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प्रमाण
विपर्यय
विकल्प
ने भवियोग की श्रेष्ठता की ओर निश्चित संकेत किया है। इन संयम साधनाओं के समान जन्म - औषधि - मंत्र - तन्त्र से भी सिद्धियाँ योगसाधना से आनुषंगिकता से प्राप्त होती हैं, परंतु साधक ने इन में फंसना नहीं चाहिए क्यों कि आत्यंतिक ध्येय (समाधिलाभ ) के मार्ग में सिद्धियां विघ्न स्वरूप होती हैं "ते समाधौ उपसर्गाः (3-38)। पातंजल योगदर्शन के अंतरंग की संक्षिप्त कल्पना, उसके कुछ महत्त्वपूर्ण पारिभाषिक शब्दों के परिचय से आ सकती है। अतः यहाँ उनका संक्षेप में परिचय देते हैं। स्वयं पतंजलि ने ही अपने सूत्रों में पारिभाषिक शब्दों का जो स्पष्टीकरण दिया है, उसी के आधार पर पारिभाषिक शब्दों के सामान्य अर्थ विशद करने के लिये अनन्तपडित कृत वृत्ति की सहायता हमने ली है।
योग
चितवृत्तियों का निरोध।
वृत्ति
निद्रा
स्मृति
अभ्यास
वैराग्य
परवैराग्य
संप्रज्ञातसमाधि असंप्रज्ञात समाधि
ईश्वर
जप
चित्तविक्षेष
समापत्ति
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: प्रमाण, विपर्यय, विकल्प, निद्रा और स्मृति । ये चित्त के परिणामभेद है।
: प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम ।
: मिथ्याज्ञान तथा संशय ।
: वस्तु के अभाव में केवल शब्द मात्र के ज्ञान से उसकी कल्पना करना ।
: चित्त की भावशून्य अवस्था ।
: अनुभूत विषय का अंतःकरण में चिरस्थायी संस्कार ।
: चित्त को वृत्तिरहित अवस्था में स्थिर रखने का प्रयत्न ।
: ऐहिक एवं पारलौकिक सुखोपभोगों के प्रति निरिच्छता ।
: विशिष्ट "पुरुष", जिसे अन्य पुरुषों (जीवों) के समान "क्लेश" (अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष, और
है ।
अभिनिवेश, इन पांच चित्तदोषों को योगशास्त्र में क्लेश कहते हैं) कर्मविपाक (जाति, आयु और भोग) और वासना, इन से संपर्क नहीं रहता, जो सर्वज्ञ, कालातीत और ब्रह्मादि देवताओं का भी उपदेशक गुरु
: ईश्वरवाचक प्रणव (ओंकार) के अर्थ की (याने ईश्वर की) चित्त में पुनः पुनः भावना करना। इससे चित्त एकाग्र होता है।
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शारीरिक व्यथा, सुस्ती, संशय, प्रमाद, शरीर की जडता, विषयासक्ति, विपरीत ज्ञान, चित्त की अस्वस्थता, ये और अन्य दोष योग साधना में चित्तविक्षेप रूप विघ्न डालते है। एकाग्रता की साधना से ही इन विक्षेपों को हटाया जा सकता है।
: वृत्तियों का क्षय होने के कारण चित्त स्फटिक मणि के समान अत्यंत निर्मल होता है। ऐसे चित्त की ध्याता, ध्येय एवं ध्यान से सरूपता या तन्मयता । समापत्ति के चार भेद होते है : 1) सवितर्का- जिसमें शब्द एवं अर्थ का ज्ञान और विकल्पकी प्रतीति होती है। (2) निर्वितर्का- इसमें शब्दअर्थ विरहित (शून्यवत्) विशुद्ध प्रतीति होती है। 3) सविचारा (4) निर्विचारा सवित और निर्वितर्का समापति स्थूलविषक्य होती है सविचारा और निर्विचारा सूक्ष्मविषया होती हैं। सूक्ष्मविषयत्व का अर्थ है मूलप्रकृति (प्रधान) में विलय या पर्यवसान होना । सबीज समाधि उपरिनिर्दिष्ट समापत्तियों का ही नाम है सबीज समाधि । इसी को "सम्प्रज्ञात समाधि" भी कहते हैं। इस में उत्कृष्ट निपुणता प्राप्त होने से ऋतम्भरा प्रज्ञा का लाभ होता है।
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तत्त्वज्ञान के कारण । (सत्व, रज, तम) गुणों के प्रति आत्यंतिक निरिच्छता ।
: वितर्क, विचार, आनंद और अस्मिता सहित स्वरूपज्ञान की अवस्था ।
: वितर्कादि विरहित स्वरूपज्ञान की अवस्था । इस अवस्था में वितर्क, विचार, आदि रुद्ध होते हुए भी उनके संस्कार अवशिष्ट रहते हैं।
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ऋतम्भरा प्रज्ञा (ऋतं सत्यं बिभर्ति, कदाचिदपि न विपर्ययेण आच्छाद्यते सा ऋतम्भरा प्रज्ञा । ) अर्थात जिस से सत्य की ही प्रतीति होती है, विपरीत अथवा संशयग्रस्त प्रतीति कदापि नहीं होती, ऐसी श्रेष्ठ प्रज्ञा । श्रौतप्रज्ञा और अनुमानप्रज्ञा से यह ऋतम्भरा प्रज्ञा भिन्न होती है। वह सामान्यविषया होती है, यह विशेषविषया होती है। ऋतम्भरा प्रज्ञा के कारण जो संस्कार होता है, वह समाधिलाभ के मार्ग में बाधा डालने वाले अन्य सभी संस्कारों को नष्ट करता है।
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निर्बीज समाधि संप्रज्ञात या सबीज समाधि का निरोध होने पर जब सारी चित्तवृत्तियां अपने मूल कारण में विलीन होती हैं तब केवल जो केवल संस्कार मात्र वृत्ति रहती हैं, उसका भी निषेध (नेति नेति) करने पर पुरुष (जीवात्मा) को जो शुद्धतम अवस्था प्राप्त होती हैं, उसी का नाम है निर्बीज या असंप्रज्ञात समाधि योग साधनाओं का अंतिम उद्दिष्ट यही अवस्था है।
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"साधनपाद-परिभाषा"
क्रियायोग = तप, स्वाध्याय (ओंकार पूर्वक मंत्रजप ) और ईश्वरप्रणिधान ( सारी क्रियाओं का ईश्वर के प्रति समर्पण) इन तीनों को मिला कर क्रियायोग कहते हैं। समाधि अवस्था की प्राप्ति के लिए क्रियायोग की त्रिविधा साधना आवश्यक है।
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संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 145
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