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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir चलता। नाटकों में उत्तर भारत के स्थलों तथा रीति-रिवाजों का अधिक वर्णन है जो इनके उत्तर भारत के निवासी होने का प्रमाण है। राजप्रासाद, अंतःपुर, मंत्रिमंडल, सेना, द्वंद्वयुद्ध आदि इनके नाटकों के वर्णित विषयों से अनुमान निकलता है कि इनका राजघरानों से विशेष संपर्क रहा हो। उनके प्रत्येक नाटक के भरतवाक्य में 'राजसिंहः प्रशास्तु नः' (हमारा राजसिंह प्रशासक रहे) यह चरण आता है। इससे प्रतीत होता है कि इन्हें किसी राजसिंह नामक राजा का आश्रय प्राप्त हुआ था। भासर्वज्ञ - ई. 9 वीं शती का उत्तरार्ध। काश्मीर के निवासी। इन्होने 'न्यायसार' नामक ग्रंथ की रचना की। उसमें स्वार्थ व परार्थ अनुमान, पक्षाभास, दृष्टांताभास, मुक्ति आदि का विवेचन किया गया है। भासर्वज्ञ की ये सभी कल्पनाएं न्याय-जगत् में अपूर्व मानी जाती हैं। अन्य नैयायिकों के विपरीत, इन्होंने प्रमाण के 3 ही भेद माने हैं- प्रत्यक्ष, अनुमान और आगम । इनके न्यायसार ग्रंथ पर 10 टीकाएं लिखी गई हैं। भास्कर - 'भास्कर-भाष्य' के प्रणेता। भेदाभेदवादी। आचार्य शंकरोत्तर युग के वेदांताचायों में इनका नाम प्रमुख है। रामानुज ने अपने 'वेदार्थसंग्रह' में, उदयनाचार्य (984 ई.) ने 'न्याय-कुसुमांजलि' में और वाचस्पति ने 'भामती' में इनके मत का खंडन किया है। अतः इनका समय 8 वां शतक मानना चाहिये। इनके मतानुसार ब्रह्म, सगुण, सल्लक्षण, बोधलक्षण और सत्य- ज्ञान-अनंत लक्षण है। चैतन्य तथा रूपांतररहित अद्वितीय है। ब्रह्म, कारण-रूप में निराकार तथा कार्य-रूप में जीव-रूप और प्रपंचमय है। ब्रह्म की दो शक्तियां, भोग्य-शक्ति तथा भोक्तृ-शक्ति होती हैं (भास्कर भाष्य, 2-1-27)। भोग्य-शक्ति ही आकाशादि अचेतन जगत्-रूप में परिणत होती हैं। भोक्तशक्ति, चेतन जीव-रूप में विद्यमान रहती है। ब्रह्म की शक्तियां पारमार्थिक हैं। वह सर्वज्ञ तथा समग्र शक्तियों से संपन्न है (भा.भा. 2-1-24)। __ भास्करजी, ब्रह्म का परिणाम स्वाभाविक मानते हैं। जिस । प्रकार सूर्य अपनी रश्मियों का विक्षेप करता है, उसी प्रकार ब्रह्म अपनी अनंत और अचिंत्य शक्तियों का विक्षेप करता है। ___ यह जीव, ब्रह्म से अभिन्न है तथा भिन्न भी। इन दोनों में अभेद रूप स्वाभाविक है, भेद उपाधिजन्य है। ____ मुक्ति के लिये भास्कर, ज्ञान-कर्म-समुच्चयवाद को मानते हैं। उनके मतानुसार शुष्क ज्ञान से मोक्ष का उदय नहीं होता, कर्म-संवलित ज्ञान से होता है। उपासना या योगाभ्यास के बिना अपरोक्ष ज्ञान का लाभ नहीं होता। श्री. भास्कर को सद्योमुक्ति और क्रममुक्ति दोनों ही अभीष्ट हैं। भास्कर - जन्म- 1805 ई., मृत्यु 1837 ई.। जन्मग्रामशोरनूर । नम्मूतिरिवंशीय। कालीकट के राजा विक्रमदेव तथा कोचीन के महाराज द्वारा सम्मानित। वेदान्त का अध्ययन त्रिपुणैथुरै में तथा व्याकरण का कूटल्लूर में। केवल 16 वर्ष की आयु में शृंगारलीला-तिलक-भाण की रचना की। भास्कर - रचना- शाहजी-प्रशस्तिः। इस काव्य में तंजौरनरेश शाहजी भोसले की स्तुति है। इन्हें राजा ने 40 घरों वाला एक ग्राम इनाम में दिया था। कवि ने वे सभी घर शिष्यों को दिये। भास्करनन्दी - सर्वसाधु के प्रशिष्य और जिनचन्द्र के शिष्य । समय- 14-15 वीं शती। दाक्षिणात्य । ग्रंथ-तत्त्वार्थसूत्रवृत्ति पर सुबोध टीका तथा ध्यानस्तव। प्रथम ग्रंथ डड्ढा के पंचसंग्रह से प्रभावित है और द्वितीय ग्रंथ पर तत्त्वानुशासनादि का प्रभाव दिखाई देता है। भास्करभट्ट - ई. 15 वीं शती। इन्होंने यजुर्वेद की तैत्तिरीय संहिता पर ज्ञानयज्ञ नामक भाष्य लिखा है। इसमें इन्होंने वेदमंत्रों का अर्थ यज्ञपरक लगाने के साथ ही उनका आध्यात्मिक अर्थ भी विशद किया है और पाणिनि के सूत्रों के आधार पर अनेक शब्दों की व्युत्पत्ति बतलायी है। वैदिक साहित्य में यह ग्रंथ अत्यंत महत्त्वपूर्ण है। भास्करयज्वा - ई. 16 वीं शती का पूर्वार्ध। पिता- महाकवि शिवसूर्य, जो पाण्ड्य राजा हालघट्टि के कुलगुरु थे। ये परम शैव तथा श्रोत्रियों में अग्रगण्य थे। रचना- वल्लीपरिणय (नाटक)। भास्करराय - ई. 18 वीं शती। एक मीमांसक तथा तंत्रशास्त्रज्ञ । इन्होंने वादकुतूहल तथा भाट्टजीविका दो ग्रंथ मीमांसा विषयक, तथा सेतुबंध और सौभाग्य-भास्कर (तंत्र-विषयक) ग्रंथ लिखे हैं। सेतुबंध में नित्याषोडशिकार्णव तंत्र का भाष्य है तथा सौभाग्यभास्कर ललिता-सहस्रनाम की व्याख्या है। भास्कराचार्य - वरदगुरु के वंशज। चिंगलपेट जिले के निवासी। समय- संभवतः ई. 18 वीं शती। रचनासाहित्य-कल्लोलिनी। भास्कराचार्य - समय- 1157 से 1223 ई.। एक महान् ज्योतिषशास्त्रज्ञ। मराठी ज्ञानकोशकार डा. केतकर के अनुसार ये सह्याद्रि पर्वत के निकटवर्ती विज्जलवीड (जि. जलगांव, महाराष्ट्र) नामक ग्राम के निवासी थे। अन्य एक विद्वान् के मतानुसार ये मराठवाडा के बीड नामक नगर के निवासी थे। गोत्र-शांडिल्य। पिता-महेश्वर उपाध्याय जो इनके गुरु भी थे। इन्होंने गणित तथा ज्योतिषशास्त्र पर सिद्धान्तशिरोमणि, करणकुतूहल, वासना-भाष्य, बीजगणित, सर्वतोभद्र नामक ग्रंथ लिखे हैं। सिद्धांतशिरोमणि तथा करणकुतूहल दोनों ज्योतिर्गणित विषयक ग्रंथ हैं। वासनाभाष्य, सिद्धांत- शिरोमणि के ग्रहगणित तथा गोलाध्याय पर भास्कराचार्य के स्वकृत टीकाग्रंथ भी हैं। पृथ्वी गोल है तथा वह अपने चारों और घूमती है यह भास्कराचार्य को ज्ञात था। गुरुत्वाकर्षण का सिद्धान्त भी उन्हें ज्ञात था जो इन्होंने इस प्रकार व्यक्त किया है - संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 399 For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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