर्मधर्मताविभाग, 3) महायान उत्तरतंत्र, 4) मध्यांत्र विभंग और 5) अभिसमयालंकारकारिका। आर्याछन्द में सालंकार काव्यरचना में कौशल्य। मैत्रेयरक्षित . ई. 11 वीं शती का उत्तरार्ध। बंगाल के निवासी बौद्ध पंडित । पिता-धनेश्वर । कृतियां- तंत्रप्रदीप ("न्यास" पर टीका), धातुप्रदीप (पाणिनीय धातुपाठ पर भाष्य), दुर्घटवृत्ति
और महाभाष्यव्याख्या । “धातुप्रदीप" का प्रकाशन, वारेन्द्र रिसर्च सोसायटी राजशाही (बंगाल) द्वारा संपन्न । इनके "तंत्रप्रदीप" पर तंत्रप्रदीपोद्योता", "प्रभा" तथा "आलोक' नामक 3 टीकाएं मिलती हैं। प्रथम दो के लेखक हैं : क्रमशः नंदनमिश्र और सनातन तर्काचार्य । तीसरी टीका (आलोक) के लेखक अज्ञात हैं। मोडक अच्युतराव - (ई. 18-19 वीं शती) नासिक (महाराष्ट्र) के निवासी। गुरु- रघुनाथ भट्ट। साहित्य सार, भागीरथी-चंपू व कृष्णलीला (काव्य), भामिनीविलास और पंचदशी पर टीकाएं आदि 30 ग्रंथों के रचयिता। सन् 1834 में मृत्यु। मोरिका - संस्कृत की प्राचीन कवयित्री हैं। "सुभाषितावली" तथा "शाङ्गधर-पद्धति" में इनके नाम की केवल 4 रचनाएं प्राप्त होती हैं। इसके अतिरिक्त इनके संबंध में कोई विवरण प्राप्त नहीं होता। म्हसकर - मुम्बई के निवासी। रचना - स्वास्थ्यवृत्तम्। इसमें स्वास्थ्य तथा दीर्घायुत्व के संबंध में विवरण है। मृत्युंजय - रत्नखेट की कन्या के पुत्र। पिता- कृष्णाध्वरी।
रचना- प्रद्युम्रोत्तरचरितम् (11 सर्गों का महाकाव्य) । यक्षसेन . चिंतामणि नामक ग्रंथ के रचयिता जो शाकटायन व्याकरण की लघु वृत्ति है। यज्ञनारायण दीक्षित - ई. 17 वीं शती। पिता- गोविन्द दीक्षित (तंजौर के प्रधानामात्य)। छोटे भाई वेंकटेश्वर भी कवि। तंजौर के राजा रघुनाथ की सभा में सम्मानित स्थान । समकालिक कवियों द्वारा प्रशस्ति तथा सम्मान प्राप्त । पाण्डित्यप्रदर्शिकी शैली। रचनाएं - रघुनाथविलास (5 अंकों का नाटक), रघुनाथभूपविजय (अनुपलब्ध), साहित्यरत्नाकर (13 सर्गों का महाकाव्य) और अलंकार-रत्नाकर । यज्ञनारायण दीक्षित - ई. 20 वीं शती। “पद्मावती" तथा "वरूथिनी" नामक नाटकों के प्रणेता। यज्ञसुब्रह्मण्य और स्वामी दीक्षित - तिनवेल्ली के निवासी। ई. 19 वीं शती। रचना- वल्लीपरिणय-चम्पू।। यतीन्द्रविमल चौधुरी (डा.) - जन्म कर्णफुली नदी के तट पर स्थित कधुखिल ग्राम (बांगला देश) में दि. 2-1-1908 को। मृत्यु सन् 1964 में। पिता - रसिकचन्द्र चौधुरी प्राइमरी स्कूल में अध्यापक थे। माता-नयनतारा देवी। पत्नी- डा. रमा चौधुरी। सन् 1928 में बी.ए. करने के पश्चात् लन्दन प्रस्थान । सन् 1934 में “वुमेन इन वैदिक रिच्युअल" पर पीएच.डी. उपाधि प्राप्त । इस बीच लन्दन में सेवारत । विवाह सन् 1938 में। भारत लौटने पर वंगीय संस्कृत शिक्षा परिषद् के मंत्री। संस्कृत शिक्षा समिति (बंगाल) के मंत्री। प्रेसिडेन्सी कालेज में संस्कृत विभागाध्यक्ष। कलकत्ता वि.वि. में संस्कृत के व्याख्याता। बाद में संस्कृत कालेज के प्राचार्य। प्राच्यवाणी (इन्स्टिट्यूट आफ् ओरिएंटल लर्निंग) के संस्थापक। "प्राच्यवाणी" नामक अंग्रेजी त्रैमासिक पत्रिका का पत्नी के सहयोग से सम्पादन।
कृतियां- (काव्य) - शक्तिसाधन, मातृलीलातत्त्व और विवेकानन्दचरित (चंपू)। नाटक-महिममय-भारत, मेलनतीर्थ, भारत-हृदयारविन्द, भास्करोदय, भारत-विवेक, भारत-राजेन्द्र, सुभाषः सुभाषः, देशबन्धुदेशप्रिय, रक्षकः श्रीगोरक्षः, निष्किंचन-यशोधा, शक्तिसारद, आनन्दराध, प्रीतिविष्णुप्रिय, भक्तिविष्णुप्रिय, मुक्तिसारद, अमरमीर, भारतलक्ष्मी, महाप्रभु-हरिदास, विमलयतीन्द्र, दीनदास-रघुनाथ, धृतिसीतम्
आदि। ___ बंगाली कृतियां- पंडित ईश्वरचन्द्र विद्यासागर, गौडीय वैष्णवेर संस्कृत साहित्य दान, जननी यशोधरा, बुद्ध- यशोधरा तथा प्रबन्धावली (आठ खण्ड) वंगीयदूत काव्येतिहास आदि ।
शोध कृतियां- 1) कान्ट्रिब्यूशन ऑफ विमेन टू संस्कृत लिटरेचर (सात भागों में) 2) कान्ट्रिब्यूशन ऑफ मुस्लिम्स टू संस्कृत लिटरेचर, (तीन भागों में) 3) मुस्लिम पेट्रोनेज टू संस्कृत लर्निंग (तीन भागों में) 4) कान्ट्रिब्यूशन आफ बेंगाल टू संस्कृत लिटरेचर (तीन भागों में)
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अनूदित कृतियां- शेक्सपियर के ओथल्लो और मर्चेण्ट द्वारा "श्रीविद्या' की उपाधि से विभूषित । आफ् वेनिस के संस्कृत अनुवाद। सम्पादित ग्रंथ- भ्रमरदूत, कृतिया- विजयलहरी (गीतिकाव्य)। प्रतापविजय, चन्द्रदूत, हंसदूत, पान्थदूत, वाङ्मण्डनगुणदूत, घटकर्पर, पदांकदूत
संयोगिता-स्वयंवर तथा छत्रपति-साम्राज्यम्, ये तीन नाटक। आदि काव्य। अब्दुल्लाचित, सुरजन-चरित, वीरभद्र (चम्पू),
सप्तर्षिद एवेद-सर्वस्व (भाष्य)। इनके अतिरिक्त मेवाडप्रतिष्ठा, जामविजय (काव्य) आदि ऐतिहासिक रचनाएं।
हर्षदिग्विजय आदि पांच गुजराती पुस्तकें। इनके अतिरिक्त पालि में एक नाटक जो रंगून में सन् यादव - भेदाभेदवादी एक वेदांताचार्य। ये, यदि रामानुज के 1960 में अभिनीत हुआ।
गुरु यादवप्रकाश से अभिन्न हों, तो इनका समय ई. 11 वीं याज्ञवल्क्य . इनके द्वारा लिखित याज्ञवल्क्यस्मृति, शताब्दी का अंतिम भाग होना। रामानुज ने "वेदार्थसंग्रह" में योगयाज्ञवल्क्य और बृहद्योगी-याज्ञवल्क्य नामक तीन ग्रंथ माने वेदांतदेशिक ने “परमत-भंग" में और व्यासतीर्थ ने तात्पर्यजाते हैं। धर्मशास्त्र इतिहास के लेखक भारतरत्न काणे, स्मृतिकार चंद्रिका" में इनके मत का उल्लेख किया है। इन्होंने ब्रह्मसूत्र और योगशास्त्रकार याज्ञवल्क्य को भिन्न मानते हैं। उसका और गीता पर भेदाभेदसम्मत भाष्य का निर्माण किया है। ये कारण यह है कि याज्ञवल्क्य कृत स्मृति और योग विषयक निर्गुण ब्रह्म तथा मायावाद नहीं मानते। इनके मत के अनुसार ग्रंथों में दस यमों एवं दस नियमों का उल्लेख है किन्तु दोनों ज्ञान-कर्मसमुच्चय मोक्ष का साधन है। ब्रह्म भिन्नाभिन्न है। ग्रंथ नामोल्लेख में मेल नहीं खाते। बृहदारण्यक उपनिषद् में। इनके पूर्ववर्ती वेदांताचार्य भास्कर भेद को औपाधिक मानते हैं याज्ञवल्क्य की मैत्रेयी और कात्यायनी नामक दो पत्नियों का पर यादव उपाधिवाद नहीं मानते। ये परिणामवादी हैं तथा निर्देश है। मैत्रेयी अध्यात्मप्रवण और कात्यायनी संसाराभिमुख जीवन्मुक्ति को अस्वीकार करते हैं। थी। जनक की राजसभा में उपस्थित अश्वल, आर्तभाग, भुज्यु, यादवेन्द्र राय - समय- ई. 20 वीं शती। बंगाली। कतियांलाह्यायनि, उषस्त, चाक्रायण, कहोड के समान गार्गी वाचक्नवी । आरण्यकविलास तथा मङ्गलोत्सव खण्डकाव्य। नाटकका याज्ञवल्क्य से संवाद हुआ था। वहां गार्गी अन्य लोगों स्वर्गीयप्रहसन के समान याज्ञवल्क्य के ब्रह्मनिष्ठ होने के अधिकार पर विरोध
यादवेश्वर तर्करन - समय ई. 19-20 शती। बंगाली। प्रकट करती है। तब याज्ञवल्क्य उसकी भर्त्सना करते हैं और
कृतियां- राज्याभिषेक काव्य (1902) और अश्रुविसर्जन खण्डकाव्य कहते हैं कि यदि वह उसी प्रकार तर्क का आश्रय लेती
(1900)। चलेगी तो उसका सिर भ्रमित हो जायेगा। योगीयाज्ञवल्क्य के
यामुनाचार्य (आलवंदार) - समय- ई. 10 वीं शती सम्पादक पी.सी. दीवाणजी ने गार्गी को याज्ञवल्क्य की पत्नी
का अंतिम-चरण। विशिष्टाद्वैत मुनि (नाथमुनि) के पौत्र । ये कहा है। बृहदारण्यक उपनिषद् में "याज्ञवल्क्यस्य द्वे भायें
नाथमुनि के समान ही अध्यात्म-निष्णात विद्वान् थे किन्तु इनकी बभूवतुः । मैत्रेयी च कात्यायनी च" कहा गया है। इस वाक्य
प्रवृत्ति राजसी वैभव में ही दिन बिताने की होने से नाथमुनि में केवल दो पत्नियों का स्पष्ट निर्देश होने से वाचक्नवी गार्गी
के पश्चात् आचार्य-पद पर पुंडरीकाक्ष तथा राममिश्र आरूढ का ही अपरनाम मैत्रेयी माना जाता है।
हुए थे। राममिश्र को यामुनाचार्य की राजसी प्रवृत्ति से बडा श्वेताश्चतर उपनिषद् के भाष्य में शंकराचार्य ने योगियाज्ञवल्क्य
दुःख हुआ। अतः उन्होंने इन्हें समझा-बुझाकर इनमें अध्यात्मविद्या ग्रंथ से साढे चार श्लोक उद्धत किये हैं। अपरार्क एवं
की अभिरुचि उत्पन्न की और भक्तिशास्त्र का उपदेश देकर स्मृतिचन्द्रिका ने लगभग 100 श्लोक बृहद् योगियाज्ञवल्क्य से
अपना शिष्य बनाया। राममिश्र के वैकुंठवासी होने के पश्चात् उद्धृत किये है।
ये सन् 973 में श्रीरंगम् के आचार्यपीठ पर आसीन हुए और कत्यकल्पतरु ने लगभग 70 श्लोक बृहद्योगि-याज्ञवल्क्य वैष्णव मंडली का नेतत्व करने लगे। ये अपने तामिल नाम से उद्धृत किये हैं। बंगाल के राजा बल्लालसेन (ई. 1152-79)
"आलवंदार" के नाम से विशेष प्रख्यात हैं। इन्होंने प्राचीन ने अपने दानसागर में बृहद्योगि-याज्ञवल्क्य से बहुत से उद्धरण
आलवार-काव्यों के प्रचार, प्रसार तथा अध्यापन के साथ ही लिए हैं।
नवीन ग्रंथों का प्रणयन भी किया। इनके प्रमुख ग्रंथों के नाम याज्ञिक, मूलशंकर माणिकलाल - जन्म नडियाद (गुजरात) है- गीतार्थसंग्रह, श्रीचतुःश्लोकी, सिद्धितंत्र, महापुरुषनिर्णय, में दि. 31-1-1886 को। मृत्यु दि. 13-11-1965 को। आगमप्रामाण्य तथा आलवंदारस्तोत्र। यामुनाचार्य के ग्रंथों में पिता-माणिकलाल। माता-अतिलक्ष्मी। आरम्भिक शिक्षा नडियाद यहा सबसे अधिक लोकप्रिय ग्रंथ है और "स्तोत्ररत्न" के में। उच्च शिक्षा बडोदा में। बी.ए. के बाद बैंक में कार्यरत । नाम से वैष्णव समाज में विख्यात है। आलवंदारस्तोत्र के 70 सन् 1924 में शिनोर में शिक्षक। बाद में बडोदा के संस्कृत श्लोकों में आत्मसमर्पण के सिद्धान्त का सुंदर वर्णन है। कॉलेज के प्राचार्य। सेवानिवृत्त होने पर नडियाद में निवास । यामुनाचार्य ने काव्य एवं दर्शन दोनों ही प्रकार के ग्रंथों का वाराणसी विद्वत परिषद् द्वारा “साहित्यमणि" तथा शंकराचार्य
प्रणयन किया।
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यास्क - वैदिक वाङ्मय के रत्नों में निरुक्त एक अत्यंत तेजस्वी रत्न है। यद्यपि निरुक्तकार अनेक (चौदह) हुए, फिर भी आचार्य यास्क का निरुक्त कालानुक्रम से अन्तिम किन्तु गुणों से अग्रिम माना जाता है।
यास्काचार्य के निरुक्त के बारह अध्याय हैं। अभी परिशिष्ट रूप में और दो गिने जाते हैं। ये परिशिष्टात्मक अध्याय भी पूर्वकाल में बारहवें अध्याय का ही भाग माने जाते होंगे ऐसा विद्वानों का तर्क है।
जिस निघण्टु पर भाष्यरूप में निरुक्त की रचना हुई वह निघण्टु यास्कप्रणीत है या नहीं इस विषय में विद्वानों में एकमत नहीं। फिर भी दोनों कृतियों को एककर्तृक मानने पर ही विद्वानों का बहुमत दीखता है।
यास्काचार्य ने निरुक्त के अतिरिक्त याजुषसर्वानुक्रमणी और कल्प ये दो ग्रंथ लिखे थे किन्तु वे ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। निरूक्त के आधारभूत निघण्टु के तीन कांड और पांच अध्याय और हैं। प्रथम तीन अध्याय नेघण्ट्रककाण्ड, चौथा नैगमकाण्ड
और पांचवां दैवतकाण्ड के नाम से प्रसिद्ध है। इसका शास्त्रीय विवरण ही निरुक्त नाम से प्रसिद्ध है। सभी परवर्ती वेदभाष्यकारों के लिए यह ग्रंथ प्रमाणभूत रहा है।
यास्क का काल, महाभारत-काल ही समझना चाहिये। महाभारत में यास्क का निर्देश है। यास्क के अतिरिक्त अन्य निरुक्तकार गालव का भी निर्देश होने के कारण वह संभावना यास्क का समय निर्धारित करने में बाधक नहीं होगी।
यास्क प्रणीत निरुक्त के दो पाठ हैं, बृहत्पाठ और लघुपाठ। दुर्गाचार्य की वृत्ति लघुपाठ पर है। लघुपाठ गुर्जर पाठ के नाम से और बृहत्पाठ महाराष्ट्र पाठ के नाम से प्रसिद्ध है।
वेदार्थनिर्णय के विषय में निरुक्तकार ने अधिदैवत, अध्यात्म, आख्यान, समय आदि 9 पक्ष बना कर उन सब पक्षों का यथोचित समन्वय करके दिखाया है। यही निरुक्त की विशेषता है। युधिष्ठिर मीमांसक - आधुनिक युग के प्रसिद्ध वैयाकरण । राजस्थान के अंतर्गत जिला अजमेर के विरकच्यावास नामक ग्राम में दि. 22 सितंबर 1909 ई. को जन्म। इन्होंने व्याकरण, निरुक्त, न्याय एवं मीमांसा का विधिवत् अध्ययन व अध्यापन किया है और संस्कृत के अतिरिक्त हिंदी में भी अनेक ग्रंथ लिखे हैं। संस्कृत में अभी तक 14 शोधपूर्ण निबंध, विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चके हैं। इन्होंने संस्कत के 10 ग्रंथों का संपादन किया है। 'वेद-वाणी' नामक मासिक पत्रिका के संपादक। भारतीय प्राच्यविद्या प्रतिष्ठान (अजमेर) के संचालक। 'संस्कृत व्याकरण शास्त्र का इतिहास' तीन खंडों में लिखा। इस ग्रंथ की अपूर्वता के कारण अनेक संस्करण प्रकाशित हुए। इस के अतिरिक्त काशकृत्स्र-धातु-व्याख्यान का संस्कृत अनुवाद, दैवम् पुरुषकारोपेतम् (धातुपाठविषयक) और निरुक्तसमुच्चय (वररुचि-कृत) इन ग्रंथों का संपादन युधिष्ठिर
मीमांसकजी ने किया है। योगेन्द्र मोहन - जन्म- 1886 ई.। मृत्यु- 1796 ई.। पिताकाशीश्वर चक्रवर्ती। माता- रोहिणी देवी। अग्निहोत्री श्रीराममिश्र, माधव मिश्र आदि के वंशज । बंगला-देश के ऊनसिया ग्राम (परगना कोटालीपाडा, जिला 'फरीदपुर') में जन्म। शिक्षाहरिदास सिद्धान्तवागीश से। सन् 1915 से 1961 तक मतिलालसील फ्री कालेज में संस्कृत से प्रधान अध्यापक।
कृतियां- कृतान्त-पराजय (महाकाव्य), संयुक्ता-पृथ्वीराज (नाटक)। बंगाली कृतियां-कर्मफल (उपन्यास) और भारते कलिनाटक। इनके अतिरिक्त कतिपय संस्कृत निबन्ध ।। रंगनाथ - काशी के निवासी। सन् 1575 में जन्म। पिताबरूलाल । माता-मौजी। ज्योतिषशास्त्रविषयक 'सूर्यसिद्धांत' पर इनकी 'गूढार्थप्रकाशिका' नामक टीका प्रसिद्ध है। रंगनाथ - समय-ई. 16-17 वीं शती । रचना- 'लक्ष्मीकुमारोदयम्' (मुद्रित)। इसमें कुम्भकोणम् के सत्पुरुष लक्ष्मीकुमार ताताचार्य का चरित्र-वर्णन है। कवि चरित्रनायक का वंशज था । चरित्रनायक विजयनगर के श्रीरंग तथा वेंकपति राजाओं के मंत्री तथा गुरु थे। इन्हें कोटि-कन्यादान की पदवी प्राप्त थी क्यों कि इन्होंने अनेक कन्याओं का दान किया था। चरित्रनायक के गुरु कांचीवरम् पीठ के आचार्य पंचमत भंजक तातादेशिक थे। रंगनाथ - समय- ई. 18 वीं शती। तामिल प्रदेश में ताम्रपर्णी तट के अग्रहार के निवासी। 'दमयन्ती-कल्याण' नामक नाटक के प्रणेता। रंगनाथ कविकुंजर - पितामह- वीरराघवसूरि कविराज । कृतियांभोजराज (अंक),रम्भारावणीय (ईहामृग) तथा अभिनवराघव (नाटक)। रंगनाथ ताताचार्य - जन्म- 1894 ई.। सरस्वती महल ग्रन्थालय, (तंजौर) के प्रमुख अधिकारी। रचनाएं- शुकसन्देश, हनुमत्प्रसादसन्देश, काव्य-रत्नावली, न्यायसभा और कुत्सितकुसीदम् (मंजूषा मासिक पत्रिका में क्रमशः प्रकाशित)। प्रारंभिक 4 कृतियां भी प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी रचनाओं में संस्कृत-वाक्यप्रचारों का अधिक मात्रा में प्रयोग है। रंगनाथ मुनि (नाथमुनि) - समय- 824 ई. 924 ई.। वैष्णव-जगत् में ये नाथमुनि के नाम से विख्यात हैं। ये शठकोपाचार्य की शिष्य-परंपरा के थे। शठकोप, मधुरकवि, परांकुशमुनि, नाथमुनि यह परंपरा है। इन्होंने आलवारों द्वारा तामिल भाषा में विरचित भक्तिपूरित काव्यों (तामिल वेद) का पुनरुद्धार किया, श्रीरंगम् के प्रसिद्ध मंदिर में भगवान के सामने उनके गायन की व्यवस्था की तथा वैदिक ग्रंथों के समान इन ग्रंथों का भी वैष्णव मंडली में अध्यापन आरंभ किया। इस प्रकार नाथमुनि ने जहां प्राचीन तामिल भक्ति ग्रंथों का उद्धार तथा प्रचार किया, वहीं नवीन संस्कृत ग्रंथों की रचना एवं वैष्णव मत का प्रचार भी किया। इनके 'योग-रहस्य' नामक ग्रंथ का निर्देश वेदांतदेशिक ने अपने ग्रंथों में किया
मुनि के नाम। शठकोप, सवारों द्वारा
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है। इनका 'न्याय-तत्त्व' नामक ग्रंथ विशिष्टाद्वैत संप्रदाय का प्रथम मान्य ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ में इस मत की दार्शनिक दृष्टि का विवेचन किया है।
नाथमुनि श्रीरंगम् की आचार्य-गद्दी पर आरूढ थे। इनके पौत्र यामुनाचार्य, इन्हीं के समान अध्यात्म-निष्णात विद्वान् थे किन्तु उनकी प्रवृत्ति राजसी वैभव में ही दिन बिताने की होने से नाथमुनि के पश्चात् आचार्य -पद पर पुंडरीकाक्ष तथा राममिश्र आरूढ हुए थे। रंगनाथ यज्वा - समय- वि. 18 वीं शती का मध्य । मंजरीमकरन्द (पदमंजरी की टीका) के लेखक । अनेक हस्तलेख उपलब्ध। अड्यार के हस्तलेख में इनका नाम परिमल लिखा है। नल्ला दीक्षित के पौत्र, नारायण दीक्षित के पुत्र। इनका वंश श्रौत यज्ञों के अनुष्ठान के लिये प्रसिद्ध । चौल देश के करण्डमाणिक्य ग्राम के निवासी। इन्होंने सिद्धान्त कौमुदी पर पूर्णिमा नामक व्याख्या थी लिखी है। रंगनाथाचार्य - तिरुपति निवासी। कृष्णम्माचार्य के पिता।। रचनाएं- सुभाषितशतकम्, शृंगारनायिकातिलकम्, पादुकासहस्रावतार- कथासंग्रहः, गोदाचूर्णिका, रहस्यत्रयसाररत्नावली, सन्मतिकल्पलता, अलंकारसंग्रहः । रंगाचार्य - समय- ई. 20 वीं शती। प्रसिद्ध देशभक्त । 'शिवाजीविजय'तथा 'हर्ष-बाणभट्टीय' नामक नाटकों के प्रणेता। रघुदेव न्यायालंकार - ई. 17 वीं शती। रचनाएं- तत्त्वचिंतामणि-गूढार्थदीपिका, नवीननिर्माणम् दीधितिटीका, न्यायकुसुमकारिका- व्याख्या, द्रव्यसारसंग्रह और पदार्थ-खण्डन व्याख्या। रघुनंदन - पिता- वंद्यघटीय ब्राह्मण हरिहर भट्टाचार्य। समय1490 से 1570 ई. के बीच। इन्हें बंगाल का अंतिम धर्मशास्त्रकार माना जाता है। इन्होंने 'स्मृतितत्त्व' नामक बृहत् ग्रंथ की रचना की है। यह ग्रंथ धर्मशास्त्र का विश्वकोश माना जाता है। इसमें 300 ग्रंथों व लेखकों के उल्लेख हैं। 'स्मृतितत्त्व' 28 तत्त्वों वाला है। इसके अतिरिक्त इन्होंने 'तीर्थतत्त्व', 'द्वादशयात्रा-तत्त्व', 'त्रिपुष्करशांतितत्त्व,' 'गया-श्राद्ध-पद्धति', 'रासयात्रा-पद्धति' आदि ग्रंथों की भी रचना की है। कहा जाता है कि रघुनंदन व चैतन्य महाप्रभु दोनों के गुरु वासुदेव सार्वभौम थे। इन्होंने दायभाग पर भाष्य की भी रचना की है। रघुनन्द गोस्वामी - समय- ई. 18 वीं शती। बरद्वान-निवासी। स्तव-कदम्ब, कृष्णकेलि- सुधाकर, उद्धवचरित, गौरांगचम्पू आदि काव्य-ग्रंथों के रचयिता। रघुनाथ नायक- विद्वान् व कलाभिज्ञ नायकवंशीय तंजौर-नरेश। इन्होंने 'रामायणसार-संग्रह' के अतिरिक्त पारिजात-हरण, अच्युतेन्द्राभ्युदय, गजेन्द्रमोक्ष, यक्षगान तथा रुक्मिणीकृष्णविवाह का भी प्रणयन किया है। 'संगीत-सुधा' तथा 'भारत-सुधा'
नामक रचनाएं भी इनके नाम पर चलती हैं किंतु उनका लेखक गोविंद दीक्षित माने जाते हैं।
रामायण विषयक इनके तेलगु ग्रंथ का संस्कृत अनुवाद मधुरवाणी ने किया, जो राजसभा की सदस्या थीं। रघुनाथ के जीवन पर अनेक कवियों ने काव्य-रचना की है। इनकी पत्नी रामभद्रांबा भी श्रेष्ठ कवयित्री थी जिसने रघुनाथाऽभ्युदय नामक महाकाव्य में अपने पति का चरित्र वर्णन किया है। रघुनाथ - रचना- 'वादिराज- वृत्त-रत्न-संग्रहः'। इस काव्य में विजयनगर साम्राज्य के अंतिम दिनों में हए कर्नाटकीय महाकवि वादिराज का चरित्र वर्णन है। वादिराज ने अनेक काव्य लिखे हैं। वे सब मुद्रित हैं। रघुनाथ - समय- अनुमानतः 1626-1678 ई.। मेवाडी कवि। आप महाराजा जगत्सिंह के समकालीन थे। इनकी एकमात्र कृति है- जगत्सिंहकाव्यम्। इसमें महाराणा का जीवनचरित वर्णित है। रघुनाथ- ई. 17 वीं शती। सामन्तसार (बंगाल) के निवासी। पिता- गौरीकान्त। 'कृष्णवल्लभ' से समाश्रय प्राप्त । कृति-त्रिकाण्ड-चिन्तामणि (अमरकोश की वृत्ति)। रघुनाथदास - ई. 15 वीं शती। चैतन्य-परम्परा के छः प्रमुख गोस्वामियों में से एक। सप्तग्राम के जमींदार-कुल में जन्म। कृतियां- दानकेलि-चिन्तामणि (लघु काव्य) मुक्ताचरित (चम्पू) तथा स्तवावलि। रघुनाथदास - रचना- हंसदूतम् (ई. 17 वीं शती)। रघुनाथ नायक - तंजौर के एक विद्वान । इनका 'वाल्मीकिचरित' (वाल्मीकि के चरित्र पर आधारित एकमेव काव्य) संस्कृत साहित्य में विद्यमान है। रघनाथशास्त्री-समय-ई.19 वीं शती । रचना- गादाधरीपंचवादटीका। रघुनाथ शिरोमणि - ई. 14 वीं शती। नवद्वीप के सर्वश्रेष्ठ नव्य नैयायिक। वासुदेव सार्वभौम व पक्षधरमिश्र के पास इन्होंने अध्ययन किया था। इन्होंने तत्त्वचिंतामणि' पर 'दीधिति' नामक टीका लिखी। इस टीका में इन्होंने अनेक सिद्धांतों का युक्तिपूर्व खंडन करते हुए अपने नवीन सिद्धांत प्रस्थापित किये हैं। मूल ग्रंथ के साथ ही, आगे चलकर यह टीका भी पांडित्य की कसौटी सिद्ध हुई। यह टीका, मौलिक विचारों एवं तार्किक प्रतिभा का अपूर्व संगम है। रघुनाथ की इस अद्वितीय तार्किक बुद्धि के कारण उन्हें, 'शिरोमणि' की पदवी प्राप्त हुई थी।
अन्य रचनाएं . बौद्ध-धिक्कार-शिरोमणि, पदार्थ-तत्त्व-निरूपण,
किरणावली-प्रकाश-दीधितिः, न्यायलीलावती-प्रकाश-दीधिति, अवच्छेदकत्वनिरुक्तिः, खण्डन-खण्डखाद्य दीधिति, आख्यातवाद और नवाद । रघुनाथसूरि . पाकशास्त्र विषयक संकलित जानकारी प्रस्तुत
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करने वाले 'भोजन-कुतूहल' नामक ग्रंथ के लेखक । यह ग्रंथ मुद्रित स्वरूप में नहीं। इसकी हस्तलिखित प्रति उज्जैन के प्राच्य ग्रंथ-संग्रह में सुरक्षित है। रचना-काल ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध। ग्रंथ की रचना करते समय धर्मशास्त्र तथा वैद्यकशास्त्र के 101 ग्रंथों के उद्धरणों का विपुल प्रयोग करने के साथ ही रघुनाथसूरि ने कहीं-कहीं पर अपना स्वयं का भी मत व्यक्त किया है। रघुनाथसूरि - समय- ई. 18 वीं शती। मैसूर- निवासी। पिता-शैलनाथसूरि। रामानुज महादेशिक की शिष्यपरम्परा में। 'प्राभावत' नाटक के प्रणेता। डा. रघुवीर - अनेकविध आधुनिक शास्त्रों की संस्कृतनिष्ठ परिभाषा के कोशों के निर्माता। इन कोशों में अर्थशास्त्रशब्दकोश, आंग्लभारतीय-पक्षिनामवली, आंगनमा तीय प्रशासन शब्दकोश, खनिज- अभिज्ञान, तर्कशास्त्रपारिभाषिक-शब्दावली, वाणिज्यशब्दकोश, सांख्यिकी-शब्दकोश इत्यादि उल्लेखनीय हैं। आपका कोशकार्य नागपुर तथा दिल्ली में हम। नाप भारतीय जनसंघ के अध्यक्ष थे। एक शोचनीय पार के कारण आपका देहान्त हुआ। रजनीकान्त साहित्याचार्य- समय- ई. 10 व पाती। चितगांव (बंगाल) के निवासी। कृतियां- चट्टलविलाप-चित्रकाव्य। विद्याशतक। नाटक-मङ्गलोत्सव और सस्कतबोध- व्याकरण। रणछोड भट्ट - समय- अनुमानतः 1652-1600 ई.। इन्होंने मेवाड के महाराणा अमरसिंह को अपनी रचना का विषय बनाया है। ग्रंथ (1) अमरकाव्यवंशावली और (2) राजप्रशस्तिकाव्य- इस महाकाव्य को 24 सों विभक्त किया गया है। रणेन्द्रनाथ गुप्त कविराज । समय- ई. 20 वीं शती। वंगवासी। 'हीरश्चन्द्रचरित' नामक नाटक के प्रणेता। रत्रकीर्ति - ई. 16 वीं शती। गुरु-ललितकीर्ति। ग्रंथबाहुभद्रचरित (4 सर्ग)। पुराणशैली में लिखित । रत्नभूषण - ई. 19 वीं शती। पूर्व बंगाल के निवासी। कृतियां- काव्यकौमुदी (विषय- काव्यशास्त्र)। रत्ननन्दिगणी - जैनपंथी तपागच्छ के सोमसुन्दर सूरि के प्रशिष्य और नन्दिरत्नगणी के शिष्य। ग्रंथ- 1. उपदेशतरंगणी 2. भोजप्रबंध (वि.सं. 1510) । रत्नाकर - 'हरविजय' नामक महाकाव्य के प्रणेता। पिताअमृतभानु। काश्मीर-नरेश चिपट जयापीड (800 ई.) के सभा-पंडित। कल्हण की 'राजतरंगिणी' में इन्हें अवंतिवर्मा के राज्यकाल में प्रसिद्धि प्राप्त होने का उल्लेख है। ये ई. 9 वीं शती के प्रथमार्ध तक विद्यमान थे। 'हरविजय' का प्रकाशन काव्यमाला संस्कृत सीरीज मुंबई से हो चुका है। रत्नाकर ने माघ की ख्याति को दबाने के लिये ही 'हरविजय' महाकाव्य का प्रणयन किया था।
रत्नाकर पण्डित - राजस्थान- निवासी । रचना- जयसिंह-कल्पद्रुमः, विषय- धर्मशास्त्र। ई. 18 वीं शती। रत्नाकर शान्तिदेव - ई. 9 वीं शती। 'बुभुक्षु' के नाम से विख्यात । विक्रमशिला मठ के द्वारपण्डित । 'छन्दोरत्नाकर' के कर्ता । रमाकान्त मिश्र - ई. 20 वीं शती। व्याकरणाचार्य,साहित्याचार्य, आयुर्वेदाचार्य तथा बी.ए. । नरकटियागंज (चंपारन) के जानकी संस्कृत विद्यालय में प्रधानाध्यापक। 'जवाहरलाल नेहरू विजय' नामक नाटक के प्रणेता। रमा चौधुरी - समय- ई. 20 वीं शती। डा. यतीन्द्रविमल चौधुरी की पत्नी। पिता- बैरिस्टर सुधांशुमोहन बोस (वंगीय पब्लिक सर्विस कमिशन के अध्यक्ष) । पितामह-बै. आनन्दमोहन बोस (इंडियन नेशनल काँग्रेस के अध्यक्ष)। मामा प्रा. ए.सी. बैनर्जी (प्रयाग वि.वि. के अध्यक्ष)। पिता के मामा महान् वैज्ञानिक सर जगदीशचंद्र बसु । इस प्रकार आपकी कुलपरंपरा उल्लेखनीय है। आक्सफोर्ड वि.वि. से डी.फिल. की उपाधि । लेडी ब्रेबोर्न कालेज की 30 वर्षों तक प्राचार्या। सात वर्षों तक रवीन्द्र भारती वि.वि. की कुलपति। कई सांस्कृतिक संस्थाओं की सदस्या एवं अध्यक्षा। सन् 1970 में जर्मन शासन द्वारा सम्मानित। सन् 1971 में रूस के निमंत्रण पर (दो अन्य कुलपतियों के साथ) रूस-गमन। पति के दिवंगत होने के पश्चात् चार वर्षों में 20 नाटकों का सृजन। भारत तथा विदेशों में अनेक बार अपने तथा अपने पति डा. यतीन्द्रविमल चौधुरी के नाटकों का मंचन तथा निर्देशन । साहित्य अकादमी की जनरल कौन्सिल तथा संस्कृत मंडल की सदस्या।
कृतियां- शंकर-शंकरम्, देशदीपम्, पल्लीकमल, कविकुल-कोकिल, मेघमेदुर-मेदिनीय, युगजीन-निवेदित-निवेदितम्, अभेदानन्द, रसमय-रासमणि,रामचरितमानस, चैतन्य-चैतन्यम्, संसारामृत, नगरनूपुर, भारत-पथिक, कविकुल-कमल, भारताचार्य, अग्निवीणा, गणदेवता, भारततातम्, यतीन्द्रम् तथा प्रसन्नप्रसाद ।
बंगाली कृतियां - दशवेदान्त सम्प्रदाय, साहित्यकण, संस्कृतांगरोग, निम्बार्कदर्शन, वेदान्तदर्शन, सूफीदर्शन ओ वेदान्त । ____ अंग्रेजी कृतियां - (1) डाक्ट्रिन्स ऑफ निंबार्क अन्ड हिज फालोअर्स (तीन खंड) (2) सुफीझम् औण्ड वेदान्त। (3) इंडो इस्लामिक सिंथेटिक फिलॉसॉफी। (4) डाक्ट्रिन्स ऑफ श्रीकण्ठ (3 खंड)। (5) संस्कृत औण्ड प्राकृत पोएटेसेस् । (6) फिलॉसॉफिकल एसेज। (7) टेन स्कूल्स् ऑफ वेदान्त (3 खंड)। रमानाथ मिश्र - जन्म- सन् 1904 में, बालेश्वर के निकट मणिखम्भ ग्राम (उत्कल) में। पिता- यदुनाथ मिश्र । बालेश्वर के श्रीरामचन्द्र संस्कृत विद्यालय में संस्कृत की शिक्षा । आजीवन वहीं अध्यापन । साहित्यशास्त्री, आयुर्वेदशास्त्री तथा कर्मकाण्डाचार्य की उपाधियों से अलंकृत। अंग्रेजी में भी निपुण। कृतियां
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चाणक्यविजय, पुरातनबालेश्वर, समाधान, प्रायश्चित, आत्मविक्रय, राखालदास न्यायरत्न (म.म.) - मृत्यु- सन् 1921 में। कर्मफल तथा श्रीरामविजय नामक नाटक।
प्रसिद्ध नैयायिक। कृतियां- रसरत्न और कवितावली (काव्य) रमानाथ शिरोमणि - मेदिनीपुर (बंगाल) के निवासी।। डा. वे. राघवन् - (देखिए वेंकटराम राघवन्) । पारिजात-हरण नाटक के लेखक। प्रकाशन 1904 में।
राघवाचार्य - श्रीनिवासाचार्य के पुत्र । रचना- वैकुण्ठविजयचम्पू रमापति उपाध्याय - पल्ली- निवासी। भार्गव वंशी मैथिल
(भारत के अनेक मन्दिरों तथा तीर्थस्थानों का वर्णन) और ब्राह्मण। दरभंगा के राजा नरेन्द्रसिंह (1744-1761 ई.) का
इन्दिराभ्युदयम्। समाश्रय प्राप्त। पिता- श्रीकृष्णपति भी कवि थे। रचना'रुक्मिणी- परिणय' नामक छः अंकों का नाटक।
राघवेन्द्र कवि - ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध । 'राधा-माधव'
नामक सात अंकी नाटक के प्रणेता। रमेशचंद्र शुक्ल - एम.ए. पीएच.डी., सांख्ययोगाचार्य,
राघवेन्द्र कविशेखर • ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध । साहित्याचार्य, साहित्यरत्न इत्यादि उपाधियों से विभूषित। डा.
भवभूतिवार्ता नामक चम्पू के रचयिता। रमेशचंद्र शुक्लजी, अलीगढ के वाष्र्णेय महाविद्यालय में संस्कत विभागाध्यक्ष पद से सेवानिवृत्त हुए। आधुनिक संस्कृत लेखकों
राघवेन्द्र यति - माध्व संप्रदाय के प्रसिद्ध ग्रंथकार । मन्त्रार्थमंजरी में आपकी साहित्य सेवा सराहनीय है। चारुचरितचर्चा नामक
नामक ग्रंथ के प्रणेता जिसमें श्रीमध्वाचार्य कृत भाष्य का आपका गद्य निबंध संग्रह प्राचीन, मध्ययुगीन एवं अर्वाचीन
स्वतन्त्र व्याख्यान किया गया है। इस व्याख्यारूप ग्रंथ में महापुरुषों का संक्षेप में परिचय देता है। इसके अतिरिक्त शाबरभाष्य, चन्द्रिका, ऐतरेयभाष्य, अनुव्याख्यान, सूत्रकारकण्ठीरव, आपके द्वारा लिखित ग्रंथ हैं- (1) प्रबंधरत्नाकर, (2)
गीता, कण्वश्रुति आदि अनेक ग्रंथों के उद्धरण मिलते हैं जिनसे नाट्यसंस्कृतिसुधा, (3) गांधिगौरवम् (उत्तर प्रदेश शासन
राघवेन्द्र यति के पाण्डित्य की गरिमा का परिचय मिलता है। पुरस्कृत) (4) लालबहादुर शास्त्री चरितम्, (5) भरतचरितामृत, राजचूडामणि (दीक्षित) - ई. 17 वीं शती। पिता- श्रीनिवास (6) विभावनम्, (7) बंगलादेश, (8) गीतमहावीरम्, (9) दीक्षित जो षड्भाषा- चतुर, 'अद्वैताचार्य' 'अभिनव-भवभूति' संस्कृतवैभवम्, (10) यशास्तिलकम्। आपके ग्रंथ वाणी परिषद, आदि उपाधियों से प्रसिद्ध थे और जिन्हें आश्रयदाता चोल आर-6, उत्तमनगर, वाणीविहार, नई दिल्ली-59. इस स्थान राजा ने 'रत्नखेट' की उपाधि दी। इस महाकवि के पत्र पर प्राप्त हो सकते हैं।
राजचूडामणि भी कवि थे। उनके 'शंकराभ्युदय' (6 सर्ग) रयत अहोबलमन्त्री - ई. 16 वीं शती। पिता- नृसिंहामात्य।
काव्य में जगद्गुरू शंकराचार्य का चरित्र-वर्णन है। यह काव्य पितामह- चन्नय मन्त्री। रचना- कुवलय-विलास नाटक (पांच
संस्कृत मासिक 'सहदया' में क्रमशः प्रसिद्ध हुआ। अंकी)।
अन्य रचनाएं- यादव-राघव- पांडवीयम्, वृत्तरत्नावली, रविकीर्ति - प्रशस्ति-लेखक। चालुक्य पुलकेशी सत्याश्रय द्वारा
चित्रमंजरी, कामकथा और काव्यदर्पण, रघुनाथ-भूपविजय, संरक्षित । समय- ई. 7 वीं शताब्दी। प्रशस्ति में पुलकेशी के
'रत्नखेटविजय (पिता का चरित्र वर्णन)। इन्होंने 'मंजुभाषिणी' प्रताप और तेज का सरस और अलंकृत शैली में वर्णन ।
नामक रामकथा परक काव्य, एक ही दिन में लिखा था। कालिदास और भारवि के समकक्ष। 37 श्लोकों में निर्मित राजचूडामणि मखी - ई. 17 वीं शती। रचनाएंइस प्रशस्ति से दक्षिण भारत के राजनीतिक इतिहास पर विशद तत्त्वचिन्तामणि-दर्पण। प्रकाश पडता है। इतिहास की दृष्टि से इस प्रशस्ति का बहुत राजादित्य - समय- 12 वीं शती। उपनाम- पद्मविद्याधर । महत्त्व है।
पिता- श्रीपति। माता- वसन्ता। गुरु-शुभचंद्र देव । जन्मग्रामरविचन्द्र - अपरनाम मुनीन्द्र। कर्नाटकवासी। जैनपंथी माधवचन्द्र कोंडिमंडल का पूविनबाग। विष्णुवर्धन राजा के सभा-पण्डित । की गुरुपरंपरा के अनुयायी। समय- ई. 13 वीं शती। रचना- ग्रंथ- व्यवहारगणित, क्षेत्रगणित, व्यवहारिरत्न, जैनगणित सूत्र आराधनासार-समुच्चय। इस पर आचार्य कुन्दकुन्द का प्रभाव टीका उदाहरण, चित्रहसुगे और लीलावती। स्पष्ट दिखाई देता है।
राजमल्ल - काष्ठासंघी, हेमचन्द्रान्वयी। कुमारसेन के पट्टशिष्य । रविषेण - दक्षिण भारतीय महाकवि। मुनि लक्ष्मणसेन के समय- ई. 17 वीं शती। रचनाएं- 1. लाटी-संहिता, 2. शिष्य। जिनसेन और उद्योतनसूरि ने उनका नामोल्लेख किया जम्बू-स्वामिचरित (13 सर्ग, 1400 पद्य), 3. है। अतःसमय सातवीं शताब्दी निश्चित है। रचना- पद्मचरित अध्यात्म-कमलमार्तण्ड (4 अध्याय, 101 पद्य), 4. पिंगलशास्त्र जो 123 पर्यों में विभक्त है। विमलसूरि के 'पउमचरिय' पर और 5. पंचाध्यायी। आगरा और नागरा कार्यक्षेत्र रहा। यह ग्रंथ आधारित है। कवि ने कथावस्तु के साथ वानरवंश, राजवर्मा ए. आर. - समय- 1863-1918 ई.। सन् 1890 राक्षसवंश आदि की बुद्धिसंगत व्याख्याएं की हैं। यह ग्रंथ में विद्यालयों के अधीक्षक। सन् 1899 में त्रावणकोर के जैनरामायण नाम से विदित है।
संस्कृत शिक्षण के सुपरिण्टेण्डेण्ट । मद्रास वि.वि. के एम.ए. ।
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सन् 1912 में त्रिवेन्द्रम के महाविद्यालय में संस्कृत के "काव्यानुशासन" में मिलता है। "काव्यमीमांसा" इनका प्राध्यापक। विद्वद्गोष्ठियों द्वारा संस्कृत के अभ्युदय की योजनाएं साहित्यशास्त्र विषयक ग्रंथ है। इनके 4 नाटकों के नाम हैंकार्यान्वित की। गुरु-आचार्य चूनकर अच्युत वारियार तथा 1) बालरामायण, 2) बालमहाभारत (जिसका दूसरा नाम चाचा केरलवर्मा से शिक्षा प्राप्त।।
"प्रचंडपांडव' भी है), 3) विद्धशालभंजिका और 4) कृतियां- गैर्वाणी-विजय (नाटक), आंग्ल-साम्राज्य कर्पूरमंजरी। कर्पूरमंजरी की संपूर्ण रचना प्राकृत में होने (महाकाव्य), राधा-माधव (गीतिकाव्य), उद्दालकचरित के कारण इस नाटिका को सट्टक कहा जाता है। राजशेखर (ओथेल्लो का संस्कृत गद्यानुवाद), तुलाभार-प्रबंध,
ने स्वयं को कविराज कहा है और महाकाव्य के प्रणेताओं के ऋग्वेदकारिका, लघुपाणिनीय (अष्टाध्यायी का संक्षेप),
प्रति अपना आदर-भाव प्रकट किया है। ये भूगोल के भी करणपरिष्करण (ज्योतिष विषयक), वीणाष्टक, देवीमंगल,
महाज्ञाता थे। इन्होंने भूगोलविषयक "भुवनकोष' नामक ग्रंथ विमानाष्टक आदि लघुकाव्य । इनके अतिरिक्त आपने केरलपाणिनीय की भी रचना की थी। इसकी सूचना "काव्य-मीमांसा' में (मलयालम का व्याकरण) तथा भाषाभूषण (काव्यशास्त्रविषयक)
प्राप्त होती है। नामक मलयालम-ग्रंथों का भी प्रणयन किया।
___ इन्होंने "कविराज" उसे कहा है जो अनेक भाषाओं में राजरुद्र - काशिका वृत्ति में उद्धृत कात्यायनीय वार्तिकों के समान अधिकार के साथ रचना कर सके। इन्होंने स्वयं अनेक भाष्यकार। पितृनाम-गन्नय। मद्रास के हस्तलेख-संग्रह में एक
भाषाओं में रचना की थी। इनकी रचनाओं के अध्ययन से हस्तलिधित प्रति विद्यमान है, जिसमें आठ अध्याय और प्रत्येक
ज्ञात होता है कि वे नाटककार की अपेक्षा कवि के रूप में में चार पाद हैं।
अधिक सफल रहे हैं। "बालरामायण" की विशालता (10 राजवल्लभ- बंगाल निवासी। ग्रन्थ- द्रव्यगुण ।
अंक), उसके अभिनेय होने में बाधक सिद्ध हुई है। राजवर्म-कुलशेखर - ई. 19 वीं शती। त्रावणकोर के नरेश ।
राजशेखर शार्दूलविक्रीडित छंद के सिद्धहस्त कवि हैं जिसकी रचनाएं- अजामिलोपाख्यान, पद्मनाभशतक, कुचेलोपाख्यान,
प्रशंसा क्षेमेंद्र ने अपने "सुवृत्ततिलक' में की है। इन्होंने भक्तिमंजरी और उत्सववर्णन। सभी मुद्रित।
अपने नाटकों के “भणितिगुण' की स्वयं प्रशंसा की है। राजशेखर - समय- ई. 10 वीं शती का पूर्वार्ध ।
इन्होंने "बालरामायण" के नाट्य-गुण को महत्त्व न देकर उसे प्रसिद्ध नाटककार व काव्यशास्त्री। इन्होंने अपने नाटकों की
पाठ्य व गेय माना है। ये अपने नाटकों की सार्थकता अभिनय प्रस्तावना में अपनी जीवनी विस्तारपूर्वक प्रस्तुत की है। ये
में न मान कर पढने में स्वीकार करते हैं (बालरामायण 1/12) । महाराष्ट्र की साहित्यिक परंपरा से विमंडित एक ब्राह्मण-वंश
आचार्यों ने राजशेखर को "शब्द-कवि" कहा है। वर्णन में उत्पन्न हुए थे। इनका कुल “यायावर" के नाम से विख्यात की निपुणता तथा अलंकारों का रमणीय प्रयोग उन्हें उच्च था। कीथ ने इन्हें भ्रमवश क्षत्रिय माना है। इनकी पत्नी कोटि का कवि सिद्ध करते हैं। इन्होंने अपनी रचनाओं में अवश्यही चौहान-कुलोत्पन्न क्षत्राणी थीं जिनका नाम अवंतिसुंदरी लोकोक्तियों व मुहावरों का भी चमत्कारपूर्ण विन्यास किया है। था। वे संस्कृत व प्राकृत भाषा की विदुषी एवं कवयित्री थी। राजशेखर - समय- ई. 19 वीं शती। सोमनाथपुरी (जिला राजशेखर ने अपने साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ "काव्य-मीमांसा" में गोदावरी, आन्ध्र प्रदेश) में वास्तव्य। रचनाएं- साहित्यकल्पद्रुम "पाक" के प्रकरण में इनके मत का आख्यान किया है। (81 स्तबक), अलंकारमकरन्द, शिवशतक और श्रीश (भागवत)
राजशेखर, कान्यकुब्ज-नरेश महेंद्रपाल व महीपाल के राजगुरु चम्पू। थे। प्रतिहारवंशी शिलालेखों के आधार पर महेंद्रपाल का राजानक रुय्यक - ये काश्मीरी माने जाते हैं। समय, ई. 10 वीं शती का प्रारंभिक काल माना जाता है। राजानक इनकी उपाधि थी। "काव्य-प्रकाश-संकेत" नामक ग्रंथ अतः राजशेखर का भी यही समय है। उस युग में राजशेखर के प्रारंभिक द्वितीय पद्य में इन्होंने अपना नाम रुचक दिया के पांडित्य एवं काव्यप्रतिभा की सर्वत्र ख्याति थी, और वे है। "अलंकार-सर्वस्व" के टीकाकार चक्रवर्ती, कुमारस्वामी, स्वयं को वाल्मीकि, भर्तृमेण्ठ तथा भवभूति के अवतार मानते . अप्पय दीक्षित प्रभृति ने भी इनका रुचक नाम दिया है। थे (बालभारत)। इनके संबंध में सुभाषितसंग्रहों तथा अनेक किन्तु मंखक के "श्रीकंठचरित' नामक महाकाव्य में रुय्यक ग्रंथों में विचार व्यक्त किये गये हैं।
अभिधा दी गई है। अतः इनके दोनों ही नाम प्रामाणिक हैं राजशेखर की अब तक 10 रचनाओं का पता चला है, और इन दोनों ही नामधारी एक ही व्यक्ति थे। इनके पिता जिनमें 4 रूपक, 5 प्रबंध और 1 काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है। का नाम राजानक तिलक था, जो रुय्यक के गुरु भी थे। इन्होंने स्वयं अपने षट्प्रबंधों का संकेत किया है। (बालरामायण मंखक से "श्रीकंठ-चरित" का रचनाकाल 1135-45 ई. के 1/12)। इन प्रबंधों में से 5 प्रबंध प्रकाशित हो चुके हैं . . मध्य है। रुय्यक ने अपने "अलंकार-सर्वस्व" में "श्रीकंठचरित" तथा 6 वां प्रबंध "हरविलास" का उद्धरण हेमचंद्र रचित . के 5 श्लोक उदाहरण स्वरूप उद्धृत किये हैं। अतः इनका
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समय ई. 12 वीं शती का मध्य ही निश्चित होता है। "अलंकारसर्वस्व' इनकी प्रौढ कृति है। यह ग्रंथ सूत्र, वृत्ति
और उदाहरण इन तीन भागों में है। इस में छह शब्दालंकारों व 75 अर्थालंकारों का वर्गीकरण किया है। इसपर जयरथ की विमर्शिनी नामक टीका है।
रुय्यक ने साहित्य के विभिन्न अंगों पर स्वतंत्र रूप से या । व्याख्यात्मक ग्रंथों के रूप में रचना की है। इनकी रचनाओं के नाम इस प्रकार हैं- सहृदयलीला (प्रकाशित), साहित्य-मीमांसा (प्रकाशित), अलंकारानुसारिणी, अलंकारमंजरी, अलंकार-वार्तिक, अलंकार-सर्वस्व (प्रकाशित), श्रीकंठस्तव, काव्यप्रकाशसंकेत (प्रकाशित) एवं बृहती। "सहृदयलीला" अत्यंत छोटी पुस्तक है जिसमें केवल 4-5 पृष्ठ है। "अलंकार-सर्वस्व" इनका सर्वोक्तृष्ट ग्रंथ है जिसमें अलंकारों का प्रौढ विवेचन है। "नाटक-मीमांसा" का उल्लेख “व्यक्ति-विवेक-व्याख्यान' नामक इनके ग्रंथ में है किंतु संप्रति यह ग्रंथ अनुपलब्ध है। "अलंकारानुसारिणी", अलंकारवार्तिक व अलंकारमंजरी की सूचना जयरथकृत विमर्शिनी-टीका में प्राप्त होती है। "व्यक्ति-विवेक-व्याख्यान", महिम भट्टकृत "व्यक्ति-विवेक" की व्याख्या है, जो अपूर्ण रूप में ही उपलब्ध है।
रुय्यक ध्वनिवादी आचार्य हैं। इन्होंने "अलंकारसर्वस्व" के प्रारंभ में काव्य की आत्मा के संबंध में भामह, उद्भट, रुद्रट, वामन, कुंतक, महिमभट्ट व ध्वनिकार के मतों का सार प्रस्तुत किया है। ऐतिहासिक दृष्टि से इनके विवेचन का अत्यधिक महत्त्व है। परवर्ती आचार्यों में विद्याधर, विद्यानाथ व शोभाकर मित्र ने रुय्यक के अलंकार संबंधी मत से पर्याप्त सहायता ग्रहण की है। राजेन्द्र मिश्र (डा.) - ई. 20 वीं शती। प्रयाग वि.वि. में अध्यापक। कृतियां- वामनावतरण (महाकाव्य) भारतदण्डक, आर्यान्योक्ति शतक व नाट्यपंचगव्य । कविसम्मेलन, राधा-माधवीय, फण्टुसचरित-भाण, नवरस-प्रहसन तथा कचाभिशाप नामक रूपकों का संकलन। इनके अतिरिक्त हिन्दी तथा जौनपुरी में भी कतिपय रचनाएं प्रसिद्ध हैं। रातहव्य आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 85 व 66 सूक्तों के द्रष्टा। 66 वें सूक्त की तीसरी ऋचा में रातहव्य का उल्लेख आया है। उक्त दोनों सूक्तों में मित्रावरुण की स्तुति की गयी है। 66 वें सूक्त को अंत में लोकमतानुवर्ती स्वराज्य की प्रार्थना की गयी है। रात्री भारद्वाजी - एक सूक्त द्रष्ट्री। आपने ऋग्वेद के दसवें मंडल के 127 वें सूक्त की रचना की है। इसमें रात्रि-देवता का स्तवन किया गया है। सायणाचार्य के अनुसार इस सूक्त के द्रष्टा कुशिक सौभर हैं। सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है -
रात्री व्यख्यदायती पुरुवा देव्यक्षभिः । विश्वा अधि श्रियो धित ।।
अर्थात् अनेक देशों पर राज करने वाली, द्रुतगामिनी और शोभायमान रात्रि देवी, अपने नक्षत्र रूपी नेत्रों से विश्व का निरीक्षण करती है।
दुष्टप्रहों के निवारण हेतु शांतिपाठ के रूप में इस सूक्त का पठन किया जाता है। रात्रि देवी के दो प्रकार बताये गये हैं। एक जीवरात्रि और दूसरा ईश्वररात्रि (जिसे कालरात्रि भी कहा जाता है) दुर्गोपनिषद् में दुर्गा को कालरात्रि बताया गया है। मारीचकल्प में दुर्गासप्तशती का प्रारंभ करते समय रात्रि-सूक्त के पठन का निर्देश दिया गया है। राधाकान्त देव (राजा) - ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध । रचना- शब्दकल्पद्रुम नामक कोशग्रंथ। राधाकृष्ण तिवारी - कविशेखर की उपाधि प्राप्त । सोलापुर-निवासी। वैष्णव सम्प्रदायी। 35 वर्ष की आयु तक भागवत के एक हजार पारायण किये थे। रचना-राधाप्रियशतकम् (विद्यार्थी-दशा में लिखित)। अन्य रचनाएं- दशावतारस्तवन, दशावतारचरित, गजेन्द्रचरित, सावित्रीचरित, बालभक्तचरित, श्रीरामचरित और श्रीकृष्णचरित। राधादामोदर - बंगाली-वैष्णव। कृति-छन्दःकौस्तुभ । राधामोहनदास - ई. 19 वीं शती। राधावल्लभसम्प्रदाय के अनुयायी व संस्कृत भाष्यकार । पिता का नाम-राजा जयसिंह देव। गोस्वामी चन्द्रलाल, रूपलाल एवं मोतीलाल के शिष्य । रीवां-निवासी संत प्रियादास ने इन्हें भक्तिमार्ग पर लाया। आपने "राधावल्लभभाष्य" व "श्रीमद्भागवतार्थ-दिग्दर्शन' इन दो ग्रंथों की रचना की है। "राधावल्लभभाष्य" में ब्रह्मसूत्र के चार अध्यायों पर भाष्य लिखा है। "भागवतार्थदिग्दर्शन" भागवत का गद्य रूप में संक्षिप्त अनुवाद है। राधामंगल नारायण- ई. 19 वीं शती। “मुकुन्द-मनोरथम्" "उदारराघवम्" तथा "महेश्वरोल्लास" इन तीन नाटकों के प्रणेता । राधामोहन सेन - कृतियां- संगीत-तरंग और संगीत-रत्न । राधारमणदास गोस्वामी - समय- विक्रमी की 19 वीं शती का पूर्वार्ध । वृंदावन के निवासी। श्रीधर स्वामी की भावार्थ-दीपिका (भागवत की श्रीधरी व्याख्या) के भावार्थ को सरल बनानेवाली "दीपिका-दीपन' के लेखक। आप अपने दीपिका-दीपन को टीका न कहकर “टिप्पण" कहते हैं। इनका यह ग्रंथ पूरे भागवत पर न होकर कतिपय स्कंधों तक ही सीमित है। इन्होंने अपने कुटुंबी जनों का निर्देश एकादश स्कंध के आरंभ में किया है। इनके समय (विक्रमी की 19 वीं शती का पूर्वार्ध) के बारे में वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी ने अपने ग्रंथ "श्रीमद्भागवत के टीकाकार" में विस्तृत विचार प्रस्तुत किया है।। आप श्री. चैतन्य के मतानुयायी वैष्णव संत थे।
राधावल्लभ त्रिपाठी (डा.) - जन्म दि. 15-2-1949 को, राजगढ़ (म.प्र.) में। एम्.ए. तक सभी परीक्षाएं प्रथम श्रेणी
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में उत्तीर्ण । सन् 1972 में सागर वि.वि. से "संस्कृत कवियों के व्यक्तित्व का विकास' शीर्षक शोधप्रबंध पर पीएच.डी. । सागर वि.वि. में संस्कृत विभागप्रमुख। कृतियां- महाकविः कण्टक- (आख्यायिका), प्रेम-पीयूष (नाटक), संस्कृत : निबंधकालिका तथा भारती । “दिव्य-ज्योति" व "संस्कृत-प्रतिभा" में प्रकाशित कतिपय कहानियाँ एवं कविताएं। हिन्दी कृतियां-भारतीय धर्म तथा संस्कृति आदि कतिपय ग्रंथ। रानडे, विश्वनाथभट्ट- ई. 17 वीं शती। मूलतः कोंकण-निवासी। बाद में काशी में प्रतिष्ठित । पिता-महादेवभट्ट रानडे। पितामहविष्णुभट्ट रानडे। गुरु-कमलाकरभट्ट तथा ढुण्डिराज। रचनाएंशम्भुविलास (काव्य) और शृंगारवापिका (नाटिका)। रामकवि - ई. 16 वीं शती। बंगाल के निवासी। गोत्रकाश्यप। पिता-रामकृष्ण। "शृंगार-रसोदय" नामक काव्य के कर्ता। रामकिशोर चक्रवर्ती - बंगाल-निवासी। “अष्टमंगला" (कातन्त्रवृत्ति की टीका) के कर्ता। रामकिशोर मिश्र - जन्म सन् 1939 में एटा (उ.प्र.) जिले में। मेरठ वि.वि. के अन्तर्गत प्राध्यापक। पिता- होतीलाल । माता- कलावती। "अंगुष्ठ-दान" तथा "धुव" नामक लघु नाटकों के रचयिता। रामकुबेर मालवीय - ई. 20 वीं शती। मृत्यु सन् 1973 में। काशी वि.वि. के साहित्याचार्य। वहीं पर अध्यापक। अन्तिम दिनों में काशी के संस्कृत वि.वि. में साहित्य के प्राध्यापक तथा विभागाध्यक्ष । “तीर्थयात्रा" नामक प्रहसन के प्रणेता। रामकैलाश पाण्डेय - ई. 20 वीं शती। एडिया के निकट प्रयाग जिले के निवासी। प्रयाग वि.वि. से एम्.ए. । कृतियांप्रबुद्धभारत (नाटक), भारतशतक (काव्य) तथा अनेक संस्कृत निबन्ध। रामकृष्ण - समय- ई. 18 वीं शती। वत्सगोत्रीय । पिता-तिरुमल। गुरु- रमणेन्द्र सरस्वती। पितामह-वेंकटाद्रि भट्टारक। "उत्तरचरित" नाटक के प्रणेता। उपनाम "भवभूति"। अन्य रचना- रत्नाकर (सिद्धान्त कौमुदी की टीका)। रामकृष्ण कादम्ब - समय- ई. 19 वीं शती । गोदावरी तटवासी। रचनाएं- अदितिकुण्डलाहरण तथा कुशलवचरित (नाटक), नृसिंह-विजय (काव्य), चित्रशतक, रामावयव-मंजरी, नैषध-चरित-टीका, चम्पू-भारत-टीका, श्रीमद्-भागवततात्पर्य-मंजरी
और दत्तकोल्लास (धर्मशास्त्रविषयक)। रामकृष्ण चक्रवर्ती - ई. 16 वीं शती के एक श्रेष्ठ नैयायिक। काशी के बंगाली पंडितों में इन्हें जगद्गुरु, महामहोपाध्याय, भट्टाचार्य के रूप में सम्मान प्राप्त था। अनेक पंडितों के अनुसार दीधितिकार रघुनाथ शिरोमणि इनके साक्षात् गुरु थे।
आपने चिंतामणिदीधितिटीका, गुणदीधितिप्रकाश, लीलावतीदीधितिटीका, पदार्थखंडन-टीका व आत्मतत्त्वविवेक-दीधितिटीका आदि ग्रंथों की रचना की है। रामकृष्ण भट्ट - (1) ई. 16 वीं शती के एक मीमांसक। आपकाशी-निवासी पाराशर गोत्री ब्राह्मण थे। आपने अनेक ग्रंथों की रचना की जिनमें पार्थसारथी मिश्र की शास्त्रदीपिका पर "युक्तिस्नेहप्रपूरणी" नामक व्याख्या तथा "प्रतापमार्तण्ड' नामक ग्रंथ महत्त्वपूर्ण हैं। इस ग्रंथ के कारण इन्हें "पंडितशिरोमणि' की उपाधि से विभूषित किया गया।
(2) ई. 16 वीं शती। काशी के भट्ट-परिवार के एक धर्मशास्त्री। पिता-नारायण भट्ट आपने जीवात्पितृकर्मनिर्णय, ज्योतिष्टोमपद्धति, विभागतत्त्व, मासिक-श्राद्धनिर्णय, तंत्रवार्तिकटीका आदि ग्रंथ लिखे हैं। 52 वर्ष की आयु में मृत्यु। पत्नी उमा सती हो गई । निर्णय-सिन्धुकार कमलाकर भट्ट इनके पुत्र थे। रामकृष्ण भट्ट- पुष्टिमार्ग (वल्लभ-संप्रदाय) की मान्यता के अनुसार भागवत की महापुराणता सिद्ध करने हेतु लिखे गए "श्रीमद्भागवत-विजयवाद" नामक लघुकाय-ग्रंथ के लेखक । आपका यह ग्रंथ, इसी प्रकार के पूर्वरी पांच ग्रंथों की अपेक्षा एवं युक्ति के उपन्यास में श्रेष्ठ तथा प्रमेय-बहुल है। इससे आपके द्वारा किये गये पुराणों के गंभीर मंथन तथा अनुशीलन का परिचय मिलता है। ग्रंथ की पुष्पिका से विदित होता है कि आप वल्लभाचार्य के वंशज थे। रामकृष्ण भट्टाचार्य - ई. 16 वीं शती। बंगाली ब्राह्मण । कृति- नामलिंगाख्या कौमुदी।। रामकृष्ण भट्टाचार्य चक्रवर्ती - ई. 17 वीं शती। पितारघुनाथ शिरोमणि । रचनाएं- गुणशिरोमणिप्रकाश और न्यायदीपिका। रामगोपाल- नदिया नरेश कृष्णचन्द्र (ई. 18 वीं शती) का समाश्रय प्राप्त। रचनाएं- काकदूत और कीरदूत। रामचन्द्र - सम्भवतः ई. 18 वीं शती। बंगाल-नरेश चन्द्र के समाश्रित। पिता-श्रीहर्ष। “देवानन्द" (नाटक) के प्रणेता। रामचंद्र (प्रबंध शतकर्ता) - हेमचंद्राचार्य के शिष्य । आश्रयदाता- गुजरात के तीन अधिपति-सिद्धराज, कुमारपाल एवं अजयपाल। कई नाटकों के रचयिता तथा प्रसिद्ध नाट्यशास्त्रीय ग्रंथ "नाट्य-दर्पण" के प्रणेता, जिसे इन्होंने गुणचंद्र की सहायता से लिखा है। गुजरात के निवासी। समय- ई. 12 वीं शती। इनके सभी ग्रंथ प्राप्त नहीं होते, पर छोटे छोटे प्रबंधों को मिलाकर लगभग 30 ग्रंथ उपलब्ध हो चुके है। इनके नाटकों की संख्या 11 है जिनके उद्धरण नाट्यदर्पण में मिलते हैं। "नल-विलास" व "सत्य-हरिश्चंद्र" प्रकाशित हो चुके हैं। यादवाभ्युदय, राघवाभ्युदय तथा रघुविलास नामक 3 ग्रंथ अप्रकाशित हैं। इनके उद्धरण "नाट्यदर्पण" में प्राप्त होते है। इन्होंने 3 प्रकरणों की भी रचना की है जिनमें से "कौमुदी-मित्रानंद" का प्रकाशन हो चुका है। "रोहिणी-मृगांक-प्रकरण" व
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"मल्लिका-मकरंद" ये दोनों "नाट्य-दर्पण" में ही उद्धृत हैं। इन्होंने "वनमाला" नामक एक नाटिका की भी रचना की थी जो अप्रकाशित है। "नाट्य-दर्पण" में इसके उद्धरण हैं। इन्होंने "निर्भय-भीम" नामक व्यायोग की रचना की है जो प्रकाशित हो चुका है। नाट्यदर्पण में 35 ऐसे नाटकों के उद्धरण हैं जो अन्यत्र उपलब्ध नहीं है। इन सब ग्रंथों से ज्ञात होता है कि रामचंद्र प्रतिभाशाली व्यक्ति थे जिन्होंने व्यापक रचना-कौशल्य एवं नाट्यचातुरी का परिचय दिया है। "रघुविलास" की प्रस्तावना में इनकी प्रशस्ति की गई है। कहा जाता है कि अजय पाल के आदेश से इन्हें मृत्युदण्ड मिला। रामचंद्र - पिता जनार्दन। रचना- “राधा-विनोद"। इस पर त्रिलोकीनाथ तथा भट्ट नारायण की टीकाएं उपलब्ध हैं। रामचंद्र- ई. 17 वीं शती। जैन साम्प्रदायिक कवि। रचना-प्रद्युम्नचरित (महाकाव्य, 18 सर्ग)। इसमें श्रीकृष्णपुत्र प्रद्युम्न की कथा, जैन परम्परा के अनुसार वर्णित है। रामचंद्र आचार्य - समय- ई. 14 वीं शती। काशी-निवासी। शेषवंशीय । पिता-कृष्ण। ये ऋग्वेदी कौडिण्यगोत्री तेलंगी ब्राह्मण थे। आपने पाणिनि की अष्टाध्यायी पर "प्रक्रियाकौमुदी" नामक ग्रंथ लिखा। इसके अतिरिक्त “कालनिर्णय-दीपिका" (ज्योतिष विषयक) "वैष्णवसिद्धान्तसद्दीपिका" (वैष्णववेदान्त) तथा "कृष्णकिंकर-प्रक्रिया" आदि इनके प्रमुख ग्रंथ हैं। रामचंद्र कविभारती - समय- ई. 13 वीं शती। बंगाल के बारेन्द्र-प्रांत के निवासी ब्राह्मण। श्रीलंका में आमंत्रित। वहां के अधिपति पराक्रमबाहु के आश्रय में बौद्ध मत का स्वीकार किया। प्रधान रचना-भक्तिशतक। अन्य कृतियां- वृत्तमाला और वृत्तरत्नाकर-पंजिका। रामचंद्र कोराड - जन्म- 1816, मृत्यु- 1900। निवासआन्ध्र प्रदेश में। पिता-लक्ष्मणशास्त्री, माता-सुब्बाम्बा । गुरु-कृष्णमूर्ति-शास्त्री। मछलीपट्टन के नोबल कालेज में सेवारत । कृतियां- शृंगार-विजय (डिम) देवीविजय तथा कुमारोदयचम्पू, उपमावली, मृत्युंजय-विजय (काव्य), शृंगारमंजरी, मंजरी-सौरभ, कृष्णोदय (काव्य), श्रीसुधा, अमृतनन्दीय, रामचन्द्रीय, बालचन्द्रोदय, कन्दर्प-दर्प, वैराग्य-वर्धिनी, पुमर्थ-शेवधि (काव्य) और स्वोदयकाव्य (आत्मचरित्र विषयक)। रामचंद्र दीक्षित - कान्ध्रमाणिक्य ग्राम के निवासी। पितायज्ञराम दीक्षित (महान् वैयाकरण)। रचना- केरलाभरण-चम्पू (हास्यरसप्रधान)। रामचन्द्र न्यायवागीश - ई. 18 वीं शती। पिता-विद्यानिधि। बंगाली । रचना-"काव्यचन्द्रिका" (अपरनाम अलंकारचन्द्रिका)। रामचन्द्र मुमुक्ष - केशवनन्दि के शिष्य। जैनपंथी वादीभसिंह महामुनि पद्मनन्दी से व्याकरण-शास्त्र का अध्ययन किया। पुण्याश्रवकथा कोश। इस ग्रंथ में 4500 श्लोक हैं और उनमें 53 कथाएं वैदर्भी शैली में लिखी हैं।
रामचन्द्र राव (एस. के.)- ई. 20 वीं शती। बंगलोर-निवासी। ऑल इंडिया इन्स्टिट्यूट ऑन मेंटल हेल्थ, बंगलोर में रीडर। "पौरव-दिग्विजय" नामक नाटक के प्रणेता।। रामचंद्र विबुध - ई. 15 वीं शती। बंगाल के वीरवाटिका ग्राम के निवासी। तत्पश्चात् संभवतः लंकाद्वीप में निवास था। कृति- केदारभट्ट के वृत्तरत्नाकर पर पंजिका। रामचन्द्र वेल्लाल - मैसूर-नरेश कृष्णराज द्वितीय (1734-1766 ई.) के सेनापति-मंत्री देवराज द्वारा सम्मानित । रचना-कृष्णविजय (व्यायोग) तथा सरसकविकुलानन्द (भाण)।। रामचन्द्र शास्त्री - जन्म- सन् 1901 में हनुमानगढ़ में। विद्यालंकार की उपाधि प्राप्त। कृतियां- (1) कविविलसितम्
और (2) कवितापंचामृतम्। रामचन्द्र शेखर - तंजौर के शासक महाराज प्रतापसिंह (1741-1764 ई.) के समाश्रित। प्रताप के पश्चात् तुलज द्वितीय (1764-1787 ई.) के कार्यकाल में "कलानन्दक" नामक सात अंकी नाटक की निर्मिति। "पौण्डरीकयाजी" की उपाधि से विभूषित। रामचंद्र सरस्वती- प्रदीप पर विवरण नामक लघु व्याख्या के लेखक। मद्रास और मैसूर में हस्तलेख उपलब्ध। भट्टोजी दीक्षित के शब्दकौस्तुभ में इनका उल्लेख है। समय- वि. 1525-15751 रामचन्द्राचार्य (पी. व्ही.) - मद्रास राज्य में शिक्षाधिकारी। रचना- समर-शान्ति-महोत्सवः । रामचंद्राश्रम - वल्लभ-संप्रदाय की मान्यता के अनुसार भागवत की महापुराणता के पक्ष में "दुर्जन-मुख-चपेटिका" नामक लघु-कलेवर ग्रंथ के लेखक। इनके पूर्ववर्ती गंगाधर भट्ट द्वारा इसी नाम की “चपेटिका" की अपेक्षा रामचंद्राश्रम की प्रस्तुत कृति परिमाण में कम है। रामचरण तर्कवागीश - ई. 17 वीं शती का अन्तिम चरण। बरद्वान-निवासी। चट्टोपाध्याय। रचनाएं- साहित्य-दर्पण की टीका, "रामविलास" (काव्य), "कलाप-दीपिका" (अमरकोश पर टीका)। रामजी उपाध्याय (डा.) - सागर विश्वविद्यालय में संस्कृत विभागाध्यक्ष । आधुनिक संस्कृत साहित्य विषयक शोधकार्य को प्रोत्साहन आपका विशेष कार्य है। भारतीय नाट्यशास्त्र के विशेषज्ञ। रचनाएं- भारतस्य सांस्कृतिको निधिः। द्वा सुपर्णा इत्यादि। सेवानिवृत्ति के बाद वाराणसी में निवास ।
रामदासशिष्य-प्रयागदत्त-पुत्र - प्रस्तुत कवि का नामनिर्देश उनके "राजविनोद काव्यम्" में नहीं है। उन्होंने अपना परिचय, पिता तथा गुरु के नाम से दिया है। अपने राजविनोद (सप्तसर्गात्मक) काव्य में इन्होंने किसी सुलतान महंमद नामक यवन राजा का चरित्र वर्णन किया है।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 427
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रामदेव या वामदेव (शतावधानी) - ई. 18 वीं शती । पिता राघवेन्द्र भट्टाचार्य कवि-चिरंजीव नाम से प्रसिद्ध ढाका के नायब दीवाल यशवन्तसिंह के आश्रित । रचनाएंविद्वन्मोदतरंगिणी, वृत्तरत्नावली ( (आश्रयदाता की स्तुति), शृंगारतटिनी, कल्पलता, शिवस्तोत्र, माधवचम्पू और काव्यविलास (साहित्यशास्त्रविषयक ग्रंथ ) । रामदेव मिश्र - वृत्तिप्रदीप नामक काशिका व्याख्या के लेखक । राम दैवज्ञ समय ई. 16 वीं शती । प्रसिद्ध ज्योतिष शास्त्री अनंत दैवज्ञ के पुत्र तथा ज्योतिष के आचार्य नीलकंठ के बंधु । सन् 1600 में काशी में इन्होंने "मुहूर्तचिंतामणि” नामक फलित ज्योतिष का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ लिखा है जो विद्वानों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय है। कहा जाता है कि बादशाह अकबर के अनुरोध पर इन्होंने “राम - विनोद" नामक ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की थी और टोडरमल के लिये "टोडरानंद" का प्रणयन किया था जो संप्रति उपलब्ध नहीं है। रामनाथ चक्रवर्ती ई. 16 वीं शती । बंगालनिवासी। वेदगर्भ तर्काचार्य के पुत्र । वायीकुलोत्पन्न । कृतियां- अमरटीका, मनोरमा के धातुगण की व्याख्या और परिभाषा- सिद्धान्तररत्नाकर । रामनाथ विद्यावाचस्पति ई. 17 वीं शती । नारायण नृपति से सम्मानित कृतियां काव्यरत्नावली, काव्यप्रकाश की "रहस्यप्रकाश" नामक टीका, कारक रहस्य, त्रिकाण्ड - विवेक ( अमरकोश पर टीका) और त्रिकाण्डरहस्य | रामनाथ शास्त्री (एस.के.) - ई. 20 वीं शती । "मणिमंजूषा " नामक नाटक के रचयिता ।
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रास पंचाध्यायी के सरस टीकाकार । रामनारायण मिश्र टीका- ग्रंथ का नाम "भाव-भाव-विभाविका" । टीका के उपोद्घात में आपने अपना परिचय दिया है। तदनुसार गुरु का नाम रामसिंह है । प्राचीन आचार्यों एवं टीकाकारों में आपने अपनी टीका में शंकराचार्य, श्रीधर, कृष्णचैतन्य, जीव, रूप, सनातन प्रभृति का सादर उल्लेख किया है । विलक्षण बात यह है कि इन्होंने सिक्ख गुरु नानक की वंदना की है। आचार्य बलदेव उपाध्याय के मतानुसार नानक की यह वंदना द्योतित करती है कि ये नानक पंथी विद्वान थे अथवा नानक के प्रति भक्ति भाव रखते थे। ये चैतन्यमतानुयायी वैष्णव थे। इनके गुरु रामसिंह के पूर्वज एवं संबंधी उत्तर प्रदेश (सहारनुपर जिला) के प्रसिद्ध ग्राम देवनंद के निवासी थे। ये स्वयं भी इसी क्षेत्र के निवासी प्रतीत होते है।
रामपाणिवाद जन्म सन् 1707 में, मंगलग्राम में अम्पल्लपुल के राजा देवनारायण द्वारा पुत्रवत् संवर्धित । सन् 1750 में अम्पल्लपुल के त्रावणकोर में मिलने से त्रावणकोर के राजा मार्तण्डवर्मा के आश्रय में ।
रचनाएं - मदनकेतु-चरित (प्रहसन ), चन्द्रिका और लीलावती
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428 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
(वीथी), सीताराघव (नाटक) ललितराघवीय, पादुकापट्टाभिषेकम् और विष्णुविलास (महाकाव्य) भागवतचम्पू, मुकुन्दशतक, (इस नाम की दो रचनाएं) अम्बरनदीशस्तोत्र, सूर्याष्टक और शिवशतक (स्तोत्र), वृत्तवार्तिक (शास्त्रीय ग्रंथ), और प्राकृतप्रकाश की व्याख्या बालपाठ्या । प्राकृत कृतियां - कंसवध और उषा-अनिरूद्ध-काव्य । इनके अतिरिक्त भी अनेक ग्रंथों पर टीकाएं तथा शास्त्रीय ग्रन्थ रामपाणिवाद के नाम पर हैं। रामभट ई. 16 वीं शती के काशी-निवासी, एक ज्योतिर्विद् व ग्रंथकार । गार्ग्यगोत्री ब्राह्मणकुल में जन्मे रामभट का परिवार, मूलतया विदर्भ के धर्मपुरी ग्राम का था । आपने "रामविनोद" नामक करणग्रंथ की रचना की जिसमें सूर्यसिद्धान्तानुसार वर्धमान, क्षेपक व ग्रहों की गति का विवेचन है। ग्रहगति को बीज - संस्कार देने का प्रयास किया गया है। इसके अतिरिक्त "मुहूर्तचिंतामणि" नामक एक अन्य ग्रंथ की रचना भी की है। इस ग्रंथ पर स्वयं ग्रंथकार ने ही "प्रमिताक्षरा" नामक टीका लिखी है। रामभद्र ई. 17 वीं शती । रचना - न्यायरहस्यम् (न्यायसूत्र की टीका) ।
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रामभद्र दीक्षित ई. 17 वीं शती जन्म-कुम्भकोणं समीपस्थ कण्डरमाणिक्य ग्राम में, चतुर्वेद-चन्वेन्द्र वंश में पिता यज्ञराम दीक्षित (वैयाकरण)। गुरु-नीलकण्ठ (साहित्य), चोकनाथ (व्याकरण) और बालकृष्ण भगवत्पाद (दर्शन) । रामचन्द्र ( हास्य रस के कवि ) तथा अद्भुत-दर्पण के कर्ता महादेव के सहपाठी थे तंजौर के राजा शाहजी ने जो शाहजिपुर अग्रहार बनाया, उसमें प्रतिष्ठित ।
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कृतियां कुल 12- षड्दर्शन - सिद्धान्त-संग्रह, परिभाषावृत्ति व्याख्यान, उणादि-मणिदीपिका, शब्द-भेद-निरूपण, अष्टप्रास, चापस्तव, पतंजलिचरित, पर्यायोक्ति - निस्यन्द, प्रसादस्तव, बाणस्तव, विश्वगर्भस्तव, शृंगारतिलक (भाण) और जानकीपरिणय (नाटक) ।
रामभद्र सार्वभौम ई. 17 वीं शती । रचनाएं दीधितिटीका, न्यायरहस्यम्, गुणरहस्यम्, न्यायमांजलिकारिका व्याख्या, पदार्थविवेक-प्रकाशः और षट्चक्रकर्मदीपिका ।
रामभद्र सिद्धान्तवागीशई. 17 वीं शती रचना सुबोधिनी शब्दशक्तिप्रकाश टीका) ।
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रामभद्राम्बा
तंजावर के रघुनाथ नायक की धर्मपत्नी । श्रेष्ठ संस्कृत कवयित्री। अपना पति राम का अवतार है इस श्रद्धा से कवयित्री ने " रघुनाथाभ्युदयम्" काव्य की रचना की है। राममाणिक्य "कृतार्थमाधव" (नाटक) के प्रणेता। रामराम शर्मा - ई. 17 वीं शती "मनोदूत" कार विष्णुदास के वंशज । " मनोदूत" नामक अन्य दूतकाव्य के कर्ता । रामरुद्र तर्कवागीश- ई. 17-18 वीं शती रचनाएं तत्त्व चिन्तामणि- दीधितिटीका, व्याप्तिवादव्याख्या, दिनकरीयप्रकाश
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तरंगिणी, तत्त्वसंग्रहदीपिका-टिप्पणी, सिद्धान्तमुक्तावली-टीका और , अधिक सर्ग थे किन्तु वर्तमान में उपलब्ध उसके हस्तलिखित, कारकनिर्णय-टीका।
+8 वें सर्ग के मध्य में ही समाप्त हो गये हैं। "कीर्तिविलास" रामवर्म महाराज . त्रावणकोर नरेश (ई. 1860-1880)। नामक इनके दूसरे काव्य का केवल एक उल्लास ही प्राप्य संगीत के जानकार। रचनाएं- वृत्तरत्नाकर (छन्दःशास्त्र),
है। इसमें दरबार के पंडितों व कवियों की सभाओं का विवरण श्रीकृष्णविलास काव्य टीका और जलंधरासुरवध (कथाकली
है। इनके अतिरिक्त इन्होंने गांधारचरित, पार्वतीपरिणय, नृत्य नाट्य)।
अंबरीषचरित, तुलाभारप्रबंध, अन्यापदेशद्वासप्तती, गौणसमागम, रामवर्मा (रामवर्म वंची) - जन्म-1757 ई.। पूर्ण नाम
वृत्तरत्नावली, रामोदय, क्षेत्रतत्त्वदीपिका आदि ग्रंथ भी लिखे हैं। अश्वति तिरूनाल रामवर्मा। पिता- रविवर्मा कोयिल ताम्पुरान् । रामस्वामी शास्त्री के. एस. - समय- ई. 20 वीं शती। किल्लिमानूर के निवासी। प्राथमिक शिक्षा कार्तिक तिरुनाल कुम्भकोणम् निवासी। जगदम्बा के उपासक। डिस्ट्रिक्ट जज्ज। महाराज के अधीन। दूसरे अध्यापक आचार्य शंकर नारायण
पिता-सुन्दररामार्य। माता-चम्पकलक्ष्मी। सरकारी नौकरी में रह तथा रघुनाथ तीर्थ । सन् 1785 में युवराजपद । सन् 1795 में मृत्यु।
कर भी समाजसेवी। सन् 1928 में "रतिविजय" नामक नाटक कृतियां- (संस्कृत) रुक्मिणीपरिणय तथा शृंगारसुधाकर
की रचना की। (भाण) कार्तवीर्यविजय (चम्पू), वंचिमहाराजस्तव, सन्तानगोपाल
रामस्वामी शास्त्री व्ही. एस. - मदुरा के एक वकील । प्रबंध और दशावतार दण्डक।।
रचना- त्रिबिल्वदलचम्पूः (विभिन्न तीर्थक्षेत्रों तथा विश्वविद्यालयों मलयालम रचनाएं - रुक्मिणी-स्वयंवर, पूतना-मोक्ष,
का प्रवास वर्णन)। मुद्रित । अम्बरीष-चरित, पौंड्रक-वध, नरकासुर-वध (ये कथाकली कोटि रामानंद - समय- 1410-1510 ई.। रामावत सम्प्रदाय की कृतियां) तथा पद्मनाभकीर्तन। सर्वश्रेष्ठ रचना - के प्रवर्तक आचार्य । जन्म-प्रयाग में एक कान्यकुब्ज ब्राह्मण-परिवार "रुक्मिणीपरिणय"।
में हुआ। पिता-पुण्यसदन, माता-सुशीला। बाल्यकाल से ही रामवर्मा - क्रांगनोर के युवराज। ई. 18-19 वीं शती। वीतरागी होने के कारण गृहत्याग और काशी-प्रयाण। काशी रामचरितम् (12 सर्ग) महाकाव्य के प्रणेता।
में राघवानन्द का शिष्यत्व। इस सन्दर्भ में एक कथा यह रामवर्मा - क्रांगनोर-राजवंश के युवराज । कवि सार्वभौम तथा
बतायी जाती है कि जब रामभारती (पूर्वनाम) काशी पहुंचे कोचिन्नु ताम्पूरान् नाम से प्रसिद्ध। समय- 1858 से 1926
तो वहां वे एक अद्वैती संन्यासी के शिष्य बने। योगायोग से ई.। रचनाएं- अनंगविजयभाणः, विटराजभाणः, त्रिपुरदहनम्
एक दिन उनकी भेट राघवानंद से हुई। उन्होंने रामानंद के (काव्य), वल्ल्यु द्भवम् (काव्य), विप्रसन्देशम् (काव्य),
गुणों की प्रशंसा की किन्तु कहा कि "तू अल्पायुषी है"। देवदेवेश्वरशतकम् (स्तोत्रकाव्य), उत्तररामचम्पूः, बाणायुधचम्पूः,
यह बात रामानंद ने अपने गुरु को बतायी, तो उन्होंने रामानंद देवीसप्तशतीसार, किरातार्जुनीय-व्यायोग और जरासंध-व्यायोग।
की अपमृत्यु टालने के लिये उन्हें राघवानंद के सुपूर्द कर रामशास्त्री वेदमूर्ति - ई. 19 वीं शती । रचना- गायकवाडबन्धम् ।
दिया। राघवानन्द ने उन्हें योगचर्या और समाधि की शिक्षा
दी। यहीं वे रामभारती से रामानंद बने। अपमृत्यु का समय विषय- बडोदा के गायकवाड-वंशीय राजाओं का चरित्र ।
निकट आने पर राघवानन्द ने उन्हें समाधि लगाकर बैठने का रामसेवक - महाभाष्यप्रदीप-व्याख्या के लेखक । पिता- देवीदत्त ।
निर्देश दिया। समाधि की अवस्था में उन्हें मृत्यु स्पर्श नहीं पुत्र-कृष्णमित्र। समय- संभवतः सं. 1650-1700 के मध्य ।
कर पायी। समाधि उतरते ही राघवानंद ने कहा "अब तुम्हारी रामसेन - काष्ठासंघ नदीतटगच्छ और विद्यागण के आचार्य ।
मृत्यु टल गयी है"। राघवानन्द के सम्प्रदाय में जाति-पांति व नरसिंहपुरा जाति के संस्थापक। विद्यागुरु-वीरचंद्र, शुभदेव,
खान-पान के कठोर नियम थे। तीर्थयात्रा के दौरान रामानंद महेन्द्रदेव और विजयदेव। दीक्षागुरु-नागसेन जो सेनगण और
उन नियमों का पालन नहीं कर पाये तो राघवानंद ने उन्हें पोगरिगच्छ के आचार्य थे। समय- ई. 11 वीं शती का मध्य
प्रायश्चित्त करने के लिये कहा। किन्तु रामानंद ने यह कह कर भाग। रचना- तत्त्वानुशासन (59 पद्य) यह अध्यात्म विषयक
कि "जातिपाति पूछे नहीं कोई, हरि को भजे सो हरि को ग्रंथ स्वानुभूति से अनुप्राणित और ध्यानयोग से संबद्ध है।
होई", प्रायश्चित्त करने से इंकार कर दिया। इस पर राघवानन्द रामस्वामी शास्त्री - समय- 1823-1887 ई.। केरल के एक ने उन्हें अपने संप्रदाय से निकाल दिया। अब रामानंद ने नये कवि। पिता-शंकरनारायण शास्त्री। सन् 1849 में त्रिवांकुर राजा सम्प्रदाय की स्थापना की जिसमें जाट, क्षत्रिय, बुनकर, चमार, के दरबार में जाकर शेष जीवन उन्हीं के आश्रम में बिताया। नापित (नाई) ब्राह्मण सभी को शामिल कर, उन्हें अपना इन्होंने भट्टिकाव्य के समान "सुरूपराघव" नामक एक महाकाव्य शिष्य बनाया। रामानंद स्वयं को राम का अवतार मानते थे। रचा। इसमें रामकथा के साथ ही व्याकरण के नियमों और कुछ लोग उन्हें कपिलदेव का तथा कुछ सूर्यनारायण का अलंकारों की जानकारी दी गई है। इस महाकाव्य के 15 से अवतार मानते हैं। जात-पात के बंधनों को तोड कर सम्पूर्ण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 429
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हिन्दू समाज में एकता की भावना जगाने और विधर्मियों के आक्रमण का सफल प्रतिकार करने की प्रेरणा देने में रामानंद के महत्त्वपूर्ण योगदान का इतिहास साक्षी है।
रामानंद ने संस्कृत व हिन्दी में जिन ग्रंथों की रचना की है, उनके नाम हैं- 1) वैष्णवमताब्ज-भास्कर 2) रामार्चनपद्धति. 3) गीताभाष्य, 4) उपनिषद्भाष्य, 5) आनंदभाष्य, 6) सिद्धान्तपटल, 7) रामरक्षास्तोत्र, 8) योगचिंतामणि, 9) श्रीरामाराधनम्, 10) वेदान्त-विचार, 11) रामानंदादेश, 12) अध्यात्मरामायण आदि। काशी के पंचगंगा घाट पर रामानंद का मठ विद्यमान है। रामानन्द त्रिपाठी - समय- ई. 17 वीं शती। सरयूपारीण ब्राह्मण। पिता- मधुकर त्रिपाठी शैव विद्वान् एवं काशीनिवासी थे। कृतियां- रसिक-जीवन, पद्यपीयूष, काशीकुतूहल, रामचरित, भावार्थ-दीपिका (टीका), हास्यसागर (प्रहसन) विराविवरण) सन 1655 ई. में दारा शिकोह की प्रार्थनानुसार रचित)। दारा (बादशाह शाहजहां का पुत्र) से "विविध विद्याचमत्कार-पारंगत" की उपाधि प्राप्त । इन्होंने "सिद्धांत कौमुदी" की "तत्त्वदीपिका" नामक व्याख्या तथा लिंगानुशासन पर टीका लिखी। रामानन्द राय - ई. 16 वीं शती। उत्कल के महाराज गजपति प्रतापरुद्र का आश्रय। पिता-भवानन्द राय (राजमंत्री)। रचना- जगन्नाथ-वल्लभ नामक पांच अंकों का संगीत नाटक। रामानुज - कुरुकापुरनिवासी। पिता- गोविन्द। रचनाकुरुकेश-गाथानुकरणम् जो मूल नालायिरम् नामक प्रख्यात तामिल काव्य का अनुवाद है। रामानुज कवि - ई. 17 वीं शती। त्रिवेल्लोर (तामिळनाडु) के निवासी। रचनाएं- वसुमती-कल्याण, वीरराघव-कङ्कणवल्ली-विवाह, वार्धिकन्यापरिणय और वेदपादरामायण। रामानुजदास- "नाथमुनि-विजय-चम्पू" नामक काव्य के प्रणेता।। मैत्रेय गोत्रोद्भव कृष्णाचार्य के पुत्र। समय- अनुमानतः ई. 16 वीं शताब्दी का अंतिम चरण। चंपू-काव्य के अतिरिक्त इनकी अन्य कृतियां हैं- वेंगलार्य-परंपरा, उपनिषदर्थविचार और तथ्य-निरूपण। ये ग्रंथ अभी तक अप्रकाशित हैं। इनका उल्लेख डिस्क्रिएिव कैटलाग मद्रास 12306 में प्राप्त होता है। . रामानुजाचार्य - समय- 1017-1137 ई.। श्री-वैष्णव मत के आचार्य शिरोमणि। यामुनाचार्य (आलवंदार) के निकटस्थ स्नेही। उनके पौत्र श्री शैलपूर्ण के भागिनेय। जन्म- 1017 ई. में तेरूकुदूर नामक मद्रास के समीपस्थ ग्राम में। पिता-केशवभट्ट जो इन्हें बचपन में ही छोड कर चल बसे। तब इन्होंने कांची जाकर यादवप्रकाश नामक एक अद्वैती विद्वान् के पास वेद एवं वेदान्त का अध्ययन आरंभ किया। किन्तु यह अध्ययन अधिक दिनों तक न चल सका। उपनिषद् के अर्थ के विषय में गुरु-शिष्य के बीच विवाद खडा हो गया।
अतः अपने गुरु यादवप्रकाश को छोड रामानुज स्वतंत्र रूप से वैष्णव-शास्त्र का अनुशीलन करने लगे।
यामुनाचार्य (आलवंदार) ने अपनी मृत्यु के समय अपने एक शिष्य द्वारा रामानुज को बुलवा भेजा किन्तु उनके श्रीरंगम् पहुंचने से पहले ही आलवंदार का वैकुंठवास हो चुका था। रामानुज ने देख, कि वैकुंठवासी हुए आचार्य के हाथ की तीन उंगलिया मुडी हुई हैं। इसका रामानुज ने यह अर्थ लगाया कि आलवंदार उनके द्वारा ब्रह्म-सूत्र और विष्णु-सहस्रनाम पर भाष्य तथा आलवारों के 'दिव्यप्रबंधम्' पर टीका लिखवाना चाहते थे। एतदर्थ रामानुज ने ब्रह्म-सूत्र पर स्वयं 'श्रीभाष्य' नामक विख्यात भाष्य की रचना की और अपने पट्टशिष्य कूरेश (कुरत्तालवार के ज्येष्ठ पुत्र पराशर) के द्वारा विष्णुसहस्रनाम की टीका 'भगवतद्-गुण-दर्पण' तथा अपने मातुल-पुत्र कुरूकेश के द्वारा नम्मालवार के 'तिरूवाय मौलि' पर तामिल भाष्य की रचना कराई। इस प्रकार रामानुज ने दिवंगत आचार्य आलवंदार के तीनों मनोरथों की पूर्ति कर वैष्णव-समाज की बडा हित किया।
रामानुज के जीवन की तीन घटनाएं प्रमुख हैं। पहली है महात्मा नाम्बि से अष्टाक्षर-मंत्र (ओम् नमो नारायणाय) की दीक्षा लेना। यह मंत्र जगदुद्धारक होने के कारण महात्मा नाम्बी ने इनसे आग्रह किया था कि इस यंत्र को वे अत्यंत गोपनीय रखें किंतु संसार के प्राणियों के विषम दुःख से उद्धार-निमित्त इन्होंने मकान की छतों से तथा वृक्षों के शिखरों से इस मंत्र का सभी-किसी को उपदेश देकर उसका विपुल प्रचार किया।
दूसरी घटना है श्रीरंगम् के अधिकारी चोलनरेश का कट्टर शैव राजा कुलोत्तुंग के भय से श्रीरंगम् का परित्याग करना। यह घटना 1096 ई. के आसपास की है जब रामानुज की आयु 80 वर्ष की थी। राजा ने रामानुज को अपने दरबार में बुलाया था किंतु इनके पट्ट शिष्य कूरेश ने इन्हें वहां जाने नहीं दिया। गुरु के बदले कूरेश स्वयं राजदरबार में जा उपस्थित हुए और वहां पर वैष्णव-धर्म का उपदेश दिया। फलतः राजा के कोप का भाजन बन अपनी आखों से इन्हें हाथ धोना पड़ा।
तीसरी प्रमुख घटना है, मैसूर के शासक बिट्टिदेव को वैष्णव धर्म में दीक्षित करना तथा उनका नाम विष्णुवर्धन रखना। इस घटना का समय 1098 ई. है। फिर 1100 ई. के आसपास रामानुज ने मेलकोटे में भगवान् श्रीनारायण के मंदिर का निर्माण कराया और लगभग 16 वर्षों तक वे इसी प्रदेश में रहे। कट्टर (धर्मांध) शैव राजा कुलोत्तुंग की मृत्यु के पश्चात् रामानुज 1118 ई. में श्रीरंगम् लौट आए और अनेक मंदिरों का निर्माण करवा कर 1137 ई. तक आचार्य-पीठ पर आसीन रहे। इन्होंने दक्षिण के विष्णु-मंदिरों में वैखानसआगम द्वारा होने वाली उपासना का उच्चाटन करते हुए उसके स्थान पर पांचरात्र आगम को प्रतिष्ठित किया।
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अपने 120 वर्ष के दीर्घ जीवन में रामानुज ने श्रीभाष्य के अतिरिक्त वेदान्तसंग्रह, वेदानादीप, वेदान्ततत्त्वसार, गीताभाष्य, अष्टादशरहस्य, कूटसंदोह, गुणरलकोष, न्यायरत्नमाला, नारायणमन्त्रार्थ नित्वाराधनविधि, पंचरात्ररक्ष, मुण्डकोपनिषद् व्याख्या, विष्णुविग्रहशंसन-स्तोत्र आदि ग्रंथों की रचना की।
रामानुज ने अपने विशिष्टाद्वैत मत को प्राचीनतम श्रुत्यनुकूल सिद्ध करने का विपुल उद्योग किया। उनके महनीय प्रयत्नों से दक्षिण प्रदेश में वैष्णव धर्म का भरपूर प्रचार-प्रसार हुआ।
रामानुजाचार्य के श्री वैष्णव मत में दास्य-भाव की भक्ति स्वीकार की गई है। इन्होंने भगवान नारायण की उपासना की पद्धति चलाई। इनके संप्रदाय का जन्म, शांकर अद्वैत प्रतिक्रिया के रूप में हुआ था । इसीलिये दार्शनिक जगत् में यह संप्रदाय विशेष महत्त्व का अधिकारी है। एक द्रविड पंडित किंतु वृंदावन रामानुजाचार्य योगी के रंगनाथजी के विशाल मंदिर एवं संस्थान से आकृष्ट होकर, वृंदावन ही में रहने लगे। इस संस्थान से वे संबद्ध भी थे।
इन्होंने वेद - स्मृति ( भाग 10-87) पर अपनी 'सरला' नामक टीका लिखी। यह विस्तृत टीका, रामानुज के मान्य सिद्धान्तों को दृष्टि में रखकर विरचित है। इसमें उन्होंने अपने द्रविड व वृंदावनवासी होने का उल्लेख किया है।
उक्त कृतियों के अतिरिक्त संस्कृत, हिन्दी व अंग्रेजी में अनेक शोध निबंध लिखे और मित्रगोष्ठी पत्रिका का संपादन किया । रामाश्रम सारस्वत व्याकरण का रूपान्तर 'सिद्धान्त चन्द्रिका' । नामक यह टीका स्वतन्त्र व्याकरण के रूप में प्रसृत हुई । सिद्धान्त चन्द्रिका पर तीन टीकाएं लिखी गई है।
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रामेश्वर भट्ट ई. 16-17 वीं शती । पैठण निवासी गोविंद भट्ट के पुत्र ये अनेक शास्त्रों तथा कलाओं में पारंगत थे। प्रख्यात मीमांसक गागाभट्ट काशीकर इसी वंश में मद्रास के छत्र नामक ग्राम में जन्म। हुए 1 रामेश्वरभट्ट के संबंध में कहा जाता है कि अहमदनगर दरबार के जाफर मलिक के पुत्र को इन्होंने महारोग से मुक्ति दिलाई। इन्होंने 'रामकुतूहल' नामक काव्य की रचना की किन्तु यह काव्य अब उपलब्ध नहीं है। इनकी मृत्यु काशी में हुई। इनके साथ इनकी पत्नी सती हो गई।
रामेश्वर वाराणसीस्थ मीमांसक 18 वीं शती । रचनाविधिविवेकः ।
रावण
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ई. 15 वीं शती । ऋग्वेद और यजुर्वेद के भाष्यकार । भाष्य-ग्रंथ अनुपलब्ध है किन्तु कुछ अंश इधर-उधर अवतरणों में उपलब्ध। उससे ज्ञात होता है कि रावणाचार्य शांकर मतानुयायी वेदान्ती थे। सायण शब्द का ही अपभ्रंश रावण है ऐसा कुछ विद्वानों का तर्क है किन्तु परमार्थप्रपा नामक सूर्यपण्डित रचित गीता - भाष्य के आधार से (जहां रावण - भाष्य का निर्देश है) दिखाया गया है कि ये दो भिन्न व्यक्ति हैं।
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इनका समय ई. 19 वीं शती के पूर्वार्ध में हुए श्रीनिवास सूरि के बाद का है अतः ये आधुनिक टीकाकार है। रामानुजाचार्य व्ही. विद्वत्ता तथा प्रतिभा के कारण 'सर्वशास्त्रपारंगत', 'संस्कृत महाकवीश्वर', 'सरसकविराज', 'कविरत्न', 'साहित्यभास्कर' आदि उपाधियां प्राप्त। इन्होंने रूपक-लक्षणों के अनुसार 10 प्रकार की रचना की। रचनाओं के नाम :- कलिका-कोलाहल (नाटक), आत्मावलीपरिणय (प्रकरण), श्रीनिवासविलास महादेशिकचरित (व्यायोग), लक्ष्मी-कल्याण
(भाण), (समवकार), दक्षमखरक्षण (डिम), नहुषाभिलाष ( इहामृग), अन्यायराज्यप्रध्वंसन (अंक), मुनित्रयविजय (वीथि) और वाणीपाणिग्रहण ( लाक्षणिक नाटक) । इसके व्यतिरिक्त रुक्माङ्गद चरित नाटक और अभिनव लक्ष्मी सहस्रनाम स्तोत्र की भी रचना इन्होंने की। यह अप्रकाशित साहित्य अयोध्या में पं. कालीप्रसाद त्रिपाठी, (संपादक - संस्कृतम्) के यहां सुरक्षित था।
रामामात्य तिम्मामात्य के पुत्र । विजयनगर के अलिय-रामराज के आश्रित ( रामराज तालिकोट की लड़ाई में मारा गया (सन् 1565 ) । संगीतरत्नाकर के टीकाकार चतुर- कल्लीनाथ के दौहित्र । रचना - स्वरमेल- कलानिधि ।
रामावतार शर्मा ( म.म. ) समय- 1877-1929 ई. 1 पिता- देवनारायण । माता गोविंददेवी। महामहोपाध्याय की पदवी प्राप्त। बिहार के छपरा जिले में दि. 6 मार्च 1877
को जन्म | साहित्यचार्य व एम.ए. (संस्कृत) की परीक्षाएं प्रथम श्रेणी में उत्तीर्ण। सन् 1906 में पटना- कालेज के संस्कृत विभागाध्यक्ष | सन् 1919 से 1922 तक हिंदू विश्वविद्यालय में प्राच्य विभाग के प्राचार्य इन्होंने नाटक, गीत, काव्य, निबंध आदि के साथ-ही-साथ दर्शन तथा संस्कृत विश्वकोष का भी प्रणयन किया है। इनके 'परमार्थदर्शन' की ख्याति सप्तमदर्शन के रूप में हुई है। इन्होंने केवल 15 वर्ष की ही आयु में 'धीरनैषध' नामक नाटक की रचना की जिसमें पद्य का बाहुल्य है। 'भारत गीतिका' (1904 ई.) तथा 'मुद्गर दूत' (1914 ई.) इनके काव्यग्रंथ है 'मुद्गर दूत' (श्लोक संख्या 1482) में मेघदूत के आधार पर किसी व्यभिचारी मूर्खदेव का जीवन चित्रित किया गया है इनका 'वाङ्मयार्णव नामक प्रसिद्ध पद्यबद्ध संस्कृत ज्ञानकोश ज्ञानमंडल वाराणसी से सन् 1967 में प्रकाशित हुआ है। अन्य रचना - भारतेतिवृत्तम् । विषयभारत का इतिहास ।
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रावणाचार्य ने ऋग्वेद का पदपाठ भी बनाया। वह शाकल्य के पदपाठ से भिन्न होने के कारण अन्य शाखा से संबंधित हो ऐसा विद्वानों का तर्क है। राशिवडेकर अप्पाशास्त्री समय- 1873-1913 ई. । जन्म महाराष्ट्र में कोल्हापुर के निकट राशिवडे ग्राम में दिनांक 2-11-1873 को। पिता- सदाशिव और माता पार्वती । जयचन्द्र
संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड / 431
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सिद्धान्तभूषण के संपादकत्व में 'संस्कृत चन्द्रिका' में 'मातृभक्तिः' विषय पर आयोजित काव्य-स्पर्धा में आपको प्रथम पुरस्कार मिला था। कालान्तर से अपनी प्रतिभा के कारण आप स्वयं संस्कृतचन्द्रिका के संपादक बने। इसमें प्रकाशित आपके प्रबन्धों के कारण आपको 'विद्यावाचस्पति' की उपाधि प्राप्त हुई। गद्य-काव्यों में आपकी ‘इन्दिरा', 'देवीकुमुद्वती', 'दशापरिणति', 'मातृभक्ति' तथा 'लावण्यमयी' आदि रचनाएं विशेष उल्लेखनीय हैं। आपने 'अधर्मविपाक' नामक सामाजिक नाटक के अतिरिक्त 'सामान्यधर्मदीप', 'मातृगोत्रवर्णननिर्णय', 'पतितोद्धारमीमांसाखण्डन' जैसे धार्मिक ग्रंथों तथा 'समाजसंस्कार', धर्मपीठानि धर्माचार्याश्च' आदि ग्रंथों की रचना की। गद्य और पद्य दोनों पर इनका समानाधिकार था। उसी प्रकार उनमें कारयित्री और भावयित्री प्रतिभा का अद्भुत समन्वय था। संस्कृत के प्रति उनका जन्मजात अनुराग था।
आपने 1889 ई. तक हरिशास्त्री पाटगांवकर से काव्यशास्त्र की शिक्षा प्राप्त की, अनंतर कोल्हापुर में 1893 ई. तक कान्ताचार्य से व्याकरण की। हिंदी, बंगला, मलयालम, तेलगु, तमिल व अंग्रेजी का भी आपने ज्ञान प्राप्त किया। 1894 ई. में आपकी प्रथम संस्कृत कविता, 'संस्कृत-चन्द्रिका' में प्रकाशित हुई। संस्कृतचंद्रिका का संपादन और प्रकाशन का कार्य कलकत्ता से आपने किया। बाद में कोल्हापुर में निवास कर सुनृतवादिनी का संपादन किया। मृत्यु- 1913 में हुई। महाराष्ट. मैसर, केरल, मद्रास, बंगाल आदि में भ्रमण कर संस्कृत का प्रचार किया। संस्कृत पत्रकारिता के इतिहास में विशेष उल्लेखनीय हैं।
जान पडता है। रुद्रधर उपाध्याय - ई. 15 वीं शती के एक धर्मशास्त्री। मिथिला-निवासी म.म. लक्ष्मीधर के पुत्र और हलधर के सबसे छोटे भाई। आपने श्राद्धविवेक, पुष्पमाला, वर्षकृत्य, व्रतपद्धति, शुद्धिविवेक आदि ग्रंथों की रचना की है। श्राद्धविवेक के चार परिच्छेद हैं जिनमें श्राद्ध की व्याख्या, श्राद्धप्रकार, क्रियापद्धति, श्राद्ध के स्थल-काल आदि का विवेचन है। 'शुद्धिविवेक' के तीन परिच्छेद हैं जिनमें जननमरणअशौच, अन्त्रशुद्धि, जलशुद्धि, रजस्वला की शुद्धि आदि का विवेचन है। रुद्र न्यायपंचानन - नवद्वीप- निवासी काशीनाथ विद्यानिवास के पुत्र । पितामह- रत्नाकर विद्यावाचस्पति। समय- ई. 17 वीं शती का उत्तरार्ध माना जाता है। इनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों की संख्या 39 है :- अधिकरण- चंद्रिका, कारक-परिच्छेद, कारक-चक्र, विधिरूप-निरूपण,
उदाहरण-लक्षण-टीका, उपाधिपूर्वपक्षग्रंथ-टीका, केवलान्वयि-टीका, पक्षतापूर्व ग्रंथ-टीका, न्यायसिद्धांत-मुक्तावली-टीका,
व्याध्यनुगम-टीका, कारकाद्यर्थ-निर्णय-टीका,
सव्यभिचारसिद्धांत-टीका, भावप्रकाशिका, अनुमिति-टीका, कारकवाद, तत्त्वचिंतामणि-दीधिति- टीका आदि ।
इनके द्वारा रचित 4 काव्य-ग्रंथ भी हैं- भावविलासकाव्य, वृन्दावनविनोद, भ्रमरदूत व पिकदूत। भ्रमरदूत में राम द्वारा किसी भ्रमर से सीता के पास संदेश भेजने का वर्णन है। पिकदत नामक संदेश-काव्य में राधा ने पिक के द्वारा श्रीकष्ण के पास संदेश भेजा है। इस छोटे-से काव्य में केवल 31 श्लोक हैं। संभवतः ये बंगाल के हुसेन शाह के आश्रित राजकवि भी थे। रुद्रभट्ट - काव्य-शास्त्र के आचार्य । श्रृंगार-तिलक' नामक ग्रंथ के प्रणेता। डा. एस.के.डे के अनुसार समय ई. 10 वीं शती । बहुत दिनों तक रुद्रट व रुद्रभट्ट को एक ही व्यक्ति माना जाता रहा है किन्तु अब निश्चित हो गया है कि ये दोनों भिन्न व्यक्ति थे। बेबर, बुल्हर, औफ्रेट व पिशल ने फिर भी इन दोनों को अभिन्न माना है। पर रुद्रटकृत 'काव्यालंकार' तथा रुद्रभट्टकृत 'श्रृंगार-तिलक' के अध्ययन से दोनों का पार्थक्य स्पष्ट हो चुका है। 'काव्यालंकार' के रचयिता रुद्रट एक महनीय आचार्य के रूप में आते है। इन्होंने अपने ग्रंथ में काव्य के सभी अंगों का विस्तारपूर्वक विवेचन किया है। इसके विपरित . रुद्रभट्ट की दृष्टि परिमित है और वे काव्य के एक ही अंग (रस) का वर्णन करते हैं। इस प्रकार रुद्रभट्ट का क्षेत्र संकुचित है, और वे मुख्यतः कवि के रूप में दिखाई पड़ते हैं। रुद्रराम - ई. 18 वीं शती। रचनाएं- वादपरिच्छेद, व्याख्याव्यूह, चित्तरूप, अधिकरणचन्द्रिका और वैशैषिकशास्त्रीयपदार्थ - निरूपण
और तर्कसंग्रह की टीका। रूप गोस्वामी - समय- 1492 ई. 1591 ई.। बंगाल की
रुद्रकवि - ई. 16-17 वीं शती। राजा नारायण शाह के आश्रित इस कवि ने, 'जहांगीरचरितम्" की रचना दशकुमारचरितम् की पद्धति के अनुसार की। इसमें जहांगीर के चरित्र का वर्णन है। अन्य रचना राष्ट्रोदवंश। 20 सर्गों के इस महाकाव्य में बागुलवंशीय राजाओं का चरित्र-चित्रण है। रुद्रट - 'काव्यालंकार' नामक महत्त्वपूर्ण ग्रंथ के प्रणेता। नाम के आधार पर इनका काश्मीरी होना निश्चित होता है। 'काव्यालंकार' के प्रारंभ व अंत में गणेश, गौरी, भवानी, मुरारि व गजानन की वंदना होने के कारण ये शैव माने गए हैं। टीकाकार नमिसाधु के अनुसार इनका दूसरा नाम शतानंद था और ये वामुकभट्ट के पुत्र थे। इनके पिता सामवेदी थे। भरत के बाद रुद्रट रससिद्धांत के प्रबल समर्थक सिद्ध होते हैं किन्तु इन्होंने भामह, दंडी, उद्भट की अपेक्षा अलंकारों का अधिक व्यवस्थित विवेचन किया है और कतिपय नवीन अलंकारों का भी निरूपण किया है। अतः ये उपर्युक्त आचार्यों से परवर्ती थे। इनके मत को ई. 10 वीं शती के आचार्यो ने उद्धृत किया होने से, ये उनके पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। इस प्रकार इनका समय ई. 9 वीं शती का पूर्वार्ध उचित
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वैष्णव परंपरा के भक्ति व रसशास्त्र के चैतन्य-मतानुयायी आचार्य। षट् गोस्वामियों में से एक। भक्ति एवं विद्वत्ता के जाज्वल्य प्रतीक। भारद्वाज गोत्री। धनाढ्य ब्राह्मणकुल में जन्म। पूर्वज कर्नाटक से बंगाल में आकर बस गए थे। पिता का नाम श्रीकुमार। सनातन गोस्वामी के अनुज, चैतन्य महाप्रभु के प्रथम कृपापात्र होने के कारण वैष्णव समाज में उनके बडे भाई समझे जाते हैं। ये दोनों भाई चैतन्य-मत के शास्त्रकर्ता माने जाते हैं। बंगाल में इनकी जन्मभूमि थी वफल। मातारेवती। आप बंगाल के नवाब हसेनशाह के प्रधान मंत्री थे। त्रिवेणी के पवित्र तट पर चैतन्य से इनकी भेंट होने पर इन्होंने अपने ऊंचे पद को त्याग कर संन्यास ले लिया और अपने गुरुदेव की सूचनानुसार वृंदावन को अपना निवास-स्थल बनाया। शाह ने इनकी बुद्धिमत्ता से प्रभावित होकर इन्हें 'साकर मल्लिक' की उपाधि से गौरवान्वित किया था। इनकी महत्ता, इनके 3 काव्याशास्त्रीय ग्रंथों के ही कारण अधिक है। __ आनुवंशिक परिचय - कर्नाटक के भारद्वाज गोत्रीय अनिरुद्ध की दो पत्नियों से राजकुमार रूपेश्वर और हरिहर का जन्म हुआ। हरिहर दुष्ट थे। उन्होंने रूपेश्वर को राज्य से वंचित किया। रूपेश्वर का पुत्र पद्मनाभ गंगातट के नवहट्ट ग्राम में सुप्रतिष्ठित हुआ। उसके पांच पुत्रों में सबसे छोटा मुकुन्द फत्तेहाबाद में बसा। उनके पुत्र श्रीकुमार के अमर, सन्तोष तथा वल्लभ नामक तीन पुत्रों को चैतन्य ने सनातन, रूप
और अनुपम नाम से दीक्षित किया। दीक्षा के पश्चात् रूप प्रायः गोकुल में ही रहे। __ कहा जाता है कि श्रीगोविंददेवजी ने इन्हें स्वप्न में बताया कि मैं अमुक स्थान पर भूमि में गडा पडा हूं। एक गाय प्रतिदिन मुझे दूध पिला जाती है। तुम उसी गाय को लक्ष्य कर मेरे स्थान पर आओ, मुझे बाहर निकालो और मेरी पूजा करो। तदनुसार रूपजी ने भगवान् की मूर्ति बाहर निकाली। कालांतर में जयपुर के महाराज मानसिंह ने गोविंददेवजी का लाल पत्थरों का बडा ही विशाल मंदिर बनवाया जो आज भी वृंदावन की श्री-वृद्धि कर रहा है। ___ रूप गोस्वामी ने 17 से अधिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं- हंसदूत (काव्य), उद्धव-संदेश (काव्य), विदग्ध-माधव (नाटक), प्रेमेन्दुसागरः, ललित-माधवं (नाटक), दानकेलि-कौमुदी, भक्तिरसामृत-सिंधु, उज्ज्वल-नीलमणि एवं नाटक-चंद्रिका। इनमें अंतिम 3 ग्रंथ काव्य-शास्त्रीय हैं।
इनके अन्य ग्रंथों के नाम हैं- लघुभागवतामृत, पद्यावली, स्तवमाला, उत्कलिका-मंजरी, आनंद-महोदधि, मथुरा-महिमा, गोविंद-बिरुदावलि, मुकुन्द-मुक्तावली, अष्टादश छंद, गीतावली आदि। सोलहवीं शताब्दी के वृंदावन में, रूप गोस्वामी भक्त-मंडली के अग्रणी थे। कहते है कि संत मीराबाई ने
इन्हींसे दीक्षा ली थी।
इनके मृत्यु-संवत् के विषय में विद्वानों का एकमत नहीं किन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय तथा डा. डी.सी. सेन द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के अनुसार ये पूरे 100 वर्षों तक जीवित रहे ऐसा माना जा सकता है। रेणु - ऋग्वेद के 9 वें 10 वें मंडल के दो सूक्तों के द्रष्टा । ये विश्वामित्र के पुत्र थे। इन्द्र व सोम-स्तुति ही सूक्तों का विषय है। __अपनी प्रथम ऋचा में ही सोम हेतु 21 गायों के दोहन का उल्लेख इन्होंने किया है। विश्वामित्र द्वारा निर्मित प्रतिसृष्टि का निर्देश भी इसमें चार भुवनों के उल्लेख से स्पष्ट होता है। रेभ - एक सूक्त दृष्टा। आपने इन्द्रस्तुति पर सूक्त की रचना की है। उनकी एक ऋचा का आशय है :
ऐ अद्भुत शूर, वज्रधारी और भक्तरक्षक इन्द्र, अपने सत्यस्वरूप को प्रकट कर आप हमें संकट-मुक्त करें। आपकी स्पृहणीय सम्पत्ति आप हमें कब देंगे?
रेभ के बारे में एक कथा ऋग्वेद में यह बतायी जाती है कि एक बार असुरों ने इनके हाथ-पैर बांध कर इन्हें कुएं में धकेल दिया। 9 दिनों और दस रातों तक इस स्थिति में रहने के बाद अश्विनीदेवों ने उन्हें मुक्त किया। रेवाप्रसाद द्विवेदी (डा.) - जन्म-सन् 1935 में रेवा (नर्मदा) के तट पर नादनेर ग्राम (म.प्र.) में। आरम्भिक शिक्षा अपने संस्कृतज्ञ पिता से प्राप्त। काशी हिन्दू वि.वि. से एम्.ए. तथा साहित्याचार्य की उपाधियां प्राप्त । जबलपुर वि.वि. से डी.लिट्. । सन् 1970 तक म.प्र. की राजकीय सेवा में। तत्पश्चात् काशी हिन्दू वि.वि. में साहित्य-विभागाध्यक्ष। आप संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध आलोचक हैं। कृतियां- सीताचरित (महाकाव्य), कांग्रेस-पराभव (समवकार) और यूथिका (नाटिका) । कालिदास ग्रन्थावली का एकत्र संपादन। अनेक लघु-काव्य एवं निबन्ध भी प्रकाशित। रोडे, यज्ञेश्वर सदाशिव (बाबा रोडे) - लगभग 1707 ई. में लेखन-कार्य प्रारंभ। रचनाएं- यन्त्रराज-वासनाटीका, गोलानन्द-अनुक्रमणिका और मणिकान्ति टीका। लंबोदर वैद्य - ई. 20 वीं शती। बंगाली। "गोपीदूत" नामक काव्य के रचयिता। लक्ष्मण - माता-भवानी। पिता-विश्वेश्वर। काशी निवासी। कालान्तर से तंजौर के शाहजी के सभासद। इनकी साहित्य शास्त्रीय रचना "शाहराजीयम्" में शाहजी का चरित्र-वर्णन है। अन्य रचना- शाहराज-सभासरोवर्णिनी। लक्ष्मण - ई. 11 वीं शती। ग्रंथकार के प्रपौत्र (भावप्रकाश नामक साहित्यशास्त्रीय ग्रंथ के लेखक)। शारदातनय ने आचार्य लक्ष्मण के संबंध में लिखा है कि इनका निवासस्थान मेरूत्तर जनपद का माठर नामक ग्राम था। गोत्र-कश्यप। इन्होंने तीस
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यज्ञों से विष्णु की आराधना की और "वेदभूषण" नामक वेदभाष्य की रचना ही किस संहिता पर यह भाष्य-रचना है यह ज्ञात नहीं।
लक्ष्मण भट्ट ई. 17 वीं शती के एक धर्मशास्त्रकार। ये निर्णयसिंधु के रचयिता कमलाकर भट्ट के छोटे भाई तथा रामकृष्ण भट्ट के पुत्र थे। आपने धर्मशास्त्र से सम्बन्धित “आचाररत्न", "आचारसार" और "गोत्रप्रवररत्न" नामक तीन ग्रंथों की रचना की है। इसके अतिरिक्त आपने नैषधचरित पर "गूढार्थप्रकाशिका" नामक टीका भी लिखी है। लक्ष्मणभट्ट वैष्णवों के निवार्क संप्रदाय के प्रवर्तक आचार्य निंबार्क के 4 प्रमुख शिष्यों में से एक। इन्होंने ब्रह्मसूत्र पर एक स्वतंत्र सूक्ष्म वृत्ति लिखी है।
लक्ष्मण भास्कर - समय- ई. 14 वीं शती । रचना-मतंगभरतम् । लक्ष्मण माणिक्य - ई. 16 वीं शती। नोआखली के नरेश । कृतियां विख्यातविजय तथा कुवलयाश्वचरित (नाटक) और "सत्काव्य- रत्नाकर" नामक सुभाषितसंग्रह |
लक्ष्मण शास्त्री नागौर निवासी। रचनाश्रीविष्णुचतुर्विंशत्यवतारस्तोत्र (चित्रकाव्य) विष्णु के 24 अवतारों का वर्णन भागवत (2-7) के अनुसार अतिरिक्त रचनाएंविष्णुचरित्रामृत विष्णुस्तवषोडशी, श्रीहरिद्वादशाक्षरीस्तोत्र, श्रीरामविवाह, श्रीरामपाद-युगुलीस्तव और श्रीहरिस्तोत्र | लक्ष्मणसूरि "भारतचंपूतिलक" नामक काव्यग्रन्थ के प्रणेता। ये ई. 17 वीं शती के अंतिम चरण में विद्यमान थे । ग्रंथ के अंत में इन्होंने अपना अल्प परिचय दिया है। तदनुसार पिता- गंगाधर, माता-गंगाबिका ।
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लक्ष्मणसूरि ( म.म.) जन्म तिन्नेवेल्ली जनपद (तमिलनाडु) के पुरुनाल ग्राम में, सन् 1858 में सन् 1886 तक मद्रास के पचयप्पा संस्कृत महाविद्यालय में अध्यापन । सन् 1903 में मैसूर के दीवान द्वारा "सूरि" की उपाधि प्राप्त । भारत सरकार द्वारा सन् 1916 में "महामहोपाध्याय" की उपाधि । जीवन के अन्तिम चरण में परिव्राजक बने और भारतीय संस्कृति तथा अध्यात्म दर्शन पर प्रवचन करने लगे।
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पिता- मुथु भारती, संस्कृत तथा तमिल के विद्वान् लेखक । गुरु- सुब्बा दीक्षित । कृतियां घोषयात्रा डिम ( अपरनाम युधिष्ठिरानृशस्यं), दिल्लीसाम्राज्य तथा पौलस्त्यवध (नाटक), भीष्मविजय भारतसंग्रह तथा नलोपाख्यानसंग्रह (गद्य), कृष्णलीलामृत (महाकाव्य), जार्ज शतक (काव्य), अनर्घराघव, उत्तररामचरित, वेणीसंहार तथा बालरामायण पर टीकाएं। "दिल्ली-साम्राज्य" नामक नाटक सन् 1912 में मद्रास से मुद्रित । लक्ष्मी - ई. 19 वीं शती निवासस्थान- मलबार के एकावलं कोविलग्राम में । रचना - सन्तानगोपाल नामक 3 सर्गों का काव्य । श्रीकृष्ण द्वारा एक मृत ब्राह्मण-पुत्र को जीवित करने
434 / संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड
की कथा। तीसरे सर्ग में यमकबन्ध है 1 लक्ष्मीकान्तैया एम्. ए., संस्कृत प्राध्यापक, निजाम महाविद्यालय हैदराबाद । रचना - कीर-सन्देश । सर्वजनपुस्तकमाला से प्रकाशित । लक्ष्मीदत्त ई. 13-14 वीं शती। "पाण्डवचरित" नामक महाकाव्य के प्रणेता। इस ग्रंथ की पाण्डुलिपि गंगानाथ झा केन्द्रीय संस्कृत विद्यापीठ के ग्रंथालय में उपलब्ध है । सर्गान्त की पुष्पिका में "श्री लक्ष्मीनारायणराय वाजपण्डित कविडिण्डिम श्रीलक्ष्मीदत्त " इन शब्दों में लेखक ने अपना परिचय दिया है। प्रस्तुत पाण्डुलिपि मैथिली लिपि में है। लक्ष्मीधर ई. 11 वीं शती। जन्मस्थान- भट्टांकित कोसल-ग्राम (जिला- बोगरा, उत्तर बंगाल) "चक्रपाणि विजय" महाकाव्य के प्रणेता।
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लक्ष्मीधर विजयनगर के तिरुमलराय ( ई. स. 1570-73) के आश्रित अपनी गीत-गोविन्द की टीका में इन्होंने राग-दीपिका, रंगलक्ष्मी-विलास, वामदेवीय तथा प्रताप नृपति के संगीत चूडामणि का उल्लेख किया है। अन्य रचना- भरत शास्त्रग्रंथ । लक्ष्मीधर भट्ट राजधर्म के निबंधकार कान्यकुब्जेश्वर जयचंद्र के पितामह गोविंदचंद्र के महासंधिविग्रहिक (विदेश मंत्री) । समय- ई. 12 वीं शती का प्रारंभ। इनका ग्रंथ "कृत्यकल्पतरु", अपने विषय का अत्यंत प्रामाणिक व विशालकाय निबंध-ग्रंथ है। यह 14 कांडों में विभाजित है किन्तु अब तक सभी कांड प्रकाशित नहीं हो सके है। लक्ष्मीनारायण (भण्डारू) पिता भहरू बिल्लेश्वर । माता - रूक्मिणी । भारद्वाज गोत्र। विजयनगर के सम्राट् कृष्णदेवराय (सन् 1509 से 1529) के “वाग्गेयकार" अर्थात् कवि तथा संगीतरचनाकार इन्हें सम्राट् की ओर से सोने की पालकी, मोतियों का पंखा तथा हाथी मिले थे। गुरु-विष्णुभट्टारक। रचना :- संगीत- सूर्योदय।
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लक्ष्मीनारायण राव - ई. 20 वीं शती । वेंकटेश्वर वि. वि. तिरुपति में तेलगु भाषा के प्राध्यापक । "धर्मरक्षण" नामक संस्कृत नाटक के प्रणेता ।
लगध - इन्होंने "वेदांग ज्योतिष" नामक ग्रंथ की रचना की है। 36 श्लोकों वाले इस ग्रंथ में तिथि, नक्षत्र निकालने की सरल पद्धति का विवेचन है वेदांग ज्योतिष के कालखंड के बारे में पाश्चात्य पंडितों में काफी मतभेद है। मैक्समूलर इसका कालखंड ईसा पूर्व तीसरा शतक मानते हैं व वेबर इसा पूर्व 5 वें शतक का उल्लेख करते हैं। शं. बा. दीक्षित के मतानुसार यह काल ईसा पूर्व 1400 होना चाहिये। लगध के चरित्रविषयक जानकारी अनुपलब्ध है। मौखिक गणित करनेवाले प्राचीन ज्योतिषियों में इनकी गणना की जाती है।
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लघुअनन्तवीर्य सिद्धिविनिश्चय के टीकाकार अनन्तवीर्य के उत्तरवर्ती होने के कारण इन्हें लघु अनन्तवीर्य कहा जाता है।
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आपने प्रभाचन्द्र का उल्लेख किया है। अतः समय ई. 11 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध होना चाहिये। रचना- "प्रमेयरत्नमाला" जिसमें प्रमाण और प्रमाणाभास का प्रतिपादन है। हेमचंद्र की प्रमाणमीमांसा प्रस्तुत प्रमेयरत्नमाला से पूर्णतः प्रभावित है। लघुसमन्तभद्र - अपरनाम-कुलचन्द्र उपाध्याय। वंश ब्राह्मण। समय- ई. 13 वीं शती। ग्रंथ- विद्यानंद की अष्टसहस्री पर विषमतात्पर्यवृत्ति नामक टिप्पण। लबऐंद्र - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 119 वें सूक्त के द्रष्टा। आत्मा की स्तुति इस सूक्त का विषय है और छंद गायत्री है। "बृहद्देवता" के अनुसार इन्द्र को लबऋषि के रूप में सोमरस का पान करते हुए ऋषियों ने देखा। सोमपान से मदोन्मत्त शरीरावस्था और पराक्रम का वर्णन इस सूक्त में किया गया है। ललितकीर्ति - जैनधर्मी काष्ठासंघ माथुरगच्छ और पुष्करगण के भट्टारक आचार्य। दिल्ली की भट्टारकीय गद्दी के पट्टधर । मन्त्र-तन्त्रवादी। अलाउद्दीन खिलजी द्वारा सम्मानित । रचनाएंमहापुराण टीका (तीन खण्ड) तथा 24 कथाएं। ललितमोहन - मृत्यु- सन् 1972 के लगभग। पुराणपुर ग्राम (जिला-बर्दवान, बंगाल) के निवासी। काव्यतीर्थ, व्याकरणतीर्थ व स्मृतितीर्थ। “कविभूषण' की उपाधि से विभूषित। "देवीप्रशस्ति" नामक नाटक के प्रणेता। लल्ल - "शिष्यधीवृद्धिद-तंत्र" नामक प्रसिद्ध ज्योतिषशास्त्रीय ग्रंथ के प्रणेता जिसमें एक सहस्र श्लोक हैं, जिसका संपादन सुधाकर द्विवेदी द्वारा किया गया है और जो 1886 ई. में बनारस से प्रकाशित हुआ है। इनके समय के बारे में विद्वानों में मतभेद पाया जाता है। म.म. पंडित सुधाकर द्विवेदी के अनुसार इनका समय 5 वीं शती है पर शंकर बालकृष्ण दीक्षित इनका समय छठी शती मानते हैं। "खंडखाद्यक" की टीका (ब्रह्मगुप्त ज्योतिषी द्वारा रचित ग्रंथ) की भूमिका में प्रबोधचंद्र सेनगुप्त इनका समय 670 शक मानते हैं, जिसका समर्थन डा. गोरखप्रसाद ने भी किया है। लल्ल ने ग्रंथ-रचना का कारण देते हुए बताया है कि आर्यभट्ट अथवा उनके शिष्यों द्वारा लिखे गए ग्रंथों की दुरूहता के कारण, इन्होंने विस्तारपूर्वक (उदाहरण के साथ) कर्मक्रम से इस ग्रंथ की रचना की है। __ मध्यमाधिकार "पाटी-गणित' एवं "रत्नकोश" नामक अन्य दो ग्रंथ भी इनके हैं पर वे प्राप्त नहीं होते। ललितमोहन भट्टाचार्य - ई. 19 वीं शती। पूर्वस्थली (बंगाल) के निवासी। कृति- "खाण्डव-दहन" महाकाव्य । लीला राव दयाल - इ. २० वा शती। पंडिता क्षमादेवी राव की पुत्री। पति-हरीश्वर दयाल माथुर (शासकीय वैदेशिक सेवा में)। संस्कृत-लेखन की प्रेरणा माता से प्राप्त। क्षमा राव की अनेक कथाओं को नाट्यरूप दिया। आधुनिक शैली
में सामाजिक समस्याओं पर लेखन।
नाट्यरूप कृतियां- गिरिजायाः प्रतिज्ञा, बालविधवा, कटुविपाकः, होलिकोत्सव, क्षणिक-विभ्रम, गणेशचतुर्थी, असूयिनी, मिथ्याग्रहण, कपोतालय, वृत्तशंसिच्छत्र, वीरभा, तुकारामचरित, ज्ञानेश्वरचरित और जयन्तु कुमाउनीयाः। लोंढे, गणेशशास्त्री - ई. 20 वीं शती। पुणे के प्रसिद्ध संस्कृताध्यापक। पिता-पांडुरंग। कृतियां- भूपो भिषक्त्वं गतः (एकांकी), संस्कृत-प्रवेश, सुबोध-संस्कृत-संवाद, सुभाषित रत्नमंजूषा व सुपठव्याकरण (मराठी पद्यों में संस्कृत के नियम)। लोकनाथ भट्ट - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। पिता-वरदार्य या कविशेखर विश्वगुणादर्श के रचयिता वेंकटाध्वरी के मामा थे। रचना- "कृष्णाभ्युदय" नामक प्रेक्षणक। लोलिंबराज कवि - आयुर्वेद-शास्त्र के प्रसिद्ध ग्रंथ "वैद्यजीवन" के प्रणेता। जुन्नर (महाराष्ट्र) के निवासी। समय- 17 वीं शती। पिता-दिवाकर भट्ट। इन्होंने “वैद्यावतंस" नामक एक अन्य ग्रंथ की भी रचना की है। इनके "वैद्यजीवन" की विशेषता यह है कि उसकी रचना सरस एवं ललितमनोहर
शैली में हुई है, रोग व औषधि का वर्णन इन्होंने अपनी प्रिया को संबोधित कर किया है और इसमें शृंगार रस की प्रधानता है। इसका हिन्दी अनुवाद कालीचरण शास्त्री ने किया है। इनकी अन्य रचनाएं मराठी भाषा में है। लौगाक्षी - ई. 10 वीं शती के शतशाखाध्यायी सामवेदी आचार्य। पौष्यंजी इनके गुरु थे। अशौच व प्रायश्चित्त-विषय पर इनके श्लोक मिताक्षरा में दिये गये हैं। आपने योग और क्षेम की व्याख्या कर दोनों में अभिन्नत्व प्रतिपादित किया है। आपने आर्षाध्याय, उपनयनतंत्र, काठक गृह्यसूत्र, प्रवराध्याय व श्लोक-दर्पण नामक ग्रंथों की रचना की है। लौगाक्षी भास्कर - ई. 17 वीं शती। "लौगाक्षी" इनका उपनाम है। पिता-मुद्गल व गुरु जयराम न्यायपंचानन। आपने "न्यायसिद्धान्तदीप" और मीमांसाशास्त्र पर "अर्थसंग्रह" नामक दो ग्रंथों की रचना की है। वंगसेन - ई. 11 वीं शती। पश्चिम बंगाल स्थित 'कांजिक' ग्राम के निवासी। वैद्य गंगाधर के पुत्र। कृतियांचिकित्सा-सार-संग्रह (वैद्यकविषयक) और आख्यानवृत्ति (व्याकरण)। वंगेश्वर - तंजौर नरेश तुकोजी भोसले के आश्रित। 17 वीं शती। तुकोजी द्वारा अपमानित होने पर अन्यत्र प्रस्थान किया और वहां से राजा और भैंसे का साम्य सूचित करने वाला व्याजस्तुतिपर शतक काव्य माहिशशतकम् राजा को भेंट किया। वंदारुभट्ट - ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध। माता- श्रीदेवी, पिता- नीलकण्ठ। कोचीन नरेश के आश्रित। श्रीहर्ष के नैषध-चरितम्" का क्लिष्टत्वरहित अनुकरण इस काव्य की
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 435
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वंशगोपाल शास्त्री - रचनाएं- चेतना क्वास्ते तथा वत्सभट्टि - इनके द्वारा प्रणीत कोई भी ग्रंथ उपलब्ध नहीं शुक्रलोक-यात्रा। ये दोनों रचनाएं डा. राघवन द्वारा उल्लिखित होता, एकमात्र 'मंदसौर- प्रशस्ति' प्राप्त होती है जो कुमारगुप्त तथा संस्कृत साहित्य पत्रिका एवं संस्कृतम् में प्रकाशित। के राज्यकाल में उत्कीर्णित हुई थी। इस प्रशस्ति का रचना-काल वंशमणि - ई. 17 वीं शती। नेपाल में राजा प्रतापमल्ल मालव-संवत् 529 है। इसमें रेशम-बुनकरों द्वारा निर्मित एक का आश्रय प्राप्त। पिता- रामचंद्र। मैथिल ब्राह्मण। रचना- सूर्य-मंदिर का वर्णन किया गया है जिसका निर्माण 437 ई. गीतदिगम्बर। इस की अष्टक रचनाएं नेपाल में मंदिरों की और जीर्णोद्धार 473 ई. में संपन्न हुआ था। इस प्रशस्ति में दीवारों पर अंकित की हैं।
44 श्लोक हैं ।इसके प्रारंभिक श्लोकों में भगवान भास्कर की वंशीधर शर्मा - भावार्थप्रदीपिका- प्रकाश (वंशीधरी) नामक
स्तुति एवं बाद में दशपुर (मंदसौर) का मनोरम वर्णन है। भागवत की विशालकाय टीका के लेखक। कौशिक गोत्री पश्चात् वत्सभट्टि ने तत्कालीन नरेश नरपति बंधुवर्मा का गौड-वंशी ब्राह्मण। नाभा-नरेश हीरासिंग के आश्रित। इनकी प्रशस्ति-गान किया है जिनका समय ई. 5 वीं शती है। यह 'वंशीधरी', इनके जीवन-काल ही में वेंकटेश्वर प्रेस मुंबई से प्रशस्ति काव्यशास्त्रीय दृष्टि से उच्च कोटि की है। इस पर 1945 विक्रमी (1888 ई) में प्रकाशित हुई थी। अतः इनका महाकवि कालिदास की छाया परिलक्षित होती है। समय ई. 19 वीं शती का उत्तरार्थ (लगभग 1828 ई. - वत्सराज - नाटककार। कालिंजर-नरेश परमर्दिदेव के मंत्री। 1890 ई.) है। 'वंशीधरी' के उपसंहार के परिचय-पद्यों से समय 1163 ई.से 1203 ई.का मध्य। इनके द्वारा रचित 6 पता चलता है कि आप हिमालय प्रदेश के 'खरड' नामक नाटक प्रसिद्ध हैं। कर्पूरचरित (भाण), किरातार्जुनीय (व्यायोग), ग्राम में निवास करते थे जो हिमालय के पश्चिम में स्थित रुक्मिणी- हरण (ईहामृग), त्रिपुर-दाह (डिम), हास्यचूडामणि है। इनकी वंश-परंपरा इस प्रकार है - बलराम शर्मा भूधर- (प्रहसन) और समुद्रमंथन (तीन अंकों वाला समवकार)। गौरीप्रसाद- सुखदेव शर्मा- गजराज शर्मा- निक्काराम- वंशीधर इनके रूपकों (नाटकों) में क्रियाशीलता, रोचकता तथा घटनाओं शर्मा- लक्ष्मीनारायण।
की प्रधानता स्पष्टतः दीख पडती है। __ आपकी वंशीधरी अलौकिक पांडित्य से पूर्ण तथा प्राचीन वनमाली मिश्र - (1) ई. 17 वीं शती। माध्व सम्प्रदाय आर्ष ग्रंथों के उद्धरणों से परिपुष्ट है। इसमें अनेक शंकाओं के एक वेदान्ती आचार्य। वेदान्त- सिद्धान्त- संग्रह नामक ग्रंथ का भी समाधान किया गया है। वेद-स्तुति की व्याख्या 5 के रचयिता। इस ग्रंथ में मध्वसम्प्रदाय के महत्त्वपूर्ण तत्त्वों प्रकार से करना, आपके प्रकांड पांडित्य का प्रमाण है। निःसंदेह की जानकारी दी गयी है। आपके अन्य ग्रंथ हैं- माध्व यह एक सिद्ध टीका है। इसके द्वारा श्रीधर स्वामी की मुखालंकार, न्यायामृत-सौगन्ध, वेदान्तसिद्धान्त- मुक्तावली, भावार्थ-दीपिका (श्रीधरी), वास्तव ही में प्रकाशित हुई है। श्रुतिसिद्धान्तप्रकाश, विष्णुतत्त्वप्रकाश, तरंगिणीसौरभ, भक्तिरत्नाकर स्तुतियों की टीका में इनका दार्शनिक पांडित्य भी पग-पग पर और प्रमाणसंग्रह। दृष्टिगोचर होता है। वास्तविकता से दूर होते हुए भी, वंशीधर, (2) ई. 17 वीं शती में भट्टोजी दीक्षित के शिष्य श्रीमद्भागवत तथा देवीभागवत को ही समानरूपेण महापुराण के रूप में ख्यातिप्राप्त ग्रंथकार जिन्हें कृष्णदत्त मिश्र नाम से अंगीकार करते हैं। आप भागवत में 335 अध्याय और 18 भी जाना जाता था। आपने जिन पांच ग्रंथों की रचना की, हजार पूरे श्लोक मानते हैं। गिनती करके सिद्ध भी किया वे हैं :- 1. कुरुक्षेत्रप्रदीप, 2. सर्वतीर्थ प्रकाश, 3. संध्यामंत्रव्याख्या, है। प्रकांड पांडित्य के साथ विनम्रता आपका एक वैशिष्ट्य है। 4. वैयाकरण- मतोन्मजना तथा 5. सिद्धान्ततत्त्वविवेक। वज्रदत्त - महाराज देवपाल (नवम शती) के आश्रित कवि।
वर्णेकर, श्रीधर भास्कर - जन्म 31 जुलाई 19181 रचना- लोकेश्वर शतक (अवलोकितेश्वर बुद्ध का स्तवन)।
नागपुर में माध्यमिक और उच्च शिक्षा का अध्ययन। सन वझे, भाऊशास्त्री - समय 20 वीं शती। वाराणसी एवं
1938 में काव्यतीर्थ। 1941 में एम.ए. (संस्कृत)। 1945 में नागपुर में निवास । रचना- काशीतिहासः। वाराणसी निवासी
एम.ए. (मराठी), 1966 में "अर्वाचीन संस्कृत साहित्य" इस प्रख्यात पण्डित तथा श्रेष्ठ प्रवचनकार। वेदकाल से स्वातंत्र्य
प्रबन्ध पर नागपुर विश्वविद्यालय से डी.लिट्. की उच्चतम उपाधि पर्यंन्त काशीसम्बधी समग्र इतिहास इन्होंने अपने ग्रंथ में संक्षेप
प्राप्त । अध्यापन- धनवटे नेशनल कॉलेज में 1941 से 59 में दिया है।
तक, बाद में नागपुर विश्वविद्यालय के स्नातकोत्तर विभाग में वत्सकाण्व - ऋग्वेद के आठवें मंडल के छठे सूक्त के । नियुक्ति। 1970 से 1979 तक संस्कृत विभागाध्यक्ष । सेवानिवृत्ति द्रष्टा। पिता का नाम कण्व। सूक्त में इन्द्र व तिरिदर की। के बाद प्रस्तुत संस्कृत वाङ्मय कोश के संपादन का निवेतन स्तुति की गयी है। तिरिदर, पशुदेश अर्थात् ईरान का राजा ___कार्य। संस्कृत के क्षेत्र में विविध प्रकार के दायित्व डा. था। इस कारण भौगोलिक दृष्टि से इनके सूक्त को विशेष वर्णेकर ने सम्हाले। 1950 से 56 से नागपर में संस्कस
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भवितव्यम् एवं राष्ट्रशक्ति (मराठी) साप्ताहिक तथा योगप्रकाश अप्रकाशित लेख। (मराठी मासिक) के संपादक। 1952 से संस्कृत विश्व परिषद् वरकर कृष्ण मेनन - त्रिचूर (कोचीन) निवासी, रचनाएं(कुलपति कन्हैयालाल मुन्शी द्वारा संस्थापित) के अ.भा. गाथाकादम्बरी (बाणभट् की कादम्बरी का पद्य रूप ) और संगठन मन्त्री। 1956 में पुराने मध्यप्रदेश शासन के संस्कृत टॉमसनकृत दो अंग्रेजी काव्यों का संस्कृत अनुवाद। पाठशाला पुनर्गठन समिति के सदस्य। 1953 में युनेस्को द्वारा
वरद कृष्णम्माचार्य - वालतूर (तंजौर) निवासी। समय- ई. प्रवर्तित अ.भा.संस्कृत कथा-स्पर्धा के संयोजक। 1973 से 83
19 वीं शती। रचना- कचशतक और विधवाशतक । तक महाराष्ट्र राज्य की संस्कृत समिति के सदस्य। भारत
वरदराज - तैत्तिरीय आरण्यक के भाष्यकार वरदराज दाक्षिणात्य सरकार की तांत्रिक एवं वैज्ञानिक परिभाषा समिति के सदस्य ।
थे। पिता- वामनाचार्य। पितामह- अनन्तनारायण। इन्होंने साहित्य अकादमी की जनरल कौन्सिल तथा संस्कृत समिति
सामवेदीय कई सूत्रों पर वृत्ति वा भाष्य लिखे हैं किन्तु उनका के 1973 से दस साल तक सदस्य। 1973 में शिवराज्योदय
कोई भी हस्तलेख अभी तक नहीं मिला। महाकाव्य (68 सर्ग) पर साहित्य अकादमी का पुरस्कार प्राप्त ।
वरदराज - (1) ई. 16 वीं शती। मीमांसादर्शन के 1983 में श्रीराम संगीतिका (गीतिनाट्य) पर मध्यप्रदेश शासन
प्राभाकर-मतानुयायी आचार्य। आपने भवनाथ मिश्र के न्यायविवेक का अ.भा. कालिदास पुरस्कार प्राप्त। 1983 में न्यूयार्क की
ग्रंथ पर दीपिका और अर्थदीपिका नामक टीकाएं लिखी हैं। संस्कृत परिषद् में भारत के प्रतिनिधि। 1961 और 82 में
पिता- रंगनाथ । गुरु- सुदर्शन। आप ज्योतिष, व्याकरण और आकाशवाणी के अखिल भारतीय कवि-सम्मेलन में संस्कृत
आयुर्वेद शास्त्र के भी पंडित थे। काव्यगायन। इसके अतिरिक्त डा. वर्णेकर नागपुर की अनेक सांस्कृतिक संस्थाओं के अध्यक्ष रहे। भारत के अन्यान्य प्रांतों
(2) 'व्यवहारनिर्णय' ग्रंथ के रचयिता वरदराज के काल में आयोजित संस्कृत परिषदों का अध्यक्षपद आपने विभूषित
के सम्बन्ध में मतभेद है। कोई उन्हें ई. 12 वीं शती का किया और अपने प्रचार कार्य में सैकडों स्थानों पर संस्कृत
और कोई ई. स. 1450-1500 के कालखण्ड का मानते हैं। भाषा में व्याख्यान दिए। डा. श्री.भा. वर्णेकर के प्रकाशित
उक्त ग्रंथ दक्षिण भारत में प्रमाणभूत माना जाता है। ग्रंथ- (संस्कृत में) - (1) मन्दोर्मिमाला (छात्रावस्था में
(3) भट्टोजी दीक्षित के एक शिष्य का नाम वरदराज था लिखित मुक्तक काव्यों का संग्रह) (2) महाभारत कथा (तीन
जिनका उपनाम दीक्षित था। आपने सिद्धान्त कौमुदी पर भाग), (3) संस्कृतनाट्यप्रवेशाः, (4) प्रश्नावलीविमर्श- (भारत।
आधारित मध्यसिद्धान्तकौमुदी व लघुसिद्धान्तकौमुदी नामक ग्रंथ सरकार के संस्कृत आयोग की प्रश्रावली के उत्तरार्थ-निबंध),
लिखे हैं। 'गीर्वाणपदमंजरी' नामक एक अन्य ग्रंथ भी आपने (5) जवाहर-तरंगिणी (खंडकाव्य)। (6) विनायक-वैजयन्ती
लिखा है जिसमें काशी के अनेक घाटों के नाम दिये गये हैं। (खंडकाव्य- स्वातंत्र्यवीर सावरकरविषयक)। (7) कालिदास वरदाचार्य - ई. 17 वीं शती। जन्म-रामानुजाचार्य के वंश रहस्य (खंडकाव्य), (8) रामकृष्ण परमहंसीयम् (खंडकाव्य)।। में, कांचीपुरी में। रामानुज सम्प्रदाय के अनुयायी। उपनाम(9) वात्सल्यरत्रम् (कृष्णलीलाशतक), (10) शिवराज्योदय अम्मल आचार्य। पिता- घटिकाशत सुदर्शन, एक घटिका में (68 सर्ग 4 हजार श्लोक) महाकाव्य- साहित्य अकादमी सौ पद्य लिख सकने के कारण वे 'घटिकाशत' नाम से पुरस्कार प्राप्त), (11) विवेकानंद- विजय (10 अंकी नाटक)। विख्यात थे। रचनाएं- यतिराजविजय, वेदान्तविलास और (12) शिवराज्याभिषेक (7 अंकी नाटक)। (13) वसन्ततिलक (भाण)। भाण की रचना, रामभद्र के श्रृंगारतिलकश्रीरामसंगीतिका (गीतिनाट्य) 11 अंकी (म.प्र. शासन का भाण को नीचा दिखाने के लिये इन्होंने की थी। कालिदास पुरस्कार प्राप्त) (14) श्रीकृष्ण-संगीतिका (गीतिनाट्य- वरदाचार्य - वेंकटदेशिक के पुत्र। रचना- कोकिलसन्देश
अंकी)। (15) श्रमगीता। नामक दूतकाव्य। (16) संघगीता। (17) ग्रामगीतामृतम् (41 अध्याय) । (18)
वरदादेशिक - ई. 17 वीं शती। पिता- श्रीनिवास। रचनाएंतीर्थभारतम् (गीति महाकाव्य- न्यूर्याक की संस्कृत परिषद में
लक्ष्मीनारायणचरित, वराहशतक, वल्लीशतक, गद्यरामायण, प्रकाशित)। इनमें से कुछ काव्यों के अन्यान्य भाषाओं में रघुवीरविजय और रामायणसंग्रह। अनुवाद प्रकाशित हुए हैं।
वररुचि - एक वैयाकरण। इनके कालखण्ड के बारे में मराठी में प्रकाशित ग्रंथ - (1) अर्वाचीन संस्कृत साहित्य । काफी मतभेद है। कोई इन्हें ई. 4 थी तो कोई 5 वीं शती (बृहत्प्रबंध) (2) अभंगधर्मपद (धम्मपद का अभंग छन्द में का मानते हैं। पं. भगवद्दत्त के अनुसार ये ई. प्रथम शती गेय रूपांतर) । (3) सुबोधज्ञानेश्वरी। (4) भारतीय धर्म-तत्त्वज्ञान मे हुए जब कि श्री. विल्सन इन्हें ई. पूर्व प्रथम शती का (प्रबंध)।
मानते हैं। सामान्यतया इनका कालखण्ड पाणिनि के बाद और हिन्दी में भारतीयविद्या (प्रबंध)। इसके अतिरिक्त अनेक पतंजलि के पूर्व का मानने की प्रवृत्ति है। महाराष्ट्रीय ज्ञानकोश
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के कर्ता डा. केतकर इन्हें पाणिनि के समकालीन मानते है। अतः वे वर्ष के यहां पहुंचे तथा इन्होंने अपना अध्ययन पाणिनि के सूत्रों पर वार्तिकों की रचना वररुचि की मानी जाती प्रारम्भ किया। यथासमय तीनों ने वर्ष से सर्व विद्या संपादन की। है। इस कारण पाणिनि की अष्टाध्यायी समझने का मार्ग प्रशस्त
3) समय के साथ साथ आचार्य वर्ष का शिष्य संप्रदाय हो सका। पतंजलि ने अपने महाभाष्य में इनके 5032 वार्तिकों भी बढ़ता गया। उनके शिष्यों में एक पाणिनि नाम का अति का समावेश किया है। कैयट ने इनके अन्य 34 वार्तिकों का
जडबुद्धि शिष्य था। गुरु तथा गुरुपत्नी की सेवा उसे भारस्वरूप उल्लेख किया है। इनके बारे में कहा जाता है कि ये ऐन्द्र
लगती थी। इसलिये गुरुपत्नी ने उसे अपने आश्रम से भगा नामक प्राचीन व्याकरण शाखा के अनुयायी थे। उणादिसूत्र व दिया। पाणिनि बडा खिन्न हुआ तथा विद्याप्राप्ति की अभिलाषा कातंत्रकृति की रचना का श्रेय इन्हीं को दिया जाता है।
से उग्र तप करने लगा। उसके तप से प्रसन्न हो भगवान् "प्राकृत-प्रकाश" इनका महत्त्वपूर्ण व्याकरण-ग्रंथ है। यह शंकर ने उसे सब विद्याओं का मुख, व्याकरण शास्त्र नये ग्रंथ दक्षिण में काफी प्रचारित हुआ। ग्रंथ के 12 परिच्छेद सिरे से रचकर उपदिष्ट किया। यह नया शास्त्र पाकर पाणिनि हैं। 9 वें परिच्छेद में शौरसेनी, 10 वें में पैशाची व 11 वें। वररुचि को आह्वान देकर, उससे वाद करने लगा। सात दिन परिच्छेद में मागधी के लक्षण बताये गये हैं।
तक वाद चला। आठवें दिन पाणिनि हारने लगा यह देखकर 'कथासरित्सागर' में इनके जन्म-विषयक कथा इस प्रकार शिव ने इंकार किया जिससे ऐन्द्र व्याकरण लुप्त हो गया बतायी गयी है :
तथा वररुचि, जीते हुये पाणिनि के सामने मूर्ख सिद्ध हुआ। (1) भगवान् शिव जब पार्वती को एकांत में सात विद्याधरों पराजित वररुचि जीवित तथा गृहस्थ जीवन से ऊबकर की कहानी सुना रहे थे तब पुष्पदंत नामक शिवगण ने माता और पत्नी की उचित व्यवस्था कर तप से शिव को चोरी-छिपे वह कहानी सुन ली और घर आकर अपनी पत्नी प्रसन्न करने हिमालय में चला गया। निराहार रहकर उसने को सुनायी। उसकी पत्नी ने वह कहानी जब फिर से पार्वती उग्र आराधना की। प्रसन्न होकर शिव ने उसे पाणिनि को को सुनाई तो इस रहस्यभेद से कुपित होकर पार्वती ने पुष्पदंत उपदिष्ट किया हुआ व्याकरण ही दिया। वररुचि ने उसे पाकर को शाप दिया कि 'तू मनुष्य लोक में जन्म लेगा'। शाप अपनी वार्तिक रचना से उस शास्त्र को पूर्ण किया। वह सुनकर पुष्पदंत की. पत्नी घबरायी और पार्वती से क्षमा याचना कात्यायन नाम से भी प्रसिद्ध हुआ। करने लगी। पार्वती ने दया-भाव से उसे कहा कि जब पुष्पदंत कथा -4) व्याडि, इन्द्रदत्त तथा वररुचि अपने गुरुवर्य के काणभूति नामक पिशाच को पुनः वही कथा सुनायेगा, तब पास गए तथा उनसे गुरुदक्षिणा क्या दी जावे यह पूछा। गुरु यह शाप दूर होगा।
ने एक कोटि स्वर्णमुद्राएं मांगी। इतना धन पास न होने पर (2) कौशाम्बी नगर के सोमदत्त ब्राह्मण को उसकी भार्या पाटलीपुत्र के नन्दराजा से मांगने का निश्चय कर वे तीनों चले वसुदत्ता से एक पुत्र हुआ। यही था शाप से मर्त्य हुआ गये। पाटलीपुत्र पहुंचने पर उन्हें पता चला कि राजा की मृत्यु पुष्पदन्त जो आगे चल कर वररुचि नाम से प्रसिद्ध हुआ। हो गई है। तब इन्द्रदत्त राजा के मृत शरीर में प्रविष्ट हुआ उसके जन्म के समय आकाशवाणी हुई कि यह बालक तथा अपने मृत शरीर की रक्षा करने व्याडि से कहा। वह व्याकरण शास्त्र को प्रतिष्ठित करेगा। पिता का देहान्त वररुचि ___ एक दिन नन्द के पास गया तथा उससे गुरुदक्षिणा के हेतु के बाल्यकाल में ही हुआ। तब उसकी मां बडे कठिन परिश्रम एक कोटि स्वर्ण मुद्राएं मांगी। राजा ने (जिसके मृत शरीर से अपने बच्चे का भरण पोषण करती रही। एक बार उनके में इन्द्रदत्त ने प्रवेश किया था।) त्वरित वह धन दिया। व्याडि यहां लम्बा मार्ग आक्रमण कर थक हुये दो ब्राह्मण आए ने वह गुरु को अर्पण किया। तथा रात्रि के विश्राम के लिये ठहरे। उन्हें ज्ञात हुआ कि इधर नन्द के मन्त्री ने साशंक होकर इन्द्रदत्त का निश्चेष्ट वररुचि "एकश्रुतधर" (एक वक्त सुनकर धारण करनेवाला) शरीर नष्ट करवा दिया जिससे इन्द्रदत्त राजा नन्द के ही शरीर है। उन्होंने इसकी जांच की तथा उन्हें बालक के मेधावी होने में रहा। इस नन्द के राज्य से समाधान न पाकर, इन्द्रदत्त का विश्वास हुआ।
और वररुचि से बिदा होकर व्याडि तप करने चला गया। ___ इससे आनन्दित हो उन्होंने वररुचि की मां से प्रार्थना कर इधर वररुचि को नन्द ने अपना मन्त्री बनाया। कुछ समय तथा उसे प्रभूत धन देकर अपने साथ लिया तथा वहां से आनन्द से व्यतीत होने पर नन्द ने वररुचि की हत्या का चले गए। यह दो ब्राह्मण व्याडि तथा इन्द्रदत्त थे। उन्हें वर्ष आदेश दिया, क्योंकि उसे संशय हुआ कि वररुचि अन्तःपुर नामक विप्र से पाटलीपुत्र में विद्याध्ययन करना था परन्तु वर्ष में जाकर रानियों से सम्पर्क रखता है। युक्तिप्रयुक्ति से उसकी की शर्त थी कि वह एकश्रुतधर को ही ज्ञान देंगे। व्याडि जान बच पायी तथा वररुचि निर्विण्ण होकर अपनी पत्नी तथा स्वयं दो वक्त सुनकर तथा इन्द्रदत्त तीन वक्त सुनकर धारण मां के पास चला गया। वहां उसे ज्ञात हुआ कि उसकी मृत्यु कर सकते थे। अब उन्हें एक श्रुतधर भी मिल गया था। की वार्ता से उसकी मां तथा रानी ने देहत्याग किया है। तब
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वह पूर्ण विरक्त होकर विन्ध्याटवि में प्रविष्ट हुआ। वहां तथा उनपर भिन्न-भिन्न नक्षत्रों के आधिपत्य, नक्षत्रव्यूह, ग्रहों काणभूति पिशाच से भेट होने पर, उसे अपने शाप तथा के युद्ध एवं समागम, अदि फलों का विवेचन है। बाद के पूर्वजन्म का स्मरण हो आया।
अध्यायों में वर्षफल, पर्जन्यगर्भ लक्षण, गर्भधारण, पर्जन्यवृष्टि __अन्त में वररुचि ने शिव से सुनी हुई कथा काणभूति को मापक-रीति, संध्यासमय आकाश में दिखाई देने वाली रक्तिमा, बताई तथा उसे वह गुणाढ्य के रूप में वर्तमान माल्यवान् दिग्दाह, भूकम्प या भूचाल, उल्का, परिवेष, इन्द्रधनुष्य आदि को बताने के लिये कहकर स्वयं शापमुक्त हुआ और शिवगणों। सृष्टि चमत्कारों, दिव्य, अंतरिक्ष व भौम इन तीन उत्पातों, में सम्मीलित हआ। वररुचि ने अपना गोत्र कात्यायन बताया भूगर्भजल की खोज, वास्तुप्रतिष्ठा, रत्न-परीक्षा आदि का विस्तृत है। इससे यह अनुमान लगाया जा सकता है कि प्रातिशाख्य। विवेचन है। के रचयिता कात्यायन और वार्तिककार वररुचि दोनों एक ही पंचसिद्धान्तिका ग्रंथ में पितामह, वसिष्ठ, रोमक, पुलिश व व्यक्ति थे।
सूर्य इन पांच प्राचीन सिद्धान्तों का सार दिया गया है। इसके वररुचि - “निरुक्तनिश्चय" नामक ग्रंथ के लेखक। अलावा त्रैलोक्यसंस्थान नामक पृथक् अध्याय भी इसी ग्रंथ में है। व्याकरणकार वररुचि से भिन्न । आप ने समग्र निरुक्त पर टीका विवाहपटल व योगयात्रा ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। बृहज्जातक में न लिखते हुए, निरुक्त के सिद्धान्तों का प्रतिपादन करने वाले जन्म-काल की ग्रहस्थितियों के अनुसार व्यक्ति के लगभग 100 श्लोकों की रचना की है।
सुखदुःखों-विषयक भविष्य जानने हेतु आवश्यक जानकारी दी वराहमिहिर - भारतीय ज्योतिषशास्त्र के अप्रतिम आचार्य। गयी है। लघुजातक इसी का संक्षिप्त रूप है। सन् 595 में उज्जयिनी के निकट कायथा नामक ग्राम में वर्धमान - "गणरत्न-महोदधि" के रचयिता। इस ग्रन्थ से ये जन्म। "बृहज्जातक" इनका सुप्रसिद्ध ग्रंथ है। इनके अन्य वैयाकरणों में सप्रसिद्ध हए। उद्धरणों से ज्ञात होता है कि ग्रंथ हैं- पंचसिद्धांतिका, बृहत्संहिता, लघुजातक, विवाह-पटल, इन्होंने व्याकरण की भी रचना की थी और उसके अनुरूप योग-यात्रा व समय-संहिता। बृहज्जातक में इन्होंने स्वयं के गणपाठ श्लोकबद्ध कर उसकी व्याख्या की थी। वि.सं. विषय में जो कुछ लिखा है, उससे ज्ञात होता है कि इनका 1150-1225। इन्होंने “सिद्धराज-वर्णन" नामक एक काव्य की जन्म-स्थान कालपी या कांपिल्ल था। अपने पिता आदित्यदास भी रचना की थी। से इन्होंने ज्योतिषशास्त्र का ज्ञान प्राप्त किया था और उज्जैन वर्धमान - समय- ई. 14 वीं शती। जैनधर्मी मूलसंघ, जाकर "बृहज्जातक" का प्रणयन किया था। इन्हें महाराज बलात्कारगण और भारतीगच्छ के आचार्य। धर्मभूषण के गुरु । विक्रमादित्य की सभा के (नवरत्नों) में से एक माना जाता विजयनगरवासी राजा हरिहर के मन्त्री। चैत्रदण्डनायक के पूत्र । है। इन्हें “त्रिस्कंधज्योतिष का रहस्यवेत्ता तथा "नैसर्गिक रचना-वरांग-चरित महाकाव्य (13 सर्ग, 1313 श्लोक)। कवितालता का प्रेमाश्रय" कहा गया है।
वर्धमान - कातन्त्रपंजिका पर “कातन्त्र-विस्तर" नामक टीका वराहमिहिर ने ज्योतिषशास्त्र को तीन शाखाओं में विभक्त के लेखक। वर्धमान की इस टीका पर पृथ्वीधर ने व्याख्या किया। प्रथम को तंत्र कहा है, जिसका प्रतिपाद्य है सिद्धांतज्योतिष लिखी है। दुर्गवृत्ति पर काशीराज, लघुवृत्ति, हरीराम तथा व गणित संबंधी आधार। द्वितीय का नाम होरा है, जो जन्मपत्र चतुष्टयप्रदीप व्याख्याएं उल्लिखित हैं। कातन्त्र व्याकरण पर से संबंद्ध है। तृतीय को संहिता कहते हैं, जो भौतिक फलित उमापति, जिनप्रभसूरि (कातन्त्रविभ्रम), जगद्धरभट्ट ज्योतिष है। इनके "बृहत्संहिता", फलित ज्योतिष की सर्वमान्य (बालबोधिनी) तथा पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर की टीकाएं उल्लिखित कृति है। इनके ग्रंथों की काव्यमय शैली से, ये उच्च कोटि हैं। इनमें से कातन्त्रविभ्रम पर अवचूर्णि चारित्रसिंह ने लिखी के कवि भी सिद्ध होते हैं। डा. ए. बी. कीथ ने अपने है तथा बालबोधिनी पर राजानक शितिकण्ठ ने टीका रची है। "संस्कृत साहित्य के इतिहास" में इनकी अनेक कविताओं को यह अप्राप्य है। उद्धृत किया है। इनकी असाधारण प्रतिभा की प्रशंसा पाश्चात्य वर्धमान सूरि - परमारवंशीय नगेन्द्रगच्छीय वीरसूरि के शिष्य। विद्वानों ने भी की है।
रचना- वासुपूज्य-चरित। काव्यरचना अणहिल्लपुर में सं. 1299 ___ इन्होंने अपने "पंचसिद्धान्तिका" ग्रंथ में शकसंवत् 427
में हुई। ग्रंथ में अनेक चमत्कारपूर्ण उपकथाएं हैं। को आरंभ वर्ष माना है। कुछ पंडित उसे ही उनका जन्म वर्धमान सूरि - अभयदेव सूरि के शिष्य । ग्रंथ- धर्मरत्नकरण्डक वर्ष मानते हैं। ब्रह्मगुप्त टीकाकार आमराज के अनुसार, उनकी (वि. सं. 1172) स्वोपज्ञवृत्ति महती। अशोकचंद्र धनेश्वर, मृत्यु शके 509 में हुई।
नेमिचन्द और पार्श्वचन्द्र द्वारा संशोधित।। इनका बृहत्संहिता ग्रंथ छंदोबद्ध है जिसके प्रथम 13 वल्लभाचार्य - ई. 12 वीं सदी। आपका "न्यायलीलावती" अध्यायों में सूर्यचन्द्रादि ग्रहों की गति व फलों, ग्रहणों आदि नामक ग्रंथ, वैशेषिक सिद्धांत का आगर है। उस पर अनेक की जानकारी है। 14 वें अध्याय में भरतखण्ड के 9 विभाग टीकाएं हैं। उनमें शंकर मिश्र की "कंठाभरण", वर्धमानकत
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'प्रकाश" तथा रघुनाथ शिरोमणी की "दीधिति" नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं। वल्लभाचार्य - आचार्य वल्लभ के विस्तृत जीवन-चरित्र तथा उनके साक्षात् शिष्यों का परिचय, वल्लभसंप्रदाय के विविध ग्रंथों से मिलता है। तदनुसार आचार्य वल्लभ का जन्म सं. 1535 में मध्यप्रदेश के रायपुर जिले के चंपारन नामक स्थान में वैशाख कृष्ण एकादशी को हुआ। इनके पिता-लक्ष्मणभट्ट तेलग ब्राह्मण थे। माता-एल्लम्मागारू। लक्ष्मणभट्ट काशी में हनुमानघाट पर रहते थे। यवनों के आक्रमण की आशंका से काशी छोड कर दक्षिण जाते समय, मार्ग में ही वल्लभ का जन्म हुआ। __ आचार्य वल्लभ की शिक्षा-दीक्षा, पठन-पाठन आदि सभी संस्कार काशी में ही संपन्न हुए। गोपाल कृष्ण इनके कुल-देवता थे। विद्या-वृद्धि के साथ ही इनकी आध्यात्मिकता में भी वृद्धि होती गई और इन्होंने भागवत के आधार पर एक नवीन भक्ति-संप्रदाय को जन्म दिया। यह संप्रदाय "पुष्टि-मार्ग" (वल्लभ-संप्रदाय) कहलाता है। दार्शनिक क्षेत्र में आचार्य वल्लभ का मत “शुद्धाद्वैत" के नाम से प्रसिद्ध है।
वल्लभ के जीवन की अधिकांश महत्त्वपूर्ण घटनाएं काशी, अडेल (प्रयाग के यमुना पार का एक गांव) और वृंदावन में घटित हुईं। इनकी मंत्र-सिद्धि से दिल्ली का तत्कालीन बादशाह सिकंदर लोदी इतना प्रभावित हुआ था कि उसने वैष्णव-संप्रदाय के साथ किसी भी प्रकार का जोर-जुल्म न करने की मुनादी फिरवा दी थी। उसी प्रकार ई. स. 1510 में अपने एक चित्रकार द्वारा आचार्य का एक चित्र बनवा कर दिल्ली के दरबार में लगवाया था। आगे चल कर बादशाह अकबर ने इनके सुपुत्र विट्ठलनाथ की आध्यात्मिकता से प्रभावित होकर, गोकुल तथा गोवर्धन की भूमि इन्हें दे दी, जहां संप्रदाय की ओर से अनेक मंदिरों का निर्माण किया गया।
वल्लभाचार्य के जीवन की सर्वाधिक महत्वपूर्ण घटना, विजयनगर के महाराजा कृष्णदेव राय द्वारा विहित "कनकाभिषेक' है। इन्होंने कृष्णदेव राय की विशाल सभा में उपस्थित नास्तिकों को परास्त कर मायावाद का भी कुशलतापूर्वक खंडन किया था। वल्लभ ने शुद्धाद्वैत का प्रतिष्ठापन, श्रुतियों एवं युक्तियों के सहारे इतने प्रभावी ढंग से किया कि उपस्थित विद्वानों को इनका पांडित्य स्वीकार करना पडा। राजसभा ने इन्हें "महाप्रभु" की उपाधि से सम्मानित किया। महाराजा ने भी "कनकाभिषेक" द्वारा इनका विशेष सत्कार किया। इन्होंने भारत के तीर्थों की अनेक बार यात्रा की और अपने मत का प्रचार किया। सं. 1549 (- 1492 ई.) में ये व्रज में भी पधारे और वहां अंबाले के एक धनी सेठ पूरनमल खत्री ने 1500 ई. में श्रीनाथजी का एक मंदिर बनवा दिया। वल्लभ ने यहीं रहकर पुष्टिमार्ग की अर्चा एवं सेवा-विधि की व्यवस्था की। 52 वर्ष
की आयु में (1587 वि. = 1530 ई. में) इन्होंने काशी-धाम के हनुमान-घाट पर जल-समाधि ली। इनके वंश में 100 सोमयाग किये गए थे। अतः उनका वंश "सोमयाजी" के नाम से प्रसिद्ध था। ____ वल्लभाचार्य का जन्म मध्यप्रदेश के एक घने जंगल में हुआ। इस सम्बन्ध में यह कथा बतलायी जाती है कि इनके पिता लक्ष्मण भट्ट और मां एल्लम्मागारू गोदावरी तट पर कांकारवाड ग्राम में सुखी दम्पती के रूप में रहते थे। इन्हें एक पुत्र व दो पुत्रियां थी। किन्तु वर्षों के बाद लक्ष्मण भट्ट को अकस्मात् गृहस्थजीवन के प्रति विरक्ति होने लगी और वे प्रेमकर नामक सत्पुरुष के आश्रम में जाकर रहने लगे। उनसे गुरूपदेश ग्रहण किया। कुछ दिनों बाद लक्ष्मण भट्ट के पिता तथा पत्नी, उनकी खोज करते-करते प्रेमकर के आश्रम में जा पहुंचे और लक्ष्मण भट्ट के पूर्वजीवन संबंधी जानकारी देकर उन्हें पुनः गार्हस्थ जीवन में लौटने हेतु प्रेमकर से अनुरोध किया। एल्लम्मागारू की गाथा सुन कर प्रेमकर द्रवित हए
और उन्होंने केवल लक्ष्मण भट्ट को पुनः गार्हस्थजीवन में लौटने हेतु प्रेरित किया वरन् उनकी पत्नी को यह आशीर्वाद भी दिया कि वे शीघ्र ही एक अलौकिक पुत्र को जन्म देंगी। इस आशीर्वाद को पाकर दोनों ही हर्षित होकर पुनः गार्हस्थ जीवन बिताने घर लौटे। कुछ दिनों बाद एल्लम्मागारू गर्भवती हुई। उन दिनों यह परिवार यात्रा पर निकला था। प्रयाग से काशी पहुंचने पर उन्हें यह खबर मिली कि दिल्ली के मुगल सुलतान शीघ्र ही काशी पर आक्रमण करने वाले हैं। लोग काशी छोड कर भागने लगे। लक्ष्मण भट्ट भी अपने परिवार के साथ वापस लौटने लगे। रास्ते में मध्यप्रदेश के रायपुर के निकट चम्पारन के घने जंगल में रात्रि के समय एल्लम्मागारू ने एक पुत्र को जन्म दिया, किन्तु दुर्भाग्य से वह मृत निकला। अतः वहीं एक शमीवृक्ष के नीचे उसे गाड कर वे आगे बढे। दूसरे दिन जब वे अगले गांव पहुंचे तो उन्हें यह पता लगा कि काशी पर सुलतान के हमले की खबर अफवाह मात्र थी। अतः उन्होंने पुःन काशी जाने के इरादे से वही राह पकडी। रास्ते में उस शमी-वृक्ष के पास उन्होंने एक अजीब दृश्य देखा। जिस गड्ढे में मृत बालक को गाडा गया था उस स्थान पर एक अग्निकुंड में बालक खेल रहा है। जैसे ही एल्लम्मागारू ने उस बालक को उठाने हाथ बढाये वह अग्निकुंड बुझ गया और बालक उछलकर उनकी गोद में आ गया। प्रभु की कृपा से अपने बच्चे का पुनर्जन्म हुआ ऐसा मानकर वे उस बच्चे को साथ ले गये, उसका नाम वल्लभ रखा, जो आगे चलकर वल्लभाचार्य के नाम से विख्यात हुआ।
वल्लभाचार्य ने तीन बार भारत यात्रा की और नये सम्प्रदाय की स्थापना कर लगभग 84 ग्रंथों की रचना की। इनमें से केवल 31 ग्रंथ ही आज उपलब्ध हैं, जिनके नाम
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इस प्रकार हैं- 1) ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, 2) श्रीमद्भागवत पर सुबोधिनी नामक टीका, 3) तत्त्वदीपनिबंध, 4) पूर्वमीमांसाभाष्य, 5) गायत्रीभाष्य, 6) पत्रावलंबन, 7) पुरुषोत्तम-सहस्रनाम, 8) दशमस्कंध-अनुक्रमणिका, 9) त्रिविधनामावली, 10) शिक्षाश्लोक-षोडशग्रंथ, 11 से 26 तक यमुनाष्टक, बालबोध, सिद्धान्तमुक्तावली, पुष्टिप्रवाह, मर्यादाभेद, सिद्धान्तरहस्य, नवरत्न, अन्तःकरणप्रबोध, विवेकधैर्याश्रय, कृष्णाश्रय, चतुःश्लोकी, भक्तिवर्धिनी, जलभेद, पंचपद्य, संन्यासनिर्णय, निरोधलक्षण व सेवाफल, 27) भगवत्पीठिका, 28) न्यायादेश, 29) सेवाफल-विवरण, 30) प्रेमामृत, 31) विविध अष्टक।
आचार्य वल्लभ के पूर्व प्रस्थान-त्रयी में "ब्रह्मसूत्र", "गीता' और "उपनिषद्' को स्थान मिला था, किन्तु इन्होंने “भागवत'' की "सुबोधिनी' टीका के द्वारा प्रस्थान-चतुष्टय के अंतर्गत श्रीमद्भागवत का भी समावेश किया। इनके दार्शनिक सिद्धांत को शुद्धाद्वैतवाद कहते हैं, जो शांकर-अद्वैत की प्रतिक्रिया के रूप में प्रवर्तित हुआ था। इस सिद्धांत के अनुसार ब्रह्म माया से अलिप्त होने के कारण नितांत शुद्ध है। इसमें मायिक ब्रह्म की सत्ता स्वीकार नहीं की गई है। ___ आचार्य वल्लभ ने अपने "कृष्णाश्रय-स्तोत्र" में तत्कालीन कुटिल स्थिति का वर्णन किया है। तदनुसार- "समस्त देश म्लेच्छों के आक्रमणों से ध्वस्त हो गया था। गंगादि तीर्थों को पापियों ने घेर रखा था तथा उनके अधिष्ठात-देवता अंतर्धान हो गए थे"। ऐसे विपरीत काल में ज्ञान की निष्ठा, यज्ञ-यागादिकों का अनुष्ठान जैसे मुक्ति-मार्गों का अनुसरण असंभव ही था। इस लिये आचार्य वल्लभ ने शूद्रों एवं स्त्रियों सहित सर्वजन-सुलभ "पुष्टि-मार्ग" का प्रवर्तन किया था। वल्लीसहाय - समय- ई. 19 वीं शती। कुलनाम वाधूल। विरिचिपुर निवासी नारायण पंडित के सुपुत्र। कृतियांययाति-तरुणानन्द, रोचनानन्द तथा ययाति-देवयानी-चरित नामक तीन नाटक और शंकराचार्य दिग्विजय-चंपू नामक चरित्र-ग्रंथ। वजी आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 10 वें सक्त के द्रष्टा। इस सूक्त की देवता अग्नि है जिसकी स्तुति में यह सूक्त रचा गया है। वशअश्व - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 46 वें सूक्त के रचयिता। 33 ऋचाओं वाले इस सूक्त में, इन्द्र-वायु वर्णन और पृथुश्रवस् के दान की स्तुति की गई है। 21 वीं ऋचा में वश को अदेव याने देवसदृश निरूपित किया गया है। इन पर अश्विनौ की कृपा थी। आरण्यक के अनुसार इस सूक्त में सम्पूर्ण जगत् को वश में करने की शक्ति होने के कारण इसे "वश-सूक्त" नाम प्राप्त हआ. जब कि कछ विद्वानों के अनुसार रचयिता के नाम पर ही यह सूक्त विख्यात हुआ है। वसवराज (या बसवराज) - "वसवराजीवम्" नामक
आयुर्वेदशास्त्र के ग्रंथ-प्रणेता। आंध्र प्रदेश के निवासी। समयई. 12 वीं शती का अंतिम चरण। जन्म-स्थान कोटूर ग्राम । नीलकंठ-वंश में जन्म। पिता का नाम नमःशिवाय। ग्रंथान्तर्गत उल्लेख के अनुसार वसवराज शिवलिंग के उपासक थे। इनके ग्रंथ "वसवराजीवम्" का प्रचार दक्षिण भारत में अधिक है। इसका प्रकाशन नागपुर (महाराष्ट्र) से पं. गोवर्धन शर्मा छांगाणी ने किया है। वसिष्ठ - ऋग्वेद के सातवें मण्डल के द्रष्टा। इस मंडल के 104 सूक्त इन्हीं के हैं। इन सूक्तों से वैदिक भूगोल व इतिहास पर काफी प्रभाव पड़ता है। ये मित्रा-वरुण के पुत्र थे किन्तु पौराणिक-युग में इन्हें उर्वशी का पुत्र माना गया। पुराण-वाङ्मय में इन्हें अगस्त्य का भाई बताया गया है। वसिष्ठ की तपस्या और कर्मकौशल्य से प्रसन्न होकर इन्द्र ने उन्हें साक्षात् दर्शन दिया था। वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वैमनस्य था। इसका एक कारण यह बताया जाता है कि विश्वामित्र पहले राजा सुदास् के राजपुरोहित थे, किन्तु बाद में उस स्थान पर वसिष्ठ की नियुक्ति की गई। दूसरा कारण यह बताया जाता है कि वसिष्ठ-पत्र शक्ति ने जब वादविवाद में विश्वामित्र को पराजित किया, तब विश्वामित्र ने ससर्परी विद्या के सहारे उस पर विजय पायी। उन दिनों यज्ञकर्म में वसिष्ठ-कुल के लोग आदर्श माने जाते थे। यह भी उनमें वैमनस्य का कारण माना जाता है। कालान्तर में यह वैमनस्य समाप्त हुआ
और दोनों ऋषिश्रेष्ठियों ने यज्ञसंस्था के उत्कर्ष में महान् योगदान दिया। वसिष्ठ ने इन्द्र, वरुण, उषा, अग्नि व विश्वेदेव पर सूक्तों की रचना की है। इन्द्र व वरुण-सूक्तों में भक्तिमार्ग के बीज पाये जाते हैं। इनके एक भक्तिपूर्ण मंत्र का आशय है : ___"रस निचोडे बिना केवल सोम ही इन्द्र को अर्पित किया, तो वे कभी संतुष्ट नहीं होंगे। उसी प्रकार रस निचोड कर अर्पित करने पर भी यदि भक्तिपूर्वक प्रार्थना सूक्त न कहें तो भी उन्हें प्रसन्नता नहीं होगी। इसलिये हम प्रार्थनासूक्तों का गान करें। इससे देवता प्रसन्न होंगे और वीरों को प्रिय नया स्तोत्र सुन कर वे हमारा अनरोध स्वीकार करेंगे। वसुक्र ऐन्द्र - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 27 से 29 तक के तीन सूक्तों के द्रष्टा। इनमें प्रथम दो सूक्त इन्द्र-वसुक्र के बीच संवादों के रूप में हैं। इनमें इन्द्र की महत्ता प्रतिपादित की गई है।
बृहद्देवता के मतानुसार वसुक्र, इन्द्र का पुत्र था। 27 वें सूक्त में आत्मज्ञान-प्राप्ति और गांधर्वविवाह का विवेचन किया गया है। वसुकर्ण वासुक्र - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 65 व 66 इन दो सूक्तों के द्रष्टा। इनमें विश्व-देवताओं की स्तुति की गयी है। इनमें भुज्यू तौर्य और विश्वक्र कार्णा की कथाएं भी हैं। वसुनन्दी - नेमिचन्द्र के शिष्य। समय-ई. 11-12 वीं शती।
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रचनाएं- प्रतिष्ठासार-संग्रह (संस्कृत), उपासकाचार (प्राकृत)
और मूलाचार की आचारवृत्ति। "प्रतिष्ठासार-संग्रह" के छह परिच्छेदों में मूर्ति-मंदिर-प्रतिष्ठाविधि का सांगोपांग वर्णन किया गया है। वसुबंधु - समय- 280 ई. से 360 के बीच। बौद्ध दर्शन के अंतर्गत “वैभाषिक" मत के आचार्यों में वसुबंधु का स्थान सर्वोपरि है। ये सर्वास्तिवाद नामक सिद्धान्त के प्रतिष्ठापकों में से हैं। ये असाधारण प्रतिभा-संपन्न कौशिक-गोत्रीय ब्राह्मण थे
और इनका जन्म गांधार देश के पुरुषपुर (पेशावर) में हुआ था। पांडित्य तथा परमार्थवृत्ति के कारण इन्हें “द्वितीय बुद्ध" की संज्ञा प्राप्त हई थी। काश्मीर में विद्याध्ययन। इनके आविर्भाव-काल के बारे में विद्वानों में मतैक्य नहीं है। जापानी विद्वान् तकासुकू के अनुसार इनका समय ई. 5 वीं शती है, पर यह मत अमान्य सिद्ध होता है क्यों कि इनके बड़े भाई असंग के ग्रंथों का चीनी भाषा में अनुवाद 400 ई. में हो चुका था। धर्मरक्षक नामक विद्वान् ने जो 400 ई. में चीन में विद्यमान थे, इनके ग्रंथों का अनुवाद किया था। इनका स्थिति काल 280 ई. से लेकर 360 ई. तक माना जाता है। कुमारजीव नामक विद्वान् ने वसुबंधु का जीवन-चरित 401 से 409 ई. के बीच लिखा था, अतः उपर्युक्त समय ही अधिक तर्कसंगत सिद्ध होता है। ये 3 भाई थे- असंग, वसुबंधु व विरिचिवत्स। कहा जाता है कि इन्होंने अयोध्या को अपना कार्यक्षेत्र बनाया था और वहां 80 वर्षों तक ग्रंथरचना की। इनकी प्रसिद्ध रचना "अभिधर्मकोश" है जो वैभाषिक मत का सर्वाधिक प्रामाणिक ग्रंथ है। जीवन के अंतिम समय में इन्होंने अपने बड़े भाई असंग के विचारों से प्रभावित होकर वैभाषिक मत का परित्याग कर योगाचार-मत को ग्रहण कर लिया था। इन्होंने हीनयान व महायान दोनों के लिये ग्रंथ लिखे। इनके अन्य ग्रंथ हैं- 1) परमार्थ-सप्तति, इसमें विंध्यवासी द्वारा प्रणीत "सांख्य-सप्तति" नामक ग्रंथ का खंडन है। 2) तर्कशास्त्र- यह बौद्ध-न्याय का प्रसिद्ध ग्रंथ है। 3) वाद-विधि- यह भी न्याय-शास्त्र का ग्रंथ है। 4) अभिधर्मकोश की टीका। 5) सद्धर्म-पुंडरीक की टीका। 6) महापरिनिर्वाण-सूत्र की टीका। 7) वज्रच्छेदिका (प्रज्ञापारमिता की टीका) और 8) विज्ञप्ति-मात्रासिद्धि। तिब्बती विद्वान् बुस्तोन के अनुसार वसुबंधु द्वारा रचित अन्य ग्रंथ हैं- पंचस्कंध-प्रकरण, व्याख्यायुक्ति, कर्मसिद्धि-प्रकरण, महायानसूत्रालंकार की टीका, प्रतीत्य समुत्पादसूत्र की टीका तथा मध्यांत-विभाग का भाष्य । ___ डा. पुऐं ने "अभिधर्मकोश" मूल ग्रंथ के साथ उसका चीनी अनुवाद, फ्रेंच भाषा की टिप्पणियों के साथ प्रकाशित किया है। इसका हिंदी अनुवादसहित प्रकाशन, हिंदुस्तानी अकादमी से हो चुका है जिसका अनुवाद व संपादन आचार्य नरेंद्रदेव ने किया है। विज्ञप्तिमात्रासिद्धि का हिंदी अनुवादसहित
प्रकाशन चौखंबा संस्कृत सीरीज़ से हो चुका है। अनुवादक डा. महेश तिवारी हैं। वसु भारद्वाज - ऋग्वेद के 9 वें मंडल के 80-81-82 इन तीन सूक्तों के द्रष्टा । पवमान-सोमस्तुति इन सूक्तों का विषय है। वसूय आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मंडल के 25 व 26 इन दो सूक्तों के द्रष्टा । इन सूक्तों में अग्निदेवता की स्तुति की गयी है। वसुश्रुत आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवे मंडल के तीन से छह तक के सूक्तों के द्रष्टा। पांचवा सूक्त आप्रीसूक्त के नाम से विख्यात है। अन्य तीन सूक्तों का विषय है : अग्निस्तुति। वस्तुपाल (वसन्तपाल) - जन्म-अणहिलवाड में। प्रपितामह चण्डप गुजरेश की राजसभा के पंडित। पिता-आशाराज (या अश्वराज)। माता- कुमारदेवी। गुरु-विजयसेन सूरि। आप कुशल प्रशासक और महाकवि थे। बालचंद्र के वसन्तविलास काव्य में इनके महाकवित्व का उल्लेख है। गुजरात के राजा वीरधवल तथा उसके पुत्र वीसलदेव के महामात्य । कवियों के आश्रयदाता । "लघु भोजराज" के नाम से विख्यात । विद्यामंडल के संचालक, जिसमें राजपुरोहित सोमेश्वर, हरिहर, नानाक पण्डित, मदन, यशोवीर और अरिसिंह थे। कवि की प्रशंसा में लिखित कीर्ति-कौमुदी और सुकृत-संकीर्तन काव्य उपलब्ध। वस्तुपाल की ही प्रेरणा से नरेन्द्रप्रियसूरि द्वारा महोदधि जैसा लक्षणग्रंथ लिखा गया। अणहिलवाण, स्तम्भतीर्थ और भृगुकच्छ में कवि द्वारा ग्रंथभण्डार स्थापित। सन् 1232 में गिरनार में जैन-मंदिरों का निर्माण। देलवाडा के मंदिरों के बीच में स्थित कलात्मक मंदिर, वस्तुपाल के बड़े भाई लुणीये की स्मृति में निर्मित लणुवसतिका नाम से प्रख्यात है। इन्होंने छह गिरनार यात्रासंघ निकाले। सन् 1240 की यात्रा में निधन। अतः समय ई. 13 वीं शताब्दी। ग्रंथ- 1) नरनारायणानन्द महाकाव्य (सन् 1230-31-16 सर्ग) महाभारत के कथानक पर आधारित है। 2) आदिनाथ-स्तोत्र, 3) नेमिनाथ-स्तोत्र 4) आराधना-गाथा । वांदन दुवस्यू - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 100 वें सूक्त के द्रष्टा । वाक्तोल नारायण मेनन - केरल-निवासी। रचनाएं- कृष्णशतक, तापार्ति-संवरण महाकाव्य और देवीस्तव । वाग्भट - (1) समय- ई. 7 वीं शती का पूर्वार्ध । आयुर्वेद पर “अष्टांगसंग्रह" नामक ग्रंथ के रचयिता। उक्त नाम से एक ही वंश में दो आयुर्वेदाचार्य हो गये है। इनमें उक्त ग्रंथ के रचयिता ने अपने ग्रंथ के उत्तरतंत्र में स्वयं के बारे में जानकारी देते हुए कहा है
मेरे पितामह का नाम वाग्भट था, और वही मेरा नाम भी रखा गया। उनके पुत्र सिंहगुप्त मेरे पिता थे और मेरा जन्म सिन्धु देश में हुआ। आयुर्वेद के प्राचीन ग्रंथों में अष्टांग संग्रह पर सर्वाधिक टीकाएं प्राप्त होती हैं।
चिनी प्रवासी ईत्सिंग ने अष्टांगसंग्रह-कर्ता वाग्भट का उल्लेख
: 442 / संस्कत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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हे गौतम
. 8 वी विषय में
ली थी।
किया है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि इनका कालखण्ड ई. 7 वीं शती का पूर्वार्ध रहा होगा।
(2) एक विख्यात रस-वैद्य। वैद्यक-शास्त्र पर अनेक ग्रंथों की रचना की। उनमें "अष्टांग-हृदय" सर्वाधिक ख्यातिप्राप्त ग्रंथ है। कुछ विद्वान इन्हें साक्षात् धन्वंतरि मानते है, तो कुछ इन्हें गौतम बुद्ध का अवतार मानते हैं। होन्ले के मतानुसार इनका कालखण्ड ई.8 वीं या 9 वीं शती रहा होगा। रसायन. रसकुपी व कायाकल्प के विषय में इनकी ख्याति जावा, कम्बोडिया, इजिप्त आदि देशों तक फैली थी। इनका "अष्टांग-हृदय" नामक ग्रंथ श्लोकबद्ध है तथा इसमें शस्त्रक्रिया का विस्तृत विवेचन है। आयुर्वेद में इसे आज भी प्रमाण-ग्रंथ माना जाता है। इस पर 34 टीकाएं हैं। इसका हिन्दी अनुवाद हुआ है और हिन्दी टीका भी लिखी गई है।
इनके बारे में कहा जाता है कि इन्होंने भारतीय आयुर्वेद शास्त्र को विदेशों में श्रेष्ठत्व प्राप्त कराया। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका इस प्रकार है: ___ मिस्र (इजिप्त) देश के तत्कालीन राजा ने, जो उदरशूल से पीडित थे, दुनिया भर के चिकित्सकों से इलाज करवाने के बाद भी कोई लाभ नहीं होने पर वाग्भट को मिस्र आमंत्रित किया। वाग्भट ने निमंत्रण स्वीकार कर वृद्धावस्था के बावजूद लम्बी विदेश यात्रा की, और मिस्र पहुंच कर राजा को रोगमुक्त किया। राजा ने इनके सम्मान में भव्य समारोह आयोजित कर
आधा राज्य देने की घोषणा की किन्तु इन्होंने यह कहकर कि इससे सम्पूर्ण जगत् में भारतीय वैद्यकी की श्रेष्ठता प्रतिष्ठापित होने का जो समाधान उन्हें मिला है, वही पर्याप्त है, अन्य कोई पुरस्कार लेना अस्वीकार कर दिया। मिस्र की कुछ वनस्पतियों पर संशोधन करने के विचार से वे कुछ काल मिस्र में रहे किन्तु इस बीच एक दुर्घटना हुई। मिस्र की राजकन्या किसी कर्मचारी के साथ प्रेमबंधन में फंस गई
और उससे उसे गर्भ रह गया। यह बात जब महारानी के कानों तक पहुंची, तो राजकन्या को गर्भ से मुक्ति दिलाने हेतु वाग्भट से अनुरोध किया गया। वाग्भट ने यह कहकर कि "ऐसा भयंकर पाप मैं कदापि नहीं करूंगा" अनुरोध स्वीकार नहीं किया। इस पर राजकन्या ने कहा- वह अपने प्रेमी के साथ आत्महत्या कर लेगी, तब एक साथ तीन जीवों की हत्या का पाप उन पर लगेगा। वाग्भट ने इससे बचने का एक उपाय यह सुझाया कि होने वाले बच्चे के पिता के रूप में वह वाग्भट का नाम घोषित कर दें। इससे भले ही उन्हें मौत का सामना करना पडे, किन्तु एक साथ तीन जीवों के प्राणों की रक्षा का समाधान उन्हें मिलेगा। महारानी ने विवश होकर वाग्भट की यह सलाह मान ली और राजा के कानों तक यह बात पहुंचाई। इस अपराध पर मिस्र में मृत्युदण्ड दिया जाता था। वाग्भट से द्वेष करने वाले मंत्रियों के दुराग्रह
पर राजा ने यह सोचे बिना कि इतनी वृद्धावस्था में भी वाग्भट के हाथों यह पाप कैसे हो सकता है, वाग्भट को मृत्युदण्ड दिया। कहते हैं कि महारानी ने चंदन की चिता पर वाग्भट का दाहसंस्कार कराया और उनकी रक्षा स्वर्ण-कुंभ में भर कर गंगा में प्रवाहित करने भारत भिजवाई।
(3) ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध। “वाग्भटालंकार" नामक ग्रंथ के रचयिता। टीकाकारों ने इनके पिता का नाम सोम बताया है। उक्त ग्रंथ साहित्य शास्त्र पर है जिसमें विभिन्न अलंकारों का विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ के पांच परिच्छेद हैं तथा अनुष्टुभ् छंद का अधिक प्रयोग किया गया है। इस पर लिखी गई 8 टीकाओं में से 2 प्रकाशित। हिन्दी अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। ये जैन थे तथा प्राकृत में इनका नाम बाहड बताया गया है। इनका संबंध जयसिंह (1093-1143 ई.) से था।
(4) ई. 13 वीं शती के एक अलंकारशास्त्री । जैन-धर्मावलंबी, मेवाड के एक धनी व्यापारी नेमिकुमार इनके पिता थे। ये दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुयायी थे। इन्होंने अलंकार प्रधान "काव्यानुशासन" नामक ग्रंथ की रचना की। कुल पांच अध्यायों वाले इस ग्रंथ में 289 सूत्र हैं। अपने इसी ग्रंथ पर पृथक् रूप से आपने विस्तृत व्याख्या भी लिखी है, जिसका नाम "अलंकारतिलकवृत्ति" है। इनका दूसरा ग्रंथ है “छन्दोनुशासन"।
(5) जैन कवि। इन्होंने "नेमिनिर्वाण" नामक महाकाव्य की रचना की है जिसमें 15 सर्गों में जैन तीर्थंकर नेमिनाथ की कथा कही गयी है। इनका जन्म अहिछत्र (वर्तमान नागोद) में हुआ था और ये परिवाटवंशीय छाहयु या बाहड के पुत्र
थे। नेमिनिर्माण पर भट्टारक ज्ञानभूषण ने पंजिका नामक टीका लिखी है। वाचस्पति मिश्र - (1) ई. 9 वीं शती के मिथिला-निवासी टीकाकार। इन्होंने वैशेषिक दर्शन छोड कर अन्य सभी दर्शनों पर टीकाएं लिख कर अपने स्वतंत्र विचार व्यक्त किये हैं। इसलिये इन्हें सर्वतंत्रस्वतंत्र की उपाधि प्राप्त हुई। इन्हें मिथिला का राजाश्रय प्राप्त था। गुरु-त्रिलोचन । ब्रह्मसूत्र के "शांकरभाष्य" पर आपने “भामती" नामक टीका लिखी। ग्रंथलेखन में इनकी तन्मयता इतनी अधिक थी कि वे उस समय सारे जगत को भूल बैठते। इस सम्बन्ध में एक आख्यायिका ऐसी बतायी जाती है कि एक बार ग्रंथ-लेखन के समय रात्रि में दीप बुझ गया। उनकी पत्नी ने आकर पुनः उसे प्रज्वलित किया और वहीं पास खडी रही। जब वाचस्पति का ध्यान उनकी और गया तो वे उससे पूछ बैठे "तुम कौन हो"। पत्नी ने उत्तर दिया- “मै आपकी चरणदासी हूं"। इस पर उन्होंने दूसरा प्रश्न किया- "क्या तुम मुझसे कुछ मांगने आयी हो"। पत्नी ने कहा- "पति की सेवा करना स्त्री का
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परम धर्म है। आपके चरणों की सेवा का अवसर मिला, इससे मेरा जीवन कृतार्थ हो गया है। आपके चरणों में मस्तक रखकर आपके पहले इस संसार से बिदा लूं यही मेरी इच्छा है"। इतना सुनते ही उन्हें स्मरण हो आया कि यह तो अपनी पत्नी ही है। अपनी पत्नी के नाम पर ही भामती नामक ग्रंथ लिख कर, उसे अमर बना दिया। भारतीय दर्शन में वाचस्पतिकृत भामती भाष्य का महघतवपूर्ण स्थान है। इसे “भामतीप्रस्थान" कहते है।
भामती के अतिरिक्त इन्होंने सुरेश्वर की ब्रह्मसिद्धि पर ब्रह्मतत्त्व-समीक्षा, सांख्याकारिकाओं पर तत्त्वकौमुदी, पातंजल-दर्शन पर तत्त्ववैशारदी, न्यायदर्शन पर न्यायवार्तिकतात्पर्य व न्यायसूची-निबंध, भाट्टमत पर तत्त्वबिंदू तथा मंडनमिश्र के विधिविवेक नामक ग्रंथ पर न्यायकणिका नामक टीका लिखी है। उनका भामती नामक व्याख्याग्रंथ अद्वैतदर्शन का प्रमाण ग्रंथ माना जाता है। कुछ विद्वानों की मान्यता है कि वाचस्पति मिश्र के रूप में सुरेश्वराचार्य ने ही पुनर्जन्म लिया था। इन्हें तात्पर्याचार्य तथा षड्दर्शनीवल्लभ की भी उपाधियां प्राप्त थी। __(2) ई. 15 वीं शती के एक धर्मशास्त्रकार । मिथिला-निवाासी। "अभिनव वाचस्पति मिश्र" के नाम से विख्यात। ये राजा बहिरवेन्द्र व रामभद्र के दरबार में थे। इनका विवादचिंतामणि नामक ग्रंथ आज भी भारत के वरिष्ठ न्यायालयों में उपयोग में लाया जाता है। इसके आलवा इन्होंने आचार-चिंतामणि, आह्निक-चिंतामणि, शद्ध-चिंतामणि. कत्य-चिंतामणि, तीर्थचिंतामणि, द्वैतचिंतामणि, नीतिचिंतामणि, व्ययचिंतामणि, शूद्र-चिंतामणि व श्राद्धचिंतामणि, तिथि-निर्णय, द्वैतनिर्णय, महादाननिर्णय, महावर्ण तथा दत्तक-विधि नामक ग्रंथों की रचना की है। श्राद्धकल्प अथवा पितृभक्तितरंगिणी नामक ग्रंथ भी आपने ही लिखा है। वाटवे शास्त्री - कुरुन्दवाड (महाराष्ट्र) के निवासी। रचनाएंकलियुगाचार्य-स्तोत्र, कलियुगप्रतापवर्णनम्, कलिवृत्तादर्शनपुराणम्, अंग्रेजी शब्दों के प्रयोग इनकी संस्कृत रचनाओं में हुए हैं। वाणी अण्णय्या - प्रख्यात तेलगु कवि। तंजौर के श्रीधर अय्यावल के शिष्य। रचनाएं- व्यास-तात्पर्य-निर्णय और यश-शास्त्रार्थ-निर्णय। वात्स्यायन - समय- ई. पूर्व 3 री शती। इन्होंने कामसूत्रों की रचना की। इनका नाम मल्लनाग था किन्तु ये अपने गोत्रनाम "वात्स्यायन" के रूप में ही विख्यात हुए। कामसूत्र में जिन प्रदेशों के रीति-रिवाजों का विशेष उल्लेख किया गया है, उनसे यह अनुमान लगाया जाता है कि वात्स्यायन पश्चिम अथवा दक्षिण भारत के निवासी रहे होंगे। कामसूत्र के अंतिम श्लोक से यह जानकारी मिलती है कि वात्स्यायन ब्रह्मचारी थे। पंचतंत्र में इन्हें वैद्यकशास्त्रज्ञ बताया गया है। मधुसूदन शास्त्री ने कामसूत्रों को आयुर्वेदशास्त्र के अन्तर्गत माना है।
वात्स्यायन ने प्राचीन भारतीय विचारों के अनुरूप, काम को पुरुषार्थ माना है। अतः धर्म व अर्थ के साथ ही मनुष्य को काम (पुरुषार्थ) की साधना कर जितेन्द्रिय बनना चाहिये। वात्स्यायन के कामसूत्र सात अधिकरणों में विभाजित हैं :
1) सामान्य, 2) सांप्रयोगिक, 3) कन्यासंप्रयुक्त, 4) भार्याधिकारिक, 5) पारदारिक, 6) वैशिक और 7) औपनिषदिक।
इन्होंने अपने ग्रंथ में कुछ पूर्वाचार्यों का उल्लेख किया है जिनसे यह जानकारी मिलती है कि सर्वप्रथम नंदी ने एक हजार अध्यायों के बृहद् कामशास्त्र की रचना की, जिसे आगे चलकर औद्दालिकी श्वेतकेतु और बाभ्रव्य पांचाल ने क्रमशः संक्षिप्त रूपों में प्रस्तुत किया। वात्स्यायन का कामसूत्र इनका अधिक संक्षिप्त रूप ही है। कामसूत्रों से तत्कालीन (17 सौ वर्ष पूर्व के) समाज के रीति रिवाजों की जानकारी भी मिलती है। ___ "कामसूत्र" पर वीरभद्रकृत “कंदर्पचूडामणि", भास्करनृसिंहकृत कामसूत्र-टीका तथा यशोधर-कृत कंदर्पचूडामणि नामक टीकाएं उपलब्ध हैं। वात्स्यायन (न्यायसूत्र के भाष्यकार) - इनके ग्रंथ में अनेक वार्तिकों के उद्धरण प्राप्त होते हैं। इससे ज्ञात होता है कि इनके पूर्व भी न्यायसूत्र पर अनेक व्याख्या ग्रंथों की रचना हुई थी, किंतु संप्रति इनका भाष्य ही एतद्विषयक प्रथम उपलब्ध रचना है। इनके भाष्य पर उद्योतकराचार्य ने विस्तृत वार्तिक की रचना की है। इनका ग्रंथ "वात्स्यायनभाष्य" के नाम से प्रसिद्ध है जिसका समय विक्रम पूर्व प्रथम शतक माना जाता है। संस्कृत साहित्य में वात्स्यायन नामक अनेक व्यक्ति हैं, जिनमें "कामसूत्र" के रचयिता वात्स्यायन भी हैं पर न्यायसूत्र के भाष्यकार प्रस्तुत वात्स्यायन उनसे सर्वथा भिन्न हैं। "वात्स्यायन-भाष्य" के प्रथम सूत्र के अंत में चाणक्य-रचित "अर्थशास्त्र" का एक श्लोक उद्धत है। अतः विद्वानों का अनुमान है कि चाणक्य (कौटिल्य) ही न्यायसूत्र के भाष्यकार हैं पर यह मत अभी तक पूर्णतः मान्य नहीं हो सका। __वात्स्यायन ने "न्यायदर्शन" अध्याय 2, अधिकरण-सूत्र 40
वी व्याख्या में उदाहरण प्रस्तुत करते हुए चांवल पकाने की विधि का वर्णन किया है। इसके आधार पर विद्वान उन्हें द्रविड प्रदेश का निवासी मानते है। वादिचन्द्र (प्रतिष्ठाचार्य) - समय- ई. 17 वीं शती। जैन आचार्य व साहित्यकार। बलात्कारगण की सूरत शाखा के भट्टारक। गुरु- प्रभाचन्द्र। दादा गुरु- ज्ञानभूषण। जाति-हुंवड, रचनाएं- पार्श्वपुराण (1580 श्लोक), श्रीपाल आख्यान, सुभगसुलोचनाचरित (9 परिच्छेद), ज्ञानसूर्योदय (लाक्षणिक नाटक), पवनदूत (101 पद्य), पाण्डवपुराण, यशोधर-चरित
और होलिका-चरित। इनका कार्यक्षेत्र गुजरात था। इन्होंने अपने पवनदूत की रचना मेघदूत के अनुकरण पर की है। कथा काल्पनिक है। उसका प्रकाशन (हिन्दी अनुवादसहित) हिन्दी
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जैन साहित्य प्रसारक कार्यालय मुंबई से हुआ है। वादिराजतीर्थ - ई. 15 वीं शती। माध्वमत के आचार्य । कर्नाटक के मंगलोर जिले के हुबिनकेरे ग्राम में आपका जन्म हुआ। पिता-रामाचार्य व माता-गारम्मा। इस दम्पती को वागीशतीर्थ के कृपाप्रसाद से यह पुत्रलाभ हुआ। इनका नाम वराह रखा गया। आगे चल कर वागीशतीर्थ ने संन्यास की दीक्षा दी
और "वादिराजतीर्थ" नया नामकरण किया। ऐसा बताया जाता है कि इन्हें योगसिद्धि भी प्राप्त थी। वे अपनी चटाई पर बैठकर आकाशमार्ग से सुबह उड्डुपी, दोपहर धर्मस्थली और रात को सुब्रमण्यम् नामक धार्मिक केन्द्रों पर देवताओं की पूजा के लिये जाया करते थे। "हयग्रीव नारायण" इनके इष्टदेव थे। अंतिम दिनों में आपने सोदे ग्राम में मठ स्थापना कर उसमें कृष्णमूर्ति की प्रतिष्ठापना की। सुप्रसिद्ध तीर्थप्रबंध के अतिरिक्त तत्त्वप्रकाशिका, गुरुवार्तादीपिका, प्रमेयसंग्रह, श्रीकृष्ण-स्तुति, रुक्मिणीय-विजय सरसभारतीविलास, एकीभावस्तोत्र, दशावतारस्तुति आदि अनेक ग्रंथों की आपने रचना की है। वादिराज सूरि - ई. 11 वीं शती के दिगम्बर जैन सम्प्रदायी। मतिसागर मुनि के शिष्य। वादिराज उनकी उपाधि है किन्तु उनके मूलनाम विषयक कोई जानकारी उपलब्ध नहीं है। एक शिलालेख में इनकी तुलना अकलंकदेव (जैन), धर्मकीर्ति (बौद्ध), बृहस्पति (चार्वाक) व गौतम (नैयायिक) से की गयी है। इन्हें षट्तर्कषण्मुख, स्याद्वाद-विद्यापति व जगदेकमल्ल आदि उपाधियों से विभूषित किया गया। रचनाएं
1) पार्श्वनाथचरित- 12 सर्गों के महाकाव्य की रचना आपने चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंह देव की राजधानी में उन्हीं की प्रेरणा से ही।
2) यशोधरचरित नामक चार सर्गों का खण्ड काव्य।
3) एकीभावस्तोत्र । यह 25 पद्यों का स्तोत्र है। कहा जाता है कि इसके गायन से वादिराज कुष्ठ रोग से मुक्त हुए। ___4) न्यायविनिश्चय-विवरण- यह अकलंकदेव के न्यायनिश्चय नामक ग्रंथ पर लिखी गयी टीका है। इसमें २० हजार श्लोक तथा प्रत्यक्ष, अनुमान व आगम ये तीन प्रकरण हैं। भारतीय ज्ञानपीठ (काशी) नामक संस्था ने इसे प्रकाशित किया है।
5) "प्रमाणनिर्णय" नामक ग्रंथ में प्रमाण, प्रत्यक्ष, परोक्ष व आगम ये चार अध्याय हैं। इनके अलावा काकुत्स्थ-चरित, अध्यात्माष्टक व त्रैलोक्यदीपिका आदि ग्रंथों की रचना भी आपने की है। वादीभसिंह - नाम का अर्थ वादीरूपी हाथियों (इभों) को सिंहसमान भयप्रद। (समय- ई. 11 वीं या 12 वीं शती) एक जैन आचार्य। इनका मूल नाम ओइयदेव था। इनका वास्तव्य कर्नाटक के पोंचंब नामक ग्राम अथवा उसके आसपास होने का अनुमान है। वादविवाद में प्रवीणता के कारण इन्हें "वादीमसिंह" कहा जाने लगा। इनकी दो काव्य कृतियां
उपलब्ध हैं : क्षत्रचूडामणि और गद्यचिंतामणि। प्रथम कृति पद्यात्म और दूसरी गद्यात्म है। दोनों में जीवंधर स्वामी के चरित्र का वर्णन है। क्षत्रचूडामणि की गणना नीतिग्रंथों में की जाती है। इनका समाधिस्थल तमिलनाडु के तिरुमल पर्वत पर है। वादीसिंह और वादीभसिंह एक ही व्यक्ति हैं। इन्हें महाकवि बाण की कोटि का गद्य लेखक माना जाता है। वामदेव - गौतम व ममता के पुत्र। ऋग्वेद के 4 थे मंडल के 42-44 तक के सूक्तों को छोड कर बाकी सम्पूर्ण चौथे मंडल के सूक्तों के द्रष्टा। कहते हैं इन्हें गर्भ में ही आत्मज्ञान हो गया था और "गर्भे नु सत्' (ऋ. 4.27.1) यह ऋचा आपने गर्भ में ही रची। इनका जन्म भी इनकी इच्छानसार ही निसर्गसिद्ध मार्ग से न होकर माता का पेट फाड कर हुआ, योग-सामर्थ्य के बल पर श्येन रूप धारण कर वे माता के पेट से बाहर निकले। ये विश्वामित्र की बाद की पीढी के थे। इन्होंने विश्वामित्र के सूक्तों का प्रचार किया। निसर्ग, मानवी सौंदर्य, कृषिकर्म, संगीत आदि विषयक अभिरुचि के कारण आपने अनेक ऋचाएं इन्हीं विषयों पर लिखी हैं।
उपनिषदों में वर्णित जानकारी के अनुसार, गायत्री मंत्र के चौबीस ऋषियों में पांचवां स्थान इनका है। इन्होंने शुक से तुलसी उपनिषद् सुना और अन्य ऋषियों को सुनाया। वामदेव - जैनधर्मी मूलसंघ के भट्टारक त्रैलोक्यकीर्ति के प्रशिष्य और मुनि लक्ष्मीचन्द्र के शिष्य। कुलनाम (कायस्थ)। प्रतिष्ठाचार्य। दिल्ली के आसपास इनका कार्यक्षेत्र था। समयवि.सं. 15 वीं शती। रचनाएं- त्रैलोक्यदीपक, भावसंग्रह, प्रतिष्ठा-सूक्ति-संग्रह, त्रिलोकसार-पूजा, तत्त्वार्थसार, श्रुतज्ञानोद्यान
और मंदिरसंस्कारपूजा। वामन - काव्यशास्त्र के आचार्य। "काव्यालंकार-सूत्र" के प्रणेता। ये रीति संप्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं। इन्होंने "काव्यालंकार-सूत्रवृत्ति" नामक वृत्ति की भी रचना की है जिसमें "रीति" को काव्य की आत्मा माना गया है। ये काश्मीर-निवासी तथा उद्भट के सहयोगी हैं। "राजतरंगिणी" में इन्हें काश्मीर-नरेश जयापीड का मंत्री लिखा गया है (4/497) । जयापीड का समय 779 ई. से 813 ई. तक है। __ वामन का उल्लेख अनेक अलंकारिकों ने किया है जिससे उनके समय पर प्रकाश पडता है। राजशेखर ने अपने ग्रंथ "काव्य-मीमांसा" में, “वामनीयाः" के नाम से इनके संप्रदाय के आलंकारिकों का उल्लेख किया है तथा अभिनवगुप्त ने अपने ध्वन्यालोक में उद्धृत एक श्लोक के संबंध में बताया है कि वामन के अनुसार उसमें आक्षेपालंकार है। इस प्रकार राजशेखर व अभिनवगुप्त से वामन पूर्ववर्ती सिद्ध होते हैं। वामन की "काव्यालंकार सूत्रवृत्ति' में उन्होंने बताया है कि उन्होंने ग्रंथान्तर्गतसूत्र एवं वृत्ति दोनों की रचना की है। (मंगलश्लोक)। वामन ने गुण व अलंकार के भेद को स्पष्ट
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 445
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करते हुए काव्य शास्त्र के इतिहास में महत्त्वपूर्ण योग दिया है । इन्होंने उपमा को मुख्य अलंकार के रूप में मान्यता दी है और काव्य में रस का महत्त्व स्वीकार किया है। अन्य रचनाएं लिंगानुशासन, विद्याधर (काव्य) और काशिकावृत्ति (जयादित्य के सहयोग से)
वामन विश्रान्त-विद्याधर नामक व्याकरण-ग्रंथ के रचयिता । अनेक स्थानों में प्राप्त उद्धरणों से ही ज्ञात वर्धमान सूरि ने इन्हें 'सहृदय चक्रवर्ती की उपाधि प्रदान की । इन्होंने अपने ग्रन्थ पर लघ्वी तथा बृहती ऐसी दो टीकाएं रची हैं। दोनों अप्राप्य । मल्लवादी ने इस व्याकरण पर न्यास की रचना की । वामन भट्ट वेमभूपाल के राजकवि । समय विक्रम का पंद्रहवा शतक । इनकी रचनाओं में काव्य, नाटक, गद्य-ग्रंथ, कोश-ग्रंथ आदि प्राप्त होते हैं। विवरण इस प्रकार है- 1. नलाभ्युदय- ( नलदमयंती की कथा । यह काव्य अपूर्ण रूप में उपलब्ध तथा त्रिवेंद्रम संस्कृत सीरीज से प्रकाशित हुआ है। 2. रघुनाथ-चरित - 30 सर्गो वाला यह काव्य-ग्रंथ अभ तक अप्रकाशित है। 3. हंसदूत (संदेश काव्य ) । 4. बाणासुर - विजय, इस अप्रकाशित काव्य का विवरण ओरियंटल लाइबेरी मद्रास की त्रिवर्षीय हत्सलिखित पुस्तक-सूची 6 में प्राप्त होता है। 5. पार्वती-परिणय- 5 अंकों का नाटक । 6. कनकलेखा चार अंकों वाले इस नाटक में व्यासवर्मन् व कनकलेखा के विवाह का वर्णन है। (अभी तक अप्रकाशित) । 7. श्रृंगारभूषण- भाण इसका नायक विलासशेखर नामक एक धूर्त व्यक्ति है। 8. वेमभूपाल चरित गद्यात्मक चरित्र ग्रंथ इसका प्रकाशन श्रीरंगम् से हो चुका है। 9. शब्दचंद्रिका10. शब्दरत्नाकर- ये दोनों कोश-ग्रंथ हैं और दोनों ही अभी तक अप्रकाशित हैं।
वार्षगण्य एक सांख्य- आचार्य । इनके कालखण्ड के विषय में निश्चित जानकारी उपलब्ध नहीं। ये सांख्य दर्शन के विशेष विचारप्रवाह के अनुयायी थे तथा इनका योग दर्शन से अधिक सम्बन्ध था । सांख्य योग दर्शन में इन्हें भगवान् वार्षगण्य कहा गया है । इनके योग-संबद्ध सांख्य प्रवाह का वार्षगणों ने अध्ययन कर प्रचार किया।
वाल्मीकि संस्कृत के आदिकवि । 'रामायण' नामक विश्वविख्यात महाकाव्य के प्रणेता। कहा जाता है कि संसार में सर्वप्रथम इन्हीके मुख से काव्य का आविर्भाव हुआ था। रामायण के बालकांड में यह कथा प्रारंभ में ही मिलती है कि एक दिन तमसा नदी के किनारे महर्षि भ्रमण कर रहे थे। तभी एक व्याध आया और उसने वहां विद्यमान क्रौंच पक्षी के युगुल पर बाण - प्रहार किया। बाण के लगने के क्रौंच मर गया और क्रौंची करुण स्वर में आर्तनाद करने लगी। इस करुण दृश्य को देखते ही महर्षि के हृदय में करुणा का स्रोत फूट पडा और उनके मुख से अकस्मात् अनुष्टुप छंद में शापवाणी फूट
446 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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पडी । उन्होंने व्याध को शाप देते हुए कहा- 'जाओ, तुम्हें जीवन में कभी भी शांति न मिले, क्यों कि तुमने काम मोहित क्रौंच -युग्म में से एक को मार दिया। कवि वाल्मीकि का यह कथन सम-अक्षर युक्त चार पादों के श्लोक में व्यक्त हुआ था।
कहा जाता है कि उक्त श्लोक को सुन कर स्वयं ब्रह्माजी वाल्मीकि के समक्ष उपस्थित हुए और बोले- 'महर्षे, आप आद्यकवि है। अब आपकी प्रतिभाचक्षु का उन्मेष हुआ है। महाकवि भवभूति ने इस घटना का वर्णन अपने 'उत्तररामचरित' नामक नाटक में किया है। महाकवि कालिदास ने भी अपने 'रघुवंश' नामक महाकाव्य में इस घटना का वर्णन किया है। (14-70)। ध्वनिकार ने भी अपने ग्रंथ में इस तथ्य की अभिव्यक्ति की है (ध्वन्यालोक 1-5) I महर्षि वाल्मीकि ने 'रामायण' के माध्यम से राजा राम के लोकविश्रुत पावन तथा आदर्श चरित्र का वर्णन किया है। इसमें उन्होंने कल्पना, भाव, शैली एवं चरित्र की उदात्तता का अनुपम रूप प्रस्तुत किया है। वे नैसर्गिक कवि हैं जिनकी लेखनी किसी भी विषय का वर्णन करते समय उसका यथातथ्य चित्र खींच देती है। अपनी अन्य विशेषताओं के कारण, उनके 'रामायण' को वेदों के समान पूज्य माना जाता रहा है और उसका उपयोग जन-जागृति- ग्रंथ के रूप में किया जाता रहा है। वाल्मीकि के संबंध में अनेक प्रशस्तियां प्राप्त होती हैं।
अध्यात्म रामायण में स्वयं वाल्मीकि ने रामनाम की महत्ता प्रतिपादित करते हुए अपनी कथा संक्षेप में इस प्रकार बतायी है मैं ब्राह्मण कुल में पैदा हुआ, किन्तु किरात लोगों में पला और बढा । मुझे शूद्र पत्नी से अनेक पुत्र हुए। मैं सदा धनुष बाण लेकर लूट-मार करता था। एक बार मुझे देवर्षि मिले। उन्हें लूटने के इरादे से मैने उन्हें रोका तो उन्होंने मुझसे कहा कि मैं अपनी पत्नी और बच्चों से जाकर यह पूछ आऊं कि क्या वे मेरे पापों में सहभागी हैं। मैंने घर जाकर जब पत्नी और बच्चों से उक्त प्रश्न किया, तो उन्होंने यह कहकर हाथ झटक दिये कि आपके पापों से हमारा क्या संबंध । यह सुन कर मुझे बडा पश्चाताप हुआ । में देवर्षि की शरण में गया, तो उन्होंने मुझे राम-नाम के उलटे अक्षरों वाला मंत्र 'मरा-मरा' जपने का परामर्श दिया। मैंने वैसा किया तो वह मंत्र 'राम राम' ही सिद्ध हुआ।
मैने एक ही स्थान पर खड़े रह कर वर्षो तक इस मंत्र का जप किया। तब मेरा शरीर चीटियों के भीटे से ढंक गया था। तपस्या पूर्ण होने पर ऋषि ने वहां आकर मुझे चीटियों के भीटे (वल्मीक) से बाहर निकलने का आदेश दिया और कहा कि वल्मीक से निकलने के कारण 'वाल्मीकि' के नाम से मेरा पुनर्ज हुआ है।
ईसा पूर्व प्रथम शती से ही वाल्मीकि को रामायण की घटनाओं का समकालीन माना गया है। परित्यक्ता सीता उन्हीं
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के आश्रय में प्रसूत हुई और उन्हें लव तथा कुश नामक दो पुत्र हुए। वाल्मीकि ने स्वरचित रामायण इन पुत्रों को सिखाई । राम के अश्वमेध यज्ञ के अवसर पर वाल्मीकि ने ही सीता के सतीत्व की साक्ष्य प्रस्तुत की। कालान्तर से वाल्मीकि विष्णु के अवतार माने जाने लगे। वाल्मीकिकृत रामायण न केवल श्रेष्ठ साहित्य की दृष्टि से ही उनकी अमर कृति है, परन्तु वह भारतीय संस्कृति का प्रतीकस्वरूप राष्ट्रीय ग्रंथ भी है। वार्ष्याणि यास्कप्रणीत अनेक निरुक्तकारों में उल्लिखित एक निरुक्तकार । भाष्यकार पतंजलि ने भी वार्ष्यायणि का 'भगवान्' इस श्रेष्ठ उपाधि से निर्देश किया है । इससे वार्ष्यायणि आचार्य की महत्ता स्पष्ट होती है।
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वासवसेन बागडान्वय । समय- ई. 14 वीं शती । ग्रंथयशोधरचरित (8 सर्ग)। गंधर्व कवि ने इसी का अनुकरण कर पुष्पदन्त के यशोधर चरित में कुछ प्रसंग सम्मिलित किये हैं। 'यशोधरचरित' का आधार लेकर संस्कृत-प्राकृत भाषाओं में अनेक ग्रंथ लिखे गये, जिनमें प्रभंजन का यशोधर चरित प्राचीनतम है।
वासुदेव मलबार निवासी । रचनाएं- मृत्युंजयस्वामी का स्तोत्र 'रविवर्मस्तुति और दमयन्तीपरिणय।
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वासुदेव कवि दुधिष्ठिर विजय' नामक महाकाव्य के प्रणेता। केरल के निवासी। इस महाकाव्य में महाभारत की कथा संक्षेप में वर्णित है। इस पर काश्मीर निवासी राजानक रत्नकंठ की टीका प्रकाशित हो चुकी है। टीका का समय है 1671 ई. । वासुदेव कवि ने 'त्रिपुर- दहन' तथा 'शौरिकोदय' नामक अन्य दो काव्यों की भी रचना की है। वासुदेव कवि समय- 15 वीं से 16 वीं शताब्दी का मध्य । कालीकट के राजा जमूरिन के सभा - कवि । इन्होंने पाणिनि के सूत्रों पर व्याख्या के रूप में 'वासुदेव-विजय' नामक एक काव्य लिखा था जो अधूरा रहा। उसे उनके भांजे नारायण कवि ने पूरा किया। वासुदेव की अन्य रचनाएं हैंदेवीचरित (6 आश्वासों का यमक काव्य), शिवोदय ( काव्य ) और अच्युत लीला (काव्य) इनका 'भंग-सन्देश' या अमरसंदेश नामक काव्य विशेष प्रसिद्ध है।
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वासुदेव दीक्षित ई. 18 वीं शती का पूर्वार्ध । पितामहादेव । माता- अन्नपूर्णा । गुरु- विश्वेश्वर वाजपेयी । ये तंजावर के सरफोजी और तुकोजी भोसले के दरबारी पंडितराज थे। इन्होंने भट्टोजी दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी पर 'बालमनोरमा' नामक प्रसिद्ध व्याख्या लिखी है। ये मीमांसा दर्शन के भी आचार्य थे, इन्होंने जैमिनि के सूत्रों पर 'अध्वर-मीमांसाकुतूहल- वृत्ति' नामक ग्रंथ लिखा ।
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वासुदेव द्विवेदी ई. 20 वीं शती देवरिया (उ.प्र.) के निवासी वेदशास्त्री तथा साहित्याचार्य काशी में सार्वभौम संस्कृत - प्रचार कार्यालय के संस्थापक। भारत भर भ्रमण करते
हुए, व्याख्यानों तथा नाट्यप्रयोगों द्वारा संस्कृत का प्रचार । संस्कृत प्रचार पुस्तक-माला' में छपे अनेक एकांकियों के रचयिता । कृतियां - कौत्सस्य गुरुदक्षिणा, भोजराज्ये संस्कृतसाम्राज्यम्, स्वर्गीय - संस्कृतकवि सम्मेलनम्, बालनाटक, साहित्यनिबंधादर्श, संस्कृत पत्र लेखन गीतामाला इत्यादि प्रचारोपयोगी पुस्तकें |
वासुदेव पात्र ओरिसा के अन्तर्गत खडी के संस्थानिक खिमुण्डी गजपति नारायण देव के चिकित्सक। रचना - कवि- चिन्तामणिः (24 किरण) । इस ग्रंथ में कवि संकेत तथा समस्यापूर्ति की प्राधान्य से चर्चा है। अंतिम 3 किरणों में संगीत विषयक चर्चा है। वासुदेव सार्वभौम समय ई. 13-14 वीं शती । इन्होंने मिथिला में पक्षधर मिश्र के यहां तत्त्वचिंतामणि का अध्ययन किया था । मिथिला के नैयायिक अपने यहां के न्याय-ग्रंथों को बाहर नहीं ले जाने देते थे। अतः श्री. वासुदेव सार्वभौम ने तत्वचिंतामणि तथा न्याय कुसुमांजलि नामक दो ग्रंथों को कंठस्थ कर लिया, और फिर काशी जाने के बाद उनको लिखा। फिर बंगाल में नवद्वीप जाकर न्यायशास्त्र के अध्ययन-अध्यापन के लिये इन्होंने एक विद्यापीठ की स्थापना की। धार्मिक निबंधकार रघुनंदन, शाक्ततंत्र के व्याख्याकार कृष्णानंद और वैयाकरण शिरोमणि रघुनाथ भट्टाचार्य, ये तीनों ही वासुदेव सार्वभौम के शिष्य थे।
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वासुदेवानन्द सरस्वती (टेम्बे स्वामी) समय 1854-1914 ई. महाराष्ट्र के प्रसिद्ध योगी सन्त । विशाल शिष्य शाखा । पिता गणेशभट्ट टेम्बे माता रमाबाई निवास सावन्तवाडी संस्थान का माणगांव। जन्म 1854 में दादा के पास घर में ही अध्ययन | बचपन से उपासना, पुरश्चरण आदि से मंत्रसिद्धि । 21 वर्ष की आयु में विवाह । पत्नी - अन्नपूर्णा । ई. 1891 में पत्नी का देहान्त । नारायण स्वामी से उज्जयिनी में दण्डग्रहण तथा आश्रम नाम प्राप्त योगिराज श्री. वामनराव गुलवणी द्वारा इनकी सभी रचनाएं 12 खण्डों में 'वासुदेवानन्द सरस्वती ग्रंथमाला' में प्रकाशित ।
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रचनाएं शिक्षात्रय, स्त्री-शिक्षा, माघ माहात्म्य, गुरुचरित्र (द्विसाहस्त्री), श्रीगुरुसंहिता, श्रीगुरुचरित्रत्रिशती काव्य, श्रीदत्तचम्पू श्रीदत्तपुराण (सटीक), वेदनिवेदनस्तोत्रम्, कृष्णालहरी (दोनों सटीक ) । ई. 1914 में नर्मदा तीर पर गरुडेश्वर- क्षेत्र में समाधि। यहां पर उनका समाधि मंदिर बनाया गया है। इन्हें श्री दत्त का अवतार माना जाता है। संस्कृत के अतिरिक्त इन्होंने मराठी में भी अनेक ग्रंथों व स्तोत्रों की रचना की है। महाराष्ट्र, कर्नाटक और गुजराथ में आपका प्रभूत शिष्य संप्रदाय है। विंध्यवास ई. 3 री या 4 थीं शती । सांख्यदर्शन के एक आचार्य जिन्होंने सांख्यशास्त्र पर 'हिरण्यसप्तती' नामक ग्रंथ की रचना की।
इनके बारे में चीनी भाषा के बौद्ध ग्रंथों में कुछ जानकारी
संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड / 447
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मिलती है। तदनुसार अयोध्या में विक्रमराजा के काल में, वसुबंधु के गुरु बुद्धमित्र को इन्होंने वादविवाद में परास्त किया था। विध्यारण्य में रहने के कारण ही उनका नाम विंध्यवास पडा, वैसे इनका मूल नाम रुद्रिक था। इनके 'हिरण्यसप्तती' ग्रंथ के खंडन में वसुबन्धु ने 'परमार्थ-सप्तति' नामक ग्रंथ लिखा था, किन्तु आज ये दोनों ही ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। विकटनितंबा - प्रसिद्ध कवयित्री- जन्म-स्थान काशी। इनके संबंध में अभी तक अन्य कोई जानकारी प्राप्त नहीं हो सकी। राजशेखर ने 'सूक्ति-मुक्तावली' में इनके बारे में अपने विचार प्रकट किये है- (के वैकटनितंबन गिरां गुंफेन रंजिताः । निदंति निजकांतानां न मौग्ध्यमधुरं वचः' ।।) इनकी एक कविता का आशय इस प्रकार है- रे भ्रमर तेरे मर्दन को सह सकने वाली अन्य पुष्पलताओं में अपने चंचल चित्त को विनोदित कर। अनखिली केसर-रहित इन नवमल्लिका की छोटी कली को अभी असमय में क्यों व्यर्थ दुःख दे रहा है। अभी तो उसमें केसर भी नहीं है। बेचारी खिली तक नहीं है। इसे दुःख देना क्या तुझे सुहाता है। यहां से हट जा। कहा जाता है कि इनके पति अशिक्षित थे। विक्रम - पिता- संगम। रचना- नेमिदूत । मेघदूत की पंक्तियों
का समस्यारूप प्रयोग - इस काव्य की विशेषता है। विजयध्वजतीर्थ - द्वैतवादी- संप्रदाय के मुख्य भागवत-व्याख्याकार। इनकी टीका ‘पदरत्नावली' बडी ही प्रामाणिक रचना है और वह इस संप्रदाय के टीकाकारों का प्रतिनिधित्व करती है। संप्रदायानुसार ये पेजावर-पठ के अधिपति थे जो माध्वसंप्रदायी मठों में सप्तक मठ माना जाता है। 'पदरत्नावली' के उपक्रम में इन्होंने अनेक ज्ञातव्य बाते लिखी हैं, जो इनके जीवन पर प्रकाश डालती हैं। इस संबंध में डा. वासुदेव कृष्ण चतुर्वेदी लिखित 'श्रीमद्भागवत के टीकाकार' नामक ग्रंथ में भी पर्याप्त जानकारी अंकित है। आप विजयतीर्थ के शिष्य महेन्द्रतीर्थ के शिष्य थे। (मंगल श्लोक 7) इसमें आनंदतीर्थ की कृति 'भागवत- तात्पर्य- निर्णय' प्रतीत होती है परन्तु परम गुरु विजयतीर्थ की एतद्विषयक कृति गवेषणीय है। गोडीय दर्शनर इतिहास के अनुसार इन्हें नमस्कार तथा निर्देश करने वाले द्वैतवादी कृति को अपने लिये अनुकरण का विषय माना है। व्यास तत्वज्ञ का समय 1460 ई. है। फलतः ये इससे पूर्ववर्ती ग्रंथकार हैं। इनका समय अनुमानतः 1410 ई. - 1450 ई. के लगभग मानना उचित है (मोटे तौर पर 15 वीं शती का पूर्वार्ध)। अपनी 'पद-रत्नावली' में वेदस्तुति के अवसर पर आपने भागवत के पद्यों के लिये उपयुक्त आधारभूत श्रुतिमंत्रों का संकेत किया है। इससे आपके प्रगाढ वैदिक पांडित्य का परिचय मिलता है। विजयरक्षित - सन् 1240 में बंगाल में 'आरोग्यशालीय' पद पर थे। चक्रदत्त के व्याख्याकार निश्चलकर के गुरु । कृति-व्याख्या
मधुकोश जो माधवनिदान नामक प्रसिद्ध आयुर्वेद ग्रंथ पर टीका है। विजयराघवाचार्य - तिरुपति देवस्थान के ताम्रपटशिलालेखाधिकारी। रचनाए- सुरभिसन्देश, पंचलक्ष्मी-विलासः (5 सहस्र श्लोक), नीतिनवरत्नमाला, अभिनवहितोपदेशः, कवनेन्दुमण्डली, वसन्तवास, ध्यान-प्रशंसा, दिव्यक्षेत्रयात्रामाहात्म्य, आत्मसमर्पण, नवग्रहस्तोत्र, दशावतारस्तवः, लक्ष्मीस्तुतिः
और गुरुपरंपराप्रभाव। विजयवर्णी - ई. 13 वीं शती। मुनीन्द्र विजयकीर्ति के शिष्य । राजा कामराय से व्यक्तिगत संपर्क था। ग्रंथ-श्रृंगारार्णवचन्द्रिका (दस परिच्छेदों में विभक्त)। विजयविमलगणि - जैनधर्मी तपागच्छीय आनन्दविमलसूरि के शिष्य। समय- ई. 16 वीं शती। ग्रंथ- गच्छाचारवृत्ति नामक विस्तृत ग्रंथ। गच्छाचार पर ही तपागच्छीय विद्वान आनन्द विमलसूरि के ही शिष्य वानरर्षि की टीका उपलब्ध है। विज्जिका (विद्या) - सुप्रसिद्ध कवयित्री। इनकी किसी भी रचना का 'अभी तक पता नहीं चला है, पर सूक्ति-संग्रहों में कुछ पद्य प्राप्त होते हैं। इनके 3 नाम प्राप्त होते हैं- विज्जका, विज्जिका व विद्या। विज्जिका के अनेक श्लोक, संस्कृत
आलंकारिकों द्वारा उद्धृत किये गए हैं। मुकुलभट्ट ने 'अभिधावृत्ति-मातृका' में तथा मम्मट ने 'काव्यप्रकाश' में इन्हें उद्धृत किया है। मुकुलभट्ट का समय 925 ई. के आसपास है। अतः विज्जिका का अनुमानित समय 710 और 850 ई. के बीच माना जा सकता है।। इनके बारे में केवल इतनी ही जानकारी उपलब्ध है कि इनका जन्म दक्षिण भारत में हुआ। इन्हें अपने कवित्व पर कितना अभिमान था, यह इस श्लोक से स्पष्ट है -
नीलोत्पलदलश्यामां विजकां मामजानता। वृथैव दण्डिना प्रोक्तं 'सर्वशुक्ला सरस्वती" ।। अर्थात्- नीलकमल के पत्ते की तरह श्याम वर्ण वाली मुझे समझे बिना ही दंडी ने व्यर्थ ही सरस्वती को 'सर्वशुक्ला' कह दिया। इनकी कविताएं शृंगार-प्रधान है। विज्ञमूरि राघवाचार्य - ई. 19 वीं शती का अंतिम चरण। विजयवाडा के हाइस्कूल में अध्यापक। कृतियां- शृंगार-दीपक (भाण), नरसिंह-स्तोत्र, मानस-संदेश, हनुमत्-सन्देश, रघुवीर-गद्य-व्याख्या और रामानुज-श्लोकत्रयी। विज्ञानभिक्षु - समय- ई. 16 वीं शती का प्रथमाई। काशी के निवासी। इन्होंने सांख्य, योग व वेदांत तीनों ही दर्शनों पर भाष्य रचना की है। सांख्य-सूत्रों पर इनकी व्याख्या 'सांख्यप्रवचनभाष्य' के नाम से प्रसिद्ध है। इन्होंने योगसूत्रों के व्यास-भाष्य पर 'योगवार्तिक' तथा ब्रह्मसूत्रपर 'विज्ञानामृत-भाष्य' की रचना की है। इनके अन्य दो ग्रंथ हैं- 'सांख्य-सार' व 'योगसार', जिनमें तत्तत् दर्शनों के सिद्धांतों का संक्षिप्त विवेचन है।
448 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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विज्ञानेश्वर ई. 11-12 वीं शती। धर्मशास्त्र और याज्ञवल्क्य स्मृति पर मिताक्षरा नामक टीका लिखी। भारद्वाज गोत्री । पिता - पद्मनाथ भट्टोपाध्याय । गुरु- उत्तमपाद। आंध्रप्रदेश के कल्याणी नामक स्थान पर छठे विक्रमादित्य के दरबार में आप थे। धर्मशास्त्रवियषक वाङ्मय में विज्ञानेश्वर की 'मिताक्षरा' टीका का महत्त्व अत्युच्च है। दो हजार वर्ष पूर्व के धर्मशास्त्रविषयक विचारों का सार इस ग्रंथ में दिया गया है। अतः दत्तक, उत्तराधिकार आदि हिन्दू कानून में यह ग्रंथ प्रमाण माना जाता है (ग्रंथ-रचना काल 1070-1100 ई. के बीच ) ।
विज्ञानेश्वर ने दाय को दो भागों में विभक्त किया हैअप्रतिबंध एवं सप्रतिबंध इन्होंने आग्रहपूर्वक कहा है कि वसीयत पर पुत्र, पौत्र तथा प्रपौत्र का जन्मसिद्ध अधिकार होता है। विट्ठल समय- वि.सं. 16 वीं शती । प्रक्रिया-कौमुदी की प्रसाद टीका के लेखक । इन्होंने शेषकृष्ण के पुत्र रामेश्वर (वीरेश्वर) के पास व्याकरण का अध्ययन किया। ये प्रक्रिया- कौमुदीकार रामचंद्र के पौत्र थे । विठ्ठलदेवुनि सुंदरशर्मा देवज्ञशिखामणि वीरराघव शर्मा के छठवें पुत्र माता श्रीगौरी अंबा हैदराबाद के उस्मानिया विश्वविद्यालय के शोधविभाग में आप कार्यरत रहे। मकुटशतकों की रचना आपकी विशेषता है मकुटनियम याने काव्य के प्रारंभ में और अंतिम चतुर्थ पंक्ति में एकता रखना सुंदरशर्मा ने श्रीनिवासशतक, देवीशतक, वीरांजनेयशतक और शंभुशतक नामक चार शतकों की रचना की है। इन सभी भक्तिप्रधान शतकों में मकुटनियम का पालन किया गया है। आंध्र प्रादेशिक साहित्य में यह पद्धति विशेष लोकप्रिय है ।
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विट्ठलनाथजी समय- ई. 1515 1594 जन्म- पौष कृष्ण नवमी को काशी के निकटवर्ती क्षेत्र चरणाद्रि (चुनार) में। जगन्नाथपुरी जाते समय इनके पिता आचार्य वल्लभ सपत्नीक यहां रुके थे। यहीं पर वर्तमान आचार्य-व -कूप है। इसी स्थान पर इनका जन्म हुआ। कहा जाता है कि यात्रा में नवजात शिशु की रक्षा न हो सकेगी इस आशंका से आचार्य वल्लभ ने इन्हें यहीं छोड दिया था परंतु जगन्नाथ की तीर्थ यात्रा से लोटने पर किसी अज्ञात व्यक्ति की गोद में शिशु विठ्ठल सुरक्षित मिला उस व्यक्ति ने शिशु को उसके माता-पिता के हाथों सौंपा और स्वयं अदृश्य हो गया। वल्लभाचार्य, विट्ठल को अपने आवास स्थान अडैल (प्रयाग में त्रिवेणी के दक्षिण पार) ले गए। यहाँ पर विठ्ठल के संस्कार एवं शिक्षा-दीक्षा हुई। 15 वर्ष की आयु में ही इनके पिता आचार्य वल्लभ ने अपना शरीर त्यागा। फिर भी इन्होंने वेद-वेदांगों का अध्ययन एवं साप्रदायिक साहित्य का अनुशीलन किया । वल्लभ के ये द्वितीय पुत्र थे । गोसाईजी के नाम से अधिक प्रसिद्ध ।
अपने पिता के समान विट्ठलनाथ भी गृहस्थ थे। उन्हीं के
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समान गृहस्थों में रह कर ही इन्होंने परमार्थ-चिंतन की अपूर्व निष्ठा निभाई। इन्होंने दो विवाह किए थे। प्रथम पत्नी रुक्मिणी से 6 पुत्र और 4 पुत्रियां थी गढ़ा की रानी दुर्गावती के अत्यधिक आग्रह पर इन्होंने दूसरा विवाह सागर की पद्मावती से किया, जिससे एकमात्र पुत्र घनश्याम हुए। रानी ने मथुरा में इनके निवास हेतु एक भव्य वास्तु का निर्माण कराया, जो सतघरा के नाम से प्रसिद्ध है। सन् 1542 में दुर्गावती ने आचार्य को अपनी राजधानी गढा मंडला में आमंत्रित कर उनका सम्मान किया।
सं. 1587 में आचार्य वल्लभ के महाप्रयाण के पश्चात् उनके ज्येष्ठ पुत्र गोपीनाथजी सांप्रदायिक गद्दी के उत्तराधिकारी हुए, किन्तु कुछ ही वर्षों में उनकी लीला समाप्त हुई गोपीनाथ जी की विधवा ने अपने पुत्र पुरुषोत्तम को गद्दी का अधिकारी करवाया। कृष्णदास ने भी पुरुषोत्तमक का ही पक्ष लिया। मतभेद होने के कारण श्रीनाथजी का होही दर्शन विट्ठलनाथ के लिये बंद हो गया दुखी होकर ये पारसोली चले गए और वहीं से नाथद्वारा के मंदिर में झरोखे की ओर देखा करते थे । इसी वियोग- काल में इन्होंने 'विज्ञप्ति' की रचना की, जो आध्यात्मिक काव्य की दृष्टि से एक सुंदर ग्रंथ माना जाता है। कहते हैं कि मथुरा के 'हाकिम' की आज्ञा से जब कृष्णदास बंदी बना लिये गए, तो इन्होंने दुखित होकर अन्न-जल का त्याग कर दिया। कृष्णदास के मुक्त किये जाने पर ही भोजन ग्रहण किया। इस उदात्तता से प्रभावित कृष्णदास ने इनके उत्तराधिकार को स्वीकार कर लिया ।
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पुष्टि-संप्रदाय की ग्रंथ संपदा वृद्धि, आर्थिक स्रोत- वृद्धि, विस्तार एवं व्याख्या सभी का सब श्रेय इन्हीं का है। ये बड़े विद्वान् तथा आध्यात्मिक विभूति थे। बादशाह अकबर तथा उसके प्रधान दरबारी राजा टोडरमल, राजा बीरबल प्रभृति से इनकी घनिष्ठ मित्रता थी इसी व्यक्तित्व के वशीभूत होकर अकबर ने गोकुल तथा गोवर्धन की भूमि इन्हें भेट कर दी थी। इस संबंधी दो शासकीय फर्मान आज भी मिलते हैं । तदनुसार ब्रज मंडल में गउएं चराने आदि अनेक करों की माफी का हुक्म गोसाई विट्ठलनाथजी कों बादशाह की ओर से प्राप्त हुआ था । बादशाह की ओर से इन्हें न्यायाधीश के अधिकार भी प्राप्त थे ।
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इन्होंने अपने पिता आचार्य वल्लभ के ग्रंथों का गूढ नहीं समझाया, प्रत्युत नवीन ग्रंथों की रचना कर वल्लभ संप्रदाय के साहित्य की वृद्धि की। इनके ग्रंथ प्रौढ, युक्तिपूर्ण एवं विवेचनामंडित हैं। मुख्य ग्रंथों के नाम हैं- (1) अणु-भाष्य-अंतिम डेढ अध्यायों की रचना द्वारा अपने पिता के अपूर्ण ग्रंथ की पूर्ति की, (2) विद्वन्डन, (3) भक्ति-हंस (4) भक्ति-निर्णय, (5) निबंध प्रकाश टीका, (6) सुबोधिनी टिप्पणी और (7) श्रृंगार रस-मंडन। ग्रंथों की कुल संख्या 46 बतायी जाती है।
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ग्रंथकार खण्ड / 449
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आचार्य-पद पर आसीन होने के पश्चात् इन्होंने भ्रमण कर अपने मत का विपुल प्रचार किया। विशेषतः गुजरात में वल्लभ-संप्रदाय के विशेष प्रचार का श्रेय विट्ठलनाथ को ही है, जिन्होंने इस कार्य हेतु गुजरात की 6 बार यात्रा की एवं उस प्रदेश में विस्तृत भ्रमण किया। इस संप्रदाय में आज जो सेवापद्धति व्यवस्थित रूप से दिखाई देती है, उसका श्रेय भी विट्ठलनाथ को ही है। ___ इनकी पुत्र-संपत्ति भी विपुल थी। इनके 7 पुत्र हुए और उन सातों को भगवान् के 7 रूपों की सेवा तथा अर्चना का अधिकार देकर इन्होंने अपने संप्रदाय के विस्तार तथा परिवर्तन की समुचित व्यवस्था की। वल्लभ संप्रदाय में इन्हें कृष्ण का अवतार माना जाता है।
विट्ठलनाथजी जिस प्रकार धर्म के आचार्य, शास्त्रों के प्रकांड पंडित तथा मुगल शासन के न्यायाधीश थे, उसी प्रकार ब्रज-भाषा के महनीय उन्नायक भी थे। इनके पिता आचार्य वल्लभ के समय तक ब्रज भाषा असंस्कृत, अपरिमार्जित और साहित्य के क्षेत्र से बहिर्भूत भाषा थी। परंतु आपके पिता तथा आपके सतत उद्योग एवं प्रोत्साहन के बल पर वह सर्वमान्य साहित्यिक भाषा बनी। ब्रज भाषा की वर्तमान साहित्य समद्धि का श्रेय भी आप दोनों को प्राप्त है। "अष्टछाप" के कवियों के रूप में प्रसिद्ध सूरदास, परमानंददास, कुंभनदास तथा कृष्णदास आपके पिता वल्लभ के शिष्य थे, तो नंददास, चतुर्भुजदास, छीत स्वामी और गोविंददास आपके शिष्य थे।
विट्ठलनाथ के आध्यात्मिक चरित्र का प्रभाव, तत्कालीन शासकों एवं शासनाधिकारियों पर पड़े बिना न रह सका। बादशाह अकबर पर इनका प्रभाव विशेष पडा। इसी प्रकार
आपके उपदेशों से प्रभावित होकर राजा टोडरमल, राजा बीरबल, राजा मानसिंह, संगीतसम्राट तानसेन, गढा की रानी दुर्गावती, राजा रामचंद्र प्रभृति इनके शिष्य बने थे। फिर भी ये बडी उदार प्रकृति के होने के कारण, राजा से रंक तक इनकी दृष्टि समभावेन सभी पर पडती रही। स. 1647 (= 1590 ई.) की माघ शुक्ल सप्तमी को "राजभोग" के पश्चात् आप गोवर्धन की कंदरा में प्रविष्ट हो नित्य लीला में लीन हो गए। इनके ज्येष्ठ पुत्र गिरिधरजी ने इन्हें वैसा करने से रोकना चाहा, किन्तु इनका उत्तरीय वस्त्र ही उनके हाथ लग सका। उसी वस्त्र से उत्तर क्रिया करने का आदेश देकर ये अंतर्धान हो गए। उस समय "अष्टछाप" के अन्यतम कवि एवं इनके शिष्य चतुर्भुजदास वहां पर उपस्थित थे। ___ गोसाई विट्ठलनाथ जी का जीवन-चरित्र, भगवान् श्रीकृष्ण के लीला-सौंदर्य का दर्शन बोध है। (उनके पुष्टि-मार्गी सिद्धान्त में मानवता के समस्त गुणों की भावना सन्निहित है। उनका संप्रदाय काव्य, चित्रकला आदि विविध कलाओं के स्फूर्तिदाता
तथा प्रोत्साहक रहा।
आचार्य वल्लभ द्वारा प्रणीत वैष्णव जन की परिभाषा मे ___जाति, धर्म अथवा उपासना-पद्धति की विभिन्नता, कोई मतभेद
उपस्थित नहीं करती थी। इस लिये उनके सुपुत्र विट्ठलनाथजी से अलीखान, तानसेन, रसखान, ताजबीबी जैसे मुसलमानों ने भी वैष्णव दीक्षा ली थी। विद्याकर - ई. 12 वीं शती का पूर्वार्ध । “कवीन्द्र-वचन-समुच्चर" के संकलनकर्ता। बंगाल के जगद्दल मठ में निवास । विद्यातीर्थ - ई. 14 वीं शती। ये माधववर्मा व सायणाचार्य के विद्यागुरु तथा विजयनगर के राजा के आध्यात्मिक गुरु थे। ये त्रिदंडी स्वामी तथा शृंगेरीपीठ के शंकराचार्य थे। विद्यातीर्थ ने "रुद्रप्रश्नभाष्य" नामक ग्रंथ की रचना की। शृंगेरी में विजयनगर के सम्राट बुक्कराय के सहयोग से माधवाचार्य ने विद्यातीर्थ-मंदिर बनवाकर उसमें उनकी मूर्ति प्रतिष्ठापित की। विद्याधर - काव्यशास्त्र के आचार्य। समय-ई. 13-14 वीं शती। इन्होंने "एकावली" नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ की रचना की है जिसमें काव्य के दशांगों का वर्णन है और वे उत्कल-नरेश नरसिंह की प्रशस्ति में लिखे गये हैं। इसका प्रकाशन (श्री. त्रिवेदी रचित भमिका व टिप्पणी के साथ) मंबई संस्कत सीरीज से हुआ है। विद्याधर ने "केलिरहस्य" नामक काम-शास्त्रीय ग्रंथ की भी रचना की है। विद्याधर - ई. 17 वीं शती। रचना- "प्रतिनैषध"। श्रीहर्ष के "नैषध" महाकाव्य से प्रेरणा लेकर इस काव्य की रचना हुई। इनके सहकारी का नाम था लक्ष्मण । विद्यानिधि - ई. 17 वीं शती के संन्यासी-पंडित। इन्होंने अनेक ग्रंथों की रचना की है। इनके समय में काशी व प्रयाग जाने वाले यात्रियों पर मुगल शासकों ने भारी कर लगाया था जिसे आपने बंद करवाया। शाहजहां ने इनकी विद्वत्ता से प्रभावित होकर इन्हें “सर्वविद्यानिधि" की उपाधि से विभूषित किया। कलकत्ता की रॉयल एशियाटिक सोसायटी में इन्हें दिये मानपत्र अभी भी सुरक्षित हैं। इन काव्यमय मानपत्रों का संग्रह प्रकाशित हुआ है। विद्याधर शास्त्री (पं) - जन्म 8 अगस्त, 1901, मृत्यु 24 फरवरी 1983 | गौड ब्राह्मण। पिता- देवीप्रसाद शास्त्री (विद्यावाचस्पति)। पितामह-हरनामदत्त शास्त्री। चुरू ग्राम में जन्म। इनकी शिक्षा रामगढ, भिवाणी और लाहौर में हुई। डूंगर कालेज, बीकानेर में संस्कृत-विभागाध्यक्ष के रूप में कार्य करते हुए आप सन् 1956 में सेवानिवृत्त हुए। उसके बाद जीवन-पर्यन्त, बीकानेर के एक शोध संस्थान में निदेशक पद पर कार्य करते रहे। संस्कृत-भाषा और साहित्य के विकास के लिए की गई विशिष्ट सेवाओं के कारण, राष्ट्रपति द्वारा आपको सम्मानित किया गया था। उत्कृष्ट साहित्य सर्जन के लिए राजस्थान साहित्य अकादमी द्वारा आपको सम्मानित किया
450 / संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रथकार खण्ड
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गया। विद्याधर शास्त्री ने अनेक प्रकार के काव्यों, नाटकों एवं प्रचार दक्षिण में अधिक है। इसका प्रकाशन मुंबई संस्कृत स्तोत्रों का प्रणयन किया। वे हैं- 1) वैचित्र्य-लहरी, 2) सीरीज से हुआ है। सहित्य के क्षेत्र में विद्यानाथ का यह मत्तलहरी, 3) लीलालहरी, 4) विद्याधर-नीतिरत्नम्, 5) एक नवीन उपक्रम था, जिसका अनुकरण आज तक होता हरनामामृतम् (महाकाव्य), 6) शिवपुष्पांजलि (स्तोत्र), 7) आ रहा है। अन्य रचनाएं- प्रतापरुद्रकल्याणम् (नाटक) और
आनंदमंदाकिनी, 8) अनुभवशतकम्, 9) विक्रमाभ्युदय (चंपू), हेमन्त-तिलक (भाण)। 10) काव्यवाटिका, 11) विश्वमानवीय, 12) हिमाद्रिमाहात्म्य, विद्यारण्य - ई. 14 वीं शताब्दी। इनका पूर्वनाम माधवाचार्य 13) सूर्यप्रार्थना, 14) सत्यसन्दोहिनी, 15) कलिपलायन, 16) था। इन्होंने हरिहर व बुक्क इन दो सरदारों को शुद्ध कर हिंद पूर्णानन्द, 17) दुर्बलबल (तीनों नाटक), 18) नीतिकल्पतरु, धर्म में वापस लिया और उनकी सहायता से विजयनगर का 19) नीतिकल्पलता, 20) नीतिकाव्य, 21) नीतिचन्द्रिका, 22) राज्य स्थापित किया। 30 वर्षों तक वे विजयनगर के प्रधानमंत्री नीतिद्विषष्ठिका, 23) नीतिनवरत्नमाला, 24) नीति-प्रदीप, 25) थे। सन् 1380 में शृंगेरीपीठ के शंकराचार्य भारतीतीर्थ के नीति-मंजरी, 26) नीतिमाला, 27) नीतिरहस्य, 28) निधन के बाद, उस पीठ का आचार्य-पद इन्हीं को प्राप्त नीति-रामायण, 29) नीतिलता, 30) नीति-वाक्यामृत, 31) हुआ। इनका वेदान्त विषयक “पंचदशी" नामक ग्रंथ अत्यंत नीति-विलास, 32) नीतिशास्त्र-समुच्चय, 33) नीति-कुसुमावली, महत्त्वपूर्ण है। अपरचना-संगीतसारः (अप्राप्य) 34) नीतिरत्न।
विद्यालंकार भट्टाचार्य - विजयिनीकाव्यम्" में आपने रानी विद्यानन्द - कर्नाटकवासी। जैनधर्मी नन्दिसंघ के ब्राह्मणकुलीन व्हिक्टोरिया का चरित्र ग्रथन किया है। आचार्य। वादिराज आदि आचार्यों द्वारा उल्लिखित। समय ई. विद्यावागीश - आसाम नरेश प्रमत्तसिंह (1744-51 ई.) के 8-9 वीं शताब्दी। गंगनरेश शिवभाट द्वितीय (ई. 9 वीं शती)
मंत्री गंगाधर बडफूकन द्वारा सम्मानित । पिता- आचार्य पंचानन । तथा राचमल्ल सत्यवाक्य-प्रथम (ई. 10 वीं शती) के
श्रीकृष्ण-प्रयाण नामक अंकिया नाटक के रचयिता। समकालीन। रचनाएं- (1) स्वतंत्र ग्रंथ आप्तपरीक्षा
विद्यासागर मुनि - प्रक्रियामंजरी नामक व्याकरणविषयक (स्वोपज्ञवृत्तिसहित) प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा, सत्यशासनपरीक्षा,
काशिका टीका के लेखक। इस टीका के दो हस्तलिखित श्रीपुरपार्श्वनाथ-स्तोत्र, विद्यानन्द-महोदय। (2) (टीका ग्रंथ)
उपलब्ध है। अष्टसहस्त्री, तत्त्वार्थ-श्लोकवार्तिक और युक्त्यनुशासनालंकार।
विधुशेखर भट्टाचार्य शास्त्री (म.म.) - समयइन कृतियों पर पूर्वपर्ती ग्रंथकार समन्तभद्र, सिद्धसेन, पात्रस्वामी,
1877-1946 ई.। जन्म कालीवाटी (बंगाल) में। भट्टाकलंक, कुमारसेन आदि आचार्यों का प्रभाव दृष्टिगोचर
पिता-त्रैलोक्यनाथ भट्टाचार्य। 1897 में काशी जाकर कैलाशचन्द्र होता है। इसी तरह माणिक्यनन्दि, वादिराज, प्रभाचंद्र, अभयदेव,
तर्कशिरोमणि से विविध विषयों (विशेषकर न्याय) का अध्ययन देवसूरि आदि आचार्य विद्यानंद से प्रभावित हैं।
किया। सन् 1904 में "मित्रगोष्ठी' में प्रकाशित हुई इनकी विद्यानन्दी - बलात्कारगण की सूरत शाखा के संस्थापक अन्य रचनाएं इस प्रकार हैं : दुर्गासप्तशती, भरतचरित, देवेन्द्रकीर्ति के शिष्य। मंदिरमूर्ति प्रतिष्ठापक। जाति-पोखाड। उमापरिणय, हरिश्चन्द्र-चरित (महाकाव्य), चित्तविलास पिता-हरिराज। कार्यक्षेत्र-गजरात और राजस्थान । समय- वि.सं. (खण्डकाव्य). अपत्यविक्रय, क्षत्कथा. दीनकन्यका आदि कहानियां 1499-1538| रचनाएं- सुदर्शनचरित (1362 श्लोक) और और जयपराजयम चन्द्रप्रभा (उपन्यास) व मिलिन्द्रप्रश्नाः (प्राकृत सुकुमालचरित। तत्कालीन अनेक राजाओं द्वारा सम्मानित। मिलिन्द पन्हों का अनुवाद) विद्यानंदी - ई. 9 वीं शती के एक जैन आचार्य। इन्होंने विनयचन्द्र - विनयचन्द्र नाम के अनेक विद्वान हुए हैं। एक
अकलंकदेव की "अष्टशती" पर "अष्टसाहस्त्री" नामक टीका वे हैं जो रविप्रभसरि के शिष्य हैं। समय वि.सं. 1300 के लिखी। इसके अलवा तत्त्वार्थश्लोकवार्तिक, युक्त्यनुशासनालंकार, लगभग। ग्रंथ-मल्लिनाथ-चरित, मुनिसुव्रतनाथ-चरित और आप्तपरीक्षा, प्रमाणपरीक्षा, पत्रपरीक्षा व सत्यशासन आदि ग्रंथों । पार्श्वनाथ-चरित। दूसरे वे हैं जो आदिनाथ-चरित के रचयिता की रचना भी इन्होंने की है।
हैं। समय- वि. सं. 1474। तीसरे- रत्नसिंह सूरि के शिष्य विद्यानाथ - समय- ई. 14 वीं शती। मूल नाम अगस्त्य । हैं। ई. 14 वीं शती)। ग्रंथ-कालकाचार्यकथा, पर्युषणकल्प काव्यशास्त्र के आचार्य। "प्रतापरुद्रयशोभूषण" या "प्रतापरुद्रीय" और तन्त्रदीपमालिकाकल्प । इस नाम के और भी विद्वान् हुए हैं। नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथ के प्रणेता। आंध्र प्रदेश के काकतीय विनय-विजयगणि - "इंदुदूत" नामक संदेश-काव्य के प्रणेता । राजा प्रतापरुद्र के आश्रित-कवि, जिनकी प्रशंसा में इन्होंने समय- 18 वीं शती का पूर्वार्ध । वैश्य-कुलोत्पन्न श्रेष्ठी तेजःपाल "प्रतापरुद्रीय" के उदाहरणों की रचना की है। इनके "प्रतापरुद्रीय" के पुत्र। दीक्षागुरु-विजयप्रभ सूरीश्वर। इनका एक अधूरा पर कुमारस्वामी कृत रत्नायण-टीका मिलती है। "रत्नशाण" काव्य-ग्रंथ "श्रीपालरास" भी प्राप्त होता है जिसे इनके मित्र नामक अन्य अपूर्ण टीका भी प्राप्त होती है। इस ग्रंथ का यशोविजयजी ने पूरा किया। इन्होंने संस्कृत, प्राकृत व गुजराती
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड । 451
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में लगभग 35 ग्रंथों की रचना की है। संस्कृत ग्रंथों के नाम इस प्रकार है- श्रीकल्पसूत्र-सुबोधिका, लोकप्रकाश, हेमलघुप्रक्रिया, शांतसुधारस जिनसहरुनाम स्तोत्र, हेमप्रकाश, नयकर्णिका, षत्रियत्- जल्पसंग्रह, अर्हन्नमस्कार-स्तोत्र, और आदिजिनस्तवन । "इंदुदूत" का प्रकाशन श्री जैन साहित्यवर्धक सभा, शिवपुर (पश्चिम खानदेश, महाराष्ट्र) से हुआ है इस संदेश काव्य की रचना "मेघदूत" के अनुकरण पर की है, किंतु नैतिक व धार्मिक तत्त्वों की प्रधानता के कारण इन्होंने एक सर्वथा नवीन विषय का प्रतिपादन किया है। विनायकभट्ट समय-ई. 19 वीं शती रचना आजचन्द्रिका विषय- अंग्रेजी साम्राज्य के वैभव का वर्णन ।
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विबुध श्रीधर - समय ई. 15 वीं शती । कार्यक्षेत्र - राजस्थान । रचना- भविष्यदत पंचमी कथा इसकी रचना लम्बकंचुक्कुल के प्रसिद्ध साहू लक्ष्मण की प्रेरणा से हुई । विम्राजसौर्य ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 117 वें सूक्त के द्रष्टा । इसमें सूर्य की स्तुति की गयी है। इस सूक्त की चौथी ऋचा में कहा गया है कि विश्वरक्षक व देवरक्षक सूर्य अपने तेज से त्रैलोक्य का पोषण करता है।
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विमद ऐंद्र प्राजापत्य ऋग्वेद के दसवें मंडल में 20 से 26 तक सूक्तों की रचना इनकी मानी जाती है। इन्हें अनुकृत वासुक भी कहा जाता है अपने सूतों में इन्होंने अग्नि, इन्द्र, सोम व पूर्वा की स्तुति की है ।
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ऋग्वेद में विमद का उल्लेख इन्द्र व प्रजापति के मानसपुत्र के रूप में किया गया है। पुरुमित्र की पुत्री कमद्यू इनकी पत्नी थी। उसने स्वयंवर में इनके गले में वरमाला डाली तो वहां उपस्थित अन्य राजाओं ने इनके साथ युद्ध किया । अश्विदेवताओं के सहयोग से ये युद्ध में विजयी हुए। विमलकुमार जैन कलकत्ता के निवासी । रचनाएंरक्षाबन्धनशतक । वीर-पंचाशत्का गणेशपंचविंशतिका, मुनिद्वात्रिंशत्का, द्रव्यदीपिका और गान्धिवादाष्टक ।
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विमलदास वीरग्राम के निवासी । अनन्तसेन के शिष्य । तंजौर नगर इनका कार्यक्षेत्र था । समय-ई. 17 वीं शती । ग्रंथ - सप्तमंत्रतरंगिणी ( 800 श्लोक ) ।
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विमलमति समय वि. सं. 702 के लगभग । भर्तृहरि उपाधि रचना भागवृत्ति, जो पाणिनि की अष्टाध्यायी पर काशिका के समान प्रामाणिक वृत्ति है। लेखक बौद्ध सम्प्रदाय में प्रसिद्ध व्यक्ति । संपूर्ण ग्रन्थ अनुपलब्ध । किसी श्रीधर ने इस भागवृत्ति पर व्याख्या लिखी थी, वह भी अप्राप्य है। त्रिरूप अंगिरस ऋग्वेद के आठवे मंडल के 43, 44 व 75 वें सूक्तों के द्रष्टा । इन्हें अंगिरा का पुत्र कहा गया है। इनके तीनों सूक्त अग्नि की स्तुति में है। विरूपाक्षकवि "चोलचम्पू" व "शिवविलासचम्पू" नामक
452 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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काव्यों के प्रणेता "चोलचम्पू" के संपादक डा. श्री. राघवन् के अनुसार विरूपाक्ष का अनुमानित समय ई. 17 वीं शताब्दी है पिता शिवगुरु माता गोमती कौशिक गोत्रीय ब्राह्मण। "चोलचम्पू" का प्रकाशन, मद्रास गवर्नमेंट ओरियंटल सीरीज ( और सरस्वती महल सीरीज तंजौर ) से हो चुका है। "शिवविलासचम्पू" का प्रकाशन अभी तक नहीं हुआ है I इसका विवरण तंजौर कैटलाग 4160 में प्राप्त होता है। "शिवविलास - चम्पू" में विरूपाक्ष ने अपना परिचय दिया है। विलिनाथ - ई. 17 वीं शती (पूर्वार्ध) पिता-कनक सभापति । चोल प्रदेश के विष्णुपुर नामक अग्रहार में जन्म। यज्ञनारायण के प्रपौत्र । रचना- "मदनमंजरी महोत्सव" नामक पांच अंकी
कपटनाटक ।
विव्रि काश्यप ऋग्वेद के दसवें मंडल के 163 वें सूक्त के द्रष्टा । इस अनुष्टुभ् छंदोबद्ध सूक्त का विषय है रोगनाश । इनकी एक ऋचा इस प्रकार है :
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अक्षीभ्यां ते नासिकाभ्यां कर्णाभ्यां छुबुकादधि । यक्ष्मं शीर्षण्यं मस्तिष्काज्जिह्वाया वि वृहामि ते । । अर्थात्, हे रोगी, मै तेरी आंखों, कान, नाक, जीभ और मस्तिष्क के रोगों को दूर करता हूं।
विशाखदत्त (विशाखदेव ) समय प्रायः ई. 6 वीं शती का उत्तरार्ध । एकमात्र प्रसिद्ध रचना "मुद्राराक्षस' उपलब्ध है। अन्य कृतियों की केवल सूचना प्राप्त होती है, जिनमें "देवीचंद्रगुप्तम्” नामक नाटक प्रमुख है। इस नाटक के उद्धरण "नाट्यदर्पण " व " श्रृंगारप्रकाश" नामक काव्यशास्त्रीय ग्रंथों में प्राप्त होते हैं। इसमें विशाखदत्त ने ध्रुवस्वामिनी व चंद्रगुप्त के प्रणय प्रसंग का वर्णन किया है और चंद्रगुप्त के बड़े भाई रामगुप्त की कायरता प्रस्तुत की है। "मुद्राराक्षस' में संघर्षमय राजनीतिक जीवन की कथा कही गयी है तथा चाणक्य, चंद्रगुप्त व राक्षस के चरित्र को नाटक का वर्ण्य विषय बनाया गया है।
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"मुद्राराक्षस" की प्रस्तावना में अपने बारे में जो लिखा है, वही इनसे संबंधित विवरण का प्रामाणिक आधार है। तदनुसार ये सामंत वटेश्वरदन के पौत्र थे, और इनके पिता का नाम पृथु था । पृथु को "महाराज" की उपाधि प्राप्त थी तथा इनके पितामह सामंत थे किंतु इन व्यक्तियों का विवरण अन्यत्र प्राप्त नहीं होता। इनके समय निरूपण के बारे में भी विद्वानों में मतैक्य नहीं है। "मुद्राराक्षस" के भरतवाक्य में चंद्रगुप्त का उल्लेख है, पर कतिपय प्रतियों में चंद्रगुप्त के स्थान पर दंतिवर्मा, अवंतिवर्मा व रंतिवर्मा का नाम मिलता है। विद्वानों का अनुमान है कि संभवतः अवंतिवर्मा मौखरी-नरेश हों, जिनके पुत्र ने हर्ष की बहन से विवाह किया था । इन्हें काश्मीर- नरेश भी माना गया है, जिनका समय 855-883 ई. तक है । याकोबी " मुद्राराक्षस" में उल्लिखित ग्रहण का समय, ज्योतिष गणना के अनुसार, दिनांक 2 दिसंबर 860 ई. मानते
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हैं। याकोबी का यह मत है कि राजा के मंत्री शूर द्वारा इस ग्राम। ये कुछ काल नवानगर के जाम शत्रुशाल्य के आश्रय नाटक का अभिनय कराया गया था पर इसके संबंध में कोई में रहे। वहां इन्होंने "शत्रुशल्यचरित" नामक महाकाव्य रथा। प्रमाण प्राप्त नहीं होता। डा. काशीप्रसाद जायसवाल, स्टेन बाद में मेवाड के रावलवंशी राजा जगत्सिंह के आश्रय में कोनो और एस. श्रीकंठ शास्त्री ने विशाखदत्त को चंद्रगुप्त रहकर उनकी प्रशंसा में “जगत्प्रकाश" नामक 14 सर्गों का द्वितीय का समकालीन माना है। (समय- 375-413 ई.)। काव्य रचा। चापेंटियर इन्हें अंतिम गुप्तवंशियों में से समुद्रगुप्त का समकालीन "कोशकल्पतरु" इनका प्रमुख ग्रंथ है जो विभिन्न विषयों मानते हैं। कीथ के अनुसार इसका समय ई. 9 वीं शती एवं वर्गों का कोश है। प्रथम खंड में परमात्मवर्ग, स्वर्ग-वर्ग, है। चंद्रगुप्त को गुप्तवंशी राजा मानने वाले कोनो, इन्हें व्योम-वर्ग, कलावर्ग, धीवर्ग व नाट्यवर्ग आदि प्रकरण हैं। कालिदास का कनिष्ठ समसामयिक मानते हैं।
दूसरे खंड में वनौषधि वर्ग की चर्चा है जिसमें वन-उपवन, "दशकरूपक" व "सरस्वतीकंठाभरण' में "मुद्राराक्षस" के । फल-फूल, औषधियों आदि की जानकारी दी गयी है। उद्धारण प्राप्त होते हैं। इन दो ग्रंथों का रचना काल ई. 10 विश्वनाथ कविराज - उत्कल के प्रतिष्ठित पंडित-कुल में वीं या 11 वीं शती है। अतः "मुद्राराक्षस" का स्थितिकाल जन्म। पिता-चंद्रशेखर, जिन्होंने "पुष्पमाला" व "भाषार्णव" ई. 9 वीं शती से पूर्व निश्चित होता है।
नामक ग्रंथों का प्रणयन किया था। उनके इन ग्रंथों का संप्रति विद्वानों का बहुसंख्यक समुदाय, विशाखदत्त का उल्लेख "साहित्य-दर्पण" में है। इनके पिता विद्वान्, कवि व समय छठी शती का उत्तरार्ध स्वीकार करने के पक्ष में हैं। सांधिविग्रहिक थे। नारायण नामक विद्वान् इनके पितामह या "मुद्राराक्षस' की रचना, विशाखदत्त ने छठी शती के अंतिम वृद्धपितामह थे। इनका समय 1200 ई. से लेकर 1350 ई. चरण में और कन्नोज के मौखरी-नरेश अवंतिवर्मा की हूणों के मध्य है, क्योंकि इनके साहित्य-दर्पण में (4-4) जिस पर प्राप्त विजय के उपलक्ष्य में की थी। वास्तव में समस्त अलावदीन नृपति का वर्णन है, उस दिल्ली के बादशाह संस्कृत नाट्य-साहित्य में केवल विशाखदत्त ही एक ऐसा अल्लाउद्दीन खिलजी का समय 1296 ई. से 1316 ई. तक था। नाटककार है जिसने परंपरागत रूढियों का सम्मान नहीं किया।
ये कवि, नाटककार व सफल आचार्य थे। इन्होंने उसने समस्त सैद्धान्तिक परंपरागत रूढियों का उल्लंघन किया है।
राघव-विलास (संस्कृत महाकाव्य) कुवलयाश्वचरित (प्राकृत विश्वक कार्ष्णि - ऋग्वेद के आठवे मंडल के 86 वें
काव्य), प्रभावती-परिणय व चंद्रकला (नाटिका), सूक्तों के द्रष्टा। इसमें अश्विनीकुमार की स्तुति जगती छंद में
प्रशस्ति-रत्नावली काव्यप्रकाश-दर्पण (काव्य-प्रकाश की टीका) की गयी है। विश्वक, कृष्ण आंगिरस के पुत्र थे, अतः इन्हें
व साहित्य दर्पण नामक ग्रंथों का प्रणयन किया था। इनकी कार्ष्णि कहा जाने लगा। ऋग्वेद में इस बात का उल्लेख
कीर्ति का स्तम्भ, एकमात्र साहित्यदर्पण ही है, जो सभी अलंकार आया है कि अश्विनीकुमार की कृपा से ही ये अपने खोये
शास्त्रविषयक प्रमुख ग्रंथों में है। इस पर चार टीकाएं लिखी हुए पुत्र विष्णापु को पुनः पा सके।
गई हैं। कविराज (महापात्र) विश्वनाथ, रसवादी आचार्य हैं। विश्वकर्मा शास्त्री - पिता-दामोदर विज्ञ। पितामह-भीमसेन।।
इन्होंने रस को ही काव्य की आत्मा माना है और उसका रचना-प्रक्रियाव्याकृतिः (प्रक्रियाकौमुदी की टीका)।
स्वतंत्र रूप से विवेचन किया है। विश्वनाथ - ई. 17 वीं शती। रचना- "न्यायसूत्रवृत्तिः” (गौतम
विश्वनाथ चक्रवर्ती - ई. 17 वीं सदी का उत्तरार्ध व 18 के न्यायसूत्र की टीका)।
वीं सदी का प्रथम चरण! गौडीय वैष्णवों के अवांतरकालीन विश्वनाथ - त्रिमालदेव का पुत्र । ई. 18 वीं शती। आन्ध्र आचार्यों में प्रधानतम। गौडीय षट्गोस्वामियों के तिरोधान के प्रदेश के गोदावरी जिले के निवासी। जीवन का अधिक काल पश्चात ब्रजधाम की महिमा को अक्षण्ण बनाये रखने का श्रेय काशी में व्यतीत किया। रचना- मृगाङ्कलेखा।
श्री. चक्रवर्ती को प्राप्त है। इन्होंने तपस्या एवं ग्रंथ-निर्माण विश्वनाथ - (1) ई. 16 वीं शती के एक टीकाकार । तैत्तिरीय द्वारा परंपरा के सूत्र को विच्छिन्न होने से बचाया। शाखा के भारद्वाज गोत्री ब्राह्मण व गोलग्रामस्थ दिवाकर के बंगाल में जन्म तथा शिक्षित। विश्वनाथ ने वैराग्य धारण पुत्र। इन्होंने सूर्यसिद्धान्त पर उदाहरणरूप अनेक टीकाएं लिखी कर वृंदावन को अपना साधनास्थल बनाया और वहीं राधाकुंड हैं। इनके 18 टीकाग्रंथ हैं। इनमें कुछ नाम हैं : गहनप्रकाशिका के समीप रह कर अपने अधिकांश ग्रंथों का प्रणयन किया। टीका, सिद्धान्तशिरोमणि टीका, करणकुतूहल टीका, मकरंद ___षट्गोस्वामियों द्वारा विरचित ग्रंथ, सामान्य जनों की समझ के टीका, ग्रहलाघवटीका, पातसारणी टीका और सामतंत्र-प्रकाशिका बाहर थे। विश्वनाथ ने उन पर टीकाएं लिख कर, उन्हें टीका।
सरल-सुबोध बनाया। इनके द्वारा प्रणीत टीकाएं बहुमूल्य हैं। ___ (2) ई. 17 वीं शती के एक संस्कृत कोशकार। इन्होंने इन्होंने अपनी भागवत टीका का रचनाकाल टीका के अंत में अत्रि गोत्री ब्राह्मण कुल में जन्म लिया। जन्मस्थान- देवलपट्टण दिया है। तदनुसार इस टीका का निर्माण काल है 1626
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शक (= 1704 ई.)। एक प्राचीन ग्रंथ में इनका प्रकट-काल शकाब्द 1565 से लेकर 1652 शक है। यदि यह निर्देश प्रामाणिक हो, तो विश्वनाथजी 87 वर्षों तक जीवित रहे। जो कुछ भी हो, किंतु इनकी भागवत-टीका, इनकी प्रौढ अवस्था की रचना अवश्य है। फलतः इनका स्थितिकाल, ई. 17 वीं सदी का उत्तरार्ध एवं 18 वीं सदी का प्रथम चरण मानना उचित प्रतीत होता है।
इनकी भागवत की टीका का नाम है- सारार्थ-दर्शिनी।। बलदेव विद्याभूषण इनके पट्ट शिष्य थे जिन्होंने वैष्णवानंदिनी नामक भागवत-टीका का प्रणयन किया। अन्य कृतियां- श्रीकृष्ण-भावनामृत, निकुंज-केलिबिरुदावली, गौरांग-लीलामृत, च चमत्कार-चन्द्रिका, आनन्द-चन्द्रिका नामक टीका (उज्ज्वल-नीलमणि पर) तथा अलंकारकौस्तुभ पर सारबोधिनी नामक टीका। विश्वनाथ पंचानन (भट्टाचार्य) - समय ई. 17 वीं शती। वैशोषिक दर्शन के प्रसिद्ध वंगदेशीय आचार्य । नवद्वीप (बंगाल) के नव्यन्याय-प्रवर्तक रघुनाथ शिरोमणि के गुरु वासुदेव सार्वभौम के अनुज रत्नाकर विद्यावाचस्पति के पौत्र। पिता-काशीनाथ विद्यानिवास, जो अपने समय के प्रसिद्ध विद्वान् थे। विश्वनाथ पंचानन ने न्यायवैशोषिक पर दो ग्रंथों की रचना की है; भाषापरिच्छेद व न्यायसूत्रवृत्ति। भाषापरिच्छेद, वैशेषिक दर्शन का अत्यधिक लोकप्रिय ग्रंथ है। "भाषापरिच्छेद" पर दिनकरी, रामरुद्री, मंजूषा आदि टीकाएं प्रसिद्ध हैं। "न्यायसूत्रवृत्ति" की रचना 1631 ई. हुई थी। इसमें न्यायसूत्रों की सरल व्याख्या प्रस्तुत की गई है।
अन्य रचनाएं- अलंकारपरिष्कार, नवाद - टीका, पदार्थ-तत्त्वालोक, न्यायतंत्रबोधिनी, सुबर्थतत्त्वालोक (व्याकरणशास्त्र) और पिंगलप्रकाश (छंदःशास्त्र) । विश्वनाथ मिश्र - ई. की 20 वीं शती। एम.ए. तथा आचार्य । पूर्वी उ.प्र. के निवासी। शार्दूल विद्यापीठ (बीकानेर) में प्राचार्य। कृतियां- कलिकौतुक, वामनविजय (एकांकी) तथा कविसम्मेलन (बालोचित लघु प्रहसन)। विश्वनाथ सत्यनारायण (पद्मभूषण) - समय- ई. 20 वीं शती। जन्म नन्दमुरू ग्राम। जिला कृष्णा, आन्ध्र प्रदेश में । पिता- विश्वनाथ शोभनाद्रि । शिक्षा-एम.ए. साहित्यशास्त्र आचार्य । तेलगु में रचिंत "श्रीरामायण-कल्पवृक्ष" पर ज्ञानपीठ पुरस्कार । इनके "वेयि पदगल्लु' उपन्यास पर मद्रास वि.वि. द्वारा पुरस्कार । "कवि-सम्राट' की उपाधि से अलंकृत। आन्ध्र प्रदेश शासन के आजीवन राजकवि। गुण्टूर में प्रथम तेलगु पण्डित, बाद में व्याख्याता। अन्त में करीमनगर महाविद्यालय के प्राचार्य। “पद्मभूषण' की उपाधि से विभूषित ।
कृतियां- गुप्तपाशुपत तथा अमृतशर्मिष्ठा नामक दो संस्कृत नाटक। तमिल में इनकी शताधिक रचनाएं हैं।
विश्वनाथ सिद्धान्तपंचानन - ई. 18 वीं शती। विद्यानिवास भट्टाचार्य के पुत्र। बंगालनिवासी। सूक्ति-मुक्तावली नामक सुभाषित-संग्रह के कर्ता। विश्वनाथसिंह - बघेल वंशीय रीवा-नरेश। 19 वीं शती। रचना-रामचन्द्राह्निकम् (सटीक)। विश्वमनस् वैयश्व - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 23 से 26 तक के चार सूक्तों की रचना इनके नाम है। व्यश्व के पुत्र होने के कारण वैयश्व यह नाम पैतृक रूप से मिला। ये इन्द्र के मित्र हैं। इन्होंने धनप्राप्ति के लिये वरोसुषामन् से प्रार्थना की है किन्तु सयाणाचार्य के मतानुसार वरोसुषामन् किसी व्यक्ति का नाम नहीं।
अपने उक्त चार सूक्तों में इन्होंने क्रमशः अग्नि, इन्द्र, मित्रवरुण व अश्विनौ की स्तुति की है। 24 वें सूक्त में इन्होंने कहा है कि मनुष्य के शरीर में 9 प्राण और 10 वां आत्मारूपी इन्द्र वास करते हैं। सप्तसिन्धु प्रदेश का उल्लेख भी इसी सूक्त में है। विश्ववारा - एक वैदिक सूक्तद्रष्टा। ऋग्वेद के पांचवे मंडल का 28 वां सूक्त इनके नाम पर है। सूक्त में अग्नि की महिमा गायी है। विश्वसामन् आत्रेय - एक सूक्तद्रष्टा । अत्रिकुल में उत्पन्न होने के कारण आत्रेय कहा गया है। ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 22 वें सूक्त के द्रष्टा। सूक्त का विषय है अग्निस्तुति। विश्वामित्र - ऋग्वेद के तीसरे मंडल के द्रष्टा । इनका जीवन चरित्र बडा अद्भुत रहा है। वर्षानुवर्ष कठोर तपश्चर्या करने वाले, त्रिशंकु को सदेह वर्ग भेजने की जिद करने वाले, प्रतिसृष्टि निर्माण करने वाले, बलि चढाने के लिये लाये गये शुनःशेप को मुक्त कर अपनी गोद में बिठाने वाले, वसिष्ठ के शतपुत्रों की हत्या करने वाले, दक्षिणा के लिये हरिश्चन्द्र-तारामती को सताने वाले, ऐसे नानाविध रूपों में विश्वामित्र का जीवन-चित्र प्रस्तुत किया जाता है। इनमें से कुछ घटनाएं वैदिक तथा कुछ पौराणिक हैं। वेदों में उपलब्ध जानकारी के अनुसार विश्वामित्र का जन्म क्षत्रियकुल में कान्यकुब्ज (कनोज) देश में हुआ। ये अमावसु-वंश के कुशिक राजा के पोते तथा गाथी के पुत्र थे। इनका जन्म नाम विश्वरथ था। जब ये क्षत्रिय से ब्राह्मण बने तब इन्हें “विश्वामित्र" कहा जाने लगा।
सुदास् राजा ने जब वसिष्ठ के स्थान पर इन्हें राजपुरोहित बनाया तो वसिष्ठ ने इसे अपना अपमान समझा और उसी दिन से वसिष्ठ और विश्वामित्र के बीच वैमनस्य पैदा हो गया। वसिष्ठ के पुत्र शक्ति ने पिता के अपमान का बदला लेने की ठानी और सुदास द्वारा आयोजित यज्ञा-प्रसंग पर हुए वादविवाद में शक्ति ने विश्वामित्र को पराजित किया, किन्तु विश्वामित्र ने जमदग्नि से प्राप्त ससर्परी-विद्या का सहारा लेकर
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शक्ति को परास्त किया और अंत में सुदास की हत्या करवा दी।
वसिष्ठ से वैमनस्य के सन्दर्भ में विश्वामित्र ने कुछ ऋचाएं। लिखी हैं जो "वसिष्ठद्वेषिणी" के नाम से जानी जाती हैं। वसिष्ठ गोत्री जन इन ऋचाओं का पाठ नहीं करते। दुर्गाचार्य नामक वसिष्ठ-गोत्री भाष्यकार ने ऋग्वेद के अपने भाष्य में उन ऋचाओं को अछूत छोड दिया।
विश्वामित्र को अपने कर्तृत्व का अभिमान था। एक ऋचा में उनका यह अभिमान झलकता है "विश्वामित्रस्य रक्षति ब्रह्मेदं भारतं जनम्" - अर्थात् विश्वामित्र का यह ब्रह्म (याने सूक्त) ही भारतजनों की रक्षा कर रहा है।
इनके 100 पुत्र थे, जिनमें से आधे पुत्रों को अपनी आज्ञा की अवहेलना करने पर इन्होंने शाप दिया जिससे वे आगे चल कर दस्यु जमात के जनक बने। शुनःशेष को बलिवेदी से मुक्त कराने की गाथा से यह ध्वनित होता है कि विश्वामित्र नरबलि के विरुद्ध थे।
महाभारत और पुराणों में वर्णित विश्वामित्र सम्बन्धी अनेक घटनाओं को विद्वज्जन अतिशयोक्तिपूर्ण मानते हैं।
(2) एक धर्मशास्त्री। याज्ञवल्क्य ने धर्मशास्त्रियों की अपनी सूची में इनका नामोल्लेख किया है तथा अपरार्क, स्मृतिचन्द्रिका, कालविवेक आदि ग्रंथों में इनके अनेक श्लोक उद्धरित किये गये हैं। ये श्लोक पंचमहापातक, श्राद्ध, प्रायश्चित्त आदि विषयों से सम्बन्धित हैं। इनकी धर्म सम्बन्धी व्याख्या इस प्रकार है :
यमार्याः क्रियमाणं तु शंसन्त्यागमवेदिनः।
स धर्मों यं विगर्हन्ति तमधर्म प्रचक्षते ।। अर्थात् वेदवेत्ता आचार्य जिन कृत्यों की प्रशंसा करते है। उन्हें धर्म तथा जिनकी निंदा करते है उन्हें अधर्म कहते है। इनकी एक अन्य स्मृति श्लोकबद्ध है जिसके 9 अध्याय है। विश्वास भिक्षु - ई. 14 वीं शती। काशी में निवास । सांख्य-प्रवचन-भाष्य, सांख्यसार, योगवार्तिक, योगसारसंग्रह, ब्रह्मसूत्रभाष्यविज्ञामृत, ब्रह्मादर्श, पाखण्डमत-खंडन, श्वेताश्वेतरोपनिषद्भाष्य आदि ग्रंथों की रचना आपने की। अपने ग्रंथों में आपने शंकराचार्यजी के अनुयायियों को पाखंडी कहा है और उनके अद्वैत वेदान्त मत का खंडन भी किया है। विश्वेश्वर कवि - 18 वीं शती। अल्मोडा के निवासी। रचनाएं- रुक्मिणी-परिणय व नवमालिका नामक दो रूपक। विश्वेश्वर तर्काचार्य - कातन्त्र व्याकरण की पंजिका नामक व्याख्या के लेखक। इसके अलावा जिन प्रभासूरि, रामचंद्र
और कुशल की पंजिका-व्याख्या अप्राप्य है। विश्वेश्वर दयालु • ई. 20 वीं शती। इटावा (उ.प्र.) के निवासी। चिकित्सक-चूडामणि। “अनुभूत-योगमाला' पत्रिका के सम्पादक। वैद्य सम्मेलन में प्रायः अध्यक्षपद प्राप्त । मुकुन्दलीलामृत तथा प्रसन्नहनुमन्नाटक के प्रणेता। एक ख्यातनाम देशभक्त।
विश्वेश्वरनाथ रेऊ (म.म.) - जोधपुर के निवासी। इन्होंने विश्वेश्वर-स्मृति एवं आर्यविधान आदि धर्मशास्त्रविषयक ग्रन्थों की रचना की है। विश्वेश्वर पाण्डेय - समय- ई. 18 वीं शती का प्रारंभिक काल। "अलंकारकौस्तुभ", "व्याकरणसिद्धांतसुधानिधि" आदि प्रौढ ग्रंथों के प्रणेता। 15 वर्षों की अवस्था में काव्यरचना प्रारंभ। उत्तरप्रदेश के अंतर्गत अल्मोडा जिले के पटिया नामक ग्राम के निवासी। पिता-लक्ष्मीधर । व्याकरण-सिद्धान्त -सुधानिधि इनका उल्लेखनीय ग्रंथ है। न्यायशास्त्र पर इन्होंने "तर्ककुतूहल" व “दीधिति-प्रवेश" नामक ग्रंथों की रचना की है। साहित्य-शास्त्रविषयक इनके 5 ग्रंथ हैं - अलंकारकौस्तुभ, अलंकारमुक्तावली, अलंकारप्रदीप, रसचंद्रिका व कवींद्रकंठाभरण (चित्रकाव्य)। इनका अलंकार कौस्तुभ ग्रंथ एक असाधारण रचना है, जिस पर इन्होंने स्वयं ही टीका लिखी थी जो रूपकालंकार तक ही प्राप्त होती है। ये एक अच्छे कवि भी थे। इन्होंने अलंकारों पर अनेक स्वरचित सरस उदाहरण अपने ग्रंथों में दिये हैं। मृत्यु के समय इनकी आयु 40 से कम थी। अन्य रचनाएं- (उपलब्ध) - आर्यासप्तशती, (चित्रकाव्य), नवमालिका (नाटिका), नैषधीय टीका, मन्दारमंजरी (गद्य), रस-चंद्रिका, रस-मंजरी (टीका), रोमावलीशतक, लक्ष्मी-विलास, वक्षोजशतक, शृंगारमंजरी (सट्टक), होलिकाशतक (विनोदप्रधान काव्य), काव्यरत्न, रुक्मिणी-परिणयम् (नाटक) आदि । अनुपलब्ध ग्रंथ - काव्यतिलक, तत्त्वचिन्तामणि-दीधिति-प्रवेश, तर्ककुतूहल, तारासहस्रनाम-व्याख्या, षड्ऋतुवर्णन और अलंकार-कुलप्रदीप । विश्वेश्वर पंडित - काश्मीरी। रचनाएं - स्कन्दास्तिप्रश्नाः (दर्शन शास्त्र) और रणवीर-ज्ञानकोश।। विश्वेश्वर भट्ट - ई. 14 वीं शती के एक धर्मशास्त्री। ये कौशिक गोत्री पेलिभट्ट के पुत्र थे। माता-अंबिका । गुरु-व्यासारण्य मुनि। द्रविड प्रदेश के वासी। विज्ञानेश्वर की मिताक्षरा पर "सुबोधिनी" नामक भाष्य ग्रंथ लिखा। फिर विश्वेश्वर ने उत्तर की ओर प्रयाण किया। यमुनातटवर्ती प्रदेश के मदनपाल नामक काष्ट-परिवार के राजा ने इन्हें आश्रय दिया। यहां इन्होंने मदनपारिजात, तिथि-निर्णय-सार और स्मृति-कौमुदी नामक ग्रंथों की रचना की।
मदनपारिजात के 9 स्तबक हैं जिनमें ब्रह्मचर्य, गृहस्थधर्म, नित्यकर्म, गर्भाधान से आगे के संस्कार, जनन मरण शोध, शुद्धि-क्रिया, श्राद्ध, दायभाग व प्रायश्चित्त का विवेचन है। स्मृति-कौमुदी के चार कल्लोल हैं जिनमें शूद्र के धर्म, कर्तव्य, आचार आदि का विवेचन है। विश्वेश्वर विद्याभूषण - चट्टाला नगरी (बंगाल) के निवासी। पिता-कृष्णकान्त कविरत्न। माता-कुसुमकामिनी देवी। कुलगुरुश्रीमन्महेशचंद्र भट्टाचार्य । चट्टल संस्कृत महाविद्यालय से शिक्षा प्राप्त। वहीं अध्यापक। पश्चिम बंगशिक्षाधिकार सेवा के
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प्राध्यापक के रूप में सेवानिवृत्त । सेवानिवृत्ति के पश्चात् हगली का प्रचार किया। में निवास। अभिनय में रुचि। बंगला और संस्कृत के कई ____ आवश्यक प्रमाणों के अभाव में विष्णुस्वामी के देश और नाटकों में अभिनय। कलकत्ता आकाशवाणी से कई रचनाएं काल की निश्चिति अभी तक नहीं हो पाई। वैष्णव-संप्रदाय प्रसारित।
में प्रसिद्धि है कि विष्णुस्वामी द्रविड प्रदेश के किसी क्षत्रिय कृतियां - वनवेणु (गीतिकाव्य), मणिमालिका (कथा), राजा के ब्राह्मण-मंत्री के सुपुत्र थे। वाल्य-काल से ही इनकी काव्यकुसुमांजलि तथा गंगासुर-तरंगिणी (खण्डकाव्य) तथा 15 प्रवृत्ति अध्यात्म की ओर उन्मुख थी। इन्होंने उपनिषदों का नाटक : दस्यु-रत्नाकर, भरत-मेलन, वाल्मीकि-संवर्धन, केवल पारायण ही नहीं किया था अपि तु उनमें वर्णित तथ्यों चाणक्यविजय, प्रबुद्ध-हिमाचल, विष्णुमाया, राजर्षि-भरत, को अपने व्यावहारिक जीवन में कार्यान्वित करने की उनमें उमा-तपस्विनी, ओंकारनाथ-मंगल, द्वारावती, मातृपूजन, दृढ अभिलाषा थी। अंतर्यामी परमात्मा का साक्षात्कार करने उत्तर-कुरुक्षेत्र, राजर्षि सुरथ, काशी-कोशलेश, अरुणाचल-केतन । की उनके हृदय में तीव्र इच्छा थी। उपनिषद् धर्म के अनुसार इनमें से दस्युरत्नाकर तथा भरत-मेलन की रचना में ध्यानेश उपासना के सफल न होने पर उन्होंने अन्न-जल-ग्रहण करना नारायण चक्रवर्ती से सहयोग प्राप्त । बंगला कृतियां- पद्मपुट बंद कर दिया। सातवें दिन उनका हृदय दिव्य ज्योति से भर और पुष्पराग।
उठा। उन्हें किशोर मूर्ति श्री श्यामसुंदर के दिव्य दर्शन हुए। विश्वेश्वर सूरि - समय- ई. 17 वीं शती। अष्टाध्यायी पर पश्चात् बालकृष्ण ने स्वयं उपदेश दिया कि मेरी प्राप्ति का "व्याकरण-सिद्धान्त-सुधानिधि" नामक विस्तत व्याख्या के लेखक।। सर्वाधिक सुलभ उपाय है भक्ति । आदि के तीन अध्याय उपलब्ध। पिता-लक्ष्मीधर। केवल इस प्रकार विष्णु स्वामी की उपासना फलवती हुई। उन्होंने 32-34 वर्ष की आयु में मृत्यु। अन्य रचनाएं- तर्ककौतूहल, भगवान् श्रीकृष्ण की बालमूर्ति का निर्माण करा कर उसकी अलंकार-कौस्तुभ, रुक्मिणी-परिणय, आर्यासप्तशती, प्रतिष्ठापना की और अपने अनुयायियों को भक्ति की विमलसाधना अलंकारकुलप्रदीप और रसमंजरी टीका।
का उपदेश दिया। इस मत के सात सौ आचायों की बात विष्णुदत्त शुक्ल "वियोगी" - जन्म 1895 ई. में। इन्होंने सुनी जाती है, जिनमें आचार्य बिल्वमंगल एक महान् उपदेशक "गंगा" व "सौलोचनीय" नामक दो काव्य ग्रंथ लिखे हैं। हुए। जिस समय वल्लभाचार्य उपदेश की कामना से साशंक-चित्त "गंगा' 5 सौ में रचित खण्डकाव्य है। "सौलोचनीय" का हो रहे थे, तब आचार्य बिल्व मंगल ने उन्हें विष्णुस्वामी की प्रकाशन 1958 ई. में वाणी-प्रकाशन, 21/1, कस्तूरबा गांधी शरण में जाने का उपदेश दिया था। मा: कमपुर से हुआ है। इसमें रावण-पुत्र मेघनाद की पत्नी विष्णुस्वामी के संप्रदाय में त्रिलोचन, नामदेव तथा ज्ञानदेव सुलोच का वृत्त वर्णित है। इसमें इन्होंने आधुनिक शैली (संत ज्ञानेश्वर) आदि विख्यात संतों की गणना नाभादास ने का अनुगमन किया है।
की है तथा आचार्य वल्लभ ने इसी मार्ग का अनुसरण कर विष्णुदास कवि - समय- ई. 15 वीं शती। "मनोदूत" अपना शुद्धाद्वैतमूलक पुष्टिमार्ग चलाया। यह कथन ऐतिहासिक नामक संदेश-काव्य के रचयिता। ये चैतन्य महाप्रभु के मातुल । दृष्टि से विचारणीय है। कुछ विद्वान्, वेद-भाष्य के कर्ता कहे जाते हैं। विषय व भाषा की दृष्टि से इनका "मनोदूत" आचार्य सायण तथा माधवाचार्य के विद्या-गुरु विद्याशंकर को काव्य एक उत्कृष्ट कृति के रूप में समादृत है। विष्णुदास ही विष्णुस्वामी मानते हैं किन्तु सायणाचार्य का समय, चतुर्दश की दूसरी कृति है : “कवि-कौतूहल" जो काव्यशास्त्रीय ग्रंथ है। शतक का मध्य भाग है। अतः उनके गुरु का समय, 14 विष्णुपद भट्टाचार्य - बंगाल के भट्टपल्ली, (भाटपाडा),
वें शतक का आरंभ-काल अथवा 13 वें शतक का अंतिम जिला चौबीस परगना के निवासी। म.म. राखालदास न्यायरत्न
काल हो सकता है। विद्याशंकर तथा विष्णुस्वामी की अभिन्नता, के पोते। पिता-हरिचरण विद्यारत्न । कृतियां- कांचुकुंचिक,
प्रमाणों से पुष्ट नहीं की जा सकती। अनुकूल-गलहस्तक, धनंजय-पुरंजय, मणिकांचन समन्वय आदि विष्णु स्वामी का काल-निर्णय करते समय डा.रामकृष्ण कतिपय रूपक। मृत्यु - फरवरी 1964 में।
भांडारकर ने नाभाजी के एक छप्पय के आधार पर, उसे 13 विष्णुमित्र - व्याकरण महाभाष्य पर क्षीरोदक नामक टिप्पणी
__ वें शतक का आरंभकाल माना है। के लेखक। यह टिप्पणी अप्राप्य है।
भारत के धार्मिक इतिहास में अतीव महत्त्वपूर्ण भूमिका के विष्णुशास्त्री - भारत की विख्यात धनी विष्णुखामी के व्यक्तित्व, देश और काल की समस्या को 'वैष्णव-संप्रदाय- चतुष्टयी' में, वल्लभ संप्रदाय, रुद्र-संप्रदाय सुलझाने के अभिप्राय से कुछ विद्वानों ने एकाधिक विष्णु के नाम से विख्यात है। इस संप्रदा। के मुख्य प्रवर्तक थे स्वामी होने की कल्पना की है, कतिपय आलोचकों की सम्मति विष्णुस्वामी, तथा इसके मध्ययुगी प्रतिनिधि थेग गर्य वल्लभ, में कम-से-कम तीन विष्णुस्वामी का उल्लेख मिलता है- (1) जिन्होंने विष्णुस्वामी की गद्दी पर आरूढ होकर उनके सिद्धांत देवतनु विष्णुस्वामी (300 ई.पू.) जो मथुरा में रहते थे। पिता
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का नाम देवेश्वर भट्ट था। इन विष्णु स्वामी के 700 वैष्णव त्रिदंडी संन्यासी, उनके मत का प्रचार करते थे, (2) कांचीनिवासी, राजगोपाल विष्णुस्वामी (जन्म 830 ई.) जिन्होंने विष्णु कांची में राजगोपाल देवजी अथवा वरदराजजी की प्रसिद्ध मूर्ति की प्रतिष्ठापना की। आचार्य बिल्वमंगल इन्हीं के शिष्य थे, और (3) विष्णुस्वामी, जो आचार्य वल्लभ के उपदेष्टा पूर्वपुरुष थे। अतः इस तथ्य का निर्णय नहीं हो पाता कि विष्णुस्वामी का वास्तविक व्यक्तिमत्व, देश और काल क्या था।
विष्णु स्वामी की ग्रंथ-संपदा विपुल बतलाई जाती है, परंतु इनमें 'सर्वज्ञसूक्त' ही एकमात्र ऐसी रचना है, जो प्रमाण-कोटि में स्वीकृत की गई है। श्रीधर स्वामी ने अपनी रचनाओं में इसका अत्यधिक उपयोग किया है। श्रीधरी (टीका) में विष्णुस्वामी के कतिपय सिद्धांतों का भी आभास मिलता है। विष्णुस्वामी के ईश्वर सच्चिदानंद-स्वरूप हैं और वे अपनी 'ह्लादिनी संवित्' के द्वारा आश्लिष्ट हैं तथा माया उन्हीं के आधीन रहती है। ईश्वर का प्रधान अवतार नृसिंह-रूप बतलाया गया है। कुछ लोग विष्णु स्वामी को नृसिंह ओर गोपाल दोनों का उपासक मानते हैं। भागवत की श्रीधरी टीका से यह तथ्य स्पष्टतः विदित होता है कि ऐसी अवस्था में श्रीधर स्वामी को भी विष्णुस्वामी-मत का अनुयायी माना जा सकता है। विहारकृष्ण दास - ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध । बंगाली। कृतियां- पारसिक-प्रकाश (संस्कृत- फारसी भाषा कोश)। वीतहव्य आंगिरस - ऋग्वेद के छठे मंडल के पंद्रहवें सूक्त । के द्रष्टा। वीरनन्दी - नंदिसंघ देशीयगण के जैन आचार्य । गुरु-अभयनंदी। समय 950-999 ई.। इन्होंने 'चंद्रप्रभचरित' नामक महाकाव्य की रचना की है, जिसमें 18 सर्ग हैं और उनमें 7 वें जैन तीर्थकर चन्द्रप्रभ का जीवन चरित्र वर्णित है। इस महाकाव्य के 1697 पद्य हैं, धर्म, दर्शन, आचार आदि की दृष्टियों से भी यह सुरस महाकाव्य समृद्ध है। वीरनन्दी (सिद्धान्त चक्रवर्ती) - मूलसंध देशीयगण के आचार्य मेघचन्द्र विद्यदेव के पुत्र और शिष्य। कर्नाटकवासी। प्रमुख शिष्य प्रभाचन्द्र, जिन्होंने गंगराज द्वारा मेधचन्द्र की निषद्या का निर्माण कराया था। समय- ई. 12-13 वीं शती। ग्रंथ-आचारसार । इसमें 12 अधिकारों में मुनियों के आचार-विचार का वर्णन किया गया है। वीरनन्दी की ही इस ग्रंथ पर कन्नड-टीका उपलब्ध है। इस ग्रंथ को जैन विद्वानों ने शिरोधार्य माना है। अन्य शिष्य- अभिनव पम्प (नामचन्द्र)। यह वीरनंदी चन्द्रप्रभचरित्र के कर्ता वीरनंदी से भिन्न हैं। वीरनंदी ने न्याय, साहित्य तथा व्याकरण का गहरा अध्ययन किया था। वीरभट्टदेशिक - काकतीय भूपति रुद्रदेव के आश्रित । रचनानाट्यशेखर (सन 1160 में)।
वीरभद्रदेव - "कंदर्प-चूडामणि' नामक काव्य के रचयिता। इसकी रचना इन्होंने 1577 में की थी। इनके जीवन-चरित्र पर पद्मनाम मिश्र ने 'वीरभद्रसेन-चंपू' का प्रणयन किया था। ये महाराज रीवा-नरेश रामचंद्र के पुत्र थे। वीरभद्रय्या - तंजौर निवासी। समय- ई. 1735 से 18171 अपने समय के उत्कृष्ट संगीतज्ञ। रचना- तालमालिका। वीरराघव - जन्म 1820, मृत्यु- 1882 ईसवी। तंजौर के महाराज शिवेन्द्र (1835-1865) (शिवाजी) की राजसभा में सम्मानित। कौण्डिन्यगोत्री। कृतियां- रामराज्याभिषेक नाटक (अपूर्ण), वल्लीपरिणय नाटक, रामानुजाष्टक काव्य तथा अन्य सात रचनाएं। वीरराघव - मैसूरनिवासी। जन्म- मद्रास के चिंगलपेट जिले के भूसुरपुरी (तिरूमलिसाई) ग्राम में सन् 1770 ई. में । दाशरथिवंशीय । पिता- नरसिंह सूरि । कृतियां- मलयजाकल्याण नाटिका, उत्तररामचरित् टीका, महावीरचरित् टीका, भक्तिसारोदय काव्य तथा कई दार्शनिक ग्रंथ। वीरराघवाचार्य - पिता- श्रीशेल गुरु। पितामह- अहोबिल। अपनी विद्वत्ता के कारण इनके पिता "अखिल-विद्या-जलनिधिः' की उपाधि से मंडित थे। इन्होंने अपने इन विद्वान् पिता से ही महाभारत, पुराणों एवं श्रीमद्भागवत का गंभीर अध्ययन किया था।
इन्होंने सुदर्शन सूरि की 'श्रुतप्रकाशिका' नामक श्रीभाष्यव्याख्या का नामतः उल्लेख किया है तथा श्रीधर के अद्वैती मतका बहुशः खंडन किया है। फलतः इन्हें ई. 14 वीं शताब्दी के पश्चात् का ही माना जा सकता है। उधर विश्वनाथ चक्रवर्ती ने, अपनी सारार्थदर्शिनी भागवत-टीका में इनके मत का खंडन किया है, जिनका समय ई. 17 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध माना जाता है- 1700 विक्रमी- 1789 विक्रमी (1644 ई. - 1733 ई.)। फलतः वीर राघव का समय श्रीधर एवं विश्वनाथ चक्रवर्ती के मध्य में अर्थात् 1500 ई. के आसपास होना चाहिये।
वीरराघव की भागवत-व्याख्या का नाम हैभागवत-चन्द्रचन्द्रिका। यह बडी विस्तृत व विशालकाय व्याख्या है। उसका उद्देश्य है विशिष्टाद्वैती सिद्धान्तों का भागवत से समर्थन तथा पुष्टीकरण। इस उद्देश्य की सिद्धि में वीरराघव को पर्याप्त सफलता प्राप्त हुई है। इस कार्य में उन्होंने श्रीधर के मत का बहुशः खण्डन किया है। स्पष्ट है कि सुदर्शन सूरि की लध्वक्षर टीका से संतुष्ट न होने के कारण, वीर राघव ने अपनी भागवा-चन्द्रचन्द्रिका में दार्शनिक तत्त्वों का बहुशः विस्तार किया है। इस टीकाग्रंथ की प्रामाणिकता, सांप्रदायानुशीलता एवं प्रमेयबहुलता का यही प्रमाण है कि वीर राघव की भागवत-चंद्रचंद्रिका के अनंतर किसी भी विशिष्टाद्वैती विद्वान् ने समस्त भागवत पर टीका लिखने की आवश्यकता का अनुभव नहीं किया।
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वीरसेन - ये मूलसंघ के पंचस्तूपान्वय शाखा के आचार्य थे। एलाचार्य के पास चित्रकूट (चित्तोड) में सिद्धान्त ग्रंथों का अध्ययन किया और बाद में दीक्षागुरु की आज्ञा से बाटग्राम (बडोदा) पहुंचे। वहां जिनालय में बप्पदेव द्वारा निर्मित टीका प्राप्त हुई। अनंतर उन्होंने समस्त षट्खण्डागम की 'धवला' टीका लिखी। तत्पश्चात् कषायप्राभृत की चार विभक्तियों की 'जयधवला' टीका लिखे जाने के बाद उनका स्वर्गवास हो गया। उनके शिष्य जिनसेन द्वितीय ने अवशेष जयधवलाटीका लिख कर पूरी की। यह जयधवलाटीका अमोघवर्श के काल में श.सं. 738 में समाप्त हुई। अतः वीरसेन का समय ई. 8 वीं शताब्दी है।
वीरसेन की धवला और जयधवला टीका, प्राकृत-संस्कृत मिश्रित भाषा में मणि-प्रवाल रीति से लिखी गई है। इसे विचार-प्रगल्भता और विषय की प्रौढता के कारण 'उपनिबन्धन' कहा गया है। इसमें दो मान्यताओं का उल्लेख मिलता हैदक्षिणप्रतिपत्ति (परम्परागत) और उत्तरप्रतिपत्ति (अपरपरम्परागत)। वीरसेन ने सूत्रों में प्राप्त होने वाले पारम्परिक विरोधों का समन्वय भी किया है। शैली की दृष्टि से इसमें पांच गुण समाहित हैं- प्रसादगुण, समाहारशक्ति, तर्क या न्यायशैली, पाठकशैली तथा सृजक शैली। वीरेन्द्रकुमार भट्टाचार्य - जन्म सिलहट (बंगाल) में, सन् 1917 में। उच्च शिक्षा कलकत्ता वि.वि. में। सन् 1940 में दर्शन में एम.ए.। सन 1948 में डी.लिट् । सन् 1943 से 1948 तक सेण्ट पाल कालेज (कलकत्ता) में अध्यापन । दर्शन-विभागाध्यक्ष । तदुपरान्त शासकीय सेवा में। सन् 1967 में संस्कृत में लिखना प्रारम्भ। 'साहित्य-सूरि' उपाधि से अलंकृत । कृतियां- कविकालिदास, शार्दूल-शकट, सिद्धार्थचरित, वेष्टनव्यायोग, गीतगौरांग, शरणार्थि-संवाद, शूर्पणखाभिसार, लक्षण-व्यायोग, चार्वाकताण्डव, मर्जिना- चातुर्य, सुप्रभा- स्वयंवर, मेघदौत्य और झंझावृत्त । इन नाट्य ग्रंथों के अतिरिक्त कलापिका
और उमरख्ययाम की रुबाइयों का संस्कृत अनुवाद भी आपने लिखा है। बंगाली कृतियां-ए देहमन्दिर, स्वप्नसंहार, सुरा ओ साकी, पवनदूत, रामपरिगेर, छडा और दूतीप्रणय शतक। अंग्रेजी में भी, कॅजुअॅलिटी इन सायन्स अॅण्ड फिलासॉफी और लॉजिक व्हेल्यू ऍण्ड रिएलिटी नामक दो ग्रंथ श्रीभट्टाचार्य ने लिखे। वीरेश्वर पण्डित - ई. 18 वीं शती। बंगाल के निवासी। वेणीदत्त तर्कवागीश के पिता। दो रचनाएं - "रस-रत्नावली'
और कृष्णविजयचम्पूः । वेंकट (वेंकटार्य कवि) - पिता- श्रीनिवासाचार्य । निवासस्थानसुरसिद्धिगिरि नगर। समय- ई. 17 वीं शती का अंतिम चरण या 18 वीं शती का प्रारंभ। "बाणासुर-विजय चंपू' के रचयिता। इनका चंपू-काव्य अभी तक अप्रकाशित है। वेंकट - समय- ई. 19 वीं शती। कौण्डिन्यगोत्री। पिता
वेदान्ताचार्य । 'रसिकजन- मनोल्लास' नामक भाण के रचयिता। वेंकटकवि - समय- ई. 18 वीं शती के आस-पास । पितावीरराघव। वैष्णव। 'विबुधानंद-प्रबंध-चंपू' के रचयिता। ग्रंथ के आरंभ में इन्होंने वेदांतदेशिक (महाकवि) की वंदना की है। इनका यह चंपू काव्य अभी तक अप्रकाशित है। वेंकटकृष्ण तम्पी - जन्म 1890- मृत्यु 1938 ई. । केरलनिवासी। त्रिवेन्द्रम संस्कृत कालेज में अध्यापक और प्राचार्य। कृतियांश्रीरामकृष्ण-चरित, धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः, ललिता, प्रतिक्रिया व वनज्योत्स्ना। इनके अतिरिक्त मलयालम भाषा में कतिपय पुस्तकें लिखी हैं। वेंकटकृष्ण दीक्षित - तंजोर के शाहजी महाराज के आश्रित । सन् 1693 में शाहजीपुरम् के अग्रहार में भाग प्राप्त। पितावेंकटाद्रि। कृतियां- (नाटक) "कुशलव- विजय। (काव्य) नरेश-विजय, श्रीरामचन्द्रोदय और उत्तरचम्पू। वेंकटकृष्ण राव - ई. 20 वीं शती। "भक्तिचन्द्रोदय' नामक तीन अंकी नाटक के प्रणेता। वेंकटनाथ (वेदांतदेशिक) - समय- 1269-1369 ई.। आप 'कवि-तार्किकसिंह' व 'सर्वतंत्रस्वतंत्र' नामक उपाधियों से समलंकृत हुए थे। इनका जन्म कांजीवरम् के निकट तुप्पिल नामक ग्राम में हुआ था। पिता- अनंत सूरि । माता- तोतरम्मा । ये विशिष्टाद्वैत वेदांत के महान् व्याख्याता माने जाते हैं। इन्होंने सांप्रदायिक ग्रंथों के अतिरिक्त, काव्य-कृतियों की भी रचना की थी, जिनमें काव्यतत्त्वों का सुंदर समावेश है। इनके काव्यों में 'संकल्पसूयोदय (महानाटक), 'हंसदूत', 'रामाभ्युदय', 'यादवाभ्युदय', 'पादुकासहस्र' आदि प्रमुख हैं। इनके प्रमुख दार्शनिक ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है- तत्त्वटीका (यह श्रीभाष्य की विशद व्याख्या है), न्याय-परिशुद्धि व न्याय-सिद्धांजन (इन दोनों ग्रंथों में विशुद्धाद्वैतवाद की प्रमाण-मीमांसा का वर्णन है), अधिकरण-सारावली (इसमें ब्रह्मसूत्रों के अधिकरणों का श्लोकबद्ध विवेचन किया गया है), तत्त्वमुक्ताकलाप, गीतार्थ-तात्पर्यचंद्रिका (यह रामानुजाचार्य के गीता-भाष्य की टीका है), ईशावास्य-भाष्य, द्रविडोपनिषद्, तात्पर्य-रत्नावली, शतदूषणी, सेश्वर-मीमांसा, पांचरात्र-रक्षा, सच्चरित्र-रक्षा, निक्षेप-रक्षा व न्यायविशंति। वेंकटनारायण - तंजौर- अधिपति शाहजी राजा की सभा के पंडित। जैन मुनि सुमतीन्द्राभिक्षु का चरित्र, उनके इस कवि शिष्य ने अपने 'सुमतीन्द्रविजय-घोषण' नामककाव्य में प्रस्तुत किया है। वेंकट मखी- गोविन्द मखी दीक्षित के पुत्र। यज्ञनारायण के भाई। रचनाएं- साहित्यसाम्राज्यम् (महाकाव्य)। चतुर्दानादिप्रकाशिका और वार्तिकाभरण नामक दो शास्त्रीय रचनाएं। पिता के संगीत-सुधानिधि तथा रामायण (सुन्दरकांड) पर टीकाएं। इनके लक्षण-गीत, संगीत-संप्रदाय-प्रदर्शिनी में
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केवल-थों का ज्ञान आवश्य और चरकों का मन्त्र निर्देश
मुद्रित हैं। ये तंजौर के राजा विजय-राघव (ई. सन् 1672) सन 1935 में। सन् 1935 से 1955 तक योरोपीय संग्रहालय की सभा के सदस्य थे। गुरु-रघुनाथ नरेश। साहित्य, संगीत में भारतीय पुरातत्त्व के ग्रंथों का पर्यालोचन । संस्कृत के कई तथा मीमांसा में ये निपुण थे। इन्होंने वाजपेय यज्ञ किया था। हस्तलिखित ग्रंथों का प्रकाशन। ऑल इण्डिया ओरियण्टल वेंकटमाधव - ई. 11 वीं शती। सायण और देवराज यज्वा कान्फेरन्स के श्रीनगर- अधिवेशन के तथा विश्व संस्कृत सम्मेलन के पूर्ववर्ती- ऋग्वेद के प्रगल्भ भाष्यकार । एक ही ऋग्वेद पर
के दिल्ली-अधिवेशन के अध्यक्ष। मद्रास वि.वि. के संस्कृत उन्होंने दो भाष्य लिखे ऐसी संभावना है। संप्रति प्रथम भाष्य विभागाध्यक्ष। विदेशी संस्कृत संस्थाओं द्वारा प्रायः आमंत्रित । ही उपलब्ध है जिसका नाम है 'ऋगर्थदीपिका'। इस भाष्य में 'कविकोकिल', 'सकल-कला-कलाप','विद्वत्कवीन्द्र' तथा वेंकट माधवाचार्य ने अपने कुल आदि के विषय में कहा है - 'पद्मभूषण' की उपाधियों से विभूषित । सन् 1958 में मद्रास पितामह- माधव। पिता- वेंकटार्य। मातामह- भवगोल।।
में संस्कृत रंगमंच के संस्थापक। अलंकारशास्त्रविषयक 25 माता-सुन्दरी। गोत्र- कौशिक । मातृगोत्र- वासिष्ठ । अनुज-संकर्षण।
ग्रंथों का प्रकाशन किया। पुत्र- वेंकट और गोविन्द। निवास- दक्षिणापथ में चोलदेश। कृतियां- (लघु काव्य)- देववन्दीवरदराज, सर्वधारी, महीपो कावेरी के समकालीन राजा- एकवीर।
मनुनीतिचोलः, फाल्गुन, षोडशी-स्तुतिः, किं प्रियं कालिदासस्य, वेंकटमाधव का भाष्य याज्ञिक पद्धति के अनुसार और
नरेन्द्रो विवेकानन्दः, श्लिष्टप्रकीर्णक, किमिंद तव कार्मणम्, कालः संक्षिप्त है। 'वर्जयन् शब्दविस्तरम्' शब्दविस्तार को वर्ण्य कर
कविः, संक्रान्तिमहः, कविर्ज्ञानी ऋषिः, विश्वभिक्षुस्तवः, यह उनकी प्रतिज्ञा है। 'ऋक्संहिता का अर्थ जानने के लिए
कामकोटिकार्मण, गृहीतमिवान्तरंगम्, कावेरी, शब्दः (नृत्यगीत), केवल- निरुक्त और व्याकरण पर्याप्त नहीं, उसके लिये
वैवर्तपुराणम्, ब्रह्मपत्र, महात्मा, दम्मविभूतिः,गोपहम्पनः, और ब्राह्मण-ग्रंथों का ज्ञान आवश्यक है'- यह माधवाचार्य की
स्वराज्यकेतु। संपादक- प्रतिभा (साहित्य अकादमी की संस्कृत भूमिका है। भाल्लानि, मैत्रायणीय और चरकों का मन्त्रोपबृंहण
पत्रिका, जर्नल ऑफ ओरिएंटल रिसर्च, जर्नल ऑफ म्युझिक करने वाले ब्राह्मण-ग्रंथ हमने सुने नहीं, ऐसा उन्होंने निर्देश
अकादमी। किया है। इससे स्पष्ट है कि माधवाचार्य का ब्राह्मण-ग्रंथों के
महाकाव्य- मुत्तुस्वामी दीक्षितचरित। इसका प्रकाशन सन् अभ्यास पर कितना बल था। सामवेद का विवरण भी
1955 में मद्रास में कांचीकामकोटि के शंकराचार्य की अध्यक्षता माधवाचार्य के नाम पर प्रसिद्ध है। विवरणकार और ऋग्भाष्यकार में हुआ। माधवाचार्य एक ही हैं या नहीं यह गवेषणा का विषय है। रूपक- विमुक्ति, रासलीला, कामशुद्धि, पुनरुन्मेष, वेंकट रंगनाथ (म.म.) - सन् 1822-1900 । भारद्वाज-वंशीय। लक्ष्मीस्वयंवर, आषाढस्य प्रथमदिवसे, महाश्वेता, प्रतापरुद्रविजय विजगापट्टम-निवासी। राजकीय उपाधि से सम्मानित। संस्कृत और अनारकली। पाठशाला में अध्यापक। प्रसिद्ध पौरिणिक कथावाचक। पिता- प्रेक्षणक (ओपेरा) -विकटनितम्बा, अवन्तिसुन्दरी तथा महाकवि श्रीनिवास गुरु थे। अंग्रेजी तथा संस्कृत के विद्वान्। विज्जिका।
कृतियां- मंजुल-नैषध (नाटक), कुंभकर्णविजय, अनूदित रूपक - वाल्मीकि-प्रतिभा और नदीपूजा। आंग्लाधिराज- स्वागत, संस्कृत भाषा और साहित्य विषयक इसके अतिरिक्त संस्कृत में अनेक समावर्तन, भाषण, अनुवाद, विश्वकोश (अप्रकाशित) तथा संस्कृत व्याकरण के सरलीकरण टीकाएं तथा गद्य-निबन्ध। इनका प्रमुख कार्य है न्यू कैटलागस विषयक दो निबंध।
कॅटलागोरम् का सम्पादन। वेंकटरमणार्य - ई. 20 वीं शती। चेन्नराय नामक गांव वेंकटसुब्रह्मण्याध्वरी - त्रावणकोर के राजा बालरामवर्मा (कर्नाटक) के निवासी। कुछ दिन बंगलोर की चामराजेन्द्र (1758-1782 ई.) की राजसभा में सम्मानित । पिता-वेंकटेश्वर संस्कृत महापाठशाला के अध्यक्ष। तत्पश्चात् मैसूर की संस्कृत मखी। विख्यात पंडित अप्पय दीक्षित के वंशज । व्याकरण, पाठशालाओं के निरीक्षक। सेवानिवृत्ति के समय मैसूर की मीमांसा, तर्क तथा साहित्य के प्रकाण्ड पण्डित । संस्कृत शाला के उपदेष्टा।
"वसुलक्ष्मीकल्याण" नामक नाटक के प्रणेता। कृतियां- स्तुतिकुसुमांजलि, हरिश्चन्द्रकाव्य, सर्वसमवृत्त-प्रभाव, वेंकटाचार्य - समय- ई. 18 वीं शती का उत्तरार्ध । कमलाविजय (टेनिसनकृत नाटक का अनुवाद) और पिता-श्रीनिवास, माता-वेंकटाम्बा। गुलबर्गा (आन्ध्रप्रदेश) के जीवसंजीवनी।
निवासी। गुरु- वेंकटदेशिक। अनुज- अण्णैयाचार्य ("रसोदार" वेंकटराम राघवन् (डॉ) (पद्मभूषण) - जन्म दि. भाण के प्रणेता)। छोटे भाई श्रीनिवासाचार्य (कल्याणराघव 22-8-1908 को, तिरूवायुर नगर (जिला तंजौर) में। पिता- नाटक के प्रणेता) । भागिनेय वुच्चि वेंकटाचार्य) "कल्याणपुरंजन" वेंकटराम अय्यर। माता- मीनाक्षी। प्रेसिडेन्सी कालेज, मद्रास नाटक के रचयिता) स्वयं "अमृतमन्थन" नामक पांच अंकी में म.म. कुप्पुशास्त्री के अधीन 'शृंगारप्रकाश' पर पीएच.डी. नाटक के लेखक।
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वेंकटाचार्य - मैसूर-निवासी। पिता- अण्णय्याचार्य। चाचा-श्रीनिवासतातार्य । सुरपुरम्नरेश वेंकट नायक (1773-1802 ई.) का समाश्रय। परकाल मठ के महादेशिक के उपासक।। कृतियां- गणसूत्रार्थ (व्याकरणविषयक), कृष्णभावशतक-स्तोत्र, अलंकारकौस्तुभ, शृंगारलहरी (गीतिकाव्य), दशावतारस्तोत्र, हयग्रीवदण्डक स्तोत्र, यतिराजदण्डकस्तोत्र (रामानुजाचार्य विषयक), झंझामारूत दर्शन, श्रीकृष्णशृंगार-तरंगिणी (नाटक) और तेलगु में अचलात्मजा-परिणयमु। वेंकटाचार्य - शतकर्तृ ताताचार्य के पुत्र । रचना- कोकिल-सन्देश नामक दूतकाव्य। वेंकटाचार्य - रचनाएं- कावेरी-महिमादर्शः, (2) व्याघ्रतटाकभूविवरम्, (3) ग्रन्थिज्वरचरितम्, (4) रामानुजमताभासविलासः, (5) यादवगिरिमाहात्म्य संग्रहः, (6) काकान्योक्तिमाला, (7) चम्पकान्योक्तिमाला, (8) दिव्यसूरिवैभवम् (गद्य प्रबंध)। वेंकटाद्रि - (श. 19)- राजा शोभनाद्रि अप्पाराव के पुत्र । "राजलक्ष्मीपरिणय" नामक प्रतीक नाटक के रचयिता। वेंकटाध्वरी - समय- ई. 17 वीं शती। अत्रि गोत्री। रामानुजी वैष्णव संप्रदायी। इन्होंने 3 प्रसिद्ध व लोकप्रिय चंपू-काव्यों की रचना की है। वे हैं- विश्वगुणादर्श-चंपू (निर्णयसागर प्रेस मुंबई से 1923 ई. में प्रकाशित), वरदाभ्युदय-चंपू (इसका दूसरा नाम हस्तगिरि-चंपू- संस्कृत सीरीज मैसूर से 1908 ई. में प्रकाशित) और उत्तररामचरित-चंपू (गोपाल नारायण एण्ड कं. मुंबई से प्रकाशित)। __ ये अप्पय दीक्षित के पौत्र तथा रघुनाथ-दीक्षित के पुत्र थे। माता-सीतांबा। ये रामानुज के मतानुयायी व लक्ष्मी के भक्त थे। ग्रंथ-रचना-काल 1637 ई. के आस-पास। इनका निवास स्थान कांचीपुर के निकट अर्शनफल (अर्सनपल्ली) नामक ग्राम था। "उत्तररामचरित-चंपू" कवि की प्रौढ रचना है, जिसमें वर्णनसौंदर्य की आभा देखने योग्य है। ये नीलकण्ठचंपू के प्रणेता कवि नीलकंठ दीक्षित के सहाध्यायी थे। इन्होंने लक्ष्मीसहस्रम् नामक एक अन्य काव्य का भी प्रणयन किया था। "वरदाभ्युदय या हस्तगिरिचंपू' के अंत में कवि ने अपना परिचय दिया है। वेंकटेश - तैत्तिरीय संहिता के अन्तिम तीन काण्डों पर ही इनका भाष्य विद्यमान है। भाष्य का नाम है "वेदभाष्य संग्रहसार" या वेदार्थ-संग्रह। यह भाष्य कई स्थानों पर भट्ट भास्कर भाष्य से अक्षरशः मिलता है। रुद्रभाष्यकार, एक वेंकटनाथ भी हुए हैं। वे दोनों एक या भिन्न यह निश्चित नहीं है। वेंकटेश - पिता-श्रीनिवास। कांचीवरम् के पास स्थित, आर सलाई ग्राम के निवासी। इन्होंने रामचरित्र पर आधारित रामचन्द्रोदयम् नामक महाकाव्य (30 सर्ग) लिखा। इन्हीं का दूसरा काव्य यमकार्णव यमकमय है। इसका लेखन सन् 1656
में संपन्न हुआ। वेंकटेश - रामनाड संस्थान (तामिलनाडु) के सेतुपति के
आश्रित । रचना-त्रिंशच्छलोकी अर्थात् विष्णुतत्त्वनिर्णय (सटीक) जिसमें न्यायेन्दुशेखर का खण्डन है। वेंकटेश्वर - तंजौर के महाराज शाहजी (1684-1711 ई.) द्वारा सम्मानित। सरफोजी के आश्रित। मनलूर-निवासी। रचनाएं-उन्मत्त-कविकलशम् अर्थात् लम्बोदरप्रहसन, राघवानन्द, नीलापरिणय, सभापति-विलास और भोसले-वंशावली-चम्पूः । वेंकप्रभु - वेंकसूरिचन्द्र अथवा प्रधान वेंकप्पा नामों से भी प्रसिद्ध। माता-बाबाम्बिका, पिता-हम्पार्य (राज्यमन्त्री)। भार्गव-वंशी ब्राह्मण। श्रीरामपुर के निवासी। ब्रह्मविद्या में पारंगत। “षड्दर्शनीवल्लभ' की उपाधि से विभूषित। राम तथा हनुमान् के भक्त। सुशीलता तथा दानशूरता के लिए विख्यात । सन् 1763 से सन् 1780 तक मैसूर के राजा कृष्णराज (द्वितीय), नंन्जराज तथा चामराज के मंत्री। कृष्णराज द्वारा अनेक विभागों के अध्यक्षपद पर नियुक्त । मराठा-अधिपति राघोबा के साथ कृष्णराज की सन्धि वेंकप्प ने ही करायी थी। युद्धनिपुण। हैदरअली ने मैसूर का शासन संभालने के बाद वेंकप्प को राजधानी से दूर भगाया।
रचनाएं- (16) कामकलाविलास (भाण), कुक्षिम्भरभैक्षव (प्रहसन), महेन्द्रविजय (डिम), वीरराघव (व्यायोग), लक्ष्मीस्वयंवर और विबुधानंद (समवकार), सीताकल्याण (वीथी), रुक्मिणीमाधव (अंक), ऊर्वशीसार्वभौम (ईहामृग), सुधाझरी (उपन्यास), कुशलविजय (चम्पू), आंजनेयशतक, सूर्यशतक, हनुमज्जय, चिदद्वैतक जगन्नाथविजयकाव्य (व्याकरणनिष्ठ), अलंकारमणिदर्पण (साहित्य-शास्त्रीय) और कन्नड रचनाएं- कर्णाटरामायण, हनुमविलास और इन्दिराभ्युदय । वेचाराम न्यायालंकार - ई. 18 वीं शती। पिता-राजाराम । "काव्यरत्नाकर" के कर्ता । बंगाल के निवासी। अन्य कृतियांआनन्दतरंगिणी (प्रवासवृत्त) और सिद्धान्त-तरी (आनन्दतरंगिणी पर व्याख्या)। वेणीदत्त तर्कवागीश - बंगाल के निवासी। ई. 18 वीं शती। "श्रीवर" के नाम से विख्यात। वीरेश्वर पंडित के पुत्र । "अलंकार-चन्द्रोदय" के कर्ता। वेदगर्भ पद्मनाभाचार्य - ई. 18 वीं शती। रचनामाध्वसिद्धान्तसारः। वेदान्तवागीश भट्टाचार्य - "भोजराज-सच्चरित" (नाटक) के प्रणेता। वेलणकर, श्रीराम भिकाजी - जन्म महाराष्ट्र के सारन्द ग्राम (जिला-रत्नागिरी) में, सन् 1915 में। उच्च शिक्षा विल्सन कालेज, मुंबई में। सन् 1940 में एम.ए.,एलएल.बी. कर डाक तार विभाग में नियुक्ति व उच्चाधिकार प्राप्त । भारत में पिन-कोड
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पद्धति का आविष्कार आपने ही किया। गुरु- हरि दामोदर वेलणकर की इच्छानुसार यावज्जीवन संस्कृताध्ययन तथा लेखन का व्रत। गणित, संगीत और नाटक में विशेष रुचि। सेवानिवृत्ति के पश्चात् गणित विषयक अनुसन्धान तथा संस्कृत प्रचार कार्य में निरत। अपनी रचनाओं में नये व पुराने दोनों छंदों का प्रयोग किया है।
कृतियां-काव्य - विष्णुवर्धापन, गुरुवर्धापन, जयमंगला (अनूदित), जीवनसागर (भारतरत्न पां.वा. काणे का चरित्र), विरहलहरी, जवाहर-चिन्तन, जवाहर-गीता, गीर्वाण-सुधा और अहोरात्र । नाटक-कालिदास-चरित, कालिन्दी, सौभद्र (अनूदित), छत्रपति शिवराज और तिलकायन।
नभोनाटिका - कैलास-कम्प, हुतात्मा दधीचि, स्वातंत्र्य-लक्ष्मी, राज्ञी दुर्गावती, स्वातंत्र्यचिन्ता, स्वातंत्र्य-मणि, मध्यम पाण्डव, आषाढस्य प्रथमदिवसे, तनयो राजा भवति कथं में, श्रीलोकमान्य-स्मृति, जन्म रामायणस्य, तत्त्वमसि और मेघदूतोत्तरम्। ब्राह्मण सभा और स्वयंस्थापित देववाणी मंदिर इन संस्थाओं के द्वारा आपने संस्कृत प्रचार का भरपूर कार्य मुंबई में तथा अन्यत्र किया।
मराठी कृतियां - जनतेचे दास जसे, कलालहरी निमाली, पैठणचा नाथ, वनिता-विकास, रेवती, राधा-माधव और श्रीराम-सुधा। ___ अंग्रेजी कृतियां - सिमिलीज् इन् ऋग्वेद और कान्ट्रैक्ट ब्रिज।। वैजयन्ती - ई. 17 वीं शती का मध्य। धनुक ग्राम (जिला-फरीदपुर, बंगाल) के निवासी मथुराभट्ट की पुत्री। मीमांसादि शास्त्रों में पारंगत विदुषी। कोटलिपाडा के दुर्गादास तर्कवागीश की पुत्रवधू । पति कृष्णनाथ के साथ "आनन्दलतिका" नामक चम्पू की रचना वैजयन्ती ने की है। वैद्यनाथ - जन्म- वाराणसी में। समय-सत्रहवीं शती का उत्तरार्ध । "श्रीकृष्णलीला" नामक नाटिका के रचयिता। वैद्यनाथ द्विज - ई. 18 वीं शती। बंगाल के निवासी। "तुलसीदूत" के रचयिता। वैद्यनाथ - (श. 19) जन्म-मुम्बई के निकट सुगन्धपुर में। गुरु-रघुनाथ । आश्रयदाता-श्री जीवनजी महाराज । “सत्संग-विजय" नामक प्रतीक नाटक के लेखक। वैद्यनाथ वाचस्पति भट्टाचार्य - नवद्वीप के राजा ईश्वरचन्द्र राय (1788-1802 ई.) के सभापण्डित। "चैत्रयज्ञ" नामक नाटक के रचयिता। वैद्यनाथ शर्मा व्यास - ई. 10 वीं शती। वाराणसी-निवासी। बालकवि। गुरु-आन्ध्र पंडित रामशास्त्री। कृतियां- गणेशसम्भव (काव्य) और गणेश-परिणय (नाटक)। वैयाघ्रपाद - पाणिनि के पूर्ववर्ती एक प्राचीन वैयाकरण। मीमांसकजी ने इनका समय 3100 वि.पू. माना है। महाभारत
के अनुशासन पर्व में आए उल्लेख के अनुसार ये महर्षि वसिष्ठ के पुत्र थे (53/30)। "काशिका" में इनका कल्लेख, व्याकरण-प्रवक्ता के रूप में किया गया है। (7/1/94)। इसके अतिरिक्त "शतपथ ब्राह्मण" (10/6), "जैमिनि ब्राह्मण", "जैमिनीय उपनिषद् ब्राह्मण" (3/7/3/211, 4/9/1) एवं "शांख्यायन आरण्यक" (917) में भी इनका नाम उपलब्ध है। ___"काशिका" के एक उदाहरण से ज्ञात होता है कि इनके
वैयाघ्रपदीय व्याकरण में 10 अध्याय रहे होंगे (5/1/58)। बंगला के प्रसिद्ध "व्याकरण शास्त्रेतिहास" के लेखक श्री हालदार ने इनके व्याकरण का नाम वैयाग्रपद तथा इनका नाम व्याघ्रपात् लिखा है, किंतु मीमांसकजी ने प्राचीन उद्धरणों के आधार पर श्री हालदार के मत का खंडन करते हुए वैयाघ्रपाद नाम को ही प्रामाणिक माना है। इस संबंध में अपने मत को स्थिर करते हुए वे कहते हैं कि “महाभाष्य में व्याघ्रपात् नामक वैयाकरण का उल्लेख है किंतु वे वैयाघ्रपाद से भिन्न हैं, हां, "महाभाष्य" (6/2/26) में एक पाठ है जिसमें व्याडीय का एक पाठांतर "व्याघ्रपदीय" है। यदि यह पाठ प्राचीन हो तो मानना होगा कि आचार्य "व्याघ्रपात्" ने भी किसी व्याकरण का प्रवचन किया था।" वैशंपायन - निगद अर्थात् कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता के निर्माता। तैत्तिरीय आरण्यक एवं आश्वलायन, कौषीतकी और बोधायन गृह्यसूत्र में आपका उल्लेख है। ऋग्वेद के अनेक मंत्रों का नया अर्थ लगाने का युगप्रवर्तक कार्य आपने किया। शबरस्वामी के अनुसार वैशंपायन ने कृष्णयजुर्वेद की सभी शाखाओं का अध्ययन किया था। (मीमांसा भाष्य-1-1-30)। पाणिनि ने एक वैदिक गुरु के रूप में आपका उल्लेख किया है।
व्यासजी के चार प्रमुख वेदप्रवर्तक शिष्यों में से वैशंपायन एक थे। पुराणों के अनुसार उन्हें सम्पूर्ण यजुर्वेद का ज्ञान प्राप्त था। व्यासजी से प्राप्त यजुर्वेद की 86 संहिताएं बनाकर अपने 86 शिष्यों में बांट दी। विष्णु-पुराण के अनुसार यह संख्या 27 है। इनके शिष्यों ने कृष्ण यजुर्वेद के प्रसार का कार्य किया। आपके शिष्य उत्तर भारत, मध्य भारत और पश्चिम भारत में विभाजित थे। __ काशिकावृत्ति के अनुसार आलंबी, पलंग एवं कामठी ये तीन शिष्य चरक देश के पूर्व में, ऋचाभ, आरुणि एवं तांड्य मध्य में तथा श्यामायन, कठ एवं कलापी उत्तर में वेद-प्रचार का कार्य कर रहे थे।
वैशंपायनप्रणीत 86 शाखाओं में से केवल तैत्तिरीय, मैत्रायणी, कठ एवं कपिष्ठल ही विद्यमान हैं। शेष शाखाएं अनध्याय के कारण लुप्त हो चुकी हैं।
कृष्ण यजुर्वेद को बाद में 'चरक' नाम प्राप्त हुआ। चरक का अर्थ ज्ञानप्राप्ति हेतु देशभर संचार करने वाला विद्वान्। वैशंपायन एवं उनके शिष्य भ्रमणशील थे। "चरक इति
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वैशम्पायनस्य आख्या" (एकाशिका 4/3-4) यज्ञ में अध्वर्यु (व्याडिकृत), बलचरित काव्य (बलराम-चरित), परिभाषापाठ का काम यजुर्वेदी की ओर रहता है। इस कारण आपके और लिंगानुशासन। सभी रचनाएं अप्राप्त है। शिष्य चरकाध्वर्यु कहलाये।
व्यास (भगवान्) - एक अलौकिक व्यक्तित्व के महापुरुष । आपने व्यासकृत "जय" ग्रंथ का "भारत" बनाकर भी। महाज्ञानी ग्रंथकार । वर्ण से काले थे, अतः 'कृष्ण' कहलाये। अमूल्य कार्य किया। व्यासजी ने अपना "जय" नामक ग्रंथ द्वीप पर जन्म होने से 'द्वैपायन' भी कहे गये। "कृष्णद्वैपायन" प्रथम आप ही को सुनाया। वह कौरव पांडवों के संघर्ष तक नाम से भी संबोधित किये गये। "वेदान् विव्यास" वेदों के ही मर्यादित था। उसमें केवल 8,800 श्लोक थे। वैशम्पायन विभाग करने से व्यास संज्ञा प्राप्त। पराशर पुत्र होने से ने उन्हें बढाकर 24 हजार तक पहुंचाया और उसे "भारत" 'पाराशर्य' भी कहा जाता रहा। बदरी-वन में तपस्या करने के नाम दिया। अर्जुन के पौत्र जनमेजय के राजपुरोहित एवं कारण 'बादरायण' भी कहलाते थे। विद्वज्जन उन्हें "वेदव्यास" महाभारत की कथा सुनाने वाले यही वैशंपायन थे। याज्ञवल्क्य कहते थे। यह सर्वमान्य लोकोक्ति है कि संसार का सारा के साथ संघर्ष में उन्हें यह पद छोडना पडा। राज्य का भी ज्ञान व्यास की जूठन है। “व्यासोच्छिष्टं जगत् सर्वम्' अर्थात् त्याग करना पड़ा।
सारा ज्ञान उन्हें प्राप्त था। वेदोत्तर-काल से आज तक वे वायुपुराण के अनुसार वैशंपायन यह गोत्र-नाम हो सकता भारतीय संस्कृति के महाप्राण रहे हैं। इतिहास-पुराणों की रचना, है, परन्तु ब्रह्माण्ड-पुराण के आधार पर नाम-विशेष भी हो प्राचीन युग की विस्मृतप्राय विद्या-कला का पुनरुज्जीवन, वेदवेदांग सकता है।
का संकलन, संपादन, विभाजन आदि के द्वारा व्यासजी ने व्रजनाथ - नरेश माधव के आश्रित । पद्यतरंगिणी (सुभाषित भारतीय संस्कृति का सारा ज्ञान अक्षुण्ण रखा। उन्हें भगवान् संग्रह)। 12 तरंगों में संकलन ।
विष्णु का अवतार माना जाता है। व्यास यह नाम व्यक्तिवाचक व्रजलाल मुखोपाध्याय - रचना :-ख्रिस्तधर्मकौमुदी-समालोचना।
नहीं। यह एक उपाधि है। पुराणों के अनुसार प्रत्येक द्वापर कलकत्ता 1894। बेलेन्टाइन के ख्रिस्तधर्म- कौमुदी की
18941 बेलेन्टाइन के खिम्तीं सदी की युग में एक-एक महनीय पुरुष "व्यास" होता है। हिन्दुधर्म-निन्दा का खण्डन ।
द्वापरे द्वापरे विष्णुासरूपी महामुने । वृंदावनचन्द्र तर्कालंकार - ई. 16 वीं शती। राधाचरण
वेदमेकं सबहुधा कुरुते जगतो हितः।। कवीन्द्र चक्रवर्ती के पुत्र । कवि कर्णपूर के "अलंकारकौस्तुभ'
अर्थ- हे महामुने, प्रत्येक द्वापर युग में विष्णु व्यासरूप पर "अलंकारकौस्तभाटीधिति-पकाशिकानीका का से अवतार लेते हैं और विश्व के हितार्थ एक वेद का विभाग वृंदावन शुक्ल - आपने दो काव्यों का रचना की है- (1)
करते हैं। "साम्बचरित' तथा (2) "गौरीचरित"।
___ अभी तक ऐसे 28 व्यास हो गये हैं। कृष्णद्वैपायन अंतिम
थे। देवीभागवत मे संपूर्ण नामावली दी है। वृत्तिविलास - अमरकीर्ति के शिष्य । कर्नाटक-वासी। समय-ई. 12 वीं शती। ग्रंथ- धर्मपरीक्षा और शास्त्रसार। धर्मपरीक्षा
___ व्यासजी का जन्म पराशर ऋषि और धीवर-कन्या सत्यवती ग्रंथ अभिगति की धर्मपरीक्षा पर आधारित है।
(मत्स्यगंधा) से हुआ। इतिहासज्ञों द्वारा यह काल संभवतः
ईसा पूर्व 3100 का माना गाया है। व्यास का विवाह जाबलि व्यश्व आंगिरस - अंगिरस् कुलोत्पन्न। ऋग्वेद के आठवें मंडल के छब्बीसवें सूक्त के द्रष्टा। इस सूक्त में अश्विनौ और
की कन्या वटिका से हुआ। उनके पुत्र का नाम शुक था।
धृतराष्ट्र और पंडु, बीजदृष्टि से नियोग पद्धति से उत्पन्न, वायु की स्तुति है। प्रस्तुत सूक्त में व्यश्व के रूप में उनका उल्लेख है।
व्यास-पुत्र ही थे। दासी से जन्मा विदुर भी उनका ही पुत्र व्यासतीर्थ - आपने न्यायामृत, तर्कतांडव, तात्पर्यचंद्रिका, था। आपका आश्रम सरस्वती के किनारे पर था। वहीं से वे मंदारमंजरी आदि ग्रंथों की रचना की है। उनमें से न्यायामृत हस्तिनापुर आते-जाते थे। वे कौरव-पांडवों को सदा उपदेश को द्वैतवाद का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ माना जाता है। मधुसुदन सरस्वती दिया करते थे। पांडव जब वनवास में थे, उस समय उन्होंने ने अपने अद्वैतसिद्धि नामक ग्रंथ में उसका खंडन किया है। युधिष्ठिर को प्रतिस्मृति नामक सिद्धविद्या दी थी। कृष्ण जब इसी न्यायामृत ग्रंथ से द्वैत व अद्वैत-संप्रदायों में प्रखर वागयुद्ध स्वर्ग सिधारे तो अर्जुन उनकी पत्नियों को लेकर हस्तिनापुर प्रारंभ हुआ जो अभी तक खंडन-मंडन के रूप में चालू है। , लौटे। मार्ग में उन पर आभीर-गणों ने आक्रमण किया। अर्जुन व्याडि - दाक्षि या दाक्षायण के नाम से भी ज्ञात। पाणिनि उनका प्रतिकार नहीं कर सके। विव्हल हो अर्जुन जब व्यास के मामा। गुरु-शौनक। पिता-व्यड। “संग्रह" नामक ग्रंथ के के पास पहुंचे, तो उन्होंने कालचक्र की अनिवार्यता उन्हें समझायीरचयिता (पाणिनीय शास्त्र पर व्याख्यान)। वाहीक (सतलज कालमूलमिदं सर्वं जगबीजं धनंजय । तथा सिन्धु की अन्तर्वेदी) के निवासी। काल-भारतीय युद्ध काल एवं समादत्ते पुनरेव यदृच्छया के पश्चात् 200 वर्ष तक। अन्य रचनाएं- व्याकरणशास्त्र स एव बलवान् भूत्वा पुनर्भवति दुर्बलः ।
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(म.भा. मौसल 8-33-34)
अर्थ काल सभी जागतिक घटनाओं का एवं विश्व-संहार का बीज है। काल ही अपनी शक्ति से विश्व को खा जाता है। कभी वह बलवान् होता है, कभी दुर्बल।
व्यासजी के पुत्र थे शुक जो बचपन से ही वीतराग थे। जनक से आत्मज्ञान प्राप्त कर वे जीवन्मुक्त हो गये थे। उन्होंने हिमालय से होकर निर्वाण मार्ग पर बढ़ने का निश्चय किया । व्यासजी इससे व्यथित हुए। अपना जीवन अर्थशून्य मानकर उन्होंने आत्महत्या का निर्णय किया। उस समय भगवान् शंकर ने दर्शन देकर उन्हें परावृत्त किया।
व्यास नामक कोई व्यक्ति थे या नहीं, इस बारे में पाश्चात्य विद्वानों ने सन्देह व्यक्त किया है पर भारतीय विद्वानों ने उन्हें मान्य किया है। वे वैदिक ऋषि थे। पराशर पिता एवं वसिष्ठ पितामह, यह परंपरा ब्राह्मण एवं उपनिषदों में भी अविच्छिन्न है। बोधायन एवं भारद्वाज के गृह्यसूत्र में भी व्यासजी का उल्लेख पराशर पुत्र के रूप में है । पाणिनि भी एक सूत्र में कह गये हैं कि व्यास पराशर पुत्र थे । (अष्टाः 4-3-110) आद्य शंकराचार्य ने अपनी गुरुपरंपरा व्यासजी से ही बतलाई है। बौद्ध साहित्य में कृष्ण द्वैपायन नाम कण्हद्वैपायन बताया गया है। उन्हें बुद्ध का ही एक अवतार माना है। अश्वघोष के सौंदरनंद नामक ग्रंथ में व्यास और उनके पूर्वजों का निर्देश है। पुराण परंपरा में तो उन्हें इस भांति नमन किया गया है :
व्यासं वसिष्ठानप्तारं शक्तेः पीत्रकल्पम् । पराशरात्मजं वन्दे शुकतातं तपोनिधिम् ।।
भारतीय संस्कृति का सर्वांग यथावत् ज्ञान प्राप्त करना हो, तो व्यास रचित ग्रंथों का अध्ययन करना अपरिहार्य है। व्याससाहित्य भारतीय संस्कृति का मेरुदंड है । व्यासरचित एवं व्यास - संपादित ग्रंथों को "व्यासचर्या" कहा गया है। वराहपुराण के अनुसार ( 175-9 ) "व्यासचर्या" के अध्ययन से आत्मा विशद एवं शुद्ध बनती है। 1
आदियुग में जब वेदाध्ययन कठिन होने लगा, तो व्यासजी ने यज्ञसंस्था के लिये उपयुक्त और परंपरा से वेद टिके रहे इस दृष्टि से वेद राशि को चार भागों में विभक्त किया और अपने चार शिष्यों को उनका ज्ञान कराया। बहुऋचात्मक ऋग्वेद संहिता पैल को, निगदाख्य यजुर्वेदसंहिता वैशम्पायन को, छंदोग नामक सामवेदसंहिता जैमिनी को एवं आंगिरसी नामक अथर्वसंहिता सुमंतु को दी । व्यासकृत यह वेद-विभाजन सर्वमान्य हुआ है।
वेदों में भगवान् के निर्विशेष रूप का जो प्रतिपादन हुआ है, उसके प्रतिपादन की अभिव्यक्ति का दर्शन अपने "ब्रह्मसूत्र” द्वारा प्रस्तुत कर, आपने एक बडी कमी पूरी की। व्यासकृत ब्रह्मसूत्र में अध्यात्म के सिद्धान्त सूत्ररूप में ग्रथित किये गये हैं।
शंकराचार्य निबार्काचार्य, रामानुजाचार्य,
वल्लभाचार्य,
मध्वाचार्य आदि आचार्योंने ब्रह्मसूत्र को ही आधार मान कर अपने-अपने दर्शन निर्माण किये।
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प्राचीन काल में पुराणों का स्वरूप अव्यवस्थित था । वह सूतमागधों के विभिन्न गुटों में बिखरा हुआ था। व्यासजी ने उसे एकत्र कर सुबद्ध पुराणसंहिता तैयार की और अपने शिष्य लोमहर्षण को उसका प्रसार करने की आज्ञा की। लोमहर्षण
व्यास - संहिता के आधार पर अपनी एक पुराण - संहिता तैयार की और अपने छह शिष्यों को उसका प्रसार करने के लिये कहा। इस भांति मूल एक पुराण के 18 पुराण बने। इस प्रकार पुराण वाङ्मय के प्रवर्तक व्यास ही थे ।
उनकी समस्त ग्रंथ संपदा में महाभारत की महिमा अलौकिक है । व्यासजी की कीर्ति का वह जयस्तंभ है। उसे "पंचम वेद" कहा गया है 1
हिमालय के नर-नारायण नामक दो पर्वतों के बीच से भागीरथी प्रवाहित है। उसके किनारे विशाला बदरी नामक स्थान है। महाभारत युद्ध के बाद वहीं अपना आश्रम स्थापित कर उन्होंने निवास किया, एवं तीन वर्षों तक सतत कार्यरत रह कर, "महाभारत" की आद्यसंहिता तैयार की।
अपने ग्रंथों द्वारा व्यासजी ने राजसत्ता का विस्तृत और सुयोग्य मार्गदर्शन किया है। उनके मतानुसार राजधर्म बिगड़ गया तो वेद, धर्म, वर्ण, आश्रम, त्याग, तप, विद्या सभी का नाश होता है।
आपने धर्म का जो विवेचन किया है, वह उनके महान ऋषित्व का दर्शन है। व्यक्ति, राष्ट्र, समग्र जीवन, लोक और परलोक का जो "धारण" करता है, वही धर्म है, यह उनकी व्याख्या है।
धर्म जीवन-धारण की उत्तम वस्तु है, तो जीवन भी उतना ही मूल्यवान् होना चाहिये। उनके अनुसार जीवन रोने के लिये नहीं, वह आनंदमय है। वे जिस भांति कर्मवाद को मानते है उसी भांति दैववाद को भी उनका केन्द्रबिन्दु देवता नहीं, मनुष्य है।
गुह्यं ब्रह्म तदिदं ब्रवीमि ।
न हि मानुषाच्छ्रेष्ठतरं हि किंचित् । (म.भा. शांति 1-10-12)
अर्थ - मैं यह रहस्यज्ञान आपको कराता हूं कि इस संसार में, मनुष्य को छोड कर और कोई श्रेष्ठ नहीं ।
इसी कारण उन्होंने पुरुषार्थ का उपदेश किया । पाणि याने हाथ याने पुरुषार्थ इसी लिये उन्होंने इन्द्र के मुख से "पाणिवाद" की प्रशंसा की है।
अहो सिद्धार्थता तेषां येषां सन्तीह पाणयः । अतीव स्पृहये तेषां येषां सन्तीह पाणयः । । पाणिमद्भ्यः स्पृहाऽस्माकं यथा तव धनस्य वै ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 463
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न पाणिलाभादधिको लाभः कश्चन विद्यते।
शास्त्रार्थ में परास्त करते हुए इन्होंने अपने पांडित्य का परिचय दिया। (म.भा. शांति 180-11-1)
___व्यासराय के जीवन का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण काल आरंभ अर्थ - जिनके हाथ हैं, वे क्या नहीं कर सकते। वे होता है 1509 ई. से जब विजयनगर के सिंहासन पर सिद्धार्थ हैं। जिनके हाथ हैं, वे मुझे अच्छे लगते हैं। जैसी कृष्णदेवराय आरूढ हुए। कृष्णदेवराय स्वयं कवि थे और तुझे धन की आकांक्षा है, उसी प्रकार मुझे हाथ की, पाणिलाभ गुणग्राही भी। व्यासराय को वे अपने "कुल-देवता" के समान से बढ कर और कोई लाभ नहीं।
मानते थे। व्यास राय उनके गुरु भी थे। राजा ने उन्हें अनेक __महाभारत लिखने के बाद व्यास उदास हो गये थे। एक गांव दान में दिये थे। उस युग के शिलालेख इसके साक्षी बार नारद मुनि से भेंट हुई। उनके परामर्श पर उन्होंने हैं। 1530 ई. में राजा की मृत्यु के पश्चात् अच्युत राय के भागवत-पुराण की रचना की। कृष्णचरित्र का वर्णन उसमें शासन-काल में भी व्यास राय की प्रतिष्ठा तथा मर्यादा पूर्ववत् किया। श्रीमद्भागवत भक्ति का महाकाव्य बना और व्यासजी अक्षुण्ण बनी रही। दि. 8 मार्च 1539 को व्यास राय की के मन की उदासीनता भी दूर हुई।
ऐहिक लीला समाप्त हुई। तुंगभद्रा नदी के "नव वृंदावन" ___ "महाभारत' के अंत में जो चार श्लोक हैं, उन्हें
नामक टापू पर इनके भौतिक अवशेष समाधिस्थ किये गये "भारत-सावित्री" कहा जाता है। व्यासजी ने मानव जाति को
जो आज भी वहां विद्यमान हैं। इनका पीठाधीश्वर रहने का उसमें शाश्वत सन्देश दिया है।।
काल 61 वर्ष (1478 ई. 1539 ई.) माना जाता है। न जातु कामान्न भयान्न लोभात्
व्यासराय द्वैत-संप्रदाय के द्वितीय प्रतिष्ठापक हैं। मध्व ने धर्मं त्यजेज्जीवितस्यापि हेतोः
अपनी अलौकिक प्रतिभा के बल पर जिस द्वैत-मत का प्रवर्तन धर्मो नित्यः सुखदुःखे त्वनित्येः ।
किया था, उसके विरोधियों के सिद्धांतों का प्रबल खंडन तथा जीवो नित्यो हेतुरस्य त्वनित्यः।
मीमांसा, न्यायादि शास्त्रों के आधार पर स्वमत अर्थ - काम, भय या लोभ किंबहुना जीवित के भी।
का युक्तियुक्त मंडन करते हुए, इन्होंने द्वैत-मत का प्राबल्य कारण से धर्म का त्याग मत करो क्यों कि धर्म शाश्वत है।
एवं प्रामुख्य सदा के लिये स्थापित कर दिया। इसी प्रकार सुख-दुःख अनित्य हैं। जीव (आत्मा) नित्य है, जन्म-मृत्यु
न्यायामृत, तात्पर्यचंद्रिका तथा तर्क-ताण्डव जैसे श्रेष्ठ ग्रंथों का अनित्य हैं।
प्रणयन कर, इन्होंने अखिल भारतीय विद्वानों में अपनी अपूर्व व्यासराय - द्वैत-मत के "मुनित्रय' में अंतिम मुनि तथा प्रतिष्ठा स्थापित की। कहते हैं कि जब मैथिल नैयायिक पक्षधर माध्व-मत की गुरु-परंपरा में 14 वें गुरु। मध्य तथा जयतीर्थ मिश्र दक्षिण गए, तब उन्होंने व्यास राय की प्रशंसा में कहा थाके साथ में व्यासराय द्वैत-संप्रदाय के "मुनित्रय" में समाविष्ट यदधीतं तदधीतं यदनधीतं तदप्यधीतम् होते हैं। अपने प्रगाढ पांडित्य, उदात्त चरित्र एवं गंभीर साधना पक्षधर-विपक्षो नावेक्षि विना नवीनव्यासेन ।। के कारण इन्हें “द्वितीय मध्वाचार्य" माना जाता है। इन्होंने व्यासराय केवल तार्किक-शिरोमणि ही न थे, प्रत्युत भक्तिरस अपने पांडित्यपूर्ण भाष्यों के द्वारा भारतीय दार्शनिक गोष्ठी में से स्निग्ध कन्नड भाषीय सरस गीतियों के रचयिता भी थे। दैत-दर्शन को उच्चतम स्तर पर प्रतिष्ठित किया और भारत के इनके पद आज भी साधकों तथा संतों के मार्ग-प्रदर्शक हैं दार्शनिक इतिहास में द्वैत-वेदांत को शास्त्रीय प्रतिष्ठा प्राप्त कराई। और कन्नड-कविता के गौरवस्वरूप माने जाते हैं। इनके
सोमनाथ ने "व्यास-योगि-चरित" नामक अपने ऐतिहासिक पांडित्यपूर्ण ग्रंथों ने द्वैत-वेदांत के इतिहास में एक नई शैली काव्य में व्यासराय का चरित्र विस्तारपूर्वक दिया है। वह सर्वथा को जन्म दिया, जो अब "नव्य वेदांत' के नाम से प्रख्यात प्रामाणिक तथा इतिहाससंगत है तदनुसार इनका जन्म मैसूर है। अद्वितीय तार्किक होने के साथ ही, व्यासराय मधुर कवि के एक गांव में 1460 ई. के आसपास हुआ। पिता वल्लण्ण तथा नैष्ठिक साधक भी थे। इन्हींके शिष्य पुरंदरदास ने कन्नड सुमति थे कश्यप-गोत्री। ब्रह्मण्यतीर्थ इनके दीक्षागुरु थे। उनकी भाषा में सरस पदों एवं गीतियों की रचना कर वही कीर्ति 1475-76 ई. में आकस्मिक मृत्यु होने के कारण व्यासराय __ अर्जित की, जो हिन्दी-जगत् में संत सूरदासजी को प्राप्त है। को शास्त्रों के अध्ययन का अवसर न मिल सका। पीठाधिपति इस प्रकार कन्नड में "दासकूट" (भ्रमणशील पदगायक संत) बनने के पश्चात् ही ये दक्षिण भारत के विश्रुत विद्यापीठ में के उद्भावक के रूप में तथा सुदूर बंगाल में अपने प्रभाव अध्ययनार्थ कांची गए, और वहां पर न्याय-वेदांत का पांडित्य का विस्तार करने में व्यासराय अद्वितीय हैं। अर्जित किया। श्रीपादराज नामक पंडित से भी इन्होंने द्वैत-शास्त्रों ___व्यासराय ने 8 ग्रंथों का निर्माण किया जिनमें 3 ग्रंथ का विशद अध्ययन किया। इनकी कीर्ति चारों ओर फैलने मूर्धाभिषिक्त कृतियां मान सकते है। वे हैं- न्यायामूत, तात्पर्य-चंद्रिका लगी। चंद्रगिरि के शासक सालुव नरसिंह ने इनका बडा और तर्क-तांडव । इन्हें "व्यासत्रय" के समवेत नाम से अभिहित आदर-सत्कार किया। उनकी राजसभा में अनेक पंडितों को किया गया है। तीनों ही ग्रंथ समवेत रूप से द्वैत-वेदांत के
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इतिहास में महत्त्वपूर्ण तथा अविस्मरणीय स्थान प्राप्त करने में पूर्णतः सफल सिद्ध हुए हैं। व्योमशिवाचार्य - वैशेषिक-दर्शन के एक भाष्यकार। प्रशस्तपादभाष्य पर आपकी लिखी टीका का नाम है "व्योमवती"। उदयनाचार्य ने किरणावली में "आचार्याः" कहकर आपका गौरव किया है। राजशेखर ने भी न्यायकंदली में भाष्यकारों की सूची में आपको प्रथम स्थान दिया है। इसी से आपका काल ई. 10 वीं शती के पूर्व अनुमानित है। श्रीधर, शिवादित्य आदि वैशेषिक आचार्य प्रत्यक्ष एवं अनुमान इस भांति प्रमाण द्वय मानते है किन्तु व्योमशिवाचार्य शब्द को भी स्वतंत्र प्रमाण मानते हैं। शंकर दीक्षित - समय-ई. 18 वीं शती। काशी नरेश चेतसिंह के समकालीन। काशीनिवासी महाराष्ट्रीय ब्राह्मण। पिता-बालकृष्ण (संस्कृत-रचनाकार)। पितामह-ढुण्डिराज (शाहविलासगीत तथा मुद्राराक्षस की टीका के रचयिता)। कृतियां- प्रद्युम्नविजय (नाटक), गंगावतार और शंकरचेतोविलास (चम्पू)। शंकरचेतोविलास चंपू में काशी नरेश चेतसिंह का चरित्र वर्णित है। आप बुंदेलखंड के राजा सभासिंह के भी कुछ काल तक सभापंडित रहे थे। शंकरभट्ट - ई. 17 वीं सदी। स्वयं को "मीमांसाद्वैत-साम्राज्यनीतिज्ञ" कहलवाते थे। पिता-काशी के सुप्रसिद्ध धर्मशास्त्रज्ञ एवं महामीमांसक नारायणभट्ट । पार्थसारथी मिश्र की "शास्त्रदीपिका" के दूसरे भाग पर आपने प्रकाश नामक टीका लिखी है। आपका प्रसिद्ध ग्रंथ है "द्वैतनिर्णय"। इस ग्रंथ में कृष्णजन्माष्टमीव्रत, नवरात्रव्रत, संनिपाताशौच आदि के मतमतांतरों पर मीमांसाशास्त्र के आधार पर निर्णय दिये गये हैं। मीमांसा-बालप्रकाश यह ग्रंथ, पूर्वमीमांसासूत्रों के सिद्धांतों का बालसुबोध पद्यात्मक विवेचन है। इसके अतिरिक्त निर्णयचंद्रिका, व्रतमयूख, विधिरसायन, श्राद्धकल्पसार, ईश्वरस्तुति
आदि ग्रंथों की भी रचना आपने की है। सिद्धांतकौमुदी के रचयिता भट्टोजी दीक्षित आपके शिष्य और भगवद्भास्कर नामक बृहत् ग्रंथ के लेखक नीलकंठ आपके पुत्र थे।
(2) ई. 17 वीं सदी। एक धर्मशास्त्रकार और मीमांसक। पिता-नीलकंठ। पिता के धर्मशास्त्रविषयक “संस्कारमयूख" ग्रंथ में शंकर भट्ट ने बहुत सहायता की। आपके ग्रंथ हैंकुंडभास्कर, व्रतार्क, कुंडार्क, कर्मविपाकार्क, सदाचार-संग्रह एवं एकादशीनिर्णय। “व्रतकौमुदी" नामक एक और ग्रंथ भी शंकर भट्ट के नाम पर मिलता है किंतु ये शंकरभट्ट कौन हैं, इसका पता नहीं चल पाया। शंकर मिश्र - ई. 15 वीं शती। बिहार प्रदेश के दरभंगा जिले में सरिसव नामक स्थान पर जन्म। पिता-भवनाथ मिश्र उपाख्य डायाची.. मीमांसक थे। गुरु-रघुदेव उपाध्याय अथवा कणाद एवं महेश ठाकुर। शंकर मिश्र ने खंडनखाद्य-ग्रंथ पर
टीका लिखी है। आप द्वैतवादी एव शिवभक्त थे। आपके जन्मस्थान पर निर्मित सिद्धेश्वरी देवी का मंदिर आज भी विद्यमान है। ___ अन्य रचनाएं- उपस्कार, कणादरहस्य, आमोद, कल्पलता, कंठाभरण, आनंदवर्धन, मयूख, वादिविनोद, भेदरत्नप्रकाश, स्मृतिपरक तीन ग्रंथ और शिव-पार्वती-विवाह पर गौरीदिगंबर नामक प्रहसन। शंकरलाल (म.म.) - मोरवी-निवासी। संस्कृत महाविद्यालय मोरवी के आजीवन प्राचार्य थे। जन्म- 1842, मृत्यु 1918 ई.। जन्म- काठियावाड (गुजरात) के प्रशनोर नगर में। भारद्वाज-गोत्री गुजराती ब्राह्मण। पिता-भट्ट महेश्वर (प्रथम गुरु) । द्वितीय गुरु- केशव शास्त्री। शैव। जामनगर के राजा द्वारा "महामहोपाध्याय" की उपाधि । मोरवी के राजा द्वारा सम्मानित । इनके स्मरणार्थ मोरवी में “शंकराश्रम" की स्थापना की गई जहां प्रति दिन धार्मिक कार्यक्रम होते हैं। इनकी सभी कृतियां शिष्यों द्वारा प्रकाशित।
कृतियां- बालचरित (महाकाव्य), चन्द्रप्रभाचरित (गद्य-उपन्यास), विपन्मित्र तथा विद्वत्कृत्यविवेक (निबन्ध), प्रयोगमणिमाला (लघुकौमुदी पर टीका), अनसूयाभ्युदय, भगवती-भाग्योदय, महेश्वरप्राणप्रिया, पांचालीचरित, अरुन्धतीचरित, प्रसन्न-लोपामुद्रा, केशव-कृपा-लेश-लहरी, कैलाशयात्रा, भ्रान्ति-माया-भंजन, मेघप्रार्थना, सावित्री-चरित, गोपाल-चिन्तामणि-विजय, ध्रुवाभ्युदय, अमर-मार्कण्डेय तथा श्रीकृष्णाभ्युदय ये छायानाटक और भद्रायु-विजय नामक रूपक। सभी नाटकों में छायातत्त्व की प्रचुरता है। इनके द्वारा गुजराती में लिखित ग्रंथ है : अध्यात्म-रत्नावली। शंकरस्वामी - चीनी-परम्परा के अनुसार दिङ्नाग के शिष्य । दक्षिण भारत के निवासी। बौद्ध न्यायसंबंधी इन्होंने दो ग्रंथ लिखे- हेतुविद्या-न्यायप्रवेश तथा न्यायप्रवेश-तर्कशास्त्र । हवेनसांग ने ई. 647 में इनका चीनी अनुवाद किया। शंकराचार्य (भगवत्पूज्यपाद) - ई. 7-8 वीं शती। महान् यति, ग्रंथकार, अद्वैत-मत के प्रवर्तक, स्तोत्रकार, एवं वैदिक सनातन धर्म के संस्थापक, भगवान् शंकराचार्य भारतवर्ष को एक महान विभूति थे।
आचार्य के पूर्वकाल में जैन एवं बौद्ध मतों का संघर्ष वैदिक धर्म के साथ चल रहा था। बौद्धों का प्रभाव अधिक था। ऐसे समय वैदिक धर्म को क्रियाशील पंडित की आवश्यकता थी। तब भगवत्पूज्यपाद श्रीशंकराचार्य के रूप में यह पुरुषश्रेष्ठ भारत को प्राप्त हुआ। आचार्य के जन्मकाल के विषय में मतभेद है। कुछ लोग उन्हें सातवीं सदी का मानते हैं, तो कुछ नौवीं का। लोकमान्य तिलक के अनुसार सातवीं सदी का अंतिम चरण उनका जन्मकाल रहा। प्रा. बलदेव उपाध्याय भी सातवीं सदी के अंतिम चरण से आठवीं सदी के प्रथम चरण का काल मानते हैं।
30 अयाची
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केरल में कालटी नामक एक गांव है। इसी से सटकर जो नदी है उसे अलवाई कहते हैं। वहीं शिवगुरु नामक एक तपोनिष्ठ नंपूतिरी ब्राह्मण थे। उनकी पत्नी का नाम विशिष्टा या सती था। दोनों शिवभक्त थे। शिव की उपासना करने पर वैशाख शुद्ध पंचमी पर उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। शिवकृपा के कारण शंकर नाम रखा गया। शंकर के पिता की मृत्यु कुछ ही दिनों बाद हो गई। मां ने पांचवें वर्ष में इनका उपनयन कराया। विद्याध्ययन प्रारंभ हुआ। शंकर के मन में संन्यास लेने की इच्छा जागृत हुई। मां की अनुमति मिल पाना कठिन था। कहते है एक बार नदी में स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने शंकर का पैर पकड़ लिया। पैर छूट नहीं रहा था। शंकर ने मां से कहा कि वे अब बच नहीं सकते। उन्हें मरते समय तो संन्यास लेने की अनुमति दे। व्यथित मां ने स्वीकृति दी। उसी समय कुछ केवट सहायतार्थ दौडे और शंकर बचा लिये गये।
शंकर ने नर्मदा-तीर पर समाधि लगाये बैठे गोविन्द यति के पास पहुंचकर उनसे संन्यास-दीक्षा ली और वे शंकराचार्य बने। इस संबंध में एक कथा है। एक बार गुरु समाधिस्थ थे। नर्मदा में बाढ आई थी। उन्होंने मिट्टी का एक घडा गुफा के द्वार पर रख दिया। बाढ़ का पानी उस घडे में जाता और वहीं समा जाता। उसे गुफा में जाने का मौका ही नहीं मिला। बाढ उतर गयी। गुरुजी जब समाधि से उठे, तो उन्होंने यह चमत्कार देखा। आचार्य के सामर्थ्य का उन्हें ज्ञान हुआ। उन्होंने कहा- "तुरन्त काशी जाओ, विश्वनाथजी का दर्शन लो और ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिखो। वेद व्यास कह गये हैं कि जो कोई बाढ पानी घडे में समा लेगा वही मेरे ब्रह्मसूत्र पर भाष्य लिख सकेगा।" __ गुरु की आज्ञा लेकर आचार्य काशी पहुंचे और । मणिकर्णिका-घाट पर वेदान्त के पाठ देने लगे। गुरु बारह वर्ष का, और उसके शिष्य तरुण-प्रौढ । काशी के विद्वानों को आश्चर्य होता। इन्हीं में एक विद्वान थे सदानंद। वे ही आचार्य के प्रथम शिष्य थे। ___ एक दिन आचार्य मध्याह्नकृत्य; लिये गंगा की ओर जा रहे थे। बीच में एक चांडाल आया। आचार्य ने उसे हटने के लिये कहा। इस पर उस चांडाल ने विनीत भाव से कहा- "यतिवर्य, ओ अद्वैती! जो परमात्मा सर्वत्र है, वही मुझमें भी है। मुझे हटने के लिये स्थान ही कहां है। यतिराज, आप अद्वैत के पाठ ही देते हैं, पर वह बुद्धि में ही रहा है। उसका अनुभव नहीं'
आचार्य अवाक् रह गए। "तुम मेरे गुरु हो" कहकर, उन्होंने चांडाल को प्रणाम किया। वह चांडाल, साक्षात् काशी-विश्वनाथ थे। आचार्य को उन्होंने बाद में दर्शन दिया।
आचार्य वहां से बदरिकाश्रम की ओर रवाना हुए। मार्ग
में उन्होंने तांत्रिकों द्वारा अपनाई गई नरबलि की प्रथा बंद करवाई। बदरी क्षेत्र में, उन्हें मंदिर में नारायण-मूर्ति दिखाई नहीं दी। चीनी मूर्तिभंजकों के भय से वह नारदकुंड में डाली गई और वहां से उसे निकालना कठिन है यह ज्ञात होते ही, वे अलकनंदा के नारदकुंड में कूद पडे और नारायण मूर्ति को निकाल लाये। फिर समारोहपूर्वक उन्होंने उसकी प्रतिष्ठा की। वहां के पुजारी मंत्रमुख नहीं थे। अतः उन्होंने केरल के वैदिक विद्वान् बुलवाये और उन्हें पूजा का अधिकार सौंपा।
बदरीक्षेत्र के पास व्यासतीर्थ है। वहीं व्यास आश्रम है। कहते हैं व्यासजी ने वहां "भारत" की रचना की थी। आचार्य वहीं गये और उन्होंने ब्रह्मसूत्र, गीता व उपनिषदों पर भाष्य लिखे। एक कथा के अनुसार वहीं भगवान वेद व्यास ने भी उन्हें दर्शन दिये । आचार्यजी की आयु उस समय सोलह वर्ष थी।
आचार्य इसके बाद प्रयाग रवाना हुए। प्रयाग में त्रिवेणी-संगम पर कुमारिल भट्ट का वास्तव्य था। वे महा मीमांसक एवं वैदिक कर्मकांड के प्रखर अभिमानी थे। वहां पहुंचने पर ज्ञात हुआ कि भट्ट स्वयं को तुषाग्नि में जला रहे हैं। आचार्यजी के प्रश्न पर इन्होंने कहा कि बौद्ध धर्म का सप्रमाण खंडन करने के लिये, उन्होंने उसका सूक्ष्म ज्ञान नालंदा विश्वविद्यालय में प्राप्त किया। वहीं धर्मपाल नामक उनके गुरु से वादविवाद में उन्होंने गुरु को परास्त किया। इस गुरुद्रोह पर वे प्रायश्चित्त ले रहे हैं। आचार्यजी के आग्रह पर भी भट्ट नहीं माने और उन्होंने स्वयं को जला लिया। इसके बाद आचार्य मध्यप्रदेश पहुंचे, जहां माहिष्मती नगरी में महान् कर्मकाण्डी मंडनमिश्र रहते थे। मीमांसा-श्रेत्र में उनका शब्द प्रमाण था। अतः अद्वैत वेदान्त के अबाधित प्रचार के लिये, उन्हें अनुकूल करना आवश्यक था। उनके साथ शास्त्रार्थ हुआ और आचार्यजी विजयी रहे। पर उनकी पत्नी ने उन्हें चुनौती दी, उनके साथ शास्त्रार्य में जब कामशास्त्र के प्रश्न उठे, तो आचार्य ने अनुभवज्ञान के लिए छह माह की अवधि मांगी। फिर उसी समय मृत हुए राजा अमरु के शरीर में प्रवेश कर उन्होंने इस शास्त्र की जानकारी प्राप्त की, एवं छह माह बाद लौटकर शास्त्रार्थ में विजयी हुए। मंडनमिश्र आचार्य के शिष्य बने और उन्होंने अपना सारा विद्यावैभव अद्वैत सिद्धान्त के मंडन में ही सार्थक किया।
शंकराचार्य अपने प्रवास में केरल में अपने जन्म ग्राम पहुंचे। उनकी मां वहां मृत्युशय्या पर थी। पुत्र की भेंट के बाद उनकी मृत्यु हुई। धर्मशास्त्र के अनुसार संन्यासी को अपने किसी भी रिश्तेदार की अंत्येष्टि नहीं करनी चाहिये। किन्तु किसी भी ब्राह्मण के आगे नहीं बढने से, आचार्यजी मां का शव किसी भांति बाहर ले आये और घर के आंगन में ही उन्होंने अंत्येष्टि की।
आचार्य ने देश भर प्रवास कर अद्वैत सिद्धान्त का प्रसार
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लिये प्रयास एक आकर धर्म में जावे, सभी
किया। अंत में वे काश्मीर गये। वहां शारदा के एक मंदिर गोविंद के बीच चार पुरुष हैं : गौडपाद- पावक- पराचार्यमें विद्वानों का वास्तव्य था। वहीं एक पीठ था। उसे सत्यनिधि- रामचंद्र- गोविंद। "सर्वज्ञ-पीठ" कहते थे। आचार्य उसी पर जाकर बैठ गये।
काशी का सुमेरुमठ एवं कांची का कामकोटि-पीठ भी विद्वानों ने उनसे पूछा- "क्या आप सर्वज्ञ है" उनकी स्वीकारोक्ति
आचार्य द्वारा निर्मित माना जाता है। कामकोटि-पीठ के अधिपति पर, उन्होंने उन्हें अनेक प्रश्न पूछे। आचार्य द्वारा समाधान इसे ही प्रधानपीठ मानते हैं। कुछ उपपीठ भी निर्माण हुए किया जाने पर, सभी ने उनका जयजयकार किया।
हैं। वे हैं : कूडली, संकेश्वर, पुष्पगिरि, विरूपाक्ष, हव्यक, आचार्य नेपाल गये। वहां पशुपतिनाथ मंदिर पर बौद्धों का शिवगंगा, कोप्पाल, श्रीशैल, रामेश्वर एवं बागड। सभी मठाधीशों अधिकार था। वैदिक पूजाविधि जानने वाला कोई नहीं था। को आचार्य ने जो उपदेश किया, उसे 'महानुशासन' कहा नेपाल के राजा की अनुमति से केरल ने नंपूतीरी ब्राह्मण गया है। उसकी धर्माज्ञा के अनुसार मठपति अपने राष्ट्र की बुलाकर उन्होंने उन्हें पूजा का कार्य सौपा। मंदिर का जीर्णोद्धार प्रतिष्ठा के लिये आलस छोड दे, अपने शासनप्रदेश में सदैव किया।
भ्रमण कर वर्णाश्रमों के कर्तव्यों का उपदेश करें। सदाचार ___ अपनी 31 वर्ष की आयु में भाष्य-लेखन, प्रचार दिग्विजय, बढावें, एक मठाधिपति दूसरेके अधिकार-क्षेत्र में जावें, सभी मठस्थापन आदि प्रचंड कार्य आपने पूर्ण किये। अंत में मठाधिपति बीच-बीच में एकत्र आकर धर्मचर्चा करें, धार्मिक केदार-क्षेत्र को देहत्याग के लिये योग्य मानकर, वैशाख शुक्ल सुव्यवस्था के लिये प्रयास करें, वैदिक धर्म प्रगतिशील एवं एकादशी के दिन इस यतिश्रेष्ठ ने शरीर त्याग किया। उनके अक्षुण्ण रहे, इस हेतु दक्ष रहें। शास्त्रज्ञ विद्वान् ही धर्म के निर्याण-स्थल और तिथि पर मतभेद है।
मामले में नियामक हो सकते हैं। वे धर्मपीठों पर नजर रखें, आचार्य के चार प्रमुख शिष्य थे। सुरेश्वर (मंडनमिश्र, समय-समय पर मठपति के आचरण की जांच करें। विद्वान, पद्यपाद (सनंदन), हस्तामलक (पृथ्वीधर) एवं तोटकाचार्य चारित्र्यवान्, कर्तव्यदक्ष, सद्गुणी संन्यासी को ही पीठाधिष्टित करें। (गिरि)। हस्तामलक के बारे में कथा है कि उनके पिता
आचार्य द्वारा लिखे गये ग्रंथों की संख्या 200 से अधिक बच्चे की वैराग्यवृत्ति देखकर उसे आचार्य के पास ले आये। आचार्य ने बच्चे से पूछा- तुम कौन हो, कहां के हो, किस
मानी जाती है। उनमें आद्य शंकराचार्य के प्रमाणभूत जो ग्रंथ ' के हो, उत्तर मिला -
निश्चित हुए हैं, वे हैं : प्रस्थानत्रयी के भाष्य। (प्रस्थानत्रयी
= ब्रह्मसूत्र, दशोपनिषद् और भगवद्गीता) स्तोत्रों में आनंदलहरी नाहं मनुष्यो न च देवयक्षो
भगवती देवी पर रचा गया है। शिखरिणी वृत्त में 107 श्लोक न ब्राह्मणः क्षत्रियवैश्यशूद्राः ।
इसमें है। उनमें प्रारंभिक 41 श्लोकों को आनन्दलहरी और न ब्रह्मचारी, न गृही वनस्थो
अवशिष्ट श्लोकों को सौन्दर्यलहरी नाम है। उस पर 30 टीकाएं भिक्षुर्नचाहं निजबोधरूपः।।
उपलब्ध हैं। देवी की यह स्तुति रसिकजनों को आनंदप्रद रही है। अर्थ- मैं मनुष्य नहीं, उसी भांति देव, यक्ष भी नहीं। मैं
दक्षिणामूर्ति-स्तोत्र शार्दूल-विक्रीडित वृत्त में है। इसमें वेदान्त चारों वर्गों में से कोई नहीं, चारों आश्रम में से कोई नहीं।
_प्रतिपादन के सार्थ तांत्रिक उपासना के कुछ पारिभाषिक शब्द हैं। में केवल निजबोधरूप अर्थात् ज्ञानरूप हूं।
चर्पटपंजरी (17 श्लोकों का स्तोत्र) अत्यंत नादमधुर है। तब आचार्य ने पिता से कहा- यह बच्चा आपके काम
उसमें वैराग्य का उपदेश है। इसे "भज गोविंदम्" कहते है। का नहीं। यह कोई जीवन्मुक्त आत्मा है। इसे मेरे यहां छोडिये।
षट्पदी- स्तोत्र का एक प्रसिद्ध श्लोक हैआचार्य ने अपने इन चारों शिष्यों की नियुक्ति चार पीठों पर की। पद्मपाद-गोवर्धनपीठ (उडीसा), सुरेश्वर-शृंगेरीपीठ
सत्यपि भेदापगमे नाथ तवाहं न मामकीनस्त्वम्। (कर्नाटक), हस्तमालक-शारदापीठ (द्वारका) एवं
सामुद्रो हि तरङ्गः क्वचन समुद्रो न तारङ्गः ।। तोटक-ज्योतिर्मठ (हिमालय)।
हरिमीडे-स्तोत्र में विष्णु की प्रंशसा है। शिवभुजंगप्रयात में प्रचलित ग्रंथों के अनुसार, आचार्य की गुरुपरंपरा इस भांति
चौदह श्लोक हैं। अपनी मां के अंत में आचार्य ने उनके है- विष्णु-शिव- ब्रह्मा- वसिष्ठ-शक्ति- पराशर- शुक- गौडपाद
निमित्त श्रीकृष्णस्तुतिपर स्तोत्र की रचना की। गोविंद- शंकर। इस परंपरा के अनुसार, शंकराचार्य गौडपाद
__'सौंदर्यलहरी' काव्य-दृष्टि से सरस, प्रौढ एवं रहस्यपूर्ण स्तोत्र के प्रशिष्य एवं गोविंद के शिष्य हैं। आचार्य श्रीविद्या के
है। यह शतक काव्य है। 41 श्लोकों में तंत्रविद्या के रहस्य उपासक थे। उनके कुछ मठों में श्रीचक्र की स्थापना रहती
एवं 59 श्लोकों में त्रिपुरसुन्दरी का वर्णन है। है। मठपति के दैनिक कृत्यों में श्रीचक्र की पूजा की विधि प्रकरण ग्रंथ- आचार्यजी ने अपने अद्वैत वेदान्त प्रचार हेतु भी है। आचार्य के सौन्दर्यलहरी और प्रपंचसार ये प्रकरणग्रंथ जो छोटे-बड़े ग्रंथ लिखे, उन्हें 'प्रकरण ग्रंथ' कहा जाता है। तंत्रविद्या के ही हैं। श्रीविद्यार्णवतंत्र के अनुसार, गौडपाद और इसमें कुछ प्रमुख हैं : अद्वैत-पंचरत्न, अद्वैतानुभूति,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /467
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अनात्मश्रीविगर्हण, उपदेशसाहस्री, धन्याष्टक, विवेकचूडामणि इ.। ई.पू. दूसरी शताब्दी से पूर्व का निश्चित होता है। शंतनु के
शंकराचार्य को कुछ लोग 'प्रच्छन्न बौद्ध' मानते हैं। पद्मपुराण सूत्र पाणिनि के भी पहले होने चाहिये ऐसा मत, सिद्धांतके निम्न श्लोक का आधार वे लेते हैं
कौमुदी के वैदिक प्रकरण पर सुबोधिनी नामक टीका-ग्रंथ के मायावादमसच्छास्त्रं प्रच्छन्नं बौद्धमुच्यते।
लेखक ने अंकित किया है। सूत्रकार शतनु की परंपरा, पाणिनि मयैव कथितं देवि कलो ब्राह्मणरूपिणा ।
से भिन्न प्रतीत होती है। विशेष बात यह कि प्रचलित मान्यता परंतु वे प्रच्छन्न बौद्ध नहीं थे यह स्वयं बौद्ध दृष्टि से भी
के विपरीत वे कहते है कि वेदों के समान लौकिक भाषा में सिद्ध होता है। शांतरक्षित समान प्रकांड बौद्ध दार्शनिक ने
भी प्रत्येक शब्द को स्वर होता है। अर्थभेद के कारण स्वरभेद आचार्य के मतों की कटु आलोचना की है।
होने वाले 'अर्जुन', 'कृष्ण' आदि अनेक शब्दों की स्वरविषयक
ama ___ आचार्य ने जो अद्वैत सिद्धान्त प्रतिपादित किया, उसका
चर्चा उन्होंने इस दृष्टि से अपने फिटसूत्रों में की है। मूलमंत्र है।
शक्तिवल्लभ अाल - नेपाली। ई. 18 वीं शती। ___ "ब्रह्म सत्यं, जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः" आत्रेय गोत्री कान्यकुब्ज ब्राह्मण। पिता-लक्ष्मीनारायण। शक्ति
आचार्य ने 32 वर्ष की आयु में जो सर्वंकष कार्य किया के उपासक। राजनीतिनिपुण। संगीत-कुशल। संस्कृत तथा कि वह विश्व में अपूर्व है।
देशभाषाओं के विद्वान्। 'जयरत्नाकर' नाटक के प्रणेता। शंकरानंद - ई. 11 वीं सदी। बौद्ध मतानुयायी तर्कशास्त्री। शकपूत - एक सूक्तद्रष्टा राजा। नृमेध आंगिरस के पुत्र होने काश्मीरी ब्राह्मण। धर्मकीर्ति की प्रमाणवार्तिक एवं संबंध-परीक्षा से नार्मेध भी कहलाये। ऋग्वेद के दसवें मंडल का 132 वां पर टीका, अपोहसद्धि तथा प्रतिबंधसिद्धि इनके ग्रंथ हैं। सभी सूक्त, आपके नाम पर है। इस सूक्त का विषय मित्रावरुणस्तुति ग्रंथ तिब्बती में अनुवादित।
है। एक ऋचा है - (2) एक अद्वैती आचार्य। ई. 14 वीं सदी। विद्यारण्य ता वां मित्रावरुणा धारयत्क्षिती खामी के गुरु। इन्होंने अद्वैत प्रचार के लिये प्रस्थानत्रयी पर
सुषुम्नेषितत्वा यजामसि । टीका लिखी। आत्मपुराण नामक ग्रंथ की भी रचना की जो युवोः क्राणाय सख्यैरभि ष्याम रक्षसः ।। सर्वोपनिषदों का सार है।
अर्थ- हे इष्ट देवतास्वरूप, पृथ्वी-रक्षक, धनसम्पन्न मित्रावरुण, (3) ई. 18 वीं सदी। एक धर्मशास्त्री व मीमांसक। , आपकी सहायता से ही हम यज्ञद्वेषी राक्षसों को पराजित करते है। पूर्वाश्रम का नाम बालकृष्ण भट्ट। काशी में निवास । खंडदेव शची पौलोमी - पुलामा असुर की कन्या। ऋग्वेद के दसवें के भाट्टदीपिका नामक मीमांसा ग्रंथ पर इन्होंने प्रभावली नामक मंडल का 159 वां सूक्त आपके नाम है। इस सूक्त में सपत्नी टीका लिखी। धर्मशास्त्र पर लिखे अन्य ग्रंथ हैं : (सौत) के नाश की प्रार्थना की गई है। सूर्य को लक्ष्य कर कालतत्त्व-विवेचनसारसंग्रह, त्रिंशच्छ्लोकी, निर्णय-सारोद्धार एवं इसका जप किया जाता है। पातयज्ञप्रयोग। इनके अतिरिक्त तंत्रशास्त्र पर सुंदरी-महोदय नामक यनेन्द्रो हविषा कृत्व्य भवद् द्युम्न्युत्तमः । ग्रंथ की भी इन्होंने रचना की है।
इदं तदक्रि असपत्ना किलाभुवम्।। शंकुक - शंकुक के मत का अभिनवगुप्त ने 15 स्थानों पर अर्थ- हे हविर्दत्त देवताओं, आपकी कृपा से इंद्रसमान उल्लेख किया है तथा टीका के उद्धरण देकर आलोचना भी जगद्विख्यात पति मुझे मिला है, मैं आज सपत्नी (सौत) की की है। ये रसशास्त्र के व्याख्यान में अनुमितिवादी आचार्य पीडा से मुक्त हुई हूं। माने जाते हैं। राजतंरगिणी में इन्हें भी अजितापीड के समय
शठकोप यति (शठकोपाचार्य) - दक्षिण भारत के अहोबिल ई. 9 वीं शती का कहा गया है -
मठ के सप्तम आचार्य। मूल नाम तिरुमल्ल। कविर्बुधमनःसिन्धुशशांकः शंकुकाभिधः।
'कवि-तार्किक-कण्ठीरव' की उपाधि से विभूषित । कवि वाहिनीपति यमुद्दिश्याकरोत् काव्यं भुवनाभ्युदयामिधम्।
द्वारा प्रशंसित। विजयनगर के रंगराज (1575-1598) के इससे सिद्ध होता है कि शंकुक ने 'भुवनाभ्युदय' नामक समकालीन। रचना- वासंतिका-परिणय नामक नाटक। काव्य अजितापीड की स्तुति में लिखा था। सूक्ति-मुक्तावली शठकोपाचार्य - वैष्णवों के श्री - संप्रदाय के प्रधान आलवार । तथा शाङ्गधरपद्धति से ज्ञात होता है कि शंकुक के पिता श्रीराम के प्रति मधुर भावना से युक्त 'सहस्र-गीति' नामक का नाम मयूर था। ये बाण के समकालीन मयूर से भिन्न ही होंगे। रस-भावात्मक ग्रंथ के रचयिता। आपने अपने सहस्र- गीति शंतनु - व्याकरण के फिटसूत्रों के कर्ता। इनके संबंध में ग्रंथ में भगवान् राम की माधुर्यमयी प्रार्थना की है। राम के कोई भी जानकारी उपलब्ध नहीं हैं। पतंजलि ने अपने महाभाष्य प्रति दक्षिण के आलवारों की मधुर भावना का परिचय आपके में आपके सूत्रों का आधार लिया है। अतः शंतनु का काल, इस ग्रंथ से होता है। आप 'शठकोप मुनि' के नाम से भी प्रसिद्ध थे।
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शठगोप रामानुज - ई. 19 वीं शती। रचनाएं- कवि-हृदयरंजिनी और वेदगिरिवर्णन। शतप्रभेदन वैरूप - विरूप के पुत्र। ऋग्वेद में आपका उल्लेख नहीं किन्तु ऋग्वेद के दसवें मंडल के 113 वें सूक्त के द्रष्टा । प्रस्तुत सूक्त इंद्रस्तुति पर है। शतानंद - 11 वीं सदी। एक प्रसिद्ध वैष्णव ज्योतिष-ग्रंथकार । जगन्नाथपुरी में निवास। वराहमिहिर के सूर्यसिद्धान्त के आधार पर आपने भास्वतीकरण नामक करणग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में क्षेपक और ग्रहगति के गुणक-भाजक शतांश पद्धति से दिये गये हैं जो दशांशपद्धति से मिलती जुलती है।
यह ग्रंथ तिथिधुवाधिकार, ग्रहध्रुवाधिकार, स्फुटतिथ्यधिकार, ग्रहस्फुटाधिकार, त्रिपात्र, चंद्रग्रहण, सूर्यग्रहण एवं परिलेख नामक आठ अधिकारों में विभाजित है। मलिक मुहम्मद जायसी के पद्मावत नामक ग्रंथ में भी इसकी चर्चा है। यह लोकप्रिय ग्रंथ रहा है। इसके सभी टीकाकार उत्तर-भारत के ही हैं। शत्रुघ्न (मिश्र) - ई. 15 वीं शती। मन्त्रार्थ-दीपिका नामक ग्रंथ के रचयिता। ग्रंथकार के कथनानुसार यह टीकाग्रंथ उवटाचार्य कृत यजुर्वेदभाष्य, गुणविष्णुकृत छन्दोगमन्त्रभाष्य, हलायुध का ब्राह्मणसर्वस्व और गौरधर की वेदविलासिनी टीका को देखकर हुआ है। स्नानमन्त्र, सन्ध्यामन्त्र, देवार्चनमन्त्र, श्राद्धमन्त्र, षडंगशतरुद्र, विवाहादि मन्त्र आदि पर यह सरल रूप से सविस्तर व्याख्यान है। शबरस्वामी - ईसापूर्व 3 री सदी। मीमांसासूत्र के प्रसिद्ध भाष्यकार। आपका जीवनचरित उपलब्ध नहीं। कुछ लोग आपको तामिलनाडु के मानते हैं तो कुछ उत्तरभारत के। डा. संपूर्णानंद का मत है कि आपका जन्म तमिलनाडु का एवं कार्यक्षेत्र बिहार रहा।
शबरस्वामी का वास्तव नाम आदित्य था। वे राजा थे। चार वर्ण की चार कन्याओं से आपने विवाह किया था। आप ब्राह्मण रहे होंगे क्यों कि उस काल में ब्राह्मणों को चारों वर्णो की स्त्रियां करने का अधिकार था। ब्राह्मण स्त्री से हुए पुत्र थे वराहमिहिर, क्षत्रिय से भर्तृहरि एवं विक्रम, वैश्य से हरचंद वैद्य एवं कुशलशंक तथा शद्र से अमर। दंतकथा के अनसार वे जैनियों के भय से शबर का वेश धारण करते थे, अतः शबरस्वामी कहलाये। आपने जैमिनी के मीमांसासूत्र पर भाष्य लिखा। इसे 'शाबर-भाष्य' कहते हैं। जैमिनि के सूत्रों पर लिखा गया यह पहला ग्रंथ है। आप प्रगत विचारों के थे। वेद एवं यज्ञ के प्रति अंधश्रद्धा दूर कर उन्हें उपयुक्तवाद के क्षेत्र में लाकर रखा। उनका सारा विवेचन ताधिष्ठित है।
वेद का प्रामाण्य अबाधित रखने का आपने अपने भाष्य में प्रयत्न किया है। आपने ईश्वर के स्थान पर 'अपूर्व' को ही मान्य किया।
शबरस्वामी के पूर्व-मीमांसा की स्वतंत्र दार्शनिक विचारधारा नहीं थी। बौद्धों का भी जोर था। उस कठिन समय में वेदों की रक्षा और प्रामाण्य अबाधित रखने का कार्य आपने किया। शरणदेव - बौद्ध-मतावलम्बी। समय-ई. 13 वीं शती। अष्टाध्यायी की दुर्घटवृत्ति के लेखक। संस्कृत भाषा के जो पद व्याकरण से साधारणतया सिद्ध नहीं होते उनका साधुत्व बताने का प्रयास इस ग्रंथ में है और यही उसका वैशिष्ट्य है। श्रीसर्वरक्षित द्वारा इनके ग्रंथ का संक्षेप तथा प्रतिसंस्करण हुआ। यह ग्रंथ उपलब्ध है। समय-वि.सं. 12301 शरफोजी (द्वितीय) - तंजौर के शासक महाराज । शासन-काल 1800 ई. से 1832 ई. तक। कुमारसंभव-चम्पू, स्मृति-सार-समुच्चय, स्मृतिसंग्रह व मुद्राराक्षस-छाया नामक 4 ग्रंथों के प्रणेता। इन ग्रंथों में से "कुमारसंभवचम्पू" का प्रकाशन वाणी विलास प्रेस श्रीरंगम् से 1939 ई. में हो चुका है। शर्ववर्मा - कातंत्र व्याकरण के कर्ता । भृगुकच्छ (भडोच-गुजरात) निवासी। हाल सातवाहन ने अपनी गाथा सप्तशती की पुष्पिका में इन्हें "धीसखा" याने विद्वत्ता के कारण हुआ मित्र कहा है। कहते हैं कि कार्तिकेय की आराधना कर शर्ववर्मा ने सरल व्याकरण प्राप्त किया और हाल सातवाहन को संस्कृत 6 माह में सिखा दी। कार्तिकेय के वाहन कलापक (मोर) पर, इसे (व्याकरण को) कालापक भी कहा गया है। राजा ने गुरुदक्षिणा के रूप में भृगुकच्छ (भडोच) राज्य इन्हें दान में दिया था। शशकर्ण काण्व - कण्वकुल के सूक्तद्रष्टा । ऋग्वेद के आठवें मंडल का नौंवा सूक्त आपके नाम पर है। इसमें अश्विनीकुमारों की स्तुति है। शांडिल्य (धर्मसूत्रकार) - आपस्तम्ब श्रौत के रुद्रदत्तकृत भाष्य में (9-11-12) शाण्डिल्य गृह्य उद्धृत हैं। वह सामशाखा का गृह्य है ऐसा कुछ विद्वानों का तर्क है। शाण्डिल्य सूत्रकार याजुष थे ऐसा भी कुछ विद्वानों का अनुमान है। शांडिल्य - बृहदारण्यक उपनिषद् में शांडिल्य के गुरु वात्स्य बताये गये हैं। यज्ञविधि में आप कुशल थे। शतपथ ब्राह्मण के 6 से 10वें काण्ड में शाण्डिल्य के मतानसार वेदी का विचार किया गया है। गोत्र-सूची में आपका नाम है तथा शांडिल्य, असित, एवं देवल इस गोत्र के प्रवर हैं। शांडिल्यविद्या नामक तत्त्वज्ञानविषयक विचार आपके नाम पर है। आपके अनुसार आत्मा में विलीन हो जाना जीवन का साध्य है। शांडिल्यस्मृति, शांडिल्यतत्त्वदीपिका एवं भक्तिमार्ग का शांडिल्यसूत्र नामक ग्रंथ आपकी रचनाएं हैं। शातलूरी कृष्णसूरि - रचना-अलंकारमीमांसा। इस ग्रंथ में रसगंगाधर के मतों का परामर्श लेने का प्रयास लेखक ने किया है। अन्य रचना- साहित्यकल्पलतिका।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 469
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शांतिदेव - महायान सम्प्रदाय के प्रसिद्ध दार्शनिक। तारनाथ के अनुसार इनका जन्म सौराष्ट्र (गुजरात) के राज-परिवार में हुआ। पिता-कल्याणवर्मा। तारादेवी की प्रेरणा से राज्यत्याग तथा बौद्ध मत का स्वीकार । बोधिसत्व मंजुश्री की कृपा से दीक्षा प्राप्त । मन्त्रतन्त्रों के पूर्ण ज्ञाता। कुछ समय तक महाराज पंचसिंहल के अमात्य । नालन्दा के प्रधान विद्वान् जयदेव के शिष्य। पीठस्थविर के पद पर नियुक्त। रचनाएं- (1) शिक्षा-समुच्चय, (2) सूत्र-समुच्चय और (3) बोधिचर्यावतार । इन रचनाओं का विस्तृत वर्णन बुस्तोन ने किया है। शांतिरक्षित - ई. 8 वीं सदी। बिहार के भागलपुर जिले में जन्म। प्रथम वैदिक ग्रंथों का अध्ययन किया। बाद में बौद्ध मत के प्रति आकर्षित होकर नालंदा गये। आचार्य ज्ञानगर्भ से भिक्षुदीक्षा ली। नालंदा महाविहार के प्रधान पीठस्थविर बने। 75 वर्ष की आयु तक आप नालंदा में ही रहे। तिब्बत के राजा का निमंत्रण पाकर, आप अनेक कष्ट सहन कर तिब्बत पहुंचे। राजा के अनुरोध पर बौद्ध धर्म का प्रचार किया। उन्हीं दिनों तिब्बत में महामारी फैली। भूत-प्रेतपूजक तिब्बती शांतिरक्षित को ही कारण मानने लगे। अतः उन्हें तिब्बत छोडना पडा। वहां से वे नेपाल गये। दो वर्ष पश्चात् वे पुनः तिब्बत गये। इस बार पद्मसंभव नामक आचार्य भी उनके साथ थे। वे तांत्रिक थे। बाद में अनेक विद्वान् नालंदा से पहुंचे। बौद्ध ग्रंथों का तिब्बती में अनुवाद किया। सन् 749 में तिब्बत में “सम्मे विहार" की स्थापना की। आप स्वतंत्र शून्यवादी आचार्य थे। ___तत्त्वसंग्रह" नामक पांच हजार श्लोकों का स्वतंत्र दार्शनिक ग्रंथ आपने लिखा। सौ वर्ष की आयु में दुर्घटना में आपकी मृत्यु हुई (762 ई.) सम्मे (साम्य) विहार के पास एक स्तूप में आपकी अस्थियां रखी गयी थी। स्तूप गिरने के बाद पात्र, चीवर एवं कपाल साम्ये विहार में रखी गयीं। शांतिसागर गणि - तपागच्छीय धर्मसागर गणि के प्रशिष्य एवं श्रुतसागर गणि के शिष्य। आपने कल्पसत्र पर कल्पकौमदी नामक शब्दार्थ प्रधान वृत्ति लिखी। (वि.सं. 1707) । ग्रंथमान 3707 श्लोक प्रमाण)। इसमें तपागच्छप्रवर्तक की गणना आपने की है। शांतिसूरि - समय- ई. विक्रम की 12 वीं शती। जन्मराधनपुर (गुजरात) के पास उण-उन्नतायु नामक गांव में। पिता-धनदेव। माता-धनश्री। बाल्यावस्था का नाम भीम । थारापद-गच्छिय-विजयसिंहसूरि द्वारा दीक्षित । मालव प्रदेश में भोजराज के सभापण्डितों को पराजित करने पर "वादिवेताल" की उपाधि से विभूषित। कवि धनपाल के मित्र। प्रधानशिष्य-मुनिचन्द्र। ग्रंथ-उत्तराध्ययन टीका। (शिष्यहिता वृत्ति) तथा तिलकमंजरी-टिप्पण। टीका में मूल सूत्र और वृत्ति दोनों का विषद विवेचन प्राकृत कथाओं के साथ किया है।
शाकटायन - (1) समय- ईसापूर्व एक हजार वर्ष । एक प्राचीन वैयाकरण। कुछ लोग इन्हें शकट-पुत्र मानते हैं, तो पाणिनि को शकट-पौत्र । पाणिनि के अनुसार आप काण्व-वंश के थे। ऋग्वेद एवं शुक्ल यजुर्वेद के प्रातिशाख्य एवं यास्क के निरुक्त में आपका उल्लेख आता है। पाणिनि आपको श्रेष्ठ मानते ही हैं। (अष्टा. 1-4-86-87) । केशव नामक ग्रंथकार ने आपका गौरव "आदिशाब्दिक" कह कर दिया है।
व्याकरण का उणादिसूत्र आपकी रचना है। आपके अनुसार सारे शब्द धातुसाधित हैं। बृहदेवता-ग्रंथ में दैवतशास्त्र विषयक कुछ उदाहरण हैं। शाकटायन ने संभवतः इस पर ग्रंथ लिखा होगा। शाकटायन-स्मृति एवं शाकटायन-व्याकरण भी आपकी रचनाएं हैं, पर एक भी उपलब्ध नहीं।
(2) सन् 9 का उत्तरार्ध। सुप्रसिद्ध जैन वैयाकरण । "शाकटायन-प्रक्रियासंग्रह" नामक ग्रंथ की रचना कर उस पर स्वयं ही “अमोघवृत्ति' नामक टीका लिखी। शाकपूणि - यास्कप्रणीत निरुक्त में उद्धृत एक निरुक्तकार । आत्मानन्द-प्रणीत “अस्य वामीय भाष्य" में शाकपूणि निरुक्तकार का बार-बार उल्लेख होने के कारण शाकपूणिकृत निरुक्त उपलब्ध हो ऐसी संभावना है। अन्य निरुक्तकारों की भांति शाकपूणि केवल निरुक्तकार ही नहीं, अपि तु निघण्टुकार भी थे। इनके निघण्टु का भी प्रमाण रूप से प्राचीन ग्रंथों में निर्देश मिलता है। शाकपूणि का अन्य नाम था रथीतर । शाकपूणि (रथीतर) ने तीन ऋक्संहिताओं का प्रवचन किया
और फिर चौथा निरुक्त बनाया ऐसा पुराणों में निर्देश है। अर्थात् शाकपूणि ऋग्भाष्यकार, निरुक्तकार और निघण्टुकार थे। जैसे यास्काचार्य ने निरुक्त के अतिरिक्त याजुष-सर्वानुक्रमणि लिखी उसी तरह शाकपूणि आचार्य ने तैत्तिरीय संहिता से संबंधित और कोई ग्रंथ लिखा हो ऐसी संभावना है। शाकपूणि, पदकार शाकल्य के काल के समीप एवं शाखा-प्रवर्तक होने से भी महाभारत काल के समीप ही हुए ऐसा पं. भगवद्दत्त का मत है। शाकल्य - ऋग्वेद के पदपाठकार। इनके अतिरिक्त दूसरे देवमित्र शाकल्य का पुराणों में वर्णन मिलता है। उन्होंने पांच संहिताएं बनाई ऐसा पुराणों में वर्णन है। पदपाठकार शाकल्य
और पंच-संहिताकार शाकल्य एक ही हैं; भिन्न नहीं, ऐसा विद्वानों का निर्णय है। शाकल्य महाभारतकालीन व्यक्ति हैं। जनक-सभा में याज्ञवल्क्य के साथ इनका विवाद हुआ था। शाकल्य का पदपाठ, निरुक्तकार यास्क को कई स्थानों पर मान्य नहीं था। माध्यंदिन संहिता का पदपाठ भी शाकल्यकृत हो ऐसी संभावना है। शाट्यायनि - मूल नाम शंग पर शाट्य के वंशज होने से शाट्यायनि या शाट्यायन कहे गये। सामविधान ब्राह्मण में बादरायण आपके गुरु बताये गये हैं। शाट्यायन ब्राह्मण,
मग हा
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शाट्यायन गृह्यसूत्र एवं जैमिनीय उपनिषद्-ब्राह्मण आपकी रचनाएं मानी जाती है। शातातप - याज्ञवल्क्य एवं पाराशर के अनुसार एक प्रमुख धर्मशास्त्रकार। आपका स्मृतिग्रंथ गद्य-पद्यात्मक है। ग्रंथ में छ: अध्याय और 231 श्लोक हैं। प्रायश्चित्त, विवाह, वैश्वदेव, श्राद्ध, अशौच आदि विषय इस स्मृति में है। शारदातनय - ई. 13 वीं सदी का मध्य । नाट्य्-शास्त्र एवं रसासिद्धान्त का विवेचन करने वाला भावप्रकाशन नामक ग्रंथ आपकी रचना है। यह दस अधिकारणों में विभाजित है। इसमें भाव, रस, शब्दार्थ-संबंध, रूपक इन चार विषयों का प्रतिपादन किया गया है। शाङ्गदेव - ई. 13 वीं सदी। इनका जन्म काश्मीर के संपन्न परिवार में हुआ था। इनके पितामह भास्कर दक्षिण में आए। पिता-सोड्ढल, देवगिरि के यादव-राज्य-संस्थापक राजा सिंहल (1132-1169 ई.) के लेखापाल थे। संगीतशास्त्रज्ञ। देवगिरि के सिंघण यादव के दरबार में गायक। "संगीत-रत्नाकर" ग्रंथ की आपने रचना की। इसमें स्वरगत, रागविवेक, प्रकीर्णक, प्रबंध, ताल, वाद्य, नृत्य पर कुल सात अध्याय हैं। भरत, मतंग, सोमेश्वर, अभिनवगुप्त आदि प्राचीन आचार्यों के मतों का विवेचन भी शाङ्गिदेव ने अपने “संगीत-रत्नाकर" में किया है। ___ शाङ्गिदेव ने कहा है कि उनमें सरस्वती निवास करती है। वे स्वयं को "निःशंक" कहते है। इस नाम से उन्होंने एक वीणा का आविष्कार किया है। शागधर - ई. 11 वीं सदी। पिता-दामोदराचार्य। वैद्यकशास्त्र पर शाङ्गिधरसंहिता नामक ग्रंथ लिखा (इसके 3 खंड और बत्तीस अध्याय हैं)।
प्रथम खंड में औषधियों के गुणधर्म, उनके परिणाम, निदान एवं चिकित्सा, शरीर-शास्त्र, पदार्थविज्ञानशास्त्र, गर्भशास्त्र आदि विषय हैं। दूसरे विभाग में आसव, कषाय, रसायन, मादक पेय की चर्चा है। अंतिम खंड में रोग-निवारण संबंधी उपचार हैं। चरक, सुश्रुत एवं माधव से भी अधिक चर्चा आपके ग्रंथ में रोगों के बारे में है, नाडी-परीक्षा के बारे में विपुल जानकारी है। उमेशचंद्र दत्त के अनुसार भस्मीकरण आदि पर लिखने वाले आप सबसे प्राचीन ग्रंथकार हैं। रसायन तैयार करने में भी आप कुशल थे। सोना, चांदी, लोह आदि निरिन्द्रिय धातुओं के भस्मीकरण की पद्धति आपने ही ढूंढ निकाली।
(2) ई. 12 वीं सदी। राजस्थान के हम्मीरदेव के दरबार में थे। हम्मीरविजय और सुभाषितशाङ्गधर नामक दो ग्रंथों की रचना की। प्रथम ग्रंथ लोकभाषा में एवं द्वितीय संस्कृत में (4689 पद्यों में) है। शर्ववर्मा - ई. पू. 405 वर्ष। इन्होंने कातन्त्र धातुपाठ का संक्षिप्त धातुपाठ किया था। उसका तिब्बती अनुवाद जर्मन विद्वान् लिबिश ने प्रकाशित किया है। शर्ववर्मा ने कातन्त्र
व्याकरण और धातुपाठ पर भी वृत्ति लिखी थी जिसमें चुरादि धातुओं में क्रियाफल स्वगामी और परगामी होने पर भी आत्मनेपद और परस्मैपद दोनों इष्ट माना गया है। पाणिनि ने क्रियाफल कर्तृगामी होने पर चुरादि धातु का आत्मनेपद और अकर्तृगामी होने पर परस्मैपद इष्ट माना है। शालिकनाथ मिश्र - ई. 9 वीं सदी के पूर्व। गौड देश में जन्म। प्रभाकर परंपरा के श्रेष्ठ मीमांसक ग्रंथकार। प्रभाकर के लध्वी एवं बृहती दोनों ग्रंथों पर दीपशिखा एवं ऋजुविमला नामक व्याख्या लिखी है। आपका तीसरा ग्रंथ प्रकरणपंचिका। यह सर्वाधिक लोकप्रिय है। आपको ब्राह्मणत्वादि जातियां मान्य नहीं थी। शालिग्राम द्विवेदी - ई. 20 वीं शती। मुंबई में गोकुलदास तेजपाल संस्कृत म.वि. के छात्र । व्याकरणशास्त्री। काव्यतीर्थ नागेश पण्डित तथा अच्युत पाध्ये के साथ "भ्रान्त-भारत" नामक नाटक की रचना की। शालिग्राम शास्त्री - लखनऊवासी। आशुकवि। सन् 1923 में संपन्न अ.भा. संस्कृत परिषद में पं. मदनमोहन मालवीय के प्रश्न के उत्तर में आधुनिक शिक्षा पद्धति का दोषदर्शन करनेवाली रचना- “पाश्चात्य-शिक्षादूषणानि । इस उत्तर से प्रचुर विनोद-निर्मिति । सन् 1931 में अ.भा. संस्कृत कविसम्मेलन में पद्यात्मक अध्यक्षीय भाषण पढा । शालिहोत्र - कपिल ऋषि के पुत्र। आप अश्वविद्या के आचार्य थे। अश्वायुर्वेद पर शालिहोत्रतंत्र अथवा शाल्यहोत्र नामक ग्रंथ आपने लिखा है। अग्निपुराण के अनुसार (292.44) आपने अपने सुश्रुत नामक पुत्र को अश्वायुर्वेद का ज्ञान कराया। शालिहोत्र ग्रंथ का अनुवाद बाद में 14 वीं सदी में अरबी में हुआ। लंदन की इंडिया हाऊस लायब्ररी में शाल्यहोत्र की दो प्रतियां सुरक्षित हैं। महाभारत के अनुसार शालिहोत्र एक ऋषि भी थे। महर्षि व्यास कुछ काल तक आपके आश्रम में थे। पांडव भी आपसे मिलने वहां गये थे। शालिहोत्र राणायनी-शाखा के आचार्य भी थे। सामवेद पर आपने छह संहिताएं लिखीं। आपका दूसरा नाम लांगली था। शास भारद्वाज - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 152 वें सूक्त के द्रष्टा। प्रस्तुत सूक्त की प्रथम ऋचा में आपका उल्लेख भी है। इंद्र इस सूक्त के देवता हैं और उनकी स्तुति इसका विषय । आश्वलायन गृह्यसूत्र के अनुसार, युद्ध के लिये निकले राजा का उत्साह बढाने हेतु इस सूक्त का पाठ किया जाता है। शास्त्राचार्य आनन्दताण्डव दीक्षित और सोमशेखर दीक्षित - इन दो पंडितों ने नटसहस्रम् नामक अति प्राचीन नामस्तोत्र के भाष्य की रचना की। शास्त्री एच. वी. - ई. 20 वीं शती। बंगलौर-निवासी। "श्रीकृष्ण-भिक्षा" नामक रूपक के प्रणेता। पी.बी.एस. शास्त्री - रचनाएं- (1) मेकडॉनेल की हिस्ट्री
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 471
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आफ लिटरेचर के वैदिक वाङ्मय प्रकरण का संस्कृत अनुवाद। (2) सरस्वती महल (तंजौर) के हस्तलिखित ग्रंथों का 19 खंडों में प्रकाशन। शाहजी महाराज - जन्म-ई. 1672 में। तंजौर के राजा। शासनकाल-1684-1711 ई.। अनेक कवियों के आश्रयदाता। छत्रपति शिवाजी महाराज के सौतेले भाई व्यंकोजी (एकोजी) के पुत्र।
संस्कृत कृतियां - चन्द्रशेखर-विलास, शृंगारमंजरी तथा पंचभाषा-विलास नामक यक्षगान ।
हिन्दी कृतियां - विश्वातीतविलास तथा राधा-वंशीधर विलास नामक यक्षगान। 'शब्द-रत्न-समन्वय कोश, शब्दार्थ-संग्रह।
आपने तेलगु और मराठी में भी कतिपय रचनाएं की हैं। शिंगभूपाल • ई. 14 वीं सदी। संगीत व नाट्यशास्त्र के
आचार्य। आंध्र मंडलाधिपति । विंध्याचल से श्रीशैल तक के प्रदेश के अधिपति। राजाचल राजधानी। पिता का नाम अनंत या अन्नपोत । अन्वेषकों के अनुसार शिंगभूपाल और सिंगम नायडू, एक ही व्यक्ति के दो नाम हैं।
“संगीत-रत्नाकर" पर आपने “संगीत-सुधाकर" नामक टीका लिखी है। नामशेष हो चुके अनेक प्राचीन ग्रंथकारों के अवतरण इसमें मिलते हैं। नाट्यशास्त्र के अनेक उपादेय विषयों की चर्चा करने वाला आपका यह ग्रंथ अनुपम है। रसार्णवसुधाकर, रंजकोल्लास, रसिकोल्लास एवं भावोल्लास नामक तीन विलासों में यह ग्रंथ विभाजित है। शिौयंगार - रचनाएं - कृष्णकथारहस्यम्, श्रीकृष्णराजचम्पू, यदुशैलचम्पू, चित्रकूटोद्यान (यमक काव्य) आदि। शितिकण्ठ वाचस्पति (म.म.) - ई. 20 वीं शती। कृतिअलङ्कार-दर्पण (काव्यशास्त्रीय ग्रंथ)। शिव - अठारहवीं शती। यमुनातट पर व्रजप्रदेश में रानेर नगर के निवासी। "विवेकचन्द्रोदय" नामक नाटक के रचयिता।। शिवकुमार शास्त्री - काशी-निवासी। जन्म ई. 1848 में, मृत्यु 1919 में। माता-मतिराणी, पिता-रामसेवक मित्र। इन्होंने दरभंगा राजवंश का वर्णन, अपने काव्य "लक्षीधरप्रताप" में किया है। इनकी अन्य काव्य-कृति "यतीन्द्रजीवन-चरितम्" में, योगी भास्करानन्द का चरित्र वर्णित है। शिवदत्त त्रिपाठी (पं) - 20 ई. वीं शती का पूर्वार्ध । पुष्कर (अजमेर) के निवासी। रचनाएं- 1) श्रीकृष्णचरित, 2) गद्यभारत (2 भाग), 3) गद्यरामायण, 4) आस्तिकस्मृति, 5) दुर्वासस्तृप्तिस्वीकारनाटक, 6) श्रीदुर्गाचरित्र, 7) श्रीसामामृतसिन्धु, 8) सूर्यशतक, 9) विवाहदिग्दर्शन, 10) वृषभदेवचरित, 11) दाधीचारिगजांकुश, 12) नीतिवाक्यरत्नावली, 13) गोलाभदर्शन, 14) हिन्दूहितवार्ता इत्यादि । शिव दीक्षित - महाभारत की नीलकण्ठी टीकाकार के वंशज।
ई. 18 वीं शती। रचना- धर्म-तत्त्वप्रकाश । शिवनारायण दास - ई. 13 वीं शती। उत्कल के राजा गजपति नरसिंह देव का आश्रय प्राप्त। नन्दिघोष-विजय (कमलाविलास) नामक पांच अंकी नाटक के प्रणेता। शिवनारायण दास (सरस्वतीकण्ठाभरण) - ई. 17 वीं शती। बंगाल के निवासी। पिता-दुर्गादास । काव्यप्रकाश की "दीपिका" नामक टीका के कर्ता। शिवप्रसाद भारद्वाज - ई. 20 वीं शती। एम.ए., एम.ओ.एल. । विश्वेश्वरानंद संस्थान, साधु आश्रम, होशियारपुर में प्राध्यापक।
कृतियां - साक्षात्कार (भाण), अजेय भारत (नभोनाट्य), केसरी-चंक्रम (ध्वनिरूपक) तथा कतिपय पद्य व निबन्ध रचनाएं। शिवराम कवि - ई. 19-20 वीं शती। इन्होंने चार काव्यों में रामचरित्र प्रस्तुत किया है- (1) हनुमत्काव्य, (2) हनुमद्विजय, (3) रावणवध और (4) सुरेन्द्रचरितकाव्य (इसमें अहिल्योद्धार की कथा वर्णित है)। शिवराम, पाण्डे - प्रयाग-निवासी। रचनाएं- एडवर्डशोकप्रकाशन (ई. 1910)। एडवर्ड-राज्याभिषेकदरबारम् (1903 ई.), जार्जराज्याभिषेक (ई. 1911 और जार्जाभिषेकदरबार । शिवराम शास्त्री - शतावधानी विद्वान् । रचना-दिल्लीप्रभा (सन् 1911 के दिल्ली -दरबार का काव्यमय वर्णन)। शिवरामेन्द्र सरस्वती - "महाभाष्य-रत्नाकर' के लेखक।
औफेक्ट द्वारा उल्लिखित । अन्य रचनाएं- सिद्धान्त-कौमुदी-रत्नाकर (टीका ग्रंथ)। शिवशरण शर्मा (डा.) - पिता-सत्यनारायण द्विवेदी। माता-सौभाग्यवती। कान्यकुब्ज ब्राह्मण। जन्मस्थल-भैरमपुर, जिला-फतेहपुर, उत्तरप्रदेश। जन्म-सन् 1929 में। वाराणसी तथा प्रयाग में अध्ययन। शासकीय स्नातक महाविद्यालय, दतिया (मध्यप्रदेश) में संस्कृत-प्राध्यापक। श्रीमद्भागवतानुशीलन, कालिदास और उनका मेघदूत ये दो हिंदी प्रबंध होने के बाद आधुनिक विषयों पर जागरणम् नामक संस्कृत गीति काव्यों का आपका संग्रह, सन् 1963 में प्रकाशित हुआ है। शिवसागर त्रिपाठी - ई. 20 वीं शती। राजस्थान वि.वि. जयपुर में संस्कृत के व्याख्याता । कृतियां-गान्धी-गौरव, प्राणाहुति (एकांकी) आदि। शिवस्वामी - ई. 9 वीं सदी। एक संस्कृत कवि। काश्मीर में निवास। पिता-भट्टार्य स्वामी शैवमतानुयायी थे। चंद्रमित्र नामक बौद्ध पंडित की प्रेरणा से अवदान कथा पर आधारित "कफिणाभ्युदय" नामक महाकाव्य की रचना की। __ इनका "प्रोक्तव्याकरण" उपलब्ध नहीं है। इन्होंने अपने व्याकरण पर वृत्ति भी लिखी है, धातुपाठ का भी प्रवचन किया है। ये शिवयोगी से भिन्न व्यक्ति हैं। शिवस्वामी बौद्ध हैं। समय वि.सं. की 9 वीं शती। शिवयोगी वैदिक धर्मावलम्बी,
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वि.सं. की 13 वीं शती के है। अन्य रचनाएं- क्षीरतरंगिणी, माधवीया धातुवृत्ति, (कातन्त्रगणधातुवृत्ति तथा गणरत्न-महोदधि में उल्लिखित)। वर्धमान की दृष्टि में शिवस्वामी पाणिनि के समान महान् है। शिवाजी महाराज भोसले - तंजौर के महाराज (1883-1855 ई.) । “इन्दुमति-परिणय" नामक यक्षगानात्मक नाटक के रचयिता। शिवादित्य मिश्र - ई. 10 वीं सदी। आपने अपने सप्तपदार्थी ग्रंथ में वैशेषिक सिद्धान्त का नैयायिक सिद्धान्त से समन्वय किया है। "लक्षणमाला" नामक आपका एक और ग्रंथ है। शिवानंदनाथ - ई. 17 या 18 वीं सदी। मूल नाम काशीनाथ भट्ट। वाराणसी में निवास। शिव और शक्ति के उपासक। दक्षिणाचार के पुरस्कर्ता। वामाचार के कट्टर विरोधक। तंत्र
और पुराणों पर अन्यान्य साठ ग्रंथों की रचना की। शिशुमायण - पितामह-मायणसेट्टि। पिता-वोमसेट्टि । माता-नेमांबिका । जन्म-स्थान-होयसल देश के अन्तर्गत नयनापुर । गुरु-काणूरगण के भानुमुनि। समय-ई. 13 वीं शती। ग्रंथ त्रिपुरदहनसांगत्य तथा अंजनाचरित। शीलांक - अपरनाम-शीलाचार्य एवं तत्त्वादित्य। कुशल टीकाकार । समय-ई. नवीं-दसवीं शताब्दी। ग्रंथ-प्रथम 9 आगमों पर टीकाएं (जिनमें आज दो टीकाएं ही उपलब्ध है- (1) आचारांग टीका और (2) सूत्रकृतांग टीका)। इन टीकाओं की लेखनकार्य में शीलांक को विद्वानों का सहयोग मिला था। सांस्कृतिक सामग्री से समन्वित इन टीकाओं को विवरण संज्ञा दी गई है। ये विवरण मूल सूत्र और नियुक्ति पर संस्कृत भाषा में हैं। शब्दार्थ के साथ विषय का विस्तृत विवेचन इनमें है। संस्कृत-प्राकृत के उद्धरणों से वक्तव्य की पुष्टि की है। शीलांक - अपरनाम-सीलंक। निर्वत्तिकुल के आचार्य मानदेव सूरि के शिष्य। आगम टीकाकार शीलांकाचार्य से भिन्न। समकालीन शीलाचार्य (अपरनाम तत्त्वादित्य) से भी भिन्न । ग्रंथ- 1) चंडापन्न महापुरिस चरिय (संस्कृत-प्राकृत मिश्रित भाषाओं में लिखित गद्य-पद्य मिश्रित ग्रंथ)। 10800 श्लोकपरिमाण। पउमचरिय। विमलसूरि तथा वाल्मीकि रामायण से प्रभावित, 2) विबुधानन्द नाटक, 3) देशीनाम-माला। समय-चंडापन्न महापुरिसचरिय की रचना वि.सं. 925 में हुई। शुकदेव - ई. 19 वीं सदी का पूर्वार्ध। भागवत के द्वैताद्वैती व्याख्याकार। सिद्धान्त-प्रदीप नामक भागवत की टीका के लेखक । सांप्रदायिक मान्यता के अनुसार मथुरा के “परशुराम-द्वार" नामक स्थान पर निवास। गुरु-सर्वेश्वरदास, जिनकी वंदना शुकदेव ने अपने सिद्धान्त-प्रदीप के मंगलाचरण में की है। ___ "सर्वेश्वर" पत्र के अनुसार विक्रम सं. 1897 (= 1840 ई.) में सलेमाबाद के जगद्गुरु-पीठ पर आसीन होने के लिये इनसे प्रार्थना की गई थी, किन्तु नितांत विरक्त होने के कारण
इन्होंने यह पद स्वीकार नहीं किया। शुकदेव ने बडी निष्ठा से भागवत की व्याख्या अपने संप्रदायानुसार की है। इस श्रीका-संपत्ति के लिये निबार्क-संप्रदाय इनका सदैव ऋणी रहेगा। शनहोत्र भारद्वाज - भरद्वाज के पुत्र । पुत्र का नाम गृत्समद । ऋग्वेद के छठे मंडल के तैतीस और चौंतीसवें सूक्त के द्रष्टा । इंद्रस्तुति इनका विषय है। शुभंकर - ई. 15 वीं शती। बंगाल के निवासी। "संगीत दामोदर" के कर्ता। यह रचना राजा दामोदर को अर्पित की गई है। इनकी दूसरी रचना है "नारदीय-शिक्षा" की टीका । शुभचन्द्र - शुभचन्द्र नाम के अनेक आचार्य हुए है। प्रस्तुत शुभचन्द्र, ई. 11-12 वीं शती में हुए। कहा जाता है, शुभचन्द्र और भर्तृहरि उज्जयिनी के राजा सिन्धुल के पुत्र थे। दोनों बडे शक्तिशाली थे। उनकी शक्ति को देखकर मुंज राजा ने उन्हें नामशेष करने का षडयन्त्र किया। इसकी जानकारी होने पर दोनों भाइयों ने संन्यास ले लिया। शुभचन्द्र दिगम्बर जैन मुनि हुए और भर्तृहरि कौल तपस्वी। भर्तृहरि ने कुछ विद्याएं सीखीं जिन्हें शुभचन्द्र को भी बताया। पर शुभचन्द्र ने समझाया"यदि यही करना था, तो संन्यासी क्यों हुए।" भर्तृहरि को समझाने के लिए ही शुभचन्द्र ने "ज्ञानार्णव' की रचना की। यह ग्रंथ महाकाव्य के समान सर्गों में विभक्त है। सर्ग 42,
और श्लोक 2107 है। इनमें बारह भावना, पंच महाव्रत, चार ध्यान आदि का विस्तृत विवेचन है। इस ग्रंथ पर पूज्यपाद के समाधितंत्र और इष्टोपदेश का प्रभाव अधिक है। अमृतचन्द्र, अमितगति, जिनसेन हेमचंद्र आदि से भी यह प्रभावित है। शुभचन्द्र - भट्टाकर विजयकीर्ति के शिष्य। जीवनकाल-वि.सं. 1535-1620। बहुभाषाविज्ञ । कार्यक्षेत्र-गुजरात और राजस्थान । रचनाएं-चन्द्रप्रभचरित, करकण्डुचरित, कार्तिकेयानुप्रेक्षा टीका, चन्दनाचरित, जीवन्धरचरित, पाण्डवपुराण, श्रेणिकचरित, सज्जनचित्तवल्लभ, पार्श्वनाथ काव्यपंजिका, प्राकृतलक्षण, अध्यात्मतरंगिणी, अम्बिकाकल्प, अष्टाह्निकी कथा, कर्मदहनपूजा, चन्दनषष्ठीव्रत पूजा, गणधरवलय पूजा, चारित्र्यशुद्धिविधान, पंचकल्याण पूजा, पल्लीव्रतोद्यान, तेरह द्वीपपूजा, पुष्पांजलिव्रतपूजा, सार्द्धद्वयद्वीप पूजा और सिद्धचक्रपूजा। इनके अतिरिक्त शुभचंद्र के कुछ हिन्दी ग्रंथ भी प्राप्य हैं। शुभचन्द्र - कर्नाटकवासी। दासूरगण के विद्वान । बलात्कारगण के शुभचन्द्र से भिन्न व्यक्तित्व। समय-ई. 14 वीं शती। ग्रंथ'षट्दर्शन-प्रमाण-प्रमेय-संग्रह"। शूद्रक - "मृच्छकटिक" नामक प्रख्यात रूपक के कर्ता। उक्त प्रकरण के एक श्लोक के अनुसार शूद्रक एक महान् क्षत्रिय राजा थे। ऋग्वेद, सामवेद, गणितशास्त्र, ललितकला, तथा हाथियों को प्रशिक्षित करने की विद्या उन्हें ज्ञात थी। अश्वमेघ यज्ञ भी आपने किया था। आपकी आयु सौ वर्ष और दस दिन की रही। आखिर स्वयं होकर आपने अग्निप्रवेश किया।
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प्राचीन इतिहास-पुराणों में शूद्रक नामक एकाधिक राजा है। अर्थ- विश्वास पर ही धरोहर रखी जाती है, मकान की कहते हैं कि शूद्रक याने संवत्सर-संस्थापक विक्रमादित्य थे। मजबूती पर नहीं। राजशेखर ने एक शूद्रक का उल्लेख किया है जिनके दरबार
साहसे श्रीः प्रतिवसति । में रामिल और सोमिल नामक दो कवि थे और इन दोनों अर्थ- साहस में संपत्ति रहती है। कवियों ने मृच्छकटिक की रचना की। कालिदास के
संस्कृत के सुप्रसिद्ध प्राचीन नाटककारों में कालिदास एवं मालविकाग्निमित्र में सौमिल्लक का उल्लेख है। इस आधार
भास के समान शूद्रक का स्थान अत्युच्च है। उनका मृच्छकटिक पर कालिदासपूर्व काल के राजा होने चाहिये।
नामक नाटक सार्वकालिक लोकाभिरुचि की कृति बन पडी ___ कथासरित्सागर में भी एक शूद्रक का उल्लेख है जिन्हें है। नाट्यशास्त्र की विहित मर्यादा का उल्लंघन करते हुए सौ वर्ष की आयु मिली थी। ये शूद्रक हैं आभीर राजा शूद्रक ने इस नाटक की रचना की है। शिवदत्त (सन् 250)। हाल ही में भास कृत नाटक के रूप शृंगारशेखर - 14 वीं शती। आन्ध्रवासी। में दो नाटक मिले हैं। उनमें दरिद्रचारुदत्त नामक चार अंक अभिनयभूषण नामक संगीत शास्त्र विषयक ग्रंथ के लेखक। का अपूर्ण नाटक है। इसमें और मृच्छकटिक के पूर्व भाग शेवडे, वसन्त, त्र्यम्बक - जन्म- सन् 1918 । नागपुर-निवासी। में बहुत साम्य है। पंडितों का तर्क है कि मृच्छकटिक भास रचना-वृत्तमंजरी (वृत्तलक्षणात्मक काव्य)। इसमें भगवतीस्तोत्र की या अन्य किसी की सम्पूर्ण कृति थी। दरिद्रचारुदत्त, उसी । के उदाहरण, उसी वृत्त में दिये गये हैं तथा लक्षणनामादि भी का संक्षेप है।
दर्शित किये गये हैं। ___बाण ने कादंबरी में और दंडी ने दशकुमारचरित में शूद्रक इनकी रघुनाथतार्किक-शिरोमणि-चरितम् नामक त्रिसर्गात्मक, का उल्लेख किया है। कुछ पंडितों ने स्कंद-पुराण का आधार ___127 श्लोकों की रचना, “सारस्वती सुषमा" (अं. 3-4 व लेकर कहा है कि आंध्रभृत्य-वंश के संस्थापक शिमुक एवं 12) में प्रकाशित हुई है। इसके अतिरिक्त शुभविजय नामक शूद्रक एक ही थे। पं. चंद्रबली पांडे के अनुसार शूद्रक ही आपके महाकाव्य को उत्तरप्रदेश अकादमी का 1985 में साहित्य वासिष्ठीपुत्र पुलुमायी हैं। अवंतिसुंदरी-कथासार ग्रंथ में इंद्राणीगुप्त अकादमी का पुरस्कार प्राप्त हुआ है। उत्तर आयुष्य में वाराणसी का दूसरा नाम शूद्रक दिया गया है।
निवास। इन सारे मतमतांतरों से मृच्छकटिक की रचना किसने की
शेवालकर शास्त्री - 20 वीं शती। विदर्भ-निवासी। रचनाइसका निर्णय नहीं हो पाता। पर यह निश्चित है कि वह जो
"पूर्णानन्दचरितम्"। इसमें ई. 19 वीं शती के प्रसिद्ध वैदर्भीय कोई भी हो, दक्षिण भारत का था। इस नाटक में
साधु श्रीपूर्णानन्द स्वामी का चरित्र ग्रथित है। (50 अध्यायों "कर्नाटकलहप्रयोग" एवं दक्षिण के द्रविड, चोल आदि का
में)। लेखक ने स्वयं इस काव्य का मराठी अनुवाद भी किया उल्लेख है। इस नाटककार को संस्कृत के साथ प्राकृत भाषा
है। आप कीर्तन कला में निपुण थे। का और ज्योतिष एवं धर्मशास्त्र का अच्छा ज्ञान था। वह
शेषकृष्ण - ई. 16 वीं शती। पिता-नरसिंह। काशी में शिवभक्त और योगाभ्यासी भी था।
तण्डनवंशी राजा गोविन्दचन्द्र का आश्रय प्राप्त। "गोविन्दार्णव" ___ कवि के रूप में शूद्रक, भवभूति एवं कालिदास की बराबरी
नामक धर्मशास्त्र विषयक ग्रंथ की रचना की। काशी में के थे।
वैयाकरण-परम्परा की स्थापना की, जिसमें आगे चलकर भट्टोजी उदयति हि शशाङ्कः कामिनीगण्डपाण्डुः
तथा नागोजी आदि विद्वान् हुए। ज्येष्ठ बन्धु चिन्तामणि ने ग्रहगणपरिवारो राजमार्गप्रदीपः।
रुक्मिणीहरण नामक रूपक तथा रसमंजरी-परिमल की रचना तिमिर-निकरमध्ये रश्मयो यस्य गौराः
की। पुत्र वीरेश्वर ने पण्डितराज जगन्नाथ, भट्टोजी तथा अनंभट्ट स्रुतजल इव पके क्षीरधाराः पतन्ति।।
को शास्त्रीय ज्ञान में दीक्षा दी। तत्कालीन काशिराज "गोवर्धनधारी"
का आश्रय प्राप्त। उनकी विद्वद्गोष्ठी के सदस्य। कृतियांअर्थ- कामिनी के कपाल समान सफेद, ग्रहगण से घिरा,
क्रियागोपन-रामायण (चम्पू)- पारिजातहरण (काव्यमाला मुंबई राजमार्ग का दीप चंद्रमा उदित हुआ है। घने अन्धःकार में
से 1926 ई. में प्रकाशित), उषापरिणय, सत्यभामा-विलास । सफेद किरण, रेती के कीचड में दूध की धारा जैसे बरस रहे हैं।
(रूपक)- मुरारिविजय, मुक्ताचरित, सत्यभामा-परिणय और कुछ सुभाषित देखिये -
कंसवध। अल्पक्लेशं मरणं दारिद्रययमनन्तकं दुःखम्।
शेषकृष्ण - प्रक्रियाकौमुदी-प्रकाश (वृत्ति) के लेखक । प्रक्रियाअर्थ- मरने में दुख थोडा सा होता है, तो दारिद्र में दुख
कौमुदीकार रामचन्द्र के भ्रातृज तथा शिष्य । समय ई. 16 वीं शती। समाप्त ही नहीं होता। पुरुषेषु न्यासाः निक्षिप्यन्ते न पुनर्गेहेषु। .
शेषगिरि - ई. अठारहवीं शती का मध्य। पिता-शेषगिरीन्द्र ।
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माता - भागीरथी । आन्ध्र प्रदेश के रालपल्ली के निवासी। गैसूर नरेश कृष्णराज द्वितीय (1734-1766 ई.) के अध्यापक । कल्पनाकल्पक नाटक तथा शारदातिलक भाण के रचयिता । शेषनारायण - समय- वि.सं. 1500 से 1550 । पिता - वासुदेव, पितामह - अनन्त, पुत्र-कृष्णसूरि सूक्तिरत्नाकर नामक महाभाष्य की प्रौढ व्याख्या के लेखक । अनेक अप्रकाशित हस्तलेख उपलब्ध । इस शेष वंश में अनेक प्रथितयश वैयाकरण हुए। शेष विष्णु समय वि.सं. 1600-16501 शेषवंशीय । महाभाष्य प्रकाशिका के लेखक । शेषनारायण के प्रपौत्र 1 पिता - महादेव सूरि ।
शेषाचलपति (आन्ध्रपाणिनि)
रचना-कोसलभोसलीयम् (द्वयर्थी काव्य) । इसमें कोसल-वंशीय रामचंद्र तथा भोसलवंशीय शाहजी के पुत्र एकोजी का चरित्र संगुफित है। शाहजी ने इनका कनकाभिषेक से सत्कार किया था। ये शाहजी के आश्रित कवि थे।
-
शेषाचार्य पिता संकर्षण। "सत्यनाथाभ्युदयम्” नामक काव्य के रचयिता । काव्य के चरित्रनायक सत्यनाथतीर्थ माध्वसंप्रदाय के द्वैतसिद्धान्ती आचार्य थे। देहान्त सन् 1674 में। शैल कवि 17 वीं शताब्दी। तंजावर नरेश के मन्त्री, आनन्द यज्वा का पुत्र । रचना- त्रिपुर- विजय- चम्पूः । शोभाकर मित्र - ई. 13 वीं सदी। पिता- त्रयीश्वर । संभवतः काश्मीर निवासी। आपके "अलंकाररत्नाकर" ग्रंथ में एक सौ बारह गद्य सूत्र और उन पर सोदाहरण वृत्ति है। ग्रंथ में 107 अलंकारों का निरूपण है। चारुता एवं प्रतीतिभेद पर ही विवेचन है आपने अनेक पुराने अलंकार अमान्य कर, 39 नये अलंकार प्रस्तुत किये हैं। वे शास्त्र पर आधारित होने से, इस ग्रंथ का महत्त्व है ।
"
शोभाकर भट्ट ई. 14 वीं शती। इन के ग्रंथ का नाम "आरण्यक - विवरण" है। आरण्यक विवरण ग्रंथ का निर्माण होने के पहले उनकी कुछ भाष्य-रचना भी हो सकती है। नारदीय शिक्षा-विवरण नामक टीका ग्रंथ भी आचार्य शोभाकर ने लिखा है। शौनक अनेक व्यक्तियों का कुलनाम। ऋग्वेद के दूसरे मंडल के कर्ता गृत्समद शौनक थे। शतपथ ब्राह्मण के इंद्रोत व स्वैदायन शौनक थे। बृहदारण्यक के अनुसार रौहिणायन के गुरु शौनक थे। अनेक पुराणों में उल्लिखित भृगुकुल के मंत्रकार शौनक ही है ये कुलपति वेदार्थशास्त्रज्ञ थे। शौनकगृह्यसूत्र, शौनकगृह्य परिशिष्ट और वास्तुशास्त्र पर भी आपने एक ग्रंथ लिखा है। ऐतरेय आरण्यक का पांचवां आरण्यक आपकी रचना मानी जाती है। आश्वलायन आपके प्रमुख शिष्य थे। पुराणों से पता चलता है कि आपने अनेक यज्ञ एवं सूत्र किये। परीक्षित के पुत्र शातनीक को तत्त्वज्ञान का उपदेश आप ही ने दिया। आपने युधिष्ठिर को धर्मोपदेश
दिया था।
महाभारत में शौनक को योगशास्त्रज्ञ एवं सांख्य-निपुण कहकर गौरवान्वित किया गया है। अनेक पुराणों में उन्हें प्राप्त उपाधियां है- क्षेत्रोपेत द्विज, मंत्रकृत्, मध्यमाध्वर्यु, कुलपति । आपने ऋग्वेद अनुक्रमणिका अप्रातिशाक्य, वृहदेवता शौनकस्मृति, चरणव्यूह, ऋविधान, ऋग्वेदकथानुक्रमणी आदि ग्रंथों की रचना की है। वैद्यक शास्त्र की शल्यतंत्र शाखा के जनक आप ही हैं। आपने ऋग्वेद की दो शाखाओं (शाकल एवं बाष्कल) का एकत्रीकरण किया है। ऋग्वेद की उपलब्ध अनुक्रमणिका में आपकी अनुक्रमणी प्राचीन मानी जाती है। उसमें ऋग्वेद का मंडल, अनुवाक, सूक्त इस भांति विभाजन है। ऋप्रातिशाख्य में वैदिक ऋचाओं एवं शाखांतर्गत मंत्रों की उच्चारण-पद्धति बताई गयी है। इस ग्रंथ में आपने अनेक पूर्वाचार्यों का एवं व्याकरणकार व्याडी का उल्लेख किया है। व्याडी का काल ईसापूर्व 1100 वर्ष माना जाता है। शौनक के वे शिष्य थे। अतः शौनक का काल भी वही माना जाना चाहिये । उवट इन्हें "ऋषि" कहकर संबोधित करते हैं। श्यामकुमार टैगोर - ई. 20 वीं शती। "जर्मनीकाव्य" के कर्ता । श्यावाश्व अत्रिकुल के सबसे बड़े सूक्त द्रष्टा सम्वेद के पांचवें मंडल के बावन से इकसठ, इक्यासी, बयासी, आठवें मंडल के पैंतीस से अडतीस और नौवे मंडल का बत्तीसवां सूक्त आपकी रचना मानी जाती है। पिता का नाम अर्चनानस् एवं पुत्र का अंधीगू था। रथ्वीती दाऋषि की कन्या श्यावाश्व की पत्नी थी। श्यावाश्व के सूक्तों में मरुतों की प्रार्थना एवं सवितृ व इंद्र की स्तुति है।
श्येन आग्नेय ऋग्वेद के दसवें मंडल के 188 वें सूक्त के द्रष्टा । इस लघुकाय सूक्त का विषय अग्नि की स्तुति है । यह सूक्त गायत्री छंद में है। श्वेतारण्य नारायण दीक्षित मूलतः कांची निवासी । फिर तंजौर के श्वेतारण्य में निवास काशी के बालूशास्त्री तथा विश्वनाथ शास्त्री से शिक्षा प्राप्त की। मद्रास के संस्कृत महाविद्यालय में प्रधान अध्यापक कृतियां मुकुटाभिषेक (नाटक), कुमारशतक, नक्षत्रमालिका (काव्य) तथा हरिश्चन्द्रादि सात गद्य-कथाएं ।
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श्वेताश्वतर एक आचार्य आपने स्वायंभुव ऋषि से ब्रह्मविद्या प्राप्त की थी। कृष्ण यजुर्वेद की एक शाखा आपके नाम पर है। इनके नाम का एक ब्राह्मण भी है, पर वह उपलब्ध नहीं । सुप्रसिद्ध श्वेताश्वतर उपनिषद् के प्रवक्ता आप ही हैं। श्रद्धा कामायनी एक सूक्त द्रष्ट्री। ऐसा लगता है कि यह नाम कल्पित होगा। ऋग्वेद के दसवें मंडल का इक्क्यावनवां सूक्त आपका माना जाता है। " श्रद्धासूक्त" के रूप में यह प्रसिद्ध है। श्रद्धा का माहात्म्य इसमें समझाया गया है। श्रद्धा, बुद्धि का प्रकार माना गया है बालक को प्रथम स्तनपान
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 475
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कराते समय, व्रतबंध के मेधाजनन संस्कार में, ये सूक्त कहा जाता है। मेघासूक्त, श्रद्धासूक्त के अंत में आने वाला खिलसूक्त है। श्रीकांत गणक - अठारहवीं शती का मध्य । मिथिलानिवासी। "श्रीकृष्णजन्म-रहस्य" नामक दो अंकी नाटक के प्रणेता। श्रीकुमार - समय-ई. 11 वीं शती। नयनन्दि द्वारा उल्लिखित । धारा-निवासी। भोज राजा के समकालीन । रचना- आत्मप्रबोध (149 श्लोक)। अध्यात्म-विषयक ग्रंथ। कवि को "सरस्वती-कुमार" भी कहा जाता था। श्रीकृष्ण कवि - समय- 16-17 वीं शती। मंदार-मरंदचंपू के प्रणेता। इस चंपू-काव्य की रचना लक्षण ग्रंथ के रूप में हुई है और इसका प्रकाशन निर्णयसागर प्रेस मुंबई से सन् 1924 में हुआ है। ग्रंथ के उपसंहार में इन्होंने अपना जो परिचय दिया है, उसके अनुसार इनका जन्म गुहपुर नामक ग्राम में हुआ था और इनके गुरु का नाम वासुदेव योगीश्वर था। श्रीकृष्ण जोशी - जन्म-1882 ई. मृत्यु-1965 ई.। नैनीताल-निवासी। प्रयाग के म्योर सेन्ट्रल कालेज में अध्ययन।। कुछ समय तक कुमाऊं में अधिवक्ता । बंग-भंग-आन्दोलन में सक्रिय सहभाग । तत्पश्चात् पं. मदनमोहन मालवीयजी के अनुरोध पर हिन्दू वि.वि. में अध्यापन। “विद्या-विभूषण' तथा "कवि-सुधांशु' की उपाधियों से विभूषित । कृतियां- रामरसायन (महाकाव्य), अखण्डभारत, स्यमन्तक (महाकाव्य), काव्यमीमांसा, सर्व-दर्शन-मंजूषा, अद्वैत-वेदांत-दर्शन, अन्तरंग-मीमांसा (उ.प्र. शासन द्वारा पुरस्कृत), कृतार्थ-कौशिक (नाटक), सत्य-सावित्र (नाटक) और परशुराम-चरित। श्रीकृष्ण तर्कालंकार - ई. 18 वीं शती। बंगाल के निवासी। "चंद्रदूत' के रचयिता। श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी - ई. 20 वीं शती। देवरिया (पूर्वी उत्तर-प्रदेश) के निवासी। एम.ए. एवं साहित्यरत्न । हरिहर संस्कृत पाठशाला में प्रधानाध्यापक । संस्कृत वि.वि. में प्राध्यापक। गुरु-रामयश त्रिपाठी। कृतियां-योगदर्शन-समीक्षा, सांख्यकारिका, पुराणतत्त्वमीमांसा, अष्टादश-पुराणपरिचय, सावित्री-नाटक (एकांकी) तथा अनेक हिन्दी रचनाएं। उ.प्र. शासन द्वारा सम्मानित। श्रीकृष्ण न्यायालंकार - ई. 17 वीं शती। रचना- भावदीपिका (न्याय-सिद्धान्तमंजरी की टीका)। श्रीकृष्ण ब्रह्मतन्त्र - परकाल स्वामी, ई. 19 वीं शती। आपने । 60 से अधिक ग्रंथों की रचना की है जिनमें प्रमुख हैंचपेटाहतिस्तुति, उत्तरंगमाहात्म्य, रामेश्वरविजय, नृसिंहविलासं, मदनगोपाल-माहात्म्य, अलंकार-मणिहार आदि। श्रीकृष्ण भट्ट - जन्म 1870 ई. में। जयपुर के महाराजा सवाई ईश्वरीसिंह के आश्रित। इनकी मुख्य रचनाएं हैं- 1) ईश्वरविलास (इस महाकाव्य में जयपर की स्थापना, अश्वमेध
यज्ञ एवं नगर की व्यवस्था का सुंदर वर्णन है), 2) सुन्दरीस्तवराजः (स्तोत्र काव्य, 103 पद्य)। श्रीकृष्ण मिश्र - "प्रबोधचंद्रोदय" नामक एक सुप्रसिद्ध प्रतीक नाटक के रचयिता। आप जैजाकभुक्त के राजा कीर्तिवर्मा के शासनकाल में विद्यमान थे। कीर्तिवर्मा का एक शिलालेख 1098 ई. का प्राप्त हुआ है। उससे ज्ञात होता है कि श्रीकृष्ण मिश्र का समय 1100 ई. के आसपास था। अपने "प्रबोधचंद्रोदय" नाटक में मिश्रजी ने श्रद्धा, भक्ति, विद्या, ज्ञान, मोह, विवेक, दंभ, बुद्धि आदि अमूर्त भावमय पदार्थों को नर-नारी के रूप में प्रस्तुत करते हुए वेदांत व वैष्णव-भक्ति का अतीव सुंदर प्रतिपादन किया है। श्रीकृष्णराम शर्मा - जयपुर में आयुर्वेद के अध्यापक। इनका विनोदप्रचुर काव्य है : “पलाण्डुशतक' (पलाण्डु = प्याज)। अन्य रचनाएं-सारशतक, आर्यालङ्कारशतक, मुक्तावली-मुक्तक और होलिमहोत्सव। श्रीचंद सूरि - समय-ई. 12-13 वीं शती। अपरनाम-पार्श्वदेव गणि। शीलभद्रसूरि के शिष्य। निशीष्य सूत्र की विशेष चूर्णि के बीसवें उद्देशक की दुर्गपद व्याख्या, कल्यावतंसिका, पुष्पिका, पुष्पचूला और वृष्णिदशा उपांगों पर वृत्ति और जीतकल्पबृहच्चूर्णि-विषमपद व्याख्या। इसमें प्राकृत गाथाएं भी उदधृत हैं। श्रीचन्द - लाल बागड संघ और बलात्कारगण के आचार्य श्रीनन्दी के शिष्य। ग्रंथ-पुराणसार (सन् 1023), रविषेण के पद्मचरित की टीका (सन् 1030), पुष्पदन्त के उत्तरपुराण का टिप्पण (सन् 1030) और शिवकोटि की भगवती आराधना का टिप्पण। ये ग्रंथ राजा भोजदेव के राज्यकाल में धारानगरी में रचे गये। श्रीधर - अम्पलप्पुल (त्रावणकोर) के राजा देवनारायण (अठारहवीं शती) द्वारा सम्मानिक कवि। रचना'लक्ष्मी-देवनाराणीय" (नाटक)। श्रीधरदास - ई. 12 वीं शती। बंगाल के लक्ष्मण सेन के महामाण्डलिक। पिता- बटुदास महासामंत । 'सदुक्तिकर्णामृत' के संकलनकर्ता। श्रीधर वेंकटेश (अय्यावल) - तंजौर के भोसले-वंशीय शहाजी महाराज के आश्रित। इन्होंने अपने आश्रयदाता का चरित्र, अपने 6 सर्गयुक्त महाकाव्य "शाहेन्द्र-विलासकाव्यम्" में ग्रंथित किया है। कवि की अन्य रचनाएं- (1) दयाशतक, (2) मातृभूशतक, (3) तारावतीशतक और (4) आर्तिहरस्तोत्र आदि लघु काव्य। सभी काव्य हैं। कुम्भकोणम् के वैद्य मुद्रणालय में मुद्रित)। श्रीधर सेन - गुरु- मुनिसेन। सेन संघ के आचार्य । ग्रंथ-विश्वलोचन - कोश (मुक्तावली कोश)। शैली की दृष्टि
476 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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कोश पर हेम, विश्वप्रकाश और मेदिनी कोशों का प्रभाव दीखता है।अतः इसका रचनाकाल ई. 13 वीं शती का उत्तरार्ध और 14 वीं शती का पूर्वार्ध माना जा सकता है। इसमें 2453 श्लोक हैं। नानार्थकोश की परम्परा में यह कोश अग्रगण्य माना जाता है। श्रीधरस्वामी- समय- 1908-73 ई.। पिता- नारायणराव देगलूरकर। माता- कमलाबाई। समर्थ रामदास के परम भक्त और महान् तपस्वी। निवास- महाराष्ट्र में सज्जनगड पर और अंत में कर्नाटक के वरदहल्ली मठ में। रचनाएं- श्रीदत्तकरुणार्णव और श्रीशिवशान्तस्तोत्रतिलकम् नामक दो संस्कृत काव्य और आर्यसंस्कृति नामक मराठी प्रबंध। आपके हजारों भक्त महाराष्ट्र और कर्नाटक में विद्यमान हैं। श्रीधरस्वामी - ई. 14 वीं शती का पूर्वार्ध । श्रीधर स्वामी की सुप्रसिद्ध व्याख्या "भावार्थ-दीपिका", श्रीमद्भागवत के भाव तथा अर्थ की विद्योतिका टीका है। श्रीधर स्वामी का व्यक्तित्व सर्वथा अप्रसिद्ध है। यों तो उनके देश और काल दोनों ही अज्ञात हैं, कोई उन्हें बंगाल का मानता है, कोई उत्कल का, कोई गुजरात का, तो कोई महाराष्ट्र का। निर्विवाद इतना है कि वाराणसी में वे बिन्दुमाधव मंदिर के सान्निध्य में निवास करते थे और उनका मठ तथा नृसिंह का विग्रह, मणिकर्णिकाघाट पर आज भी विद्यमान है। वे नृसिंह भगवान् के अनन्य उपासक थे। उनकी भागवत-व्याख्या के निम्न मंगल श्लोक से इस तथ्य की पुष्टि होती है
वागीशो यस्य वदने लक्ष्मीर्यस्य च वक्षसि ।
यस्यास्ते हृदये संवित् तं नृसिंहमहं भजे।।
एक प्राचीन प्रशंसा-श्लोक से भी इसकी पुष्टि होती है जिसमें नृसिंह के प्रसाद से श्रीधर के समग्र भागवतार्थ के
के ज्ञाता होने की बात कही गई है। श्रीधर के गुरु का नाम, अंतःसाक्ष के आधार पर, परमानंद था जिसकी सूचना अन्यत्र भी उपलब्ध होती है। गीता की टीका में भी उनके गुरु परमानंद का नाम निर्दिष्ट है। द्वादश स्कंध की समाप्ति पर श्रीधर ने स्वयं को ‘परमानंद-पदाब्जर्भूगः" कहा है तथा परमानंद की प्रीति के निमित्त उन्होंने भागवत-व्याख्या का प्रणयन अपने गुरु के मत का आश्रय लेकर ही करने की बात कही है। एक उद्भट विद्वान् होने पर भी श्रीधर बड़े ही विनम्र भक्त थे। भगवद्गीता की अपनी 'सुबोधिनी' टीका में, श्रीधर ने स्वयं को 'यति' कहा है। इससे स्पष्ट है कि 'सुबोधिनी' के प्रणयन के पूर्व वे संन्यास ले चुके थे। (सुबोधिनी, 18 अ. अंतिम पद्य)।
श्रीधर अद्वैत वेदांती होते हुए भी शुष्क ज्ञानमार्गी न होकर सरस भक्ति-मार्गावलंबी थे। अतः इनकी व्याख्या, गौडीय वैष्णव संप्रदाय में सर्वाधिक मान्यता से मंडित तथा प्रामाणिक मानी जाती है। श्री. चैतन्य महाप्रभु, सनातन गोस्वामी, जीव
गोस्वामी तथा विश्वनाथ चक्रवर्ती ने अपने अपने ग्रंथों में श्रीधर स्वामी के प्रति श्रद्धा एवं कृतज्ञता व्यक्त की है।
आचार्य बलदेव उपाध्याय ने अपने ग्रंथ "वैष्णव संप्रदायों का साहित्य एवं सिद्धांत" में श्रीधर के समय-निर्धारण हेतु जो आधार प्रस्तुत किये है, तदनुसार उनका समय बोपदेव
और विष्णुपुरी के बीच का (अर्थात् 1300 ई. और 1350 ई. के लगभग) होना चाहिये। श्रीधराचार्य - ई. आठवीं-नौवीं सदी। कर्नाटक-निवासी। आपका गणितसार (या त्रिंशतिका) नामक ग्रंथ प्रसिद्ध है। ज्योतिर्ज्ञानविधि एवं जातकतिलक ग्रंथ ज्योतिष संबंधी है। भास्कराचार्य ने ये नियम वैसे-के-वैसे उठाये हैं। आपका 'लीलावती'नामक ग्रंथ कन्नड भाषा में है। उसमें गणित का विवेचन है। श्रीनारायण - ई. 15 वीं शती। इन्होंने कुल 60 ग्रंथ लिखे हैं जिनमें नारायणचरितम् विशेष उल्लेखनीय है। श्रीनिवास - ई. 12 वीं शती। 'राजपंडित' व चूडामणि'की उपाधियों से अलंकृत । बंगाल के निवासी। गणितज्ञ। कृतियांगणित-चूडामणि और शुद्धिदीपिका (मुहूर्त-शास्त्र-विषयक)। श्रीनिवास - ई. 13 वीं शती। वेद के भाष्यकार और निरुक्त के टीकाकार । ग्रंथ अनुपलब्ध, फिर भी वेदभाष्यकार देवराज यज्वा द्वारा श्रीनिवासाचार्य का वेदभाष्यकार और निरुक्त-टीकाकार के रूप में उल्लेख हुआ है। श्रीनिवास - मुष्णग्राम के निवासी। वरदवल्ली- वंश । वरद के पुत्र। रचना- 'भू-वराहविजय' (वराहविजय) । श्रीनिवास - वेंकटेश के पुत्र । रचना- श्रीनिवास-चम्पू: (तिरुपति क्षेत्र के माहात्म्य का वर्णन)। श्रीनिवास - रचना- 'सत्यनाथ-विलसितम्'। इसमें माध्व-सांप्रदायी, द्वैत-सिद्धान्ती सत्यनाथतीर्थ (जिनका देहान्त सन् 1674 में हुआ) का चरित्र वर्णित है। श्रीनिवास कवि - "आनंदरंग-विजय-चंपू' के रचयिता। पितागंगाधर। माता- पार्वती। श्रीवत्सगोत्रोत्पन्न ब्राह्मण। अपने चंपू-काव्य में इन्होंने प्रसिद्ध फ्रेंच शासक डुप्ले के प्रमुख सेवक आनंदरंग के जीवन-वृत्त का वर्णन किया है। विजयनगर तथा चन्द्रगिरि के राज-वंशों का वर्णन इस काव्य की बहुत बडी विशेषता है। इसका रचना-काल ई. 18 वीं शताब्दी है। ऐतिहासिक दृष्टि से इस काव्य का महत्त्व है। यह मद्रास से प्रकाशित हुआ है। श्रीनिवास कवि डुप्ले के भाषण-सहायक थे। श्रीनिवासदास - ई. 14 वीं सदी। एक विशिष्टाद्वैती आचार्य । देवराज के पुत्र एवं वेंकटनाथ के शिष्य। वेंकटनाथ के न्यायपरिशुद्धि ग्रंथ पर आपने 'न्यायसार' नामक टीका लिखी है। विशिष्टाद्वैतसिद्धांत, कैवल्यशतदूषणी, दुरुपदेशधिक्कार, न्यायविद्या-विजय, मुक्तिशब्दविचार, सिद्ध्युपाय-सुदर्शन,
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 477
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सारनिष्कर्षटिप्पणी, वादाद्रिकुलिश ग्रंथ भी आप ही के कहे जाते हैं। श्रीनिवास दीक्षित - ई. 16 वीं शती। पिता-श्रीभवस्वामी भट्ट। भाष्यकार श्रीभवस्वामी, आह्निक प्रणेता श्रीकृष्णार्य, अद्वैत चिंतामणिकार कुमार भवस्वामी जैसे विद्वानों के वंश में इनका जन्म हुआ। राजा सूरप नायक द्वारा प्रतिष्ठापित सूर-समुद्र-अग्रहार में निवास। चोलराज के द्वारा प्रशस्तिपत्र प्राप्त। रचनाभावनापुरुषोत्तम (नाटक)। श्रीनिवास दीक्षित (रत्नखेट) - ई. 17 वीं शती। 'अभिनव-भवभूति' तथा 'रत्नखेट' इन नामों से प्रसिद्ध । रचना'शितिकण्ठविजय-काव्यम्'। चोलराजा ने 'रत्नखेट' उपाधि प्रदान की। षड्भाषाचतुर तथा अद्वैतविद्याचार्य यह उपाधियां भी इन्हें प्राप्त हुई थीं। साहित्यशास्त्रविषयक साहित्यसंजीवनी, भावोद्भेद, रसाय, अलंकारकौस्तुभ, काव्यदर्पण, काव्यसारसंग्रह और साहित्यसूत्रसरणी नामक ग्रंथों की रचना श्रीनिवास दीक्षित ने की है। श्रीनिवास भट्ट - साहित्यशिरोमणि । अध्यापक- प्रबांधी संस्कृत पाठशाला। रचना- रामानन्दम्। विषय- माध्वसिद्धान्त। श्रीनिवासरंगार्य - ई. 20 वीं शती। कौशिक गोत्री। भाषाद्वय-पंडित। 'गुरुदक्षिणा' नामक नाटक के प्रणेता । श्रीनिवास विद्यालंकार - इन्होंने अपने 'देहली- महोत्सव-काव्य' में दिल्ली में संपन्न राजमहोत्सव का वर्णन किया है। श्रीनिवास शास्त्री - जन्म कावेरी नदी के तट पर सहजपुरी ग्राम में, सन् 1850 के लगभग। पिता- वेंकटेश्वर। पितामहसुब्रह्मण्य शास्त्री। "तिरुवसलूर पंडित' नाम से विख्यात । माधव यतीन्द्र द्वारा 'वेद-वेदान्त-वर्धक' की उपाधि से समलंकृत। 'उपहार-वर्म-चरित" नामक नाटक के रचयिता। श्रीनिवास शास्त्री - समय- ई. 19 वीं शती का उत्तरार्ध । कुम्भकोणम्-निवासी शैव। माता-सीताम्बा। पिता- रामस्वामी यज्वा। पितामह- रामस्वामी शास्त्री। अनुज-नारायण शास्त्री। गुरु-त्यागराज मखी। 'ब्रह्मविद्या' नामक दर्शन विषयक पत्रिका के सम्पादक। अप्पय दीक्षित के शिवाद्वैत सिद्धान्त के प्रचारक । परम धार्मिक और वैष्णव। कृतियां- सौम्यसोम (नाटक), विज्ञप्तिशतक, योगि-भोगिसंवाद-शतक, शारदा-शतक, महाभैरव-शतक, हेतिराज शतक, श्रीगुरुसौन्दर्य-सागर-साहस्रिका तथा उपनिषदों की सुबोध टीकाएं। श्रीनिवास सूरि - सिद्धान्त प्रतिपादन की दृष्टि से भागवत के दो स्थल विशेष महत्त्व रखते हैं। वे हैं : ब्रह्म-स्तुति तथा वेद-स्तुति। इन दोनों स्तुतियों पर श्रीनिवास सूरि द्वारा लिखी गई टीका का नाम है तत्त्व-दीपिका। इस टीका में विशिष्टाद्वैत के द्वारा उद्भावित दार्शनिक तथ्यों का निर्धारण, भागवत के पद्यों से बड़ी गंभीरता के साथ किया गया है। श्रीनिवास सूरि, द्रविड पंडित थे, किन्तु वृंदावन के श्रीरंगनाथजी के विशाल मंदिर एवं संस्थान से आकृष्ट होकर, वृंदावन ही में रहते थे तथा इस संस्था से संबद्ध थे। इनके गुरु थे
गोवर्धनवासी वेंकट या वेंकटाचार्य जिनकी स्तुति इन्होंने वेद स्तुतिव्याख्या (टीका) के अंत में की है। आपके शिष्य थे रंगदेशिक, जिनके आदेश से सेठ राधाकृष्ण ने वृंदावन में रंगनाथ मंदिर का निर्माण करवाया था। निर्माणकार्य का आरंभ 1902 वि.सं. में अर्थात् 1845 ई. में हुआ था। अतः श्रीनिवास सूरि का समय ई. 19 वीं शती का पूर्वार्ध मानना युक्तियुक्त है। श्रीनिवासाचार्य - वैष्णवों के निंबार्क-संप्रदाय के प्रवर्तक । आचार्य निंबार्क के प्रधान शिष्य। इनका निवासस्थान मथुरा जिला में गोवर्धन से एक कोस दूर (श्री राधाकंड) ललितासंगम पर माना जाता है। जन्मतिथि-वसंत पंचमी। इनके द्वारा निर्मित ग्रंथ हैं- (1) वेदांत-कौस्तुभ नामक शारीरक-मीमांसा-भाष्य
और (2) लघु-स्तवराज सभाष्य। ख्यातिनिर्णय, पारिजात-कौस्तुभ-भाष्य तथा रहस्य-प्रबंध नामक तीन अन्य ग्रंथों के भी होने का संकेत है, किंतु अभी तक ये अप्राप्य हैं। श्रीनिवासाचार्य - शासकीय महाविद्यालय कुम्भकोणम् में संस्कृत प्राध्यापक (ई. 1848 से 1914) । पितृनाम- वेदान्ताचार्य । पिता- तिरुवाहीन्द्रपुर के निवासी। आप आमरण संस्कृत पद्यभाषी थे। रचनाएं- शृंगारतरंगिणी (भाण), उषापरिणय (नाटक), हंसविलास (काव्य) श्रीकृष्णलीलायित (गद्यकाव्य), अमृतमन्थन (गेयकाव्य), शाङ्गकोपाख्यान (काव्य) तथा नागानन्द और मृच्छकटिक की टीका। सभी रचनाएं मुद्रित । श्रीपतिदत्त - ई. 11 वीं शती। बंगाल-निवासी। कातन्त्र-परिशिष्ट के रचयिता। श्रीपतिभट्ट - ई. 11 वीं सदी। महाराष्ट्र के बुलढाणा जिले के रोहिणखेड ग्राम के निवासी। ज्योतिष शास्त्र की प्रत्येक शाखा पर आपने एक-एक ग्रंथ लिखा है। धीकोटिकरण, सिद्धान्तशेखर, जातकपद्धति, पाटीगणित, श्रीपतिनिबंध, ध्रुवमानसकरण, दैवज्ञवल्लभ, श्रीपतिसमुच्चय एवं ज्योतिषरत्नमाला, ये सभी ग्रंथ आपके हैं। रमल पर भी आपका एक ग्रंथ है ज्योतिष-रत्नमाला मुहूर्तग्रंथ है। श्रीपति ने स्वयं उस पर मराठी गद्यटीका लिखी है। गृहनिर्माण, गृहप्रवेश, विवाह, उपनयन आदि पर हर घडी मुहूर्त देखा जाता है। इस आवश्यकाता को पहिचानकर यह ग्रंथ उपलब्ध किया गया है। श्रीपुरुषोत्तमाचार्य - हरिव्यास देवाचार्य के शिष्य। आपके वेदान्त- रत्नमंजूषा व श्रुत्यन्तसुरद्रुम नामक टीकाग्रंथ प्रसिद्ध हैं। श्रीभूषण - काष्ठासंघ, नन्दितट गच्छ और विद्यागम के भट्टारक विद्याभूषण के पट्टधर । सोजिना (गुजरात) की गद्दी के पट्टधर । पिता- कृष्णासह । माता- माकेहो। वादिविजेता और प्रतिष्ठाचार्य । समय-ई. 17 वीं शती। रचनाएं- (1) पाण्डव-पुराण (वि.सं. 1657) (6700 श्लोक)। (2) शान्तिनाथ-पुराण (वि.सं. 1659) (4025 श्लोक), (3) हरिवंश पुराण (वि.सं. 1675) (4) द्वादशांगपूजा और (5) प्रतिबोधचिंतामणि।
478 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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श्रीरंगराज - विजयनगर के युवराज। ई. 17 वीं शती का पूर्वार्ध। रचना- नाटक-परिभाषा। श्रीराम गोस्वामी - समय- 1727-1787 ई. । कवि रामगोस्वामी बीकानेर के महाराजा सूरतसिंह के आश्रित। इन्होंने अपने महाराजा को अपनी काव्य-रचना का विषय बनाया एवं 'सूरत-विलासः' नामक राजप्रशस्तिपर काव्य का प्रणयन किया। श्रीरामचन्द्र (प्रा.) - मछलीपट्टनम् के नोबल महाविद्यालय में प्राध्यापक। रचनाएं- शृंगारसुधार्णव-भाण, कुमारोदय-चम्पू
और देवीविजय-काव्य। श्रीराम शर्मा - ई. 15 वीं शती। चम्पाहट्टीय ब्राह्मण। वीरेन्द्र-प्रदेशी। कृतियां- विजया नामक सरिदेवकृत 'परिभाषावृत्ति' की टीका। विषय- व्याकरणशास्त्र (2) मुग्धबोध व्याकरण की टीका। श्रीरामशास्त्री वेदमूर्ति - 19-20 वीं शताब्दी। नेलोर निवासी। रचना- 'गुरुकल्याणम्'। श्रीलोकाचार्य - श्रीरामानुजाचार्य के वैकुंठवासी होने के पश्चात् 150 वर्षों की अवधि में ही दक्षिण के श्रीवैष्णवों में दो स्वतंत्र मत उठ खडे हुए थे। पहले मत का नाम था- 'टेकलै'
और दूसरा 'वडकलै' कहलाता था। श्रीलोकाचार्य मे टेकलै मत की प्रतिष्ठापना की। इनका समय 13 वां शतक था। इन्होंने अपने ग्रंथ 'श्रीवचनभूषण' में इस प्रपत्ति-पंथ का विशद शास्त्रीय विवेचन किया है।
आजकल लोकभाषा पर अधिक पक्षपात होने के कारण दक्षिण में टेकलै-मत पर विशेष आग्रह दृष्टिगोचर होता है। श्रीलोकाचार्य-प्रणीत 'श्रीवन-भूषण' नामक ग्रंथ पुरी के किसी मठ से प्रकाशित है। श्रीवत्सलांछन भट्टाचार्य - ई. 16 वीं शती। श्रीविष्णु चक्रवर्ती के पुत्र । 'रामोदय' (नाटक) काव्यामृत, काव्यपरीक्षा, सारबोधिनी तथा साहित्य-सर्वस्व के कर्ता। श्रीवल्लभ पाठक - ई. 17 वीं शती। तपागच्छ-निवासी। इन्होंने 21 सर्गों के 'विजय-देव-माहात्म्य' नामक महाकाव्य में जैन मुनि विजयदेव सूरि का चरित्र-वर्णन किया है। श्रीशैल दीक्षित - ई. 19 वीं शती। 'कर्नाटक-प्रकाशिका' (बंगलोर) के सम्पादक। रचनाएं- वीरांजनेय-शतक, हनुमन्नक्षत्रमाला (काव्य), गोपालार्या (काव्य), भ्रान्ति-विलासम् (शेक्सपियर के 'कामेडी ऑफ एरर्स' का संस्कृत अनुवाद)
और कावेरीगद्यम् (प्रवासवृत्त), श्रीकृष्णाम्युदयम् (गद्यकाव्य)। इन्हें गायनकला में नैपुण्य प्राप्त था। श्रीश्वर विद्यालंकार (भट्टाचार्य) - ई. 19-20 वीं शती। रंगपुर (बंगाल) के निवासी। पिता- क्षितीश्वर भट्टाचार्य कृतियांशक्तिशतक (अपर नाम देवीशतक), विजयिनीकाव्य (महारानीविक्टोरिया पर सन् 1902 में रचित), दिल्ली-महोत्सव (काव्य)
और विक्रमभारत। दिल्ली-महोत्सव-काव्यम् की रचना सन् 1902 में हुई। छह सों वाले इस काव्य में सप्तम एडवर्ड का राज्याभिषेक वर्णित है। श्रीहरि - एक महनीय भक्त कवि। गोदावरी-तट के निवासी। काश्यप गोत्री ब्राह्मण। 'हरिभक्ति-रसायन' नामक टीका के प्रणेता। टीका का रचना-काल सन् 1887। यह टीका भागवत के दशम स्कंध के पूर्वार्ध पर ही है। इनका कहना है कि भगवान् का प्रसाद ग्रहण कर ही वे इस टीका के प्रणयन में प्रवृत्त हुए। टीका से इनकी प्रतिभा प्रकाशित होती है। इस टीका का पुनर्प्रकाशन सन 1972 में हुआ। श्रीहर्ष - ई. 12 वीं सदी। 'नैषधीयचरित' (महाकाव्य) के कर्ता । इन्होंने महाकाव्य के प्रत्येक सर्ग के पश्चात् एवं ग्रंथसमाप्ति के बाद रचित चार श्लोकों में स्वयं के बारे में जानकारी दी है। आपके लिखे अन्य ग्रंथ है- विजयप्रशस्ति, अर्णव-वर्णन एवं नवसाहसांक-चरितचंपू। काव्ये व तर्क दोनों में उनकी बुद्धि चलती थी। कहते हैं कि योगसमाधि में आपको परब्रह्म का साक्षात्कार होता था। स्थैर्यविचारणा प्रकरण एवं ईश्वराभिसंधि नामक अन्य दो ग्रंथ भी आपकी ही रचनाएं हैं।
आपके काव्य में श्लेष, यमक, अनुप्रास इन शब्दालंकारों के साथ विविध अर्थालंकार, रस, ध्वनि, वक्रोक्ति आदि काव्यगत सौंदर्य एवं वैद्यकशास्त्र, कामशास्त्र, राज्यशास्त्र, धर्म, न्याय, ज्योतिष, व्याकरण, वेदान्त आदि परम्परागत शास्त्रीय ज्ञान इतना भरा है कि इसे 'शास्त्रकाव्य' कहने की प्रथा है। नैषधीय के अध्ययन से मन, बुद्धि सदृढ बनती हैं। इसे विद्वानों की बलवर्धक औषधि ('नैषधं विद्वदौषधम्') कहा गया है। श्रुतकक्ष - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 92 वे क्रमांक के सूक्त के द्रष्टा। अंगिरस कुलोत्पन्न। इंद्र-सोम की स्तुति इनके सूक्त का विषय है। श्रुतकीर्ति - समय- ई. 12 वीं शती। नन्दिसंघ की गुर्वावली में श्रुतकीर्ति को वैयाकरण भास्कर लिखा है। कन्नड भाषा के चन्द्रप्रभचरित नामक ग्रंथ के कर्ता अग्गल कवि के ये गुरु थे। रचना- पंचवस्तु नामक व्याकरण ग्रंथ। श्रुतकीर्ति - ई. 16 वीं सदी। दिगम्बर संप्रदाय के भट्टारक। गुरु का नाम त्रिभुवनकीर्ति । मालवा के जेरहट ग्राम के नेमिनाथ मंदिर में हरिवंशपुराण, परमेष्ठीप्रकाशसार, योगसार एवं धर्मपरीक्षा नामक ग्रंथों की रचना आपने की। श्रुतसागर सूरि - मूलसंघ, सरस्वतीगच्छ और बलात्कारगण के आचार्य। सूरत-शाखा के भट्टारक। विद्यानन्द के शिष्य, देवेन्द्रकीर्ति के प्रशिष्य। मल्लिषेण के गुरुभाई। शिष्यनाम श्रीचंद्र। समय- ई. 16 वीं शती। ईडर के राजा भानु अथवा रविमाण के समकालीन। रचनाएं- यशस्तिलक-चन्द्रिका, तत्त्वार्थवृत्ति, तत्त्वत्रयप्रकाशिका, जिनसहस्रनाम-टीका, महाभिषेक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 479
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टीका, षट्पाहुडटीका, सिद्धभक्तिटीका, सिद्धचक्राष्टक-टीका, ज्येष्ठजिनवरकथा, रविव्रतकथा, सप्तपरमस्थानकथा, मुकुटसप्तमीकथा, अक्षय-निधिकथा, षोडषकारण-कथा, मेघमालाव्रतकथा, चन्दनषष्ठीकथा, लब्धिविधानकथा, पुरन्दरविधानकथा, दशलक्षणीव्रतकथा, पुष्पांजलिव्रतकथा, आकाशपंचमीव्रतकथा, मुक्तावलीव्रतकथा, निर्दुःखसप्तमी-कथा सुगन्धदशमी-कथा, श्रावण द्वादशी-कथा, रत्नत्रयव्रत-कथा, अनन्तव्रत-कथा, अशोक-रोहिणीकथा, तपोलक्षण- पंक्तिकथा, मेरुपंक्तिकथा, विमानपंक्ति कथा, पल्लिविधान-कथा, श्रीपालचरित, यशोधरचरित, औदार्यचिन्तामणि (प्राकृत व्याकरण) श्रुतस्कन्धपूजा, पार्श्वनाथ स्तवन और शान्तिनाथ स्तवन। श्रुष्टिगू काव्य - ऋग्वेद के आठवें मंडल के 51 वें सूक्त के द्रष्टा । इंद्रस्तुति इसका विषय है। अनेक ऋषियों का उल्लेख होने से इसे सूक्त को ऐतिहासिक महत्त्व प्राप्त है। षड्गुरुशिष्य - समय- 13 वीं शती। ग्रंथ- ऐतरेय ब्राह्मण, ऐतरेय आरण्यक, आश्वालायन श्रौत, आश्वालयन गृह्य तथा ऋक् सर्वानुक्रमणी पर वृत्तियां लिखी हैं। ऐतरेय ब्राह्मण वृत्ति का नाम है 'सुखप्रदा' । सर्वानुक्रमणी वृत्ति का नाम 'वेदार्थ-दीपिका है। इसी ग्रंथ के अन्त में संवत् 1234 का निर्देश होने के कारण षड्गुरु शिष्य का समय स्पष्ट होता है।
षड्गुरुशिष्य ने विनायक, शूलपाणि, वा शूलांग, मुकुन्द वा गोविंद, सूर्य, व्यास तथा शिवयोगी इन छह गुरुओं का निर्देश किया है। षष्ठीदास विशारद - ई. 18 वीं शती की उत्तरार्ध । जयकृष्ण तर्कवागीश के पुत्र । 'धातुमाला' नामक व्याकरण-ग्रंथ के कर्ता। संकर्षणशरणदेव - निंबार्क-संप्रदार्य के प्रसिद्ध दिग्विजयी आचार्य केशव काश्मीरी के शिष्य। इन्होंने 'वैष्णव-धर्म सुरद्रुम-मंजरी' नामक ग्रंथ की रचना की जिसमें निंबार्क-मत की श्रेष्ठता का दिग्दर्शन तथा व्रतादि का वर्णन है। संघभद्र - आचार्य वसुबन्धु के समकालीन तथा उनके प्रबल विरोधक। वसुबन्धु के अभिधर्मकोशभाष्य में प्रतिपादित अनेक सिद्धान्त, वैभाषिक मत से असंगत होना ही विरोध का कारण था। संघभद्र वैभाषिक मत के पोषक थे तथा उसका पुनरुद्धार चाहते थे। इसी निमित्त उन्होंने दो. ग्रंथों की रचना भी कीअभिधर्मन्यायानुसार व अभिधर्मसमयदीपिका। इन दोनों ग्रंथों के केवल अनुवाद चीनी भाषा में उपलब्ध है। संघविजयगणि - विजयसेन सूरि के शिष्य। तपागच्छीय विद्वान। ग्रंथ-कल्पसूत्र- कल्पप्रदीपिका (वि.सं. 1674)। कल्याणविजयसूरि के शिष्य धनविजयगणि द्वारा वि.सं. 1681 में संशोधित। ग्रंथमान 3200 श्लोक। संध्याकर नन्दी - ई. 12 वीं शती। पुंड्रवर्धन (बंगाल) के निवासी। रामपाल (सन् 1017-1120) के विदेश-मन्त्री।
प्रजापति नन्दी के पुत्र । 'रामचरित'काव्य के प्रणेता। संभाजी महाराज - ई. 17 वीं शती। छत्रपति शिवाजी महाराज के वीर, रसिक और विद्वान पुत्र । रचना- बुधभूषण । कामंदकीय तथा नीतिविषयक अन्य ग्रंथों का परिशीलन एवं संकलन कर इस सुभाषित ग्रंथ की निर्मिति हुई है। संवनन आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 191 वें क्रमांक के महत्त्वपूर्ण लघु सूक्त के द्रष्टा। प्रस्तुत सूक्त की दो से चार तक की ऋचाएं राष्ट्रीय आकांक्षा व प्रार्थना मानी जानी चाहिये। समाज के मतभेद दूर हों, स्नेह बढे, ऐक्य प्रस्थापित हो इस हेतु इनकी रचना की गई है। ऐतरेय ब्राह्मण (23.1) में सूचना है कि परस्पर-विरोधी लोगों में सामंजस्य निर्माण करने के लिये इस सूक्त का पठन किया जाये। यह सूक्त है -
संसमिधुवसे वृषनग्ने विश्वान्य आ। इळस्पदे समिध्यसे स नो वसून्या भर।। सं गच्छध्वं सं वदध्वं सं वो मनांसि जानताम्। देवा भागं यथा पूर्वे संजानाना उपासते ।।2।।
समानो मंत्रः समितिः समानी समानं मनः सह चित्तमेषाम्। समानं मन्त्रमभि मन्त्रये वः
समानेन वो हविषा जुहोमि ।।3।। समानि व आकूतिः समाना हृदयानि वः समानमस्तु वो मनो यथा वः सुसहासति ।।4 ।। अर्थ- हे उत्तरवेदी में प्रदीप जगद्व्यापक कामपूरक परमेश्वर अग्नि, हमें धन दो। सभी लोग एक विचार, एक भाषण, एक ज्ञान के हो। पुरातन सहविचारी लोगों के समान अपने कार्य एकमत से करें। ____ हम सभी की प्रार्थना, विचारस्थान, ज्ञान और मन एक-समान
हो। एक ही सामग्री से देवपूजन करें। संघशक्ति की पुष्टि के लिये सभी के अभिप्राय, अंतःकरण और मन एक-समान हों। __इस सूक्त की पहली ऋचा में इळस्पद स्थान का उल्लेख है। वैदिकों की धारणा है कि पृथ्वी पर आद्य अग्नि यहीं निर्माण हुई। सायणाचार्य के अनुसार इळस्पद याने उत्तरवेदी कुरुक्षेत्र है। संवर्त - याज्ञवल्क्य द्वारा प्रस्तुत स्मृतिकारों की सूची में आपका नाम है। आपकी दो स्मृतियां उपलब्ध हैं। उनमें क्रमशः 227
और 230 श्लोक हैं। इनमें यज्ञोपवीत के बाद ब्रह्मचारी का कर्तव्य, विवाहोत्तर गृहस्थ का आचार, अनेक प्रकार के दान और उनके फल, संन्यासधर्म आदि विषय हैं। संवर्त आंगिरस - आंगिरस के पुत्रों में से एक। आपका दूसरा नाम वीतहव्य है। ऐतरेय ब्राह्मण के अनुसार, मरुत्त आविक्षित राजा के आप पुरोहित थे। ऋग्वेद के दसवें मंडल के 172 वें सूक्त के आप द्रष्टा है। उसमें उषा का वर्णन है (10.172.4)
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संवर्त यज्ञकर्ता रहे होंगे। ऋग्वेद में यज्ञकर्ता के रूप में गुरुगोविंदसिंहचरित नामक आपके काव्यग्रंथ को साहित्य अकादमी अन्यत्र भी उनका उल्लेख है (8.54.2)। अपने भाई बृहस्पति का पुरस्कार प्राप्त हुआ। डा. सत्यव्रत शास्त्री ने विदेशी में से आपकी स्पर्धा चलती थी। बृहस्पति ने मरुत्त का यज्ञ भी अध्यापन कार्य किया है। आप जगन्नाथपुरी संस्कृत विद्यापीठ अधूरा छोड़ दिया था। उसे आप ने पूरा किया। इस यज्ञ में उपकुलपति थे। में अग्नि को ही जला डालने की धमकी आपने दी थी।
सत्यव्रत सामश्रमी - सफल पत्रकार और वैदिक वाङ्मय के आप महान तपस्वी थे। जहां आपने तप किया उसे संवर्ततापी जाता। वाराणसी में रहते हए इन्होंने "प्रत्रकलमनन्दिनी" नामक कहा जाने लगा।
संस्कृत मासिक पत्रिका का प्रकाशन किया। बाद में कलकत्ता सकलकीर्ति - जन्म-राजस्थान में, 1386 ई. में। पिता-कर्णसिंह । में वैदिक वाङ्मय से संबंधित "उषा" नामक पत्रिका का माता-शोभा। जाति-हूंवड। निवास-अणहिलपुर पट्टन। जन्म सम्पादन किया। इस पत्र की ख्याति विदेशों में भी थी। नाम-पूर्णसिंह। 14 वर्ष की अवस्था में विवाहित और 18 वैदिक साहित्य में शोधानुशीलन का प्रारंभ इन्हीं के प्रयासों वर्ष की अवस्था में दीक्षित। दीक्षागुरु-भट्टारक पद्मनन्दि। 34 का फल है। इनके द्वारा रचित "कन्याविवाहकालः" तथा वें वर्ष में आचार्यपद की प्राप्ति । बागड और गुजरात कार्यक्षेत्र । समुद्रयात्रा, जीवगतिः आदि निबंध मौलिक अनुसन्धान से बलात्कारगण ईडर शाखा के संस्थापक। वि.सं. 1482 में ओतप्रोत हैं। अक्षरतंत्र, आयब्राह्मणः, साम-प्रातिशाख्य, गलियाकोट में भट्टारक-गद्दी के संस्थापक। प्रतिष्ठाचार्य। स्थिति नारदीयशिक्षा आदि समालोचनाप्रधान ग्रंथों की आपने रचना की है। 56 वर्ष । रचनाएं- 1) शांतिनाथचरित (16 अधिकार व 3475 सदाक्षर - अपरनाम-कविकुंजर। अल्प आयु में ही मृत्यु (ई. पद्य), 2) वर्धमानचरित (19 सर्ग), 3) मल्लिनाथचरित (7
1614 से 1634)। इस अत्यल्प जीवन-काल में ही समृद्ध सर्ग-874 श्लोक), 4) यशोधरचरित (8 सर्ग), 5) साहित्य-निर्मिति की। रचनाएं- अम्बाशतक, कविकर्णरसायन और धन्यकुमारचरित (7 सर्ग), 6) सुकुमालचरित (9 सर्ग), 7)
रत्नावलीभद्रस्तवः । आप कर्नाटक के राजा चिकदेव के आश्रित थे। सुदर्शनचरित (8 परिच्छेद), 8) श्रीपालचरित (7 सर्ग), 9)
सदाजी - आपने सन् 1825 में “साहित्यमंजूषा" नामक मूलाचारप्रदीप (12 अधिकार), 10) प्रश्नोत्तरोपासकाचार (24
साहित्य-शास्त्रनिष्ठ काव्य की रचना की। इसमें शिवाजी का परिच्छेद), 11) आदिपुराण (20 सर्ग), 12) उत्तरपुराण (15
चरित्र तथा भोसले-वंश का इतिहास वर्णित है। अधिकार), 13) सद्भाषितावली (389 पद्य), 14)
सदानंद योगीन्द्र - ई. 16 वीं सदी। वेदान्तसार नामक ग्रंथ पार्श्वनाथपुराण (23 सर्ग), 15) सिद्धान्तसार-दीपक (16
के कर्ता। अत्यंत सरल होने से ग्रंथ लोकप्रिय है। अधिकार), 16) व्रतकथाकोश, 17) पुराणसार-संग्रह, 18)
वेदान्तशास्त्र-सिद्धान्त, सारसंग्रह एवं स्वरूपनिर्णय नामक ग्रंथ कर्मविपाक, 19) तत्त्वार्थसारदीपक (12 अध्याय) और
भी आपने लिखे हैं। परमात्मराजस्तोत्र। राजस्थानी भाषा में भी इनके 8 ग्रंथ हैं। सकलभूषण - मूलसंघ-स्थित नन्दिसंघ और सरस्वती गच्छ। सदाशिव - ई. 18 वीं शती। उत्कल प्रदेश के धारकोटे के भट्टारक विजय-कीर्ति के प्रशिष्य, म. शुभचन्द्र के शिष्य नरेश के राजपुरोहित। "कविरत्न" की उपाधि से विभूषत । एवं म. सुमतिकीर्ति के गुरुभ्राता। समय-ई. 17 वीं शती। वृत्ति वैष्णव । “प्रमुदित-गोविन्द" नामक काव्य के प्रणेता। रचनाएं-उपदेश रत्नमाला (18 अध्याय, 3383 पद्य। वि.सं. सदाशिव दीक्षित (मखी) - ई. 18 वीं शती। भारद्वाज 1627) तथा मल्लिनाथचरित्र।
गोत्री । पिता-चोक्कनाथ, माता-मीनाक्षी । संन्यास ग्रहण । आध्यात्मिक सत्यव्रत - ई. 20 वीं शती। मुम्बई-निवासी। शैशव से ही काव्यरचना आत्मविद्याविलास तथा 6 सर्गों का “गीतसुन्दर" मातृपितृहीन। 14 वर्ष की आयु में आर्य-विद्या-सभा द्वारा मुंबई (सोमसुन्दर विषयक भक्तिगीत) । त्रावणकोर में रामवर्मा कार्तिक में संचालित गुरुकुल में मायाशंकर के आचार्यत्व में अध्ययन । (ई. 1755-98) के आश्रय में रहकर रचना- रामवर्म-यशोभूषणम्। सन् 1926 में वेदविशारद । अध्यापन तथा आर्यधर्म के प्रचार इनके अतिरिक्त 'वसुलक्ष्मीकल्याण' और लक्ष्मीकल्याण नामक में रत। मेधाव्रत शास्त्री से संस्कृत-लेखन की प्रेरणा। दो नाटकों के भी प्रणेता। "महर्षि-चरितामृत" नामक नाटक के प्रणेता।
सनातन गोस्वामी - समय- 1490 से 1591 ई.। रूप सत्यव्रत शास्त्री - ई. 20 वीं शती। "नपुंसकलिंगस्य गोस्वामी के बड़े भाई, किन्तु अपने छोटे भाई के बाद इन्होंने मोक्षप्राप्तिः" नामक एक लघु रूपक के प्रणेता।
चैतन्य महाप्रभु से दीक्षा ली। षट् गोस्वामियों में से एक। ये सत्यव्रतशास्त्री (डॉ.) - दिल्ली विश्वविद्यालय के भी बंगाल के नवाब के ऊंचे अधिकारी थे किन्तु उस पद संस्कृताध्यापक । रचना-श्रीबोधिसत्व-चरितम्। एक सहस्र श्लोकों को छोड़ इन्होंने भगवद्भक्ति को ही अपना जीवन-व्रत बना के इस ग्रंथ में भगवान बुद्ध के पूर्वजन्म की कथाएं हैं। यह लिया। महाप्रभु की आज्ञा से ये वृंदावन में ही रहते थे। कथाएं मूल पाली जातक कथाओं पर आधारित हैं। किन्तु प्रभु के प्रत्यक्ष दर्शन से विमुख होने के कारण एक
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बार इतने विषण्ण हो गये थे कि श्री जगन्नाथजी के रथ के नीचे प्राण त्यागने का निश्चय किया परन्तु महाप्रभु चैतन्य के समझाने पर ये वृंदावन लौटे तथा भजन, श्रीकृष्ण की पूजा-अर्चा एवं ग्रंथ-लेखन में लीन रहने लगे। कहते हैं कि इनके पास प्रसिद्ध पारसमणि था जो इन्होंने किसी दरिद्री ब्राह्मण-याचक को दे डाला। इनके भक्तिमय जीवन की अनेक विलक्षण बातें भक्तजनों में प्रसिद्ध हैं। ___ रूप और सनातन ये दो भाई, चैतन्य-मत के शास्त्रकर्ता माने जाते हैं। रूपजी ने इस मत के लिये भक्तिशास्त्र के गूढ सिद्धांतों की विवेचना की और सनातनजी ने इस मत के आदरणीय नियमों एवं आचारों का विस्तृत विवेचन ग्रंथ-बद्ध किया। इस प्रकार सनातन गोस्वामी, चैतन्य संप्रदाय के कर्मकांड के निर्माता है। आज भी उन्हीं के नियमानुसार चैतन्य संप्रदाय के मंदिरों में पूजा-अर्चा की जाती है और मठ के साधुओं के जीवन की व्यवस्था का निर्धारण होता है।
सनातनजी का एतद्विषयक ग्रंथ है "हरिभक्तिविलास"। इनके अन्य ग्रंथों में बृहत्तोषिणी है जिसमें भागवत की मार्मिक व्याख्या की गई है। इन्होंने अपने भागवतामृत ग्रंथ में भागवत के सिद्धांतों का सुंदर विवरण प्रस्तुत किया है। इन्होंने "मेघदूत" पर "तात्पर्यदीपिका" नामक टीका भी लिखी है। ___ रूपजी तथा सनातनजी की भक्ति एवं विद्वत्ता से आकृष्ट होकर राजा-महाराजा तक दर्शनों के लिये वृंदावन आया करते थे। सन् 1573 में अकबर बादशाह भी इनसे मिलने वृंदावन गये थे।
अपने बंधु रूपजी के समान ही इनके मृत्यु-संवत् के विषय में विद्वानों में मतभेद है किन्तु आचार्य बलदेव उपाध्याय तथा डा. डी.सी. सेन द्वारा प्रस्तुत प्रमाणों के आधार पर इन्हें शतायुषी मानना उचित प्रतीत होता है। सन्मुख - मूल रचना अप्राप्य । संग्रहचूडामणि नामक इनकी रचना में प्राचीन लेखकों के मतों का विवरण तथा सदानन्द
और शाङ्गदेव का उल्लेख है। अतः समय ई. 14 वीं शती के बाद। अन्य रचना संगीत-चिन्तामणि। ये दोनों संगीत विषयक रचनाएं हैं। सप्तगू आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 47 वें सूक्त के द्रष्टा। वैकुंठ इंद्र नामक इंद्रावतार की इसमें स्तुति है। सप्तवधी आत्रेय - अत्रि-कुल के एक सूक्त-द्रष्टा। ऋग्वेद के पांचवें मंडल का 78 वां एवं आठवें मंडल का (विकल्प का) 72 वां सूक्त आपके नाम है। ऋग्वेद (10.39.9), अथर्ववेद (4.29.4) तथा बृहद्देवता में आपका उल्लेख है।
सायणाचार्य के अनुसार असुरों ने इन्हें पेटी में बन्द कर पत्नी से भेट भी असंभव कर दी थी। अश्विनीकुमारों ने इन्हें मुक्त किया। फिर इन्हें पुत्रप्राप्ति हुई।
समंतभद्र - ई. पांचवीं सदी। दक्षिण भारत के चोलवंश के राजकुमार । पिता-कावेरी नदी के तटवर्ती नगर उरगपुर (आधुनिक त्रिचनापल्ली) के क्षत्रिय राजा थे। जन्मनाम-शान्विवर्मा। कनड कवि आपका उल्लेख अत्यंत आदर के साथ करते हैं।
बिहार, मालवा, सिंध, पंजाब में जाकर, आपने अन्य मतों के आचार्यों से शास्त्रार्थ कर विजय प्राप्त की। आप जैन-वाङ्मय के प्रथम संस्कृत कवि और प्रथम दार्शनिक स्तुतिकार हैं। जिनसेन द्वारा वादित्व, वाग्मित्व, कवित्व और गमकत्व जैसे
गुणसूचक विशेषणों से अलंकृत। ____ एक कथा के अनुसार राजबलिकथा के अनुसार मुनि-दीक्षा
के बाद मणुवकहल्ली नामक नगर में भस्मक-व्याधि से पीडित हुए। गुरु की आज्ञानुसार व्याधि से मुक्त होने का प्रयन्त किया। फलतः वाराणसी में शिवकोटि के राजा भीमलिंग नामक शिवालय में शिवजी को अर्पण किए जाने वाले नैवेद्य को शिवजी को ही खिला देने की घोषणा की और राजा की आज्ञा से शिवालय के किवाड बंद कर उस नैवेद्य को स्वयं खाकर क्षुधा शान्त करने लगे। शनैः शनैः व्याधि शान्त होने लगी और फलतः नैवेद्य बचने लगा। तब संदेहग्रस्त होकर राजा ने समन्तभद्र से शिवपिण्डी को प्रणाम करने का आग्रह किया। प्रणाम करने के लिये समन्तभद्र ने "स्वयंभू-स्तोत्र"
की रचना की और आठवें तीर्थकर चन्द्रप्रभु की स्तुति करते हुए वन्दना की। वन्दना करते ही शिवपिण्डी फट गई और उसमें से चन्द्रप्रभ भगवान की मूर्ति प्रकट हुई। इस आश्चर्यकारी घटना को देखकर राजा प्रभावित हुआ और जैनधर्म में दीक्षित हो गया। सेनगण पट्टावली तथा श्रवण बेलगोला-शिलालेख के अनुसार यह घटना कांची में हुई। भारतीय इतिहास में शिवकोटि नाम का कोई राजा नहीं हुआ। लगभग प्रथम शताब्दी में शिवस्कन्धवर्मन नामक राजा अवश्य हुआ। यदि शिवकोटि और शिवस्कन्धवर्मन का व्यक्तित्व एक रहा हो तो इस कथा का संबंध समन्तभद्र के साथ घटित हो सकता है। कांची को दक्षिण काशी कहा जाता रहा है।
चत्रराय पट्टण ताल्लुके के अभिलेख में समन्तभद्र को श्रुतकेवली के समान कहा गया है। वे कुन्दकुन्दान्वयी थे। तत्त्वार्थसूत्र के मंगलाचरण "मोक्षमार्गस्य-नेतारम्" पर "आप्तमीमांसा" नामक दार्शनिक ग्रंथ लिखने वाले समन्तभद्र का समय ई. द्वितीय शताब्दी माना जाता है।
रचनाएं- बृहत्-स्वयम्भू-स्तोत्र, स्तुति-विद्या-जिनशतक, देवागम-स्तोत्र, आप्तमीमांसा, युक्त्यनुशासन, रत्नकरण्डश्रावकाचार जीवसिद्धि, तत्त्वानुशासन, प्राकृत-व्याकरण, प्रमाणपदार्थ, कर्मप्राभृत-टीका तथा गन्धहस्ति-महाभाक्य। इनमें से प्रथम पांच ग्रंथ ही उपलब्ध होते हैं जिन के द्वारा जैन-दर्शन के क्षेत्र में समन्तभद्र का विशेष योगदान रहा है। समयसुन्दरसूरि . खरतरगच्छीय सकलचन्द्र सूरि के शिष्य।
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समय-ई. 17 वीं शती। ग्रंथ-दशवैकालिक-दीपिका (सं. 1691) - "अब्दुल-मर्दन" (2) "प्रतिकार" नामक दो नाटक (रचनाकाल (श्लोक 3450) स्तम्भतीर्थ (खंभात) में लिखित ।
सन् 1933 के लगभग) (3) काकदूतम् (4) चायगीता । समरपुंगव दीक्षित - पिता-वेंकटेश । माता-अनंतम्मा । गुरु-अप्पय सांबशिव - ई. 18 वीं शती। मद्रास के गोपालसमुद्र नामक दीक्षित। समय-ई. 16 वीं शताब्दी का उत्तरार्ध । ग्राम के निवासी। शृंगारविलास नामक भाण के रचयिता । "तीर्थ-यात्रा-प्रबंध-चम्पू" के रचयिता। इन्हीं का दूसरा ग्रंथ सांब दीक्षित हारीत - ई. 20 वीं शती। कर्नाटक-निवासी । "आनंदकंद-चम्पू" है (जो अप्रकाशित है)। ये वाधूल गोत्रीय पिता- दामोदर । व्याकरण में निपुण। श्रौत तथा स्मार्त कर्मकाण्ड ब्राह्मण थे। इनका जन्म दक्षिण के वटवनाभिधान नामक नगर के मर्मज्ञ। कृतियां- नित्यानन्दचरित (काव्य), अग्निसहस्र व में हुआ था। भ्राता-सूर्यनारायण। "तीर्थ-यात्रा-प्रबंध-चम्पू" का महागणपति-प्रादुर्भाव (नाटक)। प्रकाशन, काव्यमाला (36) निर्णय सागर प्रेस, मुंबई से 1936
सागरनन्दी - इनके प्रमुख ग्रन्थ का नाम हैई. में हो चुका है।
"नाटकलक्षण-रत्नकोश"। सर्वप्रथम 1922 ई. में सिल्वां लेवी सरफोजी भोसले - तंजौर के व्यंकोजीराव भोसले के द्वितीय
ने नेपाल से प्राप्त पाण्डुलिपि के आधार पर इसका प्रकाशन पुत्र । समय-ई. 18 वीं शती। रचना-कुमारसम्भवचम्पू।
जर्नल आफ् एशियाटिक सोसाइटी में किया था। सन् 1937 सर्वज्ञमित्र - काश्मीर-निवासी स्तोत्रकवि। ई. 8 वीं शती का में श्री. डिल्लन ने इस ग्रंथ को लन्दन से प्रकाशित करवाया। पूर्वार्ध। कल्हण द्वारा उल्लिखित । कथ्यनिर्मित विहार में रहते बाबूलाल शुक्ल के सम्पादन में हिन्दी टीका सहित यह चौखम्बा थे। अपनी रचना स्रग्धरास्तोत्र द्वारा बौद्ध देवी तारा की स्तुति से प्रकाशित हुआ है। सागरनंदी, धनंजय तथा भोज के परवर्ती कर, अपने स्वतः के साथ 100 लोगों को नरबलि होने से आचार्य थे। इनके ग्रंथ में हर्षवार्तिक, मातृगुप्त गर्ग, कश्यकुट्ट, बचाया। एक दरिद्र ब्राह्मण को द्रव्य देने के लिये, अपने को नखकुट्ट तथा बादरि का उल्लेख हुआ है जिनसे पता चलता एक राजा को बेच दिया था। यही राजा, इनके समवेत 100 है कि इन्होंने इन आचार्यों के सिद्धान्तों का अनुशीलन करने नरबलि देने के प्रयास में था। तारादेवी की स्तुति से, राजा के पश्चात् अपना ग्रन्थ लिखा होगा। इन्होंने कारिका के रूप का प्रयास असफल रहा।
में यह ग्रन्थ लिखा है जिसमें कहीं-कहीं भरतकृत नाट्यशास्त्र सर्वज्ञात्ममुनि - अद्वैत सम्प्रदाय के एक प्रमुख आचार्य। आप के श्लोक मूलतः उद्धृत किये गये हैं। "नित्यबोधाचार्य" भी कहलाते थे। गुरु थे सुरेश्वराचार्य ।
सागरनन्दी, अभिनवगुप्त के मत के प्रतिकूल, वर्तमान संक्षेपशारीरक, पंचप्रक्रिया एवं प्रमाणलक्षण नामक आपने नरपति के चरित्र को नाटक का विषय बनाने के पक्ष में है। तीन ग्रंथ हैं। संक्षेपशारीरक, ब्रह्मसूत्रशांकरभाष्य के आधार पर वे रसों की दृष्टि से नाट्यवृत्तियां के विभाजन के अवसर पर लिखा गया ग्रंथ है। उसमें 1240 श्लोक हैं। चार अध्यायों कोहल का अनुसरण करते है, भरत का नहीं। कहीं-कहीं वे में वह विभाजित है। उसमें प्रतिबिंबवाद का पुरस्कार किया धनंजय से भी मतभेद प्रकट करते हैं। इन्होंने उपरूपक के गया है। संक्षेपशारीरक पर नृसिंहाश्रम की तत्त्वबोधिनी, विभिन्न प्रकारों के उदाहरण-ग्रन्थों के नाम गिनवाए हैं। मधुसूदनसरस्वती की सारसंग्रह, पुरुषोत्तम दीक्षित की सुबोधिनी "नाटकलक्षण-रत्नकोश" मध्ययुग का महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ माना एवं रामतीर्थ की अन्वयार्थ-प्रकाशिका नामक टीकाएं प्रसिद्ध हैं। जाता है। अन्य कृतियां- "जानकी-राघव" (नाटक) तथा सर्वानन्दसूरि - सुद्यर्भागच्छीय जयसिंह नामक विद्वान थे,
छंदशास्त्र, संगीत व निघंटु विषयक ग्रंथ। जिनकी पट्टपरम्परा में क्रमशः चन्द्रप्रभसूरि, धर्मघोषसूरि,
सातवळेकर, श्रीपाद दामोदर (वेदमूर्ति) - जन्म-सावंतवाडी शीलभद्रसूरि, गुणरत्नसूरि और सर्वानन्दसूरि हुए। रचनाएं- (महाराष्ट्र)। चित्रकला में अत्यंत निपुण थे। 40 वर्ष की पार्श्वनाथचरित (सं.1291/8000 श्लोक) और चन्द्रप्रभचरित आयु में चित्रकार का व्यवसाय छोडकर वेदाध्ययन में रममाण (सं. 1302/13 सर्ग, 6141 श्लोक) । मूल कथा और अवान्तर हुए। राष्ट्रीय वृत्ति के कारण तत्कालीन अंग्रेजी सरकार द्वारा कथाएं चमत्कारपूर्ण हैं।
सतत उपद्रव हुआ। अतः भारत में अन्यान्य स्थानों में निवास सर्वारुशर्मा त्रिवेदी - सर विलियम जोन्स की प्रेरणा से ।
करना पड़ा। औन्ध नरेश भवानराव पंत प्रतिनिधि के आश्रय रचना-विवादसारार्णवः।
में वेद प्रचार का कार्य किया। आपने संपादन की हुई चारों सवाई ईश्वरीसिंह - समय-ई. 18 वीं शती। जयपुर के
वेदों की दैवतसंहिता अपूर्व है। वेद और रामायण के मराठी महाराजा थे। रचना-"भक्तमाला" नामक संस्कृत काव्य।
अनुवाद प्रकाशित किए। गोज्ञानकोश में गोविषयक वैदिक मंत्रों
का संकलन किया है। पुरुषार्थ (मराठी) और वैदिक धर्म सव्य आंगिरस - ऋग्वेद के पहले मंडल के 44 से 51
(हिंदी) मासिक पत्रिकाओं द्वारा वैदिक विचारों का प्रचार तक के सात सूक्तों के द्रष्टा । इंद्र के पराक्रम का वर्णन इनमें है।
किया। पुरुषार्थबोधिनी नामक आपकी भगवद्गीता की हिंदी सहस्रबुद्धे - धारवाड (कर्नाटक) निवासी। रचनाएं
टीका अत्यंत लोकप्रिय है। "संस्कृत स्वयंशिक्षिका" नामक
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आपकी बालबोध पुस्तकमाला सर्वत्र लोकप्रिय हुई है। स्वाध्याय मंडल नामक आपने स्थापन की हुई संस्था के द्वारा संस्कृत की प्राथमिक परीक्षाएं होती हैं। आप राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के कार्यकर्ता थे। सामन्त चूडामणि - ई. 12 वीं शती। बंगाल-निवासी। "श्यामलचरित' नामक काव्य के रचयिता।। सामराज दीक्षित - ई. 17 वीं शती। मथुरा-निवासी। बुंदेलखंड के राजा आनंदराय के आश्रित। पिता-नरहरि विन्दुपुरन्दर । पुत्र-कामराज (शृंगार-कलिका के लेखक)। पौत्र-व्रजराज (रसमंजरीटीका के लेखक)। प्रपौत्र-जीवराज (रसतरंगिणी की टीका के प्रणेता)। ___ कृतियां- श्रीदामचरित (नाटक), धूर्तनर्तक (प्रहसन), रतिकल्लोलिनी (कामशास्त्र विषयक ग्रन्थ), शृंगारामृत-लहरी, त्रिपुरसुन्दरी-मानस-पूजन-स्तोत्र,
काव्येन्दु-प्रकाश (काव्यशास्त्र-विषयक), आर्यात्रिशती और अक्षरगुम्फ । सायणाचार्य - ई. 14 वीं सदी। एक कूटनीतिज्ञ, संग्रामशूर, प्रकांड पंडित और वेदभाष्यकार। जन्म आंध्र में हुआ। पिता-मायण एवं माता-श्रीमती। माधवाचार्य आपके बड़े भाई थे। छोटे बाई थे भोगनाथ। आपके विद्यागुरु तीन थे :(1) शृंगेरीपीठ के स्वामी विद्यातीर्थ, (2) भारतीकृष्णतीर्थ
और (3) श्रीकंठनाथ। 31 वर्ष की आयु में आप कंपण के महामंत्री बने। कंपण, उदयगिरि (जिला नेल्लोर, आन्ध्र) में विजयनगर सम्राट हरिहर के प्रतिनिधि थे। कंपण की मृत्यु के बाद उनके पुत्र संगम (द्वितीय) को योग्य मार्गदर्शन कर आपने उनका राज्य सम्हाला । उनके शासन के विषय में कहा है कि
"सत्यं महीं भवति शासति सायणायें।
सम्प्राप्तभोगसुखिनः सकलाश्च लोकाः ।।" । अर्थ- सायणाचार्य राज्य का शासन जब कर रहे थे तब सभी को उपभोग के सुख प्राप्त हुए।
चोल देश के राजा चंप ने जब संगम को छोटा जानकर आक्रमण किया, तो सायण ने सेना का नेतृत्व कर चंप को पराजित किया। "अलंकारसुधानिधि" में इसका उल्लेख है।
संगम के राज्य में 48 वर्ष की आयु तक रहने के बाद आप सम्राट बुक्क के राज्य में आये। वहां भी प्रधानपद आपने सम्हाला।
सायणाचार्य ने कुछ लोकोपयोगी ग्रंथों की रचना भी की। वे हैं- सुभाषितसुधानिधि, आयुर्वेदसुधानिधि, अलंकारसुधानिधि, पुरुषार्थसुधानिधि, प्रायश्चित्तसुधानिधि और धातुवृत्तिषुधानिधि । यंत्रसुधानिधि नामक ग्रंथ भी आपने लिखा है।
सायणाचार्य वेदभाष्यकार के रूप में अजरामर हैं। आपने भाष्यलेखन के लिये पहले कृष्ण यजुर्वेद का चुनाव किया। कृष्ण यजुर्वेद की तैत्तिरीय शाखा के होने से इसे आपने
अग्रपूजा का सम्मान दिया होगा। तैत्तिरीय ब्राह्मण एवं तैत्तिरीय आरण्यक पर भी आपने भाष्य लिखे। यजुर्वेद का भाष्य पूर्ण होने पर आपने ऋग्वेद का क्रम लिया। उन्होंने ऐतरेय ब्राह्मण एवं ऐतरेय आरण्यक पर भी भाष्य लिखे। फिर सामवेद व अथर्ववेद पर भाष्य लिखे। शतपथ ब्राह्मण पर लिखित भाष्य आपकी अंतिम रचना रही। सायणाचार्य ने अपने भाष्य में याज्ञिक-पद्धति को महत्त्व दिया है। सार्वभौम - ई. 16 वीं शती। गुरु-विश्वनाथ चक्रवर्ती । पुत्र-दुर्गादास। कवि कर्णपूर लिखित अलंकार-कौस्तुभ के टीकाकार। सिंधुक्षित् - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 75 वें सूक्त के द्रष्टा। यह सूक्त छोटा है किन्तु सिन्धु नदी के नाम पर जाना जाता है। इस सूक्त की पांचवी ऋचा में गंगा, यमुना, सरस्वती, शुतुद्री (सतलज), परुष्णी (रावी), मरुद्वधा तथा आर्जिकीया नदियों का उल्लेख है। इसी प्रकार छठवीं ऋचा में कुभा (काबुल), सुसूर्त, रसा आदि नदियों का उल्लेख है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है
प्र ते रदद्वरुणो यातवे पथः सिन्धो यद्वाजा अभ्यद्रवस्त्वम् भूम्या अधि प्रवता यासि सानुना यदेषामग्रं जगतामिरज्यसि
अर्थात् पर्वत शिखर से अवतीर्ण होनेवाली जगत्स्वामिनी हे सिन्धु नदी, उर्वरा प्रदेश में तेरा प्रवाह वरुण देवता ने ही तैयार किया है। भौगोलिक दृष्टि से यह सूक्त महत्त्वपूर्ण है। सिद्धसेन दिवाकर - ई. 5 वीं शती-उत्तरार्ध । पिता-कात्यायन गोत्रीय ब्राह्मण । माता-देवश्री। जन्मस्थान-उज्जयिनी। सिद्धसेन ने वृद्ध वादिसूरि से वादविवाद में पराजित होने पर उनसे गुरु-दीक्षा ली। दीक्षानाम था कुमुदचन्द्र।
इस संबंध में एक आख्यायिका इस प्रकार बतायी जाती है कि सिद्धसेन को अपनी विद्वत्ता और पांडित्य पर बडा गर्व था। उन्होंने यह प्रतिज्ञा की कि जो उन्हें वाद-विवाद में परास्त कर देगा उसे वे गुरु मान लेंगे। सिद्धसेन अपने इस प्रतिज्ञा-पूर्ति के लिये दिग्विजय करते गये। उन्हें यह जानकारी मिली कि पश्चिम भारत में एक विख्यात जैन आचार्य रहते हैं। उनकी खोज करने वे निकल पडे। सूरत के निकट जंगल में उनकी भेंट वृद्धवादी से हुई। उन्हें शास्त्रार्थ की चुनौती दी। वृद्धवादी ने कहा कि उन्हें चुनौती मंजूर है, किन्तु जय-पराजय का निर्णय देने वाले किसी तीसरे व्यक्ति की उपस्थिति में ही वे शास्त्रार्थ करेंगे। वहां पास में ही एक ग्वाला अपने पशु चरा रहा था। सिद्धसेन ने उसे अपने पास बुलाया और उसे पहल की और वे लगातार बोलते गये। उस ग्वाले की समझ में कुछ भी नहीं आ रहा था। उसे लगा यह ब्राह्मण अर्ध-पागल-सा है। सिद्धसेन का भाषण समाप्त होने पर वृद्धवादी ने उस ग्वाले के पास की ढोलक अपने हाथों में ली और उसके ताल पर उन्होंने एक गीत गाया जिसका अर्थ था- किसी को
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कष्ट न पहुंचायें, चोरी न करें, परस्त्री से संग न करें, यथाशक्ति सीरदेव - ई. 13 वीं शती का पूर्वार्ध । बंगाली के वैयाकरण। गरीबों को दान दें। जो इस रास्ते पर चलेगा उसका ही अन्त ___"परिभाषावृत्ति" (पाणिनि-कृत पारिभाषिक शब्दावली पर वृत्ति) में उद्धार होगा। उस ग्वाले को यह गीत बहुत अच्छा लगा। के रचयिता। यह ग्रंथ "बृहत्परिभाषावृत्ति" के नाम से भी उसने गीत समाप्त होते ही वृद्धवादी के चरणों में सिर झुका जाना जाता है। इस पर अनेक टीकाएं लिखी गई, किंतु उनमें कर कहा- आपकी बात मुझे आसानी से समझ में आ गई से केवल तीन टीकाएं हस्तलिखित स्वरूप में उपलब्ध हैं। और इन सिद्धसेन महाराज की बात मेरे पल्ले नहीं पडी।
संदरदास - ई. 20 वीं शती। पिता-रामानुज। रचनाएंजय तो आपकी ही हुई।
कोमलाम्बाकुचशतक, हनुमविलास और अष्टप्रास।। सिद्धसेन इस घटना का वास्तविक अर्थ समझ गये। उनका
सुंदरदेव - ई. 17 वीं शती। इन्होंने 20 से अधिक तत्कालीन घमंड चूर हो गया और उन्होंने जैन आचार्य वृद्धवादी को
कवियों के सुभाषित प्रभूत मात्रा में संकलित किये। अकबर, गुरु मान कर उनसे दीक्षा ली।
निजामशाह, शाहजहां जैसे यवन शासकों की स्तुति के श्लोक सिद्धसेन दिवाकर ने कुल 32 ग्रंथों की रचना की है भी संग्रहित करना एक विशेषता है। कहीं-कहीं उर्दू शब्दों जिनमें से 21 ग्रंथ आज भी उपलब्ध हैं। इनमें न्यायावतार, का प्रयोग भी संस्कृत के साथ इन्होंने किया है। ग्रंथनामसन्मतितर्कसूत्र, तत्त्वार्थटीका, कल्याण-मंदिर-स्तोत्र तथा सुनीतिसुंदरम्। द्वात्रिंशिका-स्तोत्र विशेष प्रसिद्ध हैं। इन्हें जैन न्यायशास्त्र का
सुंदर भट्टाचार्य - इन्होंने अपने गुरु देवाचार्य के "सिद्धांत-जाह्नवी" प्रणेता माना जाता है। प्रमाण के स्वरूप का व्यवस्थित विवचेन
नामक ग्रंथ पर "सेतु" नामक विस्तृत व्याख्यान प्रस्तुत किया। और नयवाद के रूप में जैन-तर्कशास्त्र का विस्तृत विवेचन
व्याख्यान की प्रथम तरंग, (चतुःसूत्री तक) प्राप्त तथा मुद्रित । उनके मौलिक कार्य हैं। डा. विद्याभूषण के अनुसार सिद्धसेन शेष भाग अभी तक अनुपलब्ध हैं। देवाचार्य तक निंबार्क-संप्रदाय दिवाकर 5 वीं शताब्दी के अंत में मालवा के राजा यशोधर्म
की एक ही शिष्य-परंपरा रही। पश्चात् दो शाखाएं हुईं। प्रधान देव के आश्रित थे, वहीं उन्होंने अपने सभी ग्रंथों की रचना की।
शाखा में सुंदर भट्टाचार्य तथा दूसरी शाखा में व्रजभूषण नित्यानन्द - सिद्धान्तराज नामक ग्रंथ के रचयिता। रचना देवाचार्य प्रसिद्ध हैं। काल- 1639 ई.। यह ग्रंथ ग्रह-गणित विषयक अत्यंत महत्त्वपूर्ण सुंदरराज (सुंदरराजाचार्य) - केरल-निवासी। कुल वैखानस । कृति है। इसमें वर्णित विषयों के शीर्षक इस प्रकार हैं- रामानुज सम्प्रदायी। जन्म-सन 1841 में, इलत्तुर अग्रहार में। मीमांसाध्याय, मध्यमाधिकार, स्पष्टाधिकार, भू-ग्रहयूत्यधिकार,
मृत्यु सन् 1905 में। पिता-वरदराज। गुरु-रामस्वामी शास्त्री तथा उन्नतांश-साधना-धिकार, भुवनकोश, गोलबंधाधिकार और स्वामी दीक्षित। एट्टियपुरम् तथा त्रावणकोर के राजाओं द्वारा यात्राधिकार।
सम्मनित। सिद्धेश्वर चट्टोपाध्याय - जन्म-सन् 1918 में, पूर्व बंगाल कृतियां- रामभद्रचम्पू, रामभद्रस्तुतिशतक, कृष्णार्याशतक, में। शिक्षा-दीक्षा कलकत्ते में। एम्.ए., डी.लिट. तथा काव्यतीर्थ ।
नीति-रामायण काव्य तथा पांच नाटक-स्नुषा-विजय, हनुमद्विजय, संस्कृत साहित्य परिषद के सचिव। वर्धमान वि.वि. में संस्कृत
रसिकरंजन, वैदर्भी-वासुदेव तथा पद्मिनी-परिणय । के प्रध्यापक।
सुंदरवल्ली - ई. 19 वीं शती। मैसूर निवासी नरसिंह अय्यंगार कृतियां :- धरित्रीपति-निर्वाचनम्, अथ किम्, ननाविताडन की कन्या तथा कस्तूरी रंगाचार्य की शिष्या। रचना-रामायणचम्पू: और स्वर्गीय प्रहसनम्। इनके अतिरिक्त कुछ अंग्रेजी, बंगला
(6 सर्गों का काव्य)। तथा संस्कृत में कई अनुसंधानात्मक कृतियां भी इनके नाम हैं। सुन्दरवीरराघव - तिरुवल्लूर के कस्तूरी रंगनाथ का पुत्र । सिस्टर बालम्बाल - मद्रास निवासी। इन्होंने सरल-सुगम रचनाएं- (1) भोजराजाङ्कम, (2) अभिनवराघवम् (3) शैली में बालों के लिये "आर्यारामायणम्" की रचना की है।
रम्भारावणीयम्। सीताराम आचार्य - ई. 20 वीं शती। "भैमीनैषधीय" नामक सुंदरेश शर्मा - ई. 20 वीं शती। तंजौर-निवासी। रामभक्त । रूपक के रचयिता।
तंजौर में संस्कृत एकेडेमी के प्रवर्तक। कृतियां- त्यागराज-चरित सीताराम शास्त्री - काकरपारती (आंध्र) के निवासी। रचनाएं- (महाकाव्य), रामामृत-तरंगिणी (स्तोत्र-संग्रह), शृंगार-शेखर (1) चम्पूरामायणम् (2) सीतारामदयालहरी (खण्ड काव्य) । (भाण) राघव-गुणरत्नाकर और प्रेमविजय (नाटक)। सीताराम सूरि - समय-ई. 1836-1905 । "कविमनोरंजक-चंपू" सुकीर्ति काक्षीवत् - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 131 वें नामक काव्य के रचयिता । जन्म-तिरुनेलवेलि जिले के तिरुकुरुडिग सूक्त के द्रष्टा । इन्द्र व अश्विनीकुमार इस सूक्त की देवता है। नामक ग्राम में। ग्रंथ का रचना काल- 1870 ई.। इसका सुखमय गंगोपाध्याय - ई. 20 वीं शती। बंगाल-निवासी। प्रकाशन 1950 ई. में हुआ।
एम.ए.,बी.एड्. काव्यतीर्थ, व्याकरणतीर्थ व स्मृतितीर्थ । “पातिव्रत्य"
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तथा "विद्यामन्दिर" नामक रूपकों के प्रणेता। सुतंभर आत्रेय - अत्रिकुल में जन्म। ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 11 से 14 वें क्रमांकों के सूक्तों के द्रष्टा। इनके सूक्तों का विषय है-अग्निस्तुति। सुदर्शनपति - ई. 20 वीं शती। “सिंहल-विजय", "पादुकाविजय" तथा "सत्यचरितम्" नामक ऐतिहासिक नाटकों के प्रणेता। ये नाटक उत्कल की ऐतिहासिक घटनाओं पर आधारित हैं। आप जगन्नाथपुरी संस्कृत विद्यालय में अध्यापक थे। सुदर्शनसूरि - ई. 14 वीं शताब्दी का मध्यकाल। तामिलनाडु में जन्म। अपरनाम वेदव्यास । गुरु-वरदाचार्य। हारीत-कुल में उत्पन्न “वाग्-विजय" के पुत्र। द्रविड ब्राह्मण। रामानुजाचार्य के भागिनेय व शिष्य।
श्रीरामानुजाचार्य ने अपने दर्शन-ग्रंथों में भागवत के सिद्धान्तों का यथावसर उल्लेख किया है, परन्तु संप्रदायानुसारिणी टीका लिखने का प्रयास किया सुदर्शन सूरि ने। ये रामानुजाचार्य के दार्शनिक ग्रंथों के प्रौढ व्याख्याकार हैं। आपने, गुरु वरदाचार्य से श्रीभाष्य का अध्ययन कर, नितांत लोकप्रिय "श्रुति-प्रकाशिका'' टीका श्रीभाष्य पर निबद्ध की। इनकी भागवत-व्याख्या का नाम है- "शुकपक्षीय"। इनके मतानुसार यह टीका शुकदेवजी के विशिष्ट मत का प्रतिपादन करती है। अष्टटीकासंवलित भागवत के संस्करण में यह केवल दशम, एकादश एवं द्वादश स्कंधों पर ही उपलब्ध है।
कहा जाता है कि जब दिल्ली के बादशाह अलाउद्दीन खिलजी के सेनापति मलिक काफूर ने श्रीरङ्गम् पर 1367 ई. में आक्रमण किया था, तब उस युद्ध में ये मारे गये थे। फलतः इनका समय ई. 14 वीं शताब्दी का मध्यकाल (लगभग 1320 ई. 1367 ई.) है। सुधाकर शुक्ल - जन्मस्थान-क्योंटरा, जिला-इटावा, उत्तरप्रदेश। गुरु-पं. वनमालीलाल दीक्षित और पं. ललितप्रसाद । काव्यतीर्थ, साहित्याचार्य और एम.ए. की उपाधियां प्राप्त होने के पश्चात् दतिया (म.प्र.) में निवास किया। आपने गांधीसौगन्धिक (20 सर्ग) और भारतीस्वयंवर (12 सर्ग) नामक दो संस्कृत के महाकाव्यों के अतिरिक्त चन्द्रबाला नामक (20 सर्गों का) एक हिंदी महाकाव्य, देवदूतम् तथा केलिकलश नामक दो संस्कृत खंडकाव्य तथा किरनदूत और कसक नामक दो हिंदी खंडकाव्य लिखे हैं। "लवंगलता" नामक 10 अंकों का एक नाटक भी आपने लिखा है। आपके "गान्धीसौगन्धिकम्" महाकाव्य को अ.भा. संस्कृत साहित्य सम्मेलन द्वारा और कसक नामक हिंदी खंड काव्य को विन्ध्यप्रदेश शासन द्वारा पुरस्कृत किया गया है। सुधाकलश - राजशेखर के शिष्य। जैन पंडित। रचनासंगीतोपनिषद् (ई. 1323) और उसकी टीका (ई. 1349)। सुनाग - कात्यायन से उत्तरकालीन वैयाकरण। वार्तिकों के प्रवचनकर्ता। इन्होंने पाणिनीय धातुपाठ पर भी कोई व्याख्या
लिखी थी। सायणभाष्य में सौनाग-मत का निर्देश अनेक स्थानों पर किया गया है। सुपर्ण ताह्मपुत्र - एक सूक्त द्रष्टा। ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 144 वें सूक्त की रचना आपने की है। इन्द्र इस सूक्त की देवता है। सुबन्धु - रचना-वासवदत्ता (गद्यकथा)। बाणभट्ट ने हर्षचरित के प्रारम्भ में कुछ ग्रंथ तथा उनके लेखकों का उल्लेख किया है, उनमें वासवदत्ता का समावेश है। वासवदत्ता में विक्रमादित्य की मृत्यु से काव्य सौन्दर्य-क्षति होने की बात लेखक ने कही है। भामह ने वासवदत्ता की कथावस्तु लोकशास्त्र-विरुद्ध होने की टीका की है। वासवदत्ता की कथा पूर्वकाल से रसिकों में प्रिय होने का संदर्भ पातंजल-महाभाष्य में भी मिलता है। वासवदत्ता पढने वाले, वहां 'वासवदत्तिक' बताए गए हैं पर सुबन्धु उसका लेखक होना असम्भव सा प्रतीत होता है। सुबन्धु (वासवदत्ता) का उल्लेख वामन के काव्यालंकार में मिलता है तथा बाण और भवभूति के शब्द-प्रयोगों का अनुकरण वासवदत्ता में पाया जाता है यह बात विवाद्य नहीं। इससे सुबन्धु, बाण भवभूति और भामह के बाद तथा वामन के पूर्व हुए होंगे यह अनुमान तर्कसंगत है। तदनुसार सुबंधु का समय ई. 8 वीं शती का उत्तरार्ध होना संभव है। सुब्बराम - ई. 20 वीं शती। "मेघोदय" नामक नाटक के रचयिता। ए.व्ही. सुब्रह्मण्य अय्यर - प्राचार्य आर.डी. संस्कृत महाविद्यालय मदुरै। रचना-पद्यपुष्पांजलिः (कुछ चुनी अंग्रेजी कविताओं का अनुवाद)। सुब्रह्मण्य शर्मा - ई. 20 वीं शती। "समीहित-समीक्षण" नामक प्रहसन के प्रणेता। सुब्रह्मण्य सूरि (प्रा.) - पिता-चौक्कनाथ अध्वरी। पुदुकोट्टा के राज कालेज में संस्कृत के प्राध्यापक (सन् 1894 से 1910 तक)। जन्म-ई. 18501 स्थान-कडायकडि। विविध शास्त्रों तथा कलाओं की निपुणता के कारण दक्षिण भारत में प्रसिद्ध व्यक्ति । रचनाएं- रामावतार, विश्वामित्रायाग, सीताकल्याण, रुक्मिणीकल्याण, विभूतिमाहात्म्य, हल्लीशमंजरी, दोलागीतानि, वल्लीबाहुलेय (नाटक), शन्तनुचरित, मन्मथमथन (भाण), 'बुद्धिसन्देश, हरतीर्थेश्वरस्तुति, शुकसूक्तिसुधारसायनम् आदि 18 ग्रंथ। इन्हें सामवेद कंठस्थ था, और ये साम-गायन तथा वक्तृत्व एवं चित्रकला में निपुण थे। सुभूतिचन्द्र - ई.स. 1062 से 1172 के मध्य । बंगालनिवासी। संभवतः मगध के आनन्दगर्भ के उत्तराधिकारी । कृतियां-कामधेनु (अमरकोश की टीका) और नामलिंगानुशासन। सुमति - सन्मतिसूत्र के टीकाकार। तत्त्वसंग्रह में प्रत्यक्ष-लक्षण-समीक्षा के संदर्भ में शान्तरक्षित तथा उनके
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शिष्य कमलशील द्वारा उल्लिखित। समय-लगभग ई. 8 वीं शताब्दी। प्रमाण और नय के विशिष्ट विद्वान्। सुमतिकीर्ति - इनके गुरु-ज्ञानभूषण ने कर्मकाण्ड की टीका सुमतिकीर्ति की सहायता से प्रस्तुत की। रचनाएं- कर्मकाण्डटीका और पंचसंग्रहटीका। इनके अतिरिक्त इनकी कुछ हिन्दी रचनाएं भी उपलब्ध हैं। सुमतीन्द्र - रचना-सूमतीन्द्र-जयघोषणा। सुरीन्द्रतीर्थ और वेंकटनारायण के शिष्य। माध्वसम्प्रदायी। इन्होंने शाहजी-स्तवन के लिये यह रचना की थी। राजा ने तिरुवाडमरुदूर नामक ग्राम में इन्हें "ठ प्रदान किया। सुमित्र कौत्स - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 105 वें सूक्त के द्रष्टा। इन्द्र की स्तुति में रचे गए इस सूक्त में इन्द्र की यज्ञप्रियता, भक्तों पर वह कैसे कृपादृष्टि रखता है तथा द्वेष करने वालों के लिये वह किस प्रकार घातक है आदि का विवरण दिया गया है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है :
अप योरिन्द्रः पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान्।
शुभे यधुयुजे तविषीवान्।। अर्थात् - पातक के कारण जो वासनाएं उत्पन्न होती हैं, इन्द्र उनका नाश करता है। मर्त्य (मानव) का स्वभाव कुछ ऐसा है कि वह परिश्रम नहीं करना चाहता साथ ही वह डरपोक भी है परन्तु यदि मनुष्य शुभकार्य की ओर प्रवृत्त होगा तो वह बडा धैर्यवान् बनेगा। सुरेन्द्रमोहन पंचतीर्थ - ई. 20 वीं शती। कलकत्ता-निवासी। कृतियां- वैद्यदुर्घह, कांचनमाला, पंचकन्या, प्रजापतेः पाठशाला, अशोककानने जानकी, वणिक्सुता आदि कई बालोचित लघु नाटक। सुरेश्वर - ई. 11 वीं शती। अपर नाम सुरपाल। बंगालनरेश रामपाल के अंतरंग वैद्य। पिता-भद्रेश्वर। "शब्दप्रदीप" नामक आयुर्वेदिक वनस्पतिकोश के कर्ता। अन्य- कृतियां - वृक्षायुर्वेद और लोहपद्धति । सुरेश्वराचार्य - ई. 8 वीं शती। श्रीशंकराचार्य के प्रमुख चार शिष्यों में से एक। पूर्वाश्रम में इनका नाम विश्वरूप था। यह माना जाता था कि सुरेश्वराचार्य मंडनमिश्र का चतुर्थाश्रमी नाम है। मंडनमिश्र कर्मकांडी मीमांसक थे जिन पर वादविवाद में शंकराचार्य ने विजय पायी है और उन्हें संन्यास-दीक्षा देकर उनका नाम सुरेश्वराचार्य रखा। इस प्रकार की जानकारी "शांकर-दिग्विजय" में दी गयी है। किन्तु हाल में किये गये संशोधन से यह तथ्य सामने आया है कि मंडन-मिश्र और सुरेश्वराचार्य, पृथक् तथा भिन्नकाल थे। शंकराचार्य के आदेशों पर सुरेश्वराचार्य ने तैत्तिरीययोपनिषद्-भाष्य, बृहदारण्यक-भाष्य, दक्षिणामूर्तिस्तोत्र, पंचीकरण आदि ग्रंथों पर वार्तिकों की रचना की। इनके अलावा नैष्कर्म्य-सिद्धि नामक एक स्वतंत्र ग्रंथ भी आपने लिखा। इसमें उन्होंने अविद्या के लक्षणों पर प्रकाश
डाला है। सुवेदा शैरिषी - शिरिष के पुत्र ऋग्वेद के 10 वें मण्डल के 147 वें सूक्त के द्रष्टा । इस सूक्त का विषय है इन्द्रस्तुति । सुश्रुत - एक आयुर्वेदाचार्य तथा शल्यतंत्र-वेत्ता। इनके निश्चित काल की जानकारी उपलब्ध नहीं है, तथापि ये वाग्भट के पूर्व तथा अग्निवेश के समकालीन रहे होंगे। पाणिनि ने अपनी अष्टाध्यायी में "सौश्रुतपार्थवाः" नामक पाठ लिखा है। इससे यह अनुमान लगाया जाता है कि सुश्रुत पाणिनि के पूर्वकाल में रहे होंगे। "सुश्रुतसंहिता" से पता चलता है कि ये विश्वामित्र के पुत्र थे, किन्तु एक अन्य मतानुसार सुश्रुत को शालिहोत्र का पुत्र माना गया है। इस सन्दर्भ में लक्षण-प्रकाश में कहा है कि शालिहोत्र नामक ऋषिश्रेष्ठ से सुश्रुत प्रश्न करता है और इस प्रकार पुत्र द्वारा प्रश्न किये जाने पर शालिहोत्र कहता है।
सुश्रुत ने शस्त्र-शास्त्र की विद्या दिवोदास से प्राप्त की और "सुश्रुतसंहिता" नामक ग्रन्थ लिखा। इसके पांच विभाग हैंसूत्रस्थान, निदानस्थान, शरीरस्थान, चिकित्सास्थान और कल्पस्थान । शस्त्रोपचार तथा व्रणोपचार विषयक विस्तृत जानकारी इसमें दी गई है। वैद्यकी-क्षेत्र में त्वचारोपण-तंत्र के भी सुश्रुत अच्छे जानकर थे। सुश्रुत-संहिता में आगे चलकर "उत्तरस्थान" नामक एक और विभाग जोडा गया है। इसे मिलाकर इस ग्रंथ को "वृद्धसुश्रुत" कहा जाने लगा। सहस्त्य घौषेय - घोषा के पुत्र । ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 41 वें सूक्त के द्रष्टा। इस सूक्त की देवता अश्विनी है। सुहोत्र - भारद्वाज के पुत्र। ऋग्वेद के 6-31-32 वें सूक्तों के द्रष्टा। इन्द्र इन सूक्तों की देवता है। सूर्य दैवज्ञ . ई. 15 वीं शती। सामभाष्यकार। इनके ग्रंथ अनुपलब्ध हैं। ग्रंथकार ने "परमार्थप्रपा' नामक अपने गीताभाष्य में कई बार सामसंबंधी अनेक मंत्र और ग्रंथ उद्धृत किये हैं। उनका रावण-भाष्य पर बडा विश्वास था। ग्रंथकार ने भक्तिशतक और शतश्लोक-भाष्य नामक दो ग्रंथ रचे थे। सूर्यनारायण - अलूरिकुलोत्पन्न । माता-ज्ञानम्बा व पिता-यज्ञेश्वर । इन्होंने “एकदिन-प्रबन्धः" नामक काव्य की रचना एक ही दिन में की थी। यह इसकी विशेषता है। काव्य का वर्ण्य विषय है महाभारत की कथा। सूर्यनारायणाध्वरी - ई. 19-20 वीं शती। "सीता-परिणय" नामक काव्य के रचयिता।। सोंठीभद्रादि रामशास्त्री . ई. 1856 से 1915। पीठापुरम् (आंध्र) के निवासी । रचना-शम्बरासुरविजय-चम्पू, श्रीरामविजयम् काव्य और मुक्तावली नाटिका। सोल - समय-ई. 13 वीं शताब्दी का मध्य। आयुर्वेद विषयक "गदनिग्रह" व "गुणसंग्रह" नामक दो ग्रंथों के प्रणेता। ये गुजरात के निवासी तथा जोशी थे। गद-निग्रह
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड । 487
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SHAH
आयुर्वेद शास्त्र का ग्रंथ है, और गुण-संग्रह चिकित्सा-ग्रंथ है। सोठ्ठल ने अपने "गुण-संग्रह" में स्वयं को वैद्यनंदन का पुत्र व सर्वदयालु का शिष्य बतलाया है। "गद-निग्रह" का हिंदी अनुवाद सहित (दो भागों में) प्रकाशन, चौखंबा विद्या-भवन से हो चुका है। सोल - ई. 11 वीं शती का पूर्वार्ध। वलभी (गुजरात) के कायस्थ-वंश में जन्मे सोठ्ठल का पालनपोषण, पिता की मृत्यु के बाद लाटाधिपति गंगाधर नामक चालुक्य राजपुत्र के आश्रय में हुआ। बीच के कालखंड में सोठ्ठल शिलाहार-वंश के चित्त राजा के आश्रय में रहे, जहां उन्हें "कविप्रदीप" की उपाधि से विभूषित किया गया। आगे चलकर लाटनृपति वत्सराज के निमंत्रण पर वे पुनः उनके आश्रय लौट आये तथा उनकी प्रेरणा से बाण के उपन्यास का आदर्श सामने रखकर उदयसुंदरी नामक गद्य-पद्यात्मक ग्रंथ की रचना की। संस्कृतकाव्य के इतिहास में इनके ग्रंथ को विशेष महत्त्वपूर्ण स्थान इस लिए प्राप्त है कि इसमें उन्होंने वैदर्भी, गौडी व पांचाली इन तीनों रीतियों का उपयोग किया है। सौभरी - ऋग्वेद के 8 वें मंडल के 19, 22 व 103 वें सूक्तों के द्रष्टा। इनके सूक्तों में इनके पिता तथा परिवार का अनेक बार उल्लेख आया है। सूक्तों की देवता है अग्नि, अश्विनौ और अग्नि -मरुत।। सोमकीर्ति - काष्ठासंघ के नन्दीतट गच्छ के रामसेनान्वयी भट्टारक लक्ष्मीसेन के प्रशिष्य और भीमसेन के शिष्य । समय-ई. 16 वीं शती। रचनाएं- सप्तव्यसन-कथा-समुच्चय (2067 श्लोक), प्रद्युम्नचरित (4850 श्लोक) तथा यशोधर-चरित्र (1018 श्लोक)। सोमदेव - (1) ई. 11 वीं शती। काश्मीर के राजा अनंत की सभा में राजकवि। पिता-राम। सोमदेव ने गुणाढ्य की बृहत्कथा के आधार पर "कथासरित्सागर" नामक ग्रंथ की रचना की।
सुनीलचन्द्र राय के मतानुसार इन्होंने यह ग्रंथ काश्मीर के राजा कलश की माता सूर्यमति के मनोरंजन हेतु लिखा। इन्होंने "क्रियानीतिवाक्यामृत" नामक एक ओर ग्रंथ भी लिखा है।
(2) शाकंभरी के राजा वीसलदेव विग्रहराज की सभा में सोमदेव नामक कवि हो गये जिन्होंने ई. 12 वीं शती के पूर्वार्ध में राजा की प्रशस्ति में "ललितविग्रहराज" नामक नाटक लिखा।
(3) व्याकरण शास्त्र के विद्वान। शिलाहारवंश के राजा भोजदेव (द्वितीय) के समकालीन। समय-ई. 13 वीं शती। ग्रंथ-शब्दचन्द्रिकावृत्ति, जिसे शब्दार्णव (गुणनन्दीकृत) में प्रविष्ट करने की दृष्टि से लिखा गया। कोल्हापुर मंडलान्तर्वर्ती अर्जुरिका नामक ग्राम के त्रिभुवनतिलक जैन मंदिर में इस ग्रंथ का प्रणयन हुआ।
सोमदेवसूरि - नेमिदेव के शिष्य, यशोदेव के प्रशिष्य, महेन्द्रदेव के अनुज । देवसंघ के आचार्य। अरिकेसरी नामक चालुक्य राजा के पुत्र वद्दिग सोमदेव के संरक्षक। कान्यकुब्ज नरेश महेन्द्रदेव से संबद्ध। रचनाएं और रचनाकाल- तीन रचनाएं उपलब्ध हैं- नीतिवाक्यामृत, यशस्तिलकचम्पू (ई. 10 शती)
और अध्यात्मतरंगिणी। नीतिवाक्यामृत राजनीति का ग्रंथ है। इस पर कवि नेमिनाथ की कन्नड-टीका (ई. 13 वीं शती) उपलब्ध है। यशस्तिलक-चम्पू आठ आश्वासों में विभक्ता है। इसकी गद्यशैली बाण की कादम्बरी के तुल्य है। इसकी कथावस्तु यशोधर का चरित है। इसके पूर्वार्ध पर ब्रह्म श्रुतसार की संस्कृत टीका है। अध्यात्मरंगणी में चालीस श्लोक हैं। इस पर गणधरकीर्ति की संस्कृत टीका (ई. 12 वीं शती) उपलब्ध है। इसमें ध्यानविधि का वर्णन है।
सोमदेव कवि और दार्शनिक विद्वान हैं। औरंगाबाद के समीप परभणी नामक स्थान से प्राप्त एक ताम्रपत्र में चालुक्य सामंत अरिकेसरी (ई. 10 वीं शती) द्वारा निर्मित शुभ धाम नामक जिनालय के जीर्णोद्धारणार्थ सोमदेव को एक गांव देने का उल्लेख है। यह जिनालय लेंबुल पाटण नाम की राजधानी में वद्दिग सोमदेव ने बनवाया था। सोमनाथ - आन्ध्र प्रदेश में गोदावरी जिले के निवासी। रचना- रागविबोध (ई.स. 1609) नामक संगीतविषयक ग्रंथ । सोमनाथ - 12 वीं शती। पिता- गुरुसिंग। वीरशैव सम्प्रदाय । रचनाएं- पाण्डिताराध्यचरितम् (2) बसवपुराणम् (3) बसवगद्यम्। सोमशेखर - ई. 18 वीं शती। आंध्र निवासी। इन्होंने 'राम कृष्णार्जुनरूपं नारायणीयम्' नामक श्लिष्ट काव्य की रचना की। इसकी विशेषता यह है कि यह तीन-अर्थो वाला है अर्थात् इसका प्रत्येक श्लोक राम, कृष्ण व अर्जुन इन तीनों के लिये लागू पडता है। सोमशेखर - गोदावरी जिलान्तर्गत पेरूर ग्रामवासी। अपरनाम राजशेखर । रचना- भागवतचम्पू। अतिरिक्त रचना-साहित्यकल्पद्रुम (साहित्यशास्त्र विषयक ग्रंथ)। माधवराव पेशवा ने अपनी राज्यसभा में इनका बडा सत्कार किया था। सोमसेन - ई. 17 वीं शती। जैनधर्मीय सेनगण और पुष्करगच्छ के प्रतिष्ठाचार्य गुणभद्र (गुणसेन) के शिष्य। ग्रंथ-रामपुराण (33 अधिकार), शब्दरत्नप्रदीप (संस्कृत कोश) और धर्मरसिकत्रिवर्णाचार। सोमानंद - ई. 9 वीं शती का उत्तरार्ध । इनका "शिवदृष्टि" नामक ग्रंथ, काश्मीर में प्रत्यभिज्ञा-दर्शन का आधारभूत ग्रंथ माना जाता है। इस ग्रंथ के सात अध्यायों में कुल सात सौ श्लोक हैं। अपने इसी ग्रंथ पर इन्होंने 'विवृत्ति' नामक टीका लिखी है। सोमानन्द पुत्र - कठ-मन्त्रपाठ के भाष्यकर्ता। निवास-स्थान विजयेश्वर। इनका भाष्य ग्रंथ खण्डरूप में उपलब्ध है।
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सोमेश्वर - ई. 12 वीं शती। विक्रमादित्य के बाद 1126 ई. में कल्याणी के राजपद की प्राप्ति। चतुरस्रविद्वत्ता के कारण 'सर्वज्ञभूप' की उपाधि प्राप्त। मानसोल्लास अथवा अभिलषितार्थ-चिंतामणि नामक कोशग्रंथ के लेखक। सोमेश्वर दत्त - ई. 13 वीं शती। गुजरात के निवासी। इन्होंने 'कीर्तिकौमुदी' और 'सुरथोत्सव' नामक दो महाकाव्यों की रचना की है। 'कीर्तिकौमुदी' में गुजरात के राजा वीरधवल के अमात्य वस्तुपाल की प्रशस्ति है, और सुरथोत्सव में दुर्गासप्तशती के राजा सुरथ का चरित्र- वर्णन है। सोमेश्वर भट्ट राणक - ई. 12 शती। पिता माधव भट्ट। इन्होंने तंत्रवार्तिक. ग्रंथ पर न्यायसुधा, सर्वोपकारिणी, सर्वनिबंधकारिणी अथवा राणक नामक विस्तृत भाष्य लिखा है। इन्हें 'मीमांसक राणक' के नाम से जाना जाता है। इनका दूसरा ग्रंथ है तंत्रसार जो अब तक अप्रकाशित है। सोवनी, वेंकटेश वामन - ई.स. 1882 से 1925 तक। शिवाजी महाराज के चरित्र पर काव्यमय 'शिवावतार-प्रबंध' के कर्ता। मेरठ तथा प्रयाग में संस्कृताध्यापक। अन्य रचनाएं (1) इन्द्रद्युम्राभ्युदय (आध्यात्मिक काव्य) (2) दिव्यप्रबंध, (3) ईशलहरी और (4) रामचन्द्रोदय (4 सर्ग)। सौचीक - ऋग्वेद के 10 वें मंडल के 79 वें तथा 80 वें सूक्त के द्रष्टा। इन सूक्तों की देवता वैश्वानर अग्नि है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है -
गुहा शिरो निहितमृधगक्षी असिन्वन्नत्ति जिह्वया वनानि ।
अत्राण्यस्मै पड्भिः सरूं भरन्त्युत्तानहस्ता नमसाधि विक्षु ।। अर्थात्- वैश्वानर का मस्तक भले ही गुफा में गुप्त स्थान पर हो, फिर भी नेत्र भिन्नभिन्न दिशाओं की ओर देखते रहते हैं। वह अपनी जीभ से वन-के-वन निगल जाता है। इसीलिये ऋत्विज अपने हाथ पसारकर और नम्र बनकर इस मानव-लोक के खाद्य-पदार्थ उसके सामने सत्वर रख देते हैं। सौती - 'महाभारत' के रचयिता। ये लोमहर्षण के पुत्र थे तथा इनका पूर्व नाम उग्रश्रवा था। इन्होंने 'भारत' की श्लोक संख्या तीस हजार से बढाकर 1 लाख तक पहुंचा दी, और उसे महाभारत बना दिया। इस सन्दर्भ में एक आख्यायिका यह बतलायी जाती है कि नैमिष्यारण्य में एकत्रित शौनक आदि ऋषियों ने एक प्रदीर्घ सत्र में इन्हें आमंत्रित कर भारत-कथा सुनाने का निवेदन किया। उन्होंने अपने अनेक आख्यानों और उपाख्यानों द्वारा मूल भारत-कथा को बृहत् स्वरूप प्रदान किया। स्कन्द - ई. 7 वीं शती। स्कंदमहेश्वर तथा स्कंदस्वामी के नामों से प्रसिद्ध । सब से प्राचीन ऋगभाष्यकार। पिता- भर्वध्रुव। सायण, देवराज और आत्मानन्द, आचार्य स्कन्दस्वामी को अपने-अपने भाष्य में उद्धृत करते हैं। स्कन्दस्वामी, नारायण
और उद्गीथ इन तीन आचार्यों ने मिलकर ऋग्भाष्य की रचना की थी। स्कन्द-भाष्य पहले भाग पर, नारायण-भाष्य मध्य भाग पर और उद्गीथ-भाष्य अन्तिम भाग पर है। स्कन्दस्वामी के गुरु हरिस्वामी थे। उन्होंने शतपथ-भाष्य की रचना की थी। स्कन्दस्वामी का ऋग्भाष्य याज्ञिक-मतानुसारी है। इसके प्रत्येक सूक्त के भाष्य के प्रारंभ में प्राचीन अनुक्रमणियों के ऋषि और देवता के बोध कराने वाले श्लोकार्ध वा श्लोकों के चरण पाये जाते हैं। शायद यह अनुक्रमणियां शौनक-प्रणीत होंगी। स्कन्द, वेदार्थ के बोध में छन्दोज्ञान को उपयुक्त मानते हैं। इस भाष्य की यह विशेषता माननी चाहिये। निघण्टु, निरुक्त, बृहद्देवता शौनकोक्त वचनों और ब्राह्मण-ग्रंथों के प्रमाणों से यह भाष्य सुभूषित है।
सायण का ऋग्वेदभाष्य बहुत स्थलों में इस भाष्य की छायामात्र है। प्रस्तुत भाष्यग्रंथ, अभी तक खण्ड रूप में उपलब्ध हुआ है। निरुक्त-टीकाकार महेश्वर, स्कन्द-स्वामी से संबंधित होंगे। इसी कारण 'स्कन्द-महेश्वर' नाम से उनका परिचय दिया जाता है।
स्कंदस्वामी का ऋग्भाष्य अत्यंत विशद है, तथा वैदिक साहित्य में उसका महत्त्वपूर्ण स्थान है किन्तु यह भाष्य अधूरा अर्थात् चौथे अष्टक तक ही उपलब्ध हो सका है। भाष्य के अन्त में स्कंदस्वामी ने आत्मपरिचय दिया है। उसके अनुसार ये गुजरात की राजधानी वलभी के निवासी एवं हर्ष तथा बाणभट्ट के समकालीन थे। इन्होंने यास्क के निरुक्त पर भी टीका लिखी है। स्कन्दमहेश्वर कृत निरुक्त-टीका में, अनेक प्राचीन व्याख्याकार 'अन्ये', 'अपरे', 'एके', 'केचित्' इत्यादि रूप से उल्लिखित हैं। वैयाकरण आपिशलि, स्मृतिकार मनु, एक अप्रसिद्ध पदकार, निघण्टुकार शाकपूणि, देवताकार, चूर्णिकार, गीता, अनुक्रमणी, बृहदेवता, वाक्यपदीयकार, भर्तृहरि के कुछ वचन आदि कई ग्रंथों और ग्रंथकारों का उल्लेख यहां मिलता हैं। इससे स्पष्ट है कि स्कन्द महेश्वर की टीका में कितनी प्राचीन सामग्री भरी हुई है।
आचार्य स्कन्दमहेश्वर ने अपनी निरुक्त-टीका में ऋग्भाष्य से बहुत सहायता ली है। फिर भी उद्गीय-भाष्य का मत स्कन्दमहेश्वर को कुछ स्थलों पर अनभिमत-सा लगता है। यह देखने योग्य है कि उद्गीथ आचार्य स्कन्दस्वामी के सहकारी होने के कारण और स्कन्दस्वामी के पूजनीय होने के कारण, उद्गीथ-मत के विषय में अपनी अस्वीकृति का प्रतिपादन करते समय, स्कन्दमहेश्वर बडी सावधानी से शब्दयोजना करते हैं। पूर्वग्रंथों के गवेषणाकारों के लिये स्कन्दमहेश्वर की टीका एक महत्त्वपूर्ण क्षेत्र है। स्थविर बुद्धपालित - ई. 5 वीं शती। बौद्ध महायान-पंथ के आचार्य। इन्होंने नागार्जुन के 'माध्यमिककारिका' ग्रंथ पर टीका लिखी है किन्तु यह अनुपलब्ध है। उसका तिब्बती
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 489
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अनुवाद प्राप्य है।
I
स्थौलाष्ठीवि चौदह नितकारों में एकदम वास्कप्रणीत निरुक्त में स्थौलाष्टीवि का दो बार उल्लेख आता है। स्फुलिंग - ई. 16 वीं शती । पिता लक्ष्मण । प्रसिद्ध कवि कुमारडिण्डिम के जामात । मल्लिकार्जुन नाम से भी विख्यात । 'सत्यभामापरिणय' नामक पांच अंकों के नाटक के प्रणेता । स्वस्ति आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मण्डल के 50 तथा 51इन दो सूक्तों के द्रष्टा । ये सूक्त विश्वेदेव की स्तुति में लिखे गये हैं। 51 वें सूक्त में स्वस्ति का अनेक बार तथा इसी सूक्त की 8, 9 व 10 वीं ऋचा में अत्रि का उल्लेख आया है। इस आधार पर इनका नाम स्वस्ति आत्रेय रहा होगा, ऐसा अनुमान है। इनकी एक ऋचा इस प्रकार है। स्वस्ति पन्थामनुचरेम सूर्याचन्द्रमसाविव पुनर्ददता नता जानता संगमेमहि । अर्थ - विश्वदेव की कृपा से मेरा प्रवास सूर्य चंद्र की तरह सुखदायी बने। हमें सदा ज्ञानवान, दानवीर और दयालु व्यक्ति मिलते रहें।
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स्वामी नारायण (सहजानंद स्वामी) वैष्णव धर्म के अंतर्गत 'श्री स्वामी नारायण पंथ के प्रवर्तक अयोध्या के पास छपिया नामक ग्राम के सरयूपारीण ब्राह्मण कुल में, वि.सं. 1837 (1781 ई.) की चैत्र शुक्ल नवमी को जन्म । पिताधर्मदेव, माता- भक्तिदेवी। सं. 1849 में अर्थात् 12 वर्ष की आयु होते ही माता-पिता का देहांत । तभी गृह त्याग कर निरंतर 7 वर्षो तक भारत के तीर्थ क्षेत्रों का भ्रमण बाल्यकाल का नाम घनश्याम था किंतु तीर्थ यात्रा में 'नीलकंठ वर्णी' नाम धारण कर, सं. 1856 (= 1800 ई.) में आप लोजपुर पहुंचे, जहां श्री रामानुज स्वामी द्वारा दीक्षित श्री रामानंद स्वामी का आश्रम था। स्वामीजी के प्रति आप इतने आकृष्ट हुए कि एक वर्ष की अवधि में ही सं. 1857 ( = 1801 ई.) की कार्तिक शुल्क एकादशी को 'पीपलाणा' नामक स्थान में आपने उनसे भागवती दीक्षा ग्रहण की। अब आपका नाम हुआ नारायण मुनि, और रामानंदजी के शिष्यों में आप ही अग्रगण्य माने जाने लगे। एक वर्ष पश्चात् अपना अंतकाल समीप जानकर, रामानंदजी ने वि.सं. 1858 (1802 ई.) की देवोत्थान एकादशी को जेतपुर की अपनी धर्मधुरीण नही पर इन्हें अभिषिक्त किया। इसके पश्चात् आपने विशिष्टाद्वैती श्री स्वामी नारायण संप्रदाय की स्थापना की। फिर 28 वर्षो तक अपने संप्रदाय का प्रचार प्रसार कर वि.सं. 1886 (1830 ई.) की ज्येष्ठ शुक्ल एकादशी को लगभग 50 वर्ष की आयु होनेपर आपने अपनी इहलीला समाप्त की । इस संप्रदाय में आपके अनेक नाम प्रचलित हैं यथा सरयूदास, सहजानंद स्वामी, श्रीजी महाराज, श्री स्वामी नारायण आदि। स्वामी सहजानंद द्वारा दलित वनवासी समाज के उद्धार का कार्य
490 / संस्कृत वाङ्मय कोश
ग्रंथकार खण्ड
बहुत बडे प्रमाण में हुआ। आपने शिक्षापत्री नामक ग्रंथ का प्रणयन किया जिसमें जनकल्याणार्थ धर्म तथा शास्त्रों के सिद्धान्तों का विवरण दिया गया है। व्यावहारिक उपदेशों के साथ दार्शनिक विचारों का भी इसमें समावेश है। इसी प्रकार आपके उपदेशों का संग्रह 'वचनामृत' के नाम से प्रख्यात है जिसमें सांख्य, योग तथा वेदांत का समन्वय है । इनके कुछ उपदेश निमांकित है
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मनुष्य को चाहिये कि वह ग्यारह प्रकार के दोषों का सर्वथा त्याग करे। ये दोष हैं- हिंसा, मांस, मदिरा, आत्मघात, विधवा स्पर्श, किसी पर कलंक लगाना, व्यभिचार, देव निंदा, भगवद्-विमुख व्यक्ति से श्रीकृष्ण की कथा सुनना, चोरी और जिनका अन्न-जल वर्जित है उनका अन्न जल ग्रहण करना । इन दोषों का त्याग कर भगवान की शरण में जाने पर भगवत् - प्राप्ति होती है। परमात्मा के माहात्म्य-ज्ञान द्वारा उनमें जो आत्यंतिक स्नेह होता है, उसी को भक्ति कहते हैं । भगवान् से रहित अन्यान्य पदार्थों में प्रीति का जो अभाव होता है, उसी का नाम वैराग्य है ।
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श्रीस्वामी नारायण द्वारा प्रवर्तित पंथ, ईश्वर और परमेश्वर में पार्थव्य मानता है। श्री स्वामी नारायण संप्रदाय, श्री रामानुजाचार्य के विशिष्टाद्वैतवाद के सिद्धांत को बहुशः मानता है तथा पांचरात्र के तत्त्वों का भी पक्षपाती है। वैष्णव-धर्म के इस संप्रदाय का प्रसार विगत कुछ वर्षो से गुजरात में विपुल है। आज कल विदेशों में भी इस संप्रदाय के अनुयायी लोगों की संध्या काफी अधिक है। स्थिरमति - ई. 4 थी शती । बौद्धाचार्य । वसुबन्धु के प्रमुख शिष्य । अपने गुरु के ग्रंथों पर अनेक टीकाएं रचकर उसका गूढार्थ स्पष्ट किया और गुरु के प्रेमभाजन बने। इनकी रचनाएं चीनी अनुवाद के रूप में ही उपलब्ध हैं। रचनाएं- काश्यपपरिवर्तटीका, सूत्रालंकारवृति भाष्य, त्रिंशिका - भाष्य, पंचस्कन्ध- प्रकरण भाष्य, अभिधर्मकोशभाष्यवृत्ति, मूल माध्यमिककारिकावृत्ति और मध्यान्तविभागसूत्रभाष्यटीका । स्थिरमति मूलतः सौराष्ट्र के थे। अध्ययन हेतु वे नालंदाविद्यापीठ गये और आगे चलकर वहां के आचार्य बने । हंसराज अगरवाल लुधियाना में संस्कृत प्राध्यापक । रचना(1) संस्कृत निबंध प्रदीपः (5 प्रदीप विभाग ) । विभिन्न विषयों पर छात्रोपयुक्त निबंध, अन्य रचना (2) संस्कृत - साहित्येतिहासः । हजारीलाल शर्मा - ई. 20 वीं शती। हरियाणा में पिण्डारा, जिन्द के लज्जाराम संस्कृत महाविद्यालय के प्राचार्य । 'विद्यालंकार' की उपाधि से विभूषित । कृतियां सगुणब्रह्मस्तुति, संस्कृत महाकविदिव्योपाख्यान, कादम्बरी- शतक, महर्षि दयानन्दप्रशस्ति, शिवप्रतापविरुदावली, चर्पटपंजरी आदि काव्य तथा हकीकतराय नामक एकांकी रूपक ।
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हणमंते, रघुनाथपंत - स्वराज्य संस्थापना के पश्चात् शिवाजी इसके अतिरिक्त इनके नाम पर शृंगारकलिका और महाराज ने प्रादेशिक मराठी भाषा की, जिसका स्वरूप यावनी 'सुभाषित-हारावली' नामक एक संकलन भी प्राप्त होता है। शब्दों के मिश्रण से विकृत हो गया था, शुद्धि की आकांक्षा हरिचंद्र · (1) ई 11 वीं शती के जैन कवि। पिता-आदिदेव । की। एतदर्थ राज्य-कार्य में व्यवहृत भाषा संस्कृतनिष्ठ तथा
माता- रथ्या । जाति-कायस्थ । उपनाम- चन्द्र । इन्होंने धर्मशर्माभ्युदय शुद्ध करने के हेतु इन्हें नियुक्त किया तथा इनसे कोश-निर्मिति
नामक 21 सर्गो वाले एक महाकाव्य की रचना की। इसमें करवाई। इस 'राज्य-व्यवहार- कोश' नामक रचना में उर्दू-फारसी इन्होंने जैनियों के पंद्रहवें तीर्थकर धर्मनाथ का चरित्र चित्रण में व्यवहृत शब्दों के संस्कृत समानार्थी शब्द हैं। इस प्रयास किया है। डा. हीरालाल जैन के मतानुसार यह काव्य माघ में पं. रघुनाथ शास्त्री का संभवतः उपहास हुआ था। उन्होंने
के शिशुपाल-वध नामक महाकाव्य का अनुकरण है, जब कि उपहास करने वाले लोगों को मधुरकदली फल का स्वाद न
डा. चन्द्रिकाप्रसाद शुक्ल के मतानुसार श्री हर्ष के नैषधीयचरित समझने वाले क्रमेलक (ऊंट) की उपमा दी है।
पर उक्त महाकाव्य का काफी प्रभाव है। इनकी दूसरी रचना हम्मीर - संभवतः मेवाडनरेश कुम्भकर्ण के पूर्वज । कृति-शाङ्गदेव है- जीवंधरचंपू । बाणभट्ट, राजशेखर प्रभृति द्वारा उल्लिखित । के संगीत-रत्नाकर पर संगीत- शृंगारहार नामक टीका। मृत्यु (2) चरकन्यास नामक टीका ग्रंथ के लेखक। ई. 4 थी ई. 1394 में।
शती। कुछ विद्वानों के अनुसार ये साहसांक राजा याने चन्द्रगुप्त हरदत्त मिश्र - “पदमंजरी" नामक काशिका की प्रौढी और
द्वितीय के वैद्य थे। ये विश्वप्रकाश-कोश के रचयिता महेश्वर पाण्डित्यपूर्ण व्याख्या के लेखक। मिश्रजी व्याकरण के अतिरिक्त । के पूर्वज थे। अनेक टीकाकारों ने इनके चरकन्यास का आधार कल्पसूत्र (श्रौत, गृह्य तथा धर्म) के भी व्याख्याकार हैं।
लिया है। इन्होंने पं. जगन्नाथ सदृश आत्म-प्रशंसा की है। पिता पद्मकुमार हरिचरण भट्टाचार्य - जन्म ई. 1879 में विक्रमपुर में। (रुद्रकुमार)। माता-श्री। ज्येष्ठ भ्राता- अश्विनकुमार । कलकत्ता के मेट्रोपोलिटन कालेज में प्राध्यापक। कृतियांगुरु-अपराजित। शैवमतानुयायी। द्रविडदेशवासी। समय- 12 कर्णधार तथा रूपनिर्झर काव्य, उमर खय्याम की रूबाईयों का वीं शती। अन्य रचनाएं- महापदमंजरी (यह किस ग्रंथ की संस्कृत भावानुवाद और बंकिमचन्द्र चट्टोपाध्याय के टीका है यह अज्ञात) परिभाषामंजरी (अप्राप्त), आश्वलायन- 'कपालकुण्डला' (उपन्यास) का संस्कृत-अनुवाद । गृह्यव्याख्या- अनाकुला, गौतम-धर्मसूत्र-व्याख्या मिताक्षरा,
हरिजीवन मिश्र - आमेर के राजा रामसिंह (1667-1675 आपस्तम्ब-गृह्य व्याख्या अनाकुला, आपस्तम्ब- धर्मसत्र- व्याख्या।
ई.) का समाश्रय प्राप्त । पिता- लाल मिश्र। पितामह- वैद्यनाथ उज्ज्वला, आपस्तम्ब-गृह्यमन्त्र व्याख्या. आपस्तम्ब परिभाषाव्याख्या,
मिश्र। कृतियां- विजयपारिजात (नाटक) तथा 6 प्रहसन = एकाग्निकाण्ड-व्याख्या, श्रुतिसूक्तिमाला। सायण और देवराज
अद्भुततरंग, प्रासंगिक, पलाण्डुमण्डन, विबुधमोहन, सहृदयानन्द अपने वेदभाष्य में हरदत्त का उल्लेख करते हैं।
और धृतकुल्यावली। हरदत्त - पिता- जयशंकर। रचना- राघव-नैषधीयम्। दो सर्गो हरिदत्त शास्त्री (डा) - ई. 20 वीं शती। 'प्रत्याशिपरीक्षण' वाले इस श्लिष्ट काव्य पर इन्होंने टीका भी लिखी है। नामक प्रहसन के प्रणेता। हरदेव उपाध्याय - ई. 20 वीं शती। 'भारतमस्ति भारतम्' हरिदास - पिता- पुरुषोत्तम । ई. 17 वीं शती। रचना- संकलन नामक नाटक के रचयिता।
प्रस्तावरत्नाकर। हरपति - ई. 15 वीं शती। ये महाकवि विद्यापति के द्वितीय हरिदास - शान्तिपुर (नदिया, बंगाल) के निवासी। 'कोकिलदूत' पुत्र थे। बिहार के दरभंगा जिले के बिसफी नामक ग्राम के के प्रणेता। निवासी। कुछ विद्वानों के मतानुसार प्रसिद्ध कवयित्री चन्द्रकला हरिदास न्यायालंकार भट्टाचार्य - ई. 16-17 वीं शती । इनकी पत्नी थी। इन्होंने ज्योतिषशास्त्र पर व्यवहारप्रदीपिका तथा वासुदेव सार्वभौम के शिष्य । रचनाएं- न्याय-कुसुमांजलिकारिकादैवज्ञ-बांधव नामक दो ग्रंथ लिखे हैं।
व्याख्या, तत्त्वचिन्तामणि- प्रकाश और भाष्यालोक टिप्पणी । हररात - कूष्माण्ड-प्रदीपिका नामक टीका-ग्रंथ के रचयिता।
हरिदास सिद्धान्तवागीश (पद्मभूषण) - जन्म अनशिया यह टीका- ग्रंथ उवटादि वेदभाष्यकारों पर आधारित है, ऐसा
ग्राम (जिला फरीदपुर) में, सन् 1876 में। मृत्यु दिनांक ग्रंथकार का निवेदन है। ग्रंथ त्रुटित रूप में उपलब्ध है।
25-12-1961 को। मधुसूदन सरस्वती के वंशज। पंद्रह वर्ष हरलाल गुप्त - ई. 19-20 वीं शती । कृति- आयुर्वेद- चन्द्रिका। की अवस्था से लेखन प्रारंभ । नकिपुर नरेश के टोल में हरि कवि - समय- ई. 17 वीं शती। रचना- 'शम्भुराज-चरितम्'। प्राध्यापक। काशी के भारत धर्म महामण्डल से 'महोपदेशक', सूरत-निवासी महाराष्ट्रीय पण्डित। संभाजी (राजा) के मन्त्री भारत शासन द्वारा 'महामहोपाध्याय' तथा निखिल भारत पण्डित कवि कलश के आदेश पर प्रस्तुत चरित्र-काव्य की रचना। महामण्डल द्वारा 'महाकवि' की उपाधियों से विभूषित । रवीन्द्र
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 491
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शत वार्षिकोत्सव में रवीन्द्र पुरस्कार प्राप्त। स्वतंत्र भारत के पद्मभूषण। सन् 1962 में राष्ट्रपति की ओर से मानपत्र । कुल 12 उपाधियों से विभूषित माता-विमुखी, पिता गंगाधर विद्यालंकार । पितामह- काशीचन्द्र वाचस्पति । गुरु जीवानन्दविद्यासागर | कृतियां कंसवध जानकी- विक्रम, मिवारप्रताप, विराज- सरोजिनी, शिवाजी चरित तथा वंगीय प्रताप ये नाटक । रुक्मिणीहरण (महाकाव्य), विद्यावित्त-विवाद, शंकर-सम्भव तथा वियोगवैभव ये तीन खण्डकाव्य, सरला (गद्य), स्मृति चिन्तामणि, काव्यकौमुदी और साहित्यदर्पण की वृत्ति । वैदिक-वादमीमांसा (ऐतिहासिक), आदिपर्व से वनपर्व तक महाभारत की टीका । दशकुमारचरित एवं कादम्बरी की व्याख्याएं मुच्छकटिक, शाकुन्तल, उत्तररामचरित की टीका बंगला पुस्तकें- युधिष्ठिर समय तथा विधवार अनुकल्प।
हरिपाल देव सोमनाथ के पोते । देवगिरि के यादव वंश के राजा हो सकते हैं- (ई.स. 1312 से 1318) मुबारक द्वारा 1318 ई. में हत्या । चालुक्यवंशीय अनहिलवाड नरेश हरिपाल (ई.स. 1145-1155) ये नहीं हो सकते। रचनासंगीत- सुधाकर।
हरिभद्रसूरि - ई. 5 वीं शती चित्रकूट नगर में हरिभद्र नाम ब्राह्मण रहते थे। वे राजा जितारि के पुरोहित थे। हाथ में जंबू वृक्ष की एक शाखा लिये, वे कमर में स्वर्ण-पट्ट बांधे रहते। वह जंबूद्वीप में सर्वश्रेष्ठ विद्वान होने का प्रतीक था वह । उन्होंने याकिनी नामक जैन साध्वी से प्रभावित होकर जैन सम्प्रदाय की दीक्षा ली। इनके बारे में कहा जाता है, कि इन्होंने 1400 प्रबन्ध लिखे ।
(2) ई. 8 वीं शती में श्वेताम्बर जैनियों के आचार्य जिन्होंने लगभग 76 ग्रंथों की रचना की। इनमें से कुछ नाम इस प्रकार है- अनेकान्तवाद प्रवेश अनेकान्तजयपताका, ललितविस्तर षड्दर्शनसमुच्चय, धूर्ताख्यान, नंदिसूत्रवत्ति, योगबिन्दु आदि।
हरियज्वा ई. अठारहवीं शती । पिता लक्ष्मीनृसिंह । 'विवेक मिहिर' नामक नाटक के रचयिता ।
हरियोगी नामान्तर- प्रोलनाचार्य अथवा शैवलाचार्य। ई. 12 वीं शती । ग्रंथ पाणिनीय-धातुपाठ पर शाब्दिकाभरण नामक व्याख्या और धातुप्रत्यय- पंजिका ।
हरिराम तर्कवागीश ई. 17 वीं शती कृतियां तत्त्वचिन्तामणि टीका विचार, आचार्य मत रहस्य- विचार रत्नकोष-विचार और स्वप्रकाशरहस्यविचार | हरिवल्लभ शर्मा (कविमल्ल) जन्म 1848 ई. में । 'कविमल्ल' व 'मल्लभट्ट की उपाधियों से अलंकृत हरिवल्लभ शर्मा का जन्म जयपुर के राजवैद्य - परिवार में हुआ था। इनके पिता जीवनराम शर्मा महाराज रामसिंह द्वितीय (1835-1880
492 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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या
3.
ई.) के आश्रित थे। कविमल्ल की प्रसिद्ध रचनाएं 1. जयनगरपंचरंग (ऐतिहासिक खण्डकाव्य), 2. श्लोकबद्ध - दशकुमारचरित दशकुमार-दशा, ललनालोचलोल्लास (काव्य), 4. कान्तावक्षोजशतोक्तयः (काव्य), 5. शृंगारलहरी, 6. मुक्तकसूक्तानि इत्यादि. हरिशास्त्री दाधीच (पं) जन्म 1893 ई. में आशुकवि दाधीच का जन्म जयपुर में हुआ था। इनके पिता दामोदर दाधीच थे। आप तन्त्रशास्त्र के परम विद्वान थे। आपको जीवन में साहित्याचार्य, आशुकवि, साहित्यसुधानिधि, कवि चक्रवर्ती, काव्यरत्नाकर कविभूषण आदि अनेकों उपाधियों से सम्मानित किया गया था। आपकी प्रकाशित रचनाएं हैं1. अलंकारकौतुक, 2. अलंकारलीला, 3. ललितासहस काव्य, 4. शक्तिगीतांजलि 5. सिद्धिस्तव, 6. प्रेमसुधा, 7. दधिमथी, 8. पुष्पितामा 9. लक्ष्मीनक्षत्रमाला 10. राममानसपूजन 11. वाणीलहरी, 12. उदरप्रशस्ति और 13. शिवरत्नावली। अप्रकाशित कृतियों के नाम इस प्रकार हैं- 1. संजीवनी - साम्राज्य, 2. साम्राज्यसिद्धिकाव्य, 3. वर्णबीजाभिधान, 4. अन्योक्तिविनोद, 5. अन्योक्तिमुक्तावलि, 6. अम्बिकासूक्त आदि ।
हरिश्चंद्र- ई. 19 वीं शती। जयपुर के राजा रामसिंग के आदेशानुसार आपने 'वर्गसंग्रह' नामक ग्रंथ का लेखन किया । हरिषेण हरिषेण नाम के अनेक आचार्य हुए 1. समुद्रगुप्त के राजकवि, 2. अपभ्रंश ग्रंथ धर्मपरीक्षा के रचयिता (ई. 11 वीं शती), 3. मुक्तावली के रचयिता (ई. 13 वीं शती), 4. जगत्सुन्दरी योगमलाधिकार के रचयिता, 5. यशोधरचरित में उल्लिखित 6. अष्टाड़िकी कथा के रचयिता और 7. बृहत्कथाकोश के रचयिता जो जैनी पुत्राटसंघ के आचार्य थे गुर्जर प्रतिहार वंशी राजा विनायक पाल के राज्यकाल में वर्धमानपुर में कोश की रचना हुई। (रचनाकाल - ई. 931 ई.) । बृहत्- कथाकोश में 157 कथाएं और 12500 श्लोक हैं। आयुर्वेद, ज्योतिष, दर्शन आदि विषयों का वर्णन इस कोश में है।
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हरिस्वामी शतपथ ब्राह्मण के भाष्यकार । समय- ई. 10 वीं शती से पूर्व कर्काचार्य अपने कात्यायन श्रौतसूत्र भाष्य में हरिस्वामी को उद्धृत करते हैं। उबटाचार्य, कर्काचार्य और भोजराज का निर्देश करते हैं। हरिस्वामी ने विक्रमार्क अवन्तिनाथ का निर्देश किया है। इन सभी प्रमाणों से हरिस्वामी का समय दशम शताब्दी से पूर्व का हो सकता है। संभवतः कात्यायन औतसूत्र और यजुर्वेद पर भी इनकी भाष्य-रचना है। सग्भाष्यकार स्कंदस्वामी इनके गुरु थे ।
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हरिहर त्रिवेदी (डा.) ई. 20 वीं शती मध्यभारत के निवासी । प्रयाग वि.वि. से एम.ए., डी. लिट. । मध्यभारत की राजकीय सेवा में उच्च पदों पर। मध्यप्रदेश के पुरातत्त्व विभाग के उपसंचालक पद से निवृत्त होकर इंदौर में निवास । कृतियांनागराज - विजय, गणाभ्युदय आदि ।
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हरिहरोपाध्याय - ई. 17 वीं शती। मिथिला-निवासी। माता- के आधार पर डा. लेवी को अनुवाद उपलब्ध है। इन्होंने 3 लक्ष्मी। पिता- राघव। कृतियां- प्रभावती- परिणय (नाटक) नाटक भी लिखे हैं- रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानंद। और हरिहर- सुभाषित अथवा सूक्ति-मुक्तावली।
हर्षवर्धन के रत्नावली नामक नाटक पर कालिदास के नाटक हर्याचार्य - श्रीजानकी-गीत काव्य के रचयिता। गालवाश्रम मालविकाग्निमित्र का प्रभाव दिखता है। चित्रों का रेखांकन (गलता-गद्दी) के पीठाधीश्वर। रामभक्ति शाखा में हर्याचार्य सुव्यवस्थित है। उनके नागानंद नामक नाटक पर बौद्धधर्म की । के श्रीजानकी-गीत को मान्यता प्राप्त है।
गहरी छाप अंकित है। हर्षकीर्ति - ई. 17 वीं शती में आप नागपुरीय तपागच्छ हसूरकर श्रीपाद शास्त्री - इन्दौर के संस्कृत महाविद्यालय में शाखा के अध्यक्ष थे। गुरु- चन्द्रकीर्ति । इन्होंने अमरकोश के प्रधानाचार्य। सिक्खगुरु- चरितामृत नामक प्रबंध में नानक, आधार पर 'शारदीयाख्यान-माला' नामक शब्दकोश की रचना
अंगद, अमरदास, रामदास, अर्जुनसिंह, हरगोविन्द, हरराय, की है। इस कोश के 5 सर्ग हैं। श्लोक 465 है, जो सभी हरकिसन, तेजबहादुर तथा गुरु गोविंदसिंह इन 10 सिक्ख अनुष्टुप् छन्द में हैं। उक्त कोश के अतिरिक्त इन्होंने बृहच्छान्तिस्तोत्र, गुरुओं का चरित्र उत्कृष्ट गद्य में वर्णन किया है। अन्य रचनाएं - कल्याणमन्दिर-स्तोत्र, सारस्वत- दीपिका, धातुपाठतरंगिणि, (1) छत्रपति शिवाजी-महाराज चरितम्, (2) योगचिंतामणि, वैद्यकसारोद्धार और ज्योतिःसारोद्धार नामक ग्रंथों
महाराणा प्रतापसिंह-चरितम्, (3) श्रीमद्वल्लभाचार्य-चरितम्, का प्रणयन किया है।
(4) श्रीरामदास-स्वामि-चरितम्, (5) पृथ्वीराज चौहान-चरितम्। हलायुध- (1) ई. 8 वीं शती। ये राजा कृष्ण (प्रथम) ये ग्रंथ "भारत नररत्नमाला" के पुष्प है। इनके अतिरिक्त १ राष्ट्रकुल की सभा में थे। इन्होंने अमरकोश के आधार पर
काव्य अमुद्रित है। (6) मोक्षमन्दिरस्य द्वादशदर्शन-सोपानावलि 'अभिधान- रत्नमाला' नामक शब्दकोश लिखा है जो नामक गद्य प्रबंध सर्वदर्शन-संग्रह की योग्यता का ग्रंथ यह है। 'हलायुध-कोश' के नाम से विख्यात है। इन्होंने कविरहस्य व मृतसंजीवनी नामक ग्रंथ भी लिखे हैं।
हस्तामलक - ई. 7 वीं शती। पिता-प्रभाकर मिश्र ।
शाखा-आश्वलायन । संभवतः ऋग्भाष्य के रचयिता। भाष्य-ग्रंथ (2) ई. 12 वीं शती। पिता- धनंजय। ये लक्ष्मण सेन
अनुपलब्ध है। हस्तामलक आद्य शंकराचार्य के चार प्रमुख नामक राजा की सभा में थे तथा इन्हें बाल्यावस्था में ही
शिष्यों में से एक थे। श्वेतछत्र धारण करने का अधिकार प्राप्त था। इन्होंने सायणाचार्य के पूर्व शुक्ल यजुर्वेद की काण्व संहिता पर ब्राह्मणसर्वस्व
हरिणचन्द्र चक्रवर्ती - ई. 19 वीं शती। कलकत्ता-निवासी। नामक भाष्य लिखा। मीमांसा-सर्वस्व, वैष्णव-सर्वस्व और
प्रख्यात वैद्य । आपने "सुश्रुत संहिता" पर व्याख्या लिखी है। पंडित-सर्वस्व नामक ग्रंथ भी इन्होंने लिखे हैं।
हारीत - धर्मशास्त्र के एक सूत्रकार। ये ई.स. 400 से 700 (3) ई. 12 वीं शती। संकर्षण के पुत्र। इन्होंने कात्यायन
के बीच हुए होंगे क्यों कि बोधायन, आपस्तंब व वसिष्ठ ने के श्राद्धकल्पसूत्र पर 'प्रकाश' नामक भाष्य लिखा है।
इनके धर्मसूत्रों के उद्धरण दिये हैं। हारीत का धर्मसूत्र, अन्य
धर्मसूत्र से विशाल ग्रंथ है क्यों कि इसमें उन्होंने वेद, वेदांग, हस्तिमल्ल - समय- ई. 13 वीं शती। दिगम्बर पंथी जैन
धर्मशास्त्र, अध्यात्म-विद्या और ज्ञान की अन्य शाखाओं का ग्रंथकार । वत्स्य गोत्रीय ब्राह्मण । जन्मस्थान- दीपनगुडि (तंजौर)।
विचार किया है। इसमें विवाह के आठ प्रकार बताये हैं, मूलनाम- मल्लिषेण। पिता- गोदिभट्ट। इनके नाम को लेकर
नट-व्यवसाय निंद्य माना है और ब्रह्मवादिनी कन्याओं को एक आख्यायिका यह बतायी जाती है कि ये हस्तिविद्या में
उपनयन संस्कार का अधिकार दिया है। सम्पत्ति विषयक पारंगत थे तथा इन्होंने एक मदोन्मत्त हाथी को शांत किया
अधिकारों की भी इसमें चर्चा है। न्यायालयीन जांच को था। इनके पराक्रम से इन्हें पांड्य राजा की सभा में सम्मानजनक
धर्मशास्त्र और अर्थशास्त्र के नियमों पर आधारित बताया गया है। आश्रय मिला। तब से लोग इन्हें हस्तिमल्ल कहने लगे। इन्होंने आठ नाटक लिखे जिनके नाम इस प्रकार हैं
हिरण्यगर्भ प्राजापत्य - ऋग्वेद के 10 वें मंडल में 120 विक्रान्त-गौरव, मैथिली-कल्याण, अंजनापवनंजय, सुभद्रा,
वें सूक्त के द्रष्टा । सृष्टि की उत्पत्ति संबंधी यह सूक्त, प्रजापतिउदयनराज, भरतराज, अर्जुनराज व मेघेश्वर। इनमें से प्रथम
सूक्त नाम से विख्यात है। चार नाटक प्रकाशित अवस्था में उपलब्ध हैं। इनकी एक और हिरण्यस्तूप - ऋग्वेद के 10 वें मंडल में 149 वें सूक्त के रचना है- आदि पुराण।
द्रष्टा। इसमें सृष्टि की उत्पत्ति की उपपत्ति बतायी गयी है। हर्षवर्धन - कन्नौज के सुप्रसिद्ध प्राचीन सम्राट (601 से 647
हितहरिवंशजी - राधावल्लभीय संप्रदाय के प्रवर्तक महात्मा । ई.)। चीनी यात्री ह्युएन सांग के प्रभाव से बौद्ध-मत स्वीकृत। सांप्रदायिक मतानुसार श्री मुरली के अवतार। पिता का नाम साथ ही प्रबल समर्थक। जीवन के अन्त में 'सुप्रभात - केशवदास मिश्र। माता का तारावती। गौड ब्राह्मण। उपनाम स्तोत्र' तथा 'महाश्रीचैत्यस्तोत्र' का रचना की। तिब्बती प्रतिलेखों
___व्यासजी। इनके जन्म-स्थान तथा आविर्भावकाल के विषय में
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 493
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विद्वानों का अभी तक एकमत नहीं। इनके पिता सहारनपुर जिले के देवबंद नामक ग्राम के निवासी अवश्य थे, किन्तु बादशाह के साथ दौरे में सपत्नीक घूमते हुए इनका जन्म "बाद" नामक ग्राम में हुआ। यह स्थान मथुरा से 4 कोस की दूरी पर है। ___ इनके संप्रदायी उत्तमदास नामक भक्त द्वारा निर्मित “हित-चरित्र" ग्रंथ के अनुसार इनका जन्म संवत् 1559 (1503 ई.) में हुआ था। सांप्रदायिक ग्रंथों के अनुसार इन्हें अल्पायु में ही श्रीराधिकाजी से स्वप्न में गुरु-दीक्षा प्राप्त हुई थी। देवबंद में इनके घर के पास एक कुआं था। उस कुएं से इन्होंने श्रीरंगलालजी की मूर्ति निकाली तथा मंदिर बनाकर उस मूर्ति की पूजा-अर्चा में लीन रहने लगे। फिर राधिकाजी की आज्ञा से ये वंदावन के लिये चल पडे। मार्ग में चिडचावल नामक ग्राम के निवासी आत्मदेव नामक ब्राह्मण ने अपनी दो कन्याएं तथा श्रीकृष्ण की एक सुंदर मूर्ति इन्हें अर्पित की। यह राधावल्लभजी का विग्रह था, जिसे आपने वृंदावन में मंदिर बनवाकर स्थापित किया।
चैतन्यमतानुयायी श्री भगवत्मुदित के ग्रंथ रसिक अनन्यमाल के अनुसार इस मंदिर का प्रथम पट-महोत्सव 1519 विक्रमी में हुआ था। ये राधा-कृष्ण की युगल मूर्ति के उपासक थे तथा युगल उपासना का उपदेश इनके सिद्धान्त का सार अंश था। कृष्ण की अपेक्षा राधा की पूजा तथा भक्ति को इन्होंने अधिक महत्त्वपूर्ण एवं शीघ्र फलदायी निरूपित किया। ___ इनके दो ग्रंथ प्रधान हैं- राधा-सुधानिधि (संस्कृत में)
और हित-चौरासी (ब्रज भाषा में) इनके अतिरिक्त आशास्तव, चतुःश्लोकी, श्रीयमुनाष्टक तथा राधातंत्र नामक ग्रंथ भी इनके नाम से प्रसिद्ध हैं। इनके ग्रंथों में अध्यात्म-पक्ष का विवरण कम है, प्रत्युत राधा-कृष्ण की कुंज-केलि तथा वन-विहार के । नितांत ललित एवं श्रृंगारिक वर्णन की ही इनके ग्रंथों में प्रचुरता है।
ये अंत तक गृहस्थाश्रमी ही रहे। इनके चार पुत्र और एक कन्या मानी जाती है। आज भी इनके वंशज देवबंद तथा वृंदावन दोनों स्थानों में पाए जाते हैं। इनका देहान्त 50 वर्ष की आयु में विक्रमी संवत् 1609 शारदीय पूर्णिमा के दिन हुआ। अपने संप्रदाय में ये- "गोस्वामी रसिकाचार्य श्रीहित हरिवंशचंद्र" के नाम से संबोधित किए जाते हैं। हृदयनारायणदेव - ई. 17 वीं शती। एक संगीतशास्त्रकार । गढ दुर्ग (जबलपुर) के राजा प्रेमशाह के पुत्र । राजा प्रेमशाह की मृत्यु के बाद हृदयनारायण ने दिल्ली के बादशाह शहाजहां का सहारा लिया। अंतिम काल में जबलपुर के दक्षिण में (मंडला में) रहे। इन्होंने "हृदयकौतुक" व "हृदयप्रकाश" नामक संगीतशास्त्र-विषयक दो ग्रंथ लिखे। प्रथम ग्रंथ की। प्रेरणा उन्हें तरंगिणी से मिली। दूसरा ग्रंथ अहोबिल के । "संगीत-पारिजातक" पर आधारित है। इसमें तत्कालीन 12
स्वरों के स्थान, तारों की लम्बाई के आधार पर निश्चित किये गए हैं। हृषीकेश शास्त्री भट्टाचार्य - भटपल्ली ग्राम (कलकत्ता के समीप) में 1850 ई. में जन्म। सन् 1913 में मृत्यु । ओरियंटल कालेज लाहोर में आप प्राध्यापक थे। उन्होंने अनेक वर्षों तक “विद्योदय" नामक संस्कृत मासिक पत्रिका का कुशलता से संपादन किया। वे अनेक भाषाओं के ज्ञाता थे। अनेक अंग्रेजी पुस्तकों का संस्कृत में अनुवाद किया जिनमें “पर्यटकत्रिंशत्"
और "हेमलेटचरितम्" प्रधान हैं। “विद्योदय" में प्रकाशित "नाविकसंगीत", "मातृस्तोत्र", "कमलास्तव", "वियोगिविलाप" आदि उनके गीतिकाव्य और "होल्यष्टक", "विजयादशक", “देव्यष्टक", आदि अष्टक और दशक विशेष लोकप्रिय रहे हैं।
संस्कृत में हास्य और व्यंगशैली का प्रयोग भी पहली बार आपने ही सफलतापूर्वक किया। भाषाविचार, परिहास, विदूषक, काबुलयुद्ध, शिक्षाप्रयोजन आदि सामयिक विषयों पर उनके निबन्ध और एकाक्षरकोष एकवर्णार्थसंग्रह, द्विरूपाक्षकोश आदि उनके द्वारा रचित कोश, उनकी महत्त्वपूर्ण कृतियां हैं। उनकी भाषा पर बाण की शैली की पूरी छाप है। उनका उद्देश्य संस्कृत भारती के भाण्डार को अर्वाचीन वाङ्मय से परिपूर्ण करना था। इसी उद्देश्य की पूर्ति की दिशा में वे सदा प्रयत्नशील रहे। हेमंतकुमार तर्कतीर्थ - ई. 20 वीं शती। बंगवासी। "सरस्वती-पूजन" नामक रूपक के प्रणेता। हेमचन्द्र राय कविभूषण - जन्म-सन् 1882 में रामनगर (पाबना-बंगाल) में। पिता-यदुनंदन राय। कृतियां(काव्य)-सत्यभामा-परिग्रह, सुभद्रा-हरण, हैहय-विजय, रुक्मिणीहरण, परशुराम-चरित और पाण्डवविजयभारती (गीति)। सभी कृतियां प्रकाशित । आप एडवर्ड महाविद्यालय पाबना में संस्कृत के प्राध्यापक थे। हेमचन्द्र सूरि (अथवा मलधारी हेमचन्द्र सूरि) - अभयदेव सूरि के शिष्य । जन्म-धंधुका (गुजरात) में। पिता-चाचदेव । माता-पाहिनीदेवी। जाति-मौढ महाजन । जन्मनाम-चंगदेव । वि.सं. 1150 में 5 वर्ष की अवस्था में ही देवचन्द्र सूरि द्वारा दीक्षित । वि.सं. 1166 में रवंभात शहर में आचार्य-पदवी-समारोह । चालुक्यवंशी राजा सिद्धराज जयसिंह द्वारा सम्मनित । महाराज कुमारपाल के राजगुरु, धर्मगुरु और साहित्यगुरु। वि.सं. 1229 में स्वर्गवास। इनके तीन शिष्य थे, विजयसिंह, श्रीचंद्र और विवुधचन्द्र। ग्रंथ- 1) आवश्यक टिप्पण-4600 श्लोक-प्रमाण, 2) शतक-विवरण, 3) अनुयोगद्वारवृत्ति, 4) उपदेशमाला-सूत्र, 5) उपदेशमाला-वृत्ति, 6) जीवसमासविवरण, 7) भवभावनासूत्र, 8) भावभावनाविवरण, 9) नन्दि-टिप्पण और 10) विशेषावश्यक भाष्य-बृहद्वृत्ति। (इन ग्रंथों का परिमाण लगभग 80000 श्लोक है। विषय की दृष्टि से प्रायः ये स्वतन्त्र हैं), 11) द्रव्याश्रय महाकाव्य (संस्कृत और प्राकृत) 2828 + 1500 श्लोक। 12) अभिधानचिन्तामणि, 13) अनेकार्थसंग्रह, 14)
494 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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देशीनाममाला, 15) शेषनाममाला, 16) काव्यानुशासन, 17) छन्दोनुशासन, 18) योगशास्त्र अध्यात्मोपनिषद, 1200 श्लोक, 19) वीतरागस्तोत्र, 20) महादेवस्तोत्र, 21) त्रिषष्टिशलाका-पुरुषचरित, 22) परिशिष्ट-पर्व, 23) प्रमाण-मीमांसा, 24) अन्ययोग-वाक्यच्छेद (इसी पर मल्लिषेण सूरि की 3000 श्लोक प्रमाण टीका है जो स्याद्वाद-मंजरी के नाम से प्रसिद्ध है और 25) अर्थांगव्यवच्छेद। आप कलिकालसर्वज्ञ की उपाधि से अलंकृत थे। हेमाद्रि - ई. 13 वीं शती। एक धर्मशास्त्री। इन्हें हेमाडपंत के नाम से महाराष्ट्र में जाना जाता है। पिता-कामदेव। देवगिरि के राजा महादेव के शासन-काल में, इन्हें मंत्रिचूडामणि व करणधिप ये दो उपाधियां मिली थीं। इन्होंने "चतुर्वर्गचिंतामणि" नामक ग्रंथ लिखा जो धर्म की अनेक शाखाओं का एक ज्ञानकोश ही हैं। इसमें व्रत, दान, तीर्थ और मोक्ष ये चार विभाग है। परिशेष नामक पांचवां खंड भी है। इस पांचवें खण्ड में उपास्य देवता, उनकी पूजाविधि, श्राद्धविधि, नित्यनैमित्तिक कर्म के मुहूर्त, प्रायश्चित्त विधि तथा पापनाशन के साधनों की जानकारी दी गयी है।
इसके अतिरिक्त आपने कालनिर्णय, कालनिर्णयसंक्षेप, तिथिनिर्णय, कैवल्यदीपिका, आयुर्वेदरसायन, दानवाक्यावली, पर्जन्यप्रयोग, प्रतिष्ठालक्षणसमुच्चय, हेमाद्रिनिबंध, त्रिस्थलविधि, अर्थकाण्ड, हरिलीला आदि अनेक छोटे-बड़े ग्रंथों की रचना की है। इनके व्रतखंड को आज भी प्रमाणभूत ग्रंथ माना जाता है। ये शिल्पकार भी थे। इनके नाम पर "हेमाडपंती" नामक एक शिल्पपद्धति महाराष्ट्र में चल पडी है। हेर्लेकर, पुरुषोत्तम सखाराम - अमरावती (विदर्भ) के निवासी उत्तम वैद्य। भारतीय आयुर्विद्या शिक्षण समिति के कार्याध्यक्ष थे। रचना-शारीरं तत्त्वदर्शनम् (वातादिदोषज्ञानम्) । अनुष्टुप छन्दोबद्ध। मूलश्लोक सन् 1930 के पूर्व रचित । ग्रंथ-प्रस्तुति सन् 1942 में, वैद्य सम्मेलन के मैसूर अधिविशन में सुवर्ण-पदक तथा प्रशस्ति-पत्रक से सम्मानित।। होता वेंकटरामशास्त्री पंडित - ई. 20 वीं शती। पिता-वेंकटेश्वर । माता-सुभद्रा। अमलापुरम (जिला-गोदावरी) के कुचिमंचिवरि अग्रहार के निवासी रामभक्त। "पौराणिकाग्रेसर'की उपाधि से विभूषित। “सीताकल्याण" नामक नाटक के रचयिता ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 495
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ग्रंथकार खंड का परिशिष्ट
संपादकीय
प्रस्तुत ग्रंथकार खंड का संपादन करते समय जिन ग्रंथकारों के संबंध में संक्षेपतः उल्लेखनीय कुछ विशिष्ट जानकारी संदर्भ ग्रंथों में प्राप्त हुई, उनका निर्देश मूल खंड में यथा स्थान हुआ है। परंतु इस संपादन कार्य में ऐसे अनेक ग्रंथकारों के नाम संकलित हुए, जिनके संबंध में उनकी प्रायः एक दो (या क्वचित् अधिक) रचनाओं के अतिरिक्त विशेष जानकारी प्राप्त नहीं हुई। हो सकता है कि इनके संबंध में उनकी प्रादेशिक भाषाओं में अधिक जानकारी मिले। हमने अपने सीमित भाषा ज्ञान के कारण संदर्भ के लिए हिंदी, अंग्रेजी
और मराठी ग्रंथों का ही उपयोग किया है। अतः संस्कृत वाङ्मय विषयक अन्य प्रादेशिक भाषाओं के ग्रंथों का लाभ नहीं लिया जा सका।
जिन ग्रंथकारों के संबंध में इस प्रकार, उनकी रचना के अतिरिक्त अधिक जानकारी प्राप्त नहीं हुई, उनका निर्देश टालना असंभव और अयोग्य था। अतः ग्रंथकार खंड में उल्लेखनीय ग्रंथकारों के नामों की केवल सूची के रूप में यह परिशिष्ट दिया जा रहा है। ग्रंथकार की रचना के अतिरिक्त कुछ अधिक जानकारी भी प्रयत्नपूर्वक संकलित कर यथास्थान जोडी गई है। अतः अनेक ग्रंथकारों के स्थान तथा समय का निर्देश इस परिशिष्ट में स्थान स्थान पर मिलेगा।
ग्रंथकार की रचना का स्वरूप (काव्य, नाटक, चम्पू, प्रबन्ध आदि भी अनेक स्थानों पर उपलब्ध संदर्भ के अनुसार दिया गया है।
मूल खंड में उल्लिखित होने पर भी अनेक नामों का परिशिष्ट में भी उल्लेख हुआ है। इसका अर्थ यही समझना चाहिए कि नाम एक होते हुए भी व्यक्ति भिन्न भिन्न हैं। इस परिशिष्ट में उन नामों का निर्देश होने का कारण उन व्यक्तियों के संबंध में रचना के अतिरिक्त अधिक जानकारी संदर्भ ग्रंथों में नहीं मिली।
मूल खंड के समान प्रस्तुत परिशिष्ट में भी प्रायः मुद्रित रचनाओं का ही निर्देश हुआ है। इस में अपवादों की भी संभावना है।
प्रस्तुत परिशिष्ट में निर्दिष्ट हुए बहुसंख्य ग्रंथों के स्वरूप की कल्पना उनके नामों से ही आ सकती है। अतः उसका पुनरुल्लेख नहीं किया है। शुनकदूतम्, रुक्मिणीपरिणयचम्पू, गीतगंगाधरम् अन्योक्तिशतकम् इत्यादि प्रकार के नामों का विवरण देने की आवश्यकता नहीं।
परिशिष्ट में उल्लिखित अनेक ग्रंथों का संक्षेपतः परिचय प्रस्तुत कोश के ग्रंथखंड में मिल सकेगा।
प्रस्तुत परिशिष्ट में एक ही लेखक के नाम पर अनेक रचनाओं का निर्देश कई स्थानों पर किया है। उस एक ही नाम के लेखक होने की, उनका स्थान और काल भिन्न भिन्न होने की भी संभावना है। उनकी व्यक्तिशः विशेष जानकारी न मिलने के कारण, एक ही नाम के आगे क्रमशः ग्रन्थों का नाम निर्देश किया है। जैसे कृष्ण- इस नाम के आगे 5 रचनाओं का निर्देश है, परंतु उन पांच रचनाओं के लेखक एक से अधिक होने की संभावना है।
ग्रंथ के साथ जहां वर्ष का निर्देश है, वह उस ग्रंथ के लेखन या प्रकाशन का वर्ष समझना चाहिए। अन्यत्र अनुपलब्धि के कारण इस प्रकार निर्देश नहीं हो सके। भारत में व्यक्तियों नाम मात्र से उसके प्रदेश की कल्पना आती है। महाराष्ट्र, बंगाल, केरल, कर्नाटक, एवं उत्तर भारत में व्यक्ति नामों की अपनी अपनी निजी विशेषता है। जिन ग्रंथकारों के प्रदेश का निर्देश, संदर्भ के अभाव से नहीं हुआ, उनके नाम की विशेषता से उनके प्रदेश की कल्पना पाठकों को आ सकती है।
कुछ प्रादेशिक नामों के निर्देश में निश्चित उच्चारण के ज्ञानाभाव के कारण वर्णदोष होने की संभावना है।
496 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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ग्रंथकार
अंबिकाचरण देव अक्षयकुमार शास्त्री
अण्णंगराचार्य
अण्णंगराचार्य शेष
अगराचार्य
अद्वैतराम भिक्षु अद्वैन्द्रयति (महाराष्ट्र अहमदनगर के पास
वास्तव्य था ) अनन्त (14 वीं शती) अनन्त त्रिपाठी (उत्कल में ब्रह्मपुर के निवासी)
अनन्तराम
अनन्तशर्मा
अनन्तमूरि
(19 वीं शती) अनन्ताचार्य'
अनन्ताचार्य
अनन्ताचार्य कोडंबकम् अनन्ताल्वार
(मेलकोटे ग्राम के निवासी)
में
अभट्ट मीमांसक
(वाराणसी के संग्रामसिंह के आश्रित) अनन्यदास गोस्वामी अनूपसिंह
अप्पन नैनाय
(वैष्णवदास) अप्पय्या दीक्षित
अप्पलाचार्य
अप्पा वाजपेयी
32
:
:
:
:
:
:
10
:
:
:
:
:
:
: स्वानुभूत्यभिधा आर्यासप्तशती
:
:
:
:
रचना
:
:
पिकदूतम्
कामवैभवम् कोकिलसंदेशम्
दशकोटि (नवकोटि नामक
ग्रंथ का खंडन)
वैदिकमनोहरा नामक मासिक
पत्रिका के संपादक राघवोल्लास
धर्म नौका
कामसमूह
मनोरमा मासिक पत्रिका के संपादक
: सदाचाररहस्यम्
(1) भागीरथी चम्पू
(2) लक्ष्मीश्वर चम्पू
कृष्णराज यशोडिंडिम
राधाकृष्णमाधुरी : कामप्रबोध
प्रक्रियादीपिका
संसारचक्र (जगन्नाथप्रसाद
कृत हिंदी ग्रंथ का अनुवाद)
सम्मार्जनीशतकम्
1 आर्याशतकम्
2 अन्यापदेशशतकम्
3 वैराग्यशतकम्
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4 नामसंग्रहमाला
1 यदुगिरिभूषणचम्पू
2 संगीतसंग्रह - चिंतामणि
सुनीति-कुसुमाला (सुप्रसिद्ध तिरुवल्वारकृत तिरुक्कुरल नामक तमिल ग्रंथ का अनुवाद)
अभयपाल
अभयचंद्राचार्य,
अभिनव कालिदास अमृतानंद योगी अय्यास्वामी अय्यर
(अथवा के.एस.
विद्यानाथ )
अरुणाचलनाथशिष्य
अलसिंग
अविनाशी स्वामी
(9 वीं शती) अशोक मल्ल
असंग (17 वीं शती)
आत्रेय (19 वीं शती)
आत्रेय श्रीनिवास आत्रेयवरद
(19 वीं शती) आदिनारायण
आनंदधर
आनंदराम बरुआ
आन्दान श्रीनिवास
आपटे, वामन शिवराम
आपटे, वासुदेव गोविंद आप्पातुलसी (19-20 वीं शती)
आफ्रेट (19 वीं शती)
आसुरी अनन्ताचार्य (19 वीं शती) इरुगपद दंडाधिनाथ इलातुर रामस्वामी शास्त्री
इल्लूर रामस्वामी शास्त्री (19 वीं शती)
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:
:
: शृंगारकोश भाग
:
:
:
:
:
:
श्रीरामविजय
: वज्रमुकुटविलास-चम्पू
:
शृंगारतिलक-भाण
:
:
:
:
:
14
मीनाक्षीपरिणय-चम्पू
माधवानल
प्रैक्टिकल संस्कृत डिक्शनरी सहस्रकिरणी (शतदूषणी का खंडन)
1:
1 संस्कृतइंग्लिश डिक्शनरी, इसका द्वितीयसंस्करण सन 1959 में पुणे में
प्रकाशित हुआ।
2 स्टुडन्टस इंग्लिश-संस्कृत डिक्शनरी संस्कृत-मराठी कोश
:
नानार्थरत्नमाला
प्रक्रियासंग्रह
(व्याकरण विषयक)
:
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:
अलंकारसंग्रह जार्जवंशम्
1911 में मुद्रित
:
नाट्याध्याय
वर्धमानचरितम्
काकी षोडशिका
: ट्रिनिटी कॉलेज (केंब्रिज) के ग्रंथसंग्रह की सूची
चम्पूरामायण
(विनोदप्रचुर काव्य )
कुचशतकम्
रुक्मिणीपरिणय नाटक
1 संगीतसुधाकर
2 रागकल्पद्रुमकुर
3 रागचंद्रिका
नानार्थरत्नमाला क्षेत्रतत्त्वदीपिका (विषयभूमिति शास्त्र) कैवल्यावलीपरिणय
संस्कृत वाङ्मय कोश
-
ग्रंथकार खण्ड / 497
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इन्द्रनाथ बन्दोपाध्याय
ईश्वर दीक्षित ईश्वरसुमति ईश्वरचंद्रशर्मा (कलकत्तावासी) (20 वीं शती) इन्द्रदत्तोपाध्याय
: गौरचंद्र (ऐतिहासिक
उपन्यास) : रामायणसारसंग्रह
पार्वती परिणयम् (8 सर्ग) राजराजेश्वरस्य ग़जसूयशक्तिरत्नावली
कमलाकर
: रामकौतुकम् (पिता रामकृष्ण) कर्ण देव
: कामसारः कर्णपूर
: संस्कृतपारसिक-प्रकाश कल्पवल्ली
: सत्यसन्धचरित चम्पू कल्याणकवि
: गीतगंगाधरम् पी.के. कल्याणरामशास्त्री : कनकलता (शेक्सपीयरकृत
ल्येक्रेस काव्य का अनुवाद) कविकेसरी
: हरिकेलि-लीलावती
: फक्किकाप्रकाश
(सिद्धान्तकौमुदी की टीका) : व्याधिरहस्य की टीका
उत्तमकर महादेव (18 वीं शती)
कविभट्ट
: पद्यसंग्रह नामक
सुभाषितों का संग्रह : विक्रमविजय नाटक
: रामाभ्युदयचम्पू : रामचन्द्रोदयम् : हरिविलास
: कविकौतूहलम्
कविराज सूर्य (19 वीं शती। गोत्र-कुंडिन) कविराम कविवल्लभ कविशेखर (पिता-यशोदाचंद्र) कान्तिचन्द्र मुखोपाध्याय कामराज (सामराज दीक्षित का पुत्र) कामराज कवि (10-20 वीं शती) कामराज दीक्षित (पिता-वैद्यनाथ) कार्तिकेय कालिदास (इस नाम पर चार ग्रंथ)
: 1 काव्येन्दुप्रकाश
2 शृंगारकालका : सीतास्वयंवर काव्य
उदयवर्मा 19 वीं शती : रसिकभूषण-भाण उदयन
: मितवृत्यर्थ : उद्गीथ
: ऋग्वेद भाष्य (वलभी-निवासी)
(अल्पमात्र.) उद्दण्ड
: कोकिलसंदेशम्
(भंगसंदेश का उत्तर) उपाध्याय, व्ही.व्ही. : धातुरूपचंद्रिका उपाध्याय, एस.ए. : ईश्वरस्वरूपम् उमानन्द
: यौवनोल्लासम् उमापति
: 1वत्तवार्तिक
2 सुभाषितरत्नाकर उमापतिधर
: चंद्रचूड-चरितम् उमामहेश्वर भट्ट : सुभाषितरत्नावली उर्वीदत्त शास्त्री
: एडवर्डवंशम् (1905) (लखनऊ निवासी) ऋषीश्वर भट्ट
: संस्कृत-हिंदी-कोश एकनाथ
: अन्यापदेशशतकम् एकामरनाथ
: वीरभद्र विजयचम्पू ओक, म.पां.
अभंगरसवाहिनी (महाराष्ट्रीय संत तुकाराम के
कतिपय अभंगों का अनुवाद) ओक, जनार्दन विनायक : गीर्वाणलघुकोश ओल्डेनबर्ग
: ग्रंथसूची कंकण कवि
: मृगांकशतकम् कक्कोण (18 वीं शती) : कान्तिमतीपरिणयम् कल्पेश्वर दीक्षित : रामचन्द्र यशोभूषणम् कडवानतयेडवालात : सन्तानगोपाल काव्यम् केरलीय-19 वीं शती कथानाथ
: प्रह्लादविजयम् कमललोचन
: 1 संगीतामृत
2 संगीतचिंतामणि
: रसिकबोधिनी
कालीप्रसाद कालीहरदास बसु काशीचन्द्र काशीनाथ
: मुग्धबोध टीका : 1वृत्तरत्नाकर
2 शृंगारतिलकम् 3 शृंगारसार
4 श्रुतबोध : भक्तिदूतम् : चैतन्यचरितम् : उद्धारचन्द्रिका : 1 संक्षिप्त कादम्बरी
2 रामचरितम् : वैदेहीपरिणय काव्य
काशीनाथ कवि (10-20 वीं शती) डॉ. काशीप्रसाद जायस्वाल और ए. बेनर्जी काशीलक्ष्मण काश्यप
: मिथिला के हस्तलिखित
ग्रंथों का चार खंडों में
प्रकाशन : शहाजीराजीयम् : अन्यापदेशशतकम्
498 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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किशोरविलास
: गोपालचम्पू कुंजुकूथान ताम्पूरान : यादवविजयम् (केरलवासी) कुन्दुकुरी रामेश्वर : पार्वतीपरिणय-चम्पू कुन्दुककहटण ताम्पूरान् : बभ्रुवाहन-चम्पू (क्रांगनूर-केरल-निवासी) कुर्तकोटी (शंकराचार्य) : समत्वगीतम् (नासिक 'महाराष्ट्र' में (भारतीय राष्ट्रीयता का निवास)
प्रतिपादन) कुलचंद्र शर्मा
शोकमहोर्मि काव्य (काशी निवासी)
महारानी व्हिक्टोरिया के
निधन निमित्त) कृष्ण
1 पद्मनाथचरितचम्पू 2 वृत्तदीपिका 3 सुभाषितरत्नाकर 4 जयतीर्थ विजयाब्धि 5 सेतुराजविजयम्
6 सत्यबोध-तत्त्वजयम् कृष्ण कवि
1 रघुनाथ विजयचम्पू 2 नन्दिचरितम् 3 प्रजापतिचरितम् 4 सत्यबोधविजयम्
(मध्वाचार्य का चरित्र) कृष्णचंद्र तालंकार : चन्द्रदूतम् कृष्णदेव दास
: कर्णानन्द चम्पू कृष्णदेव
: प्रस्तारपतनम् कृपणनाथ
: धर्मसिन्धुः (महाराष्ट्रीय) कृष्णनायर व्ही.पी. : मदिरोत्सवः (उमरखय्याम (एर्णाकुलम्-निवासी) की रुबाइयों का अनुवाद) कृष्ण (अय्या) दीक्षित : नैषधपारिजातम्
(द्वयर्थी काव्य) कृष्ण बॅनर्जी
: गीतावृत्तसारः (सन 1850) कृष्णभट्ट
: छन्दोव्याख्यासार कृष्णम्माचार्य आर. : 1 मेघसन्देश विमर्श पिता-परवस्तु रंगाचार्य 2 सुशीला (गद्यकथा) (सहदया पत्रिका के 3 पातिव्रत्यम् संपादक)
4 पाणिग्रहणम्
5 वररुचिः कृष्णमिश्र
1 श्राद्धकाशिका (कात्यायन कृत श्राद्धसूत्र की वृत्ति)
2 कृष्णलीला के.व्ही. कृष्णमूर्ति शास्त्री : शुनकदूतम्
कृष्णमूर्ति (पुणे निवासी) : 1 सतीविलासकाव्यम्
2 मत्कुणाष्टम् कृष्णमिश्र
1 रत्नार्णव (सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या) 2 भावप्रदीप (शन्दकौस्तुभ की टीका) 3 तत्त्वमीमांसा
(विजयसांख्यदर्शन) कृष्णय्याचार्य
: रामचर्यामृतचम्पू कृष्णराज
: वृत्तरत्नाकर कृष्णराम
: 1 वृत्तमुक्तावली
2 छन्दःसुधाकर कृष्णराव
: संगीतसर्वार्थसंग्रह कृष्णरूप
: चमत्कारचन्द्रिका
(कृष्णभक्तिपरक) कृष्णशास्त्री
: 1कृष्णविजयचम्पू
2 बालरामरसायनम् कृष्णसोमयाजी
कणःलुप्तः गृहं दहति (टालस्टाय के "ए स्पार्क निगलेक्टेड बर्न्स दी
हाऊस" का अनुवाद) कृष्णानंदवाचस्पति
नाट्यपरिशिष्टम् (नाट्यद्वारा व्याकरण के पाठ)
कृष्णनाथ न्यायपंचानन : वातदूतम् कृष्णावधूत पंडित : गीतम् (ईहामृग) कैपलर
: संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी केरलवर्म वलियक्वैल : व्हिक्टोरिया चरितसंग्रहः केलाडी बसवप्या नायक : सुभाषित-सुरद्रुमः केशव
: 1 रामाभिषेकम्
2 आनन्दवृन्दावन चम्पू
3कामप्राभृतक केशव दीपक (काठमांडू : "जयतुसंस्कृतम्' पत्रिका निवासी)
के संपादक केशव स्वामी
: शब्दकल्पद्रुम केशवभट्ट
: प्रस्तावमुक्तावली
(सुभाषितसंग्रह) केशवार्क
: कृष्णक्रीडा डा. कैलाशनाथ द्विवेदी : 1 गुरुमाहात्यशतक (कानपुर के निवासी) 2 कुसुमांजलि
3 कालिदासीयम्
4 संस्कृतनिबंधनिचय कोकनाथ (18 वीं शती) : शेवन्तिकापरिणयम्
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 499
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कोचा नरसिंहाचारलु : जॉर्ज महाराजविजय (1911
में तिरुपति में मुद्रित) कौण्डिण्य वेंकट- 18 वीं : रसिकरसोल्लास-भाण शती का अंतिम चरण कौतुकदेव
1 अनंगदीपिका 2 रतिसार 3 रतिचन्द्रिका
4 शृंगारकुतूहल 'कौशिक वेंकटेश
श्रीभाष्यकारचरितम्
(रामानुजाचार्य का चरित्र) क्षेमकरण मिश्र शास्त्री वृत्तरागास्पद क्षेमकर्ण
: रागमाला (सन् 1570) गन्धर्वराज
: रागरत्नाकर पी. गणपतिशास्त्री :: वयोनिर्णयः गणेशदत्त शास्त्री : पद्मचंद्रकोश गणेशपण्डित
: विषहरमंत्र (जम्मूनिवासी)
(आयुर्वेदविषयक) गदाधरभट्ट
: रसिकजीवनम् गरुडवाहन पंडित
दिव्यसूरिचरितम् (तमिलनाडु के वैष्णव
आलवार संतों के चरित्र) गलगली पंढरीनाथाचार्य : साप्ताहिक वैजयन्ती (कर्नाटक में बाललकोट पत्रिका के संपादक) के निवासी) गिरिजाशंकर मेहता : संस्कृत-गुजराती शब्दादर्श गिरिधरदास
: रामकथामृतम्
गोकुलनाथ मैथिल : अमृतोदयनाटकम् गोडबोले, नारो अप्पाजी : संस्कृत- मराठी कोश। गोपालदास
: वल्लभाख्यानम् गोपाल पिल्लै, एन. : सीताविचारलहरी
(चिन्ताविष्टयाय सीता नामक मलयालम् काव्य का
अनुवाद) गोपालाचार्य रा.व्ही. संन्देशद्वयसारास्वादिनी
(दो दूत काव्यों का
समालोचन) गोपालाचार्य ए.
यदुवृद्धसौहार्दम् (विषयसप्तम एडवर्ड का
राज्यत्याग) गोपीनाथ
: 1. रघुपतिविजयम्।
2. सुभाषितसर्वस्वम् गोवर्धन (पिता- : घटखर्परकाव्य टीका घनश्यामकवि) गोविन्द
: 1. संगीतशास्त्रसंक्षेप
(वेंकटमखी के मत का खडन)
2. तालदशाप्रमाणदीपिका गोविन्दजित्
: सभ्यालंकरणम्
(सुभाषितसंग्रह) गोविन्दनाथ
: 1. गौरीकल्याणम्
2. शंकराचार्यचरितम गोविन्दशर्मा : मुग्धबोध की टीका गोविन्दान्तरवाणी : रुक्मिणीपाणिग्रहणम् गौतम
: सभ्यभूषणमंजरी गौरीनाथ शास्त्री
: शांकरभाष्यगांभीर्य
निर्णयखंडनम् ग्रेब्ज हाग्रून
:: डिक्शनरी ऑफ बेंगाली
अॅण्ड संस्कृत। घण्टावतार
: सीताविज़यचम्पू घाशिराम
: पद्यमुक्तावली
(सुभाषित संग्रह) घट्टशेषाचार्य
सपिण्डीकरणनिरास(19 वीं शती)
नाटकम् घनश्याम शास्त्री
1. मानसतत्त्वम्।
2. पाश्चात्यप्रमाणतत्त्वम्। चण्डशिखामणि
शिवगीतमालिका चण्डीसूर्य
उदारराघवम् चन्द्रचूड
: प्रस्तावशिखामणि
(सुभाषितसंग्रह) चन्द्रशेखर
: 1. अभिनयमुकुरः
गिरिधरशर्मा (झालवाड संस्थान के राजगुरु) गिरिसुंदरदास गीताचार्य
: अमरसूक्तिसुधाकर
(उमरखय्याम की रुबाइयों का अनुवाद - सन 1929)
गोपालविजयम् : कृष्णराजोदयचम्पू
(मैसूरनरेश कृष्णराज
वोडियर का चरित्र) : कार्तिकेयविजयम् : कोकिलसन्देशम् : गुमानीशतकम् (महाभारत
के दृष्टांत द्वारा नीतिबोध इस शतक का विषय है) देवीस्तवराज
गीर्वाणेन्द्र यज्वा गुणवर्धन गुमणिक
गुरुदयालु शर्मा (दिल्ली निवासी) गुस्ताव ओपर्ट
दक्षिण भारत के व्यक्तिगत संस्कृत संग्रहों की सूची-2 खंडों में प्रकाशित की।
500 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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2. संगीतलक्षणम्
3. भरतसार-संग्रह चन्द्रशेखर
: पिता के प्रचण्डराहूदय नाटक (पिता घनश्यामकवि की टीका चम्पकेश्वर
पदार्थमाला (विषय- शांकराद्वैत तथा
माध्वमत का खंडन)। चक्रपाणि
: कलाकौमुदीचम्पू चक्रपाणि दीक्षित : दशकुमारचरितम् का
उत्तरार्ध। चक्रवर्ती वेंकटाचार्य : 1. दिव्यचापविजयचम्पू
2. सुभाषितमंजरी चारुदेवशास्त्री
: 1. प्रस्तावतरंगिणी
2. गान्धिचरितम् चिक्कदेवराय
भरतसारसंग्रह चितले, कृष्ण वामन : लोकमान्यतिलकचरितम्।
(बालबोध पुस्तक) चित्रधर
: शृंगारसारः। चिन्नबोम भूपाल : संगीतराघवम्। चिन्मयानन्द
: भारतीविद्या के संपादक (फतेहगढवासी) डा. चिलकूरी नारायणराव : विक्रमाश्वत्थामीय-व्यायोग (अनन्तपुर, आंध्र में संस्कृत प्राध्यापक)
: 1. माधवचम्पू चिरंजीव
2. विद्वन्मोदतरंगिणी चैतन्यचन्द्र
: राधारसमंजरी जगदीश्वर भट्टाचार्य : हास्यार्णव-प्रहसनम् जगदेकमल्ल
: संगीतचूडामणि प्रतापचक्रवर्ती (12 वीं शती) जगद्गुरु
वृत्तकौमुदी जगबन्धु
: आरब्ययामिनी
(अरेबियन नाइटस् का
अनुवाद) जगद्धर
: वसन्तोत्सव जगन्नाथ, पिता-राम : 1. छन्दःपीयूष
2. सुभाषितरंगसारः जगन्नाथ स्वामी
: रामकृष्णकथामृतम्
(महेन्द्रनाथ कृत मूल
बंगाली ग्रंथ का अनुवाद) जनार्दन
: 1. वृत्तप्रदीपः ।
2. शृंगारशतकम्। जयन्त
: रसरत्नाकर-भाण जयन्तभट्ट
सन्मतनाटकम्।
जयदेव
: रतिमंजरी जयनारायण
: 1. शंकरसंगीतम् (पिता-कृष्णचंद्र) 2. शंकरीगीतम् जयमंगलाचार्य : कविशिक्षा (राजस्थानी । समय 12 वीं शती) जयराज
: न्यायसिद्धान्तमाला
(न्यायसूत्रों की टीका) जानकीनाथ शर्मा : न्यायासिद्धांतमंजरी (16-17 वीं शती) जाबालि
: जाबलिस्मृति (भृगुकुलोत्पन्न) जिनेश्वर
: छन्दोनुशासनम् जीवदेव
: भक्तिवैभवम् जीवनजी शर्मा : बालकृष्णचम्पू जीवन्यायतीर्थ : 1. संस्कृतायोगप्रश्नावली (कलकत्ता निवासी) प्रतिवचनम् (पद्यमय)
2. पुरुषरमणीयम्
3. क्षुत्क्षेमम्। जीवराज
1.रागमाला (पिता-व्रजराज)
2. रसतंरगिणीसेतु पितामह-सामराज टीकाग्रंथ) दीक्षित)
3. गोपालचम्पू जीवरामोपाध्याय
1. अभिनव-तालमंजरी 2. अभिनव-रागमंजरी
3. आदर्श-गीतावली जेम्स डी अलीज : भारतीय संस्कृतग्रंथसूची
(कोलम्बो में सन् 1870
में प्रकाशित) जोन्स (सर विलियम : हस्तलिखित संस्कृत ग्रंथों तथा लेडी जोन्स)
की प्रथसूची। प्रकाशन
1807 में जोसिलबेंडाल
केंम्ब्रीज वि.वि. के संस्कृत (और राईस
और पाली ग्रंथों की सूची डेव्हिडस)
प्रकाशन- 1883 में जोशी, वेंकटेशशास्त्री : राजनीतिकोश
(कालिदास खंड) विषयराजनीति-विषयक कालिदास
के वचनों का संग्रह। ज्यूलियस, एगलिंग : सन 1887 में और
सन 1896 में लंदन से संस्कृत संपादन एवं
ग्रंथसूचियों का प्रकाशन। ज्योतिरीश्वर (कविशेखर): पंचसायक
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 501
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घटनाओं पर आधारित तीन नाटक :1. प्रतिक्रिया 2. वन ज्योत्स्रा 3. धर्मस्य सूक्ष्मा गतिः। कृष्णभूषणम्। अन्योक्तिशतकम् पटना के जैन ताडपत्रीलेखों की सूची (1937 में बडोदा से प्रकाशित)
दत्तात्रेय
:
दर्शनविजयगणी दलाल सी.डी. (और एल.बी.गांधी)
दशपुत्र सदाशिव दामोदर दामोदरन् नंबुद्री (19 वीं शती)
: अधरामृतचन्द्रिका : वाणीभूषणम् : 1. कुलशेखरविजय
(नाटक) 2. अक्षयपत्रम् (व्यायोग)
3. मन्दारमालिका (वीथी) : संगीतदर्पणः।
झलकीकर, भीमाचार्य : न्यायकोश
(विविध शास्त्रों के पारिभाषिक शब्दों
का विवरण) झलकीकर,
बालबोधिनी वामनाचार्य
(काव्यप्रकाश की बृहत्
टीका) दुण्ढिराज
: शहाजिविलासगीतम् तर्कपंचानन भटाचार्य : अमरमंगलम्। तलेकर, अनन्तशास्त्री : संस्कृत- मराठीकोश ताडपत्रीकर
विश्रवमोहनं (नाटक), (पुणे-निवासी) विषय- जर्मन महाकवि गटे
के फाउस्ट नामक नाटक का
अनुवाद ताताचार्य
मेनका (डोरास्वामी अयंगार (उद्यानपत्रिका के
के तामिल उपन्यास का संपादक । तिरुवायूर अनुवाद) निवासी) ताताचार्य (एम.के.) : भारतीमनोरथम्
(राष्ट्रवादी काव्य) तिम्मयज्वा
: कृष्णाभ्युदयम्। तिरुमलकोणाचार्य : रघुवीरवर्यचरितम् तिरुमल द्वादशाह-याजी : सुमनोरमा
(सिद्धान्त कौमुदी की टीका) के. तिरुवेंकटाचार्य : अमर्षमहिमा तिरुवेंकटाचार्य : तुलसीदासकृत (मैसूर निवासी)
रामचरितमानस का संस्कृत
अनुवाद तोप्पल दीक्षित
प्रकाश (सिद्धान्तकौमुदी की
व्याख्या) त्रिपुरान्तक कवि
याचप्रबन्धः (वेंकटगिरि के याचवंश का
इतिहास त्रिलोचन
तुलसीदूतम् त्रिविक्रम
पंजिका उद्योत त्रिविक्रमशास्त्री
कृष्णराजगुणावलोकः (मैसूरनरेश कृष्णराज
वोडियर का चरित्र) त्रिवेणी
: भंगसंदेशम्। त्र्यंबकभट
: प्रतिष्ठेन्दुः त्र्यंबकशास्त्री : 1. भाष्यभानुप्रभा।
2. श्रुतिमतोद्योतः
3. अद्वैत सिद्धान्त वैजयन्ती। बी.के. थम्पी (केरलवासी) राजस्थान की ऐतिहासिक
दामोदर मिश्र (16-17 वीं शती) दिनेश दिवाकरदत्त शर्मा (शिमला निवासी) दीखित, डी.आर. दुर्गगुप्त सिंह
: राधाविनोदम् : दिव्यज्योति पत्रिका संपादन
1955 से : पुराणशब्दानुक्रमणिका : दुर्गवृत्ति
(अर्थात् कातंत्रवृत्ति-टीका) ": कातंत्रवृत्ति
दुर्गासिंह (ई.7 वीं शती) (अन्यनाम दुर्गात्मा) दुर्गादत्त
: 1. वृत्तरत्नावली
2. वृत्तमुक्तावली। : कविकल्पद्रुम के टीकाकार : आर्याद्विशती : वृत्तविवेचन : धर्मादर्शः : वेंकटगिरिमाहात्म्य : प्रसन्नरामायणम्
दुर्गादास दुर्वास कवि दुर्गासहाय देवकृष्ण देवदास देवर दीक्षित (पिता-श्रीपाद) देवराजदेशिक (पिता- पद्मनाभ) देवराज (पिता- रघुपति) देवराव और गंगाराव देवसहाय देवानन्द पूज्यपाद
.: 1. रामाभिषेकचम्पू
2. रामकथासुधोदयचम्पू : अनिरुद्धचरितचम्पू
: नानकचन्द्रोदयम् : पाणिनीयसूत्रवृत्ति (टिप्पणी) : राधवोल्लास
502 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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नारायण
नारायण नारायणकवि
नारायण पुरोहित नारायणसुधी
नारायण स्वामी नारायण शिवयोगी नारायण (पिता-त्रिविक्रम)
(नेपाल दरबार पुस्तकालय में
हस्तलिखित सुरक्षित) . : शाहराज नक्षत्रमाला
(27 श्लोक) : वृत्तरत्रावली : 1.सुभगसंदेशम्
2. संगीतसारः : वृत्तकारिका : अष्टाध्यायीप्रदीपः
(अन्यनाम-शब्दभूषणम्) : अनुरागरसः। : नाट्यसर्वस्वदीपिका : 1. मध्वविजयः
2. अणुमध्वविजयः 3. मणिमंजरी
4. राघवेन्द्रविजयम् : शतपथान्तर्गत
मण्डलब्राह्मण का भाष्य : आश्लेषा : संगीतनारायणः : 1. तर्कसंग्रहटीका
2. आर्याशतकम्
3. मुकुन्दविलासः : समवृत्तसारः : विक्रमराघवीयम् : माधवसाधना (नाटक
नारायणेन्द्र सरस्वती
देवेश्वर उपाध्याय : स्त्रीविलासः देवीदास
: मुग्धबोध की टीका द्वारकाप्रसाद चतुर्वेदी : संस्कृतशब्दार्थ- कौस्तुभः । (और तारिणीश झा) द्विजेन्द्रनाथ गुहचौधरी : 1. आर्यभाषाचरितम्
2. देवभाषा देवनागराक्षरयोः उत्पतिः।
(ये दोनों गद्य निबंध हैं) धरणीधर . : रसंवतीशतकम् नंदकिशोर भट्ट : मुग्धबोधव्याकरण का (15 वीं शती)
परिशिष्ट एवं टीका नरेशशास्त्री के.जी. : परिणयमीमांसा (10 वीं शती) नन्दन
: प्रसन्नसाहित्यरत्नाकरः नरसप्पा मन्त्री : अभिनवभारतम् नरसिंह
: गुणरत्नाकरः, विषय
अलंकारों के उदाहरणार्थ तंजौरनरेश सरफोजी भोसले
के गुणों का वर्णन नरसिंह
: अनुमितिपरिणयम् (मद्रासनिवासी) (न्यायशास्त्रविषयक नाटक) नरसिंह
: कोकिलसंदेशम् नरसिंह चार्लु : चित्सूर्यालोकः (नाटक) (19 वीं शती) नरसिंहतात
: रुक्मिणीवल्लभपरिणयचम्पू। . नरसिंहदत्त शर्मा : राजभक्तिमाला (अमृतसर निवासी) (ई. 1929) नरसिंह सूरि- : कृष्णविलासचम्पू पिता-अनन्तराय नरहरि चक्रवर्ती : भक्तिरत्नाकरः नल्ला सोमयाजी : जीवम्मुक्तिकल्याण। नवनीतकवि : मार्गसहायचम्पू। नागनाथ
: महाभाष्य- प्रदीपोद्योतः। नागेशभट्
: 1. व्यंजनानिर्णयः।
2. युक्तिमुक्तावली (केशवमिश्र की तर्कभाषा
पर टीका) व्ही.एन. नायर : अनुग्रहमीमांसा (मलबार निवासी) (विषय-जंतुरोगचिकित्सा) के. नागराजन् : विवेकानन्दचरितम् के.के.आर. नायर : आलस्यकर्मीयम्। नारायण एस.
: आंग्लगानम् नारायण
: 1. महाभाष्यविवरणम्
2. महाभाष्यप्रदीपः
नारायण पंडित नारायण देव नीलकण्ठ
नीलकण्ठार्य नूतनकालिदास नृत्यगोपाल कविरत्न (19 वीं शती)
नृसिंह
नृसिंह भागवत नृसिंहसूरि
: 1. शिवदयासहस्रम्
2. कृष्णदूतम् 3. पुरुषोत्तमचम्पू 4. त्रिपुरविजयचम्पू 5. आंजनेय विजयचम्पू 6. व्याख्यान
(प्रक्रियाकौमुदी टीका) : वृत्तरत्नार्णव : श्रीशैलकुलवैभवम्
(विषय- रामानुजाचार्य का चरित्र) सूक्तिरत्नावली (टाइम्स ऑफ इंडिया के कतिपय दैनिक सुभाषितों
का पद्यानुवाद) : वीरचम्पू
पंडित, प्रभाकर दामोदर (जलगांव- महाराष्ट्र) के निवासी पद्मानन्द
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकर खण्ड / 503
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पद्मनाभ
: रामखेटकाव्यम् पद्मनाथ भट्ट : गोपालचरितम् परमानन्ददास
: आनन्दवृन्दावनचंपू परवस्तु रंगाचार्य : आंग्लाधिराज्य- स्वागतम् परशुराम
: कृष्णचम्पू परवस्तु लक्ष्मी- : चालुक्यचरितम् नरसिंहस्वामी पांडुरंगशास्त्री
: सत्याग्रहकथा पात्राचार्य,
: रघुनंदनविलास पापय्याराध्य
: कल्याणचम्पू पितामह नरसिंह : प्रक्रियाकल्पवल्ली पीटरसन
सन् 1883, 1892
और 1898 में संस्कृत ग्रंथों की सूचियों
का प्रकाशन- छः खंडों में पुणतांबेकर, महादेव तर्कसंग्रह की टीका पुण्यकोटि
: कृष्णविलास । पुरुषोत्तम
: सुभाषितमुक्तावली पुरुषोत्तम मिश्र :: रामचन्द्रोदय पूर्णानंद हषीकेश : पूर्णज्योति पेट्भट
: सूक्तिवारिधि पेरी काशीनाथशासी : 1. द्रौपदीपरिणयम् (19वीं शती)
2. पांचालिंकारक्षणम्
3. यामिनीपूर्णतिलक पेगिनाडु
: ताटंकप्रतिष्ठा- महोत्सव पंचपागेशशास्त्री प्रधान, दाजी शिवाजी : रमामाधव . प्रभाकर
: 1.गीतराघवम्
2. कृष्णविलासः प्रीतिकर
: काव्यजीवनम् फतेहगिरि
: वृत्तविनोद बंदलाझडी रामस्वामी : रामचम्पू बदरीनाथ :: वृत्तप्रदीपः बदरीरामशास्त्री : शम्बरासुरविजयचम्पूः बागेवाडीकर : 1. क्रान्तियुद्धम् (सोलापूर- महाराष्ट्र 2. लोकमान्यतिलकचरितम् के निवासी बालकृष्ण
: रामकाव्यम् बुद्धिसागरसूरि बेन्के
: संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी ब्रह्मदत्त
: रमणीयराघवम् ब्रह्मपण्डित
: उत्तरचम्पू ब्रह्ममित्र वैद्य : भैरवविलास. भगवद्गीतादास : नूतनगीतावैचित्र्यविलास ।
भगवद्दत्तशास्त्री : कामायनी
(जयशंकर कृत हिंदी
महाकाव्य का अनुवाद) भगवानदास
: मानवधर्मसार (वाराणसीवासी) भट्टकृष्ण
: सुभाषितरत्नकोश भट्टगोविंदजित् : संग्रहसुधार्णवः
(सुभाषितसंग्रह) भट्टनाथस्वामी : जॉर्जप्रशस्तिः (विजगापट्टणवासी) भट्टनारायण : 1. कुचेलवृत्रम्
2. कृष्णकाव्यम् भट्टपल्ली राखालदास : तत्त्वसारः । भट्टमाधव
: 1. संगीतदीपिका (14 वीं शती)
2. संगीतचंद्रिका भट्टविनायक : कौषीतकी अथवा शांखायन (पिता- भट्टमाधव, ब्राह्मण के भाष्यकार वृद्धनगर के निवासी) भट्ट श्रीकृष्ण
: सुभाषितरत्नकोशः भट्टाचार्य
: शृंगारतटिनी भट्टाचार्य तर्कपंचानन : अमरमंगलम्
(ऐतिहासिक नाटक) भद्रादि रामशास्त्री : मुक्तावलीनाटकम् (19 वीं शती) भद्रेश्वरसूरि
: दीपकव्याकरणम् (12 वीं शती) भवानन्द ठाकुर : सदर्पकन्दर्पम् भागवत,
: अहल्याचरितम् सखारामशास्त्री
(महाकाव्य) भाटवडेकर एस.के. : सुभाषितरत्नाकरः भानुदत्त (पिता-गणपति): कुमारभार्गवीयचम्पू: भानुदास
: गीतगौरीपति भानुनाथ दैवज्ञ : प्रभावतीहरणम् (मिथिला के निवासी (कीर्तनीयारूपक) 19 वीं शती) भारद्वाज
: 1. कृष्णायनम् (सात सर्ग)
2.वृत्तसारः भावदत्त
: रत्नसेनकुलप्रशस्तिः।
(बंगाल के सेन वंश
का इतिहास) भावमिश्र
: शृंगारसरसी। भावानन्द
: सदर्पकन्दर्पम् भाष्यकार
: यादवशेखरचम्पू: भास्कर
: कृष्णोदन्तः
504 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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विद्यावाचस्पति मल्लभट्ट हरिवल्लभ
(वैदिकशब्दकोश) : जयनगरपंचरंगम्
(जयपुर के नरेशों का वर्णन) : शिवलिंगसूर्योदयम्
मल्लारि आराध्य (पिता-शरवणाराध्य)
भास्कर
: कुमारविजयचम्पू: (पिता-शिवसूर्य) भास्कराध्वरी :: वृत्तचन्द्रोदयः भिडे, विद्याधर वामन : संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी भीमदेव
: श्रुतिभास्करः भीमनरेन्द्र
: 1.संगीतराजः ।
2. संगीतकलिका
3. संगीतसुधा भीष्मचन्द्र
: वृत्तदर्पणः भुला पंडित
: ब्रह्मसिद्धान्त भुवनेश्वर
: आनन्ददामोदर चम्पूः भूदेव मुखर्जी : रसजलनिधिः भूषणभट्ट
: बाणभट्ट की कादम्बरी का (पिता-बाणभट्ट) उत्तरार्ध भोलानाथ
: संदर्भामृततोषिणी
(मुग्धबोध व्याकरण की
व्याख्या) भोसदेव
: संगीतसारकलिका . (शुद्धस्वर्णकार) मंगलदेवशास्त्री डा. प्रबन्धप्रकाशः (वाराणसी निवासी) (छात्रोपयोगी पुस्तक) मणिराम
: ग्रहगणितचिन्तामणि मतंग
: बृहद्देशीय . मथुरादास
: वृषभानुनाटिका (गुरु-कृष्णदास) (यमुनातीरवर्ती सुवर्ण शेखर-पुरनिवासी) मथुरानाथ
: 1. छन्दःकल्पलता
2. सुभाषितमुक्तावली 3. यन्त्रराजघटना
4. ज्योतिष सिद्धान्तसारः मथुरानाथ शुक्ल : वृत्तसुधोदय मदन (पिता-कृष्ण) : कृष्णलीला मदनपाल
: संगीतशिरोमणिः (14 वीं शती) मधुव्रत
: रामरत्नाकरः मधुसूदन
: 1. मुग्धबोधव्याकरण की टीका 2. पंडितचरित-प्रहसनम् 3. अन्यापदेश-शतकम्
4. जानकीपरिणय-नाटकम् मधुसूदन तर्कालंकार : इंग्लंडीय व्याकरणसारः
(1835 में प्रकाशित) मधुसूदन
निघण्टमणिमाला
मल्लारि
: वृत्तमुक्तावली मल्लिकार्जुन : वीरभद्रविजयचम्पू महादेव पांडेय : भारतीशतकम् महानंदधीर
: काव्यकल्पचम्पू महेश्वर
: विश्वप्रकाशकोश माधव
: उद्धवदूतम् माधव
: जडवृतम् माधव चन्द्रोबा : शब्दरत्नाकर
(संस्कृत-मराठी कोश) माधवभट्ट
: प्रणयिमाधवचम्पू माधवानन्द
: आनन्दवृन्दावनचम्पू माधवामात्य
: नरकासुरविजयम् माधवाचार्य
: संक्षेप-शंकरविजय मानकवि
: शृंगारमंजरी मानदेव
: कृष्णचरितम् मानसिंह
: वृन्दावनमंजरी मिश्र सानन्द
: वृत्तरत्नाकर मुकुंद कवि
: पद्यावली (सुभाषितसंग्रह) मुड्डु विठ्ठलाचार्य : पलाण्डुप्रार्थना मुद्गल
: कर्णसन्तोष मुनिवेदाचार्य : सुभाषितरत्नाकरः मेरुतुंग
: जैनमेघदूतम् (15 वीं शती)
(विषय-नीति तत्त्वोपदेश) मैत्रेय रामानुज : नाथमुनिविजयचम्पू
(रामानुजाचार्य का चरित्र) मोडक, गोविन्द कृष्ण : चोरचत्वारिशीकथा
(अरेबियन नाइटस् की एक
कथा का अनुवाद) मोतीराम
: 1. कृष्णचरितम्।
2. कृष्णविनोदम्। मोनियर विल्यम्स : संस्कृत-इंग्लिश डिक्शनरी। मोहनशर्मा .: अन्योक्तिशतकम् मोहनस्वामी
: रामचरितम् मोहनानन्द
: रासकल्पलता यज्ञस्वामी, म.म. : त्यागराजविजयम् । विषय
लेखक के पितामह का चरित्र योगध्यान मिश्र : क्षेत्रतत्त्व-दीपिका
(विषय- भूमितिशास्त्र)
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2. देव्यशीतिकम् : रामलीलोद्योतः
रमानाथ (पिता-बाणेश्वर) रविकर रविदास रवीन्द्रकुमार शर्मा रागकवि राघव
: वृत्तरत्नावली : मिथ्याज्ञानखंडनम् : मानवप्रजापतीयम् (काव्य : रागलक्षणम् : 1. भद्राचलचम्पू
2. उत्तरकाण्डचम्पूः । : 1. काकदूतम्
2. रुबाइयों का अनुवाद
(1940) : कविकार्यविचार :
एम.आर. राजगोपाल अय्यंगार
राजगोपालचक्रवर्ती
यज्ञेश्वर दीक्षित और बौधायन श्रौतसूत्र व्याख्या वासुदेव दीक्षित यदुगिरि अनन्ताचार्य : कृष्णराजकलोदयचम्पू
(मैसूरनरेश का चरित्र) यदुनन्दनदास : विलापकुसुमांजलि
कृष्णवियोग यलंदुर श्रीकण्ठशास्त्री : जगद्गुरुविजचम्पू । यशःपाल
: मोहपराजयम् (14 वीं शती) यशपाल टंडन : पुराणविषयानुक्रमणिका यशवन्त
: वृत्तधुमणिः। यशवन्तसिंह
: वृत्तरत्नाकरः यादवप्रकाश
: वैजयन्तीकोश यादवेश्वर तर्करत्न : अश्रुबिंदुः (ई. 1901)
(महारानी व्हिक्टोरिया
का निधन) येडवाथि कोडमानीय : रुक्मिणीस्वयंवरप्रबन्धः नंद्रीपाद योगानन्द
: वज्रमुकुटविलासचम्पूः । योगेन्द्रनाथ
: दशाननवधम् रंगनाथ
: सम्पत्कुमारविलासचम्पू: रंगाचार्य
: 1. मयूरसंदेशम्। पिता- रघुनाथ
2. पिकसन्देशम् 3. प्रेमराज्यम् (व्हिकार ऑफ् वेकफिल्ड नामक अंग्रेजी उपन्यास
का अनुवाद) रघुदेव नैयायिक : दिनसंग्रहः (बंगाल निवासी) (विषय- फलज्योतिष)
: 1. विलापकुसुमांजलि
2. संगीतप्रकाश 3. रागादिस्वरनिर्णय 4. वृत्तसिद्धान्तमंजरी। 5. मारुतिविजयचम्पू। 6. इन्दिराभ्युदयचम्पू।
7. रामचरित्रम् रघुनाथप्रसाद
: भरतशास्त्रम् रघूत्तमतीर्थ
: मुकुन्दविलासः। रत्वाराध्य
: दारुकावनविलासम्। रत्नपाणि
: मैथिलेशचरितम्
(दरभंगा के
राजवंश का वर्णन) रखशेखर
: छन्दःकोश रमणपति
.: 1. शृंगारकोशः
राजचूडामणि : 1. रुक्मिणीकल्याणम्
(10 सर्ग) 2. कंसवधम् (10 सगे) 3. भारतचम्पू। 4. आनंदराघवम्। 5. कमलिनीकलहंसम्।
6. शृंगारसर्वस्वभाण। राजानकगोपाल :: शिवमाला राजे, श्या. वि. : साहित्यविनोदराजः (कल्याण में वकील) राजनृसिंह
: शब्दबृहती
(महाभाष्य की व्याख्या) राजा माधवदेव : रतिसार। राजराजवर्मा : 1. लघुपाणिनीयम् (त्रावणकोर के : 2. विशाखतुलाअधिपति)
प्रबन्धचम्पूः। राजवल्लभशास्त्री : नृसिंहभारतीचरितम्
(नृसिंहभारती शंगेरी
के शंकराचार्य थे) राधाकृष्णजी
1. आनंदगानम् 2. कल्याणकल्पद्रुमः। 3. गानस्तवमंजरी 4. जोगविहारकल्पद्रुमः। 5. दोलोत्सवदीपिका 6. धर्मसंगीतम्
7. गजलसंग्रहः । राधा मोहन
: 1. संगीततरंगम्
2. संगीतरत्नम्। राधामोहन शर्मा न्यायरत्न : भक्तिमार्ग राम
: 1.कंसनिधनम्।
(घुनाथ
506 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रथकार खण्ड
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2. वर्णलघुव्याख्यानम्। : अलंकारमुक्तावली
राम (पिता-नृसिंह) रामकवि
रामकवि (मलबार राजवंशीय) रामकिशोर (19 वीं शती) रामकृष्ण
: 1. गीतराघवम्।
2. गीतगिरीशम्। : 1.सुबालावज्रतुण्डम्।
2. मन्मथमथनम् (डिम) : रुक्मिणीस्वयंवरम्
एम. रामकृष्णभट्ट (बंगलोर निवासी) रामकृष्णभट्
: 1. भार्गवचम्पू:
2. मनोदूतम् : अमृतवाणी पत्रिका का
संपादन : 1. संगीतसारोद्धारः ।
2. रागकौतूहलम्। : 1. वृत्ताभिरामम्
2. गोपाललीला 3. गोविंदलीला
4. कृष्णविजयम् : पौलस्त्यराघवीयम्।
रामचन्द्र
रामवर्मा
: केरलाभरणम्
रामचन्द्र (पुल्लोलवंशीय) रामचंद्र (पिता-केशव-17 वीं शती) रामचन्द्र (रत्नखेट दीक्षित का पोता) रामचन्द्र (पिता- नागोजी) रामचंद्र तर्कवागीश
(विषय- रामचरित्र)
2. चन्द्रशेखरचम्पूः। रामनाथ नन्द
: जयपुरराजवंशावली। रामनाथपाठक : राष्ट्रवाणी (आरा-उ.प्र. के
(75 गीतों का संग्रह) निवासी) रामनाथशास्त्री एस.के. : मणिमंजूषा रामभद्र
: 1. रामविलास
, 2. भागवतचम्पः रामभट्ट
: शृंगारकल्लोलम् रामभद्र विद्यालंकार : मुग्धबोधव्याकरण
(हस्तलेख लंदन में) राममनोहर
: शृंगारमंजरी आर. राममूर्ति : वीरलब्धं पारितोषिकम्
(चोलवंशीय राजा के चरित्र
पर आधारित उपन्यास) रामराय
: राष्ट्रस्मृतिः रामवर्मा, केरल में : कौमुदी (गोल्डस्मिथ के क्रांगनोर के राजवंशी __ हरमिट काव्य का अनुवाद)
: चन्द्रिकाकलापीडम्
(मलबार के राजा रविवर्मा
का चरित्र) राम वारीयर
: आर्यासप्तशती रामशरणभारती : संस्कृतप्रचारकम् (पत्रिका) (दिल्ली-निवासी) रामशर्मा
: प्रस्तावसारसंग्रहः
(सुभाषित संग्रह) रामशास्त्री
: 1. नवकोटि
2. शतकोटि (शेषसिद्धान्त) रामस्वामी
: राजांग्लमहोद्यानम्। रामस्वामीशास्त्री : 1. वृत्तरत्नाकर
2. रामस्तुतिरत्न रामस्वरूप
: बालविवाह-हानिप्रकाशः (एटा के निवासी) रामस्वरूप शास्त्री : 1. बालसंस्कृतम् नामक (मुंबई में वैद्य)
पत्रिका 2. आदर्श हिन्दी
संस्कृतकोशः रावले, श्या.गो. :: मनोबोधः (समर्थ रामदास के
मराठी काव्य का अनुवाद) रामाचार्य
: सत्यभामापरिणयम्। रामाचार्य गलगली : मधुरवाणी- मासिक पत्रिका (बेलगाव-कर्नाटक का संपादन सन 1937 से। के निवासी) रामानन्द
: मुग्धबोध व्याकरण की टीका
: रामचन्द्रचम्पूः
रामचन्द्राचार्य
रामचरण रामजसन रामदयाल तर्करत्न रामदयालु रामदास रामदेव रामनंबुद्री ई.व्ही. (नम्पुतीरी)
: सिद्धान्तकौमुदी की स्वर
प्रक्रिया के अंश पर टीका। : 1. रामविलास
2. साहित्यदर्पण की कृति : शेक्सपीयर के कुछ काव्यों
के अनुवाद : वृत्तकौमुदी : संस्कृत- इंग्लिश डिक्शनरी : अनिलदूतम्। : वृत्तचन्द्रिका : रामचन्द्रोदयम्। : रामगुणाकर। : 1. केरलभाषाविवर्तः
2. महाकविकृत्यम् (विषय- मलयालम् काव्यों
के अनुवाद) : 1. अभिरामकाव्यम्।
रामनाथ
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 507
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रामानन्दतीर्थ
रामानुज
रामानुजदास
रामार्य पी. जी. (19 वीं शती)
रुद्र
रुद्रदास
रुद्रधर
रुद्रभट्ट
लक्ष्मण
(और विद्याधर)
लक्ष्मण (पिता- दामोदर)
लक्ष्मणगोविन्द
लक्ष्मणदान्त लक्ष्मणसूरि लक्ष्मण सोमयाजी
(पिता- ओरगंटी
शंकर)
लक्ष्मणशास्त्री (जयपुरनिवासी)
लक्ष्मणार्य
लक्ष्मीअम्मल
लक्ष्मीनारायण द्विवेदी लक्ष्मीनृसिंह
लालापंडित (काश्मीरवासी) लालमिणिशर्मा
लेबीज राइस
1
:
:
1. संगीतसिद्धान्त ।
2. रामकाव्यम्
1. वल्लीकल्याणसम्
2. रामायणचम्पू
3. विवेकविजयम्
: स्मरदीपिका ।
: चन्द्रलेखा- -सट्टम्
: अष्टाध्यायी की वृत्ति
1. रामानुजचम्पू
2. रामानुजाचार्यचरित्रम्
3. ताताचार्यवैभवम्
(कुकोण के सत्पुरुष कुमार ताताचार्य का चरित्र) 4. रामानुजचरितकुलकम् (भाष्यकार रामानुजाचार्य का चरित्र)
गजनवी महंमदचरितम्
: प्रतिनैषधम् ।
जगन्नाथविजयम्
: 1. रघुवीरविलास ।
:
2. कृष्णवपू
3. सूक्तावली अभिनवरामायणचम्पू
: सीतारामविहार
508 / संस्कृत वाङ्मय कोश
अभिनव रामायणचम्पू सुभगसन्देशम्
: भारतसंग्रहः
: भारतगीता
(इतिहास ग्रंथ) चण्डीकुचपंचशती
ऋतुविलसितम्
1. विलासः (सिद्धान्त
कौमुदी की व्याख्या)
2. जांकुरच
: प्रश्नार्थरत्नावली
(ज्योतिःशास्त्र) 1. जॉर्जप्रशस्तिः । 2. शृंगारकौतूहलम् ।
: मैसूर तथा कुर्ग राज्यों
के हस्तलिखित ग्रन्थों
ग्रंथकार खण्ड
-
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लोचन पंडित
लोलंबराज लौहित्यसेन
बंगदेशीय पंडिता:
वत्सांकमिश्र
कुट्टालवार (11 aff graft)
वल्लभ
वल्लभजी वल्लीसहाय
वरदराज
(पिता- ईश्वराध्वरी)
वरदराज (सुंदरराजाचार्य का वंश)
सी. वरदराजशर्मा
वरदराज यज्वा
एस.टी.जी.
वरदाचारीयर
वांछेश्वर
वाग्भट
वादिशेखर
वामन
(अभिनव बाणभट्ट)
वारणवनेश
वावुर कृष्णमेन वासुदेव (काश्मीरी पंडित) वासुदेव
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:
: प्रस्तावसारः
1
की सूची। 1884 में बंगलोर
में प्रकाशित ।
1. राजतरंगिणी
2. रागसर्वस्वम् सुन्दरदामोदरम्
(सुभाषित-संग्रह)
: धर्मपुस्करस्य शेषांश: न्यू टेस्टामेंट (अपर नाम
प्रभु यीशुष्टेन निरूपितस्य नूतनधर्मनियमस्य मैथसंग्रहः ) (बाइबल का अनुवाद) प्रकाशन 1910
और 1922
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:
1. वैकुठस्तवः
2. सुन्दर
रंजनी
(सिद्धान्तकौमुदी की व्याख्या)
: वृत्तमाला
: 1. शंकराचार्य दिग्विजयः ।
2. काकुत्स्थविजयचम्पूः ।
: कामानन्दम्।
विवरण ( प्रक्रियाकौमुदी की टीका )
: मनोहरं दिनम् ।
: कृष्णाभ्युदयः ।
: भाषाशास्त्रसंग्रहः ।
: भाट्टचिन्तामणि
: शृंगारविलासः । शिवचरित्रम्
: वीरनारायणचरितम्
अमृतसिद्धि (प्रक्रिया
कौमुदी की टीका) : गाथा कादम्बरी : चित्रप्रदीपः ।
: चकोरसन्देशम्
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विश्वेश्वर (रत्नाकर पंडित का वंशज) विश्वेश्वरानन्द और स्वामी नित्यानन्द विष्णुत्रात (ई. 17 वीं शती) विष्णुपुत्र
5. रोमावलीशतका
6. रसचन्द्रिका : 1. निर्णयकौस्तुभः
2. प्रतापार्कः : सामवेदपदानाम् अकारादि
वर्णानुक्रमणिका : कोकसंदेश।
वीरकर कृ.भा.
वीरराघव
वासुदेवदीक्षित : बौधायन श्रौतसूत्र व्याख्या। (यज्ञेश्वर दीक्षित) वासुदेव पण्डित : जगन्मोहनवृत्तशतकम्। वासुदेव सार्वभौम : छन्दोरत्नाकरः (बंगाली) विंटरनिट्झ और कीथ : संस्कृतग्रंथ संग्रह की
सूची-1905 विठ्ठल
: रससर्वस्वम्। विठ्ठलपन्त
: गजेन्द्रचम्पू। विद्याचक्रवर्ती : गद्यकर्णामृतम्। विद्यानाथ दीक्षित : प्रक्रियारंजन
(प्रक्रियाकौमुदी टीका) विद्याभूषण
: 1. ऐश्वर्यकादम्बिनी
(कृष्णचरित्र)
2. पद्यावली। विद्याशंकर
: शंकरविजयः। (शंकरानंद) विनायक
: विरहिमनोविनोदम्। विमलसरस्वती : रूपमाला (ई. 16 वीं शती) (पाणिनीय अष्टाध्यायी की
प्रयोगानुसार व्याख्या) विरूपाक्ष यज्वा
: वृत्तमाला विलोचनदास
: कातन्त्रपत्रिका।
(दुर्गवृत्ति की बृहत् टीका) विश्वंभरनाथ शर्मा : संस्कृत-हिंदी कोश। विश्वक्सेन
: रामचरितम् विश्वनाथ
: 1. संगीतरघुनंदनम् 2. वृत्तकौटुकम् 3. रामचन्द्रचम्पू: 4. कृष्णभावनामृतम्
5. शृंगारवाटिका विश्वनाथ टी.ए. : वल्लीपरिणयम् (नाटक) विश्वनाथ भट्टाचार्य : चैत्रयज्ञम् वाचस्पति विश्वनाथसिंह : गोपालचम्पू: विश्वबन्धुशास्त्री : वैदिकपदानुक्रमकोशः। विश्वशर्मा
: न्यायप्रदीपः
(तर्कभाषा की टीका) विश्वेश्वर
: संकरविवाहम् (वसिष्ठगोत्रीय) विश्वेश्वर
: 1. षऋतुवर्णनम्
2. आर्यासप्तशती 3. आयशतकम् 4. वक्षोजशतकम्
वीरेश्वरभट्ट वृन्दावनदास वेंकट वेंकटकृष्ण (चिदम्बर निवासी) (19 वीं शती) वेंकटकृष्णशास्त्री एस.एस. वेंकटनाथ
: संहितोपनिषद् ब्राह्मण का
भाष्य। : 1. संस्कृतधातुरूपकोश :
2. संस्कृतशब्दरूपकोशः । : 1. भद्रादिरामायणम्
2. शारीरकसुप्रभातम्
3. श्रीगोष्ठीस्तवनार्थस्तवः : अन्योक्तिशतकम्। : रासकल्पसारतत्त्वम् । : चकोरसंदेशम्। : 1. कुशलवविजयम्
(नाटक)
2. उत्तररामायणचम्पू: : 1. विवाहसमयमीमांसा
2. अब्धियानविमर्शः । : 1. सुभाषितनीविः
2. दयाशतकम् : 1. हंससंदेशम् 2. यदुवंशम् 3. मारसंभवम् 4. पादुकासहस्रम्।
5. संकल्पसूर्योदयम् : शिवाष्टपदी
वेंकटनाथ (वेंकटदेशिक)
: चित्रबन्धरामायणम्।
वेंकटप्पानायक (मैसूरनरेश16 वीं शती) वेंकटमखी (17 वीं शती) वेंकटय्या सुधी वेंकटरंगा वेंकटरत्न पंतलु वेंकटरमण (बंगलोर निवासी)
: कुशलवचम्पू। : रामामृतम्। : मार्गदायिनी। : 1. रामगीता।
2. कृष्णगीता। 3. दशावतारगीता। 4. गणेशगीता 5. सद्गुरुगीता 6: शिवगीता। 7. वाणीगीता।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 509
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8. लक्ष्मीगीता 9. गौरीगीता। 10. नवगीतकुसुमांजलि।
सी. वेंकटरमणाचार्य : सनातनभौतिकविज्ञानम् वेंकटराघव
: हयवदनविजयचम्पू: वेंकटराघवशास्त्री : भाष्यगांभीर्य निर्णयखंडनम् वेंकटराघवाचार्य : मन्मथविजयम् नाटक। (19वीं शतीत्रिचनापल्लीवासी)
सी.व्ही. वेंकटराम : कृष्णार्जुनविजयम् दीक्षितर (पालघाट (नाटक) (केरल) के निवासी) आर.एस. वेंकटराम : भाषाशास्त्रप्रवेशिनी शास्त्री वेंकटरामशास्त्री : महीशूराभिवृद्धिप्रबन्धचम्पू एन. वेंकटरामशास्त्री : कथाशतकम्
(अन्यान्य प्रादेशिक कथाओं
का अनुवाद) वेंकटवरद
: कृष्णविजयनाटकम् वेंकटसुब्बा
: 1. गंगाधरविजयम्।
2. जप्पेशोत्सवचम्पूः । वेंकटसूरि
: 1. मार्कडेयोदयम्।
2. गौरीपरिणयचम्पू। वेंकटाचलशास्त्री : अब्धिनौयानमीमांसा। (काशी शेष) वेंकटाचार्य
: रघुनंदनविलासम वेंकटाचार्य सुरपुरम् : बाणासुरविजयचम्पूः । वेंकटाचार्य और अम्मल : रुक्मिणीपरिणयचम्यूः । वेंकटाध्वरी
: सुभाषितकौस्तुभम्। वेंकटेश
: 1. कृष्णामृततरंगिका।
2. हंससंदेशम् 3. श्रीनिवासविलासचम्पूः,
4. रामाभ्युदयम्। वेंकटेश
: वृत्तरत्नाकर। (पिताअवधानसरस्वती) वेंकटेश
: मदनाभ्युदयम् (और कृष्णमूर्ति) वेंकटेश्वर
: कॉफीशतकम् वेणीदत्त
: पद्यवेणी (सुभाषितसंग्रह) (पिता- जगज्जीवन) वेणीदत्त
: वासुदेवचरितम्। वेणीविलास : वृत्तसुधोदयः
वैकुण्ठपुरी
: शान्तिरसम् वैद्यनाथ
: वृत्तवार्तिकम्, रसिकरंजनम् व्रजकान्त लक्ष्मीनारायण : विजयविजयचम्पू: व्रजनाथ
: मनोदूतम् व्रजनाथशास्त्री : व्हिक्टोरियाप्रशस्तिः (पुणे निवासी) डॉ. व्रजमोहन : गणितीयकोशः व्रजराज दीक्षित : रसमंजरीटीका व्रजराज
: आर्यात्रिशती व्रजलाल
: शंगारशतकम् शंकर
: वैष्णवकरणम् शंकरकवि
: गंगावतरणम् शंकरदयालु
: वृत्तप्रत्यय शंकरनारायण : बालहरिवंशम् शकरराम
: नीवी (रूपावतार की
व्याख्या) शंकरआचार्य : कृष्णविजयम् शंकराराध्य
: बसवराजीयम् शठकोपाचार्य
: बालराघवीयम् शंभुकालिदास : रामचन्द्रकाव्यम् शंभुदास
: शृंगारसारसंग्रहः शंभुराम
: छन्दोमुक्तावली शान्तराज पंडित : वृतचिन्तारत्नम् शादिव
: शंकरगीतिः शाधिर
: छन्दोमाला एल्.बी. शास्त्री : 1.लीलाकमलविलसितम्
2. चामुण्डा
3. निपुणिका वेंकटाचल शास्त्री : गोपीचन्द्रचरितम् (अय्या) शिंगराचार्य
: गायकपारिजातः शिन्त्र, शिवरामशास्त्री : 1. सार्थ वेदांग निघंटुः
(वैदिक-मराठी कोश)
2. भारतीशतकम् शितिकण्ठ
: शितिकण्ठरामायणम्
: तिथिपारिजातम् शिवचणरेणु
: कुमारविजयम् शिवराम
: बाणविजयम् शिवरामचन्द्र सरस्वती : रत्नाकरः (सिद्धान्त कौमुदी
की टीका) शिवराय कृष्ण और : अनंगविजयम् जगन्नाथ पं. शिवशंकर : रणवीररत्नाकरः विषय(काश्मीर निवासी)
धर्मशास्त्र
शिव
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शुक्लेश्वर शेषकवि
शेषगिरिशास्त्री और अन्य पंडित
शेषचिन्तामणि शेषदीक्षित शेषसुधीः श्यामकुमार आचार्य आर. श्यामशास्त्री श्रीकण्ठभट्ट श्रीकाशीश श्रीकृष्ण
: प्रमाणादर्श : 1. चिन्तामणिविजयचम्पूः 2. कल्याणरामायणम्
ओरिएंटल् मेन्युस्क्रिप्ट लाइब्रेरी के संग्रह की सूचि
29 खंडों में प्रकाशित : छन्दःप्रकाशः : कृष्णविलास :: कृष्णचम्पू: : कीदृशं संस्कृतम् : भाषातंत्रम् : वागर्थवशीकरणम् .: मुग्धबोध की टीका : 1. श्रीनिवासविलासचंपूः
2. रामेश्वरविनयचम्पू: : 1. पादांकदूतम्
2. कृष्णपदामृतम् : नरसिंहसरस्वती-मानस
पूजास्तोत्रम् : राधामुकुंदस्तवः : 1. कथाकौतुकम् (फारसी
ग्रंथ युसुफ जुलेखा का अनुवाद)
2. रामरसामृतम् : व्रजविहारः
श्रीकृष्णसार्वभौम (17 वीं शती) श्रीगोपाल
श्रीदास
श्रीधर
श्रीनिवासाचार्य : 1.शंगारतरंगिणीभाणः (19 वीं शती)
2. क्षीराब्धिशयनम्
3. धुवः (नाटक) श्रीनिवासाचार्य : 1. मयूरसन्देशम्
2. सुभाषितपदावली श्रीनिवासाचार्य : मणिमेखला (तमिलकथा का (भूतपुरी निवासी)
अनुवाद श्रीनिवासाचार्य : उमापरिणयम् (नाटक) इचबन्दी (19 वीं शती) एस्. श्रीनिवासाचार्य : उत्तमजार्जजायसी (कुम्भकोणनिवासी) रत्नमालिका श्रीनिवासाचार्य : आंग्लजर्मनीयुद्ध विवरणम् तिरुमलबुक्कपट्टणम् श्रीनिवासाचार्य : कृष्णाभ्युदयम् (येलयवल्ली ) (पिता-वेंकटेश) श्रीपति गोविन्द : जानक्यानंदबोधः श्रीपतिठक्कुर
: व्हिक्टोरियादेवीस्तोत्रम् श्रीपाल
: प्रस्तावतरंगिणी
(सुभाषितसंग्रह) श्रीवल्लभ
: मुग्धबोध की टीका श्रीशैल
: 1. पद्मावतीपरिणयचम्पू:
2. इन्दिरापरिणयम् श्रीशैलताताचार्य : कपीनाम् उपवासः (शिरोमणि) श्रीशैलताताचार्य : 1. दुर्गेशनन्दिनी और
2. क्षत्रियरमणी (बंकिमचंद्र के उपन्यासों के
अनुवाद) श्रीशैलताताचार्य : 1. युगलांगुलीयम् (कांचीवरम् निवासी, 2. वेदान्तदेशिकम् पिता-वेंकटवरद) (दोनों नाटक) श्रीशैल श्रीनिवास : रामकथासुधोदयम् श्रुतिकान्त
: लघुनिबंधमणिमाला संकर्षण
: 1. नृसिंहचम्पू:
2. सत्यनाथाभ्युदयम् 3. सत्यनाथमाहात्य
रत्नाकरः एम.व्ही. संपतकुमार : 1. काफीपानीयम्
2. काफीत्यागद्वादश
मंजरिका सकलकीर्ति
: सुभाषितावली (जैनपंडित) सच्चिदानन्द .: रामभद्रमहोदयम् (काव्य)
श्रीधरस्वामी
श्रीनिवास
: 1. वृत्तमणिमालिका
2.नवरत्नविलासः 3. मुकुन्दचरितचम्पूः 4. शाहराजाष्टपदी
5. सुदामचरितम् : रसिकरंजन-भाणः
: वराहचम्पू:
श्रीनिवास (19वीं शती) श्रीनिवास (पिता-वरदपंडित) श्रीनिवास (पिता-वेंकट) श्रीनिवास कवि
: प्रसारशेखरः
श्रीनिवास पंडित श्रीनिवास रथ श्रीनिवास राघवन् श्रीनिवास शास्त्री
: कृष्णराज-प्रभावोदयम्
(विषय-मैसूरनरेश का
चरित्र) : रागतत्त्वविबोधः ___: ललितराघवम्
: गीर्वाणभाषाभ्युदयः : सौम्यसोमम्
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सत्यव्रतशर्मा
: 1. भैरवस्तवः
2. मातृभूस्तोत्रम्
3. भयभंजनम् (नाटक) सदानन्द
: 1. शांकरदिगविजयसारः
2. व्रजेन्द्रचरितम् सदानन्दनाथ
: तत्त्वदीपिका
(अष्टाध्यायी की वृत्ति) सदाशिव
: कामकल्पलता सदाशिव दीक्षित : संगीतसुन्दरम् सदाशिवमखी : रामवर्मयशोभूषणम् सदाशिवमुनि
: वृत्तरत्नाकरः समसन्दर्भ
: काव्यरसायनम् सरस्वती
: हंससन्देशम् सर्वेश्वर दीक्षित : महाभाष्यस्फूर्तिः सर्वेश्वर सोमयाजी : महाभाष्यप्रदीपस्फूर्तिः साम्बशिव
: अनिरुद्धचरितचम्पू: साकुरीकर डी.टी. : गीर्वाणकेकावली भोर (महाराष्ट्र)
(मराठी स्तोत्रकाव्य का निवासी
अनुवाद) सीतादेवी
: अरण्यरोदनम् सीताराम
: वृत्तदर्पणः सीतारामशास्त्री : महीशूर (मैसूर)
देशाभ्युदयचम्पू: सिद्धनाथ विद्यावागीश : पवनदूतम् सुन्दरदेव
: मुक्तिपरिणयम् सुन्दरमिश्र
: अभिराममणिनाटकम् (16 वीं शती)
(7 अंकी) सुन्दरसेन
: कुमारीविलसितम्
(कन्याकुमारी देवी की
कथा) सुन्दराचार्य
: गीतशतकम सुन्दरेश्वर
: शिवपादकमलरेणुसहस्रम् सुकुमार
: रघुवीरचरितम् सुकालमिश्र
: शंगारमाला (18 वीं शती) सुधीन्द्रयोगी : अलंकारसारः सुदर्शनशर्मा
: शंगारशेखरभाणः सुबालचन्द्राचार्य : राधासौन्दर्यमंजरी वाय. सुब्बाराव : मूलाविद्यानिरासः सुब्रह्मण्य सूरि : अशेषांक-रामायणम्
(199 आर्या) सूर्यनारायण
: प्रासभारतम् सूर्यनारायण
: श्रुतकीर्तिविलासचम्पः सेतुमाधव
: विश्वप्रियगणविलसितम
(मध्वाचार्य का चरित्र) सौमदत्ति
: विटवृत्तम् सोमनाथ ।
: 1. अन्योक्तिशतकम् (या आर्यक)
2. व्यासयोगिचरितचम्पू: सोमराजदेव
: संगीतरत्नावली (सोमभूपाल) (12 वीं शती) सोमेश्वर
: 1. अभिलषितार्थ-चिंतामणिः (भूलोकमल्ल)
(संगीत)
2. मानसोल्लास: सौरीन्द्रमोहन
: संगीतसारसंग्रहः डा. स्टीन ।
: रघुनाथ मंदिर (जम्मू) के
संस्कृत ग्रंथ संग्रह की सूची,
(1894 में मुंबई में प्रकाशित) हंसयोगी
: हंसद्तम् हंसराज
: वैदिककोशः (ब्राह्मणवाक्यों
का संग्रह) हरभट्टशास्त्री और : जम्मू-काश्मीर नरेश के रामचंद्र काक
संग्रह की सूची, 1927 में
पुणे में प्रकाशित हरिकृष्ण
:: वैदिक वैष्णव सदाचार हरिनाथ
: रामविलासकाव्यम् हरिभट्ट
: 1.संगीतदर्पणः
2. संगीतसारोद्धारः
3. संगीतकलानिधिः हरिभास्कर
: पद्यामृततरंगिणी
(सुभाषितसंग्रह) हरिराम
: महाभाष्यप्रदीपः हरिव्यास मिश्र : 1. वृत्तमुक्तावली (ई. 1574) हरिशंकर
: गीतराघवम् हरिसखी
: अनुभवरसम् हरिहर
: भर्तृहरिनिर्वेदम् हीरालाल शास्त्री : पुराने मध्यप्रदेश बेरार प्रांत के (रायबहादुर)
हस्तलिखित संग्रह की सूची,
प्रकाशन-1926 में नागपुर में हुआ हुपरीकर, ग. श्री. : संस्कृतानुशीलनविवेकः ऋषीकेश शर्मा : संस्कृत लाइब्रेरी कलकत्ता के (और शिवचंद्र गई) संग्रह की सूची । प्रकाशन ।
1895 और 1906 में हेबरे, ए.आर. : मनोहर दिनम् हेमचन्द्र
: छन्दश्चूडामणिः हेमचन्द्राचार्य कविभूषण : पांडवविजयम् हेलाराज
: वार्तिकोन्मेषः (कात्यायन
वार्तिकपाठ का भाष्य)
512 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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परिशिष्ट-क ऋग्वेद के मंत्रद्रष्टा ऋषि
प्रथम मण्डल
सूक्त
-22 -25, 26 -27 (कुछ मंत्र) - 27 (कुछ मंत्र) -28
-1 से 10 - 12 से 23 - 51 से 57 - 74 से 93
-29 -30
मधुच्छन्दा मेधातिथि सव्यआंगिरस गोतम कश्यप कक्षीवान् पज्रिय परुच्छेप दैवदासी दीर्घतमा
- 116 से 126 - 127 से 139 - 140 से 164
-31, 75 -32 - 33, 34 - 35, 36 -37, 38 -42 -45
द्वितीय मंडल
तृतीय मंडल
विश्व सामन आत्रेय वसुसु आत्रेय व्यरुण अश्वमेधभारत विश्ववारा ववी आत्रेय बभ्रु आत्रेय अवस्यु आत्रेय गातु आत्रेय संवरण प्राजापत्य प्रभूवसु आंगिरस अत्रि अत्रिभौम सदापूण आत्रेय प्रतिक्षत्र आत्रेय प्रतिभानु आत्रेय प्रतिप्रभ आत्रेय स्वस्ति आत्रेय श्यावाश्व श्रुतविद् आत्रेय अर्चनानस आत्रेय उरुचक्रि आत्रेय बाहुवृक्त आत्रेय पौर आत्रेय पायु भारद्वाज अत्रि सप्तवध्रि आत्रेय वसु भारद्वाज श्यावाश्व
-46
-48
-49
-33
द्रष्टा
सूक्त गायी
-19 से 22 देवश्रवा देववात
-23 कुशिक प्रजापतिवाच्य
-38,54,55,56 विश्वामित्र
- अवशिष्ट संपूर्ण मंडल (इसी मंडल के 62 वे सूक्त में 10 वा है प्रख्यात गायत्री मंत्र)
-50,51 -52 से 61 -62 -64 -69 -71, 72 -73,74 -75 -76, 77 -78 -80 से 82 -81 से 83
चतुर्थ मण्डल
सूक्त
द्रष्टा त्रसदस्यु दौर्गह पुरुमीळ्ह सौहोत्र वामदेव
-38 -43, 44 - अवशिष्ट संपूर्ण मंडल
षष्ठ मण्डल
पंचम मण्डल
-सूक्त -15
बुध आत्रेय वसुश्रुत आत्रेय गय आत्रेय सुतंभर आत्रेय पुरु आत्रेय प्रयस्वन आत्रेय
-1 -3 से 6 -9, 10 -11 से 14 -16, 17 -20
द्रष्टा वीतहव्य आंगिरस सुहोत्र शुनहोत्र भारद्वाज शंयु बार्हस्पत्य गर्ग भारद्वाज ऋजिश्वा
-31,32 -33,34 -44, 45, 46, 48 -47 -49 से 52
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 513
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पायुभारद्वाज भरद्वाज
-87
- अवशिष्ट संपूर्ण मंडल
श्रुतकाक्ष तिरिश्चि आंगिरस
-92 -95
सप्तम मंडल
नेमभार्गव
-97 -100
नवम मण्डल
द्रष्टा अश्वसूक्ति काण्वायन वसिष्ठ
-सूक्त -14,15 - अवशिष्ठ कुल 104 सूक्त
सूक्त
अष्टम मण्डल
-25
-सूक्त -2,3
द्रष्टा मधुच्छन्दा असित काश्यप दृळहच्युत इध्मवाह नमेध गोतम श्यावाश्व रहूगण आंगिरस बृहन्मति आंगिरस अयास्य आंगिरस कपि अवत्सार काश्यप अमहीयु आंगिरस निध्रुव काण्व भृग + जमदग्नि कश्यप वात्सप्री भालंदन
-26 -27 से 29 -31,67 -32 -37, 38 -39,40 -46 से 46 -47,49,75 से 79 -53 से 60 -61 -63
-10, 48,51,54 -12 -13 -13,14 -16 से 18 -23 से 26 -26
-65 -64,67
-68
-70
द्रष्टा मेघातिथि देवातिथि ब्रह्मातिथि वत्सकाव्य आयुकाण्व शशकर्ण काण्व प्रगाथ काण्व पर्वत काण्व नारद काण्व गोषूक्ति काण्वायन इरिबिठि काण्व विश्वमनस् वैयश्व व्यश्व आंगिरस कश्यप नीपातिथि श्यामाश्व नाभाक्त विरूप आंगिरस त्रिशोक काण्व वश अश्व्य श्रुष्टिगु काण्व (वालखिल्यसूक्त) मेध्य काण्व कलि प्रागाथ मान्य मैत्रावरुणि पुरुहन्या आंगिरस पुरुमीळ्ह आंगिरस (या सूदीप्ति आंगिरस) सप्तवध्री आत्रेय विरूप आंगिरस विश्वक् कार्ष्णि नमेध
-74 -96
35 से 38
39 से 42 -43, 44
कक्षीवान् पब्रिय प्रतर्दन मृळीक वासिष्ठ कर्णश्रुत वासिष्ठ प्रजापति वाच्य पर्वत काण्व ऊरु आंगिरस अनानत पारुच्छेप
-45
-46
-97 -101 -104, 105 .108 -111
-51
53,57,58
दशम मण्डल
-67 -70 -71
-सूक्त
-13
-73
द्रष्टा कश्यप दमन भृगु + मथित + च्यवन विमद ऐन्द्र प्राजापत्य (या वसुकृत वासुक्त) वसुक्र ऐन्द्र
-16 -19 - 20 से 26
-75 -86 -89,90,98,99
- 27 से 29
514/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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कवष ऐलूष प्रभूवसु आंगिरस सप्तगुआंगिरस बृहदुक्थ वामदेव गय प्लात वसुकर्ण वासुक्त आयास्य आंगिरस स्यूमरश्मि सौचीक मूर्धन्वत् आंगिरस
-30 से 34 -35, 36 -47 -54 से 56 -63, 64
65,66 -67,68 -77, 78 -79,80
रक्षोहा ब्राह्म
-162 वित्री काश्यप
-163 प्रेचता आंगिरस
-164 ऋषभ वैराज
-166 शबर काक्षीवत
-167 विभ्राज सौर्य
-170 संवर्त आंगिरस (या वीतहव्य) -172 (उषासूक्त) ऊर्ध्वग्रावा
-175 पतंग प्राजापत्य
-177 अरिष्टनेमि ताऱ्या
-178 प्रतर्दन
-179 जय ऐन्द्र
-180 प्रजावान् प्राजापत्य
-183 वत्स आग्नेय
-187 श्येन आग्नेय
-188 संवनन आंगिरस
- 191 (मधुसुक्त)
-88 -89
रेणु
-90 (पुरुषसूक्त) -96 -97 -98
-100 -101
अवांतर मंत्रद्रष्टा ऋषिगण
-102 -105 -105
ऋषि
-107 - 109 - 111 - 112 - 113
नारायणऋषि बरु आंगिरस भिषग्आथर्वण देवापि वन (या वनक) वैखानस वान्दन दुवस्यु वुध सौम्य मुद्गल दुर्मित्र सुमित्र कौत्स दिव्य आंगिरस जुहू (स्त्री) अष्टादंष्ट्र वैरूप नभः प्रभेदन शतप्रभेदन वैरुप धर्मतापस लब ऐन्द्र बृहद्दिव आथर्वण हिरण्यगर्भ प्राजापत्य रात्री भारद्वाजी (स्त्री) विहव्य आंगिरस प्रजापति परमेष्ठी यज्ञ प्राजापत्य सुकीर्ति काक्षीवत शकपूत नार्मेध अत्रि सांख्य सुपर्ण ताक्ष्यपुत्र सुवेदा शैरिषि हिरण्यस्तूप श्रध्दा कामायनी (स्त्री) शास भारद्वाज शिरिबिठ भारद्वाज शची पौलोमी (स्त्री)
-114 -119
-120 - 120 (प्रजापतिसूक्त)
- वेद कौषीतकी
- ऋग्वेद का कौषीतकी ब्राह्मण ऐतरेय महीदास
- ऋग्वेद का ऐतरेय ब्राह्मण, .
आरण्यक, तथा उपनिषद् वैशम्पायन
-कृष्ण यजुर्वेद (अर्थात्
निगद या तैत्तिरीय संहिता) मित्रयु
- कृष्ण यजुर्वेद की मैत्रायणी
संहिता याज्ञवल्क्य
- शुक्लयजुर्वेद (वाजसनेयी
संहिता) मध्यन्दिन
- माध्यंदिन (वाजसनेयी
संहिता) कण्व
- शुक्ल यजुर्वेद कण्वशाखा उपोदिति गौपलेय
- सामवेद आश्वसूक्ति
- सामवेद आंगिरस
-अर्थववेद। (प्राचीन चरित्रकोश (मराठी) - सिद्धेश्वर शास्त्री चित्रीवकृत तथा भारतीय संस्कृति कोश (कुल 10 खंड) (मराठी) महादेवशास्त्री नोशी कृत- पर आधारित).
-127 -128
- 129 (नासदीय सुक्त) -130
-132 -143 से 145
-144
-147 -149 -151 (श्रद्धासूक्त) -152 -155 -159
वेदपाठ की 10 प्रकार की विकृतियाँ प्राचीन काल से वैदिक विद्वानों में प्रचिलत है, उसके प्रवर्तकसंहिता पाठ
- भगवान। पदपाठ
-रावण।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 515
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वाभ्रव्यर्षिः क्रमं प्राह जटां व्याडिरवोचत ।।1।।
क्रमपाठ
-बाभ्रव्य। जटापाठ
- व्याडि। मालापाठ
- वसिष्ठ शिखापाठ
- भृगु रेखापाठ
- अष्टावक्र। दण्डपाठ
- पराशर रथपाठ
-कश्यप घनपाठ
- अत्रि निम्न लिखित तीन श्लोकों में अष्टविध विकृतियों (या पाठों) के प्रवर्तकों के नाम संकलित है। भगवान् संहितां प्राह पदपाठं तु रावणः।
मालापाठं वसिष्ठश्च शिखापाठं भृगुव्यधात् अष्टवक्रोऽकरोद् रेखां विश्वामित्रोऽपठद् ध्वजम् ।।2।।
दण्डं पराशरोऽवोचत् कश्यपो रथमब्रवीत्। घनमत्रिमुनिः प्राह विकृतीनामयं क्रमः ।।3।।
516/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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परिशिष्ट-(ख) वैदिक वाङ्मय
[संस्कृत वाङ्मय कोश के अन्तर्गत अकारादि वर्णानुक्रम से विविध विषयोंके ग्रंथों का उल्लेख यथास्थल हुआ है। प्रस्तुत परिशिष्टों में वेद-पुराण दर्शन काव्य नाटक चम्पू इत्यादि अन्यान्य विषयों के ग्रंथों की सूची दी गई है। जिज्ञासुओं को इस सूची के आधारपर आवश्यक विषय के महत्त्वपूर्ण ग्रंथोंकी नामावली एकत्र मिल सकेगी और अपेक्षित ग्रंथ के विषय में कुछ जानकारी मूल कोश में मिल सकेगी।]
(संपादक)
मूल (अपोरुषेय)
वैदिक (संहिता) ऋग्वेद यजुर्वेद सामवेद अथर्ववेद शाकलसंहिता (ऋग्वेद) वेदार्थदीपिका भाष्य ऋगर्थदीपिका वेदभूषण माध्वभाष्य नारायणीय भाष्य भाष्य भाष्य वृत्ति शुक्ल यजुर्वेदः माध्यन्दिन संहिता भाष्य वेददीप वेदविलास काण्व संहिता भाष्य काण्ववेद मंत्रभाष्यसंग्रह भावार्थदीपिका ब्राह्मणसर्वस्व कृष्णयजुर्वेदः तैत्तिरीय संहिता भाष्य भाष्य मन्त्रार्थदीपिका भाष्य
- सायणाचार्य - स्कन्दस्वामी -वेंकटमाध्यम -लक्ष्मण - आनन्दतीर्थ - नारायण - आत्मानन्द - उद्गीथाचार्य - मुद्गल
काठक संहिता, मैत्रायणी संहिता, कपिष्ठल कठसंहिता (चरक) श्वेताश्वर संहिता सामवेदीय कौथुमसंहिता भाष्य
-सायण छन्दसिका, उत्तरविवरण
- माधव (सामविवरण) भाष्य (अमुद्रित)
- भरतस्वामी सामवेदीय
- राणायनीय संहिता - जैमिनीय संहिता - गेयगान (प्रकृतिगान) - आरण्यगान - (ग्रामे) गेयगान -ऊहगान
-ऊह्यगान अथर्ववेदीय
- शौनक संहिता
भाष्य - सायण पिप्पलाद संहिता ब्राह्मण ग्रंथ ऐतरेय ब्राह्मण (ऋ.) भाष्य
-सायण वृत्ति
- षड्गुरुशिष्य कौषीतकी (शांखायन) ब्राह्मण
शांखायनभाष्य - माधवपुत्र विनायक शतपथ ब्राह्मण (माध्यंदिन) भाष्य
-सायण टीका
- हरिस्वामी टीका
-द्विवेदगंग टीका
- कवीन्द्राचार्य सरस्वती काण्वशाखीय शतपथ ब्राह्मण तैत्तिरीय ब्राह्मण (कृष्ण यजुः.) भाष्य
-सायण भाष्य
- भट्टभास्कर आर्षेय ब्राह्मण (सामवेद) भाष्य
-सायण
-उव्वट - महीधर - गौरधर
- सायणाचार्य - आनन्दबोध -अनन्ताचार्य - हलायुध
-सायण - माधवाचार्य - भट्टभास्कर - भयस्वामी, गृहदेव
जैमिनीयोपनिषद् ब्राह्मण (सामवेद)
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 517
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सामविधान ब्राह्मण (सामवेद) वेदार्थप्रकाश
ताण्ड्य महाब्राह्मण
(पंचविंशति ब्राह्मण )
भाष्य
विवृति
षड्विंश ब्राह्मण (सामवेदीय) वेदार्थप्रकाश
दैवत ब्राह्मण ( देवताध्याय ब्रा.) छान्दोग्योपनिषद् ब्राह्मण
(मंत्र ब्राह्मण)
जैमिनीय ब्राह्मण (जैमिनीय आर्षेय या तलवकार)
वंश ब्राह्मण (कौथुमशाखीय)
भाष्य
संहितोपनिषद् ब्राह्मण (कौथुमशाखीय) गोपथब्राह्मण (अथर्व)
आरण्यक
ऐतरेय आरण्यक
वृत्ति मोक्षप्रदा भाष्य
शांखायन आरण्यक
बृहदारण्यक (माध्य) उपनिषद्
भाष्य
तैत्तिरीय आरण्यक
भाष्य
भाष्य
मैत्रायणीय आरण्यक
कौषीतकी ब्राह्मण आरण्यक
उपनिषद् वाङ्मय सूची ईशोपनिषद्
केन- उपनिषद्
कठोपनिषद्
प्रश्नोपनिषद्
मुण्डकोपनिषद्
माण्डूक्योपनिषद्
तैत्तिरीय उपनिषद्
ऐतरेय उपनिषद्
छान्दोग्य उपनिषद्
बृहदारण्यकोपनिषद्
- सायण
• सायण
- भरतस्वामी
-
- सायण
सायण
- षड्गुरुशिष्य सायण
- त्रिवेद गंग
- सायण
- भट्ट भास्कर
श्वेताश्वतर उपनिषद् कैवल्योपनिषद्
518 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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कौषीतकी उपनिषद्
मैत्रायणी उपनिषद् जाबालोपनिषद् महानारायणोपनिषद्
बृहज्जाबालोपनिषद्
नृसिंह पूर्वतापिनीयोप नृसिंहोत्तरतापिनीयोप नृसिंहषट्चक्रोप
नारदपरिव्राजकोप.
त्रिशिखिब्राह्मणोप.
त्रिपाद्विभूतिमहानारायणोप
श्रीरामपूर्वतापिनीयोप.
श्रीरामोत्तरतापिनीयोप
महोपनिषद्
परमहंस परिव्राजक्रोप
गोपालपूर्वतापिन्युप. गोपालोत्तरतापिन्युप. गणेशपूर्वतापिन्युप
गणेशोत्तरतापिन्युप. नारायणपूर्वतापनीयोपनिषद् नारायणोत्तरतापनीयो. त्रिपादमूर्तिमहानारायणोप. अमनस्कोपनिषद् आत्मपूजोपनिषद् आत्मप्रबोधोप
आत्मोपनिषद्
आत्मस्वरूपविज्ञानोप.
आयुर्वेदोपनिषद् आथर्वणनारायणोप
आथर्वणोप
आरुण्याद्युपनिषद्
इतिहासोपनिषद्
आनन्दवल्ली उपनिषद्
भृगूपनिषद्
ब्रह्मबिन्दूपनिषद्
हंसोपनिषद्
आरुणिकोपनिषद्
गर्भोपनिषद
नारायणाथर्वशिर उप.
परमहंसोप
ब्रह्मोपनिषद्
अमृतनादोप.
अथर्वशिर उपनिषद अथर्वशिखोपनिषद्
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कालाग्निरुद्रोपनिषद् मैत्रेयी-उपनिषद् सुबालोप. क्षुरिकोप.. मंत्रिकोप. सर्वसारोप. निरालम्बोपनिषद् शुकरहस्योप. वज्रसूचिकोप. तेजोबिन्दूप. नादबिन्दूपनिषद् ध्यानबिन्दूप. ब्रह्मविद्योप. योगतत्त्वोप. सीतोपनिषद् योगचूडामण्युप. निर्वाणोप मण्डलब्राह्मणोप. दक्षिणामूर्त्यप. शरभोप. स्कन्दोपषिद् अदयतारकोप. रामरहस्योप. वासुदेवोप मुद्गलोप. शाण्डिलोप. पैंगलोपनिषद् भिक्षुकोप. शारीरकोप. योगशिखोप. तुरीयातीतोप. संन्यासोप. अक्षमालिकोप. अक्षमालोप. अव्यक्तोप. एकाक्षरोप. अन्नपूर्णोप सूर्योपनिषद् अक्ष्युपनिषद् अध्यात्मोप. कुण्डिकोप. सावित्र्युपनिषद् पाशुपत ब्रह्मोपनिषद् परब्रह्मोपनिषद्
अवधूतोपनिषद् त्रिपुरतापिन्युप. त्रिपुरोप. कठरुद्रोप भावनोप. रुद्रहृदयोप. योगकुण्डल्युप. भस्मजाबालोप. रुद्राक्षजाबालोप. गणपत्युपनिषद् जाबालदर्शनोप. तारस्वरोप. महावाक्योप. पंचब्रह्मोप. प्राणाग्निहोत्रोप. कृष्णोपनिषद् याज्ञवल्क्योप. वराहोपनिषद् शास्त्रायनीयोप. हयग्रीवोप. दत्तात्रेयोप. गारुडोप. कलिसन्तरणोप. जाबाल्युप. संन्यासोप. गोपीचन्दनोप. सरस्वतीरहस्योप. पिण्डोपनिषद् महोपनिषद् बढचोप. आश्रमोप. सौभाग्यलक्ष्मुप. योगशिखोप. मुक्तिकोप. योगराजोप. अद्वैतोपनिषद् अद्वैतभाववोपनिषद् आचमनोप. अनुभवसारोप. आर्षेयोप. चतुर्वेदोप. चाक्षुषोप. छागलेयोप. तुरीयोप.
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 519
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तारोपनिषद् तुरीयातीतोप. द्वयोपनिषद् निरुक्तोप, निरालम्बोप. प्रणवोपनिषद् बाष्कलमन्त्रोप. मठाम्नायोप. विश्रामोप. शौनकोप. सूर्यतापिन्युप. स्वसंवेद्योप. ऊर्ध्वपुंड्रोप. कात्यायनोप. तुलस्युप. नारदोपनिषद् पादयात्रिकोप. यज्ञोपवीतोप. राधोपनिषद् लांगूलोप. श्रीकृष्णपुरुषोत्तमसिद्धान्तोप. संकर्षणोपनिषद् सामरहस्योप. सुदर्शनीयो. नीलरुद्रोप. पारायणोप. बिल्वोपनिषद् मृत्युलांगूलोपनिषद् रुद्रोपनिषद् लिंगोपनिषद् वज्रपंजरोप. बटुकोपनिषद् शिवसंकल्पोप.
शिवोपनिषद् सदानन्दोप. सिद्धान्तशिखोप. सिद्धान्तसारोप. हेरम्बोपनिषद् अल्लोपनिषद् आथर्वण द्वितीयोप. कामराजकीलितोद्धारोप. कालिकोप. कालीमेघादीक्षितोप. कुण्डिकोप. गायत्रीरहस्योप. गायत्र्युपनिषद् गुह्यकाल्युप. पीताम्बरोप. राजश्यामलारहस्योप. वनदुर्गोप. श्यामोपनिषद् श्रीचक्रोपनिषद् श्रीविद्यातारकोप. षोढोपनिषद् सुमुख्युपनिषद् हंसषोढोप. योगकुण्डल्युप. मैत्र्युपनिषद् कौलोपनिषद् गान्धर्वोपनिषद् चित्युपनिषद् देव्युपनिषद् निर्वाणोप. अमृतबिन्दूपनिषद् चूलिकोपनिषद् ब्रह्माबिन्दूप.
520 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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शिक्षा
याज्ञवल्क्यशिक्षा वासिष्ठी शिक्षा
कात्यायनी शिक्षा
व्याख्या
पाराशरी शिक्षा
माण्डव्य शिक्षा
पाणिनीय शिक्षा
नारदीय शिक्षा
भाष्य
गौतमी शिक्षा
स्वरांकन शिक्षा
षोडशश्लोकी शिक्षा मनः स्वारशिक्षा प्रातिशाख्यप्रदीप शिक्षा वेद परिभाषाकारिका स्वरांकुश शिक्षा क्रमकारिका शिक्षा यजुर्विधान शिक्षा गलट्रक शिक्षा
अवसान निर्णय
वर्णन प्रदीपिका
केशवी शिक्षा
क्रमसन्धान शिक्षा स्वराष्टक शिक्षा लघ्वमोघानन्दिनी शिक्षा
- याज्ञवल्क्य - वसिष्ठ
• कात्यायन
- जयन्तस्वामी
• पराशर
- माण्डव्य
- पाणिनि
माण्डूकी शिक्षा (अर्थवेदीय) लोमशी शिक्षा
स्वर - भक्तिलक्षण शिक्षा
आपिशली शिक्षा कोहली शिक्षा चान्द्रवर्णसूत्र शिक्षा अमोघानन्दिनी शिक्षा
- अमोधानन्द
स्वरभक्तिलक्षण परिशिष्ट शिक्षा कात्यायन
आश्वलायन श्रौतसूत्र (ऋग्वेद)
वृत्ति
- नारद
- शोभाकर - गौतम
- मण्डूक
- लोमश
-
- रामकृष्ण
-योगी याज्ञवल्क्य - बालकृष्ण रामचन्द्र
परिशिष्ट (ग) वेदांग वाङ्मय
- अनन्तदेव
- अमरेश
- दैवज्ञ केशवराम
कल्पः (श्रोत- गृह्य- धर्म - शुल्व सूत्राणि )
-
• आश्वलायन
- गार्ग्यनारायण
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शांखायन श्रौतसूत्र (ऋग्वेद)
भाष्य व्याख्या
आश्वलायन गृह्यसूत्र (ऋग्वेद)
वृत्ति कारिका
व्याख्या
शांखायन गृह्यसूत्र ( कल्पसूत्र)
वासिष्ठ धर्मसूत्र (ऋग्वेदफ
व्याख्या
परशुराम कल्पसूत्र (ऋग्वेद)
व्याख्या
पद्धति
कौषीतकी गृह्यसूत्र (शांभव्य गृह्यसूत्र) (ऋग्वेद). कात्यायन श्रौतसूत्र
पारस्कर गृह्यसूत्र
(शुक्ल यजुर्वेद)
(अन्तर्गत परिशिष्ट कण्डिका श्रौतसूत्र, सोदरसूत्र आध्दसूत्र, भोजनसूत्र) -व्याख्या
- व्याख्या
श्राद्धसूत्र (शुक्ल यजुर्वेद) शुल्बसूत्र (शुक्ल यजुर्वेद)
-भाष्य
-वृत्ति
बौधायन श्रोतसूत्र
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- शांखायन
- अनृत
- गोविन्द
- कात्यायन
(शुक्लयजुर्वेद भाष्य कर्माचार्य सरलावृत्ति
(कृष्ण यजुर्वेद)
- आश्वलायन
- गार्ग्यनारायण
- कुमारिल भट्ट
- हरदत्त
शांखायन - वसिष्ठ
- गोविन्दस्वामी
-
-
- रामेश्वर
- उमानन्द
- व्याख्या कर्काचार्य -व्याख्या-जयराम - व्याख्या- हरिहर
गदाधर
- विश्वनाथ
- कात्यायन
- कात्यायन
- कर्काचार्य
- महीधर
- म.म. विद्याधर गौड
-
तैत्तिरीय शाखा)
बौधयन गृह्यसूत्र (कृष्ण यजुर्वेद - बौधायन धर्मसूत्र (कृष्ण यजुर्वेद - विवरण बौधायन कल्पसूत्र (कृष्ण यजुर्वेद
बौधायन कर्मान्तिसूत्र (कृष्णयजु बौधायन बौधायन द्वैधसूत्र
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- गोविन्दस्वामी
-
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 521
-
Page #538
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बौधायन शुल्बसूत्र आपस्मम्ब श्रौतसूत्र
-भाष्य
-वृत्ति
आपस्तम्ब गृह्यसूत्र (कृष्णयजु.
तैत्ति)
- अनाकुलाव्यमाख्या -हरदसमिश्र - तात्पर्यदर्शन - सुदर्शनाचार्य
आपस्तम्ब धर्मसूत्र (कृष्णयजु.
तैति.)
- उज्ज्वला व्याख्या
आपस्तम्ब शुल्वसूत्र (कृष्णयजु. - आपस्तम्ब
Afr.)
-भाष्य ( परिभाषासूत्र)
-व्याख्या
सत्याषाढ श्रौतसूत्र (हिरण्यकेशी कृष्णयजु. तैतिरीय)
-वैजयन्ती - ज्योस्स्रा
- चन्द्रिका
सत्याषाढ गृह्यसूत्र
- हरदत्त
वाघुल (शुल्व सूत्र (कृष्णयजु वाघुल तैत्ति.)
-व्याख्या
- आपस्तम्ब
- धूर्तस्वामी
- रामाग्निचित्
भारद्वाज श्रौतसूत्र
भारद्वाज गृह्यसूत्र
वैखानस श्रौतसूत्र
वैखानस गृह्यसूत्र
वैखानस धर्मसूत्र मानव श्रौतसूत्र (कृ.यजु. मैत्रायणी
मानव गृह्यसूत्र (--) -भाष्य
वाराह श्रौतसूत्र
वाराह गृह्यसूत्र मानव धर्मसूत्र
काठक गृह्यसूत्र (कृष्ण यजु.
-
-
-
कपर्दीस्वामी
- गोपीनाथ भट्ट
- मातृदत्त
कठ. शाखा)
लौगाक्ष गृह्यसूत्र (--)
-भाष्य अग्निवेश्य गृह्यसूत्र (कृष्ण यजु. कठ. शाखा)
विष्णु धर्मसूत्र (कृष्ण यजु. कठ. शाखा)
- अष्टावक्र
522 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
- देवपाल
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पितृमेधसूत्र
लाट्यायन श्रौतसूत्र (साम. कौथुम)
-मशक भाष्य
-वृत्ति
गोभिल गृह्यसूत्र (साम. कौथुम)
- व्याख्या (भाष्य ) -व्याख्या
गोभिल परिशिष्ट (साम. कौथुम ब्राह्यायण श्रौतसूत्र (साम.
-राणायनी व्याख्या -वृत्ति
खादिर गृह्यसूत्र
-व्याख्या
पंचविध सूत्र
निदान सूत्र
क्षुद्रसूत्र (आर्षेय कल्प श्रीत) जैमिनि.)
प्रतीहार सूत्र (श्रौत - दशतय्या) जैमिनीय श्रौतसूत्र (साम. जैमि.) जैमिनीय गृह्यसूत्र (-"-) गौतम धर्मसूत्र (--)
-भाष्य
शुक्लयजुः प्रतिशाख्य
-भाष्य -भाष्य
साम प्रतिशाख्य (पुष्पसूत्र)
-भाष्य
-भाष्य
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(डच भाषामें अनुवाद) (गौतम, बौधायन हिरण्यकेशी)
- लाट्यायन
- आनन्दचन्द्र
- अग्निस्वामी
- चन्द्रकान्त तर्कालंकार - रुद्रस्कन्द, खादिर चन्द्रकान्त तर्कालंकार
- धन्वी
- रुद्रस्कन्द
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- रुद्रस्कन्द
- मशक,
-भाष्य
वैतान श्रौतसूत्र (अथर्व ) वैखानस श्रौत (अथर्ववेदीय) आक्षेपानुविधि व्याख्या कौशिक गृह्यसूत्र (अथर्व )
-व्याख्या
- दारिल " (केशवपद्धति) केशव
- मस्करी
- वरदराज
-
वसिष्ठ धर्मशास्त्र वैदिक योगसूत्र
प्रतिशाख्य (वैदिक व्याकरण)
ऋक्प्रातिशाख्य पार्षदसूत्र) शौनक
• उव्वट
- कात्यायन
- उव्वट
- अनन्तभट्ट
- पुष्प
- सायण • अजातशत्रु
गार्ग्य
- सोमादित्य
- कौशिक
-
- हरिशंकरजोशी
Page #539
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अथर्व प्रतिशाख्य तैतिरीय प्रातिशाख्य
- त्रिरत्नभाष्य
- सोमाचार्य
- व्याख्या (वैदिकाभरण) - गोपालयज्वा -भाष्य (पदक्रमसदन) महिषेय
-
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ऋक्तंत्रम् (साम प्रातिशाख्य) -विवृत्ति शौनकीया चतुराध्यायी प्रतिज्ञासूत्र भाषिक सूत्र
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- कौत्स - (शुक्ल यजुः परिशिष्ट )
प्रातिशाख्यका
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 52
Page #540
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(छ) वैदिक परिशिष्ट (अनुक्रमणी आदि)
आर्षानुक्रमणी देवतानुक्रमणी छन्दोनुक्रमणी अनुवाकानुक्रमणी सूत्रानुक्रमणी ऋगविधान पादविधान प्रातिशाख्य (अनुक्रमणी) शौनकस्मृति बृहदेवता वेदार्थदीपिका
-भाष्य अनुवाकाध्याय परिशिष्ट जटादिविकृति लक्षण
-विकृतिवल्ली
- शौनक - शौनक - षड्मुरुशिष्य - उब्वट - कात्यायन - ब्याडी - मधुसूदन यति
चारायणीय मंत्रार्षाध्याय उपग्रन्थसूत्र (गीतविचार) - शौनक (उपलेखगत) (साम.) पंचविधसूत्र साम-प्रकाशन
-प्रीतिकर त्रिवेदी बृहत्सर्वानुक्रमणी (अथर्व) - शौनक पंच पटलिका अथर्वपरिशिष्ट चरणव्यूह परिशिष्ट (अथर्व) - शौनक -वृत्ति
-महिदास उपलेख सत्र (ऋ.)
-शौनक ऋग्वेद ऋषि-देवता-छन्दोनुक्रमणी -संपादक-विश्वबन्धु माध्यन्दिन संहिता पदपाठ - संपादक-युधिष्ठिर मीमांसक तैत्तिरीय संहिता अनुक्रमणिका - संपादक-परशुराम जैमिनीय श्रौतसूत्र वृत्तिः अथर्ववेद ऋषि-देवता- -संपादक-विश्वबंधु छन्दोनुक्रमणी आर्षेयकल्प
- वरदराज ऋग्वेदादिभाष्यभूमिका-संग्रह - सायण नीतिमंजरी
- धाद्विवेद -भाष्य वैदिक इण्डेक्स्
- मेक्डोनेल-कीथ संकर्षणकाण्ड सूत्राणि - जैमिनि सामवेदीय सुबोधिनी पद्धति -शिवराम ऋग्वेद कवि.विमर्शः - टी.जी.माईणकर अथर्ववेद व्रात्यकाण्ड - संपादक संपूर्णानंद छन्दोदर्शनम्
- महर्षि देवरात -वसिष्ठान्वय भाष्य -काव्यकंठ गणपतिमुनि
शुक्लयजुःसर्वानुक्रमणसूत्र - कात्यायन -भाष्य
-अनन्तदेव शुक्लयजुर्विधान
- अनन्तदेव यजुर्वेदमंजरी
-कालनाथ प्रतिज्ञासूत्र परिशिष्ट
-कात्यायन भाषिक परिशिष्ट सूत्र
-कात्यायन अष्टादश परिशिष्ट
-कात्यायन याजुष सर्वानुक्रमणी (कृष्णयजु -भाष्य
- अनन्तदेव काण्डानुक्रमणी एकाग्निकाण्ड? माधवीयानुक्रमणी
-वेंकटमाधव
524 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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व्याकरण
पाणिनीयेतरग कातंत्र
उपसर्गकृती
- चन्द्रगोमी
जैनेन्द्र व्याकरण
कातंत्र
- शर्ववर्मा कातंत्र परिशिष्ट
- श्रीपतिदत्त -व्याख्या - गोपीनाथ तर्कचरण कातंत्र वृत्ति
-दुर्गसिंह कांतत्र चैत्रकूटी वृत्ति - वररुचि कातंत्रवृत्ति टीका
- दुर्गसिंह ___-कातंत्रपंजी या पंजिका - त्रिलोचनदास कातन्त्रविस्तर
- वर्धमान कातंत्र बालबोधिनी (वृत्ति) - जगद्धर कातंत्र टीका
-कविराज गणप्रदीप वाररुचसंग्रह कातंत्र धातुपाठ
-दुर्गसिंह -मनोरमा व्याख्या - रमानाथ चक्रवर्ती दशबल कारिका कविरहस्य
जैनेन्द्र(व्याकरण)
- देवनंदी (पूज्यपाद) -महावृत्ति
- अभयनंदी -शब्दाम्भोजभास्करन्यास - प्रभाचन्द्रचार्य - -जैनेन्द्रवृत्ति
- महाचन्द्र शब्दार्णव चन्द्रिकावृत्ति - सोमदेवसुरी जैनेन्द्र परिभाषा वृत्ति
-काशीनाथ वा. अभ्यंकर पंचवस्तु (प्रक्रिया ग्रंथ) - आर्य श्रुतकीर्ति जैनेन्द्रप्रक्रिया
- वंशीधर शब्दार्णव प्रक्रिया
-गुणनंदी (?) शब्दानुशासन
-मलयगिरि -वृत्ति
- मलयगिरी
कातंत्रव्याकरण प्रकीर्ण
मुग्धबोध व्याकरण मुग्धबोध
- बोपदेव सुबोधा व्याख्या
- दुर्गादास -व्याख्या
- राम तर्कवागीश कविकल्पद्रुम (धातुविषयक) - बोपदेव विचारचिन्तामणि
- बोपदेव पदार्थ-निरूपण
- राम तर्कवागीश
शाकटायन (जैन) व्याकरण
चर्करीत रहस्य
-व्याख्या षट्कारक कारिका समासवाद शब्दसाध्य प्रयोग सारनिर्णय कृन्मंजरी कारकोल्लास आख्यात चन्द्रिका आख्यात मंजरी कातंत्ररूपमाला लिंगानुशासन
- गोविन्द भट्ट - रमानाथ - रमानाथ - शिवराम शर्मा - भरत मल्लिक - भट्टमल्ल
- शाकटायन (पाल्यकीर्ति)
शाकटायन व्याकरण चिंतामणि वृत्ति
-अयोध्या वृत्ति
-व्याख्या रूपसिद्धि (प्रक्रिया ग्रन्थ)
- शर्ववर्मा - दुर्गसिंह
-शाकटायन - अभयचन्द्रसरि - दयालपाल मुनि
चान्द्र व्याकरण
संक्षिप्तसार
चान्द्र व्याकरण
-वृत्ति
-बालबोधिनी चन्द्रधातुपाठ
- चन्द्रगोमी - धर्मदास या चन्द्रगोमी - कश्यप -चक्रगोमी
संक्षिप्तसार
-रसवतीवृत्ति
-व्याख्या सरस्वतीकण्ठाभरण
-क्रमदीश्वर -जुमरनंदी - गोपीचन्द्र - भोजदेव
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 525
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-हृदयहारिणी वृत्ति -रत्नदर्पण व्याख्या
-दण्डनाथ -रामसिंहदेव
सारस्वत व्याकरण
सारस्वत व्याकरण
- अनुभूतिस्वरूपाचार्य -टिप्पणी
-क्षेमन्द्र -टिप्पणखण्डन - धनेश्वर सारस्वत प्रक्रिया
- अनुभूति स्वरूपाचार्य -बालबोधिनी व्याख्या - -चंद्रकीर्ति व्याख्या -चन्द्रकीर्ति -प्रसाद व्याख्या - वासुदेव भट्ट -माधवी व्याख्या -मनोरमा व्याख्या -इन्दुमती व्याख्या -लघुभाष्य
-श्री सरस्वती सिद्धान्तचन्द्रिका
-रामचन्द्राश्रम -सुबोधिनी व्याख्या -सदानन्द -तत्त्वदीपिका
-लोकेशकर लिंगानुशासन
- अनुभूतिस्वरूपाचार्य अव्ययार्थमाला उणादिकोष
शब्दार्थरत्न
- तारानाथ तर्कवाचस्पति आशुबोध
- तारानाथ तर्कवाचस्पति शीघ्रबोध
-शिवप्रसाद हरिनामामृत
-रूपगोस्वामी -व्याख्या
- जीवगोस्वामी -व्याख्या
- नरहरि छात्रबोध प्रयोगरत्नमाला -वृत्ति
- पुरुषोत्तम विद्यावागीश चागुसूत्र
-चांगुदास प्राक्-पाणिनीय काशकृत्स्र धातुपाठ
-काशकृत्स्र पाणिनीय व्याकरण अष्टाध्यायी (अष्टक या अष्टिका - पाणिनि
-श्लोकवार्तिक - व्याघ्रभूति -काशिका वृत्ति - वामनजमादित्य -भाषावृत्ति
- पुरुषोत्तम देव दुर्घटवृत्ति
- शरणदेव -व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि - विश्वेश्वर सूरि
-भाषावृत्ति (संकलन) - विमलमति -शब्दकौस्तुभ - भट्टोजि दीक्षित -पाणिनीय मिताक्षरा -अन्तम्भट्ट -व्याकरण दीपिका -श्रीराम भट्ट -अष्टाध्यायी भाष्य - स्वामी दयानन्दसरस्वती -पाणिनि सूत्रव्याख्या - वीरराघवाचार्य
-प्रत्याख्यानसंग्रह - नागेश भट्ट (काशिकावृत्ति व्याख्या) विवरणन्यास पंजिका - जिनेन्द्रबुद्धि पदमंजरी
-हरदत्त भाषावृत्यर्थविवृति (भाषावृत्तिव्याख्याकी टीका) - सृष्टिधर वार्तिक और महाभाष्य वार्तिक पाठ
- कात्यायन (वररुचि) श्लोकवार्तिक
- व्याघ्रभूति (पातंजल) महाभाष्य - पतंजलि -प्रदीप
-कैयट -उद्योत
- नागेश -उद्योतन
- अन्नम्भट्ट -दीपिका
- भर्तृहरि -छाया (उद्योतव्याख्या) - वैद्यनाथ पायगुण्डे प्रक्रिया ग्रन्थ रूपावतार
- धर्मकीर्ति रूपमाला
- विमलसूरि प्रक्रिया कौमुदी
- रामचन्द्र
सुपय व्याकरण
-पद्मनाभदत्त - पद्मनाभदत्त - विष्णुमिश्र
सपद्य
पंजिका व्याख्या
मकरन्द व्याख्या हैम व्याकरण सिद्ध हैम शब्दानुशासन
-बृहद्वृत्ति -लघ्वी वृत्ति -महा वृत्ति -बृहती वृत्ति
-मुष्टिवृत्ति शब्दार्णवन्यास
- हेमचन्द्र -चंद्रसागर सूरि -हेमचन्द्र -हेमचन्द्र - हेमचंद्र - मलयगिरि -हेमचन्द्र
धातुपाठ-गणपाठ उणादि लिंगानुशासन
क्षीण सम्प्रदाय (व्याकरण) दुतबोध
- भरत सेन आशुबोध
- रामकिंकर
526/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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- कृष्णपण्डित धर्माधिकारी - वरदराज - नागेश -नागेश
-तिलक - महादेव - कौण्डभट्ट
- गोकुलनाथ उपाध्याय - मौनी श्रीकृष्णभट्ट
सजनेन्द्र प्रयोग कल्पद्रुम जीर्वाण पदमंजरी लघुमंजूषा परमलघुमंजूषा
-अर्थदीपिका अव्ययविवेक निपाताव्ययोपसर्गवृत्ति उपसर्गवर्ग पदार्थदीपिका लकारार्थ निर्णय पूर्वपाणिनीयम् पदवाक्य-रत्नाकर वृत्तिदीपिका शब्दतत्त्व प्रबोधिनी स्वरमंजरी शब्दमंजरी स्फोटवाद कारकवादार्थ कारकचक्र
-माधवी व्याख्या कारकचक्र ज्ञापक-समुच्चय शब्दमंजरी समासचक्र कारकसम्वन्धोद्योत धर्मदीपिका
-जयकृष्ण
-नागेश
- भवानन्द सिद्धान्तवागीश
-प्रकाश व्याख्या - शेषकृष्ण -प्रसाद व्याख्या
-विठ्ठल सिद्धान्तकौमुदी
- भट्टोजि दीक्षित -तत्त्वबोधिनी - ज्ञानेन्द्र सरस्वती -बालमनोरमा - वासुदेव दीक्षित तत्त्वदीपिका
- रामानन्द व्याख्या
- गिरिधर मध्यसिद्धान्त कौमुदी - वरदराज लघुसिद्धान्त कौमुदी - वरदराज प्रौढमनोरमा (सिद्धान्तकौमुदी- - भट्टोजि दीक्षित व्याख्या) -शब्दरत्न
-हरि दीक्षित लघुशब्देन्दुशेखर
- नागेश भट्ट -चन्द्रकला बृहत्शब्देन्दुशेखर
-नागेशभट्ट -भैरवी
- भैरव मिश्र -दीपक
- म.म.नित्यानंद पंत पर्वतीय --विषमस्थलवाक्यवृत्ति प्रौढ मनोरमाखण्डन - चक्रपाणिदत्त मनोरमा कुचमर्दन (नी) -पण्डितराज जगन्नाथ प्रकरण एवं प्रकीर्ण अपाणिनीयप्रमाणता - नारायण भट्ट वाक्यपदीय
- भर्तृहरि -प्रकाश
- पुण्यराज -प्रकीर्णप्रकाश - हेलाराज -स्वोपज्ञवृत्ति - भर्तृहरि
-स्वोपज्ञवृत्तिव्याख्या - वृषभदेव स्फोटसिद्धि
- भरतमिश्र स्फोटसिद्धि
- मण्डनमिश्र -गोपालिकाव्याख्या -ऋषिपुत्र परमेश्वर स्फोटतत्त्वनिरूपण प्रातिपादिक संज्ञावाद स्फोटसिद्धि न्यायविकार स्फोटचन्द्रिका
- श्रीकृष्णभट्ट वाक्यवाद वाक्यदीपिका वैयाकरण भूषण कारिका - भट्टोजिदीक्षित वैयाकरणभूषणसार
- कौण्डभट्ट -काशिका -दर्पण
- हरिवल्लभ -बृहद् वैयाकरण भूषण - कौण्डभट्ट वैयाकरण सिद्धान्त मंजूषा -नागेश भट्ट
-कुंजिकाव्याख्या - दुर्बलाचार्य -कला व्याख्या - वैद्यनाथ पायगुण्डे
- पुरुषोत्तम देव - पुरुषोत्तम देव
-वृत्ति
गणपाठसंबंधी ग्रन्थ गणपाठ (प्रातिपदिक गणपाठ) - पाणिनि गणरत्नमहोदधि
- वर्धमान गणरत्नावली
- यज्ञेश्वरभट्ट धातुपाठसंबंधी ग्रन्थ धातुपाठ
- पाणिनि -क्षीरतरंगिणी -क्षीरस्वामी धातुवृत्ति
-सायण -धातुप्रदीप - मैत्रेय दीक्षित
-देव -दैवव्याख्या पुरुषकार - कृष्णलीलाशुक कविरहस्य
-हलायुध औष्ठ्य कारिका धातुरूपभेद
-दशबल धा वरदराज क्रियाकलाप
- विद्यानन्द क्रिया-पर्यायदीपिका . - वीरपाण्डय क्रियाकोश
- रामचन्द्र
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 527
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-औणादिक पदार्णव -उणादिकोष व्याख्या वृत्ति
-पेरुसूरि - रामशर्मा - शिवराम - जयानन्द सरस्वती
परिभाषा ग्रन्थ परिभाषावृत्ति
परिभाषेन्दुशेखर
- पुरुषोत्तम देव -सीरदेव - नागेश भट्ट - तात्याशास्त्री पटवर्धन - गणपतिशास्त्री मोकाटे
-भूति
-तत्त्वप्रकाशिका (भूतिव्याख्या)
-विजया -लघुजटाजूट -गदा व्याख्या -भैरवी" -वाक्यार्थचन्द्रिका
- जयदेव मिश्र - रघुनाथशास्त्री भारद्वाज
प्रयुक्ताख्यानमंजरी
-सारंग लिंगानुशासनसंबन्धी ग्रन्थ लिंगानुशासन सूत्र
- पाणिनि लिंगानुशासन
- हर्षवर्धन -भैरवी व्याख्या - भैरव मिश्र -व्याख्या
- तारानार्थ तर्कवाचस्पति -सवलक्षण व्याख्या - पृथिवीधर लिंगानुशासन (लिंगविशेष - वररुचि विधि)
___ -स्वोपज्ञ वृत्ति - वररूचि लिंगानुशासन
- वामन स्वोपज्ञवृत्ति
- वामन लिंगबोध व्याकरण लिंगवचन विचार - दीनबन्धु लिङगानुशासन
- अभिनव शाकटायन (स्वोपज्ञ) लिङ्गानुशासन - हेमचन्द्र (जैन)
-स्वोपज्ञवृत्रि लिङ्गादिसंग्रह टिप्पणी - रामनाथ विद्यावाचस्पति (कातंत्र) लिङ्गानुशासन
- पद्मनाथ दत्त लिङ्गानुशासन वृत्त्युद्धार - जमानकसूरी लिङ्गनिर्णय भूषण
-तीपुरी लिंगानुशासन
- दुर्गसिंह लिंगानुशासनवर्ग उणादिसूत्र उणादि सूत्राणि
- पाणिनि -व्याख्या
- श्वेतवनवासी -दशपादी व्याख्या -व्याख्या
- उज्ज्व ल दत्त निजविनोद व्याख्या -महादेव वेदान्ती
-भैरव मिश्र
- काशीनाथ शास्त्री अभ्यंकर - नीलकण्ठ बाजपेयी - शेषाद्रिनाथ
- नन्दिकेश्वर - उपमन्यु
- मुकुन्दशर्मा
परिभाषासंग्रह परिभाषावृत्ति परिभाषा भास्कर वर्णविषयक ग्रन्थ काशिका
-व्याख्या फिट्सूत्र फिट्सूत्राणि
-व्याख्या स्वरसिद्धान्तचन्द्रिका (स्वरसूत्रव्याख्या) कोविदानन्द गैरिकसूत्र
-शन्तनु -जयकृष्ण - श्रीनिवास यज्वा
-आशाधर भट्ट - गङ्गाराम जडी
528 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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छन्दः सूत्र
-वृत्ति
छन्दोनुशासन छन्दशूडामणि छन्दोऽनुशासन
छन्दः छन्दोमंजरी
- व्याख्या जीवानन्दी
""
छन्दोविचिति (जनावी)
वृत्तरत्नाकर
-नारायणी व्याख्या -पंजिका "
- तात्पर्यटीका " -सुकविहृदयानान्दिनी - छन्दोवृत्ति
जगद्विजयच्छन्दः वाणीभूषण वृत्तरत्नावली
-व्याख्या
वृत्तवार्तिक
श्रुतबोध
नेमिरंग रत्नाकर कविदर्पण
वृत्तजातिसमुच्चय
34
वाग्वल्लभ
छन्दोविंशतिका
वृत्त मुक्तावली
स्वयंभू छन्द छन्दः कौमुदी छन्दोविन्दण्डन
बृहद्देशी संगीतमकरन्दः
संगीतदामोदर
संगीतरवाकर
-संगीतसुधा
-व्याख्या
- पिंगलाचार्य
- हलायुध
- हेमचन्द्र
- हेमचन्द्र
- जयकीर्ति
- जयदेव
- गंगादास
- जीवानंन्द विद्यासागर
- जयदेव
- जनाश्रय
- भट्ट केदार
- नारायण भट्ट
- दामोदर मिश्र - वेंकटेश
-रामपाणिवाद - कालिदास
- लावण्यसमय
- विरहांक
- दुःख भंजनकवि
- श्रीकृष्ण भट्ट
- भट्ट चन्द्रशेखर
- स्वयंभू
- नारायणशास्त्री खिस्ते
संगीतशास्त्र
- मतङ्ग
-
- नारद
- शुभंकर
- शाङ्गदेब
- शिंगभूपाल
- सोमनाथ
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छंदः शास्त्र
राग-विबोध अभिनवभरतसारसंग्रह संगीतदर्पणम्
रागतरंगिणी
संगीतपारिजात
नृत्यसंग्रह
दत्तिलम् संगीतोपनिषत्सारोद्वार
रागतत्त्वविवोध
सरस्वतीहृदयालंकार
भरतार्णव
संगीतसुधाकर पंचमसारसंहिता
दत्तिल कोहलीयम् कोइलमतम् आंजनेय-संहिता
संगीतराज (पाठ्यरत्नप्रवेशा)
नृत्तरत्नावली संगीतसारामृतम् ओमापतम्
अभिनयप्रकाशिका संगीतसमयसार
शारदीयम्
संगीतरत्नावली
स्वरमेल कलाविधि
शम्भुराजीयम् आनन्दसंजीवनम् संगीतालोक संगीतमुक्तावली
संगीत-दीपिका
नृत्याध्याय
नृत्यप्रकाश
संगीतचिन्तामणि
संगीतमुक्तावली
नृत्यरत्नकोश
संग्रह चूडामणि
अंकगणित
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- सोमनाथ
- चिक्कभूपाल
- दामोदर (चतुर दामोदर)
- लोचन पण्डित
- अहोबल
- दत्तिल
- वामनाचार्य सुधाकलश
- श्रीनिवास
- नान्यदेव
- नान्दिकेश्वर
- हरिपाल
- नारद
- कोहल
• आंजनेय
-कीलसेन महाराणा कुम्भराज
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- जयसेनापति
- तंजौरनरेश तुलजादेव
- गोपीनाथ
- पार्श्वदेव
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- शारदातनय
- सोमराज
- भट्टमाधव
- अशोक
- विप्रदास
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- कुम्भराज
- गोविंदाचार्य
ज्योतिषशास्त्र (गणित, फलित, सिद्धान्त)
- नृसिंह बापूदेवाशास्त्री
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- रामामात्य
- पण्डितमण्डली
- मदनपाल
- भुवनानन्द
- देवेन्द्रभट्ट
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- बल्लालसेन
- मुकुन्दवल्लभ - आर्यभट - नीलकण्ठ सोमसुत - भास्कराचार्य - कृष्णदैवज्ञ - ब्रहृदेव - देवराज - केशव - सीताराम झा - नृसिंह बापूदेव - सुदाजी बापू
अद्भुतसागर अहिबलचक्रम् अर्घमार्तण्ड आर्यभटीयम्
-भाष्य करणकुतूहलम् करणकौस्तुभ करणप्रकाश कुट्टाकारशिरोमणि केशवीयजातक पद्धति
___ -व्याख्या अष्टादश विचित्र प्रश्नसंग्रह आदिरोघप्रकाश खेटकौतुकम् गणकतरंगिणी गणितकौमुदी गणितसिद्धान्तकौमुदी गौरीजातक (आर्ष) गोलप्रकाश गोलीम रेखागणितम् ग्रहणन्यायदीपिका ग्रहणमण्डनम् ग्रहणमण्डनम् ग्रहलाघवम्
-व्याख्या -" (सुधामंजरी)
- सुधाकर द्विवेदी - नारायण पण्डित
-नीलाम्बरशर्मा - सुधाकर द्विवेदी - परमेश्वर ---"-- - सुधाकर द्विवेदी - गणेश दैवज्ञ - विश्वनाथ - सुधाकर द्विवेदी
-व्याख्या
- हरिभानु जैमिनीयसूत्रम्
-व्याख्या (तत्त्वादर्श) ज्योतिर्विवेक ज्यौतिष कल्पद्रुम (मुहूर्त पारिजात) ताजिकनीलकण्ठी
- नीलकण्ठ -जलदगर्जना व्याख्या -शिशुबोधिनी - माधव (नीलकण्ठपौत्र)
-सभाविवेकवृत्ति ताजक पद्धति
- केशव जातकभूषणम्
- गणेश दैवज्ञ तिथि चिन्तामणि (बृहद्) - गणेश देवज्ञ --"-- (लघु) त्रिकोणमिति
- नृसिंह बापूदेव दीर्घवृत्तलक्षणम्
- सुधाकर द्विवेदी दृक्सिद्ध पंचांग निर्माण पद्धति - गणपति देवशास्त्री दैवज्ञकामधेनु दैवज्ञाभरणम्
- श्रीनिवासशास्तरी देव केरलम् (चन्द्रकला नाडी) - अच्युत दीर्घवृत्तलक्षणम्
- सुधाकर द्विवेदी द्विचरचार धराभ्रम धराचक्र नरपतिजयचर्चा (स्वरोदय) - नरपति जैन
-सुबोधिनी व्याख्या - गणेशदत्त -जयलक्ष्मी व्याख्या - हरिवेश -व्याख्या
- नरहरि -व्याख्या
- भूधर -व्याख्या
-रामनाथ नारदीसंहिता (आर्ष) नाह्निदत्त पंचविंशतिका पंचसिद्धान्तिका
- वराहमिहिर -प्रकाशव्याख्या - सुधाकर द्विवेदी पत्रीमार्ग प्रदीपिका (वर्षदीपक)फलित मार्तण्ड
- मुकुन्दवल्लभ प्रश्न-कौमुदी
-नीलकण्ठ प्राचीन ज्योतिषाचार्याशयवर्णनम् - नृसिंह बापूदेव बीजगणितम्
-भास्कराचार्य -बीजनवांकुर व्याख्या -कृष्ण दैवज्ञ -सुबोधिनी
- जीवनाथ दैवज्ञ बृहज्जातकम् -व्याख्या
- अनन्तदेव बृहत्पाराशर होराशास्त्रम्
ग्रहणांकजाल
- दिनकर __ -ग्रहविज्ञानसारिणी -अनेक लेखक चमत्कार चिन्तामणि चलनकलन
- सुधाकर द्विवेदी चलनकलनसिद्धान्त - नृसिंह बापूदेव चापीय त्रिकोणमिति छादक निर्णय
-कृष्ण दैवज्ञ जातक क्रोड जातक पद्धति
- भूदेव -व्याख्या
केशव जातक पद्धति
- श्रीपति -महादेवी व्याख्या - महादेव
-नीलकण्ठी - नीलकण्ठ जातक पारिजात
-सुधाशालिनी व्याख्या -बैद्यनाथ दीक्षित जातकाभरणम्
- धुण्डिराज जातकालंकार
पील
530 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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Page #547
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(आर्ष) बृहत्संहिता
- वराहमिहिर -विवृति
- भट्टोत्पल ब्रह्मस्फुट सिद्धान्त
- ब्रह्मगुप्त -व्याख्या
- पृथूदक -व्याख्या -व्याख्या
-अमरराज -व्याख्या
-बलभद्र बृहद् विमानशास्त्रम्
- भरद्वाज भंगीविभंगी करणम् -रंगनाथभट्ट बृहद् दैवज्ञ रंजनम् भावकुतूहलम् भावप्रकाश
- जीवनाथ दैवज्ञ __ -भास्करबीज व्याख्या भाभ्रमरेखानिरुपण
-सुधाकर द्विवेदी भास्वती
-शतानन्द -व्याख्या सत्त्वप्रकाशिका- रामकृष्ण (अनेक व्याख्याएँ) ऋगुसंहिता (आर्ष) मकरन्द
- मकरन्द -सारिणी
- गोकुलनाथ दैवज्ञ -व्याख्या
- नीलकण्ठ -विवरण
-दिवाकर मानसागरी मानसोल्लास
- भूलोकमल्ल सोमेश्वर -अभिलषितार्थ चिन्तामणि मुहूर्त कल्पद्रुम
- विठ्ठल दीक्षित मुहूर्त गणपति मुकुन्द पद्धति मुहूर्त चिन्तामणि
- राम दैवज्ञ (भट्ट) -प्रमिताक्षरा
-पीयूषधारा - गोविन्द दैवज्ञ मुहूर्ततत्त्वम्
-केशव -व्याख्या
- गणेश दैवज्ञ मुहूर्त दीपक मुहूर्त मार्तण्ड
-नारायण -मार्तण्ड प्रकाशिका
-मार्तण्डवल्लभ यंत्रराज
- महेन्द्रसूरि
योगभात्रा योगिनीजातकम् रत्नमाला
- श्रीपति -महादेवी व्याख्या - महादेव -व्याख्या
-माधव रत्नगर्भाचक्रम् रत्नाभरणम् रमलचिन्तामणि रमलनवरत्नम् रेखागणितम् लघुजातकम्
- वराहमिहिर -संस्कृत व्याख्या -भट्टोत्पल -व्याख्या
-अनन्त दैवज्ञ लघुपाराशरी
-उडुदामप्रदीप -मुकुन्दवल्लभ मध्यपाराशरी लग्नवाराही
- वराहमिहिर लीलावती
- भास्कराचार्य -बुद्धिविलासिनी - गणेश दैवज्ञ -भूषण
- धनेश्वर -विवरण
- महीधर -मनोरंजना
- रामकृष्णदेव -क्रियाक्रमकर्म - शंकरनारायण -वासना
-दामोदर -अंकामृतसागरी - गंगाधर (या लक्ष्मीधर) (गणितामृतसागरी) -अमृतकूपिका - सूर्य पण्डित -गणितामृतकूपिका -सूर्यदास
-गणितामृतलहरी - रामकृष्ण लघुशङ्कुच्छिन्न क्षेत्रगुण - नृसिंह बापूदेव शास्त्री लौह गोलखण्डनम् - रंगनाथ दैवज्ञ लौह गोल समर्थनम्
- गदाधर दैवज्ञ वटेश्वर सिद्धान्त
- वटेश्वराचार्य वास्तवचन्द्रशृङ्गोन्नति साधनम् - सुधाकर द्विवेदी विचित्र प्रश्न, सभंग वास्तु रत्नावली लोमशसंहिता-भावफलाध्याय शीघ्रबोध शिवजातक विवाह वृन्दावन
- गणेश दैवज्ञ __-व्याख्या
- गणेश दैवज्ञ व्यवहारसारस्वत
- गोपीतनय षट्पंचाशिका -व्याख्या
- भट्टोत्पल
- केशव
- जयसिंह देव - आर्य भट्ट
यंत्रराजरचना आर्य सिद्धान्त उत्पातलक्षणम् उल्कालक्षण
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 531
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समरसार
-व्याख्या
सायनवाद सिद्धान्ततत्त्वविवेक -टिप्पणी
सारावली
सिद्धान्तदर्पणम्
गोलसार
ज्योतिषसिद्धान्तसंग्रह
तंत्रसंग्रह
प्रचण्डेश्वर सिद्धान्तशिरोमणि
-सिद्धान्त दीपिका
- सिद्धान्तमंजरी
- मितभाषिणी -सिद्धान्तसूर्योदय
-
- राम वाजपेयी
- भरत
- नृसिंह बापूदेव
- कमलाकर भट्ट
- सुधाकर द्विवेदी, मुरलीधर
- कल्याणवर्मे
- गार्ग्य केरल नीलकण्ठ
- नीलकण्ठ सोमयाजी
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- नीलकण्ठ सोमयाजी
- रामकृष्ण दैवज्ञ
-
• भास्कराचार्य
- परमादीश्वर
- रङ्गनाथ - गोपीनाथ
532 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
(गोलाध्याय)
-सुधारसकरण चषण (गोलाध्याय)
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-सूर्यप्रकाश - शिरोमणिप्रकाश
(गोलाध्याय)
-वासनाकल्पलता
(वार्तिक)
स्कन्दशारीरकम् - किरणाबली सिद्धान्त सार्वभौम
हस्त संजीवनम् होराशास्त्रम
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-वासना भाष्य
-मारीचिभाष्य
- लक्ष्मीदास
-गणिततत्त्व चिन्तामणि -दाभट्ट
-अपूर्व प्रकाशिका
- भुण्डिराज
- सूर्यदास - गणेश
- नृसिंह
हिर
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परिशिष्ट (घ) आयुर्वेद शास्त्रग्रंथ
चरक-संहिता
-चरकाचार्य -आयुर्वेददीपिका - चक्रपाणिदत्त -चिकित्सा टिप्पण -जल्पकल्पतरु - गङ्गाचर -चरकन्यास
- भट्टार हरिचन्द -निरन्तपरव्याख्या -जेज्जट -पंजिका
- कुमारस्वामी -चरकोपस्कार - योगीन्द्रनाथसेन
-व्याख्या तत्त्वप्रदीपिका - शिवदाससेन सुश्रुत संहिता
- सुश्रुत -निबन्धसंग्रह - डल्हण -भानुमती
- चक्रपाणिदत्त -संदीपन भाष्य - तरुणचन्द्र चक्रवर्ती न्यायचन्द्रिका - गयदास
(पंजिका) -व्याख्या
- जेज्जट नावनीतकसंहिता
-सुश्रुत भेल-संहिता
-भेल काश्यप-संहिता
-काश्यप हारीत-संहिता
- हारीत अष्टांगहृदयसंहिता
- वाग्भट -सर्वांगसुन्दरा - अरुणदत्त -शाशलेखा
- इन्दु -पदार्थचन्द्रिका -चन्द्रनन्दन -तत्त्वबोध
-शिवदाससेन -आयुर्वेदरसायन
- हेमाद्रि -व्याख्या
-रामनाथ अष्टांगसंग्रह संहिता
- वाग्भट -शशिलेखा -व्याख्या
- हेमाद्रि शाळ्धर-संहिता
- शाळ्धर -दीपिका
- आढमल्ल -गूढार्थदीपिका -काशीराम भट्टार-संहिता
- भट्टार हरिचन्द्र आयुर्वेद सुषेण-संहिता अंजन-निदानम्
-अंजनाचार्य इन्दुकोष वैद्यवल्लभ
- शार्गधर तत्त्वचन्द्रिका
-शिवदाससेन वैद्य-प्रदीप
-भण्यदत्त
सिद्धयोग
- वृन्दकुन्द योगचिंतामणि
- श्रीहर्ष योगतरंगिणी
- त्रिमल्लभट्ट वैद्यजीवनम्
-लोलिम्बराज -व्याख्या
- ज्ञानदेव -विज्ञानानन्दकरी -प्रयागदत्त बालतन्त्रम्
-कल्याणभट्ट प्रयोगरत्नाकर
-कविकण्ठहार वेधक-रत्नावली
- कविचन्द्र योगसमुच्चय
- गणपति कालज्ञानम्
- शम्भुनाथ द्रव्यगुणम्
-गोपाल -दीपिका
- कृष्णदत्त नाडी-विज्ञानम्
- कणाद औषधप्रकार
- कृष्णभट्ट वैद्यरत्नम्
- केदारभट्ट माधवनिदानम्
- माधवकर -मधुकोश
- विजयरक्षित -रुगविनिश्चय - भवानीसहाय योगरत्नाकर
- केशवसेन चिकित्सासारसंग्रह
-खेमराज योगरत्नावली
- गङ्गाधर योगरत्नमाला
- नागार्जुन -लघुविवृति
- श्वेताम्बर भिक्षु गुणाकर शरीर विनिश्चयाधिकार - गङ्गाराम योग (सार) समुच्चय - गणपति व्यास वैद्यसार-समुच्चय चिकित्सामृतम्
- गणेश भिषक् रुगू-विनिष्चयार्थ-प्रकाशिका - " योग-चिन्तामणि चक्रदत्त चिकित्सासंग्रह - चक्रपाणिदत्त
-तत्त्वचन्द्रिका - शिवदास -चिकित्सासारसंग्रह - वंगसेन -रत्नप्रभा
-निश्चलेकर वैद्यप्रसारक
- गदाधरदास योगामृतम्
- गोपालदास योगचिन्तामणि
- गोरक्षमिश्र लोहप्रदीप
- त्रिबिक्रमदेव सन्निपातमंजरी
- गोविन्दाचार्य रसेन्द्रसारसंग्रह
संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/533
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- गूढार्थसंदीपिका सर्वसारसंग्रह
वैद्यकोष
द्रव्यगुणसंग्रह
-व्याख्या
चन्द्रसारोद्धार
योगरत्नसमुच्चय
ज्वरतिमिर भास्कर
प्रयोगामृतम्
योगसंग्रह सवैद्यकौस्तुभ
बालभृत्यम् योगरत्नाकर
व्याध्यर्गल
चिकित्साकलिका
-व्याख्या
योगसार
योगसंग्रह
वैद्यचिन्तामणि विवृति
धातुरत्नमाला
निघण्टु मदनपालनिघण्टु
वंगसेन
पारद - संहिता
काकचण्डीश्वरकल्पतंत्रम्
कैयदेव निघण्टु क्वाथ मणिमाला
गदनिग्रह
भावप्रकाश
मधुमती
राजनिघण्टु
योगमंजरी
आरोग्यमंजरी
वैद्य परिभाषा
त्रिदोषविज्ञानम्
वैद्यचिन्तामणि
पर्यायार्णव (वैद्यकोष)
त्रिदोषसंग्रह
भैषज्यसारामृतसंहिता वैद्यदर्पणम्
द्रव्यगुणशास्त्रम् नाडी परीक्षा
- अंबिकादत्तशास्त्री - चक्रपाणिदत्त
- निश्चलेकर
- चन्दर
- धन्वन्तरि
- मदनपाल
- (मदनविनोद विघण्टु) - बंगसेन
-
- चामुण्डकायस्थ
- चिन्तामणि वैद्य
- जगन्नाथ वैद्य
- जनार्दन सेन
- जीवक
- नारायण शेखर
- ज्ञानदेव
- तीसर
- चन्दर
- आदिनाथ
- तुलसीदास
- दलपति
-
- देवदत्त
- कैयदेव
- वैद्य सोडल
- भावमिश्र
- नरसिंह कविराज
- नरहरि
- नागार्जुन
- नारायणदास वैद्य
- नारायण भट्ट
- नीलकण्ठ मिश्र
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- प्राणनाथ
534 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
-गो. आ. फडके
- मार्कण्डेय कवीन्द्र
पंचभूतविज्ञानम्
गन्धशास्त्रम् सन्निपातचन्द्रिका
प्रत्यक्षशारीरम् वैद्यप्रदीप
-व्याख्या
कुमार भार्गवीयम्
लोहसर्वस्वम्
तत्त्वकर्णिका
हरीतक्यादिनिघण्टु (भावप्रकाशनिघण्टु)
गुणरत्नमाला वैद्यबोधसंग्रह
योगांजनम्
वृत्तरत्नावली
वैद्यस्त्रमाला
कल्पतरु
योगशतकम्
आयुर्वेदप्रकाश
पर्यायरत्नमाला
कूटमुद्गर
रत्नावली
मुग्धबोधा
ज्वरादिरोगचिकित्सा
वैद्यविलास
अजीर्णमंजरी
सिद्धसार
रत्नमाला
राजवल्लभ पर्यायमाला राजवल्लभीय द्रव्य-गुणम् कनकसिंह प्रकाश कनकसिंहविलास वैद्यविनोद
-व्याख्या वैद्यमन उत्सव प्रयोगचिन्तामणि
नाडी परीक्षा
अर्थप्रकाश
बालचिकित्सा
नाडी परीक्षा
वंगसेन
योगमुक्तावली वैद्यचिन्तामणि
वैद्यवल्लभ
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- उपेन्द्रनाथ दास - भवदेव भट्ट
- गणनाथ सेन
• भव्यदत्त देव
- उद्धव मिश्र
- भानुदत्त
- सुरेश्वर • भारतकर्ण
• भावमिश्र
- भीमसेन
- मणिराम
- मल्लिनाथ
- मदनसिंह
- माधव उपाध्याय
- माधवकर
- माधवदेव
- माधवसेन
- लोलिम्बराज
- काशीनाथ
- रविगुप्त
- राजवल्लभ
-रामकृष्ण वैद्यराज
- रामनाथ वैद्य
- शिवानन्द
- राममाणिक्य सेन
- रामराज
- रावण
- वंगसेन
- वल्लभदेव
- वल्लभेन्द्र
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- वानराचार्य -बाभटाचार्य -वामन
- अच्युत गोणिका पुत्र
- बिन्दुनाथ - वीरसिंह -केशव -बोपदेव -बोपदेव
- शंकरसेन
- शागधर
बालबोध वैद्यसंहिता (वाभटसंहिता) वामन-निघण्टु आयर्वेद-प्रकाश बिन्दुसार (विंदुसंग्रह) वीरसिंहावलोक सिद्धमंत्रनिघण्टु
-प्रकाश शतश्लोकी हृदयदीप-निघण्टु विद्याविनोदसंहिता नाडी-प्रकाश पर्यायशब्द मंजरी धातुमंजरी वैद्यवल्लभ संज्ञासमुच्चय आयुर्वेदमहोदधि सोढलनिघण्टु चारुचर्या राजमार्तण्ड अगदतंत्रम् (काश्यपसंहितान्तर्गत) कल्याणकारक चिकित्साकर्मकल्पवल्ली द्रव्यगुणशतकम् पथ्यापथ्यम् वैद्यकल्पद्रुम वैद्यवल्लभ वैद्योत्तंस आयुर्वेदसूत्रम्
-योगदानन्दभाष्य बसवराजीयम् भैषज्यरत्नावली आनन्दकन्द सिद्धान्तनिदानम् लंका भैषज्य मणिमाला स्वस्थवृत्तसमुच्चय
-शिवदत्त मिश्र - सुखलता -सोढल - भोजराज
-काश्यप
नपुंसक-संजीवनी नाडीतत्त्वदर्शनम् (दूतनाडीविज्ञानम्) रससंग्रह सिद्धान्त रसेश्वरसिद्धान्त रसचिन्तामणि रसरत्नाकर रसेन्द्रचूडामणि रसरत्नसमुच्चय
-सरलार्थ प्रकाशिनी रसदीपिका रसकौमुदी रसेन्द्रचिन्तामणि रसेन्द्रसारसंग्रह
-अर्थवीथिका रसकंकालीयम् रसराज महोदधि रससार
-संग्रह रसरत्नावली रसहृदयम्
___-मुग्धावबोधिनी रसगोविन्द रससंकेतकलिका रसाध्याय रसेन्द्रचिन्तामणि दिव्यरसेन्द्रसार रसयोगमुक्तावली रसरत्नाकर रसेन्द्रमंगलम् नागार्जुनसिद्धान्त रसचन्द्रिका रसमुक्तावली रसप्रदीप रसेनुभास्कर रसनक्षत्रमालिका रसपद्धति आयुर्वेदरसशास्त्र रसायन प्रकरणम् रसप्रकाश-सुधाकर रसेन्द्रकल्पद्रुम रसेन्द्रचिन्तामणि रसरत्नाकर रसपारिजात
- उग्रादित्य - काशीराम चतुर्वेदी -चिमल्ल भट्ट -विश्वनाथ कविराज - रघुनाथप्रसाद - हस्तिरुचि - राजसुन्दर
- अनन्तदेव सूरि - आदिनाथ (नित्यनाथ) -सोमदेव -वाग्भट (नित्यनाथ) -चिन्तामणि शास्त्री - आनन्दानुभव - माधव - रामचन्द्र -गोपालकृष्णभट्ट - रामसेन - कंकालयोगी - कापाली - गोविन्दाचार्य - गंगाधर -गुरुदत्तसिंह - गोविन्दभिक्षु - चतुर्भुज मिश्र - गोविन्दराम सेन - चामुण्ड कायस्थ - जयदेव -दुण्ढुकनाथ - घनपति - नरहरि - नागार्जुन - नागार्जुन -नागार्जुन - नीलाम्बर - नृपसूनुवैद्य -प्राणनाथ - भास्करभट्ट - मथनसिंह -बिन्दु - माधवकर - मेरुतुंगसूरि - यशोधर - रामकृष्णभट्ट - रामचन्द्रदास -रामचन्द्रदास - रामचन्द्रदास
- बसवराज - गोविन्ददास - भैरव - गणनाथ सेन - आर्यदासकुमारसिंह - वैद्य राजेश्वर दत्त
अंजननिदानम् अनुपात्रदर्पणम् आत्मसर्वस्वम् आयुर्वेदप्रकाश आसवारिष्टसंग्रह काकचण्डीश्वरकल्पतंत्रम्
- सोमदेव
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 535
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रसकदम्ब रसेन्द्रपरिभाषा रसेन्द्रचूडामणि रसकामधेनु रसचण्डांशु रसराजसुन्दर गजायुर्वेद हत्यायुर्वेद (हस्तिशास्त्रम्)
- वल्लभदेव - सोमदेव -सोमदेव - चूडामणि वैद्य - दत्तात्रेय -दत्तराम
गो-वैद्यक
- कीर्तिवर्मा अश्ववैद्यक
-जयदत्त अश्ववैद्यक
-दीपंकर शालिहोत्रतंत्र (अश्वचिकित्सा) - शागधर तुरंगपरीक्षा
-शाङ्गिर शालिहोत्रसंहिता
- शालिहोत्र शालिहोत्रसार समुच्चय -कल्हण मातंगलीला
-कल्हण
-पालकाप्य
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विश्वकर्मप्रकाशम् मंत्रसर्वस्वम् श्रीरार्णय
अपराजितापृच्छा
शिल्पप्रकाश
काश्यप शिल्पम्-महेश्वरोपदिष्टम् - काश्यप
वास्तुविद्या मनुष्यालयचन्द्रिका
मयमतम्
शिल्परलम्
युक्तिकल्पतरु
समराङ्गणसूत्रधार
मानसार
प्रतिमामानलक्षणम् सम्यकसुबुद्धभाषित प्रतिमा
लक्षणम्
मयवास्तु (मयमतागमः ) अभिलाषितार्थचिन्तामणि
गृहवास्तुप्रदीप
प्रासादमण्डनम्
रूपमण्डनम् औमापतम्
दीपाय
वास्तुनिर्णय
वास्तुप्रकाश
वास्तुतत्त्वम्
वास्तुप्रदीप
वास्तुचन्द्रिका वास्तुरत्नावली
वास्तुशिरोमणि वास्तु सर्वस्व संग्रह प्रासादमंजरी
प्रमाणमंजरी
विश्वकर्मवास्तुशास्त्रम्
गृहरत्नभूषणम्
(नूतनवास्तुप्रबन्ध) वास्तु-प्रबोध
- विश्वकर्मा
- भरद्वाज
- विश्वकर्मा
- भुवनदेवाचार्य - रामचन्द्र कौलचर
वास्तुरत्नाकर वास्तुप्रतिष्ठासंग्रह
- मय
- श्रीकुमार
- भोजदेव
- मानसार
- आत्रेय
- मंडन ---"--
- गजपतिशिष्य
- कृपाराम
- जीवनाथ दैवज
- शंकर
- नाथजी
- सूत्रधारमल्ल
-रामेश्वरदत्तशर्मा
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परिशिष्ट (ङ) वास्तु- स्थापत्यशास्त्रग्रंथ
प्रकीर्ण- (क) पाककला
पाकदर्पणम् (नलपाक) भोजनकुतूहलम्
क्षेमकुतुहलम् (स्वस्थ व
पाकविचार)
पाक-प्रदीप
पाकरत्नाकर
पाकावली
पुष्टिप्रकाश
कृषिविद्या
उद्यानशास्त्रम्
उपवनविनोद (शांगधर पद्धति शाङ्गधर
अन्तर्गत)
कृषिपराशर
धनुर्वेदसंहिता कोदण्डमण्डन
धनुर्वेद औशनसधनुर्वेद
रत्नपरीक्षा
रत्नपरीक्षा
रत्नदीपिका रत्नशास्त्रम्
चित्रसूत्रम् (विष्णुधर्मोत्तरपुराणान्तर्गत)
कामसूत्रम्
रतिरहस्यम् रतिरहस्यम् (कोकसार)
अनङ्गरंग
- नलराज
- रघुनाथसूरि
- क्षेमराज
-
चित्रलक्षण
सारस्वतीय चित्रकर्मशास्त्रम्
- जयमङ्गला
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धनुर्वेद
- वसिष्ठ
रत्नविद्या
- सम्पा. नरहरिनाथ
- उशाना
चित्रकला
- ईश्वरदीक्षित
- स्मृतिसारान्तर्गता - चण्डेश्वर,
बुधभट्ट
- वेदव्यास
- मानजित्
कामशास्त्र
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- वात्स्यायन - यशोधर
- कांचीनाथ
- कोकक (कोकदेव)
कामकुंजलता (मीनानाथ, भरत - सुरुखा, दैवज्ञसूर्य आदि द्वादश कामप्रदीप
रतिमंजरी
- कल्याणमल्ल
राजर्षिविरचित) - गुणाकर वैद्य - जयदेव
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 537
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रतिशास्त्रम्
- नागार्जुन -स्मरतत्त्व प्रकाशिका - रेबणाराध्य नागरिकसर्वस्वम्
- पद्मश्रीज्ञान रतिरत्नप्रदीपिका
- प्रौढ देवराज कामकुतूहलम् कुचिमारतंत्रम् पंचसायक
- ज्योतिरीश्वर केलिकुतूहलम्
- मथुरानाथ दीक्षित कोकशास्त्रम्
- नर्बुदाचार्य नर्मकेलिकौतुक संवाद - दण्डी मदनसन्देश
- अरुन्द नागरसर्वस्वम् कुट्टिनीमतम्
- दामोदरकवि गणिकावृत्तसंग्रह
परिशिष्ट (च) पुराण
महापुराण
मत्स्यपुराण
-वेदव्यास स्वल्प मत्स्यपुराण भविष्यपुराण भविष्योत्तरपुराण ब्रह्मपुराण ब्रह्मवैवर्तपुराण ब्रह्माण्डपुराण वायुपुराण विष्णुपुराण
-व्याख्या
-व्याख्या वामनपुराण वाराहपुराण अग्निपुराण नारदीयपुराण पद्मपुराण लिंगपुराण
-शिवतोषिणी गरुडपुराण कूर्मपुराण स्कन्दपुराण श्रीमद्भागवत भागवत की प्रमुख व्याख्याएं भावार्थदीपिका
-श्रीधरस्वामी अन्वितार्थ प्रकाशिका चूर्णिका
सुबोधिनी
-वल्लभाचार्य हरिलीलामृत
- बोपदेव मुक्ताफल
- बोपदेव देवीभागवत
- वेदव्यास -व्याख्या - नीलकण्ठ शिवपुराण शिवधर्मपुराण शिवधर्मोत्तरपुराण वह्निपुराण एकाग्रपुराण स्वतंत्र पुराणांश काशीखण्ड (स्कन्दपुराणान्तर्गत) केदारखण्ड (स्कन्दपुराणान्तर्गत) हिमवत्खण्ड (स्कन्दपुराणान्तर्गत) रेवाखण्ड (स्कन्दपुराणान्तर्गत) सत्यनारायण व्रतकथा (स्कन्द.रेवा.) (बंगाली प्रत) क्रियायोगसार (पद्मपुराणान्तर्गत) रास-पंचाध्यायी (श्रीमद्भागवतान्तर्गत) गोपीगीतम् (श्रीमद्भागवतान्तर्गत)
कौमुदीव्याख्या पुरुषोत्तम-माहात्म्य ललितोपाख्यान ललिता-सहस्रनाम सप्तशती (मार्कण्डेय पुराणान्तर्गत) -गुप्तवती
-भास्करराय -व्याख्या
- नागेश भट्ट -व्याख्या (चतुर्धरी) -चतुर्धरमिश्र -व्याख्या (शान्तनवी - शन्तनु चक्रवर्ती -देवीभाष्य -पंचानन तर्करत्न -व्याख्या
- गोपाल चक्रवर्ती -जगच्चन्द्रचन्द्रिका -भगीरथ
-सप्तशती-दंशोध्दार - राजाराम उपपुराण बृहद्धर्मपुराण बृहन्नारदीयपुराण देवीपुराण कालिकापुराण साम्बपुराण गणेशपुराण कक्लिपुराण नरसिंहपुराण सूतसंहिता विष्णुधर्मोत्तर महाभागवतपुराण
538 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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पराशरपुराण औशनसपुराण आत्मपुराण सूर्यपुराण (सौर पुराण) मल्लपुराण पुराणसंहिता पुराण-जातीय ग्रंथ पशुपतिपुराण गर्ग-संहिता युगपुराण नीलमतपुराण भारद्वाजसंहिता कैवली मंजुनाथ माहात्म्य नेपालमाहात्म्य
इतिहासग्रंथ
वाल्मीकीय रामायण
- वाल्मीकि -धर्माकूतम् (व्याख्या - त्र्यम्बकराय मखी -व्याख्या -व्याख्या
-व्याख्या अन्यान्य रामायण ग्रंथ मूलरामायणम् रामाश्वमेघ भुशुण्डिरामायण अद्भुतरामायण अग्निवेश रामायण अध्यात्म रामायण योगवासिष्ठ
-व्याख्या - आनन्दबोधेन्दु आनन्दरामायण महाभारत
भारतभावदीप (टीका) - नीलकण्ठ
-व्याख्या -देवबोध -दीपिका -अर्जुनमिश्र -दुर्घटार्थप्रकाशिनी - विमलबोध
(विषमश्लोकी)
-भारतार्थप्रकाश -सर्वज्ञ नारायण -लक्षाभरण (लक्षालंकार) - वादिराज तीर्थ
-व्याख्या - चतुर्भुज मिश्र महाभारतान्तर्गत प्रमुख ग्रंथ (विराटपर्वमात्र)
- रामकृष्ण हरिवंश
-नीलकण्ठी - नीलकण्ठ जैमिनीयाश्वमेघ सनत्सुजातीय
- गौडपाद, शंकराचार्य -व्याख्या विष्णुसहस्त्रनाम
-शांकरभाष्य - शंकराचार्य -विवृति
- तारक ब्रह्मानन्द श्रीमद्भगवद्गीता -भाष्य
- शंकराचार्य -भाष्यव्याख्या -आनन्दगिरी -सुबोधिनी - श्रीधर -व्याख्या
- अभिनवगुप्त -व्याख्या
- रामकृष्ण -व्याख्या
- नीलकण्ठ -गूढार्थदीपिका - मधुसूदन सरस्वती -गूढार्थ तत्त्वालोक -बच्चा झा -अद्वैतांकुश -पैशाच भाष्य -सर्वतोभद्र व्याख्या - राजानक रामकवि -शंकरानन्दी -शंकरानन्द
-भाष्य (विशिष्टाद्वैत)- रामानुजाचार्य -तात्पर्यचन्द्रिका (रामानुजभाष्य -वेंकटनाथ गीतातत्त्वामृत
-विष्णुतीर्थ -गीतार्थसंग्रह - बालधन्वी जग्गू वेंकटाचार्य -(शांकर) भाष्योत्कर्षदीपिका
-अमृतवर्षिणी भगवदाशयानुसारणाभिधान -भास्कराचार्य
(भाष्य) अन्यान्य गीताएँ अष्टावक्रगीता ईश्वरगीता उत्तरगीता -व्याख्या
-गौडपादाचार्य उद्धवगीता गणेशगीता
-नीलकण्ठी व्याख्या गोपीगीता
-व्याख्या पंचदशीगीता पाण्डवगीता रामगीता गुरुगीता
-व्याख्या विष्णुगीता
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /539
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सप्तशती गीता संन्यास गीता सूर्य गीता सनत्सुजारीय गीता
-कालिका व्याख्या -व्याख्या -व्याख्या -व्याख्या
शक्तिगीता जीवन्मुक्तिगीता अवधूतगीता हंसगीता रासगीता गीतासार पितृगीता पृथिवीगीता सप्तश्लोकीगीता पराशरगीता शान्तिगीता शिवगीता
-व्याख्या तुलसी गीता गार्भ गीता वैष्णव गीता यमगीता हारितगीता शम्भुगीता
भगवती गीता धीशगीता चतुर्विंश गीता श्रमगीता - श्री. भा. वर्णेकर संघगीता - श्री. भा. वर्णेकर ग्रामगीतामृतम् - श्री. भा. वर्णेकर
इतिहास-पुराण प्रकरण ग्रन्थ भागवत खण्डनम्
- स्वा. दयानन्द सरस्वती अष्टादश पुराण व्याख्या - काशीनाथ भट्ट महाभारततत्त्वदीप
- वाराणसी सुब्रह्मण्यशास्त्री
540/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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परिशिष्ट - (छ) स्मृतिग्रन्थ
पितामहस्मृतिः जाबालिस्मृति नाचिकेतस्मृति स्कन्दस्मृति लौगाक्षिस्मृति काश्यपस्मृति व्यासस्मृतिः सनत्कुमारस्मृतिः शन्तनुस्मृति जनकस्मृतिः व्याघ्रस्मृतिः कात्यायनस्मृति जातुकर्ण्यस्मृतिः कपिंजलस्मृति बौधायनस्मृतिः सुमन्तुस्मृतिः पैठीनसी स्मृतिः गोभिलस्मृतिः
-पितामह - जाबालि - नाचिकेता - स्कन्द - लौगाक्षि -कश्यप - व्यास -सनत्कुमार - शन्तुनु -जनक
आङ्गिरसस्मृति (पूर्वोत्तर) - अंगिरा ऋषि अत्रिस्मृति
- महर्षि अत्रि आपस्तम्बस्मृति
-आपस्तम्ब औशनसस्मृति
-उशना गौतमस्मृति (वृद्ध)
- गौतम बृहत्पाराशर स्मृति
- पराशर -भाष्य
-सायण-माधव -व्याख्या प्राचेतसस्मृति
- प्रचेता दक्षस्मृति
- दक्ष बृहस्पतिस्मृति
-बृहस्पति मनुस्मृति
- मनु -व्याख्या - मेथातिथि -मन्वर्थमुक्तावली -कुल्लूक भट्ट -व्याख्या
-व्याख्या (बृहद्योगी) याज्ञवल्क्यस्मृति - याज्ञवल्क्य
-बालक्रीडा - विश्वरूपाचार्य -अपरार्क
-मिताक्षरा -मिताक्षराव्याख्या बालम्भट्टी -बालंभट्ट
-दीपकलिका (बृहद्) यमस्मृति
- यम विष्णुस्मृतिः लिखितस्मृतिः
- लखित शंखस्मृतिः
- शंख हारीतस्मृतिः
- हारीत
-व्याघ्र
-कात्यायन -जातुकर्ण्य - कपिजल - बौधायन - सुमन्तु - पैठीनस - गोभिल
अन्यान्य स्मृतिग्रन्थ
- विष्णु
- वसिष्ठ -देवल -कपिल - वाधूल
उपस्मृति ग्रंथ
- शाण्डिल्य -कण्व -दाल्भ्य -भारद्वाज
वसिष्ठस्मृतिः देवलस्मृतिः कपिलस्मृतिः वाधूलस्मृति नारायण स्मृतिः शाण्डिल्यस्मृतिः कण्वस्मृति दाल्भ्यस्मृति भारद्वाजस्मृतिः लोहितस्मृति मार्कण्डेयस्मृतिः मरीचिस्मृतिः पारस्करस्मृतिः ऋष्यशृंगस्मृति जमदग्निस्मृतिः कार्णाजिनि स्मृतिः वैजवाप-स्मृतिः वत्सस्मृतिः
- मार्कण्डेय
नारदस्मृतिः पुलहस्मृतिः गार्ग्यस्मृतिः पुलस्त्यस्मृति शौनक स्मृति ऋतुस्मृति बौधायनस्मृति जातुकर्णस्मृति विश्वामित्रस्मृति
- नारद - पुलह -गाये - पुलस्त्य - शौनक - ऋतु -बौधायन - जातुकर्ण -विश्वामित्र
-काष्णार्जिनि
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 541
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कौटिलीयम्अर्थशास्त्रम् - कौटिल्य (विष्णुगुप्त)
-जयमंगला व्याख्या चाणक्यनीतिः चाणक्यसप्ततिः चाणक्यसूत्रम्
-बालबोधिनी नीतिकल्पतरुः
- कामदेव क्षेमेन्द्र नीतिवाक्यामृतम्
-सोमदेवसूरि नीतिशतकम्
- भर्तृहरि -व्याख्या नीतिसूत्राणि पंचतंत्रम्
-विष्णुशर्मा पाश्चात्य नीतिशास्त्रम् - विश्वेश्वर सिद्धान्तशिरोमणी पुरुषपरीक्षा
अंगस्त्यसंहिता आश्वलायनधर्मशास्त्र लोमशस्मृतिः
- लोमश गर्गस्मृतिः
- गर्ग कौशिकस्मृति गालवस्मृति गवेयस्मृति सत्यव्रतस्मृतिः वैखानसस्मृतिः लल्लस्मृतिः हिरण्यकेशि स्मृतिः शाकटायनस्मृतिः छागल्यस्मृतिः सप्तर्षिस्मृतिः चन्द्रस्मृतिः इन्द्रदत्तस्मृतिः देवलस्मृतिः शास्त्रायनिस्मृतिः विश्वेश्वरस्मृतिः च्यवनस्मृतिः बभ्रुस्मृतिः पैग्यस्मृतिः प्रहादस्मृतिः षण्मुखस्मृतिः
नीतिशास्त्र ग्रन्थ अक्षयनीतिसुधाकर कथासंवर्तिका कामन्दकीय नीतिसार -कामन्दक
-व्याख्या -व्याख्या
पुरुषार्थोपदेशः
- भर्तृहरि प्रतापकण्ठाभरणम् प्राचीनराज्यार्थशास्त्रयोः
वैज्ञानिकमध्ययनम् -सत्यनारायण मिश्र प्रियदर्शिका प्रशस्तयः भर्तृहरिशतकत्रयम् राजनीतिरत्नाकर
- चण्डेश्वर विदुरनीति
- (महाभारतान्तर्गता) वैशम्पात्यननीतिप्रकाशिका नीतिमंजरी
- द्या (विद्या) द्विवेद शुक्रनीतिः हरिहरचतुरंगम्
- गोदावरी मिश्र हितोपदेशः
- नारायण शर्मा भारतीय संविधानम् मोक्षनीतिदर्पण
542 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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न्यायसूत्राणि
वात्स्यायन भाष्य
न्यायवार्तिक
न्यायवार्तिक तात्पर्यटीका
तात्पर्य परिशुद्धि परिशुद्धिप्रकाश
न्यायतात्पर्यमण्डनम्
न्यायमंजरी
(न्यायसूत्र बृहद्वृत्ति)
न्यायमंजरी प्रन्थिभंग
न्यायदर्शन
न्यायसूत्रविवरणम्
न्यायसूत्रोद्धार
न्यायदीप ( न्यायभाष्य व्याख्या) - मित्र मिश्र
न्यायसूत्रवृत्ति - मितभाषिणी
'-- चन्द्रनारायणी
--"-- पदपंजिका --"-- तात्पर्यदीपिका
--"--
--"--
न्यायसूत्रोद्धार न्यायसूचीनिबन्ध
न्यायनिबन्धप्रकाश व्याख्या न्यायकुसुमांजलि
-आमोद व्याख्या -प्रकाशिका (जलद )
- मकरन्द
- प्रकाश -बोधिनी
- विवेक
-विवरणम्
-विकास
-व्याख्या
-न्यायवासना
-नागेशी
-टिप्पण
-महर्षि गौतम
- वात्स्यायन
-
- भारद्वाज उद्योतकर
- वाचस्पति मिश्र
- उदयनाचार्य
- वर्धमान उपाध्याय - शंकर मिश्र
(प्रकाशव्याख्या) -राधामोहन गोस्वामी
- वाचस्पति मिश्र
- विश्वनाथ पंचानन
- महादेव भट्ट
- चन्द्रनारायण
- वासुदेव काश्मीरक
- जयसिंह
- मुकुन्ददास
- अभयतिलक
-
- जयन्त भट्ट
- चक्रधर
- वाचस्पति मिश्र
- वाचस्पतिमिश्र
- पद्मनाभ
- उदयनाचार्य
- शंकर मिश्र
- मेघ ठक्कुर
- रुचिदत्त
- वर्धमान उपाध्याय
- वर्धमान उपाध्याय
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परिशिष्ट (ज) दार्शनिक वाङ्मय
- गुणानन्द
- जयराम
- गोपीनाथ मौनी
- वामध्वज
-अय्या देवनाथ ताताचार्य - नागेशभट्ट
- बच्चा झा
न्यायकुसुमांजलि हरिदासी
-व्याख्या
-व्याख्या
न्यायकणिका
न्यायसिद्धान्तमाला आत्मतत्त्वविवेक
बौद्धधिकार)
-प्रकाश
- माथुरीरहस्य
-हरिदासी -न्यायालंकार
न्यायसार
-स्वोपज्ञ न्यायभूषण
व्याख्या
-पदपंजिका
पदमंजरी तार्किकरक्षा
-व्याख्या
-प्रकाशिका
-निष्कण्टक
-न्यायकौमुदी
कुसुमांजलिकारिका व्याख्या
योगावली
न्यायरत्नम् न्याय परिशिष्टम्
-ध्वजपंजिका
न्यायसारविचार न्यायसिद्धान्त मंजरी
----
-न्यायसार
-न्यायसिद्धान्तदीप
-प्रभा
न्यायसिद्धान्त मंजरी न्यायरत्नावली
न्यायसार
षोडशपदार्थी
तर्कामृतम्
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- हरिदास
- जयन्तभट्ट
- जयराम
- उदयनाचार्य
- वर्धमान उपाध्याय
- मथुरानाथ
- हरिदास
- अविराज
• भासर्वज्ञ
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- अनन्त
- वरदराज
- ज्ञानपूर्ण
- नृसिंह ठक्कर
- मल्लिनाथ
- विनायक भट्ट
- अविराज
- नारायण
- मणिकण्ठ मिश्र
- उदयनाचार्य
- वामेश्वर
- भट्टराघव
- जानकीनाथ भट्टाचार्य
यादव
- शशधर
-
- श्रीनिवास
-
- वासुदेव
- कृष्णवागीश
- त्रिलोचन देव
- लौगाक्षिभास्कर
- माधवदेव
- गणेशदास
- जगदीश
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-प्रकाश
-तत्त्वालोक तर्ककुतूहलम् तर्कप्रकाश भावदीपिका तर्कभाषा
-चिन्नम्भट्टीया -व्याख्या -तर्कभाषाप्रकाश -व्याख्या -विवरण -न्यायविलास -भावार्थदीपिका -व्याख्या
- विश्वेश्वरपाण्डेय -श्रीकंठ - श्रीकृष्ण - केशव मिश्र -चिन्नंभट्ट - रामलिंग - गोवर्धन - मुरारि - शुभविजय - विश्वनाथ - गौरीकान्त - माधवदेव - सिद्धचन्द्र -माधवभट्ट - गणेश दीक्षित .- वागीश - कौण्डिन्य दीक्षित -गुडुभट्ट - गोपीनाथ मौनी - भास्कर - गोपीनाथ ठक्कुर - चैतन्यभट्ट - दिनकर - गंगाधर भट्ट
दीधितिरहस्यम् -भवानन्दीया
- भवानन्द -जागदीशी
- जगदीश भट्टाचार्य -व्याख्या
-शंकर मिश्र -गंगा व्याख्या - शिवदत्त मिश्र -गादाधरी
- गदाधर भट्टाचार्य -न्यायरत्नम्
- रघुनाथशास्त्री -गंगाव्याख्या
-शिवदत्त मिश्र सार्वभौमनिरुक्ति
- वासुदेव सार्वभौम तत्त्वालोकरहस्यम्
-मथुरानाथ शब्दशक्तिप्रकाशिका - जगदीश भट्टाचार्य व्युत्पत्तिवाद
- गदाधर भट्टाचार्य -विजया
- जयदेव मिश्र -गूढार्थतत्त्वालोक - बच्चा झा -हरिनाथी
-हरिनाथ प्रामाण्यवाद -दीपिका
-बामाचरण भट्टाचार्य न्यायकोश
- भीमाचार्य झळकीकर 'नच' रत्नमालिका
- शास्तु शर्मा तत्त्वप्रभावली प्रत्यक्षतत्त्वचिन्तामणि - गंगेशोपाध्याय
-आलोक -दर्पण -न्यायशिखामणि - रामकृष्णाध्वरि -चित्रप्रकाश - रुचिदत्त मिश्र -माथुरी (मंगलवादान्त) - मथुरानाथ
-तत्त्वप्रबोधिनी -प्रमोदिनी -प्रकाशिका -व्याख्या -उज्ज्वला -दर्पण -भावप्रकाशिका -प्रकाश -कौमुदी -व्याख्या
वैशेषिक दर्शन
- नागेश - रघुनाथभट्ट
योगावली पदार्थखण्डनम् पदार्थतत्त्वनिरूपणम् पदार्थचन्द्रिका पदार्थमाला द्रव्यप्रकाशिका तत्त्वचिन्तामणि (नव्यन्याय)
-व्याख्या -तत्त्वलोक -व्याख्या -हनुमदीया -व्याख्या -प्रकाश
- मित्रमिश्र - लौगाक्षिभास्कर - भगीरथमेघ - गङ्गेश उपाध्याय - वासुदेव सार्वभौम - जयदेव मिश्र - हरिदास मिश्र - हनूमान् -पक्षेश्वर - जानकीनाथ तर्कचूडामणि
(शंकरमित्र के गुरु) - रघुनाथ शिरोमणि
वैशेशिक सूत्राणि
- महर्शि कणाद प्रशस्तपाद भाष्य
- प्रशस्तपाद -सूक्ति व्याख्या - कालीपद तर्काचार्य व्योमवती (प्रशस्तपादव्याख्या) -व्योमशिवाचार्य किरणावली (")
- उदयनाचार्य किरणावली भास्कर
-पद्मनाभ (किरणावली व्याख्या) वैशेषिकसूत्रभाष्य
-रावण
- चन्द्रकान्त तर्कालंकार कणादसूत्रवृत्ति
- भारद्वाज -जयनारायण तर्कपंचानन
- नागेश भट्ट उपस्कार (वैशेषिकसूत्रव्याख्या) - शंकर मिश्र (प्रशस्तपाद) भाष्यसूक्ति -जगदीश कणादरहस्यम्
- शंकर मिश्र
दीधिति (तत्त्वचिन्तामणिव्याख्या) दीधितिव्याख्या
- मथुरानाथ
544/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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लक्षणावली
- प्रकाश
न्यायमुक्तावली (लक्षणावलीव्याख्या)
लक्षणावलीव्याख्या न्यायकन्दली
(प्रशस्तपादभाष्यव्याख्या)
लक्षणमाला
लीलावती
न्यायलीलावती
-प्रकाश
- विवृति
-कण्ठाभरण
दशपदार्थी सप्तपदार्थी
-निष्कण्टका
-भावविघ्नेश्वरी
-व्याख्या
-व्याख्या
- व्याख्या
- व्याख्या
-व्याख्या
-व्याख्या
- मितभाषिणी व्याख्या -पदार्थचन्द्रिका - शिशुबोधिनी सर्वदर्शनकौमुदी मान मनोहर
35
भाषापरिच्छेद (कारिकावली) सिद्धान्तमुक्तावली (स्वोपज्ञव्याख्या)
-प्रकाश चौड़ी
- उदयनाचार्य
- भट्टकेशव
- शाईगधर
- विश्वनाथ झा
- श्रीधर भट्ट
- शिवादित्य
- श्रीबत्साचार्य
- वल्लभ न्यायाचार्य
- ज्ञानचन्द्र
- शिवादित्य
- मल्लिनाथ
- भावविघ्नेश्वर
- सिद्धचन्द्र
- हरि
- जिनवर्धनसूरि
- बलभद्र
- अनन्त
- शेषानन्त
- माधवसरस्वती
- शाईगधर
-
- भैरवेन्द्र
- माधव सरस्वती
- वादि वागीश्वर
विश्वनाथ न्यायपंचानन
-
- बालकृष्ण भट्ट - रुद्र
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-व्याख्या
-व्याख्या
-किरणावली
व्याख्या)
रामरुद्री ( दिनकरी व्याख्या)
-प्रभा व्याख्या
प्रकाश (दिनकरी - मुक्तावली - महादेव - दिनकर भारद्वाज
न्यायचन्द्रिका (कारिकावली व्याख्या) तर्ककौमुदी
-व्याख्या
तर्कसंग्रह
-न्यायबोधिनी
- पदकृत्य -सिद्धान्तचन्द्रोदय
- फक्किका
-व्याख्या
-चन्द्रिका
-वाक्यवृत्ति
- गंगा
तर्कसंग्रह - दीपिका
तर्कसंग्रह- दीपिका प्रकाश भास्करोदया
(दीपिकाप्रकाश व्याख्या) सुखकल्पतरु
( दीपिका व्याख्या)
तर्कसंग्रह - सर्वस्वम् दीपिका - सर्वस्वम् न्यायसिद्धान्ततत्त्वामृतम् लक्षणराजि (लघुन्यायवादत्रय)
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- त्रिलोचन
- कल्याण
- श्रीकृष्णवल्लभाचार्य
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- रामरुद्र भट्टाचार्य राजेश्वरशास्त्री द्रविड
- नारायणतीर्थ
- लौगाक्षिभास्कर
- मोहन भट्ट
- अन्नम्भट्ट
- गोवर्धन
- चन्द्रसिंह
- धूर्जटी
-
-
क्षमाकल्याण
- हनूमान
- मुकुन्दभट्ट
मेरुशास्त्री गोडबोले
- शिवदत्त मिश्र
- अन्नम्भट्ट
- नीलकण्ठभट्ट
- लक्ष्मीनृसिंह
- श्रीनिवास
- कुरुगट्टी रामशास्त्री
- श्रीनिवास
: तिप्पभट्ट
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सांख्यशास्त्र (परिशिष्ट)
-परमार्थ
सांख्य सूत्राणि
- कपिल सांख्यप्रवचनभाष्य
-विज्ञानभिक्षु -वृत्ति
- अनिरुद्ध भट्ट -वृत्तिसार
- महादेव वेदान्ती -वृत्ति
- नागेश भट्ट -व्याख्या
-ब्रह्ममुनि -वृत्ति
-हरिप्रसाद अनिरुद्ध वृत्तिव्याख्या -अमला
- प्रमथनाथ तर्कभूषण -व्याख्या
- कुंजबिहारी तत्त्वसमास सूत्र
-सांख्यतत्त्वविवेचन -सीमानन्द या क्षेमेन्द्र
व्याख्या -सांख्यसूत्रविवरण -क्रमदीपिका (वृत्ति) -सर्वोपकारिणी व्याख्या
-तत्त्व यायार्थ्यदीपन - भावागणेश सांख्यसार
-विज्ञान भिक्षु -व्याख्या
- कालीपद तर्काचार्य सांख्यतत्त्वप्रदीप
- कविराज यति सांख्यकारिका
- ईश्वरकृष्ण (सांख्यसप्तति)
-युक्तिदीपिका व्याख्या -भाष्य
- गौडपाद -माठरवृत्ति
-माठर -जयमंगला व्याख्या - शंकराचार्य (या जयमंगल) -चन्द्रिका व्याख्या - नारायणतीर्थ
-भाष्य
- लक्ष्मीनारायण, श्रीकृष्ण
वल्लभाचार्य -व्याख्या सांख्यवसन्त
- नरहरिनाथ सांख्यतत्त्वप्रदीपिका -केशव तत्त्वमीमांसा
- कृष्णमिश्र सांख्यपरिभाषा सांख्यतत्त्वकौमुदी
- वाचस्पति मिश्र -आवरणदारिणी व्याख्या-कृष्णनाथ न्यायपंचानन -गुणमयी व्याख्या -रमेशचन्द्र तर्कतीर्थ -पूर्णिमा व्याख्या - पंचानन तर्करत्न -विद्वत्तोषिणी व्याख्या - बालराम उदासीन -सुषमा व्याख्या - हरिरामशास्त्री शुक्ल -तत्त्वविभाकर व्याख्या - वंशीधर मिश्र -किरणावली - श्रीकृष्णवल्लभाचार्य -व्याख्या
- भारतीय यति -सारबोधिनी -शिवनारायणशास्त्री -ज्योतिष्मती व्याख्या
आधुनिक सांख्य ग्रन्थ
सांख्यतत्त्वालोक
- हरिहरानन्द आरण्य सांख्यसिद्धान्तपरामर्श - एम. बी. उपाध्याय सांख्यतरंग
-देवतीर्थ स्वामी गुणत्रयविवेक
- स्वयंप्रकाश यति सांख्यरहस्य
- श्रीराम पाण्डेय पंचशिखादीनां सांख्यसूत्राणि - हरिहरानन्द आरण्य
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योगशास्त्र (परिशिष्ट)
(पातंजल) योगसूत्राणि
- पतंजलि -राजमार्तण्डवृत्ति - भोज (रणरंगमल्ल) -भोजवृत्तिव्याख्या - श्रीकृष्णचंद्र -सिद्धान्तचन्द्रिका - नारायण तीर्थ -मणिप्रभा
- रामानन्द यति -दीपिका
- भावागणेश -अर्थबोधिनी - नारायणतीर्थ -बृहत् तथा लघु व्याख्या - नागेश भट्ट -योगचन्द्रिका - अनन्तदेव -व्याख्या
- सदाशिवेन्दु सरस्वती -व्याख्या
- यशोविजय -वैदिकी वृत्ति - हरिप्रसाद -योगरहस्य व्याख्या - सत्यदेव
(आधुनिक) -प्रदीपिका
- बलाद्रि -किरणावली - श्रीकृष्णवल्लभाचार्य -भाष्य
- ज्ञानानन्द स्वामी -योगकारिका - हरिहरानन्द आरण्य किताब पातंजल (अरबी में) - अल्बेरूनी योगसूत्र व्यासभाष्यम्
- व्यास -तत्त्ववैशारदी व्याख्या -वाचस्पति मिश्र -भाष्यवार्तिक - विज्ञान भिक्षु
(योगवार्तिक) -विवरण व्याख्या - शंकराचार्य -भास्वती व्याख्या -हरिहरानन्द आरण्य
शिवस्वरोदय बिन्दुयोग सिद्धसिद्धान्तपद्धति
-नित्यनाथ
- गोरक्षनाथ अमरौधशासनम् (अमरौघप्रबोध) योगमार्तण्ड गोरक्षपद्धति गोरक्षसिद्धान्तसंग्रह गोरक्षशतकम् (ज्ञानशतकम्) सिद्धसिद्धान्तसंग्रह
-बलभद्र हठयोगप्रदीपिका
-स्वात्माराम -ज्योत्स्राव्याख्या -ब्रह्मानन्द योगियाज्ञवल्क्य
- याज्ञवल्क्य योगचिन्तामणि
-शिवानन्द गोरक्षसंहिता विज्ञानभैरव -व्याख्या
-व्रजबल्लभ द्विवेदी योगबीज
- गोरक्षनाथ अमनस्क योग योगतारावली (स्तोत्र) - शंकराचार्य गोरक्षस्तुति मंजरी पंचदशांग योगप्रकरणम् -व्याख्या
- अप्पय्य दीक्षितार्य शिवयोगदीपिका
- सदाशिव योगीश्वर
सांख्य- योगविषयक हठसंकेत चन्द्रिका
-सुन्दरदेव (सरस्वतीभवन, काशी) हठतत्त्वकौमुदी (") सांख्यतत्त्वविलास
- रघुनाथ (अंशतः प्रकाशित) सांख्य तरुवसन्त
- मुडुम्ब नरसिंह स्वामी (अड्यार लाय.)
तंत्रागम ग्रन्थ अत्रिसंहिता आहिर्बुध्न्यसंहिता आगमशास्त्रम्
- गौडपादाचार्य -वृत्ति -व्याख्या
- विधुशेखर भट्टाचार्य ईश्वर-संहिता (नृसिंहकल्प) -
पातंजलरहस्य
-राघवानन्द (तत्त्ववैशारदी व्याख्या) विद्वत्तोषिणी व्याख्या -बालराम उदासीन योगसारसंग्रह
-विञ्जान भिक्षु योगशास्त्र
-हेमचन्द्र
योग (प्रकीर्ण ग्रंथ) घेरण्डसंहिता
-घेरण्डाचार्य ध्यानयोगप्रकाश
- स्वामी लक्ष्मण वेदसरस्वती योगकर्णिका
-अधोरानन्दनाथ शिवसंहिता राजयोग भाष्य
- शंकराचार्य वसिष्ठ संहिता योगार्णव षट्चक्रनिरूपण
- पूर्णानन्द
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खाट / 547
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उत्सवसंग्रह
काश्यपज्ञानकाण्डम् (काश्यपसंहितान्तर्गत) गायत्रीतन्त्रम्
जयाख्यसंहिता
ज्ञानार्णवतंत्रम् दीक्षातत्त्वमीमांसा दीक्षाप्रकाश
-व्याख्या -दीक्षाप्रकाशिका
नारदपत्ररात्रम् भारद्वाज संहिता
- व्याख्या
नित्याषोडशिकार्णव
- सेतुबन्ध टीका पंचांगसंग्रह (महाकालीमहालक्ष्मी महासरस्वती
सम्बद्ध)
परमसंहिता
परशुरामकल्पसूत्रम् -वृत्ति
नित्योत्सव
-वृत्ति
पंचरात्र - रक्षा
पारमेश्वर संहिता
पौष्कर संहिता
(पांचरात्रागमे रत्नत्रयान्तर्गता )
प्रत्यंगिरापंचांगम्
प्रपंचरहस्यहृदयम् बृहद्ब्रह्मसंहिता
-व्याख्या
ब्रह्मसंहिता
- व्याख्या दिग्दर्शिनी
वैतानहृदयम्
मंत्रकल्प मरीचि -संहिता
(विमार्चनाकल्प)
महोत्सव - प्रयोग माहेश्वरतंत्रम्
विष्णु-संहिता
वैखानसागम
शिवसंहिता
श्रीपुराणसंहिता आलवन्दारसंहिता
FE
EFFETTI
- जीवनाथ
- भास्करराय
EI
- रामेश्वर
- उमानाथ
- वेदान्तदेशिक
- रूप गोस्वामी
- रंग भट्टारक
!!!!
548 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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बृहत् सदाशिव संहिता सनत्कुमारसंहिता सात्वतसंहिता
(पांचरात्रान्तर्गत) हयशीर्ष पांचरात्रम्
-व्याख्या
अजितागम
आगमरहस्यम्
प्रश्नसंहिता
क्रियासार
अष्टसिद्धि
-व्याख्या
आर्य मंजुश्रीमूलकल्प (बोधिसत्य पिटकावतंस ) आर्यदीपिका
-व्याख्या
आश्चर्ययोगमालातंत्रम् (योगरत्नावली)
ईशान (शिव) गुरुदेवपद्धति
उड्डामेश्वरतंत्रम् उपदेशमुक्तावली कश्यपदर्शनतंत्रम्
काथबोध (दत्तात्रेयसाम्प्रा.)
- व्याख्या कामकलाविलास - चिद्वल्ली कामाख्यातंत्रम् कार्तवीर्योपासनाध्याय कालीतंत्रम्
- टिप्पणी
कालीनित्यार्चनम् कालीविलासतंत्रम्
कालीस्वरूपतत्त्वम् कुलचूडामणितत्त्वम्
-व्याख्या
-व्याख्या
कौलज्ञाननिर्णय (कौलगजमर्दनम् ) कौलावली - निर्णय कौलावलीसंग्रह क्रमदीपिका
-टिप्पणी
- व्याख्या
गणपतितत्त्वरत्नम्
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,,,,,,,,"""
- संतोषानन्द
- साजनी
- पुष्यानन्द
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- नटनानन्द
- केशवाचार्य (१)
- वसिष्ठ भैरव
- गोविन्द विद्याविनोद भट्टाचार्य
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- श्रीदत्तात्रेय
- प्रतापसिंह शाह नेपालेश्वर - आद्य शंकराचार्य
- हरिहरानन्द भारती - कालिदास
- सदाशिव
गन्धर्वतंत्रम् (दत्तात्रेयसाम्प्र.) गुप्तसाघनरहस्यम् गुह्यसमाजतंत्रम् महानिर्वाणतंत्रम्
-व्याख्या चिद्गगनचन्द्रिका डाकार्णव डाकिनीविद्या तंत्रराज तंत्रराजतंत्रम्
-मनोरमा
-व्याख्या-सुदर्शन तंत्राख्यायिका तंत्रसमुच्चय
-विमर्शिनी
काशीराम विद्यावाचस्पति
पुरश्चरणार्णव प्रपंचसार
-प्राणतोषिणी
-प्रपंचसारसंग्रह बृहद्रत्नजाल (कौतूहलभाण्डागार) बृहत् तंत्रकोष बृहत् साबरतंत्रम्
-व्याख्या भुवनेश्वरीनित्यार्चनम् भुयनेश्वरीरहस्यम् भैरवी-पद्मावतीकल्प
-व्याख्या भैरवीचक्रम् भैरवोपदेश मन्त्रमहार्णव मंत्रमहोदधि
-नौका -पदार्थादर्श -मंत्रवल्ली
-सुभगानन्द नाथ -प्रेमनिधि पन्त
- महीधर
कृष्णानन्द - अभिनवगुप्त
-काशीनाथ - गंगाधर
- अभिनवगुप्त -जयरथ
तंत्रसार तंत्रसार
-व्याख्या तंत्राभिधानम् तांत्रिकचिकित्सा तंत्रालोक
-प्रकाश तारारहस्यम् तारास्वरूपतत्त्वम् त्रिपुरारहस्यम्
-तात्पर्यदीपिका दक्षिणामूर्तिसंहिता दत्तभार्गवसंवाद
-व्याख्या दत्तात्रेयतन्त्रम् देवीयामविलास देवीरहस्यम् (सपरिशिष्टम्) देवीशतकम्
-विवृत्ति धन्वन्तरितंत्र शिक्षा नरोत्तमसंग्रह निष्पन्नयोगावली नृसिंह-परिचर्चा पंचतत्त्वरहस्यम् पारानन्दसूत्रम् पुरश्चरणदीपिका
- साहिब कौल
मंत्रयोग संहिता
__-व्याख्या मंत्ररत्नमंजूषा
- त्रिविक्रमभट्टारक महात्रिपुरसुन्दरीपूजाकल्प
-व्याख्या महाजयप्रकाश महामृत्युंजय विधिप्रकाश मातृकाचक्रविवेक
- स्वतंत्रानन्दतीर्थ -व्याख्या मातृकाभेदतंत्रम् मुद्राविचारप्रकरणम् मेरुतंत्रम् मोहिनीतन्त्रम् योगिनीतन्त्रम् -दीपिका
- अमृतानन्द रत्नगोत्रविभाग (महायाततंत्रम्) - रामार्चनचन्द्रिका लक्ष्मीतंत्रम् वशीकरणतंत्रम् आदिकामरत्नम् वामकेश्वरीमतम्
-विवरण वरिवस्यारहस्यम्
- भास्करराय मखी -प्रकाश
-आनन्दवर्धन कैयट
.
-कृष्णदेव
- त्रिविकमतीर्थ - काशीनाथ भट्ट
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-सुबोधिनी
बालास्तव मंजरी वैजयन्तीमतम् (वैदिक) बगलासुखी
पूजापद्धति शक्तिसंगमतंत्रम् शतचण्डीविधानम् शतरत्नसंग्रहः
- उमापति शिवाचार्य -व्याख्या शाक्तप्रमोद शाक्तानन्दतरङ्गिणी - ब्रह्मानन्दगिरी
-व्याख्या शारदातिलकम्
-लक्ष्मणदेशिकेन्द्र -पदार्थादर्श - राघवभट्ट शिवपंचाक्षरीभाष्यम् - पद्मपादाचार्य
-हरिनाथ दत्त शेषसमुच्चयः
-विमर्शिनी -शंकराचार्य श्यामारहस्यम्
- पूर्णानन्दगिरि श्यामारहस्यतंत्रम् श्यामासपर्यापद्धति
-श्यामानन्द -वासना श्रीगुरुतंत्रम् (श्री) चण्डिकोपास्तिदीपिका -
-अर्थप्रकाश श्रीतत्त्वचिन्तामणि
-व्याख्या श्रीस्तवरत्ननिधि
-सेग्रा. पुरुषोत्तमदास श्रीतत्त्वनिधिः
- मैसूरनरेश श्रीभक्तिगीता श्रीविद्याखड्गमाला श्रीविद्यानित्यार्चनम् श्रीविद्यामंत्रभाष्यम्
-त्रिकाण्डसमर्थावबोधिनीश्रीविद्यारत्नसूत्राणि
-दीपिका श्रीविद्यार्णवतंत्रम् राधातंत्रम् सोल्लासतंत्रम् सात्वततसंत्रम् साधनमाला
- विनयतोष भट्टाचार्य श्रीगुरुतंत्रम् कालिकासहस्रनामानि गायत्रीरहस्यम् जपसूत्रम् तंत्रसंग्रह
-संक.गोपीनाथ कविराज लुप्तागमगसंग्रहः विज्ञानभैरवः ज्ञानार्णवतंत्रम् कुलार्णवतंत्रम् साधनरहस्यम् साम्राज्यलक्ष्मीपीठिका सेकोद्देशः
-व्याख्या हंसविलासः हनुमदुपासना हनुमत्पंचागम् भुवनेश्वरी महास्तोत्रम्
-प्रबोधिनी - पृथ्वीधराचार्य मंत्रकौमुदी छिन्नमस्तानित्यार्चनम् गायत्रीतत्त्वविमर्श परातंत्रम्
- चन्द्रशयशेरजंग रेणुकातंत्रम् गोरक्षसंहिता
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मीमांसावाङ्मय
पूर्वमीमांसादर्शन
मीमांसादर्शनम् (सूत्राणि, -महर्षि जैमिनि
द्वादशलक्षणी) शाबरभाष्यम्
- शबरस्वामी बृहती (शाबरभाष्य व्याख्या) -प्रभाकर मिश्र ऋजुविमला (बृहतीव्याख्या) - शालिकनाथ जैमिनीय सूत्रवृत्तिः
- उपवर्ष न्यायमालाविस्तरः (जैमिनीय - सोमेश्वर
सूत्रवृत्तिः ) जैमिनीय सूत्रवृत्तिः
- पार्थसारथि मिश्र जैमिनीय न्यायमालाविस्तरः - माधवाचार्य मीमांसानयविवेक (जै.सू.व.) - भवनाथ भाष्यदीपिका (जै.सू.व.) -खण्डदेव
-प्रश्नावली - शम्भुभट्ट सेश्वरमीमांसा (जै.सू.वृ.) - वेदान्तदेशिक शांबरभाष्यवार्तिकम् - वार्तिककार श्लोकवार्तिकम्
-कुमारिलभट्ट न्यायरत्नाकर (श्लोकवार्तिक - पार्थसारथि मिश्र
व्याख्या) काशिका (-"-)
- सुचरित मिश्र तंत्रवार्तिकम्
- कुमारलिभट्ट न्यायरत्नमाला (तंत्रवार्तिक - पार्थसारथि मिश्र
व्याख्या
(तंत्रवार्तिक व्याख्या) - मण्डनमिश्र न्यायसुधा (-")
- सोमेश्वर तंत्रवार्तिकव्याख्या
- कमलाकर -कवीन्द्र
- पालभट्ट तंत्ररत्नम्
- पार्थसारथि मिश्र टुप्टीका
-कुमारिलभट्ट शास्त्रदीपिका
- पार्थसारथि -सिद्धान्तचन्द्रिका -रामकृष्ण -व्याख्या
-नारायण -कर्पूरवार्तिकम् -सोमेश्वेर -मयूखमालिका -सोमनाथ -आलोकव्याख्या -कमलाकर -प्रभा
- बालंभट्ट शास्त्रदीपिकाप्रकाशः - शंकरभट्ट (शास्त्रदीपिका व्याख्या)
भाट्टदिनकर (शास्त्रदीपिका - भट्ट दिनकर
व्याख्या) विधिविवेक
- मण्डनमिश्र न्यायकणिका
- वाचस्पति मिश्र (विधिविवेकव्याख्या) विधिरसायनम्
- अप्पय्य दीक्षित -सुखोपयोजिनी मीमांसानुक्रमणिका - मण्डनमिश्र
-मीमांसामण्डन - गंगानाथ झा अधिकरण कौमुदी - देवनाथ ठक्कुर अध्वरमीमांसा कुतूहलवृत्ति - वासुदेव दीक्षित (जै.सू.वृ.) कल्पकलिता (शावरभाष्य
व्याख्या) कर्ममीमांसादर्शन
-भारद्वाज -भाष्य तौतातितमततिलकम्
- भवदेव न्यायबिन्दु
- भट्ट बैद्यनाथ (बालभट्ट) पूर्वमीमांसाधिकरण कौमुदी - रामकृष्ण भट्टाचार्य प्रकरणपंचिका
- नंदीश्वर प्रमाणलक्षणम्
-सर्वज्ञात्म महामुनि मीमांसाकौस्तुभ
-खण्डदेव वाक्यार्थरत्नम्
-सुवर्णमुद्रिकाव्याख्या-अहोबलसुरि मीमांसान्यायप्रकाशः -आपदेव
-सारविवेचिनी -चिन्नस्वामीशास्त्री -कृष्णनाथी -कृष्णकान्त -व्याख्या
- वासुदेवशास्त्री अभ्यंकर विधिरसायनदूषणम् - शंकरभट्ट प्रभाकरविजयः
- नंदीश्वर अंशतत्त्वनिरुक्ति
- मुरारिमिश्र नीतितत्त्वाविर्भावः
-चिदानन्द पण्डित जैमिनीयसूत्रार्थसंग्रह - ऋषिपुत्र परमेश्वर मीमांसाबालकाश - शंकर भट्ट सुबोधिनी न्यायबिन्दुः (जैमिनीय सूत्रवृत्ति)- बालम्भट्ट भादृचिन्तामणि
- गागाभट्ट भादृसंग्रह
- राघवानन्द मीमांसापरिभाषा
-कृष्णयज्वा प्रकरण-पंचिका
- शालिकनाथ
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 551
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-"-प्रकाशिका
- अनन्तदेव - लौगाक्षिभास्कर - अर्जुनमिश्र -शिवयोगी
-"-कुसुमांजलि
- रामकृष्ण -वल्लभाचार्य -गागाभट्ट - श्रीनिवासाध्वरी
मीमांसान्यायवृत्ति अर्थसंग्रह
-व्याख्या -व्याख्या
-व्याख्या भाट्टभाषा-प्रकाशिका भाट्टभाषाप्रकाशः जैमिनीय सूत्रवृत्ति
-राघवानन्द
-"-दीधितिः -"-सुबोधिनी
- नारायण -नारायण -हरि -भर्तमित्र - भवदास
प्रभाकर - वाचस्पति मिश्र -वेंकटाचार्य
-"-ज्योतिष्प्रदीपिका -"-नयोद्योत -"-विद्वन्मनोहरा
- दामोदरभट्ट - करविन्दस्वामी - लक्ष्मणसूरि - लौगाक्षिभास्कर - नारायणभट्ट - महादेव तीर्थ - नागेश - नीलकण्ठ दैवज्ञ
-"-सुबोधिनी
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ब्रह्मसूत्राणि ब्रह्मसूत्रवृत्ति - मिताक्षरा ब्रह्मसूत्रवृत्तिः दीपिका ब्रह्मसूत्रवृत्ति अद्वैतामृतवर्षिणी ब्रह्मसूत्रवृत्ति ब्रह्मामृतवर्षिणी ब्रह्मसूत्रतात्पर्यविवरण शारीरकमीमांसाभाष्यम् (भाष्य) तात्पर्यसंग्रह
भामती
(")
रत्नप्रभा (भामतीव्या.) पूर्णानन्दी ( रत्नप्रभाव्या.) रत्नप्रभाटिप्पणम् कल्पतरु ( भामतीव्या.)
परिमल ( कल्पतरु व्या.) आभोग (") पंचपादिका (शाङ्करभाष्य
- व्या.) व्याख्या -व्याख्या पददीपिका (पक्षपादिकाव्या.)
पंचपादिका विवरणम्
-व्याख्या -विवरणोपन्यास
विवरणभाव प्रकाशिका
पंचपादिकादर्पणम्
विवरणप्रमेयसंग्रह
(भाष्यव्याख्यान)
भाष्यवार्तिकम् (भाष्यव्याख्यान -नारायण सरस्वती
वेदान्तवचनभूषणम् (") शांकरवाद भूषणम् (") ब्रह्मविद्याभरणम् (") न्यायनिर्णयः (") भाष्यव्याख्यानम् ('')
(")
-शिखामणि
- मणिप्रभा -अर्थदीपिका
सिध्दान्तलेशसंग्रह
- वेदव्यास
- अन्नम्भट्ट
- शंकरानन्द
सदाशिवेन्द्र सरस्वती
- बिन्दुशीकर
- रामानन्द सरस्वती
- भैरवतिलक
- आद्य शंकराचार्य - रामचन्द्रतीर्थ
परिशिष्ट
- स्वयंप्रकाशानंद सरस्वती - रघुनाथसूरि पर्व
अद्वैतानन्द सरस्वती - आनन्दगिरी
- विश्वदेव
- गोपालानन्द
- आनन्दपूर्ण
- विद्यासागर
धर्मराजभ्वरीन्द्र प्रकाशानन्दमुनि - कृष्णभट
- रामानन्द सरस्वती नृसिंह मुनि
तत्त्वदीपनम् (विवरण- विवरणम् अखण्डानन्द सरस्वती
वेदान्तपरिभाषा
- धर्मराजाध्वरीन्द्र
- वाचस्पति मिश्र
- गोविन्दानन्द या रामानन्द - पूर्णप्रकाशानन्द -केशवानन्दस्वामी - अमलानन्द सरस्वती - अप्पय्य दीक्षित
- लक्ष्मीनृसिंह
- पद्मपादाचार्य
अमलानन्द
- विद्यारण्यस्वामी
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- शिवदत्त
- अप्पय्य दीक्षित
• धर्मय्य दीक्षित
-
-
वेदान्त दर्शन (अद्वैत)
-अच्युतकृष्णानन्दातीर्थ - सर्वज्ञात्ममुनि
संक्षेपशारीरकम्
- रामचन्द्र
संक्षेपशारीरिक सारसंग्रहदीपिका मधुसूदन सरस्वती -- "-- तत्त्वबोधिनी - नृसिंहाश्रम --"-अन्वयार्थप्रकाशिका - रामतीर्थ
सिद्धान्तबिन्दु
-कृष्णालंकार
-व्याख्या
-तत्त्वविवेक
-बिन्दुसन्दीपनम्
-व्याख्या
अद्वैतसिद्धि
लघुबृहत् चन्द्रिका (अद्वैतसिद्धिव्या. गौडब्रह्मानन्दी विठ्ठलेशी (चन्द्रिकाव्याख्यान) - विठ्ठलेशोपाध्याय अद्वैतसिद्धि सिद्धान्तसार
- सदानन्द व्यास
-बालबोधिनी
- योगीन्द्रानन्द बागची
अद्वैतरत्वरक्षणम्
वेदान्त कल्पलतिका
प्रस्थानभेद
अद्वैतानुभूति
आत्मवोध
भावप्रकाशिका
बालबोधिनी
प्रत्यक्तत्त्व प्रदीपिका (चित्सुखी - चित्सुखाचार्य नयनप्रसादिनी
अपरोक्षानुभव
अनुभव दीपिका
व्याख्या
वाक्यवृत्ति
उपदेशसाहस्त्री
व्याख्या
प्रकाशिका
नैष्कर्म्यसिद्धि
चन्द्रिका संदेहापहारिणी
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न्यायमकरन्द
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-व्याख्या
खण्डनखण्डखाद्य
- मधुसूदन सरस्वती - पूर्णानन्दतीर्थ • पुरुषोत्तम सरस्वती -वासुदवेशास्त्री अभ्यंकर
- मधुसूदन सरस्वती
- ब्रह्मानन्द सरस्वती
- प्रत्यक्स्वरूप भगवत्पाद
- मधुसूदन सरस्वती
- मधुसूदन सरस्वती
- मधुसूदन सरस्वती
- गोविन्द भगवत्पाद
- शंकराचार्य
- बोधेन्द्र
- नारायणतीर्थ
- शंकराचार्य
- चण्डेश्वर
- नित्यानंद
- शंकराचार्य
- विश्वेश्वर
- शंकराचार्य
- रामतीर्थ
- आनन्दराम
- सुरेश्वराचार्य
- ज्ञानोत्तम
- सच्चिदानंद
- आनन्दबोध
- चित्सुखाचार्य
- श्रीहर्ष
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- शंकरमिश्र
-शांकरी -विद्यासागरी
-व्याख्या शाब्दनिर्णय तत्त्वदीपनम् माण्डूक्यकारिका
-मिताक्षरा
-दीपिका बृहदारण्यकभाष्यवार्तिकम् बृहदारण्यक वार्तिकसारः
-लघुसंग्रह न्यायमुक्तावली अद्वैत-मकरन्द
-व्याख्या जीवन्मुक्तिविवेक पंचदशी
-व्याख्या -व्याख्या
-व्याख्या भेदधिक्कार
-(सक्रिया)
- शंकरचैतन्य भारती - प्रकाशात्ममुनि - स्वयंप्रकाशयति - गौडपादाचार्य - स्वयंप्रकाशानन्द - शंकरानन्द -सुरेश्वराचार्य - विद्यारण्यास्वामी - महेश्वरतीर्थ -अप्पय्य दीक्षित - लक्ष्मीधर - पूर्णानन्दतीर्थ - विद्यारण्य
- रामकृष्ण - अच्युतराय मोडक - सदानन्द - नृसिंहाश्रम - नारायणाश्रम - नृसिंह दीक्षित
-अद्वैतचिन्ताकौस्तुभ - -व्याख्या
- शुकाचार्य वेदान्ततत्त्वसार
- विद्येन्द्र सरस्वती अभेदाखण्डचन्द्रमा
- आत्मदेव पंचानन अद्वैतामोद
- वासुदेव शास्त्री अभ्यंकर अद्वैतचन्द्रिका
- सुदर्शनाचार्य वैयासिक न्यायमाला -विद्यारण्य
- भारतीतीर्थ अद्वैतरत्नाकर
-अमरदास • -व्याख्या अद्वैतरसमंजरी
- सदाशिवब्रह्मेन्द्र -लघुविवरण अद्वैतवेदान्तरक्षणम् - योगीन्द्रानन्दगिरि -व्याख्या
- वासुदेव शास्त्री अध्यात्मविद्योपदेशविधि - शंकराचार्य अनुभवानन्दलहरी
- केशवानन्दयति आत्मानात्मविवेक
- शंकराचार्य -विमला
- जगदीशचन्द्र मिश्र आत्मोल्लास उपक्रम-पराक्रम
- अप्यय्य दीक्षित तत्त्वबिन्दु
- वाचस्पति तत्त्वबोध
- शंकराचार्य त्रिपुरारहस्यम् (ज्ञानखण्ड) न्यायचन्द्रिका
- आनन्दपूर्ण मुनीन्द्र -न्यायप्रकाशिका - स्वरूपानन्द मुनीन्द्र न्यायभास्करखण्डनम् - राम सुब्रह्मण्यशास्त्री मध्वचन्द्रिकाखण्डनम् न्यायरत्नदीपावलि
- आनन्दानुभव -वेदान्तविवेक - आनन्दज्ञान पंचपादिकाप्रस्थानम् - सचिदानन्देन्द्र सरस्वती पंचीकरणम् (भाष्यम्) -शंकराचार्य
-वार्तिक वार्तिकाभरण - सुरेश्वराचार्य -विवरण
- रामतीर्थ -तत्त्वचन्द्रिका - सायणाचार्य पुरुषार्थसुधानिधि प्रज्ञानानन्दप्रकाश
___-भावार्थकौमुदी पुरुषार्थचतुष्टयम् परमतत्त्वमीमांसा
- श्रीकृष्ण जोशी (मति प्रशिक्षण शास्त्रम्)
-भाष्य प्रणवकल्पप्रकाश- गंगाधरेन्द्र सरस्वती प्रत्यक्तत्त्वचिन्तामणि
- सदानन्द -व्याख्या प्रमेय रत्नावली
- बलदेव विद्याभूषण
-."
- नृसिंहाश्रम - नारायणाश्रम सदानन्द
अद्वैत-चन्द्रिका अद्वैत-दीपिका
-विवरणम्
-व्याख्या अद्वैतब्रह्मसिद्धिः जीवन्मुक्तिप्रक्रिया वेदान्तसारः
-सुबोधिनी -विद्वन्मनोरंजिनी -व्याख्या
-मणिप्रभा -अर्थदीपिका
-व्याख्या वेदान्तमुक्तावली
-व्याख्या
-व्याख्या अद्वैतप्रकाश अद्वैतरहस्यम् अद्वैतनिर्णयसंग्रह वेदान्तकौमुदी अद्वैतचिन्तामणि
- दयाशंकर - रामतीर्थ - रामकृष्णाध्वरीन्द्र
नृसिंहसरस्वती -अमरदास -शिवदत्त -धनपति -प्रकाशानन्द -ब्रह्मानन्दसरस्वती - रामसुब्रह्मण्य - रामचंद्र - रामचंद्र -रामचंद्र - अद्वयारण्यमुनि - रंगोजिभट्ट
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- शंकराचार्य - विश्वेश्वर - नृसिंहसरस्वती
बोधैक्य सिद्धि
- अच्युतराय __-अद्वैतात्मप्रबोध बोधसार
- नरहरि -व्याख्या
- दिवाकर ब्रह्मसिद्धि
- मण्डन मिश्र -भावशुद्धि
- आनन्दपूर्ण मुनि -अभिप्राय प्रकाशिका - चित्सुख ब्रह्मसूत्रभाष्यार्थरत्नमाला - सुब्रह्मण्य मध्वमुखमर्दनम्
- अप्पय्य दीक्षित ब्रह्मामृतम्
- जयकृष्ण ब्रह्मतीर्थ महावाक्यविवरणम् लघुयोगवासिष्ठ
- आत्मसुख -वासिष्ठचन्द्रिका
लघुवाक्यवृत्ति
-व्याख्या वेदान्तडिण्डिम
__-भावबोधिनी वाक्यसुधा शंकरदिग्विजय शंकरात् प्रागद्वैतवाद शांकर पादभूषणम् शुद्ध शांकरप्रक्रिया भास्कर श्रुतिसारसमुद्धरणम् सनत्सुजातीय शांकर भाष्यम्
-नीलकण्ठी हरिहराद्वैतभूषणम्
- शंकराचार्य - विद्यारण्य - मुरलीधर पाण्डेय - रघुनाथ सूरि -सच्चिदानन्द - तोटकाचार्य - शंकराचार्य -नीलकण्ठ - बोधेन्द्र सरस्वती
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 555
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अद्वैतेतर वेदान्त विशिष्टाद्वैत वेदान्त
(रामानुज- रामानन्द)
अधिकरण-सारावली - वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक
-अधिकरणचिन्तामणि - वरदगुरु
-सारार्थरत्नप्रभा - वीरराघवाचार्य अन्तर्व्याप्तिविचारो
- वेंकटाचार्य बहिव्याप्तिविचारश्व अर्थपंचकम् अष्टलोकी (वैष्णवदासीया) - पराशरभट्टार्य
-सौम्योपयन्तृ व्याख्या -वैष्णवदास आगमप्रामाण्यम्
- यामुन मुनि -व्याख्या ऊद्धर्वपुण्ड्र धारणविधि ईशावास्योपनिषद्भाष्य -वीरराघवाचार्य
-आचार्य भाष्यतात्पर्य कार्याधिकरणतत्त्वम् - कस्तूरी रंगाचार्य कार्याधिकरणवाद
-टी.ए.वी. रंगाचार्य कुट्टष्टिध्वान्तमार्तण्ड - रंगाचार्यस्वामी गहात्रयम्
-रामानुज मुनि चक्रधारण प्रमाणसंग्रह तत्त्वटीका (श्री भाष्यव्याख्या) - वेदान्तदेशिक तत्त्वनिर्णय
- वरदाचार्य तत्त्वत्रयम्
- लोकाचार्यस्वामी तत्त्वमुक्ताकलाप
- डी.श्रीनिवासाचार्य -सर्वार्थसिद्धि
-आनन्ददायिनी टिप्पणी - नृसिंहदेव तत्त्वशेखर तत्त्वसार
- वेंकटाचार्य ___ -रत्नसारिणी तप्तमुद्राधारण-मीमांसा दूर्वाविधूननम्
- रुद्रभट्ट द्वारिकापत्तलम्
-बीनाबाई गंगावाक्यावली
- विश्वासोदेवी न्यायकुलिशम्
- आत्रेय रामानुजाचार्य
परमार्थप्रकाशिका
- टी.वी. राघवाचार्य (अद्वैतमोदगव्य परिशीलनरूपा) पाराशर्य-विजय
- रामानुजाचार्य प्रतिमागुणदर्पणम् परमार्थभूषणम्
(शतदूषणीमण्डनम्, शतभूषण्यादि
खण्डनस्वरुपम्) - वीरराघयाचार्य प्रपन्नपारिजात
-व्याख्या प्रपन्नामृतम्
- अनन्ताचार्य भस्मधारणविचार
- अनन्ताचार्य स्वामी श्रीभाष्यप्रकाशिका
- श्रीनिवासाचार्य श्रीभाष्यवार्तिकम् भेदवाद महामोहविद्रावणम् सेश्वरमीमांसा
वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक मीमांसापादुका मीमांसा पादुकापरित्राणम् - कुमार वरदाचार्य
-सूक्ष्मार्थव्याख्या - वीर राघवाचार्य
-सत्पथसंचार - वीर राघवाचार्य न्यायसिद्धांजनम्
- वेदान्तदेशिक -रत्नपेटिका
-रंगरामानुजभाष्य मुमुक्षुरहस्यम्
- लोकाचार्य -व्याख्या
- अनन्ताचार्य यतिराजवैभवम्
- आन्ध्र पूर्णाचार्य यतीन्द्र मतदीपिका
- श्रीनिवासाचार्य -प्रकाश
- वासुदेव शास्त्री वडवानल-प्रथमज्वाला - अनन्ताचार्य वाल्मीकिभावदीप विलक्षणमोक्षधिकार विशिष्टाद्वैतमतविजयवाद विशिष्टाद्वैताधिकरणमाला
- सुदर्शनाचार्य रामानुज वेदान्तसार
-अधिकरण सारावली विष्णुतत्त्वदीपिका
- तिमण्णाचार्य रक्षाग्रन्था (निक्षेपरक्षा, सच्चारित्ररक्षा,
-वेदान्ताचार्य -वीरराघवाचार्य
न्यायपरिशुद्धि
-व्याख्या व्यायतत्त्वप्रकाशिका -रत्नपेटिका
-रंगरामानुजभाष्य पंचरहस्यम्
- पराशर भट्टार्य
556 संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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पांचरात्ररक्षा, गीतार्थसंग्रहरक्षा)
-वेंकटनाथ वेदान्तदेशिक वेदार्थ-संग्रह
- रामानुजाचार्य -व्याख्या
...".. वेदान्त-कारिकावली - वेंकटाचार्य -व्याख्या
-कृष्णंमाचार्य वेदान्तदीप (ब्रह्मसूत्रव्याख्या) - भगवद् रामानुजाचार्य
-सुबोधिनी -श्री
- राघवाचार्य वेदान्तरहस्यम् वेदान्तवादावली
-तात्पर्यदीपिका वैष्णवधर्म मीमांसा वैष्णवमताब्ज भास्कर वैष्णवब्रतोत्सवनिर्णय व्यामोहनिद्रावरणम् व्याससिद्धान्त मार्तण्ड शतदूषणी
वेंकटनाथ वेदान्ताचार्य -व्याख्या
-चण्डमारुत शारीरकमीमांसा भाष्यम् - भगावद्ामानुज्ञाचार्य (श्रीभाष्यम्)
-समासोक्ति -श्रुतिप्रकाशिका - सुदर्शन सूरि -तत्त्वप्रकाशिका
-विवृत्ति श्रीवचनभूषण मीमांसा भाष्यम् श्रीवचनभूषणरहस्यम् ___ -व्याख्या
- लोकाचार्य वादिभीकर वैभवम् (आचार्यचर्यामृतम्) श्रीशारीरकाधिकरणमाला -अनन्तदास
-प्रकाश सिद्धित्रयम्
- यामुनाचार्य
-गूढप्रकाश - वीरराघवाचार्य गोदाम्बाव्रतानुष्ठानम् - श्रीकृष्णपादसूरि
-मंजरी ब्रह्मसूत्रीय-वेदान्तवृत्ति सुदर्शनमीमांसा मयूखसंहिता मानरत्नावली श्रीसम्प्रदायेतिहस भगवद्गुणदर्पणम् (रामानन्द संप्रदाय) - मधुराचार्य -व्याख्या
- रामप्रपन्नाचार्य सिद्धान्तदीपक
- अनन्ताचार्य (रामानन्द संप्रदाय)
-किरणावलीवृत्ति - रामप्रपन्नाचार्य अध्यासध्वंसलेश .
-शीलदेवाचार्य (रामानन्द संप्रदाय)
-तात्पर्यचन्द्रिका श्रीतप्रमेय चन्द्रिका
- श्रियानन्दाचार्य -प्रभा श्रीतार्थसंग्रह (रामानंद सं.)
- अनुभवानन्दाचार्य षड्भास्करसमुच्चय खण्डनोद्धार
- त्रिदण्डीस्वामी योगिराज -दीपिका सिद्धिवैतथ्यम्
-रामकृष्ण प्रपन्नाचार्य बौधायन-मतादर्श (रामानन्द - पूर्णानन्दाचार्य
सं.) अद्वैतवादखण्डनम् नय धुमणि
- मेघानन्दसूरि ईशाद्यष्टोपनिषदानन्द भाष्यम् । छान्दोग्यानन्द भाष्यम् बृहदारण्यकानन्दभाष्यम् वेदरहस्यम्
-संग्राहक बोधायन
पुरुषोत्तमाचार्य -रहस्यमार्तण्डभाष्य -मार्तण्डभाष्यदीपिका - रामप्रपन्नाचार्य
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 557
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द्वैतवादी माध्ववेदान्त प्रथ
ब्रह्मसूत्र पूर्णप्रज्ञ भाष्यम्
-व्याख्या
- मध्वाचार्य - जयतीर्थ - व्यासतीर्थ - राघवेन्द्रतीर्थ - जयतीर्थ -आनन्दतीर्थ
(सर्वमूलम्-।।) गीतातात्पर्यनिणर्य (सर्वमूलम्-।।।) न्यायविवरणम् द्वादशस्तोत्रम् कृष्णामृतमहार्णव तंत्रसारसंग्रह सदाचारस्मृति भागवततात्पर्यनिर्णय महाभारतात्पर्यनिर्णय (सर्वमूलम्- IV) षट्प्रश्नटीका
वादावली सत्तत्त्वरत्नमाला सत्तत्त्वरत्नावली सूत्रार्थामृतलहरी गीतातात्पर्यनिर्णय गीता-माध्वभाष्यम् (सर्व मूलम्-।) ब्रह्मसूत्राणुभाष्यम् अणुव्याख्यानम् प्रमाणलक्षण सार वेदभाष्यम् देशापनिषद्भाष्यम्
- कृष्णावधूत पण्डित - रामप्रसाद स्वामी -मध्वाचार्य
- मंकालधर्माचार्य
-भाष्य
-व्याख्या ब्रह्मसूत्र-भास्करभाष्यम्
558/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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शुद्धाद्वैत (वल्लभ) वेदान्तग्रन्था :
-निर्भयराम भट्ट
अधिकरणसंग्रह अन्तःकरण प्रबोध
-पंचटीकोपेत
- गोकुलनाथ, रघुनाथ, हरिराम,
व्रजराज, पुरुषोत्तम - पुरुषोत्तम गोस्वामी
अवतारवादावली
-विवृति उत्सवप्रसाद (संवत्सरोत्सव कालनिर्णय) कामाख्यदोष विवरणम् पुष्टिमार्गलक्षणानि कृष्णाश्रयस्तोत्रम्
-व्याख्याषट्कोपेतम्
- माधवशर्मा
- रघुनाथ, कल्याणराय, गोविन्दराज, द्वारिकेश्वर, व्रजराजादि - वल्लभाचार्य - पुरुषोत्तम, इन्दिरेश
गायत्रीमंत्रभाष्यम्
-व्याख्या गीतातात्पर्यम् गूढार्थदीपिका (रासपंचाध्यायी भ्रमरगीतव्याख्या) गोविन्दलीलामृतम् चतुःश्लोकी षट्टीकोपेता
- धनपतिसूरि
निर्णयार्णव
-बालकृष्ण भट्ट (विविध शंका निवर्तक) न्यायादेश करावलम्बनम्
- पुरुषोत्तम गोस्वामी -विवरण पुरुषोत्तमनामसहस्रम्
- रघुनाथ -नामचन्द्रिका पुष्टिप्रवाहमर्यादा
-बलभद्रभट्ट -विवरणचतुष्टय पुष्टिमार्गप्रमाणनिर्णय - अनिरुद्ध गोस्वामी पुष्टिमार्गीय परम्परानिर्णय प्रमेयरत्नार्णव
- बालकृष्ण भट्ट प्रस्थानरत्नाकर
- गोस्वामी पुरुषोत्तम प्राभंजन : (शुद्धाद्वैतमण्डन पर सहस्राक्षखण्डनपरश्च) - विठ्ठलनाथ गोस्वामी
-मारुतशक्तिव्याख्या - गोवर्धनशर्मा ब्रह्मवाद
- गोस्वामी हरिराय -विवरण
- गोपालकृष्ण भट्ट ब्रह्मवाद
- गोस्वामी व्रजनाथ ब्रह्मसूत्र अणुभाष्यम् - वल्लभाचार्य
-भाष्यप्रदीप - इच्छाराम भट्ट -भाष्यप्रकाश - पुरुषोत्तम -भाष्यप्रकाशराश्मि -गोपेश्वर -अणुव्याख्यानपांचकम् - मुरलीधर प्रभृति
-बालबोधिनी - श्रीधर पाठक ब्रह्मसूत्रवृत्ति-मरीचिका -व्रजनाथ भट्ट
-भावप्रकाशिका - गोस्वामी श्रीकृष्णचन्द्र भक्तिमार्तण्ड
- गोस्वामी गोपेश्वर भक्तिहंस
- गोस्वामी विठ्ठलनाथ -भक्तितरङ्गिणी
- रघुनाथ -व्याख्या
- पुरुषोत्तम भक्तिवर्धिनी
-चतुर्दशविवृति भागवतव्याख्या सुबोधिनी - वल्लभाचार्य
-टिप्पणी, प्रकाश -विठ्ठलनाथ, पुरुषोत्तम माधुर्यकादम्बिनी
- विश्वनाथ चक्रवर्ती वल्लभाष्टकम्
-विवरणचतुष्टय - गोकुलेशादि वादावली
- गोस्वामी पुरुषोत्तमादि विद्वन्पण्डनम्
- विठ्ठलनाथ दीक्षित
- कृष्णदास - वल्लभाचार्य, व्रजराज, श्रीकृष्णदास, द्वारकेश, कल्याणराय, पुरुषोत्तम - वल्लभाचार्य
- वल्लभ दीक्षित
- गोस्वामी पुरुषोत्तम
तत्त्वार्थदीप
-आवरण भंगव्याख्या -प्रकाश
-विद्या वैजयंती त्रिविधनामावली
-विवृति द्रव्यशुद्धि (सदाचार प्रवर्तक ग्रंथ) नवरत्नम्
-विवृति नामरत्नस्तोत्रम् (विठ्ठलेशाष्टोत्तरशत नामानि)
-व्याख्या चतुष्टयम् निरोखलक्षणम्
-षड्विवरणानि वल्लभवंशवृक्ष
- वल्लभाचार्य -विठ्ठलेश - रघुनाथ
-देवकीनन्दन, गोपेशादि
- गोपेशादि
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- गो. पुरुषोत्तम - जगन्नाथ सुधी - गोवर्धनशर्मा - गो. पुरुषोत्तम
-सुवर्णसूत्र व्याख्या रसव्याख्या वेदान्तचिन्तामणि वेदान्ताधिकरणमाला शुद्धाद्वैत-सिद्धान्तसार शुद्धाद्वैत-मार्तण्ड
-प्रकाश श्रृङ्गाररसमण्डनम् सत्सिद्धान्तमार्तण्ड सम्प्रदायप्रदीप सिद्धान्तमुक्तावली
-विवृति सिद्धान्तरहस्यम्
-एकादश विवरण
- गो. गिरीधर - रामकृष्ण भट्ट - विठ्ठलेश
सिद्धान्तसिद्धापगा
- बलभद्र भट्ट सुसिध्दान्तोत्तम
- गोणप्रियादासाचार्य -स्वोपज्ञव्याख्या संन्यासनिर्णय सर्वोत्तमस्तोत्रम्
- वल्लभाचार्य -विवृतिद्वय भक्तिहेतुनिर्णय -विवृति
- गो. रघुनाथ षोडशग्रन्था
-वल्लभाचार्य संस्कृतकाव्ये भक्तिरसविवेचनम् - कृष्णबिहारी मिश्र पुष्टिमार्गीय स्तोत्ररत्नाकर (117 स्तोत्र) त्रिविध-नामावली
-विवृति
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निम्बार्क वेदान्त ग्रन्थ
वेदान्तपारिजात-सौरभम् - निम्बार्काचार्य (ब्रह्मसूत्रभाष्य) वेदान्तसिद्धान्तसंग्रह - वनमाली मिश्र (श्रुति सिद्धान्त)
-सिद्धान्तजाह्नवी वेदान्तकारिकावली -पुरुषोत्तमप्रसाद
-(अध्यात्मसुधातरङ्गिणी) । अर्थपंचकनिर्णय अध्यास (परपक्ष) गिरिवज्रम् - अमोलकरामशास्त्री क्रमदीपिका
- केशवभट्ट -विवरण
- गोविन्दभट्ट निम्बार्क व्रतनिर्णय
- धनीराम श्रुत्यन्तकल्पवल्ली - पुरुषोत्तमदास श्रुत्यन्तसुरद्रुम
---"-- श्रुतिसिद्धान्तमंजरी - ब्रजेश्वर प्रसाद सिद्धान्तरत्नांजलि
- हरिलाल स्वधर्मामृतसिन्धु
- रामनारायणशरण देवाचार्य वैराग्यसुधासिन्धु
- राधिकादास श्यामबिन्दुमहिमा श्रीगोपाललहरी
-बजरंगदास वेदान्तरत्नमंजूषा
-निम्बार्काचार्य (दशश्लोकी व्याख्या)
-सिद्धान्तजाहनवी - गोपालशास्त्री नेने -व्याख्या (सेतु) - पुरुषोत्तम
-व्याख्या (लघुमंजूषा) - अनन्तराम वेदान्ततत्त्वबोध ब्रह्मसूत्रसिद्धान्त जाह्नवी
-सिद्धान्तसेतु व्याख्या -सुन्दरभट्ट वेदान्तकौस्तुभ
- श्रीनिवासाचार्य (ब्रह्मसूत्रभाष्य)
-प्रभावृत्ति वेदान्तकामधेनु ब्रह्मसूत्रभाष्यम्
- भास्कराचार्य
- किशोरदास - श्रीनिवासाचार्य
प्रपन्तसुरतरुमंजरी
-प्रपन्नकल्पवल्ली पंचकलानुष्णातमीमांसा लघुस्तवराजस्तोत्रम्
__-व्याख्या निम्बार्कसहस्रनामस्तोत्रम् राधाकटाक्षस्तोत्रम् मुकुन्दमहिनः स्तोत्रम् वेदान्ततत्त्वसुधा
- निम्बार्क
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 561
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परिशिष्ट (ञ) काश्मीर शैवदर्शनग्रन्थ
अमरौघ-शासनम्
- गोरक्षनाथ ईश्वरप्रत्यभिज्ञा
- उत्पलदेव ईश्वरप्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी - अभिनवगुप्त
-भास्करी उड्डामेश्वरतंत्रम् कामकलाविलास
-पुण्यानन्दाचार्य -व्याख्या जन्ममरणविचार
- वामदेव भट्ट तंत्रवर्धनका
- अभिनवगुप्त तंत्रसार
- अभिनवगुप्त -विवेक व्याख्या
- जयरथाचार्य नेत्रतंत्रम्
-उद्योतविवरण -क्षेमराज परमार्थसार
-अभिनवगुप्त -विवृति
- योगराजाचार्य परात्रिंशिका _ -विवृति
-अभिनवगुप्त पूर्णताप्रत्याभिज्ञा
-रामेश्वर झा प्रत्यभिज्ञाहृदयम्
-क्षेमराज षत्रिंशत्तत्त्वसन्दोहः पराप्रवेशिका वातूलनाथ सूत्राणि -वृत्ति
- अनन्तशक्तिपाद बोधपंचदशिका
- हरभट्ट शास्त्री परमार्थचर्चा
-विवृति महार्थमंजरी
-महेश्वरानन्द -परिमल व्याख्या
-विज्ञानकौमुदी विवृति -क्षेमराज शिवोपाध्याय महानयप्रकाशः
-शितिकण्ठाचार्य
मालिनीविजयतंत्रम् मालिनीविजयवार्तिकम् - अभिनव गुप्त लल्लेश्वरी वाक्यानि
- भास्कराचार्य नरेश्वर परीक्षा
-प्रकाशव्याख्या - रामकण्ठ विज्ञानभैरवः
-क्षेमराज -विवृति
-शिवोपाध्याय शिवदृष्टिः
-सोमानन्दनाथ -वृत्ति
-उत्पलदेव शिवसूत्रम् शिवसूत्रवार्तिकम्
- वरदराज शिवसूत्रवृत्ति
- कल्लटवृत्ति स्पन्दकारिका
-भास्कर -विवृति, व्याख्या -रामकण्ठाचार्य शिवसूत्रविमर्शिनी
-वसुगुप्त -व्याख्या
-क्षेमराज षट्त्रिंशत्तत्त्वसन्दोहभावोपहार अनुत्तरप्रकाश सिद्धित्रयी (अजड प्रमातृसिद्धि, ईश्वरसिद्धि सम्बन्धसिद्धिश्व)
- उत्पलदेव ईश्वरप्रत्याभिज्ञाकारिका वृत्तिः - स्तवचिन्तामणिः
-नारायणभट्ट -विवृति
-क्षेमराज स्पन्द (कारिका) निर्णय -क्षेमराज स्पन्दसन्दोहः
-क्षेमराज स्वच्छन्दतंत्रम्
-क्षेमराज वामकेश्वरी मतविवरणम् गन्धर्वतंत्रम् श्रीविद्यार्णवतंत्रम्
562 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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पाशुपत दर्शन ग्रन्थ गणकारिका
-रत्नव्याख्या पाशुपतसूत्रम् पाशुपतसूत्रभाष्यम्
- कौण्डिन्य
वीरशैवदर्शन ग्रन्थ क्रिसासारः
- नीलकण्ठशिवाचार्य दुर्वाददूरीकरणम्
-काशीनाथशास्त्री नन्दिकेश्वरकारिका सूत्रविमर्शिनी - नन्दिकेश्वर (प्रथम उपमन्यु
मुनि) प्रभुदेव वचनामृतम् - म.म.गोपीनाथ कविराज भट्टनारायणोपनिषद् __ -शैवभाष्य
-चिद्घनशर्मा शिवाचार्य लिङ्गधारणचन्द्रिका - नन्दिकेश्वर
-शरद्व्याख्या वीरशैवरत्नम् वीरशैवानन्दचन्द्रिका - निरजंन परितोषाचार्य
शिवयोगी सिद्धान्तशिखामणिः -शिवयोगी शिवाचार्य
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परिशिष्ट - (ट) जैनवाङ्मय (धर्मशास्त्र, आगम, स्तोत्र-पूजा, श्वेताम्बर वाङ्मय, दर्शन, काव्य) जैन ग्रन्थाः धर्मशास्त्र-आगम
इष्टोपदेशः
नीतिसारः रत्नकरण्डक श्रावकाचारः - आचार्य समन्तभद्र
मोक्षपंचाशिका तंत्रार्थसारः - अमृतचन्द्रसूरि
श्रुतावतारः पद्मनन्दि पचविंशातिका - पद्मनन्दाचार्य
अध्यात्मतरंगिणी पुरुषार्थसिद्ध्युपायः - अमृतचन्द्रसूरि
चारित्रसारः
-चामुण्डराय सर्वार्थसिद्धिः - पूज्यपादस्वामी
अध्यात्मकमलमार्तण्ड -राजमल्ल योगसारः - अमितगत्याचार्य अनिल्यभावना
- पद्मनन्दी लाटीसंहिता -कविवर राजमल्ल श्रावकधर्मप्रदीपः
- आचार्य कुन्थुसागर सुधर्मध्यानप्रदीपः - मुनिसुधर्मसागर लघुज्ञानामृतसारः
-आचार्य कुन्थुसागर तत्त्वार्थसूत्रम् - उमास्वामी
श्रावकप्रतिक्रमणसारः -आचार्य कुन्थुसागर तत्त्वार्थसूत्रम् - उमास्वामी युक्त्यनुशासनम्
- स्वामी समन्तभद्र तत्त्वार्थसूत्रवृत्तिः - श्रुतसागर विचारमतम्
- तारणतरणमण्डलाचार्य तत्त्वार्थसूत्रवृत्तिः - भास्करानन्दी तारणत्रिवेणी
- तारणतरणमण्डलाचार्य तत्त्वार्थराजवार्तिकम् -अकलंक भट्ट
जैनस्तोत्र-पूजा-ग्रंथाः तत्त्वार्थवार्तिवाभाष्यम् -विद्यानन्द
देवागमस्तोत्रम्
-समन्तभद्र तत्त्वार्थसारः - अमृतचन्द्रसूरि पात्रकेसरीस्तोत्रम्
-विद्यानन्दस्वामी पंचाध्यायी -राजमल्ल
परमेष्ठीगुणस्तोत्रम् अर्थप्रकाशिका - उमास्वामी एकीभावस्तोत्रम्
- वादिराज सूरि शान्तिसुधासिन्धुः - मुनि कुन्थुसागर भक्तामरस्तोत्रम्
- मानतुंगाचार्य आत्मानुशासनम् - गुणभद्रस्वामी
श्रीपुरपार्श्वनाथस्तोत्रम् ज्ञानार्णवः - शुभचन्द्राचार्य चतुर्विंशतिकास्तुतिः
- सधर्मसागर सागारधर्मोमृतम् -आशाधर बृहत्स्वयम्भूस्तोत्रम्
-समन्तभद्राचार्य धर्मपरीक्षा - अमितगत्याचार्य जिनशतकम्
-समन्तभद्राचार्य अमितगतिश्रावकाचार - अमितगत्याचार्य
जिनस्तोत्रसंग्रह (काव्यमाला द्वादशानुप्रेक्षा - सोमदेव सूरि
7 गुच्छ से) सारसमुच्चयः - कुलभद्राचार्य
अजितशान्तिनाथस्तवनम् पूज्यपादश्रावकाचार - पूज्यपादस्वामी
प्रतिष्ठासारोद्धारः
- आशाधर रत्नमाला - शिवकोटि आचार्य प्रतिष्ठातिलक
- नेमिचन्द्रदेव पंचसंग्रहः - अमितगत्याचार्य
सिद्धचक्रमण्डलविधानम् - शुभचन्द्र अनगारधर्मामृतम् -आशाधर
स्तुतिसंग्रहः समाधितंत्रम् - पूज्यपादाचार्य
-सावचूरिकः समयसार - कुन्दकुन्दाचार्य
सिद्धसेनीयद्वाविंशिका -सिद्धसेन दिवाकर -व्याख्या - कुन्दकुन्दाचार्य
लघुचैत्यवंदनचतुर्विंशतिका -विमलगणि पंचास्तिकायसमरसारः - अमृतचन्द्रसूरि
निर्वाणकलिका
- पादलिप्ताचार्य कलशव्याख्या - अमृतचन्द्रसूरि
वीतरागस्तोत्रम्
- हेमचन्द्राचार्य समयसारकलशटीका - राजमल्ल
चतुर्विंशतिका
- बप्पभट्टसूरि तत्त्वार्थदीपिका - उमास्वामी जैनस्तोत्रसन्दोहः
- संग्राहक-चतुरविजयमुनि तत्त्वानुशासनम् - नागसेन महावीरस्तोत्रम्
-जिनवल्लभसूरि
564/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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- हेमचन्द्राचार्य
- विबुधाविमलसूरि
वीतरागस्तोत्रादिसंचय श्वेताम्बर वाङ्मय सम्यक्त्वपरीक्षा धर्ममाहात्म्य धर्मकल्पद्रुमः गुणस्थानक्रमारोह धर्मबिंदु शान्तसुधारस षोडशक प्रकरणम् हरिभद्रीय अष्टमप्रकरण उपदेशसारः शान्तसुधारस षोडशकप्रकरणम्
- उदयधर्मगणि - रत्नशेखर सूरि - हरिभद्रसूरि - विनयविजय - हरिभद्रसूरि
हरिभद्रीय अष्टमप्रकरणम् उपदेशसप्तति गणधरसार्धशतकम् उपदेशसारः योगदृष्टिसमुच्चयः प्रशमरतिप्रकरणम्
-व्याख्या प्रतिमाशतकम् ज्ञानार्णवप्रकरणम् लोकतत्त्वनिर्णयः द्रव्यलोकप्रकाशः कालभाव लोकप्रकाश क्षेत्र-लोकप्रकाशः
-सोमधर्मगणि - चारित्रसिंह गणि - कुलसारगणि - हरिभद्रसूरि - उमास्वाति - हरिभद्रसूरि - यशोविजय - यशोविजयगणि - हरिभद्रसूरि - विनयविजयगणि
- कुलसार गणि
- विनयविजय - हरिभद्रसूरि
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(परिशिष्ट - ठ) जैनदर्शन
- पदाकवि
प्रमेयकमलमार्तण्ड
-प्रभाचन्द्राचार्य अष्टसाहस्री
- अकलंकभट्ट आप्तमीमांसा (प्रमाणमीमांसा)-समंतभद्राचार्य सप्तभंगितरंगिणी
- विमलदास न्यायकुमुदचन्द्र
-प्रभाचन्द्राचार्य लघीयस्त्रय
-अकलंक न्यायविनिश्चयः
-अकलंक प्रमाणसंग्रह
-अकलंक आप्तपरीक्षा
-विद्यानंदी -व्याख्या न्यायविनिश्चयविवरणम् - वादिराजसूरि नयचक्रम्
- देवसेन भट्टारक परीक्षामुखम्
- माणिक्यनंदी प्रमाणनिर्णयः
- वादिराजसूरि स्थाद्वादसिद्धिः
- वादीभसिंह सूरि न्यायदीपिका
- धर्मभूषणाचार्य स्याद्वादमंजरी
- हेमचन्द्राचार्य शास्त्रवार्तासमुच्चयः - हरिभद्रसूरि अष्टसाहस्त्रीविवरणम् - यशोविजयगणि जल्पकल्पलता
- रत्नमण्डनसूरि षड्दर्शनसमुच्चयः
- हरिभद्रसूरि -व्याख्या
- गुणरत्न उत्पादातिसिद्धिः
- चन्द्रसेनसूरि स्याद्वादरहस्यत्रयम्
- यशोविजयसूरि नयोपदेशः न्यायालोकः न्यायखण्डखाद्यप्रकरणम् गुरुतत्त्वविनिश्चयः प्रमाणनयतत्त्वालोकालंकार -वादिदेवसूरि प्रमेयरत्रकोशः
- चंद्रप्रभसूरि अनेकान्तजयपाताका - हरिभद्र ज्ञानबिन्दुप्रकरणम्
- शयोविजय वेदवादद्वात्रिंशिका
-सिद्धसेन दिवाकर न्यायकुसमांजलि
___ (या महावीरपूजा) - न्यायविजय न्यायतीर्थप्रकरणम्
- न्यायविजय जैनतर्कवार्तिकम्
- ज्ञानाचार्य योगदर्शन योगविंशिका - यशोविजय प्रमाणपरिभाषासूत्रम् - विजयधर्मसूरि न्यायावतारः
-सिद्धसेन दिवाकर
सन्मतितर्क-प्रकरणम् -सिद्धसेन दिवाकर स्याद्वादरत्नाकरः
-वादिदेव सूरि जैनतर्कभाषा
- यशोविजय रत्नाकरावतारिका
- रत्नप्रभाचार्य स्याद्वादमंजरी
- मल्लिषेणसूरि प्रमाणमीमांसा
-हेमचन्द्र अनेकान्तव्यवस्था प्रकरणम् - यशोविजय न्यायावतारवार्तिकवृत्तिः - शान्तिसूरि न्यायमंजरी ग्रन्थिभंगः -चक्रधर स्याद्वादबिन्दुः
-दर्शनविजय गणि नयरहस्यप्रकरणादिदशग्रन्थाः - यशोविजय गणि प्रमाणप्रकाशः
- देवभद्रसूरि जैन काव्य एवं पुराणादि स्फुट ग्रन्थ चन्द्रप्रभचरितम् पाश्वाभ्युदयम् धर्मशर्माभ्युदयमहाकाव्यम् यशस्तिलकचम्पू: वर्धमानचरितम् शान्तिनाथचरितम्
- अजितप्रभाचार्य सुदर्शनचरितम्
- मुनिविद्यानन्दी स्थविरावलीचरितम्
- हेमचन्द्र तिलकमंजरी तिलकमंजरीसार
-पल्लीपाल धनपाल जीवन्धरचम्पूः आदिपुराणम्
-जिनसेनाचार्य उत्तरपुराणम्
- गुणभद्र पद्मपुराणम्
- रविषेण महापुराणम्
- पुष्पदत्त रामचन्द्रचरितपुराणम् - नागचंद्र वर्धमानपुराणम्
- आचण्ण शान्तिनाथपुराणम् हरिवंश-पुराणम्
- आचार्य जिनसेन शास्त्रवार्तासमुच्चयः - हरिभद्रसूरि -स्याद्वादकल्पलता
- यशोविजय शब्दानुशासनम्
- आचार्य मलयगिरी मदनपराजयः
- नागदेव उक्तिव्यक्तिप्रकरणम - पण्डित दामोदर आचारांगसूत्रम् सूत्रकृतांगसूत्र
-नियुक्तिव्याख्या
- अरागकवि
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उत्तराध्यायनसूत्रम् द्रव्यसंग्रह द्रव्यसंग्रह धनंजयनाममाला धर्मरत्नाकरः नन्दिसूत्रम्
-नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकदेव - धनंजय -जयसेन -देववाचक
मूलशुद्धिप्रकरणम्
-वृत्ति
-स्थानकान्ति कीर्तिकौमुदी-महाकाव्यम् गद्यचिंतामणि जंम्बूस्वामिचरितम् श्रृंगारमंजरीकथा स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा विशेषाबश्यकभाष्यम्
-वृत्ति स्याद्वाद मुक्तावली
- देवचन्द्रसूरि - प्रद्युम्नसूरी -सोमेश्वर -वादीभसिंह - राजमल्ल - भोजदेव - स्वामी कार्तिकेय
-दुर्गपदव्याख्या -विषमपदपर्याय
-वृत्ति प्रमेयरत्नमाला मदनरेखा आख्यायिका
-चन्द्राचार्य - अज्ञातकर्तृक -हरिभद्रसूरि - अनन्तवीर्य - जिनभद्र सूरि
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 567
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परिशिष्ट (ड) बौध्दवाङ्मय
प्रमाणवार्तिक भाष्यम्
वृत्ति
- रत्नकीर्ति - वसुबन्धु
-धर्मकीर्ती -धर्मकीर्ति - महासंधिका - शान्तिदेव
प्रातिमोक्षसूत्रम् बोधिचर्यावतार
पंजिका बौध्द-तर्कभाषा
-वी.जिनानन्द
- प्रज्ञाकरमति - मोक्षाकरगुप्त
-क्षेमेन्द्र
-अशोक
- हरिभद्र - गौडपादाचार्य
अंगुत्तरनिकाय अपोहसिद्धि अभिधर्मकोषः अभिधर्मदीपः
भिभाषाप्रभावृत्ति अभिसमाचारिका अर्थविनिश्वयसूत्रम् अवदानकल्पलता अशोकनिबन्धौ (अवविनिराकरणं सामान्य
.. दूषणं च) अशोकावदानम् अष्टसाहस्त्रिका प्रज्ञापारमिता
आलोक आगमशास्त्रम् अर्थशालिस्तम्बसूत्रम् प्रतीत्यसमुत्पादविभंग
-निदेशसूत्रम् प्रतीत्यसमुत्पादगाथासूत्रम् गण्डव्यूहसूत्रम् चतुःशतकम् चर्यागीतिकोष
टिप्पणी जातकमाला सुभाषितरत्नकरण्डककथा जातकसंग्रह ज्ञातप्रस्थानशास्त्रम् ज्ञानसंग्रह
पंजिका दिव्यावदानम् धम्मपदम् (अनु.) न्यायबिंदुः
व्याख्या पंचस्कन्ध-प्रकरणम्
बोधिपथप्रदीपम्
- रिगजित लुनडुब लामा बौध्दालंकारशास्त्रम्
- सुबोधालंकारसंघरक्षित मंजुश्रीनामसंगीती
-संपा.डॉ.रघुवीर मध्यमकशास्त्रम्
- नागार्जुन मध्यान्तविभागशास्त्रम् - मैत्रेयनाथ भाष्य
- वसुबन्धु महापरिनिर्वाणसूत्रम् महायानसूत्रसंग्रह महावस्तु अवदानम् मूलसर्वास्तिवाद विनयवस्तु रत्नगोत्रविभागो महायानोत्तरतंत्रशास्त्रम् लंकावतारसूत्रम् ललितविस्तरः वज्रसूची
-अश्वघोष वज्रसूचीउपनिषद्
-प्रज्ञानंद वादन्याय प्रकरणम् - धर्मकीर्ति विग्रहव्यावर्तनी
- नागार्जुन विज्ञाप्तिमात्रतासिद्धिः - वसुबन्धु शिक्षासमुच्चयः
- शान्तिदेव सध्दर्मपुण्डरीकसूत्रम् समाधिराजसूत्रम् सुवर्णप्रभाससूत्रम सुवर्णवर्णावदानम् महावदान-महापरिनिर्वाणसूत्रम् - (अनु.) राहुल सांकृत्यायन सौगतसिद्धान्तसारसंग्रह सौगतसूत्रव्याख्यानकारिका -कुमारिल स्वामी
- प्रबोध बागची,शान्तिभिक्षु -आर्यशूर -आर्यशूर
- कात्यायनीपुत्र - शान्तरक्षित -कमलशील
- पी.रामचन्द्रुडु
- धर्मोत्तराचार्य - वसुबन्धु
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संदर्भग्रंथ सूची
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संस्कृत वाङ्मय कोश- संदर्भग्रंथ सूची 1) अमरकोश का कोशशास्त्रीयः कैलाशचंद्र त्रिपाठी
25) जैन साहित्य का इतिहास : ले.नाथुराम प्रेमी तथा भाषा शास्त्रीय
26) जैन साहित्य का बृहद् : पं. बेचरदास दोशी । अध्ययन
इतिहास (भाग-1) (पार्श्वनाथ विद्याश्रम 2) अर्वाचीन संस्कृत साहित्य : डॉ. श्री. भा.वर्णेकर
शोधसंस्थान, वाराणसी-5) (मराठी)
27) जैन साहित्य का बृहद डॉ. जगदीशचंद्र जैन व 3) अलंकार शास्त्र का इतिहास : कृष्णकुमार
इतिहास (भाग-2) डॉ.मोहनलाल मेहता. 4) अष्टादश पुराण दर्पण : ले.पं. ज्वालाप्रसाद मिश्र
(पार्श्वनाथ विद्याश्रम 5) अष्टादश पुराण परिचय : डॉ.श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी
शोधसंस्थान वाराणसी-5) 6) आचार्य पाणिनि के समय : पं.युधिष्ठिर मीमांसक
28) जैन साहित्य का बृहद् : डॉ. मोहनलाल मेहता. विद्यमान संस्कृत वाङ:मय
इतिहास (भाग-3) पार्श्वनाथ विद्याश्रम 7) आधुनिक संस्कृत/नाटक : डॉ. रामजी उपाध्याय
शोधसंस्थान वाराणसी-5 (2 भाग)
29) जैन साहित्य का बृहद : डॉ. मोहनलाल मेहता 8) आधुनिक संस्कृत साहित्य : डॉ. हीरालाल शुक्ल
इतिहास (भाग-5) व प्रो. हिरालाल कापडिया रचना- प्रकाशन, इलाहाबाद
(पार्श्वनाथ विद्याश्रम १) आधुनिक संस्कृत साहित्या- : डॉ. रामजी उपाध्याय
शोधसंस्थान वाराणसी-5) नुशीलन
30) जैन साहित्य का बृहद् :पं. अंबालाल शाह (पा.वि. 10) आयुर्वेद का इतिहास : कविराज वागीश्वर शुक्ल
इतिहास (भाग-5) सं. वाराणसी-5) 11) आयुर्वेद का बृहद् इतिहास : अत्रिदेव विद्यालंकार 12) इतिहास पुराण का : डॉ. रामशंकर महाचार्य 31) जैन साहित्य का बृहद् : (भाग-6) अनुशीलन
इतिहास 13) इतिहास पुराण साहित्य : डॉ. कुंवरलाल
32) जोधपूर राज्य का इतिहास : डॉ.मांगीलाल व्यास । का इतिहास
(पंचशील प्रकाशन, 14) कालिदास साहित्य कोश : डॉ.हिरालाल शुक्ल,
घोडारास्ता, जयपूर) भोपाल वि.वि.
33) तांत्रिक साहित्य :पं. गोपीनाथ कविराज। 15) गणित का इतिहास : डॉ.व्रजमोहन
34) तिब्बत में बौद्ध धर्म :: पं. राहुल सांकृत्यायन. 16) गणित का इतिहास सुधाकर द्विवेदी
35) दर्शनदिग्दर्शन
:राहुल सांकृत्यायन 17) गणितीय कोश : डॉ.व्रजमोहन
36) धर्मशास्त्र का इतिहास : भारतरत्न म.म. पांडुरंग वामन 18) चम्पू काव्य का : डॉ.छबिनाथ त्रिपाठी
काणे। (अनु.अर्जुन चौबे आलोचनात्मक एवं
काश्यप-6 भाग) ऐतिहासिक अध्ययन 19) बौद्ध धर्म का इतिहास : (चाऊ सिआंग कुआंग)
37) धर्मद्रुम
: राजेंद्र प्रसाद पांडेय 20) जयपुर की संस्कृत साहित्य : डॉ.प्रभाकर शास्त्री
(धर्मशास्त्र-परिचय-विवेचन की दोन (1835-1965)
38) 13 वीं शती में रचित : डॉ. इन्दु पचौरी 21) जिनरत्नकोश : जैन आत्मानंद सभा,
गुजरात के ऐतिहासिक (इन्दौर वि.वि.) भावनगर
संस्कृत काव्य 22) जैनदर्शनसार : विष्णुशास्त्री बापट
39) 13-14 वीं शती के जैन : डॉ. श्यामशंकर दीक्षित 23) जैन धर्मदर्शन :डॉ. मोहनलाल मेहता
संस्कृत महाकाव्य पार्श्वनाथ विद्याश्रम
40) 13 वीं शती में रचित गुजरात के ऐतिहासिक शोधसंस्थान,वाराणसी-5
काव्य 24) जैन धर्माचा इतिहास : श्री.लढे
41) न्यायकोश
: पं. भीमाचार्य झळकीकर (मराठी)
42) पाणिनि
: वासुदेवशरण अग्रवाल
570/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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43) पालिसाहित्य का इतिहास : भरतसिंह उपाध्याय ।
(हिन्दी साहित्य सम्मेलन
प्रयाग) 44) पुराणतत्त्व मीमांसा : श्रीकृष्णमणि त्रिपाठी 45) पुराणविमर्श : पं. बलदेव उपाध्याय 46) पुराणविषयानुक्रमणिका : डॉ. राजबली पाण्डेय 47) पुराणविमर्श : पं. बलदेव उपाध्याय 48) पुराणपरिशीलन : पं. गिरिधरशर्मा चतुर्वेदी 49) पुराणपर्यालोचनम् : (2 भाग) डॉ. श्रीकृष्णमणि
त्रिपाठी 50) पौराणिक कोश : राजाप्रसाद शर्मा 51) प्राचीन हिंदी
:ले.कृ.वि.वझे। भारत
इतिहास शिल्पशास्त्रसार (मराठी) संशोधन मंडळ, पुणे 52) प्रतिशाख्यों में प्रयुक्त : डॉ.इन्द्र
पारिभाषिक शब्दों का
आलोचनात्मक अध्ययन 53) प्रमुख स्मृतियोंका अध्ययनः डॉ. लक्ष्मीदत्त ठाकूर 54) बघेलखंडके संस्कृत काव्य : डॉ. राजीवलोचन अग्निहोत्री 55) बौद्धदर्शन मीमांसा :पं.बलदेव उपाध्याय
(चौखम्भा विद्याभवन,
वाराणसी) 56) बौद्धदर्शन तथा अन्य भरतसिंह उपाध्याय
भारतीय दर्शन 57) बौद्धधर्म
: गुलाबराय,
(कलकत्ता 1943) 58) बौद्धधर्म के विकास का : गोविंदचंद्र पांडेय,
(वाराणसी, 1963) 59) बौद्धधर्मदर्शन : आचार्य नरेन्द्र देव,
(बिहार राष्ट्रभाषा परिषद
पटना, 1971) बौद्ध संस्कृत काव्य मीमांसा :ले. डॉ. रामायणप्रसाद
द्विवेदी (काशी हिंदु वि.वि.
संस्कृत ग्रंथमाला) 61) भारतवर्षीय चरित्र कोश -सिद्धेश्वर शास्त्री चित्राव, पुणे
(3 खंड) 62) भारतीय दर्शन -वाचस्पति गेरौला 63) भारतीय दर्शन -पं. बलदेव उपाध्याय 64) भारतीय दर्शन - सर्वपल्ली राधाकृष्णन् 65) भारतीय दर्शन शास्त्र का - हरिदत्त शास्त्री
इतिहास 66) भारतीय नाट्यसाहित्य - डॉ. नगेन्द्र।। 67) भारतीय न्यायशास्त्र- -डॉ. ब्रह्ममित्र अवस्थी
एकअध्ययन
68) भारतीय ज्योतिष्य का - डॉ. गोरखप्रसाद
इतिहास 69) भारतीय नीतिशास्त्र का -डॉ. भिखनलाल आत्रेय
इतिहास 70) भारतीय पुरा इतिहास - अरुण
कोश 71) भारतीय संगीत का - भ.श.शर्मा
इतिहास 72) भारतीय संगीत का - डॉ. शरच्चंद्र श्रीधर परांजपे, इतिहास
भोपाल 73) भारतीय संगीत का - उमेश जोशी
इतिहास 74) भारतीय संस्कृति कोश -संपादक- महादेव शास्त्री
(मराठी) 10 खंड जोशी, पुणे 75) भारतीय साहित्य की - डॉ. भोलाशंकर व्यास
रूपरेखा 76) भारतीय साहित्य शास्त्र - पं. बलदेव उपाध्याय, प्रसाद (दो भाग)
परिषद काशी। 77) भारतीय वास्तुकला -ले. गुप्त, नागरी प्रचारिणी
सभा । वाराणसी। 78) महाभारत सार-प्रस्तावना -प्रकाशक-शंकरराव सरनाईक
पुसद (महाराष्ट्र) 79) मीमांसादर्शन (मीमांसा - डॉ. मंडनमिश्र
का इतिहास) 80) मध्यकालीन संस्कृतनाटक - डॉ. रामजी उपाध्याय 81) यशस्तिलक चंपूका -डॉ. गोकुलचंद्र जैन, सांस्कृतिक अध्ययन पार्श्वनाथ विद्याश्रम,
शोधसंस्थान वाराणसी-5 82) राजस्थान के इतिहास के - डॉ. गोपीनाथ शर्मा । स्रोत
राजस्थान हिंदी ग्रंथ अकादमी
जयपुर 83) राजस्थान साहित्यकार - राजस्थान साहित्य अकादमी, परिचय कोश
उदयपुर 84) विद्दजन चरितामृतम् । - कलानाथ शास्त्री 85) विंशशताब्दिक - डॉ. रामजी उपाध्याय संस्कृतनाटकम् 86) वेदमीमांसा
- लक्ष्मीदत्त दीक्षित 87) वेदान्तदर्शन का इतिहास - उदयवीर शास्त्री 88) वैदिक एवं वेदांग साहित्य - डॉ. रामेश्वरप्रसाद मिश्र की रूपरेखा 89) वैदिक साहित्य की - डॉ. जोशी-खण्डेलवाल रूपरेखा 90) वैदिक साहित्य और -वाचस्पति गरौला संस्कृति
इतिहास
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड /571
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114) संस्कृत साहित्य कोश - डॉ. राजवंशसहाय हीरा । 115) सांख्य दर्शन का इतिहास - उदयवीर शास्त्री। 116) संगीत विषयक संस्कृत - चैतन्य देसाई ग्रंथ (मराठी)
91) वैदिक साहित्य और -पं. बलदेव उपाध्याय संस्कृति 92) वैदिक वाङ्मय का - पं. भगवद्दत्त इतिहास (2 भाग) 93) वैष्णव सम्प्रदायों का -पं. बलदेव उपाध्याय साहित्य और सिद्धांत 94) व्याकरण शास्त्र का - डॉ. रमाकान्त मिश्र संक्षिप्त इतिहास 95) व्याकरणशास्त्रेतिहास - डॉ. ब्रह्मानंद त्रिपाठी 96) हिन्दू गणितशास्त्र का -अनु.कृपाशंकर शुक्ल। इतिहास
(ले. विभूतिभूषण दत्त ।) 97) हिन्दू धर्मकोश - राजबली पाण्डेय 98) होळकर राजवंश विषयक - ओम प्रकाश जोशी, संस्कृत साहित्य
(इन्दोर वि.वि.) 99) संकेत कोश (मराठी) -संपादक श्री हणमंते 100) संस्कृतकविदर्शन -डॉ. भोलाशंकर व्यास
(चौखांच्या विद्याभवन,
वाराणसी) 101) संस्कृत काव्यशास्त्र का - डॉ. पां. वा. काणे। इतिहास
(2 भाग) अनु.
इन्द्रचंद्र शास्त्री। 102) संस्कृत के संदेशकाव्य - डॉ. रामकुमार आचार्य 103) संस्कृत के ऐतिहासिक - डॉ. श्याम शर्मा नाटक 104) संस्कृत पत्रकारिता का - डॉ. रामगोपाल मिश्र इतिहास 105) संस्कृत भाण साहित्य की - डॉ. श्रीनिवास मिश्र समीक्षा 106) संस्कृत वाङ्मय का - सूर्यकान्तशास्त्री (ओरिएंटल इतिहास
लाँगमन न. दिल्ली- 1972) 107) संस्कृत व्याकरण का - रमाकान्त मिश्रा संक्षिप्त इतिहास 108) संस्कृत व्याकरण में -प्रा. कपिलदेव गणपाठ की परंपरा और आचार्य पाणिनि 109) संस्कृत व्याकरण शास्त्र - पं. युधिष्ठिर मीमांसक का इतिहास 110) संस्कृत व्याकरण का - सत्यकाम वर्मा उद्भव और विकास 111) संस्कृत शास्त्रोंका इतिहास- पं. बलदेव उपाध्याय 112) संस्कृत साहित्य का - डॉ. रामजी उपाध्याय आलोचनात्मक इतिहास 113) संस्कृत साहित्य का - पं. बलदेव उपाध्याय, इतिहास
(शारदा मंदिर बनारस 1956
117) Aspects of Buddhism - N.Dutta, and its relation to
London-1930. Hinyana 118) Bengal's Contribution - S.K.De, to Sanskrit Litrature and Calcutta-1960 studies in Bengal Vaisnavism 119) Bibliography of playsin-C.C.Mehta, M.S. Indian Languages
University Baroda and Bhartiya Natya
Sanstha, New Delhi 120) Budhist Sanskrit works - Chintaharan of Bengal
Chakravati, Indian
Antiquery-1930 121) Bibliography of - by Pt. I.S.Sen, sanskrit works on
New Delhi, 1966. Astronomy and Mathematics 122) Bengal's Contribution - Chintaharan to Sanskrit Literature Chakrawarti ABORI
XIPt. 3,1930,
PP-225-258 123) Bengal's Contribution - Md Shahidulla to Sanskrit learning
Orintal conference
II-Madaras-1925 124) Buddhist India
- Rhys Davids,
Delhi-1970. 125) Buddhist studies - B.C.Law,
Calcutta - 1931 126) Budhisatva Doctrine in - Han Dayal, Buddhist Sanskrit
London-1932 Literature 127) Buddhist Philosophy - A.B.Keith, Oxford
1923 128) Budhist India
- Rhys Davids 129) Contribution of -J.B.Chaudhari Wemon to Sanskrit
Prachhawani, literature
Calcutta. 130) Contribution of -J.B.Chaudhari, Muslims to Sanskrit
Prachyawani, literature
Calcutta 131) Concepts of Buddhism - B.C.Law. 132) A Catalogue of chinese - B. Nanjio Oxford translation of the
1983 133) Buddhist Tripitaka Distionary of Sanskrit -K.V.Abhyankar Grammer 134) Early History of the N. Datt spread of Buddhism and Buddhists Schools 135) Glossory of Smriti
- Dr.S.C.Banerjee Literature
572 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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136) History of Ancient Indian Mathematics
137) History of Hindu Mathematics
138) Hinayana and Mahayana
139) History of Sanskrit Literature
140) History of Buddhist thought
141) A History of Sanskrit (V.Vardachari) Literature Allahabad, 1952.
142) A History of Indian Logic
143) A History of Indian Literature
144) History of Indian Philosophy
145) History of Classical Sanskrit Literature 146) History of Sanskrit Literature
147) History of Anicient Sanskrit Literature 148) History of Indian Literature
153) India as described in the early Text of Buddhism and Jainism
154) Indian Philosophy
- C.N.Shrinivasa lyangar, World Press, Calcutta
- by 'Vibhutibhushan Datta and Aras Sing, Lahor, 1938'
- R. Kimura
155) Indian Buddhism 156) Indian Literature in China and the Far-East 157) Indian Historical Quarterly
- A.B.Kaith, Oxford Uni press, London. - E.J. Thomas
149) History of Sanskrit Literature
150) History of Fine Arts in by V.A.Smith
India and Ccylon 151) Intorduction to Mahayana Buddhism 152) An Introduction to Indian Philosophy
- Satish Chandra Vidyabhushan Calcutta Uni-1921. - 2 Vols Winternitz, Calcutta uni, Publication-1927 - S.N.Dasgupta, London.
- Dasgupta & De.
- Macdonell.
- Max Muller.
- Weber.
- M. Krishnammachari
- (W.M.Mc.Govern,
- London, 1922)
- Dutta and Chatterjee. Calcutta Uni-1939
- B.C.Law
- S.Radha Krishnan, London, 1929
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- H. Kern.
- P.K.Mukerjee
158) Journal of the American Oriental Society. 159) Journal of Bihar and Orisa Research Society. 160) Journal of the Royal Asiatic Society.
161) Literary History of Sanskrit Buddhism
162) Muslim Contribution to- M. Jatindravimal Sanskrit Literature
Choudhari.
- G.K.Nariman, Bombay-1920
163) National Bibliography of Indian Literature
Kesav and V.Y. Kulkarni, 3 Vols. 164) More light on Sanskrit D.C.Bhattacharya Literature of Bengal 1 HQ. Vol. XX, 1946. 165) Muslim Patranage to - by Chintaharan Sanskrit Learning Chakrawarti, B.C.Law Vol.II. Calcutta, 1946 - J.B.Choudhari Calcutta-1942. by M.M.Patkar, Poona, Orientalist Vol.III.
166) Muslim Patranage to Sanskrit Learning 167) Moghal Patranage to Sanskrit Learning
168) Modern Sanskrit Literature
169) Modern Sanskrit Wrilings
170) Outlines of Buddshism - Rhys Davids-1934
- J.N.Faruhar.
171) Outline of Religious Literature of India 172) Paniniam Studies in Bengal
175) Sanskrit Literature of the Vaishnavas of Bengal
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
- D.C.Bhattacharya Sir, Ashutosh Mukhargee Silver Jubilee Volilll. 173) Aecent Sanskrit - Gourinath Shastri Studies in Bengal Calcutta-1960. 174) Sanskrit Literature of - Chintaharam Modern times
Chakravarti Bulletin of the Ramknshna Mission Institute of Culture. Vol VII/1956. Chintaharam Chakravati Prachyavani, Calcutta.
- Indian Literature Vol.IV. M.Z.Siddiki Calcutta Review
176) Some Vaidyaka Literature of Bengal 177) Sanskrit Scholorship of Akbar's line ABPRI-XIII, 1937
178) Services of Muslims to Sanskrit Literature 179) Sanskrit Literature in Bengal during the Sen 180) Sanskrit Drama 181) Sanskrit Buddhist 182) Literature of Nepal Secred Literature of the Jains
183) Vangeeya Duta Kavyetihasah
- V.Raghavan 1, Sahitya Akademi, N.Delhi
- Dr. V. Raghavan Brahmavidya
185) Vedic Bibliography 186) Vedic Index
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1953-PP-215-25
M.M.Chakravarti JASB-1906.
- A.B.Kaith
- R.L.Mitra, Calcutta-1882. - Yakobi
184) Vaidyaka Literature of N.N.Dasgupta,
Bengal in the early medieval period
- J.B.Chaudhuri, Pracyavani Reserach Series Vol.IV. Cal-1953.
Indian Culture (Vol.
III-1936 PP 153-60)
- Dr.R.N.Dandakar - Macdonald and Keith.
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 573
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