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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir होते हैं, और इनसे निर्मित पदार्थ अनित्य होते हैं । पृथ्वी में गंधादि पाचों गुण, आप (जल) में रसादि चार गुण, तेज में रूपादि तीन गुण, वायु में स्पर्श और शब्द दो गुण और आकाश में केवल शब्द गुण ही होता है, वह सर्वव्यापी और अपरिमित है। आकाश, काल और दिक् ये तीन अप्रत्यक्ष, निरवयव और सर्वव्यापी पदार्थ हैं। उपाधि के कारण इन में दिन रात, पूर्व, पश्चिम आदि भेदों की प्रतीति होती है। आत्मा ज्ञेय, नित्य, शरीर से पृथक्, इन्द्रियों का अधिष्ठाता, विभु और मानसप्रत्यक्ष का विषय है। आत्मा के दो भेद- जीवात्मा और परमात्मा । जीवात्मा-प्रति शरीर में पृथक् होता है । इस का ज्ञान, सुखदुःख के अनुभव से होता है। इच्छा, द्वेष, बुद्धि, प्रयत्न, धर्माधर्म संस्कार इत्यादि आत्मगुण हैं। परमात्मा - एक और जगत् का कर्ता है। मन अणुपरिमाण । प्रतिशरीर भिन्न । यह जीवात्मा के सुख-दुःखादि अनुभव का तथा ऐन्द्रिय ज्ञान का साधन है। द्रव्यविचार में वैशेषिकों ने सारा भर अणुवाद पर दिया है। द्रव्यों के परमाणु होते हैं, यह सिद्धान्त सर्वप्रथम कणाद ने प्रतिपादन किया। द्रव्य के सूक्ष्मतम अविभाज्य अंश को परमाणु माना गया है। परमाणु नित्य, स्वतंत्र, इन्द्रियगोचर होते हैं। उनकी "जाति" नही होती। दो परमाणुओं के संयोग से द्वयणुक, तीन द्वयणुकों के संयोग त्र्यगुणक, चार से त्र्यणुकों के संयोग से चतुरणुक इस प्रकार अणुसंयोग से सृष्टि का निर्माण होता है। पदार्थों के गुणों में, बाह्य कारणों से जो भी विकार उत्पन्न होते हैं, उनका कारण "पाक" होता है। पदार्थ के मूल गुणों का नाश हो कर, उनमें नये गुण की निर्मिति को 'पाक' कहते हैं । इस उपपत्ति के कारण वैशेषिकों को "पीलुपाकवादी" कहते हैं। पीलुपाक याने अणुओं का पाक । इस से विपरीत नैयायिकों की उपपत्ति में संपूर्ण वस्तु का पाक माना जाता है, अतः उन्हे दार्शनिक परिवार में "पिठर-पाकवादी" कहते हैं। (2) गुण- द्रव्याश्रित किन्तु स्वयं गुणरहित पदार्थ को गुण कहते हैं। गुणसंयोग और वियोग का कोई कारण नहीं होता। सूत्रकार ने गुणों की संख्या 17 बताई है किन्तु भाष्यकारों ने अधिक 7 गुणों का अस्तित्व सिद्ध कर उनकी संख्या 24 मानी है। गन्ध, रस, रूप, स्पर्श, शब्द, संख्या, परिमाण, पृथक्त्व, संयोग, वियोग, परत्व, अपरत्व, बुद्धि, सुख, दुःख, इच्छा, द्वेष, प्रयत्न, गुरुत्व, द्रवत्व, स्नेह, संस्कार, धर्म और अधर्म। इनमें संख्या, परिमाण इत्यादि सामान्य गुण हैं और बुद्धि, सुख, दुःख, विशिष्ट पदार्थों में होने के कारण विशेष गुण माने हैं। अन्य गुणों में रूप के श्वेत, रक्त, पीत आदि 7 प्रकार; रस के मधुर अम्ल, लवण आदि 6 प्रकार हैं। गन्ध के सुगंध और दुर्गन्ध दो प्रकार हैं। स्पर्श के शीत, उष्ण और कवोष्ण, तीन प्रकार हैं। परिमाण के अणु, महत् हस्व दीर्घ- चार प्रकार हैं। संयोग के तीन प्रकार- एक गतिमूलक, उभयगतिमूलक और संयोगजसंयोग। गुरुत्व गुण के कारण वस्तु का पतन होता है। यह गुण केवल पृथ्वी और जल में होता है। स्नेहगुण केवल जल में होता है। शब्द के दो प्रकार- ध्वन्यात्मक और वर्णात्मक हैं। बुद्धि के दो प्रकार- स्मृति और अनुभव। संस्कार के तीन प्रकार- भावना (आत्मा का गुण), वेग और स्थितिस्थापकता हैं। पवित्रसंस्कार के कारण आत्मा में धर्मगुण उत्पन्न होता है, जिससे कर्ता को सुख की अनुभूति होती है। अधर्म इसके विपरीत गुण का नाम है। (3) कर्म - द्रव्याश्रित, गुणभिन्न और संयोगवियोग का कारण। कर्म के पांच प्रकार हैं- उत्क्षेपण (उपर फेंकना) अवक्षेपण (नीचे फेंकना) आकुंचन (सिकुडना) प्रसारण (फैलना) और गमन। आकाशादि विभु द्रव्यों में कर्म नहीं होता। (4) सामान्य - "नित्यम एकम् अनेकानुगतम्" - जो नित्य और एक होकर, अनेक पदार्थों में जिस का अस्तित्व होता है उसे जाति या सामान्य कहते हैं। जैसे गोत्व, मनुष्यत्व इत्यादि। सामान्य के तीन भेद हैं- (1) पर (2) अपर और (3) परापर। जैसे सत्ता या अस्तित्व पर सामान्य है जो सभी पदार्थों में होता है। घटत्व अपर सामान्य है जो केवल घट में ही होता है, और द्रव्यत्व परापर सामान्य है, क्यों कि वह घट तथा अन्य द्रव्यों में होता है, किन्तु सत्ता के समान द्रव्यातिरिक्त अन्य पदार्थों में नहीं होता। विशेष : परमाणु तथा आकाश, काल, दिक्, आत्मा और मन जैसे नित्य और निरवयव द्रव्यों में विशेष नामक पदार्थ रहता है, जो सामान्य से विपरीत होता है। विशेष ही एक परमाणु का दूसरे परमाणु से तथा एक पदार्थ का दूसरे पदार्थ से भेद करता है। विशेष पदार्थ के कारण ही एक आत्मा का दूसरे से अभेद सिद्ध नहीं होता। आपाततः समान दिखने वाली शेष वस्तुओं में परस्परभिन्नता, उनमें विद्यमान विशेष के कारण ही सिद्ध होती है। इस विशेष पदार्थ की मान्यता, कणाददर्शन की अपूर्वता है। इसी कारण इस दर्शन को “वैशेषिक" दर्शन नाम मिला है। समवाय : संबन्ध के दो प्रकार होते हैं। (1) संयोग और (2) समवाय। वस्त्र और तंतु जैसे अवयवी और अवययों में, जल और शैत्य; जैसे गुणी और गुण में, वायु और गति जैसे क्रियावान् और क्रिया में, गो और गोत्व जैसे व्यक्ति और जाति में एवं विशेष और नित्य द्रव्य में जो अयुतसिद्धता-मूलक संबंध होता है, उसे “समवाय" नामक पदार्थ कहते हैं। समवाय-संबंध नित्य,और संयोग-संबंध अनित्य होता है। अभाव : यह दो प्रकार का होता है। (1) संसर्गाभाव - जैसे अग्नि में शैत्य का अभाव। (2) अन्योन्याभाव - जैसे अग्नि में जल का, घट में पट का अभाव। संसर्गाभाव के तीन प्रकार होते हैं। (1) प्रागभाव - जैसे उत्पत्ति के पूर्व मृत्तिका में संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 137 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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