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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org लम्बी और बृहती नामक दो व्याख्याएं (जो विमर्शिनी नाम से विदित है विशेष प्रसिद्ध है अभिनवगुप्तकृत व्याख्याएं स्वप उत्पलदेव कृत वृत्ति तथा विवृत्ति टीकाओं पर लिखी गयी हैं। उनमें वृत्ति अधूरी प्राप्त है और विवृत्ति अप्राप्त है। अतः "सूत्र " और विमर्शिनी व्याख्याएं ही इस सिद्धान्त के आधारभूत ग्रन्थ है। अभिनवगुप्त के शिष्य क्षेमराज (ई-11 वीं शती) कृत शिवसूत्र विमर्शिनी, प्रत्यभिज्ञाहृदय एवं स्पन्दसन्देह और भास्करकण्ठ (ई. 18 वीं शती) कृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञाटीका ( या भास्करी), भी प्रत्यभिज्ञादर्शन के आकलन के लिये उपादेय हैं। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir I स्पन्दशास्त्र सोमानन्द के कनिष्ठ समसामायिक वसुगुप्त द्वारा काश्मीरी स्पन्द सिद्धान्त की प्रतिष्ठापना मानी जाती है स्पन्दकारिका नामक 71 कारिकाओं की रचना वसुगुप्त द्वारा ही मानी जाती है। शिवसूत्र के प्रणयन का श्रेय भी वसुगुप्त को ही दिया जाता है। संप्रदायानुसार माना जाता है की भगवान् श्रीकण्ठ ने स्वप्न में वसुगुप्त को आदेश दिया था कि महादेव गिरि के एक विशाल शिलाखंड पर उट्टंकित शिवसूत्रों का उद्धार और प्रचार करो। इन सूत्रों की संख्या 77 है। वसुगुप्त की स्पन्दकारिका पर राजानक रामकण्ठ ने विवृत्ति नामक टीका लिखी है। शिवसूत्र पर क्षेमराज ने विभर्शिनी टीका लिखी है स्पन्दकारिका शिवसूत्रों का संग्रह उपस्थित करती है इस तथ्य का प्रतिपादन क्षेमराज ने शिवसूत्र -विमार्शिनी में किया है। स्पन्दशास्त्र के अनुसार, परमेश्वर की खातंत्र्यशक्ति ही किंचित् चलनात्मक होने के कारण "स्पन्द" कही जाती है। स्पन्दकारिका पर भट्टकल्लट (ई. 9 वी शती) की स्पन्दसर्वस्व वृत्ति, उत्पलवैष्णव (10 ओं शती) कृत स्पन्दप्रदीपिका, क्षेमराज (11 वीं शती) कृत स्पन्दसन्देह और स्पन्दनिर्णयवृत्ति उल्लेखनीय टीकाएं हैं। I त्रिकदर्शन- काश्मीरी शैव दर्शन को प्रस्तुत संज्ञा प्राप्त होने का कारण है: सिद्धातंत्र नामकतंत्र तथा मालिनीतंत्र इन तीन तंत्रों का आधार इस मत में पर, अपर और परापर रूप तीन "त्रिक" माने जाते हैं। (1) शिव, शक्ति तथा उनका संघट्ट " पर त्रिक", (2) शिव, शक्ति तथा नर "अपर त्रिक" और (3) परा, अपरा, परापरा ये तीन अधिष्ठात्री देवियां "परापर त्रिक" नाम से प्रख्यात हैं। इन तीनों त्रिकों के आधार पर प्रतिष्ठित होना "त्रिकदर्शन" संज्ञा का कारण है । षडर्धशास्त्र - काश्मीरी शैव दर्शन के प्रमुख सिद्धान्त के अनुसार लिपि के प्रथम छह स्वर- अ, आ, इ, ई, उ, ऊउसी उन्मेषक्रम का प्रतिनिधित्व करते हैं, जिस क्रम से "अनुत्तर, आनंद, इच्छा, ईशना, उन्मेष तथा ऊर्मि" इन शक्तियों का परम शिव तत्त्व से उल्लासन होता है। इन में से आनंदशक्ति, ईशानशक्ति तथा ऊर्मिशक्ति क्रमशः अनुत्तर, इच्छा तथा उन्मेष पर आधारित होती हैं और उन्ही की किंचित् विकासोन्मुख अवस्थाएं हैं। अनुत्तर, इच्छा तथा उन्मेष क्रमशः चित्, इच्छा और ज्ञान कहलाती है। षडर्धशासन इसी तत्त्व की और संकेत करता है। काश्मीरीय साधकों में शैवों के समान कौलमार्ग साधकों का संप्रदाय प्रचलित है अभिनवगुप्ताचार्य कौलमान थे। कौल ज्ञाननिर्णय में पंचमकार और पंच पवित्र की चर्चा आती है। पंच मकार में मद्य, मांस, मंदिरा-मत्स्य और मैथुन इन पांचों की गणना होती है और पंच पवित्र में विषय, धारामूत, शुक्र, रक्त और मज्जा इन का अन्तर्भाव होता है। कौलमार्ग में गुप्तता पर विशेष आग्रह होने के कारण, इन लौकिक शब्दों के गूढ अर्थ अलग प्रकार के होते हैं जैसे मैथुन का अर्थ शिव और शक्ति का समरसीकरण होता है। कौलमार्गीयों में भक्ष्याभक्ष्य का कोई विधि निषेध तथा जातिभेद नहीं होता। कुण्डलिनीशक्ति का उद्बोधन इस मार्ग का उद्दिष्ट माना गया है। प्रत्येक जीव, कुण्डलिनी और प्राणशक्ति के साथ माता के उदर में प्रविष्ट होता है। जन्म होने पर भी सामान्यतः जीव जागृति, स्वप्न और सुषुप्ति अवस्था में जीवन व्यतीत करता है। इन अवस्थाओं में कुण्डलिनी निश्चेष्ट रहती है। उसका उद्बोधन कौल साधना से किया जाता है। इस साधना में पशु वीर एवं दिव्य नामक साधकों की अवस्थाएं मानी जाती हैं। सामान्य संसारासक्त साधक पशु अवस्था में होता है। वह जब अधिक उत्साह से साधनमार्ग में प्रवृत्त होता है, तब वह "वीर" कहलाता है। वह जब आत्मानंद की उच्चतम अवस्था में जाता है उसे "दिव्य" साधक कहते है कोलज्ञाननिर्णय में कौलसद्भाव, पदोत्रिक, महत्कौल, सिद्धामृतकौल, मत्स्योदर कौल इत्यादि शाखाओं का निर्देश किया है। संप्रदाय के अनुसार यह मार्ग यज्ञयागादि मार्ग से अधिक श्रेयस्कर माना जाता है। कौल साधकों के नित्य आचार में त्रिकालिक पूजा, नित्यजप, तर्पण, होम, ब्राह्मणभोजन इस पांच विधियों पर विशेष आग्रह होता है। कौलमार्गी, स्त्रियों के प्रति अत्यंत आदर रखते है । " कौल शब्द "कुल" शब्दसे निष्पन्न होता है। कुल शब्द के अन्यान्य अर्थ माने जाते हैं- (1) मूलाधारचक्र (2) जीव, प्रकृति, दिक्, काल, पृथ्वी, आप, तेज, वायु आकाश इन नौ तत्त्वों की "कुल" संज्ञा है । (3) श्रीचक्र के अन्तर्गत त्रिकोण (इसी को योनि भी कहते हैं) सौभाग्यभास्कर ग्रंथ में कौलमार्ग शब्द का स्पष्टीकरण "कुल शक्ति, अकुल शिव कुल से अकुल का अर्थात् शक्ति से शिव का संबंध ही कौल है। कौलमत के अनुसार शिवशक्ति में कोई भेद नहीं है। उन का संबंध अग्नि- धूम या वृक्ष छाया के समान नित्य होता है। = For Private and Personal Use Only इतिहास के अनुसार 12 वीं शताब्दी में बल्लालसेन ने बंगाल में कौलपंथ का प्रचार किया। 13 वीं शती में मुसलमानी आक्रमकों के अत्याचारों से कौल पंथ की हानि हुई । उन के ग्रंथों का विध्वंस हुआ। 15 वीं शताब्दी में देवीवरबंधु नामक संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 181
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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