________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
का
विपुल आदर का भाजन बना हुआ है।
नाम से एक गुफा दिखाई जाती है। कहा जाता है कि वहां निबार्काचार्य ने जिस स्वतंत्र दर्शन की नींव रखी, उसे पर तपस्या करके ही उन्हें "शिवयोग" प्राप्त हुआ था। द्वैताद्वैत दर्शन कहते हैं। इनके वेदांतपारिजातसौरभ नामक ग्रंथ निजगुणशिवयोगी के काल के बारे में मतभेद है, जो ई. में ब्रह्मसूत्र पर व्याख्या है। दशश्लोकी में निंबार्क-संप्रदाय के 12 वीं से 16 वीं शताब्दी तक माना जाता है। उनके कन्नड उपास्य-दैवत राधाकृष्णयुगल का वर्णन है। शेष ग्रंथों में ग्रंथों की भाषा के आधार पर नरसिंहाचार्य उन्हें 12 वीं शताब्दी युगल-उपासना का रहस्य प्रकाशित किया गया है।
का नहीं मानते। शांतलिंग स्वामी ने विवेकचिंतामणि नामक निंबार्काचार्यजी के पूर्व जगन्नाथपुरी बौध्दों की विहारभूमि कनड ग्रंथ का मराठी अनुवाद सन् 1604 में किया था। थी। उसे वैष्णवों का केन्द्र बनाने का महत्कार्य किया आचार्यश्री ___ अतः उनका काल 16 वीं शताब्दी के पूर्व का तो है ही। ने। जगन्नाथ-मंदिर के शिखर पर जो चक्र है, उसे निंबार्काचार्य निजगुण ने कन्नड भाषा में वेदांतविषयक विवेक चिंतामणि का प्रतीक मानकर भक्तजन श्रद्धापूर्वक उसका दर्शन करते हैं। के अतिरिक्त और भी कई ग्रंथ लिखे। उन से उनकी विद्वत्ता निरंतर भगवान् के सानिध्य में रहने के कारण आचार्यजी को तथा षट्शास्त्र-संपन्नता व्यक्त होती है। रंगदेवी नामक कृष्णसखी का भी अवतार माना जाता है। निजगुण द्वारा रचित भक्तिगीत कर्नाटक के गांव-गांव
उत्तर भारत में निंबार्क-संप्रदाय के अनेक मंदिर हैं और में बड़े चाव से गाये जाते है। निजगुण ने दो संस्कृत ग्रंथ राजस्थान के सलेमाबाद में संप्रदाय की सर्वश्रेष्ठ गद्दी है। भी लिखे थे। उनके नाम है : दर्शनसार और आत्मतर्कचिंतामणि । वृंदावन, मथुरा, राधाकुंड, गोवर्धन तथा नीमगाव में भी इस उनकी विचारधारा पर विवेकासिंधु एवं अमृतानुभव नामक दो संप्रदाय के मंदिर हैं। वहां श्रीनिंबार्कजी ने प्रचारकार्य किया था। मराठी ग्रंथों का विशेष प्रभाव परिलक्षित होता है। __इस संप्रदाय के अनुयायी माथे पर गोपीचंदन का खडा नित्यानन्द- ई. 14 वीं शती। उत्तर बंगाल के करंजग्राम के तिलक लगाते हैं, और उसके मध्य बुक्के का काला टीका निवासी। "हरिचरित' के लेखक चतुर्भुज के पितामह । लगाते हैं। ये अनुयायी शुभ्र वस्त्र परिधान करते हैं, अपने "कृष्णानन्द" नामक काव्य के प्रणेता। गले में तुलसी-काष्ठ की माला पहनते हैं और अपने नाम के नित्यानन्द- ज्योतिष-शास्त्र के, एक गौडवंशीय आचार्य । आगे लगाते हैं, 'दास' अथवा 'शरण' उपपद। एक-दूसरे का पिता-देवदत्त। समय ई. 17 वीं शताब्दी का प्रारंभ। इन्होंने अभिवादन करते समय वे "जय सर्वेश्वर" का घोष करते हैं
1639 में "सिध्दांतराज" नामक एक महनीय ज्योतिष-ग्रंथ की और मठ-प्रमुख को महंत कहते हैं। इस संप्रदाय के अनुयायियों
रचना की थी। ये इन्द्रप्रस्थपुर के निवासी थे। इनका के विरक्त और गृहस्थ ऐसे दो भेद हैं। निंबार्क के हरिव्यास
"सिध्दांतराज" ग्रह-गणित का अत्यंत महत्त्वपूर्ण ग्रंथ है। यह नामक एक शिष्य, गृहस्थ अनुयायियों के प्रमुख थे। मथुरा
ग्रंथ सायनमान का है। इसमें ग्रहों के बीज-संस्कार भी कथन के समीप धुवसेन नामक स्थान पर उनका मुख्य केंद्र है। किये गये हैं। निंबार्काचार्य "रसिक भागवत" संप्रदाय के आद्य आचार्य
नित्यानन्द-ई. 20 वीं शती । बंगाल-निवासी। भारद्वाज गोत्रीय । हैं। उन्होंने रागात्मक भक्ति के केवल प्रियावत् भाव का ही पिता-रामगोपाल स्मृतिरत्न । पितामह-मधुसूदन । शासकीय संस्कृत अंगीकार किया था। किन्तु एक अंतःसाधक होने के कारण
महाविद्यालय, कलकत्ता के भारतीभवन में अध्यापक। उन्होंने बाह्य स्त्री-वेश आदि का स्वीकार नहीं किया। निंबार्क
कृतियां- मेघदूत, प्रह्लाद-विनोदन, तपोवैभव और ने व्रजमंडल में वैष्णव-भक्ति का जो प्रवाह प्रारंभ किया था,
सीतारामाविर्भाव। उसी ने आगे चलकर संपूर्ण उत्तर भारत को आप्लावित कर दिया। निगुडकर, दत्तात्रेय वासुदेव- ई. 19-20 वीं शती।। नित्यानन्द शास्त्री- जन्म 1875 ई. में। माधव कवीन्द्र के संस्कृत विद्यालय, राजापुर (महाराष्ट्र) के आचार्य। सुपुत्र। इनका जन्म जोधपुर में हुआ था। ये आशुकवि, रचना-गंगागुणादर्शनचम्पू। इसमें संवादों द्वारा गुणदोष-विवेचन कविराज, साहित्यरत्न, कविभूषण, कविरत्न, महाकवि, किया गया है। अन्य रचनाएं- जानकीहरणम्, रुक्मिणीहरणम्, विद्यावाचस्पति आदि उपाधियों से सम्मानित थे। इनकी रचनाएं बुद्धचरितम् तथा रत्नावलि की स्पष्टीकरणात्मक टीका एवं निम्नांकित हैंरघुवंशसारः।
__ 1. मारुतिस्तवः, 2. लघु-छन्दोलंकार-दर्पण, 3. हनुमदूतम् निजगुण-शिवयोगी- इन का मूल नाम था निजगुणराय। पहले (खण्डकाव्य), 4. श्रीरामचरिताब्दि-रत्नम्, 5. आर्यामुक्तावली, ये मैसूरस्थित शंभुलिंगन बेट्ट पर राज्य करते थे। कालांतर 6. कृष्णाष्टप्रास, 7. पुष्पचरितम्, 8. आर्यानक्षत्रमाला, 9. से वैराग्य के कारण उन्होंने शिवयोगसाधना का मार्ग अपनाया। आत्मारामपंचरंगम्, 10. लक्ष्मीषट्पदी (स्तोत्र), 11. गंगाष्टपदी शंभुलिंग उनका आराध्य दैवत था, जिसका उन्होंने अपने (स्तोत्र), 12. शारदास्तवः (संस्कृतचन्द्रिका- 13/6, 1906 प्रत्येक ग्रंथ में उल्लेख किया है। शंभुलिंग के पर्वत पर इनके ई.) 13. समस्यापूर्तयः, 14. मेघदूतम् (नाटक), 15.
354 / संस्कृत वाङ्मय कोश - प्रथकार खण्ड
For Private and Personal Use Only