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राक्षस भी मारे जाने लगे। अतः पुलस्त्यादि ऋषियों ने उन्हें उस सत्र से परावृत्त किया। पराशर ने उनकी बाते मानते हुए उस सत्र को रोक दिया। तब ऋषि पुलस्त्य ने "तुम सकल शास्त्र पारंगत तथा पुराण वक्ता बनोगे" ऐसा उन्हें वरदान किया (विष्णु पु. 1.1)। राक्षस सत्र हेतु सिद्ध की गई अग्नि को पराशर ने हिमालय के उत्तर में स्थित एक अरण्य में डाल दिया। अग्नि अभी तक पर्व के दिन राक्षसों, पाषाणों व वृक्षों का भक्षण करती है ऐसा विष्णु पुराण (1.1) एवं लिंग पुराण (1.64) में कहा गया है।
एक बार पराशरजी तीर्थ यात्रा पर थे। यमुना के तट पर सत्यवती नामक एक धीवरकन्या उन्हें दिखाई दी। वे उसके रूप व यौवन पर लुब्ध हो उठे। उसके शरीर से आने वाली मत्स्य की दुर्गंधि की ओर ध्यान न देते हुए जब कामातुर होकर वे उससे भोग की याचना करने लगे, तब वह बोली "आपकी इच्छा पूर्ण करने पर मेरा कन्या भाव दूषित होगा"। तब पराशर ने सत्यवती को दो वरदान दिये। 1) तेरा कन्याभाव नष्ट नहीं होगा और 2) तेरे शरीर की मत्स्य गंध नष्ट होकर
प्राप्त होगी और वह एक योजन तक फैलेगी। ये वरदान दिये जाने पर सत्यवती पराशरजी की इच्छा पूर्ति हेतु सहमत हुई। तब पराशरजी ने भरी दोपहर में नाव पर कोहरा निर्माण करते हुए अपने एकांत को लोगों की दृष्टि से ओझल बनाने की व्यवस्था की और फिर सत्यवती का उपभोग लिया। उस संबंध से सत्यवती को वेदव्यास नामक पुत्र हुआ (म.भा. 63, 105 भाग पु. 1, 3)।
पराशर से प्रवृत्त हुए पराशर गोत्र के गौरपराशर, नीलपराशर, कृष्णपराशर, श्वेतपराशर, श्यामपराशर व धूम्रपराशर नामक 6 भेद हैं। ___ पराशर ने राजा जनक को जिस तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया था, उसी का सारांश आगे चलकर भीष्म पितामह ने धर्मराज (युधिष्ठिर) को बताया। उसे पराशरगीता कहते हैं। (महा. शांति. 291-299)। इसके अतिरिक्त पराशरजी के नाम पर जो ग्रंथ मिलते हैं उनके नाम हैं- बृहत्पाराशर, होराशास्त्र (12 हजार श्लोकों का ज्योतिष विषयक ग्रंथ), लघु पाराशरी, बृहत्पाराशरीय धर्मसंहिता (3300 श्लोक, पाराशर धर्मसंहिता (स्मृति), पराशरोदितं वास्तुशास्त्रम् (विश्वकर्मा ने इसका उल्लेख किया है), पाराशर संहिता (वैद्यक शास्त्र), पराशरोपपुराण, पराशरोदितं नीतिशास्त्रम् एवं पराशरोदितं केवलसारम्। ये सब ग्रंथ लिखने वाले पराशर, सूक्तद्रष्टा पराशर से भिन्न प्रतीत होते हैं।
इसी प्रकार कृषिसंग्रह, कृषिपराशर व पराशर तंत्र नामक ग्रंथ भी पराशर के नाम पर हैं किन्तु ये पराशर कौन, इस बारे में विद्वानों में मतभेद है। कृषिपराशर नामक ग्रंथ की शैली पर से यह ग्रंथ ईसा की 8 वीं शताब्दी के पहले का प्रतीत नहीं होता।
कृषिपराशर नामक ग्रंथ में खेती पर पड़ने वाला ग्रह नक्षत्रों का प्रभाव, बादल और उनकी जातियां, वर्षा का अनुमान, खेती की देखभाल, बेलों की सुरक्षितता, हल, बीज की बोआई, कटाई व संग्रह, गोबर का खाद आदि से संबंधित जानकारी है। इस ग्रंथ पर से अनुमान किया जाता सकता है कि उस काल में यहां की खेती अत्यधिक समृद्ध थी।
पराशर आयुर्वेद के एक कर्ता व चिकित्सक थे। अग्निवेश, भेल और पराशर समकालीन थे यह बात चरक संहिता से विदित होती है (सूत्र 1, 31)। पराशर तंत्र में कायचिकित्सा पर विशेष बल दिया गया है।
पराशरजी ने हत्यायुर्वेद नामक एक और ग्रंथ की भी रचना की है। हेमाद्रि ने उनके मतों पर विचार किया है। पराशरजी का यह ग्रंथ स्वतंत्र था अथवा उनकी ज्योतिष संहिता का ही वह एक भाग था, इस बारे में मतभेद है। पराशर - फल ज्योतिष के प्राचीन आचार्य। इनकी एकमात्र रचना "बृहत्पाराशर-होरा" है। इसी ग्रंथ के अध्ययन के उपरान्त विद्वानों ने यह निष्कर्ष निकाला है, कि पराशर वराहमिहिर के पूर्ववर्ती थे। इनका समय संभवतः 5 वीं शती, और निवासक्षेत्र पश्चिम भारत रहा होगा।
इनके नाम पर अनेक ग्रंथ प्राप्त होते हैं जैसे “पराशर स्मृति" आदि। कौटिल्य ने इनके नाम व मत का छ: बार उल्लेख किया है पर विद्वानों का कहना है कि स्मृतिकार पराशर, ज्योतिर्विद् पराशर से भिन्न हैं। कलियुग में पराशर के ग्रंथ को अधिक महत्त्व दिया है। "कलौ पाराशरः स्मृतः"। परितोष मिश्र - ई. 13 वीं शती। मीमांसा दर्शन के एक मैथिल आचार्य। कुमारिल भट्ट के तंत्रवार्तिक पर, आपने अजिता नामक एक व्याख्या लिखी है। इस व्याख्या के अजिता नाम पर से आगे चलकर परितोष मिश्र को "अजिताचार्य" के नाम से पहचाना जाने लगा। इसी व्याख्या पर मिथिला के ही निवासी अनंत नारायण मिश्र ने विजया नामक टीका लिखी है। परुच्छेप देवोदासी - ऋग्वेद के प्रथम मंडल के क्रमांक 127 से 139 तक के सूक्तों के द्रष्टा। इन सूक्तों में अग्नि, इन्द्र, वायु, मित्रावरुण, पूषा व विश्वदेव की स्तुति है। इन्द्र की प्रार्थना करते हुए वे कहते है -
त्वं इन्द्र राया परीणसा याहि
पथा अनेहसा पुरो याह्यरक्षसा
सचस्व नः पराक आ सचस्वास्तमीक आ पाहि नो दूरादारादभिष्टिभिः सदा पाह्यभिष्टिभिः । (ऋ. 1, 129, 9) ___अर्थ - हे इन्द्र जो मार्ग विपुल वैभव का व निर्दोष हो, उसी मार्ग से हमें ले चलो। जिस मार्ग में राक्षस न हों, उसी मार्ग से हमें ले चलो, हम परदेश में हो तो भी हमारे साथ रहो, और हम अपने घर में हो तो भी हमारे साथ रहो। हम पास हो या दूर, आप सदा ही अपने कृपा छत्र
366/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड
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