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इनके कथनानुसार देवताओं के लिये किये जाने वाले यज्ञ में दी जाने वाली दक्षिणा में दैवी प्रवृत्ति की पूर्णता होती है।
दक्षिणा के कारण प्राप्त होने वाली अनेक बातें आपने निम्न ऋचा में बताई हैं
दक्षिणावान् प्रथमो हूत एति दक्षिणावान् ग्रामीणरग्रमेंति । तमेव मन्ये नृपतिं जनानां यः प्रथमो दक्षिणामाविवाय ।।
(ऋ. 10-107-5) अर्थ- जो दक्षिणा देता है, उसी का नाम (लोगों के मुखों पर) प्रथम आता है। जो दक्षिणा अर्पण करता है, वही अपने गावं में नेता कहला कर श्रेष्ठ पदवी प्राप्त करता है। सर्वप्रथम व भरपूर दक्षिणा देने वाले पुरुष को ही में जनता का राजा मानता हूं।
इस सूक्त के अंत में दानमाहात्म्य का वर्णन भी है। दीक्षित राजचूडामणि (यज्ञनारायण)- ई. 17 वीं शती। इन्हें यज्ञनारायण के नाम से पहचाना जाता है। इन्होंने तीन ग्रंथों की रचना की है- जैमिनिसूत्र पर तंत्ररक्षणामणि नामक टीका, कपूरवातिक और जमिनि के संकर्षणकांड (या देवता कांड) पर संकर्षण न्यायमुक्तावलि नामक टीका। इन्होंने एक संस्कृत नाटिका भी लिखी है। दीक्षित समरपुंगव- ई. 17 वीं शती। रचना-तीर्थयात्रा-प्रंबध (अनेक तीर्थक्षेत्रों तथा मन्दिरों का काल्पनिक वर्णन इसमें है)। दीनद्विज- ई. 19 वीं शती का प्रथम चरण। असम-निवासी। सन्दिकेवंशीय राजा बरफुकन द्वारा सम्मानित । "शंखचूडवध' नामक आंकिया नाटक के रचयिता । रचनाकाल- सन् 1803 ई.। दीर्घतमा- ऋग्वेद के प्रथम मंडल के 140 से 164 तक के 25 सूक्तों के आप द्रष्टा हैं। आंगिरस गोत्र के दीघतर्मा, उतथ्य व ममता के पुत्र थे। अपने चाचा बृहस्पति के शाप से वे जन्मांध थे। तद्विषयक एक कथा बृहदेवता में मिलती है। माता के गर्भ में ही उन्हें संपूर्ण वेदविद्या अवगत हो चुकी थी। उन्होंने अग्नि की प्रार्थना की और उसकी कृपा से उन्हें दृष्टि प्राप्त हुई। ___ इनकी पत्नी का नाम था प्रद्वेषी। उससे इन्हें गौतम प्रभृति अनेक पुत्र हुए। किन्तु अपने कुल के अत्यधिक विस्तार हेतु इन्होंने गोरतिविद्या प्राप्त की, और वे लोगों के सामने स्त्री-समागम करने लगे। तब प्रद्वेषी दूसरा पति करने के लिये उद्युक्त हुई। यह देख उन्होंने मर्यादा डाल दी कि “स्त्री को यावज्जन्म एक ही पति होना चाहिये"।
फिर वे पुरोहित बने। उन्होंने यमुना के किनारे भरत दौष्यंति को ऐंद्र महाभिषेक किया था। लोकमान्य तिलक ने “दीर्घतमा' शब्द का ज्योतिर्विषयक अर्थ लगाया है- दीर्घ दिवसोपरांत अस्त होने वाला सूर्य। ऋषि दीर्घतमा का ऋग्वेद का सूक्त (1.164), "अस्य वामीय सूक्त" के नाम से प्रसिद्ध है। तत्त्वज्ञान की दृष्टि से तो यह सूक्त बडा ही महत्त्वपूर्ण हैं।
उसकी निम्न ऋचाएं प्रसिध्द हैं
द्वा सुपर्णा सयुजा सखाया समानं वृक्षं परिषस्वजाते। तयोरन्यः पिप्पलं स्वाद्वत्यनश्नन्नन्यो अभिचाकशीति ।।
___ (ऋ. 1. 164. 20) वेदांतियों के अनुसार इस ऋचा में जीवात्मा और परमात्मा का आलंकारिक वर्णन है। इसमें पिप्पल (फल) खाने वाला अर्थात् विषयोपभोग करने वाला है जीवात्मा, और निरासक्त रह कर किसी भी प्रकार का भोग न करते हुए केवल साक्षित्व से रहनेवाला है परमात्मा।
दीर्घतमा ने वेदों की स्तुति निम्नप्रकार की हैऋचो अक्षरे परमे व्योमन् यस्मिन् देवा अधि विश्वे निषेदुः । यस्तन वेद किमृचा करिष्यति
य इत्तद् विदुस्त इमे समासते ।। (ऋ. 1.164.39) ___ अर्थ- ऋचाएं, अक्षर अविनाशी अत्युच्च स्वर्लोक में रहती हैं, जहां सभी देवों ने वास किया है। इस बात को जो व्यक्ति समझ नहीं पाता उसे वेदों का भी क्या उपयोग। जिन्हें यह अर्थ समझा वे सब एकत्रिक (सामंजस्यपूर्वक).रहा करते है।
डॉ. सम्पूर्णानंद के अनुसार अपनी परावलंबिता तथा अन्य कटु अनुभवो का विचार करने से दीर्घतमा के अंतकरण में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। भोगों से परावृत्त होकर वे आत्मस्वरूप का चिंतन करने लगे और अंततः निर्विकल्प समाधि तक पहुंचे। डा. वासुदेवशरण अग्रवाल के अनुसार दीर्घतमा है दीर्घकालीन अंधकार अर्थात् विश्वोत्पत्ति के रहस्य को सुलझाने का प्रयत्न करनेवाले एक तत्त्वचिंतक ऋषि का उपनाम। दृष्य जगत् का वैज्ञानिक एवं दार्शनिक दृष्टिकोण से अर्थ लगानेवाले प्रथम द्रष्टा थे ये दीर्घतमा ऋषि । दुःखभंजन- 18 वीं शती में वाराणसी के निवासी। रचनाचन्द्रशेखरचरितम्। दुर्गाचार्य- यास्काचार्य के निरुक्त पर लिखी गई उपलब्ध टीकाओं में दुर्गाचार्य की टीका सर्वाधिक प्राचीन और महत्त्वपूर्ण मानी जाती है। किन्तु जैसा कि दुर्गाचार्य की टीका से विदित होता है, इससे पूर्व भी कुछ आचार्यों ने निरुक्त पर टीकाएं लिखीं थीं। दुर्गाचार्य ने अपनी टीका में अपने विवेचन के समर्थनार्थ उन पूर्वाचार्यों के वचनों को उद्धृत किया है। कतिपय ग्रंथों के अनुसार आप जंबुमार्गस्थित आश्रम में रहते थे। किन्तु इस स्थान का पता नहीं चलता। डा. लक्ष्मण-स्वरूप के मतानुसार यह स्थान काश्मीर में होगा। इसके विपरीत पं. भगवद्दत्त, दुर्गाचार्य को गुजरात के निवासी मानते हैं। दुर्गाचार्य की टीका में मैत्रायणी संहिता के अनेक उद्धरण हैं और प्राचीन काल में यह संहिता गुजरात ही में अधिक प्रचलित थी। यही है भगवद्दत्त की उक्त मान्यता का आधार ।
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड/337
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