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हुए कवि का समय 11 वीं शती के आसपास अनुमेय है।
भृगु एक सूक्तदृष्टा । ऋग्वेद के नववें मंडल का 65 वां
सूक्त भृगु तथा जमदग्नि ने तथा दसवें मंडल का 19 वां सूक्त भृगु, मथित तथा च्यवन ने मिलकर रचा है I
भृगु के जन्म के संबंध में भिन्न भिन्न मत है, परंतु सामान्यतः ब्रह्मदेव से उनकी उत्पत्ति बतलाई जाती है। ऐतरेय ब्राह्मण, गोपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीय ब्राह्मण, महाभारत, भागवत और पुराणों में उनकी उत्पत्ति की कथाएं हैं।
ऋग्वेद में उल्लेख है कि भृगु ने मानव जाति के उपयोग के लिये अग्नि का आविष्कार किया। भृगु शब्द भृज् धातु से बना है, जिसका अर्थ भूनना है। महाभारतकार भृगु शब्द की उत्पत्ति भृक् धातु से बतलाते हैं, जिसका अर्थ ज्वाला है। ऋग्वेद ने मातरिश्वा को अग्नि का आविष्कारकर्ता बतलाया है। एक ही तत्त्व के दो आविष्कार होने से, प्रश्न निर्माण होता है कि दोनों के आविष्कार की क्या विशेषता है। इसका समाधान इस प्रकार है : मातारिश्वा ने भौतिकशास्त्र की दृष्टि से तथा भृगु ने व्यावहारिक उपयोग की दृष्टि से अग्नि का आविष्कार किया।
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भोज (भोजराज ) परमारवंशीय धारा- नरेश संस्कृत भाषा के पुनरुद्धारक । इन्होंने अनेक शास्त्रों का निर्माण किया है। इन्होंने ज्योतिष संबंधी 'राजमृगांक' नामक ग्रंथ की रचना 1042-43 ई. में की थी। इनके पितृव्य (चाचा) महाराज मुंज की मृत्यु 994 से 997 ई. के मध्य हुई थी । तदनंतर इनके पिता सिंधुराज सिंहासनारूढ हुए और कुछ दिनों तक गद्दी पर रहे। भोज के उत्तराधिकारी जयसिंह नामक राजा का समय 1055-56 ई. है क्यों कि उनका एक शिलालेख मांधाता नामक स्थान में इसी ई. का प्राप्त होता है। अतः भोजराज का समय, एकादश शतक का पूर्वार्ध माना जाना उचित है। (1018 से 1063 ई.) । राजा भोज की विद्वत्ता, गुणग्राहकता तथा दानशीलता, इतिहास प्रसिद्ध है। 'राजतरंगिणी' में काश्मीर नरेश अनंतराज व मालवाधिपति भोज को समान रूप से विद्वत्प्रिय बताया गया है ( 7-259) । उन्होंने विविध विषयों पर समान अधिकार के साथ अपनी लेखनी चलायी है और विविध विषयों पर 84 ग्रंथ लिखे। इन्होंने 'श्रृंगार-मंजरी' नामक कथा- काव्य व 'मंदारमरंदचपू' काव्य का भी प्रणयन किया है। वास्तुशास्त्र पर इनका 'समरांगण सूत्रधार' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ है जिसमें 17 हजार श्लोक हैं। 'सरस्वती- कंठाभरण' (बृहत्शब्दानुशासन) नामक इनका व्याकरण संबंधी ग्रंथ प्रसिद्ध है जो 8 प्रकाशों में विभक्त है। इन्होंने 'युक्तिप्रकाश' व 'तत्त्वप्रकाश' नामक धर्मशास्त्रीय ग्रंथों की रचना की है, और औषधियों विषयक 'राजमार्तंड' नामक ग्रंथ लिखा है जिसमें 418 श्लोक हैं। इनकी योगसूत्र पर 'राजमार्तंड' नामक टीका भी प्राप्त होती है।
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काव्याशास्त्र पर भोजराज ने 'शृंगार-प्रकाश'
और
'सरस्वती - कंठाभरण' नामक प्रसिद्ध ग्रंथ लिखे हैं। इन ग्रंथों में तद्विषयक सभी विषयों के विस्तृत विवेचन के साथ कई नवीन तथ्य प्रस्तुत किये गए हैं। श्रृंगार को मूल रस मान कर, भोज ने अलंकार - शास्त्र के इतिहास में नवीन व्यवस्था स्थापित की है। इन्होंने पूर्ववत सभी काव्यशास्त्रीय सिद्धांतों का विवेचन करते हुए समन्वयवादी परंपरा की स्थापना की है। इसी दृष्टि से इनका महत्त्व अधिक है। 1
भोजराज की बहुमुखी प्रतिभा से प्रभावित 16 वीं शती के बल्लाल सेन ने 'भोज-प्रबंध' नामक एक अनूठे काव्य का प्रणयन किया है। इस प्रबंध में भोजराज की विभिन्न कवियों द्वारा की गई प्रशस्ति का कथात्मक वर्णन है। उन में से कुछ कथाएं
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भोजकथा 1 एक दिन राजा भोज की सभा में घोर दारिद्रय का अनुभव करते हुए प्रकाण्ड विद्वान् कवि क्रीडाचन्द्र उपस्थित हुए । उनकी यह अवस्था देखकर कालिदास ने बड़े आदर से उनकी पूछताछ की तथा ऐसी दशा होने का कारण पूछा। क्रीडाचन्द्र ने बताया द्रव्य का संचय कर दान न देने वाला धनी भी दरिद्रों की संख्या में अग्रगण्य होता है। अपेय जल संचय करने वाला समुद्र भी मरुस्थल के समान है।
यह सुनकर कालिदास, वररुचि, मर आदि विद्वानों ने उसकी प्रशंसा की तथा राजा ने उन्हें बीस हाथी और पांच गांव भेंट किये।
पढा
भोजकथा - 2 अपनी दानशूरता पर राजा भोज ने गर्व का अनुभव किया। इसे जानकर उनके अमात्य ने विक्रमार्क के चरित्र का कुछ भाग राजा के सम्मुख रखा । उसने यह भाग 'राजा विक्रमार्क ने प्यास लगने पर दासी द्वारा पानी मंगवाया। उसने वह पानी हल्का, मधुर तथा शीतल ओर सुगंधित हो ऐसा आदेश दिया। यह सुनकर वैतालिक मागध ने कहा- 'हे देव, आपके मुख में सरस्वती ( देवी, नदी) का नित्य वास है। आपके शौर्य की याद दिलाता है समुद्र जो अंगूठी से युक्त है। वाहिनी ( सेना, नदी) आपके पार्श्व में नित्य उपस्थित है। आपका मानस (चित्त, सरोवर) स्वच्छ है 1 इतना होते हुए आपको पानी पीने की इच्छा कैसे हुई। विक्रमार्क ने इस उक्ति पर प्रसन्न होकर उस वैतालिक को प्रभूत सुवर्ण, मोती, एक करोड़ घोड़े, पचास हाथी, सौ वारांगनाएं आदि, जो पाण्ड्य राजा से यौतक में प्राप्त हुआ था, इनाम दे दिया।
यह विक्रमार्क की दान सीमा पढकर भोज का गर्व निरस्त हुआ। भोजकथा - 3 धारा के सिंधुल राजा को वृद्धावस्था में भोज नामक पुत्र हुआ। सिंधुल ने वृद्धावस्था के कारण राज्य का भार दूसरों को सौपने का विचार किया। छोटा भाई मुंज बडा शक्तिशाली था तथा भोज पांच वर्ष का बालक था। इस
संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड / 401
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