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अनंतार्य - ई. 16 वीं सदी। कर्नाटक में मेलकोटे में निवास । इन्होंने ज्ञानयाथार्थ्यावाद, प्रतिज्ञावादार्थ, ब्रह्मलक्षणनिरूपण आदि ग्रंथों की रचना की है।
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अनन्ताल्वार- इन्होंने रामशास्त्री के शतकोटि का खण्डन करने हेतु न्यायभास्कर की रचना की। इसका खंडन राजशास्त्रीगल ने अपने 'न्यायेन्दुशेखर' में करते हुए शैवाद्वैत मत की स्थापना की। अनादि मिश्र - ई. 18 वीं शती । भारद्वाज गोत्रीय खंडपारा (उत्कल) के राजा नारायण मंगपारा द्वारा सम्मानित । आप अध्यापन भी करते थे पिता शतंजीव (मुदितमाधव गीतिकाव्य के कर्ता) । पितामह - मुकुन्द। इनके एक पूर्वज दिवाकर कविचन्द्र राय ने अनेक ग्रन्थों की रचना की, जिनमें 'प्रभावती' नाटक सुविख्यात है। कृतियां मणिमाला (नाटिका), राससंगोष्ठी (संगीत) और केलिकल्लोलिनी (काव्य) । अनुभूतिस्वरूपाचार्य- एक प्रकाण्ड वैयाकरण। इन्होंने 'सारस्वतप्रक्रिया', 'आख्यातप्रक्रिया' और 'धातुपाठ' नामक ग्रंथों का प्रणयन किया। कहते हैं- इन्हें साक्षात् देवी सरस्वती से व्याकरण का ज्ञान प्राप्त हुआ था। अपने व्याकरण-ग्रंथों का प्रसार करने हेतु वे विव्दन्मण्डली में भाषण देते थे तथा अपना नया व्याकरण प्रस्तुत करते थे ।
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एक समय भाषण करते समय वे गलत प्रयोग कर बैठे। तब विद्वन्मण्डली ने परिहास के साथ उस प्रयोग का आधार बताने के लिये कहा। आचार्य प्रमाद कर चुके थे। अतः आधार बताने में स्वयं को असमर्थ पाकर, 'कल बताऊंगा' ऐसा आश्वासन दिया। बाद में सरस्वती मन्दिर में जाकर उन्होंने देवी की प्रार्थना की। उनकी आराधना से प्रसन्न होकर देवी ने उनका मार्गदर्शन किया। दूसरे दिन विद्वन्मण्डली में उन्होंने अपना उत्तर बताया। उनके बताए समाधान से सब प्रसन्न हुए। अन्नंभट्ट ई. 17 वीं सदी का उत्तरार्ध । 'तर्कसंग्रह' नामक . एक अत्यंत लोकप्रिय ग्रंथ के रचयिता । जन्म- तेलंगणा के गरिकपाद ग्राम में पिता- तिरुमलाचार्य, जिनकी उपाधि अद्वैतविद्याचार्य की थी। अन्नंभट्ट ने काशी में जाकर विद्याध्ययन किया था इन्होंने अनेक दार्शनिक ग्रंथों की टीकाएं लिखी हैं, पर इनकी प्रसिद्धि 'तर्कसंग्रह' के कारण ही है जिसकी 'दीपिका' नामक टीका भी इन्होंने लिखी है। इनके अन्य टीका- ग्रंथों के नाम हैं- राणकोज्जीवनी (न्यायसुधा की विशद टीका), ब्रह्मसूत्रव्याख्या, अष्टाध्यायी टीका, उद्योतन (कैपटप्रदीप पर व्याख्यान ग्रंथ) और सिद्धान्त, जो न्यायशास्त्रीय ग्रंथ अर्था जयदेव विरचित 'मन्यालोक' की टीका है।
इनके 'तर्कसंग्रह' पर 25 टीकाएं तथा दीपिका' पर 10 व्याख्यान प्राप्त होते हैं। इनमें गोवर्धन मिश्र कृत 'न्यायबोधिनी', श्रीकृष्ण धूर्जट दीक्षित-रचित 'सिध्दांत चंद्रोदय, चंद्रजसिंहकृत 'पदकृत्य' तथा नीलकंठ दीक्षित रचित 'नीलकंठ' प्रभुति टीकाएं अत्यंत प्रसिद्ध हैं।
272 / संस्कृत वाङ्मय कोश ग्रंथकार खण्ड
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अन्नदाचरण ठाकुर तर्कचूडामणि- जन्म सन् 1862 में सोमपारा ग्राम (बंगाल), जिला नोआखाली में हुआ था । कलकत्ता और वाराणसी में इन्होंने अध्ययन किया। काशी के विद्वत् समाज ने इन्हें तर्कचूडामणि की उपाधि प्रदान की। ये मीमांसा, सांख्य और योग के ज्ञाता थे। कुछ काल के लिये ये बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में प्राध्यापक रहे। आपने 'सुप्रभातम्' नामक एक पत्रिका का भी कुशल संपादन किया । आप अनेक सरस लघुगीतों के प्रणेता थे। आपकी उल्लेखनीय रचनाएं इस प्रकार हैं: प्रणति, प्रार्थना, आशा, शिशुहास्य, वनविहंगः, निद्रा, तदतीतं, कल्पना आदि लघुगीत, रामाभ्युदयम् और महाप्रस्थानम् (दोनों महाकाव्य), ऋतुचित्रं और काव्यचन्द्रिका (काव्यशास्त्र से संबंधित रचनाएं ) किमेष भेदः (सामाजिक रचना ), तत्त्वसुधा नामक सांख्यकारिका की टीका, न्यायसुधा और वैशेषिकसुधा
अत्रैयाचार्य आपने अपने 'रामानुजविजयम्' नामक काव्य में रामानुजाचार्य का चरित्र प्रथित किया है।
अपराजित सूरि- अपरनाम श्री विजय या विजयाचार्य । यापनीय संघ के जैन आचार्य चन्द्रनन्दि महाकर्म प्रकृत्याचार्य के प्रशिष्य और बलदेव सूरि के शिष्य । समय ई. 9 वीं शताब्दी । रचनाएं - शिवार्य की भगवती आराधना पर विजयोदया नामक बृहत् टीका तथा दशवैकालिक सूत्र पर टीका । अप्पय दीक्षित ई. 17-18 वीं शती । द्रविड ब्राह्मण । पिता नारायण दीक्षित । बारह वर्ष की आयु में पिता के पास अध्ययन पूर्ण । पिता व पितामह अद्वैती होने से आपने अद्वैत मत का प्रसार किया, और श्रीशंकाराचार्य की अद्वैत-परंपरा के सर्वश्रेष्ठ आचार्य बने । शैव होने पर भी अप्पय अनाग्रही थे I
मुरारौ च पुरारौ च न भेदः पारमार्थिकः । तथापि मामकी भक्तिचन्द्र प्रधावति।।
अर्थ- विष्णु व शिव में परमार्थतः भेद नहीं, पर मेरी भक्ति चंद्रशेखर शिव के प्रति ही है।
शैव-सिद्धान्त की स्थापना हेतु आपने शिवार्क-मणिदीपिका, शिवतत्त्वविवेक, शिवकर्णामृत आदि ग्रंथों का प्रणयन किया। शांकरसिद्धान्त में वाचस्पति मिश्र, रामानुजमत में सुदर्शन एवं माध्वमत में जयतीर्थ का जो स्थान है, वही स्थान श्रीकंठ संम्प्रदाय में, 'शिवार्क-मणिदीपिका' की रचना के कारण अप्पय दीक्षित का माना जाता है।
कुवलयानंद, चित्रमीमांसा आदि साहित्यिक ग्रंथों के कर्ता अप्पय दीक्षित, कट्टर शिवभक्त थे। एक समय वे अनवधान से विष्णु मंदिर में गए। वहां विष्णु मूर्ति के सम्मुख ही उन्होंने शिवाराधना शुरू की। शिवभक्ति में वे इतने तल्लीन हो गए कि विष्णुमूर्ति शिवलिंग में परिवर्तित हो गई। दर्शनार्थी लोगों ने यह चमत्कार देखा तथा उन्हें बताया। तब उन्हें सत्य प्रतीत हुआ। फिर उन्होंने विष्णुस्तुति प्रारंभ की तथा उसमें लीन हो
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