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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir www.kobatirth.org पद्मनाभाचार्य- ई. 16 वीं शती। आप शोभनभट्ट नाम से एक उद्भट विद्वान् के रूप में चालुक्यों की राजधानी कल्याण नगरी में सुप्रसिद्ध थे। इसी नगरी में मध्वाचार्य से हुए शास्त्रार्थ में पराजित होने पर उन्होंने मध्वाचार्यजी का शिष्यत्व स्वीकार किया। तभी मध्वाचार्य ने उनका नया नाम रखा पद्मनाभाचार्य । मध्वाचार्य के पश्चात् वे ही उनके मठ के उत्तराधिकारी बने। उन्होंने मध्वाचार्यजी के ग्रंथों पर टीकाएं तथा पदार्थसंग्रह, मध्वसिद्धांतसार आदि कुछ ग्रंथ भी लिखे हैं। पद्मनाभाचार्य- 19 वीं शती। कोईमतूर में वकील। रचनाएं-गोवर्धन-विलासम् और ध्रुवतपः । पद्मपादाचार्य- ई. 8 वीं शती। आद्य शंकराचार्यजी के चार प्रमुख शिष्यों में से एक। काश्यपगोत्रीय ऋग्वेदी ब्राह्मण। चोकदेश के निवासी। आपके माता-पिता अहोबल क्षेत्र में रहते थे। नरसिंह ही कृपा से पद्मपाद का जन्म हुआ था। पिताजी के समान आप भी नरसिंह के भक्त थे। नरसिंह की प्रेरणा से वे वेदविद्या के अध्ययनार्थ काशी गए। वहां पर वेदाध्ययन करते समय उनकी भेट आद्य शंकराचार्यजी से हुई। आचार्य श्री ने पद्मपाद की परीक्षा ली, और उसमें भलीभांति उत्तीर्ण हुआ देख, उन्हें संन्यास की दीक्षा देकर उनका नाम रखा पद्मपादाचार्य। आगे चलकर वे शंकराचार्यजी के निस्सीम भक्त बने। इनके पद्मपाद नाम के बारे में एक रोचक आख्यायिका प्रसिद्ध है___ एक बार उन्हें शंकराचार्यजी की करुण पुकार सुनाई दी। पुकार सुनते ही पद्मपाद अपने गुरुदेव के पास पहुंचने के लिये उतावले हो उठे। मार्ग में थी अलकनंदा नदी। नदी पर पुल भी था किन्तु व्यग्रतावश पुल से न जाते हुए, पद्मपाद सीधे नदी के पात्र में से ही गुरुदेव की ओर जाने लगे। नदी का जल-स्तर ऊंचा था। परन्तु पद्मपाद की भाक्त के सामर्थ्य के कारण उनके हर पग के नीचे कमल-पुष्प उत्पन्न होते गए और उन पुष्पों पर पैर रखते हुए उन्होंने सहज ही अलकनंदा को पार किया। इस प्रकार उनके पैरों के नीचे पद्मों की उत्पत्ति होने के कारण उनका नाम पद्मपाद पड़ा। पद्मपादाचार्य सदैव शंकराचार्यजी के साथ भ्रमण किया करते थे। एक बार गुरुदेव की अनुज्ञा प्राप्त कर वे अकेले ही दक्षिण भारत की यात्रा पर निकले और कालहस्तीश्वर, शिवकांची, बल्लालेश, पुंडरीकपुर, शिवगंगा, रामेश्वर आदि तीर्थो की यात्रा कर वे अपने गांव लौटे। फिर वे अपने मामा के गांव जाकर रहे। इससे पूर्व वे ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर अपना “पंचपदिका" नामक टीका-ग्रंथ लिख चुके थे। उनके मामा द्वैती थे। अपना भांजा विद्यासंपन्न होकर ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर टीका-ग्रंथ लिख सका, यह देख मामा बडे प्रसन्न हुए। किन्तु जब उन्होंने वह टीका-ग्रंथ पढा तो उन्हें विदित हुआ कि भांजे ने उनके द्वैत मत का खंडन करते हुए अद्वैत मत का प्रतिपादन किया है। परिणामस्वरूप मामाजी को बडा बुरा लगा और वे मन-ही-मन पद्मपाद का द्वेष करने लगे। पद्मपाद को मामा के द्वेष की जानकारी नहीं थी। अतः फिर से तीर्थयात्रा पर निकलते समय उन्होंने अपना टीका-ग्रंथ मामा के ही यहां रख छोडा। मामाजी, जो इस प्रकार के अवसर की ताक में थे ही, वे चाहते थे कि भांजे का टीका-ग्रंथ तो नष्ट हो, किन्तु तत्संबंधी दोषारोपण उन पर कोई भी न कर सके। इस उद्देश्य से उन्होंने स्वयं के घर को ही आग लगा दी। घर के साथ ही भांजे का टीका-ग्रंथ भी जल गया। तीर्थयात्रा से लौटने पर पद्मपाद को वह अशुभ वार्ता विदित हुई। मामाजी ने भी दुःख का प्रदर्शन करते नक्राश्रु बहाये। पद्मपादाचार्य को इस दुर्घटना से दुःख तो हुआ, किन्तु वे हताश नहीं हुए। वे बोले- ग्रंथ जल गया तो क्या हुआ। मेरी बुद्धि तो सुरक्षित है। मैं ग्रंथ का पुनर्लेखन करूंगा। तब पद्मपादाचार्य की बुद्धि को भी नष्ट करने के उद्देष्य से. उनके मामा ने उन पर विषप्रयोग किया। विषमिश्रित अन्न-भक्षण के कारण, उनकी बुद्धि बेकार हो गई। तब पद्मपाद ने अपने गुरुदेव के पास जाकर वहीं रहने का निश्चय किया। उस समय शंकराचार्यजी केरल में थे। पद्मपाद ने वहां पहुंच कर उन्हें सारा वृत्तांत निवेदन किया। आचार्यश्री ने अपने शिष्य का सांत्वन किया और उसकी बुद्धि भी उसे पुनः प्राप्त करा दी। तब पद्यपाद ने अपना टीका-ग्रंथ फिर से लिखा। पद्मपादाचार्य ने शंकराचार्यजी के अद्वैत मत का प्रभावपूर्ण प्रचार करने का महान् कार्य किया। वेदान्त के समान ही वे तंत्रशास्त्र के भी प्रकांड पंडित थे। उनके द्वारा लिखे गए ग्रंथों में, प्रस्तुत पंचपादिका नामक टीका-ग्रंथ ही प्रमुख है। शंकराचार्यजी के ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर लिखी गई, यह पहली ही टीका है। इसमें चतुःसूत्री का विस्तृत विवेचन किया गया है। इस ग्रंथ पर आगे चलकर अनेक महत्त्वपूर्ण विवरणग्रंथ लिखे गए। ___ इसके अतिरिक्त विज्ञानदीपिका, विवरणटीका, पंचाक्षरीभाष्य, प्रपंचसार तथा आत्मानात्मविवेक जैसे अन्य कुछ ग्रंथ भी पद्मपादाचार्य के नाम पर है। पद्मप्रभ मलधारिदेव- वीरनन्दि सिद्धान्तचक्रवर्ती के शिष्य। कार्यक्षेत्र तमिलनाडु। पश्चिमी चालुक्यराजा त्रिभुवनमल्ल सोमेश्वर देव के समकालीन। पद्मनंदि-पंचविंशतिका के कर्ता पद्मनंदि से मलधारि पद्मप्रभदेव भिन्न रहे हैं। समय ई. 12 वीं शती। रचनाएं-नियमानुसार-टीका तथा पार्श्वनाथ-स्तोत्र।। पद्मप्रभसरि- ज्योतिष शास्त्र के एक आचार्य। समय ई. 10 वीं शताब्दी। इन्होंने "भुवन-दीपक" नामक ज्योतिष-विषयक ग्रंथ की रचना की है, जिस पर सिंहतिलक सूरि ने वि.सं. 1362 में “विवृत्ति" नामक टीका लिखी थी। इन्होंने "मुनिसुव्रत-चरित", कुंथुचरित" व "पार्श्वनाथ-स्तवन" नामक 3 अन्य ग्रंथों की भी रचना की है। 364 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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