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दुर्गाचार्य लिखित निरुक्त टीका की उपलब्ध प्राचीन हस्तलिखित प्रति सन् 1387 के आसपास की है। तदनुसार दुर्गाचार्य 14 वीं शताब्दी के होने चाहिये। किंतु वै. का. राजवाडे दुर्गाचार्य को 10 वीं अथवा 11 वीं शताब्दी के मानते हैं। उद्गीथाचार्य प्रभूति वेदभाष्यकारों ने पर्याप्त स्थलों में दुर्गाचार्य को प्रमाण माना है उससे दुर्गाचार्य की प्राचीनता और श्रेष्ठता स्पष्ट होती है।
इनका नाम भगवद् दुर्गासिंह था। भगवद् उपाधि से वे विशिष्ट श्रेणी के संन्यासी होंगे ऐसा अनुमान है।
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अपने निजी कापिष्ठल वसिष्ठ गोत्र का वे निर्देश करते हैं। संन्यासी रहते हुए अपने गोत्र का निर्देश उन्होंने क्यों किया यह चिंता का विषय हैं। अनेक पूर्ववर्ती ग्रंथों से उन्होंने उद्धरण लिए जिनका मूल अभी अज्ञात है। इससे दुर्गाचार्य के पाण्डित्य की गहराई स्पष्ट होती है।
"ईदृशेषु शब्दार्थन्यायसंक्टेषु मन्त्रार्थघटनेषु दुरवबोधेषु मतिमतां मतयो न प्रतिहन्यन्ते । वयं त्वेतावदत्रावबुध्यामहे इति ।"
(ऐसे कठिन मन्त्रों के व्याख्यान में विद्वानों की बुद्धियां नहीं रुकती । हम तो यहां इतना ही जानते हैं) । यह उद्गार दुर्गाचार्यजी की प्रगल्भता और विनय का द्योतक है। दुर्गाचार्य की निरुक्त-वृत्ति के अनेक संस्करण निकले है। इससे भी ग्रंथ और ग्रंथकार का प्रामाण्य स्पष्ट होता है । दुर्गादत्तशास्त्री - ई. 20 वीं सदी हिमाचल प्रदेश के कांगडा जिले के अन्तर्गत नलेटी जैसे छोटे से गांव में रहते हुए आपने संस्कृत साहित्य की अच्छी सेवा की विद्यालंकार एवं साहित्यरत्न इन उपाधियों से आप विभूषित हैं, और आपको राष्ट्रीय पुरस्कार भी प्राप्त हुआ है। कृतियां (1) राष्ट्रपथप्रदर्शनम् (18 अध्यायों का काव्य), (2) तर्जनी (11 अध्यायों का काव्य), (3) मधुवर्षणम् (7 सर्गो का काव्य), (4) वत्सला (छह अंकों का सामाजिक नाटक) (5) वियोगवल्लरी (गद्य कथा) और (6) तृणजातकम् (सामाजिक लघुनाटक)। इन ग्रंथों के निर्माण से आपने संस्कृत साहित्यिकों में प्रतिष्ठा प्राप्त की है। दुर्गादास ई. 16 वीं शती । प्रकाण्ड नैयायिक वासुदेव सार्वभौम विद्यावागीश के पुत्र । कुलनाम- गांगुली । कृतियांसुबोधा ( व्याकरण ग्रंथ ) यह मुग्धबोध की टीका है। दुर्गाप्रसन्न देवशर्मा विद्याभूषण ई. 20 वीं शती । कुलनामभट्टाचार्य गुरु- कालीपद तर्काचार्य पिता- विद्वचन्द्रकिशोर वाचस्पति । "एकलव्य-गुरुदक्षिणा" नामक नाटक के प्रणेता । दुर्गाप्रसाद त्रिपाठी समय- ई. 19 वीं शती । निवासस्थानएकडलाग्राम पिता- कोदीराम। गुरु-छोटक मिश्र । कुलपति के नाते दुर्गाप्रसादजी ने सैकडों छात्रों का अध्यापन किया था। काशिकासार- टीका, शब्देन्दुशेखर- टीका, बलभद्रीय सारस्वतटीका, रसमंजरीटीका और रासपंचाध्यायी टीका नामक टीकाग्रंथ और
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338 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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पुराणपरिमल, जातकशेखर ( ज्योतिष - ग्रंथ ) तथा प्रतिष्ठाप्रदीप, संस्कारदर्पण और दानचंदिका नामक तीन कर्मकाण्डविषयक आपके ग्रंथ अद्यापि अप्रकाशित है। त्रिविक्रम-कविकृत रामकीर्तिकुमुदमाला नामक खंडकाव्य पर आपकी माधुरी नामक टीका मूल ग्रंथ सहित श्रीचंद्रभानु त्रिपाठी ने इलाहाबाद से प्रकाशित की है।
दुर्मित्र ऋग्वेद के 10 वें मंडल का 105 वां सूक्त इनके नाम पर है। इन्होंने इन्द्र के अश्वों और उसके वज्र की क्षमता का वर्णन किया है। इनके इस सूक्त में निम्न मानसशास्त्रीय विचार प्रस्तुत है
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आ योरिन्द्रः पापज आ मर्तो न शश्रमाणो बिभीवान् । शुभे यद्युयुजे तविषीवान्।। (ऋ. 10-105-3)
अर्थ- जो वासनाएं (वृत्तियां) पातक से उद्भूत होती हैं, उनका नाश इन्द्र करता है क्यों कि मर्त्य (मानव) परिश्रम से कतराने वाला तथा भीरू है किन्तु किसी शुभ कार्य के लिये प्रवृत्त होते ही वही बडा धैर्यशाली बन जावेगा। इस सूक्त के 11 वें मंत्र में दुर्मित्र ने स्वयं को कुत्सपुत्र कहा है । दुवस्यू- ऋग्वेद के दसवें मंडल का 100 वां सूक्त इनके नाम पर है। एक धर्मपरिषदके अवसर पर यज्ञमंडप में इस सूक्त की रचना हुई होगी। इस सूक्त का विषय है इन्द्र, सूर्य, अग्नि, धेनु प्रभृति देवताओं की स्तुति। इस सूक्त की प्रत्येक ऋचा के अंत में "हम स्वतंत्र बने रहें" ऐसी प्रार्थना की गई है किन्तु हम उन्हें अपनी शरण में लाकर ही छोडेंगे" - ऐसा आत्मविष्वास भी अंत में व्यक्त किया गया है। संबंधित सूक्त की एक ऋचा इस प्रकार है
ऊर्ज गावो यवसे पीवो अत्तनत्रतस्य याः सदने कोशे अवे । तनुरेव तन्वो अस्तु भेषजमा सर्वतातिमदितिं वृणीमहे ।। अर्थ- हे धेनुओं, तृणधान्य से परिपूर्ण इस भूमि पर तुम ( चरती हो तब मानों ) ओज और पुष्टि का ही सेवन करती हो तथा सद्धर्म के गृह में वह ओज ( दुग्ध के रूप में) प्रकट करती हो, तो तुम्हारा शरीरजन्य (दुग्ध) हमारे शरीरों के लिये औषधि बने क्यों कि हम यही वरदान मांगते हैं कि हमारा सर्वतोपरि मंगल हो और हम सदा स्वतंत्र बने रहें । स्वातंत्र्य प्रेम इस सूक्त का वैशिष्टय है।
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दृढबल- एक आयुर्वेदाचार्य पिता- कपिलबल तदनुसार इनको कापिलबलि भी कहा जाता था। काश्मीरस्थित पंचनपुर के निवासी। अनुमानतः आपका काल वाग्भट के पहले का ( अर्थात् सन् 300 के आसपास का) माना जाता है क्यों कि वाग्भट और जेज्जट ने आपके वचनों को उद्धृत किया है। ऐसा कहते हैं कि चरकसंहिता का कुछ भाग आपने पूर्ण किया था ।
टूळच्युत वेद के 9वें मंडल के 25 वे सूक्त के दृष्टा ये अगस्त्य कुल के हैं। इन्होंने अपने सूक्त में सौम प्रशस्ति
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