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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir शब्दों का और अंतिम आठवे अध्याय में वैदिक शब्दों एवं स्वरों का प्रतिपादन है। इस शब्दानुशासन में पाणिनीय और चान्द्र व्याकरणों का अनुसरण हुआ है। इस ग्रंथ पर भोज की स्वकृत व्याख्या के प्रमाण मिलते हैं, उसके अतिरिक्त दण्डनाथ नारायणभट्ट की हृदय-हारिणी, कृष्णलीलाशुक (ई. 13 वीं शती) की “पुरुषकार" और रामसिंह की रत्नदर्पक नामक व्याख्याएं लिखी गई हैं। "हैम शब्दानुशासन" । श्वेताम्बर जैन संप्रदाय में आचार्य हेमचन्द्र सूरि (ई. 13 वीं शती) का नाम उनकी ग्रंथसंपदा के कारण विख्यात है। सर्वतोमुखी पांडित्य के कारण "कालिकालसर्वज्ञ' उपाधि उन्हें प्राप्त हुई थी। गुजरात में महाराजा सिद्धराज (अपरनाम-जयसिंह) के आदेश से इन्होंने शब्दानुशासन की रचना की, जो हैम शब्दानुशासन नाम से प्रसिद्ध है। यह संस्कृत और प्राकृत दोनों भाषाओं का व्याकरण है। प्रारंभिक 7 अध्यायों के 28 पादों में (सूत्रसंख्या- 3566) संस्कृत भाषा के और अंतिम आठवें अध्याय में (सूत्रसंख्या- 1119), - प्राकृत (शौरसेनी, मागधी, पैशाची, चूलिका-पैशाची, और अपभ्रंश इत्यादि) भाषाओं के शब्दों का विवेचन किया है। प्राकृत भाषाओं को व्याकरणबद्ध करने कार्य सर्वप्रथम हेमचन्द्राचार्य ने ही किया। इस शब्दानुशासन में कातंत्र व्याकरण का अनुसरण हुआ है। इसमें यथाक्रम संज्ञा, स्वरसन्धि, व्यंजनसन्धि, नाम, कारक, षत्व णत्व, स्त्रीप्रत्यय, समास, आख्यात, कृदन्त और तद्धित विषयक प्रकरण हैं। अपने इस ग्रंथ पर हेमचंद्र ने बालकों के लिए लध्वी, मध्यम बुद्धिवालों के लिए मध्यमा, और कुशाग्र बुद्धिमानों के लिये बृहती इस प्रकार तीन वृत्तियाँ लिखी, जिनकी श्लोकसंख्या बहुत बडी है। इसके अतिरिक्त हेमचन्द्र ने अपने व्याकरण पर 90 सहस्त्र श्लोकपरिमाण का "शब्दमहार्णवन्यास" या बृहन्न्यास नाम का विवरण लिखा था। इसके अतिरिक्त देवेन्द्र सूरिकृत हेमलघुन्यास, विनयविजयगणिकृत हैमलघुप्रक्रिया, मेघविजयकृत, हैमकौमुदी इत्यादि टीकाग्रंथ लिखे गये, जो अभी तक दुष्प्राप्य हैं। ई. 14 वीं शती में क्रमदीश्वरने संक्षिप्तसार नामक व्याकरण लिखा। यह सम्प्रति उसके परिष्कर्ता जुमरनन्दी के नाम पर जौमर व्याकरण नाम से विदित है। ई. 14 वीं शती में सारस्वत सूत्रों की रचना हुई। उसके रचयिता नरेन्द्रचार्य और परिष्कर्ता थे अनुभूतिस्वरूपाचार्य। इस सारस्वत व्याकरण पर, क्षेमेन्द्र (काश्मोरी क्षेमेन्द्र से भिन्न), धनेश्वर, अमृतभारती, सत्यप्रबोध, माधव, चन्द्रकीर्ति जैनाचार्य, रघुनाथ, (भट्टोजी दीक्षित के शिष्य) मेघरत्न, मण्डन, वासुदेव-भट्ट आदि 18 विद्वानों ने व्याख्याएं लिखी, जो प्रायः अमुद्रित हैं। इन व्याख्याओं के अतिरिक्त तर्कतिलक भट्टाचार्य, रामाश्रय आदि वैयाकरणों ने सारस्वत व्याकरण को रूपांतर में प्रस्तुत किया है।। ___ देवगिरि (महाराष्ट्र) में ई. 15 वीं शती के सुप्रसिद्ध हेमाद्रि (या हेमाडपंत) नामक अमात्य के आश्रित बोपदेव ने मुग्धबोध नामक बालोपयोगी व्याकरण की रचना की। बोपदेव ने कविकल्पद्रुम नाम से धातुपाठ का संग्रह किया और उस पर कामधेनु नामक टीका भी लिखी है। मुग्धबोध व्याकरण पर नन्दकिशोर भट्ट, विद्यानिवास, दुर्गादास विद्यावागीश (ई. 17 वीं शती), आदि 16 वैयाकरणों ने टीकाएँ लिखी हैं। प्रस्तुत प्रकरण के प्रारंभ में जैनेन्द्र और शाकटायन व्याकरणों का यथोचित परिचय दिया गया है। इन महत्त्वपूर्ण व्याकरणों के अतिरिक्त पद्मनाथ दत्त (ई. 15 वीं शती) का सुपद्मव्याकरण, शुभचन्द्र का चिन्तामणि व्याकरण, भरतसेन का द्रुतबोध, रामकिंकर का आशुबोध, रामेश्वरी का शुद्धाशुबोध, शिवप्रसाद का शीघ्रबोध, काशीश्वर का ज्ञानामृत, रूपगोस्वामी और जीवगोस्वामी का हरिनामामृत, बालराम पंचानन का प्रबोधप्रकाश, इत्यादि सामान्य श्रेणी के व्याकरण ग्रंथ और संप्रदाय निर्माण होने पर भी, पाणिनीय व्याकरण का प्रभाव आज तक अबाधित है। 10 "धातुपाठ" वैयाकरण समाज में "पंचांग व्याकरण" यह शब्दप्रयोग होता है। वे पांच अंग हैं- 1) सूत्रपाठ 2) धातुपाठ 3) गणपाठ 4) उणादिपाठ और 5) लिंगानुशासन । मुख्य सूत्रपाठ को ही शब्दानुशासन कहते हैं। अवशिष्ट चार अंग, शब्दानुशासन के "खिल" या परिशिष्ट माने जाते हैं। इन चारों खिलपाठों का सूत्रपाठ से निकट संबंध है और व्याकरण शास्त्र के सर्वकष ज्ञान के लिये उनका आकलन होना भी आवश्यक है। उत्तरकालीन वैयाकरणों ने परिभाषापाठ नामक और भी एक अंग विकसित किया है। प्राचीन भाषाशास्त्रज्ञों में निरुक्तकार एवं शाकटायन जैसे वैयाकरण संपूर्ण नाम शब्दों को आख्यातजन्य (अथवा धातुजन्य) मानते थे। “नामानि आख्यातजानि" अथवा "नाम च धातुजम्" इस सिद्धान्त की प्रायः सर्वमान्यता के कारण, सभी वैयाकरणों ने अपने अपने शब्दानुशासनों से संबंद्ध धातुपाठों की रचना की। पाणिनि से पूर्ववर्ती 26 शब्दानुशासनकारों में से काशकृत्स्र का धातुपाठ चन्नवीर कवि की कन्नड टीका के साथ युधिष्ठिर मीमांसकजी ने प्रकाशित किया है। अन्य विद्वानों के धातुपाठों के अस्तित्व के प्रमाण मिलते हैं, परंतु वे धातुपाठ उपलब्ध नहीं हैं। संपूर्ण व्याकरण संप्रदायों में पाणिनीय व्याकरण अपने पांचों अंगों से परिपूर्ण है। आज जो पाणिनीय धातुपाठ उपलब्ध है, उसे काशिका वृत्ति के व्याख्याता जिनेन्द्रबुद्धि ने. अन्यकर्तृक कहा है (अन्यो गणकारः अन्यश्च सूत्रकारः) परंतु युधिष्ठिर संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 51 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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