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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir ही परमात्मा माने गये हैं। श्रीकृष्ण की कृपा शान्त, दास्य, सख्य, वात्सल्य, तथा उज्ज्वल इन पांच भावों से युक्त भक्ति द्वारा होती है। श्रीराधा श्रीकृष्ण की आह्लादिनी शक्ति है। राधा-कृष्ण में अविनाभाव संबंध है। क्रीडा के निमित्त एक ही ब्रह्म उन दो रूपों में प्रकट हुआ है। 9 तत्त्वसमन्वय भारतीय दर्शनों में जीव, जगत्, ईश्वर, परमात्मा आदि के विषय में गहन तात्त्विक विवेचन अत्यंत मार्मिकता से हुआ है। इस विवेचन में प्राचीन अनेक सूत्रकारों, भाष्यकारों, टीकाकारों ने अपनी तलस्पर्शिनी प्रज्ञा एवं क्रान्तदर्शिनी प्रतिभा का परिचय दिया है। इस विश्व का गूढ रहस्य तत्त्वजिज्ञासुओं के लिए अपने अपने दर्शनों द्वारा उद्घाटित करने का जो प्रयास उन्होंने किया, उसमें एक विशेष बात ध्यान में आती है कि तत्त्वों की संख्या के विषय में अन्याय दर्शनों में एकमत नहीं है। इस मत-वैविध्य के कारण सामान्य जिज्ञासु के सन्देह का निरास नहीं होता और उसकी जिज्ञासा कायम रहती है या उसकी श्रद्धा विचलित सी होती है। उपनिषदों के वाक्यों में जहां परस्पर विरोध सा प्रतीत हुआ वहां उनका समन्वय दार्शनिक भाष्यकारों ने मार्मिक उपपत्ति एवं समुचित उपलब्धि के द्वारा करते हुए जिज्ञासुओं का समाधान किया है, परंतु अन्यान्य दार्शनिकों के तत्त्वकथन में जो मतभेद निर्माण हुआ, उसका समाधान हुए बिना तत्त्वजिज्ञासु की जिज्ञासा शांत नहीं हो सकती। श्रीमद्भागवत (स्कन्ध-11 अध्याय-22) में वही जिज्ञासा उध्ववजी ने भगवान् के समक्ष व्यक्त की है और उस मार्मिक जिज्ञासा का प्रशमन समस्त दार्शनिकों के दार्शनिक भगवान् श्रीकृष्ण ने यथोचित युक्तिवाद से किया है। प्रस्तुत प्रकरण में उक्त समस्या का उपसंहार करने हेतु श्रीमद्भागवत के उसी अध्याय का सारांश उद्धृत करना हम उचित समझते हैं। उद्धव और श्रीकृष्ण के उस संवाद में इस मतभेद का समुचित समन्वय होने के कारण जिज्ञासुओं का यथोचित समाधान होगा यह आशा है। उद्धव जी कहते है, "है प्रभो। विश्वेश्वर ।" आपने (19 वें अध्याय में) तत्त्वों की संख्या, नौ, ग्यारह, पांच और तीन अर्थात् कुल मिला कर अट्ठाईस बतायी है। किन्तु कुछ लोग छब्बीस, कोई पच्चीस, कोई सत्रह, कोई सोलह, कोई तेरह, कोई ग्यारह, कोई नौ, कोई सात, कोई छह, कोई चार; इस प्रकार ऋषिमुनि भिन्न भिन्न संख्याएं बताते हैं। वे इतनी भिन्न संख्याएं किस अभिप्राय से बतलाते हैं? उद्धवजी की इस मार्मिक जिज्ञासा का प्रशमन करते हुए श्रीकृष्ण भगवान् कहते हैं : "उद्धवजी! इस विषय में वेदज्ञ ब्राह्मणों ने जो कुछ कहा है, वह सभी ठीक है; क्योंकि सभी तत्त्व सब में अन्तर्भूत हैं" जैसा तुम कहते हो वह ठीक नहीं है, जो मै कहता हूं वही यथार्थ है "इस प्रकार जगत् के कारण के संबंध में विवाद होता है। इस का कारण वे अपनी अपनी मनोवृत्ति पर ही आग्रह कर बैठते हैं। वस्तुतः तत्त्वों का एक-दूसरे में अनुप्रवेश है, इस लिये, वक्ता तत्त्वों की जितनी संख्या बतलाना चाहता है, उसके अनुसार कारण को कार्य में अथवा कार्य को कारण में मिला कर अपनी इच्छित संख्या सिद्ध कर लेता है। ऐसा देखा जाता है कि एक ही तत्त्व में बहुत से दूसरे तत्त्वों का अन्तर्भाव हो गया है। इसका कोई बन्धन नहीं है कि किसका किस में अन्तर्भाव हो। इसी लिये वादी-प्रतिवादियों में से जिस की वाणी ने, जिस कार्य को जिस कारण में, अथवा जिस कारण को जिस कार्य में अन्तर्भूत करके तत्त्वों की जितनी संख्या स्वीकार की है, वह हम निश्चय ही स्वीकार करते है क्यों कि उनका वह उपपादन युक्तिसंगत ही है। उद्धवजी! जिन लोगों ने छब्बीस संख्या स्वीकार की है, वे ऐसा कहते हैं कि प्रकृति के कार्य-कारण रूप चौतीस तत्त्व, पच्चीसवां पुरुष और छब्बीसवां ईश्वर मानना चाहिए। पुरुष (या जीव) अनादि काल से अविद्याग्रस्त होने के कारण अपने आप को नहीं जान सकता। उसे आत्मज्ञान कराने के लिये किसी अन्य सर्वज्ञ की आवश्यकता होती है इसलिये छब्बीसवें ईश्वर तत्त्व को मानना आवश्यक है। पच्चीस तत्त्व मानने वाले कहते हैं कि इस शरीर में जीव और ईश्वर का अणुमात्र भी अंतर या भेद नहीं है, इसलिये उनमें भेद की कल्पना व्यर्थ है। रही ज्ञान की बात! वह तो सत्त्वात्मिकी प्रकृति का गुण है, आत्मा का नहीं। इस प्रसंग में सत्त्वगुण ही ज्ञान है, रजोगुण ही कर्म है और तमोगुण ही अज्ञान कहा गया है। और गुणों में क्षोभ उत्पन्न करने वाला काल स्वरूप ईश्वर है और सूत्र अर्थात् महत्तत्त्व ही स्वभाव है। इस लिये पच्चीस और छब्बीस तत्त्वों की दोनों ही संख्या युक्तिसंगत है। तत्त्वों की संख्या अठ्ठाईस मानने वाले, सत्त्व, रज, और तम-तीन गुणों को मूल प्रकृति से अलग मानते हैं। (उनकी उत्पत्ति और प्रलय को देखते हुए वैसा मानना भी चाहिये) इन तीनों के अतिरिक्त, पुरुष, प्रकृति, महत्, अहंकार, और पंचभूतये नौ तत्त्व, पांच ज्ञानेन्द्रियां, पांच कर्मेन्द्रियां, मन (जो उभयेन्द्रिय है) और शब्दस्पर्शादि पांच (ज्ञानेन्द्रियों के) विषय सब मिला कर अठ्ठाईस तत्त्व होते हैं। इनमें कर्मेन्द्रियों के पांच कर्म (चलना, बोलना आदि) नहीं मिलाए जाते क्यों कि वे कर्मेन्द्रिय स्वरूप ही माने जाते हैं। जो लोक तत्त्वों की संख्या सत्रह बतलाते हैं वे इस प्रकार तत्त्वों की गणना करते हैं- पांच भूत, पांच तन्मात्राएं, पांच संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/177 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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