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गए। तब थोड़े ही समय में मंदिर में फिर विष्णुमूर्ति विराजमान हुई दिखाई दी। दर्शनार्थी लोग यह देख बड़े आश्चर्यचकित हुए तथा अप्पय दीक्षित के प्रति उनके मन में आदर की वृद्धि हुई।
प्रसिद्ध वैयाकरण, दार्शनिक एवं काव्यशास्त्री अप्पय दीक्षित, संस्कृत के सर्वतंत्रस्वतंत्र विद्वान के रूप में प्रतिष्ठित हैं। इन्होंने विविध विषयों पर 104 ग्रंथों का प्रणयन किया है। ये दक्षिण भारत के निवासी तथा तंजौर के राजा शाहजी भोसले के सभा-पंडित थे। इनके द्वारा रचित प्रमुख ग्रंथों का विवरण इस प्रकार है- (1) अद्वैत वेदांत विषयक 6 ग्रंथ, (2) भक्तिविषयक 26 ग्रंथ, (3) रामानुज-मत-विषयक 5 ग्रंथ, (4) मध्वसिद्धांतानुसारी 2 ग्रंथ, (5) व्याकरणसंबंधी ग्रंथ-नक्षत्रवादावली, (6) पूर्वमीमांसाशास्त्रसंबंधी 2 ग्रंथ, (7) अलंकार-शास्त्र विषयक 3 ग्रंथ-वृत्तिवार्तिक, चित्रमीमांसा तथा कुवलयानंद। इनमें से प्रथम दो ग्रंथ अधूरे रह गए। तीसरा ग्रंथ 'कुवलयानंद', अप्पय दीक्षित की अलंकारविषयक अत्यंत लोकप्रिय रचना है। इसमें शताधिक अलंकारों का निरूपण है। इन ग्रंथों के अतिरिक्त इनके नाम से प्राकृतमणिदीप और वसुमतीचित्रसेनीय नामक दो नाटक भी हैं।
अप्पय के गुणों पर लुब्ध होकर, चंद्रगिरि (आंध्र) के राजा वेंकटपति रायलु ने उनके परिवार एवं विद्यार्थियों के लिये अग्रहार दिया था। दक्षिण की अनेक राजसभाओं में भी उन्हें बिदागी एवं मानसम्मान प्राप्त होता रहा। आपने कावेरी के किनारे अनेक यज्ञ किये। काशी में वास्तव्य किया। वहीं पर पंडितराज जगन्नाथ से भेंट हुई। जगन्नाथ पंडित ने इनकी 'चित्रमीमांसा' का खंडन किया है। दार्शनिक दृष्टि से वे निर्गुणब्रह्मवादी थे पर उस ब्रह्म की उपलब्धि के लिये साधन के रूप में उन्होंने सगुणोपासना स्वीकार की। अप्पय दीक्षित के समय के बारे में विद्वानों में मतभेद है। अप्पय्याचार्य- मृत्यु- ई. 1901 में। रचना-'अनुभवामृतम्' जिसमें सांख्य, योग तथा वेदान्त का समन्वय किया गया है। अप्पा तुलसी (काशीनाथ)- रचनाएं- संगीतसुधाकर, अभिनवतालमंजरी और रागकल्पद्रुमांकुर (ई. 1914)। तीनों ग्रंथ संगीतशास्त्र परक हैं। अप्या दीक्षित - (अपर नाम अप्या शास्त्री अथवा पेरिय अप्पाशास्त्री)। तंजौर के निकट किलयूर अग्रहार के निवासी। कवितार्किक-सार्वभौम की उपाधि से मण्डित । तंजौरनरेश शाहजी (1684-1711 ई.) से समाश्रयप्राप्त कवि। पिता-चिदम्बरेश्वर दीक्षित, जिन्होंने कामदेव नामक विद्वान् को शास्त्रार्थ में जीतने के कारण, तंजौर नरेश से स्वर्ण-शिबिका और एरकरण का अग्रहार पाया था। गुरु-कृष्णानन्द देशिक, पिल्लेशास्त्री और उदयमूर्ति । रचनाएं:- शृंगारमंजरी-शाहराजीय, मदनभूषण (भाण), गौरीमायूर (चम्पू) और आचार-नवनीत । अभयचन्द्र (सिद्धांतचक्रवर्ती)- मूलसंघ देशीयगण,
पुस्तकगच्छ, कुन्दकुन्दान्वय की इंगेलेश्वर शाखा के श्रीसमुदाय में हुए माघनंदि भट्टारक के शिष्य । बालचंन्द्र पण्डितदेव के श्रुतगुरु । समय-ई. 14 वीं शती। कर्नाटकवासी। ग्रंथ-गोम्मट्टसार जीवकाण्ड की मन्दप्रबोधिका टीका तथा कर्मप्रकृति (गद्य)। इस पर अभयचन्द्र के शिष्य केशव ने टीका लिखी है। अभयदेव - ई. 13 वीं शती के एक जैन कवि। इन्होंने 19 सर्गों में 'जयंतविजय' नामक महाकाव्य की रचना की है। इस महाकाव्य में मगध-नरेश जयंत की विजय-गाथा,2,000 श्लोकों में वर्णित है। अभयदेव सूरि- धारनिवासी सेठ धनदेव के पुत्र । प्रारम्भ में चैत्यवासी, पर बाद में सुविहित मार्गी वर्धमान सूरि के प्रशिष्य और जिनेश्वर सूरि के शिष्य। पाटन में स्वर्गवास (वि.सं. 1135)। समय-वि. की 11-12 वीं शती। ग्रंथ- (1) स्थानांगवृत्ति (वि.सं.1120) द्रोणाचार्य के सहयोग से, 14,250 श्लोक प्रमाण। (2) समवायांगवृत्ति (वि.सं. 1120) अनहिलपाटन में समाप्त, 3,575 श्लोक प्रमाण। (3) व्याख्याप्रज्ञावृत्ति (वि.सं. 1128) 18,616 श्लोक प्रमाण । (4) ज्ञाताधर्मकथाविविरण (वि.सं.1120)- 3800 श्लोक प्रमाण । (5) उपासकदशांगवृत्ति, (6) अंतकृद्दशावृत्ति, (7) अनुत्तरोपपातिकदशावृत्ति, (8) प्रश्नव्याकरणवृत्ति, (9) विपाकवृत्ति और (10) औपपातिकवृत्ति। ये सभी वृत्तियां शब्दार्थप्रधान हैं। कहीं-कहीं प्राकृत उध्दरण भी हैं। सांस्कृतिक सामग्री से सभी ओतप्रोत हैं। अभयपण्डित- ई. 17 वीं शती। गुरु-सोमसेन। जैनपंथी। ग्रंथ- 'रविव्रतकक्ष। अभिनंद- 'रामचरित' नामक महाकाव्य के प्रणेता। समय ई. 9 वीं शताब्दी का मध्य। पिता-शतानंद; वे भी कवि थे। इन्होंने अपने आश्रयदाता का नाम श्रीहारवर्ष लिखा है। 'रामचरित' महाकाव्य में किष्किंधाकांड से लेकर युद्धकांड तक की कथा 36 सर्गों में वर्णित की गई है। यह ग्रंथ अधूरा है। इसकी पूर्ति के लिये दो परिशिष्ट (4-4 सों के) है। इनमें से प्रथम परिशिष्ट के रचयिता स्वयं अभिनंद हैं। द्वितीय परिशिष्ट किसी 'कायस्थकुलतिलक' भीम कवि की रचना है। अन्य कृतियां-भीमपराक्रम (नाटक) और योगवासिष्ठ-संक्षेप। अभिनंदन - 'गौड अभिनंद' के नाम से विख्यात काश्मीरी पंडित । समय- ई. 10 वीं शती। इन्होंने 'कादंबरीसार' नामक 10 सर्गों का एक महाकाव्य लिखा है। पिता-प्रसिद्ध नैयायिक जयंत भट्ट । 'कादंबरीसार' में अनुष्टुप् छंद में 'कादंबरी' की कथा संगुंफित की गई है। क्षेमेन्द्र ने इनके अनुष्टप् छंद की प्रशंसा की है। 'कादंबरीसार' का प्रकाशन, काव्यमाला संख्या 11 में मुंबई से हो चुका है। अभिनंद द्वारा प्रणीत एक और ग्रंथ है- 'योगवासिष्ठसार'। अभिनव कालिदास- उत्तरी पेन्तार के किनारे स्थित विद्यानगर
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संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड / 273
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