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46. कौशीतक्युपनिषत्, 47. ऐतरेयोपनिषत्, 48. प्रत्यन्तप्रस्थान-मीमांसा, 49. वेदधर्मव्याख्यान, 50. वेदार्थ-श्रम-निवारण। इस ग्रन्थावली से यह स्पष्ट है कि श्री
ओझाजी आधुनिक युग के सर्वश्रेष्ठ संस्कृत लेखक थे। इनका लिखा जानकीहरण नामक महाकाव्य (88 पृष्ठबद्ध अभी तक अप्रकाशित है। इंग्लैण्ड में दिये व्याख्यानों को 'वेदधर्म-व्याख्यानम्' में ग्रन्थबद्ध किया है। मधुसूदन-सरस्वती - समय- ई. 17 वीं शती का पूर्वा र्ध। पिता- प्रमोदन पुरंदर । ब्राह्मण-कुल। भागवत के उपजीव्य टीकाकारों में से एक। रामचरित-मानस (तुलसी रामायण) के प्रणेता गोस्वामी तुलसीदासजी के समकालीन ये अद्वैतवादी आचार्य केवल शुष्क ज्ञानमार्ग के अनुयायी पंडित नहीं थे, प्रत्युत भक्तिरस के व्याख्याता एवं भक्तिस्निग्ध हृदयसंपन्न साधक थे। भक्ति-रस की शास्त्रीय व्याख्या के निमित्त इन्होंने अपना महनीय स्वतंत्र ग्रंथ रचा है 'भक्ति-रसायन'। इसमें एकमात्र भक्ति को परम रस सिद्ध किया गया है। 'आनंद-मंदाकिनी' इनकी एक और कृति है।
'अद्वैत-सिद्धि' है इनकी मूर्धन्य रचना, जिसमें द्वैतवादियों के तर्को का खण्डन करते हुए अद्वैतमत की युक्तिमत्ता सिद्ध की गई है। इनके मतानुसार परमानंद रूप परमात्मा के प्रति प्रदर्शित रति ही परिपूर्ण रस है, और श्रृंगार आदि रसों से वह उसी प्रकार प्रबल है जिस प्रकार खद्योतों से सूर्य की प्रभा -
परिपूर्ण-रसा क्षुद्ररसेभ्यो भगवद्-रतिः ।
खद्योतेभ्य इवादित्यप्रभेव बलवत्तरा।। - (भक्तिरसायन 2-78)
मानसकार गोस्वामी तुलसीदासजी की प्रख्यात प्रशस्ति आप ही ने लिखी थी।
आनंदकानने ह्यस्मिन् जङ्गमस्तुलसीतरुः। कवितामंजरी यस्य रामभ्रमर-भूषिता ।। इनका जन्म तो हुआ था बंगाल के फरीदपुर जिले के कोटलिपाडा नामक गाव में, परन्तु इनकी कर्मस्थली काशी ही रही। यहीं रहकर इन्होंने अपने पांडित्यपूर्ण ग्रंथ-रत्नों का प्रणयन किया।
ये वेदांत के प्रकांड पंडित, रससिद्ध कवि एवं महान् भगवद्भक्त थे। नवद्वीप में हरिराम तर्कवागीश तथा माधव सरस्वती के पास अध्ययन के पश्चात् वे काशी गये तथा वहां अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में पराजित किया। इन्होंने विश्वेश्वर तीर्थ से संन्यासधर्म की दीक्षा ग्रहण की।
ये अद्वैत वेदान्त के कट्टर उपासक थे। "अद्वैतसिद्धि' नामक ग्रंथ में इन्होंने अद्वैत-सिद्धान्त का मण्डन किया है। इनके पूर्ववर्ती आचायों ने अद्वैत सिद्धान्त के प्रतिपादन के लिये प्रमुखता से श्रुतियों को ही प्रमाणभूत माना था, मधुसूदन
सरस्वती ने प्रधानतः अनुमान प्रमाण के आधार पर अद्वैत-सिद्धान्त की स्थापना की है।
अद्वैत-वेदान्त पर इन्होंने 'सिद्धान्तबिंदु' या 'सिद्धान्ततत्त्वबिंदु', 'वेदान्तकल्पलतिका', 'संक्षेपशारीरक-व्याख्या', अद्वैतसिद्धि', अद्वैतरत्नरक्षण' तथा 'प्रस्थानभेद' नामक ग्रंथ लिखे हैं। इन्होंने गीता पर 'गूढार्थदीपिका' नामक भाष्य भी लिखा है। ये कृष्ण के अनन्य भक्त थे। कृष्णभक्ति के सामने वे अन्य बातों को तुच्छ मानते थे
ध्यानाभ्यासवशीकृतेन मनसा तन्निर्गुणं निष्क्रियं । ज्योतिः किंचन योगिनो यदि परं पश्यन्ति पश्यन्तु ते। अस्माकं तु तदेव लोचनचमत्काराय भूयाच्चिरं ।
कालिन्दीपुलिनोदरे किमपि यन्नीलं महो धावति ।। __ अर्थ- ध्यान के अभ्यास से जिनका मन वशीभूत हो चुका हो चुका है, ऐसे योगियों को यदि निर्गुण तथा निष्क्रिय परम ज्योति का दर्शन होता हो तो होने दो। हमारे नेत्रों को तो कालिंदी तट पर दौडने वाला श्यामल तेज (श्रीकृष्ण का बालरूप) ही सुख देता है। इन्होंने महिम्नःस्तोत्र की शिवपरक तथा विष्णुपरक व्याख्या कर दोनों में अभेद दिखाया है और भागवत पर टीका लिखी है। मध्वाचार्य - द्वैतमत के प्रतिष्ठापक मध्वाचार्य के समय के बारे में विद्वानों का एकमत नहीं किंतु उपलब्ध शिलालेख एवं अवांतरकालीन द्वैत मतावलंबी ग्रंथकारों के ग्रंथों से प्राप्त जानकारी के आधार पर इतिहास लेखकों ने सप्रमाण सिद्ध कर दिया है कि मध्वाचार्य का जीवन-काल 1238 ई. से 1317 ई. तक व्याप्त था। इस विषय में अब दो मत नहीं हो सकते।
नारायण पंडिताचार्य ने अपने 'मध्व-विजय' नामक ग्रंथ में आचार्य की सबसे प्राचीन जीवनी उपलब्ध की है जो घटनाओं के तारतम्य एवं निरूपण में प्रमाण मानी जाती है। मध्व का जन्म, वर्तमान मैसूर राज्य में प्रसिद्ध क्षेत्र उडुपी से लगभग 8 मील दक्षिण-पूर्व 'पाजक' नामक ग्राम में, तुलु ब्राह्मण के घर में हुआ था। उनके पिता के कन्नड भाषीय कुटुंब-नाम का संस्कृत रूप 'मध्यगेह' तथा 'मध्यमंदिर' माना जाता है। 7 वर्ष की आयु में उपनीत होकर इन्होंने बड़े परिश्रम तथा निष्ठा से वेद-शास्त्र का अध्ययन किया। 16 वर्ष की आयु में गृह-त्याग कर इन्होंने अपने वेदांती गुरु अच्युतप्रेक्ष से दीक्षा ग्रहण की। दीक्षित होने पर इनका नया नाम हुआ पूर्णप्रज्ञ किन्तु थोडी ही कालावधि के उपरांत, वेदांत-विषय में गुरु-शिष्य के बीच मतभेद उत्पन्न हो गया। मायावाद तथा अद्वैत के प्रति इनके मन में तीव्र अवहेलना निर्माण हुई, और इन्होंने अपने स्वतंत्र द्वैत-मत को प्रतिष्ठित किया। कुछ दिनों तक उडुपी में इन्होंने निवास किया तथा अच्युतप्रेक्ष के शिष्यों को वे द्वैत-वेदांत पढाते रहे। फिर इन्होंने दक्षिण भारत की यात्रा की और वहां के विद्वानों को अपने नवीन मत का उपदेश
संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 407
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