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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org सत्पुरुष ने कामरूप में कामाख्या देवी की आराधना की और पंथ में कुछ व्यवस्था निर्माण की। कामाख्या आज भी कौलमार्गियों का मुख्य स्थान है। कौलाचार का विरोधी मार्ग समयाचार कहलाता है। श्रीशंकराचार्य समयाचार मार्गी थे। इस मार्ग में श्रीविद्या की उपासना तथा अंतरंग योग साधना को विशेष महत्त्व होता है । श्रीशंकराचार्य का सौंदर्यलहरी स्तोत्र, कवित्व तथा तांत्रिकत्व की दृष्टि से एक अपूर्व ग्रंथ होने के कारण इस मार्ग में उस स्तोत्र का विशेष महत्त्व माना जाता है। सौंदर्यलहरी पर 35 टीकाएं उपलब्ध हैं जिनमें नरसिंह, कैवल्याश्रम, अच्युतानन्द, कामेश्वरसूरि, लक्ष्मीधर की टीकाएं विशिष्ट महत्त्व रखती हैं । 11 शुद्धाद्वैतवादी वल्लभमत सन् 1479 में वैशाख वद्य एकादशी को लक्ष्मणभट्ट और एल्लमा गारू के पुत्र वल्लभ का जन्म हुआ। किशोरावस्था में ही यह बालक सर्वशास्त्रपारंगत हुआ। उसी अवस्था में उसे “बालसरस्वती" "वाक्पति" इत्यादि महनीय उपाधियाँ विद्वत्सभा द्वारा प्राप्त हुई। विजयनगर की राजसभा में वल्लभाचार्य ने शांकरमत का खंडन किया। बाद में वे मथुरा में निवासार्थ रहे थे, तब भगवान् श्रीकृष्ण ने स्वप्न साक्षात्कावर में अपनी उपासना का प्रचार करने का आदेश उन्हें दिया। उसी निमित्त उन्होनें जो सम्प्रदाय प्रवर्तित किया वह "पुष्टिमार्गी सम्प्रदाय" नाम से सर्वत्र प्रसिद्ध है । वल्लभाचार्य ने कुल सोलह ग्रंथों की रचना की जिनमें (1) ब्रह्मसूत्र पर अणुभाष्य, ( 2 ) तत्त्वदीप-निबंध ( श्रीमद्भागवत के सिद्धान्तों का प्रतिपादक ग्रंथ), (3) सुबोधिनी (श्रीमद्भागवत के 1, 2, 3 और 10 स्कन्धों पर टीका), (4) भागवतसूक्ष्मटीका, (5) पूर्वमीमांसाभाष्य और सिद्धान्त - मुक्तावली । इन ग्रन्थों द्वारा वल्लभाचार्य का प्रगाढ पांडित्य व्यक्त हुआ है। वल्लभाचार्य के सुपुत्र विठ्ठलनाथ ने इसी विचार धारा का प्रचार अपने निबंधप्रकाश, विद्वन्मण्डन, शृगांररसमंडन इन ग्रन्थों के अतिरिक्त अपने पिताजी के ग्रंथों पर टीकाएं लिख कर किया । कृष्णचंद्र ने अणुभाष्य पर भावप्रकाशिका नामक उत्कृष्ट व्याख्या लिखी। उनके उपनिषद्दीपिका, सुबोधिनी-प्रकाश, आवरण, प्रस्थान- रत्नाकर, सुवर्णसूक्त, अमृततरंगिणी (गीता की टीका षोडशग्रंथनिवृत्ति आदि पांडित्यपूर्ण ग्रंथ पुष्टिमार्गी (अर्थात् शुद्धाद्वैती) सम्प्रदाय में मान्यताप्राप्त हैं। कृष्णचंद्र के शिष्य पुरुषोत्तम ने अणुभाष्य पर भाष्यप्रकाशिका नामक टीका लिखी है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त गिरिधराचार्यकृत शुद्धाद्वैतमार्तण्ड, हरिहराचार्यकृत ब्रह्मवाद और भक्तिरसास्वाद, प्रजनाथकृत मरीचिका, वालकृष्णभट्ट (या लालूभट्ट) कृत प्रमेयरत्नालंकार, विज्ञानभिक्षुकृत विज्ञानामृत, इत्यादि ग्रंथ शुद्धाद्वैती वेदान्त की परंपरा में सर्वमान्य हैं। वल्लभाचार्य के पुष्टिमार्गी वैष्णव सम्प्रदाय मे वेदान्त के शुद्धाद्वैत सिद्धान्त को मान्यता है । शुद्धाद्वैत तत्त्वविचार वल्लभाचार्य के दार्शनिक विचार में ब्रह्म, माया से अलिप्त अतः नितान्त शुद्ध है। इसी कारण इस मत को "शुद्ध अद्वैत" कहा गया है। ब्रह्म सर्वधर्मविशिष्ट होने से उसमें विरुद्ध धर्मों की स्थिति भी नित्य एवं स्वाभाविक है। यह संसार ब्रह्म की लीलाओं का विलासमात्र है, मायाकल्पित नहीं। ब्रह्म के तीन प्रकारः ( 1 ) परब्रह्म (2) अक्षरब्रह्म और (3) जगत् । कार्यकारण में अभेद होने से कार्यरूप जगत् और कारणरूप ब्रह्म में भेद नहीं है। जिस प्रकार लपेटा हुआ कपडा फैलाने पर वही रहता हैं, उसी प्रकार आविर्भाव दशा में जगत् तथा तिरोभावरूप में ब्रह्म एक ही है। जगत् की सृष्टि एवं संहार, परब्रह्म की लीलामात्र है। इसमें कर्ता का कोई प्रयास तथा उद्देश्य नहीं है । जगत् की उत्पत्ति और उपसंहार के समान अनुग्रह या "पुष्टि" भी परमात्मा की नित्यलीला का एक विलास है। शरणागत भक्तों को साधननिरपेक्ष मुक्तिप्रदान करने के लिए ही भगवान् यथाकाल अवतार ग्रहण करते हैं । भगवान् श्रीकृष्ण साक्षात् परब्रह्म हैं जिन्होंने अपने अविर्भाव काल में अजामिल, अघासुर, व्रजवधू, बकी, कंस, शिशुपाल आदि अनेकों को मुक्ति दी जो साधननिरपेक्ष थी। Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir - सर्वज्ञ सर्वशक्तिमान् एवं आनंदघन ब्रह्म स्वेच्छा से अपने गुणों को तिरोहित कर, अग्नि से स्फुलिंग के समान जीवरूप प्रहण करता है। यह जीव ज्ञाता, ज्ञानस्वरूप अणुरूप तथा नित्य है । जीव तथा जगत् परबा के परिणाम स्वरूप हैं, परंतु परिणाम होने से ब्रह्म में किसी प्रकार का विकार नहीं होता । 182 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड जिस प्रकार कटक - कुण्डलादि अलंकार सुवर्ण से अभिन्न होते हैं उसी प्रकार चिदंश जीव, ब्रह्म से अभिन्न है । जीव के प्रमुख तीन प्रकार हैं (1) शुद्ध (2) मुक्त और (3) संसारी। संसारी जीव के दो प्रकार :- दैव और आसुर देव जीव के दो प्रकार :- मर्यादामागीय और पुष्टिमार्गीय मुक्तजीवों में कतिपत जीवमुक्त और कतिपय मुक्त होते है। मुक्त अवस्था में आनन्द अंश को प्रकटित कर जीव सच्चिदानंद ब्रह्मस्वरूप होता है। - जगत् के विषय में वल्लभाचार्य "अविकृत परिणाम बाद" का स्वीकार करते हैं अहा से जगत् का परिणाम होता है, परंत दूध से दही का परिणाम होने पर, जिस प्रकार दूध में विकार उत्पन्न होता है, उस प्रकार ब्रह्म में कोई विकार नहीं होता ! सोने से अनेक अलंकार बनने पर भूल सुवर्ण में कोई विकार नहीं होता । For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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