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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir लौकिक शब्दों का अनुशासन तथा उत्तरभाग में वैदिक शब्दों का अनुशासन सुव्यवस्थित पद्धति से किया गया है । अतः यह ग्रंथ व्याकरण समाज में महाभाष्य से भी उपादेय माना गया। "कौमुदी यदि कण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः । कौमुदी यद्यकण्ठस्था वृथा भाष्ये परिश्रमः ।। " यह सुप्रसिद्ध सुभाषित इस ग्रंथ की महनीयता का एक प्रमाण कहा जा सकता है। प्रक्रियाकौमुदी तथा सिद्धान्तकौमुदी पर अनेक व्याख्याएं लिखी गई। भट्टोजी ने स्वयं अपनी सिद्धान्तकौमुदी पर प्रौढमनोरमा नामक टीका लिखी, जिसमें उन्होंने प्रक्रियाकौमुदी और उसकी टीकाओं का स्थान स्थान पर खंडन किया है। भट्टोजी की प्रौढमनोरमा पर उन के पौत्र हरि दीक्षित ने बृहच्छन्दर और लघुशब्दरत्न नामक दो व्याख्याएँ लिखी हैं अन्य टीकाओं में ज्ञानेन्द्र सरस्वती की तत्वबोधिनी, नागेशभट्ट कृत बृहच्छब्देन्दुशेखर एवं लघुशब्देन्दुशेखर और वासुदेव वाजपेयी की बालमनोरमा विशेष उल्लेखनीय है पंडितराज जगन्नाथ ने भट्टोजी की प्रौढमनोरमा टीका के खंडनार्थ "कुचमर्दिनी" नामक टीका लिखी है। ई-18 वीं शती में केरल निवासी नारायण भट्ट ने प्रक्रिया सर्वस्व नामक प्रक्रिया ग्रंथ लिखा है। इसके 20 प्रकरणों में सिद्धान्तकौमुदी से भिन्न क्रमानुसार विषय प्रतिपादन किया है। इन सुप्रसिद्ध प्रक्रिया ग्रंथों के अतिरिक्त लघु सिद्धान्तकौमुदी, मध्यकौमुदी जैसे छात्रोपयोगी प्रक्रिया ग्रंथ निर्माण हुए जिनके अध्ययन से पाणिनीय व्याकरण का परिचय आज भी छात्रों को सर्वत्र दिया जाता है। 9 "पाणिनीयेतर व्याकरण ग्रंथ" संस्कृत व्याकरण शास्त्र की परंपरा में पाणिनीय व्याकरण का सार्वभौम अधिराज्य निर्विवाद है। परंतु इस के अतिरिक्त अन्य कुछ व्याकरण संप्रदाय भी पाणिनि के पश्चात् निर्माण हुए जिनमें केवल लौकिक संस्कृत भाषा के शब्दों का अनुशासन किया गया है। इस पाणिनीतर व्याकरण वाङ्मय में, कातन्त्र व्याकरण का स्थान विशेष महत्त्वपूर्ण माना जाता है। इस के अपर नाम हैं कलापक और कौमार । कातन्त्र शब्द का अर्थ, दुर्गासिंह आदि वैयाकरणों ने लघुतन्त्र किया है, और "कौमार" शब्द का अर्थ कुमारों (बालको) का, अर्थात् यह बालोपयोगी व्याकरण है पुराण परंपरावादियों के अनुसार, कुमार कार्तिकेय की आज्ञा से किसी शर्ववर्मा द्वारा इस व्याकरण की रचना मानी जाती है। काशकृत्स्त्र के धातुपाठ और उपलब्ध सूत्रों से कातंत्रधातुपाठ तथा सूत्रों की तुलना से यह निष्कर्ष निकाला गया है कि कातन्त्र एक काशकृत्स्रतंत्र का ही संक्षेप है। इस का लेखक कथासरित्सागर और दुर्गासिंह (कातन्त्रवृत्ति टीकाकार) के अनुसार कोई शर्ववर्मा था जिसने आख्यातान्त भागोंकी रचना की और बाद के कृदन्त भागों की रचना किसी कात्यायन ने की। श्रीपतिदत्त ने कातन्त्र परिशिष्ट लिख कर यह व्याकरण पूरा किया। अंत में किसी विजयानन्द ( नामान्तर विद्यानन्द) ने कातन्त्रोत्तर नाम का ग्रंथ लिखा। पाणिनीय व्याकरण के समान ही कातन्त्र व्याकरण का प्रचार सर्वत्र (विशेष कर बंगाल और मारवाड में) अधिक मात्रा में रहा। भारत के बाहर मध्य एशिया में भी इसके अस्तित्व का प्रमाण उपलब्ध हुआ है। कातन्त्र व्याकरण पर शर्ववर्मा, वररुचि और दुर्गासिंह की वृत्तियों के उल्लेख मिलते हैं। दुर्गासिंह की वृत्तिपर दुर्गासिंह (9 वीं शती), उग्रभूति (11 वीं शती) त्रिलोचनदास, वर्धमान (12 वीं शती), पृथ्वीधर, उमापति (13 वीं शती), जिनप्रभसूरि (14 वीं शती) चारित्रसिंह, जगध्दर (मालतीमाधव के टीकाकार) और पुण्डरीकाक्ष विद्यासागर (ई. 15 वीं शती) इत्यादि विद्वानों द्वारा टीका ग्रंथ लिखे गये हैं। "चान्द्र व्याकरण" काश्मीर के नृपति अभिमन्यु के आदेश पर चन्द्राचार्य ने व्याकरण महाभाष्य का प्रचार करते हुए नये व्याकरण की रचना की। इस व्याकरण के मंगलाचरण - श्लोक से ज्ञात होता है कि लेखक चन्द्राचार्य या चन्द्रगोमी बौद्ध मतानुयायी थे। चांद्र व्याकरण और धातुपाठ का प्रथम मुद्रण जर्मनी में हुआ। यह व्याकरण पाणिनीय तंत्र की अपेक्षा लघु, विस्पष्ट और कातंत्र आदि की अपेक्षा संपूर्ण है। महाभाष्य का प्रभाव इसमें विशेष दिखाई देता है। इस में पाणिनीय तंत्र का स्वरप्रक्रिया निदर्शक भाग नहीं है। अंतिम सप्तम और अष्टम अध्याय अप्राप्त हैं, जिनमें वैदिकी स्वरप्रक्रिया का प्रतिपादन होने की संभावना, युधिष्ठिर मीमांसकजी ने सिद्ध की है । चान्द्र व्याकरण पर धर्मदास द्वारा लिखी हुई वृत्ति का मुद्रण, रोमन अक्षरों में जर्मनी में हुआ है। बौद्ध भिक्षु कश्यप ने चान्द्र सूत्रों पर बालबोधिनी नामक लघुवृत्ति, ई-14 वीं शती में लिखी यह वृत्ति लघुकौमुदी के समान सुबोध है। चान्द्र व्याकरण से संबंधित धातुपाठ, गणपाठ, उणादिसूत्र लिंगानुशासन, उपसर्गवृत्ति, शिक्षा और सूत्रकोष निर्माण हुए थे, जिन के उद्धरण मात्र यत्र तत्र उपलब्ध होते हैं। "सरस्वती - कण्ठाभरण" संस्कृत वाङ्मय के इतिहास में परमारवंशीय धाराधीश्वर महाराजा भोज (ई. 12 वीं शती) का नाम अत्यंत सुप्रसिद्ध है । उनकी विद्वत्ता, रसिकता एवं उदारता का परिचय देने वाली अनेक कथाएँ प्रसिद्ध हैं। भोजराजा ने सरस्वतीकण्ठाभरण नाम के दो ग्रंथ रचे थे- एक अलंकार - विषयक और दूसरा व्याकरण-विषयक, जिसका अपर नाम है शब्दानुशासन । इस शब्दानुशासन में आठ अध्याय हैं और प्रत्येक अध्याय में चार पाद तथा सूत्रों की कुल संख्या 6411 है। प्रारंभिक सात अध्यायों में लौकिक 50 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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