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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir वल्लभमतानुसार अविद्या के पांच पर्व होते हैं :- स्वरूपाज्ञान, देहाध्यास, इन्द्रियाध्यास, प्राणाध्यास तथा अन्तःकरणाध्यास । इसी अविद्या के द्वारा कल्पित ममतारूप पदार्थ को वल्लभाचार्य "संसार" कहते हैं, जो ईश्वरेच्छा के विलास से सदंशतः प्रादुर्भूत जगद्प पदार्थ से सर्वथा भिन्न है। संसार का कारण अविद्या है जिसका विलय विद्या (या तत्त्वज्ञान) के कारण होता है। अविद्या का लय होने पर संसार का भी नाश होता है परंतु जगत् परब्रह्म का ही आधिभौतिकस्वरूप होने के कारण, उस का विनाश नहीं होता। वह ब्रह्म तथा जीव के समान ही नित्य पदार्थ है। वल्लभमत के अनुसार परमात्मा के तीन प्रकार होने के कारण, उस की प्राप्ति के भी उपाय (या मार्ग) तीन माने जाते हैं :- (1) कर्ममार्ग (आधिभौतिक स्वरूप की प्राप्ति के लिए) (2) ज्ञानमार्ग (आध्यात्मिक - अक्षरब्रह्म की प्राप्ति के लिये) और (३) पुष्टिमार्ग या भक्तिमार्ग, आधिदैविक - परब्रह्म की उपलब्धि के लिये) "पुष्टि" का अर्थ है भगवान् का अनुग्रह। यह अर्थ “पोषणं तदनुग्रह" इस भागवतवचन से लिया गया है। इस पुष्टि के विविध प्रकार माने गये हैं :- (1) महापुष्टि-ऐसा अनुग्रह जिस के कारण संकट निवारण होकर ईश्वरप्राप्ति होती है। (2) असाधारणपुष्टि- (या विशिष्ट पुष्टि) जिस अनुग्रह के कारण ईश्वरभक्ति उदित होकर ईश्वरप्राप्ति होती है। (3) पुष्टिपुष्टि- असाधारण पुष्टि से उत्पन्न भक्ति की अवस्था। इस के चार प्रकार:- (1) प्रवाहपुष्टिभक्ति (2) मर्यादापुष्टि भक्ति, (3) पुष्टिपुष्टि भक्ति और (4) शुद्धष्टिभक्ति। इन चारों पुष्टिभक्तियों में (1) प्रेम (2) आसक्ति और (3) व्यसन अवस्थाओं की अनुभूति होती है। व्यसन अवस्था पुष्टिभक्ति की सर्वोच्च अवस्था है, जिस से मोक्षपदवी की प्राप्ति होती है जिस के अन्तरंग में व्यसन-अवस्था दृढतम होती है, वह भक्त चतुर्विद्या मुक्ति का तिरस्कार करते हुए अखंड भगवत्सेवा में रममाण होता है। उसे श्रीकृष्णस्वरूप परब्रह्म से दिव्य क्रीडा करने का परमानंद प्राप्त होता है। शुद्धपुष्टिभक्ति तथा अन्य भक्ति भी परमात्मा के अनुग्रह से ही मनुष्य के अन्तःकरण में उदित होती है। वल्लभमत का पुष्टि सिद्धान्त श्रीमद्भागवत के आध्यात्मिक तत्त्वों पर आधारित है। इस सम्प्रदाय में उपनिषद, भगवद्गीता और ब्रह्मसूत्र के साथ श्रीमद्भागवत की गणना होती है जिसे वल्लभाचार्य अत्यंत श्रद्धा से “समाधिभाषा व्यासस्य-" कहते हैं। 12 अचिन्त्य-भेदाभेद वादी-चैन्यमत ई. 15-16 वीं शती में चैतन्य महाप्रभु का अविर्भाव वंगदेश में हुआ। आपके द्वारा कृष्णभक्तिनिष्ठ वैष्णव सम्प्रदाय का उदय उस प्रदेश में हुआ। श्री रूपगोस्वामी, सनातन गोस्वामी, श्री. जीवगोस्वामी, विश्वनाथ चक्रवर्ती, कृष्णदास कविराज, बलदेव विद्याभूषण (या गोविन्ददास), इत्यादि महानीय विद्वान भक्तों ने चैतन्य महाप्रभु का विचार, अनेक भाष्य एवं प्रकरण ग्रन्थों द्वारा प्रतिष्ठापित किया। इस सम्प्रदाय की काव्यादि साहित्यिक रचनाएं भी सिद्धान्तनिष्ठ हैं। चैतन्यमतानुयायी वाङ्मय में :- श्री रूपगोस्वामीकृत दानकेलिकौमुदी, ललितमाधव, तथा विदग्धमाधव इन कृष्ण-भक्तिपरक नाटकों के अतिरिक्त, लघुमाधवामृत, उज्ज्वलनीलमणि, भक्तिरसामृतसिन्धु इन ग्रन्थों में भक्तिरस का साहित्यशास्त्रीय प्रतिपादन किया गया है। श्री रूपगोस्वामी के ज्येष्ठ भ्राता सनातन गोस्वामी ने बृहद्भागवतामृत, वैष्णवतोषिणी (श्रीमद्भागवत दशम स्कन्ध की टीका), तथा भक्तिविलास में चैतन्यमय के सिद्धान्त तथा आचार का वर्णन किया है। सनातन गोस्वामी ने दुर्गसंगमनी (श्री रूपगोस्वामीकृत भक्तिरसामृतसिन्धु की व्याख्या), क्रमसन्दर्भ (भागवत की व्याख्या), भागवतसन्दर्भ (या षट्संदर्भ), ग्रंथ लिखे। भागवतसंदर्भ पर सर्वसंवादिनी नामक टीका है। "अचिन्त्यभेदाभेदवाद" का यह श्रेष्ठ सिद्धान्तग्रंथ माना जाता है। विश्वनाथ चक्रवर्ती (17 वीं शती) ने श्रीमद्भागवत पर सारार्थदर्शिनी नामक टीका के अतिरिक्त, श्रीरूपगोस्वामी के उज्ज्वलनीलमणि पर आनंदचन्द्रिका टीका, तथा कविकर्णपूर के अलंकारकौस्तुभ पर टीका लिखी है। बलदेव विद्याभूषण ने भगवान् के स्वप्न साक्षात्कार में प्राप्त आदेश के अनुसार ब्रह्मसूत्र पर चैतन्य मतानुसारी भाष्य लिखा। बलदेवजी का दीक्षानाम गोविन्दादास होने के कारण, तथा उनके आराध्य देव श्रीगोविन्दजी के आदेश के अनुसार इस भाष्य की रचना होने के कारण, यह ग्रंथ "गोविन्दभाष्य" कहलाता है। चैतन्यमत को वेदान्तसम्प्रदायों की महनीय श्रेणी में प्रतिष्ठापित करने का श्रेय इसी गोविन्दभाष्य को दिया जाता है। इतिहास दृष्ट्या यह मत माध्वमत से संबद्ध है परंतु सिद्धान्त दृष्ट्या उसके द्वैतवाद से भिन्न है। चैतन्य मतानुसार भगवान् श्रीकृष्ण ही अनन्तशक्ति सम्पन्न परमतत्त्व हैं। शक्ति और शक्तिमान् में भेद और अभेद दोनों सिद्ध नहीं होते। इनका संबंध तर्कद्वारा अचिन्त्य है। इस प्रकार के प्रतिपादन के कारण इस मत को अचिन्त्य भेदाभेदवादी मत कहा जाता है। परमात्मा की शक्ति अनन्त एवं अचिन्त्य होने के कारण, उस परमतत्त्व में एकत्व और पृथक्त्व, अंशित्व और अंशत्व, दोनों का सहास्तित्व होना अयुक्त नहीं मानना चाहिए। परमात्मा श्रीकृष्ण एकत्र तथा सर्वत्र सर्वरूप है। उसकी अचिन्त्य शक्ति के कारण वह विभु और व्यापक है। श्री, ऐश्वर्य, वीर्य, यश, ज्ञान, और वैराग्य इन दिव्य षड्गुणों की पूर्णरूप एकता श्रीकृष्ण स्वरूप में हुई है। कारण, तथा उन कारण, यह ग्रंथ " करने का श्रेय संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 183 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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