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इस दुर्घटवृत्ति में किया गया है। शरणदेव बौद्ध मतानुयायी थे। इन वृत्तियों के अतिरिक्त भट्टोजी दीक्षित कृत शब्दकौस्तुभ (अपूर्ण), अणव्य दीक्षितकृत सूत्रप्रकाश, विश्वेश्वर सूरिकृत व्याकरणसिद्धान्तसुधानिधि तथा दानन्द सरस्वतीकृत अष्टाध्यायीभाष्य इत्यादि वृत्तिग्रंथ उल्लेखनीय हैं। पाणिनीय व्याकरण पर आचार्य व्याडि (अपर नाम दाक्षायण) ने संग्रह नामक ग्रंथ रचा था । पतंजलि कृत महाभाष्य, भर्तृहरिकृत वाक्यपदीय की पुष्पराज तथा हेलाराजकृत टीका तथा जैनेन्द्रव्याकरण की महानन्दी टीका, इत्यादि ग्रंथों में इस व्याडिकृत संग्रह ग्रंथ के उद्धरण मिलते हैं, परंतु आज यह महत्वपूर्ण ग्रंथ उपलब्ध नहीं है। पातंजल महाभाष्य का प्रचार होने के पूर्व, संग्रह ग्रंथ का ही अध्ययन प्रचलित था ।
8 पाणिनीय व्याकरण का विस्तार
"उक्त अनुक्त-दुरुक्त-चिन्ता वार्तिकम्' इस वचन के अनुसार, किसी महत्त्वपवपूर्ण ग्रंथ की चिकित्सा करनेवाले विद्वानों ने मूल ग्रन्थ के संबंध में जो टिप्पणात्मक पूरक वाक्य या श्लोक लिखे होते हैं उन्हें "वार्तिक" संज्ञा दी जाती है। इस प्रकार के श्लोकवार्तिक, तंत्रवार्तिक इत्यादि प्राचीन ग्रंथ उपलब्ध होते हैं। व्याकरण शास्त्र में "वृत्तेर्व्याख्यानं वार्तिकम्" अर्थात् पाणिनीय शब्दानुशासन की वृत्ति का व्याख्यान करनेवाले वचन 'वार्तिक' नाम से निर्देशित होते हैं। पातंजल महाभाष्य में भारद्वाज, क्रोष्टा, सुनाग, व्याघ्रभूति इत्यादि वार्तिककारों के साथ कात्यायन (या कात्य) का निर्देश हुआ है। किन्तु कात्यायन के वार्तिकपाठ का ही परामर्श प्राधान्य से किया गया है। पतंजलि के मतानुसार वार्तिककार कात्यायन दाक्षिणात्य था। कुछ विद्वान उसे पाणिनि का साक्षात् शिष्य मानते हैं । कात्यायन का वार्तिकपाठ स्वतंत्र रूप से उपलब्ध नहीं होता। वह पाणिनीय व्याकरण का ही पूरक अंग होने के कारण सूत्रों में ही ग्रथित हुआ है। इन वार्तिकों के बिना पाणिनीय व्याकरण का सर्वंकष ज्ञान नहीं हो सकता ।
पातंजल महाभाष्य
संस्कृत वाङ्मय में अनेक शास्त्रों के पांडित्यपूर्ण भाष्य ग्रंथ निर्माण हुए। पाणिनीय व्याकरण पर विवेचन करने वाले अनेक ग्रंथों का परामर्श लेते हुए पतंजलि ने अपना व्याकरण - महाभाष्य लिखा । पाणिनि, कात्यायन और पतंजलि व्याकरण शास्त्र के "त्रिमुनि" (या मुनित्रय) माने जाते हैं। शब्दापशब्द का विवेक करते समय "यथोत्तरं मुनीनां प्रामाण्यम्" याने सूत्रकार पाणिनि से वार्तिकार कात्यायन प्रमाण, और कात्यायन से भी उतरकालीन ग्रंथकार होने के कारण, भाष्यकार पतंजलि मुनि के मत परम प्रमाण माने जाते हैं। पतंजलि को शुंगवंशीय महाराजा पुष्यमित्र का समकालिक माना जाता है। अतः ई.पू. द्वितीय शती में पतंजलि का आविर्भाव विद्वान मानते है । युधिष्ठिर मीमांसक पतंजलि को विक्रम पूर्व 1200 से पूर्वकालिक मानते हैं। विभिन्न प्राचीन ग्रंथों में गोनर्दीय, गोणिकापुत्र, नागनाथ, अहिपति, शेषराज, चूर्णिकार इत्यादि नामों से पतंजलि का निर्देश मिलता है। संस्कृत वाङ्मय में पतंजलि के नामपर तीन ग्रंथ प्रसिद्ध है। 1) सामवेदीय निदानसूत्र, 2) योगसूत्र और 3) व्याकरण महाभाष्य ।
"योगेन चित्तस्य, पदेन वाचा मलं शरीरस्य च वैद्यकेन । योऽपाकरोत् तं प्रवरं मुनीनां पतंजलि प्रांजलिनतोऽस्मि ।।"
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ग्रंथ
रूपावतार
प्रक्रियाकौमी
सिद्धान्तकौमुदी
यह श्लोक वैयाकरणों की परंपरा में प्रसिद्ध है। इसके अनुसार वैद्यक, योग तथा व्याकरण इन तीनों के अधिकारी लेखक पतंजलि मुनि, एक ही व्यक्ति माने गये हैं। सभी शास्त्रीय विषयों के समान, व्याकरण विषयक ग्रंथों की शैली प्रायः शुष्क, नीरस होती है, परंतु पातंजल महाभाष्य इस दृष्टि से अपवाद है। भाषा की सरलता, प्रांजलता, स्वाभाविकता, विषय प्रतिपादन शैली की उत्कृष्टता, वाक्यों की असामासिकता, तथा लघुता के कारण, इस भाष्य की भूरि भूरि प्रशंसा सभी विद्वान करते हैं। व्याकरण महाभाष्य पर भर्तृहरिकृत महाभाष्य-प्रदीपिका और कैयटकृत प्रदीप नामक दो टीका ग्रंथ उल्लेखनीय हैं। कैयटकृत प्रदीप टीका के असाधारण महत्त्व के कारण उस पर रामानंद सरस्वती, ईश्वरानंद सरस्वती, अन्नंभट्ट, नागेशभट्ट इत्यादि 14 विद्वानों ने टीका ग्रंथ लिखे हैं । पाणिनि का व्याकरण सूत्रात्मक तथा उसकी अपनी प्रतिपादन शैली कुछ जटिल सी होने के कारण, केवल लौकिक शब्दों की सिद्धि के विषय में जिज्ञासा रखनेवालों के लिए "प्रक्रियानुसारी" व्याकरण ग्रन्थों की आवशक्यता निर्माण हुई। यह आवश्यकता कुछ समय तक कातंत्र आदि प्रक्रियानुसारी अन्य व्याकरणों के द्वारा निभाई जाती थी। ई. 15-16 वीं शती से पाणिनीय व्याकरण का सूत्रपाठ के क्रमानुसार अध्ययन खंडित होकर, प्रक्रियापद्धति के अनुसार, सर्वत्र होने लगा। अष्टाध्यायी पर आधारित तीन महत्त्वपूर्ण प्रक्रियानुसारी ग्रंथ लिखे गये
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ग्रंथकार धर्मकीर्ति
रामचंद्र (ई. 14 वीं शती)
भट्टोजी दीक्षित (ई- 16-17 वीं शती)
भट्टोजी दीक्षित की सिद्धान्तकौमुदी में व्याकरण की प्रक्रियापद्धति परिपूर्ण रूप से प्रकट हुई। इस ग्रंथ के पूर्व भाग में
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 49
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