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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चौरपंचाशिका के संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है- बिल्हण का किसी राजकुमारी पर प्रेम था। यह वार्ता राजा को ज्ञात होते ही उसने बिल्हण को मृत्युदंड दिया। जब सिपाही वधस्तंभ की ओर बिल्हण को ले जाने लगे, तब इनके मन में अपने अनुभूत प्रणय की स्मृतियां उभर आयीं और इन्होंने उन्हें श्लोकबद्ध किया। उन श्लोकों को सुन कर राजा का मन द्रवित हुआ। उसने बिल्हण को मुक्त किया तथा उनका राजकन्या के साथ विवाह भी कर दिया। ऐतिहासिक घटनाओं के निदर्शन में ये बडे जागरूक रहे हैं। वैदर्भी-मार्ग के कवि हैं। बिल्हण ने राजाओं की कीर्ति ओर अपकीर्ति प्रसारण का कारण, कवियों को माना है। इनके महाकाव्य का सर्वप्रथम प्रकाशन जे.जी. बूल्हर द्वारा 1875 ई. में हुआ था। फिर हिन्दी अनुवाद के साथ वह चौखंबा विद्याभवन से प्रकाशित हुआ। बुद्धघोष- समय- संभवतः 4-5 वीं शती। टीकाकार बुद्धघोष से भिन्न। इन्होंने “पद्मचूडामणि' नामक महाकाव्य की रचना की है। ये पाली-लेखकों व बौद्ध-धर्म के व्याख्याकारों में महनीय स्थान के अधिकारी हैं। इन्होंने “विसुद्धिमग्ग" नामक बौद्ध-धर्म-विषयक ग्रंथ का भी प्रणयन किया है, तथा “महावंश" व "अठठ कथा" नामक ग्रंथ भी इनके नाम पर प्रचलित हैं। ये ब्राह्मण से बौद्ध हुए थे। इनके एक ग्रंथ का चीनी अनुवाद 488 ई. में हुआ था। जैसा कि इनके महाकाव्य "पद्मचूडामणि" से ज्ञात होता है, ये अश्वघोष तथा कालिदास के काव्यों से पूर्णतः परिचित थे। बुध्ददेव पाण्डेय- ई. 20 वीं शती। दयानंद कन्या विद्यालय, मीठापूर (पटना) में अध्यापक। "आदिकवि" नामक नाटक के प्रणेता। बुद्धपालित- समय- प्रायः पांचवीं शती। महायान सम्प्रदाय के महान् आचार्य। शून्यवाद के प्रमुख व्याख्याकार। प्रासंगिक मत के प्रतिष्ठापक। इसके कारण विशेष प्रसिद्ध । रचना-माध्यमिक-कारिका पर “अकुतोभया" नामक टीकाग्रंथ। अन्य स्वतंत्र रचना नहीं। बुध आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के प्रथम सूक्त के रचयिता। इस सूक्त में अग्नि की स्तुति की गयी है। बुधवीस- वंश-अग्रवाल। साहू तोतू के पुत्र और म. हेमचन्द्र के शिष्य। समय- ई. 16 वीं शती। ग्रंथ-बृहत्सिद्धचक्र-पूजा, धर्मचक्र-पूजा, नन्दीश्वर-पूजा और यष्टिमंडल-यन्त्र-पूजापाठ। बूल्हर जे. जी.- जर्मनी के प्राच्य-विद्या-विशारद। जर्मनी में 19 जुलाई 1837 ई. को जन्म। हनोवर-राज्य के अंतर्गत, वोरलेट नामक ग्राम के निवासी। एक साधारण पादरी की संतान । शैशव से ही धार्मिक रुचि। उच्च शिक्षा प्राप्ति के । हेतु गार्टिजन विश्वविद्यालय में प्रविष्ट व वहां संस्कृत के अनूदित ग्रंथों का अध्ययन। 1858 ई. में डाक्टरेट की उपाधि प्राप्त की, और भारतीय विद्या के अध्ययन में संलग्न हुए। आर्थिक संकट होते हुए भी बड़ी लगन के साथ भारतीय हस्तलिखित पोथियों का अन्वेषण कार्य प्रारंभ किया। तदर्थ आप पेरिस, लंदन व ऑक्सफोर्ड के इंडिया आफिस-स्थित विशाल ग्रंथागारों में उपलब्ध सामग्रियों का आलोडन करने के लिये गए। संयोगवश लंदन में मैक्समूलर से भेंट होकर इस कार्य में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लंदन में ये विंडसर के राजकीय पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्य के रूप में नियुक्ति हए व अंततः गार्टिजन-विश्वद्यिालय के पुस्तकालय में सह-पुस्तकालयाध्यक्ष के रूप में इनकी नियुक्ति हुई। भारतीय विद्या के अध्ययन की उत्कट अभिलाषा के कारण ये भारत आए और मैक्समूलर की संस्तुति के कारण बंबई-शिक्षा-विभाग के तत्कालीन अध्यक्ष हार्वड ने इन्हें मुंबई-शिक्षा-विभाग में स्थान दिया। यहां ये 1863 ई. से 1880 ई. तक रहे। विश्वविद्यालय का जीवन समाप्त होने पर इन्होंने स्वयं को लेखन-कार्य में लगाया और "ओरिएंट एण्ड ऑक्सीडेंट" नामक पत्रिका में भाषा-विज्ञान व वैदिक शोधविषयक निबंध लिखने लगे। इन्होंने "बंबई संस्कृत-सीरीज' की स्थापना की, और वहां से "पंचतंत्र", "दशकुमार-चरित" व "विक्रमांकदेवचरित' का संपादन व प्रकाशन किया। सन् 1867 में सर रेमांड वेस्ट नामक विद्वान के सहयोग से इन्होंने "डाइजेस्ट-ऑफ हिंदू लॉ' नामक पुस्तक का प्रणयन किया। इन्होंने संस्कृत की हस्तलिखित पोथियों की खोज का कार्य अक्षुण्ण रखा, और 1868 ई. में एतदर्थ शासन की ओर से बंगाल, मुंबई व मद्रास में संस्थान खुलवाये। डा. कीलहान, बूल्हर, पीटर्सन, भांडारकर, बनेल प्रभृति विद्वान भी इस कार्य में लगे। बूल्हर को मुंबई शाखा का अध्यक्ष बनाया गया। बूल्हर ने लगभग 2300 पोथियों को खोज कर उनका उद्धार किया। इनमें से कुछ बर्लिन-विश्वद्यिालय में गयीं तथा कुछ पोथियों को इंडिया ऑफिस लाइब्रेरी लंदन में रखा गया। सन् 1887 में इन्होंने लगभग 500 जैन ग्रंथों के आधार पर जर्मन भाषा में धर्म-विषयक एक ग्रंथ की रचना की, जिसे बहुत प्रसिद्धि प्राप्त हुई। इस प्रकार अनेक वर्षों तक निरंतर अनुसंधान-कार्य में जुटे रहने के कारण इनका स्वास्थ्य गिरने लगा । अतः आरोग्य लाभ हेतु, ये वायना (जर्मनी) चले गए। वायना-विश्वविद्यालय में इन्हें भारतीय साहित्य व तत्त्वज्ञान के अध्यापन का कार्य मिला। वहां इन्होंने 1886 ई. में “ओरीएंटल इन्स्टीट्यूट' की स्थापना की और "ओरीएंटल जर्नल' नामक पत्रिका का प्रकाशन इन्होंने किया। इन्होंने 30 विद्वानों के सहयोग से " एनसायक्लोपेडिया ऑफ इंडो-आर्यन् रिसर्च" का संपादन-कार्य प्रारंभ किया किन्तु इसके केवल 9 भाग ही प्रकाशित हो सके। अपनी मौलिक प्रतिभा के कारण, बूल्हर विश्वविश्रुत विद्वान 382 / संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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