________________
Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra
www.kobatirth.org
Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir
संस्कृत वाङ्मय दर्शन
प्रकरण - 1 1 संस्कृत भाषा
संस्कृत शब्द का प्रयोग अनेकविध अथों में संस्कृत साहित्य में किया गया है। उन सभी प्रयोगों में सुशोभित करना, अलंकृत करना, पवित्र करना, प्रशिक्षित करना, सतेज करना, निर्दोष करना, इत्यादि भाव व्यक्त होते हैं। जब किसी भाषा को संस्कृत विशेषण लगाया जाता है, तब यह अर्थ माना जाता है कि वह भाषा अर्थात् उस भाषा के बहुत से शब्द, निश्चित अर्थ व्यक्त करने की दृष्टि से भाषा शास्त्रीय पद्धति के अनुसार विवेचन कर, निर्दोष किए गए हैं। उन शब्दों में स्वर, व्यंजन, हस्व, दीर्घ इत्यादि किसी प्रकार की विकृतता सदोषता बाकी नहीं रही। बहुतांश शब्दों का निरुक्ति व्युत्पत्ति आदि दृष्टि से पूर्णतया संशोधन करने के कारण, संपूर्ण भाषा में जो परिपूर्णता, परिपक्वता या विशुद्धता निर्माण हुई, उसी कारण भारतीय मनीषियों ने अपनी संस्कारपूत भाषा की स्तुति, "दैवी वाक्' (संस्कृतं नाम दैवी वाक्) (काव्यादर्श- 1-33) इस अनन्य साधारण विशेषण से की। देवभाषा, अमरभाषा, गीर्वाणवाणी, अमृतवाणी, सुरभारती, इत्यादि संस्कृत भाषा के निर्देशक अनेकविध रूढ शब्दप्रयोग, इस भाषा की संस्कारपूर्तता के कारण निर्माण हुई अपूर्वता अद्भुतता,,सुंदरता इत्यादि गुणों को ही व्यंजित करते हैं।
आस्तिक दृष्टिकोण के अनुसार सभी चराचर सृष्टि की निर्मिति सर्वव्यापी और सर्वान्तर्यामी परमात्म तत्त्व से हुई है। अर्थात् इस सृष्टि के अन्तर्गत सभी सचेतन प्राणिमात्र के कंठ से प्रस्फुटित होने वाली शब्दस्वरूप वाणी भी परमात्म तत्व की ही निमिति है। यह शब्दरूप वाणी आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्याकृत-अस्फुट थी। श्री सायणाचार्य (अर्थात् श्रीविद्यारण्य स्वामी) अपने ऋग्वेदभाष्य में कहते हैं :- "अग्निमीळे पुरोहितम् इत्यादि-वाक् पूर्वस्मिन् काले समुद्रादिध्वनिवद् एकात्मिका सती अव्याकृता = प्रकृतिः प्रत्ययः पदं वाक्यम् इत्यादि विभागकारिग्रन्थरहिता आसीत् । तदा देवैः प्रार्थितः इन्द्रः एकस्मिन् एव पात्रे वायोः स्वस्य च सोमरसग्रहणरूपेण वरेण तुष्टः ताम् अखण्डवाचं मध्ये विच्छिद्य प्रकृतिप्रत्ययादिविभाग सर्वत्र अकरोत्"।
अर्थात् आदिकाल में समुद्रध्वनि के समान अव्यक्त वेदवाणी को इन्द्र भगवान् ने सोमरस से प्रसन्न होने के कारण, प्रकृति प्रत्यय इत्यादि विभाग भाषा में निर्माण कर उसे अर्थग्रहण के योग्य किया। वेदों में भाषा की उत्पत्ति के संबंध में चार प्रसिद्ध मन्त्र मिलते हैं :
(1) देवीं वाचमजनयन्त देवाः तां विश्वरूपाः पशवो वदन्ति । सा नो मन्द्रेषमूर्ज दुहाना धेनुर्वागस्मान् उपसुष्टतेतु । ऋ. 8-100 ।। (2) चत्वारि शृंगा त्रयो अस्य पादा द्वे शीर्षे सप्त हस्तासो अस्य । त्रिधा बद्धो वृषभो रोरवीति महो देवो महँ आविवेश ।।ऋ. 4-58-3 ।। (3) इन्द्रा-वरुणा यदृषिभ्यो मनीषां वाचो मतिं श्रुतमदत्तमग्रे। यानि स्थानान्यसृजन्त धीरा । यज्ञं तन्वाना तपसाभ्यपश्यन् । ऋ. 8-59-6।। (4) चत्वारि वाक् परिमिता पदानि तानि विदुर्ब्राह्मणा ये मनीषिणः । गुहा त्रीणि निहिता नेङ्गयन्ति तुरीयं वाचो मनुष्या वदन्ति
|ऋ. 1-164-45।। अथर्व -6-25-27-26-1
इन वाणी विषयक मन्तों पर भाष्य लिखने वाले यास्क, पतंजलि, सायण जैसे महामनीषियों ने अपने भाष्य ग्रंथों में वैदिक भाषा की उत्पत्ति का संबंध साक्षात् देवों से ही जोडा है। सायणाचार्य ने तो संस्कृत भाषा का पर्यायवाचक शब्द “देवभाषा" इस सामासिक शब्द का विग्रह "देवसृष्टा भाषा देवभाषा' इस प्रकार कर, यह भी कहा है कि यह देवभाषा "सर्वजनमान्या" और "सर्वविदिता" है। त्रेता युग में इन्द्र चन्द्र भूतेश जैसे देवता इस भाषा के अक्षर निर्माता थे इत्यादि अर्थ के वचन प्राचीन ग्रन्थों में मिलते हैं।
भाषाविज्ञान का मत आधुनिक भाषाविज्ञान के पंडितों ने संसार के जो विविध भाषापरिवार माने हैं उन में आर्यपरिवार (जिसे इंडोजानिक और इण्डोयूरोपियन भी कहते हैं) नामक सर्वप्रमुख भाषापरिवार माना है। इस परिवार में यूरोप, उत्तर-दक्षिण अमरीका, नैऋत्य आफ्रिका, आस्ट्रेलिया और ईरान जैसे विशाल प्रदेशों की अनेकविध भाषाओं का अन्तर्भाव होता है। उन सब में संस्कृत भाषा को अग्रस्थान दिया जाता है। संस्कृत भाषा की प्रमुखता के कारण इस भाषा परिवार का "सांस्कृतिक भाषा परिवार" यह नामकरण कुछ विद्वानों ने संमत किया था। परंतु इस परिवार के प्रदेशों में इंडिया और यूरोप ये दो प्रमुख प्रदेश हैं। इन दोनों का निर्देशक "इण्डोयूरोपीय" यही नाम सर्वत्र रूढ हुआ ।
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/1
For Private and Personal Use Only