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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir क्लेश = अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और अभिनिवेश इन पांच कारणों से दुःख होते हैं। इन दुःखकारणों को "क्लेश' कहते हैं जिनका निवारण ध्यानयोग की साधना से होता है। अविद्या = अनित्य में नित्यता की, अपवित्र में पवित्रता की, दुःख में सुख की और अनात्म वस्तु में आत्मा की प्रतीति । (अर्थात् सर्वत्र विपरीत बुद्धि)। यह अविद्या ही अन्य चार क्लेशों की मूल है। अस्मिता = द्रष्टा (चेतन पुरुष) और उसकी दर्शनशक्ति (या सात्त्विक बुद्धि) इन में चैतन्य और जडता के कारण भिन्नता होते हुए भी, उनकी एकात्मता मानना । (लौकिक भाषा में आज कल अस्मिता शब्द का प्रयोग अहंकार या स्वाभिमान के अर्थ में सर्वत्र होता है।) राग = पूर्वानुभृत सुखसंवेदना की स्मृति के कारण उस सुख के प्रति आसक्तता या आकर्षण । द्वेष = पूर्वानुभूत दुःखसंवेदना की स्मृति के कारण उस के प्रति तिरस्कार की भावना। अभिनिवेश = पूर्वजन्म में मृत्यु का अनुभव आने के कारण इस जन्म में शरीरवियोग (अर्थात मृत्यु) न हो ऐसी तीव्र इच्छा। ऐसी इच्छा प्रत्येक प्राणी मात्र में रहती है। दृश्य - प्रकाश, क्रिया और स्थिति जिसका स्वभाव है, इन्द्रियां और पंच महाभूत जिसका परिणाम है, भोग और अपवर्ग (मोक्ष) जिसका प्रयोजन है, ऐसे बुद्धितत्त्व को दृश्य कहते हैं। द्रष्टा - चेतनास्वरूप पुरुषतत्त्व। अपने समीपवर्ती बुद्धितत्त्व में प्रतिबिंबित शब्द, स्पर्श आदि विषयों से जो अनुकूल या प्रतिकूल अनुभृति आती है, उसकी संवेदना पुरुष पाता है। अर्थात् दृश्य है प्रकृति और द्रष्टा है पुरुष। प्रकृति और पुरुष सांख्य शास्त्र के परिभाषिक शब्द हैं। उसी अर्थ में दृश्य और द्रष्टा तथा स्व और स्वामी शब्द योगशास्त्र में प्रयुक्त होते हैं। संयोग = स्व (दृश्य) शक्ति और स्वाभिशक्ति (द्रष्टा की शक्ति) अथवा स्व और स्वामी, एक दूसरे से विभिन्न हैं। उनके स्वरूप का ज्ञान होने का कारण है उनका संयोग (स्वरूपसंयोग)। इस संयोग का कारण है अविद्या । गुणपर्व = विशेष, अविशेष, लिंगमात्र और अलिंग इन चारों को गुणपर्व कहते हैं। ये चारों शब्द पारिभाषिक हैं। उनके अर्थःविशेष = पंचमहाभूत और इन्द्रियां। अविशेष = पंच तन्मात्रा (शब्दादि) और अन्तःकरण लिंगमात्र = बुद्धि अलिंग = अव्यक्त प्रकृति । कैवल्य = दृश्य और द्रष्टा (प्रकृति-पुरुष) की विभिन्नता का ज्ञान स्थिर होने पर उनका संयोग भी समाप्त होता है। इस संयोग के अभाव में द्रष्टा की अवस्था को कैवल्य कहते हैं। योगाङ्ग = यम, नियम, आसन, प्राणायाम, प्रत्याहार, धारणा, ध्यान और समाधि इन आठ साधनाओं को प्रत्येकशः योगाङ्ग कहते हैं। इन के अभ्यास से सब प्रकार की अशुद्धियां नष्ट हो कर जो बुद्धि में विशुद्धता आती है, उससे साधक को "विविकेख्याति प्राप्त होती है। विवेकख्याति = दृश्य और द्रष्टा (प्रकृति-पुरुष) की आत्यंतिक विभिन्नता की अनुभूति । यम = अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह इन पांच सार्वभौम महाव्रतों को मिला कर "यम" कहते हैं। नियम = शौच (शारीरिक और मानसिक शुद्धता) संतोष, तप, स्वाध्याय और ईश्वरप्राणिधान इन पांचों को मिला कर नियम कहते हैं। (यम-नियमों के पालन से योगमार्ग सुगम होता है। इनमें पूर्णता आने पर सिद्धियां भी मिलती हैं। वितर्क = हिंसा, असत्य, परधन का अपहरण, व्यभिचार, और भोगसाधनों का संग्रह । इन के कारण योगसाधना में प्रगति नहीं हो सकती। आसन = बैठने की विशिष्ट अवस्था जब स्थिर और सुखकर होती है तब उसे आसन कहते हैं। प्राणायाम = आसन में स्थिरता आने पर श्वास और उच्छ्वास का नियंत्रण। इसमें रेचक, पूरक और कुंभक क्रिया होती है। प्राणायाम से चित्त के रज और तम क्षीण हो कर वह सत्त्वमय होता है। प्रत्याहार - ज्ञानेन्द्रियों का अपने निजी विषय से सबंध तोड़ना। ऐसा होने पर इन्द्रियाँ चित्तस्वरूप की और अभिमुख हो कर साधक के अधीन होती हैं और साधक इन्द्रियों पर विजय पाता है। 7 "विभूतिपाद" धारणा = शरीर के नाभिचक्र, नासिकाग्र, भ्रूमध्य आदि विशिष्ट स्थान पर चित्त को स्थिर करना। ध्यान = जिस स्थान पर चित्त की धारणा हुई हो, उसी का अखंडित भान रहना। 146/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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