SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 369
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra निबार्काचार्य द्वैताद्वैत मत के (ऐतिहासिक प्रतिनिधि) प्रवर्तक आचार्य दार्शनिकता तथा प्राचीनता की दृष्टि से वैष्णव संप्रदायों में इनके मत का विशेष महत्त्व है। संप्रदाय के अनुसार इस मत के सर्वप्रथम उपदेश, हंसावतार भगवान् हैं। उनके शिष्य सनत्कुमार हैं। सनत्कुमार ने इसका उपदेश नारदजी को दिया और नारदजी से यह उपदेश निंबार्क को प्राप्त हुआ। इस परंपरा के कारण यह मत (संप्रदाय) हंससंप्रदाय, सनकादि संप्रदाय (या सनातन संप्रदाय), देवर्षि संप्रदाय आदि नामों से कहा जाता है। www.kobatirth.org - आचार्य निबार्क की जन्म तिथि कार्तिक शुक्ल पौर्णिमा मानी जाती है, और इसी दिन तत्संबंधी उत्सव मनाये जाते हैं। आचार्य का निश्चित देश काल आज भी अज्ञात है । कहा जाता है कि ये तेलंग ब्राह्मण थे और दक्षिण के बेल्लारी जिले के निवासी थे किन्तु तैलंग प्रदेश से आज निवार्क मत का संबन्ध तनिक भी नहीं है। न तो इनके अनुयायी आज वहां पाए जाते हैं और न इनके किसी संबंधी का ही पता उधर चलता है। निंबार्क वैष्णवों का अखाड़ा वृंदावन ही है। आज भी गोवर्धन समीपस्थ "निम्बग्राम" इनका प्रधान स्थान माना जाता है । आचार्य स्वभाव से ही बडे तपस्वी, योगी एवं भगवद् भक्त थे। कहा जाता है कि दक्षिण में गोदावरी के तीर पर स्थित वैदूर्यपत्तन के निकट अरुणाश्रम में इनका जन्म हुआ। पिताअरुणमुनि । माता जयंतीदेवी । ये भगवान के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं। सुनते हैं कि इनके उपनयन संस्कार के समय स्वयं देवर्षि नारद ने उपस्थित होकर इन्हें " गोपाल मंत्र" की दीक्षा दी, तथा "श्री-भू-लीला" सहित श्रीकृष्णोपासना का उपदेश दिया । इनका मूल नाम नियमानंद था । नियमानंद की निंबार्क और निंबादित्य के नाम से प्रसिद्धि की कथा "भक्तमाल" के अनुसार इस प्रकार है : 23 मथुरा के पास यमुना तीर के समीप ध्रुवक्षेत्र में आचार्य विराजमान थे। तब एक संन्यासी आपसे मिलने आए। उनके साथ आध्यात्मिक चर्चा में आचार्य इतने तल्लीन हो गए कि उन्हें पता न चला की सूर्य भगवान् अस्ताचल के शिखर से नीचे चले गये। संध्याकाल उपस्थित हो गया। अपने संन्यासी अतिथि को भोजन कराने के लिये उद्युत होने पर आचार्य को पता चला कि रात्रि भोजन निषिद्ध होने के कारण संन्यासीजी रात को भोजन नहीं करेंगे। अतिथि सत्कार में उपस्थित इस अड़चन से आचार्य को बड़ी वेदना हुई। तभी एक अदभुत घटना घटी। संन्यासीजी तथा स्वयं आचार्य ने देखा कि आश्रम के नीम वृक्ष के ऊपर भगवान सूर्यदेव चमक रहे हैं। तब आचार्य ने प्रसन्न होकर अतिथि संन्यासी को भोजन कराया। पश्चात् सूर्यदेव अस्त हुए और सर्वत्र घना अंधकार छा गया। इस चमत्कार तथा भगवदूकृपा के कारण इनका नाम "निंबादित्य" Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir और "निंबार्क" पड़ गया और इसी नाम से ये प्रसिद्ध हो गए। उसी प्रकार जहां चमत्कार हुआ, वह स्थान आज भी निम्बग्राम के नाम से प्रसिद्ध है । आचार्य के आविर्भाव-काल की निश्चिति, प्रमाणों के अभाव में असंभव है। इनके अनुयायियों की मान्यता के ' अनुसार, इनका उदय कलियुग के आरंभ में हुआ था और इन्हें भगवान् वेदव्यास का समकालीन बताया जाता है। इसके विपरीत आधुनिक गवेषक आचार्य का समय ई. 12 वीं शती या उसके भी बाद मानते हैं। डॉ. भांडारकर ने गुरुपरंपरा की छान-बीन करते हुए इनका समय ई. स. 1162 के आसपास माना है। नवीन विद्वानों की दृष्टि में यही आचार्य का प्राचीनतम काल है । कतिपय निंबार्कानुयायी पंडितों का कथन है कि उनके आचार्य योगी होने के कारण दीर्घजीवी थे, और वे 200-300 वर्षो तक जीवित रहे। जो कुछ भी हो, किंतु इसमें कोई संदेह नहीं कि आचार्य निबार्कद्वारा प्रवर्तित संप्रदाय, अन्य वैष्णव संप्रदायों से प्राचीनतम है। इसकी प्राचीनता के पक्ष में भविष्य पुराण का निम्न पद्य भी प्रस्तुत किया जाता है। तदनुसार, एकादशी के निर्णय के अवसर पर निंबार्क का मत उद्धृत किया गया है और निंबार्क के प्रति असीम आदर व्यक्त करने हेतु उन्हें "भगवान्" विशेषण से विभूषित किया गया है : निंबार्को भगवान् येषां वाछिंतार्थफलप्रदः । उदय - व्यापिनी ग्राह्या कुले तिथिरुपोषणे । । उक्त पद्य को कमलाकर भट्ट ने अपने “निर्णयसिंधु " में, और भट्टोजी दीक्षित ने भविष्य पुराणीय मान कर सादर उल्लिखित किया है (द्रष्टव्य संकर्षणशरण देव रचित "वैष्णव-धर्म-सुरम-मंजरी")। For Private and Personal Use Only आचार्य निवार्क के 4 शिष्य बताये जाते हैं- (1) श्रीनिवासाचार्य (प्रधान-शिष्य), (2) औदुंबराचार्य (3) गौरमुखाचार्य और (4) लक्ष्मण भट्ट आचार्य निंबार्क की सर्वत्र प्रसिद्ध 5 रचनाओं के नाम हैंवेदांत - पारिजात-सौरभ (वेदांत भाष्य), दश-श्लोकी, श्रीकृष्ण - स्तवराज, मंत्र - रहस्य - षोडशी तथा प्रपन्नकल्पवल्ली इनके अतिरिक्त, पुरुषोत्तमाचार्य तथा सुंदर भट्टाचार्य प्रभृति अवांतर लेखकों के उल्लेखों से विदित होता है कि आचार्य ने गीता - वाक्यार्थ प्रपत्ति - चिंतामणि तथा सदाचार प्रकाश नामक 3 और ग्रंथों का प्रणयन किया था परंतु अभी तक ये 3 ग्रंथ उपलब्ध नहीं हैं। दार्शनिक पक्ष की ओर ध्यान देने पर स्पष्ट होता है कि आचार्य निबार्क ने "भर्तृभेद सिद्धान्त" से लुप्त गौरव को पुनः प्रतिष्ठित किया। इन वेदांताचार्यों के विचार अब जन-मानस से ओझल हो चुके है, किंतु निवार्क का कृष्णोपासक संप्रदाय भक्ति-भाव का प्रचार करता हुआ आज भी भक्त जनों के संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 353
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy