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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir आकष्टशक्तिश्च मही तथा यत् । स्वस्थं गुरु स्वाभिमुखं स्वशक्त्या। न करने वालों की निंदा है। आकृष्यते तत् पततीव भाति । समे समन्तात् क्व पतत्विदं च ।। एक ऋचा इस प्रकार है - अर्थ- पृथ्वी में आकर्षण-शक्ति है। इस शक्ति से वह स इद् भोजो यो गृहवे ददात्यत्रकामाय चरते कृशाय। आकाश की जड वस्तयें अपनी और खींचती है। वह (पृथ्वी) अरमस्मे भवति यामहूता उतापरीषु कृणुते सखायम् ।। गिर रही है ऐसा भ्रम होता है, परंतु वह गिरती नहीं, क्यों (ऋ 10-17-3) कि चारों ओर समानरूप से विद्यमान अवकाश में वह कहां जायेगी। अर्थ- द्वार पर आये हुए क्षुधाग्रस्त तथा निर्धन अतिथि सर्यग्रहण तथा चंद्रग्रहण के कारण तथा पृथ्वी के चारों को अन्नदान करनेवाले व्यक्ति के शत्र भी मित्र बनते हैं तथा ओर वायुमंडल की ऊंचाई आदि वैज्ञानिक तथ्य भी इन्हें ज्ञात थे। उन्हें अन्न-फल प्राप्त होता है।। वायुमण्डल के संबंध में इन्होंने कहा है भिडे न. ना. - पुणे- निवासी। रचना- कर्मतत्त्वम्। छात्रों में "भूमेर्बहिर्द्वादश योजनानि। भूवायुरत्राम्बुदविद्युदाद्यम्"।। सरल सुबोध संस्कृत लेखन का प्रसार करने हेतु मैसूर वि.वि. अर्थ- पृथ्वी के पृष्ठभाग से 12 योजन (96 मील) तक। के नवीनम् रामानुजाचार्य द्वारा हर तीसरे वर्ष जो संस्कृत निबंध भूवायु है। उस वायुमंडल में बादल, बिजली आदि नैसर्गिक स्पार्धा आयोजित की जाती थी, उसमें प्रथम पुरस्कार सन् घटनाएं होती हैं। 1944 में प्राप्त किया। तदनंतर यह रचना मैसूर वि.वि. से ___ अंकगणित, बीजगणित तथा रेखागणित के मौलिक सिद्धांत प्रकाशित हुई। इन का अन्य निबंध "किं राष्ट्र कश्च राष्ट्रियः" इन्होंने ही सर्वप्रथम विश्व को दिये हैं। गणितशास्त्र का इतिहास हिंदुत्ववादी दृष्टिकोण से लिखा हुआ है। लिखने वाले विद्वानों के मतानुसार लाग्रांज नामक पाश्चात्य भिषग् आथर्वण - एक सूक्तद्रष्टा। ऋग्वेद के दसवें मंडल गणितशास्त्रज्ञ के पूर्व विश्व में भास्कराचार्य की बराबरी का के 97 वें सूक्त के रचयिता। सूक्त अनुष्टुप् छंद में है। अन्य गणितशास्त्री नहीं था। फलित-ज्योतिष पर इनके ग्रंथ औषधियों की प्रशंसा इसकी विषयवस्तु है। सूक्त की एक प्राप्त नहीं होते किंतु मुहूर्त- चिंतामणि की पीयूषधारा नामक ऋचा इस प्रकार हैटीका में इनके फलित-ज्योतिष-विषयक श्लोक प्राप्त होते हैं। शतं वो अम्ब धामानि सहस्रमुत वो रुहः । सिद्धांतशिरोमणि के प्रथम अध्याय का नाम लीलावती है। अधा शतक्रत्वो यूयमिमं मे अगदं कृत।। उसके संबंध में एक किंवदंती इस प्रकार है - अर्थ- शतावधि मर्मस्थानों और सहस्रावधि अंकुरों से युक्त, भास्कराचार्य ज्योतिषशास्त्र के ज्ञाता थे। उन्हें लीलावती शतकार्यकारी तथा मातृभूत औषधियों, मुझे स्वस्थ रखो। नामक एक कन्या थी। उसकी जन्म-पत्रिका से उन्हें ज्ञात हुआ। भीमसेन - ई. 7 वीं शती के पूर्व। पाणिनीय धातुपाठ का कि उसके भाग्य में वैधक्य-योग है परंतु यदि एक विशिष्ट अर्थनिर्देश करने वाले वैयाकरण । गणनसूरि, सर्वानन्द, मैत्रेयरक्षित मुहूर्त पर विवाह- विधि हुआ तो वह दुर्भाग्य टल सकता है जैसे लेखकों ने भीमसेन के वचन यत्र तत्र उद्धृत किये हैं। यह भी उन्हें ग्रह-गणना से ज्ञात था। उस विशिष्ट मुहूर्त पर कुछ विद्वानों का मत है कि भीमसेन ने पाणिनीय धातुपाठ विवाह-विधि संपन्न हो, इस दृष्टि से उन्होंने व्यवस्था की। उन पर का कोई व्याख्या लिखी थी। दिनों घटिकापात्र से मुहूर्त जाना जाता था। गौरीहरपूजा के भुवनानन्द - ई. 14 शती। "कविकण्ठाभरण' उपाधि सम्मानित । लिये लीलावती को बिठाया गया तथा घटिकापात्र की ओर ध्यान देने की उसे सूचना दी गयी। घटिकापात्र जल में ठीक विश्वप्रदीप ग्रंथ के लेखक। विषय - संगीत । प्रकार से डूबता है या नहीं इसकी प्रतीक्षा करती हुई लीलावती भूतविद् आत्रेय - ऋग्वेद के पांचवें मंडल के 62 वें सूक्त बैठी रही। दुर्भाग्य से उसके माथे की कुंकुम-अक्षत का दाना के दृष्टा। सूक्त का विषय है मित्रावरुण की स्तुति. घटिकापात्र में गिर पडा तथा उसकी पेंदी का सूक्ष्म छिद्र बंद भूदेव मुखोपाध्याय - ई. 19 वीं शती। "रस-जलनिधि" हो गया। इससे घटिकापात्र में पानी भरने की क्रिया विलंब के कर्ता। से हुई। फलस्वरूप इष्ट विवाह-मुहूर्त टल गया। इस प्रकार भूदेव शुक्ल - संभवतः सत्रहवीं शती के कवि। जन्मभूमि विधि-विधान अटल सिद्ध हुआ तथा लीलावती विधवा हुई। जम्बूसर (जम्मू)। पिता- शुकदेव पंडित। कृतियां-धर्मविजयउस अवस्था में वह अपने पिता के घर लौट आयी। उसका नाटकम् और रसविलास प्रबन्धः। अप्रसिद्ध शब्दों का प्रयोग समय ज्ञान-साधना में व्यतीत हो इस उद्देश्य से भास्कराचार्य इनकी रचनाओं में अधिक है। ने उसे जो गणितशास्त्रज्ञ सिखाया, वही सिद्धांत शिरोमणि के भूपाल - ग्रंथ जिनचतुर्विंशतिका स्तोत्र (26 पद्य)। इस पर लीलावती अध्याय में ग्रथित हुआ है। प्राचीन टीका पं. आशाधर की है। इसके बाद म. श्रीचन्द्र भिक्षु आंगिरस - ऋग्वेद के दसवें मंडल के 117 वें सूक्त और नागचन्द की भी टीकाएं उपलब्ध हैं। उत्तरपुराण (गुणभद्रकृत) के रचयिता। इस सूक्त में अन्नदान की प्रशंसा तथा अन्नदान के एक पद्य से इस स्तवन के एक पद्य का साम्य देखते 400 / संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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