SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 397
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir इनका जन्म हुआ था। “अजितसिंहचरितम्" महाकाव्य, इनकी एकमात्र कृति है जिसमें अजितसिंह का चरित्र 10 सर्गों में वर्णित है। बालचन्द- मूल संघ, देशीयगण, पुस्तक गच्छ और कुन्दकुन्दान्वयके विद्वान् । गुरु-नयकीर्ति । भ्राता-दामनन्दी। समयई. 12 वीं शती। ग्रंथ-प्रवचनसार, समयसार, पंचास्तिकाय, परमात्मप्रकाश और तत्त्वार्थसूत्र (तत्त्वरत्न-प्रदीपिका) इन पांचों ग्रंथों पर टीकाएं उपलब्ध हैं। बालसरस्वती- व्याकरण के एक सुप्रसिद्ध पंडित तथा कवि भी थे। इनका राघवयादव-पांडवीय नामक महाकाव्य (शब्दश्लेश द्वारा) तीन अर्थो को प्रकट करता है। काव्य का प्रत्येक श्लोक राम, कृष्ण तथा पांडव तीनों से संबंधित अर्थ प्रकट करता है, जिससे संपूर्ण काव्य में रामायण, महाभारत तथा भागवत की कथा का समावेश हो गया है। इन्होंने चंद्रिकापरिणय नामक एक अन्य काव्य की भी रचना की है। बालचंद्र सूरि- समय- ई. 13 वीं शताब्दी। “वसंत-विलास" नामक महाकाव्य के प्रणेत.। इस महाकाव्य में राजा वस्तुपाल का जीवन-चरित्र वर्णित है। कवि ने इसकी रचना, वस्तुपाल के पुत्र के मनोरंजनार्थ की थी। "प्रबंध-चिंतामणि" के अनुसार यह काव्य वस्तुपाल को इतना अधिक रुचिकर प्रतीत हुआ कि उन्होंने इस पर बालचंद्र सूरि को एक सहस्र सुवर्ण मुद्राएं प्रदान की और उन्हें आचार्य-पद पर अभिषिक्त किया। बाहवृक्त आत्रेय- ऋग्वेद के पांचवे मंडल के 71 एवं 72 • दो सूक्त इनके नाम पर हैं। इन सूक्तों में मित्र और वरुण की स्तुति की गयी है। एक ऋचा इस प्रकार है- . मित्रश्च नो वरुणश्च जुषता यज्ञमिष्टये। नि बर्हिषि सदता सोमपीतये।। अर्थ- हमारी अभीप्सा पूर्ण हो इसके लिये मित्र और वरुण हमारे इस यज्ञ को स्वीकार करें। इस लिये अब दोनों देवताओं, सोमरस के आस्वादन के लिये इस कुशासन पर आप आरोहण कीजिये! बिल्वमंगल- (लीलाशुक) पिता-दामोदर । माता-नीली या नीरी। अपने जीवन के पूर्वार्ध में ये अत्यंत विषयासक्त थे। चिंतामणि नामक वेश्या के घर पर दिन-रात पड़े रहते थे। ___एक बार अपने पिता की श्राध्दतिथि पर भी वे चिंतामणि वेश्या के यहां गये। वेश्या को अपार दुःख हुआ। उसने उनकी निर्भत्सना करते हुए कहा, मुझ पर जितने आसक्त हो उतना भगवान् कृष्ण पर प्रेम करो तो तुम्हारा और तुम्हारे कुल का उद्धार हो जायेगा। बिल्वमंगल को उपरति हुई। वहां से वे सीधे व्रजभूमि की ओर चल पड़े। राह में सोमगिरि नामक महात्मा से इनकी भेंट हुई। उन्होंने बिल्वमंगल को वैष्णवदीक्षा दी और इनका नाम "लीलाशुक" रखा। इनकी यात्रा जारी रही। रास्ते में सुंदर-सुंदर वस्तुओं को देख कर इनका मन उनकी ओर आकृष्ट होता था। एक दिन इनके मन में विचार आया "आंखे बडी पापी हैं। वे भगवान् के दर्शन में बाधक हैं, क्यों कि ये अनेक विषयों की ओर मन को आकर्षित करती हैं। उन्होंने तुरंत एक कांटा लेकर उससे अपनी दोनों आंखे बेध डाली। दृष्टिविहीन बिल्वमंगल ठोकरे खाते हुए ब्रज की ओर चलने लगे। कहते है कि भगवान् कृष्ण को इनकी दया आयी। उन्होंने बालक का रूप धारण कर उन्हें अपने हाथ का सहारा दिया और वृंदावन तक पहुंचा दिया। वहां उन्होंने बिल्वमंगल से बिदाई मांगी। परंतु इन्होंने उनका हाथ दृढता से पकड रखा । फिर भी भगवान् कृष्ण हाथ छुड़ा कर चल पड़े। तब इन्हें अनुभव हुआ कि इन्हें पहुंचाने वाला बालक स्वयं भगवान कृष्ण थे। उस समय इनके मुख से निम्न श्लोक निकला हस्तमुत्क्षिप्य यातोऽसि बलात्कृष्ण किमद्भुतम्। हृदयाद्यदि निर्यासि पौरुषं गणयामि ते।। बिल्वमंगल वृंदावन में रहने लगे। वहां इन्होंने कृष्ण की सरस और मधुर लीलाओं पर 112 श्लोक रचे। इनके ये श्लोक "कृष्णकर्णामृत" के नाम से विख्यात हुए। चैतन्य महाप्रभु इनका नित्य पाठ करते थे इससे कृष्णकर्णामृत की महत्ता प्रमाणित होती है। कृष्णकर्णामृत का निम्न श्लोक बिल्वमंगल की हरि-दर्शन की उत्कटता प्रकट करता हैअमून्यधन्यानि दिनान्तराणि हरे त्वदालोकनमन्तरेण । अनाथबन्धो करुणैकसिन्धो हा हन्त हा हन्त कथं नयामि ।। अर्थ हे हरि, हे अनाथ बंधु, हे करुणासागर, तुम्हारे दर्शन के बिना मेरे विफल सिद्ध होनेवाले दिन मैं कैसे पार करूं। मुझे अत्यंत दुःख हो रहा है। बिल्हण- पिता-ज्येष्ठ कलश और माता-नागदेवी। जन्म-काश्मीर के प्रवरपुर के निकटवर्ती ग्राम खानमुख में । कौशिक गोत्री ब्राह्मण। बिल्हण के प्रपितामह और पितामह वैदिक वाङ्मय के प्रकांड पंडित थे। इनके पिता ने पतंजलि के महाभाष्य पर टीका लिखी थी। बिल्हण ने वेद, व्याकरण तथा काव्यशास्त्र का अध्ययन काश्मीर में ही पूर्ण किया था। ई. स. 1062-65 के बीच किसी समय बिल्हण ने काश्मीर छोडा और देश के विभिन्न भागों का भ्रमण किया। अंत में कर्नाटक के चालुकक्यवंशीय सम्राट विक्रमांक की राजसभा में उन्हें सम्मानपूर्वक आश्रय मिला। वहीं इन्होंने कालिदास के रघुवंश के अनुकरण पर "विक्रमांकदेव-चरित' नामक महाकाव्य लिखा। उनका और पर्याय से बिल्हण का समय 1076-1127 बिल्हण का कर्णसुंदरी नामक नाटक और चौरपंचाशिका नामक लघु प्रणयकाव्य भी उपलब्ध है। संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 381 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy