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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir देकर उडुपी लौटे। उडुपी में इन्होंने सर्वप्रथम गीता पर भाष्य लिखा। मध्वाचार्य ने उत्तर भारत की दो बार यात्रा की। हिमालय के बदरीनाथ में कुछ दिनों तक रहकर ये महाबदरिकाश्रम (वेदव्यास के आश्रम) पहुचे। इन्होंने वहां पर कुछ मास तक निवास किया और वेदव्यास की कृपा से उबुद्ध प्रतिभा के द्वारा वहीं पर ब्रह्मसूत्र का भाष्य लिखा। मध्वाचार्य के साथ उनकी शिष्य-मंडली भी थी। पश्चात् बिहार-बंगाल होते हुए वे लौटे, और गोदावरी तीरस्थ शोभनतीर्थ नाम से उनके शिष्य बने। उडुपी लौटने पर इन्होंने मठ स्थापित किया और श्रीकृष्ण की सुंदर मूर्ति प्रतिष्ठित की। उनकी शिष्य-परंपरा बढ़ने लगी तथा इनके द्वैत उपदेशों ने जनता एवं विद्वानों को अपनी और आकृष्ट किया। इन्होंने अनुष्ठान-पद्धति में सुधार किए, एवं वैदिक यज्ञों में पशु-बलि के स्थान पर पिष्ट-पशु (आटे के बने पशु) का विधान अपने अनुयायियों के लिये निर्दिष्ट किया। ___ इसके अनंतर मध्वाचार्य ने उत्तर भारत की द्वितीय यात्रा के लिये प्रस्थान किया, और दिल्ली, कुरुक्षेत्र, काशी तथा गोवा की यात्रा करते हुए लौटे। इस काल में इन्होंने दसों उपनिषदों पर भाष्य, दस प्रकरण एवं भागवत तथा महाभारत पर व्याख्याएं लिखकर अपने मत की पूर्ण प्रतिष्ठा का समुचित उद्योग किया। __कहते हैं कि मध्वाचार्य के प्रखर खंडन से उद्विग्न होकर अद्वैती लोगों ने इन पर आक्रमण करने का प्रयत्न किया, इनके बहुमूल्य पुस्तकालय को ध्वस्त करने हेतु भी वे प्रयत्नशील रहे, किन्तु स्थानीय राजा जयसिंह के प्रयत्नों से उनकी पुस्तकें उन्हें वापस मिल गई। इन्हीं जयसिंह के सभा-पंडित त्रिविक्रम पंडिताचार्य का मध्वअनुयायी बन जाना उस काल की बडी महत्त्वपूर्ण घटना है, क्योंकि वे अद्वैती पंडितों के प्रमुख अग्रणी थे। मध्वाचार्य के आदेश पर त्रिविक्रम ने आचार्य के ब्रह्मसूत्र-भाष्य पर "तत्त्व-प्रदीप" नामक अपनी प्रौढ व्याख्या लिखी और आगे चलकर त्रिविक्रम के पुत्र नारायण पंडिताचार्य ने 'मध्व-विजय' नामक आचार्य की प्रामाणिक जीवनी लिखी। इसी काल में मध्वाचार्य ने अपने सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ 'अनु-व्याख्यान' का प्रणयन किया। इसी समय आचार्य ने उडुपी में अष्ट मठों की स्थापना की। साथ ही पूजन-अर्चन में संलग्न रहते हुए आचार्य ने न्याय-विवरण, कर्म-निर्णय तथा कृष्णामृतमहार्णव नामक तीन ग्रंथों की रचना की। इस प्रकार शिष्य-समुदाय एवं ग्रंथ-संपत्ति क द्वारा द्वैत-मत प्रतिष्ठित हआ। मध्वाचार्य के जीवन का उद्देश्य सफल हो गया। तब माघ शुक्ल नवमी तिथि को 1318 ई. में 79 की आयु पूर्ण कर आचार्य इस धरा-धाम से एकाएक अंतर्हित हुए। सांप्रदायिकों की धारणा है कि वे वेदव्यासजी के निकट बदरिकाश्रम चले गए। मध्वाचार्य, आनंदतीर्थ भी कहलाते थे। कहते हैं कि जब वे हिमालय के व्यासाश्रम गए थे तब व्यासजी ने प्रसन्न होकर उन्हें शालिग्राम की 3 मूर्तियां दी थीं। इन मूर्तियों को आचार्य ने 3 क्षेत्रों- सुब्रहमण्यम्, उडुपी तथा मध्यतल में प्रतिष्ठित किया। समुद्र-तल से निकाली गई श्रीकृष्ण मूर्ति की भी प्रतिष्ठापना उन्होंने उडुपी में की। तभी से यह स्थान माध्वों के लिये आचार्य-पीठ एवं विशेष तीर्थ माना जाता है। यहीं पर आचार्य ने अपने शिष्यों की सुविधा के लिये 8 मंदिरों का निर्माण कराया, जिनमें सीता-राम, लक्ष्मण-सीता, द्विभुज कालिया-दमन, चतुर्भुज कालिया-दमन, विट्ठल आदि 8 मूर्तियों की स्थापना की। मध्वाचार्य ने अपने जीवन के आरंभ-काल से ही सिद्धांत-ग्रंथों के प्रणयन का महनीय कार्य अपने हाथ में लिया था। छोटे बडे मिलाकर उनके 37 ग्रंथ है, जिन्हें समवेत रूप से 'सर्व-मूल' कहा जाता है। सर्व-मूल के देवनागरी संस्करण, कुंभकोणम् तथा बेलगांव से प्रकाशित हुए हैं। __आचार्य के इन ग्रंथों को चार भागों में विभक्त किया जाता है- प्रस्थानत्रयी पर व्याख्या (16 ग्रंथ), दश-प्रकरण (10 ग्रंथ), तात्पर्यं-ग्रंथ (इनकी संख्या 3 है) और काव्य-ग्रंथ (8)। कंदुक-स्तुति नामक 38 वीं लघुतम कृति को, 'सर्व-मूल' में समाविष्ट नहीं किया जाता। यह आचार्य के बाल्य-काल की रचना है। मध्वाचार्य की विशेषता थी, अपने व्याख्यान एवं मत की पुष्टि विविध प्राचीन ग्रंथों के उद्धरणों से करना। उनमें से आजकल अनेक अज्ञात अथवा अल्पज्ञात हैं तथा कतिपय ग्रंथों का पता भी नहीं चलता। उनके विस्तृत अध्ययन, गंभीर अनुशीलन एवं प्रगाढ पांडित्य का परिचय उनके द्वारा प्रणीत ग्रंथों से भली-भांति मिलता है। जन्म और संन्यास विषयक विशेष- इनके पिता का नाम तुलु (मध्यगेहभट्ट) तथा माता का नाम वेदवती था। इनके जन्म के पूर्व मध्यगेहभट्ट के दो पुत्र और एक पुत्री थी, परंतु दोनों पुत्र बचपन में ही चल बसे थे। अतः मध्यगेहभट्ट (तुलु) ने पुत्र-प्राप्ति के लिये उडुपी के अनंतेश्वर की उपासना की। उनकी कृपा से उन्हें पुत्रप्राप्ति हुई। पुत्र का नाम वासुदेव रखा गया। उपनयन-संस्कार के पश्चात् जब वासुदेव ने वेदाध्ययन तथा शास्त्राध्ययन पूर्ण किया तो माता-पिता ने वासुदेव के सामने विवाह का प्रस्ताव रखा। परंतु वैष्णव भक्ति का प्रचार ही जीवित-कार्य है तथा उसकी पूर्ति संन्यास-धर्म की दीक्षा ग्रहण किये बिना संभव नहीं यह उनकी दढ धारणा होने से माता पिता के प्रस्ताव के प्रति उदासीन रहे। एक बार उडुपी में अच्युतप्रेक्ष नामक एक विद्वान् यति का आगमन हुआ। मध्वाचार्य को समाचार मिलते ही घर पर किसी को भी सूचना न देते हुए वे उडुपी चले गये। वहां उम्होंने अच्युतप्रेक्ष से अनुरोध किया कि वे उन्हें संन्यासधर्म 408 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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