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________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir के राजा राजशेखर के राजकवि। समय 11 वीं शताब्दी। (तंत्रशास्त्र का ग्रंथ), 3. मालिनीविजयवार्तिक (मालिनीविजयतंत्र इनके द्वारा रचित दो चंपू-काव्य उपलब्ध होते हैं- (1) नामक ग्रंथ का वार्तिक), 4. तंत्रालोक (तंत्रशास्त्र का आकर भागवतचंपू तथा (2) अभिनवभारतचंपू। भागवतचंपू का ग्रंथ) 5-6. तंत्रसार, तंत्रवटधानिका, 7-8. ध्वन्यालोकलोचन प्रकाशन गोपाल नारायण कंपनी, बुक-सेलर्स, कालबादेवी, व अभिनव-भारती (ध्वन्यालोक' व भरत-नाट्य-शास्त्र की मुंबई, से 1929 ई. में हुआ है। द्वितीय ग्रंथ अभी तक टीकाएं), 9. भगवद्गीतार्थसंग्रह (गीता की व्याख्या), 10. अप्रकाशित है। इनकी कविता में उत्तान श्रृंगार का बाहुल्य है परमार्थसार (105 श्लोकों का शैवागम-ग्रंथ) और 11. तथा इनके श्रृंगार-वर्णन पर राज-दरबार की विलासिता का प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी (उत्पलाचार्यकृत ईश्वरप्रत्यभिज्ञासूत्र की टीका । पूर्ण प्रभाव है। यह ग्रंथ 4 हजार श्लोकों का है)। जयरथ ने 'तंत्रालोक' अभिनवगुप्त - भरत कृत नाट्यशास्त्र के प्रणयन के पश्चात् पर 'विवेक' नामक टीका की रचना की है। शताब्दियों तक इस विषय पर जो चिन्तन हुआ, वह लेखबद्ध अभिनवगुप्त के प्रकाशित उक्त 11 व शेष 39 अप्रकाशित रूप में प्रायः अनुपलब्ध है। कवि तथा नाटककार व्यवहार ग्रंथों को 3 वर्गों में विभक्त किया जा सकता है- दार्शनिक, में नाट्यसिद्धान्तों का अनुसरण करते रहे तथा प्रसंगवश किसी साहित्यिक और तांत्रिक। इनकी लेखन-साधना की अवधि, शास्त्रीय विषय पर अभिमत भी प्रकट करते रहे। इस 980 ई. से लेकर 1020 ई. तक सिद्ध होती है। आप चिन्तन-परम्परा का परिचय, आचार्य अभिनवगुप्त की। उच्चकोटि के कवि, महान् दार्शनिक एवं साहित्य-समीक्षक हैं। 'अभिनवभारती' नामक नाट्यशास्त्र की टीका से मिलता है। इन्होंने रस को काव्य में प्रमुख स्थान देकर उसकी महत्ता अपने विषयगत मौलिक विवेचन के कारण, उनके द्वारा व्याख्यात प्रतिपादित की है। इनका रसविषयक सिद्धान्त, 'अभिव्यक्तिवाद' तथा निर्णीत सिद्धान्तों को प्रमाणभूत समझा जाता है। नाट्य कहा जाता है जो मनोवैज्ञानिक भित्ति पर आधारित है। इन्होंने तथा काव्यशास्त्र के परवर्ती चिंतक इनके ऋणी हैं। आचार्य व्यंग-रस को काव्य की आत्मा माना है। अभिनवगुप्त, काश्मीरीय अभिनवगुप्त का समय 950 ई. से 1030 ई. है। प्रत्यभिज्ञार्शन के महान् आचार्य हैं। अपने 'प्रत्यभिज्ञाविमर्शिनी' इनका वंश शिव-भक्ति के लिए प्रसिद्ध था। वे नामक ग्रंथ में, इन्होंने अपने वंश का वर्णन किया है। शैव-प्रत्यभिज्ञादर्शन के सिद्ध तथा मान्य आचार्य थे। उनका शंकराचार्य से उनका वादविवाद हुआ, तथा आचार्य द्वारा हराये सारा चिंतन इसी दर्शन से प्रभावित है। वे नाट्यशास्त्र के 36 गए गुप्तजी उनके शिष्य हुए ऐसी भी एक कथा प्रचलित है अध्यायों की संगति, शैव दर्शन के 36 तत्त्वों से बिठलाते पर उनका शिष्यत्व ऊपरी दिखावा मात्र था। हृदय में वे हैं। उनकी अधिकांश रचनाएं उक्त दर्शन की विविध शाखाओं आचार्य से बडे अप्रसन्न थे, तथा अपनी हार का बदला लेना पर हैं। साहित्यशास्त्र के क्षेत्र में ध्वन्यालोकलोचन तथा चाहते थे। तब जारणमारणादि उपाय से उन्होंने शंकराचार्य को अभिनवभारती नामक दो टीका-ग्रंथों के आधार पर ही वे भगंदर से पीडित किया, आचार्य बड़े त्रस्त हुए। रोग ने हटने आचार्य-पद पर अभिषिक्त हुए। वे प्राचीन परम्परा को उसके का नाम नहीं लिया। सब शिष्यगण भी दुःखित हुए। अन्त मूलभूत प्रमाणित रूप में जानते थे, जब कि परवर्ती आचार्य में इन्द्र द्वारा प्रेरित अश्विनीकुमार प्रकट हुए, तथा उन्होंने इस इन परंपराओं का अधिकांश अभिनवगुप्त के उद्धरणों से जानते रोग का भेद बतलाया। आचार्य के शिष्यों ने देववैद्यों द्वारा है। नाट्य के प्राणभूत तत्त्व 'रस' के पारंपारिक विवेचन की बताए हुए मांत्रिक उपाय से रोग हटाया। रोग के दूर होते समीक्षा के उपरान्त अभिनवगुप्त ने ही इसके तात्त्विक स्वरूप ही अभिनवगुप्त की तत्काल मृत्यु हो गई। को स्पष्टतापूर्वक उद्घाटित तथा प्रतिष्ठित किया। अभिनव चारुकीर्ति पण्डिताचार्य- देशीगण के जैन आचार्य । आचार्य अभिनव गुप्त के कथन से ज्ञात होता है कि बेलुगुलुपुर के निवासी। नैयायिक और तार्किक। इंगुलेश्वर बलि इनके पूर्वज अंतर्वेद (दोआब) के निवासी थे, किंतु बाद में के आचार्य। श्रवणबेलगोल पट्ट पर आसीन । जन्म-दक्षिण काश्मीर में जाकर बस गए। पिता-नृसिंह गुप्त । पितामह-वाराह भारत के सिंहपुर में। गंगवंश के राजपुत्र देवराज द्वारा सम्मानित गुप्त। पिता का अन्य नाम 'चुखल', और माता का विमला (शक सं. 1416 ई. सन् 1564)। रचनाएं 1. गीतवीतराग या विमलकला। ब्राह्मण-कल। आपने अपने 13 गुरुओं का ___(24 प्रबंध)। 2. प्रमेयरत्नमालालंकार (नव्यन्याय शैली में विवरण प्रस्तुत किया है जिनमें प्रसिद्ध हैं- नृसिंहगुप्त (इनके लिखी प्रमेयरत्नमाला की टीका)। पिता), व्योमनाथ, भूतिराजतनय, इन्दुराज, भूतिराज और भट्टतौत। अभिनव रामानुजाचार्य- कार्बेट-निवासी वादिभास्कर-वंशीय । आप परम शिवभक्त तथा आजीवन ब्रह्मचारी थे। पिता-वेंकटराय। इनके द्वारा रचित महाकाव्य ___ इन्होंने अनेक विषयों पर 41 ग्रंथों का प्रणयन किया है। 'श्रीनिवास-गुणाकार-काव्यम्' में 17 सर्ग हैं। प्रथम आठ सर्गों उनमें से प्रकाशित 11 ग्रंथों के नाम हैं- 1. बोधपंचदशिका। की टीका कवि ने स्वयं लिखी तथा शेष सर्गों की इनके बन्धु (शिवभक्तिविषयक 15 श्लोक), 2. परात्रिंशिंका-विवरण वरदराज ने। 274/ संस्कृत वाङ्मय कोश - ग्रंथकार खण्ड For Private and Personal Use Only
SR No.020649
Book TitleSanskrit Vangamay Kosh Part 01
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreedhar Bhaskar Varneakr
PublisherBharatiya Bhasha Parishad
Publication Year1988
Total Pages591
LanguageSanskrit
ClassificationDictionary
File Size23 MB
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