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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir से हमारी रक्षा कीजिए। पर्वते, रघुनाथशास्त्री - भोर नामक ग्राम के निवासी। ___ एक बार मंत्र सामर्थ्य के बारे में परुच्छेप व नमेध के रचना- शांकर पदभूषणम् और पदभूषणम् (गीता की बीच स्पर्धा लगी। तब नृमेध ने गीली लकडियों में धुंआं टीका)। उत्पन्न किया। यह देख परुच्छेप ने बिना लकडी के ही अग्नि पलसुले, गजानन बालकृष्ण (डॉ.) - जन्म सन प्रज्ज्वलित कर दिखाई। यह घटना तैत्तिरीय ब्राह्मण में अंकित 1921 में सातारा (महाराष्ट्र) में, सन 1948 में पुणे है (2, 5, 8, 3)। से एम.ए. की परीक्षा उत्तीर्ण होने पर संस्कृत धातुपाठों पर्वणीकर, सीताराम - ई. 18 से 19 वीं शती। सीताराम, पर शोधप्रबंध लिखकर, सन 1957 में आपने पीएच.डी. जयपुर के महाराजा के आश्रय में थे। पर्वणी नामक ग्राम, की उपाधि प्राप्त की। आधुनिक वैयाकरणो में आप जिस पर से उक्त उपनाम प्रचलित हुआ, महाराष्ट्र में नासिक सम्मानित हैं। भांडारकर प्राच्यविद्या मंदिर में आपने संशोधन के पास है। सर्वप्रथम सीतारामजी के पूर्वज माधवभट्ट जयपुर गए। एवं अध्यापन का कार्य किया। सन 1981 में पुणे विद्यापीठ __ संस्कृत साहित्य के इतिहासकारों को अभी अभी तक इतना से प्राध्यापक पद से सेवानिवृत्त होने के बाद आप भांडारकर ही ज्ञात था कि सीतारामजी ने कुमारसंभव के 8 से 17 सगों प्राच्यविद्या मंदिर में निदेशक हुए। संस्कृत भाषा का तौलनिक पर एक भाष्य लिखा है; किन्तु जयपुरस्थित उनके घराने में, और ऐतिहासिक परिचय करानेवाले “सिक्स्टी उपनिषदाज ऑफ तदुपरांत उनका विपुल साहित्य उपलब्ध हुआ है। सीतारामजी दी वेदाज्” नामक डायसनकृत जर्मन ग्रंथ का अनुवाद और का "जयवंश" नामक एक महाकाव्य, राजस्थान वि.वि. ने सौ से अधिक शोधनिबंधों के अतिरिक्त, डा. पलसुले ने प्रकाशित किया है। इसमें जयपुर के राजवंश और उसके संस्कृत में, "समानमस्तु वो मनः" (भारत शासन द्वारा पुरस्कार कार्यों के अतिरिक्त प्रमुख दर्शनीय स्थानों का भी वर्णन है। प्राप्त नाटक), विनायक-वीरगाथा (वीर सावरकर का चरित्र), इसके अतिरिक्त, आप निम्न ग्रंथ संपदा के धनी हैं। विवेकानंदचरितम्, नामक मौलिक रचनाएं, अग्निजाः और कमला काव्य- राघवचरित, नलविलास (लघुकाव्य) व नृपविलास। (वीर सावरकर के मराठी काव्यग्रंथों के अनुवाद, “अथाऽतो विशेषता यह है कि ये सभी काव्य ग्रंथ सटीक हैं। ज्ञानदोवोऽभूत" “धन्येयं गायनी कला", खेटग्रामस्य चक्रोद्भवः, __ अष्टक (10)= शिवाष्टक, सूर्याष्टक, भैरवाष्टक, देव्यष्टक, भ्रातृकलहः नामक मराठी नाटकों के संस्कृत अनुवाद भी लिखे हेरंबाष्टक, गंगाष्टक, विष्णूवष्टक और हनुमदष्टक। शेष दो, हैं। पुणे में "भारतवाणी" नामक संस्कृत पत्रिका भी आपने अभी तक उपलब्ध नहीं हो सके हैं। शुरू की थी, जो अल्प अवकाश में बंद हुई। अन्य ग्रंथ साहित्यसार, साहित्यसुधा, काव्यप्रकाश-टीका, पांडुरंग - ई. 19 वीं शती। रचना - विजयपुरकथा। इसमें कुमारसंभव-व्याख्या, छंदःप्रकाश, अलंकार शास्त्र पर तीन ग्रंथ, विजयपुर के यवन बादशाहों का चरित्र वर्णित है। गणित विषय पर एक ग्रंथ। (जो अभी तक उपलब्ध नहीं पांडे, राजमल - ई. 16 वीं शती। संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश हो सका है) और सत्ताईस नक्षत्र माला। व हिन्दी इन चार भाषाओं में आपने ग्रंथ लिखे हैं। उन ग्रंथों पर्वत काण्व - आप काण्व कुल के थे। ऋग्वेद के के नाम हैं- लाटी संहिता, जंबुस्वामीचरित्र, अध्यात्म-कमलमार्तंड, 8 वें मंडल का 12 वां सूक्त आपके नाम पर है। 9 वें ____ पंचाध्यायी आदि। कुंदकुंदाचार्य के समयसारचरित्र, अध्यात्म मंडल के क्रमांक 104 व 105 वाले सूक्त हैं “पर्वत-नारदौ" कमलमार्तंड, पंचाध्यायी आदि, संस्कृत ग्रंथों पर आपने टीकाएं इस सम्मिलित नाम पर। किन्तु कहा जाता है कि इन दो भी लिखी है। हिन्दी जैन गद्य में यही सर्वाधिक प्राचीन टीका सूक्तों के भी द्रष्टा, पर्वत काण्व ही थे। इन्द्र की स्तुति करते है। इसके अतिरिक्त संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश व हिन्दी इन हुए आप कहते हैं - चारों ही भाषाओं में राजमल पांडे द्वारा लिखे गए वैशिष्ट्यपूर्ण न यं विविक्तो रोदसी नान्तरिक्षाणि वज्रिणम्। ग्रंथ प्रसिद्ध है। अमादिदस्य तित्विषे समोजसः।। (ऋ. 8, 12, 24) पाटणकर, परशुराम नारायण - ई. 20 वीं शती। अर्थ - आकाश व पृथ्वी ये दोनों लोक भी इन्द्र रत्नागिरि में जन्म । पिता - नारायण शर्मा । दादा-माधव शर्मा । का आकलन नहीं कर सकते, और अंतरिक्ष तो कदापि प्रपितामह- नरहरिभट्ट। अपरान्त विद्यापीठ से बी.ए. तथा प्रयाग नहीं। इसके विपरित इन्हीं की (इन्द्र की) ओजस्विता विद्यापीठ से एम.ए. की उपाधि प्राप्त। डेक्कन कालेज, पुणे के कारण सभी (विश्व) उज्ज्वल होता है। में डा. रामकृष्ण गोपाल भाण्डारकर के शिष्य। अनेक देशों इस सूक्त में इन्द्र और विष्णु के ऐकात्मरूप की में अध्यापन कार्य। सन् 1905 में “वीरधर्मदर्पण" नामक कल्पना की गई है। इससे विदित होता है कि ऋग्वेद नाटक की रचना। के काल में ही विष्णु एक स्वतंत्र देवता के रूप में पाठक, रत्नाकर - खरतरगच्छ के चन्द्रवर्धनगणी के प्रशिष्य प्रतिष्ठा प्राप्त करने लगे थे। और मेघनन्दन के शिष्य। समय ई. 16 वीं शती। ग्रंथ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 367 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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