SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 192
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir या द्वैताद्वैतवाद) का सिद्धान्त प्रस्थानत्रयी के आधार पर प्रतिपादन करने का कार्य ई. 12 वीं शती में निंबाकाचार्य ने किया। इनका वास्तविक नाम था नियमानन्द परंतु कहा जाता है रात्रि के समय निंब वृक्ष पर अर्क (सूर्य) का साक्षात् दर्शन होने के कारण इनका नाम निंबादित्य या निंबार्क पडा। इनके प्रधान ग्रंथ हैं: (1) वेदान्तपरिजातसौरभ ( ब्रह्मसूत्र का संक्षिप्त भाष्य ) (2) दशश्लीकी ( भेदाभेदमत प्रतिपादक दस श्लोकों का संग्रह, जिस पर हरिदास व्यास आचार्य की महत्त्वपूर्ण टीका है। (3) श्रीकृष्णस्तवराज ( पचीस श्लोकों का स्वमत प्रतिपादक काव्य । इस पर अत्यन्तसुरम, श्रुतिसिद्धान्त-मंजरी तथा अत्यन्तकल्पवल्ली नामक विस्तृत व्याख्याएं प्रकाशित हुई है। इनके अतिरिक्त निंबार्कतत्त्वप्रकाश, वेदान्ततत्त्वबोध, वेदान्त-सिद्धान्त- प्रदीप माध्वमुखमर्दन इत्यादि ग्रंथ भी उल्लेखनीय हैं 1 निंबार्काचार्य के प्रमुख शिष्य श्रीनिवासाचार्य ने अपने गुरु के वेदान्त - पारिजात - सौरभ पर वेदान्तकौस्तुभ नामक भाष्य लिखा । ई. 15 वीं शती में केशवभट्ट काश्मीरी ने (1) कौस्तुभप्रभा (वेदान्तकौस्तुभभाष्य की व्याख्या) (2) तत्त्वप्रकाशिका (गीता की व्याख्या और भागवत दशम स्कंध की वेदस्तुति की टीका) (3) क्रमदीपिका (विषय- पूजापद्धति का विवरण ) इत्यादि ग्रन्थों द्वारा द्वैताद्वैत मत का पुरस्कार किया। निंबार्क संप्रदाय में हरिव्यास देवाचार्य के शिष्योत्तम पुरुषोत्तमाचार्य का स्थान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इनके ग्रंथों में (1) वेदान्तरत्नमंजूषा ( दशश्लोकी की व्याख्या) तथा (2) श्रुत्यन्तसुरद्रुम (श्रीकृष्णस्तवराज की टीका ) नामक दो ग्रंथ पाण्डित्य पूर्णता के कारण प्रसिद्ध हैं। कृपाचार्य के शिष्य देवाचार्य ने ब्रह्मसूत्र की चतुःसूत्रादि पर सिद्धान्तजाह्नवी नामक उत्कृष्ट भाष्य लिखा है जिसमें उन्होंने पुरुषोत्तमाचार्य की वेदान्त-रत्नमंजूषा का यत्र-तत्र उल्लेख किया है। सिद्धान्त जाह्नवी पर सुन्दरभट्ट ने सिद्धान्तसेतु नामक टीका लिखी है इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अनन्तराम कृत वेदान्त तत्त्वबोध पुरुवेनमदास वैष्णव कृत - श्रुत्यन्तकल्पवल्ली (श्रीकृष्णस्तवराज की टीका), मुकुन्दमाधव (वंगनिवासी) कृत परपक्षगिरिवज्र (जिसमें अद्वैत मत के खंडन का सशक्त प्रयास हुआ है ।) इत्यादि ग्रंथ भेदाभेदवादी वाङ्मय में प्रसिद्ध हैं। निंबार्क प्रणीत द्वैताद्वैत (या भेदाभेद) वादी, तत्त्वज्ञान परंपरा के अनुसार 'हंसमत' माना जाता है। हंसस्वरूप नारायण - सनत्कुमार-नारदमुनि और निंबार्क यह इस दर्शन की गुरुपरम्परा मानी गयी है। संप्रदाय के अनुसार निंबार्क भगवान् विष्णु के सुदर्शन चक्र के अवतार माने जाते हैं। | इस दर्शन में प्रकृति, जीवात्मा और परमात्मा तीन तत्त्व माने जाते हैं। जीवात्मा और परमात्मा का संबंध भेदाभेदरूप या द्वैताद्वैत-रूप होता है, अर्थात् अवस्थाभेद के कारण जीवात्मा परमात्मा से भिन्न तथा अभिन्न होता है। जीवात्मा:- अणुप्रमाण, ज्ञानस्वरूप, शरीर से संयोग और वियोग होने योग्य, प्रत्येक देह में विभिन्न ज्ञाता, द्रष्टा, भोक्ता और अनंत होते हैं। परमात्मा या ईश्वर स्वतंत्र है 1 जीव के बद्ध और मुक्त दो प्रकार होते हैं। बद्ध जीव के बुभुक्षु और मुमुक्षु दो भेद होते हैं, उसी प्रकार मुक्त जीव के भी दो प्रकारः (1) नित्यमुक्त (जैसे विश्वक्सेन, गरुड, श्रीकृष्ण की मुरलि इत्यादि) और (2) संचित कर्मो का भोग समाप्त होने पर मुक्त । | मुक्तात्मा में कुछ बद्ध जीवात्मा देव, मनुष्य या तिर्यक् योनि में जन्म ले कर शरीर के प्रति अहंता ममता रखता है। ईश्वर से सादृश्य प्राप्त करते हैं तो अन्य कुछ ज्ञानमय स्वरूप में ही रहते हैं । प्रकृतिः- चेतनाहीन, जडस्वरूप मूलतत्त्व को प्रकृति कहते हैं। इसके तीन भेद माने जाते हैं: (1) प्राकृत (2) अप्राकृत और (3) काल । प्राकृत में महत तत्त्व में पंच महाभूत और उनके समस्त विकारों का अन्तर्भाव होता है। अप्राकृत के अन्तर्गत परमात्मा का स्थान, शरीर उनके अलंकार आदि जडप्रकृति से संबंध न रखने वाले दिव्य पदार्थों की गणना होती है। कालतत्त्व प्राकृत और अप्राकृत तत्वों से भिन्न है, जो नित्य विभु, जगन्नियंता और परमात्मा के अधीन है। ये तीनों प्रकृतिस्वरूप जडतत्व जीवात्मा के समान नित्य होते हैं। परमात्मा :- ईश्वर, नारायण, भगवान्, कृष्ण, पुरुषोत्तम, वैश्वानर इत्यादि पुराणोक्त नामों से इस तत्त्व का निर्देश होता है। यह स्वभावतः अविद्या, अस्मिता, रागद्वेष, और अभिनिवेश इन दोषों से अलिप्त, सर्वज्ञ, सर्वशक्तिमान्, कल्याणगुण-निधान, चतुर्व्यूहयुक्त, विश्व के उत्पत्ति स्थिति-लय का एकमात्र कारण और जीवों के कर्मफलों का प्रदाता है। यह सर्वान्तर्यामी और सर्वव्यापी है। परमात्मा स्वयं आनंदमय एवं जीवों के आनंद का कारण है। वासुदेव, संकर्षण, प्रद्युम्न और अनिरुद्ध इसी परमात्मा के अंग हैं। केवल अनन्य शरणागतों को परमात्मा का अनुग्रह प्राप्त होता है। मुक्त दशा में परमात्मा से एकरूप होने पर भी जीवात्मा की भिन्नता, प्रस्तुत भेदाभेदवादी मत में मानी जाती है। के निम्बार्क-‍ - मतानुसार प्रति या अनन्यशरणागति ही एकमात्र मुक्ति का साधन है। प्रपत्ति के कारण जीव भगवान् अनुग्रह का पात्र होता है। इस अनुग्रह के कारण भगवान् की रागात्मिकी या प्रेममय भक्ति का उदय होता है जिस के प्रकाश से जीव समस्त क्लेशों से मुक्त होता है । निम्बार्क मतानुयायी वैष्णव संप्रदाय का प्रचार वृन्दावन और बंगाल में अधिक मात्रा में हुआ है। इस संप्रदाय में श्रीकृष्ण 176 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy