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पद्मशास्त्री- ई. 20 वीं शती। सिंगाली ग्राम (जिला पिथौरागढ, उ. प्र.) के निवासी। राजकीय उच्चमाध्यमिक विद्यालय, भीलवाडा (राजस्थान) में वरिष्ठ संस्कृत-अध्यापक। पिता-श्रीबदरीदत्त। कृतियां- बंगलादेश-विजय, सिनेमाशतक, स्वराज्य, पद्य-पंचतंन्त्र, लोकतन्त्र-विजय, लेनिनामृत-महाकाव्य (उ. प्र. शासन द्वारा पुरस्कृत। सोवियत-भूमि नेहरू-पुरस्कार प्राप्त)।
हिन्दी रचना-महावीरचरितामृत। "महावीर-विशेषांक' का सम्पादन। पद्मश्री (ज्ञान)- "नागर-सर्वस्व' के रचयिता। बौद्ध भिक्षु । इन्होंने "कुट्टनीमतम्" का उल्लेख किया है और "शाङ्गंधर गद्धति" में इनका उल्लेख है। अतः इनका समय 1000 ई. के लगभग माना गया है। पद्मसुन्दर- समय-1532-1573 ई.। आनन्दमेरु के प्रशिष्य
और पद्ममेरु के शिष्य। भट्टारकीय पण्डित-परम्परा से जुड़े हुए। साहू रायमल्ल की प्रेरणा। चरस्थावर (मुजफ्फरनगर जिले का वर्तमान चरथावल) कार्यक्षेत्र रहा। रचनाएंभविष्यदत्तचरित (5 सर्ग), रायमल्लाभ्युदय महाकाव्य (25 सर्ग), सुंदर-प्रकाश-शब्दार्णव (कोष), श्रृंगार-दर्पण, हायनसुंदर (ज्योतिष), प्रमाणसुंदर, ज्ञानचन्द्रोदय (नाटक) और पार्श्वनाथ काव्य। पद्मसुंदर, मुगल सम्राट अकबर के सभा-पंडित थे
और उन्हें जोधपुर के राजा मालदेव ने सम्मानित किया था। परमानन्द चक्रवर्ती- ई. 15 वीं शती। पिता-व्रजचंद्र । रचना-शृंगारसप्तशती। काव्यप्रकाश की "विस्तारिका-टीका" एवं नैषध-काव्य की टीका के कर्ता। परमानन्द शर्मा- जन्म 1870 ई. में। प्राचीन मारवाड राज्य के अन्तर्गत पाली नामक ग्राम के निवासी। श्रीमाली द्विवेदी के पुत्र । इनकी प्रसिद्ध कृतियां है- 1. विधवा-विलापः (कविता), 2. विज्ञप्तिः (निबन्ध) आदि। परमानन्द शर्मा कवीन्द्र-ई. 19-20 शती। जयपुर राज्यान्तर्गत लक्ष्मणगढ के ऋषिकुल में रहने वाले कवीन्द्र ने, संपूर्ण रामचरित्र काव्य, पांच भागों में विभाजित कर लिखा है। उनके नाम- मंथरादुर्विलसितम्, दशरथविलापः, मारीचवधम्, मेघनादवधम् और रावणवधम्। परमेश्वर झा- यक्ष-मिलन-काव्य (या यक्ष-समागम), महिषासुर-वध (नाटक), वाताह्वान (काव्य), कुसुम-कलिका (आख्यायिका) तथा ऋतु-वर्णन काव्य के रचयिता। समय, वि.सं. 1913 से 1981 तक। बिहार के दरभंगा जिला के तरुवनी (तरोनी) नामक ग्राम के निवासी। पिता-पूर्णनाथ या बाबूनाथ झा। जो व्याकरण के अच्छे पंडित थे। परमेश्वर झा स्वयं बडे विद्वान् थे। विद्वत्-समाज ने उन्हें “वैयाकरण-केसरी", कर्मकांडोध्दारक" तथा "महोपदेशक" आदि उपाधियां प्रदान की थीं। तत्कालीन सरकार की ओर से भी इन्हें महामहोपाध्याय
की उपाधि प्राप्त हुई थी। "यक्ष-मिलन काव्य" में महाकवि कालिदास के "मेघदूत" के उत्तराख्यान का वर्णन है। इस संदेश-काव्य का प्रकाशन वि.सं. 1962 में दरभंगा से हो चुका है। पराकुश - ई. 16 वा शती। रचना - नरसिंहस्तवः । परांकुश रामानुज - ई. 18 वीं शती। रचनाएं - श्रीप्रपत्ति, नरसिंहमंगलाशंसन, क्षीरनदीस्तव, विहगेश्वरस्तव, देवराजस्तव, लक्ष्मीनरसिंहस्तव और वैकुण्ठविजय चम्पू। पराशर - वसिष्ठ ऋषि के पौत्र, गोत्र प्रवर्तक व ग्रंथकार । ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 65 से 73 तक के सूक्त पराशर के नाम पर हैं। ये सभी सूक्त अग्निविषयक एवं काव्यमय हैं। अपने उपमेयों को अनेक उपमानों से विभूषित करना है पराशरजी की विशेषता । इस दृष्टि से निम्न ऋचा उल्लेखनीय है। पुष्टिर्न रणवा क्षितिर्न पृथ्वी गिरिन भुज्म क्षोदो न शंभु । अत्यो नाज्मन् त्सर्गप्रतक्तः सिंधुर्न क्षोदः क ई वराते।
(ऋ. 1.65.3.) अर्थ - उत्कर्ष के समान रमणीय, पृथ्वी के समान विस्तीर्ण, पर्वत के समान (फल पुष्पादि) भोग्य वस्तुओं से परिपूर्ण, उदक (जल) के समान हितकारी, तथा तीव्र वेग से निकला अश्व मैदान में जिस प्रकार अधिक गतिमान होता है, महानदी जिस प्रकार अपने दोनों तटों को भग्न करने की क्षमता रखती है, उसी प्रकार की है यह अग्नि । वस्तुतः इसे कौन प्रतिबंधित कर सकेगा।
पाराशरजी को अग्नि का दिव्यत्व तथा महनीयत्व प्रतीत हुआ है। कात्यायन की सर्वानुक्रमणी में, पराशर को वसिष्टपुत्र शक्ति का पुत्र कहा गया है, किन्तु निरुक्त में की गई व्युत्पत्ति के आधार पर उन्हें बताया गया है वसिष्ठ का पुत्र। वहां पराशर शब्द की "पराशीर्णस्य स्थविरस्य जज्ञे" अत्यंत थके हुए वृद्ध से इनका जन्म हुआ, ऐसी व्युत्पत्ति दी है। परन्तु उस पर से पराशर को वसिष्ठ का पुत्र मानना समुचित नहीं क्यों कि अपने सभी पुत्रों का निधन हो जाने के कारण, वसिष्ठ को केवल इन्हीं का आधार उत्पन्न हुआ था, और उसी पर से यह व्युत्पत्ति निर्माण हुई होगी। तत्संबंधी कथा इस प्रकार है :
एक बार वसिष्ठ हताश स्थिति में अपने आश्रम के बाहर निकले। तब उनके पुत्र शक्ति की विधवा पत्नी अदृश्यंती भी चुपके से उनके पीछे हो निकली। कुछ समय के उपरान्त वसिष्ठ के कानों पर वेद ध्वनि आने लगी। पीछे मुड कर देखने पर उनके ध्यान में आया की वह ध्वनि अदृश्यंती के उदर से आ रही है। तब अपने वंश का अंकुर जीवित है यह जानकर वसिष्ठ आश्रम में लौटे।
यह विदित होने पर कि अपने पिता शक्ति को राक्षसों ने मार डाला है, पराशर ने सभी राक्षसों का संहार करने हेतु राक्षस सत्र आरंभ किया। परिणाम स्वरूप उसमें निरपराध
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 365
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