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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir माध्वमतानुसार तत्त्वविचार दश पदार्थः- द्रव्य, गुण, कर्म, सामान्य, विशेष, विशिष्ट, अंशी, शक्ति, सादृश्य और अभाव। द्रव्य के 20 प्रकार:- परमात्मा, लक्ष्मी, जीव, अव्याकृत आकाश, प्रकृति, गुणजय,महत्तत्त्व, अहंकार, बुद्धि, मन, इन्द्रिय, मात्रा, भूत, ब्रह्माण्ड, अविद्या, वर्ण, अन्धकार, वासना, काल और प्रतिबिम्ब। गुणः- वैशेषिक दर्शन के 24 गुणों के अतिरिक्त, शम, दम, कृपा, तितिक्षा, और सौन्दर्य आदि । कर्म के तीन प्रकार:- विहित, निषिद्ध, और उदासीन । सामान्य के दो प्रकार:- नित्यानित्य तथा जाति-उपाधि भेद के कारण होते हैं। विशेषः- यह जगत् के समस्त पदार्थों में रहता है, अत एव अनन्त है। भेद व्यवहार के निर्वाहक पदार्थ को विशेष कहते है। परमात्मा में भी विशेष का स्वीकार होता है। विशिष्ट:- विशेषण से युक्त पदार्थ शक्ति के चार प्रकार:- (1) अचिन्त्य, (2) आधेय, (3) सहज और (4) पद। इन में अचिन्त्य शक्ति "अघटित-घटना-पटीयसी" होती है और वह भगवान् विष्णु में निवास करती है। दूसरे के द्वारा स्थापित शक्ति को आधेय शक्ति कहते है। सहजशक्ति कार्यमात्र के अनुकूल एवं सर्वपदार्थनिष्ठा होती है। पद-पदार्थ में वाचक-वाच्य संबंध को पदशक्ति कहते है। इसके दो प्रकार होते हैं (1) मुख्या और (2) परममुख्या। परमात्मा अर्थात साक्षात् विष्णु अनन्त गुणपरिपूर्ण हैं। वे उत्पत्ति, स्थिति, संहार, नियमन, ज्ञान, आवरण बन्ध और मोक्ष इन आठों के कर्ता एवं जड प्रकृति से अत्यन्त विलक्षण हैं। ज्ञान, आनंद, आदि कल्याण गुण ही परमात्मा के शरीर हैं। अतः शरीर होने पर भी वे नित्य तथा सर्वस्वतंत्र हैं। इनके मत्स्य-कूर्मादि अवतार स्वयं परिपूर्ण हैं। वे परमात्मा से अभिन्न हैं। लक्ष्मी:- परमात्मा की शक्ति एवं दिव्यविग्रहवती और नानारूप धारिणी उनकी भार्या है। वह परमात्मा से गुणों में न्यून है किन्तु देश और काल की दृष्टि से उनके समान व्यापक है। जीव के तीन प्रकार:- मुक्तियोग्य, नित्यसंसारी और तमोयोग्य । मुक्तियोग्य जीव के पाँच प्रकार:- देव, ऋषि, पित, चक्रवर्ती तथा उत्तम मनुष्य । तमोयोग्य जीव के चार प्रकार:- दैत्य, राक्षस, पिशाच और अधम मनुष्य । नित्यसंसारी जीव, सुख और दुःख का अनुभव लेता हुआ अपने कर्म के अनुसार ऊंच-नीच गति को प्राप्त करता है। वह कभी मुक्ति नहीं पाता। संसार में प्रत्येक जीव अपना व्यक्तित्व पृथक् बनाए रहता है। वह अन्य जीवों से तथा सर्वज्ञ परमात्मा से तो सुतरां भिन्न होता है। जीवों की अन्योन्य- भिन्नता मुक्तावस्था में भी रहती है। मुक्त जीवों के ज्ञानादि गुणों के समान उनके आनंद में भी भेद होता है। यह सिद्धान्त माध्वसिद्धान्त की विशेषता है। अव्याकृत आकाशः- नित्य एक तथा व्यापक होने से यह कार्यरूप तथा अनित्य भूताकाश से सर्वथा भिन्न है। इसके अभाव में समस्त जगत् एक निबिड पिंड बन जाता है। लक्ष्मी इसकी अभिमानिनी देवता है। प्रकृतिः- साक्षात् या परम्परा से उत्पन्न विश्व का उपादान कारण है। मुक्तजीवों के लीलामय विग्रह, शुद्ध सत्त्व से निर्मित होते हैं। श्री सत्त्वाभिमानिनी, भू-रजोभिमानिनी एवं दुर्गा तमोभिमानिनी देवता है। माध्वमतानुसार जो पंचभेद माने गये हैं उनके परिज्ञान से मुक्ति प्राप्त होती है। यह परिज्ञान द्विविध उपासना से संभव है: (1) संतत शास्त्राभ्यास और (2) ध्यान । मुक्ति के चार परिणामः- कर्मक्षय, उत्क्रान्ति, अर्चिरादिमार्ग और भोग। भोगरूपा मुक्ति के चार प्रकार:- सलोकता, समीपता, सरूपता और सायुज्यता। सायुज्यमुक्ति में जीव परमात्मा में प्रवेश कर उन्हीं के शरीर से आनंद का भोग करता है। यही सर्वश्रेष्ठ मुक्ति है। 8 "द्वैताद्वैतवादी निंबार्कमत" ब्रह्मसूत्र में उल्लिखित आचार्यों में आश्मरथ्य और औडुलोमि भेदाभेदवादी थे। शांकर मत का उदय होने से पूर्व भर्तृप्रपंच ने भेदाभेद मत का पुरस्कार किया था। उनके ग्रंथ में बादरायणा पूर्वकालीन भेदाभेदवादी आचार्यों का नामनिर्देश किया है। शंकराचार्य के बाद यादवाचार्य और भास्कराचार्य नामक आचार्यों ने भेदाभेद मत का युक्तिपूर्वक प्रतिपादन करने का प्रयास किया। उनके प्रखर युक्तिवादों का खंडन रामानुजाचार्य ने वेदार्थसंग्रह में, उदयनाचार्य ने न्यायकुसुमांजलि में और वाचस्पति मिश्र ने अपने भामती प्रस्थान में किया। इन उत्तर-पक्षी ग्रंथों से भास्कराचार्य के प्रतिपादन की प्रबलता ध्यान में आ सकती है। भेदाभेदवाद संस्कृत वाङ्मय कोश-ग्रंथकार खण्ड/175 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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